शुक्रवार ।
विवेक आगाशे निश्चिन्त था । उसकी निगाह में उस रोज की मीटिंग में उस रोज की मीटिंग महज एक औपचारिकता थी । रुचिका केजरीवाल की कल की अतिनाटकीय घोषणा से वो कतई प्रभावित नहीं हुआ था । उसे गारन्टी थी कि उसकी ही थ्योरी सही थी और उसे छिन्न-भिन्न कर देना तो दूर की बात थी, रुचिका केजरीवाल उसे हिला भी नहीं सकती थी । बावजूद इसके वो उसके आख्यान को सुनने को उत्सुक था । वो क्राइम क्लब की सबसे कमउम्र मेम्बर थी लेकिन जेहनी कूवत में किसी दूसरे मेम्बर से किसी भी सूरत में कम नहीं थी । वो नामचीन क्राइम रिपोर्टर थी और क्राइम की हर मकैनिज्म को समझती थी । उससे ये उम्मीद नहीं की जाती थी वो महज वक्त बरबादी के लिए अपनी बारी को इस्तेमाल करती ।
आगाशे ने आंख भर कर उसे देखा ।
उस रोज वो शिफॉन की पीले रंग की साड़ी और उसी रंग का स्लीवलैस ब्लाउज पहनकर आयी थी जो कि उसकी गोरी रंगत पर खूब जंच रहा था । खूबसूरत तो वो थी ही लेकिन उस रोज उसके चेहरे पर कुछ खास ही नूर झलक रहा था । उसकी आंखों में अजीब-सी चमक थी और चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे सिकन्दर मकदूनिया से निकल कर फतह कर लेने के लिए छटपटा रहा हो ।
खुशकिस्मत होगा वो पठ्ठा - वो मन-ही-मन बोला - जिसे ये औरत बतौर बीवी हासिल होगी । पेशा गलत पकड़ लिया पट्ठी ने । इसे तो फिल्म स्टार होना चाहिए था, फैशन माडल होना चाहिए था और पार्टटाइम कवियत्री होना चाहिए था ।
फिर उसने बोलना शुरू किया ।
“फ्रेंड्स” - रुचिका केजरीवाल बोली - “पिछली शाम हमने इस केस की अब तक सबसे दिलचस्प और सबसे सशक्त थ्योरी सुनी । जिस शानदार तरीके से हमारे सभापति महोदय ने मुकेश निगम को अपनी बीवी का कातिल साबित करके दिखाया, वो यकीनन काबिलेतारीफ था । अपनी थ्योरी को साबित करने के लिए उन्होंने अकैडमिक और प्रैक्टिकल जो कुछ भी किया, बहुत खूब किया । उनके काम करने का उम्दा तरीका हमारे बाकी मेम्बरान के लिये एक सबक था । ये मात्र एक संयोग था कि उनकी थ्योरी एक गलत बुनियाद पर आधारित थी, वरना उनकी मेहनत और कोशिश में तो कोई कमी नहीं थी ।”
आगाशे बड़े सब्र के साथ मुस्कराया । कह ले जो कहना चाहती थी - उसने मन-ही-मन में सोचा - आखिर जुबानदराजी जुदा होती थी, उससे कुछ साबित करके दिखाना जुदा बात होती थी ।
“फ्रेंड्स” - रुचिका कह रही थी - “अपनी थ्योरी प्रस्तुत करने से पहले एक बात मैं जरूर कहना चाहती हूं कि मेरी और सभापति महोदय की थ्योरी की शुरूआत एक ही जगह से होती है । उनकी तरह मैं भी ये ही मान के चली थी कि ये धारणा सर्वदा भ्रान्तिपूर्ण थी कि गलत शख्स का खून हो गया था । उनकी तरह मेरा भी दावा है कि कातिल का निशाना अंजमा निगम थी और उसका निशाना कतई नहीं चूका था ।”
“जान कर खुशी हुई” - आगाशे जबरन मुस्कराता हुआ बोला - “कि मेरी थ्योरी का कोई तो पहलू है जिससे कि आप सहमत हैं ।”
“अब जरा” - रुचिका अपनी ही झोंक में बोलती रही - “कल शाम मिस्टर घोष की कही इस बात को याद कीजिये कि मिस्टर आगाशे के केस का मुकम्मल दारोमदार मिस्टर एण्ड मिसेज निगम के बीच लगी शर्त पर था । मिस्टर आगाशे का कहना है कि उस शर्त का कोई अस्तित्व नहीं था । वो शर्त कभी लगी ही नहीं थी । ये बहुत सनसनीखेज रहस्योदघाटन है लेकिन - आई एम सॉरी टू से - गलत है । और मिस्टर आगाशे से गलती इसलिये हुई क्योंकि वो स्रीसुलभ मनोविज्ञान की व्याख्या ठीक से न कर सके । मैं खुद स्त्री हूं इसलिए स्त्री को और स्रीसुलभ मनोविज्ञान को किसी पुरुष से बेहतर समझ सकती हूं । मिस्टर आगाशे ने कल अपनी थ्योरी में अंजना निगम को एक बहुत ही नेकबख्त, इज्जतदार और संजीदामिजाज औरत चित्रित किया और इनकी निगाह में ऐसी औरत झूठी शर्त लगाने जैसी फरेबी हरकत नहीं कर सकती थी । मेरी राय ऐन इससे उलट है । वो कोई ऐसी पाकसाफ औरत नहीं थीं जैसी कि वो अपने आपको साबित करने की कोशिश करती थी ।”
“मेरे सामने तो एक भी बात पेश नहीं आयी थी ।” - आगाशे ने प्रतिवाद किया - “जिससे लगता हो कि वो पाकसाफ औरत नहीं थी । सूचनार्थ निवेदन है कि अपनी तफ्तीश की शुरूआत में मैंने उसके चरित्र को सन्दिग्ध निगाहों से देखा था लेकिन जब मुझे संदिग्ध कुछ ही नहीं दिया था तो मुझे उसकी बाबत अपनी राय बदलनी पड़ी थी ।”
“कुछ न दिखाई देना इस बात का सबूत नहीं होता कि देखने लायक कुछ है भी नहीं ।”
“क्यों नहीं होता ? होता है । जब देखने लायक कुछ होगा तो दिखाई भी देगा । शर्त की ही मिसाल लो । क्या है उसमें देखने लायक ? उस शर्त का कोई सबूत दिखाई देता है ? सिवाय इसके कि मुकेश निगम ऐसा कहता है कि वो शर्त लगी थी । उसके कहे के अलावा कोई सबूत है उस शर्त का ?”
“है ।”
“क्या !”
“मैंने कहा, है सबूत उस शर्त का । आगाशे साहब, मैंने अपना सारा जोर, सारा दमखम उस सबूत को तलाशने में ही सर्फ किया है । क्योंकि मैं जानती थी कि ऐसे किसी सबूत के बिना आप अपनी थ्योरी से हिलने वाले नहीं थे । आपको हिलाने के लिए मेरे लिये ये साबित करना निहायत जरूरी था कि वो शर्त लगी थी ।”
“आप साबित कर सकती हैं कि वो शर्त लगी थी ?” - आगाशे हकबका कर बोला ।
“कर सकती हूं । कर चुकी हूं । निर्विवाद रूप से ।”
“अच्छा !”
“जी हां । कोशिश करते तो आप भी कर सकते थे लेकिन आपने ऐसी कोई कोशिश जरूरी नहीं समझी । इसलिए जरूरी नहीं समझी क्योंकि ऐसी कोई कोशिश आपकी थ्योरी को रास नहीं आने वाली थी । आपने तो अपने केस की इमारत खड़ी ही इस बुनियाद पर की थी शर्त का कोई अस्तित्व नहीं था, शर्त मुकेश निगम की मनगढंत बात थी । इसके बिना आप उसे अपराधी साबित जो नहीं कर सकते थे ।”
“आगे बढिये ।” - आगाशे ब्रेसब्रेपन से बोला - “शर्त के सबूत पर पहुंचिये ।”
“मेरे पास दो गवाह हैं जिनके सामने अंजना निगम ने खुद अपनी जुबानी शर्त का जिक्र किया था । एक गवाह उसकी वो घरेलू नौकरानी है । वारदात के दिन जिसने अंजना निगम को चूर्ण की दो गोलियां खिलाई थीं और पेट पर सेक करने के लिये हाट वाटर बाटल लाकर दी थी । तब कांखते-कराहते हुए अंजना निगम ने नौकरानी को शर्त की बात बतायी थी और कहा था कि उस शर्त की वजह से ही वो मुसीबत उसके पल्ले पड़ी थी । कोई साहब चाहें तो बड़ी खुशी से बाबर रोड जाकर नौकरानी से इस बात की तसदीक कर लें ।”
“हमें आपकी बात पर एतबार है ।” - अपने सभापति के कर्त्तव्य को निभाता हुआ आगाशे बोला - “हम अपने फैलो मेम्बर से झूठ बोलने की उम्मीद नहीं करते । आप ऐसा कहती हैं तो जरूर ऐसा ही होगा ।”
“थैंक्यू ! मेरा दूसरा गवाह मेरी एक फ्रेंड है जो कि ‘अपराधी कौन’ के प्रीमियर शो पर ‘रीगल’ में मौजूद थी और जो निगम दम्पति से भी परिचित है । मेरी वो फ्रेंड फिल्म शुरू होने से पहले लेडीज टायलेट में अंजना निगम से मिली थी जब कि अंजना निगम ने फिल्म में कातिल की शिनाख्त को लेकर अपने पति से लगी शर्त की बाबत उसे बताया था ।”
“ये भी बताया था” - अशोक प्रभाकर बोला - “कि उसने वो फिल्म पहले देखी हुई थी ?”
“नहीं, ये नहीं बताया था उसने मेरी फ्रेंड को ।”
“आई सी ।”
“मिस्टर आगाशे” - रुचिका सभापति से सम्भोधित हुई - “उस शर्त से दो ही नतीजे निकलते थे और बदकिस्मती से आपने वो नतीजा चुना जो कि गलत था ।”
“लेकिन” - आगाशे बोला - “आपको ये कैसे मालूम था कि अंजना निगम ने प्रीमियर से पहले ही वो फिल्म देख ली हुई थी ? मुझे तो ये बात सिर्फ दो दिन पहले महज एक इत्तफाक से मालूम हुई थी । परसों सुबह मिसेज रोज पद्मसी अगर इत्तफाक से ही मुझे आई.टी.ओ. पर न मिल गयी होतीं तो मुझे तो इस बाबत कभी कुछ मालूम न होता ।”
“जो बात” - रुचिका मुस्कराई - “आपको दो दिन पहले इत्तफाक से मालूम हुई, वो मुझे शुरू से मालूम थी ।”
“कैसे मालूम हुई ?”
