बारहवां बयान


हम नहीं कह सकते कि विजय गुरुवचनसिंह के हाथ कहां से लग गया ? हम इस समय केवल वह लिख रहे हैं, जो हम इस समय अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। हम देख रहे हैं कि विजय इस समय गुरुवचनसिंह के साथ है। विकास इत्यादि पता नहीं कहां हैं ? विजय विकास और गौरव इत्यादि से किस तरह अलग हुआ, यह हम आगे के किसी बयान में बताएंगे, फिलहाल इतना ही काफी है कि विजय गुरुवचनसिंह के साथ है और गुरुवचनसिंह ने उसे पढ़ने के लिए एक मोटा और हस्तलिखित ग्रन्थ दिया है। ग्रन्थ देते समय उनके बीच क्या बातें हुई हैं, यह आप तीसरा भाग पढ़कर ही पता लगा सकते हैं, यहां केवल इतना ही कह सकते हैं कि इस ग्रन्थ में उस समय की घटनाएं लिखी हैं, जब विजय देवसिंह था । जिस तरह अपने सब कामों को छोड़कर विजय अपने पूर्वजन्म के विषय में लिखा गया ग्रन्थ पढ़ रहा है, आइए हम भी उसके साथ सबकुछ भुलाकर इस ग्रन्थ को पढ़ें, हम देखते हैं कि पिछले जन्म में विजय ने क्या-क्या किया !


प्रिय पाठको, अब हम आपको एक ऐसी दिलचस्प कहानी में ले जा रहे हैं, जो विजय और अलफांसे के पूर्वजन्मों की कहानी है। यह तो आप समझ ही गए होंगे कि देवसिंह नामक चरित्र विजय का है और शेरसिंह इस जन्म क़ा अलफांसे है - हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि यह कहानी आपको अपनी दिलचस्पियों में बहाकर ले जाएगी। आज यानी इस आधुनिक युग में तो जासूसी होती है, वह वैज्ञानिक आधारों पर होती है। आज का जासूस विभिन्न प्रकार के शस्त्र रखता है। आज आदमी की बहादुरी और प्रतिभा कम रह गई है और वैज्ञानिक शस्त्रों का बोलबाला है। आज अगर किसी के पास बम है तो वह अकेला ही पूरी बहादुर फौज से विजयी हो सकता है। मगर उस समय विज्ञान इतना विकसित नहीं था । ऐयार लोग अपनी बुद्धि, बहादुरी और प्रतिभा के बल पर ही कैसे-कैसे कमाल कर दिखाते थे... यही सब इस कथानक में है । हम समझते हैं कि आपको जासूसी साहित्य का वास्तविक आनन्द इसी कथानक से प्राप्त होगा। आज के युग में आदमी से अधिक विज्ञान का महत्त्व है। एक अपाहिज और अनाड़ी आदमी एक बम गिराकर पूरी फौज को नष्ट कर सकता है—मानव प्रतिभा की कुसौटी तो तभी हो सकती है, जबकि मानव केवल अपनी प्रतिभा से सामने आए। इस कहानी में पात्र केवल अपनी मानव शक्ति का प्रयोग करता है । एक-से-एक चालाक आदमी आपके सामने आएगा। इस सारे कथानक में आपको बुद्धि का कौशल मिलेगा — दावा तो हम नहीं करते, किन्तु यह आशा अवश्य है कि आपको विजय के पूर्व जन्म की इस कहानी में पूर्ण दिलचस्पी होगी।


