रात के नौ बज रहे थे।

सारा दिन बिना किसी खास घटना के गुजर गया—गांव के युवकों का ख्याल था कि डाकू दल आज ही गांव पर दूसरा आक्रमण करेगा—मगर उनकी शंका निर्मूल साबित हुई।
वैद्य की पत्नी के पुरजोर विरोध के बावजूद रैना और उर्मिलादेवी ने शाम का खाना बनाने में उसकी मदद की—उस वक्त रात के करीब नौ बजे थे—जब सब लोगों ने खाना खाया और अभी वे लोग खाने से निबटे भी न थे कि—उर्मिलादेवी, रैना और मोन्टो लुढ़क गए।
"अरे !" वैद्य उछल पड़ा—"इन लोगों को क्या हुआ?"
"कुछ नहीं।" विजय उठकर खड़े होते हुए कहा—"मैंने इन तीनों को इतनी डोज दे दी है कि बारह घंटे से पहले होश नहीं आएगा।"
"त...तुमने?" रघुनाथ चिहुंक उठा।
वैद्य और उसकी पत्नी हैरत से मुंह फाड़े विजय को देख रहे थे और अशरफ, विक्रम, नाहर और आशा की आंखों में भी आश्चर्य के भाव थे, जबकि विजय ने बड़े लच्छेदार लहजे में रघुनाथ के सवाल का जवाब दिया—"जी हां, हमने।"
"क्यों?"
"क्योंकि जो भयंकर ड्रामा यहां शुरू हो चुका है, उसमें इन लोगों का कोई काम नहीं है।"
"मैं समझा नहीं।"
"जब बुध्दि के खिड़की-दरवाजे हमेशा बंद रखोगे तो समझोगे कैसे प्यारे तुलाराशि?" विजय ने कहा—"उन्हें खुला रखा करो और कम-से-कम इस वक्त तो चौखट खोल डालो, क्योंकि हम तुम्हें एक भयंकर जिम्मेदारी वाला काम सौंपने वाले हैं।"
"वह क्या?"
"तुम्हें इन तीनों को इसी हालत में लेकर रातोंरात गुमटी से नहीं, बल्कि डिक्की की सीमा से भी बाहर निकल जाना है। इस काम में तुम्हारी मदद मिस गोगियापाशा करेगी यानि ये तुम्हारे साथ जाएगी।"
"म...मैं?"
"हां, तुम—मिस गोगियापाशा उर्फ आशा।" विजय ने जूते की एड़ी पर फिरकी की तरह घूमकर उससे कहा— "कोई आपत्ति?"
"मगर मतलब क्या है? ये सब आखिर तुम कर क्यों रहे हो?" रघुनाथ ने पूछा।
"यह तो तुम देख ही चुके हो प्यारे कि बापूजान कितने भयंकर मूड में हैं। जरा सोचो—अगर ठीक समय पर मोन्टो पुलिस को साथ लिए न पहुंच जाता तो क्या होने जा रहा था—क्या उस सबको तुम सहन कर पाते?"
रघुनाथ का चेहरा फक्क।
विजय ने चोट की—"यदि बापूजान अपने नेक इरादों में कामयाब हो जाते तो हम सबके सामने एक-दूसरे से आंख चुराकर आत्महत्या कर लेने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता—और ऐसी ही कोई स्थिति हम दुबारा नहीं आने देना चाहते।"
"ओह!"
"जंग शुरू हो चुकी है और ऐसी लड़ाइयों के बीच मां और बहन किसी भी इंसान की बहुत बड़ी कमजोरी साबित होती है, इसलिए हम इन्हें यहां से हटा देना चाहते हैं।"
रघुनाथ चुप रहा।
जाहिर था कि वह कन्विंस हो रहा था।
विजय ने आगे कहा—"तुम्हारी और आशा की ड्यूटी इन्हें सिर्फ राजनगर पहुंचाकर ही खत्म नहीं हो जाने वाली, बल्कि असली ड्यूटी उस वक्त से शुरू होगी।"
"क्या मतलब?" आशा ने पूछा।
"सबसे पहली बात ये कि होश में आने से पहले तीनों राजनगर पहुंच जाने चाहिए और होश आने के बाद ये निश्चय ही यहां वापस आने के लिए छटपटाएंगे—अपनी सामर्थ्य के अनुसार हाथ-पैर भी मारेंगे, मगर तुम्हारी ड्यूटी हर हाल में जैसे भी हो इन्हें वहीं रोके रखने की होगी।"
दोनों चुप रहे।
"इस काम में तुम 'मुनक्का' भाई की भी मदद ले सकती हो आशा।"
"म...मुनक्का?"
"अरे, हां! अपना वही परवेज भाई।"
"परवेज को तुम मुनक्का कब से कहने लगे?"
"जब से उसे हमने रास्ते ही से रश्मि, उसके बच्चे और कुत्ते को गायब करके वापस राजनगर ही नहीं, बल्कि दिल्ली पहुंचा देने का काम सौंपा था—हम जब चाहें, ट्रांसमीटर पर उससे बात कर सकते हैं—रात, बापूजान से टकराव से कुछ ही देर पहले हम उसी से बात कर रहे थे—खैर, इस वक्त वह राजनगर में ही होगा और इन पर अंकुश लगाए रखने में तुम्हारी पूरी मदद करेगा।"
"ल...लेकिन मैं तुम्हें इस तरह छोड़कर नहीं जा सकता विजय।"
"ऊहू...।" विजय ने बुरा-सा मुंह बनाया—"ये क्या बात हुई तुलाराशि?"
"मुझे इल्म है कि यहां तुम लोग कितने जबरदस्त खतरे में हो और मैं तुम्हें यूं भंवर में छोड़कर नहीं जा सकता। इसके लिए मेरा दिल गवाही नहीं देगा।"
विजय जानता था कि यह समस्या आएगी, बोला—"क्या तुम बता सकते हो प्यारे कि इन तीनों को हमें बेहोश क्यों करना पड़ा?"
"मतलब ?"
"जो कुछ तुम्हें समझा रहे हैं, वही इन लोगों को समझाकर इनसे रिक्वेस्ट क्यों नहीं की कि इनकी मौजूदगी हमारी कमजोरी बनी रहेगी, अतः ये वापस राजनगर चले जाएं।"
"क्योंकि ये तुम्हारी इस रिक्वेस्ट को नहीं मानते।"
"क्या कहते?"
"वही, जो मैं कह रहा हूं।"
"बस—अपनी इमेज का हमारी नजरों में तुम सारा ढेर यहीं किए दे रहे हो।" विजय ने कहा—"हमारी नजरों में ये तीनों 'कूढ़गमज' हैं, और तुम एक समझदार व्यक्ति—जो तुम कह रहे हो, उस बात की उम्मीद हमने इनसे की थी, तुमसे नहीं—यदि ऐसा होता तो इनकी तरह हम तुम्हें भी बेहोश करके राजनगर भिजवा देते, मगर हमने ऐसा नहीं किया। जरा सोचो कि हमने ऐसा क्यों नहीं किया?"
रघुनाथ चुप ।
"हमने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि हमारी नजरों में तुम इनसे ज्यादा दिमाग रखते हो—जिस बात को ये 'कूढ़मगज' नहीं समझ सकते थे, उसे तुम समझ सकते हो।"
रघुनाथ कुछ बोला नहीं, सिर्फ उसे घूरता रहा।
"इस तरह क्या घूर रहे हो प्यारे तुलाराशि?"
"जो जंग यहां चल रही है, क्या मैं भी उसमें तुम्हारे लिए आंटी या रैना जैसी 'कमजोरी' हूं?"
"लाहौल विला कुव्वत"—विजय ने अपने दोनों कानों पर हाथ लगाकर कहा—"ऐसी बात तो सोचना भी पाप है प्यारे तुलाराशि—भला तुम पांच फीट लंबे जवान जंग के बीच इन महिलाओं जैसी कमजोरी कैसे हो सकते हो?"
"तो इनके साथ क्यों मुझे भी गुमटी में चल रही जंग से दूर कर देना चाहते हो?"
"तुम गलत समझ रहे हो प्यारे, अपनी तुलना तुम्हें इनसे हरगिज नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इन्हें हटाया जा रहा है और तुम हटाने वाले हो।"
"बात तो एक ही है, बहाने अलग हैं—मुझे तुम खूबसूरत बहाने के साथ गुमटी से हटा रहे हो—इस जंग से अलग कर रहे हो?"
"यह तुम्हारे दिमाग में बहुत बड़ी गलतफहमी घर कर रही है तुलाराशि कि तुम्हें इस जंग से हटाया जा रहा है, जबकि हकीकत ये है कि इस जंग का एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोर्चा मुकम्मल तौर पर तुम्हारे हवाले किया जा रहा है।"
"वह कैसे?"
"जंग में सिर्फ वही शरीक नहीं कहलाते जो फ्रंट पर गोलियां चला रहे होते हैं, बल्कि वे भी शरीक होते हैं जिनके जिम्मे घायलों को उठाकर डॉक्टर तक ले जाने का काम होता है, वे डॉक्टर भी जंग में शरीक कहलाते हैं—वे भी, जिनके जिम्मे फ्रंट पर लड़ रहे जवानों के लिए हथियार से लेकर खाद्य-सामग्री तक का इंतजाम करना होता है—कहने का मतलब ये कि एक जंग के अनेक मोर्चे होते हैं और हरेक मोर्चे पर तैनात जवान जंग में शरीक कहलाता है—ऐसे ही एक महत्त्वपूर्ण मोर्चे पर तुम्हें तैनात किया जा रहा है। जरा सोचो—अगर तुम और आशा अपना मोर्चा ठीक से न संभाल पाए तो क्या होगा? यही कि हम खुलकर जंग नहीं लड़ सकेंगे।"
"तो मेरी एक रिक्वेस्ट है।"
"बोलो ।"
"मुझे यहीं रहने दो, इस मोर्चे पर तुम किसी अन्य को तैनात कर दो।"
"किसे ?"
थोड़ा सोचकर रघुनाथ ने कहा—"जैसे विकास को।"
"हमने इस मोर्चे पर तुम्हें बहुत सोच-समझकर तैनात किया है प्यारे, दरअसल राजनगर पहुंचने के बाद हमारी मदद के लिए तुम्हें कुछ और काम करने हैं और वे काम ऐसे हैं—जिन्हें सिर्फ तुम ही कर सकते हो—मैं, विकास या कोई अन्य नहीं।"
"ऐसे कौन-से काम हैं?"