“वैसे ही जैसे आपको मालूम हुई ।”
“मिसेज रोज पद्मसी से ! यानी कि आप मिसेज पद्मसी से वाकिफ हैं ?”
“मेरी एक फ्रेंड वाकिफ है । मिस्टर आगाशे, ये जगविदित है कि रोज पद्मसी एक बहुत ही वाचाल औरत है । जो बात उसे जिक्र के काबिल लगे उसका जिक्र वो किसी एकाध जने से करके संतोष नहीं कर लेती, उसका जिक्र वो सारी दिल्ली से करती है । इसलिए आप ये खामख्याली अपने मन से निकाल दीजिये कि शर्त की बाबत जो कुछ उसने आपको कहा था, वो सिर्फ आपको कहा था ।”
“ओह !”
“कल आपने अभी रोज पद्मसी का नाम ही लिया था तो मैं समझ गयी थी कि आप क्या कहने वाले थे । मैंने तब आपको इसलिये नहीं टोका था क्योंकि मैं ऐसा करती तो तभी आपकी थ्योरी के सबसे चमकीले पहलू की पालिश उतर जाती । उस वक्त श्रोता मन्त्रमुग्ध थे और आप छाये छुए थे । सर, आई डिड नॉट वांट टु डिप्राइव यू आफ युअर मूमेंट आफ ग्लोरी ।”
“शुक्रिया ।” - आगाशे शुष्क स्वर में बोला - “बहुत ख्याल किया आपने मेरा । आपको ये एहसान मैं हमेशा याद रखूंगा ।”
“आप तो बुरा मान गये, मिस्टर आगाशे ।”
“नो । नैवर ।”
“सच कह रहे हैं ?”
“बिल्कुल ।”
“शुक्रिया । तो अभी हम ये मान के चलते हैं कि कातिल मुकेश निगम नहीं और दुष्यन्त परमार वो शख्स नहीं जिसका कि कातिल कत्ल करना चाहता था । कातिल का निशाना शुरू से ही अंजना निगम थी और उसका निशाना चूका नहीं था । अपनी इस बात को साबित करने के लिए पहले मुझे मिस्टर आगाशे की एक और धारणा पर चोट करनी होगी ।”
आगाशे की भवें उठीं ।
“आपकी एक धारणा ये थी, मिस्टर आगाशे, कि मुकेश निगम सुबह साढे दस बजे शिवालिक क्लब में इसलिए पहुंचा था क्योंकि ऐन उस वक्त दुष्यन्त परमार वहां पहुंचता था जिसके नाम वहां चाकलेटों का पार्सल आने वाला था और था शर्त की कहानी सुनाकर जिसे उसने परमार से हासिल करना था । लेकिन जनाब, अगर हम निगम को निर्दोष मानकर चलें तो फिर तो ये सारी बातें कहीं फिट नहीं बैठती ! फिर तो ये नहीं लगता कि सुबह साढे दस बजे मुकेश निगम क्लब में किसी नापाक इरादे से पहुंचा होगा ! कत्ल अगर अंजना निगम का होना था और कातिल - जैसा कि हम मान कर चल रहे हैं - मुकेश निगम नहीं था तो फिर ये नतीजा सहज ही निकाला जा सकता है कि मुकेश निगम की उस रोज उस सुविधाजनक समय पर शिवालिक क्लब में मौजूदगी का इन्तजाम किसी तरीके से असली कातिल ने किया था । मिस्टर आगाशे को मुकेश निगम के कातिल होने पर सौ फीसदी एतबार पहले ही न आ चुका होता तो उन्हें खुद मुकेश निगम से ही ये सवाल करना जरूर सूझता कि वो सुबह-सवेरे शिवालिक क्लब में कैसे पहुंच गया था !” - रुचिका एक विजेता के-से स्वर में बोली - “मुकेश निगम से ये सवाल मैंने किया था ।”
“क्या जवाब मिला ?” - अभिजित घोष उत्सुक भाव से बोला ।
“जवाब तो बड़ा माकूल मिला लेकिन वो जवाब उससे निकलवाने में मुझे दान्तों पसीने आ गये ।”
“क्या बताया उसने ?”
“उसने मुझे बताया कि उस रोज वो वहां एक टेलीफोन काल रिसीव करने गया था । वो ऐसी कोई काल अपने घर पर क्यों नहीं रिसीव कर सकता था ? जवाब मिला कि वो घर पर रिसीव किये जाने वाले किस्म की काल नहीं थी । बहुत जोर देने पर उसने बताया कि वो काल सलमा शाह नाम की एक कैब्रे डांसर की थी और उस काल को अपनी बीवी की मौजूदगी में अपने घर पर रिसीव करना उसे मुनासिब नहीं लगा था । कहानी यूं बतायी कि उसने कुछ अरसा पहले कुछ रंगीन मिजाज दोस्तों की सोहबत में सलमा शाह के कैब्रे डांस की एक प्राइवेट परफारमेंस देखी थी । वहां दोनों की इक्की-दुक्की बात भी हुई थी और उसके मन में उससे ताल्लुकात बढाने की ख्वाहिश जागी थी । वारदात वाले दिन से एक रोज पहले, यानी कि शुक्रवार को, सलमा शाह ने मुकेश निगम को उसके आफिस में फोन किया था और हल्के-फुल्के औपचारिक वार्तालाप के दौरान पूछा था कि अगली सुबह वो क्या कर रहा था जिसके जवाब में मुकेश निगम ने बड़ी व्यग्रता से कहा था कि अगली सुबह वो बिल्कुल खाली था । सलमा शाह ने कहा कि कल की बाबत उसे उसी क्षण पक्का पता नहीं था कि वो खाली थी या नहीं । उसने कहा कि सही स्थिति वो निगम को सुबह फोन करके बता सकती थी । तब निगम ने ही उसे कहा कि सुबह साढे दस और ग्यारह बजे के बीच उसे शिवालिक क्लब में फोन करे ।”
“मतलब क्या हुआ इस बात का ?” - छाया प्रजापति उलझनपूर्ण स्वर में बोली ।
“ऐसे का ऐसे तो, मैं कबूल करती हूं कि कोई मतलब नहीं हुआ ।” - रुचिका बोली - “लेकिन मतलब यूं बनता है, मैजिस्ट्रेट साहिबा, कि सलमा शाह का कहना है कि उसने मुकेश निगम को कभी फोन नहीं किया ।”
“क्या ?”
“जी हां । मैंने खुद सलमा शाह नाम की उस कैब्रे आर्टिस्ट से मिलकर उस बात की तसदीक की है ।”
“यानी कि” - आगाशे बोला - “वो फोन काल सलमा शाह के नाम से किसी और औरत ने मुकेश निगम को की थी ?”
“जाहिर है ।”
“यानी कि आपके सोचे अपराधी की वो कोई फीमेल अकम्पलिस है, कोई राजदां है, कोई सहयोगिनी है ?”
“जी हां । दरअसल मेरे अपराधी के एक नहीं, दो सहयोगी हैं । लेकिन दोनों ही अंजाने में बने सहयोगी हैं । उन दो जनों के सहयोगी को उन दोनों की जानकारी के बिना मेरे अपराधी ने अपने मकसद के लिए इस्तेमाल किया ।”
“दूसरा कौन ? कहीं मुकेश निगम ही तो नहीं ?”
“बिल्कुल वही । और कौन होगा !”
“आपका मतलब है” - अशोक प्रभाकर बोला - “कि उस फर्जी फोन काल का मकसद वारदात के दिन सुबह साढे दस बजे शिवालिक क्लब में मुकेश निगम की हाजिरी था ?”
“जी हां । और इस काम के लिए टेलीफोनक्रत्री के रूप में सलमा शाह को इसलिये चुना गया था क्योंकि निगम उससे सिर्फ एक बार मिला था और मेरे अपराधी का यकीन था कि निगम टेलीफोन पर सलमा शाह की आवाज नहीं पहचान पाने वाला था ।”
“असल में फोन करने वाली कौन थी ?”
“सोचिये ।”
सबके चेहरो पर सोच के भाव उभरे ।
“छाया जी, आपको तो सूझना चाहिए कि फोन करने वाली कौन थी ! आखिर प्रेम तिकोन आपकी थ्योरी की हाईलाइट था ।”
“अंजना निगम !” - तत्काल छाया प्रजापति के मुंह से निकला ।
“बिल्कुल वही ।” - रुचिका बोली - “अगर वो फोन काल अंजना निगम ने की होती तो क्या उसके अपने पति ने उसकी आवाज न पहचानी होती ?”
“टेलीफोन पर आवाज तब्दील करके बोलकर किसी को बेवकूफ बना लेना कोई बात नहीं है, सभापति महोदय । ऐसा मुंह में कुछ रखकर बोलने में किया जा सकता है । बिना किन्हीं साधनों के भी आवाज तब्दील करके बोला जा सकता है । ये न भूलिये कि वक्त की जरूरत सिर्फ आवाज को तब्दील करना था, उसको सच में ही सलमा शाह जैसी आवाज बनाना नहीं था ।”
“हूं ।”
“आप छाया जी को प्रेम तिकोन की याद दिला रही थीं ।” - दासानी बोला - “क्या आपकी थ्योरी भी प्रेम तिकोन पर आधारित है ?”
“यही समझ लीजिये ।”
“लेकिन आपके प्रेम तिकोन का तो कोई भी कोना स्पष्ट नहीं है ।”
“अभी होता है लेकिन अपनी थ्योरी प्रस्तुत करने से पहले मैं अपने सभापति महोदय की थ्योरी की बची-खुची मिट्टी भी झाड़ देना चाहती हूं ।”
आगाशे के चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव आये ।
“मिस्टर आगाशे” - उसके वर्तमान मूड से आनान्दित होती हुई रुचिका बोली - “आप इतने बड़े डिटेक्टिव हैं फिर भी एक बात मुझे खेद के साथ कहनी पड़ती है कि आपने इस केस की जो थोड़ी-बहुत तफ्तीश अपनी थ्योरी को बल देने के लिये की, वो विशुद्ध व्यवसायिक दृष्टिकोण से नहीं की । अपनी तफ्तीश के दौरान आपने इंसानी फितरत पर कुछ ज्यादा ही एतबार रखा जो कि एक मंझा हुआ डिटेक्टिव कभी नहीं रखता ।”
“मतलब ?” - आगाशे बोला ।
“मतलब ये कि अपनी तफ्तीश के दौरान आपका रवैया ये रहा कि जो कुछ किसी ने आपके कहा, आपने उस पर विश्वास कर लिया । किसी बात की तसदीक आपने जरूरी न समझी । तजुर्बेकार डिटेक्टिव तो ऐसा नहीं करते ! वो तो हर हासिल जानकारी को क्रॉस चैक करते हैं । आपने तो ऐसे बिहेव किया कि अगर मार्गरेट थैचर आपको आकर ये कहती कि चाकलेटों में नाइट्रोबेंजीन उसने मिलायी थी तो आप निसंकोच ये बात कबूल कर लेते ।”
“आप” - आगाशे उसे घूरता हुआ बोला - “मेरे में नुक्स निकालने की कोशिश कर रही हैं ?”
