"म्याऊं ।"
बोलने के साथ ही बिल्ली ने उसके कंधे पर पंजा मारा ।
खुद को हालातों के हवाले किए देवराज चौहान पुनः आगे बढ़ने लगा । अब उसे इतना तो एहसास हो गया था कि कंधे पर बैठी बिल्ली, सामान्य न होकर, कई शक्तियों की मालिक है । मन में उत्सुकता उभर आई कि बिल्ली को हकीकत जानने के लिए, लेकिन उसके सवालों का जवाब देने वाला कोई नहीं था और बिल्ली कुछ बोल पाने में असमर्थ थी।
देवराज चौहान का आगे बढ़ना जारी रहा। सीढियां नीचे और नीचे जाती जा रही थी । अब उसे थकान सी महसूस होने लगी थी। मन में यही विचार करता कि कुछ और आगे जाने के बाद आराम करेगा । भूख और प्यास सी महसूस हो रही थी । परंतु सीढ़ियां उतरना उसने जारी रखा ।
काली बिल्ली बेहद शांत अवस्था में उसके कंधे पर बैठी थी।
आधे घंटे बाद वो सीढ़ियां एक दरवाजे पर समाप्त होती नजर आई । वो दरवाजा दो पल्लों वाला था और उस पर सोने के से नक्काशी की गई थी। दूर से ही देवराज चौहान ने पहचान लिया था कि नक्काशी वाली जो धातु चमक रही है, वो शुद्ध सोना है । दरवाजा वास्तव में बहुत शानदार था ।
आखिरी सीढ़ी, यानी कि दरवाजे के समीप पहुंचकर देवराज चौहान ठिठका ।
"म्याऊं ।"
उसे रुकते पाकर बिल्ली के होठों से आवाज निकली ।
देवराज चौहान समझ गया कि बिल्ली उसे दरवाजा खोलने के लिए कह रही है और कोई रास्ता भी नहीं था आगे जाने को । दरवाजा तो उसे खोलना ही था। ।
देवराज चौहान ने दरवाजा खोला और एक कदम उठाकर भीतर प्रवेश किया और कमरे के दृश्य को हैरानी भरी निगाहों से देखने लगा ।
कमरे के बीचो-बीच खाने का टेबल सजा पड़ा था। जहां एक ही कुर्सी मौजूद थी । दीवारों पर तरह-तरह का सजावटी सामान नजर आ रहा था । हैरानी का सबसे बड़ा झटका तो उसे तब लगा जब उसने कमरे में हू-ब-हू अपने चेहरे वाले बुत को देखा । लाली लिए, पत्थर से बना हुआ था उसका बुत । ठीक उसके कद-काठी के समान । ऊंचाई- लंबाईचौड़ाई में जरा भी फर्क नहीं था । वह अपलक बुत को देखता रहा।
काली बिल्ली उसके कंधे से छलांग मारकर नीचे आ गए और फिर उछल कर खाने की टेबल के पास मौजूद कुर्सी पर बैठी ।
"म्याऊं।"
बिल्ली की आवाज में देवराज चौहान का ध्यान भंग किया । उसे कुर्सी पर बैठे पाकर वो समझ गया कि, वो उसे कुर्सी पर बैठकर, टेबल पर पड़े खाने को, खाने के लिए कह रही है । देवराज चौहान आगे बढ़ा तो बिल्ली छलांग मारकर, कुर्सी से नीचे उतर गई । देवराज चौहान कुर्सी पर जा बैठा । खाना बिल्कुल ताजा और गर्म था।
देवराज चौहान की निगाह बार-बार अपने ही चेहरे वाले बुत पर जा रही थी। पहले उसने तिलस्मी नगरी में मोना चौधरी के बुत को देखा और अब उसका अपना बुत सामने था। वो समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या माजरा है । लेकिन अभी तक जो हालात सामने आए थे, उससे जाने क्यों उसे लग रहा था, कि कोई बात है, जो अभी उससे दूर है ।
देवराज चौहान ने खाना शुरू किया ।
बिल्ली खामोशी से एक तरफ बैठ गई थी।
खाना खाते-खाते देवराज चौहान की निगाह बुत के गले में पड़े लॉकेट पर गई । उस पर अब नजर पड़ी थी, जो कि शुद्ध सोने का था । बुत के गले में लॉकेट का होना, देवराज चौहान की समझ में नहीं आया । आराम भरे अंदाज में देवराज चौहान ने खाना खाया ।
खाने के दौरान बिल्ली एक बार भी अपनी जगह से नहीं उठी थी । अलबत्ता चमक भरी निगाहों से एकटक उसे देखे जा रही थी ।
देवराज चौहान कुर्सी से उठा तो देखा काली बिल्ली सतर्क सी नजर आने लगी । उस पर से निगाहें हटाकर देवराज चौहान ने पुनः इधर-उधर देखा तो, एक तरफ चारपाई पड़ी नजर आई । जिस पर चादर बिछी हुई थी । तकिया पड़ा था। लिहाफ रखा था । थका हुआ तो वह था ही
आगे बढ़कर देवराज चौहान चारपाई पर जा लेटा । गर्दन घुमाकर बिल्ली को देखा जो अपनी चमकपूर्ण निगाहों से उसे ही देख रही थी ।
देवराज चौहान ने अपने चेहरे और कद-काठी वाले बुत को देखा। यकीनन कोई खास बात है जो काली बिल्ली उसे इस कमरे तक लाई है । लाख सोचने पर भी देवराज चौहान को वो खास बात समझ नहीं आ रही थी ।
इन्हीं सोचो में थका-हारा देवराज चौहान नींद में डूबता चला गया
वो कब तक, कितनी देर नींद में रहा, इस बात का उसे आभास न हो सका ।
देवराज चौहान की जब आंख खुली तो कमरे का हाल वैसा ही था, जैसे आंख लगने से पहले था । यहां तक कि वो काली बिल्ली भी उसी मुद्रा में बैठी थी ।
उसे नींद से जगा पाकर, काली बिल्ली एकाएक सतर्क की नजर आने लगी ।
देवराज चौहान चारपाई से उठ खड़ा हुआ । टेबल पर खाने का सामान वैसे ही पड़ा था, जैसे उसने छोड़ा था । देवराज चौहान आगे बढ़ा और अपने चेहरे वाले बुत के पास जा पहुंचा। उसे छुआ। ध्यान से देखा।
तभी काली बिल्ली पास आई और उछलकर बुत के कंधे पर जा बैठी । देवराज चौहान ने काली बिल्ली को देखा । उसी समय काली बिल्ली ने अपने अगले पंजे आगे किए तो वो दोनों पंजे नन्हे हाथों की तरह हो गए । बिल्ली के उन हाथों ने बुत के गले में पड़ा लॉकेट निकाला ।
देवराज चौहान हैरानी से बिल्ली के हाथों को देख रहा था।
और बिल्ली ने वही दोनों हाथ कुछ और लंबे हुए और उसने वो लॉकेट देवराज चौहान के गले में डाल दिया। इसके साथ ही बिल्ली की दोनों टांगे सामान्य अवस्था में आ गई।
बिल्ली की जादूभरी हरकतों से देवराज चौहान हैरानी और उलझन में था। यह बात तो वह पहले ही समझ चुका था कि यह कोई सामान्य बिल्ली नहीं थी । देवराज चौहान ने गले में पड़ी लॉकेट को देखा जो एक इंच व्यास के घेरे में था और उस पर भाला और कटार बने हुए थे । लॉकेट और अपनी मोटी जंजीर शुद्ध सोने की थी। a
देवराज चौहान अभी लॉकेट देखने से फारिग भी नहीं हुआ था कि एकाएक उसका सिर दर्द सिर फटने लगा । मस्तिष्क में बिजलियां कौंधने लगी। आंखों के सामने रह-रहकर अंधेरा सा छाने लगा या फिर कभी किसी चलचित्र की भांति कोई कबीला सा नजर आने लगता । जहां बहुत सारे लोग हैं इधर उधर भाग रहे हैं। उन लोगों में उसने अपना चेहरा भी देखा। खुद को घोड़े पर बैठा पाया । हाथ में भाला था और कमर में कटार फंसी हुई थी । उसका घोड़ा तेजी से उन लोगों के बीच से दौड़ता हुआ आगे जा रहा था । उसकी आंखों में खून सवार था और फिर देखते ही देखते, घोड़ा उस भीड़ में से निकल कर निगाहों से ओझल हो गया । तभी दूसरा घोड़ा नजर आया। उस पर जगमोहन बैठा था । उसके हाथ में भी भाला और कमर पर कटार बंधी थी । वह भी भीड़ में अपना घोड़ा दौड़ाता हुआ, उसे देवा - देवा कहता, पुकारता, चिल्लाता हुआ, उसके पीछे आ रहा था । और फिर वो घोड़ा भी निगाहों से ओझल हो गया ।
देवराज चौहान के मस्तिष्क को झटका लगा । उसने देखा, वो उसी के सामने खड़ा हैं।
परंतु उसके मस्तिष्क में से जो चलचित्र जैसा सीन गुजरा था, वो पूरी तरह याद था उसे । देवराज चौहान के चेहरे पर गुड़मुड़ हुए हजारों तरह के भाव उभरे हुए थे, क्या देखा था उसने । क्या नजर आया था उसे ? वो लोग कौन थे वह घोड़े पर था। उसके पीछे जगमोहन था घोड़े पर और देवा - देवा कहकर उसे पुकार रहा था ?