यह किस्सा उस समय का है, जब भरतपुर नामक रियासत राजा सुरेंद्रसिंह के कब्जे में थी । यह रिसायत पूरब दिशा की ओर है। यहां एक विशाल किला बना हुआ है, जिसे राजमहल कहा जाता है। भरतपुर रियासत कई सौ बीघे में फैली हुई है। राजधानी के चारों ओर ऊंची ऊंची दीवारें हैं, जिन पर चढ़कर किसी इन्सान के राजधानी में दाखिल होने की कल्पना भी मुमकिन नहीं है। राजधानी का केवल एक बड़ा फाटक है, जिसे अगर बन्द कर दिया जाए तो पूरी फौज भी मिलकर उसे नहीं खोल सकती। कहने का मतलब ये कि पूरा भरतपुर ही एक सुदृढ़ किला है जिसमें दुश्मन जबरन दाखिल नहीं हो सकता, हालांकि भरतपुर की सीमाएं उस महल के चारों ओर दूर-दूर तक फैली हुई हैं। किन्तु इस समय, जिस समय का हम जिक्र कर रहे हैं। एक तरह से सुरेंद्रसिंह के कब्जे में केवल वह महल ही रह गया है। भरतपुर के दक्षिण तक दूर-दूर तक जंगल फैला हुआ है। पश्चिम की तरफ दूर-दूर तक पहाड़ियों का न खत्म होने वाला सिलसिला है। खैर ! अधिक भौगोलिक स्थिति का वर्णन करके हम अपने प्यार पाठकों का समय बर्बाद नहीं करेंगे। हम शीघ्र ही अपने मुख्य विषय पर आते हैं, क्योंकि इस दूसरे भाग में पाठकों को पूरी कहानी समझानी है और हमारे पास स्थान कम है।


आज हम भरतपुर में अजीव आतंक अनुभव कर रहे हैं। सड़कें, गली, चौराहे आदि सूने हैं। बाजार बंद हैं। अधिकांश आदमी घरों में घुसे हैं। सड़क अथवा गलियों में केवल सैनिक ही नजर आते हैं। भरतपुर का बाहरी फाटक इस समय बन्द है। अन्दर चारों ओर सन्नाटा-सा छाया हुआ था। मानो कोई बड़ा भारी मातम मनाया जा रहा हो - अपने-अपने घरों में बन्द हरएक का चेहरा पीला पड़ा हुआ है। इस सबका क्या सबब है, यह आप राजा सुरेंद्रसिंह और उनके अन्य सहयोगी पात्रों की वार्ता से समझ सकेंगे। आइए, इस शहर में छाए हुए इस सन्नाटे को छोड़कर महल के उस सजे हुए हॉल कमरे का हाल देखते हैं, इस समय वहां पांच आदमी मौजूद हैं। राजा सुरेंद्रसिंह, उनका दारोगा जसवंतसिंह, सुरेंद्रसिंह का भाई हरनामसिंह, उनका लड़का बलराम और एक ऐयार जिसका नाम गोपालदास है। इन पांचों के ही चेहरों पर इस समय हम चिन्ता के गहरे भाव देखते हैं। सुरेंद्रसिंह की स्थिति तो यहां तक खराब है कि उनकी आंखों से आसूं निकले जा रहे हैं। सुरेंद्र ने अपने दोनों हाथ पीठ पीछे बांध रखे हैं और बेकरारी के आलम में घूम रहे हैं। बाकी चारों गरदन झुकाए खड़े हैं। इस कमरे में भी यह चुप्पी छाए हुए कम-से-कम तीस सायत गुजर गए हैं। वहां की स्थिति से इतना अन्दाजा तो हम लगा ही सकते हैं कि उन सभी के सामने कोई समस्या है । उस समस्या का समाधान किसी की समझ में नहीं आ रहा है। सभी चिन्तित एवं परेशान हैं।


 - "क्या करें... हम कैसे अपनी इज्जत बचाएं ?" बेचैनी में राजा सुरेंद्र स्वयं ही बुदबुदा उठते हैं।


- "अगर आप मेरी बात मानें- तो मैं एक बात कहूं महाराज | " दारोगा जसवंतसिंह कहता है। उसकी आवाज सुनते ही सुरेंद्रसिंह एकदम उसकी ओर देखते हैं और कहते हैं— “जसवंत, हम सच कहते हैं — अगर तुम हमें इस मुसीबत से छुटकारा दिला दोगे तो हम तुम्हारे लिए अपना खजाना खोल देंगे । "


– "मेरे ख्याल से फाटक खोल देना ही उचित होगा महाराज । " जसवंत ने कहा । 


-"क्यों बेवकूफी की बात कर रहे हो, जसवंत ?” सुरेंद्रसिंह के भाई यानी हरनामसिंह कह उठते हैं—“क्या तुम भूल गए कि भरतपुर के चारों ओर चंद्रदत्त की कितनी सेना पड़ी है ? हर हालत में उनकी सेना हमसे चौगुनी और शक्तिशाली है। उन्होंने हम पर हमला किया है। हमारा अधिकांश राज्य उन्होंने अपने कब्जे में कर लिया है। अब केवल यह राजधानी ही तो बची है। वह तो राजधानी के चारों ओर की दीवार और फाटक इतना मजबूत है कि चंद्रदत्त के आदमी यहां नहीं आ सकते। हम सब यह अच्छी तरह से जानते हैं कि फाटक खुलते ही चंद्रदत्त की फौजें अन्दर घुस आएंगी। हमारे पास इस समय इतनी शक्ति नहीं है कि हम चंद्रदत्त का मुकाबला कर सकें । कठिनता से एक घण्टे बाद ही राजधानी को भी विजय कर लेंगे और ... | " इससे आगे कहते-कहते हरनामसिंह स्वयं रुक गए ।


