नन्दू वापिस युवराज होटल पहुंचा।

होटल का हाल उस घड़ी लगभग खाली था। कोने की एक मेज पर दीवार की ओर मुंह किये एक व्यक्ति बैठा था जो कि पाइप के कश लगाता चाय चुसक रहा था।

नन्दू उसके करीब पहुंचा।

विमल ने सिर उठाया, उसने एक निगाह नन्दू के दमकते चेहरे पर डाली और फिर बोला — “क्या हुआ?”

“सब बढ़‍िया हुआ, साहब।” — नन्दू बोला — “मैं ऐन वही बोला जो आप बोले कि मैं बोलूं।”

“गुड!”

“वो लंगड़ा बहुत तड़पा, साहब, बहुत चीखा चिल्लाया लेकिन पुलिस के बड़े साहब ने मेरी ही बात पर एतबार किया।”

“बेटा, पुलिस वाले बड़े जालिम होते हैं। सख्ती पर उतर आयें तो बहुत जुल्म ढाते हैं। इसलिये अब अपने बयान से मुकरा तो नतीजा बहुत बुरा होगा तेरे लिये।”

“मैं नहीं मुकरने वाला। मैं नहीं हिलने वाला अपने बयान से।”

“पक्की बात?”

“हां, साहब। जो बोल दिया सो बोल दिया।”

“गुड। चाय बहुत उम्दा पिलाई तुमने।” — विमल ने एक पांच सौ का नोट उसकी तरफ बढाया — “शुक्रिया।”

“साहब” — नन्दू विस्फारित नेत्रों से बोला — “एक बड़े वाला गांधी तो आप मुझे पहले ही दे चुके हैं!”

“वो तुम्हारे सहयोग का इनाम था” — विमल मुस्कराता हुआ बोला — “ये उम्दा चाय की कीमत है।”

“शुक्रिया, साहब” — नन्दू विमल के घुटने छूता बोला — “शुक्रिया।”

“जीता रह, बेटा।”

विमल अपने स्थान से उठा और पाइप के कश लगाता वहां से रुखसत हो गया।

जनकराज झण्डेवालान पहुंचा।

काफी हील हुज्जत के बाद वो लूथरा को भी साथ लाने के लिये तैयार हो गया था।

उस घड़ी साइट पर कंस्ट्रक्शन वर्कर पहुंचे हुए थे और तामीर का काम तेजी से चल रहा था।

पुलिस को आया पाकर साइट पर मौजूद ओवरसियर खुद ही वहां दौड़ा चला आया।

जनकराज ने उसे अपनी आमद का मंतव्य बताया।

तत्काल चौबच्चे को खंगाला गया। नतीजतन रिवाल्वर बारामद हो गयी।

जनकराज ने हैरानी से लूथरा की तरफ देखा।

“तुम्हीं ने बरामद की।” — लूथरा धीरे से बोला — “तुम्हीं ने अपनी सूझ बूझ लगाई तो तुम्हें सूझा कि रिवाल्वर यहां हो सकती थी। मेरा इसमें कोई रोल नहीं।”

“पक्की बात?” — जनकराज बोला।

“हां।”

“फिर तो शुक्रिया।”

पुलिस की फॉरेंसिक साईंस लैबोरेट्री झण्डेवालान में ही थी। रिवाल्वर के साथ जनकराज वहां पहुंचा।

लैबोरेट्री में रिवाल्वर को सबसे पहले फिंगरप्रिंट्स के लिये चैक किया गया।

रिवाल्वर के दस्ते पर और उसके ट्रीगर पर फिंगरप्रिंट्स मौजूद पाये गये जिनको वहां से उतारा गया और उनकी एक प्रतिलिपि जनकराज को सौंपी गयी।

पोस्टमार्टम द्वारा मकतूल के जिस्म से निकाली गयी गोली पहले ही वहां पहुंच चुकी थी। लिहाजा चुटकियों में यह भी स्थापित हो गया कि वही मर्डर वैपन था। उस अड़तीस कैलीबर की स्मिथ एण्ड वैसन रिवाल्वर से ही घातक गोली चलाई गयी थी जिस पर से कि उसका सीरियल नम्बर रेती से घिस कर मिटा दिया हुआ था।

यानी कि सीरियल नम्बर के जरिये रिवाल्वर के मालिक तक पहुंच पाने की कोई सम्भावना नहीं थी।

लेकिन रिवाल्वर पर मौजूद फिंगरप्रिंट्स एक महत्वपूर्ण क्लू था जिसके जरिये देर सबेर कातिल तक पहुंचा जा सकता था।

रिवाल्वर और फिंगरप्रिंट्स की प्रतिलिपि के साथ जनकराज वापिस कश्मीरी गेट पहुंचा।

तब तक मुबारक अली वहां पहुंच चुका था।

मायाराम खुश था कि वो टैक्सी ड्राइवर आनन फानन उपलब्ध हो गया था, हमेशा के लिये कहीं गायब नहीं हो गया था।

“ये है वो टैक्सी ड्राइवर” — जनकराज ने मायाराम से पूछा — “जो कल रात तुम्हें निजामुद्दीन से यहां तक लाया था?”

“हां।” — मायाराम व्यग्र भाव से बोला — “आप इसी से पूछिये कि...”

“हौंसला रखो। पूछते हैं। पूछते हैं।”

मायाराम खामोश हो गया।

जनकराज मुबारक अली की ओर आकर्षित हुआ।

“क्या नाम है तेरा?” — वो डपट कर बोला।

“मुबारक अली।”

“टैक्सी चलाता है?”

“हां।”

“इन्हें” — जनकराज ने मायाराम की तरफ संकेत किया — “पहचानता है?”

“हां।” — मुबारक अली बोला — “ये कल मेरी टैक्सी पर बैठे थे।”

“कहां से?”

“निजामुद्दीन से।”

“कहां के लिये?”

“कश्मीरी गेट के लिये। इधर ही उतारा। इस चाल के सामने।”

“सुन लिया।” — मायाराम विजेता के से स्वर में बोला।

“आप जरा खामोश रहिये।”

मायाराम ने होंठ भींच लिये।

“निजामुद्दीन से कब बिठाई सवारी?” — जनकराज ने फिर पूछा।

“यही कोई दस बजे।” — मुबारक अली बोला।

“इधर कब पहुंचा?”

“यही कोई पौने ग्यारह बजे।”

मायाराम मुंह से कुछ न बोला लेकिन उसके चेहरे पर चमक आ गयी। शुक्र था कि कोई तो बात थी जो उसे उल्टी नहीं पड़ रही थी।

“निजामुद्दीन से इधर पहुंचने में पौना घन्टा क्यों लगा? क्या कहीं जाम लगा मिला था?”

“नक्को।”

“तो?”

“सीधा नहीं आया। रूट बदला। इसलिये ज्यास्ती टेम लगा।”

“रूट बदला। यानी कि रास्ते में कहीं और गया?”

“हां।”

“कहां?”

“झण्डेवालान।”

मायाराम जैसे आसमान से गिरा।

“ये झूठ बोलता है।” — वो चिल्लाया — “मैं झण्डेवालान नहीं गया।”

“आप खामोश रहिये।” — जनकराज बोला।

“मैं खामोश नहीं रह सकता। आप सब लोग मिल कर मुझे फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। आप सब मेरे खिलाफ हैं। मैं खामोश नहीं रह सकता।”

“चिल्ला चिल्लाकर आप अपनी बेगुनाही साबित कर लेंगे?”

“लेकिन...”

“अभी चुप कीजिये। मैं आपको अपनी सफाई का पूरा पूरा मौका दूंगा।”

बेचैनी से पहलू बदलता, तिलमिलाता, मायाराम चुप हुआ।

“झण्डेवालान ये कहां गये थे?” — जनकराज ने पूछा।

“एक बनती बिल्डिंग के प्लॉट में।” — मुबारक अली बोला।

“क्या किया इन्होंने वहां?”

“मालूम नहीं।”

“किसी से मिले?”

“मालूम नहीं।”

“तो क्या किया?”

“मेरे को पीछू रुकने को बोल कर टैक्सी से उतरे, बैसाखियों के सहारे चलते पांच सात मिनट को कहीं गये और फिर वापिस लौट आये।”

“उस दौरान तूने कोई गोली चलने की आवाज सुनी?”

“गोली चलने की आवाज कैसी होती है, बाप?” — सैंकड़ों गोलियां खुद चला चुका मुबारक अली बड़ी मासूमियत से बोला।

“कोई ठांय की आवाज सुनी?”

“नहीं।”

“गोली तेरहवी मंजिल पर चली थी।” — लूथरा धीरे से बोला — “इतनी ऊंचाई पर चली गोली की आवाज हो सकता है नीचे तक न पहुंची हो।”

जनकराज ने सहमति में सिर हिलाया और फिर मुबारक अली से सम्बोधित हुआ — “हां तो, तू कह रहा था!”

“मैंने कोई ठांय की आवाज नहीं सुनी थी।” — मुबारक अली बोला।

“पांच सात मिनट बाद ये वापिस टैक्सी में जाकर बैठे और तू इन्हें लेकर यहां पहुंच गया?”

“हां।”

“और कुछ?”

“और आप बोलो।”

“बाहर जा कर अपनी टैक्सी में बैठ। इजाजत मिले तो जाना।”

“ठीक।”

मुबारक अली वहां से रुखसत हो गया।

“अब क्या कहते हो?” — जनकराज बोला।

“वो झूठ बोल रहा है।” — मायाराम आवेशपूर्ण स्वर में बोला — “वो किसी का सिखाया पढ़ाया झूठ बोल रहा है।”

“किसका?”

“मुझे नहीं मालूम लेकिन वो सरासर झूठ बोल रहा है। और अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कल रात इसी ने मेरे जूते बदले थे, इसी ने मेरी बैसाखियों को सीमेंट लगाया था और इसी ने नोटों से भरा ट्रंक मेरे दीवान में रखा था।”

“कैसे?”

मायाराम ने बताया।

“मैंने मान ली आप की बात।” — जनकराज बोला — “पीछे टैक्सी में रह गयी बैसाखियां ये उठा कर लाया था इसलिये ये उनको सीमेंट लगा सकता था। मैंने मान लिया कि आपको पानी लेने भेज कर ये जूते भी बदल सकता था और दीवान में नोटों से भरा ट्रंक भी प्लांट कर सकता था। मेरा सवाल ये है कि जिस ट्रंक को सुमन वर्मा नाम की लड़की कनॉट प्लेस थाने से क्लेम करके अपने साथ ले गयी थी वो इसके, एक मामूली टैक्सी ड्राइवर के, कब्जे में कैसे आया?”

“इन्स्पेक्टर साहब, अभी ये स्थापित होना बाकी है कि ये वो ही ट्रंक है।”

“ये वो ही ट्रंक है। ये वो ही ट्रंक है, इस बात की तसदीक महज वक्त की बात है। फिलहाल मैं यही मान के चल रहा हूं कि ये वो ही ट्रंक है। अब बताइये कि एक मामूली टैक्सी ड्राइवर के काबू में वो ट्रंक कैसे आया? आया तो इतनी बड़ी रकम खुद हज्म कर जाने की जगह वो इसे आपके यहां आपके दीवान में क्यों डाल गया?”

“कोई तो वजह होगी!”

“आप बयान कीजिये वो वजह।”

“वजह यही है कि मेरे खिलाफ साजिश हो रही है। मुझे फंसाने की कोशिश की जा रही है।”

“कौन कर रहा है ये कोशिश?”

मायाराम से फिर जवाब देते न बना।

“मैं आपकी उंगलियों के निशान लेना चाहता हूं। आपको कोई एतराज है?”

“मुझे सख्त एतराज है।”

“सोच लीजिये। पहले आपने सर्च पर एतराज किया था तो सर्च महज थोड़ी देर के लिये टल गयी थी और आपको रात थाने में गुजारनी पड़ी थी। अब उंगलियों के निशान देने पर एतराज जतायेंगे तो अंजाम और भी बुरा होगा।”

मायाराम ने बोलने के लिये मुंह खोला लेकिन फिर होंठ भींच लिये।

“थाने में ठाठ से रात गुजारी?” — जनकराज चेतावनीभरे स्वर में बोला — “हवालात में या जेल में ऐसे ठाठ मुमकिन न होंगे।”

“क्यों लेना चाहते हैं आप मेरी उंगलियों के निशान?” — मायाराम कठिन स्वर में बोला।

“कोई खास वजह नहीं। ये एक रूटीन है।”

“ठीक है।”

“क्या ठीक है?”

“वही जो आप कहते हैं। मैं उंगलियों के निशान देने के लिये तैयार हूं।”

“गुड।”

जनकराज के संकेत पर एक हवलदार ने मायाराम की दसों उंगलियों के निशान एक कागज पर उतारे और कागज जनकराज को थमाया। जनकराज कागज लेकर बाहर गलियारे की तरफ बढ़ा तो लूथरा भी उसके साथ हो लिया। जनकराज ने कोई एतराज न किया।

गलियारे में पहुंच कर जनकराज ने एक मैग्नीफाईंग ग्लास के जरिये फॉरेन्सिक साईंस लैबोरेट्री से मिले उंगलियों के निशानों से नये निशानी का मिलान किया।

“मिलते हैं।” — आखिरकार वो बोला — “जरा तुम भी देखो। तुम्हें इन कामों का मेरे से ज्यादा तजुर्बा है।”

लूथरा ने मैग्नीफाईंग ग्लास सम्भाला और फिंगरप्रिंट्स के दोनों सैटों का मुआयना किया।

“बिल्कुल मिलते हैं।” — फिर उसने भी तसदीक की।

“गुड।” — जनकराज संतोषपूर्ण स्वर में बोला।

“ये तो ओपन एण्ड शट सबूत हुआ इसके खिलाफ!”

“बिल्कुल हुआ। मर्डर वैपन पर किसी दूसरी उंगलियों के निशान नहीं बनाये जा सकते।”

“देखें इसका क्या जवाब देता है ये आदमी!”

जनकराज ने सहमति से सिर हिलाया।

दोनों वापिस लौटे।

जनकराज ने रूमाल में लिपटी रिवाल्वर अपनी वर्दी की जेब से बरामद की और रूमाल को खोल कर मायाराम के सामने किया।

“आप इस रिवाल्वर को पहचानते हैं?” — उसने पूछा।

“नहीं।” — मायाराम बोला।

“इतनी जल्दी जवाब न दीजिये। जरा सब्र से, गौर से इसे देखिये और फिर जवाब दीजिये।” — मायाराम को रिवाल्वर की तरफ हाथ बढ़ाता पाकर वो चेतावनीभरे स्वर में बोला — “न न। छूना नहीं। ऐसे ही देखिये।”

मायाराम झुक कर बड़े गौर से रिवाल्वर का मुआयना करने लगा।

“आपकी बीनाई तो ठीक है न?” — जनकराज बोला।

“नजदीक की जरा खराब है।”

“चश्मा इस्तेमाल करते हैं?”

“हां।”

“लगा लीजिये।”

मायाराम ने नजदीक पड़ी मेज के एक दराज में से अपने रीडिंग ग्लासिज बरामद किये और उन्हें लगा कर फिर रिवाल्वर का मुआयना करने लगा।

“नहीं।” — फिर वो बोला — “मैं इसे नहीं पहचानता।”

“ये आपकी नहीं?”

“जिस चीज को मैं पहचानता तक नहीं, वो मेरी कैसे हो सकती है?”

“ठीक।”

“क्या खासियत है इस रिवाल्वर में? क्यों ये मुझे दिखाई जा रही है?”

“ये मर्डर वैपन है।”

“क्या?”

“आलायकत्ल है ये। ये वो रिवाल्वर है जिससे चली घातक गोली ने आपके दोस्त हरीदत्त पंत के प्राण लिये।”

“कहां से मिली?”

“वहीं से मिली जहां कि आपने फेंकी।”

“मैंने! मैंने फेंकी?”