"यदि डिक्की थाने पर ऐसी व्यवस्था हो जाए, जिससे किसी भी मुसीबत के समय हमें वांछित मदद मिल सके तो हमारी ताकत काफी बढ़ जाएगी। इस वक्त वह थाना बिल्कुल लुंज-पुंज है, हमारे किसी काम का नहीं—राजनगर पहुंचकर तुम दो काम करो, पहला थाने पर सशस्त्र फोर्स बढ़ाना और दूसरा, किसी ऐसे अफसर को वहां भेजना जिसे तुम्हारे विभाग में डाकू—उन्मूलन के मामले में एक्सपर्ट समझा जाता हो—ये दोनों काम क्योंकि पुलिस विभाग से संबंधित हैं, इसलिए तुम्हारे अलावा हममें से कोई नहीं कर सकता, जबकि ऐसा होने से हमारी ताकत बहुत बढ़ जाएगी।"
"इसलिए मेरा ही जाना जरूरी है?"
"करेक्ट।"
"अपनी बात को जमाकर कहने या साबित कर देने में तुम्हें महारत हासिल है।" रघुनाथ ने कहा—"इसलिए हथियार डालता हूं, दूसरे शब्दों में मैं उस मोर्चे पर लगने के लिए तैयार हूं जिस पर तुमने मुझे नियुक्त किया है।"
"वैरी गुड।" कहकर विजय ने ऐसी सांस छोड़ी जैसे बिना लिफ्ट के पच्चीस मंजिली इमारत के टॉप फ्लोर पर पहुंचा हो।
¶¶
ठाकुर निर्भयसिंह और फूलवती के गिरोह के इंतजार में गांव के बहुत-से नौजवान गुमटी के वृक्षों पर पहरा दे रहे थे—अपनी योजना पर अमल करने के लिए विजय को कम-से-कम दो 'खच्चरो' की जरूरत थी और उनके लिए गांव वालों से बात करना मजबूरी।
वैसे भी।
पहरे पर मौजूद युवक बिना सारा मामला समझे जिन्हें गुमटी से बाहर नहीं निकलने देने वाले थे—विजय ने हरिया से खच्चरों की मांग की और इस मांग के साथ ही गांव वालों की तरफ से सवालों की भीड़ लग गई।
उन्हें समझाना विजय के लिए रघुनाथ को समझाने से भी कहीं ज्यादा टेढ़ी खीर साबित हुई, किंतु अंततः कामयाब हो गया।
उर्मिलादेवी और रैना के जिस्मों को खच्चरों पर लादा गया।
मोन्टो रघुनाथ के कंधे पर।
जब वे चले तो विजय ने कहा—"तुम हमारे साथ आओ काले लड़के, और तुम सब यहीं रहोगे दिलजले, पूरी तरह चौकस—अगर हमारे बाद बापूजान गांव पर हमला करें तो शायद तुम्हें समझाने की जरूरत नहीं कि क्या करना है?"
"तुम दोनों कहां चले?" एकाएक हरिया ने विजय और ब्लैक ब्वॉय का रास्ता रोकते हुए पूछा।
"इन लोगों को गुमटी की सीमा पार कराने।" विजय ने बताया।
पीछे खड़ा एक अन्य युवक बोला—"मुझे तो लगता है हरिया कि ये लोग हमें धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं।
"कैसा धोखा?"
"एक-एक करके तुम लोग शायद गुमटी से भाग जाना चाहते हो।"
"वह क्यों?"
"ठाकुर निर्भयसिंह के डर से......और क्यों?"
"ओह!" विजय को उनकी बुद्धि पर तरस आया, बोला—"ऐसी कोई बात नहीं है हरिया भाई, केवल ये लोग जा रहे हैं—मैं और ये (ब्लैक ब्वॉय) इऩ्हें गुमटी की सीमा से बाहर निकालकर लौट आएंगे—और फिर हमारे बाकी साथी तो यहां रहेंगे ही।"
"जब लौटकर नहीं आओगे तो तुम्हें देखने के बहाने ये भी गुम हो जाएंगे।"
"ऐसा नहीं है।"
"हम कुछ नहीं जानते। इन लोगों तक की बात कबूल कर ली थी, मगर इनके साथ तुम्हारा जाना कबूल नहीं है—तुम्हारे जरिए तो ठाकुर आएगा ही।"
"बात को समझने की कोशिश करो दोस्त—जरा सोचो, यदि हम बापूजान या उनके डाकुओं से डर रहे होते तो यहां रहते ही क्यों—पुलिस इंस्पेक्टर के गांव से चलने के अनुऱोध को स्वीकार न कर लेते?"
एक पल वहां खामोशी रही, फिर जाने क्या सोचकर हरिया बोला—"अच्छा, ऐसी बात है तो हममें से चार आदमी तुम्हारे साथ चलेंगे—इन लोगों को गुमटी की सीमा पार कराकर तुम लोगों को लौटा लाएंगे।"
विजय ने बिना किसी हील-हुज्जत के कहा—"मंजूर है।"
एक अन्य युवक ने विकास, अशरफ, विक्रम और नाहर की तरफ संकेत करके कहा—"तुम लोगों के लौटने तक ये चारों एक तरह से यहां हमारी कैद में रहेंगे।"
"ये भी मंजूर है, मगर एक शर्त के साथ।"
"कैसी शर्त ?"
"खुदा-न-खास्ता यदि हमारे लौटने से पूर्व गांव पर डाकुओं का हमला हो जाए तो तुम्हें इन लोगों को अपनी कैद से मुक्त कर देना होगा—ताकि ये पिछली बार की तरह बापूजान के चंगुल में न फंस जाएं, बल्कि तुम लोगों के कंधे-से-कंधा मिलाकर टक्कर लें।"
कुछ देर सोचने के बाद एक युवक ने कहा—"ठीक है।"
इस तरह।
अजीब से फैसले के बाद खच्चरों की यात्रा शुरू हुई। रास्ते में ब्लैक ब्वॉय के जरा अलग हटते ही आशा विजय के नजदीक आई और इंग्लिश में बोली—"क्यों गुमटी में चल रही जंग के बीच 'मैं' भी एक कमजोरी थी विजय?"
"ऐसी जंग में हर वह स्त्री जंग लड़ने वाले सिपाही की कमजोरी होती है जिसे वह जरा भी प्यार करता हो।"
विजय ने भी जवाब इंग्लिश में ही दिया।
और!
विजय के इस एकमात्र वाक्य से आशा के दिल के समूचे तार झनझना उठे—ठीक यूं जैसे सदियों से गर्द खा रहे, खामोश पड़े
सितार के तारों पर किसी कलाकार ने बड़े प्यार से अपनी पतली उंगलियां फिरा दी हों—उस झनझनाहट की मीठी अनुभूति को महसूस करती आशा के मुंह से निकला—"क्यों भला?"
शरारत पर आतुर विजय ने कहा—"ये अन्याय कमबख्त प्रकृति ने ही किया है, कम-से-कम प्यार करने वाला यह कभी सहन नहीं कर पाता कि उसके अलावा किसी की भी नजर उसकी महबूबा पर पड़े।"
आह!
दिल मयूर-सा नाच उठा।
आशा का जी चाहा कि विजय यूं ही सारी जिंदगी उससे ऐसी ही बातें करता रहे। बोली— "मेरे सीक्रेट एजेंट होने के बावजूद तुम इतना डरते हो। क्या ट्रैनिंग में हमें अपनी जान और इज्जत की रक्षा करनी अच्छी तरह नहीं सिखाई जाती?"
"फिर भी, इस मामले में हर प्रेमी का दिल कमजोर होता है।"
आत्मविभोर हुई जा रही आशा कह ही उठी—"इतना प्यार करते हो मुझे?"
"ऐ—मैं—नहीं मिस गोगियापाशा।" विजय ने एकदम बौखला जाने का अभिनय किया— "मैं तो अपने झानझरोखे की बात कर रहा था।"
"क...क्या?"
"सच—वह तुमसे बहुत प्यार करता है। उसी ने हमसे कहा कि आशा को भी माताजी और रैना के साथ गुमटी से निकाल दो। कहीं ऐसा न हो कि...।"
"यू...य...ब्लडी—फूल--चीट!" आशा चिल्लाती हुई घूंसा तानकर जो विजय पर लपकी तो विजय एक ही जंप में ब्लैक ब्वॉय के नजदीक पुहंच गया।
"क्या हुआ?" रघुनाथ ने पूछा।
आशा बेचारी कसमसाकर रह गई, वरना मन तो उसका विजय का चेहरा नोच डालने के लिए कर रहा था।
ब्लैक ब्वॉय ने अनुमान लगा लिया कि विजय ने उसे छेड़ा है।
हरिया और उसके तीनों साथी विजय और आशा की बातें सुनने के बावजूद कुछ न समझ पाए, क्योंकि इंग्लिश से उनका दूर-दूर का भी वास्ता नहीं था—समझने की उन्हें जरूरत भी नहीं थी—वे तो सिर्फ विजय और ब्लैक ब्वॉय को अपने साथ लौटा लाने को चला रहे थे।
करीब एक घंटे बात उन्होंने रघुनाथ और आशा को उस रास्ते पर छोड़ा जो डिक्की और मनोरम झील को जोड़ता था—ब्लैक ब्वॉय और विजय दूर होते सायों को उस वक्त तक देखते रहे जब तक वे नजर आते रहे।
कुछ देर बाद खच्चरों के टापों की आवाज तक गुम।
"वापस चलें?" हरिया ने पूछा।
विजय ने कहा— "चलो प्यारे।"
अब !
वे आपस चल दिए।
ब्लैक ब्वॉय ने विजय से पूछा—"अशरफ, विक्रम और नाहर के बारे में आपने क्या सोचा?"
"अबे प्यारे, सारी दुनिया के बारे में सोचने का ठेका तो मैंने लिया नहीं है।"
"आप समझे नहीं। मेरा मतलब ये है कि जो दिक्कत हमें रघुनाथ, रैना और आंटी की वजह से थी, वही दिक्कत आंशिक रूप से इन तीनों की मौजूदगी से है—ये तीनों आपको सिर्फ अपनी तरह सीक्रेट सर्विस का साधारण सदस्य समझते हैं। अगर सीक्रेट चीफ होने की बात ठाकुर साहब ने इनके सामने कह दी तो...।"
"इस खतरे से हमें गुजरना होगा प्यारे, मजबूरी है—इतने सारे डाकुओं से टकराने के लिए कम-से-कम छः जवान तो चाहिए ही और फिर बापूजान से हमें सीक्रेट एजेंट कहना जितना स्वाभाविक है, उतना चीफ कहना नहीं, अतः खतरा अपेक्षाकृत कम है। फिर भी, इस खतरे के प्रति हमें सतर्क रहना है।"
"वह अज्ञात व्यक्ति दुबारा सामने नहीं आया, जिसने फायरिंग करके पिछली रात आपकी ग्रामीणों के बीच से निकालने में मदद दी थी।"
"अब हम निन्यानवे प्रतिशत श्योर हो गए हैं कि वे अपने बापूजान ही थे।"
"वह कैसे?"