“हरगिज भी नहीं ।” - रुचिका बोली - “मैं तो महज ये जताने की कोशिश कर रही हूं कि अपनी तफ्तीश से आप सही जानकारी हासिल नहीं कर सके थे ।”
“किसी ने मेरे से झूठ बोला ?”
“जी हां । और ये मेरा ख्याल नहीं, मेरा अन्दाजा नहीं, एक स्थापित तथ्य है । मैं साबित कर सकती हूं । कर चुकी हूं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“सुनिये, कल आपने बड़े विश्वास के साथ कहा था कि खैबर पास की राजधानी टाइपराइटर कम्पनी नाम की दुकान के दुकानदार को जब आपने मुकेश निगम की तस्वीर दिखाई थी तो उसने उस शख्स की सूरत में उसे फौरन पहचान लिया था जिसे कि उसने एक महीना पहले सैकेण्डहैण्ड रेमिंगटन-ट्रैवलर टाइपराइटर बेचा था । मुझे इस शिनाख्त पर बहुत हैरानी हुई थी इसलिए मैंने कल आपसे उस दुकान का नाम-पता पूछा था । आज सुबह दुकान खुलते ही मैं उस दुकानदार से मिली थी । मेरे जरा से ही जोर डालने पर उसने कबूल कर लिया था कि उसने आपसे झूठ बोला था ।”
“क्यों ?” - आगाशे के माथे पर बल पड़े ।
“क्योंकि उस झूठ से उसका सैकण्डहैंड टाइपराइटर बिक रहा था । आखिर उसने सिर्फ इसी बात की तो हामी भरनी थी कि आपके कथित फ्रेंड ने अपना वैसा टाइपराइटर उससे खरीदा था इसलिए वैसे टाइपराइटर की खरीद के मामले में आपके लिये भी वही टाइपराइटर की खरीद के मामले में आपके लिये भी वही मुनासिब दुकान थी जहां एक सन्तुष्ट ग्राहक की वजह से दूसरा सन्तुष्ट ग्राहक पहुंचा था । अब तस्वीर की शिनाख्त से आपको कोई सन्तुष्टि हासिल होती थी तो वो सन्तुष्टि आपको हासिल कराने में उसका क्या जाता था ! जनाब, आप उसे कोई भी तस्वीर दिखाते, वो यही कहता कि हां इन्हीं साहब ने कुछ अरसा पहले उससे सैकण्डहैंड रेमिंगटन ट्रैवलर खरीदा था ।”
“ओह !” - आगाशे के मुंह से निकला - “यानी कि बारह सौ की चपत मुझे खामखाह की लगी ?”
“आपने टाइपराइटर बारह सौ रुपये में खरीदा था ?”
“हां ।
“कोशिश कीजिये कि वही दुकानदार उसे हजार रुपये में वापिस ले ले फिर चपत दो सौ की रह जायेगी ।”
“उसका भी” - अशोक प्रभाकर बोला - “हम सब जने मिलकर चन्दा कर देंगे ।”
उस बात पर सामूहिक ठहाका लगा, जिसमें कि आगाशे भी शामिल था ।
“वो प्रिंट शाप वाली” - फिर आगाशे बोला - “सुनीता सूद नाम की सेल्सगर्ल ने भी मुकेश निगम की तस्वीर की शिनाख्त के मामले में यही करतूत की थी मेरे साथ ?”
“सिलसिला तो वहां भी कुछ ऐसा ही बना था ।” - रुचिका हंसती हुई बोली - “सिवा इसके कि खैबर पास वाले दुकानदार की तरह तस्वीर की शिनाख्त में उसका कोई जाती फायदा नहीं था । सुनीता सूद महज सेल्सगर्ल थी प्रिंट आर्ट में । वो कहती है कि उसे तस्वीर कुछ पहचानी-पहचानी तो लगी थी लेकिन वो किस सन्दर्भ में उसे पहचानी-पहचानी लगी थी ये वो याद नहीं कर पायी थी ।”
“तो उसने यही क्यों न कहा मुझसे ?”
“क्योंकि वो कहती है कि” - रुचिका के चेहरे पर फिर एक कुटिल मुसकराहट उभरी - “कि ‘वो बुजुर्गवार’, यानी कि आप, उस तस्वीर की अपनी मनमाफिक शिनाख्त के लिए इस कद्र मरे जा रहे थे कि उससे आपका दिल तोड़ते नहीं बना था ।”
फिर एक फरमायशी अट्टहास लगा ।
आगाशे ने पहले आंखे तरेर कर सबकी तरफ देखा और फिर हंसने लगा ।
“मैं माफी चाहती हूं, सभापति महोदय” - रुचिका संजीदगी से बोली - “लेकिन इन बातों का जिक्र जरूरी था । मेरी थ्योरी के लिए इन बातों का रोशनी में आना जरूरी था ।”
“आई अन्डरस्टैण्ड ।” - आगाशे बोला ।
“तो अब सूरतअहवाल यूं है कि मुकेश निगम के खिलाफ आपके पास जो भी सबूत थे, उनकी काट पेश हो चुकी है । और कुछ है आपके पास मुकेश निगम के खिलाफ ?”
“नहीं ।” - आगाशे ने कबूल किया ।
“अब आप ये बताइये” - अशोक प्रभाकर बोला - “कि आपकी निगाह में अपराधी कौन है ?”
“वो तो मैं भी औरों की तरह” - रुचिका बोली - “सब कुछ कह चुकने के बाद ही बताऊंगी । लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि मेरे सब कुछ कह चुकने से पहले ही आप भांप जायेंगे कि मेरा अपराधी कौन है ? दिमाग पर ज्यादा जोर देंगे तो अभी भी भांप जायेंगे लेकिन अपनी जुबानी अपने अपराधी का नाम लेने से पहले मैं मिस्टर आगाशे की थ्योरी के कुछ और पहलुओं का - हालांकि वो असल सबूत का दर्जा नहीं रखते - जिक्र करना चाहती हूं । मिस्टर आगाशे ने अपने बयान में केस को निहायत काबिलेतारीफ बताया और कई बार इसे एक परफैक्ट केस की संज्ञा दी । यानी कि बहुत कसीदे पढे इन्होंने अपराधी के आला दिमाग और गहरी सूझबूझ के । मेरी अपनी राय में अपराधी या उसकी प्लानिंग इतनी ज्यादा तारीफ के काबिल नहीं । योजना बड़ी चालाकी से तैयार की गयी थी, ये मैं मानती हूं लेकिन उसमें परफैक्शन वाली कोई बात नहीं । मैं तो यहां तक कहती हूं कि अपराधी का ज्यादा साथ उसके आला दिमाग ने नहीं, उसकी आला किस्मत ने दिया है । ये उसकी अच्छी किस्मत का ही सिला था कि केस का एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्लू किसी की भी जानकारी में न आया । यहां मैं मिस्टर अशोक प्रभाकर की बारह शर्तों का भी जिक्र करना चाहती हूं । मैं अपराधी को क्रिमिनालोजी का ज्ञान होने वाली बात तो मानती हूं लेकिन उसके रचानात्मक मस्तिष्क का स्वामी होने को जरूरी नहीं समझती । मेरी राय में ये केस रचनात्मकता का नहीं, अनुकृति का है । आई मीन क्रियेटिवटी का नहीं, इमीटेशन का है, नकल का है, दोहराव का है । अपराधी मौलिक सूझबूझ का स्वामी नहीं । लेकिन उसकी अवलोकन शक्ति तीखी है क्योंकि उसके बिना वो अपनी योजना में फिट बैठने वाले किसी केस का अपने लाभ के लिये, अपने मकसद को हल करने के लिए, अनुकरण भी तो नहीं कर सकता था ।”
“मेरे तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा ।” - अभिजीत घोष हौले से बोला - “अंग्रेजी और हिन्दी दोनों जुबानों के भारी-भारी लफ्ज सुनायी दे रहे हैं, उनका मतलब क्या है, कोई मतलब है तो उसका मकसद क्या है, पता नहीं....”
