“तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि खाने में जहर जैसा कुछ हो सकता है।” जगमोहन ने गम्भीर निगाहों से मोना चौधरी को देखा। मोना चौधरी ने भामा परी के साथ हुई बातें उन्हें बताईं।

“जानकीदास और पार्वती का नाम सुनते ही मैं चौंकी।” मोना चौधरी ने अपनी बात जारी रखी-“पेशीराम की आत्मा ने मुझे बताया था कि नगीना को जिन्होंने फंसाया, उनमें से एक का नाम जानकीदास था और दूसरे का पार्वती। पहले तो मैं ये सुनकर हैरान-सी हुई कि पार्वती वहां रह गई और जानकीदास दूसरे के साथ यहां आ गया है। अगर वे सामान्य जोड़ा होता तो किसी भी स्थिति में चक्रव्यूह जैसी जगह पर एक-दूसरे से जुदा न होता। जबकि जानकीदास और पार्वती ने अलग होने में कोई एतराज नहीं उठाया था। जब मैंने ये जाना तो शक पैदा हुआ। जानकीदास और पार्वती नगीना को मिले तो वे भी उसे अपने बेटे की आत्मा के बारे में बता रहे थे, कि उसकी आत्मा को लेने जा रहे हैं। ऐसा ही कुछ इन दोनों ने तुम लोगों को बताया। यानि कि ये सब बातें जानने के बाद मुझे विश्वास हो गया कि ये जानकीदास वही है। जिस सरलता के साथ जानकीदास ने यहां खाना बनाने की बात कही, उससे ये शक पक्का हुआ कि उसके इरादे ठीक नहीं हैं। खाना बनाने के दौरान वो कोई गड़बड़ करना चाहता है। मेरा ख्याल ठीक निकला। राधा की निगाहों से बचाकर जानकीदास ने खाने में जहर मिला दिया कि जो भी खाना खाये, जिन्दा न रहे। बहुत सोच-समझकर मैं जहर वाले नतीजे पर पहुंची थी कि जानकीदास खाने में कुछ मिला सकता है। मेरा ख्याल ठीक निकला। जानकीदास ने खाने में जहर ही मिलाया।”

“छोरे-।” बांकेलाल राठौर कह उठा-“अंम खाणों खा लयो तो यां पे म्हारो को फूंकने वास्तो भी कोई न हौवे।”

“पर बाप, अपुन लोग खाना नेई खाईला।”

“मोना चौधरी की मेहरबानी हौवे।”

मोना चौधरी दरवाजे के बीचों-बीच पड़े जानकीदास के शरीर के पास पहुंची और पीठ में धंसा खंजर निकालकर, खून से सना फल कपड़ों से साफ किया और उसे कमर में फंसाकर वापस आ गई।

“नीलू।” राधा दबे स्वर में बोली-“मुझे भूख लगी है।”

“सामने पड़ा है खाना।” नीलू ने गहरी सांस ली।

“उसमें तो जहर है।”

“मालूम है तो किचन में जाकर और बना ले। सबको भूख लगी होगी।”

राधा ने महाजन को घूरा।

“क्या हुआ?”

“सबके लिए बनाऊं?”

“मजबूरी है-बनाना पड़ेगा।”

राधा तीखा-सा जवाब देने लगी कि पारसनाथ कह उठा।

“खाना बनाने में मैं तुम्हारी मदद करता हूं-।”

“तुम-! बनाना आता है तुम्हें खाना?”

महाजन के होंठों पर छोटी-सी मुस्कान उभरी फिर कह उठा।

“तुम भूल रही हो कि पारसनाथ का रेस्टोरेन्ट है। तुमसे बढ़िया खाना बनाना आता है इसे।”

“ओह। आज तो रेस्टोरेन्ट वाला खाना मिलेगा खाने को।” पास आकर मोना चौधरी कुर्सी पर बैठी और टेबल पर सजे खाने को प्लेट में डालने लगी।

“ये क्या कर रही हो?”

“खाना खाने की तैयारी कर रही हूं।”

“इसमें जहर है बेबी-।” महाजन जल्दी से कह उठा।

“सौदागर सिंह की शक्तियों से भरी अंगूठी मेरे पास है।” मोना चौधरी कह उठी-“ऐसे में सौदागर सिंह या उसके किसी आदमी की गलत बात का असर मुझ पर नहीं होगा। जैसे कि जहर का-।”

फिर भी महाजन और जगमोहन व्याकुल निगाहों से देखते रहे मोना चौधरी को।

मोना चौधरी ने खाना शुरू कर दिया था।

“भूख मुझे लगी है और खा रही हो तुम-।” राधा मुंह बनाकर कह उठी।

“तुम भी आ जाओ।” मोना चौधरी मुस्कराई।

“सौदागर सिंह की अंगूठी मुझे दे दो। उसे पहन कर मैं भी खा लेती हूं।”

मोना चौधरी मुस्करा कर खाती रही। कहा कुछ नहीं।

“खाना बना लो। जाने क्या हो और कब यहां से चल देना पड़े।” महाजन ने गम्भीर स्वर में कहते हुए राधा को देखा।

राधा और पारसनाथ किचन की तरफ चले गये।

महाजन ने घूंट भरा।

मोना चौधरी सोचों में डूबी खाना खा रही थी।

“मुझे तो समझ नहीं आता कि हम कैसे देवराज चौहान की आत्मा तक पहुंच सकेंगे।” जगमोहन एक-एक शब्द पर जोर देकर कह उठा-“हमारे सामने आगे बढ़ने के लिये कोई रास्ता नहीं है। पेशीराम की आत्मा तुम्हारी सहायता करते हुए, तुम्हें किसी तरह आत्मा तक ले जा रही थी कि वो भी तुमसे जुदा हो गई।”

मोना चौधरी खाना खाते-खाते ठिठकी।

“हमारे सामने गम्भीर समस्या है।” सोहनलाल ने कहा-“जिस तरह धोखे से सरजू और दया मारे गये हैं। आने वाले वक्त में हम भी उसी तरह न जान गंवा बैठें।”

“भामा परी थारे को बतायो कि गड्ढों में सरजू-दया की लाशों के साथो पार्वती की लाश भी पड़ो हो।”

मोना चौधरी ने सहमति में सिर हिलाया।

“फिरो सवालो तो यो पैदा हौवो कि पार्वती को मारो कोणों?”

“प्रेमा मारेला बाप। वो किधर भी नजर नेई आईला।” रुस्तम राव कह उठा।

“तां छोरे। वो किधर हौवे। प्रेमा किधर जायो।”

तभी एक आवाज उनके कानों में पड़ी।

“प्रेमा मेरी कैद में है।”

सबने चौंककर आवाज की दिशा में देखा।

उधर देखते ही मोना चौधरी चौंक कर खड़ी हो गई।

वहां सौदागर सिंह खड़ा था।

“तुम?” उसके होंठों से निकला।

“ये कौन होईला मोना चौधरी?”

“सौदागर सिंह-।”

मोना चौधरी के मुंह से सुनते ही सब ठगे से खड़े रह गये।

“यो-यो सौदागर सिंह हौवे का?”

मोना चौधरी हक्की-बक्की थी।

“तुम लोग मेरे चक्रव्यूह में मौजूद रह कर, मुझे नुकसान पहुंचा रहे हो।” सौदागर सिंह ने सबको देखते हुए उखड़े स्वर में कहा-“पहले मेरी खास सेविका पार्वती को मारा गया और अब जानकीदास को-।”

“पार्वती ने हमारे साथियों को मारा है।” मोना चौधरी कह उठी।

“वो अपना फर्ज पूरा कर रही थी। मेरे आदेश को मान रही थी।” सौदागर सिंह ने सख्त स्वर में कहा।

“तो पार्वती को अपनी जान बचाने की खातिर मारा गया है।” मोना चौधरी की नजरें सौदागर सिंह पर थीं-“तुमने प्रेमा को कैद किया है तो यकीनन प्रेमा ने ही पार्वती की जान ली होगी।”

“ठीक कहती हो मिन्नो।” सौदागर सिंह ने खा जाने वाली निगाहों से मोना चौधरी को देखा-“लेकिन तुम मेरे दो बड़े नुकसान कर चुके हो-राजा केशोराम की जान तुमने ली और अब जानकीदास की। बहुत गलत किया है तुमने।”

मोना चौधरी ने सौदागर सिंह की आंखों में झांका।

“क्या चाहते हो?”

“मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा मिन्नो।”

“मतलब कि अब छोड़ रहे हो।” मोना चौधरी के होंठों से निकला।

“मजबूरी है तुम्हें छोड़ना।” सौदागर सिंह दांत भींचकर कह उठा-“तुम्हारी उंगली में वो अंगूठी है, जिसमें मेरे ग्रहों के अनुकूल शक्ति है। जब तक वो अंगूठी तुम्हारे पास रहेगी, मैं तुम्हें कुछ भी नहीं कह सकता।”

मोना चौधरी के होंठों पर मुस्कान उभर आई।

“ये तो खुशी की बात है कि तुम मेरे साथ अपनी मनमानी नहीं कर सकते।” मोना चौधरी कह उठी।

“लेकिन तुम बच नहीं पाओगी मिन्नो। मैं अपने दुश्मन को छोड़ता नहीं हूं।”

“तुम्हारा दुश्मन तो शैतान भी है, जिसने तुम्हें कैद कर रखा था। उसे क्यों नहीं मारते?”

“वो मर चुका है।” सौदागर सिंह जहर भरे ढंग से मुस्कराया-“अब तुम्हारी बारी है। एक वक्त तो ऐसा आयेगा जब तुम्हारे हाथ में अंगूठी नहीं होगी। तब तुम मुझसे बच नहीं सकोगी।”

“वो वक्त कभी नहीं आयेगा।” मोना चौधरी कह उठी।

सौदागर सिंह कुछ कहने लगा कि बांकेलाल राठौर कह उठा।

“तन्ने शैतान को मार दयो का?”

“हां भंवरसिंह-।”

“तम म्हारो नामो भी जानो हो?”

“हां, जो भी गुरुवर से किसी न किसी तरह का वास्ता रखता है, उसे मैं जानता हूं। तुम सबको मैं जानता हूं। मुझसे कुछ भी नहीं छिपा है।” सौदागर सिंह ने शान्त स्वर में कहा।

“यो लम्बो बातों तो फिरो करो। अंम यो कहो हो कि शैतानो तो मर-खप गयो हौवे। तंम म्हारे को देवराज चौहान की आत्मा दयो तो अंम इधरो से वापसो अपणी धरती पर चलो जायो।”

“मुझसे किसी भी तरह की सहायता की उम्मीद मत रखो मैं बिना मतलब के कोई काम नहीं करता। मिन्नो-तू मेरे से बच नहीं सकेगी।” कठोर स्वर में कहने के साथ ही सौदागर सिंह ने दरवाजे के बीचों-बीच पड़े जानकीदास के शरीर की तरफ उंगली की तो देखते-ही-देखते जानकीदास का शरीर गायब हो गया। उसके साथ सौदागर सिंह का शरीर चमकदार बिन्दु में बदला और फिर वो बिन्दु उनकी निगाहों के सामने से ओझल हो गया। जैसे वहां कुछ हो ही नहीं।

कई पलों तक किसी के मुंह से कोई बोल न फूटा।

“इधर तो सारा मामला ही गायब हो गया।” रुस्तम राव ने गम्भीर स्वर में कहा-“पहले शैतान के चक्कर में फंसेला। अब सौदागर सिंह रास्ते में पड़ेला।”

“म्हारे को तो यो सौदागरो सिंह ज्यादो खतरनाक लागो शैतानों से-।”

“मेरे ख्याल में तो यहां से हम बचकर नहीं निकल सकते। तिलस्म से तो बचकर निकल आये परन्तु इस चक्रव्यूह से निकल पाना सम्भव नहीं लग रहा।” सोहनलाल ने मोना चौधरी को देखा।

“दरअसल हमारा टकराव ऐसे लोगों से है, जिनके पास शक्तियां हैं।” जगमोहन ने कहा-“ये लोग हथियारों से जरा-सा लड़ते हैं और शक्तियों को ही अधिकतर इस्तेमाल करते हैं। हमारे पास न तो शक्तियां हैं, न ही इन जैसी विद्याएं और लड़ने के लिये हमारे पास हथियार भी न-काफी हैं। हम पैरों से चलकर लड़ना जानते हैं और ये लोग हवा में आते हैं और हवा में गुम हो जाते हैं।”

“जगमोहन ठीक कहता है कि इनसे चाहकर भी हम लड़ नहीं सकते।” मोना चौधरी गम्भीर थी।

“अब क्या किया जाये?” महाजन बोला।

“करनो का हौवे। म्हारे पाले तो रास्तों न होवे के, कुछो करो जावे-।”

“भामा परी के आने पर ही आगे के बारे में तय किया जायेगा।”

“वो कैसे?”

