"क्या सोचा देवराज चौहान?" युवराज पाटिल के स्वर ने वहां फैली लंबी खामोशी को तोड़ा।
"अपना फैसला तुम्हें बता चुका हूं---।" देवराज चौहान का स्वर शांत था
"मतलब कि राम दा को गोली नहीं मारोगे?"
"नहीं।"
"नसीमा को मेरे हवाले नहीं करोगे?"
"नहीं।"
"सोच लो।" पाटिल के गूंजने वाले स्वर में कठोरता आ गई--- "मेरी बात ना मानने पर तुम, सोहनलाल और जगमोहन भी मारे जाओगे। कोई नहीं बचेगा।"
"जगमोहन?" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।
"हां। उसे इस वक्त मैं स्क्रीन पर देख रहा हूं। अभी वो चारदिवारी फलांग कर भीतर आया है और अब बंगले के भीतर की तरफ आ रहा है। मेरे ख्याल से बहुत जल्दी वो तुम्हारे पास होगा। और तुम उसे किसी भी तरह भीतर आने से नहीं रोक सकते। मैं तुम्हें उसे सतर्क करने का मौका नहीं दूंगा।"
देवराज चौहान के होंठ भिंच गए।
"तुम सब फंस चुके हो। समझदारी इसी में है कि मेरी बात मान लो और तुम्हें मेरी बात मान भी लेनी चाहिए। क्योंकि हममें दुश्मनी जैसी बात कभी नहीं रही।" युवराज पाटिल का स्वर बराबर कानों में पड़ रहा था--- "मैं नहीं चाहता कि तुम जैसे काबिल इंसान की जान खामख्वाह लूं। और फिर मैंने कोई बड़ी डिमांड भी नहीं रखी। यूँ समझो कि मेरी बात मानकर, तुम पचास अरब की दौलत पा लोगे।"
"मेरे अपने उसूल हैं पाटिल। अपने उसूलों पर चलकर दौलत को हासिल करता हूं। दौलत कभी भी मुझे कमजोर नहीं कर सकी। तुम मुझसे जो चाहते हो वो कभी नहीं होगा।"
"जिंदगी से बढ़कर, कुछ नहीं होता देवराज चौहान---।"
"ये तुम्हारी सोच है। तुम कह रहे हो। मैं ऐसे ख्याल नहीं रखता।" तभी कदमों की आहट गूंजी।
देखते ही देखते गैलरी में आगे बढ़ता जगमोहन नजर आया।
"तेरी ही कमी थी।" सोहनलाल ने गहरी सांस ली--- "तू भी आ-जा।"
"मैंने सोचा, दौलत के अकेले-अकेले मजे लूट रहे हो।" पास आता मुस्कुराकर जगमोहन कह उठा--- "कुछ मजे मैं भी देख लूं। मेरे ख्याल में, मैं ठीक वक्त पर पहुंचा हूं।"
"बहुत ठीक वक्त पर पहुंचा है।" सोहनलाल कड़वे स्वर में कह उठा--- "मैं तुम्हें याद ही कर रहा था कि तू भी मजे ले ले।"
पास पहुंचते ही जगमोहन की आंखें सिकुड़ चुकी थीं। सोहनलाल जिस तरह खड़ा था वो मन में शक पैदा कर देने वाली बात थी। उसके आसपास फैले लाल धब्बों ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया था।
"ये क्या है?" जगमोहन के होंठों से निकला।
"ये बारूद है।" सोहनलाल ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैंने अपना पांव इनके ऊपर रखा तो बारूद फट जाएगा और खेल खत्म। पाटिल ने हमें डंडा बनाकर सीधा खड़ा कर रखा है।"
"पाटिल?" जगमोहन के होंठ भिंच गए--- "कहां है वो?"
"अपने खुफिया कंट्रोल रूम में। एक कंट्रोल रूम तो हमारे कब्जे में है। परन्तु इसी बंगले में कहीं खुफिया कंट्रोल रूम भी है। जहां छिपा वो हमसे मजे ले रहा है।" सोहनलाल की आवाज गंभीर ही थी।
जगमोहन ने फौरन देवराज चौहान को देखा। जिसके चेहरे पर सख्ती सिमटी हुई थी।
"अब क्या कहता है पाटिल?" जगमोहन के होंठों से निकला।
"उसका कहना है कि हम राम दा को शूट कर दें और नसीमा को उसके हवाले कर दें तो वो रिमोट हमें देकर यहां से जाने देगा।" देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा।
जगमोहन ने राम दा को देखा।
चेहरे पर मौत समेटे राम दा ने हाथ में दबी रिवॉल्वर उसे दिखाई।
"लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि उसकी बात मानें तो वो अपनी बात पूरी करेगा।" जगमोहन बोला।
"मैं उसकी बात किसी भी कीमत पर नहीं मान सकता। राम दा और नसीमा इस काम में मेरे साथी हैं।" देवराज चौहान की आवाज में कड़ापन आ गया--- "और अपने साथियों की हिफाजत करता हूँ, उनकी जान नहीं लेता।"
"वो तो ठीक है।" जगमोहन ने सोच भरे स्वर में कहा--- "फिर भी ये पूछने में क्या हर्ज है कि वो अपनी गारंटी कैसे देगा कि अपनी बात पर खरा उतरेगा। हम राम दा को मार दें। नसीमा को उसके हवाले कर दें तो वो हमें क्यों जाने देगा। वो तुरंत हमें खत्म कर देगा।"
"यहां तक सोचने की जरूरत मैंने इसलिए नहीं समझी कि मैं पाटिल की बात नहीं मान सकता।" देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "बेशक वो कुछ भी करे।"
"पाटिल है कहां। उससे कैसे बात...?" जगमोहन ने कहना चाहा।
"तुम मुझसे बात कर सकते हो। मैं तुम लोगों से बात ही नहीं, तुम लोगों की हरकतें भी देख सकता हूं।" तभी वहां पाटिल का स्वर गूंज उठा--- "कैसी गारंटी चाहते हो तुम?"
"तुमने मेरी बात सुनी?" जगमोहन बोला।
"हां।"
"तो समझ भी गए होगे कि मैं क्या कहना चाहता हूं---।"
"जगमोहन! इस वक्त मेरे शब्द ही मेरी गारंटी हैं।" पाटिल का स्वर सुनाई दिया।
"ऐसी गारण्टी तो मैं भी दे सकता हूं---।" जगमोहन का स्वर तीखा हो गया--- "तुम हमें रिमोट दो। जब हम ठीक-ठाक ढंग से तिजोरी खोल लेंगे। उसमें पड़ी दौलत पा लेंगे तो राम दा को गोली मारकर नसीमा को तुम्हारे हवाले कर देंगे।"
"खूब। मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने समझदार हो।" आवाज के साथ ही पाटिल की हंसी भी आई।
"समझदारी तो तुम दिखा रहे हो।"
"मत भूलो कि तुम लोग इस वक्त मेरी बात मानने को मजबूर हो। मैं तुम लोगों को सेकेंडों में खत्म कर सकता हूं। जिस बारूद पर सोहनलाल खड़ा है, सिर्फ एक बटन दबाने से वो फट जाएगा और तुम सबके चिथड़े-चिथड़े उड़ जाएंगे। ऐसे में तुम लोगों को मेरी बात मान लेनी चाहिए।" पाटिल की आवाज में सख्ती आ गई।
"ये फैसला तो देवराज चौहान ही ले सकता है।" जगमोहन ने जवाब दिया--- "मैं तो सिर्फ तुम्हें अपनी बात की गारंटी दे सकता हूं कि रिमोट दो और हमें जाने दो। तिजोरी में मौजूद पचास अरब की दौलत अगर हमें सही-सलामत मिल जाती है। इस बीच तुम कोई चालाकी नहीं करते तो तुम्हारी दोनों बातें मैं पूरी करूंगा। राम दा को खत्म कर दूंगा। नसीमा को तुम्हारे हवाले कर दूंगा।"
"लगता है तुम लोगों को अपनी जिंदगी प्यारी नहीं। मरना चाहते हो।"
"जिंदगी बहुत प्यारी है। कोई बेवकूफ ही मरना चाहता होगा।" जगमोहन ने कहा--- "तभी तो कह रहा हूं कि मुझ पर विश्वास करके मेरी गारंटी वाली बात मान लो। एक बार विश्वास करके तो देखो। अफसोस नहीं होगा।"
पल भर की खामोशी के बाद पाटिल की आवाज आई।
"क्यों देवराज चौहान! जगमोहन की बात की गारंटी तुम लेते हो?"
"मैं सिर्फ अपनी बात कहता-सुनता हूं। किसी और की बात से मेरा कोई वास्ता नहीं।" देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा।
"पाटिल!" जगमोहन फौरन कह उठा--- "ज्यादा वहम में पड़ने का नतीजा अच्छा नहीं होता। जो काम करना हो वो फौरन कर देना चाहिए। अगर बारूद से हमें खत्म करना चाहते हो तो वो करो। वरना मेरी गारंटी पर रिमोट देकर हमें यहां से चलता करो। तिजोरी की दौलत हाथ में आते ही, तुम्हारे दोनों काम मैं पूरे करूंगा।"
"मेरी तुम लोगों से कोई दुश्मनी नहीं। इसलिए मैं दोस्ती कायम करने का एक और मौका दे रहा हूं। चाहता तो यहां अपने आदमियों को बुलाकर, भारी तौर पर खून-खराबा करवाकर, राम दा के सब आदमियों को खत्म करवा सकता था। लेकिन मैंने ऐसा कुछ भी इसलिए नहीं किया कि सारे फसाद की जड़ राम दा है। उसके आदमी नहीं। मुझे राम दा को खत्म करना है। ये नहीं रहेगा तो मेरा एक दुश्मन कम हो जाएगा। इससे मुझे राहत मिलेगी। मेरे धंधों को नुकसान नहीं पहुंचेगा। और नसीमा से मालूम होगा कि कौन मेरी बगल में रहकर मेरी गर्दन पर धीरे-धीरे छुरी फेर रहा है।"
"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं।" जगमोहन ने गंभीरता से सिर हिलाया--- "हमारे और तुम्हारे रास्ते अलग-अलग हैं। इस राह पर हमें नसीमा और फिर राम दा लाए हैं। नसीमा हमें कुछ न बताती तो, हमने तुम्हारे माल पर हाथ डालना ही नहीं था। नसीमा हमें न बताती तो भला हमें कैसे मालूम होता कि यहां पर स्ट्रांग रूम में रिमोट पड़ा है। राम दा अपने आदमी हमारी सेवा में ना देता तो, हम यहां पर कब्जा कर ही नहीं सकते थे। मैं तो शुरु से ही कह रहा था कि पाटिल के खिलाफ मत जाओ लेकिन नसीमा और राम दा ने हमारा दिमाग खराब कर दिया था कि हम ये काम करने को राजी हो गए।"
देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई और कश लेकर दूसरी तरफ देखने लगा।
सोहनलाल की एकटक निगाह जगमोहन पर थी।
और राम दा दांत भींचे खामोशी से जगमोहन को देख रहा था।
"तुम लोग बच्चे नहीं हो कि दूसरों की बातों में लग जाओ।" पाटिल की आवाज में कड़वापन था।
"ठीक कहा तुमने। लेकिन कभी-कभी दिमाग खराब हो जाता है। मुझे वास्तव में इस वक्त अफसोस हो रहा है कि हम दूसरों की बातों में आकर, खामख्वाह फंस गए।" जगमोहन ने गहरी सांस ली--- "अगर तुमने नर्मी ना दिखाई होती तो अब तक यहां हमारी लाशें पड़ी होतीं।"
"तुम्हारी बातों से चालाकी की महक आ रही है जगमोहन---।"
"ऐसा कुछ भी नहीं है।" जगमोहन फौरन इंकार में सिर हिलाकर सख्त स्वर में कह उठा--- "सच मानो इस वक्त मुझे अपने पर गुस्सा आ रहा है कि मैं इस काम में साथ क्यों रहा। देवराज चौहान भी नहीं समझा कि सामने पाटिल जैसा ताकतवर इंसान है। जो... खैर छोड़ो। मैं ज्यादा सफाई नहीं देना चाहता।"
"तुम राम दा के सामने उसे खत्म करने को कह रहे हो और राम दा खामोश है। ये बात इसकी फितरत से मेल नहीं खाती।" पाटिल की आवाज में व्यंग के तीखे भाव थे।
जगमोहन ने राम दा पर निगाह मारी फिर गंभीर स्वर में कह उठा।
"पाटिल! मैं जानता हूं कि राम दा इस वक्त ये सोच रहा है कि यहां से ठीक-ठाक बाहर निकल जाए। उसके बाद सब ठीक कर लेगा। तभी ये बातों में चुप है और अपनी मौत की बात तय होते सुन रहा है। लेकिन ये बात मुझ पर छोड़ दो। मैं इसे यहीं से काबू करके चलूंगा कि ये कुछ ना कर सके।"
"तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकोगे।" राम दा दांत किटकिटा कर कह उठा।
तभी जगमोहन चील की भांति झपटा और राम दा की रिवाल्वर छीन कर उसका रुख उसकी तरफ कर दिया। चेहरों पर खतरनाक भाव नजर आने लगे थे।
"मैं तुम्हें इसी वक्त भून सकता हूं।" जगमोहन दरिंदगी से कह उठा--- "अगर वक्त से पहले मरना नहीं चाहते तो खामोशी से खड़े रहो और कोई भी हरकत मत करना।"
राम दा का चेहरा क्रोध से स्याह पड़ गया। वो दरिंदगी भरे स्वर में देवराज चौहान से बोला।
"इसे समझा दो देवराज चौहान। वरना---।"
"जगमोहन इस वक्त जो भी कर रहा है अपनी जिम्मेवारी पर कर रहा है।" देवराज चौहान ने भाव हीन स्वर में कहा--- "इसके काम में दखल देने की मैं जरूरत नहीं समझता। अगर इस वक्त तुम किसी तरह इसे खत्म करते हो तो मैं बीच में दखल नहीं दूंगा। खुद को बचाने का तुम्हें पूरा हक है।"
राम दा के होंठों से गुर्राहट निकली।
"खबरदार!" जगमोहन की सुलगती निगाह राम दा पर थी--- "जरा भी हिले तो सारी गोलियां तुम्हारे शरीर में उतार दूंगा।"
सनसनाहट भरी खामोशी वहां उभर आई।
"पाटिल---।" जगमोहन के हाथ में दबी रिवाल्वर का रुख और नजरें राम दा पर थीं।
"कहो।"
"बोलो मेरी बात पर विश्वास करके सौदा करते हो?"
