सबसे पहले गुलशन ने पिस्तौल को अपने अधिकार में किया। उसने पिस्तौल में पूरी गोलियां भर लीं और उसे अपने कोट की भीतरी जेब में रख लिया।
फिर उसने बड़ी बारीकी से अपने कपड़ों का मुआयना किया कि उन पर कहीं शौकत अली के खून के छींटे तो नहीं पड़े थे!
ऐसा नहीं था।
उसे शौकत अली की मौत का कोई अफसोस नहीं था। पिस्तौल उसने दराज में पहले से न देख ली होती और उसकी गोलियां न निकाल दी हुई होतीं तो उस वक्त वर्कशॉप के फर्श पर शौकत अली की जगह उसकी लाश पड़ी होती।
शौकत अली की मौत से उसे कई फायदे हुए थे। मसलन :
वह हथियारबन्द हो गया था।
उसके हाथ एक पासपोर्ट आ गया था जो मामूली तब्दीलियों से उसका बन सकता था।
सिर छुपाने के लिए गर्टी के तम्बू से ज्यादा कारआमद ठिकाना उसके हाथ आ गया था।
दस हजार रुपये नकद उसके हाथ आ गए थे जो कि उसने शौकत अली की जेब में से बरामद किये थे।
जवाहरात उसकी जेबों से बरामद नहीं हुए थे। उसने उसके शरीर के एक-एक कपड़े को, जूतों तक को, बड़ी बारीकी से टटोला था लेकिन जवाहरात उसे कहीं नहीं मिले थे।
जरूर वे सूटकेस में कहीं थे।
शौकत अली की जेब से बरामद चाबियों से उसने सूटकेस का ताला खोला। उसने उसके भीतर मौजूद एक-एक चीज का मुआयना करना आरम्भ किया। पांच मिनट में सूटकेस खाली हो गया लेकिन जवाहरात प्रकट न हुए।
उसने कमरे में से एक डोरी तलाश की और उसकी सहायता से सूटकेस की लम्बाई-चौड़ाई-गहराई को पहले बाहर से और फिर भीतर से नापा।
उसने पाया कि सूटकेस का न तला दोहरा था और न कोई साइड दोहरी थी।
उसने एक बार फिर बड़ी बारीकी से शौकत अली के शरीर को टटोला।
जवाहरात बरामद न हुए।
कमाल था! जब उसका पासपोर्ट, नकदी वगैरह हर चीज वहां थी तो जवाहरात कहां चले गए थे?
वह फिर सूटकेस को यूं घूरने लगा जैसे वह उससे मुंह से बोलने की उम्मीद कर रहा हो कि जवाहरात कहां थे।
तब पहली बार उसका ध्यान सूटकेस के हैंडल की तरफ गया।
उसे हैंडल तनिक बड़ा और मोटा लगा।
उसने हैंडल थामा।
देखने में वह आम हैंडलों जैसा चमड़े का हैंडल ही था।
उसने बैंच पर से एक ब्लेड तलाश किया और हैंडल का चमड़ा काटना आरम्भ कर दिया।
दो मिनट बाद बारिश की बून्द की तरह पहला हीरा हैंडल में से फर्श पर टपका।
हैंडल खोखला था और हीरे जवाहरात उसमें ठूंस-ठूंसकर भरे हुए थे।
उन्हीं में फेथ डायमण्ड के भग्नावशेष भी थे।
गुलशन ने वे तमाम जवाहरात अपनी शनील की थैली के हवाले किये।
अब उसके सामने पासपोर्ट के लिए तसवीर हासिल करने की समस्या थी।
रविवार के दिन उस इलाके में साप्ताहिक छुट्टी होती थी इसलिए किसी फोटोग्राफर की दुकान खुली मिलना उसे मुमकिन नहीं लग रहा था।
लेकिन और कई इलाकों में दुकानें खुली हो सकती थीं।
उसने शौकत अली के सामान में से उसका शेव का सामान निकाला और शेव बनाई।
तसवीर के लिए शेव हुई होनी जरूरी थी।
शौकत अली के सामान में एक रंगीन चश्मा भी था जो उसने अपनी नाक पर लगा लिया। शौकत अली की टोपी अपने सिर पर जमाकर उसने शीशे में अपनी सूरत देखी।
उसे बहुत तसल्ली हुई।
अब वह अखबार में छपी अपनी सूरत जैसा कतई नहीं लग रहा था।
वह मकान से बाहर निकला।