और वह उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था जैसे वो अपनी जान देने या किसी की जान लेने जा रहा हो । यह सब क्या देखा था उसने ?
देवा ?
जगमोहन देवा कहकर पुकार रहा था उसे ?
और-और फकीर बाबा भी देवा कहकर ही पुकारते हैं । फकीर बाबा ने उसे तिलस्म का रास्ता दिखाया और उसे यहां भेजा ? यह सब क्या हो रहा है, उसने क्या देखा, क्या था वो ? इन सोचों के साथ ही देवराज चौहान को अपना मस्तिक से फटता-सा महसूस हुआ । "म्याऊं ।"
बिल्ली की आवाज सुनकर देवराज चौहान ने अपनी दौड़ती सोचों पर काबू पाया। उसकी आंखें लाल सुर्ख हो रही थी । उसने बिल्ली को देखा, जो अभी तक बुत के कंधे पर बैठी थी। देवराज चौहान ने महसूस किया जैसे बिल्ली की आंखों में रहने वाली चमक अब पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है ।
उसके देखते ही देखते बुत के कंधे से बिल्ली फर्श पर कूदी । देवराज चौहान की उलझन भरी निगाह अपने चेहरे वाले बुत पर थी ।
"म्याऊं।"
बिल्ली की आवाज सुनकर देवराज चौहान ने सिर घुमाया तो चौंक पड़ा । सामने दीवार पर एक खूबसूरत दरवाजा नजर आ रहा था, दरवाजे पहले वहां था ही नहीं । देवराज चौहान ने बिल्ली को देखा, जो उसी दरवाजे की चौखट पर बैठी उसे देख रही थी ।
"म्याऊं।"
जैसे बिल्ली उसे दरवाजे के भीतर चलने को कह रही हो ।
देवराज चौहान ने गले में पड़े उस लॉकेट को देखा । फैसला नहीं कर पाया कि उसे उतार दे या पहना रहने दे । फिर उसे न उतारने की सोचकर उस दरवाजे की तरफ बढ़ गया । दरवाजा पार किया तो सामने सीढ़ियां नजर आई । जो कि नीचे जा रही थी । देवराज चौहान सीढ़ियां उतरने लगा ।
पीछे से बिल्ली उछलकर उसके कंधे पर आ बैठी ।
देवराज चौहान बिना रुके सीढ़ियां उतरता रहा । मस्तिष्क में चलचित्र की भांति घूमने वाले वो दृश्य थे, जो लॉकेट पहनते ही, उसे नजर आए थे । क्या था, वह सब ? वह कोई धोखा या वहम नही था । जो कुछ भी उसने देखा, स्पष्ट तौर पर देखा था ।
सिर्फ आधा घंटा आगे बढ़ने के पश्चात वो सीढ़ियां समाप्त हो गई । अब देवराज चौहान खुले आसमान के नीचे था । बिल्ली उसके कंधे पर खामोशी से बैठी थी । सामने जो नजर आया, वो नजारा देवराज चौहान का दिमाग खराब कर देने के लिए काफी था ।
सामने ही अच्छा-खासा बसा-बसाया कस्बा था और वो पूरे यकीन के साथ कह सकता था कि कुछ दिन पहले जो दृश्य उसके मस्तिष्क में उभरे थे, वो इसी कस्बे के थे।
देवराज चौहान आंखें फाड़े कस्बे में निगाहें दौड़ाने लगा।
दूर-दूर तक फैले जाने कितने मकान थे। वो छोटा-सा शहर लग रहा था । कहीं पक्के रास्ते थे तो कहीं कच्चे । उन रास्तों पर लोग आ-जा रहे थे । वहां बैल-गाड़ियां भी चलती नजर आई । जिन पर सामान लदा हुआ था । औरतों ने रंग-बिरंगे कपड़े डाल रखे थे । अधिकतर सिर पर उन्होंने पल्लू ले रखा था । मर्दों ने कुर्ता-पायजामा या तहमद-कमीज पहन रखी थी। कुछ ने सिर पर साफा भी बांधा रखा था । यह सब देख कर देवराज चौहान को लगा कि जैसे वो पृथ्वी पर ही किसी जगह पर है, न कि पाताल के तिलस्मी नगर में दूर बहुत दूर लहराती फसलें स्पष्ट नजर आ रही थी । खेतों में भी काम करते लोगों की झलक मिल रही थी।
तभी देवराज चौहान के मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी । मस्तिष्क में कई चेहरे उभरने लगे उन चेहरों के बाद बहुत बड़ा खुला घर नजर आने लगा। कमरों के आगे बहुत खाली जगह है। कई लोग बैठे बातें कर रहे हैं। एक तरफ औरतें खाना बना रही है। दूसरी तरफ कुछ बच्चे खेलते हुए शोर कर रहे हैं। उसे महसूस हो रहा था, जैसे सारे घर के ही सदस्य हैं । तभी उसे अपना चेहरा नजर आया । वो ऊपर से सीढ़ियां उतर रहा था । उसमें सफेद कमीज-पायजामा पहन रखा था। पांवों में जूते थे । होठों पर कटारी मूंछे भी । बांका, गबरू जवान लग रहा था । वो पच्चीस-छब्बीस की उम्र रही होगी उसकी । सीढ़ियां उतरकर वो उस तरफ बढ़ने लगा, जिधर चारपाइयों पर कुछ आदमी बैठे बातें कर रहे थे ।
"भइया।"
किसी मीठी पुकार पर वो रुका और गर्दन घुमाकर उस तरफ देखा, जिधर औरतें खाना बना रही थी । वहां बीस वर्षीय खूबसूरत उसकी बहन संध्या बैठी थी । वो उसे देखकर मुस्कुराया और आगे बढ़ने को हुआ की बहन संध्या की आवाज पुनः उसके कानों में पड़ी ।
"हां-हां, आज तो बहन से भी बात करने की फुर्सत नहीं है। आखिर रिश्ता जो तय होने जा रहा है । मूंछे थोड़ी और ऊपर चढ़ा लो । मां, लगता है भइया शादी के बाद तो मुझे पहचानेंगे ही नहीं।"
"चुपकर । ब्याह हो लेने दे । इसका कोई भरोसा नहीं, क्या कर बैठे । जब तक फेरे नहीं होते, तब तक तो मुझे विश्वास नहीं कि ये ब्याह कर लेगा ।" मां की मीठी झिड़की, उसके कानों में पड़ी।
इसके साथ ही देवराज चौहान के मस्तिष्क को पुनः तीव्र झटका लगा और मस्तिष्क में चल रहा जैसे चलचित्र लुप्त हो गया । सिर दर्द से फटने लगा। आंखों के सामने अंधेरा-सा उभर आता तो कभी तीव्र रोशनी लहरा उठी । दोनों हाथों से उसने सिर को दबाकर, अपने पर काबू पाने की चेष्टा की। मिनट भर ऐसे ही गुजर गया ।
धीरे-धीरे वो सामान्य स्थिति में आने लगा ।
