5 मई : मंगलवार

मंगेश मोडक वो शख़्स था जिसे ‘स्टैण्ड बाई’ के तौर पर आइन्दा ज़रूरत के लिए इरफ़ान ने पहले से तैयार करके रखा हुआ था।
मंगेश मोडक पेशे से स्टेट गवर्नमेंट अप्रूव्ड रजिस्टर्ड टूरिस्ट गाइड था और इरफ़ान, शोहाब से इसलिए वाकिफ़ था क्योंकि तुका चैरिटेबल ट्रस्ट की मूवमेंट से पूरी तरह से मुतासिर था और ‘चैम्बूर का दाता’ का घोर प्रशंसक था। वो अक्सर दोनों से मिलता रहता था और अगर उन्हें किसी सोशल सर्विस की ज़रूरत हो तो सहर्ष ख़ुद को प्रस्तुत करता था।
ऐसी ज़रूरत तब थी।
जो काम उसको सौंपा गया था, उसके लिए उसकी पहली क्वालीफ़िकेशन ये थी कि वो नज़ीर टोपी से वाकिफ़ था क्योंकि पहले दोनों खेतवाड़ी में – कोई सौ गज के फासले पर – एक ही गली में रहते थे लेकिन फिर सुना था कि नज़ीर ने तरक्की कर ली थी और वो लोअर परेल में एक फ्लैट में रहने लगा था।
उस घड़ी वो फ़ोर्ट के सरकारी हस्पताल की लॉबी में मौजूद था और सिर पर ऐन वैसी टोपी लगाए था जो पीक-कैप कहलाती है और जिसके बिना नज़ीर कभी पब्लिक में नहीं देखा जाता था। टोपी में फिर भी फर्क था लेकिन वो आसानी से किसी की पकड़ में आने वाला नहीं था। वो फर्क ये था हर वैसी पीक-कैप के टॉप पर जो टोपी वाले कपड़े से ही मंढ़ा सजावटी बटन लगा होता था, वो मोडक की कैप में भीतर से खोखला था और उसमें एक माइक्रो-ट्रांसमिटर छुपा हुआ था। बड़ी होशियारी से उस ट्रेडीशनल बटन को उखाड़ा गया था और बटन के भीतर ट्रांसमिटर फिट करके उसे यूं वापिस अपनी जगह पर सिया गया था कि कोई नहीं कह सकता था कि उसके साथ कोई छेड़छाड़ हुई थी। वो ट्रांसमिटर देखने-कहने को माइक्रो था, वैसे इतना शक्तिशाली था कि आधा किलोमीटर के दायरे तक उसके द्वारा प्रसारित आवाजें़ बाखूबी सुनी जा सकती थीं।
उस घड़ी सुबह के पौने नौ बजे थे।
रिसैप्‍शन से उसे मालूम हुआ कि नज़ीर सैफी नाम का पेशेंट जनरल वार्ड-ए में भरती था जो कि पहले माले पर था।
“उसका साथी?” – उसने पूछा।
“कौन साथी? नाम बोले तो?”
साथी का नाम तो किसी ने उसे बताया ही नहीं था – कोई बड़ी बात नहीं थी कि किसी को मालूम ही नहीं था।
“नेवर माइन्ड!” – वो बोला – “थैंक्यू आल दि सेम।”
रिसैप्‍शनिस्ट विचित्र भाव से उसे सीढ़ियों की तरफ जाता देखती रही।
अब उसने ये सस्पेंस भी झेलना था कि टोपी का साथी कहीं उसके बगल के बैड पर ही तो नहीं था!
ये भी बड़ा सवाल था कि वार्ड में अपने बैड पर टोपी उसे सोता मिलेगा या जागता मिलेगा।
टोपी उसे सोया मिलता तो उसका काम कदरन आसान होता लेकिन जागता मिलता तो भी उसे सुनाने के लिए कहानी उसके पास तैयार थी : वो किसी और काम से – मसलन लैब में ब्लड टैस्ट कराने, ईसीजी कराने, एक्सरे कराने, वग़ैरह – वहाँ आया था तो संयोग से ही वार्ड-ए की एक बैड पर तकियों के सहारे बैठा उसे वो दिखाई दे गया था। तब टोपी तब्दील करने की जुगत तो वो करके रहता – आख़िर वो आया ही इसी काम से था – लेकिन तब उसे ये मालूम होना ज़रूरी होता कि उसके उतारे कपड़े, बमय टोपी, कहाँ थे। कपड़े बैड के करीब होते तो किसी बहाने से वो उनके हवाले होता; दूर होते तो किसी वार्ड ब्वाय को, किसी आॅर्डरली को, भले ही किसी नर्स को, उनकी बाबत सैट करता।
वैसे उसे उम्मीद टोपी के सोया पड़ा होने की ही थी। जिसको आधी रात के करीब ढेर ठोका गया हो, उसके उस घड़ी सोया पड़ा होने की संभावना ज़्यादा थी।
सीढ़ियों के रास्ते वो पहले माले पर पहुँचा।
उसने वार्ड के ग्लास विंडो वाले झूलते दरवाज़े से भीतर कदम रखने की कोशिश की तो तत्काल एक नर्स ने उसे टोका – “अन्दर नहीं आने का। मुलाकात का टाइम शाम पाँच से छ:।”
“मैं मरीज का कज़न . . .”
“रिश्तेदारों को भी शाम को आने का।”
“बाई, सुनो तो! प्लीज़़!”
“बोलो।”
“मेरा कज़न एक्सीडेंटल केस। जख़्मी। पर मेरे को डॉक्टर बोला कल शाम को वो घर जा सकता था। अभी वो हस्पताल की वर्दी में। जो कपड़ा वो जिस्म से उतारा वो फिर पहनने के काबिल नहीं। मेरे को उसके वास्ते ड्रैस खरीद के लाने का . . .”
“खरीद के काहे वास्ते? घर से काहे वास्ते नहीं?”
“घर अट्ठाइस किलोमीटर दूर। इधर से खरीदना आसान।”
“अभी शॉप्स ओपन किधर हुआ होयेंगा!”
“कुछ शॉप्स नौ तक ओपन हो जाती हैं।”
“ओके! अभी प्रॉब्लम क्या है?”
“मेरे को कज़न का साइज नहीं मालूम। खाली दो मिनट को उसका उतारा हुआ कपड़ा साइज के वास्ते देखने का।”
“मिलने का नहीं?”
“जागता होगा तो एक मिनट ‘हल्लो’ बोल लूंगा।”
“कौन है तुम्हारा पेशेंट?”