मकान को बाहर से ताला लगाकर वह गली में आगे बढ़ा।
वह दरीबे से बाहर निकला।
वहां एक बैंच पर तीन-चार पुलिसिये बैठे थे। उन्होंने एक सरसरी निगाह गुलशन पर डाली और फिर अपनी बातों में मग्न हो गए।
गुलशन को बड़ी राहत महसूस हुई।
चश्मा और टोपी काफी कारआमद साबित हो रहे थे।
वह एक रिक्शा पर सवार हुआ। रिक्शा वाले को उसने इर्विन हस्पताल चलने के लिए कहा।
रिक्शा दरियागंज से गुजरा तो एकाएक उसे एक खयाल आया।
अब तो उसकी बीवी बेखटके अपने यार से मिलती होगी।
उस वक्त उसे वहीं कही श्रीकान्त दिखाई दे जाता तो वह जरूर वहीं उसे गोली मार देता।
रिक्शा ‘गोलचा’ के आगे से गुजरा तो एकाएक वह बोल पड़ा—“रोको।”
रिक्शा रुक गया।
“मैं यहीं उतर रहा हूं।”—गुलशन उसे भाड़ा चुकाता बोला।
सड़क पार करके वह ‘गोलचा’ के पहलू में स्थित गली में घुस गया।
वह कूचा चेलान में पहुंचा।
वहां श्रीकान्त का घर तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई। उसने दरवाजा खटखटाया तो एक बुजुर्गवार बाहर निकले। मालूम हुआ कि श्रीकान्त उनका लड़का था और वह उस वक्त घर पर नहीं था।
“कहां गया?”
“मालूम नहीं।”
गुलशन लौट पड़ा।
उसका जी चाहा कि वह अपने घर जाकर देखे कि कहीं वह उसकी बीवी की गोद में तो गर्क नहीं था लेकिन उधर का रुख करने का उसका हौसला न हुआ। मौजूदा हालात में यह हो ही नहीं सकता था कि उसकी गली की, उसके घर की पुलिस निगरानी न कर रही होती।
अपनी बीवी के यार को तन्दूर में लगाने का अपना अरमान अपने मन में ही दबाए वह दोबारा एक रिक्शा पर सवार हो गया।
वह इर्विन हस्पताल के सामने वहां पहुंचा जहां वह चोरी की कार खड़ी करके आया था।
कार यथास्थान खड़ी थी। किसी की उसकी तरफ कोई खास तवज्जो नहीं थी।
फिर भी वह और पांच मिनट कार के पास न फटका।
जब उसे गारण्टी हो गई कि कार किसी की निगाह में नहीं थी तो वह उसमें सवार हुआ।
उसने कार आगे बढ़ाई।
करोलबाग की मार्केट रविवार को खुली होती थी। वहां वह किसी फोटोग्राफर से अपनी तसवीर खिंचवा सकता था।
वह करोलबाग पहुंचा।
उसने कार को एक स्थान पर पार्क किया और किसी फोटोग्राफर की तलाश में पैदल आगे बढ़ा।
उसे एक अपेक्षाकृत कम भीड़भाड़ वाले इलाके में एक फोटोग्राफर की दुकान दिखाई दी जिसका मालिक उसे खाली बैठा लगा।
वह दुकान में दाखिल हुआ।
दुकानदार उसकी तरफ आकर्षित हुआ।
“फोटो खिंचानी है।”—गुलशन बोला—“पासपोर्ट के लिए।”
“भीतर आइए।”
फोटोग्राफर उसे भीतर स्टूडियो में ले आया।
“बैठिए।”—वह कैमरे और लाइटों के सामने पड़ी एक बैंच की तरफ संकेत करता बोला।
“पैसे तो बताए नहीं आपने?”—गुलशन बोला।
“वही सात रुपये। तीन कॉपियों के। सब जगह यही लगते हैं।”
“तसवीर मुझे मिलेगी कब?”
“परसों शाम को।”
“लेकिन मुझे तो कल चाहिए।”
“कल मिल सकती थी लेकिन कल दुकान की छुट्टी का दिन है।”
“तो आज दे दो।”
“आज तो मुश्किल है।”
“क्या मुश्किल है?”
“अर्जेण्ट के चार्जेज एक्स्ट्रा लगते हैं।”
“कितने?”
“दस रुपये।”
“यानी कि मैं सत्तरह रुपये दूं तो तसवीर आज ही मिल जाएगी?”
“हां।”
“आज कब?”
“शाम सात बजे ले जाना।”
“दुकान कितते बजे बन्द करते हो?”