जब उसने आंखें खोली तो चेहरा तनाव से भरा पड़ा था । आंखें आग की तरह सुर्ख होकर जैसे शून्य में देखे जा रही थी। दोनों हाथों में देवराज चौहान ने अभी भी सिर दबा रखा था । जो भी उसे नजर आया था, वो अब आंखों के सामने घूम रहा था । जो सुना था, वो शब्द कानों में गूंज रहे थे । उसे पूरा विश्वास था कि जो कुछ भी उसने देखा-सुना वो धोखा नहीं, सपना नहीं, हकीकत है।
लेकिन ये कैसी हकीकत है, जो सच होकर भी उसके सामने नहीं है ।
"संध्या ।" देवराज चौहान बड़बड़ा उठा--- "मेरी बहन...।" अगले ही पल देवराज चौहान ने अपनी बड़बड़ाहट रोकी और सिर को जोर से झटका देकर, खुद को इन विचारों से बाहर निकालने की चेष्टा की ।
वह तो अकेला है।
उसकी तो कोई बहन नहीं है ।
फिर संध्या कहां से आ गई ? उसके मुंह से ये क्या शब्द निकले ? और - और जो कुछ भी उसके मस्तिष्क में देखा, कानों ने सुना, वो झूठ नहीं है, लेकिन सच कहा है ? ये सब कुछ उसे बार-बार क्यों और कैसे नजर आ रहा है ?
"म्याऊं ।"
बिल्ली की आवाज सुनते ही सोचों से भरे उसके मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा । उसने आंखें खोली । काली बिल्ली सामने पांच-सात कदम दूर बैठी थी । जाने कब वो कंधे से उतर गई थी, उसे मालूम नहीं हो सका था । उसकी चमक भरी आंखें उस पर थी और देवराज चौहान लाल सुर्ख आंखों से बिल्ली को देखता सोच रहा था कि उसके साथ जो हो रहा है, इस वक्त उसकी एकमात्र वजह बिल्ली ही है । सामने मौजूद काली बिल्ली जो कि उसके साथ साए की तरह लगी हुई है और उसे आगे बढ़ने का रास्ता भी बता रही है ।
"म्याऊं ।"
काली बिल्ली बोली और उसने दूर मकानों की तरफ देखा। यानी कि वो उसे बस्ती की तरफ जाने को कह रही थी । देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती के भाव उभरे ।
"कौन हो तुम ?" देवराज चौहान के स्वर में कठोरता थी। बिल्ली खामोश से बैठी उसे देख कर रही । जवाब भला क्या देती ।
"कौन हो तुम ?" देवराज चौहान काली बिल्ली को देखते हुए पहले वाले स्वर में पूछ उठा। काली बिल्ली वैसे ही बैठी उसे देखती रही।
देवराज चौहान गहरी सांस लेकर रह गया कि यह उसकी बात का जवाब नहीं दे सकती । उसने सिर उठाकर कुछ दूर नजर आ रहे मकानों को देखा। दो पल के लिए उसे ऐसा लगा, जैसे कि यह जगह उसकी अपनी है। यहीं तो पला-बड़ा हुआ, जवान हुआ और... " "म्याऊं।"
काली बिल्ली की पुकार पर उसकी सोचें टूटी । देवराज चौहान ने बिल्ली को देखा तो बिल्ली ने अपना मुंह मकानों की तरफ कर लिया । देवराज चौहान ने अपनी सोचों पर काबू पाया और सोच भरा चेहरा लिए, छोटे से शहर जैसे कस्बे की तरफ बढ़ गया, जो यहां से स्पष्ट नजर आ रहा था ।
चंद कदम ही चला होगा कि काली बिल्ली छलांग मारकर, उसके कंधे पर आ बैठी।
******
दस मिनट बाद ही देवराज चौहान उस छोटे से शहर नुमा कस्बे में प्रवेश करता चला गया । ज्यों-ज्यों वो आगे बढ़ता जा रहा था, जाने क्यों उसे महसूस हो रहा था कि, ये सब रास्ते उसके लिए पुराने हैं ।
वो एक पक्की सी सड़क से गुजर रहा था कि सामने से आता व्यक्ति उसे देखकर ठिठका । देवराज चौहान ने उसे देखा, परंतु पहचानने जैसे भाव चेहरे पर नहीं आए ।
लेकिन उस व्यक्ति के चेहरे पर हैरानी और खुशी के भाव नाच उठे।
"दे-वा ।" उसके होठों से खुशी से भरी आवाज निकली ।
देवराज चौहान ने रुककर उसे देखा । चेहरे पर गंभीरता थी ।
वो व्यक्ति आगे बढ़ा और देवराज चौहान की बांह कसकर थाम ली । देवराज चौहान को उसकी उंगलियां अपनी बांह में धंसती सी महसूस हुई । उसके शरीर के जर्रे जर्रे से खुशी टपक रही थी ।
"तू देवा है ना, देवा । क्यों रे देवा, तू वापस आ गया ना ? हां, तू वापस आ गया।" और फिर वो उसकी बांह छोड़कर पलटकर खुशी से चिल्लाता भागा-"अरे सुनो रे सुनो । अपना देवा वापस आ गया । देवा आ गया । सुनते ही मेरी बा । हमें मुक्ति दिलाने, हमारा देवा वापस आ गया।"
इसी तरह चीखते-चिल्लाते वो निगाहों से ओझल होता चला गया । देवराज चौहान चेहरे पर सोच समेटे आगे चल पड़ा । अभी कुछ आगे गया होगा कि सामने से ढेरों लोग आते दिखाई दिए। उनमें सबसे आगे वही व्यक्ति था, जो देवा आ गया, कहते हुए भागा था । उसे देखकर ही लोगों ने शोर करना शुरू कर दिया। "देवा ।"
"देवा ।"
देवा, शब्द से जैसे सारा आसमान गूंज उठा।
देवराज चौहान ठिठका खड़ा उन सबको देख रहा था ।
वह लोग देवराज चौहान को घेरे में ले चुके थे। तभी एक युवक आगे बढ़ा और देवराज चौहान को कंधे पर उठाकर उछलने लगा। वहां शोर का आलम ही कुछ और था । भीड़ बढ़ती जा रही थी ।
"अब हमें मुसीबत से छुटकारा मिल जाएगा।"
"क्यों नहीं, अब से देवा सबको देख लेगा।"
"गुरुवर ने सच कहा था कि एक दिन देवा वापस लौटेगा और हम सब को आजाद करवाएगा।"
"गुरुवर धन्य हैं।"
"मुझे तो विश्वास ही नहीं आता कि देवा आ गया है । यह सब तो सपने जैसा है।" जितने मुंह उतनी बातें । उतनी आवाजें ।
युवक देवराज चौहान को कंधे पर उठाए खुशी से नाचने की कोशिश कर रहा था और देवराज चौहान के कंधे पर वो काली बिल्ली शांत अवस्था में बैठी, चमकती निगाहों से भीड़ को देख रही थी ।
तभी भीड़ में से बहुत ऊंचा स्वर कईयों के कानों में पड़ा ।
"अरे ! देवा के कंधे पर बैठी बिल्ली को देखो । यह-यह तो मिन्नो की बिल्ली है । " मिन्नो के नाम पर देवराज चौहान मन ही मन जोरों से चौंका । फकीर बाबा मोना चौधरी को मिन्नो कहकर ही पुकारते थे और उसे देवा । यह लोग भी उसे देवा कह रहे थे । वह किन लोगों में आ पहुंचा है ?