“हां।”

“झूठ। सरासर झूठ। मैंने इस रिवाल्वर की कभी शक्ल तक नहीं देखी।”

“न सिर्फ शक्ल देखी, आपने इसे इस्तेमाल किया। आपने इसे मकतूल पर चलाया।”

“बिल्कुल झूठ।”

“इस पर आपकी उंगलियों के निशान हैं।”

मायाराम पर जैसे गाज गिरी।

“क्या!” — वो बद्हवास स्वर में बोला।

“रिवाल्वर पर से उठाये गये उंगलियों के निशानों से मिलान के लिये ही अभी आपकी उंगलियों के निशान लिये गये थे। ये बात दिन की तरह स्पष्ट है कि रिवाल्वर की मूठ पर और उसके ट्रीगर पर बने उंगलियों के निशान आपके हैं।”

“ये... ये कैसे हो सकता है?”

“आप बताइये।”

“आप सच कह रहे हैं कि इस पर मेरी उंगलियों के निशान हैं?”

“कसम उठवा लीजिये।”

“लेकिन ये कैसे हो सकता है?”

“वैसे ही हो सकता है जैसे कि हुआ है। आपने ये रिवाल्वर थामी, पंत पर गोली चलायी, वो मर गया, आपके उंगलियों के निशान रिवाल्वर पर चस्पां हो गये। ईजी।”

मायाराम खामोश रहा।

“रिवाल्वर आपने ऐसी जगह फेंकी थी कि आपको यकीन था कि वो बरामद नहीं होने वाली थी इसलिये आपने उस पर से निशान मिटाने ही भी कोशिश न की।”

“क-कहां से …… ब-बरामद हुई?”

“वहीं से, जहां आपने फेंकी थी।”

“कहां?”

जनकराज ने बताया।

“हे भगवान!” — मायाराम जैसे विलाप करता बोला — “ये क्या गोरखधन्धा है! जब मैं वहां गया ही नहीं तो मैं वहां रिवाल्वर कैसे फेंक सकता था?”

“गये बिना तो नहीं फेंक सकते थे! इसी से साबित होता है कि आप गये थे।”

“मैं नहीं गया था। मैं...”

एकाएक मायाराम खामोश हो गया।

“क्या हुआ?” — जनकराज बोला।

“इन्स्पेक्टर साहब” — मायाराम इस बार बोला तो उसके स्वर में एक नया विश्वास था — “आप देख रहे हैं कि मैं लंगड़ा हूं।”

“देख रहा हूं।”

“बैसाखियों के बिना मैं कुछ ही कदम उठा सकता हूं। बैसाखियों के साथ भी मैं दिक्कत से ही चल पाता हूं। ये बात आप कबूल करते हैं या आपकी निगाह में इसमें भी कोई नुक्स है?”

“मुझे कबूल है आपकी बात। क्या कहना चाहते हैं?”

“कत्ल आप एक बनती इमारत की तेरहवीं मंजिल पर हुआ बताते हैं?”

“हां। कहना क्या चाहते हैं आप?”

“मैं ये कहना चाहता हूं कि मैं अपाहिज आदमी बैसाखियों के सहारे एक बनती इमारत की बनती सीढ़‍ियों के रास्ते तेरह मंजिल नहीं चढ़ सकता। मैं एक मंजिल भी नहीं चढ़ सकता।”

जनकराज सकपकाया।

“कोशिश करें तो चढ़ सकते है।” — फिर वो जिदभरे स्वर में बोला।

“ये न भूलिये कि बैसाखियों के सहारे इतनी मंजिलें चढ़ चुकने के बाद बैसाखियों के ही सहारे इतनी मंजिलें मैंने उतरनी भी हैं।”

“आप ऐसा कर सकते हैं।”

“पांच सात मिनट में?”

“क्या मतलब?”

“जरा याद कीजिये कि उस टैक्सी ड्राइवर मुबारक अली ने अपने बयान में क्या कहा था!”

“क्या कहा था?”

“उसने कहा था कि मैं उसे पीछे रुकने को बोल कर टैक्सी से उतरा था, बैसाखियों के सहारे चलता पांच सात मिनट को कहीं गया था और फिर वापिस लौट आया था।”

“तो?”

“आपने अभी उसे बाहर रुकने का हुक्म दिया था। अगर उसने हुक्मउदूली नहीं की तो...”

“उसकी मजाल नहीं हो सकती।”

“...तो उसे अभी वापिस बुलाकर आप इस बात की फिर तसदीक कर सकते हैं कि उसने कहा था कि मैं सिर्फ पांच या बड़ी हद सात मिनट उसकी टैक्सी में से गैरहाजिर रहा था।”

“तो?”

“तो ये, इन्स्पेक्टर साहब, कि इतने थोड़े वक्फे में तो कोई हट्टा कट्टा तन्दुरुस्त आदमी तेरह मंजिल सीढियां चढ़ के नीचे नहीं आ सकता, मैं तो फिर अपाहिज हूं! बैसाखियों का मोहताज हूं!”

अब जनकराज बिल्कुल ही गड़बड़ा गया। किसी मदद के लिये उसने लूथरा की तरफ देखा तो उसने अनभिज्ञता जताते हुए कन्धे उचकाये।

“कुछ तो आपने किया ही होगा उस बाबत!” — जनकराज पूरी ढिठाई से बोला — “जब इतने सबूत आपके खिलाफ हैं तो...”

“कोई सबूत मेरे खिलाफ नहीं है। सब गढ़ी हुई बातें हैं और सारे गवाह झूठे हैं जो कि मेरे खिलाफ सिखाये पढ़ाये गये हैं।”

“किसने किया होगा ऐसा?”

“आप मालूम कीजिये। आखिर इन्हीं कामों की आपको तनख्वाह मिलती है।”

“मेरा काम मुजरिम हो बेगुनाह साबित करना नहीं है।”

“तो क्या बेगुनाह को मुजरिम साबित करना है?”

“लप्फाजी मत झाड़ो। जुबानदराजी मत करो। तुम्हारे खिलाफ सबसे बड़ा सबूत ये है कि मर्डर वैपन पर तुम्हारी उंगलियों के निशान हैं।”

“उसमें भी कोई भेद है।”

“क्या भेद है?”

“यही तो समझ में नहीं आ रहा!”

“किसी ने तुम्हें रिवाल्वर जबरन थमायी और गोली चलाने पर मजबूर किया?”

“नहीं। हरगिज नहीं।

“तो फिर?”

“इंन्स्पेक्टर साहब, मेरा यकीन कीजिये। मैं बिल्कुल बेगुनाह हूं। मुझे किसी साजिश के तहत, किसी बहुत बड़ी साजिश के तहत फंसाया जा रहा है।”

“कौन कर रहा है ऐसा? कोई नाम तो लेते नहीं आप!”

मायाराम के मुंह से बोल न फूटा।

“मैंने पुलिस में कोई कल से नौकरी शुरू नहीं की। बहुत मुजरिमों से वास्ता पड़ चुका है मेरा। हर मुजरिम तफ्तीश के शुरुआती दौर में यही दुहाई देता है कि वो बेगुनाह है।”

“मैं सच कहता हूं कि...”

“हर कोई सच ही कहता है।”

“कत्ल की कोई वजह भी तो होती है! कोई उद्देश्य भी तो होता है!”

“होता है।”

“मेरे पास क्या उद्देश्य है कत्ल का? मैंने क्यों कत्ल किया? और वो भी इतने पेचीदा तरीके से! वो कुतुबमीनार जैसी इमारत चढ़ने की जगह मैं मकतूल को कहीं भी मार गिराता तो क्या फर्क पड़ जाता?”

“अभी तफ्तीश जारी है। तफ्तीश के खत्म होने तक कत्ल की कोई वजह भी सामने आ जायेगी।”

“इन्स्पेक्टर साहब, आप गरीबमार कर रहे हैं।”

“हरगिज नहीं। मैं वैसा पुलिस वाला नहीं हूं।”

“लेकिन...”

“सुनिये! एक मिनट सुनिये।” — तब जनकराज का लहजा नर्म पड़ गया और वो उसे समझाता हुआ बोला — “बहस के लिये मैं मान लेता हूं कि आप सच कह रहे हैं।”

“शुक्रिया।”

“बहस के लिये। सच में ही नहीं।”

“ओह।”

“मैं मान लेता हूं कि कत्ल के बाद पुलिस को आपके बारे में किसी ने गलत टिप दी थी। मैं मान लेता हूं कि आप कंस्ट्रक्शन साईट पर नहीं गये, किसी ने आपके जूते बदल कर, आपकी बैसाखियों पर सीमेंट की परत चढ़ा कर ये स्थापित करने की कोशिश की कि आप वहां गये थे। ये ट्रंक भी मैं कबूल करता हूं कि यहां प्लांट किया जा सकता है। मैं ये भी मान लेता हूं कि वो टैक्सी ड्राइवर मुबारक अली झूठ बोल रहा है कि वो आपको झण्डेवालान लेकर गया था। मैं आगे ये भी मान लेता हूं कि युवराज होटल का वो वेटर नन्दू भी झूठ बोल रहा था और ये कि आप ही की बात सच है कि पंत ने साढ़े सात बजे खाना मंगाया था जो कि आपके कथनानुसार ट्रे में लाया गया था और वो पंत ने हाथ के हाथ खा लिया था। ओके?”

हिचकिचाते हुए मायाराम ने सहमति में सिर हिलाया।

“मैं एक मिनट के लिये ये बात भी नजरअन्दाज कर देता हूं कि मर्डर वैपन बरामद हो गया है और उस पर आपकी उंगलियों के निशान हैं।”

“कमाल है!” — मायाराम ने बोला।

“कोई कमाल नहीं है। मैं जहां पहुंचने की कोशिश कर रहा हूं पहले मुझे वहां पहुंचने दीजिये।”

“बेहतर।”

“आपकी इस गवाही को, कि मकतूल ने आखिरी खाना साढ़े सात बजे के करीब खाया था, निर्विवाद रूप से कबूल कर लेने के बाद मुझे पोस्टमार्टम का ये नतीजा भी कबूल करना होगा कि कत्ल साढ़े नौ बजे के करीब हुआ।”

“तो?”

“आप कहते हैं कि आप आठ बजे से दस बजे तक निजामुद्दीन में किसी दोस्त के साथ थे लेकिन आप उस दोस्त का नाम जुबान पर लाने को तैयार नहीं। जब मैं इतनी बातें आपके हक में मान रहा हूं तो अब आपका फर्ज नहीं बनता कि आप स्थापित करके दिखायें कि आप शाम आठ बजे से दस बजे तक वाकई निजामुद्दीन में किसी दोस्त के साथ थे?”

“वो तो ठीक है, जनाब” — मायाराम कातर भाव से बोला — “लेकिन मेरी प्राब्लम ये है कि उस दोस्त का नाम लेना, उसका जिक्र करना मुझे नयी जहमतों में फंसा सकता है।”

“अव्वल तो ऐसा होगा नहीं, होगा तो फंस जाइयेगा। यूं अगर आप एक बड़ी मुसीबत से निजात पा सकते हैं तो छोटी मुसीबत की दुशवारियां आपको झेल लेनी चाहियें। जिस जहमत का अन्देशा आपको है, यकीनन वो कत्ल के जुर्म में फांसी लगने से बड़ी जहमत तो न होगी!”

मायाराम का सिर अपने आप सहमति में हिला।

“गुड। अब बोलिये आठ से दस बजे के बीच निजामुद्दीन में आप कहां थे?”

मायाराम हिचकिचाया।

“अब कह भी चुकिये।”

“म-मैं एक का-कालगर्ल की सोहबत में था।”

“तौबा! इतनी सी बात का इतना बड़ा बतंगड़! दिल्ली शहर में किसी कालगर्ल की सोहबत करना क्या बहुत बड़ी बात है?”

“वो... वो खास कालगर्ल है।”

“क्या खासियत है उसमें?”

“वो दो घन्टे के पन्द्रह हजार रुपये चार्ज करती है।”

“तो क्या हुआ?”

“मेरी मामूली हैसियत को देखते हुए आपको ये बात खटक सकती थी कि मैं, जो कि अपनी आमदनी का कोई जरिया भी नहीं बताता था, पन्द्रह हजार लेने वाली कॉलगर्ल कैसे अफोर्ड कर सकता था! फिर आप इस बात को लेकर भी मेरे पर नये दबाव बनाने लगते कि मेरे पास ऐसी शाहखर्ची के लिये रुपया कहां से आता था!”

“बस, इस वजह से आप इस बारे में खामोश थे?”

“हां।”

“चलिये, इस बाबत मैंने आपको अभयदान दिया। मैं आपकी आमदनी के जरिये के बारे में आपसे कोई सवाल नहीं करूंगा। मैं नहीं पूछूंगा कालगर्ल्स पर खर्च करने के लिये रुपया आप डाका डाल के लाये या किसी का गला काट के लाये।”

“शुक्रिया।”

“अब नाम बोलिये उस कालगर्ल का।”

“सीमा।”

“पता बोलिये।”

मायाराम ने निजामुद्दीन का एक पता बोला।

“वहां टेलीफोन है?”

“है।”

“उसका नम्बर बोलिये।”

मायाराम ने बोला।

“मैं उस कालगर्ल से निजामुद्दीन जाके मिल सकता हूं लेकिन अपने मौजूदा मूड में आप फिर मेरे पर ही इलजाम लगाने लगेंगे कि मैंने उस लड़की को आपके खिलाफ सिखा पढ़ा लिया था। आप ऐसा न सोचें इसलिये मैं उसे फोन करके यहां बुला रहा हूं ताकि उसने जो कहना है आपके सामने कहे। फोन कहां है?”

“बाहर रिसैप्शन पर।”

जनकराज वहां से निकला और लम्बे डग भरता रिसैप्शन की ओर बढ़ चला।

लूथरा नजदीकी डाकखाने में पहुंचा।

जनकराज के पीछे पीछे वो भी वहां से खिसक आया था।

डाकखाने के पीसीओ से उसने लोटस क्लब का नम्बर डायल किया। काल लगी तो वो बोला — “मैं लूथरा बोल रहा हूं।”

“होल्ड करो।” — उसे कुशवाहा की आवाज सुनायी दी।

लूथरा रिसीवर कान से लगाये ठिठका खड़ा रहा।

“हल्लो!” — फिर उसे विमल की आज सुनायी दी।

“कौल साहब?” — फिर भी उसने पूछा।

“हां। क्या बात है?”

“यहां एक घुंडी पैदा हो गयी है।”

“क्या?”

“बैसाखियों का मोहताज कोई लंगड़ा आदमी तेरह मंजिल सीढ़‍ियां कैसे चढ़ सकता है? वो भी लिमिटिड टाइम में जिसमें कि तेरह मंजिल सीढ़‍ियां चढ़ के वापिस भी उतरना है!”

“हूं।”

कई क्षण दूसरी ओर से कोई आवाज न आयी तो वो व्यग्र भाव से बोला — “हल्लो!”

“एक मिनट चुप रहो।”

“सॉरी।”

वो रिसीवर कान से लगाये खड़ा रहा।

“ट्राली!” — आखिरकार दूसरी तरफ से आवाज आयी।

“जी!”

“इमारत के एक पहलू में लिफ्ट की तरह चलने वाली एक ट्राली फिट है जिसमें कि कंस्ट्रक्शन मैटीरियल — जैसे सीमेंट, रेत, रोड़ी, ईंटें वगैरह — ऊपर ढोया जाता है। वो ट्राली कोई खास बड़ी नहीं होती लेकिन कोई एक आदमी उसमें खड़ा होकर बड़े आराम से नीचे से ऊपर पहुंच सकता है।”

“ओह!”

“वो ट्राली दो मिनट में नीचे से ऊपर तेरहवीं मंजिल तक पहुंच सकती है।”

“और दो मिनट में वापिस आ सकती है।”

“हां। आने जाने में सर्फ हुए वक्त के बावजूद अभी बहुत टाइम बचता है।”

“जी हां। कम से कम तीन मिनट का वक्त तो बचता ही है।”

“जो कि एक गोली चलाने के लिये काफी वक्त है।”

“बिल्कुल है।”

“उस ट्राली में सवार होने की वजह से ही उसके जूतों को और बैसाखियों को सीमेंट लगा। ट्राली का कभी भी जाके मुआयना किया जायेगा तो उसकी तलहटी में सीमेंट बिखरा पाया जायेगा।”

“आप ठीक कह रहे हैं।”

“कोई और शंका?”