 -" नहीं... नहीं !” एकदम घबराकर बोले सुरेंद्रसिंह — "ऐसा नहीं हो सकता... हम ऐसा नहीं होने देंगे । "


-"लेकिन महाराज... इस तरह हम कब तक समय काट सकेंगे ?" जसवंतसिंह ने कहा—‘" इसी स्थिति में आज हमें पूरे चार महीने हो गए हैं। चार महीने से चंद्रदत्त की सेनाएं राजधानी को घेरे पड़ी हैं। फाटक उसी समय से बन्द है। राजधानी की प्रजा के लिए खाद्य सामग्री भी समाप्त हो चुकी है। अगर हम फाटक नहीं खोलेंगे तो हमारी प्रजा और हम भूख से तड़प-तड़पकर मर जाएंगे। इस मौत से तो लड़ते-लड़ते मर जाना बेहतर है महाराजײן


- "लेकिन हमारे बाद वे कांता !" और कुछ कहते-कहते स्वयं ही रुक गए सुरेंद्रसिंह ।


-" समस्या वहीं की वहीं है पिताजी ।" बलरामसिंह ने अपने पिता सुरेंद्रसिंह से कहा – “हम इस गुत्थी को सुलझा नहीं सकते। आज पूरी राजधानी को चारदीवारी में कैद हुए चार महीने बीत गए हैं। खाद्य सामग्री समाप्त हो चुकी है। फाटक खोला जाएगा तो चंद्रदत्त की सेनाएं यहां कत्लेआम कर देंगी। निश्चय ही हमारी पराजय है। दूसरी तरफ अगर हम दरवाजा नहीं खोलेंगे तो हमारे साथ -साथ प्रजा भी भूख से मर जाएगी। हमारे हर तरफ मौत है। हम बच नहीं सकते, इससे अच्छा है हम कांता को । "


- " हां... हां बलरामसिंह कहो !” उसके अटकने पर सुरेंद्रसिंह बोले—'चुप क्यों हो गए ? बोलो काता के बारे में क्या कहना चाहते थे ?" 


-"पिताजी" -हिचकिचाता हुआ बोला बलराम – "क्यों न हम कांता को मारकर जड़ ही खत्म कर दें ? "  


—“बलराम !" चीख पड़े सुरेंद्रसिंह – "जुबान को लगाम दो वर्ना हम तुम्हारा सिर कलम कर देंगे। तुम अच्छी तरह जानते हो कि कांता हमारी बेटी है और हम उसे अपनी जान से ज्यादा प्यार करते हैं। हमें तुम्हारे मुंह से यह बात सुनकर घोर आश्चर्य हो रहा है । तुम्हारी तो बहन है कांता... तुम भला कांता के बारे में ऐसा किस तरह सोच गए ? कांता हमारी बेटी है...हम सब प्राण दे देंगे, चाहें हमारी रियासत में कत्लेआम मच जाए, परन्तु हम कांता पर किसी तरह की आंच नहीं आने देंगे। हम अपनी रियासत की आहुति दे देंगे, किन्तु उन दुष्टों को कांता तक हरगिज नहीं पहुंचने देंगे।”


—"कुंवर साहब क्या कांता के सगे भाई हैं, भैया ?" हरनामसिंह बलराम को घूरता हुआ सुरेंद्रसिंह से बोला – “कांता आपकी पहली पत्नी की लड़की है और कुंवर साहब दूसरी पत्नी के, अगर ये कांता के सगे भाई होते तो ऐसा हरगिज नहीं कह सकते थे।"


“आप लोग मेरी बात समझे नहीं और मुझ पर तोहमत लगाने लगे।” कुंवर बलरामसिंह ने कहा – “कहने को हम सौतेले जरूर हैं, लेकिन कांता को सगे से भी बढ़कर प्यार करते हैं ।