अशोक प्रभाकर ने उसका हाथ दबाकर उसे खामोश किया । और बोला - “अभी अपनी सुपीरियर नॉलेज का रोब झाड़ रही है, झाड़ने दो । मतलब की बात शायद आगे कहेगी ।”
“मिस्टर आगाशे की थ्योरी के” - रुचिका कह रही थी - “इस प्वायन्ट से भी मैं सहमत हूं कि जहर को कत्ल का हथियार और चाकलेटों को उसका वाहक, इसलिये बनाया गया था क्योंकि लक्ष्य एक औरत थी । और मुकेश निगम को कोई नुकसान पहुंचाने की कातिल की कोई मर्जी नहीं थी । मुकेश निगम को चाकलेटों का कोई शौक नहीं था, ये बात पुलिस की तफ्तीश के जरिये हम जानते हैं और उम्मीद कर सकते हैं कि ये बात कातिल को भी मालूम होगी, जहर वाली उन चाकलेटों में से कोई चाकलेट मुकेश निगम के भी खा जाने की अपेक्षा कातिल को नहीं रही होगी । मुझे मिस्टर आगाशे की इस खोज से भी सौ फीसदी इत्तफाक है कि लेटरहैड प्रिंट आर्ट की एक सैम्पल फाइल में से मुहैया किया गया था । इनकी ये नायाब खोज इनके किसी काम नहीं आयी लेकिन मुझे खुशी है कि मेरे खूब काम आ रही है । लेटरहैड का ये सोर्स मिस्टर आगाशे ने न समझाया होता तो इस मामले में तो मैं अभी भी अन्धेरे में ही भटक रही होती । मैं मिस्टर आगाशे की शुक्रगुजार हूं कि इन्होंने अपना ये आइडिया मुझे उधार लेने दिया ।”
आगाशे ने केवल हुंकार भरी ।
“यहां ये बात दिलचस्पी से खाली नहीं अनीता सूद नाम की प्रिंट आर्ट की जिस सेल्सगर्ल ने आगाशे साहब का दिल रखने के लिये इनके द्वारा पेश की गयी तस्वीर की शिनाख्त की, उसी सेल्सगर्ल ने उस तस्वीर को बड़ी संजीदगी से बेहिचक पहचाना जो कि मैंने उसे दिखाई थी । न सिर्फ पहचाना” - रुचिका का स्वर एकाएक नाचकीय हो उठा - “बल्कि तस्वीर के स्वामी का, बिना मेरी मनुहार के नाम लेकर उसकी शिनाख्त की ।”
“वैरी गुड !” - छाया प्रजापति बोली ।
“मिस्टर आगाशे की थ्योरी का एक प्वायन्ट मुकेश निगम की मौजूदा माली हालत की बाबत भी था । इनका कहना है कि जिन तीन कम्पनियों के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स में मुकेश निगम का नाम है, वो तीनों दीवालियेपन की कगार पर खड़ी हैं । इसी से इन्होंने ये नतीजा निकाला था कि मुकेश निगम की माली हालत नाजुक थी और उसे पैसे की जरूरत थी । यहां भी मिस्टर आगाशे इसी वजह से खता खा गये कि इन्होंने इतनी उम्दा लाइन पर तफ्तीश तो की लेकिन मुकम्मल तफ्तीश न की । ये अपनी तफ्तीश को उन तीन कम्पनियों से आगे बढाकर मुकम्मल करते तो इन्हें ये भी मालूम होता कि उन डूबती कम्पनियों में मुकेश निगम की बहुत थोड़ी इनवैस्टमैंट थी । उसकी मेजर इनवैस्टमैंट सिक्केबन्द गौरमेंट सिक्योरिटीज में थी जो कि डूबती नहीं । न सिर्फ डूबती नहीं, जिनसे सालाना डिवीडेंड के तौर पर उसे इतनी कमायी है कि सिर्फ उस कमायी की वजह से उसकी माली हालत को किसी भी गज से नाप कर नाजुक नहीं बताया जा सकता । तो कहने का मतलब ये है, जनाबेहाजरीन, कि मिस्टर आगाशे ने जो कत्ल का उद्देश्य बताया था - कि मुकेश की अपनी बीवी की दौलत पर निगाह थी - वो तो पिट गया ।”
“आई एम अशेम्ड आफ माईसेल्फ ।”
“यू नीड नाट बी ।” - रुचिका बड़ी दयानतदारी से बोली - “क्योंकि आपके इस प्रमुख उद्देश्य का एक सहयोगी उद्देश्य भी था जिससे कि मैं सहमत हूं । मैं इस बात से सहमत हूं कि मुकेश निगम अपनी बीवी से बोर हो चुका था । मेरी राय में मुकेश निगम की अगर गैर औरतों में रुचि थी तो इसके लिये जरूर उसकी बीवी भी जिम्मेदार थी । कोई खामखाह ही अपनी अंजना जैसी खूबसूरत बीवी से बेजार नहीं हो जाता । जरूर अंजना के व्यवहार में भी ऐसा कुछ था जिसने उसके खाविन्द को सोसायटी की खूबसूरत तितलियों की बांहों में धकेला था । मैं ये नहीं मानती कि अंजना निगम की दौलत का रोब खाकर मुकेश निगम ने उससे शादी की थी । मेरी धारणा ये है कि आरम्भ में निगम को अपनी बीवी पसन्द भी थी और उसे उससे मुहब्बत भी थी । लेकिन बाद में धीरे-धीरे निगम को अपनी बीवी से मायूसी होनी शुरू हो गयी । आप मेरे से सहमत होंगे कि यूं एक बार मियां-बीवी के ताल्लुकात में दरार पड़ जाये तो धीरे-धीरे वो दरार चौड़ी होती चली जाती है और आखिरकार इतनी बड़ी खाई में तब्दील हो जाती है जिसे पाटना न मियां के बस का रहता है, न बीवी के । तब शादी एक समझौता बन जाता है जिसके अन्तर्गत मियां-बीवी दो अजनबियों की तरह एक छत के नीचे रहने पर मजबूर होते हैं । तब दोनों मुहब्बत की जगह एक-दुसरे का सम्मान करना सीख लेते हैं । यूं समाज की निगाहों में ये भरम बना रहता है कि दोनों की बड़ी अच्छी निभ रही थी और वो एक आदर्श शादी थी । देखने वालों को यही लगता था कि दोनों एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे जबकि असल में एक-दूसरे की सूरत से बेजार होते थे । तो साहबान - ये है मेरी निगाह में उन दोनों के कथित सुखी घर-संसार की हकीकत !”
कोई कुछ न बोला ।
“अब अपने सभापति महोदय की थ्योरी का” - रुचिका बोली - “एक आखिरी प्वायन्ट और मैं लोगों की तवज्जो में लाती हूं जो कि मेरी पार्सल का रैपर और उसके साथ आयी चिट्ठी इसलिये नष्ट नहीं की गयी थी क्योंकि यूं शक की सुई निगम की तरफ तो घूमती ही नहीं, बल्कि उससे परे किसी और की तरह घूमती है । यानी कि उन दोनों चीजों के सलामत रहने में अपराधी का नुकसान नहीं, फायदा था । मैं अपने सभापति महोदय की इस बात से भी सहमत हूं । लेकिन मैं इससे वो नतीजा निकालने को तैयार नहीं जो कि सभापति महोदय ने निकाला । मेरी राय में इस बात से जो स्वभाविक नतीजा निकलता है, वो ये कि अपराधी कोई फर्स्ट रेट दिमाग का मालिक नहीं । क्योंकि फर्स्ट रेट दिमाग का मालिक कैसा भी नफे-नुकसान वाला कोई क्लू पीछे छोड़ना कभी गवारा नहीं कर सकता क्योंकि उसे मालूम होना चाहिये कि पुलिस को गुमराह करने के लिए जानबूझकर छोड़े गये छोटे-मोटे क्लू भी कई बार फांसी का फन्दा बन जाते हैं । इसीलिये मैं ये सोचने पर मजबूर हूं कि चिट्ठी और रैपर उस वजह से पीछे नहीं छोड़े गये थे जो कि मिस्टर आगाशे ने बयान की थी बल्कि जरूर उन में कोई और ही, गुमराह करने वाली, जानकारी निहित थी । साहबान, मुझे मालूम है कि वो और जानकारी क्या थी !”
“क्या थी ? - छाया प्रजापति बोली ।
“उसका आप सहज ही अन्दाजा लगा सकती हैं । जरा सोचिये कि रैपर और चिट्ठी को नष्ट कर देने की या न नष्ट कर देने की सुविधा किस-किसको प्राप्त थी ?”
“वो तो या उसे थी जिसके नाम पार्सल आया था, या उसे थी जिसे कि बाद में वो पार्सल सौंप दिया गया था और या फिर उस वेटर की थी जिसे कि वो पार्सल सम्भालकर रखने को दिया गया था ।”
“एग्जैक्टली । क्लब के वेटर का उस बात से कुछ लेना-देना नहीं । मुकेश निगम, हम ये मानकर चल रहे हैं कि, अपराधी है नहीं, तो फिर बाकी कौन बचा ?”
“दुष्यन्त परमार !”
“सो” - रुचिका बोली - “इट इज एज सिम्पल एज दैट ।”
कोई कुछ न बोला ।
“इस केस का जो सबसे बड़ा क्लू अपराधी ने पीछे छोड़ा था उसका उसे खुद इल्म नहीं था, और वो क्लू था अपराधी का खुद का करैक्टर । इस क्लू की तरफ तवज्जो हमारे सभापति महोदय की भी थी लेकिन इन्होंने ये गलती की कि इन्होंने अपराधी के चरित्र का मूल्यांकन करते समय गैसवर्क पर जोर रखा जब कि मैंने उन्हीं तथ्यों पर एतबार किया जो कि मेरी खुद की छानबीन का नतीजा थे ।”
“गैसवर्क में कोई हर्ज नहीं होता” - आगाशे बोला - “क्रिमीनल इनवैस्टिगेशन में बहुत से नतीजे इन्टैलीजेंट गैसवर्क पर आधारित होते हैं ।”
“लेकिन ऐसे नतीजे तभी मान्य होते हैं जबकि बाद में वो प्रमाणित हो जाते हैं । गैसवर्क को सबूतों का सहारा जरूरी होता है ।”
“मैंने ऐसा कौन-सा अन्दाजा लगाया जो स्थापित नहीं होता ?”
“सुनिये । आपने फरमाया कि जिस टाइपराइटर पर चिट्ठी टाइप की गई थी, वो अब जमना की तलहटी में कहीं होगा । आपके इस अन्दाजे को कहां हासिल है सबूत का सहारा ? क्या किसी ने किसी को टाइपराइटर जमना में फेंकते देखा ! किसी ने किसी को कहा कि उसने टाइपराइटर जमना में फेंक दिया था ? वो टाइपराइटर बरामद हुआ जमना में से ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ लेकिन आपने बड़े विश्वास के साथ टाइपराइटर की जगह जमना की तलहटी बताई । किसलिए ? इसलिये क्योंकि आपकी सोच कहती है कि अपराधी अगर आप होते तो चिट्ठी टाइप करने के बाद टाइपराइटर को हरगिज भी अपने पास न रखते और दिल्ली शहर में ऐसी चीज को ठिकाने लगाने के लिए जमना से ज्यादा माकूल जगह और कौन सी हो सकती है ! ये दलीलों से हासिल हुआ नतीजा है, आगाशे साहब, जिसका हकीकत की कसौटी पर खरा उतरना जरूरी नहीं । हकीकत ये है, चाहे ये अपराधी की मूर्खता है लेकिन स्थापित तथ्य ये है, कि वो टाइपराइटर जमना के हवाले नहीं किया गया । यहां मैं फिर दोहराती हूं कि मैंने स्थापित तथ्यों के आधार पर अपराधी का खाका आप लोगों के सामने खींचा था । मैंने पहले कोई जंचता-सा अपराधी छांटकर उसके इर्द-गिर्द जबरन सबूतों का ताना-बाना बुनना नहीं शुरू कर दिया था । मैंने तथ्यों के आधार पर अपने जेहन में उभरी अपराधी की तस्वीर को उपलब्ध सस्पैक्ट्स की सूरतों से मिलाकर देखा था और यूं अपना अपराधी छांटा था ।”
“दुष्यन्त परमार ?” - आगाशे अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“जी हां । सभापति महोदय, मैं नोट कर रही हूं कि आप को मेरी बात पर एतबार नहीं आ रहा । मेरी आपसे दरख्वास्त है कि अपनी बेएतबारी को इतनी जल्दी हवा न दीजिये । ये न भूलिये कि अभी मैंने अपनी मुकम्मल थ्योरी बयान नहीं की है ।”
“अभी और भी कुछ कहना है आपने ?”
“अभी बहुत कुछ कहना है मैंने ।”
“शौक से कहिये । हम सुन रहे हैं ।”
“थैंक्यू । तो अभी मैंने ये बयान किया था कि कैसे वारदात वाले दिन सुबह साढे दस बजे मुकेश निगम शिवालिक क्लब में पहुंचा था - या यूं कहिये कि पहुंचाया गया था यहां मैं आपकी तवज्जो इस तथ्य की ओर दिलाना चाहती हूं कि दुष्यन्त परमार की उस रोज लंच अप्वायन्टमैंट थी । इस लंच अप्वायन्टमैंट का हमारे बीच सबसे पहले जिक्र किसकी जुबानी आया था ?”