“आठ बजे।”
“सात बजे तसवीर तैयार मिलेगी न?”
“शर्तिया।”
“ठीक है। मैं सत्तरह रुपये दूंगा। तसवीर आज ही मिल जानी चाहिए।”
“बैठिए।”
वह बैंच पर बैठ गया।
“चश्मा और टोपी उतारिए।”
“वह किसलिए?” गुलशन तनिक तीखे स्वर में बोला।
“आपने कहा था कि आपको तसवीर पासपोर्ट के लिए चाहिए।”
“तो?”
“पासपोर्ट फोटो में टोपी और रंगीन चश्मा नहीं चलता। पासपोर्ट फोटो को री-टच करने की भी इजाजत नहीं होती है। मैं तो ऐसे ही तसवीर खींच दूंगा लेकिन तसवीर आपके किसी काम नहीं आएगी। पासपोर्ट ऑफिस में रिजेक्ट हो जाएगी ऐसी तसवीर।”
“ओह!”—वह चश्मा और टोपी उतारता बोला—“मुझे नहीं मालूम था।”
“तभी तो बताया है। कंघी कर लीजिए।”
गुलशन ने अपने बाल संवारे।
फोटोग्राफर ने तसवीर खींची।
फिर दोनों स्टूडियो से बाहर निकले।
गुलशन ने उसे सत्तरह रुपये दिए।
फोटोग्राफर ने रसीद काटी और पूछा—“आपका नाम?”
“शौकत अली।”—गुलशन बोला।
“पता?”
“पता क्या करोगे? शाम को तो मैं आ ही रहा हूं।”
“ठीक है।”
फोटोग्राफर ने रसीद फाड़कर गुलशन के हवाले कर दी।
गुलशन वहां से विदा हो गया।
वह टूरिस्ट कैम्प पहुंचा।
गर्टी का तम्बू उसे खाली मिला।
तम्बू की एक दीवार के साथ सेफ्टी पिन से जुड़ा एक कागज फड़फड़ा रहा था।
वह उसके समीप पहुंचा।
ऊपर अपना ही नाम लिखा देखकर उसने कागज उतार लिया और उसे पढ़ना आरम्भ किया।
लिखा था।
डार्लिंग अली,
मैं जा रही हूं मुझे प्लेन टिकट मिल गया है इसलिए मैं और नहीं रुक सकती। तुमने मेरी मदद की, उसके लिए शुक्रिया। चार दिन और यहां तुम बिना रोक-टोक के रह सकते हो, मैंने चौकीदार को बोल दिया है।
गर्टी
गुलशन ने कागज का गोला-सा बनाकर उसे एक ओर उछाल दिया।
वहां अकेले रहने का तो कोई मतलब ही नहीं था।
उस जगह से तो शौकत अली का घर अच्छा था।
बाकी का दिन उसने शौकत अली के घर में उसकी लाश के साथ गुजारा।
छ: बज के करीब अन्धेरा हो चुकने के बाद गुलशन शौकत अली के मकान से बाहर निकला। उसने मकान को ताला लगाया और गली में आगे बढ़ा।
तभी एकाएक जैसे उसे अपनी कोहनी के पास से आवाज आई—“वही है।”
वह हड़बड़ाकर घूमा।
अपने पीछे नीमअन्धेरी गली में उसे दो आदमी दिखाई दिये। उनमें से एक को उसने फौरन पहचाना।
वह जुम्मन नाम का वह आदमी था जो मंगलवार रात को सूरज के पीछे लग लिया था और जिसकी तीनों ने लालकिले के पास धुनाई की थी।
दूसरा आदमी भी जरूर कोई दारा का ही आदमी था।
पता नहीं वे लोग इत्तफाक से उस गली में थे या किसी प्रकार उन्हें उसकी शौकत अली के मकान में मौजूदगी की भनक मिल गई थी।
गुलशन ने पहले वापिस शौकत अली के मकान में घुस जाने का खयाल किया लेकिन फिर उसे वैसा करना नादानी लगा। अब तो वह जान बूझकर चूहे के पिंजरे में फंसने जैसा काम होता। अब जब कि वे लोग उसे पहचान ही गये थे तो वहां तो वे बड़े इतमीनान से उससे खुद भी निपट सकते थे और उसे गिरफ्तार भी करवा सकते थे।
एक क्षण वह वहीं ठिठका खड़ा रहा, फिर वह लम्बे डग भरता गली से बाहर की तरफ चल दिया।
वे दोनों उसके पीछे लपके।
गुलशन समझ गया वे दोनों उसका लिहाज नहीं करने वाले थे। वे जरूर उसे पकड़ लेने की फिराक में थे।