"एक बार तो तुम्हारी बात पर विश्वास अवश्य करूंगा।" युवराज पाटिल का स्वर कानों में पड़ा--- "अगर तुमने धोखेबाजी की तो किसी भी हालत में बच नहीं सकोगे। मैं---।"
"मेरी तरफ से ऐसा कुछ नहीं होगा, जैसा कि---।"
"ऐसा हुआ तो निपटना मुझे आता है जगमोहन।" युवराज पाटिल के आने वाले स्वर में दरिंदगी के भाव शामिल हो गए थे--- "ये सौदा तुम्हारे और मेरे बीच हो रहा है।"
"चिंता मत करो। मेरे जैसी खरी गारंटी तो देवराज चौहान भी नहीं दे सकता।" जगमोहन की आवाज में विश्वास के भाव कूट-कूट कर भरे हुए थे--- "सोहनलाल के पास से बारूद हटाओ और रिमोट दो।" इन सब बातों के दौरान जगमोहन की निगाह राम दा पर ही थी।
दोनों एक-दूसरे को मौत की सी निगाहों से देख रहे थे।
"सोहनलाल---!" पाटिल की आवाज गूंजी--- "तुम स्ट्रांग रूम के भीतर नहीं जाओगे।"
"ठीक है।" सोहनलाल बोला।
"मैं बारूद का मॉनिटर ऑफ कर रहा हूं। ऐसा होते ही सबसे पहले स्ट्रांग रूम का दरवाजा बंद करोगे।"
"ठीक है।"
फिर देखते ही देखते फर्श पर नजर आने वाली सुर्खी गायब हो गई।
सोहनलाल ने स्ट्रांग रूम का दरवाजा बंद किया तो वो फिर से लॉक हो गया।
"देवराज चौहान!" जगमोहन राम दा पर नजरें टिकाए बोला--- "राम दा के हाथ पीछे की तरफ बांधो।"
"मैं इस वक्त तुम्हारे किसी भी काम में साथ नहीं हूं।" देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा।
"मैं बांधता हूं।" कहने के साथ ही सोहनलाल जेब से रुमाल निकालता हुआ आगे बढ़ा।
"जगमोहन!" राम दा मौत से भरे स्वर में गुर्रा उठा--- "ये सब करके तुम अपनी मौत को बुलावा दे रहे हो। राम दा के हाथ को बांधना अपने गले को दबाने के बराबर है। तुम---।"
"चुप।" जगमोहन ने रिवाल्वर की नाल उसकी छाती पर रखकर सुलगते स्वर में बोला--- "हाथ पीछे कर---।"
मौत की सी निगाहों से उसे देखते राम दा ने दोनों हाथ पीछे कर लिए।
सोहनलाल ने फुर्ती के साथ पक्के ढंग से उसके दोनों हाथ-पांव बांध दिए
"अच्छी तरह बांधना---।" जगमोहन ने मीठे स्वर में कहा।
"फिक्र नहीं कर।" सोहनलाल बोला--- "ये तो मेरे खोलने से भी नहीं खुलेंगे।"
"नजर रख इस पर। नंबरी हरामी है ये।" जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा फिर बोला--- "पाटिल---!"
"सुन रहा हूं मैं---।"
"रिमोट दो, हम यहां से जाएं।"
"अपनी बातें याद हैं। जो वायदा तुमने...।"
"मुझे अच्छी तरह याद है। दोबारा कहने की मैं जरूरत नहीं समझता। तुम रिमोट दो। मैं इस मामले को जल्दी से जल्दी खत्म कर देना चाहता हूं और तुम्हें दिखाना चाहता हूं कि मैंने जो कहा है, सच कहा है।"
"लेकिन देवराज चौहान तुम्हारी बातों से सहमत नहीं है।"
"वो अपने उसूलों पर चलता है और मैं अपने।" जगमोहन ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "अब इस मामले को मैंने अपने हाथ में ले लिया है। इन बातों से अब देवराज चौहान का कोई मतलब नहीं रहा। मैं देवराज चौहान का नौकर नहीं हूं। देवराज चौहान मेरा नौकर नहीं है। हम अपनी-अपनी मर्जी करने को आजाद हैं। तुम रिमोट दो। मैं यहां से निकलकर जल्दी तिजोरी के पास पहुंचना चाहता हूं ताकि उसके बाद उस बात को पूरा कर सकूं, जिसका वायदा तुम्हारे साथ किया है। रिमोट सही देना। तिजोरी खोलने पर भीतर का बम फटना नहीं चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो हममें से कोई भी नहीं मरेगा। मरेगा तुम्हारा ये आदमी, जो इस वक्त यहां है।" कहते हुए जगमोहन ने वहां मौजूद नाथ की तरफ इशारा किया--- "यही तिजोरी खोलेगा और तब हम इतनी दूर होंगे कि बम विस्फोट से हमें जरा भी नुकसान नहीं होगा।"
"फिक्र मत करो। मैं सही रिमोट ही तुम्हें दूंगा।" पाटिल की आवाज आई--- "मैं सिर्फ अपनी दोनों बातों को पूरा हुआ देखना चाहता हूं। राम दा की मौत और नसीमा मेरे कदमों में। तुमने मेरा बैडरूम देखा है?"
"नहीं।"
"मैंने देखा है।" सोहनलाल कह उठा।
"रिमोट मेरे बैड पर पड़ा है। ले लो...।"
"बैड पर तो कुछ भी नहीं है।" सोहनलाल बोला।
"जब तुमने देखा था। तब कुछ नहीं था। अब वहां रिमोट पड़ा है।" पाटिल की आवाज कानों में पड़ी।
जगमोहन और सोहनलाल की नजरें मिलीं।
"रिमोट लेकर आ।" जगमोहन ने सोहनलाल से कहा।
सोहनलाल वहां से चला गया।
राम दा खा जाने वाली निगाहों से जगमोहन को घूरे जा रहा था।
"ऐसे क्या देखता है?" जगमोहन गुर्राया।
"तेरे को। बाहर चल। वहां मेरे आदमी हैं। तेरे तो टुकड़े-टुकड़े---।"
"चुप। वरना यहीं भून दूंगा।" जगमोहन का लहजा और भी खतरनाक हो गया।
राम दा दांत पीसकर रह गया।
देवराज चौहान इस तरह खामोश खड़ा था, जैसे यहां होने वाली किसी बात से उसका वास्ता ही ना हो।
"देवराज चौहान!" पाटिल का स्वर सुनाई दिया--- "मेरे ख्याल में जगमोहन तुमसे ज्यादा समझदार है।"
"होगा।" देवराज चौहान का स्वर सपाट था।
"जबकि मैं तो तुमसे समझदारी की आशा लगाए बैठा था।"
"पाटिल!" जगमोहन कह उठा--- "देवराज चौहान सिर्फ अपने काम से मतलब रखता है। जहां गारंटी देने का काम होता है, वहां मैं अपनी मोहर लगाने, आगे आ जाता हूं। जैसे कि अब।"
"मेरा काम पक्का होना चाहिए जगमोहन। वरना---।"
"बार-बार मत कहो। क्या मुझ पर विश्वास नहीं, जो---?"
तभी सोहनलाल वहां आ पहुंचा। हाथ में माचिस के आकार का रिमोट दबा था। जिस पर एक छोटा-सा स्विच लगा था। वहां ऑन-ऑफ का निशान था।
"मिला?" जगमोहन ने उसे देखा।
"हां।"
"रिमोट को इस्तेमाल कैसे करना है पाटिल?" जगमोहन ने पूछा।
"रिमोट पर एक ही स्विच है। तिजोरी के पास पहुंचकर उसे ऑफ कर देना। तिजोरी में लगे बम का कंट्रोल फेल हो जाएगा और फिर तिजोरी खोलने पर बम नहीं फटेगा।"
"ठीक है। अब हम चलते हैं। तुम्हारा ये आदमी साथ चलेगा और यही तिजोरी खोलेगा।"
"नाथ तुम इनके साथ जाना।"
"ज-जी---।" नाथ के होंठों से सूखा-सा स्वर निकला।
"जल्दी मिलेंगे पाटिल।" जगमोहन ने कहा।
"हां। हमारी जल्दी मुलाकात होगी।" पाटिल का स्वर सुनाई दिया।
रिमोट सोहनलाल जेब में डाल चुका था।
जगमोहन ने राम दा का कंधा पकड़ कर उसे घुमाया और नाल पीठ से लगा दी।
"चल। कोई हरकत मत करना।"
"तेरा खेल मैं अभी खत्म...।" राम दा ने मौत भरे स्वर में कहना चाहा।
"अबकी बार बोला तो गोली मार दूंगा।" जगमोहन के स्वर में दरिंदगी भर आई थी।
वो आगे बढ़े। देवराज चौहान भी पीछे चल पड़ा।
नाथ उनके साथ था।
सब वहां से बाहर निकलकर बंगले के हॉल में पहुंचे तो राम दा के बंधे हाथ और पीठ से रिवाल्वर सटी देखकर, उन्होंने हथियार सीधे कर लिए।
"राम दा को छोड़ो।"
"क्या हो रहा है ये...?"
राम दा के आदमियों के चेहरों पर खतरनाक भाव नजर आने लगे।
"इनसे कहो, ये फार्म हाउस खाली करके वहां पहुंचे, जहां वैनें और कारें खड़ी की थीं।" जगमोहन बोला।
"लेकिन...।" राम दा ने गुस्से भरी आवाज में कहना चाहा।
"जो मैंने कहा है, वही करो।" जगमोहन दांत भींचकर कह उठा।
"ये जगह खाली करनी है।" राम दा ने अपने आदमियों से कहा--- "सब से कह दो और वहां पहुंचो जहां हमने गाड़ियां खड़ी की थीं---।"
"लेकिन आपकी हालत...।" एक ने कहना चाहा।
"जो कहा है, वही करो। मैं भी वहीं पहुंच रहा हूं। ये जगह खाली कर दो।" राम दा गुर्रा उठा।
वो सब आदमी फुर्ती से बाहर निकलते चले गए।
"चलो...।" जगमोहन ने राम दा की पीठ से बराबर रिवाल्वर सटा रखी थी। राम दा के हाथ पीठ की तरफ बंधे थे। साथ में देवराज चौहान, सोहनलाल थे।
वो सब फार्म हाउस के सामने वाले गेट से बाहर निकले।
राम दा के आदमी भी वहीं से बाहर निकल रहे थे।
फार्म हाउस खाली होता जा रहा था।
यहां-तहां बिखरी पाटिल के आदमियों की लाशें नजर आ रही थीं।
■■■
सोहनलाल, नसीमा को ले आया था।
फार्म हाउस से कुछ आगे जाकर जगमोहन ने राम दा के हाथ खोले और उसकी रिवाल्वर उसे थमा दी। राम दा ने खा जाने वाली निगाहों से उसे देखा।
"देखता क्या है, मजे कर---।" जगमोहन मुस्कुराया।
"मतलब कि तुमने पाटिल से जो किया, वो ड्रामा था?" राम दा बोला।
"हां। ये सब करना जरूरी था।"
"लेकिन ये सब तो देवराज चौहान भी कर सकता था।" राम दा ने देवराज चौहान पर नजर मारी।
"जो मैंने किया है, वो देवराज चौहान नहीं करता।" जगमोहन मुस्कुराया।
"क्यों?"
"वो जुबान वाला बंदा है। मेरी तरह हर किसी को जुबान की गारंटी नहीं देता फिरता।"
"और तुम?"
