बेदी जानता था कि सोफिया हर हाल में दीपाली को तलाश करेगी। उसकी बातों से डरकर पीछे नहीं हटेगी। वो इधर ही आयेगी। दीपाली को इनके हाथों में जाने से बचा लिया था। इस वक्त यही बहुत था उसके लिए। वो ये सोचकर व्याकुल था कि दीपाली इन लोगों के हाथ न लग जाये।
कुछ आगे जाकर वो एक ओट में खड़ा हो गया और सोफिया के आने का इन्तजार करने लगा। ज्यादा देर उसे इन्तजार न करना पड़ा। सोफिया-शेरा के साथ उसने अमर और अन्य बदमाश को भी देखा जो तेजी से आगे निकल गये थे।
अमर भी, इस वक्त सोफिया के पास है?
बेदी के मन में दीपाली के लिए चिन्ता बढ़ गई कि वो खतरे में पड़ सकती है। इस वक्त वो जाने कहां होगी। पास ही में कहीं है, या दूर से भी दूर चली गई है। टैक्सी-ऑटो ले लिया होगा? इस वक्त उसके पास पैसे नहीं थे। टैक्सी-ऑटो न लिया हो।
बेदी अपनी जगह से निकला और दूर रहकर, अमर-सोफिया पर नजर रखने लगा जो कि दीपाली के बारे में लोगों से पूछताछ करते आगे बढ़ रहे थे ।
मन ही मन बेदी यही सोच रहा था कि चार-साढ़े चार घंटे दीपाली इन लोगों के हाथों में न आये तो रात नौ बजे वो अवश्य, घंटाघर पर अपने पापा, सुखवंत राय के पास पहुंचकर सुरक्षित हो जायेगी।
■■■
"इन गलियों के आगे दीपाली की कोई खबर नहीं मिल रही। " अमर ने शब्दों को चबाकर कहा--- "मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि दीपाली किसी घर में जा छिपी है। वो अवश्य रात का अंधेरा फैलने पर यहां से निकलने की कोशिश करेगी और हमने उसे निकलने नहीं देना।"
"यहां बहुत मकान हैं। हर जगह ठीक से नजर नहीं रखी जा सकती।” सोफिया ने बेचैनी से कहा।
"दीपाली इन्हीं तीन गलियों में से किसी एक मकान में है। वो बचकर नहीं निकल पायेगी। हम बिखरकर गलियों के कोनों में पहरा देंगे। ध्यान रहे, उसने गुलाबी रंग की कमीज, सलवार पहन रखी है। शेरा!"
"जी!"
"तुम फौरन गांधी चौक जाओ। छः बज रहे हैं। कल्पना दो आदमियों के साथ वहां मिलेगी। उसे फौरन यहां ले आओ। हम सात लोग हैं और तीन गलियों पर अच्छी तरह नजर रख सकते हैं।"
शेरा फौरन वहां से चला गया ।
अभी शाम की भरपूर रोशनी वहां फैली थी।
"मुझे बहुत अफसोस हो रहा है कि वो मेरे हाथों से बच निकली।” सोफिया ने सख्त स्वर में कहा-- "विजय हर जगह पर हमारे लिए परेशानियां खड़ी कर रहा है। उसकी वजह से ही दीपाली हमारे हाथों से निकली जा रही है।"
"जो हो चुका है, उस पर मत सोचो। आगे की तरफ ध्यान दो सोफिया।" आस-पास निगाहें दौड़ाते अमर ने सख्त स्वर में कहा--- “बार-बार हमें दीपाली पर हाथ डालने का मौका नहीं मिलेगा। दीपाली इन्हीं मकानों में से किसी एक में छिपी है और इस बार हमने उसे अपने कब्जे में ले लेना है।"
"हो सकता है। विजय फिर हमारे रास्ते में आकर रुकावट बनने की कोशिश---।"
“उसकी तुम फिक्र मत करो।" अमर के स्वर में मौत के से भाव आ गये--- “वो मेरे सामने पड़ा तो बचेगा नहीं।"
“वो मुझे खतरनाक लगा है।"
"मेरे से भी ज्यादा?” मौत भरे स्वर में कहते हुए अमर ने सोफिया की आंखों में झांका।
सोफिया गहरी सांस लेकर रह गयी।
"जब तक कल्पना और बाकी लोग नहीं आते, तब तक हम तीनों को ही इन तीन गलियों में नजर रखनी होगी। गलियों के किनारों पर खड़े हो जाओ। आने-जाने वालों को चैक करते रहो।" अमर का स्वर कठोर था ।
बातचीत के शब्द पास ही मौजूद दीपाली को सुनाई दे रहे थे।
बेदी, उन लोगों से दूर था, परन्तु बराबर उनकी हरकतों को देख रहा था। शेरा को जाते देखा। फिर उन तीनों को गलियों के किनारों पर खड़े होते देखा तो फौरन समझ गया कि ये लोग इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि, दीपाली इन्हीं तीन गलियों में से किसी घर में छिपी है।
बेदी के होंठों से गहरी सांस निकल गई। अगर दीपाली वास्तव में इन्हीं तीन गलियों के मकानों में कहीं है और ये लोग उसकी तलाश में बराबर पहरा देते हैं तो वो बाहर निकलते ही नजर में आ सकती है। इन लोगों के हाथों में पड़ सकती है। अगर वो इन गलियों के मकानों में नहीं छिपी तो वो पूरी तरह सुरक्षित हो चुकी है।
बेदी अपने को मजबूर महसूस कर रहा था। वो अकेला था और लड़ाई-झगड़ों से उसका कभी वास्ता नहीं पड़ा था और ये सब शातिर लोग थे। इनसे मुकाबला नहीं कर सकता था। दीपाली इनके हाथों में पड़ गई तो उसे बचा भी नहीं सकता था। खून-खराबा करना उसके बस की बात नहीं थी।
उसने दूर रहकर ही, इन लोगों पर नजर रखने का फैसला किया। आधे घंटे बाद ही उसने शेरा को कार पर वहां पर पहुंचते देखा। साथ में कल्पना और दो अन्य बदमाश थे। बेदी समझ गया कि ये लोग अब गलियों के दोनों तरफ की घेराबंदी कर लेंगे, ताकि दीपाली जब बाहर निकले तो पकड़ी जाये। बेदी मन ही मन यही प्रार्थना करने लगा कि दीपाली इन मकानों में हो ही नहीं।
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दीपाली इन्हीं मकानों में थी।
वहां से जब दीपाली भागी तो अच्छी तरह समझ चुकी थी कि वो एक बार फिर पूरी तरह खतरे में पड़ चुकी है। बेदी को पार करके वो किसी भी वक्त उसे पकड़ सकते हैं। और वो नहीं चाहती थी कि उसे पकड़ने वाले अपने बुरे काम में सफल हों। बात सिर्फ फिरौती की होती तो दीपाली को उन लोगों का इस हद तक भय नहीं होता। लेकिन उसे तो असल डर इस बात का था कि वो लोग उसकी भद्दी तस्वीरें खींचकर, वीडियो फिल्म बनाकर उसे और उसके पापा को बुरी तरह बदनाम भी करना चाहते हैं।
इन लोगों के हाथों से बचना बहुत जरूरी है।
इस विचार के साथ-साथ दीपाली को बेदी की भी चिन्ता हो रही थी कि उसने कैसे उन लोगों का मुकाबला किया होगा? उनके और साथी भी वहां हो सकते हैं, विजय के साथ कुछ बुरा न हो गया हो। लेकिन वो चाहकर भी वापस जाकर बेदी का हाल नहीं जान सकती थी।
भागते-भागते वो बाजार खत्म हुआ तो सामने मकानों की कतारें और गलियां नजर आई। तेजी से सड़क पार करते हुए दीपाली एक बूढ़ी औरत के साथ जोरों से टकराई तो वो फौरन नीचे गिरकर हाय-हाय करने लगी। दीपाली के पास इतना वक्त ही कहाँ था कि उस पर ध्यान दे पाती। वो सड़क पार करके भागती हुई गलियों की तरफ चली गई। दस मिनट बाद अमर को इसी बुढ़िया से मालूम हुआ था कि भागती हुई एक लड़की सामने की गलियों की तरफ गई है और उसे गिरा गई।
गली में प्रवेश करते ही सिर से पांव तक घबराई दीपाली को एक मकान का गेट खुला मिला तो वो जल्दी से भीतर प्रवेश कर गई और गेट बंद कर लिया। उसका ख्याल था कि घर के लोगों से रिक्वेस्ट करके कुछ देर के लिए यहां छिप जायेगी, परन्तु घर में कोई नहीं था। दरवाजे बंद थे। छोटा सा बरामदा और थोड़ी-सी खाली जगह थी वहां । दीपाली को छिपने के लिए ये जगह ठीक लगी और और वो गेट के पास ही दीवार से सटकर दुबक कर बैठ गई।
इत्तफाक ही रहा कि इसी मकान के बाहर अमर सोफिया की होती बातचीत सुनी। वो सहमी सी वहीं, बैठी रही। ये बात तभी उसके सामने स्पष्ट हो गई कि इन लोगों को पता चल चुका है कि वो पास ही कहीं छिपी है और पहरा देकर वो उसके बाहर निकलने का इन्तजार करने लगे हैं।
दीपाली ने खुद को पक्का कर लिया कि जो भी हो, वो यहां से बाहर नहीं निकलेगी। बेदी के बारे में इनके मुंह से सुन चुकी थी कि वो ठीक है और इनके हाथों से दूर है। बेदी के बचने की बात सुनकर दीपाली ने चैन की सांस ली थी। उसे पूरा विश्वास था कि विजय भी अवश्य उसे तलाश कर रहा होगा।
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वो पचास बरस का व्यक्ति था। सामान्य रंग-रूप, आकार था उसका।
तब आठ बजे रहे थे। अंधेरा हो चुका था। उसने कोने वाले मकान के गेट के सामने कार रोकी और बाहर निकला। कुछ दूर गली के भीतर मध्यम-सी स्ट्रीट लाईट रोशन थी। एक-दो लोग आते-जाते भी दिखे। कार से बाहर निकलते ही लगा कि दो पैग लगा रखे हैं उसने। वो जरा सा लड़खड़ाया फिर फौरन ही संभल गया। कार से टेक लगाकर उसने सिग्रेट सुलगाई।
तभी उसकी निगाह पास ही मकान के कोने में, साईड में खड़ी कल्पना पर पड़ी तो उसने नशे से भरी आंखें फाड़कर उसे देखा। कल्पना भी उसे देख रही थी। उसे देखते पाकर, उसने मुंह फेर लिया।
"ऐ!" वो आदमी बोला--- "इधर आ।"
कल्पना ने उसे देखा।
"तेरे से ही कह रहा हूं महारानी। आ-जा।"
"मैं?" कुछ कदमों की दूरी पर खड़ी कल्पना ने कहा ।
"तो क्या ढोल बजाकर कहूं कि तू---।"
कल्पना शांत भाव में उसके पास पहुंची।
"क्या बात है?" कल्पना की निगाह उसके चेहरे पर जा टिकी।
उसने सिर से पांव तक तसल्ली से कल्पना को देखा फिर मुस्कराकर बोला।
"पहले तेरे को देखा नहीं।"
"क्या मतलब?"
"यहां क्या कर रही है?"
"किसी का इन्तजार कर रही हूं।"
"जिसका इन्तजार कर रही है, वो नहीं आयेगा। चल मेरे साथ अन्दर। पांच सौ ले लेना।"
"क्या मतलब?" कल्पना अचकचाई।
"नखरे क्यों दिखाती है। हजार ले लेना। आ-जा।"
"तुम गलत समझ रहे हो। मैं ऐसी लड़की नहीं हूं।" कल्पना की आवाज सख्त हो गई।
"ऐसी वेसी क्या होती है। लड़की तो लड़की होती है। हजार का करारा नोट।"
"शटअप!"