वे जब उसके अपेक्षाकृत करीब पहुंच गये तो गुलशन एकाएक वापिस घूमा और दोनों पर झपट पड़ा। उसकी उस अप्रत्याशित हरकत से दोनों गड़बड़ा गये और उस पर आक्रमण करने के स्थान पर अपने बचाव की कोशिश करने लगे। गुलशन ने दोनों की गरदनें पकड़ लीं और पूरी शक्ति से उनकी खोपड़ियां आपस में टकरा दीं।
फिर वह वहां से भाग निकला।
गली से बाहर उसे दो और ऐसे आदमी दिखाई दिये जो कि जुम्मन के साथी हो सकते थे।
लगता था वह शौकत अली के मकान में दाखिल होता देख लिया गया था और हर कोई उसके बाहर निकलने की ही ताक में वहां मौजूद था।
प्रत्यक्षत: उनका उसको पुलिस के हवाले करने का कोई इरादा नहीं था। ऐसा होता तो वे कब के पुलिस के पास पहुंच चुके होते और उसे गिरफ्तार करवा चुके होते। जरूर वे उससे आसिफ अली रोड वाली चोरी का माल छीनने की फिराक में थे।
ऐसे तो मत छिनवाया मैंने माल—दृढ़ता से वह मन ही मन बोला।
उन दोनों ने उसे दायें बायें से थाम लेने की कोशिश की, लेकिन गुलशन उन्हें डॉज दे गया और दरीबे की तरफ भागा।
वे सब उसके पीछे लपके।
दरीबे की एक एक गली से गुलशन वाकिफ था। बाजार से गुजरने के स्थान पर वह बाजार पार करके एक संकरी गली में घुस गया।
एक आदमी ने गली में उसके पीछे छलांग लगाई। अपने हाथ में थमा डण्डा उसने गुलशन की खोपड़ी को निशाना बनाकर घुमाया। गुलशन झुकाई दे गया। उसने अपना सिर बैल की तरह उसकी छाती में हूला। वह आदमी भरभराकर अपने पीछे मौजूद अपने साथी के ऊपर जाकर गिरा।
गुलशन फिर गली में भागा।
छ: आदमी।
अब तक छ: आदमी उसे अपनी फिराक में दिखाई दे चुके थे और अभी पता नहीं और कितने थे।
कई संकरी गलियों में से गुजरता वह एस्प्लेनेड रोड पर जाकर निकला। उसे देखते ही एक कार में से तीन चार आदमी बाहर निकले और सब उसे घेरने की कोशिश करने लगे।
हे भगवान! वह उनसे अलग भागता हुआ सोचने लगा, क्या दारा का सारा गैंग उसी के पीछे पड़ गया था?
ऐसे लोगों से हिफाजत के लिए लोग पुलिस के पास जाते थे लेकिन वह किसके पास जाता?
वे जानते थे कि वह पुलिस की शरण में नहीं जा सकता था, तभी तो वे इतनी निडरता से उसके पीछे पड़े हुए थे।
अन्धेरे में वह सरपट आगे भागा।
तभी एक खाली टैक्सी उसकी बगल में मे गुजरी।
“टैक्सी!”—वह उच्च स्वर में बोला।
टैक्सी रुक गई।
वह झपटकर टैक्सी में सवार हो गया।
टैक्सी वाले ने हाथ बढ़ाकर मीटर डाउन किया और बोला—“कहां चलूं?”
“करोलबाग!”—गुलशन हांफता हुआ बोला।
टैक्सी आगे दौड़ चली।
गुलशन ने व्याकुल भाव से अपने पीछे देखा।
अपने पीछे उसे दारा का कोई आदमी दिखाई न दिया।
टैक्सी मेन रोड पर पहुंचकर घूमी। आगे लाल किला का चौराहा था। वहां से सिग्नल पर टैक्सी ने यू टर्न काटा और नेताजी सुभाष मार्ग पर दौड़ चली। एकाएक गुलशन की निगाह रियरव्यू मिरर पर पड़ी। उसने देखा टैक्सी वाला शीशे में से बड़ी गौर से उसे ही देख रहा था, शीशे में उससे निगाह मिलते ही उसने फौरन निगाह फिरा ली।
गुलशन के जेहन में खतरे की घण्टियां बजने लगीं।
कहीं टैक्सी वाले ने उसे पहचान तो नहीं लिया था?