"मेरे से कितनी भी जुबानें, कितनी भी गारंटी ले ले। ठप्पा लगा कर दूंगा। बहुत खुले दिलवाला हूं मैं...।"
राम दा जगमोहन को घूरने लगा।
"मतलब कि तू पाटिल को बेवकूफ बनाकर आया है।" राम दा के होंठ सिकुड़े।
"पाटिल को बेवकूफ बनाना आसान नहीं।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "पाटिल तौर पर ये बात जानता था कि जगमोहन झूठ बोल रहा है। इस पर भी उसने रिमोट दिया। हमें जाने दिया।"
"क्यों?" राम दा के माथे पर बल पड़े।
"इस क्यों का जवाब तो युवराज पाटिल ही दे सकता है। लेकिन ये बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस वक्त भी पाटिल हमसे कोई खेल खेल रहा है। वरना उस वक्त वो आसानी से हम सबको खत्म कर सकता था। अचानक ही सारा खेल उसकी मुट्ठी में बंद हो गया था। वो कुछ भी कर सकने लायक था।"
"तो फिर उसने हमें छोड़ा क्यों?" सोहनलाल कह उठा।
"बहुत जल्दी इस बात का जवाब पाटिल ही देगा। उसका अगला कदम बताएगा कि वो क्या करने का इरादा रखता है।" देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे।
बातों के दौरान वो आगे भी बढ़ते जा रहे थे।
"पाटिल जो भी करना चाहता है, वो करने में कामयाब ना हो सके, इसके लिए कुछ सोचना चाहिए।" जगमोहन ने कहा--- "रिमोट देकर, हमें छोड़कर, उसने वास्तव में कोई चाल चली है।"
"जब मालूम ही नहीं कि वो क्या करने जा रहा है तो हम क्या कर सकते हैं?" राम दा ने कहा।
कुछ देर बाद देवराज चौहान बोला।
"युवराज पाटिल, जो भी खेल खेल रहा है, वो तिजोरी को लेकर है।"
"वो कैसे?"
"वरना वो रिमोट हमें न देता।" देवराज चौहान ने चलते-चलते सिग्रेट सुलगाई--- "वो जानता है कि हम रिमोट लेकर यहां से सीधे तिजोरी के पास ही पहुंचेंगे।"
"इसका तो मतलब ये हुआ कि पाटिल के आदमी हमारा पीछा करेंगे।" जगमोहन बोला।
"पाटिल इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं है।" नसीमा कह उठी--- "वो जो सोच ले। वही कम है। उसे किसी भी तरफ से कम मत समझो। उसने सबको जिंदा छोड़ा है तो यकीनन कोई खास बात है।"
"राम दा---।" देवराज चौहान ने कहा--- "अब तुम्हारा काम खत्म हो गया है।"
"लेकिन मैं तो खाली ही रहा।"
'ये तुम्हारी किस्मत। रिमोट हमारा। बाकी सब कुछ तुम्हारा। और बाकी जो भी था। वहां तक हम नहीं पहुंच सके।"
"कोई बात नहीं।" राम दा खतरनाक स्वर में कह उठा--- "ये तो मालूम हो ही गया कि पाटिल ने अपना माल कहां दबा रखा है। अब मैं और भी खास तैयारी के साथ, फार्म हाउस पर कब्जा करूंगा। फिर देखूंगा कि कैसे बचता है। मैं पहले ही उस जगह के बारे में मालूम कर लूंगा, जहां वो अब छिप गया था।"
"आज के बाद तुम क्या करते हो। इस बात से हमें कोई वास्ता नहीं। हमारा साथ यहीं तक था।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "अपने आदमी लेकर तुम चले जाओ।"
"अच्छी बात है।" राम दा ने गंभीर स्वर में कहा--- "अभी पाटिल से तुम्हें खतरा है। बेहतर होगा कि मेरे आदमी साथ रख लो। ये तुम्हारे काम ही आएंगे। नुकसान नहीं देंगे।"
"नहीं। मैं सब संभाल लूंगा।" देवराज चौहान के चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था।
"तुम्हारी मर्जी...।"
"मेरे ख्याल में राम दा ठीक कह रहा है।" नसीमा कह उठी--- "पाटिल कोई बड़ा खेल खेल रहा है। जरूरत पड़ने पर राम दा के आदमी हमारे काम आ सकते हैं।"
"राम दा---!" देवराज चौहान ने पहले वाले स्वर में कहा-- "तुम अपने आदमी लेकर चले जाओ।"
"मैंने कब मना किया है।"
वे सब वहां पहुंचे, जहां वैनें और कारें खड़ी की थीं।
देखते-ही-देखते राम दा के आदमी वैनों और कारों में पहुंच गए।
राम दा ने सबसे विदा ली और अपने छोटे से काफिले के साथ वहां से चला गया।
उसके बाद देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल, नसीमा और नाथ अपनी कार में बैठे और कार वहां से आगे बढ़ी और मुख्य सड़क पर आ गई।
कुछ आगे जाकर देवराज चौहान ने कार सड़क के किनारे रोकी।
"सब बाहर निकलो।" कहते हुए देवराज चौहान बाहर निकला।
सब बाहर आ गए।
"सोहनलाल!" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "तुम नाथ के साथ तिजोरी के पास पहुंचो और रिमोट का इस्तेमाल करके तिजोरी खोलो। तिजोरी नाथ खोलेगा। तुम इतनी दूर रहोगे कि अगर बम ब्लास्ट हो तो बच जाओ। वैसे मेरे ख्याल में रिमोट सही है। बम ब्लास्ट नहीं होगा।
"और तुम?" सोहनलाल के होंठों से निकला।
"हम बाद में वहां आएंगे।"
"तिजोरी खोलने में अभी वक्त लगेगा।" सोहनलाल ने कहा--- "उसके अभी दो लॉक खोलने हैं।"
"इस वक्त दोपहर का एक बजा है।" देवराज चौहान ने प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखा।
"शाम के छः-सात के आस-पास ही तिजोरी खुल पाएगी।" सोहनलाल ने कहा।
"ठीक है। तुम जाकर, अपने काम में लग जाओ।" देवराज चौहान के चेहरे पर गंभीरता थी।
"लेकिन तुम क्या करना चाहते हो?"
"युवराज पाटिल की चाल का जवाब देने की कोशिश कर रहा हूं। जबकि अभी मैं स्पष्ट तौर पर नहीं कह सकता कि वो क्या खेल खेल रहा है। शाम को हम बंगले पर आएंगे।"
सोहनलाल ने कुछ नहीं कहा। कार की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा। नाथ को उसने बगल में बिठा लिया। पाटिल का दिया रिमोट उसकी जेब में था। सोहनलाल ने सबके चेहरों पर निगाह मारी फिर कार आगे बढ़ा दी। देखते ही देखते कार निगाहों से ओझल हो गई।
"तुम्हारे पास अपने लिए छुपने की कोई जगह है कि पाटिल की नजरों में ना आ सको?" देवराज चौहान बोला।
"क्या मतलब?" नसीमा के होंठों से निकला।
"मेरी बात का जवाब दो।"
"हां। एक जगह है।"
"अपने मोबाइल फोन का नंबर दे दो और वहां जाकर छुप जाओ। अगर सब-कुछ ठीक रहा तो तिजोरी में मौजूद दौलत का तुम्हारा हिस्सा तुम्हें देने के लिए फोन कर दूंगा।" देवराज चौहान ने नसीमा से कहा।
"लेकिन मेरे साथ रहने में क्या हर्ज है?"
"मालूम नहीं पाटिल क्या कर रहा है। तुम्हारे लिए खतरा हो सकता है।"
"परवाह नहीं। तुम लोग खतरे का मुकाबला कर सकते हो तो, मैं क्यों नहीं।" नसीमा के स्वर में दृढ़ता थी।
देवराज चौहान ने गंभीर निगाहों से नसीमा को, जगमोहन को देखा।
"जैसा तुम ठीक समझो।" देवराज चौहान ने कहा।
"लेकिन अब करना क्या है?" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
"किसी कार का इंतजाम करके यहां से चलेंगे और अपने ही बंगले पर इस तरह नजर रखना है कि कोई हमारी झलक ना पा सके। मेरे ख्याल में पाटिल अब जो भी करेगा, वहीं, बंगले पर ही करेगा।"
"लेकिन पाटिल को हमारे बंगले के बारे में कुछ भी नहीं मालूम कि...।"
"मैं नहीं जानता कि पाटिल को बंगले के बारे में मालूम है या नहीं।" देवराज चौहान ने विश्वास भरे स्वर में कहा--- "लेकिन वो जो भी करेगा, वहीं करेगा। और कहीं भी वो कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि हम तो बंगले पर हैं।"
जगमोहन होंठों को सिकोड़े सिर हिलाकर रह गया।
और नसीमा खुद को पक्का कर चुकी थी कि वो इनके साथ ही रहेगी। जो होगा देखा जाएगा।
अब तक पाटिल के हक में लड़ती रही है और अब लड़ाई पाटिल के खिलाफ है।
■■■
वो काली कार थी। शीशे भी काले थे।
भीतर पांच व्यक्ति मौजूद थे। एक कार ड्राइव कर रहा था। दूसरा उसकी बगल में बैठा था और बाकी के तीन पीछे वाली सीट पर बैठे थे। तीनों में से बीच वाले व्यक्ति के हाथ में दो इंच चौड़ा और तीन इंच लम्बा, स्क्रीन जैसा कोई शीशा थमा था, जो कि रोशन था और उसमें टी•वी• तरह दृश्य नजर आ रहा था। दाईं तरफ कतार में चार बटन लगे थे। स्क्रीन पर सोहनलाल वाली नन्हीं-सी कार सड़क पर दौड़ती नजर आ रही थी। स्क्रीन के एक कोने में I•K•M• लिखा था। बगल में बैठा व्यक्ति स्क्रीन पर नजरें टिकाए, कान से मोबाइल फोन लगाए, बात कर रहा था। इसके अलावा अजीब-सी खामोशी थी कार में।
"पाटिल साहब!" मोबाईल फोन पर वो व्यक्ति कह रहा था--- "हम उस कार से एक किलोमीटर पीछे हैं और उस कार की रफ्तार चालीस किलोमीटर है।"
"गुड।" पाटिल की आवाज उसके कानों में पड़ी--- "वो हमारी निगाहों से बच नहीं सकते। जो रिमोट उनके पास है, उसमें कई खूबियां हैं। रिमोट के साथ वो जहां भी जाएंगे, हमारी नजरों में रहेंगे। सावधानी से पीछे रहो।"
"हमें बताते रहिए कि हमने क्या करना है।" उसने कहा।
"इस बारे में तुम निश्चिंत रहो। मैं तुम लोगों के साथ हूं।" युवराज पाटिल के स्वर में कठोरता आ गई--- "मजबूरन मुझे इस मामले में खुलकर सामने आना पड़ रहा है। क्योंकि ये मामला देवराज चौहान जैसे इंसान से वास्ता रखता है। उससे निपटने में तुम लोगों से कोई चूक भी हो सकती है। और मैं हारना नहीं चाहता।"
"जी---।" फोन पर ही वो सिर हिलाने लगा।
तभी स्क्रीन थामें वो व्यक्ति ड्राइव करने वाले से कहे उठा।
"चौराहा आ रहा है। आगे वाली कार चौराहे से बाईं तरफ मुड़ गई है।"
"ठीक है।" ड्राइव करने वाले ने कहा।
कुछ पलों बाद उनकी कार भी बाईं तरफ मुड़ गई।
उस छोटी सी स्क्रीन पर आगे वाली कार स्पष्ट नजर आने लगी।
"देवराज चौहान ने बहुत बड़ी गलती की है, मेरी दौलत पर हाथ डालकर।" फोन पर उस व्यक्ति के कान में पाटिल की आवाज पड़ी--- "उसकी वजह से नसीमा मेरे साथ गद्दारी पर उतर आई। ठाकुर या वजीर शाह में से कोई एक मेरे खिलाफ हो गया। मेरे अच्छे-भले सिलसिले को देवराज चौहान ने बिगाड़ कर रख दिया। राम दा जैसे गैंगस्टर को मेरे खिलाफ खुल्लम-खुल्ला खड़े करने की कोशिश की। इसके साथ ही मेरी पचास अरब की दौलत को दबाकर बैठ गया है। सारे हिसाब चुकता करूंगा उससे।"
"लेकिन हाथ में आने पर भी, आपने उन लोगों को जाने क्यों दिया?" उसने पूछा।