ठीक सभी देवराज चौहान की निगाह भीड़ के पीछे खड़े एक व्यक्ति पर पड़ी तो उसके मस्तिष्क में जैसे बिजली के छोटे-छोटे धमाके होने लगे । उस व्यक्ति ने नीला कमीज - पायजामा और सफेद रंग की कलंगी वाली पगड़ी बांध रखी थी। होठों पर मूंछे थी । पचास बरस की उम्र रही होगी उसकी ।
"चाचा।" बरबस देवराज चौहान के होंठों से निकला और दूसरे ही पल युवक के कंधे पर से उछलकर नीचे आया और लोगों के बीच में रास्ता बनाता, उसकी तरफ तेजी से बढ़ा ।
फिर उसके पास पहुंचकर ठिठका ।
सफेद पगड़ी वाले की आंखों में आंसू बह निकले ।
"चाचा ।'
"देवा, मेरे बेटे।"
अगले ही पल दोनों कसकर एक-दूसरे के गले लग गए ।
काली बिल्ली उछलकर कुछ दूर जा खड़ी हुई और चमक भरी निगाहों से उन दोनों को गले मिलते देखती रही। लोगों की निगाहें कभी देवराज चौहान और उस व्यक्ति पर जाती जो गले मिले हुए थे, तो कभी बिल्ली पर।
"सुन ।" एक ने पास खड़े दूसरे से कहा--- "मुझे पक्का विश्वास है कि ये मिन्नो की ही बिल्ली है।"
"विश्वास क्या, मैं तो देखते ही पहचान गया था ।"
करीब खड़ा तीसरा व्यक्ति कह उठा ।
"मिन्नो की बिल्ली, देवा के कंधे पर, यकीन नहीं आता । देवा ने अभी तक इसकी गर्दन क्यों नहीं तोड़ दी ?"
"हम मार देते इसे । इसकी हिम्मत कैसे हुई इस तरफ आने की ।" कहने के साथ ही दूसरे ने नीचे पड़ा पत्थर उठाया ।
लेकिन पहले वाले ने रोका ।
बिल्ली को पत्थर मत मारना ।"
"क्यों ?"
"वो देवा के साथ है । जाने बीच की क्या बात है। अगर देवा को तेरा पत्थर मारना, पसंद नहीं आया तो अपनी कटार से तेरा पेट फाड़ देगा | भूल गया तू देवा के गुस्से को।" ।
यह सुनते ही उस आदमी ने पत्थर नीचे गिराते हुए कहा ।
"लेकिन हमें यह पसंद नहीं कि की मिन्नो की बिल्ली हमारी बस्ती में बे-खौफ होकर घूमे।"
"अभी चुप कर । बाद में इस बारे में देवा के बापू से बात करेंगे।" "हां । चौधरी साहब की बात का जवाब तो देवा को देना ही पड़ेगा । एक वही तो है जो देवा जैसे बे-लगाम घोड़े पर काबू पा सकते हैं और किसी की बात तो सुनता ही कहां है देवा ?"
देवराज चौहान और सफेद पगड़ी वाला, गले मिलकर अलग हुए ।
"तुम कैसे हो चाचा ।" जाने कैसे देवराज चौहान क होठों से ये शब्द निकल रहे थे । मनहीँ-मन अपने शब्दों पर खुद ही वह अजीब सा महसूस कर रहा था--- "तुम---तुम तो वैसे ही हो, जैसे-जैसे मैं छोड़ कर गया था । जरा भी नहीं बदले और-और वो ताऊ कैसे हैं । बाप-मां-भाई और वो प्यारी सी बहन संध्या । सब ठीक तो है ?"
