चाहे हमें कोई कितना भी लालच क्यों न दे, मगर हम किसी भी कीमत पर अपने इस अनोखे पात्र का नाम लिखकर अपने प्यारे पाठकों की जिज्ञासा, उत्कंठा और दिलचस्पी पर तुषारापात नहीं करेंगे। हां, इतना वादा करते हैं कि आगे चलकर जल्दी से हम उसका नाम खोल देंगे। जब तक हम उसका नाम आप लोगों को न बताएं, तब तक आप जरा अपने दिमाग को कष्ट देकर पहचानने की कोशिश करें। अगर आपने पहचान लिया तो निश्चय ही आप तीव्र बुद्धि के स्वामी हैं। हां, तो आएं हमारे साथ और देखे इसे ।


अरे ! इनका तो हुलिया ही बता रहा है कि ये महाशय बहुत दिन से इसी कैद में आराम फरमा रहे हैं। सारे कपड़े मैले हो चुके हैं। ये महाशय अव्वल नम्बर के ऐयार हैं, लेकिन बेचारे के पास इस समय अपनी ऐयारी का बटुआ तक नहीं है। अगर इन महाशय पर बटुआ होता तो हम समझते हैं कि इतने दिन तो क्या, ये कुछ देर भी इस कैद में रहने वाले नहीं थे। मगर फिर भी ये महाशय यूं ही चुपचाप इस कैद में नहीं पड़े हैं। कैद से छुटकारा पाने का काफी लम्बे समय से निरन्तर प्रयास कर रहे हैं ।


खैर, यह बात तो बाद में बताएंगे, पहले जरा इनका और उस जेलखाने का हुलिया लिख देना हम जरूरी समझते हैं। तो देखिए, आपके खासे लम्बे-चौड़े जिस्म पर एक कुर्ता और धोती है। दोनों ही कपड़े जगह-जगह से फट चुके हैं। इस कैद में आने से पहले यहां महाशयजी के सिर पर एक पगड़ी भी थी, किन्तु उन्हें कैद करने वालों ने वह भी नहीं छोड़ी, क्योंकि उन्हें कैद करने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि वे अव्वल दर्जे के ऐयार हैं और पगड़ी से ही कमन्द का काम ले लें तो किसी प्रकार के आश्चर्य की बात नहीं है ।


वे एक छोटी-सी कोठरी में बन्द हैं। कोठरी के एक कोने में एक चारपाई पड़ी है। कोठरी में तीन तरफ मजबूत दीवार है और चौथी तरफ मजबूत लोहे के सरिए का दरवाजा । लोहे के सरियों के बीच केवल इतना ही फासला है कि वे आराम से बाहर निकल सकते हैं। मगर इस पर भी वे अपनी ऐयारी का करिश्मा नहीं दिखा सकते ।


उन्हें अच्छी तरह उस दिन की घटना याद है – जब उमादत्त के एक ऐयार रूपलाल ने उन्हें धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया था । वैसे तो ये किसी के पंजे में इतनी सरलता से फसने वाले नहीं थे किन्तु क्या करें दुश्मन ने धोखे से बन्द कर दिया ।


जब होश आया तो उन्होंने खुद को उमादत्त के सामने पाया ।


भरे दरबार में राजा उमादत्त ने उन्हें अपनाना चाहा, लेकिन ये महाशय नहीं माने और क्रोध में राजा उमादत्त को गालीरूपी अलंकारों से अलंकृत कर दिया। जिस पर उमादत्त को भी क्रोध चढ़ गया और इन्हें इस कैद में डाल दिया गया ।


यह समय रात का है और कोठरी में एक चिराग टिमटिमा रहा है।


ये महाशय जानते हैं कि अभी एक आदमी इनके लिए खाना लेकर आता होगा। ये उसी की इन्तजार में हैं, सोच रहे हैं कि कब वह आए और खाना देकर चला जाए ताकि ये अपने काम में लग जाएं ।