"उन्हें खत्म करने का मतलब था, मेरी पचास अरब की दौलत का डूब जाना। जो कि तिजोरी में बंद है। और मुझे नहीं मालूम कि तिजोरी कहां है। उनमें से कोई भी नहीं बच सकता। उस वक्त जगमोहन की चालाकी वाली बात मैंने इसलिए मानी कि पचास अरब की दौलत तक पहुंच सकूं। राम दा भी नहीं बचेगा। मेरे आदमी उसके पीछे हैं। मालूम हो जाएगा उसका ठिकाना। देवराज चौहान से निपटकर, उसका भी निपटारा कर दिया जाएगा। और मेरी पचास अरब की दौलत भी वापस आ जाएगी।"
"ये आपने ठीक किया पाटिल...।"
"कार को फिर बायें मोड़ना।" स्क्रीन थामें व्यक्ति कह उठा--- "आगे वाली कार बायें मुड़ी है।"
कुछ देर बाद वो पुनः बाएं मुड़ गई।
"फोन चालू रखो।" युवराज पाटिल का स्वर कानों में पड़ा--- "पीछा किए जाने की खबर मुझे देते रहो।"
"जी---।"
"कार की रफ्तार कम करो।" कुछ देर बाद स्क्रीन थामें व्यक्ति कह उठा--- "कार किसी बंगले में गई है।"
कार की रफ्तार फौरन कम हो गई।
"मैं स्क्रीन पर उस बंगले को देख रहा हूं। बंगले का रंग हल्का पीला है और गेट पर काला पेंट है। दीवार की भीतरी तरफ कुछ पेड़ भी हैं। धीरे-धीरे कार चलाते हुए उस बंगले को पहचानो। दाईं तरफ है वो बंगला।"
कार में बैठे सबकी नजरें दाईं तरफ नजर आने वाले बंगलों की कतार पर जा टिकीं।
"उस बंगले को देखकर कार नहीं रोकना। आगे ले जाना।" उसने पुनः कहा।
कुछ ही देर बाद एक साथ दो व्यक्ति कह उठे।
"वो रहा बंगला।"
कार देवराज चौहान के बंगले के सामने से निकल कर आगे बढ़ती चली गई।
"पाटिल साहब...!" फोन थामें वो व्यक्ति बोला।
"कहो।"
"कार एक बंगले में चली गई है।"
"गुड। दूर रहकर बंगले पर नजर रखो और बंगले की स्थिति मुझे समझाओ। मैं आ रहा हूं।"
उसने बंगले की स्थिति बताकर फोन बंद कर दिया।
तब तक ड्राइवर ने कार को कुछ दूर फुटपाथ पर चढ़ाकर रोका और इंजन बंद कर दिया। वहां से बंगले पर नजर रखने लगे। काले शीशे होने की वजह से पास से गुजरने वाला भी नहीं महसूस कर सकता था कि कार के भीतर कोई मौजूद हो सकता है।
■■■
एक घंटे बाद उस कार के पास ही, सड़क किनारे एक विदेशी कार रुकी। उसके शीशे भी काले थे। कार चलाने वाले के साथ एक व्यक्ति बैठा था। और पीछे वाली सीट पर मौजूद था युवराज पाटिल।
पाटिल ने मोबाइल फोन से पास खड़ी कार में, मौजूद अपने आदमी से बात की।
"क्या पोजीशन है?" पाटिल ने पूछा।
"अभी तक कोई भी बंगले के भीतर या बाहर नहीं गया।" पाटिल के कानों में आवाज पड़ी।
"वो लोग तिजोरी खोलने में व्यस्त होंगे।" कहते हुए पाटिल की आवाज में कड़वापन आ गया--- "तुम में से एक सावधानी से बंगले के भीतर जाकर देखें कि क्या हो रहा है। शोर पैदा नहीं होना चाहिए।"
"जी...।"
"बंगले के भीतर देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल, नसीमा और नाथ हैं। जो भीतर जाए उसे बता देना।"
"जी...।"
पाटिल ने फोन बंद कर दिया।
कुछ देर बाद फुटपाथ पर चढ़ी कार में से एक व्यक्ति निकला और टहलने के अंदाज में देवराज चौहान के बंगले की तरफ बढ़ गया। सड़क अधिकतर खाली थी। कभी-कभार ही कोई वाहन सड़क पर से निकल जाता था। बंगले का गेट खुला था। उसमें लापरवाही भरे ढंग से भीतर प्रवेश किया फिर फुर्ती से दीवार के पास पेड़ के तने की ओट में जा छिपा और वहां से हर तरफ नजर मारी।
पोर्च में खड़ी कार के अलावा कोई भी नजर नहीं आया।
जब काफी देर तक कहीं से कोई आहट नहीं उभरी तो उसने जेब में पड़ी रिवाल्वर को निकालकर हाथ में लिया और दबे पांव, बे-आवाज जल्दी से लॉन पार किया और बंगले की दीवार के पास जा पहुंचा। सब ठीक रहा तो वो दीवार के साथ-साथ आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ा। आगे खिड़की आ गई।
बेहद सतर्कता से उसने भीतर झांका।
पहले तो उसे नाथ नजर आया जो सोफे पर बेचैनी भरे अंदाज में बैठा था। उसके बाद उसकी निगाह वहां मौजूद सोहनलाल और तिजोरी पर पड़ी। सोहनलाल तिजोरी खोलने में व्यस्त था।
करीब मिनट भर वो इसी तरह भीतर देखता रहा। और कोई भी नजर नहीं आया। फिर वो बंगले से बाहर आया और कुछ दूर खड़ी कार के पास पहुंचा। भीतर बैठा। मोबाइल फोन से पाटिल से बात की।
"पाटिल साहब! तिजोरी बंगले के भीतर है।" उसने कहा।
"गुड। मेरा भी यही ख्याल था।" पाटिल का तीखा स्वर कानों में पड़ा।
"कोई आदमी तिजोरी के लॉक को खोलने की कोशिश कर रहा है।" वो बोला।
"वो सोहनलाल होगा।"
"वहां नाथ के अलावा मुझे कोई और नजर नहीं आया।"
"सब बंगले में ही हैं। रात भर के थके हैं। आराम कर रहे होंगे।" पाटिल ने सोच भरे स्वर में कहा--- "तिजोरी का लॉक खुलने में अभी वक्त लगेगा। तीन-चार घंटे मामूली बात है। तुम लोग नजर रखो। कोई नई बात हो तो मुझे खबर कर देना। मैं बाद में आता हूं।"
"लेकिन आखिर में हमें करना क्या है?"
"इन सब को खत्म करके तिजोरी को ले चलना है। उसमें मेरी पचास अरब की दौलत है।"
"यानि उन्हें घेरना है।"
"हां।"
"इस काम के लिए और बंदे बुला लेते हैं।"
"क्या जरूरत है।" पाटिल की आवाज में खतरनाक भाव आ गए--- "भीतर पांच लोग हैं। नाथ हमारे खिलाफ नहीं जाएगा। बाकी बचे चार। और हम आठ हैं। पांच तुम, तीन हम...।"
"क्या आप खुद इस काम में शामिल होंगे?"
"हां। देवराज चौहान को मैं अपने हाथों से शूट करना चाहता हूं। कभी-कभी कुछ दुश्मन ऐसे भी होते हैं जिन्हें खत्म करने के बाद ये कहना अच्छा लगता है कि, मैंने उसे खत्म किया। देवराज चौहान के साथ भी कुछ ऐसा ही है। जब अंडरवर्ल्ड के लोग जानेंगे कि पाटिल ने देवराज चौहान को शूट किया तो अंडरवर्ल्ड में मेरा वजन और भी बढ़ जाएगा।। समझे, देवराज चौहान का शिकार मैं खुद करूंगा।"
"जैसा आप ठीक समझें। वैसे ये काम अभी किया जा सकता है।"
"नहीं। अभी नहीं। अभी वो सतर्क होंगे। जब खुली तिजोरी की दौलत देखकर, वो लापरवाही से भरे खुश हो रहे होंगे तो तब उन्हें घेरने का सबसे आसान और बढ़िया वक्त होगा। तुम लोग नजर रखो। मैं दो-तीन घंटों में कुछ और काम निपटा कर आता हूं।"
"जी---।"
फिर देखते ही देखते युवराज पाटिल की कार वहां से हिली और आगे बढ़ती चली गई।
■■■
फोन की बेल बजते ही सोहनलाल के हाथ रुक गए। उसने गर्दन घुमाकर फोन की तरफ देखा। नाथ की निगाह भी उधर गई। सोहनलाल उठता हुआ नाथ से बोला।
"यहीं बैठे रहना। हिलना मत...।"
नाथ सिर हिलाकर रह गया।
सोहनलाल ने आगे बढ़कर रिसीवर उठाया।
"हैलो...!"
"क्या कर रहे हो?" सोहनलाल के कानों में देवराज चौहान की आवाज पड़ी।
"तिजोरी के लॉक खोल रहा हूं।"
"पाटिल के आदमी बंगले की निगरानी कर रहे हैं।"
"ओह! लेकिन वो यहां तक पहुंचे कैसे?" सोहनलाल के होंठों से निकला।
"शायद तुम्हारा पीछा किया होगा।"
"नहीं। मैंने इस बात का पूरा ध्यान रखा था कि कोई पीछा ना करे। मुझे तो कोई नहीं दिखा।"
"जो भी हो इस वक्त बंगले पर पाटिल के आदमी नजर रख रहे हैं। कुछ देर पहले एक आदमी भीतर भी आया था।" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ रही थी--- "और वो...।"
"भीतर आया था।" सोहनलाल ने टोका--- "मुझे तो खबर नहीं।"
"वो ये देखकर चला गया होगा कि भीतर क्या हो रहा है? बाहर से झांका होगा।"
"ओह...।"
"उसके पास एक कार और आई थी। मेरे ख्याल में उस कार में पाटिल होना चाहिए। फिर वो कार चली गई एक अभी बंगले पर नजर रख रही है। उसके भीतर कितने लोग हैं, मालूम नहीं।"
"तुम कहां हो?"
"मैं उनसे कुछ दूर, जगमोहन और नसीमा के साथ हूं।उन पर और बंगले पर मेरी निगाह है। मैंने तुम्हें सतर्क करने के लिए फोन किया है। कब तक तुम तिजोरी खोल लोगे?"
"पांच बजे तक ये काम हो जाएगा। एक लॉक और बचा है, खोलने के लिए।"
"तुम अपना काम करते रहो। मैं पांच बजे फिर फोन करूंगा। मेरे ख्याल में उनका इरादा बंगले पर हमला करने का है। ऐसा कुछ हुआ तो मैं देख लूंगा।" देवराज चौहान के स्वर में गंभीरता थी।
"ठीक है।" सोचों में डूबे सोहनलाल ने रिसीवर रखा और तिजोरी की तरफ बढ़ गया।
"किसका फोन था?" नाथ ने पूछा।
"तू मामा लगा है जो तेरे को बताऊं। चुपचाप बैठा रह।"
■■■
शाम साढ़े पांच बजे पुनः देवराज चौहान का फोन आया।
"तिजोरी के लॉक्स खुल गए हैं।" सोहनलाल ने कहा।
"तिजोरी खोली?"
"अभी नहीं।"
"रिमोट का इस्तेमाल करो और तिजोरी खोलो। नाथ तिजोरी खोलेगा।" कहते हुए देवराज चौहान की आवाज में सख्ती आ गई थी--- "तब तुम दरवाजे से बाहर खड़े होकर भीतर देखोगे। मुझे पूरा यकीन है कि वो रिमोट ठीक है। उसे ऑफ करके तिजोरी में मौजूद बम नहीं फटेगा। फिर भी पूरी सावधानी इस्तेमाल करनी है तुम्हें।"
"मैं ध्यान रखूंगा।" सोहनलाल गंभीर स्वर में बोला--- "पाटिल के आदमियों की क्या स्थिति है?"
"वो अभी तक वहीं, कार के भीतर है। वो अवश्य कुछ करेंगे। तुम अपना काम देखो। उन्हें मैं देख लूंगा।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने लाइन काट दी थी।
सोहनलाल ने रिसीवर रखा और पलटकर नाथ को देखा।
"तैयार हो जा, तिजोरी खोलने के लिए---।" सोहनलाल के शब्द सुनते ही नाथ ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। चेहरे का रंग कुछ फक्क पड़ा।
"क्या हुआ?" सोहनलाल के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
"क-कुछ नहीं---।" कहते हुए नाथ उठा। निगाह तिजोरी की तरफ गई।
"आ---।" कहते हुए सोहनलाल तिजोरी के पास जा पहुंचा।
पीछे-पीछे नाथ भी आ गया।
सोहनलाल ने जेब से रिमोट निकाला। उसका रुख तिजोरी की तरफ करके, उस पर मौजूद स्विच को ऑफ की तरफ सरका दिया। फिर नाथ को देखा।
"मैं इस हॉल से बाहर जा रहा हूं।" सोहनलाल ने कहा--- "उसके बाद तुम तिजोरी का दरवाजा खोलोगे।"
"तिजोरी में फिट बम फट गया तो?" नाथ के होंठों से सूखा-सा स्वर निकला।
"तो तुम्हारे शरीर के चिथड़े-चिथड़े उड़ जाएंगे।" सोहनलाल का स्वर गंभीर था--- "लेकिन मेरे ख्याल से ऐसा कुछ नहीं होगा। पाटिल पचास अरब की दौलत को खामख्वाह खराब नहीं करना चाहेगा।"
"पाटिल साहब?" नाथ के होंठों से निकला--- "वो यहां-कहां?"