“कोई नहीं। मैं ये बात आगे इन्वेस्टीगेटिंग आफिसर को पास आॅन करता हूं।”

“गुड।”

तलाशी में जो अगली आइटम बरामद हुई, पुलिसियों को उसकी बरामदगी इतनी सनसनीखेज न लगी जितनी कि उसकी बरामदगी की जगह ने उनको हैरान किया।

पोर्शन की मिनी किचन में पड़े एक आटे के कनस्तर में से छ: लाख रुपये से ऊपर के नोट बारामद हुए। नोट कनस्तर में इस ढंग से रखे गये थे कि आधा आटा उनके नीचे था और आधा उनके ऊपर था।

“क्या कहते हैं आप इन नोटों के बारे में?” — जनकराज बोला।

मायाराम बगलें झांकने लगा। उसे याद नहीं आ रहा था कि एक साथ इतनी सारी मुसीबतें उस पर पहले कब पड़ी थीं!

“आटे का कनस्तर गुल्लक है आपकी?”

मायाराम ने बेचैनी से पहलू बदला।

“जनाब, मैं आपसे मुखातिब हूं।”

“मैंने बोला ही था” — मायाराम दबे स्वर में बोला — “कि पुराना कमाया कुछ रुपया था मेरे पास।”

“ये वो रुपया है?”

“हां।”

“कमाई का जरिया जायज था या नाजायज?”

“जायज। एकदम जायज।”

“मसलन क्या?”

“वो... वो.. काश्त की कुछ जमीन बेची थी।”

“कहां?”

“हिमाचल में।”

“रकम आटे के कनस्तर में किसलिये?”

“इधर चोरी चकारी बहुत है। ऐसे वैसे लोग ही बसे हुए हैं इधर। इसलिए।”

“जबकि आप खुद ऐसे वैसे लोगों में शुमार नहीं।”

“अब मैं क्या कहूं?”

“पैसा बैंक में जमा करने पर एतबार नहीं आपका? जबकि आप रकम को जायज तरीकों से कमाई भी बता रहे हैं।”

“मैं आज कल में सोच ही रहा था बैंक जा के खाता खुलवाने की।”

“इस रकम के बारे में आपने ये दावा नहीं किया कि इसे भी कोई आपको फंसाने के लिये आपके घर में प्लांट कर गया था?”

“मैं झूठ क्यों बोलूं? ये मेरी खरी कमाई है।”

“जो आपने अपने गांव की पुश्तैनी जमीन बेच कर खड़ी की है?”

“जी हां।”

“हिमाचल फ्रांस या स्विट्ज़रलैंड के करीब नहीं पड़ता। आप समझते हैं न कि जो कुछ आप कर रहे हैं, उसकी तसदीक की जा सकती है!”

“इस्पेक्टर साहब...”

“बोलिये।”

“अभी आपने मुझे अभयदान दिया था कि आप मेरी आमदनी के जरिये के बारे में मेरे से कोई सवाल नहीं करेंगे, आप नहीं पूछेंगे कि रुपया मैं डाका डाल कर लाया या किसी का गला काट कर लाया। अब क्या आप हाथ के हाथ ही अपनी जुबान से फिर रहे हैं?”

जनकराज हड़बड़ाया। नेत्र सिकोड़े कितनी ही देर वो मायाराम को घूरता रहा।

“बड़े उस्ताद आदमी हैं आप!” — फिर वो बोला — “कोई बात भूलते नहीं!”

“मालिक हो, जनाब। कुछ भी कह सकते हो।”

“चलिये, मैं नहीं पूछता कि ये रकम आपके पास कहां से आयी! लेकिन मुझे ये पूछने का अख्तियार तो हैं या वो भी नहीं है कि इस रकम को आपने इतने खुफिया तरीके से आटे के कनस्तर में क्यों छुपा रखा है!”

“वजह मैने बतायी ही है।”

“हिफाजत के लिये? खास हिफाजत के लिये?”

“हां।”

“लेकिन इससे बड़ी रकम को तो आपने ऐसे स्पेशल ट्रीटमेंट के काबिल न समझा! उसे यूं ही दीवान के बक्से में डाल दिया! या शायद वक्ती तौर पर आपने ऐसा किया था! बाद में आप उसे भी कोई ऐसे ही खुफिया जगह अलाट करते!”

“साहब, वो बात नहीं है।”

“तो क्या बात है?”

“जनाब, इतनी बड़ी रकम का दीवान में से बरामद होना अपने आप में सबूत है कि इसे मैंने यहां नहीं रखा। जब मैं एक रकम को हिफाजत से रखने के लिये कोई खुफिया जरिया तलाश कर सकता था तो दूसरी रकम को भी वैसे ही क्यों नही रख सकता था?”

“आप रखते। पहला मौका हाथ आते ही रखते। लेकिन वो पहला मौका आपके हाथ आया ही नहीं। पहले ही यहां पुलिस पहुंच गयी। कल आधी रात के बाद से कहां आपको मौका लगा है बक्से वाली रकम को अपने मनमाफिक ठिकाने लगाने का!”

“हे भगवान! हे भगवान!”

तभी आंखों पर धूप का चश्मा लगाये चिंगुम चबाती एक ऐसी कड़क सुन्दरी ने वहां कदम रखा कि चाल के उस मैले कुचैले कमरे में जगमग जगमग हो गयी। पोशाक के नाम पर वो एक टाइट जींस और स्कीवी पहने थी जिसमें से उसके कसे हुए जिस्म की एक एक लकीर नुमायां हो रही थी।

“वैल!” — बिना किसी व्यक्तिविशेष पर निगाह डाले वो बड़ी अदा से बोली।

“आप सीमा हैं?” — जनकराज एक कदम आगे बढ़ कर आदरपूर्ण स्वर में बोला।

“हां, मैं सीमा हूं।”

“मैं जनकराज। सब-इन्स्पेक्टर। पहाड़गंज थाने से। मैंने आपको फोन किया था।”

“वैल, हेयर आई एम।”

“थैंक्यू।”

“पुलिस से कोआपरेट करना मेरा फर्ज है।”

“थैंक्स अगेन।”

“अब बताइये क्या बात है? क्यों बुलाया गया है मुझे यहां?”

“आप यहां मौजूद किसी शख्स को जानती पहचानती हैं?”

सीमा ने एक सरसरी निगाह तमाम पुलिसियों पर, मायाराम पर, लूथरा पर दौड़ाई और फिर इनकार में सिर हिलाया।

मायाराम ने तत्काल बोलने का उपक्रम किया लेकिन जनकराज ने उसे ऐसी कहरभरी निगाहों से देखा कि स्वयंमेव ही उसके होंठ भिंच गये।

“यहां रोशनी कम है।” — जनकराज बोला — “ऊपर से आप गागल्स लगाये हैं। जरा चश्मा उतार कर देखिये।”

सीमा ने बड़ी अदा से चश्मे को अपने माथे पर चढ़ा लिया और पहले जैसी निगाह फिर दांये से बांये और बांये से दायें दौड़ाई।

मायाराम आशापूर्ण निगाहों से निरन्तर उसे देख रहा था।

सीमा का सिर फिर इनकार में हिला।

“कोई पहचानी सूरत आपको यहां दिखाई नहीं दे रही?” — जनकराज ने पूछा।

“न।” — सीमा बोली।

“इनके बारे में” — जनकराज ने मायाराम की तरफ इशारा किया — “क्या खयाल है आपका?”

“कैसा खयाल?”

“आप इन्हें जानती हैं?”

“जब मैंने दो बार जता दिया कि मैं यहां मौजूद कोई सूरत नहीं पहचानती तो मैं खास इन्हें कैसे जानती हो सकती हूं?”

“ठीक।”

“हैं कौन ये?”

“बताइये, जनाब, कौन हैं आप?”

“मैं वो शख्स हूं” — मायाराम व्यग्र भाव से बोला — “जो कल आठ बजे निजामुद्दीन वाले फ्लैट में तुम्हारे साथ था।”

“मेरे साथ थे?” — वो हैरानी से बोली — “किसलिए?”

“तुम्हे मालूम है किसलिये! क्यों इतने लोगो के सामने मेरा मुंह खुलवाना चाहती है?”

“बड़ा बद्तमीज आदमी है ये। खामखाह मेरे गले पड़ रहा है।”

“कल जो मेरे से पंद्रह हजार रुपये लिये थे, वो भूल गयी?” — मायाराम तीखे स्वर में बोला — “जो दो घन्टे मेरे साथ तफरीह की थी, वो भूल गयी? बैडरूम में जो कलाबजियां मेरे साथ खाई थीं, वो भूल गयी?”

“यू! यू डर्टी रास्कल!” — मुट्ठियां भींचे, आंखों से अंगारे बरसाती सीमा उसकी तरफ बढ़ी — “यू राटन स्काउन्ड्रल! यू...”

जनकराज तत्काल दोनों के बीच में न आ गया होता तो शायद वो उसे रौंदती हुई गुजर जाती।

“ईजी!” — जनकराज अनुनयपूर्ण स्वर में बोला — “ईजी। प्लीज!”

“कौन है ये आदमी जो मेरे पर कुत्ते की तरह भौंक रहा है?”

“शान्त हो जाइये। प्लीज!”

“आपने इसलिये मुझे यहां बुलाया है कि ये टके का आदमी मुझे बेइज्जत करे! मेरे पर उलटे सीधे इलजाम लगाये! क्या समझता है ये कब्र से उठा मुर्दा अपने आपको?”

मायाराम का चेहरा अपमान से जल ऊठा।

“मैडम, प्लीज! आई बैग आफ यू। ये अब मुंह नहीं खोलेंगे।”

“श्योर?”

“यस।”

वो शान्त हुई।

“बात बोलने लायक नहीं है” — जनकराज बोला — “लेकिन क्योंकि ये एक गम्भीर पुलिस इन्क्वायरी से ताल्लुक रखती है, इसलिये कहना पड़ रहा है। ये साहब कहते हैं कि ये कल शाम आठ से दस बजे तक निजामुद्दीन में आपकी सोहबत में थे।”

“गलत कहते हैं।” — सीमा बोली — “न थे, न हो सकते हैं। अभी मेरे इतने बुरे दिन नहीं आये कि मैं ऐसे एक्सीडेंटल केसों की सोहबत करने लगूं।”

मायाराम फिर तिलमिलाया।

तत्काल जनकराज ने उसे खामोश रहने की चेतावनी दी।

“शक्ल तो देखो इस मेरी सोहबत करने वाले की! कोई कल है सीधी इसकी!”

“एक कल है सीधी।” — मायाराम तड़प कर बोला — “मैंने तेरी फीस भरी थी।”

“ठहर जा, कमीने!”

सीमा फिर मायाराम पर झपटी, जनकराज ने फिर उसे रास्ते में रोका।

“इस आदमी को यहां से दफा करो वरना...”

“इन्हें यहां से दफा नहीं किया जा सकता।” — जनकराज बोला — “ये घर इनका है।”

“तो फिर मुझे इजाजत दीजिये।”

“एक मिनट। सिर्फ एक मिनट और रुकिये।”

“आल राइट। एक मिनट।”

“तो आपका कहना है कि आप इन साहब को नहीं जानतीं, कल शाम ये आपके साथ नहीं थे?”

“करैक्ट।”

“कल शाम आठ से दस तक आप कहां थीं?”

“एक फ्रेंड के साथ थी।”

“कहां? निजामुद्दीन में?”

“नहीं। कनॉट प्लेस में।”

“कनॉट प्लेस में कहां?”

“लोटस क्लब में।”

“फ्रेंड का कोई नाम?”

“कुशवाहा।”

“कौन कुशवाहा? जो आजकल उस क्लब का संचालक है?”

“वही।”

“वो आपका फ्रेंड है?”

“हां।”

“वो इस बात की तसदीक करेगा कि कल शाम आप उसके साथ थीं?”

“क्यों नहीं करेगा? ये क्या कोई सीक्रेट है? या मेरा उसके साथ होना कोई गैरकानूनी हरकत है?”

“यानी कि तसदीक करेगा?”

“खुद पता कर लीजिये।” — बड़े स्टाइल से उसने अपने हैण्डबैग में से कीमती सेलुलर फोन निकला, उस पर एक नम्बर पंच किया और फोन जनकराज की ओर बढ़ा दिया।

जनकराज ने हिचकिचाते हुए फोन थामा और बोला — “हल्लो!”

“यस!” — आवाज आयी।

“मैं पहाड़गंज थाने से सब-इन्स्पेक्टर जनकराज बोल रहा हूं।”

“बोलिये।”

“आप सीमा नाम की किसी लड़की को जानते हैं?”

“कौन सीमा? सीमा सिकन्द?”

जनकराज ने फोन वाला हाथ नीचे झुका कर सीमा से पूछा — “आपका सरनेम क्या है?”

“सिकन्द।” — सीमा बोली।

“वही।” — जनकराज फिर सेलुलर में बोला।

“हां।” — जवाब मिला — “बाखूबी जानता हूं।”

“आखिरी बार आप कब मिले थे उससे?”

“कल शाम ही मिला था।”

“किस वक्त?”

“यही कोई आठ बजे।”

“कहां?”

“लोटस क्लब में।”

“कब तक वो आपके साथ रही थी?”

“ग्यारह तक तो शर्तिया रही थी। टाइम ऊपर भी हो गया हो तो कोई बड़ी बात नहीं।”

“शुक्रिया, कुशवाहा साहब।”

“शुक्रिया तो हुआ, भाई, लेकिन इस पूछताछ की कोई वजह तो बताओ!”

“वजह कोई खास नहीं है, बस ये समझ लीजिये कि ये एक रूटीन पुलिस इन्क्वायरी थी।”

“कमाल है! अरे, भाई, इतना तो बता दो कि उसमें हम पास हुए या फेल!”

“पास।”

जनकराज ने फोन सीमा को वापिस लौटा दिया।

“हो गयी तसल्ली?” — वो व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली।

“जी हां, हो गयी।”

“अब मैं जा सकती हूं?”

“हां। शौक से।”

निगाहों से मायाराम पर भाले बर्छियां बरसाती सीमा वहां से रुखसत हुई।

“अब क्या कहते हैं आप?” — पीछे जनकराज मायाराम से बोला।

“मैं क्या कहूं?” — मायाराम रुंआसे स्वर में बोला — “मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि ये सब क्या हो रहा है! क्यों सारी दुनिया ही एकाएक मेरे खिलाफ हो गयी है!”

“कोई और सबूत, जो आप अपनी बेगुनाही में पेश करना चाहते हों?”

मायाराम का सिर इनकार में हिला।

“तो फिर मैं आपको हरिदत्त पंत नाम के शख्स के कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार करता हूं।”

“आप ऐसा नहीं कर सकते।” — मायाराम बौखला कर बोला।

“क्यों नहीं कर सकता? अब क्या कसर रह गयी?”

“अभी आपके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि मैं लंगड़ा अपाहिज इमारत की तेरहवीं मंजिल पर कत्ल करने के लिये कैसे पहुंचा?”

“उसका जवाब भी मिल जायेगा। हम आपको बुक करके मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करेंगे, आपका लम्बा रिमांड लेंगे, फिर आप खुद ही गा गा कर बतायेंगे कि आप तेरहवीं मंजिल तक कैसे पहुंचे थे!”

“ट्राली के जरिये पहुंचे थे।” — लूथरा बोला।

“ट्राली! कैसी ट्राली?”

लूथरा ने बताया।

तत्काल जनकराज के चेहरे पर रौनक आयी।

“बढ़िया।” — वो बोला — “बहुत कांटे की बात, बहुत मौके पर बताई।”

“मैंने कहां बताई!” — लूथरा बोला — “तुमने खुद अपनी तफ्तीश से जानी।”

“ट्राली की बाबत” — जनकराज एक विजेता के से स्वर में मायाराम से सम्बोधित हुआ — “जो अभी कहा गया, वो आपने सुना?”