“मेरी ।” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“जी हां । याद आया, आप ही ने कहा था कि वारदात वाले दिन दुष्यन्त परमार की किसी स्त्री के साथ लंच अप्वायन्टमैंट थी जिसे कि वो बहुत गुप्त रखने की कोशिश कर रहा था लेकिन जो बाद में कैंसिल हो गयी थी । मिस्टर प्रभाकर, मुझे नहीं मालूम कि आपने ये बात कैसे जानी लेकिन मैंने ये बात छाया प्रजापति की उस कार्यप्रणाली की नकल करके मैंने जानी थी जो कि हर किसी को इसलिये काबिलेएतराज लगी थी क्योंकि ये मैजिस्ट्रेट हैं ।”
“रिश्वत !”
“ऐग्जैक्टली । मैंने ये बात दुष्यन्त परमार के नौकर को रिश्वत देकर उससे जानी । बहरहाल कहना मैं ये चाहती हूं कि उस लंच अप्वायन्टमैंट को किसी ने कोई अहमियत नहीं दी ।”
“मैंने दी ।”
“यकीनन दी । लेकिन आपने उससे कोई कारआमद नतीजा नहीं निकला । आपको ये नहीं मालूम कि वो लंच कहां होने वाला था ! ये भी नहीं मालूम कि किसके साथ होने वाला था ! ये भी नहीं मालूम कि वो कैंसिल क्यों हुआ था ।”
“आपको ये सब मालूम है ?”
“जी हां ।”
“कैसे ?”
“जाहिर है कि दुष्यन्त परमार के नौकर के ही सदके । इस सिलसिले में एक ऐसी एडवांटेज मुझे थी जो छाया जी को नहीं थी । मैं दुष्यन्त परमार से वाकिफ थी । मैं उसके नौकर से भी अच्छी तरह से वाकिफ थी । मेरा कभी उस हाउसहोल्ड में आना-जाना रहा था । छाया जी ने उस नौकर से जानकारी हासिल करने के लिये सिर्फ पैसा इस्तेमाल किया जब कि मैंने पैसे के साथ-साथ मुलाहजा भी इस्तेमाल किया था । इसलिये मैं उससे कदरन ज्यादा जानकारी उगलवा सकी थी । यूं मुझे मालूम हुआ था कि वारदात वाले दिन से तीन दिन पहले दुष्यन्त परमार ने अपने नौकर को पहाड़गंज में स्थित होटल क्राउन में भेजा था जहां कि वो शनिवार दोपहर के लिए अपने मालिक के लिए एक कमरा बुक करा कर आया था । यहां मैं ये बता देना चाहती हूं कि ये होटल क्राउन कोई अच्छी रिप्युट वाला होटल नहीं । वो ऐसा होटल है जो कि प्रेमी जोड़ों में बहुत प्रसिद्ध है क्योंकि वहां घन्टों के हिसाब से भी कमरा बुक हो जाता है । अब कहने की जरूरत नहीं कि लंच तो महज एक बहाना था, शनिवार वहां वो कमरा बुक करने के पीछे हमारे लार्ड बायरन का असली मकसद तो मौजमेला ही रहा होगा ।”
“किसके साथ ?”
“ये जानना आसान काम नहीं था । क्योंकि लंच अप्वायन्टमैंट कैंसिल न हुई होती, वो औरत वहां पहुंची होती, फिर हो सकता था कि होटल के स्टाफ में से किसी ने उसे पहचाना भी होता । अप्वायन्टमैंट कैंसिल हो जाने की वजह से वहां का स्टाफ अन्दाजा ही लगा सकता था कि वहां कौन पहुंचने वाली थी । एक अन्दाजा उसने लगाया भी । वो अन्दाजा था - गुस्ताखी माफ, वकील साहब - विभा दासानी । क्योंकि उन दिनों उस होटल में सन्दिग्ध तरीके से दुष्यन्त परमार के साथ ज्यादा फेरे विभा दासानी के ही लगते थे । लेकिन मिस्टर प्रभाकर, ये आपका ही कहना है कि वो औरत विभा दासानी नहीं थी । मेरी तफ्तीश से भी यही स्थापित हुआ था कि वो औरत विभा दासानी नहीं थी ।”
“तो कौन थी वो औरत ?”
“फ्रेंड्स, जरा याद कीजिये, वारदात के रोज ही एक और लंच अप्वायन्टमैंट भी हम लोग के बीच बहुत चर्चित रही है और वो भी ऐन परमार की लंच अप्वायन्मैंट की तरह ही कैंसिल हो गयी थी ।”
“अंजना निगम की लंच अप्वायन्टमैंट !” - तत्काल अशोक प्रभाकर के मुंह से निकला ।
“ऐग्जैक्टली !”
“अंजना निगम की” - एक नये प्रेम तिकोन की बाबत सोचती छाया प्रजापति बोला - “वो लंच अप्वायन्टमैंट दुष्यन्त परमार के साथ थी ?”
“जी हां ।” - रुचिका बोली - “हालात का सौ फीसदी साफ-साफ इशारा इसी तरफ है । फ्रेंड्स, इट स्टैण्ड्स टु रीजन- इट डज स्डैण्ड टु रीजन । दुष्यन्त परमार और अंजना निगम एक-दूसरे के लिये अजनबी भी नहीं थे, ये बात तो इसी से स्थापित हो जाती है कि अपने बयान में खुद दासानी साहब ने ये कहा था कि इन्होंने कमानी आडीटोरियम में एक बार उन दोनों का परिचय करवाया था । फ्रेंड्स, वो परिचय घनिष्टता की तमाम हदें पार कर चुका था, मैं खुद इस बात की तसदीक कर चुकी हूं । ये साबित हो चुका है कि दुष्यन्त परमार की क्राउन होटल के एक कमरे में जो लंच अप्वायन्टमैंट थी, वो अंजना निगम के साथ थी और ऐसी अप्वायन्टमैंट्स उनके बीच अक्सर चलती थीं । मेरे पास वहां के एक वेटर का लिखित बयान है कि हफ्ते में कम-से-कम दो बार उन दोनों के दिन के वक्त इस्तेमाल के लिये वहां एक कमरा बुक होता था । दोनों न कभी साथ वहां पहुंचते थे और न कभी साथ वहां से लौटते थे । दोनों बड़ी सावधानी बरतते हुए अलग-अलग वहां पहुंचते थे और नाक की सीध में अपने लिये रिजर्व कमरे में पहुंच जाते थे । यानी कि उस कमरे से बाहर वो कभी इकट्ठे नहीं देखे जाते थे । फ्रेंड्स, ऐसी गोपनीयता कहीं सात्विक सम्बन्धों के लिए बरती जाती है ! क्या इतने से ही साबित नहीं होता कि दोनों में अवैध सम्बन्ध थे ?”
“आपका गवाह, वो वेटर, अंजना निगम को कैसे जानता था ?” - आगाशे बोला ।
“नहीं जानता था ।” - रुचिका बोली - “सिर्फ सूरत पहचानता था वो उसकी । लेकिन कत्ल के बाद जब अखबारों में अंजना निगम की तस्वीर छपी थी तो उस वेटर ने फौरन पहचान लिया था कि वो वही औरत थी जो अपनी जिन्दगी में उनके होटल में दुष्यन्त परमार से छुप-छुप के मिलने आया करती थी ।”
“आई सी ।”
“क्या” - अभिजीत घोष दवे स्वर में बोला - “व्यभिचार के अलावा इन मुलाकातों की कोई और वजह नहीं हो सकती ?”
“क्यों नहीं हो सकती ?” - रुचिका व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली - “वो वहां छुप कर उसकी आरती उतारता होगा ! या शायद कविता सुनाता होगा अपनी ! अपने किसी नये नाटक का कोई खास रोल खुद करके दिखाता हो, तो भी क्या बड़ी बात है ! ऐसे काम खुफिया तरीके से हासिल तनहाई के बिना कहीं हो सकते हैं !”
“आई एम सॉरी ।” - अभिजीत घोष होंठों में बुदबुदाया ।
“अगर वेटर ने” - सभापति ने टिप्पणी की - “अंजना निगम को ठीक पहचाना है तो निश्चत ही उन दोनों में अवैध सम्बध स्थापित थे ।”
“एकदम ठीक पहचाना है ।” - रुचिका पुरजोर लहजे में बोली - “शक की कोई गुंजायश नहीं है । मेरी गारन्टी । ये बात शत-प्रतिशत स्थापित है, सभापति महोदय, कि दुष्यन्त परमार की प्रेमिकाओं की लम्बी लिस्ट में एक नाम का इजाफा अंजना निगम ने किया था । वो उस शख्स की मिस्ट्रेस थी ।”
“ऐसा ही लगता है ।”
“ऐसा ही है ।”
“उसकी प्रेमिकाओं की जो लिस्ट मैंने बनायी थी और जिसे मैं मुकम्मल मान रहा था, उसमें ये नाम भी नहीं है ।”
“तभी तो मैंने कहा था” - अशोक प्रभाकर बोला - “कि हमारे लार्ड बायरन के सारे अफेयर्स की लिस्ट किसी एक शख्स के पास होना मुमकिन नहीं ।”
“ठीक कहा था आपने । मैं पहले ही कबूल कर चुका हूं । बहरहाल बात अंजना निगम की हो रही थी । ऐसी औरत कैसे आ गयी दुष्यन्त परमार के चक्कर में ?”
“असल में उसके मन में क्या था” - रुचिका बोली - “ये तो वो जिन्दा होती तो वो ही बताती । मैं तो इतना ही कह सकती हूं कि जो शख्स - मिस्टर प्रभाकर के शब्दों में - सारी दिल्ली की खातूनों की खानाखराबी का दावेदार हो, उसमें कोई तो खूबी, कोई तो कशिश होगी ही जो औरतजात को अनायास उसकी तरफ खींचती चली जाती होगी । उसके चक्कर में आयी दस में से नौ औरतों के बारे में ये सोच कर हम हैरान हो सकते हैं कि वो उससे क्यों फंसीं ? लेकिन फंसीं तो वो यकीकन । इसकी कोई माकूल वजह न सूझना इस हकीकत को झुठला तो नहीं सकता न ?”