“नज़ीर। नज़ीर सैफ़ी।”
“वो अभी सोता है।”
“मैं डिस्टर्ब नहीं करूँगा।”
“बैड नम्बर ग्यारह। बैड के बाजू में एक स्टील की साइड टेबल है, उसके बाॅटम शैल्फ में है तुम्हारे पेशेंट का कपड़ा। जाके इमीजियेट करके वापिस आने का। मैं इधर बिज़ी। ज्यास्ती टेम लगाया तो गार्ड को बुलायेंगा जो तुमको जबरन बाहर करेंगा।”
“वो नौबत नहीं आयगी, मैडम। ग्यारह नम्बर बोला न!”
“हाँ। जाके आओ।”
“जाता है। अभी एक बात, खाली एक बात और। प्लीज़!”
“बोलो।”
“रात एक्सीडेंट में मेरे कज़न के साथ उसका फ्रेंड भी जख्मी हुआ था। दोनों इकट्ठे इधर पहुँचे थे . . .”
“ठीक, ठीक! वो दूसरा भीड़ू दूसरा वार्ड में है – वार्ड-बी में है – इधर एक ही बैड अवेलेबल था, इस वास्ते दूसरा भीड़ू वार्ड-बी में।”
“ओह! थैंक्यू।”
देवता दाएँ थे, एक समस्या अपने आप ही हल हो गई थी।
मोडक तत्काल हाल में बैड्स के बीच की राहदारी में आगे बढ़ा।
ग्यारह नम्बर बैड मेन डोर से काफी दूर निकली जो कि उसके लिए अच्छा ही था। फौरन वो बैड के करीब पहुँचा।
नज़ीर टोपी दीन दुनिया से बेख़बर पीठ के बल बैड पर पड़ा था। उसका जिस्म गले तक एक कम्बल से ढंका हुआ था जिसकी वजह से नहीं जाना जा सकता था कि जिस्म कैसा ठुका था, अलबत्ता सूरत पर ठुकाई के कोई प्रत्यक्ष निशान नहीं थे।
सदा-मौजूद टोपी उसके सिर पर नहीं थी, उस हाल में हो भी नहीं सकती थी, लेकिन ये हैरानी की बात थी कि उसके सिर पर भरपूर, घने बाल थे। उसकी हमेशा पीक-कैप सिर पर लगाए रखने की जिद से वो वाकिफ़ था – वो जिद उसने खेतवाड़ी में रिहायश के दौरान पकड़ ली हुई थी – लेकिन उसका ख़याल यही था कि वो गंजेपन की ओर अग्रसर होने लगा था इसलिए उसने टोपी पकड़ी थी। अब ज़ाहिर था, ऐसा कुछ नहीं था। टोपी के ज़रिए उसने स्मार्ट लगने की कोशिश की थी, फैशन किया था।
साइड टेबल के करीब एक ही स्टूल पड़ा था जिस पर बैठ कर उसने टेबल का अलमारी जैसा पट खोला। भीतर ऊपर नीचे दो शैल्फ थे। निचले शैल्फ पर, गनीमत थी कि, उसके बाकी कपड़ों के साथ उसकी टोपी मौजूद थी वर्ना उसका मिशन फेल था। उसने टोपी वहाँ से निकाली, उसे अपने सिर की टोपी से तब्दील किया और अपनी टोपी नज़ीर की टोपी की जगह रखकर, पट बंद करने ही लगा था कि . . .
“ये क्या करता है?”
एक कर्कश आवाज़ उसकी चेतना से टकराई। उसने सिर उठाया।
सफेद वर्दी, सफेद टोपीधारी एक आर्डरली उसके सिर पर खड़ा था।
“ये टेम कौन आने दिया इधर?”
पट बंद कर के मोडक उठ कर खड़ा हुआ, आर्डरली की तरफ घूमा और शांति से बोला – “मरीज के इधर पड़े कपड़ों का साइज़ चैक करता था क्योंकि नवें लाने का। गेट के करीब जो एक नम्बर बैड के करीब नर्स खड़ेली है, उसने आने दिया। अभी कोई और सवाल?”
“है कौन तुम?”
“इस मरीज का कज़न है।”
“रिश्तेदारों को शाम के टेम आने का।”
“मालूम! मालूम, मेरे बाप। पण आना जरूरी था और नर्स ने इजाज़त दी।”
“रिश्तेदार बोला? कज़न बोला?”
“हाँ।”
“हिलने का नहीं। इधर से ऐसीच दवाईयाँ चोरी होती हैं . . .”
“मैं तेरे को चोर लगता हूँ।”
“क्या पता चलता है? सूरत से! पोशाक से! क्या पता चलता है! मेरे को पेशेंट से कनफर्म करने का कि तुम उसका कज़न!”
सत्यानाश।
सब कुछ इतना अच्छा अच्छा हो गया था, अब ‌आखिरी घड़ी में फच्चर पड़ रहा था। अब जब कि उसका काम निर्विघ्न हो गया था तो उसके लिए यही मुफीद था कि टोपी को उसकी आमद की ख़बर न लगती। जो सफाई हस्पताल आने की उसने तैयार की थी, वो अगर नर्स आ जाती – आर्डरली उसको बुला लेता – तो झूठी पड़ जानी थी। आख़िर उसने ख़ुद को टोपी का कज़न बोला था जो उसके लिए नवें कपड़े लाने के लिए टोपी के उतारे कपड़ों का नाप माँगता था।
उसके पास किसी बात का माकूल जवाब न होता।
विकट स्थिति थी। गंभीर संकट की घड़ी थी।
“कैसे कनफर्म करेगा?” – मोडक हिम्मत कर के बोला।
“अभी इसको जगायेगा।” – आर्डरली बोला।
“ठीक है!” – उसने नकली दिलेरी दिखाई – “जगा!”
आर्डरली हिचकिचाया।
“मरीज़ को ऐसी नींद सिडेटिव के असर से ही आती है।” – मोडक की दिलेरी और मुखर हुई – “ऐसे मरीज़ को सोने से जगायेगा तो डॉक्टर तेरी वाट लगा देगा।”
वो और हिचकिचाया।
“फिर क्या चोरी किया मैं इधर से? तलाशी ले मेरी। ये सिक्योटिरी का काम है पण मैं तेरे को इजाज़त देता हूँ। ले तलाशी!”
“नर्स के पास चलो।” – वो निर्णायक भाव से बोला।
मोडक उसके साथ हो लिया।
नर्स तब एक नम्बर बैड से बस फ़ारिग हो ही रही थी।
“बाई” – आॅर्डरली बोला – “ये भीड़ू . . .”
“क्या है? मैं परमिशन दिया ग्यारह नम्बर बैड पर दो मिनट का वास्ते जाने का। ऐनी प्रॉब्लम?”