"तेरे को जो कहा है, वो कर।" कहने के साथ ही सोहनलाल कुछ दूर प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ गया। दरवाजे पर पहुंचकर पलटा और नाथ को देखा--- "तिजोरी खोल---।"
नाथ का चेहरा फक्क पड़ा हुआ था। उसने सोहनलाल पर नजर मारी। सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए, जान निकली टांगों से तिजोरी के पास जा पहुंचा और उसका हैंडल पकड़ने के लिए कांपता हाथ आगे बढ़ाया।
सोहनलाल की एकटक निगाह, नाथ के हाथ पर थी।
नाथ ने तिजोरी का हैंडल पकड़ा और आंखें बंद करके झटके से खींचा।
तिजोरी का दरवाजा खुलता चला गया। कोई बम नहीं फटा। रिमोट का स्विच ऑफ करने से तिजोरी में बम का कनेक्शन उससे हट गया था, जो स्विच दरवाजा खोलते ही बाहर की तरफ ऑन होते हुए ऑन होना था, वो स्विच ऑन हुआ, परंतु बम नहीं फटा। (जैसे फ्रिज का बल्ब ऑन-ऑफ करने के लिए स्विच लगा होता है। दरवाजा बंद होते ही फ्रिज का बल्ब ऑफ हो जाता है और दरवाजा खोलते ही फ्रिज का बल्ब स्विच के बाहर आते ही खुद-ब-खुद जल उठता है)
सब ठीक रहा।
नाथ ने आंखें खोलीं। चेहरे पर खुशी और राहत भर आई। खुली तिजोरी के भीतर नजर पड़ते ही नाथ की आंखें फटती चली गईं। सारी तिजोरी हीरे-जवाहरातों से भरी पड़ी थी। उनसे आंखें चुंधिया-सी रही थीं। दरवाजा खुलते ही तिजोरी से कुछ हीरे-जेवरात बाहर आ गिरे थे।
सब ठीक पाकर सोहनलाल के थकान से भरे चेहरे पर मुस्कान फैल गई। वो आगे बढ़ा और तिजोरी के पास जा पहुंचा। हीरे-जवाहरातों पर भरपूर नजर मारने के बाद उसने नाथ को देखा।
"क्या देखता है?"
"ये-ये इतनी बड़ी दौलत---।" नाथ ने कहना चाहा।
"उधर, वहां बैठ जा। तिजोरी खुली है। जी भर कर देख। कोई किराया नहीं लूंगा।" कहते हुए सोहनलाल ने उसकी बांह पकड़ी और उस तरफ धकेल दिया।
नाथ जल्दी से सोफे की कुर्सी पर जा बैठा और आंखें फाड़े खुली तिजोरी को देखने लगा।
"अब मुझे क्या करना है?" एकाएक नाथ ने पूछा-- "मैं जाऊं?"
"बैठा रह। इंतजार कर और देख क्या होता है।" सोहनलाल ने गंभीर स्वर में कहा।
"कुछ खास होना है क्या?" नाथ ने कहा।
सोहनलाल ने कुछ नहीं कहा और गोली वाली सिग्रेट सुलगाकर कश लेने लगा।
■■■
देवराज चौहान, जगमोहन और नसीमा बंगलों की उसी लाइन में एक खाली पड़े बंगले में छिपे हुए थे और वहीं से उस कार और अपने बंगले पर नजर रख रहे थे।
देवराज चौहान ने मोबाइल फोन बंद करके नसीमा की तरफ बढ़ाया।
"सोहनलाल ने तिजोरी की लॉक्स खोल लिए हैं।" देवराज चौहान का स्वर गंभीर था--- "और नाथ के द्वारा वो तिजोरी का दरवाजा खुलवाने जा रहा है। अगले दो-तीन मिनट में विस्फोट की आवाज नहीं आई तो मतलब होगा, सब ठीक है।"
"किसी ने कुछ नहीं कहा। एक-दूसरे को देख कर रह गए।
अगले पांच मिनट बीत गए।
"लगता है सब ठीक रहा।" जगमोहन के होंठों से निकला।
"सोहनलाल से बात करके देखो...।"
देवराज चौहान ने पुनः नसीमा के मोबाइल फोन से सोहनलाल से बात की।
"सब ठीक है।" सोहनलाल का खुशी से भरा स्वर कानों में पड़ा--- "तिजोरी हीरे-जवाहरातों से भरी पड़ी है।"
"अच्छी बात है।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "अब आगे जो होता है, उसका इंतजार करो। पाटिल के आदमियों की कार अभी भी बाहर मौजूद है। काले शीशों की वजह से मालूम नहीं हो पा रहा कि भीतर कितने लोग हैं।"
"लेकिन पाटिल चाहता क्या है?" सोहनलाल की आवाज कानों में पड़ी।
"अब मुझे कुछ-कुछ समझ आ रहा है कि पाटिल ने रिमोट देकर हमें क्यों छोड़ा। हमारी जान लेकर उसे कुछ भी हासिल नहीं होता। जबकि वो पचास अरब के हीरे-जवाहरातों से भरी तिजोरी हासिल करना चाहता था। हमें छोड़कर उसने हमारा ठिकाना देखा। अब वो बंगले को घेरकर तिजोरी पर कब्जा करेगा और हम लोगों को खत्म करेगा। यही वजह है कि उसके आदमी अभी तक बाहर निगरानी पर हैं।"
"पाटिल जानता है कि तिजोरी यहां है तो फिर वो बंगले पर घेराबंदी करने में इतनी देर...।"
"सोहनलाल!" देवराज चौहान की निगाहें बाहर थीं--- "मैं फोन बंद कर रहा हूं। उस कार के पास एक और कार आ पहुंची है।" कहने के साथ देवराज चौहान ने मोबाइल बंद करके नसीमा को थमा दिया।
तीनों की निगाहें वहां से नजर आ रही, उन दोनों कारों पर जा टिकी थीं।
■■■
फुटपाथ पर चढ़कर खड़ी काले शीशों वाली काली कार के पास युवराज पाटिल की कार आ रुकी और कार में बैठे-बैठे ही पाटिल ने मोबाइल फोन पर, दूसरी कार वालों से बात की।
"बंगले पर क्या पोजीशन है?" पाटिल ने पूछा। निगाहें बंगले पर ही थीं।
"कोई बंगले से बाहर नहीं निकला। कोई भीतर नहीं गया। कोई आहट-शोर नहीं।"
"बंगले के भीतर जाकर, सावधानी से झांको कि वहां क्या हो रहा है।" कहकर पाटिल ने फोन बंद कर दिया।
कुछ पलों बाद ही दूसरी कार का दरवाजा खुला और टहलता हुआ बंगले की तरफ बढ़ गया और फिर देखते ही देखते वो आदमी बंगले में प्रवेश कर गया। आधा मिनट भी नहीं बीता होगा कि वो उल्टे पांव बंगले से बाहर निकला और तेजी से कारों की तरफ बढ़ता नजर आया।
पास आकर वो कार में बैठा और मोबाइल फोन से पाटिल से बात की।
"पाटिल साहब!" आवेश में कहते हुए वह कुछ हांफ-सा रहा था--- "मैंने खिड़की से झांक कर देखा। वहां एक तिजोरी खुली नजर आई, जो कि हीरे-जवाहरातों से...।"
"बस।" पाटिल की आवाज में एकाएक क्रूरता आ गई थी--- "अब अटैक करने का वक्त आ गया है। नाथ को छोड़कर वहां चार हैं, जिन्हें घेरकर, शूट करना है। हम आठ आसानी से सारा मामला संभाल लेंगे।"
"यस पाटिल साहब!"
"पहले छः आदमी भीतर जाएंगे। वहां के हालातों पर काबू पाएंगे। उसके बाद मैं एक के साथ भीतर आऊंगा। तुम लोगों को पूरी छूट है, भीतर किसी को भी शूट करने की।"
"जी...।"
"बाहर निकलो...।" इसके साथ ही पाटिल की तरफ से आवाज आनी बंद हो गई।
"चलो।" फोन बंद करता वो व्यक्ति कह उठा--- "पाटिल साहब का आदेश है, बंगले के भीतर जाकर सब पर काबू पाओ। जरूरत पड़े तो हथियारों का इस्तेमाल किया जा सकता है।"
अगले ही पल वे पांचों कार से बाहर आ गए। एक पाटिल वाली कार से निकला। वे छः हो गए। और बंगले की तरफ बढ़ गए। बंगले के गेट से भीतर प्रवेश करते ही उनके हाथ जेबों में गए और जब बाहर आए तो उन सब के हाथों में रिवाल्वरें दबी थीं। चेहरों पर स्पष्ट तौर पर खतरनाक भाव उभर आए थे।
एक खुली खिड़की के पास जम गया।
बाकी के पांच तेजी से मुख्य दरवाजे से भीतर प्रवेश करते चले गए।
दो पलों के लिए खुली तिजोरी के चमकते हीरे-जेवरात देखकर उनकी आंखें चुंधियाईं फिर वो तुरंत संभले। एक ने जल्दी से आगे बढ़कर सोहनलाल के पेट से रिवाल्वर सटा दी।
बाकी चारों की सतर्क निगाहें इधर-उधर घूमने लगीं।
"तुम्हारे साथी कहां है?" सोहनलाल के पेट से रिवाल्वर की नाल का दबाव बढ़ाकर वो गुर्राया।
"साथी?" सोहनलाल ने शांत निगाहों से उसे देखा।
"हां। देवराज चौहान। जगमोहन। नसीमा।"
"यहां तो कोई भी नहीं है। बंगले में मैं और ये आदमी अकेला है।" सोहनलाल ने कहा।
"तुम झूठ बोलते हो।"
"इससे पूछ लो।"
नाथ हड़बड़ाया-सा खड़ा था।
"बंगले में हम दोनों ही हैं।" नाथ ने कहा।
"कार में तुम सब नहीं आये नाथ?" उसके माथे पर बल पड़े।
"नहीं वो तीनों तो वहीं, उतर गए थे। हम दोनों ही कार में, बंगले में आए।" नाथ ने कहा।
दो पलों के लिए खामोशी छा गई वहां।
"ये तो कहते हैं, बंगले में ये दोनों ही हैं।"
"नाथ किसी दवाब में झूठ बोलता भी हो सकता है। पूरा बंगला चैक करो।"
दो मिनट बीतने पर भी जब गोली चलने की कोई आवाज नहीं आई तो पाटिल अपने आदमी के साथ निकला और बंगले की तरफ बढ़ गया।
"हमारे आदमियों ने सब पर काबू पा लिया है।" चलते हुए पाटिल ने कहा--- "वरना अब तक गोलियां चलने का शोर मच गया होता।"
"आप ठीक कह रहे हैं पाटिल साहब---।"
दोनों ने गेट से भीतर प्रवेश किया।
एक तरफ खिड़की पर उन्हें अपना आदमी खड़ा नजर आया। वो खामोशी से उसके पास पहुंचे।
"क्या हो रहा है भीतर?" पाटिल ने पूछा।
वो फौरन घूमा और कह उठा।
"पाटिल साहब! भीतर दो ही आदमी हैं।"
"ये कैसे हो सकता है! देवराज चौहान को भी तो होना चाहिए।" पाटिल के होंठ भिंच गए।
"नहीं है। वैसे हमारे आदमी बंगला चैक कर रहे हैं।"
"तुम यहीं रहो।" पाटिल ने कहा और अपने आदमी के साथ प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ गया।
बाहर गेट के पास छुपे देवराज चौहान, जगमोहन और नसीमा उन्हें देख रहे थे। पाटिल के गेट के भीतर प्रवेश करते ही वो खाली बंगले से निकलकर, वहां पहुंचे थे। जब तक पाटिल ने अपने आदमी के साथ प्रवेश द्वार के भीतर प्रवेश किया। तब तक देवराज चौहान हाथ में रिवाल्वर पर साइलेंसर फिट कर चुका था। उसके होंठ भिंचे हुए थे। चेहरे पर खतरनाक भाव नाच रहे थे।
पाटिल के भीतर प्रवेश करते ही देवराज चौहान ने साइलेंसर लगी रिवाल्वर वाली बांह सीधी की और खिड़की के पास खड़े आदमी का निशाना लेकर ट्रिगर दबा दिया।
नाल से बे-आवाज गोली निकली और उसके सिर में जा लगी। वो उसी पल नीचे गिरते ही शांत हो गया।
"आओ।" देवराज चौहान आगे बढ़ता हुआ बोला--- "तुम लोग प्रवेश द्वार की तरफ से मामला संभालो।"
जगमोहन और नसीमा तेजी से प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ गए।
देवराज चौहान खिड़की की तरफ बढ़ गया।
"पाटिल के सामने पड़ने की कोशिश मत करना।" जगमोहन बोला--- "वो तुम्हें छोड़ेगा नहीं।"
"मैं यहां छिपने नहीं आई।" नसीमा के स्वर में खतरनाक भाव थे--- "और ना ही मैं यहां अकेली हूं। तुम सब मेरे साथ हो। हम सब साथ हैं। जो होगा सब के साथ ही होगा।"
वो चारों पूरे बंगले को चैक कर आए।
"बंगले में इन दोनों के अलावा और कोई भी नहीं है पाटिल साहब।" एक ने कहा।
"ये कैसे हो सकता है! देवराज चौहान, जगमोहन और नसीमा को यहीं होना चाहिए।" युवराज पाटिल दांत भींच कर कह उठा--- "ध्यान से देखो। वो यहीं छिपे होंगे।"
"हमने सारा बंगला देख लिया है।"
दांत भींचे पाटिल ने नाथ को देखा।
"बाकी लोग कहां हैं नाथ?"