“भामा परी पता करने गई है कि आगे जाने के लिये कौन-सा रास्ता है।” मोना चौधरी ने जगमोहन को देखा-“चक्रव्यूह में आत्माओं को कैद रखने की जगह कौन-सी है। वहां तक कैसे पहुंचा जा सकता है।”

“मुझे तो ये रास्ता आसान नहीं लगता।” महाजन कह उठा।

“रास्तो तो कोयो भी आसान न होवे। रास्तो को आसान बनायो जावे। पर यां पे तो रास्तो भी न दिखो हो।”

“भामा परी के आने पर ही आगे के बारे में कुछ तय किया जा सकेगा।” मोना चौधरी सोच-भरे स्वर में बोली।

“मोना चौधरी-।” रुस्तम राव ने कहा-“सौदागर सिंह बोत पावरफुल होएला। वो तेरे को नेई छोड़ने को बोएला।”

“जब तक मेरे हाथ में सौदागर सिंह की शक्तियों वाली अंगूठी है। वो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।” मोना चौधरी ने उसे देखा।

“अंगूठी जब उंगली से खिसकेला तो-।”

“सौदागर सिंह की ये अंगूठी मैं हमेशा अपने हाथ में रखूँगी।” मोना चौधरी दृढ़ता-भरे स्वर में कह उठी।

“कोण फायदा न होवे। बोत जल्दो अंम सबो चक्रव्यूह में मर-खप जयो।”

“भामा परी कब तक लौटेगी।” महाजन ने पूछा।

“मालूम नहीं। लेकिन जल्दी ही लौट आयेगी।” मोना चौधरी ने गम्भीर स्वर में कहा।

☐☐☐

शाम ढलने जा रही थी।

बाहर अंधेरा फैलना शुरू हो गया था। सब थके-टूटे इधर-उधर पड़े थे। परन्तु उनकी आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था। राधा और पारसनाथ भी सारी बात जान चुके थे।

जगमोहन ने महल की रोशनियां जला दी।

बातें कर-कर के भी इतना थक गये थे कि अब कहने-सुनने का मन नहीं हो रहा था।

महाजन एक तरफ फर्श पर लेटा था कि राधा सरकते हुए उसके पास आ पहुंची थी।

“नीलू-।”

“हूं-।” महाजन ने उसे देखा?

“खाना कैसा लगा?” राधा ने उसका हाथ अपने हाथ में दबा लिया।

“अच्छा था।”

“मैंने बनाया है। तुम्हारे उस पारसनाथ ने तो खाने को बर्तनों में ही डाला है। भगवान जाने वो रेस्टोरेंट कैसे चलाता है।”

“क्यों?”

“उसे खाना बनाना कहां आता है? सब्जी हिलानी तो आती नहीं।”

“उसका रेस्टोरेन्ट है। वो खाना बनाता नहीं है। बनाने वाले बनाते हैं। उसके काम-धन्धे की तुम फिक्र न करो।”

“ये बातें हम बाद में भी कर लेंगे।” राधा धीमे स्वर में बोली-“वो, उधर वाला कमरा देखा है?”

“उधर वाला?”

“हां। देखा है-।”

“नहीं तो।” महाजन बोला-“उसमें खास है क्या?”

“हां। वहां बहुत ही बढ़िया बेड बिछा है। गद्देवाला है। चल वहां चलते हैं। उधर...।”

“वहां...?”

“बहुत दिन हो गये। वहां प्यार करते हैं। इन्कार मत करना नीलू-।”

“लेकिन-।”

“चल तो-।”

महाजन इन्कार करते-करते चुप हो गया।

राधा का चेहरा खुशी से चमक उठा।

“मेरा तो कब से मन कर रहा था। आज मौका मिला है। दरवाजा बंद कर लेंगे।”

महाजन उठने लगा कि ठिठक गया।

तभी उसकी निगाह खुली खिड़की पर गई। वहां से उसने भामा परी को पंख फैलाये नीचे उतरते देखा। उजाले और अंधेरे के मिलन के बीच वो चांदी की तरह चमक रही थी।

“भामा परी आई है।” महाजन के होंठों से निकला।

“भामा परी-?”

“हां-।” महाजन ने उठकर बैठते हुए राधा को देखा।

राधा के चेहरे पर उखड़ेपन के भाव आ ठहरे।

“अभी आना था इसे, जब हम प्यार करने जा रहे थे।” राधा तीखे स्वर में कह उठी-“सच मान नीलू, इसे समझ आ गई होगी कि इस वक्त हम प्यार करने जायेंगे। हम ऐसा न कर सकें। तभी ये वक्त पर आ पहुंची है। जलती है। इसका तो कोई है नहीं। दूसरों को भी प्यार नहीं करने देती। ये सोहनलाल ने शादी तो नहीं की?”

“नहीं।”

“भामा परी का ब्याह सोहनलाल से करा दें। दोनों का काम हो जायेगा।”

“सोहनलाल से-?”

“सोहनलाल नहीं तो पारसनाथ ही सही। ब्याह हो जाने से भामा परी व्यस्त रहेगी। हमारे रंग में भंग भी नहीं डालेगी।”

महाजन के होंठों पर मुस्कान उभरी।

“क्या हुआ नीलू। तुम मुस्करा क्यों रहे हो?”

“यहां सब बिना ब्याह के हैं। जगमोहन, बांके, रुस्तम-।”

“तो क्या सबका ब्याह भामा परी से करा दोगे। उसे इतना भी व्यस्त न करो कि दूध-चाय पीने का भी वक्त न मिले।”

“सब क्या फुर्सत में हैं जो ब्याह के लिये तैयार खड़े हैं।” महाजन कह उठा-“न तो भामा परी ब्याह करेगी और न ही दूसरे करेंगे भामा परी से। यहां कोई भी ब्याह करने नहीं आया। जाति-धर्म की बात तो जुदा, हमारी और भामा परी की दुनिया और दस्तूर अलग-अलग हैं। जो तुम कह रही हो, वो नहीं हो...।”

तभी भामा परी ने भीतर प्रवेश किया।

उसे देखते ही सब अपनी-अपनी जगहों से उठ बैठे।

“मेरा तो सारा मजा ही खराब कर दिया भामा परी ने।” राधा बड़बड़ा उठी-“अब तक तो हमने कमरे में पहुंचकर दरवाजा भी बंद कर लिया होता।”

☐☐☐

“चक्रव्यूह में जहां आत्माओं को बंदी बना कर रखा जाता है, मैं वहां तक पहुंचने का रास्ता तलाश करके आई हूं।” भामा परी ने कहा-“शायद हम जल्दी ही देवराज चौहान की आत्मा को पा लें।”

“ओह।” महाजन के होंठों से निकला-“ऐसा हो गया तो बहुत अच्छा रहेगा।”

“छोरे ईब तो चक्रव्यूह के जंजालों से जल्दी छटो हो।”

“हां बाप। वापस अपनी धरती पर पांचेला।”

“तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि रास्ता वो ही है, जहां से आत्माओं तक पहुंचा जा सकता है।” पारसनाथ कह उठा।

“एक कोयल से मुलाकात हो गई, जो मनुष्यों की तरह बात करती है।” उसने बताया-”भामा परी बोली-“बहुत भली कोयल थी। एक-एक बात बताकर मेरी बहुत सहायता की-।”

“मनुष्यों की तरह बात करने वाली कोयल?” मोना चौधरी बोली-“ये कहां से इस चक्रव्यूह में आ गई?”

“वो बता रही थी कि ढाई सौ बरस पहले सौदागर सिंह ने उससे नाराज होकर, उसे कोयल बना दिया था। तब वो सौदागर सिंह के महल की सेविका थी। तब से वो चक्रव्यूह में ही है।”

“सौदागर सिंह का महल? कहां है महल?”

“पूछा था मैंने उससे। परन्तु महल के बारे में कहा कि वो भूल चुकी है कि महल कहां है?”

मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव छाये रहे।

“आत्माओं को कहां रखा है चक्रव्यूह में?” जगमोहन ने पूछा।

“मैं नहीं जानती। परन्तु वहां तक पहुंचने का रास्ता जानती हूं जो कोयल ने मुझे दिखाया।” भामा परी ने कहा।

“कहीं वो कोयल हमारे लिये कोई धोखा तो नहीं?” महाजन कह उठा।

“मैं नहीं जानती। अगर वो कोयल कोई धोखा थी तो मैं उस धोखे को नहीं पहचान सकी।” भामा परी ने सोचभरे स्वर में कहा-“परन्तु वो मुझे कहीं से धोखा नहीं लगी। वो सच्ची थी।”

“हमें इस तरफ नहीं सोचना चाहिये कि क्या धोखा है और क्या सच? हम तो हर कदम, हर दिशा की तरफ फंसे हुए हैं। जगमोहन बोला-“किसी पर विश्वास करें तो परेशानी, न करें तो दिक्कत-। जो रास्ता दिखे, उसी पर आगे बढ़ना है। अच्छा होगा, बुरा होगा-जो भी होगा, आने वाला वक्त बताएगा।”

“यो बातों हौवे तो अभ्भी चल्लो उधरो को।”

“आत्माओं के कैदखाने की तरफ?” पारसनाथ ने उसे देखा।

“जबो जागों हौवे तो ईब का और बादो में का। क्यों छोरे?'

“ठीक कहेला बाप। आपुन रेडी होएला-।”

सबकी नजरें मिलीं।

“मेरे ख्याल में भामा परी के बताये उस रास्ते पर अभी चले तो बढ़िया रहेगा।” जगमोहन कह उठा।

“मुझे भला क्या एतराज है।” मोना चौधरी ने सहमति दी।

किसी को भी एतराज नहीं था।

चल पड़े वो।

☐☐☐

सौदागर सिंह छोट-से किन्तु खूबसूरत कमरे में शांत भाव से चहलकदमी कर रहा था। परन्तु आंखों में सोच के भाव मचल रहे थे। कभी-कभी वो बेचैन नजर आता फिर सामान्य दिखाई देने लगता।

तभी कमरे में कोयल की कूक गूंजी।

सौदागर सिंह ठिठका।

बेहद प्यारी काली कोयल कमरे में फुर्र-फुर्र उड़ रही थी। दो चक्कर लेने के बाद कोयल कुर्सी पर बैठ गई। रह-रह कर वो पंख फड़फड़ा रही थी। गर्दन तेजी से इधर-उधर हिला रही थी।

सौदागर सिंह ने हाथ आगे किया और होंठों ही होंठों में कुछ बड़बड़ाया।

उसी पल कोयल के आस-पास तीव्र चमक उभरी और लुप्त हो गई। देखते-ही-देखते कोयल इस तरह बड़ी होने लगी जैसे गुब्बारा हवा भरने से बड़ा होता है। बड़ी होने के साथ-साथ कोयल का रंग भी बदलता जा रहा था। पहले वो स्याह से नीली, पीली, हरी, लाल और फिर सफेद रंग में आते-आते उसका रूप भी बदल गया।

वो युवती बन चुकी थी।

कुर्सी पर कोयल से युवती बनी वो बैठी थी। यकीनन वो खूबसूरत थी। उसके हाथ में नन्हा-सा पिंजरा पकड़ा था-जिसमें सफेद-सा कुछ था। परन्तु छोटा होने के कारण स्पष्ट नजर नहीं आ रहा था।

वो उठी और सौदागर सिंह को देखकर मुस्कराई।

“मालिक। आपकी सेविका ने सारा काम पूरा कर दिया। ये देखिये। पिंजरे में भामा परी कैद है। आपकी दी शक्ति से मैंने भामा परी का रूप छोटा कर रखा है। नकली भामा परी उनके बीच छोड़ आई हूं, वो उन्हें चक्रव्यूह में भटकाती रहेगी। वे कभी-भी अपनी मंजिल नहीं पा सकेंगे। अंत में थककर अपनी जान दे देंगे।”

“खूब। तुमने अच्छा किया। अब नकली भामा परी कहां है?”