मायाराम से जवाब देते न बना। वो गैस निकले गुब्बारे की तरह पिचक गया।



मायाराम को अपने थाने के लॉकअप में बन्द करवा कर जनकराज कनॉट प्लेस थाने पहुंचा।

लूथरा तब भी पुछल्ले की तरह उसके साथ लगा हुआ था। अलबत्ता उसके साथ किसी थाने में उसने कदम नहीं रखा था।

कनॉट प्लेस थाने से जनकराज ने ट्रंक की शिनाख्त कराई, उससे सम्बन्धित कहानी जानी और वहां से सुमन वर्मा का मॉडल टाउन का पता हासिल किया।

यूं शाम चार बजे वो मॉडल टाउन पहुंचा।

उस वक्त प्रदीप भी वहां था और नीलम पिछली रात लिए सिडेटिव के असर से मुक्ति पा चुकी थी।

पुलिस को वहां पहुंचा पाकर नीलम का दम निकल गया।

पुलिस के रूबरू होने से पहले सुमन नीलम की बांह पकड़ कर जबरन उसे बैडरूम में ले गयी और सख्ती से बोली — “एक बात याद रखना, दीदी। कल रात आप झण्डेवालान नहीं गयी थीं। वहां आपके किये कुछ नहीं हुआ था। पुलिस जितनी मर्जी पूछताछ कर ले, जितना मर्जी दबाव डाले ले, आपने अपनी जुबानी कबूल नहीं करना है कि कल रात आपने घर से बाहर कदम भी रखा था।”

“लेकिन...” — नीलम ने प्रतिवाद करना चाहा।

“कोई लेकिन नहीं। जैसा मैं कहती हूं, वैसा कीजिये। आपको सूरज की कसम।”

“कसम न दे, सुमन!”

“मैंने दे दी।”

“तेरा क्या होगा?”

“मेरा कुछ नहीं होगा। होगा तो जो होगा, देखा जायेगा।”

“लेकिन तू... तू ऐसा क्यों कर रही हैं?”

“क्योंकि मैं समझती हूं कि नन्हें सूरज को आपकी ज्यादा जरूरत है।”

“लेकिन ये कुर्बानी...”

“ये कुर्बानी नहीं, वक्त की जरूरत है।”

“लेकिन...”

“ये न भूलिये कि आज की तारीख में अगर मैं जिन्दा हूं तो भाई साहब की वजह से वरना अपनी मां और छोटी बहन के बलात्कारियों के हाथों मौत के बाद ही कब की मर खप गयी होती। समझ लीजिये कि मेरी जिन्दगी आप लोगों की अमानत थी जो मैं अब आपको लौटा रही हूं।”

नीलम खामोश रही। उसने बेचैनी से पहलू बदला।

“और जरूरी नहीं कि मेरा कोई गम्भीर अंजाम हो। किसी ब्लैकमेलर पर आत्मरक्षा के लिये गोली चलाना कानून द्वारा जायज भी ठहराया जा सकता है।”

“ऐसे मेरे साथ भी तो हो सकता है!”

“हो सकता है। लेकिन आपको अगर चन्द रोज भी जेल में गुजारने पड़ गये तो वो सूरज पर भारी गुजरेंगे। वो दूधपीता बच्चा है। उसे मां की, मां के दूध की जरूरत है। ये जरूरत मैं पूरी नहीं कर सकती।”

“लेकिन...”

“अब छोड़ दीजिये ये लेकिन वेकिन और मेरा कहना मानिये। ऐसी कोई रात नहीं होती, जिसका सवेरा नहीं होता। हमारे सामने मुसीबत की जो काली रात इस वक्त खड़ी है, इसका भी सवेरा होगा। देख लीजियेगा, सब ठीक हो जायेगा।”

“सब ठीक हो जायेगा।” — नीलम होंठों में बुदबुदाई।

“आइये, चलिये अब, वो पुलिस वाले शक करेंगे कि पता नहीं हम क्या खुसर पुसर कर रही हैं।”

नीलम उसके साथ हो ली।

दोनों ड्राईंगरूम में पहुंचीं।

जनकराज ने अपना परिचय दिया और उपस्थित व्यक्तियों का परिचय हासिल किया।

“मैं उस ट्रंक की बाबत पूछताछ करने आया हूं” — फिर वो सुमन से सम्बोधित हुआ — “जो पहले आप एक टैक्सी में भूल गयी थी और फिर आपने उसे कनॉट प्लेट थाने से कलैक्ट किया था। जिसमें कि सात लाख रुपये की रकम थी।”

“क्या पूछना चाहते हैं आप उस बाबत?” — सुमन दिलेरी से बोली।

“वो ट्रंक अब कहां है?”

“कहां है क्या मतलब?”

“थाने में ट्रंक में मौजूद रकम को गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन का माल बताया गया था। कहां है से मेरा मतलब है कि वो माल, रकम वाला वो ट्रंक, गैलेक्सी में वापिस पहुंच चुका है या अभी यहीं आपके पास है?”

सुमन ने तत्काल उत्तर न दिया। उसका दिल गवाही दे रहा था कि उस सवाल में कोई फन्दा था। वो जो भी जवाब चुनती, वो उसे फंसाने वाला होता।

“मैं आपको अन्धेरे में नहीं रखना चाहता।” — जनकराज बोला — “मैं आप लोगों की कोई अनड्यु एडवांटेज नहीं लेना चाहता इसलिये ये बताना अपना फर्ज समझता हूं कि मुझे मालूम है कि वो ट्रंक कहां है!”

“मालूम है तो पूछते क्यों हैं?”

“ये जानने के लिये कि जहां से वो ट्रंक आखिरकार बरामद हुआ है, वो वहां पहुंचा कैसे?”

“कहां से बरामद हुआ है?”

“कश्मीरी गेट के इलाके की हसन मंजिल नाम की एक चाल में रहने वाले एक ऐसे शख्स के घर से बरामद हुआ है जो लंगड़ा है, अपाहिज है, बैसाखियों के सहारे चलता है और जो अपना नाम काशीनाथ बताता है।”

नीलम के मुंह से सिसकारी निकली।

“लगता है उस अपाहिज के जिक्र से आपके जेहन में कोई घन्टी बजी है?”

नीलम ने जवाब न दिया।

“ट्रंक वहां कैसे पहुंच गया?” — सुमन बोली।

“आप बताइये। आखिर वो आपके कब्जे में था।”

“मेरे कब्जे में?”

“बिलकुल! कनॉट प्लेस थाने से आपने क्लेम किया था। अब या तो वो गैलेक्सी के आफिस पहुंचा होगा या आपके साथ यहां लौटा होगा। आप बताइये क्या हुआ था? जवाब ये सोच कर दीजियेगा कि गैलेक्सी के आफिस पहुंच जाने के बाद उस ट्रंक का किसी काशीनाथ के घर से बरामद होना नामुमकिन था।”

सुमन ने जवाब न दिया।

“ये भी ध्यान रखियेगा कि गैलेक्सी से दरयाफ्त किया जा सकता है कि ट्रंक वहां पहुंचा था या नहीं! वो लोग हां में जवाब देना अफोर्ड नहीं कर सकेंगे क्योंकि, जैसा कि मैंने पहले ही कहा, गैलेक्सी से ट्रंक काशीनाथ के घर नहीं पहुंच सकता।”

“वो ट्रंक मैं अपने साथ लायी थी।”

“क्यों?”

“क्योंकि यहां उस रकम की जरूरत थी।”

“किसको?”

“मुझ को।” — नीलम बोली।

“आपको क्यों?”

“क्योंकि... क्योंकि वो शख्स मुझे ब्लैकमेल कर रहा था।”

“कौन शख्स? वो काशीनाथ?”

“ये नाम मैंने अभी आपकी जुबानी ही सुना है।”

“यानी की असल में उसका कोई और नाम है?”

“हां।”

“क्या?”

“मायाराम। मायाराम बावा।”

“और ये मायाराम उर्फ काशीनाथ आपको ब्लैकमेल कर रहा था?”

“हां।”

“किस बिना पर?”

“वो मैं नहीं बता सकतीं।”

“क्यों नहीं बता सकती?”

“बस, नहीं बता सकती। या यूं कहिये कि बताना जरूरी नहीं समझती।”

“क्या जरूरी है या क्या नहीं जरूरी है, इसका फैसला हम करेंगे।”

“ऐसा नहीं हो सकता। वो बात मेरी जाती जिन्दगी से ताल्लुक रखती है। मैं अपनी जाती जिन्दगी का कोई अन्धेरा पहलू आप लोगों के सामने उजागर नहीं करना चाहती।”

“ब्लैकमेल में दो जनों का दखल होता है। एक जिसको ब्लैकमेल किया जाता है और दूसरा जो ब्लैकमेल करता है। जो बात आप अपनी जुबान पर नहीं लाना चाहती, वो ब्लैकमेलर से भी जानी जा सकती है।”

“जान लीजिये। किसने रोका है?”

“आप समझती हैं कि ब्लैकमेलर कुछ नहीं बतायेगा?”

“मेरे खयाल से तो नहीं बतायेगा! बतायेगा तो एक जुर्म का इकबाल करेगा। ऐसा खामखाह कौन करता है!”

“आपको बताने से क्या एतराज है?”

“बताया तो! मैं अपनी जाती जिन्दगी का कोई अन्धेरा पहलू आप लोगों के सामने उजागर नहीं करना चाहती।”

“ऐसा था तो ब्लैकमेल का जिक्र ही क्यों किया?”

“मजबूरन किया।”

“क्या मजबूरी थी?”

“मैं जानती हूं कि आप महज ट्रंक की वजह से यहां नहीं आये हैं। ट्रंक मायाराम के पास कैसे पहुंचा, इसका जवाब जान लेना भी आप लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं। असल में आप उस कत्ल की वजह से यहां आये हैं जो कि झण्डेवालान की एक बनती इमारत की तेरहवी मंजिल पर हुआ।”

“लिहाजा वो ट्रंक उस कत्ल की वजह है?”

“यही समझ लीजिये।”

“क्या किस्सा है?”

“मेरे से सात लाख की रकम की मांग की गयी थी। मेरे पास ऐसी रकम नहीं थी। मेरे पति गैलेक्सी में एकाउन्टेंट की नौकरी करते हैं। उनके सदके मैंने चुपचाप गैलेक्सी से सात लाख रुपये उधार मांगे थे। मुझे ब्लैकमेलर का हुक्म था कि वो रकम मैं खुद पहुंचाने की जगह किसी और के जरिये पहुंचाऊं। नतीजतन मैंने ये काम सुमन को सौंपा। परसों सुमन ब्लैकमेलर को सौंपने के लिये ही ट्रंक ले कर निकली थी। लेकिन हालत कुछ ऐसे बन गये कि ट्रंक ब्लैकमेलर तक तो पहुंचा नहीं, टैक्सी में रह गया और फिर थाने पहुंच गया।”

“आई सी।”

“लेकिन यूं ब्लैकमेलर की डिमांड तो खत्म हो नहीं गयी थी इसलिये ट्रंक गैलेक्सी जाने की जगह वापिस यहां पहुंच गया।”

“मैं बीच में टोकने की माफ़ी चाहता हूं लेकिन ये जो कुछ आप कह रही हैं, आप इसे साबित कर सकती हैं?”

“इत्तफाक से कर सकती हूं।”

“कैसे?”

“ब्लैकमेलर ने अपनी पिछली मांग एक चिट्ठी में लिख कर भेजी थी। वो चिट्ठी मेरे पास है।”

“दिखाइये।”

नीलम ने बेडरूम से चिट्ठी लाकर जनकराज को सौंपी।

जनकराज ने बड़े गौर से वो चिट्ठी पढ़ी।

“रकम के हवाले में इसमें पांच को काट के सात किया गया है।” — जनकराज बोला।

“जो कि ब्लैकमेलर के लालच का नतीजा है।” — नीलम बोली।

“ऐसा ब्लैकमेलर ने किया होगा?”

“और कौन करेगा?”

“उसने अपनी मांग पहले ही सात लाख क्यों न रखी?”

“बाद में इरादा बना होगा जरा और लम्बी लार टपकाने का!”

“एक लफ्ज के दम पर टाइपिंग के बारे में कुछ कहना मुश्किल होता है लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि शब्द ‘सात’ जो पांच को काट कर ऊपर टाइप किया गया है, जुदा टाइपराइटर से टाइप किया गया है।”

लूथरा ने भी आगे झुक कर चिट्ठी का मुआयना किया।

“इसका क्या मतलब हुआ?” — जनकराज बोला।

“मुझे क्या मालूम?” — नीलम बोली।

“लगता है पांच लाख की मांग वाली चिट्ठी किसी और ने टाइप की थी और मांग की रकम को बढ़ाने के लिये पांच की जगह सात किसी और ने किसी और टाइपराइटर पर टाइप किया था।”

नीलम खामोश रही।

“जब आपको चिट्ठी मिली थी तो इस पर क्या दर्ज था? पांच या सात?”

नीलम हिचकिचाई।

“ओ, कम ऑन।” — जनकराज बोला — “जब आप इतनी बड़ी बात कबूल कर सकती हैं कि आपको ब्लैकमेल किया जा रहा था तो उसके मुकाबले में तो ये मामूली बात है!”

“मुझे ध्यान नहीं।” — नीलम बोली।

“ध्यान कीजिये।”

“इसमें ध्यान करने वाली क्या बात है?” — सुमन बोली — “जब ट्रंक में सात लाख रुपये हैं तो जाहिर है कि चिट्ठी में पांच को काट के सात इसे भेजने से पहले ही कर दिया गया होगा।”

“हूं। तो ट्रंक डिलीवर करने के लिए आप गयी थीं?”

“हां।”

“चिट्ठी में दर्ज है डिलीवरी की बाबत अगला कदम आपको फोन पर बताया जाने वाला था। क्या बताया गया था आपको? जरा तफसील से बयान कीजिये।”

सुमन ने किया।

“इस लिहाज से” — जनकराज बोला — “ये तो नहीं कहा जा सकता था की ट्रंक आप टैक्सी में भूल गयी थीं। आप तो उसे जानबूझ कर टैक्सी में छोड़ कर चल दी थीं, किसी वजह से ब्लैकमेलर ही उसे टैक्सी में से क्लेम नहीं कर पाया था।”

“ट्रंक क्योंकि थाने पहुंच गया था इसलिए उसे क्लेम करने के लिए यही कहना मुनासिब था कि मैं उसे टैक्सी में भूल गयी थी।”

“बहरहाल ट्रंक वापिस यहां पहुंच गया। अब इसकी दूसरी मर्तबा यहां से रवानगी का किस्सा बयान कीजिये।”

“रकम की डिलीवरी के लिए” — नीलम बोली — “ब्लैकमेलर ने मुझे नये निर्देश जारी किये थे।”

“कैसे? ऐसी ही एक और चिट्ठी लिख कर?”

“नहीं।”

“तो टेलीफोन किया होगा?”

“नहीं।”

“तो फिर?”

“उसने अपना आदमी यहां भेजा था जो मेरे से रूबरू बात करके गया था।”

“कौन आदमी?”

“उसका साथी। जोड़ीदार। हरिदत्त पंत।”

“यानी कि मकतूल?”

“हां।”

“क्या बोला वो?”

“बोला, मायाराम का निर्देश था कि मैं रकम के साथ झण्डेवालान की उस इमारत की तेरहवीं मंजिल पर पहुंचूं।”

“आप पहुंचें?”

“पहुंचायें।” — सुमन जल्दी से बोली — “रकम पहुंचाने का काम मेरे जिम्मे था। पहले की तरह। जैसा कि चिट्ठी में दर्ज है।”

“लेकिन ये तो अभी कह रही थीं कि रकम के साथ इन्हें पहुंचने के लिए कहा गया था!”

“वो यूं ही कुछ लफ्जों की हेराफेरी थी। असल में ये यही कहना चाहती थीं की इन्होंने रकम को वहां पहुंचाने का इंतजाम करना था।”

“यानी कि रकम लेकर आप वहां गयी थीं?”

“हां।”

“कैसे?”

“टैक्सी पर।”

“बाहर दो दो कारें मौजूद हैं। वो क्या आप लोगों की नहीं?”

“हमारी हैं।”

“तो?”

“मुझे कार चलानी नहीं आती।”

“ओह! तो आप टैक्सी से झण्डेवालान गयीं?”

“हां।”

“उस टैक्सी ड्राईवर को तलाश किया जा सकता है।”

“शौक से कीजिये।”

“अगर आप झण्डेवालान गयी होने की बाबत झूठ बोल रही हैं तो...”

“आप क्यों कान देते हैं मेरे झूठ की तरफ? जब सच झूठ परखने का जरिया उस टैक्सी ड्राईवर की सूरत में आपको दिखाई दे रहा है तो पहले सच को परख ही क्यों नहीं लेते?”