“कोई पिराब्लम नहीं, बाई, खाली पूछा।” – वो मोडक की तरफ घूमा – “जाओ, भई। मुलाकात के टेम पर ही आया करो।”
“ज़रूर।”
चैन की साँस लेता वो झूलते दरवाज़े से बाहर निकल गया।
मिशन अकम्पलिश्ड!
दोपहर से पहले अहसान कुर्ला अपने जोड़ीदार अनिल विनायक के साथ मैरीन ड्राइव ‘ताज ज्वेलर्स’ के भव्य शोरूम में मौजूद था।
विशाल शोरूम के एक कोने में एक केबिन था जिसमें कालसेकर बैठता था। शोरूम की ओर की केबिन की पूरी लम्बाई-चौड़ाई के साइज़ की वहाँ एक ग्लास विंडो थी जहाँ से अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर बैठे-बैठे उसे पूरे शोरूम का नज़ारा होता था। वो उधर झाँकता या न झाँकता, कर्मचारी ज़रूर अलर्ट रहते थे कि मालिक की उन पर निगाह थी।
सुपुत्र विष्‍णु कालसेकर दोपहरबाद सोकर उठता था, इसलिए दो बजे से पहले उसके शोरूम में कदम नहीं पड़ते थे।
एक चपरासी ने दोनों को मालिक के केबिन में पहुँचाया।
दोनों पूरी ढिठाई के साथ पहले विज़िटर्स चेयर्स पर ढेर हुए, फिर यूँ ‌मालिक का अभिवादन किया जैसे उस पर अहसान कर रहे हों।
कालसेकर दोनों से नावाकिफ़ था लेकिन उनका मिज़ाज अपने आप में परिचय था कि वो कौन थे। आख़िर पिछली रात की वारदात की कोई तो प्रतिक्रया सामने अानी ही थी!
“यस?” – वो भावहीन स्वर में बोला।
“मैं अहसान कुर्ला। ‘भाई’ का ख़ास।”
“कुर्ला!” – कालसेकर की भवें उठीं।
“अभी बोले तो, सब ऐसीच बोलते हैं, वैसे नाम अहसान रिज़वी।”
“हम्म!”
“मैं शिवाजी चौक चैम्बूर ट्रस्ट के ऑफ़िस का मैनेजर।”
कालसेकर ने दूसरे की तरफ देखा।
“ये अनिल विनायक। उधर मेरा जोड़ीदार।”
“अनिल चैम्बूर?”
“जोक नहीं मारने का, बाप।” – अहसान संजीदगी से बोला – “मैं सीरियस करके मैटर डिस्कस करने आया।”
“जोड़ीदार के साथ?”
“कोई ऐतराज़?”
“मानोगे?”
उसका सिर इंकार में हिला।
“तो फिर पूछा क्यों?”
वो ख़ामोश रहा।
“करो! करो डिस्कस सीरियस मैटर!”
“कल रात जो हुआ, वो ठीक नहीं हुआ।”
“क्या हुआ?”
“तुम्हेरे को नहीं मालूम?”
“देखो! सीरियस मैटर सीरियसली ही डिस्कस किया जाता है, उसे क्विज़ प्रोग्राम नहीं बनाया जाता। कोई सवाल करे तो बदले में सवाल नहीं किया जाता, सवाल का जवाब दिया जाता है।”
“कल रात नज़ीर टोपी और परेश काले तुम्हेरे बंगले से रोकड़ा लेकर निकले तो तुम्हेरे बंगले वाली रोड के बाहर ही लुटेरे पड़ गए।”
“परेश काले कौन?”
“टोपी का जोड़ीदार।”
“मेरे पास तो एक ही जना आया था जो पैसा लेकर गया था। टोपी बोला जिसको।”
“दूसरा बार खड़ेला था।”
“कोई बाहर था तो सही आउटर गेट पर लेकिन मेरे को नहीं मालूम था कि वो टोपी के साथ था!”
“टोपी के साथ था।”
“नाम परेश काले?”
“हाँ।”
“हुआ क्या? तुमने बोला लुटेरे पड़ गए। कहीं वो पैसा ही तो नहीं लूट लिया जो मेरे से वसूल . . . लेकर गए थे?”
“यहीच हुआ।”
“बुरा हुआ।”
“जो तुम्हेरे मगज में है, उससे ज़्यादा बुरा हुआ।”
“अच्छा!”
“दोनों को लूटा ही न गया, बुरी तरह से मार भी लगाई गई। अभी लम्बा टेम बैड पर रहने का दोनों को।”
“कमाल है! सर्वशक्तिमान ‘भाई’ के आदमी मार खा गए! वो भी बुरी तरह से!”
“मज़ाक नहीं, बाप, तंज़ नहीं। क्या!”
कालसेकर ख़ामोश हो गया।
“जो हुआ, हैरान कर देने वाला हुआ। किसी को कैसे मालूम था, उनके पास लूटने लायक रोकड़ा था?”
“कैसे मालूम था?”
“अभी तुम मेरे को टोका कि मैं सवाल के बदले सवाल करता था। ये टेम तुम क्या करता है?”
“सॉरी! मैं सवाल नहीं कर रहा था, हैरानी ज़ाहिर कर रहा था।”
“जब खुफ़िया करके रोकड़े का कोई लेन-देन होता है तो उसकी ख़बर या लेने वाले को होती है या देने वाले को। किसी तीसरे को खुफ़िया लेन-देन की ख़बर नहीं हो सकती थी, फिर भी ख़बर थी। कैसे थी?”
“मैं क्या बोलूं? तुम बोलो।”
“लेने वालों से ख़बर आउट नहीं हो सकती थी। अगर उन्होंने ख़बर आउट की होती – जो कि नामुमकिन था – तो उनको इतनी मार लगाई जाने का कोई मकसद नहीं था।”
“क्या कहना चाहते हो, भई?” – कालसेकर का लहज़ा तीखा हुआ – “मैंने ख़बर आउट की?”
“अब . . . क्या बोले मैं?”
“क्यों नहीं बोले? बोलो कि मैंने एक हाथ से पैैसा दिया और दूसरे से वापिस झपट लिया! मेरे में ऐसा हौसला होता, मेरे पास ऐसी सलाहियात होतीं तो ये काम मैंने पहली बार ही किया होता। तो मैंने अपने शोरूम का ही कचरा न होने दिया होता। मैंने कल रात बिना किसी हुज्जत के, पूरे आदर-मान के साथ तुम्हारे आदमी को – तुम्हारे टोपी को – पैसा दे के भेजा। वो ठोका ही तो गया, मर तो नहीं गया, पूछो उससे, कहलवाओ उससे कि उनको लूट लिए जाने का इन्तज़ाम मैंने किया था।”
“ऐसा तो . . . उन दोनों में से कोई नहीं बोला!”