– “हमारा कहने का मतलब ये था कि ये सारा बखेड़ा केवल कांता के कारण हो रहा है। चंद्रदत्त ने कांता की वजह से ही हम पर चढ़ाई की है। उसकी मांग है कि हम कांता को उसके हवाले कर दें तो वह न केवल हमारी राजधानी के चारों ओर से सेना हटा लेगा, बल्कि हमारा वह राज्य भी हमें लौटा देगा, जो उसने आज तक हमसे जीता है। वह कांता को लेकर राजगढ़ लौट जाएगा और हमसे सम्बन्ध कर लेगा। अगर हम चंद्रदत्त को यह जता दें कि हमने कांता को मार दिया है तो वह वापस जा सकता है, क्योंकि केवल कांता के कारण ही तो उसने हम पर चढ़ाई की है। मेरा मतलब असली कांता को मारने से नहीं था, बल्कि किसी तरह चंद्रदत्त को इस वहम में डाल देने से था । "


–“मतलब ये कि आप किसी और लाश को कांता की लाश बनाकर चंद्रदत्त के सामने भिजवाना चाहते हैं ?" ऐयार गोपालदास बोला । “जी हां !"


- "मगर आप ये भूल गए कुंवर साहब कि चंद्रदत्त और चंद्रदत्त के ऐयार इतने मूर्ख नहीं हैं कि वे इतने थोथे धोखे में आ जाएं। वह पहचान जाएंगे कि हम उन्हें धोखा देना चाहते हैं। ऐसा हो सकता तो हम कभी के एक नकली कांता बनाकर उनके पास भेज चुके होते । " 


-" तो फिर क्या किया जा सकता है ?" अन्त में बलराम भी घूमकर वहीं आ गया |


एक बार पुनः कमरे में सन्नाटा छा गया। इस बार ऐसा लगता था कि सुरेंद्रसिंह कोई बहुत ही गम्भीर बात सोच रहे हों । कुछ सायत तक वे सोचते रहे, फिर गरदन उठाकर पत्थर से कठोर स्वर में बोले – “लेकिन अगर असली कांता को मार दिया जाए तो ?"


-"क्या ?" एकदम सभी बुरी तरह चौंक पड़े – “ये आप क्या कह रहे हैं महाराज ?" राजा सुरेंद्रसिंह का चेहरा लाल सुर्ख हो रहा था । आंखें सुर्ख होकर जैसे पथरा गई थीं। जबड़े भिंच गए थे। उसी सख्त स्वर में वे बोले -- "हम ठीक कहते हैं। ये हमारा दिल जानता है कि हम कांता को अपनी जान से भी ज्यादा अजीज समझते हैं। किन्तु केवल एक कांता के कारण हजारों आदमियों का कत्लेआम हो जाए —यह भला कहां तक न्याय लगता है ? सब हमें यही कहेंगे कि अपनी लड़की के लिए राजा सुरेंद्रसिंह ने हजारों आदमियों को मौत के घाट उतार दिया । हम जीती कांता को चंद्रदत्त को नहीं सौंप सकते। अगर हम राजा की दृष्टि से देखें तो यही उचित होगा । हम कांता को मारकर उसकी लाश चंद्रदत्त के पास पहुंचा देंगे। हम स्वयं भी आत्महत्या करके अपना राज्य चंद्रदत्त को ।” 


– “नहीं महाराज !" गोपालदास एकदम बोला – “यह क्षत्रिय धर्म के " विरुद्ध होगा—ऐसा फैसला एकदम गलत है ।"


– “तो हम क्या करें गोपालदास ?" एकदम माथे पर हाथ मारकर रो पड़े सुरेंद्रसिंह — "क्या करें हम ? तुम तो ऐयार हो, तुम ही कोई तरकीब सोचो—ऐसे विकट समय में अपनी ऐयारी का कोई कमाल दिखाओ। सच कहते हैं— हम अपना सारा खजाना तुम्हारे नाम लिख देंगे।"


- “ऐयार केवल युद्ध से पहले कुछ कर सकता है महाराज| " गोपालदास बोला— "जब युद्ध छिड़ जाता है तो सेनाएं काम करती हैं। हम भला इस स्थिति में क्या ऐयारी दिखा सकते हैं ? ऐयार मोर्चा लगने से पहले कुछ कर सकता है, बाद में नहीं । "