कुछ देर तक ये यूं ही अपनी चारपाई पर पड़े-पड़े सोचते रहते हैं । फिर प्रति रात की भांति एक आदमी खाने की थाली लेकर उनकी सेवा में उपस्थित होता है। प्रति रात की भांति ही वह महाशय को सरियों के बीच में से रोटियां और दाल का एक कटोरा थमा देता है ।


पहले दिन का दाल का कटोरा वे महाशय उस सेवक को लौटा देते हैं । सेवक जैसे गूंगा हो इस प्रकार चुपचाप कटोरा और थाली लेकर वापस लौट जाता है।


हम यह कहना नहीं भूलेंगे कि इन महाशय के साथ हर रोज यही क्रिया होती है। सेवक थाली में रोटी और सब्जी का कटोरा लेकर आता है। रोटी और कटोरा देकर पहला कटोरा और थाली लेकर वापस चला जाता है। नित्य-कर्मों से निवृत्त होने हेतु कोठरी में ही एक तरफ स्नान-गृह और शौचालय बना हुआ है।


सेवक के चले जाने पर महाशय भोजन करना शुरू कर देते हैं । सारी रोटी पेट में पहुंचाकर कटोरा भी खाली कर देते हैं और स्नान गृह में जाकर एक मांट (घड़े) से पानी पीते हैं तथा कटोरा धो लेते हैं । इस प्रकार पेट-पूजा कर ये महाशयजी आराम से बिस्तर पर लेट जाते हैं । इसी प्रकार लेटे-लेटे काफी देर हो जाती है तो चिराग बुझा देते हैं । अब साहेबान की कोठरी में अन्धकार हो जाता है ।


कुछ देर वे अंधेरे में ही अपने बिस्तर पर लेटे रहते हैं। रात का एक पहर बीत चुका है। वे चुपचाप अपने स्थान से उठते हैं। अंधेरे में टटोलकर चिराग और चकमक उठाकर धोती की लांग में छुपा लेते हैं । सावधानी के साथ चारपाई की बाही निकाल लेते हैं। और स्नानगृह की ओर चल देते हैं। स्नानगृह में पहुंचकर वे किवाड़ अन्दर से बन्द कर लेते हैं और चकमक द्वारा चिराग जला लेते हैं ।


स्नानगृह की धरती से अपनी शक्ति का प्रयोग करके एक पत्थर निकालकर एक तरफ रख देते हैं। अब धरती में एक खोखला भाग उभर आता है। वे महाशय उसी में उतर जाते हैं। अब हमारी समझ में आया कि यह एक सुरंग है, जिसे ये महाशय उसी दिन से तैयार करने में लगे हुए हैं, जिस दिन से इस कैद में हैं। एक हाथ में चिराग और दूसरे हाथ में चारपाई की बाही लिये ये महाशय छोटी-सी सुरंग में रेंगते-से आगे बढ़ते हैं। थोड़ी ही देर में उस स्थान पर पहुंच जाते हैं जहां तक ये सुरंग तैयार कर चुके हैं।


हमारे ख्याल से ये सुरंग तीस हाथ लम्बी तैयार कर चुके हैं।


चिराग को एक तरफ रखकर वे चारपाई की बाही से सुरंग खोदने लगते हैं। जब काफी मिट्टी हो जाती है तो उसे सुरंग की दोनों दीवारों से सटाते जाते हैं। हालांकि इस काम में उन्हें बुरी तरह पसीना आ जाता है, किन्तु उनके दिमाग में इस कैद से भागने की धुन है, अतः प्रयत्नशील हैं।


इसी प्रकार उन्हें सारी रात बीत जाती है ।


उस समय सुबह के पांच बजे हैं, जब वे सुरंग को बीच में छोड़कर स्नानगृह में आ जाते हैं । वही पत्थर उठाकर पुनः सुरंग का रास्ता ढंक देते हैं और बाही का वह किनारा जिस पर मिट्टी लगी हुई है, अच्छी तरह धोते हैं। उसके बाद चिराग बुझाकर कोठरी में आते हैं और बड़ी कारीगरी के साथ खाट की बाही वह पुनः पहले की भांति बानों (रस्सी) में लगा देते हैं । इसके बाद वे चारपाई पर इस प्रकार लेटते हैं जैसे लम्बे समय से सो रहे हों । हमारे प्रेमी पाठक समझ गए होंगे कि इन महाशय की यह प्रत्येक रात की क्रिया है । हम पाठकों का अधिक समय बर्बाद न करके दूसरी रात का किस्सा लिखते हैं। प्रति रोज की भांति ही वह चिराग और बाही लेकर सुरंग के अन्दर पहुंच जाते हैं। उस समय रात का अन्तिम पहर चल रहा है, जब सुरंग पार निकल जाती है । 