“फिर भी शोरूम खुलते ही यहाँ हो! क्यों भला?”
“शायद . . . शायद किसी ने बंगले में तुम्हेरी और टोपी की गुफ़्तगू सुनी हो!”
“किसी ने नहीं सुनी। कोई था ही नहीं वहाँ।”
“नौकर-चाकर?”
“तुम्हारे आदमी के इन्तज़ार में पहले ही सबको सोने भेज दिया था। और कोई भी बंगले में नहीं होता। बैकयार्ड में उनके लिए अलग क्वार्टर हैं जहाँ से बुलाए बिना बंगले में आना मना है।”
“तुम्हेरा फरजन्द?”
“मेरा क्या?”
“बेटा। है न एक!”
“वो अभी घर नहीं लौटा था। इसीलिए बंगले का आउटर गेट खुला था। और ये बात तुम्हारे टोपी को मालूम थी क्योंकि मैंने ही बोला था कि बेटे के लौटने तक आउटर गेट लॉक नहीं होता था। पूछना टोपी से।”
“अभी बोले तो मुमकिन नहीं कि गुफ़्तगू की किसी को भनक लग गई हो!”
“कतई मुमकिन नहीं।”
“हूँ।”
“गुफ़्तगू की भनक लगना तो दूर, किसी को बंगले में उसकी आमद की ही भनक नहीं लगी थी। बंगले में बजती कालबैल बैकयार्ड में सर्वेंट्स क्वार्टर्स में नहीं सुनाई देती और तुम्हारे आदमी को कालबैल के जवाब में दरवाज़ा ख़ुद मैंने खोला था और उसको रुख़सत करके मैंने ही बन्द किया था।”
“हूँ।”
“क्या हूँ?”
“अभी सुनता है न?”
“सुनते हो पर समझते नहीं हो। समझते नहीं हो कि जिस शख़्स का तुम लोगों ने पलक झपकते दो करोड़ का नुकसान कर दिया हो, वो तुमसे, तुम्हारे ‘भाई’ से बाहर नहीं जा सकता। जैसी सोच-समझ के साथ तुम यहाँ आए हो, वैसे ख़ुद क्यों मैं अपने लिए मुसीबत बुलाऊंगा? मैं ऐसा कुछ करने की नादानी करूँगा तो जैसे एक बार मेरे शोरूम का कचरा किया, वैसे फिर कर दोगे। दूसरी बार शोरूम का क्या, मेरा ही कचरा कर दोगे। शोरूम के कचरे के बीच मेरी लाश पड़ी होगी।”
“भाव नहीं खाने का, बाप, बोले तो . . .”
“क्यों भाव नहीं खाने का? तुम इधर चोर बहकाने आए। कहो कि मैं गलत बोला?”
तनिक विचलित लगने लगा अहसान ख़ामोश रहा।
“तुम नहीं बोल सकते तो मैं बोलता हूँ। सुनो गौर से। तुम्हारा इस बात पर बड़ा ज़ोर था कि जब रोकड़े का कोई सीक्रेट लेन-देन होता था तो उसकी ख़बर या लेने वाले को होती थी या देने वाले को। मैं तुम्हारी जगह होता तो मेरा फोकस देने वाले पर नहीं, लेने वाले पर होता।”
“क्या बोला?”
“दो मामूली टपोरी लोगों के, तुम लोगों के प्यादों के हाथ में रोकड़ा आ गया तो हज़म करने की तरकीब सोच ली, ख़ुद एक-दूसरे को मार लगाई – एहतियात से मार लगाई कि कोई गंभीर चोट न लगे – बोल दिया रोकड़ा लुट गया और ख़ुद हड़प लिया।”
“क्या बात करता है, बाप!” – अहसान आवेश से बोला – “वो दोनों परखे हुए भीड़ू!”
“हंह!” – कालसेकर के स्वर में तिरस्कार का पुट आया।
“दो बार पहले भी तो उन्होंने ये काम किया! तब तो नीयत मैली न की!”
“हिम्मत आते-आते आती है, भई। पहले अमानत में खयानत करने की हिम्मत न हुई, अब हो गई! पहली दो बार हालात को जांचा-परखा, तीसरी बार एक्ट किया।”
“हूँ। बोले तो रकम . . . कोई इतनी बड़ी तो न थी!”
“छोटी भी नहीं थी। दोनों से दरयाफ्त करना कि ईमानदारी से, मेहनत से बीस लाख रुपया कमाना हो तो कितना टाइम दरकार होगा!”
“बाप, तुम तो मेरे को फि़कर में डालता है!”
“क्यों फिक्र करते हो! मेरे पर इलज़ाम लगाती उंगली उठाकर फ़ारिग हो तो चुके अपनी फिक्र से!”
“मैं” – अहसान एकाएक उठ खड़ा हुआ – “उन दोनों से बात करेगा।”
“क्या बात करोगे? मातहतों का हालचाल पूछोगे?”
“यही करने का। पण ऐसे तरीके से करने का जैसे मैं ही कर सकता है।”
“करना। यही हकीकत सामने आएगी कि नीयत मैली की, एक-दूसरे को ख़ुद ठोक दिया।”
“ऐसा न निकला तो?”
“तो मैं सॉरी के साथ बोलूँगा कि मेरा अन्दाज़ा ग़लत था। सच में ही उन्हें लुटेरे पड़ गए थे – ऐसे लुटेरे पड़ गए थे जिन्हें किसी तरीके से रकम के लेन-देन की भनक पड़ गई थी। बाई दि वे” – कालसेकर एक क्षण ठिठका, फिर आगे बढ़ा – “कोई नशा-पानी का शौक रखते थे?”
“घूंट लगाते थे। सब लगाते हैं।”
“और लगा कर लापरवाह हो जाते हैं! जुबान काबू में नहीं रख पाते! ओके?”
“मैं ख़याल रखूँगा इस बात का भी। अभी टेम देने का शु‌क्रिया।”
“मेरे बारे में भी तो कुछ फ़ाइनल करके बोल के जाओ!”
“लगता नहीं, बाप, कि तुम कुछ किया पण पूछना फिर भी ज़रूरी था।”
तब तक उसका जोड़ीदार भी उठ खड़ा हुआ था।
“एक बात बताके जाओ।” – कालसेकर जल्दी से बोला – “जुदा किस्म की बात!”
“बोलो, बाप।”
“तुम्हारा साथी गूँगा है?”
“गूँगा! नहीं तो!”
“जब से आया, एक लफ़्ज़ नहीं बोला, इसलिए लगा।”
“बोल के दिखा, भई!”