“उन मनुष्यों के बीच पहुंच चुकी है। गलत राह उन्हें दिखाती रहेगी।”

“अच्छा किया। उनके साथ यही होना चाहिये।” सौदागर सिंह ने शांत स्वर में कहा।

“नकली भामा परी ने उन्हें यूं ही कोयल की बात सुनाई और अब उन्हें चक्रव्यूह में ले जा रही है।”

“वे शक तो नहीं करेंगे कि वो नकली भामा परी है।” सौदागर सिंह बोला।

“नहीं मालिक। उस नकली भामा परी के आकार के भीतर मेरी खास शक्ति है। इतना आसान नहीं है उस पर शक करना। फिर भी उस पर शक किया गया तो शक्ति उस आकार को छोड़ कर आ जायेगी। और वे भामा परी के निर्जीव शरीर आकार को देखकर समझेंगे कि उसने प्राण त्याग दिये हैं।”

“उन मनुष्यों को इस तरह उलझा देना है कि उन्हें किसी बात का होश ही न रहे।” सौदागर सिंह ने सोच भरे स्वर में कहा-“कोशिश करना कि मिन्नो की उंगली में पड़ी, मेरी शक्ति वाली अंगूठी उससे अलग कर सको। मिन्नो ने राजा केशोराम और पार्वती का अन्त कर दिया है। मैं उसे मजा दिए बिना नहीं रहूंगा।”

“मैं पूरी कोशिश करूंगी मालिक कि मिन्नो की उंगली से आपकी अंगूठी निकालकर, दूर कर सकूं। ताकि आप मिन्नो को उसके किए की सजा दे सको।”

सौदागर सिंह ने उसके हाथ में दबे पिंजरे को देखा।

“इस पिंजरे में कैद भामा परी की देखभाल तुम्हारे हवाले है।”

“अवश्य मालिक-।”

सौदागर सिंह पलटा और बाहर निकलता चला गया।

☐☐☐

प्रेमा छोटे से कमरे में बेड पर लेटी थी ।

कमरे में जरूरत की हर चीज मौजूद थी। प्रेमा के चुप्प चेहरे के पर गम्भीरता के भाव ठहरे हुए थे। तभी वो उठी और नंगे पांव ही कमरे में टहलने लगी। कुछ देर बाद बंद दरवाजे के पास ठिठक कर उसे खोलने की चेष्टा की। परन्तु दरवाजा बंद ही रहा। प्रेमा पलटकर फिर टहलने लगी।

“ये सुख भरी कैद कैसी लग रही है प्रेमा?” सौदागर सिंह की आवाज गूंजी।

प्रेमा ने ठिठक कर कमरे में हर तरफ देखा। सौदागर सिंह कहीं भी नहीं था।

“कोई भी कैद सुख भरी नहीं होती।” प्रेमा ने बेहद शांत स्वर में कहा।

“अगर बाहर की खबरों से अनजान रहा जाये तो कैद सुखभरी भी हो जाती है।” सौदागर सिंह के शब्द मध्यम से वहां गूंज रहे थे-“तुमने मेरी बात मानकर मेरी सेवा में आना पसन्द किया होता तो अब तक देवा भी जिन्दा हो गया होता और बाकी के लोग भी परेशानी में न फंसते। परन्तु तुम अपनी जिद से पीछे नहीं हट रहीं।”

“मेरे बिना भी तुम्हारा काम चल सकता है सौदागर सिंह-।”

“अवश्य। लेकिन मैं तुम्हारी कैद खास-खास शक्तियों का फायदा उठाना चाहता हूं। वो शक्तियां मेरे पास नहीं हैं। यूं ही मैं तुम पर जोर नहीं दे रहा कि तुम मेरी सेवा में आ जाओ।” सौदागर सिंह की आवाज प्रेमा को स्पष्ट सुनाई दे रही थी-“सच बात तो ये है कि अभी तुम भी, अपने पास मौजूद शक्तियों से अंजान हो।”

प्रेमा ने जवाब में कुछ नहीं कहा।

“मेरी सेवा में आना घाटे का सौदा नहीं रहेगा प्रेमा-।”

“मैं मजबूर हूं। देवराज चौहान की इजाजत के बिना किसी को अपना मालिक स्वीकार नहीं कर सकती।”

“देवा मर चुका है। वो तुम्हें कभी भी हुक्म नहीं दे पायेगा। फिर भी तुम उसका भला कर सकती हो, जिसने तुम्हारे में प्राण डाले। वो मृत है। तुम अपने प्राण डालकर उसे जीवन दे सकती हो। इस तरह उसका उपकार पूरा हो जायेगा। देवा जिन्दा होकर अपनी दुनिया में चला जायेगा। तुम मेरी सेवा में आ जाओगी। वैसे भी तुम्हारे और देवा में क्या रिश्ता? तुम मिट्टी से बनी हो और उसे भगवान ने बनाया है। आखिर कब तक उसके साथ रहोगी?”

प्रेमा होंठ भींचे पड़ी रही।

“तुम्हारी इच्छा।” सौदागर सिंह की आवाज में गम्भीरता आ गई थी-“बार-बार कहकर मैं तुम्हें मजबूर नहीं करूंगा कि तुम वो ही करो, जो मैं चाहता हूं। लेकिन इतना अवश्य कहूंगा कि मेरी बात मानकर तुम मनुष्यों का भला करोगी। देवा जिन्दा हो जायेगा। नगीना और अन्य सब वापस पृथ्वी ग्रह पर पहुंच जायेंगे। किसी का भय नहीं रहेगा। शैतान को मैं खत्म कर चुका हूं, परन्तु महामाया है अभी-जो-।”

“सौदागर सिंह इतनी लम्बी बातें मत बताओ मुझे...कि मैं भूलने लगूं।”

“ओह। समझा। मेरी बातें तुम्हें पसन्द नहीं आ रहीं। कोई बात नहीं। जबर्दस्ती नहीं कहूंगा कि मेरी बातें तुम अवश्य सुनो। वो देखो। सामने दीवार की तरफ-।”

प्रेमा ने कमरे की दीवारों पर नजरें घुमाईं।

एक खाली दीवार के ठीक बीचों-बीच बिन्दु चमका और वो बड़ा होता चला गया। पूरी की पूरी दीवार चमक भरी हो गई।

उसी पल उस चमकती दीवार पर मोना चौधरी, जगमोहन, सोहनलाल, पारसनाथ, राधा, बांकेलाल राठौर, रुस्तम राव, राधा और महाजन नजर आने लगे। जोकि इस वक्त खूबसूरत महल से निकलते नजर आ रहे थे। उनके साथ भामा परी भी थी।

“ये क्या है?” प्रेमा के होंठों से निकला।

“तुम्हें नजर आता रहेगा कि ये सब मनुष्य क्या कर रहे हैं। यूं समझो कि कैसे मेरे हाथों की कठपुतली बने सब अटक रहे हैं। तुम चाहो तो इन सबको मुक्ति दिलाकर, इन्हें वापस पृथ्वी पर भेज सकती हो।”

“मतलब कि मैं तुम्हारी सेविका बन जाऊं?”

“अवश्य, मैं ये ही चाहता हूं। और जब भी तुम इन मनुष्यों को हर मुसीबत से आजाद करवाना चाहो, मेरी सेवा में आना चाहो तो इन्हीं तस्वीरों वाली दीवार को अपनी हथेली से थपथपा देना। मैं तुमसे बात कर लूंगा।”

“तुम मुझ पर नाजायज दबाव डाल रहे हो।” प्रेमा के होंठों से निकला।

“गलत मत कहो।” शब्दों के साथ सौदागर सिंह के हंसने की आवाज आई-“सौदागर सिंह हूं मैं। दबाव नहीं डालता। सिर्फ सौदा करता हूं। तुमसे भी सौदा कर रहा हूं-।” सब मनुष्यों को बचा सकती हो तुम। वरना उनका अंजाम बुरा होगा। सब कुछ तुम्हारे हाथ में है। जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा।”

प्रेमा होंठ भींचे खड़ी रही।

“चलता हूं। जब मेरी जरूरत पड़े...याद कर लेना।”

प्रेमा उसी तरह खामोश खड़ी रही।

कई पल बीत गये। सौदागर सिंह की आवाज नहीं आई। प्रेमा की निगाह दीवार पर चलते-फिरते उन सब पर जा टिकी। चेहरे पर गम्भीरता नजर आ रही थी।

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द्रोणा (शैतान का अवतार) ने उस पन्ने को पलटा और आगामी लाइनों पर नजरें दौड़ाने लगा। (“द्रोणा के बारे में जानने के लिये पढ़ें पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”)

गम्भीरता में डूबा था द्रोणा का चेहरा। कभी-कभार माथे पर बल भी दिखाई देने लगते थे। उसके पन्ने पलटने का ढंग बता रहा था कि जो चीज चाहता है, वो उसे पन्नों में नहीं मिल रही। द्रोणा-।”

आवाज सुनते ही शैतान के अवतार ने सिर उठाया, तो कमरे के कोने में प्रेतनी चंदा को खड़े पाया।

“तुम?” द्रोणा ने किताब बंद करके टेबल पर रखी और हरे रंग के पेय पदार्थ से भरा गिलास उठा लिया। प्रेतनी चंदा की आंखों से परेशानी-सी झलक रही थी।

“परेशान नजर आ रही हो।” घूंट भरा द्रोणा ने।

“परेशान तो तुम भी नजर आ रहे हो द्रोणा।” प्रेतनी चंदा आगे बढ़ी और टेबल पर उल्टे पड़े गिलास को सीधा करके जग में भरा हरे रंग का पेय पदार्थ, गिलास में भर लिया।

“हां। इस वक्त परेशान हूं मैं। शायद तुम मेरी परेशानी दूर कर सको।” द्रोणा ने प्रेतनी चंदा को देखा।

“मैं?” वो हंसी-“मुझसे आशा रखते हो। मत भूलो कि तुम मेरे साथ काम करने से मना कर चुके हो।”

“सच में, चिन्ता में हूँ प्रेतनी चंदा।” द्रोणा ने गिलास में से घूंट भरे-“तुम...!”

“पहले मेरी बात का जवाब दो।” प्रेतनी चंदा ने टोका-“उन मनुष्यों का कुछ किया तुमने?”

“अभी कुछ भी नहीं हुआ।” द्रोणा ने इन्कार में सिर हिलाया-“मैं उन्हें तलाश नहीं कर पाया, हर जगह ढूंढा उन्हें। समझ में नहीं आता कि वो लोग अचानक कहां गुम हो गये?”

“काला महल में जा छिपे होंगे।” प्रेतनी चंदा बोली।

“असम्भव। अगर वो काला महल में होते तो मेरी शक्तियां मुझे इस बात का संकेत दे देतीं।”

प्रेतनी चंदा ने कुछ नहीं कहा।

“तुम मेरे पास क्यों आई?” द्रोणा ने एकाएक पूछा।

“ये मनुष्य मुझे भी नहीं मिल रहे। बहुत ढूंढा उन्हें-।”

“ओह-।” द्रोणा चौंक कर उठ खड़ा हुआ-“मनुष्य तुम्हें भी नहीं मिल रहे। मैं खुद उन्हें तलाश करके परेशान हूं। इसका मतलब उनके गायब हो जाने के पीछे अवश्य कोई खास बात है। शैतान इस बारे में बता सकता...।”

“शैतान भी कहीं नहीं मिल रहा।” प्रेतनी चंदा कह उठी-“इन्हीं बातों को लेकर मैं परेशान हूं।”

“तुम्हारी और मेरी व्याकुलता एक ही है।” द्रोणा ने एक ही सांस में गिलास खाली करके टेबल पर रखा-“मुझे भी न तो मनुष्य मिल रहे हैं और न ही शैतान। शैतान के बारे में कोई भी नहीं बता पा रहा कि वो कहां है।”

“इससे तो स्पष्ट है कि कोई अनहोनी हो चुकी है।” प्रेतनी चंदा ने द्रोणा को देखा।

द्रोणा और प्रेतनी चंदा कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे।

“ये बेहद गम्भीर बात है कि शैतान हमें ढूंढे भी नहीं मिल पा रहा। उससे बात नहीं हो पा रही। जबकि आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। शैतान को याद करो तो फौरन हाजिर हो जाता है। तुम ठीक कहती हो कि कोई अनहोनी हो चुकी है, क्योंकि पृथ्वी ग्रह से आने वाले मनुष्यों को भी हम नहीं तलाश कर पाये, जोकि अपने आप में अजीब बात है। शैतान के आसमान पर हमें रास्ता नहीं मिल रहा तो ये अनर्थ हो जाने वाली बात है।”

द्रोणा के खामोश होते ही चुप्पी छा गई।

कई पलों बाद प्रेतनी चंदा बोली।

“मैं तो तुम्हारे पास आई थी कि मुझे कोई रास्ता बता सको। परन्तु तुम तो स्वयं ही उलझे पड़े हो। ऐसे में तो मैं यही कह सकती हूँ कि कुछ देर इन्तजार करके देख लेते हैं। शायद शैतान या उन मनुष्यों के बारे में कोई खबर मिले। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शैतान कहीं दूर गया हो काम के लिये-।”

“शैतान कहीं भी जाये, परन्तु उसका अक्स तो यहीं मौजूद रहेगा। उससे हमारी बात हो जायेगी।” द्रोणा ने इन्कार में सिर हिलाकर प्रेतनी चंदा को देखा-“इस वक्त किसी भी पोजिशन में हमारी शैतान से बात नहीं हो पा रही। तुम अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर चुकी हो और मैं अपनी शक्तियां आजमा कर देख चुका हूं।”

प्रेतनी चंदा होंठ सिकोड़े द्रोणा को देखने लगी।

“पहले कभी ऐसा हुआ है कि जरूरत पड़ने पर शैतान से बात न हो सके।”