“यू आर राइट ।”
“जिन्सी इस्तेमाल के नुक्तानिगाह से” - अशोक प्रभाकर बोला - “औरत औरत में कोई फर्क नहीं होता । इस बाबत शायद लार्ड बायरन ने ही ये कहा था कि आल कैट्स आर ग्रे इन डार्क । हर खूबसूरत, नौजवान, राजी औरत अन्धेर की काली बिल्ली है । फिर भी बाज औरतों को ये खुशफहमी होती है कि उस जैसी कोई नहीं । यही खुशफहमी उन्हें दुष्यन्त परमार जैसी रिप्यूट वाले आदमी के करीब ले जाती है । ऐसी औरत ये जो समझती है कि वो अनोखी है और उसके ताल्लुक में आने के बाद परमार जैसा मर्द दायें-बायें मुंह मारना यकीनन बन्द कर देगा ।”
“ये एक वजह हो सकती है” - रुचिका सहमति में सिर हिलाती हुई बोली - “अंजना निगम के दुष्यन्त परमार के चक्कर में आयी होने की । सच पूछिये तो आपकी ये वजह मेरी थ्योरी में फिट बैठती है । इसलिये फिट बैठती है क्योंकि मैं अंजना निगम की कल्पना सैक्स किक्स की तलबगार व्यभिचारिणी स्त्री के रूप में नहीं कर सकती । बुनियादी तौर पर वो एक अच्छे संस्कारों वाली, खानदानी और शरीफ औरत थी । ऐसी औरत गलत कदम उठाकर भी अपने संस्कारों को, अपनी शराफत को तिलांजलि नहीं दे सकती । ऐसी औरत स्वाभाविक तौर पर खुद अपने-आपसे ये फरेब करती है कि गैरमर्द को अपने जिस्म का भोग लगाकर उसने व्यभिचार नहीं किया था, उसने तो ऐसा इसलिये किया था क्योंकि जिस्म दिल से रिश्ता जोड़ने का एक जरिया होता था, एक स्टैपिंग स्टोन होता था । ऐसी शरीफ औरतें अपनी शराफत पर खुद ही मुग्ध होती रहती हैं । दिन-दहाड़े होटल के कमरे में परमार के पहलू में लेटी, अभिसाररत अंजना निगम की कल्पना मैं सहज ही कर सकती हूं जो कि उस घड़ी भी परमार को यही समझा रही होगी कि वो कितनी भली है और दिल्ली शहर की बाकी औरतें कितनी बुरी हैं । ऐसी बातें शुरू में तो मर्द को आनन्दित करती हैं लेकिन बाद में वो उनसे बोर ही होता है । परमार भी जल्दी ही अंजना निगम की ‘होलियर दैन दाउ’ नीयत से आजिज आ गया होगा । क्योंकि परमार जैसे रंगीले राजा के लिये औरत पहले है, शरीफ, भली, खानदानी नेकबख्त, आदर्श वगैरह सब बाद में है । वो अपने मकसद की पूर्ति के लिये बाखुशी औरत की हर हां में हां मिलाता रह सकता है, लेकिन जब मकसद पूरा हो जाता है तो वही बातें उसे बोर करने लगती हैं जिनकी वो पहले बढ- बढ कर तारीफ करता होता था । और औरत ये समझ बैठती है कि उसकी अच्छाई ने, उसकी महानता ने परमार जैसे पुरुष का हदय परिवर्तन कर दिया है, उसे ‘सुधार’ दिया है । इस शुभ काम की खुद ही बधाइयां लेती वो और उसके गले पड़ती है जबकि पुरुष तब तक पहले ही इस जोड़-तोड़ में लग चुका होता है कि इसमे पहले कि वो सम्बन्ध उसकी जान का जंजाल बन जाये, कैसे वो उससे किनारा कर ले !”
“आप ये कहना चाहती हैं” - आगाशे बोला - “कि अंजना परमार से स्थायी सम्बन्ध जोड़ने की ख्वाहिशमन्द थी ?”
“जी हां । यही कहना चाहती हूं मैं । अंजना जैसी ‘भली’ औरत ने जो ‘गुनाह’ किया था, उसकी यही तलाफी थी कि जिसके साथ उसने वो गुनाह किया था, वो उसी की बन जाये ।”
“कैसे ? भाग जाये परमार के साथ ?”
“या पति से तलाक ले ले । परमार का तलाक होने ही वाला है । दोनों अपने-अपने जीवन साथियों से जब फारिग हो जायें तो शादी कर लें । लेकिन फ्रेंड्स, ये ख्वाहिश अंजना की तो हो सकती है, जरा सोचिये परमार जैसे कैरेक्टर वाले आदमी की कैसे हो सकती है जिस पर कुमारी कन्यायें निछावर होती हों । वो एक तलाकशुदा औरत के साथ उम्र भर के लिये बंधना भला कैसे कबूल कर लेगा ! वो तो उस घड़ी को कोस रहा होगा जबकि उसने उस औरत को अपने पर इतना ज्यादा हावी होने दिया । ऐसे हालात में अंजना जितना उस पर शादी के लिए दबाव डालती, उतना ही वो हत्थे से उखड़ता । ऐसे हालात को फैसले की घड़ी पर इस बात ने पहुंचाया कि अंजना को परमार के विभा दासानी से अफेयर की खबर लगी । लगनी ही थी । जो बात अखबारों में छप गयी थी, सारे शहर को मालूम हो गयी थी, वो उसे भी मालूम होनी ही थी । अब वो परमार को कहती है कि वो विभा दासानी से रिश्ता खुद ही तोड़ ले नहीं तो वो जा के विभा दासानी से बात करेगी और उसे अपने और परमार के अफेयर की बाबत सब कुछ बता देगी । अब आप कल्पना कीजिये कि इस धमकी ने परमार की, जो कि विभा जैसी कुमारी कन्या से शादी करके उसके बाप की दौलत हथियाने के सपने देख रहा था, क्या गत बनायी होगी ! और कौन सा रास्ता सूझा होगा उसे उस औरत का हमेशा के लिए मुंह बन्द करने का !”
“कत्ल का रास्ता !”
“यस, सर । अंजना निगम से पीछा तो वो बेशर्म बन के भी छुड़ा सकता था लेकिन उसकी जुबान कत्ल के अलावा किसी और तरीके से बन्द नहीं होने वाली थी । वो कत्ल की बाबत सोचता है । वो कत्ल की उन वारदातों के बारे में सोचना है जो कि उसने किसी किताब में पढी होती हैं लेकिन जिनमें से हर वारदात का अपराधी अपनी किसी छोटी-मोटी भूल की वजह से पकड़ा गया होता है । उन वारदातों को उनकी भूलों से सबक लेने की नीयत से वो स्टडी करता है । वो इस नतीजे पर पहुंचता है कि क्योंकि उसके अंजना से अफेयर की किसी को खबर नहीं थी, इसलिये उसका कत्ल हो जाने पर किसी की तवज्जो उसकी तरफ नहीं जा सकती थी ।”
वो एक क्षण ठिठकी और फिर बोली - “यहां मैं दुष्यन्त परमार की रंगीन जिन्दगी की कार्यप्रणाली की एक खास बात आपकी तवज्जो में लाना चाहती हूं जो कि उन दिनों मेरी जानकारी में आयी थी जबकि मैं अपनी ‘ऐडवेंचर्स आफ इन्डियन लार्ड बायरन’ वाली लेखमाला की तैयारी के चक्कर में उससे अक्सर मिला करती थी । औरतों को रिझाने का उसका ये भी एक तरीका है कि उसकी सम्भावित प्रेमिका जिस बात में भी दिलचस्पी दिखाये, वो भी उसमें पूरे जोशोखरोश से दिलचस्पी दिखाये । मेरा रुझान उसने अपराध विज्ञान में देखा था तो वो भी बढ-बढके उसमें दिलचस्पी दिखाने लगा था । उन दिनों उसने क्राइम और क्रिमिनालोजी पर आधारित कई पुस्तकें मेरे से उधार मांगकर पढी थीं । ऐसी पुस्तकों में एक पुस्तक का शीर्षक था ‘मर्डर्स बाई प्वायजन’ । उस पुस्तक में जहर से हुई हत्याओं के कोई दो दर्जन किस्से दर्ज थे ।”
“तो ?”
“तो ये कि डेढ महीने पहले का वाकया है कि एक शाम को जब मैं अपने होस्टल में पहुंची तो मेरी रूममेट ने मुझे बताया कि दुष्यन्त परमार - जिसकी कि महीनों से मैंने शक्ल नहीं देखी थी - मेरे से मिलने आया था । वो थोड़ी देर मेरे कमरे में बैठा इन्तजार करता रहा था और फिर लौट के आने को कहकर चला गया था । फ्रेंड्स, लौट कर वो कभी न आया । मैंने उसके यूं आगमन के बारे में बहुत सोचा लेकिन मुझे कोई वजह न सूझी । लेकिन जब अंजना निगम के कत्ल की खबर आम हुई और मुझे ये मालूम हुआ कि वो कत्ल कैसे हुआ था तो अनायास ही मुझे अपनी ‘मर्डर्स बाई प्वायजन’ नामक पुस्तक की याद आयी । तब मैंने देखा कि वो पुस्तक मेरे बुक शैल्फ से गायब थी । तभी मुझे ये भी मालूम हुआ कि मेरी पुस्तकों में से मेरी एक और पुस्तक भी गायब थी ।”
“और कौन सी ?” - अशोक प्रभाकर ने पूछा ।
“विषविज्ञान विश्वकोष ।”
“ये ग्रन्थ आपके पास भी था ?”
“जी हां ।”
“तो आपका ख्याल है” - आगाशे बोला - “कि वे दोनों पुस्तकें आपके यहां से दुष्यन्त परमार चुरा कर ले गया ?”
“ये मेरा ख्याल नहीं है” - रुचिका बोली - “मुझे यकीन है इस बात पर । इसलिये यकीन है क्योंकि परमार के नौकर से बात करने की नीयत से जब मैं हेली रोड उसके घर गयी थी तो मैंने अपनी वो दोनों पुस्तकें वहां पड़ी देखी थीं ।”
“ओह !”
“अब देखिये, दुष्यन्त परमार के सन्दर्भ में मेरी थ्योरी मिस्टर प्रभाकर की कितनी शर्तों पर खरी उतरती है ! नाइट्रोबेंजीन का ज्ञान उसे विषविज्ञान विश्कोष से हुआ होगा जिसकी मेरे वाली प्रति वो मेरे होस्टल के कमरे में से उठाकर ले गया था और जो अभी भी उसके घर में मौजूद है । वो अपराध शास्त्र का ज्ञाता चाहे नहीं था लेकिन जो अपराध वो करने जा रहा था, उसकी शिक्षा उसने मेरी पुस्तक ‘मर्डर्स बाई प्वायजन’ से हासिल की थी, वो किताब भी उसने मेरी चुरायी थी और वो भी उसके घर में मौजूद है । वो आखिर कवि है, नाटककार है, इसलिये शिक्षित तो जाहिर है कि वो है । वैसे इस शिक्षा वाली शर्त के कस- बल हमारे सभापति महोदय निकाल चुके हैं । सोराबजी एण्ड संस का एक्सक्लूसिव लेटरहैड उसने प्रिंट आर्ट की सुनीता सूद नामक सेल्सगर्ल की सैम्पल फाइल से चुराया था । रेमिंगटन ट्रेवलर नाम का पोर्टेबल टाइपराइटर, मैं तसदीक करती हूं कि, परमार के घर में मौजूद है । शुक्रवार सोलह नवम्बर को दोपहर सवा एक और पौने तीन के बीच वो शिवालिक क्लब में मौजूद था जहां से कि जनपथ वाले लेटर बाक्स तक मुश्किल से पांच मिनट में पहुंचा जा सकता है । क्लब की दोपहर की भीड़ में दस मिनट के लिये उसका इधर-उधर हो जाना कोई बड़ी नहीं । कहने को वो उस दौरान बार में था लेकिन मैंने मालूम किया है कि वहां से उठकर वो एक बार क्लब की लायब्रेरी में गया था । उस लायब्रेरी वाले रूम का एक दरवाजा बाहर सड़क पर खुलता है । बड़ी आसानी से उधर से खिसक कर जनपथ पहुंच सकता था, चाकलेटों वाला पार्सल पोस्ट करके वापिस लौट सकता था और ये जाहिर कर सकता था कि दोपहर का सारा वक्त उसने क्लब में ही गुजारा था । मिस्टर प्रभाकर, हाउ एम आई डुर्इंग सो फार ?”