“‌थैंक्यू, सर!” – अनिल विनायक अदब से बोला – “थैंक्यू फ़ॉर रिसीविंग अस।”
कालसेकर को सख़्त हैरानी हुई – मवाली का फै़लो-मवाली अंग्रेजी बोलता था।
दोनों रुख़सत हो गए।
पीछे ज्वेलर कितनी ही देर चेहरे पर अत्यंत चिंता के भाव लिए ख़ामोश बैठा रहा।
एक ही सोच उस घड़ी उसे सता रही थी :
क्या कल उसने ठीक फैसला किया था?
दोनों जोड़ीदार शोरूम से बाहर निकले तो वैगन-आर में मौजूद प्यादे ने, जो कि उस घड़ी ड्राइवर की ड्यूटी पर था, गाड़ी शोरूम के सामने ला खड़ी की।
प्यादे का नाम हनीफ़ गोगा था।
वो वही वैगन-आर थी जो पिछले रोज़ टोपी और काले के कब्ज़े में थी।
दोनों उसकी पिछली सीट पर सवार हुए।
“किधर चलें, बाप?” – हनीफ़ गोगा बोला।
“अभी शिवा जी चौक ही चल।” – अहसान बोला – “आगे से यू-टर्न लेने का।”
“मालूम, बाप।”
“और गाड़ी उड़ाने का नहीं। मेरे को इधर पीछू बात करने का इम्पॉर्टेंट कर के।”
“गाड़ी चलती मालूम भी नहीं पड़ेगी। देखना, बाप।”
“बढ़िया।”
गाड़ी आगे सड़क पर दौड़ चली, उसने वापिसी के लिए यू-टर्न भी ले लिया तो तब जाके पहले अहसान ने मुँह खोला।
“क्या ख़याल है?” – वो बोला।
“मेरे से पूछता है?” – अनिल विनायक तनिक हड़बड़ाया।
“नहीं। हनीफ़ से पूछता है।”
“सॉरी!”
“हो लिया न! अभी बोल, क्या ख़याल है?”
“है तो सही ख़याल!”
“क्या? बोल?”
“मेरे को ज्वेलर का सरकाया आइडिया नहीं जमता।”
“ ‘माल ख़ुद हड़प लिया, एक-दूसरे को ख़ुद ठोक दिया’ वाला?”
“हाँ। टोपी पुराना, परखा हुआ भीड़ू है . . .”
“बरोबर। पण काले नवां भीड़ू है।”
“नवें भीड़ू की टोपी से बाहर जाने की मजाल नहीं हो सकती।”
“टोपी की तो लालच में आकर नवें भीड़ू को अपने जैसा बनाने की, अपनी तरफ करने की मजाल हो सकती है!”
“मेरे को नहीं जमता।”
“खुलासा कर।”
“देख, जब एक जने के कब्ज़े में होता है, तो राज़ राज़ होता है लेकिन जब दो जनों के कब्ज़े में आ जाता है तो वो राज़ नहीं रहता, दो से ज़्यादा जने जान जाएं तो वो पब्लिक प्रॉपर्टी बन जाता है। जैसे काम को कल रात अंजाम दिया जाना था, वैसे वो दो जनों के सुपुर्द किया ही इसलिए जाता है कि एक जना दूसरे जने का निगहबान रहे। किसी एक के मन में कोई फसादी ख़याल आए तो उसे हमेशा अन्देशा सताए कि दूसरा उसके खिलाफ गवाह बन जाएगा।”
“दोनों एक हो जाएं तो?”
“तो वो बन्द पैकेट ला के तेरे सुपुर्द करते, तू पैकेट खोलता तो मालूम पड़ता कि भीतर नोट नहीं थे, रद्दी कागज थे। यूँ ब्लेम ज्वेलर पर शिफ़्ट होता जिसने रकम की अदायगी में खुफ़ियापन्ती की थी लेकिन जिसका दावा होता कि हरकारों ने पैकेट बदल दिया या पैकेट का सामान बदल दिया। इस स्टोरी में तब टोपी और काले की ठुकाई हुई होने का कोई रोल नहीं होता।”
“हूँ।”
“जैसे उन्हें ठोका गया है, वैसे कोई एक-दूसरे को नहीं ठोक सकता। उनके जैसी ठुकाई उनकी कोई बाहरी लोग ही कर सकते थे जिनको इस बात की कोई परवाह करने की ज़रूरत न होती कि उनकी क्या गत बनती।”
“अगर तेरे को ये बात जँचती है तो इसका तो मतलब ये बना कि तू मानता ‌है कि लुटेरे पड़े!”
“हाँ। लेकिन वैसे लुटेरे न पड़े जिनका ख़याल तेरे ज़ेहन में है।”
“और कैसे लुटेरे?”
“उन भीड़ू लोगों को याद कर जो कुछ दिन पहले एक दिन एकाएक शिवाजी चौक पहुँचे थे और उन्होंने ट्रस्ट के ऑफ़िस पर अन्‍धाधुन्‍ध ई ंट पत्‍थर बरसाने शुरू कर दिए थे।”
“क्या याद करूँ? बहुत ज्यास्ती नुकसान कर गए थे साले भड़वे लेकिन ढेर मार खाई थी।”
“ये याद कर कि उन्हें पुलिस पकड़ कर तो ले गई थी लेकिन उनके खिलाफ कोई केस नहीं बना था क्योंकि किसी ने एफ़आईआर दर्ज कराने की ज़हमत नहीं की थी। नतीजतन चारों को ही डरा-धमका कर अगले दिन छोड़ दिया गया था।”
“आगे बोल।”
“आगे मेरा सवाल ये है कि जिन भीड़ूओं ने इतना बड़ा हौसला किया, दिन- दहाड़े पत्‍थरबाज़ी पर उतर आए – भले ही मंशा अपनी करतूत को अंजाम दे कर भाग निकलने की थी जो कामयाब न हो सकी – क्या नहीं हो सकता कि आसानी से छूट गए होने की वजह से वो शेर हो गए हों और अब चार से चालीस हो गए हों!”
“क्या बात करता है!”
“पहले जब फरियादियों की फरियाद सुनने के लिए हम तीन जने बैठते थे तो मैंने इस बात पर उंगली उठाई थी कि फरियादियों के साथ हम बहुत गलत और नाजायज़़ तरीके से पेश आते थे लेकिन मेरी बात किसी ने नहीं सुनी थी, हमारा दुत्कार जैसा व्यवहार फरियादियों के लिए जारी रहा था। अहसान भाई, दुत्कारे जाने पर तो कुत्ता वापिस काटने को दौड़ता है, वो लोग तो फिर आदमी थे – कुछ तो इज्जतदार आदमी थे!”
“तेरा मतलब है वारदात ऐसे भीड़ू लोगों ने की?”