उसने, कल्पना को घूरा। फिर हँसकर सिर हिलाया।
"जितने नखरे दिखाने हैं, दिखा ले। हजार से ऊपर का भाव नहीं दूंगा। ये है मेरा घर। जब तेरा यार न आये और हजार कमाने का मन हो तो आ जाना। करारा नोट पहले से ही अलग रखा होगा।" कहने के साथ ही कार से हटा और गेट के पास पहुंचकर गेट खोला और पलटकर कल्पना को देखा--- "करारे नोट का रंग मालूम है या नहीं। खैर, बता देता हूँ मैं। लाल-सा रंग है। बहुत मजा आयेगा पकड़कर। कईयों ने पहले नहीं देखा था। लेकिन मेरी बदौलत देख लिया। आ जाना।" कहने के साथ ही वो भीतर गया। गेट बंद किया और जेब में हाथ डालता हुआ, चाबी ढूंढता दरवाजे के पास जा पहुंचा।
कल्पना वापस गली के मोड़ पर जा खड़ी हुई थी।
गेट के पास ही, भीतर की तरफ दीपाली सांस रोके दीवार के पास बैठी थी। अंधेरे में वो उस आदमी को देख रही थी, जो चाबी निकालकर ताला खोलने की कोशिश कर रहा था। कल्पना के साथ हुई सारी बातचीत उसने सुनी थी। और वो ये जान गई थी कि कल्पना मकान के बाहर, पास ही है।
वो दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया। भीतर की लाईट जली। कुछ रोशनी बाहर भी आई। उस रोशनी में दीपाली काफी हद तक स्पष्ट नजर आने लगी। दीपाली कुछ सहम-सी गई कि अगर पलटकर, उस व्यक्ति ने पीछे, इस तरफ देखा तो वो नजरों में आ जायेगी।
परन्तु उसने न तो भीतर देखा और न ही दरवाजा बंद किया। वहां से दीपाली को कमरे का दृश्य स्पष्ट नजर आ रहा था। वो कपड़े उतारने लगा था। देखते-ही-देखते अण्डरवियर को छोड़कर सारे कपड़े उतारे और दूसरे दरवाजे की तरफ बढ़ गया। होंठों ही होंठों में गुनगुना रहा था। कुछ पलों बाद दीपाली के कानों में पानी गिरने की आवाज पड़ी तो समझ गई कि वो व्यक्ति इस वक्त बाथरूम में है। शायद नहा रहा है।
मौका अच्छा था।
दीपाली ने गेट के बाहर देखा फिर बैठे ही बैठे, नीचे झुके ही झुके, खरगोश की भांति आगे बढ़ी और खुले दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गई। पास ही खिड़की थी। जिसका लम्बा पर्दा फर्श को छू रहा था। दीपाली जल्दी से उस पर्दे के पीछे जा छिपी। उसे इस बात का एहसास था कि वो भारी खतरे में आ फंसी है। बाहर उसकी तलाश हो रही है और यहां अकेला आदमी है। उस पर उसकी निगाह पड़ गई तो गड़बड़ हो जायेगी। या तो उसकी बात माननी पड़ेगी नहीं तो शोर पड़ेगा..... और बाहर वालों को उसके यहां मौजूद होने के बारे में पता चल जायेगा। कल्पना से हुई बातों से उसे महसूस हो चुका था कि इस घर का मालिक अच्छे चरित्र का नहीं है।
पांच मिनट भी न बीते होंगे कि वो कमरे में आया। वो नहाकर आया था। अण्डरवियर में ही था। एक हाथ में बोतल और दूसरे में गिलास पकड़ रखा था। दोनों को उसने टेबल पर रखा और वहां बिखरे कपड़े उठाकर दूसरे कमरे में रख आया। अब की बार हाथ में लाल-गुलाबी रंग का हजार का नोट था। जिसे टेबल पर रखते हुए बड़बड़ा उठा।
“साली आती है आये, नहीं तो कुएं में जाये।”
फिर उसने बोतल खोलकर गिलास भरा। तगड़ा घूंट भरकर गिलास टेबल पर रखा और पास ही मौजूद फोन का रिसीवर उठाकर नम्बर मिलाया और बात की।
"आज तारीख क्या है?” उसने फोन पर कहा।
"कौन?"
“साले। मेरी आवाज भी नहीं पहचानता। छगनलाल को भूल गया क्या?"
“ओह! छगन भाई।” दूसरी तरफ से चिकना-चुपड़ा स्वर कानों में पड़ा--- "मैं सच में नहीं पहचान---।"
"काम की बात कर। आज तारीख क्या है?" छगनलाल उखड़े स्वर में बोला ।
"बीस-इक्कीस होगी शायद।” छगनलाल के कानों में आवाज पड़ी।
“उल्लू के पट्ठे। मुझे भी पता है कि आज तारीख क्या है। मेरा डेढ़ लाख तूने एक तारीख को वापस देना था। अब दूसरी एक आने वाली है। मालूम है, या भूल गया कि हममें क्या बात हुई---।"
"वो छगन भाई, कुछ दिक्कत आ गई तो--।”
"खजान सिंह से जब तूने एक लाख लिया था और देने में दिक्कत आई तो तूने उसे ठण्डा करने के लिए क्या किया था? जो किया था। वो ही अब मेरे साथ कर। बहुत गर्म हो रहा हूं मैं।"
“छगन भाई, तब मेरी मजबूरी थी और---।"
"तो क्या अब मजबूर नहीं है। तकाजा करने के लिए दो-चार बंदे भेजूं--। तेरी इज्जत मिट्टी में---।"
"ऐसा मत करना छगन....।"
“तो जल्दी से अपनी बेटी को भेज दे। आधे घंटे में पहुंच जाये। समझा क्या?"
"वो नहीं मानेगी। वो---।"
" खजान सिंह की बारी कैसे मान गई थी? तू---।”
"मैंने बहुत कठिनता से उसे राजी किया।"
"तो आज भी कठिनता से राजी कर ले उसे। वरना।" कहने के साथ ही छगनलाल ने रिसीवर रखा और गिलास उठाकर बड़बड़ा उठा--- "खजान सिंह बता रहा था कि इसकी बेटी बड़ी कड़क है। आज पता चल जायेगा कि साला झूठ बोलता है या सच ?"
पर्दे की झिरी से दीपाली सब देख-सुन रही थी।
■■■
एक घंटे बाद पहुंची वो। मन में अपने बाप के प्रति नफरत भरी पड़ी थी कि अपना काम निकालने के लिए, उसे आगे कर देता है। नफरत थी उसे, इन सब बातों से। लेकिन मजबूर थी। बाप के सामने उसकी चल नहीं पाती थी। छब्बीस-सत्ताईस बरस की हो चुकी थी वो। और इस बात का एहसास था उसे कि जिन्दगी के दो-चार साल और बीत गये तो वो कहीं की न रहेगी। बाप की इन हरकतों से बचने के लिए जल्दी कोई रास्ता ढूंढना होगा।
छगनलाल चार मोटे-मोटे पैग चढ़ा चुका था। आंखें लाल सुर्ख हो चुकी थीं। टन-टना-टन हो रहा था। वो सीधे-सीधे खुले दरवाजे से भीतर चली आई थी।
"आ गई तू ।" छगनलाल उसके कदमों की आहट सुनते ही नशे से भरे स्वर में कह उठा--- "मैं जानता था तू जरूर आयेगी। तूने सोचा होगा तेरे नखरे देखकर, भाव बढ़ा दूंगा। बिल्कुल नहीं। पुराना खिलाड़ी हूं इस मैदान का। ये रखा है करारा नोट । जाते हुए ले जाना। पैग मारना है तो मार ले।”
वो छगनलाल का नशे से भरा चेहरा देखती रही।
"अभी तक खड़ी है। अब तो नखरे मत दिखा।” कहते हुए छगनलाल ने चेहरा ऊपर उठाया। उसे देखा। कुछ पल देखता रहा, फिर आंखें मिचमिचाकर बोला--- “तू तो वो नहीं। उसकी बहन है क्या?"
"मेरे बाप ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।” उसने कड़वे स्वर में कहा।
"ओह! मैं तो भूल गया था कि तू आने वाली है। करारा नोट बच गया ।" छगनलाल के नशे से भरे चेहरे पर मुस्कान उभरी--- "तेरे बाप ने मेरे से डेढ़ लाख रुपया लिया था और---।”
“अभी दिया नहीं।" उसने उखड़े स्वर में कहा--- “तुम उस पर, अभी रुपया लेने के लिए दबाव मत डालो। कुछ देर चुप रहो तो इस खातिर उसने मुझे तुम्हारे पास भेज दिया कि कपड़े उतारकर, रात भर तुम्हारी सेवा करूं।"
"ऐसा मत बोल । ये तो प्यार-मोहब्बत का मामला है। गुस्सा है तो जाकर बाप पर उतार। मेरे से तो प्यार के दो मीठे बोल। कह। आ बैठ। अपना नाम बता। फिर मेरे लिए पैग बना। उसी तरह पिला, जैसे खजान सिंह को प्यार-प्यार से पिलाया था।” छगनलाल नशे से भरी छोटी-सी हँसी हँसा ।
वो आगे बढ़ी। कुर्सी पर बैठी और खाली गिलास को बे-मन से भरने लगी।
“वहां मत बैठ। मेरे साथ पास, इधर बैठ। जैसे खजान सिंह के साथ बैठी थी।”
“जल्दी क्या है। तुमने भी कहीं नहीं जाना। और मैंने भी कहीं नहीं जाना।"
"तू आ गई हो तो अब जाने की जरूरत ही क्या है। क्या नाम बताया था ? भूल गया शायद---।"
"तारा।"
“वाह! बहुत अच्छा नाम है। तारे की तरह ही तेरी खूबसूरती---।"
"गिलास पकड़ो।"
छगन भाई गिलास पकड़ते हुए कह उठा।
"खजान सिंह की तरह, मुझे अपने हाथों से नहीं पिलायेगी ?"
"मेरे सामने खजान सिंह ने भी पहला पैग खुद ही लिया था। इसे खत्म कर।" तारा ने आराम से कुर्सी पर बैठते हुए कहा--- “दूसरा मैं तुम्हें अपने हाथों से पिलाऊंगी।"
"तो फिर देर किस बात की।" कहने के साथ ही छगनलाल ने होंठों से गिलास लगाया और तब खाली किया जब वो खाली हो गया--इस वक्त वो तगड़े नशे में आ चुका था। हाथ बेकाबू हो चुके थे। जाने कैसे उसने गिलास टेबल पर रखा। गनीमत रही कि वो टूटा नहीं--- "पिला। अपने हाथों से पिला मुझे।"
तारा देख रही थी कि छगनलाल पूरी तरह नशे में डूब चुका है। अगले पैग ने उसे यहीं का यहीं लुढ़का देना था। मन ही मन तारा ने चैन की सांस ली कि वो छगनलाल से बच जायेगी।
वो गिलास भरने लगी कि तभी पर्दा हिला । तारा की निगाह तुरन्त उधर गई। पर्दे के नीचे उसे चमकते हुए सैंडिल दिखाई दिए। उसके चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। वो कुर्सी से उठी।
छगनलाल इस हद तक नशे में था कि उसे नहीं मालूम तारा क्या कर रही है।
"अपने हाथ से पिला तारा। वैसे पिला जैसे खजान सिंह को पिलाई थी।" नशे में छगनलाल बड़बड़ा उठा।
पास पहुंचकर तारा ने पर्दा हटाया तो सामने दीपाली को पाकर उसकी आंखें सिकुड़ गई।
"कौन हो तुम?" स्वर धीमा था, तारा का।
"प्लीज।" दीपाली ने फौरन अपने दोनों हाथ जोड़ दिए--- "मैं मुसीबत में हूं। मैं--मैं---।"
“कुछ देर यहीं रहो।" तारा ने सोच भरे स्वर में कहा और पर्दा छोड़कर वापस पहुंची और पुनः गिलास भरकर छगनलाल की बगल में बैठ गई--- "लो, पिओ।"
"ऐसे ही खजान सिंह को पिलाया था तुमने।" नशे से भरी आवाज बेकाबू हो चुकी थी।
“हां। अब मुंह खोल। खजान सिंह ने तो मिनटों में गिलास खाली कर दिया था।" तारा ने उसे हवा दी।
"तो मैं क्या कम हूँ। ला-कहां है गिलास--।"
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छगनलाल सोफे पर ही लुढ़का हुआ था। टेबल पर पड़े गिलास में जरा-सी व्हिस्की पड़ी थी। तारा ने अच्छी तरह उसे हिला-हिलाकर देखा था। लेकिन छगनलाल नशे में बेसुध हो चुका था। तारा कई पलों तक नफरत भरी निगाहों से उसके बेहोश शरीर को देखती रही फिर पर्दे की तरफ देखकर बोली।
"बाहर आ जाओ। ये शराब के नशे में बेहोश हो चुका है।"
दीपाली पर्दा हटाकर बाहर आ गई। चेहरे पर अभी भी घबराहट थी।
"डरो मत।" तारा अपने स्वर को सामान्य बनाते हुए बोली--- "छगनलाल तुम्हें यहां लाया था ?"