आगे दरियागंज का थाना था जहां और दो तीन मिनट में टैक्सी पहुंच जाने वाली थी। थाना मेन रोड पर था। अगर ड्राइवर ने टैक्सी को सीधे थाने ले जाकर खड़ी कर दिया तो?
उसने टैक्सी से उतर जाने का फैसला किया।
तभी दो कारें टैक्सी के दायें बायें प्रकट हुईं और वे टैक्सी को घेरकर किनारे करने की कोशिश करने लगीं।
गुलशन ने घबराकर बारी बारी दोनों कारों की तरफ देखा। दोनों में दर्जन से ज्यादा आदमी लदे हुए थे और वे तकरीबन वही थे, जो पीछे किनारी बाजार में उसे थामने की कोशिश करते रहे थे। उनमें उसे जुम्मन भी दिखाई दिया। एक आदमी कार से बाहर हाथ निकाल कर टैक्सी वाले को रुकने का इशारा कर रहा था।
टैक्सी की रफ्तार कम होने लगी।
“गाड़ी मत रोकना।”—गुलशन आतंकित भाव से चिल्लाया।
“क्यों?”—ड्राइवर बोला।
“उन दोनों गाड़ियों में गुण्डे हैं, वे हमें मार डालेंगे।”
“सिर्फ तुम्हें। मुझे नहीं। एक गाड़ी में मुझे अपना उस्ताद रईस अहमद दिखाई दे रहा है। वह मुझे कुछ नहीं कहने का। उलटे अगर मैं गाड़ी नहीं रोकूंगा तो वह मेरा मुर्दा निकाल देगा।”
रईस अहमद!
वह नाम गुलशन ने सुना हुआ था, उसने कभी रईस अहमद की शक्ल नहीं देखी थी लेकिन उसने सुना हुआ था कि वह दारा के गैंग का कोई महत्वपूर्ण आदमी था।
टैक्सी रफ्तार घटाते घटाते साइड लेने लगी।
बदमाशों की दोनों कारें आगे निकल गईं।
गुलशन ने टैक्सी के रुकने से पहले उसका फुटपाथ की ओर का दरवाजा खोला और बाहर कूद गया। उसका कन्धा सड़क से टकराया, उसने दो लुढ़कनियां खाईं और फिर रबड़ के खिलौने की तरह उठकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया।
बदमाशों की दोनों गाड़ियां अभी ठीक से रुक भी नहीं पाई थीं कि वह बगूले की तरह शान्ति वन को जाती सड़क पर भागा।
फिर बदमाश भी कारों में से निकलने लगे और दाएं बाएं फैलकर उसके पीछे भागे।
गुलशन लाल किले की तरफ मुड़ गया।
उन लोगों में से कुछ उसके पीछे सड़क पर भागे, कुछ मैदान के टीलों पर चढ़ गए ताकि उन्हें पार करके वे उससे पहले सड़क पर पहुंच सकते। कुछ कार में ही सवार रहे।
भागता हुआ गुलशन उस स्थान पर पहुंचा, जहां उन्होंने जुम्मन की धुनाई की थी।
वह वहां ठिठका।
अपनी धौंकनी की तरह चलती सांस पर काबू पाने की कोशिश करते उसने जेब से शौकत अली की पिस्तौल निकाल ली। पहले भीड़ में पिस्तौल चलाने का हौसला वह नहीं कर सकता था, लेकिन वहां सन्नाटा था, वहां वह निसंकोच गोली चला सकता था।
सबसे पहले जुम्मन और उसका साथी ही उसके सामने पहुंचे।
गुलशन ने पिस्तौल वाला हाथ अपनी पीठ के पीछे कर लिया और स्थिर नेत्रों से उन्हें देखने लगा।
“अब कहां जाएगा, बेटा?”—जुम्मन ललकारभरे स्वर में बोला।
“मैं कहां जाऊंगा!”—गुलशन सहज भाव से बोला—“मैं तो यहीं रहूंगा।”
“देखो तो स्याले को! रस्सी जल गई, बल नहीं गया।”
तभी टीले पर से उतरकर दो आदमी और वहां पहुंच गये। अब जुम्मन शेर हो गया।
“स्साले!”—वह दहाड़कर बोला—“मंगलवार जितनी मार तुम तीन जनों ने मुझे लगाई थी, उतनी मैंने अकेले तुझे न लगाई तो मेरा भी नाम जुम्मन नहीं। पकड़ लो हरामजादे को।”
चारों अर्द्धवृत्त की शक्ल में उसकी तरफ बढ़े।
एकाएक चारों के हाथों में कोई न कोई हथियार प्रकट हुआ। एक के हाथ में लोहे का मुक्का था, दो के पास चाकू थे और खुद जुम्मन के हाथ में साइकिल की चेन थी।