महाशयजी तुरन्त चिराग बुझा देते हैं ।


वे सुरंग में बैठे-बैठे ऊपर देखते हैं—कोई प्रकाश नहीं है। अर्थात सुरंग किसी अंधेरे भाग में ही निकली है। अब वे महाशय धीरे से अपना सिर निकालकर सुरंग से बाहर देखते हैं ।


सुरंग एक बाग में आकर निकली थी और बाग में पूरी तरह अन्धकार और सन्नाटे का साम्राज्य था । अगर थोड़ा-बहुत प्रकाश था तो वह केवल आकाश पर चमकने वाले सितारों का था । आसमान एकदम साफ था और उस पर झिलमिलाते नन्हे-नन्हे सितारे बड़े प्यारे लग रहे थे। अब यह बड़े आराम से सुरंग से बाहर निकल आए और बाग में खड़े होकर ध्यान से चारों ओर देखने लगे। कदाचित महाशयजी उस बाग को पहचानने और उसमें से बाहर निकलने का मार्ग खोजने के चक्कर में थे।


ये महाशयजी इस बाग को पहचान चुके थे।


क्यों पहचान चुके थे, इसका रहस्य हम आगे चलकर उसी समय प्रकट करेंगे, जिस समय इन महाशयजी का किस्सा लिखा जाएगा। वैसे हमारी यह पंक्ति प्यारे पाठकों के लिए एक सूत्र भी है। पाठक समझने प्रयास करें कि ये महाशयजी कौन व्यक्ति हैं ?


खैर — हम देखते हैं कि महाशयजी इस प्रकार आगे बढ़ जाते हैं, मानो वे यहां रहते हों । वें बाग के दक्षिण की ओर बढ़ते हैं। सारा बाग ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से घिरा हुआ है। कुछ ही देर बाद वे एक खास पहाड़ी के नीचे टटोल-टटोलकर कुछ तलाश करने लगते हैं। कुछ ही देर के बाद उन्हें एक खटका मिल जाता है । वे शक्ति लगाकर खटके को दबा देते हैं । "


लाभ ये होता है कि समीप की पहाड़ी में एक दरवाजा बन जाता है। वे उसी में समा जाते हैं। अन्दर जाकर वे उसी प्रकार का एक अन्य खटका दबाकर मार्ग बन्द कर देते हैं। अब इस लम्बी-चौड़ी गुफा में इस कदर अन्धकार छा जाता है कि हाथ को हाथ सुझाई न दे | किन्तु हमारे महाशयजी, जैसे यहां हमेशा से चलने के अभ्यस्त हों। अंधेरे में आगे बढ़ते ही जाते हैं। ठीक ऐसे ही, जैसे वह इस सुरंग में आने-जाने के अभ्यस्त रहे हों । कुछ देर पश्चात वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच जाते हैं जहां से गुफा चार भागों में विभक्त होती है। इस स्थान पर भी हमारे महाशयजी एक क्षण के लिए भी नहीं ठिठके बल्कि इस गुफा के मालिक की भांति दाहिनी तरफ मुड़ गए |


वे रुकते नहीं लेकिन एकाएक चौंककर उन्हें रुक जाना पड़ा।


वे दाहिनी ओर मुड़े थे, किन्तु बाईं ओर दूर गुफा में अंधेरे के बीच उन्हें मोमबत्ती दिखाई दी। कदाचित कोई आदमी उजाला करने के लिए मोमबत्ती हाथ में लिये गुफा में बढ़ा चला आता था । हमारे महाशयजी ने उसे दूर से ही देख लिया था। जबकि वह अच्छी तरह से समझते थे कि  मोमबत्ती हाथ में लिये आने वाला व्यक्ति किसी भी प्रकार फिलहाल उन्हें नहीं देख सकता ।