"यदि कोई अन्य होता तो कम-से-कम उस वक्त उसने हमारी मदद और की होती, जब चौपाल पर वृक्षों से बंधे चीख-चिल्ला रहे थे।"
“सोच तो आपकी ठीक है मगर...।"
"मगर ?"
"सवाल फिर वही उठता है कि जब ठाकुर साहब आपकी जान के ग्राहक हैं तो उन्होंने ठीक ऐसे मौके पर मदद क्यों की, जबकि आप मौत के बहुत नजदीक थे?"
"शायद हमें तड़पा-तड़पाकर मारने की ख्वाहिश पूरी करने के कारण।"
ब्लैक ब्वॉय अभी शायद कुछ और पूछने वाला था कि विजय ने हाथ उठाकर उसे शांत रहने का निर्देश देते हुए अपनी अंगूठी वाला ट्रांसमीटर ऑन किया, बोला—"हैलो—हैलो—बागड़बिल्ला हियर।"
"यस।" दूसरी तरफ से आवाज उभरी—"मैं मुनक्का बोल रहा हूं।"
"हां तो प्यारे, कहां तक पहुंचे?"
"रश्मि को मैंने उसके बच्चे और कुत्ते सहित राजनगर से दिल्ली जाने वाली ट्रेन के एoसीoसीo में बैठा दिया था।"
"गुड—उसका फुल पेमेंट कर दिया?"
"हां।"
"वह खुश थी न?"
"हां, खुश तो थी—विदा होते वक्त कहने लगी कि आते वक्त न मिलकर आने का अफसोस है—तुम्हें कभी दिल्ली आने का न्यौता देकर गई है—खैर, तुम वहां की सुनाओ, किसी नतीजे पर पहुंचे या नहीं?"
"नतीजे पर पहुंच भी गए हैं प्यारे और नहीं भी—दरअसल बापूजान अपने चेहरे पर पड़ा नकाब उतारकर फेंक चुके हैं और उनका वास्तविक चेहरा इतना वीभत्स, विकृत और घृणित है कि हमारे भी छक्के छूट गए हैं।"
"ऐसा क्या है?"
"हमने यहां से कुछ देर पहले आशा, रघुनाथ, मोन्टो, रैना और मम्मी को राजनगर के लिए रवाना किया है, कल सुबह तक वे राजनगर पहुंच जाएंगे—आशा से यहां के सारे हालात मालूम कर सकते हो और सुनो, यदि वे कल सुबह तक वहां न पहुंचें तो तुरंत हमें सूचित करना!"
"वे वापस क्यों आ रहे हैं?"
"उनका अब यहां कोई काम नहीं रह गया है और सुनो, तुम्हारी ड्यूटी ये है कि उनमें से किसी को भी किसी भी हालत में राजनगर से बाहर न निकलने दो—इस काम में तुम जूनियर सीक्रेट एजेंट्स की मदद ले सकते हो।"
"क्या वे वापस जाने की कोशिश करेंगे?"
"पुरजोर!" विजय ने कहा— "तुम्हें भी उन्हें राकने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़ेंगे, किंतु चाहे जितने बेलने पड़ें वे राजनगर से बाहर नहीं निकलने चाहिए।"
"ओoकेo।"
"ओवर एंड ऑल।" कहने के बाद विजय ने दूसरी तरफ से जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर संबंध विच्छेद कर दिया—हरिया जैसे अंगूठी में छुपा ट्रांसमीटर बंद होने का ही इंतजार कर रहा था, बोला— "ये तुम किससे बात कर रहे थे?"
"अपने एक यार से, मुनक्का नाम है। उसकी और जो बातें हमने कीं वह तो तुमने सुन ही ली होंगी?"
"इस वक्त मुनक्का कहां है?"
"उसी शहर में जहां के हम लोग रहने वाले हैं।"
"तो क्या अंगूठी से मुंह अड़ाकर बोली गई आवाज उस शहर में...।"
हरिया की बात अभी पूरी न हो पाई थी कि अचानक एकसाथ चार तरफ से उनके ऊपर टॉर्चों का प्रकाश झपटा।
आंखें चुंधिया गईं।
"ड...डाकू।" हरिया के साथी के मुंह से निकला। चार टॉर्चों का प्रकाश इतना ज्यादा था कि छहों प्रकाश किरणों से नहा गए। ग्रामीण युवक पर तो भाले—बल्लम जैसे हथियार थे भी, विजय और ब्लैक ब्वॉय के पास हथियारों के नाम पर जूतों की एड़ी में छोटे चाकुओं के अलावा कुछ न था।
रिवॉल्वर आदि डाकू ले गए थे।
अभी वे ठीक से अपनी आंखों को रोशनी का मुकाबला करने लायक भी न बना पाए थे कि वातावरण में जोरदार आवाज गूंजी—"जहां-के-तहां रुक जाओ।"
वे आंखें मिचमिचाती रहे।
"कौन हो तुम लोग?" किसी दिशा से पूछा गया।
इनमें से किसी ने जवाब नहीं दिया, जबकि दाहिनी टॉर्च के पीछे से आवाज उभरी—"कपड़े बता रहे हैं कि इनमें से दो शहरी हैं।"
दूसरी आवाज—"शायद ठाकुर के साथी हों।"
"अन्य किसी शहरी का यहां क्या काम?"
सुनाई देतीं इन आवाजों के बीच छहों की आंखें रोशनी की अभ्यस्त हो चुकी थीं—उन्होंने कनखियों से एक-दूसरे की तरफ देखा। लगभग बड़बड़ाते से विजय ने समीप खड़े हरिया से कहा— "कहो हरिया प्यारे, हथियार फेंककर हाथ ऊपर उठाने के बारे में सोचा हुआ है।" हरिया की आवाज में जोश था—"मरना मंजूर है मगर झुकना नहीं, मुकबला होगा।"
"ऐ!" ठीक सामने वाली टॉर्च के पीछे से आवाज उभरी—"क्या बातें कर रहे हो तुम—अगर कोई भी गड़बड़ की तो गोली से उड़ा दिए जाओगे।"
परंतु!
इस चेतावनी की लेशमात्र भी चिंता किए बगैर विजय ने धीरे से कहा— "तो तैयार हो जाओ, मैं तीन तक गिनूंगा---तीन पर सबको एक साथ टॉर्चों के प्रकाश-दायरे से बाहर हो जाना है । ओoकेo?"
"ओoकेo।" ब्लैक ब्वॉय की आवाज।
"ऐ।" ऊंजी आवाज में पूछा गया—"क्या ठाकुर निर्भयसिंह के साथी हो?"
"हां।" ऊंची आवाज में कहने के बाद विजय ने धीरे-से कहा—"एक।"
"क्या नाम है तुम्हारा?"
"विजय—दो।"
"तुम्हारे इस दूसरे साथी का क्या नाम है?"
"अबे नाम से क्या लेते हो, काम की बात करो—तीन।"
और!
छहों एक साथ भिन्न दिशाओं में इस तरह छिटक पड़े जैसे भिन्न दिशाओं में एक साथ गोलियां छोड़ी गई हों और लगभग चार टॉर्चों के पीछे से वास्तव में बंदूकें गरज उठी थीं।
सारा वातावरण गोलियों की आवाज से झनझना उठा। इन गोलियों के बीच एक ग्रामीण युवक की चीख भी गूंजी—दरअसल वे पांच ही टॉर्चों के प्रकाश-दायरों से बाहर पत्थरों की बैक में पहुंच जाने में सफल हो सके थे, एक कुछ कम फुर्ती दिखा पाया, सो—
पहली गोली टांग में लगी।
लहराकर गिरा।
और चारों तरफ से दागी गईं अनेक गोलियां उसके जिस्म में धंस गईं, प्राणपखेरू वहीं उड़ गए थे, जबकि एक पत्थर की बैक में पहुंचने के बाद इस वक्त विजय जमीन पर कुछ टटोलने की कोशिश कर रहा था।
"क्या कर रहे हो?" समीप के पत्थर से फुसफुसाहट उभरी।
विजय आवाज से पहचान गया कि वह हरिया है। धीमें से बोला— "मेरे पास कोई हथियार नहीं है प्यारे, इसीलिए कोई पत्थर तलाश कर रहा हूं।"
"गोलियों के सामने पत्थर से क्या होगा?"
"मुकाबला हथियार से नहीं, हिम्मत से होता है प्यारे।" कहते हुए उसके हाथ में एक पत्थर आ गया जिसे उसने 'तौला'।
अब टॉर्चों के प्रकाश अलग होकर भिन्न दिशाओं में पत्थरों पर मंडरा रहे थे और उनकी संख्या चार के मुकाबले कहीं ज्यादा हो गई थी—अचानक आवाज गूंजी—"तुम क्यों बेवजह हमसे उलझ रहे हो। हमसे उलझने की जरूरत नहीं—इन्हें हमारे हवाले कर दो।"
कहीं से कोई आवाज नहीं।
सर्वत्र सन्नाटा।
पत्थरों पर फिसलता एक प्रकाश-दायरा उस दिशा में बढ़ रहा था जिधर विजय और हरिया छुपे थे—हरिया की समझ में नहीं आ रहा था कि अब उनका अगला एक्शन क्या होना चाहिए, जबकि विजय की दृष्टि अब टॉर्च पर थी, जिसका दायरा उसकी तरफ बढ़ रहा था—हालांकि विजय दायरे को उस पत्थर के ऊपर से गुजर जाने दे सकता था, जिसकी बैक में था, परंतु ऐसा उसने होने नहीं दिया।
टॉर्च के फ्रंट पर सामने आते ही विजय के जिस्म में बिजली भर गई—वह तेजी से खड़ा हुआ, पल के सौवें हिस्से के लिए प्रकाश में नहाया और हाथ में दबा पत्थर पूरी ताकत से फेंककर वापस पत्थर की बैक में बैठ गया।
इस सारे काम में उसने इतनी फुर्ती दिखाई थी कि टॉर्च के पीछे से चलीं सभी गोलियां पत्थर से टकराकर छितरा गईं।
जबकि उधर!