“मेरे साथ तो ऐसा कभी नहीं हुआ।” द्रोणा कह उठा-“शैतान का एक खास मंत्र है मेरे पास, जिसे पढ़ते ही शैतान की तरफ से सलामती का संदेश मिल जाता है कि वो ठीक है, परन्तु अभी बात नहीं कर पायेगा। वो मंत्र भी काम नहीं कर रहा। कितनी ही बार मैं उस मंत्र का पाठ कर चुका हूं। परन्तु कोई जवाब नहीं मिला शैतान की तरफ से।”

“फिर तो स्पष्ट है कि-।”

प्रेतनी चंदा कहते-कहते ठिठक गई।

द्रोणा भी चौंका।

बेहद तेज हवा कमरे में से गुजरी थी। उनके शरीरों से टकराई। दोनों लड़खड़ाए, किन्तु संभल गये। उस हवा की तीव्र ठण्डक का एहसास अभी-भी उनके शरीरों को हो रहा था।

“ये क्या हुआ द्रोणा?” प्रेतनी चंदा के होंठों से निकला।

“मैं...।” द्रोणा ने कहना चाहा।

तभी सीटी जैसी तेज आवाज कमरे में सुनाई दी।

दोनों की निगाह बार-बार दरवाजे की तरफ जा रही थी। दोनों दरवाजे बंद थे।

“द्रोणा-।” एकाएक प्रेतनी चंदा के होंठों से तीव्र आवाज निकली-“वो देखो।”

द्रोणा ने फौरन पलट कर देखा। उसी क्षण ठगा सा रह गया।

बेहद खूबसूरत, छोटी सी साड़ी में लिपटी, अपनी अथाह खूबसूरती के साथ महामाया खड़ी थी। पांच कदमों की दूरी पर। साड़ी के पल्लू से ढका होने पर भी, उसकी छातियां स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। कुछ ऐसी ही हालत कूल्हों की थी कि महीन साड़ी की वजह से वो जरूरत से ज्यादा ही नजर आ रहे थे। उसके लम्बे-खुले बाल सामने वाले की आंखों में मादकता भर रहे थे। देखने के बाद खुद पर काबू रख पाना कठिन था।

द्रोणा ने पहले कभी महामाया को रू-ब-रू नहीं देखा था।

शैतान से जिक्र अवश्य सुना था। उसने सिर से पांव तक देखा महामाया को। दिल-दिमाग पर नशा-सा छाने लगा था।

“कितनी हसीन हो तुम।” द्रोणा के होंठों से निकला-“किस दुनिया से आई हो?”

महामाया के होंठों पर मुस्कान उभरी। वो आगे बढ़ी।

“तुम्हारी मुस्कान मेरी जान ले लेगी।” नशे में डूब-सा रहा था द्रोणा का स्वर।

महामाया हौले से हंसी और कुर्सी पर जा बैठी।

“ऐसी बातें उसे अच्छी नहीं लगतीं, जिसके पास शैतान के अवतार का रुतबा हो।” वो कह उठी।

“शैतान का अवतार मैं कभी था। अब मेरा वो अस्तित्व समाप्त हो चुका है।”

“द्रोणा-।” प्रेतनी चंदा तेज स्वर में बोली-“होश में आओ।”

महामाया ने प्रेतनी चंदा को देखा और मुस्करा उठी।

द्रोणा ने अपने बहकते मस्तिष्क पर काबू पाने की चेष्टा की।

“कौन हो तुम?” प्रेतनी चंदा के होंठों से तीखा स्वर निकला-“किसने भेजा है तुम्हें?”

“मुझे कौन भेजेगा?” हंसी महामाया।

“तुम किसी की भेजी शक्ति हो।” प्रेतनी चंदा कह उठी-“वरना इस तरह हमारे पास, बंद दरवाजे को पार करके, आने का साहस न होता। बता कौन है तू-।”

द्रोणा ने कठिनता से अपने मस्तिष्क पर से उसके हुस्न की परत को हटाया। महामाया के जिस्म का प्रभाव, उसके मस्तिष्क से हटा। चेहरे पर सतर्कता नजर आने लगी। इसके साथ ही द्रोणा ने कमर में फंसा रखा खंजर निकाल कर हाथ में ले लिया।

“तूने अपने शरीर से मेरी बुद्धि भी खराब कर दी।” द्रोणा ने कहा-“बता, तेरी शक्ति क्या है?”

“महामाया हूं मैं-।”

“महामाया?” प्रेतनी चंदा के होंठों से निकला-“कौन महामाया?”

द्रोणा की आंखें हैरानी से फैल गईं। चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे।

“द्रोणा।” प्रेतनी चंदा बोली-“कौन है ये? कौन है महामाया-मैंने तो इससे पहले न देखा न सुना?”

“ये महामाया है।” द्रोणा ने होंठों पर जीभ फेरी-“शैतान की पीठ पर इसका हाथ रहता है।”

“समझी। परन्तु तुमने इसे पहले नहीं देखा कि इसे फौरन पहचान जाते।”

“हां। मैं पहली बार देख रहा हूं महामाया को।”

“फिर तो तुम्हें धोखा भी हो सकता है महामाया को पहचानने में। ये कोई और भी हो सकती।”

“वो तो अभी पता चल जायेगा।” कहने के साथ ही द्रोणा ने खंजर वाला हाथ आगे किया और होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाया।

उसी पल ही खंजर से तेज चमक निकल कर, महामाया की तरफ बढ़ी और पास पहुंचते ही चमक गायब हो गई।

प्रेतनी चंदा की आंखें सिकुड़ी।

द्रोणा ने पुनः वो ही शक्ति इस्तेमाल की।

दूसरी बार भी चमक महामाया की तरफ बढ़ी और लुप्त हो गई।

द्रोणा के हाथों से खंजर छूट गया। वो उसी पल फुर्ती से पेट के बल नीचे लेटा और दोनों बांहें आगे करके हाथ जोड़ दिए।

महामाया के चेहरे पर शांत मुस्कान उभरी।

प्रेतनी चंदा ने भी बिना देर लगाए प्रणाम की यही मुद्रा अपना ली।

“खड़े हो जाओ।” महामाया का शांत स्वर कमरे में गूंजा।

द्रोणा और प्रेतनी चंदा खड़े हो गये। उनके हाव-भाव में आदर के भाव थे।

“मुझे खुशी है कि तुमने मुझे पहचान लिया द्रोणा।”

“क्यों नहीं पहचानता।” द्रोणा धीमे स्वर में कह उठा-“मैं तो तुम्हारी ही देन हूं।”

“सर्वशक्तिमान का बनाया हुआ है सब कुछ। जो करता है वही करता है। हम तो उसके खिलौने हैं।” महामाया पूर्ववतः स्वर में कह रही थी-“कहो-तुम दोनों क्यों परेशान हो?”

“आपको तो सब मालूम ही है।” द्रोणा कह उठा।

“मैं तुम्हारे मुंह से सुनूंगी तो तभी जवाब में कुछ कह पाऊंगी।”

महामाया के शब्द पूरे होते ही प्रेतनी चंदा कह उठी।

“शैतान ने हमें पृथ्वी से आये मनुष्यों को समाप्त करने को कहा था। उनमें से एक ने (मिन्नो) मुझे मारा था-द्रोणा को भी उन्हीं लोगों ने मारा। हममें नया जीवन और शक्ति डालकर शैतान ने उन सबको खत्म करने को कहा। परन्तु अब ये हाल है कि उनमें से कोई मनुष्य हमें नहीं मिल रहा। काला महल में भी कोई नहीं है। इस बात का संकेत हमारी शक्तियां हमें दे रही हैं। परेशान होकर हमने शैतान से इस बारे में बात करनी चाही तो शैतान की भी कोई खबर नहीं मिली।”

“शैतान की खबर मिल भी नहीं पायेगी।” महामाया ने गम्भीर स्वर में कहा।

“क्यों महामाया?” द्रोणा के होंठों से निकला।

“सौदागर सिंह शैतान की कैद से आजाद हो चुका है। उसने शैतान का अंत कर दिया।”

“अंत कर दिया।” प्रेतनी चंदा का मुंह खुला-का-खुला रह गया।

“ये कैसे सम्भव है महामाया?”

“असम्भव की बात कहां से आ गई।” महामाया का स्वर पहले जैसा ही था-“सौदागर सिंह के पास शैतानी और पवित्र शक्तियों का भण्डार है। नीचे, गुरुवर से सीखा है पवित्र शक्ति का खेल। इधर शैतान ने उसे सिखा दिया था शैतानी शक्तियों को इस्तेमाल करना। दोनों तरह की शक्तियों को शायद कोई दूसरा इस्तेमाल नहीं कर सकता।”

द्रोणा और प्रेतनी चंदा की नजरें मिलीं।

“ये तो बहुत बुरी खबर सुनाई महामाया।” प्रेतनी चंदा कह उठी-“हमारी हार है ये-अगर शैतान को हमारे आसमान पर सौदागर सिंह मार दे। सौदागर सिंह जिन्दा रहा तो हमारे लिये शर्म की बात होगी।”

“पहली बात तो ये है कि शैतान की मौत से हमें कोई नुकसान नहीं हुआ। शैतान के कार्य बेहद कमजोर हो चुके थे। वो अपने कायों को पूर्ण नहीं कर पा रहा था। शैतान की मौत यूं न होती तो हम ही शैतान को सजा दे देते।”

द्रोणा और चंदा देखते रहे, महामाया को।

“दूसरी बात ये कि सौदागर सिंह की जान ले पाना आसान काम नहीं।”

“फिर तो सौदागर सिंह हमारे आस्मान पर अपना साम्राज्य खड़ा करता जायेगा महामाया। वो तो-।”

“सौदागर सिंह बहुत कुछ करेगा। जो उसके बस में नहीं, वो भी करना चाहेगा। हमें अपने पांवों के नीचे रखने की सोचेगा वो। परन्तु कामयाब नहीं हो सकेगा।” मुस्कराई महामाया-“उसे हमारा आसमान छोड़कर जाना होगा।”

“क्या?” द्रोणा चौंका-“ऐसा हो सकता है।”

“हां। ऐसा होने वाला है सौदागर सिंह तो-”

“महामाया।” प्रेतनी चंदा कह उठी-“तुमने कहा कि सौदागर सिंह को हमारा आसमान छोड़कर भागना पड़ेगा?”

“हां-।”

“मतलब कि सौदागर सिंह से शैतान की मौत का बदला नहीं लिया जायेगा?”

“नहीं। अभी हम चाहकर भी सौदागर सिंह को कुछ नहीं कह सकते। क्यों हमारे कार्य खराब हो चुके हैं। शैतान की मौत हो चुकी है। पृथ्वी ग्रह से आये मनुष्य सलामत यहाँ पर हैं। काला महल में गुरुवर की शक्तियों से मेरी बाल मौजूद है। अगर शक्तियाँ बाल से बाहर आ गईं तो हमारे आसमान पर कहर बरसा जायेगा। ऐसे में हमें अतिक्रोध को छोड़कर, पहले खुद को सुरक्षित करना है।”

प्रेतनी और द्रोणा महामाया को देखते रहे।

“क्या सोच रहे हो?”

प्रेतनी चंदा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

“सौदा...सौदागर सिंह को यहाँ से कैसे भगाया जा सकता है?” द्रोणा परेशान-सा दिखाई दिया।

“सौदागर सिंह ने जिस जगह पर अपना चक्रव्यूह बना रखा है, वहाँ शैतानी शक्तियों के भी कुछ तारे हैं। उन तारों को आपस में बांधना पड़ेगा। ऐसा होते ही सौदागर फिर उस आसमान पर परेशानी महसूस करेगा और उसे जाना पड़ेगा।”

“नहीं गया तो?” प्रेतनी चंदा के होंठों से निकला।

“तो उसकी शक्तियाँ नष्ट होने लगेंगी। उसे जाना ही पड़ेगा।

“उन तारों पर कोई भी शक्ति काम नहीं करेगी।” महामाया की आवाज में गम्भीरता और सख्ती-सी आ गई थी-“उन पर सिर्फ सर्वशक्तिमान की शक्ति ही काम करती है। वो जैसा चाहता है, वो तारे जैसा ही प्रभाव दिखाता हैं। अन्य किसी शक्ति के प्रभाव में वो तारे नहीं आ सकती।”

द्रोणा और प्रेतनी चंदा समझकर भी, पूरी तरह तारों की बात न समझ सके।

“तुम दोनों के पास समय कहां है मनुष्यों को समाप्त करने का? क्योंकि मेरी शक्ति मुझे इस बात का संकेत दे रही है कि मनुष्य ज्यादा ढेर अब उस आसमान पर नहीं है। उन्हें भी जाना ही है। वो...।”

“क्या-। वो भी वापस चले जायेंगे। उन्हें कुछ नहीं होगा?”