गुलशन ने पिस्तौल वाला हाथ सामने किया और बड़े इतमीनान से नाल का रुख उनकी तरफ करके एक बार घोड़ा खींचा।
फायर की आवाज हुई। साथ ही जुम्मन की चीख वातावरण में गूंजी। गोली उसके घुटने में लगी थी। उसने अपनी टांग पकड़ ली और फर्श पर लोट गया।
उसकी तरफ बढ़ते साथी बदमाशों को जैसे लकवा मार गया। वे थमककर खड़े हो गये और यूं भौंचक्के से कभी जुम्मन को और कभी गुलशन को देखने लगे जैसे उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास न हो रहा हो। हवा में उठे उनके हथियारों वाले हाथ जैसे वहीं फ्रीज हो गये।
“आओ, हरामजादो!”—गुलशन कहरभरे स्वर में बोला—“पकड़ो मुझे।”
कोई अपने स्थान से न हिला।
“सूरज को तुम लोगों ने मारा था?”—गुलशन ने सवाल किया।
जवाब न मिला।
उसने फिर फायर किया।
एक और आदमी चीख मारकर जुम्मन की बगल में लोट गया।
बाकी दोनों थर थर कांपने लगे।
“पहलवान खुद ही टें बोल गया था।”—फिर एक जना जल्दी से बोला—“उसको मारने का इरादा किसी का नहीं था।”
“तुम्हारा क्या नाम है?”—गुलशन ने जवाब देने वाले से पूछा।
“राधे।”
“सूरज का माल भी तुम्हीं लोगों ने लूटा था?”
“वह रईस अहमद का काम था। हममें से कोई उसके साथ नहीं था।”
“लेकिन हो तो तुम एक ही थैली के चट्टे बट्टे! हो तो तुम सभी दारा के आदमी!”
जवाब न मिला।
“हरामजादो! पहलवान जैसे मजबूत और सख्तजान आदमी को तुमने कितना मारा होगा, जो कि उसके प्राण निकल गए। क्यों? उसे क्यों मारा इतना?”
“वह अपने साथियों के बारे में नहीं बता रहा था।”—राधे दबे स्वर में बोला—“वह बाकी माल के बारे में नहीं बता रहा था। वह...”
“बको मत।”
राधे ने होंठ भींच लिए।
“अपना चाकू खाई में फेंको।”
राधे ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया।
“अपने साथियों के हथियार भी खाई में फेंको।”
बाकी के हथियार भी लाल किले की दीवार के साथ बनी गहरी खाई में जाकर गिरे।
“अपने घायल साथियों को उठाओ और टीले पर जाकर बैठ जाओ।”
दोनों ने ऐसा ही किया।
“मैं जा रहा हूं।”—चारों टीले पर दिखाई देने लगे तो वह बोला—“जिसने गोली खानी हो वह शौक से मेरे पीछे आये। कोई मनाही नहीं है। कोई पाबन्दी नहीं है।”
कोई कुछ न बोला। उनकी निगाहें दूर दूर तक अपने साथियों को तलाश कर रही थीं जो कि कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे।
गुलशन ने सड़क छोड़ दी। उस पर वह न आगे बढ़ा और न वापस लौटा। दोनों ही तरफ से उसे कार वालों से आमना-सामना हो जाने का अंदेशा था।
मेन रोड और किले के बीच में फैले विशाल मैदान में से होता वह आगे बढ़ा।
वह निर्विघ्न अगली सड़क तक पहुंच गया।
तब कहीं जाकर उसने पिस्तौल अपनी जेब में रखी।
इस वक्त—वह मन ही मन बोला—कहीं चन्द्रा का यार भी मिल जाए तो मजा आ जाए। लगे हाथों उसका भी काम कर दूं।
वह बस स्टैण्ड पर जाकर खड़ा हुआ।
जो पहली बस वहां आकर रुकी, वह उस पर सवार हो गया।
वहां से हर बस कम से कम दिल्ली गेट तक जरूर जाती थी।
उसे मालूम हुआ कि वह कालकाजी की बस थी।
बहरहाल बस कहीं की भी थी, अहम बात यह थी कि वह उस इलाके में से निकल रहा था जहां कि वह दारा के आदमियों के हत्थे चढ़ सकता था।
सुप्रीम कोर्ट के स्टैण्ड पर वह बस से उतरा।
तब तक सात बज चुके थे।
लेकिन फोटोग्राफर ने कहा था कि वह आठ बजे तक दुकान खोलता था—उसने अपने आपको तसल्ली दी।
वह वहां से एक आटो पर सवार हुआ और करोलबाग पहुंचा।