“वैरी वैल !” - अशोक प्रभाकर प्रशंसात्मक स्वर में बोला ।
“थैंक्यू । अब आगे सुनिये अपनी शर्तों पर तबसरा । हौजर-707 के नाम से जाना जाने वाला जर्मन पैन मैंने परमार के घर से उसकी राइटिंग टेबल पर टाइपराइटर की बगल में पड़ा अपनी आंखों से देखा था । हौजर हाइटैक प्वायन्ट के नाम से जानी जाने वाली स्याही अलबत्ता मुझे नहीं दिखाई दी थी लेकिन जब उस पैन में वही स्याही इस्तेमाल होती है तो वो भी वहां कहीं होगी ही ।”
“न भी होगी तो क्या है !” - छाया प्रजापति बोली - “पैन में तो रही होगी स्याही । रैपर पर पते की चार सतरें ही तो लिखनी थीं उसने ।”
“बिल्कुल ! अब नीट एण्ड क्लीन और नफासतपसन्द शख्स वो था या नहीं, ये शर्त आगाशे साहब की इस दलील से बेमानी हो गयी है कि हर चाकलेट में जहर की ऐन छः बूंदें इसलिये नहीं थीं क्योंकि हत्यारा नीट एण्ड क्लीन और नफासतपसन्द था बल्कि इसलिये थीं कि उसे डर था कि कहीं खुद वो ही ज्यादा जहर न खा जाये ।”
“आई एग्री ।” - अशोक प्रभाकर बोला - “वैसे होगा वो नीट एण्ड क्लीन और नफासतपसन्द भी । आखिर कलाकार आदमी है ।”
“जाहिर है और रचनात्मक मस्तिष्क का स्वामी भी ऐन वो इसी वजह से होगा ही । जो रचनात्मक मस्तिष्क का स्वामी नहीं होगा, जो योजनाबद्ध तरीके से काम करने में सक्षम नहीं होगा, वो इतना सफल कवि और नाटककार कैसे बन जायेगा !”
“राइट ।”
“पेशेवर अपराधी, जाहिर है कि, वो नहीं है । और उसका मुकम्मल लाइफ स्टाइल ही इस बात की चुगली करता है कि वो खुला खेल खेलने के हौसले से महरूम, छुप के वार करने जैसी फितरत वाला आदमी है ।”
“राइट अगेन ।”
“सोराबजी एण्ड संस की चेरी मेलबरी चाकलेट वो इस लिये चुनता है क्योंकि वही बाहर से ठोस और भीतर से ऐसी खोखली होती है जिसमें कि नाइट्रोबेंजीन जैसा सरल पदार्थ भरा जा सकता है । मेरे ख्याल से पहले उसका इरादा चाकलेट का वो डिब्बा खुद अंजना निगम को देने का होगा क्योंकि दोपहर को वो होटल क्राउन में उससे मिलने वाली थी । लेकिन बाद में उसे सूझा होगा कि जब वो चाकलेटों की वजह से मरी पायी जाती और बाकी की चाकलेटें उसके पास से बरामद होतीं तो होटल के वेटर और क्लब के वेटर की गवाहियों से दोनों बातों में ये गठजोड़ स्थापित किया जा सकता था कि वही वो चाकलेटें थीं जो कि परमार को शिवालिक क्लब के पते पर डाक से हासिल हुई थीं । तब आखिरी क्षण पर उसे चाकलेटों को अंजना तक उसके पति के माध्यम से पहुंचाने की तरकीब सूझी होगी । तब उसने अंजना से सम्पर्क किया होगा और उसे खूब बढा-चढाकर उसके पति और कैब्रे स्टार सलमा शाह के बारे में बताया होगा । यूं वो ‘भली’ औरत अपनी आंख में पड़े शहतीर को नजरअन्दाज करके पति की आंख में पड़ा तिनका टटोलने को तैयार हो गयी होगी । परमार की सलाह पर वो आवाज बदल कर और खुद को सलमा शाह बता कर अपने पति को उसके ऑफिस में फोन करने से ये जानने के लिये तैयार हो गयी होगी कि वो उससे मुलाकात की संभावनाओं पर लार टपकाता था या नहीं । परमार ने ही बड़े सहज स्वाभाविक ढंग से उसे ये राय दी होगी कि वो अपने पति को अगले रोज साढे दस और ग्यारह बजे के बीच उसकी - यानी कि सलमा शाह की - फोन काल का इन्तजार करने को कहे । यूं अगर मुकेश निगम अगले रोज मुस्तैदी के साथ निर्धारित समय पर शिवालिक क्लब पहुंच जाता यो ये अपने आप में सबूत होता कि वो ऐसी हल्की औरतों की दीवाना था । अंजना निगम, जैसा उसे सिखाया जाता है, वैसा फोन अपने पति को करती है और यूं परमार अगले रोज सुबह डाक से चाकलेटों के पार्सल की शिवालिक क्लब में आमद के वक्त मुकेश निगम की वहां मौजूदगी निश्चित कर लेता है । अब कौन कह सकता कि उस रोज शिवालिक क्लब में जब परमार डाक से आया अपना चाकलेटों का पार्सल खोल रहा था तो मुकेश निगम संयोगवश ही वहां मौजूद नहीं था !”
“कोई नहीं ।” - आगाशे बोला ।
“शर्त !” - अशोक प्रभाकर बोला - “शर्त पर उसका क्या जोर था ? शर्त उसकी स्कीम का अहम हिस्सा था । चाकलेटों की शर्त हात होने की वजह से ही मुकेश निगम ने परमार को चाकलेटें कूड़े में फेंकने को तत्पर पाकर उन्हें उससे मांग लिया था । शर्त न होती तो उसने चाकलेटों में कोई रुचि ही न दिखाई होती !”
“आप ठीक कर रहे हैं । ये बात मेरे भी एतबार में नही आती कि उस शर्त का इत्तफाक होना महज परमार की खुशकिस्मती थी । जरूर उस शर्त का इन्तजाम भी बड़े योजनाबद्ध तरीके से परमार ने एडवांस में किया था । जैसे वो अंजना को टेलीफोन काल वाली पट्टी पढाने में कामयाब हो गया था, वैसे ही किसी तरीके से उसने पति वो बेईमानीभरी शर्त लगाने के लिये भी अंजना को तैयार कर लिया होगा । इतना तो हम सब कबूल कर चुके हैं कि आम हालात में, सहज स्वाभाविक तरीके से तो वो फरेबी शर्त लगा कर अपने हसबैंड की चीट करने को अंजना तैयार न होती ।”
“उस शर्त के लिये अपने पति को उकसाने के लिये परमार ने अंजना को क्या पट्टी पढाई होगी ?”
“ये तो मुझे नहीं मालूम ।”
“शुक्र है खुदा का” - अशोक प्रभाकर उपहासपूर्ण स्वर में बोला - “कि कोई तो बात है जो आपको नहीं मालूम ।”
उस बात पर एक-दो ठहाके लगे । रुचिका भी हंसी ।
“आपकी थ्योरी लाजवाब है, रुचिका जी” - आगाशे बोला - “विश्वसनीय भी है लेकिन अब आप ये बताइये कि थ्योरियों के अलावा, खूबसूरत नतीजों के अलावा आपके पास कोई ठोस सबूत भी है अपनी थ्योरी के हक में ?”
“ठोस सबूत ?” - रुचिका की भवें तनीं - “यानी कि जो कुछ मैंने अब तक कहा, वो ठोस सबूत नहीं है ?”
“सबूत है । वो भी किसी हद तक । लेकिन ठोस नहीं ।”
“एकाध बात को छोड़कर” - दासानी बोला - “जो कुछ आपने कहा वो महज संभावनाओं का तार्किक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है और ऐसी बातों की कोर्ट में कोई खास कीमत नहीं हीती ।”
मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति ने अनुमोदन में गर्दन हिलायी ।
“मैंने सोराबजी एण्ड संस के लेटरहैड से” - रुचिका बोली - “दुष्यन्त परमार का रिश्ता जोड़कर दिखाया है ।”
“उस पर मैं” - छाया प्रजापति बोली - “निसंकोच परमार को सन्देह लाभ दे सकती हूं । किसी चीज का किसी के अधिकार में होना स्थापित कर देने से ही ये स्थापित नहीं हो जाता कि उसने उस चीज को इस्तेमाल भी किया । इसी श्रेणी में आपकी उन दो किताबों का किस्सा भी आता है जो आप कहती हैं कि परमार आपके होस्टल के कमरें से उठाकर ले गया था । ये सब सरकमस्टांशल एवीडेंस हैं जिन्हें नजरअन्दाज तो नहीं किया जा सकता लेकिन जो किसी के गुनाह को ओपन एण्ड शट तरीके से स्थापित नहीं करते...”
“देखो, कितनी फरेबी औरत है !” - अशोक प्रभाकर अभिजीत घोष के कान के पास मुंह ले जाकर फुसफुसाया - “यहां सरकमस्टांशल एवीडेंस पर ये इतना बड़ा सवालिया निशान लगा रही है लेकिन परसों इस बाबत कुछ सुन के राजी नहीं थी । तब सिर्फ सरकमस्टांशल एवीडेंस की बिना पर मुझे बेहिचक फांसी की सजा सुनाई जाने का हकदार करार दे रही थी । आज परमार को निसंकोच सन्देह लाभ दे रही है ।”
“श श” - अभिजीत घोष धीरे से बोला - “वो अभी कुछ और कह रही है ।”
“.... यूं किसी को गुनहगार साबित करने के लिए” - छाया कह रही थी - “उसके खिलाफ कोई ठोस, कोई अकाट्य सबूत होना चाहिए । मिस केजरीवाल, आपके पास है कोई ऐसा सबूत ?”