"वो तो खंडाला रोड पर ही कार से उतर गए थे।" नाथ ने सूखे होंठों पर जीभ फेर कर कहा।
"इसका मतलब देवराज चौहान समझ गया था कि मैंने जानबूझकर उन्हें छोड़ा है।" युवराज पाटिल की आवाज में गुस्सा था--- "वो ठीक समझा था। पहले मैं तिजोरी अपने कब्जे में करना चाहता था। उसके बाद उसे और उसके साथियों को मौत देना चाहता था। खैर, कोई बात नहीं। देवराज चौहान ज्यादा देर तक मेरे हाथों से नहीं बच सकता। नसीमा भी नहीं बचेगी। तुम लोग इस सोहनलाल को खत्म करो और तिजोरी ले चलने का प्रबंध करो। यहां ज्यादा देर ठहरना भी ठीक नहीं। देवराज चौहान कोई भी गड़बड़...।"
"मुझे क्यों मार रहे हो?" सोहनलाल हड़बड़ा कर बोला--- "मैंने क्या किया है?"
"तुम देवराज चौहान के साथी हो।"
"किसी ने भड़का दिया है तुम्हें। वो एक लाख रुपये देकर मेरे से ये सब काम करवा...।"
"बकवास मत करो।" पाटिल ने कठोर स्वर में कहा--- "जब तुम बारूद के बीच फंसे थे, तब देवराज चौहान तुम्हें छोड़कर जाने को तैयार नहीं था। किराए के आदमियों के लिए कोई खुद को खतरे में नहीं---।"
"पाटिल---!" देवराज चौहान की आवाज गूंजी।
एक पल के लिए तो कोई इस आवाज को समझ ही नहीं पाया।
"इधर पाटिल---।"
सबकी निगाह खिड़की पर गई।
वहां देवराज चौहान मौजूद था। हाथ में दबी साइलेंसर लगी रिवाल्वर का रुख पाटिल की तरफ था। देवराज चौहान को वहां देखकर युवराज पाटिल की आंखें हैरानी से फैल गईं।
"तुम...!" युवराज पाटिल के होंठों से निकला।
उसी पल देवराज चौहान की उंगली हिली। ट्रिगर दबा। मध्यम- सी आवाज के साथ बारूद की स्मैल फैल गई। गोली युवराज पाटिल के माथे के ठीक बीचो-बीच जा धंसी।
पाटिल के शरीर को झटका लगा।
कई क्षणों तक उसका शरीर वैसे का वैसा ही खड़ा रहा। फिर तेज आवाज के साथ पीठ के बल नीचे जा गिरा। उसकी खुली फटी आंखें अपलक छत की तरफ टिक चुकी थीं।
वहां मौजूद हर कोई स्तब्ध रह गया। पाटिल की मौत का किसी को विश्वास नहीं आया कि अभी वो जिंदा था और अभी वो मर चुका है।
मौत के इस सन्नाटे को जगमोहन की कठोर आवाज ने तोड़ा।
"अगर किसी ने भी कोई हरकत करने की कोशिश की तो पाटिल की तरह मारा जाएगा।"
उनकी निगाहें दरवाजे की तरफ घूमीं वहां रिवाल्वर थामें जगमोहन और नसीमा खड़े थे। नसीमा के चेहरे के भाव बता रहे थे कि मौका मिलते ही वो पाटिल के आदमियों को खत्म कर देगी।
"रिवाल्वरें गिरा दो।" नसीमा गुर्राई।
खिड़की पर मौजूद देवराज चौहान ने रिवाल्वर का रुख उनकी तरफ कर रखा था। चेहरे पर सख्ती के भाव। भिंचे होंठ। उंगली ट्रिगर दबाने को तैयार।
वो सातों व्यक्ति दो तरफ से निशाने पर थे और सबसे बड़ी बात थी कि जिसके लिए वो ये लड़ाई लड़ रहे थे, वो मर चुका था।
उन्होंने बिना किसी एतराज के अपनी रिवाल्वरें नीचे गिरा दीं।
"सोहनलाल!" देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा--- "इन सबको ऊपर की मंजिल के किसी कमरे में बंद कर दो और समझा देना कि किसी तरह का शोर-शराबा किया तो सिर्फ मौत ही मिलेगी। नाथ को भी साथ ले जाओ।"
सोहनलाल उन सबको भीतर ले कर चला गया।
देवराज चौहान खिड़की से भीतर आ गया। जगमोहन और नसीमा भी भीतर आ गए।
"उन्हें कमरे में क्यों बंद किया?" जगमोहन ने कहा।
"अब इस बंगले पर नहीं रह सकते। यहां के बारे में पाटिल के आदमी जान चुके हैं मात्र इसी वजह से इनकी जान लेना ठीक नहीं।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "ये बंगला हमें खाली करना होगा। इस तिजोरी को जितनी हो सके यहां से ले चलना होगा। हो सकता है यहां के बारे में पाटिल ने अपने किसी आदमी को बताया हो।"
"लेकिन जाएंगे कहां?" जगमोहन की निगाह खुली तिजोरी पर थी।
"इस वक्त सोहनलाल के यहां जाना ही ठीक है। तिजोरी में मौजूद हीरे-जवाहरातों को सूटकेस में डालो। तिजोरी ले जाने में परेशानी आएगी।"
नसीमा, युवराज पाटिल की लाश के पास पहुंची। चेहरे पर खुशी और नफरत के भाव थे।
"सारी उम्र लिए तेरे लिए अपनी जान खतरे में डालती रही और तूने मेरी जान लेने को कह दिया।अगर ऐसा ना करता तो आज तू जिंदा रहता पाटिल और सब ठीक रहता।" नसीमा की आवाज में गुस्सा भरा था--- "मुझे तो अभी भी विश्वास नहीं आ रहा कि तू मर गया है।"
"मैं सूटकेस लाता हूं।" कहने के साथ ही जगमोहन ने नसीमा को देखा--- "तुम भी साथ आओ। इसके लिए तीन-चार सूटकेस की जरूरत पड़ेगी।"
नसीमा ने रिवाल्वर जेब में डाली और जगमोहन के साथ बंगले के भीतरी हिस्से की तरफ चल पड़ी। चलते-चलते जगमोहन ने धीमे स्वर में कहा।
"इस सारे माल में से दो प्रतिशत तुम्हारा है क्या?"
"हां। देवराज चौहान से मेरी यही बात हुई थी।" नसीमा मुस्कुरा पड़ी।
"पचास अरब के माल का मतलब है, दो प्रतिशत के हिसाब से एक अरब रुपया।"
"हां।"
"मेरे ख्याल में एक अरब कुछ ज्यादा है। क्या करोगी इतना पैसा लेकर। तुमसे तो पचास करोड़ ही खत्म नहीं होगा।"
"क्या मतलब?"नसीमा ने जगमोहन पर निगाह मारी।
"खास कुछ नहीं।" जगमोहन मुस्कुराकर बोला--- "उस माल में से मैं तुम्हारे लिए पचास करोड़ के बढ़िया-बढ़िया हीरे और जेवरात निकाल...।"
"पचास करोड़ नहीं। तय बात के मुताबिक मेरे एक अरब के हीरे जवाहरात बनते हैं।"
"तय बात छोड़ो। ये आपस की बात है। पाटिल भी नहीं रहा। पाटिल का खतरा तुम्हारे सिर से हमेशा के लिए ही खत्म हो गया। वरना वो देर-सवेर में तुम्हें खत्म कर देता। हमने तुम्हारी जान बचाई है।"
नसीमा ने ठिठककर जगमोहन को घूरा।
जगमोहन ने दांत फाड़े।
"मेरी जान बचाने के वास्ते देवराज चौहान ने युवराज पाटिल को मारा है।" नसीमा के स्वर में व्यंग्य था।
"और नहीं तो क्या, वरना हमारी ओर से क्या दुश्मनी थी।"
"ठीक है। इस बारे में मैं देवराज चौहान से बात करूंगी। वो ऐसा कहेगा तो...।"
"ये मत कहना कि मैंने तुमसे ऐसी कोई बात की है।" जगमोहन ने जल्दी से कहा।
"क्यों?"
"यूं ही। ये तो आपस की बात है। मैं तो तुम्हें समझा रहा था कि एक अरब तुम्हारे लिए...।"
"जो तुमने कहा है, वो मैं देवराज चौहान से कहूंगी तब पूछूंगी कि...।"
"रहने दो। रहने दो। कहा-सुना माफ। मैंने तुमसे कुछ नहीं कहा। देवराज चौहान से ये बात मत कहना।"
नसीमा ने जगमोहन को घूरा।
"देवराज चौहान से डरते हो तुम?"
"तुमने मुझे उससे डरते देखा है?"
"नहीं...।" बरबस ही नसीमा के होंठों पर मुस्कान उभर आई।
"तो फिर तुमने कैसे समझ लिया कि मैं देवराज चौहान से डरता हूं।" जगमोहन उखड़े स्वर में कह उठा--- "अब खड़ी-खड़ी मेरा मुंह क्या देख रही हो। चलोगी भी। सूटकेसों में पचास अरब का माल ठूंसना है।"
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शाम के आठ बज चुके थे।
तिजोरी में मौजूद पचास अरब के हीरे-जवाहरातों को तीन बड़े सूटकेसों में ठूंसा गया था। वो सूटकेस इतने भारी थे कि एक को अकेले आदमी द्वारा उठा पाना संभव नहीं था।
सोहनलाल थका-हारा सोफे पर बैठ गया था।
"क्या हुआ तेरे को?" जगमोहन ने उसे देखा--- "अब तो यहां से निकलने का वक्त है।"
"चौबीस घंटे से ज्यादा हो गए, नींद नहीं ली। खड़े होकर लगातार काम करता रहा हूं।" सोहनलाल बोला।
"सूटकेस उठाने से मन चुरा रहा है।" जगमोहन ने व्यंग्य से कहा।
"ऐसा ही समझ ले।"
"उठकर काम कर।" जगमोहन ने कहा--- "मैं ऊपर के कमरे से जरूरी सामान लेकर आ रहा हूं। अब बंगले में दोबारा आना कहां होगा।" कहने के साथ ही जगमोहन सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
देवराज चौहान ने नसीमा से कहा।
"तुम सूटकेस को हाथ लगाओ। पोर्च में खड़ी कार में रखते हैं।"
"क्यों नहीं?" कहने के साथ ही नसीमा आगे बढ़ी।
देवराज चौहान और नसीमा ने एक सूटकेस उठाया। भारी सूटकेस को संभाले दरवाजे तक पहुंचे कि उनकी निगाह दो टांगों पर पड़ी। वे ठिठके। उन्होंने ऊपर देखा।
दूसरे ही पल नसीमा के हाथ से सूटकेस छूट गया।
दरवाजे पर रिवाल्वर थामें राम दा खड़ा था। हाथ में दबी रिवाल्वर। चेहरे पर खतरनाक मुस्कान। आंखों में दरिंदगी से भरी चमक।
"तुम क्यों तकलीफ करते हो देवराज चौहान!" राम दा वहशी स्वर में कह उठा--- "दौलत का बोझ उठाने के लिए मैं अपने आदमी साथ लाया हूं। सूटकेस नीचे रख दो।"
देवराज चौहान ने सूटकेस छोड़ा और होंठ सिकोड़े राम दा को देखने लगा।
"मुझे यहां देखकर हैरानी हो रही है देवराज चौहान!" राम दा खतरनाक ढंग से हंसा।
"हैरानी कम और बुरा ज्यादा लग रहा है इस तरह तुम्हें सामने पाकर।" देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा।
राम दा पुनः हंसा और कह उठा।
"अच्छे-बुरे की परवाह किसे है। यहां तो डंडे का जोर चलता है। जिसका डंडा चल गया, गाय उसी की। तुमने क्या समझा मैं पचास अरब जैसी दौलत की तरफ से आंखें बंद कर लूंगा? कभी नहीं हो सकता ये। मेरे आदमी दिन से ही तुम लोगों पर नजर रख रहे हैं। पल-पल की खबर थी मुझे। जब तुम पाटिल के फार्म हाउस से चले तो तभी सावधानी से मेरे आदमी सोहनलाल और तुम लोगों के पीछे लग गए थे। उन्होंने पाटिल के आदमियों की उस कार को भी पहचान लिया था, जो सोहनलाल की कार के पीछे थी।
देवराज चौहान के चेहरे पर शांत-भावहीन मुस्कान उभरी।
"मैं ये सोचकर भीतर आया कि अब तक यहां एक ही जिंदा होगा। तुम या पाटिल। पाटिल को मरा पाकर, मुझे वास्तव में खुशी हुई। हरामजादा बहुत सयाना बनता था।"
"तुम्हारी तरह...।" देवराज चौहान ने कहा और सिग्रेट निकाल कर सुलगाई।
"मजाक अच्छा कर लेते हो।" राम दा जहरीले स्वर में कह उठा--- "लेकिन तुम सयाने बनने की कोशिश मत करना। यहां पर जर्रे-जर्रे पर मेरे आदमी फैले हैं। जिन्हें तुम अभी देख भी लोगे।" कहने के साथ ही उसने खास ढंग से हाथ उठाकर इशारा किया तो दूसरे ही पल उस तरफ खुली खिड़की से एक के बाद एक चार आदमी कूदकर भीतर आ गए। गनें थामे वो सतर्क खड़े हो गए।
देवराज चौहान, नसीमा, सोहनलाल ने उन्हें देखा।
राम दा हौले से हंसा।
"बाहर और भी हैं। मजा आया देवराज चौहान?"