पत्थर ने कमाल दिखाते हुए उस टॉर्च का शीशा तोड़ दिया।
कांच टूटने की आवाज गोलियों की आवाज के गर्भ में डूबकर रह गई। इधर हरिया के मुंह से निकला—"अरे! तुमने तो कमाल कर दिया बाबू।"
"अब इस जगह से सरक लो प्यारे, वरना कमाल उस तरफ से होगा। वे जान चुके हैं कि हम यहां हैं, और हां, हाथ में दबे इस बल्लम का कोई इस्तेमाल करो।"
"इससे मैं क्या कर सकता हूं?" वह किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा फुसफुसाया।
"इन टॉर्च वालों में से किसी के पीछे पहुंचकर इस्तेमाल करने की कोशिश करो।" कहने के बाद विजय पत्थर की बैक में एक तरफ को सरक गया।
हरिया विपरीत दिशा में रेंगा था।
चेतावनी पुनः गूंजी—"हम फिर कहते हैं गांव वालों, तुमसे हमें कुछ नहीं लेना—इन शहरी लौंडों को हमारे हवाले करके आराम से निकल जाओ।"
तभी, एक टॉर्च के पीछे से चीख उभरी।
टॉर्च पत्थर पर गिरकर चकनाचूर हो गई।
कदाचित ब्लैक ब्वॉय या किसी ग्रामीण ने उसके पीछे पहुंचकर कमाल दिखाया था। रेंगता हुआ विजय कोई ऐसा पत्थर भी टटोलता जा रहा था, जो उसके काम आ सके।
ब्लैक ब्वॉय की आवाज गूंजी—"चिंता मत करना विजय, मैं एक बंदूक हासिल कर चुका हूं।"
उधर से फायर हुआ।
जवाब में ब्लैक ब्वॉय ने भी फायर किए।
परंतु!
बोलकर विजय अपनी स्थिति का आभास नहीं देना चाहता था, अतः चुपचाप मगर तेजी के साथ उस चमकती हुई टॉर्च की तरफ रेंगा जिसका प्रकाश-दायरा ठीक उससे विपरीत दिशा में मंडरा रहा था।
अभी अपने लक्ष्य से दूर ही था कि अंधेरे में उसे अपने बहुत नजदीक हलकी-सी आहट का अहसास हुआ, हालांकि उसने काफी तेजी के साथ आहट के केन्द्र-बिंदु की ओर आकर्षित होने की कोशिश की थी, किंतु नाकाम।
बंदूक का बट सिर पर टकराया।
मुंह से चीख निकली।
आंखों के आगे लाल-पीले तारे नाच गाए और अभी वह इन्हीं से न उबर पाया था कि 'बट' की एक और चोट सिर पर पड़ी—इस बार, रोकने की लाख चेष्टा के बावजूद आंखों के सामने अंधकार की गहरी चादर खिंचती चली गई।
¶¶
गोलियों की आवाज गूंजते ही सारे गांव में सनसनी दौड़ गई।
वृक्षों पर मोर्चा जमाए बहुत-से नौजवान एक साथ चीख पड़े—"सावधान हो जाओ, रावण आ रहा है—औरतें छतों पर चढ़ जाएं। मर्द हथियार लेकर बाहर निकल आएं—आज अगर हमें मरना भी है तो लड़ते-लड़ते और रावण का सर्वनाश करने की कोशिश करते।"
सारा गांव सतर्क हो गया।
शोर मच गया वहां।
मर्द सचमुच ही हथियारों से लैस बाहर निकल आए, महिलाएं छत पर।
मशाल किसी के हाथ में न थी—यह सलाह काशीनाथ की थी—उसने कहा था कि यदि मोर्चा रात के वक्त लगता है तो मशाल लेकर कोई बाहर न निकलेगा, क्योंकि इससे डाकुओं को दूर से ही पता लग जाता है कि वे कहां हैं—अंधेरे का लाभ उठाकर डाकुओं से लोहा लेने की जो स्कीम बनी थी, उस पर दृढ़ता से अमल करने लगभग सारा गांव निकल पड़ा।
सबने अपने-अपने मोर्चे संभाले।
और!
गोलियों की आवाज उस कमरे में आ घुसी जिसमें विकास, अशरफ, विक्रम और नाहर कैद थे—हां, वे कैद ही थे—कम-से-कम बाहर बल्लमधारी उन्हें चारों ओर से घेरे घड़े थे।
कमरा अंदर से बंद।
बाहर से शोर की आवाज सुनते ही उछलकर विकास अपने स्थान पर खड़ा हो गया। मुंह से स्वतः निकला—"डाकू आ गए हैं, हमें आजाद कर दिया जाए।"
"खामोश!" एक युवक चिल्लाया—"इस वक्त तुम कैद में हो और यदि कोई गलत हरकत की तो एक साथ अनेक बल्लम जिस्म के आर-पार हो जाएंगे।"
"म...मगर तुमने वादा किया था कि अगर डाकुओं का हमला होता है तो हमें आजाद कर दिया जाएगा।" लड़का गुर्राया—"एक कमरे में बंद रहकर हम सुबह की तरह इस कदर उनके चंगुल में फंसना नहीं चाहते कि हाथ-पैर हिलाने तक का मौका न मिले।"
"अभी यह पक्का नहीं है कि बाहर किसलिए शोर मच रहा है, मैं छगन को भेजकर मालूम कराता हूं। अगर वास्तव में डाकू आए होंगे तो तुम्हें आजाद कर दिया जाएगा—छगन, जल्दी बाहर जाकर देखो कि मामला क्या है?"
छगन नामक युवक दरवाजा खोलकर हवा के झौंके की तरह बाहर चला गया।
उत्तेजना और गुस्से की ज्यादती के कारण तमतमाया विकास अभी कुछ कहना ही चाहता था कि अशरफ ने उसका हाथ दबाकर शांत रहने का निर्देश दिया।
बाहर जाने के तुरंत बाद छगन उल्टे पैर वापस आकर चीखा—"डाकू सचमुच आ रहे हैं। सब लोग अपना-अपना मोर्चा संभाल लें।"
"तुम लोग आजाद हो।" कहने के साथ ही युवक ने बाहर जंप लगा दी।
कुछ देर बाद।
विकास, अशरफ, विक्रम और नाहर भी बाहर थे।
एक बार गूंजने के बाद गोलियों की आवाज फिर नहीं उभरी—सब अपने मोर्चे पर डट गए थे। कान घोड़ों की टापों से निकलने वाली आवाजें सुनने के लिए बेचैन थे कि अचानक पुनः सारा वातावरण गोलियों की आवाज से झनझना उठा।
अशरफ ऊंची आवाज में चीखा—"गांव पर कोई हमला होने वाला नहीं है। ऐसा लगता है कि ऊपर वाली पहाड़ियों पर डाकुओं ने किसी को घेर लिया है।"
"कहीं ये टकराव गुरु से तो नहीं हुआ है अंकल?" विकास चीखा।
विक्रम बोला— "संभावना यही है......रात के इस वक्त सिर्फ वे ही उधर गए हैं।"
"उनके पास कोई हथियार भी नहीं है अंकल! आओ।" चीखने के बाद उत्तेजित विकास गुमटी से बाहर निकलने वाले रास्ते से दौड़ा।
अशरफ, विक्रम और नाहर उसके पीछे।
तभी कोई चीखा—"ये लोग गांव से भागने की कोशिश कर रहे हैं।"
और!
इस वाक्य का असर बड़ा चमत्कारी था।
हर पेड़ से पके हुए फल की तरह युवक टपके और उस वक्त अशरफ को मन-ही-मन उनके मोर्चों की प्रशंसा करनी पड़ी, जब उन्होंने खुद को ग्रामीण युवकों के एक दायरे में गिरफ्त पाया। सभी अपने हथियारों से उन पर हमला करने के लिए तैयार थे।
"ये क्या बेवकूफी है?" विकास दहाड़ उठा—"हमें उनकी मदद के लिए जाने दो।"
एक युवक ने कहा— "हम लोग तुम्हारी चाल समझ गए हैं। वहां तुम्हारे साथियों ने फायरिंग शुरू की और इधर तुम डाकुओं से मुठभेड़ का हौव्वा करके भाग निकलना चाहते हो। क्यों?"
विकास का तन-बदन सुलग उठा। चीखा—"फायर करने के लिए हमारे साथियों के पास हथियार नहीं है बेवकूफो, वे लोग खतरे में हैं।"
तभी एक बार पुनः ऊपर से फायरिंग की आवाज उभरी।
और!
ठीक यही क्षण था जब विकास का जिस्म ठीक उस फुटबॉल की तरह हवा में लहराया जिसे किसी मंजे हुए खिलाड़ी की किक सहनी पड़ी हो—ग्रामीण युवकों ने उसे हैरत से हवा में लहराते और फिर दायरे से बाहर जमीन पर गिरते देखा।
"पकड़ो-पकड़ो मारो, भागने न पाए।" जैसी अनेक आवाजों के साथ सशस्त्र ग्रामीण युवक उसकी ओर दौड़े—इस अफरा-तफरी में घेरा टूट गया और इसका लाभ उठाकर अशरफ, विक्रम और नाहर भी भागे।
भागने के साथ ही ग्रामीणों के हमले से भी उन्हें बचना पड़ रहा था।
उधर विकास सिर पर पैर रखे भागा चला जा रहा था—सशस्त्र ग्रामीणों का पूरा हुजूम उसके पीछे—वे पीछे से बल्लम आदि फेंक-फेंककर मार रहे थे और...!
विकास उनकी मोटी बुद्धि पर ताव खा रहा था।
जी चाहा कि ठिठके—भिड़ जाए उनसे, समझाए कि उससे उलझकर भी वे कुछ नहीं कर सकते, किंतु दिमाग में एक ही बात थी—यह कि यदि वह यहां उन लोगों को सबक सिखाने के चक्कर में पड़ा, तो ऊपर मामला बिगड़ सकता है—वहां, जहां से छोटे-छोटे अंतरालों के बाद गूंजती गोलियों की आवाजें बता रही थीं कि छोटी-मोटी जंग चल रही है।
सो, पीछे से फेंके जा रहे हथियारों से बचता वह प्राणपण से भागता चला जा रहा था।
ग्रामीणों के हुजूम की रफ्तार किसी भी मायने में उससे ज्यादा नहीं थी, लिहाजा अंतराल निरंतर बढ़ता चला गया—करीब एक मील की दौड़ के बाद तो उन्हें विकास का सांयां भी नजर आना बंद हो गया।
भागते हुए एक युवक ने कहा—"वह हाथ नहीं आएगा।
"मेरे ख्याल से हमें उसका लालच छोड़कर बाकी तीन को घेरना चाहिए।" एक अन्य युवक ने सलाह दी—"वे हमारे पीछे हैं, दूसरे साथियों से घिरे।"
सभी ठिठक गए।
एक बोला— "हालांकि उम्मीद नहीं है कि वे हमारे साथियों के बीच से निकल आएंगे, मगर फिर भी निकल आए तो आएंगे इसी रास्ते पर—आसपास छुपकर मोर्चा जमा लेना चाहिए—हम उन्हें यहां से आगे नहीं जाने देंगे।"
"यही ठीक है।" सबने कहा।
मोर्चा जम गया।
कुछ रास्ते के दाईं ओर छुपे, कुछ बाईं ओर।
करीब पंद्रह मिनट बाद ग्रामीण युवकों की दूसरी टोली वहां पहुंची। उस टोली के एक युवक ने अपने छुपे हुए स्थान से बाहर निकलते हुए कहा— "वे तीनों कहां हैं?"