"नहीं।" दीपाली पास आकर ठिठकी।
"तो फिर छिपी क्यों हुई थी ?"
"इसी के डर से।" दीपाली ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
तारा ने उसे सिर से पांव तक सोच भरी निगाहों से देखा।
"मैं समझ नहीं पा रही हूं कि तुम क्या कहना चाहती हो?" तारा बोली--- "इस तरह बताओ कि मैं समझ सकूं।”
“कुछ बदमाश मेरे पीछे पड़े हुए हैं।" दीपाली ने बेचैन स्वर में कहा--- "मैं अमीर बाप की बेटी हूं। मुझे पकड़कर मेरा बुरा करके, मेरे बाप से वो बहुत ज्यादा पैसा लेना चाहते हैं। मौका पाकर मैं उनकी कैद से भाग निकली और उनसे बचती फिर रही हूँ। इस घर का दरवाजा खुला मिला तो यहां आ छिपी। लेकिन ये आदमी मुझे ठीक नहीं लगा। मुझे डर था कि इसने मुझे देख लिया तो खुद को बचा नहीं सकूंगी। भीतर ये। बाहर वो लोग, जो मुझे तलाश कर रहे हैं।"
"समझी।" तारा ने सिर हिलाया--- “तो बदमाश लोग अभी भी बाहर हैं तुम्हारे लिए।"
"हां। उन लोगों को मालूम है कि मैं इन्हीं दो-तीन गलियों में किसी घर में छिपी हूं। वो हर गली में पहरा दे रहे हैं। आखिर कब तक यहां छिपी रहूंगी।" दीपाली ने व्याकुल स्वर में कहा--- “जो लोग मेरे पीछे पड़े हैं उनमें दो औरतें भी हैं। उनमें से एक औरत इसी मकान के कोने में खड़ी है। ये गली का पहला मकान है। इस गली के आखिरी तरफ भी कोई न कोई खड़ा होगा।”
“इस तरह तो तुम भारी मुसीबत में फंसी हो।" तारा ने होंठ सिकोड़ कर कहा।
“हां। मैं समझ नहीं पा रही कि कैसे इन लोगों से अपना पीछा छुड़ाऊं।" दीपाली ने तारा को देखा।
"हर कोई अपनी, कोई न कोई मुसीबत में फंसा हुआ है।" तारा ने गहरी सांस ली--- "मुझे ही देख लो। बाप लोगों से पैसे लेकर मौज करता है और मुसीबत के वक्त मुझे आगे कर देता है। जबकि मैं मर्दों के सामने इस तरह कपड़े उतारना पसन्द नहीं करती। लेकिन मेरे पास कोई रास्ता नहीं कि अपने बाप की हरकतों से बच सकूं।"
"तुम घर से भाग क्यों नहीं जातीं?"
"कहाँ जाऊंगी भाग कर। अभी बाप के कहने पर महीने में एक-दो बार किसी भेड़िये के सामने अपने कपड़े उतारने पड़ते हैं। घर से भागी तो भेड़ियों के झुण्ड में फंस जाऊंगी। घर के बाहर की दुनियां तो और भी गंदी है।"
“शादी कर लो।”
“शादी?" तारा ने जहरीली निगाहों से उसे देखा--- "तुम क्या समझती हो कि ऐसे बाप के पास मेरी शादी के लिए पैसे होंगे। हों भी तो वो क्यों करेगा मेरी शादी। मेरे शरीर के दम पर तो वो ऐश करता है। ऐसे बाप से तो, बाप का न होना ही अच्छा है। मैं भी तुम्हारी तरह दोनों तरफ से फंसी हूँ। घर रहती हूँ तो छगनलाल जैसे लोगों की सेवा के लिए मेरा बाप मुझे भेज देता है। घर से भागी तो छगनलाल जैसे लोगों के झुण्ड में फंसकर रह जाऊंगी।"
दीपाली सोच भरी निगाहों से उसे देखती रही।
"तुम ठीक कहती हो।" दीपाली ने गम्भीर स्वर में कहा-- "मेरी ही तरह दोनों तरफ से, तुम भी फंसी हुई हो। हालात ही अलग-अलग हैं। शादी करना चाहती हो तुम?"
तारा की निगाह दीपाली पर जा टिकी।
"बताया तो कि न तो पैसे हैं और---।"
"उसकी फिक्र मत करो। मैं तुम्हारी मुसीबत हमेशा के लिए दूर कर दूंगी। मैं तुम्हें अपने बंगले का पता और अपने घर वालों के नाम पत्र लिख देती हूं। वहां चली जाओ। तुम्हारा जीवन संवर जायेगा। तुम्हारा ब्याह भी हो जायेगा। पत्र में मैं सब लिख दूंगी।" दीपाली की आवाज में गम्भीरता थी।
तारा देखती रही दीपाली की।
"क्या हुआ तारा? मेरी बात पसन्द नहीं आई?"
“मुझे विश्वास नहीं आ रहा कि जो तुम कह रही हो। ऐसा हो जायेगा।" तारा के स्वर में कम्पन उभरा।
"मेरे पर विश्वास करो बहन । मैं मुसीबत में फंसकर देख रही हूं कि, तब इन्सान की हालत क्या होती है। समझ रही हूं तुम्हें। मुझसे तुम्हारा भला हो सकता है तो जरूर करूंगी।" दीपाली बोली ।
"मैं-मैं अभी तुम्हारे घर जा सकती हूँ?" तारा के होंठों से निकला।
"हाँ। मैं तुम्हें पत्र लिखकर दे देती हूं। अपना पता दे देती है। लेकिन इस वक्त मेरे पास पैसे नहीं हैं कि तुम्हें किराये के लिए दे सकूं। मैं दूसरे शहर में रहती हूं। इस आदमी के कपड़ों से पैसे निकाल लो। बस अड्डे जाकर बस लो। सुबह तक तुम खुद को सबसे सुरक्षित जगह, मेरे घर पर पाओगी।"
"ठीक है। ऐसा ही करूंगी मैं। लेकिन-लेकिन तुम्हारा क्या होगा? तुम यहां फंसी---।"
"अपने लिए तो मैं खुद नहीं समझ पा रही कि मैं कैसे अपने पीछे लगे लोगों से बचूं!"
तारा होंठ भींचे सोचने लगी।
कई पल उनके बीच खामोशी से बीत गये।
उसके बाद तारा ने घर से कागज-पेन तलाश करके दीपाली को दिया।
"तुम मेरे लिए अपने घर वालों के नाम पत्र लिखो।" तारा ने गम्भीर स्वर में कहा--- “तुम यहां पर ज्यादा देर नहीं रह सकोगी। कुछ घंटों बाद छगनलाल को होश आ जायेगा। बाहर तुम्हारी तलाश में लोग मौजूद हैं। मैं तुम्हें इतना मौका दिलवा दूंगी कि बाहर वालों की निगाहों से बचकर भागने के लिए तुम्हें कुछ वक्त मिल जाये।"
"ऐसा कैसे हो सकता है?" दीपाली के होंठों से निकला।
"मैंने सोच लिया है। तुम पत्र लिखो। इस वक्त इसके अलावा और कुछ नहीं हो सकता, जो मैंने सोचा है।"
दीपाली ने व्याकुल निगाहों से तारा को देखा। फिर कागज पर अपने घर वालों के नाम पत्र लिखने लगी। ये काम समाप्त करके, दीपाली ने अपने घर का पता भी कागज पर लिख दिया।
“अब बोलो।" दीपाली ने तारा को देखा--- "मुझे यहां से भागने का मौका कैसे---?"
“तुमने जो कपड़े पहने हैं। उन्हें वो लोग पहचानते हैं, जो बाहर तुम्हें ढूंढ रहे हैं।" तारा ने गम्भीर स्वर में कहा।
"हां।" कुछ सोच के बाद दीपाली बोली--- "उन लोगों ने मुझे देखा है। ये कपड़े भी देखे हैं।"
"तुम मेरे कपड़ों को पहनो। मैं तुम्हारे पहन लेती हूं।" तारा अपने कपड़े उतारने लगी।
दीपाली आंखें सिकोड़े उसे देखने लगी।
"क्या करना चाहती हो तुम?"