अभी गोपालदास की बात का कोई जवाब भी नहीं दे पाया था कि एक नया आदमी कमरे में दाखिल हुआ। यह आदमी बेहद सुन्दर एवं आकर्षक था । लम्बा कद–कसरती बदन, नीली आंखें गोरा रंग । वह अचकन-पायजामा और कमरबंद पहने तथा मुंडासा बांधे हुए था । वह ढाल-तलवार और तीर-कमान के साथ-साथ कई किस्म के हर्वे से भी सजा हुआ था। उसके दाखिल होते ही सुरेंद्रसिंह उसकी ओर लपककर कहते हैं—‘‘शेरसिंह—आओ—तुम हमारी रियासत के सबसे बड़े ऐयार हो... तुम्हीं हमें इस मुसीबत से छुटकारा दिलाने में हमारी कुछ मदद करो।"


— "मैं यही सोचकर आया हूं महाराज | " शेरसिंह सुरेंद्रसिंह के समीप पहुंचकर कहता है— "इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए मेरे दिमाग में एक ऐयारी आई है। ईश्वर ने चाहा तो वह सफल भी हो सकती है... अगर सफल न हो सकी तो मैं आपको कभी अपनी सूरत न दिखाऊंगा ।”


— "सच शेरसिंह... क्या तुम सच कहते हो ?” सुरेंद्रसिंह एकदम खुशी से उछल पड़े — "हमें तुम पर पूरा भरोसा है... आज तक तुमने अपने हाथ में जो भी कुछ लिया है, उसे सफल करके दिखाया है। मगर, अगर तुम इस काम में सफल हो गए शेरसिंह तो सच जानना, हम सारे जीवन के लिए तुम्हारे गुलाम हो जाएंगे। जीवन में हमसे जो मांगोगे, वही देंगे। हम तुम्हारी किसी बात को नहीं टालेंगे । तुम हमारा ये काम कर दो, शेरसिंह... सच कहते हैं... हम तुम्हारे गुलाम हो जाएंगे। जल्दी बताओ... वह क्या तरकीब है ? तुम बिना लड़ाई के किस तरह इस समस्या को सुलझा सकते हो ?" 


-“बात तखलिए में बताने की है महाराज | " शेरसिंह ने कहा— “कृपया आप मेरे साथ अन्दर वाले कमरे में चलिए । " इस तरह शेरसिंह राजा सुरेंद्रसिंह को अलग कमरे में ले गया, अन्य सभी राही सोचते रहे कि आखिर शेरसिंह ऐसी क्या तरकीब लाया है, जिससे वह बिना युद्ध के ही चंद्रदत्त की सेना को राजधानी के चारों ओर से हटा सकता है ? उनमें से कोई भी शेरसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की बात को नहीं सुन सका, किन्तु सभी एक-दूसरे की ओर देख रहे थे...मानो पूछ रहे हों कि क्या कोई ऐसी तरकीब हो सकती है ? किन्तु... इसका जवाब उनमें से किसी के पास नहीं था ।

तेरहवां बयान


कृष्ण पक्ष की काजल - सी काली रात्रि का तीसरा पहर प्रारम्भ हो चुका है। चारों ओर अन्धकार एवं सन्नाटे का साम्राज्य है, कहीं कोई प्रकाश अथवा ध्वनि उत्पन्न होने का साहस नहीं कर रही है । सम्पूर्ण किले पर सिपाही पहरा दे रहे हैं। राजधानी की उस दीवार पर भी सुरेंद्रसिंह के सिपाही पहरा दे रहे हैं, जो राजधानी के चारों ओर खिंची हुई है। यह दीवार कम-से-कम दो सौ हाथ ऊंची है। दो सौ हाथ ऊपर दीवार के सहारे - सहारे एक बारादरी बनी हुई है। यह बारादरी दीवार के सहारे-सहारे राजधानी के चारों ओर है। इसमें भी पूर्णतया अन्धकार है, किन्तु बारादरी के अन्धकार में खड़े सिपाही चप्पे-चप्पे पर पहरा दे रहे हैं, किन्तु उनमें से किसी को भी किसी प्रकार की रोशनी करने का हुक्म नहीं है । क्योंकि इससे राजधानी के बाहर पड़ी चंद्रदत्त की सेना जान लेगी कि अन्धेरे में पहरेदार खड़े हैं ।