समय गुजरने के साथ वह व्यक्ति समीप आता जाता था ।


हमारे महाशयजी एक स्थान पर छुपकर उस आने वाले की प्रतीक्षा करते रहे। जब वह करीब आ गया तो महाशयजी ने उसे पहचान लिया । वह उमादत्त का वही ऐयार था, जिसने हमारे महाशयजी जैसे अव्वल दर्जे के ऐयार को गिरफ्तार किया था – यानी रूपलाल ।


रूपलाल को आता देख हमारे महाशयजी को अजीब-सी खुशी का अहसास हुआ। उन्होंने सोचा – क्यों न यहां से बाहर निकलते-निकलते वे रूपलाल की करनी का मजा उसे चखा दें। कुछ देर बाद जब रूपलाल उनके समीप से थोड़ा आगे निकल गया तो वह जोर से बोले – “रूपलाल, कहां जाते हो ?"


आवाज सुनकर रूपलाल तेजी से पलटता है ।


मगर इस समय तक हमारे ऐयार महोदय उस पर छलांग लगा चुकते हैं। रूपलाल बौखला जाता है— मोमबत्ती उसके हाथ से छूटकर गुफा की पथरीली धरती पर गिर जाती है, किन्तु वह बुझने के स्थान पर जलती रहती है। इधर रूपलाल अभी कुछ समझ भी नहीं पाता कि महाशयजी एक झटके से उसकी कमर में बंधी म्यान से तलवार खींच लेते हैं । जब तक रूपलाल सम्भलकर खड़ा हुआ, उस समय तक महाशयजी तलवार ज्ञानकर उसके सामने खड़े हैं ।


" अब हम तुम्हें तुम्हारी करनी का फल देंगे, रूपलाल ।” रूपलाल महाशयजी को देखते ही चौंक पड़ता है, कहता " है — "तुम... तुम यहां ?"


-"क्यों .. क्या हम यहां नहीं हो सकते ?" महाशयजी मुस्कराकर कहते हैं ।


“लेकिन तुम... उस कैद से कैसे...?"


-—“अभी उमादत्त इतनी मजबूत कैद तैयार नहीं करवा सका है जिसमें हमें कैद कर सके।"


—‘‘लेकिन इस समय आप धोखा खा रहे हैं।" रूपलाल ने तुरन्त बात बदलकर कहा— "मैं वो नहीं हूं जो दीखता हूं।"


-"क्या मतलब ?" इस बार -"मतलब यही कि मैं रूपलाल नहीं हूं।" उसने कहा – “बल्कि कोई और ही हूं—मैंने रूपलाल को कैद कर लिया है। इस रूप में आपको कैद से मुक्त कराने आ रहा था । इस रूप में मुझे यहां आने में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं पड़ी । "


महाशयजी चौंक पड़े।


-“तो असल में कौन हो तुम ?"


-"मैं गुलबदनसिंह हूं।" रूपलाल ने बताया ।


-"झूठ बोलते हो तुम ।" महाशयजी सावधानी के साथ कहते हैं— "तुम हमें फिर धोखा देना चाहते हो – पहली बार तो तुमने हम पर अचानक हमला किया था, इसलिए हम तुम्हारे धोखे में आ गए, वर्ना हम तुम्हारे जैसे छोटे-मोटे ऐयारों के बस में कब आते हैं। "


— “आप मेरा यकीन कीजिए, मैं गुलबदन हूं।" उसने कहा – “मैं अभी अपने ऐयारी के बटुए में से एक चूरन निकालकर अपने चेहरे पर लगा सकता हूं और अपना ये मेकअप उतारकर आपको अपनी वास्तविक सूरत दिखा सकता हूं।"