जवाब—"भागते हुए इधर ही तो आ रहे थे। क्या यहां नहीं पहुंचे?"
¶¶
"विजय.....विजय.......विजय बाबू !" विकास के कानों में पड़ने वाली ब्लैक ब्वॉय और ग्रामीण युवकों की ये संयुक्त आवाजें थीं।
वे सब रह-रहकर ऊंची आवाज में विजय को पुकार रहे थे।
बहुत तेज और लंबी दौड के कारण विकास बुरी तरह हांफ रहा था—चढ़ाई पर लगाई गई दौड़ की वजह से पिंडलियों और घुटने से ऊपर का हिस्सा बुरी तरह दर्द कर रहा था, परंतु उनकी परवाह न करके वह ऊंची आवाज में बोला— "गुरु को क्या हुआ अंकल?"
"अरे!" ब्लैक ब्वॉय चौंका—"तुम यहां विकास?"
"हां अंकल, गोलियों की आवाज सुनकर आया हूं।"
एक-दूसरे की आवाज की दिशा में बढ़ते वे आमने-सामने आ गए। हरिया और उसके साथी भी आसपास ही थे। बोला— "क्या हुआ, गुरु कहां हैं?"
"डाकुओं से मुठभेड़ हो गई थी। विजय जाने कहां गुम हो गया।"
बुरी तरह व्यग्र विकास ने पूछा— "हुआ क्या था?"
मुठभेड़ का किस्सा संक्षेप में बताने के बाद ब्लैक ब्वॉय ने कहा— "एक ड़ाकू को मार डालने और दूसरे को जिंदा गिरफ्तार करने के बाद अभी हम लोग बाकी शिकारों की ओर घात लगा ही रहे थे कि अचानक सभी टॉर्चें ऑन हो गईं, ठीक इस तरह जैसे सबने सलाह करके ऑफ की हों—हर तरफ घुप्प अंधेरा छा गया—हमने सोचा कि शायद टॉर्चें इसलिए ऑफ हुई हैं क्योंकि वे समझ गए होंगे कि वे हमें उनकी स्थिति का आभास दे रही हैं। अतः अंधेरे में ही घात लगाए अपने-अपने स्थान पर छुपे रहे—यह स्थिति पंद्रह मिनट से भी ज्यादा रही—जब कहीं से भी कोई आहट सुनाई न देने के कारण मैं बेचैन हो उठा तो ऊंची आवाज में बोला— "विजय, तुम ठीक हो न?"
जवाब में कहीं से कोई आवाज न उभरी।
मैंने दो-एक आवाजें और लगाईं मगर प्रतिक्रियास्वरूप कुछ न हुआ तो बेचैन हो उठा। इस बार हरिया को पुकारा—जवाब में अपने स्थान पर छुपे हरिया ने कहा—"मैं ठीक हूं शहरी बाबू।"
इस तरह एक-एक करके सभी बोले।
मगर...
"न विजय की आवाज कहीं से सुनाई दी, न ही उसका पता चला। डाकू जा चुके हैं—तभी से आवाजें लगा-लगाकर विजय को ढूंढ रहे हैं—आस-पास की सारी पहाड़िया छान मारीं हमने, लेकिन किसी भी रूप में विजय के जिस्म की परछाई तक कहीं नजर न आई।"
"फिर?" विकास ने सवाल किया।
"मेरा ख्याल है कि डाकू उन्हें किडनैप करके ले गए है।" ब्लैक ब्वॉय ने बताया—"वे बार-बार हरिया आदि से कह रहे थे कि गांव वालों से वे कुछ नहीं कहेंगे, उन्हें सिर्फ शहरी लौंडे चाहिए—उनका इशारा हम दोनों की तरफ था।"
अचानक विकास के मुंह से गर्राहट निकली—"अगर गुरू को खरोंच भी आ गई अंकल, तो मैं ठाकुर नाना को जिंदा नहीं छोडूंगा , कच्चा चबा जाऊंगा उन्हें।"
"हरिया का कहना है कि जिनसे मुठभेड़ हुई, वे फूलो गिरोह के डाकू नहीं थे।"
"तो?"
जवाब खुद हरिया ने दिया—"वे ठाकुर बंतासिंह गिरोह के डाकू थे।"
"तुम्हें कैसे मालूम?"
"ठाकुर गिरोह के डाकू बिल्कुल अलग तरह के कपड़े पहनते हैं। ठीक मिलिट्री वालों की-सी वर्दी में रहते हैं वे—कई रंग के कपड़े—पैरों में भारी बूट और उन दोनों डाकुओं के जिस्म पर यही वर्दी है, जिनमें से एक को हमने मारा है, एक को गिरफ्तार किया है।"
"गिरफ्तार डाकू कहां है?"
"उधर, बेहोश पड़ा है।" हरिया के हाथ से इशारा किया।
"मैं उससे मिलना चाहता हूं।" धड़कते-से स्वर में कहने के बाद लड़का लंबे-लंबे कदमों के साथ उस तरफ बढ़ गया, जिधर हरिया ने इशारा किया था—ब्लैक ब्वॉय के साथ ग्रामीण भी उस तरफ लपके—एक युवक ने अपने हाथ में दबी वह टॉर्च ऑन कर दी जो मृत डाकू के पास से उसने बरामद की थी।
शीघ्र ही वे एक विशाल पत्थर की बैक में पहुंचे।
टॉर्च का प्रकाश जिस डाकू पर स्थिर हुआ, उसके भारी-भरकम चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूछें थीं और शायद उसका वक्त खराब था कि ठीक इस वक्त उसके मुंह से हल्की-हल्की कराहें निकलने लगीं, पलकों में कंपन था।
चेतना लौट रही थी।
विकास ने झपटकर बाएं हाथ से उसके बाल पकड़ लिए और पूरी बेरहमी के साथ झंझोड़ता हुआ बोला— "आंखें खोल, मैं कहता हूं आंखें खोल!"
"विकास !" ब्लैक ब्वॉय ने कहा—"ठीक से होश में आने दो। तुम्हारी इस जल्दबाजी के कारण यह पुनः बेहोश हो...।"
"तुम चुप रहो अंकल!" ब्लैक ब्वॉय की तरफ पलटकर जो विकास गुर्राया तो हरिया और उसके साथियों के समूचे जिस्म में मौत की-सी सिहरन दौड़ गई।
उफ!
इतना वीभत्स, भयानक और भभकता चेहरा शायद अपने पिछले जीवन में उन्होंने कभी न देखा था—आंखें अंगारों की मानिन्द दहक रही थीं, चेहरे के हर हिस्से पर पशुता का साम्राज्य—हरिया को इन शहरी लोगों में जो लड़का सबसे खूबसूरत, भोला और मासूम लगा था, इस वक्त सबसे ज्यादा खूंखार नजर आया।
ग्रामीण युवकों की सांसें तक रुक गईं।
ब्लैक ब्वॉय के लिए विकास का यह रूप नया न था, अतः चुप रहा। वह समझ गया कि इस वक्त विकास अपने काम में किसी किस्म की दखलंदाजी सहन नहीं करेगा।
पूरी तरह होश में आते ही डाकू के हलक से चीखें निकलने लगीं, उसने खुद को बड़ी विकट स्थिति में पाया, सामने चमक रहा दरिंदगीयुक्त चेहरा।
"कौन-से गिरोह का आदमी है तू?" भेड़िए ने पूछा।
उसने बड़ी मुश्किल से कहा— "ठाकुर बंतासिंह।"
"यहां क्या करने आया था?"
"शहर से आए लोगों में से किसी एक को पकड़कर सरदार के पास ले जाने।"
"कितने आदमी थे तुम?"
"छः।"
"बंतासिंह भी साथ था?"
"न...नहीं।"
"अड्डा कहां है तुम्हारा?"
इस सवाल पर वह चुप रह गया, जबकि हरिया ने कहा—"बंतासिंह के साथियों की खूबी यही सुनते हैं कि ये किसी भी हालत में अड्डे का पता नहीं बताते।"
"आज तुम्हारे सामने बोलेगा।" कहने के बाद विकास डाकू पर गुर्राया—"जवाब दे, बंतासिंह का अड्डा कहां है?"
डाकू सिर्फ उसे घूरता रह गया, कुछ बोला नहीं।
जबकि!