“समझ लीजिये कि परख लिया। आपका इतना कांफिडेंस से इस बात का जिक्र करना ही सबूत है कि आप टैक्सी पर सवार हुई थीं और झण्डेवालान गयी थीं। अब आगे बढ़‍िये।”

“निर्देश के मुताबिक मैं बनती ईमारत की तेरहवीं मंजिल पर पहुंची। वहां लंगड़े की जगह मुझे उसका साथी मिला। मैंने लंगड़े की बाबत पूछा तो वो बोला उस्ताद ने रकम कलैक्ट करने के लिए उसे भेजा था। मुझे यकीन न आया।”

“क्यों? क्यों यकीन न आया?”

“क्योंकि अगर लंगड़े ने अपने जोड़ीदार का ऐसा भरोसा करना होता तो वो तभी ट्रंक न ले गया होता जब कि वो ट्रंक की बाबत लंगड़े का मैसेज ले कर यहां आया था!”

“ठीक। फिर क्या हुआ?”

“मैंने उसे रकम सौंपने से इंकार कर दिया तो उसने अपना असली रंग दिखा दिया। वो मुझे धमकाने लगा कि मैंने ट्रंक उसे न सौंपा तो वो मुझे जान से मार डालेगा। इस इरादे से वो मेरी तरफ बढ़ा तो मैं दहशत खा गयी। अपनी जान और माल की रक्षा के लिए मैंने रिवाल्वर निकाल ली।”

“रिवाल्वर निकाल ली!” — जनकराज हैरानी से बोला — “आपके पास रिवाल्वर कहां से आयी?”

“यहां एक रिवाल्वर मौजूद थी जो कि इस कोठी के भूतपूर्व मालिक पिपलोनिया साहब की मिल्कि‍यत थी।”

“रजिस्टर्ड? लाइसेंसशुदा?”

“हां।” — नीलम बोली। — “मेरे पति मिस्टर पिपलोनिया के कानूनी वारिस थे इसलिए...”

“रिवाल्वर की कहानी मैं फिर सुनूंगा, बहरहाल इन्हें अपनी बात मुकम्मल करने दीजिये। तो आप हथियारबन्द होके यहां से गयी थीं?”

“हां।” — सुमन बोली।

“क्यों?”

“वजह आप खुद समझ सकते हैं। मैं एक नौजवान, कुंआरी लड़की हूं जिसे कि एक मोटी रकम के साथ रात के वक्त एक सुनसान जगह पर बुलाया जा रहा था। रिवाल्वर यहां उपलब्ध थी। अपनी हिफाजत के लिए मुझे उसे साथ ले जाना सूझना क्या बड़ी बात थी?”

“कोई बड़ी बात नहीं थी। तो आपने रिवाल्वर उस शख्स पर तान दी?”

“हां लेकिन उस पर तो रिवाल्वर की धमकी का कोई असर ही नहीं हुआ! वो तो एक शैतान की तरह क्रूर हंसी हंसता मेरी तरफ बढ़ता ही चला आया! तब मुझे वो सिर्फ रकम की फिराक में ही न लगा। मुझे लगा कि वो मेरी इज्जत लूटने का भी इरादा रखता था। लिहाजा अपनी रक्षा करने के लिए मुझे उस पर गोली चलानी पड़ी।”

“कितनी बार गोली चलाई आपने?”

“सिर्फ एक बार। एक ही गोली ने उसका काम कर दिया था और वो औंधे मुंह मेरे सामने फर्श पर ढेर हो गया था।”

प्रदीप सकपकाया, उसके चेहरे पर गहन व्यग्रता के भाव आये।

“आप कुछ कहना चाहते हैं?” — जनकराज बोला।

प्रदीप एक क्षण खामोश रहा, फिर उसने इनकार में सिर हिलाया।

“आपने” — जनकराज फिर सुमन की ओर आकर्षित हुआ — “उसे गोली लगती देखी थी?”

“देखी तो नहीं थी!” — सुमन बोली — “वहां अन्धेरा था और अन्धेरे में ऐसा कुछ देख पाना सम्भव नहीं था लेकिन गोली लगी तो उसे यकीनन थी।”

“कैसे मालूम?”

“मेरे गोली चलाते ही उसने कलेजा पकड़ लिया था और फिर औंधे मुंह मेरे सामने फर्श पर गिरा था।”

“अापने पहले कभी गोली चलायी?”

“नहीं।”

“पहले कभी रिवाल्वर थामी?”

“नहीं।”

“तो फिर पहली ही बार इतनी एक्यूरेसी से ऐन निशाने पर गोली आप कैसे चला पायीं?”

“इत्तफाक से यूं चल गयी गोली।” — सुमन लापरवाही से बोली।

“लेकिन...”

“इन्स्पेक्टर साहब” — एकाएक नीलम बोली पड़ी — “गोली इसने नहीं, मैंने चलाई थी।”

“दीदी!” — सुमन तीखे स्वर में बोली।

“और मुझे रिवाल्वर हैंडल करने का खूब तजुर्बा है।”

“दीदी! चुप करो!”

“तू मुझे चुप नहीं करा सकती। थोड़ी देर के लि‍ये में तेरी बातों में आ गयी थी लेकिन मेरी अन्तरात्मा को ये गवारा नहीं कि मेरा गुनाह तू अपने सिर ले।”

“दीदी, आपको सूरज की कसम जो आपने एक भी और लफ्ज जुबान से निकाला।”

“इस घड़ी मुझे कोई कसम खामोश नहीं कर सकती। मैं यूं खुदगर्जी का दामन नहीं थाम सकती। मेरे मरद ने तेरा खयाल रखने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी है, मैं उस जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती। मैं उस शख्स की बीवी हूं जो कहता है बांह जि‍नां दी पकड़िये, सिर दीजे बांह न छडि‍ये। मैंने तेरी बांह पकड़ी है। मेरा सिर कट जाये, मैं तेरी बांह नहीं छोड़ सकती।”

“दीदी! होश में आओ!”

“होश में ही तो आयी हूं। तेरी बातों में आ कर मैं पहले होश खो बैठी थी लेकिन अब मैं होश में आ गयी हूं। इसलिये तू मुझे चुप न करा, बल्कि खुद चुप हो के बैठ।”

“क्या माजरा है?” — जनकराज उलझनपूर्ण स्वर में बोला।

“इन्स्पेक्टर साहब, ये लड़की झूठ बोल रही है, ये मुझे बचाने के लिये कत्ल का इलजाम अपने सिर लेने की कोशिश कर रही है। हकीकत ये है कि ट्रंक के साथ मैं झण्डेवालान गयी थी। पंत के जरिये मुझे जो सन्देशा मिला था वो ये था कि ट्रंक के साथ मैंने ... मैंने उस बनती इमारत की तेरहवीं मंजिल पर पहुंचना था जहां कि मायाराम मुझे मिलता। मैं वहां पहुंची थी तो वहां मायाराम की जगह पंत मौजूद था जिसने कि ट्रंक मेरे से जबरदस्ती छीनने की कोशिश की थी। उसका मेरी इज्जत पर हाथ डालने का भी इरादा था। तब मैंने पिपलोनिया साहब वाली रिवाल्वर से, जिसे कि मैं साथ ले के गयी थी, उस पर गोली चलाई थी। और वो मेरे सामने कलेजा थामकर फर्श पर गिरा था।”

“औंधे मुंह?”

“हां।”

“आपको ठीक से याद है कि वो अौंधे मुंह फर्श पर गिरा था?”

“हां। वो हौलनाक नजारा क्या मैं इतनी जल्दी भूल सकती हूं?”

“गिरने के बाद उसके जिस्म में कोई हिलडुल हुई थी?”

“नहीं। बिल्कुल नहीं। वो जैसे गिरा था, वैसे ही गिरा पड़ा रहा था।”

“पोस्टमार्टम की रिपोर्ट भी इस बात की तसदीक करती है। गोली उसकी छाती में ऐन उसके दिल पर लगी थी और उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी थी। यानी कि धराशायी होने से पहले ही वो मर चुका था। यानी कि धराशायी होने के बाद उसके जिस्म में कोई हिलडुल मुमकिन नहीं थी।”

“लेकिन...” — प्रदीप के मुंह से निकला।

“आप फिर कुछ कहना चाहते हैं?” — जनकराज उसे घूरता हुआ बोल।

“इंस्पेक्टर साहब” — प्रदीप धीरे से बोला — “जब हर किसी पर अपनी काशंस का दबाब हावी है तो मेरे खयाल से मुझे भी अपनी कांशस की आवाज सुननी चाहिये और कुछ कहना चाहिये।”

“क्या? क्या कहना चाहते हैं आप?”

“कल रात इन दोनों के यहां लौटने के और इस कत्ल की खबर पाने के बाद मैं भी झण्डेवालान गया था।”

“आप भी गये थे?”

“जी हां।”

“क्यों?”

“क्योंकि जैसे वाकयात लौट कर इन दोनों ने बयान किये थे, उनसे मुझे लगा था कि जरूरी नहीं था कि वो शख्स मर ही गया था, वो सिर्फ घायल भी हो सकता था। अगर वो गम्भीर रूप से घायल होता तो जल्दी डाक्टरी इमदाद मिलने से बच सकता था, अगर वो इतना गम्भीर घायल न हुआ होता तो वो खुद ही वहां से उठ कर चल दिया हो सकता था। वहां क्या हुआ था, इस बात की तसदीक करने के लिये मैं वहां गया था। मैं क्वालीफाइड डाक्टर हूं। अगर वो शख्स मरा नहीं था तो मैं उसके किसी काम आ सकता था।”

“काफी महान खयालात हैं आपके! क्या देखा अपने वहां?”

“अब जबकि पोस्टमार्टम की रिपोर्ट तक उपलब्ध है तो आपको मालूम ही है कि मैंने क्या देखा होगा!”

“वो मरा पड़ा था?”

“हां। लेकिन मैंने लाश को औंधे मुंह पड़ा नहीं देखा था। मैंने उसे” — प्रदीप एक एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला — “अपने एक पहलू के बल फर्श पर लुढ़का पड़ा देखा था।”

“अपनी डाक्टरी आजमाने के लिये आप ही ने उसे एक पहलू के बल लुढ़का दिया होगा!”

“नैवर। आई नैवर टच्ड हिम। मैंने फासले से ही उसका मुआयना किया था।”

“अन्धेरे में फासले से क्या दिखाई दिया होगा?”

“मेरे विजिट बैग में टार्च हमेशा रहती है। वो टार्च तब भी मेरे पास थी। मैंने टार्च की रोशनी में उसका मुआयना किया था।”

“और अापने उसे एक पहलू के बल लुढ़का पड़ा पाया था?”

“हां।”

“औंधे मुंह नहीं?”

“नहीं।”

“लेकिन आपके सामने” — वो नीलम की तरफ घूमा — “वो औंधे मुंह फर्श पर गिरा था और फिर नहीं हिला था?”

“हां।”

“आप भी” — वो सुमन की ओर घूमा — “इस बात की तसदीक करती हैं?”

“हां।” — सुमन बोली।

“वो रिवाल्वर कहां है जो आप किन्हीं पिपलोनिया साहब की बताती हैं?”

“मेरे पास है।” — नीलम बोली।

“आप समझती हैं न कि जो कहानी अभी आपने बयान की है, उसकी रू में रिवाल्वर मर्डर वैपन का दर्जा रखती है?”

“मैंने अपनी इज्जत बचाने के लिये गोली चलाई थी।”

“किसी भी वजह से चलाई थी लेकिन चलाई थी और उससे कोई मरा था, इस लिहाज से मौत की वजह बनने वाला हथियार मर्डर वैपन ही तो कहलायेगा !”

नीलम खामोश रही।

“जवाब दीजिये।” — जनकराज जिदभरे स्वर में बोला।

“कहलायेगा।” — नीलम धीरे से बोली।

“क्या?”

“मर्डर वैपन।”

“जो कि इस वक्त यहां मौजूद है? आपके कब्जे में है?”

“हां।”

“लेकिन मर्डर वैपन पर तो पुलिस पहले ही काबिज हो चुकी है !”

“जी !”

“मर्डर वैपन हमारे पास है और उसकी बाबत जो साबित किया जाना जरूरी है, वो पहले ही साबित किया जा चुका है।”

“लेकिन वो तो... वो तो यहां...”

“वो घर में है? वहां है जहां कि कल की वारदात के बाद घर लौट कर अापने उसे रखा था?”

“हां।”

“वो अभी भी वहीं होगा?”

“होना तो चाहिये!”

“जा के देखिये। है तो ले के आईये।”

चेहरे पर भारी सस्पेंस के भाव लिये नीलम उठी और भारी कदमों से वहां से रुखसत हो गई।

पीछे मुकम्मल सन्नाटा छाया रहा।

वो लौटी तो रिवाल्वर उसके हाथ में थी जिसे कि उसने खामोशी से जनकराज के हवाले कर दिया।

जनकराज रिवाल्वर का मुआयाना करने लगा।

“तो” — फिर वो बोला — “ये है वो रिवाल्वर जिससे अापने गोली चलाई थी?”

“हां।” — नीलम बोली।

“जब आप इसे साथ लेकर गयी थीं तो ये पूरी भरी हुई थी?”

“हां।”

“इस घड़ी इसमें पांच गोलियां मौजूद हैं।”

“एक मैंने चलाई थी।”

“घर में और गोलियां मौजूद हैं?”

“हां, हैं।”

“फिर भी आपने एक खाली जगह भरने की कोशिश न की?”

“मुझे सूझा तक नहीं था।”

“जो और गोलियां घर में मौजूद हैं, वो ले कर आईये।”

नीलम फिर वापिस बैडरूम में गयी और गोलियों का डिब्बा ले कर आयी।

उस घड़ी जनकराज रिवाल्वर में मौजूद गोलियां निकाल कर अपनी हथेली पर रखे उनका मुआयना कर रहा था।

उसने एक गोली लूथरा को थमायी और बड़े अर्थपूर्ण ढंग से उसकी तरफ देखा।

लूथरा भी गोली का मुआयना करने लगा।

फिर दोनों ने मिल कर डिब्बे में मौजूद गोलियों का भी मुआयना किया।

आखिरकार उन्होंने डिब्बा, रिवाल्वर और गोलियां मेज पर एक तरफ रख दीं।

“पहले ये रिवाल्वर कब इस्तेमाल की गयी थी?” — जनकराज बोला।

“मालूम नहीं।” — नीलम बोली।

“यानी कि जब से ये रिवाल्वर, ये गोलियां, आपके हवाले हुई हैं, तब से इस्तेमाल नहीं की गयी हैं?”

“नहीं। कोई खास बात है?”

“बहुत खास बात है।”

“क्या?”

“ये कि आप बहुत खुशकिस्मत हैं।”

“जी!”

“नीली छतरी वाले की आप पर ऐसी मेहर है कि आपका उलटा काम भी सीधा होता है।”

“क्या मतलब?”

“मैडम, अपने कोई कत्ल नहीं किया।”

“जी!”

“इसलिये किसी कत्ल का कोई इलजाम” — वो सुमन से बोला — “अपने सि‍र लेना आपके लिये जरूरी नहीं।”

सुमन भी भौंचक्की सी उसका मुंह देखने लगी।

“लेकिन” — प्रदीप बोला — “वो आदमी... वो आदमी जो वहां मरा पड़ा मैंने खुद अपनी आंखों से देखा था... वो...”

“इनकी चलाई गोली से नहीं मरा था।”

“लेकिन” — नीलम आवेशपूर्ण स्वर में बोली — “गोली चलाते ही मैंने खुद उसे अपने सामने गिरते देखा था। अगर मेरी चलाई गोली उसे नहीं लगी थी तो...”

“यानी कि” — सुमन बोली — “इनका निशाना...”

“निशाने का कोई दखल नहीं।” — जनकराज बाेला।

“तो फिर क्या माजरा है?” — प्रदीप बोला।

“ये खाली कारतूस हैं।” — जनकराज बोला — “इनमें गोलियां हैं ही नहीं। ये देखिये...”