“अगर उन्हें नहीं करोगे तो, उन्हें कुछ नहीं होगा। मैं तो चाहती हूँ कुछ करो। वो सब चक्रव्यूह में मौजूद हैं। खत्म करो। इससे पहले कि उनका वापस जाने का वक्त हो, उन्हें समाप्त कर दो।”

प्रेतनी चंदा और द्रोणा ने एक दूसरे को देखा।

“ये जानते भी कि सौदागर सिंह को ये आसमान छोड़कर वापस जाना है। मैं उसकी तलाश में चक्रव्यूह में जा रही हूँ-कि मैं शायद उसे खत्म कर सकूँ। अंत तक कोशिश छोड़नी नहीं चाहिये। सौदागर सिंह का मर जाना, हमारे लिए बहुत अच्छा होगा। ऐसे में कोशिश करनी चाहिये।”

“तुम ठीक कह रही हो महामाया।”

“परन्तु शैतान के कार्यों को कौन संभालेगा?” प्रेतनी चंदा कह उठी।

महामाया दोनों को देखकर मुस्कराई।

“प्रेतनी चंदा।” महामाया ने कहा-“शैतान के कार्यों को काकोदर देखेगा। वो...।”

“कौन काकोदर...?”

“सर्वशक्तिमान ने शैतान लोक से भेजा है उसे। जब तक कोई पूर्ण शैतान का कार्य करने वाला नहीं मिलता, तब तक काकोदर ही शैतान के कार्य देखेगा और मैं सौदागर सिंह को खत्म करने जा रही हूँ। तुम दोनों इस बात की पूरी चेष्टा करना कि धरती से आये मनुष्यों को खत्म कर सको।”

“हम उन्हें खत्म कर देंगे।” द्रोणा कह उठा।

“आसान नहीं है। उसकी मृत्यु का वक्त दूर होता जा रहा है। ऐसे में उन्हें खत्म करने में शक्ति ज्यादा लगाई जानी चाहिये। वरना कार्य असफल होगा।” महामाया कह उठी।

“परन्तु महामाया।” द्रोणा ने कहा-“शैतान को इतनी आसान मौत कैसे हासिल हो गई?”

“अभी वक्त नहीं है बताने का। कार्य बहुत है। मैं तुम दोनों की परेशानी कम करने आई थी कि अपने कार्य को छोड़कर कार्य में चिन्तित न हो जाओ कि शैतान नहीं मिल रहा। शेष बात फिर होगी।”

दोनों ने जवाब में कुछ नहीं कहा।

“काकोदर।” शांत स्वर निकला महामाया के होंठों में।

“कहो महामाया?” मध्यम-सा स्वर गूंजा उस कमरे में।

“शैतान के कार्यों को तुम संभालो। मैं चक्रव्यूह में सौदागर सिंह के पास जा रही हूँ।”

“सतर्क रहना। सौदागर सिंह बहुत क्रोध में है। शैतान की जान लेकर भी उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ। बेहतर यही होगा कि उसे खत्म करने का ख्याल छोड़कर उन तारों को बांधने की चेष्टा करना। सौदागर सिंह का इस आसमान से जाना ही ठीक रहेगा। कोई हिसाब बाकी है तो वो हम फिर भी ठीक कर सकते हैं।”

महामाया सोच में डूबी नज़र आई।

“खामोश क्यों हो गई महामाया? कुछ और मन में है?”

“नहीं काकोदर। कोई शंका नहीं मन में। ऐसा ही करूँगी मैं। जा रही हूँ।”

“मैं यहीं हूँ। आ जाना महामाया।”

उसके बाद महामाया ने आँखें बंद की और एकाएक ही वो इस तरह गायब हो गई, जैसे कभी थी ही नहीं वहाँ।

“द्रोणा।” प्रेतनी चंदा के होंठों में कम्पन हुआ।

“हाँ।” द्रोणा हो सब कुछ सपना-सा लगा रहा था।

“महामाया कितनी खूबसूरत थी।”

“हाँ। परन्तु हमें उसकी बातों पर ध्यान देना चाहिये। उसकी खूबसूरती पर नहीं।” द्रोणा ने प्रेतनी चंदा पर निगाह मारी-“महामाया की आज्ञा के मुताबिक हमें तुरन्त चक्रव्यूह में पहुँचकर, धरती से आये मनुष्यों को खत्म करना है।”

“आओ द्रोणा। महामाया की बातों से लगा जैसे पहले ही देर हो चुकी है। ये काम हमें फौरन पूरा कर देना चाहिये।”

☐☐☐

भामा परी, मोना चौधरी, पारसनाथ, महाजन तथा सोहनलाल, बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव, कच्ची सी पगडंडी पर आगे बढ़े जा रहे थे। शाम हो रही थी।

तीन घंटे हो चुके थे, उन्हें इसी प्रकार चलते हुए।

“भामा परी।” बांकेलाल राठौर कह उठा-“कबो तक इसो तरहो टांगें तुड़वा के चलतो हौवे।”

“अंधेरा होने से पहले ही हम उस रास्ते पर पहुँच जायेंगे, जहां से सीधा रास्ता आत्माओं के कैदखाने की तरफ जाता है।” भामा परी ने कहा-“उसके बाद कुछ घंटों में हम आत्माओं तक पहुँच जायेंगे। देवराज चौहान की आत्मा लेकर हम कल सुबह तक काला महल में पहुँच जायेंगे।”

“ये तो बहुत अच्छी बात है।” सोहनलाल कह उठा।

“ये सब बातें ही होएला बाप। आपुन के कान तो सुन-सुनकर थकेला।”

भामा परी ने चलते-चलते रुस्तम राव को देखा और मुस्करा कर बोली।

“वो वक्त पीछे छूट चुका है कि भटकना पड़े। अब हम जल्दी अपने काम को पूरा कर लेंगे।”

कोई कुछ न बोला।

सब आगे बढ़ते रहे।

“नीलू।” राधा पास पहुँचकर धीमे से कह उठी।

“हाँ।”

ढलती शाम के कारण मौसम ठण्डा और खुशगवार हो रहा था। मध्यम-सी हवा चलने लगी थी।

“तूने मेरी बात मान ली होती तो हमें ये सब तकलीफें न उठानी पड़ती।”

“कैसी बात?”

“जब वो भिखारी, फकीर बाबा ने तुम्हें बुलाने आया, तो तुम उसके साथ चल पड़े। तुम्हें जाते देखकर मुझे भी चलना पड़ा तुम्हारे साथ। मैंने कितना मना किया था कि मत जाओ उस भिखारी के साथ। उसकी बात मत मानो। लेकिन तब तुमने मेरी बात सुनी कहाँ?”

महाजन गहरी सांस लेकर रह गया।

“अब तो जवाब दे दो।”

“क्या?”

“कि मैंने ठीक कहा था।”

“तुमने ठीक नहीं कहा।” महाजन के होंठों पर छोटी-सी मुस्कान उभर आई।

“क्यों?”

“गुरुवर तो गुरुवर ही हैं। उनसे बड़ा कोई नहीं। बहुत एहसान हैं गुरुवर के हम पर। उनकी शक्तियाँ खतरे में थीं तो हमें अपनी कोशिश करने के लिये आगे आना पड़ा। इस काम के लिए इन्कार मुँह से नहीं निकल सकता।”

“बहुत भक्त हो गुरुवर के।”

“हाँ। भक्त बनना पड़ता है।” महाजन मुस्कराया।

“कभी देखा है गुरुवर को?”

“देखा है। पीछे देखा था। जब देवराज चौहान-मोना चौधरी तिलस्म तोड़ने के लिए गुरुवर की नगरी गये थे। पहले जन्म में बांधा (तिलस्म उन्हें अब तोड़ना पड़ा था। तब देखा था गुरुवर को-।” (तिलस्म के बारे में जानने के लिये पढ़े अनिल मोहन के पूर्व प्रकाशित उपन्यास 1. जीत का ताज, 2. ताज के दावेदार 3. कौन लेगा ताज।)

“इसका मतलब वो तुम्हारे तीन जन्म पहले के गुरुवर हैं।”

“तुम्हें याद है पहला जन्म?”

“नहीं।” इन्कार में सिर हिलाया महाजन ने-“तब नगरी में थोड़ा-बहुत पहले जन्म के बारे में याद आया था।”

“अब याद है?”

“इतना ही कि पहले जन्म में वो हमारे गुरुवर थे। उनसे हमने शिक्षा प्राप्त की थी। वो हमारा भला चाहने वाले थे।”

“समझी। उन्हीं गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल, काली बिल्ली के पास है। गुरुवर की शक्तियाँ हमें, इस वक्त मुसीबत से निकाल सकती हैं। परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं किया गया और तुमने उन्हीं गुरुवर के लिये अपनी और मेरी जान मुसीबत में डाल दी। घर पर होते तो कोफ्ते बनाकर खा रहे होते।”

“वो भी हो रहा है, गुरुवर की निगाहों में है।” महाजन ने कहा-“गुरुवर कभी भी।”

“अब अपने गुरुवर की बातों पर पर्दा मत डालो।” राधा ने तीखे स्वर में कहा-“गुरुवर को सब मालूम है तो हमें मुसीबत में पड़ने ही नहीं देते। उन्होंने तो अपनी शक्तियों वाली बाल बिल्ली को दे रखी है।”

महाजन खामोश रहा।

“अब बोलते क्यों नहीं?”

“सब कुछ तो तुमने कह दिया। मैं क्या कहूँ!”

“मैंने जो भी कहा है, सच कहा है। तुम तो नीलू...।”

“मैं चुप हूँ तो ये मत समझो कि तुम्हारी बात सही है।” महाजन ने घूंट भरा-“मैं इस मुद्दे पर बात नहीं करना चाहता।”

“क्यों?”

“कुछ बातों को तुम समझ-महसूस नहीं कर सकती-जो कि मैं देख महसूस कर सकता हूँ।”

राधा कुछ कहने लगी कि बाँकेलाल राठौर कह उठा।

“तम गुरु-चेलों की बातों में न पड़ो हो राधो। यो थारो समझनो के बातों न होवो।”

“लेकिन भैया, वो...।”

“फिरो बातो करो हो। अभ्भी...।”

भामा परी बहुत बड़े पेड़ के पार पहुंचकर रुक गई।

सब रुके।

पास ही छोटा-सा कुआँ नज़र आया, जिसका व्यास छ: फीट से ज्यादा नहीं था।

“ये क्या है?” महाजन बोला-“कुआँ है।”

राधा ने फौरन आगे बढ़कर, मुंडेर से कुएँ के भीतर झांका।

भीतर अंधेरा ही दिखा। परन्तु मुंडेर से सीमेंट की बनी सीढ़ी नीचे जाती नज़र आई।

“यह तो सीढ़ी नीचे जा रही है।” जगमोहन कह उठा।

“ये रास्ता है कहीं जाने का। कुएँ में नीचे उतरने का।” मोना चौधरी के होंठों से निकला और भामा परी को देखा-“क्या तुम हमें इसी कुएँ तक लाना चाहती थीं।”

“हाँ। कोयल ने मुझे इसी कुएँ तक आने को कहा था।” भामा परी ने मुस्करा कर कहा-“ये सीढ़ियां नीचे उतरनी हैं हम सबको। ज्यादा गहरा नहीं है कुआं। सीढ़ियां उतरते ही, रास्ता मिलेगा। उस रास्ते पर आगे जाने पर, फर्श पर बहुत बड़ा पंख पड़ा होगा। हमें उस बड़े पंख पर बैठ जाना होगा।”

“बैठकर क्या होगा?” पारसनाथ ने पूछा।

“यही पूछा था मैंने कोयल से।” भामा परी ने सब पर नज़र मारी-“जवाब में उसने यही कहा कि पंख पर बैठोगे तो वहां पहुँच जायेंगे, जहाँ आत्माओं को कैद करके रखा गया है।”

“मतलब कि हम वहाँ से देवराज चौहान की आत्मा ले लेंगे।” मोना चौधरी बोली।

“हाँ। देवराज चौहान की आत्मा तलाश करनी होगी। परन्तु वहाँ मिल जायेगी।” भामा परी ने कहा।

“फिर वापस कैसे आयेंगे?”

“इसी पंख पर बैठकर ये पंख हमें काला महल में वापस पहुँचा देगा।”भामा परी ने मुस्करा कर सब पर नज़र मारी-“मेरे ख्याल में हमें देर नहीं करनी चाहिये। वक्त खराब करने का कोई फायदा नहीं।”

“जब जाना ही होएला तो सोचेला क्या?”