पलक झपकते ही विकास के सिर की टक्कर इतनी जोर से उसकी नाक पर पड़ी कि चीख नहीं, बल्कि सच लिखा जाए, तो वह एक डकार थी जो उसके मुंह से निकलकर यहां-वहां, पत्थरों से टकराकर शांत हो गई, मगर शांत कहां—शांत तो तब होती न जब मुंह से निकलने वाली यह अंतिम डकार होती।
उसकी नाक को निशाना बनाकर विकास एक के बाद दूसरी टक्कर मारता चला गया। उसके मुंह से ऐसी आवाज निकली जैसे बकरे को हलाल किया जा रहा हो।
जब विकास रुका तो—।
डाकू के समूचे चेहरे के साथ-साथ स्वयं विकास का सिर भी खून से लथपथ हो चुका था—डाकू की नाक पिचक गई थी। जाहिर था कि हड्डी टूटी नहीं, बल्कि उसका चूरा हो गया था।
खाल चुड़चुड़ा गई थी।
मर्मांतक चीखों के अलावा उसके मुंह से कुछ न निकल रहा था, जबकि दरिंदा पुनः गुर्राया—"जवाब दे—वरना इस बार आंख फोड़ दूंगा।"
¶¶
चेतना का पहला अहसास करते ही विजय ने अपने जिस्म में सर्दी की झुरझुरी महसूस की—पलकों में कंपन के साथ सिर में ठीक उस स्थान पर दर्द की लहर दौड़ गई—जहां बंदूक के 'बट' मारे गए—न चाहते हुए भी आंख खुलने से पहले मुंह से कराहें निकलीं।
इन कराहों के बाद जब पूरी तरह होश में आया तो ठीक सामने खड़े जिस व्यक्ति पर उसकी नजर पड़ी, उसे देखकर एक पल को भ्रम हुआ कि वह मिलिट्री वालों के चंगुल में फंस गया है।
खोपड़ी घूम गई उसकी।
दिमाग पर जोर डाला तो यही याद आया कि टकराव डाकुओं से हुआ था और फिर उसे यह समझने में देर न लगी कि वह डाकुओं के कब्जे में ही है, क्योंकि कपड़ों के अलावा वहां का कोई रंग-ढंग मिलिट्री वाला नहीं था। यहां तक कि बालों की कटिंग भी।
उसके सामने खड़े डाकू के कूल्हे पर चमड़े की एक 'मशक' थी, पानी से भरी—उसका मुंह डाकू ने हाथ से जकड़ रखा था—विजय ने चेहरे और सिर सहित अपने जिस्म का समूचा अगला भाग गीला पाया।
स्पष्ट था कि उसे 'मशक' के पानी से होश में लाया गया था।
अपनी स्थिति का जायजा लेने के लिए उसने गरदन घुमाई तो पाया—किसी पहाड़ के गर्भ में छुपा लंबा-चौड़ा हॉल—दीवार पर लगी रोशन मशालें—सावधान की मुद्रा में खड़े करीब पच्चीस काहिया वर्दी वाले डाकू।
उसके दाएं—बाएं लकड़ी के दो मोटे खंभे थे और रस्सी की मदद से इन खंभों के साथ उसके हाथ ही नहीं, पैर भी बंधे थे—खंभों के ठीक बीच में खड़ा था वह।
"होश आया कि नाहिं?" हॉल में एक भारी आवाज गूंजी, ऐसी कि जिसमें खंखार के खरखराने की आवाज भी मिश्रित थी।
"आ गया है सरदार!" मशक वाले ने कहा।
"तो सामने से हटता काहे नाहिं?" ऐसा महसूस होता था जैसे बोलने वाले के गले में कहीं खंखार अटकी हुई है, जो बोलने पर खरखराने लगती थी।
मशक वाला विजय के सामने से हटा।
और...
जिस हस्ती पर विजय की नजर पड़ी, उसे यदि काला पहाड़ कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी—हां, इतना ही मोटा था वह।
थुलथुल।
जिस्म पर मिलिट्री वाले कपड़े, कंधों पर पीतल के 'बैज' लगे थे और हिंदी में 'जनरल' लिखा साफ नजर आ रहा था—पत्थर के चबूतरे पर गद्दा और गंदी चादर बिछी थी—उसी पर वह बोरे की तरह लुढ़का पड़ा था।
गावतकिए पर मोटी कोहनी टेके।
चबूतरे के नीचे रखे ऊंचे हुक्के की नली जाने कहां-कहां से बल खाती उसके हाथ में थी, जिसे अपने मुंह में घुसेड़कर जाने कैसा कश लगाया कि चिलम से लपट-सी उठी—जैसे दहकते शोलों में कपूर डाला गया हो।
उसके दाहिनी तरफ थोड़ा हटकर एक ऐसी अंगीठी दहक रही थी जिसमें पहिए लगे हुए थे और उस भट्टी में लोहे की दो छड़ों के सिरे भी दहक रहे थे।
लकड़ी के हैंडिल वाली छड़ें।
यह अनुमान तो विजय पहले ही लगा चुका था कि इस वक्त वह फूलों के नहीं बल्कि बंतासिंह वाले गिरोह के कब्जें में है और अब यह अनुमान लगाने में भी कोई दिक्कत न हुई कि इस काले पहाड़ को ही शायद बंतासिंह के नाम से जाना जाता है, बोला—
"गुड मार्निंग ठाकुर साहब।"
काले पहाड़ की नजर एकदम टेढ़ी हो गई। हुक्के की नली मुंह से वापस खींचकर वह हंसा तो विजय की नजरों से उसके दांतों पर चढ़ी दांतों जितनी ही मोटी पीली परत छुप न सकी—हंसने के कारण उसकी तोंद हिचकोले अलग खा रही थी। बोला— "यह शहरी लौंडा हमें निरा पागल समझे है। तुमने सुना इतनी—अच्छी-भली रात में गुड मॉर्निंग बोले है। इतना पढ़ा-लिखा तो मैं हूं लौंडे।"
"अंग्रेजी की किताबों में ये लिखा है ठाकुर साहब कि दिन में जब भी पहली बार किसी से मिलो तो उसे गुड मॉर्निंग कहो और फिर आपके दर्शन तो मैं जिंदगी में पहली बार कर रहा हूं।" विजय ने निहायत ही शरीफाना अंदाज में कहा।
"अरे मंगवा—!" उसने पुकारा।
इकहरे बदन का एक डाकू बोला—"हां, सरदार।"
"कहीं ये शहरी लौंडा हमारा मजाक तो न उड़ावे है?"
"नहीं सरदार!"
"अंग्रेजन किताबन में उई लिखा है के जो ये कहवे है?"
"हां, सरदार!"
"तब तो ठीक है।" कहने के बाद उसने नली पुनः अपने मुंह में ठूंसकर हुक्का गुड़गुड़ाया, चिलम से पुनः एक शोला-सा भड़क उठा—हॉल में सन्नाटा छा गया—विजय उसके बोलने का इंतजार कर रहा था।
एकाएक वह उठा।
और उठा कुछ इस तरह से कि विजय जैसे व्यक्ति को दांतों तले उंगली दबा लेनी पड़ी—विजय तो क्या उसके शरीर को देखने वाला कोई भी व्यक्ति यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि उसमें इतनी फुर्ती होगी—इतनी ज्यादा कि विजय ने सिर्फ एक बार पलक झपककर आंखें खोली थीं कि वह चबूतरे से दो गज दूर जमीन पर खड़ा नजर आया।
विजय जैसा व्यक्ति चकित।
जबकि खंखार की खरखराहट के साथ वह कह रहा था—"हम तोसू अपने कुछ सवाल के जवाब चाहें हैं बिटवा।"
"जरूर देंगे।" विजय ने पूरी शराफत दिखाई—"आप सवाल कीजिए।"
अपनी मोटी आंखों से कुछ देर तक वह विजय को घूरता रहा और उसी पर नजरें टिकाए बोला— "मंगवा।"
"हां सरदार।"
"छोरा तो शरीफ लगे है।"
"हां सरदार।"
"क्यूं रे, के नाम है तेरा?"
"ठाकुर विजयसिंह।" उसने जानबूझकर अपना पूरा नाम बताया।
उसकी आंखें कुछ सिकुड़ गईं। बोला—"तू भी ठाकुर है?"
"हां ठाकुर साहब!"
"कैसे जानत है कि हम ठाकुर हैं?"
"गांव में सुना था कि इस इलाके में दो डाकू गिरोह हैं, एक फूलो मल्लाह का और दूसरा ठाकुर बंतासिंह का—फूलो से तो हम मिल चुके हैं, सो आपका रुतबा देखकर ही समझ गए कि हो-न-हो आप ही ठाकुर बंतासिंह हैं।"
"छोरा पढ़ा-लिखा ही नहीं, समझदार भी है मंगवा।"
"ऐसा ही लागत है सरदार।" मंगवा ने कहा जरूर, परंतु उसके शब्दों पर कोई ध्यान न देकर बंतासिंह ने विजय से पूछा—"ठाकुर निर्भयसिंह तेरा कौन लगता है?"
"पिता।"
यह जवाब मिलते ही बंतासिंह के चेहरे पर चौंकने के भाव उभरे—भैंगा-सा नजर आने लगा वह—ठीक ऐसा, जैसे दोनों पुतलियों से अपनी नाक के सिरे को देखने का प्रयत्न कर रह हो, बोला— "ऊई तेरा बाप है?"
"हां।"
"तब तो हमारे हाथन में खजाना आई गवा रे मंगवा!" बंतासिंह ने कहा— "ऊई कुत्ता खुद-ब-खुद याकू छुड़ावन यहां आवेगा।"
"किसकी बात कर रहे ठाकुर?"
"तेरे बाप की।"
"अगर ऐसा सोचते हैं तो आप बहुत बड़ी गलतफहमी के शिकार हैं ठाकुर साहब! वे तो खुद मेरी जान के दुश्मन हैं—चाहते हैं कि मैं मर जाऊं।"
"ऐसा क्यूं?"
"क्योंकि मैं उनकी जिंदगी का एक ऐसा रहस्य जान गया हूं, जिसके बाद वे मुझे जिंदा नहीं छोड़ सकते। अपने हाथ से ही उन्होंने मुझे मारने की कोशिश की।"
"कौन-सा रहस्य?"
"वही जो उन्होंने बीस साल पहले गुमटी में किया था।"
"इस बखत ऊई कहां है?"
"फूलो के साथ। वे उस गिरोह के सरदार बन गए हैं।"
"अरे !" वह चौंका—"ई तो सच्ची खबर लगे है मंगवा—मगर ई हो कैसे सकत है—निर्भयसिंह जितना बड़ा दुश्मन हमारा है, उतना ही फूलन का भी—यदि उस बखत निर्भय ने ठाकुर गिरोह को खत्म किया था तो सुच्चाराम को भी वाने ही मारा था, फिर भला ऊई फूलन के साथ कैसे हो सकत है?"
एक डाकू ने आगे बढ़कर कहा—"आपको मेरी खबर पर यकीन नहीं आ रहा था न सरदार, मैंने उसे अपनी आंखों से फूलो के साथ देखा।"
"हमें....तो अब भी यकीन नाहिं आवत है—ई भला कैसे हो सकत, फूलो अपने दुश्मन को भला साथ क्यों रखत?"