उसने मेज पर से एक गोली उठा कर उसकी कैप उमेठी और भीतर की कैविटी उन्हें दिखाई।

“ये तमाम की तमाम गोलियां” — जनकराज बोला — “डिब्बे वाली भी और रिवाल्वर वाली भी, महज पटाखे हैं जो चलाये जाने पर सिर्फ आवाज और धुंआ कर सकते है। मैडम, भले ही आप घर से ही कत्ल का इरादा लेकर रवाना हुई होतीं लेकिन आप कत्ल करने में सक्षम नहीं थीं। यु वर नाट इक्विप्ड टू किल।”

“तो फिर वो” — नीलम बोली — “मेरे घोड़ा खींचने के बाद वो पछाड़ खाकर मेरे सामने क्योंकर गिरा?”

“क्योंकि उसे नहीं मालूम था कि आपकी रिवाल्वर में भरी गोलियां नकली थीं। अापने घोड़ा खींचा था तो वो समझा था कि इत्तफाक से आपका निशाना चूक गया था। लेकिन निशाना बार बार नहीं चूकने वाला था। इसलिये उसने ये जाहिर किया कि आपकी चलाई पहली ही गोली उसे लग गयी थी ताकि आप और कोई गोली चलाना जरूरी न समझतीं। ये बात दीगर है कि आप सारी गोलियां भी उस पर चला देतीं तो उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं था। मैडम, उस चालाक आदमी की अतिरिक्त होशियारी ने आपकी जान बचायी। अगर वो पहली ही गोली लग जाने पर गिर के मर जाने का अभिनय न करता तो पांच सैकेंड में उसे मालूम हो जाता कि आपका निशाना नहीं चूक रहा था, आपकी चलाई गोलियां नकली थीं। फिर कोई बड़ी बात नहीं कि वो सब कुछ वहां होता जिसका कि आपको अन्देशा था।”

नीलम के शरीर ने जोर से झुरझुरी ली।

“लेकिन” — प्रदीप बोला — “कत्ल तो हुआ! वो आदमी तो मरा!”

“इनके मारे नहीं मरा। इन दोनों के वहां से रुखसत हो जाने के बाद वहां कोई और पहुंचा जिसने कि तब उठ कर खड़े होते उस शख्स को गोली मार दी — असली गोली मार दी — जो उसके दिल में से गुजरी, जो उसकी तत्काल मृत्यु की वजह बनी और जिसकी वजह से लाश एक पहलू के बल फर्श पर जा कर गिरी।”

“ओह!”

“लिहाजा मेरा ही दावा ठीक है कि मर्डर वैपन पुलिस की कस्टडी में है। ये रिवाल्वर मर्डर वैपन नहीं। इससे न कोई कत्ल हुआ है, न हो सकता था।”

नीलम और सुमन दोनों ने साफ साफ चैन की सांस ली।

“आपकी जानकारी के लिए मर्डर वैपन ही नहीं, मर्डरर भी पुलिस के कब्जे में है।”

“मर्डरर भी?” — नीलम के मुंह से निकला।

“जिसके खिलाफ कि मैंने इतनी मेहनत से इतना मजबूत केस खड़ा किया है। आप लोगों के ड्रामेटिक इकबालेजुर्म ने तो मेरे केस की हवा ही निकाल दी थी।”

“किसके खिलाफ केस खड़ा किया है आपने?” — प्रदीप उत्सुक भाव से बोला।

“उस शख्स के खिलाफ जो कि इस वक्त पहाड़गंज थाने की हवालात के सींखचों के पीछे बन्द है।”

“कौन?” — नीलम बोली।

“वही जो अपना नाम काशीनाथ बताता है लेकिन जिसे आप मायाराम के नाम से जानती हैं।”

“वो... वो गिरफ्तार है?”

“जी हां। अपने जोड़ीदार हरिदत्त पंत के कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार है। मेरे पास उसके खिलाफ बड़े पुख्ता सबूत हैं। लेकिन कत्ल का कोई उद्देश्य मेरी निगाह में नहीं था। मुझे खुशी है कि अब कत्ल का उद्देश्य भी मेरी समझ में आ गया है।”

“क्या उद्देश्य है कत्ल का?”

“यही कि उसका जोड़ीदार पंत नाम का वो आदमी, उसके काबू में नहीं रहा था और अपनी खिचड़ी अलग पकाने की सोचने लगा था। ब्लैकमेल में हिस्से की जगह वो पूरे माल पर काबिज होने के ख्वाब देखने लगा था। मैडम, मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि आपके पास वो अपने उस्ताद के भेजे नहीं पहुंचा था बल्कि उस्ताद की जानकारी के बिना खुद यहां चला आया था। किसी से हिस्सा न बंटाना पड़े तो सात लाख कोई छोटी मोटी रकम नहीं होती। आपने वो रकम चुपचाप उसे सौंप दी होती तो वो यकीनन उसे खुद डकार जाता और फिर या तो इस बात से मुकर जाता कि उसने आपसे कोई रकम हासिल की थी या फिर ऐसा गायब होता कि उस्ताद को ढूंढे न मिलता।”

“ओह!”

“लेकिन जाहिर है कि किसी तरीके से उस्ताद को उसके नापाक इरादों की भनक लग गयी और उसने उसे उसकी बद््नीयती की सजा दे डाली।”

“भनक कैसे लग गयी?”

“मालूम नहीं लेकिन मालूम हो जायेगा।”

“कैसे?”

“वो खुद बतायेगा। नहीं बतायेगा तो खता खायेगा। एक बार कोई बन्दा पुलिस के काबू में आ जाये और फिर गा गा कर सब कुछ खुद ही न बताये, ऐसा कहीं होता है!”

“ओह!”

“अब जरा ट्रंक पर वापिस लौटिये। आप ट्रंक अपने साथ ले के गयी थीं?”

“ये भी कोई पूछने ही बात है! वो ट्रंक ही तो डिलीवर करने मैं गयी थी!”

“ट्रंक आपके साथ वापिस लौटा होगा!”

“नहीं।”

“वजह?”

“उस आदमी से उलझते वक्त घबराहट में वो मेरे हाथ से निकल गया था और फिर मुझे ढूंढे नहीं मिला था।”

“सच पूछिए तो” — नीलम बोली — “हमने उसे ज्यादा तलाश भी नहीं किया था क्योंकि हमें वहां से निकल भागने की जल्दी थी।”

“वो कोई सुई तो नहीं था, एक खासा बड़ा अदद था, उसे तलाश करने में क्या दिक्कत थी?”

“अन्धेरे में वो हमें नहीं दिखाई दिया था।” — नीलम बोली — “फिर मुझे ये भी अन्देशा था कि वो वहां के फ्लोर से लुढ़क कर नीचे कहीं जा गिरा था।”

“तेरह मंजिल नीचे?”

“या रास्ते में ही कहीं। उस बाबत पड़ताल करने का टाइम हमारे पास नहीं था।”

“हैरानी की बात है कि आपने इतनी बड़ी रकम से इतनी आसानी से किनारा कर लिया!”

“घबराहट में ऐसा हुआ हो सकता है।” — प्रदीप बोला — “आप ये न भूलिये कि इनकी निगाह में वहां एक कत्ल हो के हटा था।”

“मैं मुतमइन तो नहीं इस बात से” — जनकराज बोला — “लेकिन चलिये, मान लेता हूं। मैडम” — वो नीलम की तरफ घूमा — “आप जरा ब्लैकमेल वाली बात पर फिर से आइये।”

नीलम ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।

“ये सिलसिला कब से जारी था?”

“यही कोई एक महीने से।”

“अब तक कितना पैसा वो आपसे झटक चुका था?”

“मैं इसका जवाब दूंगी तो आप सवाल करेंगे कि वो रकम मेरे पास कहां से आयी?”

“नहीं करूंगा। वादा।”

“नौ लाख।”

“एकमुश्त?”

“तीन किस्तों में।”

“तीन तीन लाख की तीन किस्तों में?”

“नहीं। पहली मांग दो लाख की थी, फिर तीन लाख की, फिर चार लाख की।”

“और अब पांच लाख की, जो कि किसी करिश्माई तरीके से बढ़ कर सात लाख की हो गयी!”

“यही समझ लीजिये।”

“आगे ये सिलसिला कब तक चलता?”

“वो कहता था कि इस बार वाली किस्त आखिरी थी।”

“आपको उसकी बात पर यकीन था?”

“सीधे से तो यकीन नहीं था लेकिन उसकी अपनी कोई प्राब्लम हो सकती थी जिसकी वजह से वो मेरा पीछा छोड़ सकता था।”

“ऐसे छोड़ता तो नहीं कोई पीछा!”

नीलम खामोश रही।

“ब्लैकमेल की बुनियाद क्या थी?”

“ये सवाल आप पहले भी पूछ चुके हैं। मेरा जो जवाब पहले था, वो ही अब है। इस बाबत मैं आपको कुछ नहीं बता सकती।”

“हर्ज क्या है?”

“है कोई हर्ज।”

“अच्छा, इतना तो बताइये कि आप उस शख्स से, ब्लैकमेलर से, पहले से वाकिफ थीं या ब्लैकमेलिंग की शुरुआत से ही वाकफियत हुई थी?”

नीलम एक क्षण हिचकिचाई और फिर बोली — “पहले से वकिफ थी।”

“यानी कि वो आपकी गुजाश्ता जिन्दगी के किसी अन्धेरे पहलू का जामिन है?”

नीलम खामोश रही।

“ऐसा क्या किया था कभी आपने जिसकी खबर आम हो जाने की आपको इतनी दहशत है कि आप किसी की जुबान को दौलत का ताला लगाने को तैयार थीं?”

“आप ये कोशिश बन्द कीजिये। इस बाबत मैं कुछ नहीं बताने वाली।”

“कहीं आप पहले भी तो कत्ल नहीं कर चुकीं?”

“एक क्या, कई कर चुकी हूं। ये सवाल पूछने से बाज नहीं आयेंगे तो आपका भी कर सकती हूं।”

जनकराज हड़बड़ाया।

“आप मजाक कर रही हैं।” — फिर बोला।

नीलम परे देखने लगी।

“आप भूल रही हैं कि जो शख्स आपको ब्लैकमेल कर रहा था, वो गिरफ्तार है। जो बात आप अपनी जुबान पर नहीं लाना चाहतीं, वो उससे भी कुबुलवाई जा सकती है।”

“मेरा सारी दुनिया पर जोर नहीं। मेरा सिर्फ अपने पर जोर है।”

“जो कि आप आजमा रही हैं!”

“हां।”

“अमूमन पुलिस की हमदर्दी ब्लैकमेल के शिकार के साथ होती है। आप पुलिस को अपनी तरफ नहीं देखना चाहतीं?”

“मुझे किसी की हमदर्दी की जरूरत नहीं।”

“आपकी बातों से, आपके तेवरों से, आपके मिजाज से जाहिर होता है कि आप बड़े स्ट्रांग कैरेक्टर वाली महिला हैं। फिर भी आप एक लंगड़े, अपाहिज शख्स से दब गयीं, उससे मुतवातर ब्लैकमेल होती रहीं तो वजह तो कोई करारी ही होगी!”

“मेरे लिए। जो वजह मेरे लिए करारी है, वो जरूरी नहीं कि कायदे कानून के लिए भी करारी हो!”

“अब छोड़ न!” — एकाएक लूथरा उसे कोहनी मारता हुआ दबे स्वर में बोला।

जनकराज सकपकाया, फिर उसने सहमति में सिर हिलाया और फिर एकाएक उठ खड़ा हुआ।

नीलम ने चैन की सांस ली।

“सहयोग का शुक्रिया।” — जनकराज बोला — “जाने से पहले एक बात मैं आप लोगों को बता कर जाना चाहता हूं। मैं यहां सिर्फ ट्रंक की बाबत पूछताछ करने आया था। कत्ल का आप लोगों से कोई वास्ता हो सकता था, इसका मुझे सपने मैं खयाल नहीं था। और तो और, मुझे ये तक खयाल नहीं था कि‍ ट्रंक की कत्ल के साथ कोई जुगलबन्दी हो सकती थी। आप देवियों ने पुलिस को यहां पहुंचे देखा तो कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गयीं कि पुलिस को कत्ल से आपके वास्ते की खबर लग चुकी थी, नतीजतन आपकी वाणी ऐसी मुखर हुई कि जानकारी की गंगा जमुना बह निकलीं। मुझे खुशी है कि ऐसा हुआ। मुझे और भी खुशी होती अगर ये सिलसिला थोड़ा और आगे चलता और आप ब्लैकमेल की वजह भी बयान कर देतीं, लेकिन अफसोस कि आप बड़बोलेपन की उस हद तक न पहुंचीं।”

कोई कुछ न बोला।

“खैर, कोई बात नहीं। जो जानकारी हासिल हुई, मैं उससे भी सन्तुष्ट हूं, जैसे ट्रंक वाली बात का एक दूसरा सिरा था जिसे मैंने पकड़ा था और पकड़ कर यहां तक पहुंचा था, वैसे ही ब्लैकमेल वाली बात का भी एक दूसरा सिरा है जिसे पकड़ कर अब मैं ब्लैकमेलर तक पहुंचूंगा जो कि पूरी तरह से मेरी मुट्ठी मैं है। मैं देखता हूं उस बाबत वो क्या राग अलापता है। बहरहाल, सहयोग का शुक्रिया।”

पुलिसिये वहां से रुखसत हो गये।

“हाशमी लौट आया है।” — मुबारक अली बोला।

विमल ने सिर उठा कर मुबारक अली की तरफ देखा।

“जो खोज खबर वो लाया है” — मुबारक अली बोला — “वो उसकी जुबानी सुनेगा या मैं अर्ज करूं?”

विमल उस वक्त लोटस क्लब में कुशवाहा के ऑफिस में मौजूद था। कुशवाहा थोड़ी ही देर पहले उठ कर कहीं गया था।

“पुलिस में तेरी पेशी हो गई?” — उसने पूछा।

“हां, बाप।” — मुबारक अली बोला।

“कैसी बीती?”

“बढ़िया। जैसे होना चाहिये था, वैसीच सब कुछ हुआ।”

“उधर तो ‘वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में’ नहीं बोला था?”

“नहीं बोला था, बाप।” — मुबारक अली दांत निकालता बोला — “पण बहुत, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, काबू करना पड़ा था, बहुत ज्यास्ती काबू करना पड़ा था वरना जुबान का पता लगता था कि कब फिसल जाती!”

“हमारे जमूरे का क्या हाल है?”

“बुरा हाल है। पहाड़गंज थाने में बंद है। गला फाड़-फाड़ कर अपनी बेगुनाही की दुहाई दे रहा है, पण कोई सुनने वाला नहीं। कोई यकीन करने वाला नहीं।”

“गुड!”

“बाप, अली, वली कहते हैं कि पुलिस का फेरा मॉडल टाउन भी लग चुका है।”

“वहां क्या हुआ?”

“पता नहीं क्या हुआ! वो लूथरा ही बता सकता है कुछ उस बाबत।”

“हूं। हाशमी कहां है?”

“बाहर मेरी टैक्सी में बैठेला है।”

“बुला के ला।”

“अभी।”

मुबारक अली चला गया।

तभी फोन की घंटी बजी।

विमल ने हिचकिचाते हुए फोन उठाया तो पाया कि लाइन पर लूथरा था। उसने सविस्तार बताया कि मॉडल टाउन में क्या हुआ था।

“लंगड़े की बाबत पुलिस का क्या प्रोग्राम है?” — विमल ने पूछा।

“कल सुबह दस बजे उसे तीस हजारी कोर्ट में पेश किया जायेगा और रिमांड हासिल किया जायेगा।”

“तुम मेरी उससे एक मुलाकात फिक्स करा सकते हो?”

“आज तो मुश्किल होगा क्योंकि अभी तो उसकी थाने में ही लम्बी इन्वेस्टीगेशन होगी! डंडा परेड भी हो जाये तो बड़ी बात नहीं।”

“कल?”

“कल कोर्ट में पता नहीं कितना वक्त लग जाये!”

“कल सुबह सवेरे? आठ से पहले?”