“आओ।” सोहनलाल आगे बढ़ा और कुएँ की मुंडेर पर चढ़कर सीढ़ी पर खड़ा हुआ।

उसके बाद सब मुंडेर फलांग कर, सीढ़ियों पर पहुँचने लगे।

मोना चौधरी ने भामा परी को देखा।

“क्या हुआ?” भामा परी का स्वर शांत था।

“तुम उस कोयल के कहने पर इस रास्ते पर चल रही हो।”

मोना चौधरी ने कहा।

“हाँ।” भामा परी ने सिर हिलाया-“वो सच कह रही थी। भली कोयल थी वो।”

“ये सौदागर सिंह का चक्रव्यूह है।” मोना चौधरी ने गम्भीर स्वर में कहा-“वो कोयल धोखा भी तो हो सकती है।”

“अगर हम सोचते रहे कि कोयल धोखा है या कुछ और धोखा है तो हम कुछ नहीं कर पायेंगे। किसी न किसी पर तो विश्वास करके चलना ही होगा। अगर हम हर चीज को धोखा मानेंगे तो मंजिल पर कभी नहीं पहुंच सकेंगे।”

“बात तो फिट बोलो हो।”

“इधर कुआँ होएला, उधर खाई होईला।”

मोना चौधरी ने सीढ़ियां परखी, सबको देखा।

“आ जाओ। ये वक्त हमारे एक साथ रहने का है।” सीढ़ी पर खड़ा जगमोहन गम्भीर स्वर में कह उठा।

मोना चौधरी जानती थी कि रूकते या इन्कार करने का कोई फायदा नहीं है। वो आगे बढ़ी और मुंडेर पार करके सीढ़ी पर जा खड़ी हुई। नीचे जाती सीढ़ियों पर खड़े हुए थे।

भामा परी भी सीढ़ी पर आ गई।

उसके बाद सब नीचे उतरने लगे। धीरे-धीरे नीचे फैल गहरे अंधेरे में गुम होते जा रहे थे वो।

भामा परी की आँखों में चुभन से भरी, तीखी चमक आ ठहरी थी और होंठों पर जहर बुझी मुस्कान।

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पन्द्रह-सत्रह से ज्यादा सीढ़ियां नहीं थी।

सीढ़ियां समाप्त होते ही सामने बहुत ही खूबसूरत राहदारी नजर आई। राहदारी के फर्श पर रंग-बिरंगे पत्थर लगे हुए थे। जिनमें से फूटती रोशनी, वहाँ अजीब ही नजारा पेश कर रही थी। कई पलों तक वे सब ठिठके ये अभूतपूर्व दृश्य देखते रहे।

“नीलू। फर्श में हीरे लगे हैं क्या, जो रोशनी फूट रही है इनमें?”

“उखाड़ लाये। थोरे थोबड़े परो तो बोत सजो हो हीरे।”

“भैया।” राधा मुँह बनाकर कह उठी-“मजाक मत करो। मैं गम्भीर हूँ।”

“अब भी गम्भीरो ही हौवे।”

“अजीब-सी जगह और अजीब रास्ता है।” मोना चौधरी कह उठी-“फर्श पर लगे ऐसे रोशनी वाले पत्थर कभी नहीं देते।”

“इस रास्ते के आगे अवश्य कोई खास बात है।” पारसनाथ बोला-“तभी ये राहदारी सबसे अलग है।”

“ठीक कह रहे हो।” भामा परी कह उठी-“ये रास्ता आत्माओं के कैदखाने की तरफ जाता है। तभी तो रास्ते में ये सारी सजावट कर रखी है। सजावट है ये आने वाले के लिये।”

सोहनलाल और जगमोहन की नज़रें मिलीं।

“मुझे तो खतरा महसूस हो रहा है।” सोहनलाल ने गहरी सांस ली।

“खतरा तो है ही हर तरफ। जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा-“यहाँ तो अगले पल की खबर नहीं।”

“सच बात कहूँ जगमोहन।” सोहनलाल ने कहते हुए गोली वाली सिगरेट सुलगाई।

“क्या?”

“मुझे नहीं लगता कि देवराज चौहान जिन्दा मिल पायेगा। हम गलत रास्ते पर हैं। मरने वाले जिन्दा नहीं होते।”

जगमोहन ने सोहनलात की आँखों में झांका। कई पलों तक दोनों देखते रहे एक-दूसरे को। जगमोहन की आँखों में पानी चमका तो उसने फौरन मुँह फेर लिया।

“सच को स्वीकारो और हिम्मत से काम लो।” सोहनलाल ने होंठ भींचकर कहा।

“सच बात तो ये है कि मेरे मन ने पूरे विश्वास के साथ कभी भी नहीं कहा कि देवराज चौहान जिन्दा हो जायेगा। जगमोहन दिल पर पत्थर रखकर भर्राये स्वर में कह उठा-“लेकिन खुद को हौसला देने के लिये मैं सबकी हाँ में हाँ मिलाता जा रहा हूँ कि देवराज चौहान की आत्मा को लाकर उसे जिन्दा किया जा सकता है। खुद को सुखद धोखे में रखा है मैंने।”

सोहनलाल होंठ भींच कर रह गया।

“कभी-कभी खुद को धोखे में रखना ही पड़ता है।” पीछे से महाजन गम्भीर स्वर में बोला-“जब कोई बात हद से बाहर हो जाये तो धोखे से भरी सोच बहुत खूबसूरत लगती है। ये सोचने में क्या हर्ज है कि देवराज चौहान कभी जिन्दा हो जायेगा।”

जगमोहन ने महाजन को देखा फिर मुँह फेर लिया।

“छोरे। सुनना। तन्ने।” बांकेलाल राठौर की आवाज कांप-सी उठी।

“सुनेला बाप।” रुस्तम राव की आंखों में आंसू आ ठहरे-“दिल पर पत्थर रखकर सुनेला।”

“तंम को का लगो कि देवराज चौहान जिन्दा हो जायी?”

“वो जिन्दा होएला। पक्का जिन्दा होएला बाप ।”

“सचो बोलूं छोरे।”

“कहेला बाप।”

“म्हारे को तो लागो कि अंम भी न बचो। वो का जिन्दा हौवे।” रुस्तम राव ने दाँत भींचकर मुँह घुमा लिया।

“ईब थारें थोबड़ों पर स्टीकर कांये को चिपक गयो।”

“चुप होएला बाप। जवाब देने में दिल में दर्द होएला।”

“मैं भी तो यही कहती हूँ कि मरने वाला जिन्दा नहीं हो सकता।” राधा कह उठी-“मेरी कोई सुनता ही नहीं।”

तभी भामा परी कह उठी।

“यहां से आगे चलते हैं। कोयल के कहे मुताबिक हम देवराज चौहान की आत्मा को लेकर, सुबह तक आराम से काला महल में पहुँच जायेंगे। इधर खड़े रहकर हम वक्त बरबाद कर रहे हैं।”

उसके बाद सब उस रास्ते पर आगे बढ़ गये।

थकान उन पर हावी होती जा रही थी।

तीन घंटे हो गये थे उन्हें चलते हुए। गैलरी समाप्त होने का नाम नहीं ले रही थी। अभी तक कहीं से भी आसमान नज़र न आया था। गैलरी में न तो खिड़की थी। न दरवाजा। अब वे इतना आगे आ चुके थे कि वापस जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। पसीने से भीगे शरीर। जिस्म में थकान से भरा कम्पन।

“बस।” सोहनलाल कह उठा-“बहुत हो गया। अब आराम करना जरूरी है मेरे लिये।”

सब रुक गये।

“चल-चल के मेरी तो सारी एनर्जी ही खत्म हो गई है।” राधा कह उठी।

“मंजिल पास आई तो थक गये।” भामा परी मुस्करा पड़ी-“वो देखो, ठीक सामने, तीखी नीली रोशनी चमकती नज़र आ रही है। कोयल ने बताया था कि उस रोशनी से बांई तरफ मुड़ते ही सोने का दरवाजा दिखाई देगा। उस दरवाजे के पार आत्माओं को कैद रखा गया है। वहीं देवराज चौहान की आत्मा है।

इन शब्दों के साथ ही सबके चेहरों पर राहत के भाव उभर आये।

“तुमने तो कहा था कि पंख मिलेगा। उस पंखे पर बैठ कर हमें आगे-।”

“हाँ। मुझे जो कोयल ने बताया, मैंने तुम लोगों से कह दिया।” भामा परी गम्भीर स्वर में कह उठी-“कोयल ने मुझे ये भी कहा था कि अगर पंख न मिले तो चिन्ता की बात नहीं। सोने के दरवाजे से भीतर प्रवेश करके, देवराज चौहान की आत्मा लेने के बाद, ऐसा कुछ मिलेगा, जो सबको काला महल तक फौरन पहुँचा देगा।”

कुछ क्षणों के लिये कोई भी कुछ नहीं बोला।

“नीलू।” राधा धीमे से बोली-“तेरे को भामा परी की बातें अजीब-सी नहीं लग रहीं।”

महाजन ने राधा को देखा। कहा कुछ नहीं।

“मेरी बात का जवाब तो दे। मैं ठीक कह रही हूँ या गलत?”

“मैं तो कुछ भी ठीक से सोच-समझ नहीं पा रहा।” महाजन शब्दों को चबाकर कह उठा-“शैतान के आसमान पर आने के बाद मैं व्याकुल हुआ हूँ। देवराज चौहान की मौत के बाद हमारे सारे कार्य थम गये हैं।”

“बात तो तेरी ठीक है।” राधा सिर हिला कर बोली।

“छोरे।” बांकेलाल राठौर ने धीमे से कहा-“म्हारे को कुछो भी अच्छो न लगो।”

“समझा देई बाप।”

“अंम समझो तो थारे को समझायो।” बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुँच गया-“मैंने तो हटो भामो परो म्हारे मामले के ज्यादों भीतरों न घुसो हो। ई म्हारी कमाण्डो बनो के आगे-आगे दौड़ो हो।”

“तुम भामा परी पर शक करेला?”

“आये तो बात करो हो। थारे को म्हारी बात न जंचो तो अंम चुप हो जायो।”

“भामा परी बोत अच्छी होएला। वो तो-।”

तभी भामा परी का स्वर सबके कानों में पड़ा।

“अगर थोड़ा-सा नहीं चल सकते तो बेशक आराम कर लो। वैसे उस नीली रोशनी तक हम पाँच मिनट के भीतर ही पहुँच जायेंगे।”

“चल सोहनलाल।” जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा-“सामने तक ही चलना है।”

सोहनलाल ने सहमति से सिर हिला दिया।

“चल्लो-चल्लो। म्हारें को दो गिलासो लस्सी मिल जाये। मक्खनो मारो के तो अंम पूरा एक महीनो चल्लो हो।”

“थोड़ा कम बाप। ज्यादा होएला।”

“ठीक। ठिको। पन्द्रह दिनों कम कहो लयो।”

वो सब पुनः आगे बढ़े।

जल्दी ही उस चमकती नीली रोशनी के पास पहुंच गये। वहाँ रास्ता खत्म हो रहा था। सामने दीवार थी। बांई तरफ रास्ता मुड़ रहा था। आगे भामा परी थी। वे सब मुड़े।

भामा परी के साथ सब ठिठकते चले गये।

सामने ही बंद दरवाजा था।

लकड़ी का पॉलिश किया, चमकदार दरवाजा। देखने भर से ही महसूस हो रहा था कि मजबूत दरवाजा है ये। वो आठ फीट ऊँचा और पाँच फीट चौड़ा दरवाजा था।

“शुक्र है।” सोहनलाल ने कहा-“कुछ तो देखने को मिला। बेशक दरवाजा ही सही।”

“ये तो बंद है नीलू।”

“दरवाजो भी म्हारो तरहो तगेड़ा हौवे।”

जगमोहन आगे बढ़ा और दरवाजे पर हाथ रखकर, पल्लों को धकेला।

धीरे-धीरे बे-आवाज पल्ले खुलते चले गये।

पल भर के लिये तो सब स्तब्ध रह गये।

किसी को आशा नहीं थी कि दरवाजा इस तरह खुल जायेगा।

सबकी निगाह खुले पल्लो के भीतर, दौड़ रही थी। जगमोहन ज़रा सा आगे बढ़ा और दरवाजे के पल्लों को पूरी तरह खोल दिया।

भीतर का नज़ारा सबको स्पष्ट दिखाई देने लगा।

रोशनी फेंकने वाले पत्थर, जैसे गैलरी के फर्श पर लगे थे, वैसे ही कमरे के फर्श पर लगे थे और वहाँ तीव्र रोशनी फेंक रहे थे। रंग-बिरंगी रोशिनयों का वहाँ ये आलम था कि हर कोई मोहित-सा हो रहा था। उनके चेहरों पर पड़ती रोशनियाँ उन्हें शक्ति का असीम एहसास दे रही थीं।

अजीब से सकून की अनुभूति हो रही थी उन्हें।

कई पल यूँ ही चुप्पी और ठगी हालत में बीत गये।

जगमोहन ज़रा सा और आगे बढ़ा और गर्दन दरवाजे के भीतर करके उस कमरे में हर तरफ नज़र दौड़ाई। वो सामान्य साईज से चार गुणा बड़ा कमरा था। हर तरफ अजीब-अजीब से रंगों की रोशनियाँ ही दिखाई दे रही थी। वहाँ कोई भी नहीं था। फर्श दीवारें और छत। कमरे में एक ही दरवाजा था, जहाँ वो खड़े थे। इसके अलावा कोई खिड़की-रोशनदान नहीं था।