“हाँ। मेरे को यही जमता है। वो मार खाए लोग थे, इसी वजह से उन्होंने टोपी और काले से रोकड़ा ही न लूटा, बदले की भावना से प्रेरित होकर, बेतहाशा भड़क कर करारी मार भी लगाई। किन्हीं और लोगों का वो काम होता तो वो माल लूट कर चलते बने होते।”
“ऐसे भीड़ू लोगों ने”– अहसान मंत्रमुग्‍ध स्वर में बोला – “कोई बड़ा गंठजोड़ खड़ा कर लिया?”
“क्या बड़ी बात है! भड़के हुए लोग बराबर ऐसा कर सकते हैं।”
“कर सकते हैं तो कर सकते होंगे पण मुकाबला नहीं कर सकते – भले ही चार से चालीस हो गए हों, चार सौ हो गए हों।”
“सरपरस्ती हासिल हो जाए तो कर सकते हैं।”
“सरपरस्ती! किसकी?”
“किसी ‘भाई’ की।”
“नहीं हो सकता। ‘भाई’ की, बोले तो हमेरे टॉप बॉस की किसी लोकल ‘भाई’ से कोई अदावत नहीं। क्या अमर नायक, क्या बहरामजी कान्ट्रैक्टर, क्या कोई और, सबसे हमारे टॉप बॉस के अच्छे ताल्लुकात हैं, ऐसे चिन्दीचोरों को – भले ही वो चालीस हों, चार सौ हों – नहीं ‌हासिल हो सकती कहीं से भी सरपरस्ती।”
“तो समझ ले उन्होंने ख़ुद अपनी ताकत बना ली, इतनी ताकत बना ली कि शाह की मूँछ का बाल उखाड़ने का हौसला हो गया।”
“यार, यकीन नहीं आता।”
“यकीन नहीं आता तो बता किन लोगों ने कल रात की लूट वाली गुस्ताख हरकत को अंजाम दिया और कैसे उन्हें ख़बर लगी कि कहाँ स्ट्राइक करना था, कब स्ट्राइक करना था।”
“ये दूसरी बात ही तो है जो मुझे हैरान कर रही है।”
“टोपी और काले की जरा हालत सुधरने दे, एक-दो दिन बाद वो ही बोलेंगे कुछ इस बाबत।”
“हूँ। तो अब हम ट्रस्ट से खफ़ा फरियादियों के मुकाबिल हैं!”
“हो सकता है। और तो कोई ऐसी मुखालफत में आन खड़ा होने वाला दिखाई नहीं देता!”
“ख़बर कैसे लगे उनको?”
“कोई ज़्यादा मुश्किल काम नहीं है। तब के आस-पास के फरियादियों के सारे फॉर्म जांचने पड़ेंगे जब कि ट्रस्ट के ऑफ़िस पर पत्‍थरबाज़ी हुई थी।”
“बात तो तेरी ठीक है! जैसे परसों एक फर्ज़ी फरियादी आ गया, वैसे वो पुराने फरियादी भी तो फर्ज़ी नहीं होंगे!”
“कैसे होंगे। फर्ज़ी होते तो यूँ भड़क के दिखाते?”
“ठीक!”
“अहसान भाई, पत्‍थरबाज़ों जैसों में से किसी एक भीड़ू का भी सुराग हमें मिल जाएगा तो बाकियों की बाबत तो तुम उसी से सब कुबुलवा लोगे। क्या?”
“बरोबर!”
बाकी का रास्ता ख़ामोशी से कटा।
शाम को इरफ़ान विमल के रूबरू हुआ।
सुबह हस्पताल में मंगेश मोडक ने अपने काम को कैसे कामयाबी से अंजाम दिया था, विमल को पहले से ख़बर थी।
“छोटी-मोटी बात ही पकड़ में आई है” – इरफ़ान बोला – “सोचा, बोल दूँ।”
“ठीक सोचा।” – विमल बोला – “बोल।”
“अहसान कुर्ला के अलावा जो दूसरी तस्‍वीर तूने हमें दिखाई थी वो अहसान का चूना-भट्टी के टेम से वाकिफ़ चिकना अनिल विनायक ही था। पन्द्रह साल होने को आए, दोनों की आज भी दांत काटी रोटी है।”
“होता है। पुरानी दोस्तियां यूँ ही पुख्ता होती हैं।”
“दोनों की ही मौजूदा रिहायश चैम्बूर में है लेकिन इकट्ठे नहीं रहते।”
विमल की भवें उठीं।
“अहसान फ़ैमिली मैन है – बीवी है, दो जुड़वां लड़कियाँ हैं जो आठ साल की हैं, स्कूल जाती हैं, तीसरी जमात में हैं।”
“मवाली लोग तो परिवार को साथ नहीं रखते!”
“इसका भी आता-जाता रहता होगा, अभी इधरीच है।”
“हूँ।”
“अहसान वैभवनगर में गगन अपार्टमेंट्स के एक फ्लैट में रहता है। चिकना अमीर बाग के एक मकान के एक पोर्शन में किराए पर रहता है। ये हैं उन दोनों के मुकम्मल पते।”
इरफ़ान ने उसे कागज का एक पुर्ज़ा थमाया।
विमल ने उस पर एक निगाह डाली, फिर दोहरा करके जेब में रख लिया।
“अहसान कुर्ला की” – इरफ़ान आगे बढ़ा – “गैंग में अच्छी हैसियत बताई जाती है जो इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि वैभव नगर के अपने दो कमरे के फ़ैंसी फ्लैट में ठाठ से रहता है। चिकना अकेला रहता है इसलिए उसके कोई ठाठ मुझे नहीं दिखाई दिए। वैसे भी गैंग में उसकी वो हैसियत नहीं है जो उसके जोड़ीदार की है, वो तो अहसान के अन्डर में चलने वाला भीड़ू जान पड़ता है!”
“लेकिन शिवाजी चौक पर ट्रस्ट के कामकाज में हाजिरी अच्छी भरता है।”
“इसी बात की उसको तनखाह मिलती है रेगुलर करके। फिर ये बात भी उसके हक में है कि पढ़ा-लिखा है।”
“तरक्की करेगा भाईगिरी में!”
“अहसान की छत्रछाया से निकलेगा तो तभी कुछ कर पाएगा और मेरे को लगता है कि ऐसा कभी नहीं हो पाएगा। उसे अहसान के अंडर में चलना पसन्द।”
“और?”