उस व्यक्ति की आंखों से और भी आंसू बह निकले।
"देवा । मेरे बेटे । सब ठीक है । सब कुछ ठीक है । बस तेरी ही कमी है । कब से तेरे इंतजार में पलके बिछाए बैठे हैं। पूरे डेढ़ सौ बरस काटे हैं तेरे इंतजार में।"
"डेढ़ सौ बरस ?" देवराज चौहान के होठों से निकला ।
"हां । हमारे लिए तो वक्त ठहरा हुआ है । एक बरस के बाद गुरुवर के कहे मुताबिक उस जगह पर एक पेड़ नजर आने लगता है। बस उन्हीं पेड़ों को गिनकर हम बरसों का हिसाब लगा लेते हैं । वरना...।"
"वक्त ठहरा हुआ है । गुरुवर---मैं-मेरी तो समझ में कुछ भी नहीं आ रहा चाचा । ये सब ।" "घर चल । डेढ़ सौ बरस के बाद लौटा है । सब तुझे देखकर कितने खुश होंगे। बातें घर पर हो जाएंगी । घर चल।"
चाचा ने अपनी आंखों से बहते आंसू पोंछते हुए कहा ।
"हां चाचा । मैं भी जल्दी से घर पहुंच कर सबसे मिलना चाहता हूं ।" देवराज चौहान की हालत अजीब सी हो रही है। उसके दिलो-दिमाग का भी बुरा हाल हो रहा था। सब कुछ उसके सामने स्पष्ट हो चुका था । साफ तौर पर वो महसूस कर रहा था कि इस वक्त वो दो जिंदगियां एक साथ ही जी रहा था । एक जिंदगी वो थी, जिसमें उसका नाम देवराज चौहान था और दूसरी जिंदगी यह थी, जिसमें उसे देवा कहा जा रहा था । देवराज चौहान के नाम से जीने वाली जिंदगी तो पूरी तरह उसके सामने थी, परंतु देवा के नाम की जिंदगी की बातें धीरे-धीरे उसे याद आ रही थी ।
जब दो जिंदगियां एक साथ उसके सामने आती तो मस्तिष्क फटने लगता ।
चाचा ने उसके गले में पड़े लॉकेट को देखा तो उसे छूकर बोला । "यह अभी तक तेरे गले में है देवा । डेढ़ सौ बरस से तूने इसे अपने से जुदा नहीं किया । जुदा करता भी तो कैसे । कितनी मेहनत से, जान पर खेलकर तूने इस इनामी लॉकेट को पाया था।"
देवराज चौहान ने लॉकेट पर निगाह मारी। परंतु बोला कुछ नहीं ।
"चल। घर चलें।" चाचा ने देवराज चौहान की कलाई पकड़ी और आगे बढ़ने लगा । बिल्ली देवराज चौहान के कंधे पर आ बैठी थी ।
वो सारी भीड़ भी पीछे चलने लगी । "देवा जिंदाबाद |
"देवा हमें मुक्ति दिलाएगा ।" "दुश्मनों को पीसकर रख देगा।"
"बहुत हो चुका, अब हम एक-एक बात का बदला लेंगे।" पीछे चलती भीड़ से तरह-तरह की आवाजें आ रही थी ।
यह जानकर कि देवा आ गया है, रास्ते में मिलने वाले लोग भी साथ ही हो लेते।
******
वो बहुत ही विशाल दो मंजिला मकान था ।
चाचा और देवराज चौहान उस मकान के गेट पर पहुंचे तो, भीड़ की संख्या इस हद तक बढ़ गई थी कि लोगों के सिर दूर-दूर तक नजर आ रहे थे ।
चाचा ने मुड़कर भीड़ को देखा और उनके स्वर में बोला ।
"अब तुम लोग अपने-अपने घर जाओ। बाकी बातें कल होगी।"
जवाब में भीड़ से आवाजें आने लगी ।
"हम देवा से बात करना चाहते हैं।"
"देवा को देखकर हमारा दिल नहीं भरा ।"
हमें तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि देवा लौट आया है।" चाचा ने धीमे स्वर में देवा के कान में कहा ।
देवा ! तू ही कह इनसे । मेरी कोई नहीं मानेगा। तेरी ही सुनेंगे।" देवराज चौहान ने भीड़ पर निगाह मारी फिर ऊंचे स्वर में कह उठा ।
"मैं अभी थका हुआ आया हूं और आराम करना चाहता हूं। कल तुम लोगों के साथ बैठूंगा और दिन भर बातें करूंगा । अब तुम लोग भी जाओ।"
"देवा जिंदाबाद ।
"देवा-देवा ।"
जैसे आसमान एक बार फिर देवा-देवा की आवाजों से गूंज उठा। उसके बाद सब धीरे-धीरे पलट कर वापस जाने लगे ।
देवराज चौहान सोच भरी व्याकुल निगाहों से उन सब को देखता रहा।
चाचा ने उसका कंधा थपथपाया तो उसकी सोचें टूटी । चाचा को देखकर हौले से सिर हिलाया फिर दोनों पलटकर आगे बढ़े और बड़े से गेट के भीतर प्रवेश कर गए ।
भीतर पहला कदम रखते ही देवराज चौहान को अपने शरीर में तीव्र कंपन महसूस हुआ और फिर धीरे-धीरे वो कंपन थमता चला गया। वह भूला नहीं था कि वो देवराज चौहान है । परंतु देवा के नाम से कई यादें उसके दिलो-दिमाग पर और भी स्पष्ट और ताजा हो गई थी । ये जगह, ये घर, सब कुछ उसे अपना लगने लगा । जैसे वो बरसों से यहां रह रहा हो।
"आ देवा । भूल गया क्या अपने घर को ?" चाचा की आवाज कानों में पड़ी।
देवराज चौहान ने मुस्कुराकर चाचा को देखा ।
"अपना घर कैसे भूल सकता हूं चाचा ।"
"देवा...।" तभी खुशी से भरा कांपता स्वर देवराज चौहान के कानों में पड़ा ।
"मेरे बेटे, देवा ।"
देवराज चौहान ने निगाहें उठाकर सामने देखा तो, देखता ही रह गया । चारपाई के पास बापू खड़े थे । चौधरी विश्राम सिंह । उसके पिता । कुर्ता-पायजामा । सिर पर पगड़ी । चारपाई के पास ही हुक्का रखा था, जैसे सुलग रहा था । कंधे पर बैठी बिल्ली छलांग मारकर, एक ओर जा बैठी थी।
"बापू ।" देवराज चौहान का स्वर खुशी से कांपा ।
देवराज चौहान भागा और अपने बाबू चौधरी विश्राम सिंह के सीने से जा लगा । दोनों कसकर एक दूसरे के गले मिले। गले मिले-मिले रो पड़ा चौधरी विश्राम सिंह।
तड़पकर देवराज चौहान ने उसे अपने से जुदा किया।
"रो मत बापू । तेरा देवा, तेरे पास है। रोता क्यों है । तू तो कभी रोता ही नहीं था बापू । फिर आज तेरे को क्या हो गया।" कहने के साथ ही देवराज चौहान चौधरी विश्राम सिंह की आंखों से बहते आंसू साफ करने लगा ।
"टूट गया हूं देवा । डेढ़ सौ बरस से तेरा इंतजार करते-करते।"
"आ गया मेरा शेर । "
देवराज चौहान ने फौरन निगाह घुमाई तो, करीब सत्तर बरस के व्यक्ति को देखा । इसकी दाढ़ी सफेद थी । सिर के बालों में ज्यादातर बाल सफेद हो चुके थे। कमर में न नजर आने वाला हल्का सा झुकाव था । उस पर निगाह पड़ते ही देवराज चौहान के होंठो से निकला । "ताऊ ।"