"नहीं।" देवराज चौहान ने इंकार में सिर हिलाया--- "खास मजा नहीं आया।"
"आएगा। मजा भी आएगा। पचास अरब की दौलत हाथ से निकल जाए तो मजा आता ही है। जैसे पाटिल को मजा आया था।" राम दा ने व्यंग भरे स्वर में कहा--- "लेकिन मैं पाटिल जैसा बेवकूफ नहीं कि नाग को आस्तीन में पाल लूं। उसने तो तुम्हें छोड़ दिया था। मैं तुम्हें जिंदा छोड़कर, अपने लिए आने वाले वक्त में मुसीबत पैदा नहीं करूंगा। पचास अरब मेरे अंदर और तुम्हारा दम बाहर---।"
"राम दा---!" नसीमा ने सख्त स्वर में कहा--- "तुम बहुत ही गलत काम कर रहे हो।"
तभी सोहनलाल कह उठा।
"देवराज चौहान चाहता तो उस वक्त अपनी जान बचाने के लिए, तुम्हें मार सकता था। उस वक्त को मत भूल।"
"समझदार इंसान वही होता है जो अपनी जान बचाये। अपने हक की सोचे। उस वक्त देवराज चौहान ने वही किया जो इसकी मर्जी थी और अब मैं वही कर रहा हूं जो मुझे ठीक लगा।" राम दा का स्वर कड़वा हो गया।
"तुम दौलत लेना चाहते हो। ले जाओ।" सोहनलाल बोला--- "हमें खत्म करने की क्या जरूरत है?"
"बहुत ज्यादा जरूरत है। खासतौर से देवराज चौहान को तो पहले खत्म करूंगा।" राम दा एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--- "वरना पहला मौका मिलते ही ये मुझे खत्म कर---।"
तभी एक के बाद एक दो फायर हुए। दोनों गोलियां वहां खड़े राम दा के चार में से दो आदमियों की छाती में जा लगी। वो चीखते हुए नीचे गिरे।
राम दा की निगाह तुरंत उस तरफ घूमी।
तभी देवराज चौहान ने जूते की ठोकर राम दा के हाथ में थमें रिवाल्वर पर मारी। राम दा के होंठों से कराह निकली। रिवाल्वर हाथ से निकल गई। तब तक देवराज चौहान अपनी रिवाल्वर निकालकर राम दा के पेट से लगा चुका था। ये सब कुछ पलों में ही हो गया था।
देवराज चौहान के चेहरे पर दरिंदगी आ सिमटी। नजरें राम दा के फक्क चेहरे पर।
रिवाल्वर थामें सीढ़ियों से जगमोहन उतरता नजर आया। दूसरे हाथ में ब्रीफकेस था। दोनों फायर उसी ने किए थे। राम दा के पेट से रिवाल्वर लगते देखकर, वहां मौजूद बाकी के दोनों आदमी खड़े रह गए। गनों का इस्तेमाल इसलिए नहीं किया गया कि गन से निकली गोली राम दा को भी लग सकती थी।
"सब ठीक है?" बाहर से किसी की आवाज आई।
राम दा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"जवाब दो।" देवराज चौहान ने मौत भरे स्वर में कहा।
"ठ-ठीक है।" किसी तरह राम दा ने ये शब्द कहे।
तभी जगमोहन पास आ पहुंचा।
"कुछ देर पहले तक तू हमारे साथ मिलकर पाटिल के खिलाफ लड़ रहा था।" जगमोहन ने एक-एक शब्द चबाते हुए सख्त स्वर में कहा--- "और अब तू हमें मारने आ गया।"
राम दा से कुछ कहते ना बन पा रहा था।
"अपने दोनों आदमियों से बोल गनें फेंकें और ये सूटकेस उठाकर पोर्च में खड़ी कार में रखें।" देवराज चौहान ने दांत भींचकर मौत भरे स्वर में कहा।
"प्लीज देवराज चौहान।" राम दा ने कहना चाहा--- "मुझे---।"
"मैंने जो कहा है, वही करो।" देवराज चौहान का मौत भरा स्वर ठंडा होने लगा।
राम दा ने पुनः सूखे होंठों पर जीभ फेरी और बोला।
"गनें फेंक दो और ये सूटकेस उठाकर बाहर खड़ी कार में रखो।"
ये सुनते ही उन दोनों ने गनें फेंकी और आगे बढ़ आए।
जगमोहन अपनी निगरानी में सूटकेस को कार में रखवाने लगा।
"मुझे माफ कर दो। गलती हो गई मेरे से।" राम दा के चेहरे का रंग फक्क पड़ चुका था--- "मैं...।"
"जब मैं कहूं तब बोलना।" देवराज चौहान ने नाल का दबाव पेट पर बढ़ाया। देवराज चौहान के चेहरे पर मौत ही मौत नाच रही थी। सुलगती आंखों से वो एकटक राम दा को देखे जा रहा था।
राम दा को भी ऐसा लग रहा था जैसे सामने देवराज चौहान ना होकर उसकी मौत खड़ी हो।
दस मिनट में तीनों सूटकेस कार में पहुंच गए। दो पीछे वाली सीटों पर एक के ऊपर एक रखे गए और तीसरा डिग्गी में फंसाकर बांध दिया गया।
"अब?" जगमोहन, देवराज चौहान के पास पहुंचा।
"तुम सोहनलाल के साथ वहीं जाओ, जहां पहुंचने की बात मैं पहले ही कह चुका हूं।" देवराज चौहान दांत भींचे, राम दा को देखते हुए खतरनाक स्वर में कह उठा--- "मैं और नसीमा भी वहीं पहुंच रहे हैं।"
"साथ ही चलते तो...।" जगमोहन ने कहना चाहा।
"जो कहा है, वही करो।" देवराज चौहान का एक-एक शब्द जैसे आग में जल रहा था--- "बाहर निकलो। अपने आदमियों से कहो, हथियार गिरा दें और कोई भी हरकत ना करें। चलो कहो उन्हें।"
रिवाल्वर से कवर किए देवराज चौहान राम दा के साथ बाहर निकला।
"कहो।"
"सब अपने हथियार गिरा दो।" राम दा फीकेपन से भरे, ऊंचे स्वर में बोला--- "कोई कुछ ना करे।"
बाहर अंधेरा फैला था। छिपे हुए कुछ आदमियों की झलक मिल रही थी तो कहीं पर हथियार गिराए जाने के स्वर भी सुनाई दिए।
"कितने आदमी हैं?"
"बा...बारह।" राम दा के होंठों से सूखा स्वर निकला।
"अगर तुम्हारे किसी आदमी ने चालाकी दिखाने की कोशिश की तो उसी वक्त रिवाल्वर की सारी गोलियां तुम्हारे जिस्म में उतार दूंगा। चाहो तो एक बार फिर अपने आदमियों से कह दो।"
"जरूरत नहीं।" राम दा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "मेरे आदमी, मेरी बात फौरन मानते हैं।"
"चलो।" देवराज चौहान ने पुनः रिवाल्वर का दबाव बढ़ाया--- "बाहर गेट तक। कोई चालाकी नहीं--- "कहने के साथ ही देवराज चौहान ने उसकी बांह पकड़ी और फुर्ती के साथ घूमते हुए रिवाल्वर उसकी कमर से लगा दी और आगे धकेला।
दोनों गेट की तरफ बढ़ने लगे। देवराज चौहान बेहद सावधान था। हालात कभी भी बदल सकते थे।
नसीमा उसके साथ थी।
सब ठीक रहा। देवराज चौहान राम दा के साथ बाहर गेट पर जा पहुंचा।
"बाहर कोई है?" देवराज चौहान ने भिंचे स्वर में कहा।
"न--नहीं।"
"क्या है बाहर?"
"एक वैन, एक कार।" राम दा के स्वर में घबराहट स्पष्ट झलक रही थी।
तभी उनके पास से कार निकली। जगमोहन कार ड्राइव कर रहा था। सोहनलाल बगल में बैठा था। पीछे वाले हिस्से में सूटकेस नजर आ रहे थे।
"जल्दी आना---।" जगमोहन का स्वर उसे सुनाई दिया और कार बाहर निकलती चली गई।
"नसीमा!" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा--- "देखो, कोई पीछे तो नहीं लगा।"
नसीमा जल्दी से गेट से बाहर निकली और जगमोहन की जाती कार को देखने लगी।
"सब ठीक है।" जगमोहन की कार जब निगाहों से ओझल हो गई तो, वहीं खड़ी नसीमा ने कहा।
"राम दा!"
"ह-हां---।"
"अपने आदमियों से कहो, पन्द्रह मिनट तक कोई भी यहां से बाहर ना निकले।"
"पन्द्रह मिनट तक कोई भी यहां से बाहर नहीं निकलेगा।" राम दा की आवाज ऊंची थी परंतु बे-जान-सी थी।
गहरी चुप्पी छाई रही। कोई आवाज नहीं आई।
"अगर तुम्हारा कोई आदमी बाहर निकला तो उसी वक्त तुम्हें शूट कर दूंगा।" देवराज चौहान गुर्राया।
"वो सब मेरी बात मानते हैं।" राम दा ने सूखे स्वर में कहा।
"बाहर चलो। जहां तुम्हारी कार खड़ी है।" कहते हुए देवराज चौहान ने उन्हें बाहर की तरफ धकेला।
बंगले से बाहर निकले और कुछ दूर अंधेरे में खड़ी कार के पास जा पहुंचे।
"कार तुम ड्राइव करोगे।" देवराज चौहान की आवाज में खतरनाक भाव थे।
"मुझे माफ कर दो देवराज चौहान। फिर मैं कभी भी---।" राम दा ने कहना चाहा।
"कार ड्राइव करो। बैठो।" देवराज चौहान रिवाल्वर का दबाव बढ़ाकर गुर्रा उठा।
राम दा जल्दी से ड्राइविंग सीट पर जा बैठा।
देवराज चौहान और नसीमा पीछे वाली सीट पर बैठ गए।
"चलो।"
मौत के डर में सिमटे, राम दा ने कार आगे बढ़ा दी।
"तो तुम बहुत समझदार हो। पाटिल बेवकूफ था।" देवराज चौहान की आवाज में मौत के भाव थे।
"मुझे माफ कर...।"
"पचास अरब की दौलत का मजा लेना चाहते हो।"
"मुझसे गलती हो गई। मैं...।"
"दौलत के साथ-साथ मेरी जान की भी जरूरत थी तुम्हें।"
"मैं पागल हो गया था। दिमाग खराब हो गया था मेरा, जो...।"
"तुम्हारे ख्याल से डंडे के जोर पर दुनिया को हांका जा सकता है। शराफत खत्म हो गई है।"
"मैं---।"
"पहले हम वैसे ही चले, जो हममें तय था। ना तो तुमने कोई गलत काम किया और ना मैंने।" देवराज चौहान का स्वर मौत से भरा ठंडा हो चुका था--- "हम दोनों ने मिलकर अच्छा काम किया। लेकिन अब तुमने जो किया, बहुत ही गलत किया। ऐसा कुछ होना या करना हममें तय नहीं था।"
"मैं अपनी गलती की माफी चाहता हूं देवराज चौहान।" राम दा का स्वर कांप रहा था--- "कसम से, कभी भी फिर तुम्हारे रास्ते में नहीं आऊंगा। मैं तुम्हारे पांव में पड़कर माफी...।"
"बाईं तरफ मोड़ो---।" देवराज चौहान पहले वाले स्वर में ही बोला।
आगे मोड़ था।
राम दा ने कार को वहीं मोड़ लिया।
इस सड़क पर कम ट्रैफिक था। कुछ आगे जाने पर देवराज चौहान बोला।
"कार रोक दो।"
राम दा ने फौरन कार को साइड में रोका और कह उठा।
"मैं हमेशा याद रखूंगा कि तुमने मुझे जिंदा छोड़---।"
"बाहर निकलो नसीमा।" देवराज चौहान की आवाज में कोई भाव नहीं था।
देवराज चौहान के साथ नसीमा भी बाहर निकली।
"थैंक्यू देवराज चौहान!" राम दा का स्वर खुशी से कांप रहा था। वो पास खड़े देवराज चौहान से कह उठा--- "तुमने मुझे जिंदा छोड़ दिया। मैं--- ।"
देवराज चौहान ने रिवाल्वर वाला हाथ उठाया। रामदा की आंखें फैल गईं। पास से गुजरते वाहन की हैडलाइट में उसका दहशत से भरा चेहरा चमका। उसी पल देवराज चौहान की उंगली हिली और नाल से बे-आवाज गोली निकली और राम दा के खुले मुंह में प्रवेश कर पीछे से निकल गई
रामदा के शरीर को तीव्र झटका लगा। दूसरे ही क्षण उसका शरीर सीट से इस तरह सट गया जैसे थकान भरे अंदाज में कुछ पल के लिए आराम कर रहा हो। और उसके इस आराम के साथ ही हमेशा के लिए तमाम भागदौड़ खत्म हो गई थी। अब उसे दौलत की जरूरत नहीं थी ना ही जरूरत थी अंडरवर्ल्ड का बड़ा बनने की।
"चलो।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने रिवाल्वर जेब में डाली और पैदल ही आगे बढ़ गया। चेहरा सपाट था। वहां अब किसी तरह का भाव नहीं था।
नसीमा उसके साथ चल पड़ी।
"देवराज चौहान---!" कुछ पलों बाद चलते-चलते नसीमा बोली--- "मेरा दो प्रतिशत का हिस्सा है। मिलेगा ना?"