"बाहर अंधेरा है।" कपड़े उतारती तारा ने कहा--- “वो सबसे पहले तुम्हें कपड़ों से पहचानेंगे ।"
“हां। अंधेरे में भी वो, मेरे कपड़ों से फौरन पहचान जायेंगे कि---।"
"वो ही मैं कह रही हूँ।" तारा ने टोका---"तुम्हे यहां से बच निकलने का रास्ता ये कपड़े ही देंगे। तुम्हारे कपड़े मैं पहनकर यहां से निकलूंगी और गली के भीतर की तरफ भागूंगी। इस मकान के साथ खड़ी लड़की देखेगी तो वो यही समझेगी कि तुम हो। वो मेरे पीछे भागेगी। इस तरफ का रास्ता तुम्हारे लिए साफ हो जायेगा। उसने मेरे पीछे भागते ही तुम बाहर निकलकर दूसरी तरफ भाग जाना। मुझे वो गली के दूसरे मोड़ पर पकड़ लेंगे। वहां जो भी पहरा दे रहा होगा। वो मुझे पकड़ेगा। तब मेरा चेहरा देखेंगे। मतलब कि इसी में पांच-सात मिनट बीत जायेंगे और इतने वक्त में तुम दूसरी तरफ काफी दूर जा सकती हो। "
“हां। ये ठीक रहेगा।" दीपाली के होंठों से निकला--- "लेकिन तुम खतरे में पड़ सकती हो।"
"मेरे को कोई खास खतरा नहीं होगा। क्या कर लेंगे वो मेरा। मैं कह दूंगी कि तुमने मुझे पैसे देकर ऐसा करने को कहा। मुझे क्या मालूम, तुमने ऐसा करने को क्यों कहा। मुझे पैसे की जरूरत थी। तुम्हारी बात मान गई। हद हुई तो वो लोग गुस्से में दो-चार चांटे मुझे मार देंगे।"
दीपाली जवाब में सिर्फ सिर हिलाकर रह गई।
"कपड़े उतारो।" तारा अपने कपड़े उतार चुकी थी।
दीपाली ने बिना कुछ कहे अपने कपड़े उतार दिए।
दोनों ने एक-दूसरे के कपड़े पहन लिए ।
तारा ने दीपाली का लिखा पत्र अपने कपड़ों में छिपाया। दूसरे कमरे में जाकर, छगनलाल के पर्स में से कुछ नोट निकाल लाई । नोटों को भी कपड़ों में छिपा लिया।
दीपाली की गम्भीर निगाह, तारा पर थी।
“तुम मेरे लिए खतरा उठा रही हो तारा।” दीपाली धीमे स्वर में कह उठी।
"इन्सान ही इन्सान के काम आता है। तुम मेरे काम आ रही हो। मुझे, बुरे बाप से छुटकारा ही नहीं दिला रहीं बल्कि मेरा घर भी बसा दोगी तो ऐसे में क्या मैं तुम्हारा ये जरा सा काम नहीं कर सकती। फिर इसमें मेरे लिए कोई खतरा भी नहीं है।" तारा ने आगे बढ़कर प्यार से दीपाली का हाथ दबाया।
दीपाली हौले से मुस्करा पड़ी
“भगवान ने चाहा तो मैं जल्दी ही अपने घर पहुंचूंगी। वहां तुमसे मिलूंगी।" दीपाली कह उठी--- “तुम्हारे लिए अच्छा सा लड़का ढूंढकर, अच्छे घर में तुम्हें ब्याहूँगी।"
"ऐसा हुआ तो मेरी जिन्दगी संवर जायेगी दीपाली।" तारा को आंखों में पानी चमक उठा।
"ऐसा अवश्य होगा। मुझे वापस अपने घर पहुंच लेने दे।" दीपाली ने गम्भीर स्वर में कहा--- "अगर मैं सलामत घर न भी पहुंच सकी, तो भी तुम्हारा घर बस जायेगा। मैंने पत्र में सब लिख दिया है। मेरे पापा सब ठीक कर देंगे। तुम्हें मेरी कमी का एहसास नहीं होगा।"
"ऐसा मत कहो दीपाली। तुम ठीक से वापस अपने घर पहुंच जाओगी।" तारा ने अपनी गीली आंखें साफ की।
दीपाली ने हौले से उसका कंधा दबाया।
"मैं बाहर नजर मार आऊं। तुम तैयार रहो।" कहने के साथ ही तारा आगे बढ़ी और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई।
कुछ ही क्षणों में वापस आई।
"बाहर, वो अभी भी मकान के साथ कोने में खड़ी है।" तारा ने गम्भीर स्वर में कहा--- “मेरे साथ गेट तक आओ। मैं गेट खोलकर बाहर निकलकर गली के भीतर की तरफ भागना शुरू कर दूंगी। जो तुम्हारे इन्तजार में बाहर हैं, वो तुम्हारे सामने से ही भागती हुई निकलेगी। जब वो सामने से निकले तो उसी वक्त बाहर निकलकर दूसरी तरफ भाग जाना। देर मत लगाना तब।
दीपाली ने सहमति से सिर हिला दिया।
दोनों दरवाजे से निकलकर गेट तक पहुंचीं।
"निकल रही हूं मैं। तुम तैयार रहो।" तारा ने फुसफुसाहट भरे स्वर में कहा फिर आहिस्ता से गेट खोला और बाहर निकलते ही तेजी से गली के भीतर भाग खड़ी हुई।
उसके भागने की आवाज गूंज उठी। रात के साढ़े दस से ऊपर का वक्त हो रहा था।
तभी दीपाली के देखते ही देखते, कल्पना उसके सामने से तारा की तरफ भागती चली गई।
“रुक जाओ दीपाली। तुम बच नहीं सकतीं।" कल्पना की आवाज उसके कानों में पड़ी।
दौड़ते कदमों की आवाजें दूर होती जा रही थीं।
दीपाली ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। गेट से बाहर निकली। दूसरी तरफ बढ़ी। उसी पल उसके कानों में दौड़ते कदमों की आवाज पड़ी। फिर शेरा नजर आया। जो कि शायद कल्पना के शब्दों को सुनकर आ गया था। वो पास ही दूसरी गली के किनारे पर खड़ा था। शेरा की झलक मिलते ही दीपाली को अपनी जान सूखती महसूस हुई। फंस गई, परन्तु बच गई वो। सिर पर दुपट्टा ओढ़ रखा था। कपड़ो का रंग दूसरा था। वहां बहुत ही मध्यम-सी रोशनी थी। शेरा ने उसकी तरफ ध्यान देने की भी जरूरत नहीं समझी। उसकी बगल से गुजरता, गली में आगे दौड़ता चला गया।
दो पल तो दीपाली को विश्वास नहीं आया कि वो बच निकली है। उसके बाद तेज-तेज कदमों से आगे बढ़ती चली गई। सौ-पचास कदम आगे जाने के बाद उसने इधर-उधर देखा। कोई नजर न आया तो वो एकाएक दौड़ पड़ी। यहां से, ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाना चाहती थी।
■■■
दीपाली को दौड़ते पांच मिनट बीत चुके थे।
इस वक्त कम लोग ही थे सड़कों पर। इस तरह दौड़ने से वो लोगों की निगाहों में जल्दी आ जायेगी। ये सोचकर ठिठकी। फुटपाथ पर धीरे-धीरे चलने लगी। चेहरे पर आये पसीने को दुपट्टे से साफ करती जा रही थी। वो जानती थी कि वहां से निकल आई है परन्तु खतरे से दूर नहीं है। कभी भी वो लोग....।
तभी पीछे से उसके कंधे पर किसी ने हाथ रखा। दीपाली इस तरह चिहुंक उठी, जैसे सांप पर पांव आ गया हो। वो तुरन्त घूमी ।
बेदी का चेहरा नजर आया उसे । मुस्कराता चेहरा।
दीपाली के चेहरे पर से घबराहट के भाव गायब हो गये। वहां अविश्वास और खुशी झलक उठी।
"तुम ?" आवाज कांप सी रही थी।
"मुझे आशा कम ही थी कि उन लोगों के घेरे से निकल सकोगी।" बेदी ने मुस्कराते हुए गहरी सांस ली--- "ये तो सोचना ही छोड़ दिया था कि तुमसे फिर मुलाकात होगी।"
“क्यों नहीं मुलाकात होती। तुमने कहा तो था कि तुम मिलोगे।" दीपाली के होंठों से निकला।
जवाब में बेदी मुस्कराता रहा।
"तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं यहां पर हूं और---।"
बेदी ने बताया।
"ये जानते हुए भी तुम पास ही कहीं हो, मैं तुम्हें बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकता था। अच्छा हुआ कि तुम वहां से निकल भागीं। एक बार फिर उन लोगों के हाथों से बच गई।"
"तारा की मेहरबानी से बची हूं।" दीपाली गम्भीर हो गई--- "कहीं वो न फंस गई हो!"
"कौन तारा?"
दीपाली ने तारा के बारे में बताया।
"लेकिन हम तारा के लिए कुछ नहीं कर सकते। वापस जाने का मतलब है खुद को खतरे में डालना।" बेदी बोला।
"हां। हम उसके लिए कुछ नहीं कर सकते।"
"वैसे मेरा ख्याल है वो तारा को कुछ नहीं कहेंगे। ये जानकर कि वो तुम नहीं हो, वे लोग वक्त बरबाद किए बिना तुम्हारी तलाश पर निकल गये होंगे।” बेदी ने कहा--- “आओ। यहां से चलें।"
दोनों तेज-तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे।
"विजय! हमें फौरन घंटा घर पहुंचना चाहिये। पापा नौ बजे ही वहां पहुंच गये होंगे और वहीं खड़े अभी भी मेरे आने का इन्तजार कर रहे होंगे।" दीपाली कह उठी।
"हां। वहीं चलते हैं। टैक्सी-ऑटो ले लेते हैं।” कहते हुए बेदी ने आसपास निगाह मारी।
सड़कों पर दौड़ती कारें और अन्य वाहन नजर आ रहे थे।
"अभी कोई न कोई सवारी मिल जायेगी।" बेदी ने कहा और सिग्रेट सुलगा ली।
धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए वो इधर-उधर नजर मार रहे थे।
“विजय, अगर उन लोगों ने मुझे पकड़ लिया तो---।"
"तुम ये सोचो कि हम उनके हाथों से बच चुके---।"
तभी सामने से लड़खड़ाकर आते आदमी की टक्कर दीपाली से होते-होते बची। वहां पर्याप्त रोशनी नहीं थी। वाहनों की रोशनी ही उन पर पड़ रही थी। वो आदमी तुरन्त संभलकर बड़बड़ा उठा।
"बच गई। वरना अभी टूट जाती मेरी बोतल। सारा मजा खराब हो जाता।"
ये स्वर सुनते ही बेदी ठिठका। फौरन पलटा ।
"क्या हुआ ?" दीपाली ने बेदी को देखा ।
“वो-वो हरबंस है।” बेदी के होंठों से निकला।
“हरबंस?" दीपाली के चेहरे पर हैरानी उभरी--- “यहां ?”
बेदी ने दीपाली का हाथ पकड़ा और पलटकर आगे बढ़ते हरबंस के पास जा पहुंचा।
"हरबंस !"
धीमी गति से लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ते हुए वो ठिठका, कुछ इस तरह जैसे बेहद तेज रफ्तार से जाते वाहन को ब्रेक मारकर, रोकना पड़ा हो। पलटा । वो तगड़े नशे में था।
“कमाल है! पराये शहर में भी लोग मेरे को जानते हैं। अरे भाई रात को लड़की लेकर सड़कों पर मत घूमा करो। बहुत बड़ी मुसीबत आ जाती है। रात को लड़की बचाने के चक्कर में, विजय फंस गया। अब तक तो उन लोगों ने विजय का बिस्तरा गोल कर दिया होगा। बेवकूफ था वो, जो---।"
"तेरे चेहरे को क्या हुआ ?" बेदी ने कम रोशनी में उसके चेहरे की सूजन देख ली थी।
"चेहरा?" हरबंस ने बोतल में से घूंट भरा लड़खड़ाया, फिर संभल गया--- "सालों ने मार-मारकर बुरा हाल कर दिया। सारी रात मारते रहे कि मैं विजय के ठिकाने का पता बता दूं। क्यों बताऊं। मैं ही उसे छिपने का ठिकाना दूं और फिर लाखों के लालच में, ठिकाना बता दूं। इतना भी घटिया नहीं हूं कि, बेचारे से धोखेबाजी करूं । चलता हूँ भई। विजय को ढूंढना है अगर वो जिन्दा बचा हो तो। पर बचेगा नहीं। नहीं बचेगा।" कहते हुए वो पलटा और बोतल हाथ में लटकाये आगे बढ़ने लगा।
"इसने तो तुम्हें पहचाना ही नहीं।" दीपाली के होंठों से निकला।
"बहुत ज्यादा नशे में है।"
"ये इस शहर में कैसे आ गया और---?"
"मैं तुम्हारे साथ ही हूं। मुझे कुछ नहीं मालूम।" कहने के साथ ही वो हरबंस के पास पहुंचा--- "इतना नशे में है कि मुझे भी नहीं पहचाना हरबंस ।"
हरबंस ठिठका और कह उठा।
“देख भाई! तेरा उधार मैं दे दूंगा। सच में दे दूंगा। लेकिन इस वक्त मुझे विजय को---।"
"मैं विजय हूं हरबंस, शराब के नशे से बाहर निकल। देख मुझे।" विजय ने उसे कंधे से हिलाकर कहा।
नशे से लगभग बंद हुई पड़ी आंखों को हरबंस ने खोलने की कोशिश की।
"क-कौन है तू?"