–“सावधान - !" हमारे महाशयजी एकदम पैंतरा बदलकर बोले – “अगर बटुए पर हाथ लगाया तो हम तुम्हारे हाथ काट देंगे, चेहरे पर चूरन लगाने की कोई जरूरत नहीं है। पहचान का वह शब्द बताओ, जो तुम्हें बताया था । "


जवाब में रूपलाल चकराकर रह गया। उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। गरदन झुक गई उसकी ।


—"क्यों ?" व्यंग्यात्मक ढंग से बोले महाशयजी- "बोलो, पहचान का शब्द... नहीं पता ना... अपने आपको गुलबदन बताकर हमें धोखा देना चाहते थे ? सोचते थे कि हम तुम पर यकीन कर लेंगे और बटुए से चूरन निकालने की इजाजत दे देंगे और तुम बेहोशी का चूरन निकालकर हमें आसानी से बेहोश कर दोगे—मगर ये नहीं जानते कि हम तुम जैसे छोटे-मोटे ऐयारों को अपनी जेब में रखते हैं।"


रूपलाल चुपचाप गरदन झुकाए खड़ा रहा।


"लाओ—अपना ऐयारी का बटुआ हमें दो — नहीं दोगे तो हम तलवार का प्रयोग करेंगे।"


-"इतने बड़े ऐयार होकर तुम एक ऐयार को मारने की धमकी देते हो ?" रूपलाल ने कहा – “क्या इतना नहीं जानते कि ऐयार को मारने का सिद्धान्त नहीं है। जिस तरह अधर्मी को मारना पाप होता है, इसी तरह ऐयार को मारना भी अधर्म है । "


- "लेकिन ऐयार को नजरबन्द करके कैद में रखा जा सकता है। " 


-"तो क्या तुम मुझे कैद करना चाहते हो ?” 


—"नहीं।" महाशयंजी ने कहा – “हम तुम्हें केवल घायल करके छोड़ देना चाहते हैं।'' कहते हुए वे रूपलाल पर तलवार का वार कर देते हैं। तलवार रूपलाल की बांह पर घाव बना देती है। रूपलाल निहत्था है और वह तो वैसे भी हमारे महाशयजी के सामने कुछ नहीं है। कुछ ही देर बाद महाशयजी उसे बेहोश कर देते हैं । उस समय तक रूपलाल के बदन पर तलवार से बीसों घाव बन जाते हैं, किन्तु घाव अभी साधारण और हल्के हैं। कोई भी घाव सफेद नहीं है, जिससे यह भय हो कि वह रूपलाल के जिस्म से लहू निकाल देने का काम करेगा। पथरीली धरती पर पड़ी मोमबत्ती को उठाकर हमारे महाशयजी ठीक से एक पत्थर पर जमा देते हैं ।


अब मोमबत्ती पहले की अपेक्षा अधिक प्रकाश प्रदान करने में समर्थ होती है।


सबसे पहले हमारे महाशयजी रूपलाल के ऐयारी के बटुए पर कब्जा कर लेते हैं। इसके बाद वे रूपलाल के सारे कपड़े उतार लेते हैं। उसे पूर्णतया नग्न करके वे बटुए से उस्तरा निकालते हैं और रामलाल के सिर का मुंडन संस्कार कर देते हैं। इसके बाद वे बटुए से काली स्याही निकालकर रूपलाल के सारे बदन पर लेप देते हैं । रूपलाल का सारा जिस्म काला करके महाशयजी बाकायदा एक दीवार से सटाकर खड़ा कर देते हैं। उसके कपड़े महाशयजी खुद पहन लेते हैं और उसके बटुए से आईना तथा शक्ल बदलने की सामग्री निकालकर अपने चेहरे पर रूपलाल का मेकअप कर लेते हैं। अपने फटे हुए कपड़े वे कहीं एक स्थान पर छुपाकर रख देते हैं और पूरी तरह रूपलाल बनने के बाद मोमबत्ती हाथ में लेकर वापस उधर ही चल देते हैं, जिधर से रूपलाल आया था ।