"हां। वहीं चल रहे हैं।" देवराज चौहान ने एकाएक मुस्कुरा कर उसे देखा--- "तुम्हारा एक अरब रुपया बनता है। अंदाज से इतनी कीमत के हीरे-जवाहरात लेकर तुम कहीं भी जा सकती हो।"
देवराज चौहान के ये शब्द सुनकर नसीमा ने मन ही मन चैन की सांस ली।
देवराज चौहान की निगाह चलते हुए, टैक्सी की तलाश में इधर-उधर जा रही थी।
■■■
"सोहनलाल---!" कोशिश करके भी जगमोहन अपनी खुशी पर काबू नहीं पा रहा था--- "मजा ही आ गया। पाटिल अपने ही खेल में फंस गया। सोचता था, पचास अरब की दौलत भी ले लेगा और हमें भी खत्म कर देगा। और तो और ऊपर से उसका बंधु राम दा भी मुंह फाड़े वहां पहुंच गया। कमीना कहीं का।"
"शुक्र कर, सब पासे सीधे पड़े हैं।" सोहनलाल में गोली वाली सिग्रेट सुलगाई।
"वो तीसरे सूटकेस का ध्यान रखना। जो डिग्गी में है। जिसे बांध रखा है।" जगमोहन बोला--- "कहीं वो गिर ना जाए और हमें पता ही ना चले।"
"नहीं गिरेगा।" सोहनलाल ने कहा--- "मैंने चैक किया है। बहुत अच्छी तरह सूटकेस को बांध रखा है।"
"यार एक बात बता।" ड्राइव करता जगमोहन कह उठा--- "नसीमा को एक अरब रुपया ज्यादा दिया जा रहा है।"
"देवराज चौहान से नसीमा की बात हो चुकी है।"
"वो तो ठीक है। लेकिन फिर भी एक अरब ज्यादा है। तेरे को नहीं लगता क्या?" जगमोहन ने होंठ सिकोड़े।
"उसने कई कामों में हमारी सहायता की है। वो बराबर साथ रही है।" सोहनलाल मुस्कुरा पड़ा--- "और हम कौन-सा अपनी जेब से एक अरब दे रहे हैं। तुम्हारी जान खामख्वाह सूखी जा रही है।"
जगमोहन कुछ कहने लगा कि ठिठक गया आंखें सिकुड़ गईं।
"वो देख, सामने---।" जगमोहन के होंठों से निकला।
सोहनलाल ने सामने देखा तो हड़बड़ा-सा उठा।
कुछ आगे ही पुलिस कार खड़ी थी। सड़क के बीच ड्रम इस तरह लगा रखे थे कि कार को धीमा करके उनके बीच में से निकलना था।
पास में चार पुलिस वाले खड़े थे। उनकी निगाह इसी कार पर थी। जो पास पहुंच चुकी थी।
"ये तो पुलिस वाले हैं।" जगमोहन के चेहरे का रंग फक्क पड़ गया--- "यहां क्या कर रहे हैं?"
"कर क्या रहे हैं, ड्यूटी दे रहे हैं।" सोहनलाल ने जल्दी से कहा--- "स्पेशल चेकिंग होगी।"
"पीछे मोड़ता हूं कार को---।"
"बेवकूफी मत कर। उनके पास पुलिस कार है। और हम उनके सिर पर पहुंच चुके हैं। ऐसे में कार को वापस जोड़ने की चेष्टा की तो बचने का जो जरा सा चांस है, वो भी खत्म हो जाएगा।"
"बचने का चांस? कैसा चांस?"
"हो सकता है, हमें ना रोकें। किसी खास कार-गाड़ी की तलाश हो इन्हें।"
"फंस गए तो पचास अरब की दौलत---।"
"दौलत के लालच में फंस जाना।" सोहनलाल होंठ सिकोड़े धीमे स्वर में कह उठा--- "जब ये महसूस करो कि फंसने जा रहे हैं तो खिसक लेना।"
"दौलत छोड़कर?" जगमोहन के स्वर में चिंता आ गई।
"वो तेरी मर्जी। फंसना हो तो तब दौलत का लालच करना।"
तब तक कार ड्रमों के पास पहुंच चुकी थी।
जगमोहन कार की रफ्तार धीमी कर चुका था। धड़कते दिल के साथ उसने कार को सड़क पर खड़े कर रखे ड्रमों के बीच में से निकालना चाहा कि एक पुलिस वाला सामने आया और कार को रोकने के लिए हाथ दिया। हैडलाइट की रोशनी में उसको सब-इंस्पेक्टर की वर्दी स्पष्ट चमकी
"हो गया काम।" सोहनलाल बड़बड़ा उठा।
पचास अरब की दौलत हाथ से जाने की सोच कर जगमोहन का चेहरा फीका पड़ने लगा।
पुलिस वाला ठीक सामने था। जगमोहन को ड्रमों के बीच ही कार रोकनी पड़ी।
"क्या हुआ इंस्पेक्टर साहब?" सोहनलाल सिर को थोड़ा-सा बाहर निकाल कर बोला।
"सूटकेसों में क्या है?" सब-इंस्पेक्टर पास आकर बोला।
"सूटकेसों में।" सोहनलाल ने लापरवाही से कहा--- "सामान है और क्या होगा।" साथ उसकी छाती पर लगी नाम की पट्टी को देख कर कह उठा--- "यादव जी हमें जल्दी दुबे जी के पास पहुंचना है। उनका ही सामान है।"
"दुबे---।" सब-इंस्पेक्टर ने उसे देखा--- "ये कौन है?"
"कमाल है!" सोहनलाल कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकलता हुआ बोला--- "पुलिस में तुम्हें किसने भर्ती कर लिया। सब-इंस्पेक्टर बन गए और दुबे साहब को नहीं जानते।"
जगमोहन कार दौड़ा ले जाने की स्थिति में नहीं था। सामने ड्रम थे और पुलिस कार पास ही खड़ी थी। एक कॉन्स्टेबल और पास आ पहुंचा था।
"लेकिन दुबे साहब हैं कौन?" सब-इंस्पेक्टर ने पूछा। वो कुछ उलझन में पड़ गया था।
"पुलिस वाला होकर, पुलिस वाले को नहीं जानता। अब दुबे साहब से तेरी शिकायत करनी ही पड़ेगी। उन्हें तो वैसे भी गुस्सा जल्दी आ जाता है।" सोहनलाल ने उखड़े स्वर में कहा--- "आता हूं अभी।" कहने के साथ ही सोहनलाल सड़क के किनारे की तरफ जाने लगा।
सब-इंस्पेक्टर ने उसकी बांह पकड़ ली।
"जाता कहां है। बता सूटकेसों में क्या है? खोलकर दिखा।"
"मेरी बांह पकड़ता है।" सोहनलाल ने गुस्से से बांह को झटका देकर बाँह छुड़ाई--- "चोर हूं मैं क्या? दुबे साहब का नाम सुनने के बाद भी तूने मेरी बांह पकड़ने की हिम्मत की। ठीक है अब तेरे से दुबे साहब ही बात करेंगे। पुलिस कार में वायरलेस तो होगी ही। अभी दुबे साहब से तेरी बात कराता हूं। बहुत देर से रोक रखा है। जरा अंधेरे में हल्का होकर आता हूं।" फिर कार के भीतर बैठे जगमोहन से कहा--- "सर मैं एक मिनट में आया।"
जगमोहन समझ गया कि सोहनलाल खिसकने जा रहा है।
वो भला क्या कहता। पचास अरब की दौलत हाथ से जाने की सोच कर वो डूबा जा रहा था, जिसे कि अब मजबूरी में छोड़कर खिसकना पड़ा था।
कहने के साथ ही सोहनलाल अंधेरे में खिसक गया था।
उलझन में फंसा सब-इंस्पेक्टर कार के गिर्द घूमकर जगमोहन के पास पहुंचा। जगमोहन कार का दरवाजा खोलकर बाहर आ गया। कठिनता से अपने चेहरे के भावों को सीधा रखे हुए था।
"ये दुबे साहब कौन हैं?" सब-इंस्पेक्टर ने उससे पूछा।
"क्या कहूं तुम्हें।" जगमोहन ने गहरी सांस ली--- "वो ही आकर बताएगा।"
"वो---?" सब-इंस्पेक्टर ने कहना चाहा।
"आ रहा है। हल्का होने गया है।"
जगमोहन शांत स्वर में कह उठा।
"ठीक है आप सूटकेसों को खोलिए। मैं देखना चाहता हूं कि इनमें क्या है।"
"चाबी उसके पास ही है। ऐसे छोटे-छोटे काम दुबे साहब उसे ही करने को देते हैं। वो भरोसे का आदमी है। पूरे डिपार्टमेंट में दुबे साहब, सबसे ज्यादा भरोसा उस पर ही करते हैं।" जगमोहन ने स्वर को शांत रखने की कोशिश की।
"डिपार्टमेंट, कैसा डिपार्टमेंट?"
"हमारे-तुम्हारे काम में ज्यादा फर्क नहीं है।" जगमोहन ने कहा--- "तुम वर्दी पहन कर काम करते हो। हम वर्दी के बिना काम करते हैं। दुबे साहब साथ होते तो तुम अब तक बीस बार सलाम ठोंक चुके होते।"
"दुबे साहब आखिर हैं कौन?"
"तसल्ली रखो। तुम्हारी बात का जवाब वही आकर देगा। वो दुबे साहब का मुंह लगा है। वैसे दुबे साहब का आर्डर है कि डिपार्टमेंट की बातें गुप्त रहनी चाहिए। अब वही आकर मुंह खुलेगा।"
तभी हवलदार ने सब-इंस्पेक्टर के कान में कहा।
"सर! मुझे तो ये खुफिया विभाग वाले लगते हैं।"
"लेकिन दुबे साहब हैं कौन?" सब-इंस्पेक्टर ने धीमे स्वर में कहा।
"खुफिया विभाग के बड़े अफसर होंगे। हम सब अफसरों के नाम तो जानते नहीं।"
"जो भी हो, मैं सूटकेसों को अवश्य देखूंगा कि इनके भीतर क्या है? मैं अपनी ड्यूटी कर रहा हूं।"
जगमोहन के कानों में जब ये शब्द पड़े तो समझ गया कि सारी दौलत छोड़कर खिसकने में ही भलाई है। ये सूटकेसों को हर हाल में चैक करके रहेगा।
"तुम थोड़ा-बहुत ही बता दो कि दुबे साहब हैं कौन?"
"वो ही बताएगा। उसके पेट में भी दर्द हो रहा था।" जगमोहन ने उस तरफ देखा। जिधर सोहनलाल गया था--- "लगता है लंबा ही करने गया है। उसका भी क्या कसूर। अब दुबे साहब काम पर काम लेते रहते हैं। कहते हैं देश की सेवा करना हमारा धर्म है। फर्ज है। मैं उससे चाबी लेकर आता हूं कि तुम सूटकेसों को चैक करके अपनी ड्यूटी पूरी कर लो। वक्त बचेगा तब तक वो भी पूरी तरह होकर आ जाएगा। सूटकेसों का ध्यान रखना सरकारी माल है।" कहने के साथ ही जगमोहन, सड़क किनारे उस तरफ उतरता चला गया, जिधर सोहनलाल गया था।
"सर, वो गया। वो...।" कॉन्स्टेबल ने कहना चाहा।
"आ रहा है। उससे चाबी लेने गया है। सूटकेसों पर नजर रखो बड़े अफसर लगते हैं ये लोग।" सब-इंस्पेक्टर कह उठा--- "सोचने पर भी समझ में नहीं आ रहा कि आखिर दुबे साहब कौन हो सकते हैं!"
"वो पहले वाला आदमी आकर बताएगा।" कॉन्स्टेबल बोला।
वो सोहनलाल और जगमोहन के वापस आने का इंतजार करने लगे।
लेकिन उन्होंने अब कहां वापस आना था। वो तो दुबे साहब की मेहरबानी से, कठिनता से इन पुलिस वालों से अपनी जान बचाकर खिसक चुके थे।
समाप्त
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