दिमाग में एक स्कीम बनाते हुए विजय ने कहा— "तुम्हें खत्म करने के लिए।"
"हमें?" कहने के साथ वह पुनः भैंगा हो गया।
"हां।" एक-एक शब्द पर जोर देते हुए विजय ने कहा—"तुमसे निपटने के लिए फूलो ने निर्भयसिंह जैसे दुश्मन को दोस्त बना लिया है।"
"हम समझत नाहिं।"
विजय तपाक से बोला— "सारा मामला आपकी समझ में तब आएगा ठाकुर साहब, जब मैं आपको पूरा किस्सा सुनाऊंगा।"
"तो सुनाओ छोरा।"
"उससे पहले सिर्फ यह जानना चाहता हूं कि आप मेरे बारे में क्या-क्या जानते हैं, ताकि बेकार ही उन बातों को दोहराकर आपका वक्त जाया न करूं।"
"हमें तो एक साथी ने यूं खबर दी कि ठाकुर निर्भयसिंह कू वाने अपनी आंखन से फूलन के साथ देखा है। हमने यकीन न माना। दूसरा डाकू खबर लाया कि गुमटी में कुछ शहरी लोग आए हुए हैं—मंगवा बोला, हो-न-हो इन शहरी लोगन का ठाकुर निर्भसिंह से कोई-न-कोई संबंध जरूर होगा—बस, हमने अपने कुछ साथियों को हुकुम दिया कि गुमटी से उन शहर के लोगन में से किसी कू पकड़ कर लाएं—ई तुम्हें लाए और अब तुम भी कहवत हो कि निर्भयसिंह फूलन के ही साथ है।"
"जो कुछ आज सुबह गुमटी की चौपाल पर हुआ, क्या उस बारे में आपको कतई कुछ मालूम नहीं है?"
"नहीं तो—क्या हुवत है वहां?"
विजय ने दिमाग को दुरुस्त किया। दरअसल अपनी योजना के मुताबिक पिछली घटनाओं को इस ढंग से प्रस्तुत करना था कि लाभ उठा सके—लंबी सांस खींचने के बाद कहना शुरू किया— "बीस साल पहले जिस ठाकुर निर्भयसिंह ने एस.पी. के रूप में आपके और फूलवती के आदर्श डाकुओं का सफाया किया वह आज पुलिस में आईoजीo हैं—हम लोग राजनगर में रहते हैं और वहां हमारी बहुत इज्जत है—पिछले हफ्ते मुझे पता लगा कि बीस साल पहले मेरे बाप ने दरिंदों की तरह गुमटी में नरसंहार किया था। मुझे यकीन नहीं आया, क्योंकि मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि वे ऐसे हो सकते है—मैंने उनसे पूछा, वे झांसा देकर मुझे और मेरे कुछ दोस्तों को गुमटी ले आए—गुमटी वाले उनकी शक्ल देखते ही हम पर टूट पड़े—हम पर इसलिए क्योंकि हम उनके साथ थे और गांव वालों ने हमें उनका हिमायती समझा—हमने गांव वालों को बड़ी मुश्किल से यह समझाया कि निर्भयसिंह के पाप का हमसे कुछ लेना-देना नहीं है और अपनी जान बचाई—मगर इस झमेले के बीच बापूजान कहीं गायब हो गए थे—हमने गांव वालों के सामने शंका रखी कि कहीं वे इस इलाके से भाग न जाएं, तब गांव वालों ने बताया कि अब निर्भयसिंह इस इलाके से जिंदा बचकर नहीं जा सकेगा—हमने वजह पूछी तो बोले कि इस इलाके में दो डाकू दल हैं—एक आपका, दूसरा फूलो का। और निर्भयसिंह दोनों का ही दुश्मन है, अतः जिसके भी हाथ लग गया, मार डाला जाएगा, मगर...।"
"मगर?"
"आज सुबह का नजारा देखकर हम ही नहीं, बल्कि सारा गांव दंग रह गया।"
"ऐसा कैसा नजारा था वह?"
"फूलो के गिरोह ने गुमटी पर हमला किया। यह देखकर सब दंग रह गए कि फूलो के साथ रहते सरदारी निर्भयसिंह कर रहे थे—उन्होंने गांव वालों को कुछ न कहा, मगर मुझे और मेरे दोस्तों को मारने पर आमादा हो गए।"
"क्यों ?"
"क्योंकि हम यह राज जान गए थे कि बीस साल पहले सचमुच उन्होंने गुमटी में नरसंहार किया—दरअसल वे एक भी ऐसे आदमी को जिंदा छोड़ना नहीं चाहते और जो राजनगर लौटकर उनकी हकीकत बता सके।"
"ओह!" बंतासिहं के चेहरे पर ऐसे भाव उभरे जैसे सबकुछ जान गया हो।
विजय ने कहा— "वहीं हमें यह पता लगा कि फूलो और निर्भयसिंह नाम के राहु-केतु एक कैसे हो गए—दरअसल उनकी बातों से साफ हुआ कि उनके बीच एक समझौता हुआ है।"
"कैसे समझौता?"
"फूलो की मदद से बापूजान मुझे मेरे दोस्त को ही मारना नहीं चाहते, बल्कि गुमटी में एक बार फिर नरसंहार करना चाहते हैं, जबकि फूलो उनकी मदद से आपका और आपके समूचे गिरोह का सफाया करना चाहती है, ताकि इस इलाके पर उसका एकछत्र राज्य कायम हो सके।"
"ये तो बड़ी गिरी हुई औरत है रे मंगवा, स्वार्थ के लिए अपने सुच्चाराम जैसे आदर्श के हत्यारे से सांठ गांठ कर बैठी।"
"और तुम?"
"जब बाप बेटे के खून का प्यासा बन गया है तो बेटा, बेटा कहां रहा?" विजय ने कहा— "जिस तरह का समझौता उन्होंने फूलवती से कर लिया है, उसी का हमने गांव वालों से कर लिया।"
"कैसा समझौता?"
"यह कि हम सब दोस्त गांव वालों की हिफाजत करेंगे और गांव वाले हमारी—यानि हम लोग मिलकर निर्भयसिंह का मुकाबला करेंगे। दांव लगा तो उसके साथ-साथ फूलो के सारे गिरोह को नेस्तनाबूद कर देंगे।"
"तुम अपने बाप को मार डालोगे?"
"अब वह मेरा बाप कहां, दुश्मन है।"
एकाएक वह पहली बार मंगवा की तरफ पलटकर बोला— "क्यों मंगवा, क्या कहता है?"
"बात बिल्कुल ठीक है सरदार, जब बाप ही खून का प्यासा हो जाए तो क्या बेटे को अपनी जान की हिफाजत करने का भी हक नहीं है?"
"अरे! हक तो है मूरख, मगर तू समझत नाहिं कि हम क्या पूछत हैं।"
"क्या?"
"क्या गुमटी के डरपोक लोग और ये शहरी छोरे निर्भयसिंह और फूलन के गिरोह को खत्म कर सके हैं?"
"हां, ये बात जरूर सोचने वाली है सरदार!"
"इस पर मैंने भी सोचा था।" विजय ने तपाक से कहा— "और सच बात ये है कि उनके मुकाबले हमने खुद को कमजोर पाया—यदि
सच पूछो तो इस संबंध में मैं आपसे मिलना चाहता था।"
"हमसे?" बंतासिंह पुनः उसकी तरफ पलटा।
"हां।"
"क्यूं भला?"
"अगर आप दिमाग पर थोड़ा-सा जोर डालकर सोचें तो निर्भयसिंह और फूलो का गिरोह उतना ही बड़ा दुश्मन आपका भी है जितना हमारा या गुमटी गांव का—आपके अस्तित्व को भी उतना ही खतरा है जितना हमें—हम सबको वे दोनों मिलकर एक-एक करके खत्म कर देना चाहते हैं और यदि हम सोते रहे, चौकस न हुए—एक-दूसरे की मदद के लिए खड़े न हुए तो वे निश्चय ही हमें खत्म कर देंगे।"
"यानि हमसे भी समझौता करना चाहते हो?"
थोड़ा हिचकते हुए विजय ने कहा— "ऐसा ही समझ लीजिए।"
"अगर तुम हमसे ई बात करना चाहत थे तो वहां हमारे साथिन के साथ मुकाबला क्यूं किया? उनमें हमारा एक साथी मरत रहा, दूसरा पकड़ा गया?"
"उस वक्त मुझे मालूम नहीं था कि वे आपके आदमी हैं। वहां—पहाड़ों में हम दो दोस्त गांव वालों के साथ इस मंशा से भटक रहे थे कि शायद फूलो गिरोह के किसी डाकू से आमना-सामना हो जाए और जब आपके आदमियों ने हमें घेरा तो हमने इन्हें फूलो गिरोह के आदमी ही समझा। बस—इसी गलतफहमी में टकरा बैठे।"
"मगर तुम्हारे पास कोई हथियार तो निकला नाहिं, फूलो गिरोह के डाकुओं का मुकाबला क्या निहत्थे ही करना चाहते थे?"
"आज दिन में वे हमारे हथियार छीनकर ले गए थे, लेकिन फिर भी, जिस तरह से हमने मुकाबला किया, उसके बारे में अपने
उन साथियों से पूछ सकते हो जो मुझे बेहोश करके यहां लाए हैं।"
"क्यों मितवा?"
एक डाकू बोला "बात तो ये ठीक कह रहा है सरदार, हाथ से पत्थर फेंककर इसने बीस गज दूर चमक रही टॉर्च का शीशा फोड़ दिया था।"
"अच्छा!" बंतासिंह के चेहरे पर हैरत के लक्षण उभर आए।
विजय चुप रहा।
कुछ देर तक उसी मुद्रा में विजय को देखता रहा, पलटा और धीरे-धीरे चलता हुआ चबूतरे के नजदीक पहुंचा—फिर, वह चबूतरे पर ठीक यूं जा गिरा जैसे बुरी तरह थके मजदूर ने अत्यंत वजनी बोरी उठाकर उसकी मंजिल पर ले जाकर डाली हो।
हुक्के की नाल मुंह में घुसेड़कर उसने चिलम से पुनः लपट उठाई।
व्यग्र विजय ने पूछा—"समझौता मंजूर है या नहीं?"
"बात तो तुम ठीक कह रहे हो छोरे, मगर...।"
"मगर?"
"गांव वाले बेवकूफ थे, जो तुमसे समझौता किया।"
"क्यों?"
"क्योंकि समझौता बराबर के लोगन में होता अच्छा लगत है। गांव वाले तो फिर भी तुम लोगन की हिफाजत कर सकते हैं, तुम लोगन भला उनकी क्या हिफाजत कर सकत हो—और फिर हमसे तुम लोगन का क्या मुकाबला?"
"मतलब?"
"हम खुद ताकतवर हैं। पच्चीस से ज्यादा हमारे साथिन हैं—फूलो के गिरोह से मुकाबला करने लायक हम पर हथियार हैं—तुम पर क्या है—-क्यूं मंगवा, क्या हम कुछ गलत कहत हैं?"