वे कोई आधा कोस सुरंग में चलने के बाद एक ऐसे स्थान पर पहुंच जाते हैं, जहां सुरंग की धरती और छत के बीच एक लोहे की सीढ़ी लगी हुई है। महाशयजी सीढ़ी के सबसे निचले डण्डे पर पैर रखते हैं। उसी समय हल्की-सी गड़गड़ाहट के साथ ही सीढ़ी के समीप ही छत पर एक रास्ता बन जाता है ।


सीढ़ी पर चढ़कर महाशयजी ऊपर पहुंच जाते हैं। यह रास्ता एक स्नानगृह में खुलता है।


वहां पहुंचकर वे एक टोंटी को घुमाते हैं— रास्ता पुनः बन्द हो जाता है।


यह स्नानगृह महल में रहने वाले रूपलाल के कमरे का है। कमरे से बाहर निकलकर वे दालान में आ जाते हैं। दालान में पहुंचकर वे सीटी बजाते हैं। जवाब में उमादत्त के पांच-सात ऐयार उनके पास आ जाते हैं।


— "क्या हुआ रूपलाल ?" एक ऐयार पूछता है ।


–“जल्दी से हमारे साथ आओ।" महाशयजी ये कहकर पुनः रूपलाल के कमरे में प्रविष्ट हो जाते हैं। सारे ऐयार कमरे में आ जाते हैं, उसी समय महाशयजी कमरे का दरवाजा बन्द कर लेते हैं। सभी ऐयार चौंकते हैं ।


-"क्या बात है रूपलाल... तुम घबराए से क्यों हो ?” एक ऐयार पूछता है।


"बड़ा गजब हो गया — हमारे राजा के माथे पर कलंक का टीका लग गया।” महाशयजी एकदम बोले ।


-"कुछ बोलो भी—क्या बात है ?” उसने भी पूछा।


लेकिन महाशयजी ने अपने हाथ में दबी एक गेंद जैसी गोल वस्तु जोर से कमरे की धरती पर पटक दी। हल्का-सा धमाका हुआ और सारे कमरे में एकदम गाढ़ा सफेद धुआं भर गया, हुआ ये था कि यह छोटा बम महाशयजी को रूपलाल के बटुए से मिला था । उसके प्रभाव से बचने के लिए एक दवा खानी होती थी । यह दवा भी रूपलाल के बटुए में मौजूद थी।


और इन सब वस्तुओं का प्रयोग वह बहुत पहले से बखूबी जानते थे।


जब धुआं साफ हुआ तो हमारे महाशयजी के अतिरिक्त सभी ऐयार धरती पर लम्बे पड़े हुए अचेतना के संसार में घुमड़ रहे थे। इस समय महाशयजी के दिमाग में अजीब-सी शरारत आ रही है। वे एक-एक करके सबके कपड़े उतार देते हैं। कुछ ही देर बाद वे उसी भेष में थे, जिसमें वे पैदा हुए थे। बटुए में से निकालकर उन्होंने उन सबके जिस्म पर काली स्याही भी पोत दी और कमरे की दीवारों से उन्हें इस प्रकार सजाकर खड़ा कर दिया, मानो पुतले खड़े हों ।


महाशयजी ने बटुए से कलम-दवात निकालकर एक कागज पर कुछ लिखा और कमरे में छोड़ दिया ।


सारे कार्यों से निवृत्त होकर वे बाहर आ गए ।


अब सुबह होना चाहती थी ।


वे महल से बाहर की ओर बढ़ रहे थे। कई स्थानों पर उन्हें उमादत्त के सिपाही और लौंडिया इत्यादि मिलीं, किन्तु किसी से कोई बात न करते हुए वे आराम से महल के बाहर निकल आए । रूपला समझकर किसी ने उनके मार्ग में दखल नहीं दिया। उस समय रात्रि के अन्तिम पहर का एक चन्दा शेष था, जब वे उमादत्त के शहर चमनगढ़ में घूम रहे थे । एकाएक वे बस्ती के एक मकान में बन्द दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे ।