"विजय। विजय बेदी।" बेदी ने उसे पुनः हिलाया।
हरबंस ने खुद को संभालने की कोशिश की। नशे से बाहर निकलने की कोशिश की। कई पल खामोश रहकर उसने सिर को जोरों से हिलाया। पूरी कोशिश करके आंखें कुछ खोलीं। उसे देखा ।
"ओह! तू तो अपना विजय है। तेरी आवाज तो पहचानी लगी थी। मैंने समझा कोई उधार मांगने वाला होगा। ये पैसे की किल्लत मेरा पीछा नहीं छोड़ती। दीपाली कहां?" फिर उसने दीपाली को देखा। नशे की गहराई से कुछ हद तक वो बाहर आ गया था। इतना कि सामने वाले को देख-पहचान सके--- "ये तो दीपाली है। मानना पड़ेगा तेरी हिम्मत को। अभी तक उन लोगों से इसे बचाये---।"
"तू यहां कैसे और---?
"विजय!" दीपाली कह उठी--- "यहां हमें खतरा है। वो लोग पास ही कहीं है। हमें देख सकते हैं।"
"वो लोग यहां।" हरबंस ने कहना चाहा।
"यहां से चल हरबंस। किसी ठीक जगह पर बात करते हैं। बोतल फेंक ।" बेदी बोला।
“बोतल क्यों फेंक दूं? नहीं।"
"फेंक दे। इतनी पी रखी है कि तुझे अपनी होश नहीं। और पीकर मरेगा क्या?"
"तो क्या मैंने ज्यादा पी रखी है?"
"बहुत ज्यादा।"
“इस मामले में तू सच बोलता है। मैं जानता हूं। ले फेंकी बोतल।" कहकर वो नीचे झुका और बोतल को खड़ा कर के छोड़ दिया--- "अब ठीक है। किसी भाई-बन्धु को जरूरत होगी तो उठाकर पी लेगा।
"आ---।"
■■■
“तूने सोचा मैं अमर को बता दूंगा कि कहां छिपे हो। हरबंस अब तक नशे पर काफी हद तक काबू पा चुका था--- "अमर से कुछ लाख में सौदा कर लूंगा। या ऐसा ही कुछ और करूंगा।"
“हां। मैंने सोचा कि तुम ऐसा कुछ करो तो बड़ी बात नहीं होगी। तभी वो ठिकाना छोड़ा कि---।"
"ये देख । मेरा चेहरा, मेरा शरीर । मार खा-खाकर हुआ है ये हाल । इसलिए कि मैंने तुम दोनों के बारे में नहीं बताया। मुंह बंद रखा। पूरे पन्द्रह लाख का लालच दिया था अमर ने। वो भी एडवांस में। पन्द्रह लाख तो मेरे लिए किसी बड़ी जायदाद से कम नहीं। लेकिन मैंने नहीं बताया। तब तेरे को बोल के गया था, आराम से नींद ले। अभी मैंने सोचा नहीं कि क्या करना है। कल आऊंगा। लेकिन तूने मेरा विश्वास नहीं---।"
“उस समय मैं ऐसी स्थिति में था कि किसी का विश्वास नहीं कर सकता था।"
"तो मैं किसी में आ गया।"
“तेरे को पैसे की जरूरत है। ऐसे में तू कुछ भी कर सकता था।"
“बद से बदनाम बुरा। लेकिन जो भी हुआ। अच्छा हुआ। वो मुंह बोली बेटी है ना, कल्पना। जिसे मैं हमेशा बाप का प्यार देता रहा। मेरी ठुकाई में वो भी अमर के साथ मिल गई। उसका असली चेहरा सामने आ गया। मैंने तो सोचा भी नहीं था कि वो-वो ऐसी घटिया जात की---।"
“तो प्राइवेट जासूस विनोद कुमार वास्तव में सुखवंत राय के लिए काम कर रहा है।" बेदी कह उठा।
“हां। बढ़िया बंदा है वो। तेरे को उस पर विश्वास करना चाहिये था। इस मुसीबत को उसके हवाले कर देता। आगे का मामला वो संभाल लेता।" हरबंस कह उठा--- "लेकिन तूने तो उन पर विश्वास नहीं किया।"
"ज्यादातर प्राईवेट जासूस गलत होते हैं।"
“होते होंगे। वो ऐसा नहीं है। अब मिले तो फौरन इसे, उसके हवाले करके लम्बी-चौड़ी नमस्ते कर देना।”
"तुम मुझे मुसीबत कह रहे हो।" दीपाली कह उठी ।
“मुसीबत? मैंने ऐसा कहा क्या?"
"तुमने अभी कहा।"
"ध्यान नहीं। हो सकता है नशे में कह दिया हो। क्यों विजय, मैंने ऐसा कुछ कहा?"
“तुम कह रहे थे कि जल्दी से जल्दी घंटा घर पहुंचना है।" बेदी के होंठों पर मुस्कान उभरी।
"घंटा घर, हां लेकिन वो किधर है?" हरबंस सिर हिलाकर बोला।
"टैक्सी-ऑटो लेकर वहां पहुंच जाते हैं।"
तीनों इस वक्त अंधेरे में, साईड में ऐसी जगह पर खड़े थे कि कोई उन्हें देख न सके। सड़कों पर से गुजरने वाले वाहन अब कम होने लगे थे। रात के बारह बज रहे थे।
टैक्सी-ऑटो के लिए अब तीनों वहां से निकलकर सड़क पर आ गये थे।
"विजय!" हरबंस की आवाज में नशा भरा था।
"हां।"
“याद है जब हम इस चक्कर में फंसे, तब हम ऑटो ही ढूंढ रहे थे? रात हुई पड़ी थी।"
"याद है।"
“अब भी रात है और---।"
आगे के शब्द हरबंस पूरे नहीं कर सका।
तभी सामने से आती कार, तीव्रता से हैडलाइट चमकाती, पास आकर रुकी। ब्रेकों की तेज आवाज उभरी। उसके बाद एक-के-बाद- एक तीन दरवाजे खुले और बाहर निकलने वाले थे अमर, सोफिया और दो अन्य आदमी। अमर ने कार से बाहर निकलते ही रिवाल्वर निकाल ली थी।
"ये लोग भी, उस रात की तरह किसी लड़की को ढूंढ रहे हैं।" हरबंस बड़बड़ा उठा।
दूसरे ही पल वो तीनों उनकी गिरफ्त में थे।
अमर ने बेदी के पेट में रिवाल्वर लगा दी थी। सोफिया ने हरबंस को पकड़ लिया था और उन दोनों बदमाशों ने दीपाली को दोनों बांहों से पकड़ लिया था।
ये सब अचानक न समझने वाले ढंग में हुआ।
दीपाली का चेहरा फक्क पड़ गया था। टांगे कांपने सी लगी थीं।
बेदी फौरन समझ गया था कि खेल खत्म।
हरबंस अब तक सबको पहचान चुका था और सोफिया से कह उठा।
"अब मेरे में बचा ही क्या है, जो मुझे पकड़ रही है डियर सोफिया! दस-बीस साल पहले पकड़ा होता तो अब तक कई बच्चे हो चुके होते हमारे। इस उम्र में मेरे से क्या हो सकेगा।"
"खत्म कर दो इसे।" सोफिया दांत भींचकर अमर से कह उठी।
"नहीं।" अमर खतरनाक लहजे में बोला--- "इसकी वजह से बहुत वक्त खराब हुआ है हमारा। बहुत दौड़ना पड़ा है हमें। इसका तो वो हाल करूंगा कि---।"
तभी एक और कार पास आकर रुकी।
उसमें से कल्पना के साथ दो बदमाश बाहर निकले।
"तो ये पकड़े ही गये।" कल्पना खा जाने वाली निगाहों से दीपाली और बेदी को देखते हुए कह उठी--- "विजय की वजह से दीपाली हमारे हाथों में आने से बचती रही।"
"अब देखना इस हरामजादे का क्या हाल करता हूँ।" अमर ने दांत भींचे--- "तीनों को कार में बिठा लो।"
"मेरी क्या जरूरत है। हरबंस नशे से भरे स्वर में कह उठा--- "अभी मेरी हालत ठुकाई के काबिल दुरुस्त भी नहीं है।"
"इसे साथ ले जाने की क्या जरूरत है।" कल्पना दांत भींचे बोली--- "खत्म कर---।"
"नहीं। इसे तो मैं तड़पा-तड़पाकर मारूंगा।" अमर दांत किटकिटा उठा।
"कल्पना!" दीपाली थरथराते स्वर में कह उठी--- "मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो मेरे पीछे?"
"खामोश रहो।" कल्पना की आवाज में मौत के भाव थे--- "वक्त आने पर मालूम हो जायेगा कि किसने किसका क्या बिगाड़ा है। जल्दी चलो यहां से। पुलिस पैट्रोल कार, अक्सर रात को सड़कों पर घूमती रहती है।"
बेदी कुछ भी कर सकने के लायक नहीं रहा था। वो समझ चुका था कि कुछ भी बाकी नहीं बचा। उसके हाथ खाली हो चुके थे । न तो दीपाली को बचा सकता है। न ही खुद बच सकता है।
वो लोग उन्हें भेड़-बकरियों की तरह कार में ठूंसने लगे।
■■■
दोनों कारें शहर के ऐसे वीरान और जंगल जैसी जगह पर जा रुकीं, जहां दूर-दूर तक कोई नहीं था। एक कार की हैडलाईट ऑफ कर दी गई। दूसरी कार की हैडलाईट रोशन रही।
उन तीनों को कार से बाहर निकाला गया।
दो ने तो दीपाली को सख्ती से थाम रखा था। घबराहट के कारण बुरा हाल हो रहा था उसका। भविष्य अंधकार भरा लग रहा था। इन लोगों ने उसे कहीं का नहीं छोड़ना था।
अमर अभी भी, बेदी से रिवाल्वर लगाये हुए था।
हरबंस की कोई खास चिन्ता नहीं कर रहा था। वो कार से टिका खड़ा था। नशा बहुत हद तक हल्का हो चुका था। खतरे से भरे हालातों को वो बाखूबी समझ रहा था।
"अमर!" कल्पना भिंचे स्वर में कह उठी--- “खत्म करो इसे और जल्दी से निकल चलो। इस शहर को छोड़ना है हमने। विनोद कुमार अपने साथियों के साथ यहां भी आ सकता है वो हमें ढूंढ रहा है। मैं किसी तरह का खतरा नहीं लेना चाहती। वापस अपने शहर चलो। अभी हमें बहुत काम करने हैं।"
"दस मिनट की बात है।" अमर ने बेदी को धक्का देते हुए कहा--- "दस मिनट तक चाकुओं से गोद-गोदकर इसे तड़पाऊंगा। उसके बाद सिर्फ एक गोली उसकी खोपड़ी में और हम वापस अपने शहर। शेरा!"