ऐसे समय में बारादरी में एक रहस्यमय आदमी नजर आता है। अंधेरा होने के कारण हम उसका चेहरा तो नहीं देख सकते, अलबत्ता हम उसे एक साए के रूप में स्पष्ट देख सकते हैं। इस घोर अन्धेरे में हम उसे पहचान नहीं पा रहे हैं। अतः समझ नहीं पा रहे हैं कि उसके लिए क्या लिखें सहूलियत के लिए इस समय हम उसे आदमी ही लिखते हैं । वह कौन है ? यह तब देखा जाएगा, जब हम उसे पहचान लेंगे। फिलहाल हम देखते हैं कि वह आदमी तेज-तेज कदमों से बारादरी में बढ़ा चला जा रहा है। अन्धेरे में खड़े सिपाही उसे रोकते हैं तो वह कहता है—“हम हैं।"


इतना सुनते ही सिपाही उसके रास्ते से हट जाते हैं ।


इसी तरह प्रत्येक सिपाही से कहता हुआ वह आगे बढ़ता जाता है । इस समय वह धरती से दो सौ हाथ ऊपर बारादरी में है। वह राजधानी से बाहर देखता है। कई स्थानों पर अलाव जल रहे हैं। इसका मतलब चंद्रदत्त की सेना के कुछ लोग रात का पहरा देते हुए हाथ ताप रहे हैं। सारी स्थिति को देखता हुआ वह आदमी बारादरी के एक निश्चित स्थान पर पहुंच जाता है। यहां उसके आसपास कोई भी सैनिक नहीं है। वह सावधानी के साथ अपने बटुए में हाथ डालता है। जब उसका हाथ वापस आता है तो उसके हाथ में एक कागज दबा हुआ होता है। वह आदमी धीरे से उस कागज को दीवार के पार बाहर उस तरफ फेंक देता है, जिस तरफ चंद्रदत्त की सेना पड़ी है। उसके आसपास अंधेरा होने के सबब से हमारे अतिरिक्त इस रहस्यमय आदमी को इस अनोखी हरकत को अन्य कोई भी नहीं देख पाता ।


अभी तो हम नहीं कह सकते कि यह रहस्यमय आदमी कौन है । और उसकी इस अजीब हरकत का मतलब क्या है। हम ये भी नहीं कह सकते कि जो कागज इसने सबकी नजर से बचाकर बाहर की ओर फेंका है, उसमें क्या लिखा है। आइए, हम इसका पीछा छोड़कर यह देखते हैं कि इसका फेंका हुआ कागज किसके हाथ लगता है— शायद हमें उस कागज में लिखा मजमून भी पता लग सके और कदाचित् इस आदमी ने उस कागज में अपना नाम भी लिखा हो ।


दीवार के ऊपर बनी बारादरी के जिस स्थान से उस रहस्यमय आदमी ने कागज फेंका है——ठीक उसके नीचे दीवार के सहारे बाहर की ओर अन्धेरे में एक आदमी खड़ा है। उसके खड़े होने के ढंग से ऐसा प्रतीत होता मानो इस समय उसे किसी होने वाली घटना का इन्तजार है।


किन्तु — — अंधेरा होने के कारण वह कुछ भी नहीं देख पाता । अचानक उसके समीप ही एक ऐसी आवाज होती है, जैसे आसमान से कोई छोटा-सा पत्थर आकर धरती पर गिरा हो । आवाज सुनते ही वह आदमी सतर्क हो जाता है। मानो उसे इसी बात का इन्तजार था । वह तुरन्त आवाज की दिशा में बढ़ता है। टटोलता है, किन्तु उसके हाथ वह पत्थर नहीं लगा, जो ऊपर से आकर उसके आसपास ही अन्धेरे में कहीं गिरा है, इस परेशानी में हमें उस आदमी का चेहरा चमक रहा है और हम इसे पहचानते भी हैं । अतः पाठकों को भी हम इसका नाम बता देना अपना फर्ज समझते हैं। इसका नाम नलकूराम है और यह राजा चंद्रदत्त की ऐयार मंडली का एक ऐयार है, फिलहाल हमारे पाठकों के लिए नलकू के बारे में बस इतना ही जानना पर्याप्त है... |