अजीब-सा ही माहौल महसूस हुआ कमरे का।

“आखिर हम पहुँच ही गये, जहाँ आत्माओं को रखा जाता है। देवराज चौहान की आत्मा मिल जायेगी हमें। सुबह होने से पहले तक ही हम आत्मा को लेकर, काला महल तक पहुँच जायेंगे।”

“लेकिन यहाँ तो कुछ भी नहीं है।” जगमोहन ने पलटकर भामा परी को देखा।

“कुछ नहीं है?” भामा परी के होंठों से निकला।

“हाँ। कमरा खाली है।”

“ये कैसे हो सकता है।” कहने के साथ ही भामा परी आगे बढ़ी और भीतर प्रवेश कर गई।

“म्हारे को तो गड़बड़ा दिखो हो छोरे। भामा परी कहो हो याँ आत्मो हौवे। बोलो आत्मा हौवे। पर याँ तो कमरो खाली-खाली ही होवे। अगर आत्मों हौवे तो कुछो तो दिखो ही।”

“हो सकता है ये कमरा भी रास्ता हो आत्माओं तक ले जाने के लिये।” राधा कह उठी।

“ऐसा भी हो सकता है।”

तभी कमरे के भीतर से भामा परी की आवाज आई।

“भीतर आ जाओ। तुम सब लोग बाहर क्यों खड़े हो।”

इसके साथ ही वे भीतर प्रवेश करते चले गये। वहाँ वो सब उलझन में दिखाई देने लगे कि कोई रास्ता या वहाँ आत्मा के मौजूद होने की कोई निशानी नहीं आ रही। यहाँ पर वे क्या करेंगे।

“यहां तो कुछ भी नहीं है।” कहते हुए महाजन ने भामा परी को देखा।

सोहनलाल थका-सा नीचे बैठ गया।

“कुछ तो होगा।” भामा परी ने मुस्कान भरी निगाहों से सबको बारी-बारी देखा।

“मुझे तो कुछ भी नजर नहीं आ रहा है।” बोला जगमोहन।

“दरवाजे को बंद कर दो।”

“क्यों?”

“जैसा मुझे कोयल ने करने को कहा था। वो ही मैं कर रही हूं। दरवाजा बंद करके देखो क्या होता है।”

सबकी व्याकुल निगाह एक-दूसरे पर गई।

तभी मोना चौधरी चेहरे पर दृढ़ता के भाव समेटे आगे बढ़ी और दरवाजा बंद कर दिया।

उसी पल कमरे का फर्श बीचों-बीच से कुछ फटा और दो सिंहासन जैसी कुर्सियां बाहर निकल आईं।

उन कुर्सियों पर राजकुमार लगने वाले दो युवक बैठे थे। ये सब होता पाकर वे ठगे से रह गये।

मोना चौधरी के माथे पर बल उभरे। होंठ भींचे जाने क्या सोचकर, उसने बंद दरवाजे को पुनः खोलना चाहा। परन्तु वो नहीं खुला। जैसे दरवाजा कभी खुला ही न हो। मोना चौधरी फौरन खतरे का एहसास हुआ। तुरन्त उसकी निगाह कुर्सियों पर बैठे दोनों युवकों पर गई। जो कुर्सियों से फर्श पर उतर आये थे।”

“ये-ये क्या हो रहा है।” पारसनाथ के होंठों से निकला-“ये-ये दोनों कौन हैं?”

भामा परी के हमले की आवाज वहाँ गूंजी।

भामा परी पर निगाह पड़ते ही सबके चेहरों पर हैरानी उभरी क्योंकि उसके चेहरों पर व्यंग्य से भरी जहरीली मुस्कान थिरक रही थी। उसके इस रूप को सामने पाकर उलझन में पड़ जाना जरूरी था।

“तुम्हें क्या हुआ बाप।” रुस्तम राव की आँखें सिकुड़ी हुई थीं।

“मेरा काम खत्म हुआ।”

“क्या मतलब?” राधा के होंठों से निकला-“तुम्हारा क्या काम था, जो खत्म हो गया?”

“तुम मनुष्यों को यहाँ तक लाना था, ले आई यहाँ तक।” भामा परी पुन: हंसी।

दाँत भिंचे गये मोना चौधरी के।

जगमोहन का चेहरा भी सख्त हो चुका था।

“ये पागल हो गई लगती है।”

“कौन हो तुम?” मोना चौधरी कठोर स्वर में कह उठी-“तुम भामा परी नहीं हो सकती।”

“सही कहती हो।”

“क्या मतलब?” जगमोहन गुर्रा उठा।

“सौदागर सिंह की सेविका हूँ मैं, जिसने भामा परी का रूप ले रखा है।” कहते हुए वो हंसी-“भामा परी कब की सौदागर सिंह की कैद में पहुँच चुकी है। अब मैं चलूंगी। मेरा काम पूरा हुआ।”

“कैसा काम?” सोहनलाल उठा-“क्या चाहती थीं तुम?”

“सौदागर सिंह की तरफ से मुझे हुक्म था कि तुम सब को उस कमरे में पहुँचा दूँ। यहाँ से कोई भी बाहर नहीं निकल सकता। अब तुम सब गहरे चक्रव्यूह में पहुँच जाओगे और कभी भी बाहर नहीं।”

“कब कैद किया तुमने भामा परी को?”

“जब वो तुम लोगों के लिये रास्ता देखने गई थी। रास्ते में ही उसे कैद करके छोटे से पिंजरे में रख लिया और उसके रूप में, मैं तुम सबके सामने आ गई।” भामा परी ने व्यंग्य भरे स्वर में कहा।

तभी दाँत किटकिटा कर मोना चौधरी ने प्रेतनी चंदा का खंजर निकाल लिया।

“रहने दो मोना चौधरी।” वो कह उठी-“मुझ पर वार करने की भूल मत कर बैठना। जो भी वार तुम मुझ पर करोगी, वो उल्टा होकर तुम पर चलेगा। मैं जिस्म नहीं कि खंजर अपना रंग मुझ पर दिखा सके।” इसके साथ ही उसने आँखें बंद की तो देखते ही देखते वो पलों में हवा में ऐसे घुल गई, जैसे वो वहाँ कभी ही थी न।

सन्नाटा-सा रह गया वहाँ।

मोना चौधरी खंजर पकड़े न समझने वाले ढंग में खड़ी रह गई।

“वो-वो तो गायब हो गई नीलू। भूतनी होगी वो।”

“भाग गयो भूतनी। अंम तो वड दे तो अगर खो हाथ लगा दो।”

अब सबकी निगाह राजकुमार जैसे युवकों पर जाने लगी।

“ये दोनों छारे तो म्हारे गुरदासपुरो के न लागो हो। बॉर्डर के आस-पासो को भी न होवे। क्यों छोरे?”

“बाप। आपुन को तो यो पुराने मौडल लगेईला।”

“कौन हो तुम दोनों?” महाजन ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा।

परन्तु दोनों युवक तो अपने में ही व्यस्त थे। धीमे से वे आपस में बात करने में व्यस्त थे।

“का खुसरो-फुसरो करो हो।” बांकेलाल राठौर ने खा जाने वाले स्वर में कहा-“अंम थारो मड़ो थोपड़ो देख न आयो हो याँ पे। चाचो न पाणी। बैठनो को याँ ये कुर्सी न पलंगो।”

तभी उन दोनों युवकों ने आपस में सिर ऐसे हिलाए जैसे फैसला कर लिया हो। फिर सबको देखा।

“धोखे में आ फंसे हम।” पारसनाथ सख्त खुरदरे स्वर में कह उठा।

“अब क्या होगा नीलू, ये पागल से दिखने वाले दोनों कौन हैं?” राधा कह उठी।

“हम पागल नहीं हैं।” उनमें से एक बोला।

“बहुत समझदार हैं हम। सौदागर सिंह भी हमारी समझदारी पर कायल है।” दूसरे ने कहा।

“बाप।” रुस्तम राव दोनों को घूरता कह उठा-“दोनों के मूं में जुबान भी होईला।”

मोना चौधरी एक कदम आगे बढ़ी और दाँत पीसकर कह उठी।

“कौन हो तुम दोनों? वो कौन थी, जो भामा परी बनकर हमारे साथ थी।”

“वो सौदागर सिंह की सेविका थी। उसका काम तुम दोनों को यहाँ तक लाना था। वो अपना काम पूरा कर गई।” एक ने मुस्करा कह कहा-“रही बात हम दोनों की तो, कब से हम किसी कन्या का इन्तजार कर रहे थे। तीन सौ बरस हो गये। अब एक क्या दो-दो कन्या आ गई हैं।” उसने राधा पर निगाह मारी।

“क्या।” राधा हड़बड़ा कर कह उठा-“मैं कन्या-मुझे कन्या कह रहा है।”

“अवश्य।”

“दिमाग तो नहीं खराब हो गया तुम्हारा।” राधा भड़क उठी-“मैं-मैं जनानी हूँ।”

“जनानी?”

“हाँ। जनानी। पंजाब में। हिन्दी में औरत कह लो। मैं ब्याहता हूँ। ब्याहता को कन्या नहीं कहते।”

“लेकिन ये तो कन्या है।” एक ने दूसरे को देखा।

“अवश्य। कन्या ही है ये। कन्या ऐसी ही होती है। उसका ऊपर से शरीर ऐसा ही होता है और-।”

“आगे बोल।” शब्दों को चबाकर कह उठी मोना चौधरी-“आ गई दो-दो कन्या क्या करेगा हमारा?”

दोनों दाँत फाड़कर हंस पड़े। एक दूसरे को देखा।

“सौदागर सिंह ने कहा था कि जब कन्या के साथ सम्भोगरत नींद लेंगे तो वो हमें अपनी कैद से आजाद कर लेगा। अगर हम अलग-अलग कन्याओं के साथ सम्भोगरत नींद लेंगे, वो हमें बहुत-सा धन देगा। मेरे सामने दो-दो कन्या हैं। तुम दोनों के साथ सम्भोगरत नींद लेकर मैं सौदागर सिंह से धन लूंगा।”

“मैं भी।” दूसरा कह उठा-“कितना मजा आयेगा फिर तो-।”

“नीलू। देख तो क्या कह रहा है। घर में इसके माँ-बहन नहीं है जो।”

“हम दोनों अकेले ही हैं।” एक ने कहा।

“कमीनों मैं ब्याहता हूँ। मेरी शादी हो चुकी है।” राधा कह उठी-“मेरा मर्द है।”

महाजन के होंठों पर मुस्कान उभरी।

“हमें भी तुम दोनों कन्याओं का मर्द बनना है कुछ देर के लिये।”

राधा ने सकपका कर महाजन को देखा।

“शांत रहो राधा।” महाजन ने सिर हिलाया-“यहाँ कुछ भी सत्य नहीं। हर चीज चक्रव्यूह का हिस्सा है।”

“तो क्या ये दोनों भी चक्रव्यूह के...।”

“हाँ। यहाँ सब कुछ चक्रव्यूह के निशान बिखरे।”

तभी बांकेलाल राठौर उन युवकों से कह उठा।

“पेले तक म्हारे संग सम्भोगरत नींद लेयो हो। अंम थारे को चैक करो हो।”

“म्हे को?” एक के होंठों से निकला।

“थारे संगी-साथो को भी।”

उसी पल मोना चौधरी ने गुस्से में उन पर छलांग लगा दी।

उनसे टकराते हुए, उनके साथ नीचे गिरी तो दोनों ने फुर्ती के साथ उन्हें दबोच लिया। एक ने दूसरे को देखा और मुस्करा कर कह उठा।

“देखा। मैंने पहले ही कहा था कि ये कन्या ज्यादा दम-खम वाली स्वस्थ है। ये मेरे लिये ठीक रहेगी।”

“मेरी नज़रों में तो दूसरी कन्या ज्यादा स्वस्थ है। मैं उसी को।”

“हाय राम।” राधा के चेहरे पर गुस्सा उभरा-“ये तो बहुत बड़े कुत्ते हैं।”

“अंम थारे को “वडो” हो।” बांकेलाल राठौर ने खतरनाक स्वर में कहा और उन दोनों की तरफ बढ़ा।

जगमोहन भी खतरनाक ढंग से उनकी तरफ बढ़ा।

तभी उन दोनों ने, जहाँ से कुर्सियां बाहर निकली थी, मोना चौधरी को छोड़कर, उस जगह के भीतर छलांग लगा दी। मोना चौधरी फुर्ती से उठ खड़ी हुई।

“दुमो उठा के भाग गयो।”

कोई भी उन दोनों को पकड़ नहीं पाया। दोनों नीचे कूद गये थे।

जगमोहन ने उस जगह के भीतर झांका।

आठ फीट नीचे ही कोई कमरा-सा नजर आया। जहाँ वे दोनों खड़े मुस्कराते हुए ऊपर की तरफ देख रहे थे। अन्य सब भी वहाँ पहुँच कर, नीचे देखने लगे थे।