शेरा फौरन पास पहुंचा।
"चाक दे।" शेरा ने चाकू निकाला। तभी सोफिया कह उठी।
“ठहर शेरा ! चाकू से मैं इस हरामी का शरीर उधेडूंगी।" इसके साथ ही आगे बढ़कर शेरा के हाथ से चाकू लिया।
बेदी दाँत भींचे बारी-बारी सब को देख रहा था।
"क्यों मार रहे हो बच्चे को।" हरबंस हड़बड़ाकर कह उठा--- "माफ कर दो।"
"मत मारो विजय को।" दीपाली की आंखों में आंसू आ गये--- "भगवान के लिए, इसे छोड़ दो।"
"जल्दी करो।" कल्पना ने दरिन्दगी से कहा।
तभी सोफिया ने चाकू वाला हाथ घुमाया और उसका लम्बा-चौड़ा फल, अजीब सी आवाज के साथ पूरा का पूरा अमर के पेट में धंस गया।
हैडलाइट की रोशनी में अमर की आंखें फैलती चली गईं। फौरन ही शरीर ढीला पड़ गया। रिवाल्वर वाला हाथ नीचे लटक गया। सोफिया ने दांत भींचे तीव्र झटके के साथ चाकू बाहर खींचा और पुनः उसके पेट में धंसा दिया। अमर के शरीर को तीव्र झटका लगा फिर वो इस तरह धीमे-धीमे, हौले-हौले हिलने लगा, जैसे तेज तूफान में कोई ताकतवर पेड़ हिलता है। वो नीचे गिरने जा रहा था कि सोफिया ने जोरदार ठोकर उसे मारी तो वो किसी बॉल की तरह नीचे लुढ़कता चला गया।
उसके बाद अमर का शरीर नहीं हिला।
मर चुका था वो।
पैना सन्नाटा छा गया था वहां।
सबके चेहरों पर हैरत और भय के भाव थे।
बेदी हक्का-बक्का सा खड़ा था। यही हाल कल्पना के थे। हरबंस का जो थोड़ा-बहुत नशा बचा था, वो पूरी तरह हवा हो गया था। सोफिया के चेहरे पर खतरनाक भाव सिमटे हुए थे।
“ये क्या किया तुमने।" एक बदमाश कह उठा--- "तुमने अमर साहब को---।"
"चुप कर।" शेरा ने कठोर स्वर में कहा--- “अमर साहब मर गये। बात खत्म। सोफिया मैडम एक सप्ताह के भीतर हम सबको पांच-पांच लाख नकद देगी। अमर ने दस-बीस हजार से ज्यादा क्या देना था।"
"तुम्हें मालूम था अमर साहब की जान ली जाने वाली है ? "
“हाँ। सोफिया मैडम से मेरी बात हो चुकी थी। अब आगे की सोचो।”
तभी कल्पना आगे बढ़ी और अभी तक अमर के हाथ में फंसी हुई रिवाल्वर को अपने हाथ में ले लिया। उसका चेहरा बेहद कठोर हुआ पड़ा था।
“रिवाल्वर मुझे दो।" सोफिया कह उठी। शब्दों में सख्ती थी।
“तुम्हें रिवाल्वर देने की जरूरत नहीं समझती। मेरा तुम्हारे साथ सीधा-सीधा कोई वास्ता नहीं।" कल्पना ने एक-एक शब्द चबाकर, भिंचे दांतों से कहा--- “मेरा वास्ता अमर से था, जिसे तुमने मार दिया।"
“क्या फर्क पड़ता है। अब मेरे से वास्ता रख लो।" सोफिया जहरीले स्वर में कह उठी--- "ये सब मेरे साथी ही तो हैं।"
"अमर को क्यों मारा?"
"इस काम में हम पार्टनर थे।" सोफिया ने दांत भींचकर कहा--- "सुखवंत राय से मिलने माल हमें आधा-आधा करना पड़ता। लेकिन अब सारा माल मेरा होगा।"
कल्पना, खा जाने वाली निगाहों से सोफिया को देखने लगी।
“तेरे को मालूम है, अमर से मेरा क्या तय था ?"
"मालूम है। तेरा काम पहले होगा लेकिन सुखवंत राय से मिलने वाले माल से तेरा कोई वास्ता नहीं। ठीक ?"
"हां।"
सोफिया की नजरें बेदी पर गईं।
"शेरा ! इस हरामजादे विजय को खत्म कर दे।"
शेरा फौरन आगे बढ़ा और अमर के मृत शरीर से चाकू खींचकर बाहर निकाला।
"ठहरो ।” कल्पना की आवाज सख्त हो गई।
सबकी निगाह कल्पना पर गई।
बेदी होंठ भींचे बचने का रास्ता सोच रहा था, परन्तु कोई रास्ता उसे नजर नहीं आ रहा था।
“तुम विजय की जान तब तक नहीं लोगी, जब तक कि मेरा काम नहीं हो जाता।" कल्पना बोली।
"क्या मतलब?” सोफिया के माथे पर बल नजर आने लगे।
"पहले मुझे दीपाली की तस्वीरें और वीडियो फिल्म चाहिये। उसके बाद जो मन में आये करना। अमर को मारकर तुमने अपनी कर ली। अब तुम्हारी और नहीं चलेगी।"
"तुम्हारा विजय से क्या वास्ता ?"
“कुछ भी नहीं। विजय से मेरा कोई वास्ता नहीं है। मैंने अभी इसे पहली बार देखा है। सवाल तुम्हारी मनमानी का है। जो कि तुम्हें नहीं करने दूंगी, ताकि तुम्हें हर पल इस बात का एहसास रहे कि तुम्हारे ऊपर भी कोई है।" कल्पना ने खतरनाक स्वर में कहा ।
“तुम मेरे ऊपर हो?" सोफिया के दांत भिंच गये।
“जब तक मेरा काम नहीं होता। मैं तुम्हारे ऊपर हूँ।" कहते हुए कल्पना ने दिखाने वाले अन्दाज में अपने हाथ में पकड़ी रिवाल्वर हिलाई--- "तस्वीरें और वीडियो फिल्म तैयार करके मुझे दो और दफा करो मुझे। तुम्हारा चेहरा तो मुझे शुरू से ही पसन्द नहीं।”
“बहुत बोल रही हो तुम--।"
“जब तक मेरे साथ रहोगी, मेरी बात सुननी पड़ेगी। मैं तुम्हें शूट कर भी दूं तो मेरा काम नहीं रुकेगा। तुम धोखे से अमर को मार सकती हो तो मुझे भी खत्म कर सकती हो।"
"मैं तुम्हें खत्म क्यों करूंगी तुम्हारे-मेरे रास्ते अलग-अलग हैं।" सोफिया ने कठोर स्वर में कहा।
"मैं तुम पर विश्वास नहीं कर सकती।”
"विजय को खत्म करने में तुम्हें क्या एतराज है?"
"कोई एतराज नहीं, परन्तु तुम्हें रोक कर ये समझाना चाहती हूं कि मेरी मौजूदगी में तुम्हारी मर्जी नहीं चलेगी।"
"ये सलामत रहा तो हमें फिर कोई नुकसान पहुंचा सकता---।"
“मैं जिम्मेवारी लेता हूं इसकी ।" हरबंस कह उठा--- "ये किसी मामले में अब दखल नहीं देगा। क्यों विजय ?"
"मेरा इस मामले से कोई मतलब नहीं।" बेदी जल्दी से कह उठा।
“इसकी रखवाली कौन करेगा?" सोफिया ने दांत पीसते हुए, कल्पना को देखा।
"इससे मैं बात कर लेती हूं।" कल्पना का स्वर पहले जैसा ही था--- "विजय! इधर आओ।"
कल्पना और विजय चंद कदमों के फासले पर जा पहुंचे।
“दीपाली का क्या रिश्ता है तुम्हारे साथ?" कल्पना ने शब्दों को चबाकर पूछा।
“कुछ भी नहीं। जैसा रिश्ता मेरा-तुम्हारा है वैसा ही है।” बेदी ने कहा ।
“तो उसे बचाने की एवज में उससे रुपये ले रहे हो?"
"नहीं। ऐसी कोई बात नहीं है।"
"फिर खुद को खतरे में डालकर क्यों उसे बचा रहे हो?"
“मैं नहीं जानता। जो हो गया। होते-होते होता चला गया।" बेदी ने शांत स्वर में कहा।
“ये मजाक नहीं है, जो कर रहे हो।" कल्पना ने तीखे स्वर में कहा--- “इस वक्त तुम जिन्दगी और मौत के बीच खड़े हो । सारे हालात तुम्हारे सामने हैं। क्या कहते हो?"
“मैंने नहीं सोचा था कि मैं इतने भारी खतरे में पड़ जाऊंगा।" बेदी ने स्वर में गम्भीरता भर ली।
"क्या इरादा है?"
“दीपाली को बचाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। मैं मरना नहीं चाहता।"
“अगर तुमने दीपाली को बचाने की जरा भी कोशिश की तो---?”
“नाम मत लो उसका मेरे सामने।”
“ठीक है। मेरे साथ रहोगे। सोफिया के सामने तुम्हारी जिम्मेवारी मैं लेती हूं।”
बेदी सिर हिलाकर रह गया।
तभी हरबंस पास पहुंचा और धीमे स्वर में कह उठा।
“बेटी! मेरे ख्याल में तुम समझदारी से काम नहीं ले रही?"
“क्या कहना चाहते हो पापा?” कल्पना ने अंधेरे में हरबंस को देखा।
“सोफिया को क्यों अपने साथ चिपकाये घूम रही हो।"
"मैं समझी नहीं।"
“सोफिया कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि जिसके बिना तुम्हारा काम पूरा नहीं होगा।"
"कहो पापा!"
“सोफिया को एक तरफ करो। सुखवंत राय से फिरौती की बात मैं कर लूंगा।”
कल्पना, हरबंस को देखती रही।
"तुम जो करना चाहती हो, करो। अमर वाला काम मैं और विजय कर लेंगे। सोफिया की जरूरत कहां रह गई।"
"उसे रास्ते से कौन हटायेगा?" कल्पना ने दबे स्वर में कहा।
"शेरा!" हरबंस ने कहा--- “पांच लाख पाने के लालच में वो, सोफिया के साथ मिल सकता है तो दस लाख पाने के लिए वो हमारे साथ क्यों नहीं मिल सकता। मैं बात कर लूंगा उससे ।"
"अगर वो तैयार न हुआ तो?"
“होगा। मैं तैयार कर लूंगा।" हरबंस ने पक्के स्वर में कहा।
"ये विजय इस काम में तुम्हारे साथ रहेगा ?"
"हां। ये मेरे कहने से बाहर नहीं जा सकता। क्यों विजय ?"
“पूछने की क्या जरूरत है।" बेदी ने तुरन्त कहा--- “हम दोनों ही एक-दूसरे की बात मानते हैं।"
“जब अमर तुम्हें पन्द्रह लाख दे रहा था, तब तुम उसकी बात क्यों नहीं---?"