कदाचित वे जानते थे कि यह मकान उमादत्त के खास ऐयार विक्रमसिंह का है ।


कुछ देर बाद —मकान का दरवाजा खुला । महाशयजी सब जानते थे। दरवाजा खोलने वाली एक कम उम्र की लड़की थी । वह सुन्दर और भोलीभाली थी | महाशयजी जानते थे कि वह विक्रमसिंह की लड़की कुन्ती है।


—“अरे – चाचाजी आप — सुबह-सुबह ?" कुन्ती उन्हें अन्दर ले गई। वे विक्रमसिंह की पत्नी चन्दारानी से मिले, चन्दारानी ने उन्हें इज्जत से बैठाया । औपचारिक बातों के पश्चात महाशयजी ने के पूछा – "विक्रमसिंह कहां गए हैं सुबह-सुबह ? "


"तुम्हें नहीं पता भैया ?” चन्दारानी ने कहा – “क्या कहूं, मैं तो परेशान हूं—मैं तो अब हर औरत को यही राय दूंगी कि कभी किसी ऐयार से शादी न करे, हम यहां बैठे रहते हैं और ऐयार लोग महीनों महीनों के लिए गायब हो जाते हैं । भला ये भी कोई काम हुआ— पति से अलग रहते-रहते हम पर क्या गुजरती है यह कोई हमसे ही पूछे—भैया—मैं तुम्हें यही राय दूंगी कि तुम कभी शादी मत करना — वरना तुम्हारी पत्नी भी हमारी तरह ही उदास बैठी तुम्हारी राह देखती रहेगी और तुम महीनों महीनों अपनी ऐयारी के चक्कर में लगे रहोगे । अगर शादी करो तो ये ऐयारी छोड़ देना । "


-"क्या बात है, भाभी — बहुत परेशान हो ?" महाशयजी ने मुस्कराकर पूछा ।


-"बात क्या है—कहते थे अब उन्हें कुछ दिन के लिए बख्तावरसिंह बनना है ——उस दिन से गए हैं और आज तक दर्शन नहीं । "


-“ऐयारी का काम ही ऐसा है, भाभी ।" मुस्कराकर महाशयजी बोले और अपने इन शब्दों के साथ ही उन्होंने बटुए से वही गेंदनुमा बम निकाला और कमरे की धरती पर फोड़ दिया। सारे कमरे में एकदम धुआं भर गया ।


धुआं साफ होने पर महाशयजी ने दोनों की गठरी बांधी और पीठ पर लटकाकर जंगल की राह ली। कुछ ही देर पश्चात वे जंगल में बने एक कुएं के पास पहुंचे। एक बार कुएं में झांका और देखा कि कुआं: अंधकार की चादर में लिपटा हुआ है ।


उन्होंने पीठ से वह गठरी उतारी, जिसमें चन्दारानी और कुन्ती बंधी हुई थीं, और कुएं में फेंक दी।


गठरी नीचे कुएं के पानी से टकराई और धड़ाम की आवाज ऊपर हमारे महाशयजी के कानों में भी पड़ी। उस समय हम भी चमत्कृत रह गए जब महाशयजी ने भी कुएं में छलांग लगा दी। हमने महाशयजी को उस कुएं में कूदते साफ देखा था ।


इस समय हम भी केवल महाशयजी के पानी से टकराने की आवाज ही सुन. सके। एक बार को तो हमने भी हिम्मत करी कि हम भी कुएं में कूद पड़ें किन्तु साहस न हुआ – हम कोई ऐयार तो हैं नहीं, जो इस तरह के खतरनाक काम करते फिरें ।


— हम कुएं के नजदीक पहुंचे सोचा कि झांककर कुएं का हाल देखेंगे। वहां अंधकार था। एक बार को हमारे दिल में बड़ा मलाल आया—हम सोचने लगे कि अगर हमारे पास भी इस समय ऐयारी का बटुआ होता तो हम मोमबत्ती जलाकर कुएं का हाल देखते ।


अतः मजबूरी है–कुएं का हाल नहीं देख सकते – कुएं में क्या हम नहीं जानते — अब क्या लिखें ?


वैसे भी पाठक जानते हैं कि अंधेरे में कुछ भी देख पाना किसी के लिए भी संभव नहीं होता ।


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