“ठीक है। मैं कोशिश करता हूं। और फिर आपको खबर करता हूं।”

विमल ने रिसीवर रख दिया।

हाशमी के साथ मुबारक अली वापिस लौटा।

हाशमी ने विमल का अभिवादन किया।

“बैठो।” — विमल बोला।

हाशमी बैठ गया। मुबारक अली उसके करीब खड़ा रहा।

“क्या जाना?” — विमल बोला।

“वो पंडित” — हाशमी बोला — “जिसने सर्टिफिकेट जारी किया था, मर चुका है। वहां बाल विवाह आम बात है। नाबालिग लड़की की उम्रदराज मर्द से शादी भी आम बात है, लेकिन शादी का ऐसा कोई सर्टिफिकेट जारी करने का कोई रस्मोरिवाज वहां नहीं है इसलिये ऐसा कोई रिकार्ड रखे जाने का या कोई डुप्लीकेट कापी रखे जाने का सवाल नहीं है।”

“सवाल तो नहीं है लेकिन फिर भी शायद रखा हो!”

“नहीं रखा। पंडित की जिन्दगी में उसके पास मंदिर के परिसर में एक कमरा था जिसमें वो कोई चालीस साल से रहता आ रहा था और जिस पर छ: महीने पहले हुई उसकी मौत के बाद से ताला लगा हुआ था। मैंने वो ताला खुलवा कर पंडित के सामान की एक एक चीज टटोली थी। वहां कोई डुप्लीकेट कापी नहीं थी, कोई रिकार्ड जैसा रजिस्टर, बहीखाता नहीं था।”

“हूं।”

“वो सर्टिफिकेट जरूर एक स्पेशल केस के तौर पर, किसी खास जरूरत के मद्देनजर, जारी कराया गया था।”

“जारी कराया गया था की क्या गारन्टी है? जब कोई रिकार्ड नहीं तो क्या पता हमारे आदमी ने वो सर्टिफिकेट खुद ही बना लिया हो!”

“ऐसा नहीं है। फोटोकापी पर से उस पंडित का हैंडराइटिंग बहुत लोगों ने पहचाना है।”

“और?”

“किसी को उस गांव में नीलम और मायाराम की शादी की खबर नहीं है। मैंने जिस किसी से भी बात की, उसने शादी की बात पर हैरानी जाहिर की क्योंकि वहां के तो बच्चे बच्चे की जुबान पर है कि मायाराम नीलम को भगा के ले गया था।”

“आई सी।”

“जनाब, मायाराम की उस हरकत के लिए आज भी उस गांव, उस सारे इलाके में इतनी नाराजगी है कि बद्किस्मती से मायाराम कभी वहां पहुंच गया तो गांव वाले उसे जूतों से मारेंगे।”

“जहां उस शख्स के बारे में ऐसा रोष है, वहीं के एक पुजारी ने उसकी शादी करवाई और बाकायदा सर्टिफिकेट भी जारी किया!”

“जरूर मोटी दक्षिणा के लालच में। तभी तो अपनी जिन्दगी में उस पंडित ने उस शादी का कभी जिक्र न किया...”

“जरूर गांव वाले” — मुबारक अली बोला — “उस बेजा हरकत के लिए उसकी भी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, जूतपुजार कर देते।”

“...तभी तो आज भी वहां यही अफवाह कायम है कि मायाराम नीलम को, गांव की एक नाबालिग लड़की को, भगा कर ले गया था।”

“कमाल है!” — विमल बोला — “ऐसा आदमी ये दावा करता है कि अगर वो मर गया तो उसके गांव से सौ पचास आदमी इधर आयेंगे और उसकी बेवा को घसीट कर वापिस गांव ले जायेंगे।”

“वो झूठ बोलता है।” — हाशमी बोला।

“अब तो ऐसा ही मालूम होता है!”

“गांव में उसकी ऐसी कोई गुडविल स्थापित नहीं।”

“ये बहुत अच्छी खबर लाये हो, हाशमी।”

हाशमी खामोश रहा।

विमल भी कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला — “लेकिन शादी तो हुई थी! वो कमीना शादी की तसवीरें दिखाता है!”

“चुपके से मंदिर में ही हुई होगी।” — हाशमी बोला — “कन्यादान भी पंडित ने ही कर दिया होगा। गवाह भी पंडित ही होगा।”

“या उधर होगा कोई उसका जिगरी” — मुबारक अली ने राय पेश की — “जिसने कन्यादान भी किया होगा और जो शादी का गवाह भी रहा होगा। हर किसी का होता है।”

“हो सकता है। जैसे मेरा तुकाराम था। खुद मेरी शादी में तुकाराम ने कन्यादान किया था और वागले इकलौता बाराती था।”

हाशमी के चेहरे पर उलझन के भाव आये।

“तू नहीं समझेगा।” — मुबारक अली शान से अपने और विमल की ओर इशारा करता हुआ बोला — “बड़े लोगों की बातें हैं।”

“मामू” — हाशमी बोला — “तुम भी बड़े लोग!”

“ये भी भांजा है?” — विमल बोला।

“बहुत बड़ा कुनबा है, बाप।” — मुबारक अली दांत निकालता बोला — “मेरे को तो खुद याद नहीं रहता कि मैं किस किस का मामू हूं!”

विमल हंसा, फिर वो हाशमी से बोला — “और कुछ?”

हाशमी ने इनकार में सिर हिलाया।

जनकराज अपने थाने पहुंचा।

अब लूथरा उसके साथ नहीं था। आना वो वहां भी चाहता था लेकिन जनकराज ने बड़ी सख्ती से उसे वो छूट देने से इनकार कर दिया था। वो नहीं चाहता था कि उसके थानाध्यक्ष को इस बात की खबर लगती कि उसकी नौकरी से बेइज्जत करके निकाले गये एक ऐसे पुलिसकर्मी के साथ जुगलबन्दी थी जिस पर कोर्ट में केस था और जो आइन्दा दिनों में सजा पा कर जेल जा सकता था।

उसने पाया कि थानाध्यक्ष उस वक्त थाने में नहीं था।

वो अपने कमरे में जा कर बैठा जहां कि उसने मायाराम को तलब किया।

लॉकअप से निकाल कर मायाराम को उसके कमरे में लाया गया।

“बैठो।” — जनकराज बोला।

मायाराम उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया।

उसकी बैसाखियां भी उसके खिलाफ सबूत था लेकिन ये पुलिस की मेहरबानी थी कि वो उसे लौटा दी गयी थीं।

“अब कैसा मिजाज है?” — जनकराज बोला — “कोई कस बल ढीले हुए या नहीं?”

मायाराम ने बेचैनी से पहलू बदला।

“मैं खुला खेल खेलने का आदी हूं इसलिये किसी मामले में भी तुम्हे अन्धेरे में नहीं रखना चाहता। सुबह तुम्हारी चाल में तुम्हारे एक सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था।”

मायराम की भवें उठीं।

“तुमने सवाल उठाया था कि तुम्हारे पास कत्ल का उद्देश्य क्या था! क्यों तुमने कत्ल किया था! अब मैं इस सवाल का जवाब दे सकता हूं। अब मैं बता सकता सकता हूं कि अपने पार्टनर का कत्ल तुमने क्यों किया।”

“वो मेरा पार्टनर नहीं था।” — मायाराम दबे स्वर में बोला।

“तो क्या था?”

“वो महज मेरा मददगार था। एक अपाहिज का मददगार था वो।”

“यानी कि वालंटियर था? सोशल वर्कर था? दीन हीन दुखियारों की निस्वार्थ मदद करके अपना परलोक सुधारने में विश्वास रखता था? तुम्हारे जैसे और भी लूले लंगड़े उसकी चैरिटी लिस्ट पर थे?”

“ऐसा तो नहीं था लेकिन...”

“क्या लेकिन?”

“वो मेरा पार्टनर नहीं था।”

“था। बराबर था। अलबत्ता ये कह सकते हो कि जूनियर पार्टनर था। इसलिये तुम्हारे साथ उसकी हिस्सेदारी फिफ्टी फिफ्टी की नहीं ट्वन्टी फाइव सैवेन्टी फाइव की थी।”

“जी!”

“उसके घर से एक पैकेट बरामद हुआ था जिसमें सवा दो लाख रुपये थे। तुम्हारे आटे के कनस्तर में से छ: लाख के ऊपर की रकम बरामद हुई थी। मेरा दावा है कि वो रकम मूलरूप से पौने सात लाख थी। बरामदी वाली रकम इससे जितनी कम थी, वो तुम पिछले दिनों अपनी अय्याशियों पर, रण्डीबाजी के अपने खास शौक पर, खर्च कर चुके हो। हरिदत्त पंत को शायद ऐसा खर्चीला कोई शौक नहीं था इसलिये उसका हिस्सा बरकरार था।”

“हिस्सा!”

“नौ लाख रुपये में हिस्सा। जिसको पच्चीस और पिचहत्तर की पर्सेन्टेज में बांटा जाये तो जूनियर पार्टनर के हिस्से सवा दो लाख रुपये आये और बड़े खलीफा का बड़ा हिस्सा पौने सात लाख का हुआ। ये रकम तुमने किसी को ब्लैकमेल करके तीन किस्तों में हासिल की थी। चौथी किस्त सात लाख रुपये की वो बड़ी रकम थी जो कि ट्रंक में बन्द थी और जिस पर तुम्हारे पार्टनर ने नीयत मैली की थी। जिसकी मैली नीयत की सजा तुमने उसका कत्ल करके दी थी।”

“नहीं। बिल्कुल नहीं। मैंने...”

“तुम इस बात से इनकार करते हो कि तुम दोनों किसी को ब्लैकमेल कर रहे थे? अगर मकतूल तुम्हारा पार्टनर नहीं था — वो शौकिया तुम्हारे साथ चिपका हुआ था और तुम्हारी मदद कर रहा था — तो अकेले तुम किसी को ब्लैकमेल कर रहे थे?”

“हां। इनकार करता हूं।”

“तुम मूर्ख हो। और समझते हो कि पुलिस भी तुम्हारी तरह मूर्ख है या तुम हमें मूर्ख बना सकते हो। तुम भूल रहे हो कि जिस बात से तुम इनकार कर रहे हो, उसकी तसदीक तुम्हारी ब्लैकमेलिंग का शिकार भी कर सकता है। कर चुका है।”

“कर चुका है?”

“हां। तभी मुझे मालूम है कि तुम तीन किस्तों में नौ लाख रुपये उससे झटक चुके हो और अब सात लाख की चौथी किस्त झटकने वाले थे।”

“वो ऐसा कहती है कि...”

मायाराम ने अपने होंठ काटे।

जनकराज ठठा कर हंसा।

“इसे कहते है चोर की दाढ़ी में तिनका।” — वो बोला — “मैंने तो ब्लैकमेल के शिकार शख्स का नाम नहीं लिया था! मैंने तो नहीं कहा था कि तुम्हारा शिकार कोई मर्द था या कोई औरत थी! अभी तुमने अपनी ही जुबानी कबूल किया कि तुम्हारी शिकार कोई औरत थी।”

“मैंने कुछ कबूल नहीं किया।”

“अभी तुमने नहीं कहा कि ‘वो ऐसा कहती है’?”

“जुबान किसी की भी फिसल सकती है।”

“ठीक है। तुम्हारा शिकार कोई औरत नहीं। औरत नहीं तो मर्द होगा। लेकिन है तो सही न ऐसा कोई! यानी कि तुम कबूल करते हो कि तुम किसी को ब्लैकमेल कर रहे थे?”

“नहीं।”

“जब वो तुम्हारे सामने खड़ी होकर ये बात कहेगी तो तुम कैसे मुकरोगे?”

“मैं नहीं मुकरूंगा। मैं हकीकत बयान करूंगा। मैं कहूंगा कि वो झूठ बोल रही है। पुलिस के सिखाये पढ़ाये झूठ बोल रही है।”

“हमारे सिखाये पढ़ाये?”

“आप मेरे पीछे पड़े हैं। यूं आपका केस मजबूत होता है।”

“वो जो इतने गवाह और हैं तुम्हारे खिलाफ — वो होटल का वेटर नन्दू, वो टैक्सी वाला मुबारक अली, वो लड़की सीमा सिकन्द — क्या वो भी हमारे सिखाये पढ़ाये हैं? जवाब ये सोच के देना कि तुम्हारे जिक्र के बिना हम उनमें से किसी के वजूद से भी वाकिफ नहीं थे।”

“आप कभी ये साबित नहीं कर सकते कि मैं किसी को ब्लैकमेल कर रहा था।”

“मैं कोशिश करता हूं। ये चिट्ठी देखो।”

जनकराज ने टाइपशुदा चिट्ठी मायाराम के सामने लहराई तो उसका कलेजा लरजा।

“ये चिट्ठी क्या है, तुम बाखूबी जानते हो लेकिन मौजूदा हालात में हर बात से बेखबर बन कर दिखाने की तुमने कसम खाई हुई है इसलिए मैं ही बताता हूं कि ये क्या है! ये ब्लैकमेल का अपने शिकार को लिखा मांग पत्र है। और इसे जिस टाइपराइटर पर टाइप किया गया है, वो तुम्हारे जोड़ीदार के घर से बरामद हुआ है।”

“तो वो होगा ब्लैकमेलर! उसका कुकर्म आप मेरे पर क्यों थोप रहे हैं?”

“तुम्हारी दसों उंगलियों के निशान हमारे पास हैं, जो कि तुमने मर्डर वैपन पर से उठाये गए उंगलियों के निशानों से मिलाने के लिए अपनी राजी से हमें दिए थे। अगर तुम्हारा ब्लैकमेल से या इस चिट्ठी से कुछ लेना देना नहीं तो ऐसा क्योंकर हुआ कि उस टाइपराइटर के कैरेज सरकाने वाले लिवर पर से हमें तुम्हारे बायें हाथ की पहली उंगली और अंगूठे के निशान मिले?”

“क... क्या!”

“मकतूल क्योंकि तुम्हारा मददगार था इसलिये उसको वो चिट्ठी टाइप करके देकर तुमने मदद के बदले मदद की थी। ठीक?”

मायाराम के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। उससे जवाब देते न बना।

“ये चिट्ठी तुम्हारी ब्लैकमेल की करतूत का ही सबूत नहीं है, इस बात का भी सबूत है कि कैसे तुम्हारे जोड़ीदार की नीयत बद् हो गयी थी। कैसे पहले उसने चिट्ठी में ‘पांच’ को ‘सात’ करके ऐन तुम्हारी निगाह के नीचे से दो लाख रुपये खिसका लेने की स्कीम बनायी थी और ट्रंक के कनॉट प्लेस थाने पहुंच जाने की वजह से कैसे बाद में उसने पूरी की पूरी रकम हड़प जाने का सामान किया था। तुम्हें किसी तरीके से उसकी चालबाजी की खबर लग गयी थी इसलिये हथियार से लैस तुम चुपचाप मौकायवारदात पर पहुंच गये थे जहां कि तुम्हारा जोड़ीदार रकम हासिल करने के लिये मौजूद था और तुम्हारा ब्लैकमेल का शिकार ट्रंक में बन्द रकम उसे सौंपने के लिये पहुंचा हुआ था। वहां तुमने मकतूल को शूट करके उसे उसकी बेईमानी की सजा दी और ट्रंक अपने कब्जे में कर लिया जो कि बाद में तुम्हारे घर से बरामद हुआ।”

“किसी ने मेरी जानकारी के बिना मेरे घर में रखा इसलिये बरामद हुआ।”

“किसने? तुमने कई बार दुहाई दी कि तुम्हे फंसाने के लिये कोई तुम्हारे खिलाफ एक से एक खतरनाक चाल चल रहा था लेकिन किसी का नाम न लिया। तुम नाम लो उस शख्स का, फिर हम उसकी भी तफ्तीश करते हैं।”

मायाराम सोचने लगा।

अब जबकि ब्लैकमेल की कहानी भी खुल चुकी थी और उससे उसका रिश्ता भी जुड़ चुका था तो सोहल का नाम लेने में क्या हर्ज था?

लेकिन उससे उसे हासिल क्या था?

वो कैसे साबित कर पाता कि जो कुछ उसके खिलाफ हुआ था, सोहल के किये हुआ था?