और फिर देवराज चौहान भागकर उस व्यक्ति के गले लगा।
"आह ।" देवराज चौहान को छाती से लगते ताऊ भर्राए स्वर में कह उठा--- "कलेजे में ठंडक पड़ गई आज, तेरे को सीने से लगा कर । बहुत अच्छा किया जो तू आ गया।"
देवराज चौहान इससे अलग हुआ तो आंखों में आंसू थे ।
"क्यों ताऊ, कैसा है तू ?" देवराज चौहान के होठों से निकला ।
"जैसा तू छोड़ गया था, वैसा ही हूं।"
"तो आज हो जाए।" देवराज चौहान की आवाज में अजीब भाव थे
ताऊ ने आंसू भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा ।
"ताऊ उठा भाले । देखते हैं किसका निशाना सही लगता है ।" देवराज चौहान के होंठों से यह शब्द निकले ।
ताऊ फफककर रो पड़ा ।
"ताऊ, तू रोने क्यों लगा ?" देवराज चौहान के स्वर में हैरानी आ गई। रोते-रोते ताऊ ने देवराज चौहान को पुनः छाती से लगा लिया ।
"वही है । वही है । जरा भी नहीं बदला । अपना देवा कभी नहीं बदल सकता । ताऊ का लाडला है आज भी ।" जाने कब तक ताऊ देवराज चौहान को सीने से लगाए रोता सिसकता रहा ।
"ताऊ और भतीजे की जोड़ी आज भी वैसी ही है । देखा भागवत ।" चौधरी विश्राम सिंह ने यह शब्द देवराज चौहान के चाचा से कहे तो चाचा भागवत सिंह मुस्कुरा कर रह गया । देवराज चौहान ताऊ से अलग हुआ और ऊंचे स्वर में बोला ।
"मां । ओ मां कहां है तू ?" देवराज चौहान का स्वर उस पूरे मकान में गूंज कर रह गया । जवाब में चौधरी विश्राम सिंह ने कहा ।
"बेटे, तेरी मां संध्या के साथ खेतों में सब्जी लेने गई है।"
"और ताई-चाची ?" देवराज चौहान ने अपने बापू चौधरी विश्राम सिंह को देखा ।
"वो सब इकट्ठे ही गए हैं। तेरे आने की खबर आप तक सुन ली होगी माया ने । वो तो पागलों की तरह भागकर आ रही होगी। तू बैठ । भागवत अपने देवा को बिठा । दूध पिला
और...।"
"और वो छोटा-मेरा छोटा भाई किशना कहां है ?" देवराज चौहान के होठों से निकला । "वो भी...।"
तभी खुशी से भरी चीख के साथ, वहां की सारी जगह गूंज उठी ।
"देवा । मेरे बेटे । मेरे लाल । मेरे जिगर के टुकडे ।"
देवराज चौहान की नजरें फौरन घूमी।
गेट पर तीन औरतों के साथ संध्या और किशना खड़े थे । सबके चेहरों पर खुशी से भरा पागलपन था ।
उनमें से एक उसकी मां माया थी । और दूसरी औरत ताई सोमवती थी । तीसरी चाची दर्शना थी । ना
"मां ।" देवराज चौहान का स्वर खुशी से कांप उठा।
मां को पागलों की तरह अपनी तरफ दौड़ते पाकर, देवराज चौहान जल्दी से आगे बढ़ा और मां के सीने से लग गया। मां की बाहों में जाते ही, देवराज चौहान की आंखें गीली हो गई 1
"मां।" इसके अलावा देवराज चौहान के होंठों से कोई शब्द न निकला ।
"मेरे लाल । मेरे टुकड़े ।" मां माया उसे भींचती हुई फफक पड़ी ।
"तेरा इंतजार करते-करते मेरी तो आंखें भी पथरा गई देवा। इतनी देर कर दी तूने आने में ।" माया फफकते हुए कह रही थी--- " बस्ती में सबको ही तेरा इंतजार था । क्योंकि गुरुवर ने कहा था कि एक दिन तू वापस लौटेगा और हमें आजाद करवाएगा, इस जंजाल से । "
गुरुवर ?
यही शब्द तो फकीर बाबा इस्तेमाल करते थे कि उन्हें गुरुवर ने श्राप दिया है ?
देवराज चौहान ने अपने आप पर काबू पाया । वह कुछ नहीं समझ पा रहा था कि क्या हो रहा है । वह तो देवराज चौहान है। लेकिन लेकिन देवा तो है । क्यों आसपास खड़े लोगों के साथ अपने रिश्ते होने का स्पष्ट एहसास हो रहा था उसे ?
यकीनन ये उसके पूर्व जन्म का ऐसा कोई पन्ना है, जो ठीक तरह से बंद नहीं हो सका और आज फिर उसके सामने आ गया है, परंतु...।"
"देवा । अब तो तू नही जाएगा ना ?" माया ने आंसुओं भरे स्वर में कहा । "नहीं मां ।" देवराज चौहान का गला भर्रा उठा--- "अब नहीं जाऊंगा ।" "मत जाना मेरे लाल । मत जाना ।" माया ने उसे जोर से भींच लिया । देवराज चौहान समझ कर भी समझ नहीं पा रहा था कि यहां क्या हुआ पड़ा है । "भइया। मेरे प्यारे भइया ।"
देवराज चौहान ने गर्दन घुमाई तो पास में किशना को खड़े पाया । अपने छोटे भाई को । बीस बरस का बांका जवान था वो। मां से जुदा होकर वो किशना के गले से जा लगा । "कैसा है रे तू ?"
"अच्छा हूं भइया ।" किशना की आंखों में आंसू थे--- "तुम्हारा ही इंतजार था । अब...।" किशना की बात पूरी न हो सकी कि ताई सोमवती की आवाज कानों में पड़ी ।
"अपनी ताई को भूल गया क्या कलमुहे। इधर आ । पांव छू मेरे ।" आवाज में खुशी से भरा कंपन था और झलक रहा था दर्द । सुनने वाले ही उस दर्द को महसूस कर सकते थे।
देवराज चौहान ने किशना की पीठ थपथपाई और उससे जुदा होकर, तेजी से गेट पर खड़ी ताई की तरफ बढ़ा । ताई सोमवती की आंखों से आंसू बह रहे थे । पास पहुंचकर देवराज चौहान उसके पांव छूने लगा तो बूढ़ी सोमवती ने उसे बांहों से पकड़कर छाती से लगा लिया ।
"मैं जानती थी कि तू आएगा । माया को हमेशा बोला करती थी । देख लेना, अपना देवा एक दिन हर हाल में आएगा और हमें बचाएगा । आ गया ना तू । क्यों माया, अब कह, मैं क्या झूठ बोलती थी ।"
"मैं आऊंगा और बचाऊंगा-किससे ?"
देवराज चौहान कुछ नहीं समझा ।
"तू तो पहले की ही तरह हट्टा-कट्टा है ।" सोमवती उसे अपने से जुदा करके, आंसू भरी आंखों से उसे देखती हुई बोली--- "लगता है, इस जन्म में भी तेरी मां ने तेरे को बादाम का दूध घोंट-घोंटकर पिलाया है ?"
इस जन्म में भी ?
देवराज चौहान के मस्तिष्क में सवालों का बवंडर उठने लगा कि क्या ये लोग भी जानते हैं कि वो दोबारा जन्म लेकर, यहां आया है ?