"बेटी ! अगर उस वक्त मैं अमर को विजय का ठिकाना बता देता तो वो इसे खत्म कर देता। जो कि मैं नहीं चाहता था और फिर अमर मुझे सिर्फ पन्द्रह लाख दे रहा था। खुद सुखवंत राय से करोड़ों लेता । मैं क्यों मानता उसकी बात।"
कल्पना ने हौले से सिर हिलाया।
“ठीक है। तुम शेरा से बात कर लेना। सोफिया में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है।"
"अब क्या करना है?" हरबंस ने पूछा।
"वापस अपने शहर चलते हैं और---।"
कल्पना के शब्द अधूरे ही रह गये।
तभी बेदी ने अपनी पूरी हिम्मत इकट्ठी की और दोनों हाथों से कल्पना के हाथ में दबी रिवाल्वर पर झपट्टा मारा। रिवाल्वर पर कल्पना की पकड़ ढीली थी। ऐसा कुछ हो सकता है, उसने सोचा भी नहीं था।
दूसरे ही पल रिवॉल्वर बेदी के हाथ में थी और वो दो कदम तुरन्त पीछे हट गया।
"कोई अपनी जगह से नहीं हिलेगा।" बेदी ने ऊंचे-खतरनाक, स्वर में कहा--- “मेरे हाथ में रिवाल्वर है और जो भी मेरा रास्ता रोकेगा, उसे मार दूंगा।”
इन शब्दों के साथ ही वहां सन्नाटा छा गया।
"ये क्या कर रहे हो?" कल्पना के होंठों से निकला।
"जुबान बंद रखो। सीधी खड़ी रहो।" बेदी गुर्रा उठा ।
“हरबंस समझाओ इसे।" सोफिया ने कहना चाहा--- "हम--।"
“मैं क्या समझाऊं। मेरे से ज्यादा समझदार है ये ।" हरबंस के होंठों से निकला ।
“विजय!" सोफिया की तेज आवाज कानों में पड़ी--- “हमारी तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है। तुम--।”
“मैंने तुमसे कहा था कि मेरे रास्ते में मत आना। मेरे बारे में तुम कुछ भी नहीं जानतीं? बहुत खतरनाक हूं मैं। लेकिन तुम नहीं मानी। मारूं गोली तेरे को ?” बेदी ने दांत भींचकर कहा।
सोफिया के होंठों से कुछ नहीं निकला।
"दीपाली ! पीछे वाली कार संभालो । स्टार्ट करो।”
सहमी-सी खड़ी दीपाली, जल्दी से पीछे वाली कार की तरफ बढ़ी।
“मैं भी साथ चलूं?" हरबंस के होंठों से निकला ।
बेदी ने उसे देखा। फिर सिर हिलाया ।
"चल ।" हरबंस भी जल्दी से उस कार की तरफ बढ़ा।
“पापा!” पीछे से कल्पना ने पुकारा।"
"मैं जरा जल्दी में हूं। फिर मिलूंगा बेटी।" हरबंस ने बिना पीछे देखे कहा।
दीपाली ड्राइविंग सीट पर बैठ चुकी थी। कार स्टार्ट करने लगी थी।
हरबंस पीछे वाली सीट पर जा बैठा।
“दूर हट जाओ।" बेदी ने दांत भींचकर, कल्पना से कहा।
“ये तुम अच्छा नहीं कर रहे विजय ।" पीछे हटते हुए कल्पना बोली।
बेदी इस बारे में सतर्क था कि कोई चालाकी न दिखा दे, परन्तु सब ठीक रहा। उनकी गुस्से से भरी खा जाने वाली निगाह उस पर टिकी थीं। बेदी सावधानी से कार तक पहुंचा।
"कोई अपनी जगह से हिले नहीं।" बेदी ने पुनः चिल्लाकर खतरनाक स्वर में कहा।
दीपाली कार स्टार्ट कर चुकी थी।
बेदी आगे का दरवाजा खोलकर भीतर बैठा। रिवाल्वर थामे वो सतर्क था।
उसी पल दीपाली ने कार को बैक किया फिर वापस घुमाते हुए तेजी से दौड़ा दी। देखते ही देखते वो कार वहां से सड़क पर पहुंची और नजरों से ओझल हो गई।
मौत भरा सन्नाटा छाया रहा वहां कुछ पलों तक।
"हरामजादी ।" उस सन्नाटे को सोफिया की दरिन्दगी भरे स्वर ने तोड़ा--- "तू खुद को ज्यादा चालाक समझती है।"
कल्पना ने फौरन सोफिया को देखा।
सबकी निगाह कल्पना पर जा टिकी ।
“अपने बाप के साथ दीपाली को भेज दिया। कान में बात करके, विजय से सौदेबाजी कर ली। खुद यहां रह गई, हमें ये दिखाने के लिए कि ये सब तुम्हारी मर्जी के खिलाफ हुआ है।" सोफिया मौत भरे स्वर में कह उठी।
“तो तुम कहना चाहती हो कि विजय ने जो किया, मेरे कहने पर किया है।" कल्पना दांत भींचे बोली ।
“हां। और यही सच है।" सोफिया गुस्से से पागल हो रही थी।
"ये झूठ है। तुम---।"
"बकवास मत करो। बहुत बड़ी धोखेबाजी की तुमने मेरे साथ । मैं---।"
"बेकार की बातें करके तुम वक्त खराब कर रही हो।" कल्पना उसी स्वर में कह उठी--- "अब तक हमें उनके पीछे चल देना चाहिये। था। वो---।"
"उनकी फिक्र मत करो।" सोफिया कहर भरे स्वर में कह उठी--- "वो मेरे हाथों से बच नहीं सकते। पहले तुम्हारा तो निपटारा कर दूं। मेरे से धोखेबाजी करके तुमने अपनी मौत को बुला लिया है।"
"क्या कहती हो !" कल्पना के दांत भिंच गये। मन ही मन वो सतर्क हो उठी।
“शेरा!"
"हां।"
“खत्म कर दो हरामजादी को। दीपाली की फिरौती की रकम भी खुद ही खा जाना चाहती है। तभी तो इसने दीपाली को भगा दिया अपने बाप के साथ।" सोफिया के स्वर में मौत से भी ज्यादा स्याह भाव थे।
शेरा ने चाकू खोला और खा जाने वाली निगाहों से कल्पना को देखा।
इस वक्त हालात ऐसे नहीं थे कि वो, इनका मुकाबला कर पाती। सोफिया के साथ चार बदमाश थे और वो अकेली, बिना हथियार वो भी।
“सोफिया, तुम्हें गलती हो रही है कि---।" कल्पना ने कहना चाहा।
शेरा ने चाकू थामे खतरनाक अंदाज में उसकी तरफ बढ़ना शुरू कर दिया था।
"प्लीज सोफिया, मेरी बात सुनो। तुम भारी गलतफहमी में हो।"
शेरा, उसके पास पहुंचने वाला था।
कल्पना समझ गई कि अब बिगड़े हालात नहीं सुधर सकते। किसी तरह खुद को बचाना होगा। इस सोच के साथ ही वो पलटकर भागने वाली थी कि शेरा ने उछाल भरी और चाकू वाला हाथ वेग के साथ हवा में घूमा। शेरा के हाथ को झटका लगा फिर चाकू वाला हाथ पूरा घूम गया।
चाकू का फल खून से रंग गया था। अंधेरे में शेरा को खून तो नजर नहीं आया, परन्तु हाथ की उंगलियों में खून की चिपचिपाहट महसूस होने लगी थी।
कल्पना की गर्दन कटकर एक तरफ झूल गई थी। चाकू के वार ने उसको ये एहसास करने का भी मौका नहीं दिया था कि वो मर रही है। दूसरे ही क्षण उसका शरीर नीचे जा गिरा।
"हरामजादी।" सोफिया खतरनाक स्वर में कह उठी--- “अपने बाप के साथ मिलकर, सब कुछ खुद हड़प जाना चाहती थी । जानती नहीं सोफिया को।"
गहरा सन्नाटा वहां छाया हुआ था।
"चैक करो। कहीं अभी भी जिन्दा न हो।"
"मेरे वार के बाद कोई जिन्दा नहीं बच सकता मैडम सोफिया।" शेरा कहते हुए क्रूर ढंग से हँसा ।
तभी एक ने आगे बढ़कर, माचिस की तीली की रोशनी में नीचे पड़ी कल्पना को चैक किया।
"मैडम!” वो बोला--- “अब ये जिन्दा नहीं है।"
जवाब में पुनः शेरा की क्रूरता भरी हँसी, वहां गूंजी।
“जल्दी चलो यहां से। अभी वो ज्यादा दूर नहीं गये होंगे।"
सोफिया ने दांत भींचकर कहा--- "दीपाली को हर हाल में अपने कब्जे में लेना है। वरना सारी मेहनत बेकार हो जायेगी।"
■■■
"बच गये।" हरबंस ने गहरी सांस ली--- "मैं तो समझा था काम उल्टा हो गया।"
दीपाली दांत भींचे तेजी से कार भगाये जा रही थी। चेहरे पर घबराहट थी।
“मुझे तो अभी तक विश्वास नहीं आ रहा कि उन लोगों के हाथों से बच निकले हैं।" बेदी ने रिवाल्वर जेब में डालते हुए गम्भीर स्वर में कहा--- "मालूम नहीं कैसे मैंने हिम्मत कर ली कि---।"
"हिम्मत खुद ही हो जाती है ऐसे मौके पे ।” हरबंस बोला फिर दीपाली से कहा--- "कार धीरे चला। स्पीड तेज है।"
“सोफिया ने अमर को मार दिया।" कहते हुए बेदी ने आंखें बंद कर लीं--- "मुझे तो विश्वास नहीं आ रहा कि सोफिया किसी की जान ले सकती है।"
“वो हरामजादी कुछ भी कर सकती है। पुराना जानता हूं उसे।” हरबंस का स्वर कड़वा हो गया।
बेदी ने आंखें खोलीं। हरबंस को देखा।
“घंटा घर कहां है? मालूम है ?" बेदी ने पूछा।
"इस शहर के बारे में कुछ खास नहीं जानता।"
“अब तो आधी रात हो रही है। पापा वहां इन्तजार करके चले गये होंगे।" दीपाली ने व्याकुलता भरे स्वर में कहा।
“फिर भी वहां देख लेना चाहिये। तुम्हें मालूम है, घंटा घर कहां है?"
“नहीं।" दीपाली ने सिर हिलाया--- “मैं नहीं जानती ।"
“रात के इस वक्त किससे पूछा जाये।" बेदी ने कार से बाहर नजरें दौड़ाते हुए कहा ।
“विजय!" हरबंस गम्भीर स्वर में कह उठा--- “अमर के मर जाने से, दीपाली के सिर पर सवार खतरा कम नहीं हो गया। सोफिया और कल्पना को कम नहीं समझो। वो पीछे ही कहीं होंगे। हमें ढूंढ रहे होंगे।"
"तभी घंटा घर जाने की बात कर रहा हूं। वहां सुखवंत राय मिल गया तो दीपाली को उसके हवाले करके इस मामले से अलग हो जायेंगे। सारे खतरे हट जायेंगे।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा।
“मुझसे छुटकारा पाना चाहते हो?" दीपाली कह उठी।
"गलत मत समझो। मैं तुम्हें सुरक्षित कर देना चाहता हूं।" बेदी ने समझाने वाले स्वर में कहा।
"तुम जो भी सोचो, मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली।" दीपाली के होंठों पर हल्की-सी मुस्कान उभरी।
"क्या मतलब?" बेदी ने उस पर नजर मारी।
“फुर्सत मिलने दो। मतलब भी समझा दूंगी।"
"बच्ची तो नेक लगती है।" हरबंस मुस्कराया--- “लेकिन इरादे नेक नहीं लग रहे ।"
तभी सामने आने वाले मोड़ से पुलिस कार निकलकर सड़क पर आई
कार की रफ्तार बहुत तेज थी और पुलिस कार अचानक ही सामने आ गई थी। दीपाली ने जल्दी से ब्रेक लगाये। पुलिस कार से बचना चाहा। पुलिस कार ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि एक्सीडेंट न हो। कठिनता से एक्सीडेंट होते-होते बचा।
दीपाली ने कार को रोकना चाहा।
“रोको मत।” बेदी के होंठों से निकला--- “भगा लो कार को ।"
"लेकिन।” हरबंस कह उठा--- “वो पुलिस वाले---?"