“हम जानते हैं तुम लोग देवराज चौहान की आत्मा को लेने आये हो।”

“ईब तो अंम देवराज चौहान की आत्मो के साथो थारी आत्माओं को भी ले के जायो हो।” बांकेलाल राठौर ने खतरनाक स्वर में कहा और उस जगह से नीचे कूद पड़ा।

“बाप। ये क्या करेला।” रुस्तम राव चीखा।

☐☐☐

नीचे कूदते ही बांकेलाल राठौर लड़खड़ाया, फिर संभल गया। तभी उसने दोनों को वहां दिखाई दे रहे एक दरवाजे की तरफ भागते पाया और देखते ही देखते वो उस दरवाजे के भीतर प्रवेश कर गये और दरवाजा बंद हो गया। बांकेलाल राठौर भागा। परन्तु दरवाजा पक्की तरह बंद हो चुका था।

वो उस दरवाजे को नहीं खोल पाया।

उसके अलावा कमरे में कोई और दरवाजा नहीं था।

बांकेलाल राठौर ने छत के कटे हिस्से के ऊपर देखा। नीचे झांकते सबके चेहरे दिखे।

“ईब खड़ो-खड़ो का देखो हो। नीचो आ जायो। वो लंगोट उठा के भाग लयो।”

“कहाँ गये दोनों?” सोहनलाल ने पूछा।

“उधरो दरवाजो में चलो गयो। दरवाजो बितानी सीमेंट लगा के बंद हो गयो।”

बांकेलाल राठौर के शब्दों पर वे एक-दूसरे को देखने लगे।

“मेरे ख्याल में नीचे जाने पर हमें किसी नये खतरे का सामना करना पड़ेगा।” मोना चौधरी एक-एक शब्द चबाकर कह उठी-“बांके-तुम ऊपर ही आ जाओ।”

“इसके ऊपर आ जाने का क्या फायदा। यहाँ तो कोई रास्ता नहीं कि हम वापस जा सकें।” जगमोहन बोला-“हमें देर-सवेर में नीचे ही जाना पड़ेगा। वो दोनों नीचे कूदकर, हमें अपने पीछे आने का इशारा कर गये हैं।”

कई पलों के लिए वहाँ चुप्पी-सी छा गई।

“जगमोहन ठीक कहता है।”

“लेकिन इस तरह तो हम फंसने जा रहे हैं।” पारसनाथ बोला।

“इसके अलावा हम कर भी क्या सकते हैं।” जगमोहन ने शब्दों को चबाकर कहा-“हमारे बस में कुछ नहीं है। कोई रास्ता नहीं है हमारे सामने। जो है, उस पर ही आगे बढ़ना होगा।”

“नीलू। बात तो जगमोहन भाई साहब की ठीक ही है।” राधा ने गम्भीर स्वर में कहा-“दूसरा रास्ता नहीं तो इसी पर आगे बढ़ना पड़ेगा।”

“म्हारी बहनो फिट बात कहो हो।” नीचे से बांकेलाल राठौर ने कहा।

मोना चौधरी के दाँत भिंचे हुए थे। आँखों में सुर्खी ठहरी हुई थी।

“सोचकर वक्त बरबाद करने का कोई फायदा नहीं।” सोहनलाल बोला-“आओ नीचे चलें।”

जगमोहन और मोना चौधरी की नज़रें मिलीं।

“दूतो देरों में तो अंम पूरी दुनियों का फेरा लगा आयो।”

“आओ।” मोना चौधरी ने कहा और आगे बढ़ कर नीचे कूद गई।

फिर एक-एक करके सब नीचे, बांकेलाल राठौर के पास आ पहुँचे।

“वो दोनों किधर गये?” पारसनाथ ने पूछा।

“उधरो। वो रमो बितानी सीमेंट वालो दरवाजो-।”

बारी-बारी सबने उस दरवाजे को चैक किया।

परन्तु वो तो हिला भी नहीं।

“कोई फायदा नहीं।” मोना चौधरी बोली-“हमें अपनी पसन्द का रास्ता नहीं मिलेगा। जो रास्ता दिखाया जायेगा, उसी पर ही चलना है हमें। हम आजाद होकर भी, सौदागर सिंह की कैद में, उसके इशारे पर चल रहे हैं।”

“फंस ही गये सब।”

इस आवाज पर सबने चौंक कर ऊपर देखा।

दोनों युवक ऊपर से नीचे झांकते नज़र आये।

“तुम दोनों-।”

“ये ऊपर कैसे पहुँच गये?”

“हम तो कन्याओं को देख रहे हैं। आह! दोनों कितनी खूबसूरत हैं। परन्तु इनसे हम सम्भोरत नहीं हो सकते।”

“उल्लू के पठेला। तेरी तो...।” रुस्तम राव ने कहना चाहा।

“ये मनुष्य तो बहुत गुस्सा करते हैं।” युवक बोला।

“हाँ। सुना है पृथ्वी के लोग गुस्से में आग में भी जाते हैं।” दूसरे युवक ने कहा।

“मैं तो नहीं कूदता। ये जीवन बार-बार नहीं मिलता। मैं तो जीवन संवार कर रहूँगा।”

“इसे रास्ते को बंद कर दे। ताकि ये अपने रास्ते पर जाये। हमें और भी काम करने है।”

इसके साथ ही दोनों पीछे हट गये।

फिर वो फर्श बंद होने लगा-जिसमें से दोनों कुर्सियों पर बैठे-बैठे बाहर निकले थे।

“ये क्या करेला बाप।”

“फंस गये।”

छत का हिस्सा बंद हो चुका था।

दोनों युवक नज़र आने बंद हो गये थे।

पल भर के लिये वहाँ गहरा सन्नाटा छा गया।

“लगता है, बहुत बुरे फंस गये हैं।” जगमोहन के होंठों से निकला।

“लगता नहीं, पक्के ही फंस गये हैं।” पारसनाथ खुरदरे-कठोर स्वर में कह उठा।

“यहाँ से कहाँ जायेंगे नीलू ।” राधा बोली-“कोई रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा।”

तभी तीव्र कम्पन हुआ।

सब लड़खड़ाए। संभले।

“ये क्या हो रहा है।” सोहनलाल के होंठों से निकला।

“खतरा।” मोना चौधरी होंठ भींच कर कह उठी।

कम्पन पुनः हुआ।

फिर मध्यम-मध्यम-सा कम्पन होता रहा।

“ये कम्पन कैसा?” महाजन ने हर तरफ नज़रें घुमाकर कहा-“ऐसा लग रहा है, जैसे कमरा भरभराकर गिर जायेगा।”

“बहुत बड़ी मुसीबत सिर पर आने वाली है।” मोना चौधरी कह उठी।

“सौदागर सिंह की सेविका ने भामा परी का रूप धारण करके हमें फंसा दिया।” जगमोहन भिंचे स्वर में बोला।

“बहुत सोच-समझ कर सौदागर सिंह ने हमारे साथ ये चाल चली है।” सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा-“वो नहीं चाहता कि हम उसके चक्रव्यूह में मौजूद रहें। इधर-उधर जाते-आते रहें।”

“लेकिन...।”

तभी तीव्र कम्पन हुआ। मध्यम-सी ना समझ में आने वाली घर्र-घर्र की आवाज उन्हें सुनाई देने लगी। ऐसा लग रहा था, जैसे कमरा कहीं सरक रहा हो।

सब सवालिया निगाहों से एक-दूसरे को देखने लगे।

“ये कमरा चल रहा है।”

“हाँ। ट्रेन के डिब्बे की तरह कहीं बढ़ता महसूस हो रहा है।” महाजन के होंठों से निकला।

मोना चौधरी उसी पल फर्श पर लेटी और फर्श से कान लगा लिया।

सोहनलाल ने भी ऐसा ही किया।

सब गम्भीर-बेबस निगाहों से एक-दूसरे को देख रहे थे।

“ये कमरा किसी दिशा की तरफ आगे बढ़ रहा है।” मोना चौधरी उठते हुए बोली।

“ये कैसे हो सकता है।” जगमोहन के माथे पर बल नज़र आने लगे।

“कमरे का हिलना और फर्श के नीचे से आती आवाजों से ऐसा ही आभास होता है।” मोना चौधरी ने उसे देखा।

जगमोहन फौरन जवाब में कुछ नहीं कह सका।

“छोरे।”

“हाँ बाप। ये तो लफड़ा होएला, लगेईलान।”

“अये तो बिनो टिकटो यात्रो करो हो।”

“वो तो ठीक होएला बाप। पण आपुन लोग किधर को जाईला?”

“मुफ्ती की सैर में ये नेई देखो हो कि गाड़ी किधर को जायो। सैरा ही करो बसो।”

“आपुन को तो महसूस होईला कि मरने का त्रेगुम बनेला सब लोगों का बाप।”

बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर जा पहुंचा।             

“बाप।”

“बोलो छोरे।”

“वो दरवाजा खोईला बाप। तोड़ेला उसे।”

“म्हारे को बोत देरो से मकखनो का गोलो डालो के लस्सी न मिल्लो हो। म्हारी पावर कमजोर हो गये हो। पैले सबो ट्राई करो। अंम बादों में ट्राई मारो हो।”

फर्श पर कान लगाए लेटे, सोहनलाल से जगमोहन ने कहा।

“सोहनलाल।”

सोहनलाल ने फर्श से कान हटाया और उठ खड़ा हुआ। चेहरे पर गम्भीरता थी। गोली वाली सिगरेट सुलगा कर उसने सबको देखा। जगमोहन पर नज़रें जा टिकीं।

“क्या हुआ?” जगमोहन ने पूछा।

“कमरे के नीचे पटरियों जैसी कोई चीज है।” सोहनलाल बोला-“मुझे भी ऐसे ही लगा था।”

“असम्भव बातें कर रहे हो तुम लोग।” पारसनाथ कह उठा।

“इधर कुछो भी असम्भवों न होवे। जो हौवे, वो ही कम लगो हो।”

तभी वो सब जोरों से लड़खड़ा कर बांई तरफ झुके। फिर फौरन ही संभल गये।

“ये क्या हुआ?”

“ऐसा तो तब होता है, जब बस मोड़ पर मुड़ती है और उसमें खड़े लोग लड़खड़ाते हैं।” जगमोहन बोला।

“हाँ-हाँ! मैं भी यही कहने वाली थी।” राधा कह उठी।

सोहनलाल ने कश लिया। वो बेहद गम्भीर दिखाई दे रहा था।

“तुम-तुम कैसे कह सकते हो सोहनलाल कि नीचे पटरियों जैसी कोई चीज है।” जगमोहन ने पूछा।

“फर्श के नीचे वैसी ही खड़-खड़ की आवाज आ रही है, जैसे ट्रेन चलने पर उभरती है।” सोहनलाल कह उठा-“कमरा भी किसी ट्रेन के डिब्बे की तरह चल रहा है। चलते हुए ये कमरा कहीं मुड़ा है। तभी हम अभी जोरों से लड़खड़ाये थे। इससे जाहिर है कि पटरियों पर कमरे के चलने की रफ्तार बहुत तेज है।”

“मतलब कि हम किसी दिशा की तरफ बढ़ रहे हैं।” जगमोहन के होंठ भिंचे गये।

“जाहिर है।”

कुछ पलों के लिये तो किसी के पास कहने को कुछ नहीं था।

“हम किसी भी हालत में कमरे को रोक नहीं सकते?” राधा बोली।

“रोकने की जरूरत क्या है।” महाजन बोला-“यहाँ सिर्फ दो ही चीजें हैं। मुसीबत और मौत...।”

“अब ये तो बात स्पष्ट है कि हम चक्रव्यूह के किसी गहरे हिस्से में फंसने जा रहे हैं। सौदागर सिंह की ये हरकत बहुत ही खतरनाक होगी। अपनी तरफ से वो कोई छोटी हरकत नहीं करेगा।” मोना चौधरी ने गम्भीर स्वर में कहा-“सौदागर सिंह की किसी चाल को काट पाना आसान नहीं हैं।

“छोरे।” बांकेलाल राठौर गम्भीर किन्तु पैने स्वर में कह उठा-“एको बातो बोलूं का?”

“कहेला बाप।”

“थारे को इसलिये बतायो कि भारा दिल मजबूत होवो।”

“बात क्या होएला बाप?”

“म्हारो में से कोईयो न बचो हो। सबो मरो। ये कमरो सबो को मौतो के मुँह में ले जायो हो।”

रुस्तम राव होंठ भींचे, बांकेलाल राठौर को देखने लगा। चेहरे पर विवशता आ ठहरी थी।

“जितो भी म्हारे गलो मिलनो हो, मिल्लो ले। बादों का कोईयो भरोसा न होवे।”

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