अपनी उत्सुकता को देवराज चौहान ने जब्त रखा।
देवराज चौहान ताई सोमवती से अलग हुआ और पास खड़ी चाची दर्शना के पांव छुए तो आंखों में आंसू लिए, चुपचाप खड़ी उसे देख रही थी।
"जीता रह । जीता रह । पहले तो चाची-चाची करता था और बोलता था ताई हर समय टोका-टोकी करती रहती है और अब पहले ताई से मिला फिर चाची का ध्यान आया ।" चाची दर्शना की आवाज खुशी से कांप रही थी--- "अकेले में खींचूंगी तेरे कान।"
"देख चाची ।" देवराज चौहान के होंठों से निकला--- "कान-वान तो मैं खींचने नहीं दूंगा । तू बोल तो सारी रात खेत में हल चला लूंगा ।"
"क्यों तेरे कानों में हीरे जड़े हैं क्या जो खींचने नहीं देगा।" दर्शना भर्राए स्वर में कह उठी। "चाची ।" देवराज चौहान खुद नहीं समझ पा रहा था कि ये शब्द उसके मुंह से कैसे निकल रहे हैं--- "अगर मेरे कान खींचने से कान छोटे-बड़े हो गए तो मेरे से कोई ब्याह भी नहीं करेगा।"
दर्शना ने भीगे स्वर में दूर खड़ी माया को देखा ।
"सुना बहन । ये तो वैसा ही जवाब देता है, जैसा डेढ़ सौ बरस पहले देता था । वही शब्द, वही जुबान, जैसे इसने दोबारा जन्म नहीं लिया । ये तो अपना पुराना वाला ही देवा है।" देवराज चौहान दर्शना को देखता ही रह गया । सब कुछ समझ कर भी वो कुछ भी नहीं समझ पा रहा था।
दर्शना चाची से हटकर देवराज चौहान की निगाह चार कदम पीछे खड़ी संध्या पर गई, जिसकी आंखों से बहने वाले आंसूओं ने उसका चेहरा भिगो दिया था । देवराज चौहान की आंखों से फिर आंसू बह निकले।
"कौन हो तुम ?" संध्या के होंठों से रोता हुआ स्वर निकला ।
"मैं-मैं देवा हूं संध्या । तेरा भाई । बड़ा भाई---।" जाने कैसे ये शब्द देवराज चौहान के होंठों से निकल गए।
"संध्या ।" देवराज चौहान का स्वर थरथरा उठा । वो उसकी तरफ बढ़ा ।
आंसुओ से भरा चेहरा लिए संध्या फौरन दो कदम पीछे हट गई । देवराज चौहान ठिठका ।
"संध्या ।"
"तू मेरा भाई नहीं हो सकता ।" कहते हुए संध्या रो रही थी ।
"क्यों ?" देवराज चौहान तड़प उठा ।
"मेरे भाई देवा को अपनी मूंछों से बहुत प्यार था । अब तेरी मूंछें कहां हैं।" संध्या फफकर रो पड़ी ।
"संध्या ।" देवराज चौहान का स्वर कंपकपा उठा । आंखों से आंसू बहने लगे । उसने दोनों बांहें फैला दीं ।
"भइया ।" संध्या रोते हुए आगे बढ़ी और देवराज चौहान के सीने से जा लगी।
"मेरी बहन ।" देवराज चौहान ने संध्या को अपने आगोश में ले लिया ।
"कितनी देर लगा दी भइया आने में । यह न सोचा कि छोटी बहन तुम्हारी राह देख रही है |"
"मैं-मैं भूल गया था संध्या । लेकिन अब नहीं भूलूंगा । सबको याद रखूंगा, सब के पास रहूंगा । अब हम कभी भी जुदा नहीं होंगे। सारा परिवार इकठ्ठा रहेगा और...।"
"यह कलमुंहा तो पैदा ही रुलाने के लिए हुआ है ।" ताई सोमवती भर्राए स्वर में कह उठी -- "पहले भी रुलाता था और अब आया है तो अभी रुला रहा है । जाने किस जन्म का बैर निकाल रहा है हमसे।"
"चाची ।" जाने कैसे देवराज चौहान के होंठों से ये शब्द तेज स्वर में निकले --- "देख लो ताई को, इसकी बोलने की आदत अभी तक नहीं गई । यूं ही मुझे कोसती रहती है।"
"अब आई न, चाची की याद ।" दर्शना कह उठी ।
अजीब सा माहौल था वहां का । वो सब रो भी रहे थे । हंस भी रहे थे । खुशी भी थे परंतु उनकी आंखों में छाया दुख भी स्पष्ट नजर आ रहा था।
तभी हुक्म सिंह कह उठा ।
"डेढ़ सौ बरस बाद देवा घर लौटा है, अब इसे क्या भूखा-प्यासा रखोगे । अब तो बातें होती ही रहेगी । चलो तुम सब जाकर चूल्हा-चौका करो । आज तो सब देवा के साथ ही बैठकर खाना खाएंगे।"
ताऊ के शब्द पूरे होते ही सब औरतें एक तरफ बढ़ गईं । संध्या ने देवराज चौहान की पीठ पर जोर से घूंसा मारा । देवराज चौहान फौरन घूमा और संध्या की बांह पकड़कर उमेठ दी । "मां ।" संध्या चीख उठी--- "देखो, भइया मेरी बांह तोड़ रहे हैं । " "मां, इसने मुझे घूंसा मारा है ।" देवराज चौहान नहीं समझ पा रहा था कि यह सब उसे क्या हो रहा है । जानते-बुझते भी वो अपने अस्तित्व को खोकर देवा का अस्तित्व से ओढ़े जा रहा है ?
"नहीं मां । भइया झूठ बोलते हैं, मैंने घूंसा नहीं मारा । बचाओ मां।" संध्या चीखी।
इससे पहले मां माया कुछ कहती, देवराज चौहान ने उसकी बांह छोड़ दी । चेहरे पर गुड़मुड़ से अजीब से भाव आ-जा रहे थे।
"क्या हुआ भइया ?" देवराज चौहान के चेहरे पर निगाह पड़ते ही, संध्या के होंठों से निकला ।
देवराज चौहान ने उलझन भरे ढंग से अपने चेहरे पर हाथ फेरा ।
"क-कुछ नहीं ।"
"गलती हो गई भइया । अब घूंसा नहीं मारूंगी।" संध्या ने धीमे स्वर में कहा। देवराज चौहान ने संध्या के गीले चेहरे को देखा । फिर मुस्कुराया ।
"मेरी बहन के हाथों में इतना दम नहीं कि उसके घूंसे से मेरे को तकलीफ हो।" "तो फिर तुमने मेरी बात का बुरा मान कर, मेरी बांह क्यों छोड़ दी । मेरी चुटिया क्यों नहीं खींची।"
देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।
"मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं । सिर भारी हो रहा है । "
देवराज चौहान के शब्द सुनते ही चौधरी विश्राम सिंह कह उठा ।
"किशना । देवा को भीतर ले जा । आराम करने दे इसे उसके आते ही सब उससे चिपक गए । सिर में दर्द तो उठेगा ही। पानी तक नहीं पूछा किसी ने और रोने-धोने लग गए।"
"मैं पानी पिलाती हूं।" कहकर संध्या घर के भीतर की तरफ दौड़ी।
"मैं चूल्हे पर दूध पढ़ाती हूं अभी ।" चाची दर्शना कहती हुई आगे चली गई । किशना फौरन देवा के पास पहुंचा ।
"आओ भइया । कुछ देर आराम कर लो । थके हुए लगते हो ।" देवराज चौहान बिना कुछ कहे किशना के साथ आगे बढ़ गया ।
पीछे से ताई सोमवती की आवाज कानों में पड़ी ।
"ये अपना देवा कागज का कब से बन गया । हाय-हाय कोई सुनेगा तो क्या कहेगा देवा का सिर भी दर्द होने लगा। क्यों रे तू तो लोहा होता था, अब तेरे को ---"
"अब चुप भी करेगी तू ?"