फोटोग्राफर की दुकान खुली थी।
पहली बार वह बिना दुकान के आगे ठिठके वहां से गुजर गया।
उसे कोई संदिग्ध व्यक्ति दुकान के आसपास न दिखाई दिया।
वह दुकान के सामने पहुंचा।
वहां भी वह भीतर दाखिल होने से पहले थोड़ी देर शो विन्डो के आगे खड़ा रहा। शो विन्डो में दुकानदार की फोटोग्राफी कला के कुछ नमूने और कुछ कैमरे, फ्लैश लाइट, एलबम वगैरह जैसा सामान पड़ा था। एक फ्लैश लाइट अपने पैकिंग के डिब्बे के ऊपर पड़ी थी और उससे सम्बद्ध तार भीतर कहीं जाती दिखाई दे रही थी।
शायद वह चार्ज होने के लिए वहां रखी थी।
एक सरसरी निगाह फिर अपने गिर्द डाल कर वह दुकान में दाखिल हुआ।
दुकानदार एक काउन्टर के पीछे बैठा था।
वह उसे देखते ही उठ खड़ा हुआ और अपेक्षाकृत उच्च स्वर में बोला—“आइए। आइए, साहब। आपकी तसवीर तैयार है।”
साथ ही उसने अपने हाथ में थमा एक बैलपुश जैसा बटन दबाया।
गुलशन ने देखा, उस बटन से एक तार निकल कर शो विन्डो में रखी फ्लैश लाइट तक पहुंच रही थी।
वह फ्लैश लाइट एक बार जोर से चमकी।
तुरन्त बाद आनन फानन कई व्यक्ति दुकान में घुस आए।
गुलशन बुरी तरह बौखलाया। उसका हाथ अपने आप ही अपनी जेब में रखी पिस्तौल की मूठ पर सरक गया।
क्या हो रहा था?
भीतर घुस आए आदमियों में से कोई पुलिस की वर्दी में नहीं था लेकिन जो अधेड़ावस्था का, निहायत रौब दाब वाला व्यक्ति सबसे आगे था, उसका एक एक हाव भाव उसके पुलिसिया होने की चुगली कर रहा था।
फिर गुलशन ने उस आदमी को पहचान लिया।
उस रोज के अखबार में उसकी फोटो छपी थी।
वह असिस्टेंन्ट कमिश्नर आफ पुलिस भजनलाल था।
जरूर फोटोग्राफर ने तसवीर खींचते वक्त उसे पहचान लिया था और उसके वहां से जाते ही पुलिस को उसके बारे में खबर कर दी थी। शो विन्डो में रखी चालू फ्लैश का इन्तजाम पुलिस को इशारा करने के लिए किया गया था।
गुलशन व्याकुल भाव से सोचने लगा :
क्या वह इतने लोगों के बीच में से हथियारबन्द होते हुए भी भाग सकता था?
उसके दिल ने यही जवाब दिया कि वह नहीं भाग सकता था।
खामखाह कुत्ते की मौत मरने का क्या फायदा?
राजेश्वरी देवी का खून उसके हाथों से हुआ साबित नहीं किया जा सकता था। उसकी गर्दन सूरज ने दबाई थी और सूरज मर चुका था। इतनी अक्ल तो जगदीप से भी अपेक्षित थी कि मौजूदा हालात में राजेश्वरी देवी का कत्ल सूरज पर ही थोपने में उन दोनों की भलाई थी।
शौकत अली पर उसने आत्मरक्षा के लिए आक्रमण किया था।
दारा के आदमी कभी अपनी जुबान से यह कबूल नहीं कर सकते थे कि गुलशन ने उन पर गोली चलाई थी।
यानी—गुलशन ने अपने आपको तसल्ली दी—उस पर केवल एक ही इलजाम था जो साबित हो सकता था।
राजेश्वरी देवी के यहां चोरी का इलजाम।
यानी—उसने आगे सोचा—छ: सात साल की कैद की सजा पाकर वह छूट सकता था। या उसे बड़ी हद उम्रकैद भी हो जाती तो भी अभी उसके आगे बहुत जिन्दगी पड़ी थी।
वास्तव में उसकी उस वक्त की विचारधारा एक कायर आदमी की अपने आपको तसल्ली थी जो कि उसे आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित कर रही थी।
तब तक पुलिसियों ने उसे चारों तरफ से घेर लिया था।
उसने जेब में ही पिस्तौल का रुख घुमाया और उसे नाल की तरफ से पकड़ लिया। फिर उसने हाथ जेब से निकाला और पिस्तौल को भजनलाल की तरफ बढ़ा दिया।
“शाबाश!”—भजनलाल बोला—“दैट्स ए गुड ब्वाय। तुम्हारा नाम गुलशन है न?”