"बिल्कुल नहीं सरदार।" मंगवा ने कहा— "ये बात बिल्कुल ठीक बोले कि समझौता दो बराबर की ताकतों के बीच हुआ करता है—ये और इसके पांच-चार शहरी छोरे हमारे सामने भला ठहरते ही कहां हैं और वे भी निहत्थे—असल बात ये है कि सरदार कि हमारी
मदद लेकर ये अपनी ताकत बढ़ाना चाहता है। हमारी ताकत तो वही-की-वही रहेगी।"
"तुम्हारा यह अनुमान बहुत गलत है मंगवा।" विजय ने ऊंची आवाज में कहा।
"क्या मतलब?"
"मैं तुम्हें यकीन दिला सकता हूं कि तुम लोगों की मदद से जितनी हमारी ताकत बढ़ेगी, उतनी ही तुम्हारी भी।"
"कैसे यकीन दिलाओगे?"
"जैसे तुम चाहो, मुझे आजमा सकते हो, लेकिन...।"
"लेकिन?"
"उससे पहले यह कहना चाहूंगा, कि यदि मैं खरा उतरा तो ये समझौता तुम्हें करना होगा।" विजय ने कहा— "साथ ही, यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं ठाकुर बंतासिंह कि मेरे बार-बार समझौता करने की बात पर दबाव देने का कारण कहीं इस भ्रम के शिकार न हो जाना कि समझौते की जरूरत या गरज सिर्फ मुझे ही है—जरूरत और गरज तुम्हें भी उतनी ही है जितनी मुझे या गांव वालों को। फर्क सिर्फ ये है कि मैं उस जरूरत को समझ रहा हूं और तुम समझ नहीं रहे हो।"
बंतासिंह ने व्यंग्य भरे स्वर में कहा— "बातों में बखत खराब मत करो छोरा, अब तो हम तुम्हारे हुनर देखने के बाद ही कुछ बात करत।"
"मैं तैयार हूं।"
"क्या दिखलाओगे?"
"जो तुम चाहो। जिससे कहो 'फाइट' कर सकता हूं—निशाना लगा सकता हूं।''
"मितवा !"
"हां सरदार।"
"जरा इसे खोल तो सही।"
मितवा नाम के डाकू ने आगे बढ़कर उसे खोल दिया। रस्सियों से मुक्त होते ही विजय ने उस स्थान से अपनी कलाई और टांगों को रगड़ा जहां रस्सियां बंधी थीं, बोला— "हुक्म करो ठाकुर, क्या दिखाना है?"
गावतकिए के नीचे से अपनी रिवॉल्वर निकालते हुए बंतासिंह ने कहा— "इस गलतफहमी के शिकार मत हो जाना छोरे कि ई रिवॉल्वर हाथ में आते ही तुम यहां से किसी तरह निकलकर भाग सकते हो। अगर ऐसी बेवकूफी की तो इसी हॉल में तुम्हारी लाश पड़ी होगी।"
"ठाकुर होकर ठाकुर के वचन पर शक करते हो बंतासिंह?"
"तो लो।"
विजय ने रिवॉल्वर लपका।
"इसे आजमाने की कोई तरकीब निकालो मंगवा।"
विजय ने अपनी दृष्टि मंगवा कर केंद्रित कर दी। मंगवा ने जेब से माचिस निकालकर दिखाते हुए कहा— "मैं ये माचिस उछालूंगा। तुम्हें नीचे से गिरने से पहले इसमें गोली मारनी है।"
विजय यूं मुस्कराया जैसे दो साल के बच्चे के ठुमक-ठुमककर नाचने पर उसकी मां मुस्करा रही हो। फिर किसी बहुत बड़े शातिर की तरह बोला—"ये मेरा अपमान है ठाकुर बंतासिंह, विजय इतनी बड़ी चीज में निशाना नहीं लगाया करता।"
"फ...फिर?" बंतासिंह संभला।
"इस माचिस में से एक 'तीली' निकालकर हवा में उछालो मंगवा।” विजय ने कहा— "और फिर बहुत ध्यान से देखो कि वह जमीन पर आकर गिरती है या नहीं।"
"क...क्या?" लगभग सभी के मुंह से निकल पड़ा। बड़ी ही, दिलचस्प मुस्कान के साथ विजय ने कहा— "उछालो तिल्ली!"
सन्नाटा!
सब अवाक्-से खड़े रह गए।
कम-से-कम दो मिनट बाद बंतासिंह ने मंगवा को इशारा किया। माचिस से तीली निकालते वक्त मंगवा के हाथ कांप रहे थे—तीली निकालकर उसने हवा में उछाली ही थी कि एक जबरदस्त धमाके के साथ विजय के हाथ में दबे रिवॉल्वर से शोला निकला—बारीक-से—बारीक नजर भी न देख सकीं कि गोली तीली में लगी भी या नहीं।
विजय ने कहा— "अपने आसपास जमीन पर ध्यान से देखो कि कहीं तीली पड़ी है या नहीं। अगर मिल जाए तो मैं फेल हो गया और यदि न मिले तो समझ लेना कि मेरे रिवॉल्वर से निकली गोली उसे हजम कर गई।"
काफी बारीक से ढूंढ-भाल के बाद मंगवा ने घोषणा की—"तीली नहीं है।"
हॉल में विस्मयभरी चीख गूंज उठी।
बंतासिंह स्वयं हैरान था।
जबकि विजय ने कहा— "दो बातें कहते हैं, पहली ये कि निशाना इत्तफाक से सही लगा हो और दूसरी ये कि जमीन पर पड़ी होने के बावजूद तीली कहीं नजर न आ रही हो, अतः दूसरी तीली उछालो। इस बार इन दोनों में से कोई इत्तफाक दुबारा नहीं हो सकता।"
बंतासिंह के इशारे पर मंगवा ने तीली उछाली।
अच्छी तरह जांच-पड़ताल करने के बाद मंगवा ने अभी फर्श पर कहीं तीली न पड़ी होने की घोषणा की ही थी कि— 'धांय—धांय !' सारा हॉल दो फायरों की आवाज से गूंज उठा।
बंतासिंह सहित सभी उछल पड़े।
स्वयं विजय भी।
"अगर कोई भी अपने स्थान से हिला तो उसके परखच्चे उड़ा दूंगा।" वहां गूंजने वाली ये आवाज विकास की थी—"सब अपने-अपने हथियार फेंक दें।"
नजरें हॉल के दरवाजे पर स्थिर हो गईं।
उनके साथ-साथ विजय ने भी वहां खड़े विकास को देखा और अभी कोई समझ भी न पाया था कि विकास गरजा—"फिक्र मत करो गुरु, चेला आ गया है।"
"अबे मगर...।"
"अजय अंकल भी मेरे साथ हैं, म...मगर...।" विकास चौंक पड़ा—"आपके हाथ में रिवॉल्वर गुरु, क्या आप यहां कैद नहीं हैं?"
"नहीं प्यारे, अब बंतासिंह और हम दोस्त बन चुके हैं।"
"द...दोस्त?"
विजय ने बंतासिंह की तरफ पलटकर कहा— "इससे मिलो ठाकुर साहब, ये मेरा शिष्य है, नाम—विकास, मगर प्यार से मैं  इसे दिलजला कहता हूं—घबराने की जरूरत बिल्कुल नहीं है—यहां ये धमाकेदार एंट्री सिर्फ इसीलिए हुई है, क्योंकि अपनी नजरों में यह अपने गुरु को दुश्मनों के चंगुल से निकालने आया है।"
सभी हतप्रभ! विकास भी।
"गन वहीं फेंककर अंदर आओ दिलजले।" विजय ने हुक्म दिया।
विकास ने बुहत ध्यान से हॉल और उसमें मौजूद एक-एक व्यक्ति का निरीक्षण किया—दरअसल वह यह जानना चाहता था कि जो कुछ विजय गुरु कह रहे हैं, कहीं वह किसी मजबूरी की वजह से तो नहीं कह रहे, क्योंकि डाकुओं के इस अड्डे पर जो दृश्य देख रहा था, उसकी कल्पना तो वह ख्वाब में भी नहीं कर सकता था।
समूचे गिरोह के बीच खड़े विजय के हाथ में रिवॉल्वर !
विजय ने पुनः कहा— "कोई खतरा नहीं है प्यारे, बंदूक फेंक दो।"
बंदूक वहीं फेंककर विकास विजय की तरफ बढ़ा ही था कि डाकुओं ने अपनी बंदूकें कंधे से उतारनी चाहीं। तभी दोनों हाथ ऊपर उठाकर बंतासिंह चीखा—"नाहिं, कोई हमला नाहिं करत।"
सबके हाथ जहां-के-तहां ठिठक गए।
बंतासिंह की दृष्टि विकास पर केंद्रित थी। चेहरे पर गंभीरता लिए बोला— "तो ये छोरा तुम्हारा चेला है विजय बाबू?"
"हां।"
"क्या नाम बताया तुमने इसका?"
"विकास।"
अब वह सीधा विकास से बोला— "मैं तुमसे सिरफ एक बात पूछना चाहूं हूं छोरे!"
"क्या?"
"तू यहां कैसे पहुंच गया? पता किसने बताया?"
"तुम्हारे आदमी ने। अपना नाम उसने 'रंभू' बताया है।''
"कहां है रंभू?" अचानक बंतासिंह इतनी जोर से हलक फाड़कर चिल्लाया कि डाकू ही नहीं, विजय और विकास जैसी हस्तियां भी कांपकर रह गईं।
सारा हॉल अभी तक गूंज रहा था।
अचानक ही बंतासिंह अर्धपागल-सा नजर आने लगा था। विजय से धीमें स्वर में बोला— "मैं तुम्हारी ही नहीं, तुम्हारे इस चेले की भी मदद करूं हूं जो तुम्हें छुड़ाने यहां बंतासिंह के अड्डे पर पहुंच गया—"सच, हवा में उछली तीलियों में निशाना लगाने से भी बड़ा कमाल तो तुम्हारे इस चेले ने करके दिखाया है।"
"ऐसी क्या बात हो गई?"
"यह बात कितनी गहरी है, ये तुम्हें तब पता लगत हुई जब इस हाल में रंभू मौजूद होगा—जल्दी बता बिटवा, रंभू कहां है?"
"उसे हम अपने साथ लाए हैं।"
"कहां है?" बंतासिंह पूर्व की तरह चिल्लाया।
गुफा की तरफ देखकर विकास ने पुकारा—"अंकल!"
ब्लैक ब्वॉय सामने आ गया।
उसके कंधे पर रंभू था, होश में, मगर बोल नहीं सकता था, क्योंकि मुंह में ढेर सारे कपड़े ठुंसे थे और साथ ही बंधी थी—कसी हुई पट्टी।