ताई ने मुंह बनाकर ताऊ को देखा फिर भीतर की तरफ बढ़ गई।
एक तरफ बैठी काली बिल्ली अपनी जगह से हिली और तेजी से आगे बढ़ती हुई देवराज चौहान के पास पहुंची फिर उछलकर उसके कंधे पर बैठ गई ।
चौधरी विशाल सिंह, ताऊ हुकुम सिंह और चाचा भागवत सिंह गंभीर निगाहों से देवराज चौहान के कंधे पर बैठी बिल्ली को देख रहे थे ।
किशना देवराज चौहान को मकान के भीतर ले गया।
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शाम के छः बजे का वक्त हो रहा था।
सूर्य पश्चिम की तरफ जा चुका था, परंतु अभी तक अस्त नहीं हुआ था । मध्यम-सी धूप अभी भी फैली थी । गाय-भैंसों की आवाजें कानों में यदा-कदा पड़ जाती थी । खेतों में काम करने वाले लोग बैल और हल लेकर, वापस अपने घरों में लौटना आराम हो गए थे । परंतु आज सारी बस्ती के लिए खुशी का दिन था ।
क्योंकि देवा लौट आया था, जिसका पिछले डेढ़ सौ बरस से सबको इंतजार था । देवा के आने की खुशी में, बस्ती का हर कोई शख्स खुशी से अपने होश खोए बैठा था।
मकान के आंगन में तीन अलग-अलग चारपाईयों पर ताऊ हुकम सिंह, चौधरी विश्राम सिंह और चाचा भागवत सिंह चेहरों पर गंभीरता समेटे बैठे, हुक्के गुड़मुडां रहे थे। तीनों के अलग-अलग हुक्के थे, रह-रहकर हुक्के गुड़गुड़ाने की आवाज वहां गूंज उठती। तभी किशना पास पहुंचा तो ताऊ हुकम सिंह बोला ।
"क्यों रे, देवा क्या कर रहा है ? "
"आराम कर रहा है ताऊ ।" किशना सोच भरे स्वर में कह उठा--- "लेकिन लेटा नहीं है । लगता नहीं है मेरे कहने पर भी । कुर्सी पर ही बैठा है । चेहरे से ऐसा लगता है, जैसे उलझन में है।"
"तेरे से कोई बात की ?"
"हां। पूछा मेरे से कि अगर मैं डेढ़ सौ बरस के बाद लौटा हूं, नया जन्म लेकर लौटा हूं तो तुम सब लोग वैसे के वैसे ही क्यों हो। तुम लोगों की उम्र क्यों नहीं बढ़ी। बूढ़े क्यों नहीं हुए ?"
हुकुम सिंह,विश्रम राम सिंह और भागवत सिंह की निगाहें मिलीं ।
"और ?"
"देवा ने पूछा कि मेरे आने पर बस्ती वाले खुश क्यों है ? बिल्ली को मिन्नो की बिल्ली क्यों कह् रहे हैं बस्ती वाले । मिन्नो कौन है ? अगर मैं दोबारा जन्म लेकर आया हूं तो मैं मरा कैसे था । गुरुवर कौन है, जिसने पहले ही कह दिया था कि मैं एक दिन लौटूंगा ?"
चौधरी विश्राम सिंह ने गंभीरता से सिर हिलाया ।
"तू क्या बोला ?"
"ऊपर से ताई आ गई । ताई ने देवा को बोल दिया की बातें मत कर। आराम कर । जो बात करनी हो, बाद में करना । जब तुझे मुझे मौका मिला तो मैं बाहर निकल आया।" "ठीक है। तू जा ।" चौधरी विश्राम सिंह ने कहने के पश्चात हुक्का गुड़गुडाया।
किशना वहां से चला गया ।
"देवा को अभी पूरी तरह याद नहीं कि यहां पर कभी क्या हुआ था ।" चौधरी विश्राम सिंह कह उठा--- "लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि धीरे-धीरे उसे सब याद आ जाएगा। बीते जन्म की बातें एकदम याद नहीं आती । हमारे लिए यही बहुत है कि वो अपने घर वालों को पहचान गया है।"
"तू ठीक कहता है विश्राम ।" ताऊ सिंह ने गंभीर स्वर में कहा--- "लेकिन देवा को याद दिलानी होगी उस जन्म की बातें । तभी तो कुछ कर पाएगा।"
चाचा भागवत सिंह ने टोका।
"उसके सिर में अभी दर्द उठा है, वो शायद उसके दिमाग पर जोर देने की वजह से उठा था । कहीं ऐसा न हो कि हम उसे याद दिलाएं और वो परेशान हो उठे।"
"भागवत ने ठीक कहा है ।" ताऊ हुक्म सिंह कह उठा--- "देवा को सब बातें एक साथ नहीं, बहुत संयम से धीरे-धीरे याद दिलानी होगी । बेशक देवा को सब कुछ याद आने में कुछ वक्त लग जाए, लेकिन उसे याद आ जाना चाहिए । कहीं ऐसा न हो कि उस जन्म की बातें उसे याद दिलाने में, उसे कुछ नुकसान हो जाए और...।"
"ऐसा कुछ नहीं होगा । हम संयम से काम लेंगे और जरा-जरा करके उसे सब कुछ याद दिलाएंगे। गुरुवर की कृपा से वो यहां तक आ पहुंचा है तो, गुरुवर की कृपा से सब कुछ उसे याद भी आ जाएगा ।" चौधरी विश्राम सिंह ने सोच भरे गंभीर स्वर में कहकर गुड़गुड़ाया। हुक्का
तभी गेट पर बस्ती के पन्द्रह-बीस लोग खड़े नजर आए ।
"विश्राम, बस्ती वाले तेरे से कुछ कहने आए हैं ।" ताऊ हुक्म सिंह कह उठा।
चौधरी विश्राम सिंह ने गेट की तरफ देखा और फिर उन्हें हाथ के इशारे से आने को कहा । दो आदमी ही भीतर आए । बाकी वहीं खड़े रहे ।
पास आकर उन्होंने तीनों को आदर भरे ढंग से सलाम किया।
"चौधरी साहब हम आपसे कुछ कहने आए हैं।" एक ने कहा ।
"कहो।" चौधरी विश्राम सिंह ने उन्हें देखा ।
"देवा के आने की खुशी में बस्ती वाले आज रात जश्न मनाना चाहते हैं और सब की इच्छा है कि उस जश्न में देवा भी शामिल हो ।"
"तुम लोगों की इच्छा जरूर पूरी होगी ।" चौधरी विश्राम सिंह ने शांत स्वर में कहा-"लेकिन देवा लंबे सफर से आया है और इस वक्त आराम कर रहा है । जश्न का प्रबंध एक-दो दिन बाद किया जाए तो इससे देवा को ज्यादा खुशी होगी ।"
"जैसे चौधरी साहब का हुक्म | "
दोनों आदर भरे ढंग से पलटकर बाहर निकल गए।
उन तीनों के बीच एक बार फिर चुप्पी छा गई ।
"विश्राम।"
चौधरी चरण विश्राम सिंह ने ताऊ हुकुम सिंह को देखा।
"वो काली बिल्ली देखी जो अपने देवा के साथ है।" आवाज में गंभीरता थी। जवाब दिया चाचा भागवत सिंह ने ---
"हां देखी है और मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वो बिल्ली है । मिन्नो की चहेती काली बिल्ली । "
तीनों की गंभीर व्याकुल निगाहें आपस में टकराई
"मिन्नो की चहेती बिल्ली अपने देवा के साथ क्यों है ?" ताऊ हुकम सिंह कह उठा।
"अभी इन बातों पर मत जाओ।" विश्राम सिंह ने हाथ उठाकर कहा--- "ये वक्त इन बातों पर जाने का नहीं है । अगर वो काली बिल्ली अपने देवा को कोई नुकसान नहीं पहुंचाती तो, अभी इस बारे में हमें खामोश रहना चाहिए और हमें सिर्फ देवा के बारे में सोचना है कि जल्द से जल्द उसे कैसे बीते जन्म की बातें याद दिलाऊं ।"
तीनों अंधेरा होने तक, इसी मुद्दे पर विचार-विमर्श करते रहे ।
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