अभी पुलिस को उसके अमृतसर वाले कारनामे की खबर नहीं थी, वो सोहल का नाम लेता, सोहल पकड़ा जाता, पुलिस को उसके उस कारनामे की खबर लगती तो बतौर काशीनाथ, वो ब्लैकमेल और मर्डर के इलजाम से तो शायद बच जाता, बतौर मायाराम डकैती और डबल मर्डर के इलजाम से हरगिज न बच पाता।

उसकी अक्ल ने उसे यही राय दी कि फिलहाल उसे उस बाबत खामोश ही रहना चाहिए था।

“ठीक है, मत बताओ।” — जनकराज बोला — “तुम समझते हो कि खामोश रह कर तुम अपनी गर्दन बचा सकते हो तो ऐसी कोई कोशिश करने का तुम्हें पूरा अख्तियार है। बहरहाल तुम्हारे खिलाफ मेरे केस में ये एक खामी थी कि मैं कत्ल का कोई उद्देश्य बयान नहीं कर सकता था। अब मैंने वो भी कर दिया है। कत्ल तुमने इसलिये किया क्योंकि तुम्हारा पार्टनर बेईमान हो गया था और ब्लैकमेल की नयी किस्त पूरी की पूरी हड़प जाने पर आमादा था।”

मायाराम खामोश रहा।

“कल तुम्हें रिमांड के लिये कोर्ट में पेश किया जायेगा। कम से कम दो हफ्ते का रिमांड तो बड़ी आसानी से हासिल हो जायेगा! इतने टाइम में तो यहां गूंगे बोल पड़ते हैं, तुम खैर फिर जुबान वाले हो।”

मायाराम के जिस्म में सिहरन दौड़ गयी।

“और फिर रिमांड फिर मिल जाता है, फिर के बाद फिर मिल जाता है।”

“ये जुल्म होगा।” — मायाराम ने आर्त्तनाद किया — “गरीबमार होगी।”

“तुम क्यों सहते हो जुल्म? क्यों खाते हो गरीबमार? इतनी बार तुमने दुहाई दी कि कोई तुम्हे फंसा रहा है। ये नहीं बताना चाहते हो कि कौन फंसा रहा है तो कम से कम यही बताओ कि क्यों फंसा रहा है? क्यों कोई इस हद तक तुम्हारे पीछे पड़ा हुआ है कि तुम्हे फांसी लगा देखने का तमन्नाई है? हर बात की कोई वजह होती है। तुम कोई ऐसी वजह ही बताओ जो किसी का तुम्हारे पीछे पड़ा होना जस्टिफाई कर सके?”

“वजह मुझे रास्ते से हटाना है।”

“कौन से रास्ते से हटाना है? किसके रास्ते से हटाना है?”

मायाराम से जवाब देते न बना।

“तुम कहना चाहते हो कि किसी ने तुम्हे अपने रास्ते से हटाने के लिये तुम्हारे जोड़ीदार का कत्ल कर दिया! ताकि तुम उसके कत्ल के इलजाम में फांसी चढ़ जाओ!”

“हां।”

“एक काम को अंजाम देने के लिये जब सीधा रास्ता सामने था तो ये लखनऊ वाला सहारनपुर जैसा रास्ता किसलिये, मेरे भाई? उस शख्स को अपनी किसी दुश्वारी का हल कत्ल में दिखाई देता था, उसने कत्ल ही करना था तो चोर की मां को क्यों न पकड़ा? उसने तुम्हारा कत्ल क्यों न किया? उसने तुम्हें कत्ल के इलजाम में फंसाने का पेचीदा और लम्बा रास्ता क्यों अख्तियार किया जिसका कोई उसके मनमाफिक नतीजा निकलते निकलते निकलता — किसी करिश्मासाज तरीके से तुम सन्देहलाभ पाकर बरी भी हो सकते हो, हो तो नहीं जाओगे, लेकिन हो सकते तो हो न! — तुम्हें सीधे ही गोली मार कर उसने इंस्टेंट नतीजा क्यों न हासिल किया?”

“अब मैं क्या बताऊं?”

“तुम नहीं बताओगे तो और कौन बतायेगा?”

मायाराम खामोश रहा।

“अच्छा, यही बताओ कि ब्लैकमेल की बुनियाद क्या थी? तुम्हारा क्या जोर था अपने शिकार पर?”

“मैंने कब कबूल किया कि मैं किसी को ब्लैकमेल कर रहा था?”

“अब कोई कसर रह गयी कबूल करने में? हर बात तो पुकार पुकार कर ब्लैकमेल स्टोरी की तरफ इशारा कर रही है। ये अकेली चिट्ठी ही ब्लैकमेल स्टोरी को स्थापित करने के लिये काफी है।”

“पंत का कत्ल ब्लैकमेल के शिकार ने किया क्यों नहीं हो सकता?”

“कौन शिकार?”

“जो कोई भी वो था! मौकायवारदात पर तो वो पहुंचा ही था न!”

“क्या जरूरी है?”

“उसके बिना ट्रंक सर्कुलेशन में कैसे आता?”

“ठीक है। पहुंचा था। तो?”

“वो कातिल क्यों नहीं हो सकता?”

“दो वजह से नहीं हो सकता? एक तो अगर उसका कत्ल का इरादा होता तो ब्लैकमेल की रकम को उसने मौकायवारदात पर लाना जरूरी न समझा होता।”

“हो सकता है घर से ही वो कत्ल का इरादा लेकर न चली हो — मेरा मतलब है, न चला हो — बाद में मौकायवारदात पर हाथ के हाथ कोई ऐसे हालात पैदा हो गये हों कि उसे कत्ल करना पड़ा हो।”

“काफी चालाक हो!”

“तब तो रकम वाला ट्रंक उसके साथ ही होता।”

“होता लेकिन तब वो ट्रंक जैसे वहां पहुंचा था, वैसे ही उसी के साथ वापिस लौटा होता। असल में तो ट्रंक तुम्हारे घर पहुंच गया, जो कि अपने आप में इस बात का सबूत है कि कत्ल तुमने किया। तुमने कत्ल करके अपने पार्टनर से वो ट्रंक वापिस झटका और उसे अपने घर ले गये।”

“उस टैक्सी ड्राईवर ने वापसी में मेरे साथ किसी ट्रंक के होने का जिक्र नहीं किया था।”

“इसलिये नहीं किया था क्योंकि, याद करो, ये बात उससे पूछी नहीं गयी थी। तुम्हारी तसल्ली के लिये उसे हम फिर बुला लेंगे और फिर सवाल करेंगे। देख लेना, जवाब यही मिलेगा कि झण्डेवालान से लौटती बार तुम्हारे पास एक ट्रंक भी था।”

“जो मैं बैसाखियां संभाले उठा कर चल सकता था?”

“प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या! कुछ तो किया ही होगा तुमने। ट्रंक को गले में लटका लिया होगा, बगल में दबा लिया होगा, सिर पर लाद लिया होगा। तुम इतने लंगड़े नहीं हो, बिना बैसाखियों के भी चल सकते हो, एक बैसाखी से भी चल सकते हो। तुमने दोनों बैसाखियां एक बगल में कर ली होंगी और दूसरे, खाली, हाथ में ट्रंक संभाल लिया होगा। आखिर कोई मीलों तो नहीं चलना था तुमने! ट्राली से टैक्सी तक ही तो आना था, जो कि कोई खास फासला नहीं है। तुम्हारी चाल के दरवाजे से तुम्हारे घर के दरवाजे का फासला भी कोई खास नहीं है।”

“आप दो वजह बता रहे थे। ब्लैकमेल के शिकार के कातिल न हो सकने की दूसरी वजह क्या है आपके खयाल से?”

“वो वजह मेरे खयाल से नहीं, यकीन से है। मुझे यकीनी तौर पर मालूम है कि ब्लैकमेल का शिकार कातिल नहीं। कैसे मालूम है, वो क्यों कातिल नहीं, ये मैं तुम्हे अभी नहीं बता सकता।”

“क्यों नहीं बता सकते?”

“बस, नहीं बता सकता। तुमने और कुछ कहना है?”

“इस बाबत तो कुछ नहीं कहना लेकिन...”

“तो मैं हवलदार को बुलाऊं” — जनकराज मेज पर पड़ी घन्टी की ओर हाथ बढ़ाता बोला — “ताकि वो तुम्हें वापिस हवालात में बन्द करके आये?”

“एक मिनट।” — मायाराम हड़बड़ा कर बोला — “सिर्फ एक मिनट। प्लीज।”

“ठीक है।” — जनकराज ने हाथ वापिस खींच लिया — “एक मिनट। बोलो, क्या कहना चाहते हो?”

“जनाब” — मायाराम बड़े दयनीय स्वर में बोला — “मैं कोई पढ़ा लिखा आदमी नहीं, मैंने कोई आला दिमाग नहीं पाया जो कि मैं किसी वकील की तरह जिरह कर सकूं। मैं आपकी तरह तफ्तीश और चोर बहकाने के तौर तरीके भी नहीं सीखा हुआ...”

“क्या कहना चाहते हो?” — जनकराज उतावले स्वर में बोला।

“आप कहते हैं कि कत्ल मैंने किया। कहते क्या हैं, मोहरबन्द किये बैठे हैं इस बात को कि मैं ही कातिल हूं। इसलिये आपको जो बात मेरे खिलाफ जाती लगती है, उसे तो आप बढ़ा चढ़ा कर, जोर शोर से, खम ठोक कर कहते हैं लेकिन जो बात मेरे हक में जाती जान पड़ती हैं, उसको आप हल्का और कमजोर करने की कोशिश करते हैं, ये जाहिर करने की कोशिश करते हैं कि वो कोई अहम बात नहीं।”

“ऐसी कौन-सी बात हुई?”

“कई बातें हैं। सब से बड़ी बात तो ये ही है कि जिस आदमी का कत्ल का इरादा हो, वो अपने बचाव का कोई पुख्ता इन्तजाम सोच के रखता है, अपने हक में ऐसे गवाह सांठ के रखता है जो उसके हक में गवाही से हिल के न दें। लेकिन मेरे साथ तो सब उलटा हो रहा है! मैं जिस गवाह का भी जिक्र अपनी बात को दम देने के लिये करता हूं, वो कोई और ही कथा करने लगता है। मसलन वो होटल का वेटर नन्दू, जो मेरे सामने ट्रे में खाना लाया, आपके पूछने पर कहने लगा कि पैक करा के लाया। वो टैक्सी ड्राइवर, जो मुझे निजामुद्दीन से सीधा कश्मीरी गेट लाया, बोला कि मैं झण्डेवालान भी गया। वो लड़की जो निजामुद्दीन में दो घन्टे मेरे साथ नंगी लेटी रही, बोली कि मेरी शक्ल नहीं पहचानती।”

“मैं अभी भी नहीं समझा कि तुम क्या कहना चाहते हो!”

“हुजूर, माई बाप, अगर मुझे जरा भी इमकाम होता कि वो लोग ऐसा बयान देंगे तो क्या मैं उन्हें अपनी तरफ से, अपनी हिमायत के लिये पेश करता? अगर मैं झण्डेवालान गया होता तो क्या मैं खुद ये पेशकश करता कि आप उस टैक्सी ड्राइवर से इस बाबत सवाल करें? अगर मैं आठ से दस तक सीमा नाम की उस लड़की के साथ न होता तो मैं उसका नाम भी लाता अपनी जुबान पर?”

“वो सब तुमने पहले से किये अपने इंतजामात के तहत किया था जो कि वक्त पर काम न आये।”

“जी!”

“तुमने रिश्वत देकर टैक्सी ड्राइवर को सांठा कि पूछे जाने पर वो तुम्हारे झण्डेवालान भी गये होने का नाम न ले। मौका आया तो वो पुलिस से दहशत खा गया और पढ़ाई गई झूठी पट्टी पढ़ने की जगह हकीकत बयान कर बैठा। उस लड़की के साथ भी ऐसा ही हुआ। पहले तो वो तुम्हे एलीबाई देने के लिये हां कर बैठी लेकिन असल में पुलिस से आमना सामना होने पर उससे ये कबूल करते न बना कि वो कालगर्ल थी। मेरे भाई, पढ़ाये गए गवाह मौका आने पर आम मुकर जाते हैं, खास तौर से वो, जिन्हें कि झूठी गवाहियां देने का कोई तजुर्बा भी नहीं होता। इसी बात में तो तुम मात खा गए कि तुम्हारे सिखाये पढ़ाये तोतों ने तुम्हारा राग न अलापा।”

“वो मेरे सिखाये पढ़ाये नहीं थे” — मायाराम रुंआसे स्वर में बोला — “वो किसी और के सिखाये पढ़ाये थे।”

“किसके? नाम लो उसका। अगर ऐसा कोई शख्स है तो बताते क्यों नहीं हो कि वो कौन है और क्यों तुम्हारे खिलाफ है! मैं अभी उसे तलब करता हूं और तुम्हारे सामने उसका बयान लेता हूं। बोलो, कौन है वो?”

मायाराम कुछ न बोला।

“ऐसा कोई शख्स हो तो कुछ बोलो न! तुम समझते हो कि खयाली पुलाव पकाने से, हवाई घोड़े दौड़ाने से, तुम बच जाओगे?”

“मेरे पास ये साबित करने का कोई जरिया नहीं कि मेरे खिलाफ जो कुछ किया, उसने किया!”

“तुम नाम तो लो उसका। जरिया हम निकाल लेंगे।”

“जनाब, अगर आप सच में कुछ करना चाहते हैं तो भगवान के लिये असली कातिल का पता लगाइये।”

“वो हम लगा चुके हैं। कातिल मेरे सामने बैठा है।”

“मैं कातिल नहीं हूं।”

“तो कौन है?”

“आप एक बार, सिर्फ एक बार, मेरी बेगुनाही को खातिर में लाइये, फिर आपको खुद ही लगने लगेगा कि कातिल कोई और है।”

“कौन?”

“तब आप ये पता भी लगा लेंगे।”

“यानी कि मैं अपने महकमे के लिये काम करना छोड़ के तुम्हारे लिये काम करना शुरू करूं? थाने की ड्यूटी बजाने की जगह तुम्हारी ड्यूटी बजाऊं?”

“मैं ये तो नहीं कहता लेकिन...”

“चलो, मैं वो भी करता हूं लेकिन तुम भी तो कुछ करो!”

“मैं क्या करूं?”

“सच बोलो। असलियत बयान करो। उस आदमी का नाम लो जिससे तुम्हें अन्देशा है कि वो तुम्हें बेगुनाह फंसा रहा है। कबूल करो कि तुम किसी को ब्लैकमेल कर रहे थे। जिस बिना पर तुम ब्लैकमेल में कामयाब हो रहे थे, वो बिना, वो अपना जोर मेरे सामने रखो।”

“ताकि ब्लैकमेलर तो मैं अपने इकबालिया बयान के दम पर ही हाथ के हाथ स्थापित हो जाऊं, जबकि कत्ल का इलजाम तो मेरे खिलाफ अभी साबित होते होते होगा!”

“ब्लैकमेल छोटा अपराध है। कत्ल जघन्य अपराध है, जिसकी सजा फांसी है। अगर छोटा गुनाह कबूलना तुम्हें बड़े गुनाह की सजा से बचा सकता है तो क्या हर्ज है छोटा गुनाह कबूलने में?”

“बहुत हर्ज है।”

“क्या हर्ज है?”

“मेरे उस इकबालेजुर्म को आप मेरे कत्ल के गुनाह की बुनियाद बना लेंगे कि एक ब्लैकमेलर ने दूसरे ब्लैकमेलर को अपने रास्ते से हटाने के लिए उसका कत्ल कर दिया।”

“काफी चालाक हो! अभी कहते हो कि पढ़े लिखे नहीं हो, आला दिमाग नहीं पाया तुमने!”

मायाराम ने जोर से थूक निगली।

“तुम फंसे हुए हो और बुरी तरह फंसे हुए हो। और देख लेना, फंसे ही रहोगे।”

“इस जहान में कहीं इंसाफ है तो एक बात मुझे बचा सकती है।”

“क्या?”

“ये कि असल कातिल कोई और है। शायद उसका पता लग जाये।”

“कैसे? जादू के जोर से?”

“शायद कोई जादू ही हो जाये। शायद कोई अनहोनी हो जाये।”

“ख्वाब देखते रहो। मैं अभी तुम्हें तुम्हारी ख्वाबगाह में भिजवाता हूं।”

उसने मेज पर रखी घंटी बजाई।

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