“मैं कहता हूं। कार भगाओ।” बेदी झल्लाकर कह उठा--- "मेरे पास रिवाल्वर है। अगर पुलिस वालों ने तलाशी में बरामद कर ली तो समझो ये तो मुझे लम्बा लाद देंगे।"
"ये बात तो तू ठीक बोलता है।" हरबंस ने फौरन सिर हिलाया।
दूसरे ही पल दीपाली ने कार को तूफानी रफ्तार से दौड़ा दिया।
■■■
पुलिस कार को सिपाही चला रहा था। साथ में हवलदार और कांस्टेबिल था। वो लोग पैट्रोलिंग पर थे। सिपाही ने अपनी पूरी हिम्मत लगाकर, एक्सीडेंट होने से बचाया।
“उल्लू का पट्ठा।" हवलदार ने कहा--- “पीकर कार चला रहा।होगा। अभी देखता हूं साले को ।”
"लड़की है कोई, जो कार चला रही है।" सिपाही के होंठों से निकला।
“फिर तो मामला दूसरा ही लगता है।"
"वो रुकने जा रहे हैं।” कांस्टेबिल कह उठा ।
"छोडूंगा नहीं। दो-चार दिन का खर्चा-पानी तो इन कार वालों से निकालकर ही रहेंगे।"
“कार भाग रही है।" सिपाही ने जल्दी से कहा।
"मामला गड़बड़ है।" कांस्टेबिल बोला।
"अबे जल्दी कर। सायरन खोल और पकड़ कार को।" हवलदार अपना होलस्टर ढीला करते हुए तेज स्वर में कह उठा--- "पकड़ना है कार वालों को।"
दूसरे ही पल सिपाही ने सायरन ऑन किया और पुलिस कार को सड़क पर दौड़ा दिया।
"मेरे ख्याल में ये लोग तगड़ी चोरी या डकैती करके आ रहे हैं।" हवलदार कह उठा--- “तभी तो कार नहीं रोकी और भाग लिए। हो सकता है, कार में कीमती माल भरा हो।"
"फिर तो हमारे मजे आ गये।" कांस्टेबिल कह उठा।
"चुप कर। गुजारे लायक दबा लेंगे। बाकी को बरामद पाया दिखा देंगे। वर्दी का भी तो लिहाज करना है। हमारी मर्जी ही तो नहीं चलेगी सारी ।" हवलदार ने झाड़ने वाले स्वर में कहा।
पुलिस सायरन की आवाज रात के वक्त दूर-दूर जा रही थी।
"तेज चला।" हवलदार बोला--- "वो अब ज्यादा दूर नहीं है।"
फासला कम होता जा रहा था ।
“पुलिस कार हमारे करीब आती जा रही है।” पीछे देखता बेदी बेचैनी से कह उठा।
"मैं इससे तेज नहीं चला सकती।” दीपाली का स्वर कांप रहा था--- "मुझे-मुझे डर लग रहा।"
“विजय! ये फंसवाकर रहेगी।" हरबंस ने गहरी सांस ली--- “पुलिस वालों से बचना इसके बस का नहीं है।"
बेदी होंठ भींचकर रह गया।
अगले दो मिनटों में ही पुलिस कार उनकी बगल में आ पहुंची थी।
"कार रोको।" हवलदार रिवाल्वर वाला हाथ खिड़की से बाहर निकालकर चीखा--- “वरना गोली मार दूंगा।"
उसी पल दीपाली ने ब्रेक लगा दिए।
पहियों के घिसटने की आवाज वहां गूंज उठी। कार रुकती चली गई ।
पुलिस कार जरा सी आगे रुकी। सायरन बंद हो गया था। दरवाजा खोलकर जल्दी से हवलदार बाहर निकला। कांस्टेबिल और सिपाही भी बाहर निकले।
“इनके पास हथियार भी हो सकते हैं।" सिपाही दबे स्वर में बोला।
“मैं भी यही सोच रहा हूं। कार की ओट ले लो।" तीनों ने कार की ओट ले ली। फिर हवलदार चिल्लाकर ऊंचे स्वर में बोला--- “कार में जो भी है, बाहर आ जाओ। हथियार फेंक दो । वायरलैस सैट पर हैडक्वार्टर मैसेज दे दिया गया है। अभी यहां पुलिस ही पुलिस होगी। तुम लोग बच नहीं सकते।"
"अभी मैसेज नहीं भेजा।” कांस्टेबिल ने कहा ।
"उन्हें डराने के लिए कह रहा हूं कि हमें सिर्फ तीन ही समझकर हम पर फायरिंग न शुरू कर दें। पहले देख तो लें कि मामला क्या है। उसके बाद तय करेंगे कि क्या करना है।"
तभी कार के दरवाजे खुले और एक-एक करके बेदी, हरबंस और दीपाली बाहर निकले।
“बाहर निकल आये हैं। ये भी तीन हैं।"
"अपने हथियार फेंक दो।" हवलदार ऊंचे स्वर में बोला।
“हम शरीफ लोग हैं।" हरबंस का स्वर उनके कानों में पड़ा--- "हमारे पास भला हथियार कहां से आये ?"
“ये तो शरीफ लोग हैं।"
"चुप कर। ऐसे बहुत शरीफ लोग देखे हैं मैंने। अभी इनकी शराफत निकालता हूं।" हवलदार ने शब्दों को चबाकर कहा फिर ऊंचे स्वर में बोला--- “तुम तीनों अपने हाथ ऊपर कर लो।”
तीनों ने बिना किसी एतराज के बांहें ऊपर कर लीं।
"जिसके हाथ भी नीचे आये, उसे मैं गोली मार दूंगा।" हवलदार ने कहा, फिर बोला--- “आओ। उनके पास चलें।"
तीनों कार की ओट से निकलकर उनके पास जा पहुंचे। हवलदार के हाथ में रिवाल्वर थी और कांस्टेबिल ने डण्डा पकड़ रखा था। वो सतर्क थे।
"हूं।" हवलदार ने बारी-बारी तीनों को गहरी निगाहों से देखा--- "तो तुम लोग हो, जो पुलिस कार को टक्कर मारने जा रहे थे और उसके बाद भाग निकले।"
“हम कहां भागे। हम तो---।" बेदी ने कहना चाहा।
“पुलिस सायरन की आवाज सुनी थी?" हवलदार ने पुलिसिया स्वर में कहा।
“सुनी थी। लेकिन हमें क्या मालूम कि वो हमारे लिए---।"
“चालाक बनता है साला।" हवलदार ने दांत भींचकर कहा--- “तलाशी ले कार की।"
कांस्टेबिल और सिपाही आगे बढ़कर कार की तलाशी लेने लगे।
“हम शरीफ लोग हैं। हम---।" हरबंस ने कहना चाहा।
“वो तो मैं देख ही रहा हूं।” हवलदार कड़वे स्वर में बोला---
“कार में से माल मिलेगा तो कहेगा कि हमारा नहीं है। तू तो वैसे भी शरीफ नजर नहीं आता।"
"मैं-मैं शरीफ नहीं लगता?" हरबंस ने मुंह बनाया।
"ये तो तेरी शक्ल पर लिखा है। सीधा खड़ा रह, अभी मालूम हो जायेगा। पुलिस से बचने के लिए भाग रहे हो आधी रात को। तेरे को तो अभी डण्डा बनाता हूं।" हवलदार कड़वे स्वर में बोला।
तभी कांस्टेबिल ने कार की डिग्गी बंद करते हुए कहा।
"कार में तो कुछ भी नहीं है।"
"कुछ तो होगा।" हवलदार ने उसे देखा ।
“नहीं। बिल्कुल खाली है। "
"मैंने तो पहले ही कहा था कि हम शरीफ लोग हैं।" हरबंस ने जल्दी से कहा।
"चुप कर तू। अभी तेरे को बदमाश बनाता हूं।" हवलदार ने रिवाल्वर वाला हाथ हिलाया फिर दीपाली को देखा--- "तो तू कार चला रही थी। हूं कौन से गिरोह से वास्ता है तेरा?"
"गिरोह?" दीपाली के होंठों से सूखा सा स्वर निकला।
"घबरा मत। सब ठीक हो जायेगा। कौन से गिरोह से वास्ता रखती है? जल्दी बता ।"
बेदी की सांस सूख रही थी कि अभी ये तलाशी लेंगे और उसकी जेब से रिवाल्वर मिलते ही भारी तौर पर गड़बड़ हो जानी थी। ये पुलिस वाला तो वैसे भी खता खाया लग रहा था जिन्दगी से ।
"मैं-मैं तो दीपाली हूं। मेरा कोई गिरोह नहीं है।" दीपाली ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"मतलब कि बिना गिरोह के काम करती हो। समझा। तुम---।"
तभी हरबंस ने अपनी बांहें नीचे कर लीं।
"हाथ ऊपर।" हवलदार ने दांत भींचकर पुलिसिया स्वर में कहा।
"देख भाई।" हरबंस शांत स्वर में बोला--- “हम लोग हैं शरीफ बंदे। हमने कोई जुर्म नहीं किया। हमें फंसाने के चक्कर में हमारा गिरोह तैयार कर रहा है। चल थाने। वहीं बात करते हैं।"
"थाने ?" हवलदार हड़बड़ा-सा उठा।
"ये घिसा हुआ बंदा है। तभी हमारी वर्दी से डर नहीं रहा।" कांस्टेबिल ने हवलदार के कान में कहा--- “मेरे ख्याल में ये शरीफ लोग हो सकते हैं या फिर अभी जुर्म करने जा रहे थे। अभी कुछ किया न हो।"
"हां।" हवलदार फौरन ऊंचे स्वर में कह उठा--- “तू ठीक कहता है। ये आदमी मुझे औरतों का दलाल लगता है। और हमने इन लोगों को रंगे हाथ पकड़ा है। दलाल बना पार्क के गेट के बाहर खड़ा था और पार्क के भीतर हमने इस लड़के और लड़की को बिना कपड़ों के पकड़ा। पूछने पर लड़के ने बताया कि इस काम के लिए, बाहर खड़े आदमी को इसने हजार रुपया दिया था। इतने में ही केस तैयार हो जायेगा।"
"थाने पहुंचकर ये नहीं मानेंगे कि---।"
"वो मैं मनवा लूंगा। तेरा डण्डा थाने में इनकी अक्ल ठिकाने लगा देगा।" हवलदार तीखे स्वर में बोला।
"शटअप !" दीपाली बांहें नीचे करती हुई गुस्से से कह उठी--- "क्या बकवास कर रहे हो तुम। मैं तुम लोगों की वर्दियां उतरवा लूंगी। तुम---।"
"नोट करो। ये हमें धमकी दे रही है। थाने में---।"
बेदी ने अपनी बांहें नीचे कर लीं।
"ज्यादा मत बोलो।” बेदी ने सख्त स्वर में कहा--- “तुम---।"
"सुन।" हरबंस दो कदम उठाकर बेदी के पास आया--- "हजार रुपया इन्हें दे दे।"
"हजार?" हवलदार ने उखड़े स्वर में कहा--- “कम है।"
"हम मुजरिम नहीं हैं। कोई गलत काम करके नहीं आ रहे। तेरा ड्रामा मैं अच्छी तरह समझ रहा हूं। तू हमें थाने नहीं ले जा सकता। क्योंकि तेरे पास हमारे खिलाफ कुछ नहीं है। इस वक्त हम जल्दी में हैं और ये हजार रुपया भी तेरे से पीछा छुड़ाने के लिए दे रहे हैं।" हरबंस ने लापरवाही से कहा--- “ज्यादा नहीं मिलेगा।"
"हजार कम हैं।” कांस्टेबिल ने कहा--- "हम तीन हैं।"
"कम हैं।" हवलदार बोला।
बेदी ने जेब से पन्द्रह सौ रुपये निकाले और आगे बढ़कर हवलदार के हाथ पर रखे।
"पन्द्रह सौ हैं। पांच-पांच सौ तीनों के लिए।" बेदी ने शांत स्वर में कहा।
"तू कौन होता है हममें बंटवारा करने वाला।" हवलदार मुंह बनाकर बोला--- "तेरे को क्या मालूम कि पन्द्रह सौ में से साढ़े सात सौ मेरे और बाकी के आधे-आधे दोनों के। मैं हवलदार हूं। समझा?"
"समझ गया। हम जायें अब?"
“जाओ।" वो नोटों को जेब में ठूंसता हुआ कह उठा--- "फिर कभी पुलिस सायरन की आवाज सुनो तो कार को रोक लिया करो। शरीफों की यही निशानी होती है।"
“मेहरबानी ।" बेदी ने दोनों हाथ जोड़कर कहा।
उसके बाद तीनों कार में बैठे। कार आगे बढ़ गई। इस बार ड्राइविंग सीट पर बेदी था।
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