“जो” - दासानी बोला - “दुष्यन्त परमार का रिश्ता निर्विवाद रूप से लेटरहैड के साथ या चाकलेट के साथ या रैपर के साथ या जहर के साथ या टाइपराइटर के साथ जोड़ सके ?”
“है ।” - रुचिका एक विजेता के-से स्वर में बोली - “वो भी है ।”
“अच्छा !”
“और उसे मैंने जानबूझ कर क्लाईमेक्स के लिए बचाकर रख छोड़ा था ।”
“कोई ठोस सबूत ?” - आगाशे बोली ।
“ऐसा ठोस सबूत” - रुचिका बोली - “जो निर्विवाद रूप से, अन्तिम रूप से दुष्यन्त परमार का अपराधी सिद्ध करता है ।”
“क्या ?”
“मुलाहजा फरमाइये ।”
रुचिका ने अपना हैण्डबैग खोला और यूं उसमें से दो कागज निकाले जैसे कोई जादूगर अपने हैट में से खरगोश निकालता है ।
“ये एक कागज” - वो बोली - “उस चिट्ठी की फोटोकॉपी है जो कि पार्सल के साथ आयी थी । ये फोटोकॉपी मैंने बिना इसकी अहमियत या इस्तेमाल बताये इंस्पेक्टर शिवनाथ राजौरिया से हासिल की है । ये दूसरा कागज वैसी ही एक चिट्ठी है जो कि लेटरहैड पर नहीं, सादे कागज पर है और ये मैंने अपनी तफ्तीश के दौरान खुद टाइप की है । इन दोनों कागजों का मुआयना करने के लिए मैं सभापति महादेव को आमन्त्रित करती हूं ।” - उसने दोनों कागज आगाशे को सौंप दिये और बोली - “आप गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि दोनों कागजों की इबारतों में ‘एफ’ और ‘एच’ अक्षरों की अलाइनमैंट खराब है और ‘के’ और ‘वी’ टूटे हुए हैं ।”
आगाशे ने गौर से दोनों कागजों का मुआयना किया ।
“बात तो ठीक है ।” - वो बोला और उसने वो कागज और छाया प्रजापति की ओर बढा दिये ।
यूं बारी-बारी तमाम मेम्बरान ने उन कागजात का मुआयना किया और रुचिका के बयान की तसदीक की ।
“इससे क्या साबित हुआ ?” - अभिजीत घोष उल्लुओं की तरह पलकें झपकाता हुआ बोला ।
“ये भी कोई पूछने की बात है ?” - रुचिका बोली - “इससे ये साबित हुआ, मिस्टर घोष, कि दोनों कागजों की इबारतें एक ही टापइपराइटर पर टाइप की गयी हैं जब कि लेटरहैड वाली चिट्ठी अपराधी ने पार्सल के साथ भेजने के लिए टाइप की थी और सादे कागज वाली चिट्ठी हाल ही में मैंने - खुद मैंने उसी टाइपराइटर पर टाइप की थी ।”
“किस टाइपराइटर पर ?”
“उस रेमिंटन-ट्रैवेलर नाम के पोर्टेबल टाइपराइटर पर जो कि दुष्यन्त परमार की मिल्कियत है और जो कि अभी इस घड़ी भी उसके घर में उसकी राइटिंग टेबल पर पड़ा है ।”
सब सन्नाटे में आ गये ।
फिर धीरे-धीरे सबके चेहरों पर रुचिका के लिए गहन प्रशंसा के भाव प्रकट होने लगे ।
“बधाई हो !” - फिर दमकते चेहरे के साथ सभापति विवेक आगाशे बोला - “मेरा भी और क्राइम क्लब की भी ।”
“शुक्रिया” - रुचिका बोली - “लेकिन बधाई के आप भी बराबर के हकदार हैं, मिस्टर आगाशे । आपकी थ्योरी पहले सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त न हुआ होता तो मैं अपने मिशन में कभी कामयाब न हो पायी होती । मेरी थ्योरी बुनियादी तौर पर आप ही की थ्योरी है जिसे कि मैंने जरा पालिश किया है, जरा संवारा है, जरा सुधारा है ।”
“आप ऐसा सोचती हैं तो ये आपका बड़प्पन है ।”
“बहरहाल” - छाया प्रजापति बोली - “आज क्राइम क्लब में एक इतिहास की रचना हुई है । जो काम राजधानी की सारी पुलिस न कर पायी, उसे हमारी क्लब के एक सदस्य ने करके दिखाया है । एक महिला सदस्य ने करके दिखाया है जो कि मेरे लिए इसलिए भी गर्व का विषय है क्योंकि मैं खुद महिला हूं ।”
“थैंक्यू, मैडम ।” - रुचिका सिर नवाकर बोली - “थैंक्यू वैरी मच ।”
“अब हमें” - आगाशे बोला - “इस हकीकत को पुलिस तक पहुंचाने की बदमजा जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी कि अपराधी दुष्यन्त परमार है ।”
“उस काम को अंजाम देने के लिए” - अशेक प्रभाकर बोला - “सही आदमी तो आप ही हैं क्योंकि आप सभापति हैं ।”
“ओके ।”
“इस सन्दर्भ में मेरी एक प्रार्थना है ।” - रुचिका बोली ।
“क्या ?” - आगाशे बोला ।
“मैं चाहती हूं कि पुलिस को केस के हल से अवगत कराते समय आप मेरा जिक्र न करें ।”
“वो क्यों ?” - आगाशे अचरज से बोला ।
“क्योंकि यूं मेरा नाम बीच में आने से मेरी नौकरी पर हर्फ आयेगा । मैं एक पत्रकार हूं । अपने पेपर की क्राइम रिपोर्टर हूं । मेरा सम्पादक इसे अपना फर्ज निभाने में मेरी कोताही मानेगा कि मैंने इतनी एक्सक्लूसिव, फर्स्टहैंड स्टोरी पहले दाखिलदफ्तर नहीं की । सारे अखबारों में इस केस का हल छप जाने के बाद जब मेरे सम्पादक को मालूम होगा कि किसी से भी पहले मैं इस केस के हर तथ्य से वाकिफ थी, असल में मैंने ही - उसके अपने एक स्टाफ रिपोर्टर ने ही - पुलिस को इस केस का हल सुझाया था तो वो मेरा खून करने पर उतारू हो जायेगा ।”
“ओह नो । ऐसा कहीं होता है ?”
“वो बहुत खफा होगा मेरे ऊपर । यकीन जानिये ।”
“ठीक है । जैसा आप चाहें । वैसे मेरा अभी भी ख्याल है कि आप सिर्फ माडेस्ट होने की कोशिश कर रही हैं ।”
“ऐसी बात नहीं ।”
“ओके । तो मैं आज ही जाकर इंस्पेक्टर राजौरिया से मिलता हूं और उसे दुष्यन्त परमार की, उसके टाइपराइटर की, क्राउन होटल की, उसके खास वेटर की और उसके प्रिंट आर्ट से लेटरहैड चुराये होने की खबर करता हूं ।”
“ये काम” - अभिजीत घोष दबे स्वर में बोला - “आप कल करें तो बेहतर नहीं होगा ?”
“क्यों ?” - आगाशे हैरानी से बोला ।
“क्योंकि अभी” - अभिजीत घोष संकोचपूर्ण स्वर में बोला - “मेरी बारी बाकी है ।”
पांच जोड़ी आंखें हैरानी से अभिजीत घोष को देखने लगीं ।
“वो तो ठीक है लेकिन” - आगाशे बोला - “अब आप करेंगे क्या अपनी बारी का ?”
“म-मैं... वो क्या है कि... जब ये प्रस्ताव सर्पसम्मति से पास हुआ है कि क्राइम क्लब के छ: के छ: सदस्यों को बोलने का मौका मिलेगा तो... तो मुझे भी ये मौका मिलना चाहिए ।”
“जरूर मिलना चाहिए । इस बात से किसी को इनकार नहीं लेकिन अब जबकि मिस केजरीवाल की थ्योरी...”
“ये भी फैसला हुआ था कि किसी को किसी की थ्योरी से इत्तफाक हो या न हो, उसे बोलने का मौका दिया जायेगा ।”
“वो ठीक है । लेकिन अब ये थ्योरी थ्योरी थोड़े की रह गयी है ! अब तो ये हकीकत बन गयी है । अब तो ये केस के इकलौते संभावित हल का दर्जा अख्तियार कर चुकी है । अब तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि अपराधी दुष्यन्त परमार है ।”
“फिर भी मुझे कल अपनी बारी पर बोलने का मौका मिलना चाहिये । मुझे उम्मीद है कि सभापति महोदय मेरी बात से सहमत होंगे ।”
“सहमत तो मैं हूं लेकिन... आप बोलना चाहते हैं ?”
“मैं बोलना नहीं चाहता ।” - अभिजीत घोष कठिन स्वर में बोला - “लेकिन... वो क्या है कि... कि बोले बिना मैं अपनी थ्योरी भी तो पेश नहीं कर सकता ।”
“आपके पास ‘भी’ कोई थ्योरी है ?” - आगाशे ने ‘भी’ शब्द पर विशेष जोर दिया ।
“ज.... जी हां । जी हां ।”
“तो... आप उसे अभी क्यों नहीं कह डालते ?”
“क्योंकि अभी वो मुकम्मल नहीं है । उसको मुकम्मल करने में मुझे चौबीस घण्टे लगेंगे ।”
“ओके । ओके । आप अपनी थ्योरी मुकम्मल कर लीजिये । हम सब कल आपकी थ्योरी सुनेंगे । तब तक मैं इन्स्पेक्टर राजोरिया के पास हो आता हूं ।”
“आप पुलिस के पास जाना कल तक के लिये मुल्तवी कर दें तो मेहरबानी होगी ।”
“उसकी तो कोई बात नहीं लेकिन इससे... इससे हासिल क्या होगा ?”
“शायद हासिल हो कुछ !”
“लेकिन...”
“और कुछ नहीं तो क्राइम क्लब के स्थापित प्रोसीजर की लाज तो रह जायेगी ।”
“ही इज राइट ।” - दासानी बोला ।
आगाशे ने बाकी मेम्बरान की ओर देखा, फिर किसी को अपने हक में बोलता न पा कर वो बोला - “ठीक है । जहां इतना टाइम गुजर गया है, वहां और चौबीस घण्टों में क्या फर्क पड़ जायेगा !”
“यही तो मैं अर्ज कर रहा हूं ।” - अभिजीत घोष व्यग्र भाव से बोला ।
“ठीक है । कल फिर मीटिंग होगी ।”
“धन्यवाद ।” - अभिजीत घोष यूं हर्षित स्वर में बोला जैसे उसके लिये कोई इनाम पास हो गया हो - “धन्यवाद, सभापति महोदय ।”
आगाशे कुछ न बोला । वो चेहरे पर उलझन के भाव लिये अभिजीत घोष को देखता रहा ।
फिर मीटिंग बर्खास्त हो गयी ।
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