“अहसान शिवाजी चौक के ट्रस्ट वाले सैटअप का पूरी तरह से इंचार्ज है पण अपने से ऊपर एक भीड़ू को रिपोर्ट करता है जिसका नाम कुबेर पुजारी है। ये पुजारी कभी घाटकोपर का मामूली दादा होता था लेकिन फिर किसी तरह से ‘भाई’ सलमान गाजी की निगाह में चढ़ गया और आनन-फानन इम्पॉर्टेंट करके भीड़ू बन गया। फिर सलमान गाजी ने भाईगिरी छोड़ दी तो कोई और गैंग जायन किया। अभी उस ‘कोई और गैंग’ में ही फिट है और उधर ऐसी हैसियत में है कि अहसान कुर्ला उसको रिपोर्ट करता है, उसका बॉस है बोले तो।”
“बॉस – कुबेर पुजारी – कहाँ पाया जाता है?”
“वरली में कहीं रहता है। पता अभी नहीं मालूम।”
“ओह!”
“लेकिन मालूम होगा। ये कोई बड़ा राज़ नहीं।”
“कोई मेल-मुलाकात ज़रूरी लगे तो घर पर ही करता होगा?”
“कर सकता है। किसी को घर पर तलब करे तो कोई आने से मना थोड़े ही कर देगा!”
“ठीक!”
“फिर शिवाजी चौक वाला ट्रस्ट का ऑफ़िस तो है ही। बाप, तूने उस ऑफ़िस का फ़्रंट ही देखा, बोले तो उससे तीन गुणा ज्यास्ती जगह उस ऑफ़िस के बैक में है जिसका अलग से रास्ता बैक से भी है। क्या पता मेल-मुलाकात के लिए या मातहतों से मिलने के लिए, कामकाज की रिपोर्ट हासिल करने के लिए वो उधर कहीं बैठता हो!”
“हो सकता है। बॉस है, कहीं भी उठ-बैठ सकता है।”
“यहीच बोला मैं।”
“उसके ऊपर कौन है?”
“मालूम नहीं।”
“कौन है या कौन-कौन हैं?”
“नहीं मालूम। पण ये कोई छुपने वाली बात नहीं, कोशिश करेंगे तो मालूम पड़ जाएगी।”
“गैंग के टॉप बॉस की ख़बर लगनी चाहिए।”
“लगेगी। लगेगी।”
“कोई भेदिया फोड़ने की कोशिश नहीं कर सकते?”
“बाप, की कोशिश। कामयाब भी हुई। लेकिन वो कोशिश बहुत निचले लैवल की है।”
“मतलब?”
“प्यादा है। उसकी ऊँची-ऊँची बातों की जानकारी रखने लायक औकात नहीं।”
“फिर किस काम का हुआ?”
“हुआ न!”
“अच्छा, हुआ?”
“हाँ, सुन। वो क्या है कि शिवाजी चौक वाले ट्रस्ट के इंचार्ज दोनों खलीफ़ा – अहसान कुर्ला और अनिल विनायक – आज सुबह मैरीन ड्राइव ज्वेलर कालसेकर के शोरूम पर पहुँचे थे और आधा घंटा वहाँ टिके थे। जिस प्यादे का अभी मैं ज़िक्र किया, उसका नाम हनीफ़ गोगा है और सुबह वो उन दोनों को वैगन-आर पर ड्राइव करता था।”
“हमारी पहचानी वैगन-आर पर?”
“बरोबर।”
“आगे।”
“भीतर शोरूम में क्या हुआ, बाहर गाड़ी में बैठेला डिरेवर नहीं जान सकता था पण जब वो दोनों बाहर निकले, गाड़ी में सवार होकर वहाँ से रवाना हो चले तो, गाड़ी ड्राइव करता हमेरा भीड़ू बोलता है कि, भीतर ज्वेलर से जो मीटिंग हुई, उसकी बाबत बतियाते रहे, उस पर तबसरा करते रहे। डिरेवर हनीफ़ गोगा बोलता है कि वापिसी के आधे से ज़्यादा रास्ते उन दोनों में बहसबाज़ी चली कि पिछली रात की लूट की वारदात किसका कारनामा हो सकती थी। बाप, सुनने लायक बात है कि – बकौल हनीफ़ गोगा – कालसेकर बोलता था कि लूट जैसा कोई वाकया नहीं हुआ था, रोकड़ा ले के जाने वाले रोकड़ा – बीस पेटी – ख़ुद हज़्म कर गए थे और ख़ुद उन्होंने एक-दूसरे को ठोका था जिससे लगता कि लुटेरों से ठुके थे। बाप, अहसान कुर्ला का ख़ास जोड़ीदार चिकना अनिल उस बात के हक में नहीं था।”
“वो क्या कहता था?”
“सुन। मैं शनिवार को तेरे को चार नाउम्मीद फरियादियों के बारे में बोला था जिनकी उधर ट्रस्ट के ऑफ़िस में इतनी दुर्गत की गई थी कि उन्हें हज़्म नहीं हो सकी थी। नतीजतन उन्होंने ट्रस्ट के ऑफ़िस पर हमला कर दिया था। उन्होंने वहाँ ऑफ़िस का बहुत नुकसान किया था लेकिन उनका ख़ुद का भी बहुत बुरा हाल हुआ था। वहाँ के प्यादों ने उन्हें बुरी तरह से धुना था और पुलिस के हवाले भी किया था। बाप, अभी छोटा खलीफ़ा चिकना अनिल बोलता है कि उन पत्‍थरबाज़ों ने एकजुट होकर गैंग खड़ा कर लिया था, गैंग के लिए शिवाजी चौक वालों के मुखालिफ किसी ‘भाई’ की सरपरस्ती हासिल कर ली थी और कल रात वाली वारदात अपनी दुर्गत का बदला लेने के लिए उन पत्‍थरबाज़ों ने की थी।”
“जब कि ये बात बेबुनियाद है!”
“हमेरे को मालूम है न! उन्हें क्या मालूम! हनीफ़ गोगा कहता है कि चिकने अनिल की पूरी-पूरी जिद थी कि ये काम पत्‍थरबाज़ों का था जिन्होंने हाल में अपनी इतनी ताकत बना ली थी कि उनमें कल रात वाली वारदात करने का दम आ गया था। अभी बोले तो उनका सारा फोकस पत्‍थरबाज़ों पर है।”
“ये तो अच्छी ख़बर है! हमारी हरकतों का फोकस कहीं और बने, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है!”
“बरोबर बोला, बाप, पण कहीं गरीबमार न हो जाए!”
“देखेंगे। अभी हमारे पास उधर की ख़बर का जरिया है। ऐसा कुछ होता दिखाई देगा तो कोई ऐसा कदम उठाएँगे जो गरीबमार के ख‌िलाफ हो।”
“ठीक!”
“और?”