गुलशन ने सहमति में सिर हिलाया और बोला—“दारा के आदमी मेरे खून के प्यासे हो उठे थे। यह पिस्तौल मैंने उनसे अपनी हिफाजत के लिए रखी हुई थी।”
“अब वे लोग तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकेंगे। उलटे तुम हमारी मदद करोगे तो हम उन सबकी गरदनें भी नाप लेंगे।”
“मैं आपकी हर मुमकिन मदद करूंगा।”
“शाबाश! हम तुम्हें गिरफ्तार कर रहे हैं। तुम्हें कोई एतराज?”
गुलशन ने इन्कार में सिर हिलाया।
“तुम्हें मालूम है तुम क्यों गिरफ्तार किए जा रहे हो?”
“जी हां।”
“तुम अपना अपराध कबूल करते हो?”
गुलशन हिचकिचाया।
“तुम्हारा जगदीप नाम का साथी अपना अपराध पहले ही कबूल कर चुका है”—भजनलाल सख्त स्वर में बोला—“और वह आसिफ अली रोड वाली चोरी के सिलसिले में अपने साथी के तौर पर तुम्हारा नाम ले भी चुका है।”
“मैं अपना अपराध कबूल करता हूं।”—गुलशन तनिक हड़बड़ाए स्वर में बोला।
“शाबाश!”
तुरन्त उसके हाथों में हथकड़ियां भर दी गईं।
उसने एक निगाह फोटोग्राफर पर डाली।
फोटोग्राफर भीगी बिल्ली बना काउन्टर के पीछे खड़ा था और पूरी कोशिश कर रहा था कि गुलशन से उसकी निगाह न मिलने पाती।
फिर उसकी तलाशी ली गई।
जवाहरात से भरी शनील की थैली और सारा नकद रुपया पुलिस ने अपने अधिकार में ले लिया।
गुलशन के मुंह से एक आह निकल गई।
कितने बखेड़े हो गए थे प्रत्यक्षत: इन्तहाई आसान लगने वाले काम में!
भजनलाल उसकी जेब से बरामद हुई उस चिट्ठी को उलट पलट रहा था, जो शौकत अली ने उसे नबी करीम वाले एनग्रेवर के नाम लिखकर दी थी।
“तुम उर्दू जानते हो?”—भजनलाल ने पूछा।
गुलशन ने इनकार में सिर हिलाया।
“यानी तुम्हें नहीं मालूम कि इसमें क्या लिखा है?”
गुलशन खामोश। वह सोच रहा था कि उसमें जाली पासपोर्ट के बारे में जो कुछ लिखा था, वह क्या उस पर अलग से कोई इलजाम बन सकता था?
“सुनो, क्या लिखा है चिट्ठी में!”—भजनलाल बोला—“इसमें लिखा है—पत्रवाहक का नाम गुलशन कुमार है। यह सोमवार रात को आसिफ अली रोड पर हुई राजेश्वरी देवी की हत्या और उसके बेशकीमती जवाहरात की चोरी के लिए जिम्मेदार है। यह फरार अपराधी है और पुलिस को इसकी तलाश है। यह तुम्हारे पास आए तो इसे बहाने से अटकाए रखना और फिर पुलिस को खबर करके इसे गिरफ्तार करवा देना।”
गुलशन सन्नाटे में आ गया।
कितना बड़ा धोखा देने जा रहा था मौलाना उसे।
“हूं।”—भजनलाल बोला—“तुम्हारी सूरत बता रही है कि चिट्ठी में तुम्हें यह सब लिखा होने की उम्मीद नहीं थी।”
गुलशन खामोश रहा।
लेकिन अब वह सन्तुष्ट था कि मौलाना जैसा दगाबाज आदमी मर चुका था।
उस क्षण उसे अगर अफसोस था तो सिर्फ इस बात का था कि वह अपनी बीवी के यार से बदला नहीं ले सका था।
वह श्रीकान्त को तन्दूर में नहीं लगा सका था।
समाप्त
0 Comments