“और जेकब परेरा करके एक भीड़ू की ख़बर लगी है जो कि स्टीवन फेरा का ख़ास लेफ्टीनेंट बताया जाता था फेरा की लाइफ़ में। शोहाब उसको हैंडल करेगा और मालूम करेगा कि फेरा ख़ुद ही बिग बॉस था, ‘भाई’ था या किसी ‘भाई’ का ख़ास था।”
“बढ़िया।”
“अब एक ख़ास बात सुन जिसका ज़िक्र मैंने आख़िर के लिए बचा कर रखा।”
“सुना।”
“बान्द्रा में हिल रोड पर एक नाइट क्लब है, नाम है शंघाई मून।”
“एक फिल्म का नाम है ‘शंघाई नून’। टीवी पर देखी मैंने।”
“मैं ‘मून’ बोला, बाप।”
“ओह, सॉरी! ‘शंघाई मून’। आगे बोल।”
“वो बहुत फ़ैंसी, बहुत फूं फां वाला नाइट क्लब बताया जाता है। दाखिले की फीस ही हज़ार रुपिया है।”
“ऐन्ट्री चार्जिज़!”
“वही बोलते होंगे! सुना है रात नौ बजे से सुबह चार बजे तक खुलता है।”
“इतनी देर तक?”
“बरोबर।”
“पर कानूनन इजाज़त तो, सुना है, दो बजे तक होती है!”
“‘सुना है’ बोला न! ऐसी कानूनी पाबन्दियां सुनने-सुनाने के वास्ते ही होती हैं, अमल करने के वास्ते नहीं होतीं। ख़ासतौर से तब जबकि ऐसे ठीये का मालिक कोई ‘भाई’ बताया जाता हो।”
“ओके! ओके! पर मेरे को बता रहा है उस नाइट क्लब के बारे में तो वजह बोल!”
“उस नाइट क्लब का मालिक वो ‘भाई’ हो सकता है जो शिवाजी चौक वाले ट्रस्ट को कन्ट्रोल करता है, जो ट्रस्ट के नाम पर बड़े कारोबारियों से जबरन चन्दा वसूल करवाता है और जो अहसान कुर्ला, अनिल विनायक, कुबेर पुजारी जैसे अल्लामारों का बाप है।”
“बॉस है!”
“एकीच बात।”
“हो सकता है, बोला! गारन्टी कोई नहीं?”
“न! गारन्टी कोई नहीं।”
“न ही ये मालूम कि वो ‘भाई’ असल में कौन है?”
“अभी . . . अभी नहीं मालूम पड़ा।”
“हूँ। ऐसे क्लब का मोटा खर्चा अफ़ोर्ड करने का कोई इन्तज़ाम है?”
“है।”
“दो जनों का?”
“वो भी। जब चार करोड़ का घड़ा खाली होने पर आया था तो बिल्कुल ही खाली नहीं हो गया था!”
“ओह!”
“हो भी जाए तो वान्दा नहीं। इन्तज़ाम है। जरिया है।”
“क्या?”
“बोलेगा, बाप।”
“वसूली के अलावा?”
“बाप, पहले कभी इधर किया कोई वसूली? किसी को ख़याल भी आया? तेरे को? तुका को?”
“सॉरी!”
“दो जने बोला! एक तो बोले तो तू ख़ुद, बाप, दूसरा कौन?”
“दूसरे जनाब, मोहतरम इरफ़ान अहमद खान चंगेज़ी।”
“अरे, बाप, मैं बोला वो बहुत फैं़सी, बहुत फूं फां वाला ठीया!”
“आज रात हम भी बहुत फैं़सी, बहुत फूं फां वाले। तेरा वो काला सूट कहाँ है जिसे पहन कर तू वैभवी के साथ ‘जैकपॉट’ गया था? महफूज़ है अभी?”
“है न, बाप!” – इरफ़ान उत्साह से बोला।
“शाहज़ादा गुलफ़ाम लगता था वैभवी जैसी परम सुन्दरी की सोहबत में।”
“पहली बार सूट पहना था, बाप! बो करके जो टाई होती है, वो लगाई थी।”
“आज रात हमने ऐसे ही हैसियत बना कर ‘शंघाई मून’ की पैट्रनेज़ का लुत्फ़ उठाना है। ओके।”
“हज़ार बार ओके, बाप, पण तेरे पास काला सूट किधर है? पहले था, मेरे को मालूम, पण अब किधर है?”
“हो जाएगा। रात होने में अभी बहुत टाइम बाकी है।”
“ओह! हो जाएगा।”
“और?”
“और एक बात है जिसका खाली इशारा ही मैं तेरे को दे सकता है, तफ़सील से शोहाब बोलेगा।”
“ओके!”
“ज्वेलर कालसेकर जैसे दो और बड़े कारोबारी कालसेकर की तरह हमारा साथ देने को तैयार हैं।”
“गुड! कौन हैं वो?”
“एक फिल्मों का भीड़ू है जो नवीं फिल्मों को सिनेमाओं में चलाने का कारोबार करता है।”
“फिल्म ‌डिस्ट्रीब्यूटर?”
“वही। नाम माधव मेहता। रिहायश सूर्या अपार्टमेंट्स, लोखंडवाला कम्पलैक्स, अन्‍धेरी वैस्ट। ऑफ़िस तारदेव एयरकंडीशंड मार्केट, तारदेव।”
विमल पहले मिले पुर्जे की पीठ पर ही सब नोट करता जा रहा था।
“दूसरे का नाम हीरा करलानी है। अन्‍धेरी में कारों का शोरूम है। अन्‍धेरी में ही रिहायश है। पता है, आदर्श अपार्टमेंट्स, लोखंडवाला कम्पलैक्स, अन्‍धेरी वैस्ट।”
“पड़ोसी हैं क्या?”
“ज़रूरी नहीं। तेरे को मालूम लोखंडवाला बड़ा कम्पलैक्स। बोले तो मालूम करूँ?”
“कोई ज़रूरत नहीं। ज़रूरत पड़ेगी तो देखेंगे।”
“बरोबर।”
“अभी डिमाँड हुई?”
“नहीं। लेकिन पिछले रिकॉर्ड के हवाले से दोनों ही बोलते हैं कि किसी भी दिन हो सकती है।”
“पिछली बार बड़ा सवाल खड़ा हो गया था कि किसी को – हमें – कालसेकर और वसूली करने वालों के बीच लेन-देन की ख़बर कैसे लगी थी? इस ऑब्जेक्‍शन को हमने बाज़रिया मंगेश मोडक टोपी की टोपी बदल कर कवर किया था। लेकिन जो किया था, वारदात के बाद किया था, इस बात की किसी को ख़बर लगने की उम्मीद तो नहीं ‌लेकिन लग सकती है। आइन्दा हमें ऐसा इन्तज़ाम वारदात से पहले करना होगा।”
“कैसे?”
विमल ने बताया।