- मोमबत्ती के प्रकाश में वह ऊपर ले आए हुए पत्थरं को ढूंढ़ने लगा। जल्दी ही उसे एक छोटा सा पत्थर मिल गया जिसके चारों ओर एक कागज लिपटा हुआ था। अब शायद पाठक समझ गए होंगे कि ऊपर से उस आदमी ने कागज़ को इस छोटे पत्थर में लपेटकर फेंका था । नलकू ने वह कागज में लिपटा पत्थर उठाया और अपने बटुए में डाल लिया । मोमबत्ती बुझा दी और : वह एक तरफ बढ़ गया । अभी वह अधिक दूर नहीं बढ़ पाया था कि अचानक अंधेरे में से किसी आदमी ने झपटकर उसे दबोच लिया।


नलकू ने चीखना चाहा, मगर असफल रहा, क्योंकि उसे दबोचने वाले का हाथ उसके मुंह पर था । नलकू यह भी न जानता था कि उसके हाथ में बेहोशी की बुकनी भी थी।


वह बेहोश हो गया — वह आदमी, जिसने नलकू पर हमला किया था, अंधेरा होने के बावजूद भी अपने चेहरे को नकाब से ढके हुए था । उसने जल्दी से नलकू की गठरी बनाई और चुपचाप एक तरफ को चल दिया। इस समय वह एक डेरे की ओर बढ़ रहा था । कुछ ही देर बाद वह उस डेरे में पहुंच गया । डेरे के अंदर एक चिराग जल रहा था और धरती पर बिछी दरी पर केवल एक आदमी बैठा था और यह आदमी सुरेंद्रसिंह का ऐयार गोपालदास था। उसने पूछा– “ये तुम किसे बांध लाए शेरसिंह ? "


नकाबपोश जो वास्तव में शेरसिंह ही था ने अपना नकाब उतार दिया और बोला – "ये चंद्रदत्त का ऐयार नलकू है !"


– “ये तुम्हारे हाथ कहां से लग गया ?"


—“मैं अपने काम से गया था । " शेरसिंह ने कहा – “मैंने सोचा था कि दीवार के सहारे सहारे खुद को अंधेरे में छुपाकर वहां तक पहुंचूं, ताकि चंद्रदत्त के सैनिकों की नजरों से बच सकूं। तुम्हें तो मालूम है कि बाहर कितना अंधेरा है। अपने आसपास का आदमी नजर नहीं आता। मैं अंधेरे में ही था कि किसी पत्थर के धरती पर गिरने की आवाज ने मुझे चौंका दिया। मैं एकदम सांस रोककर दीवार के सहारे खड़ा हो गया। कुछ देर बाद देखता हूं कि इसने ( नलकू ने) मोमबत्ती का प्रकाश करके धरती पर कुछ ढूंढ़ने का प्रयास किया, अन्त में इसने कागज में लिपटा एक पत्थर उठाकर बटुए में डाला ।


"कागज में लिपटा पत्थर !"


- ''हां, इस कागज में किसी ने कुछ लिखा है । " शेरसिंह ने बताया — "मुझे लगता है कि राजधानी के अन्दर का कोई आदमी राजा चंद्रदत्त से मिला हुआ है। वह अन्दर की खबर हर रात को इसी तरह चंद्रदत्त तक पहुंचाता होगा । नलकू उस स्थान पर खड़ा हुआ इस पत्थर के गिरने का इन्तजार कर रहा था । निश्चय ही यह पत्थर ऊपर बारादरी में से किसी ने फेंका है । वह गद्दार हर रात को सन्देश इसी प्रकार बाहर चंद्रदत्त तक पहुंचाता है। "


-"लेकिन वह गद्दार कौन हो सकता है ? "


—"कोई बोला— "इसके पता लगे ।" " भी हो, लेकिन गद्दार है जरूर !" शेरसिंह दृढ स्वर में बटुए से निकालकर वह कागज पढ़ते हैं— शायद कुछ


इस तरह, बेहोश नलकू के बटुए में से कागज में लिपटा पत्थर निकाला गया । हम पाठकों को यहां इस समय ये तो नहीं बता सकते कि गोपालदास और शेरसिंह इस समय यहां किस तरह आ पहुंचे हैं। समय मिलने पर यह स्पष्ट करेंगे- - पहले इस कागज में लिखे मजमून को जल्द पढ़ लें ।


श्री चंद्रदत्त जी,


उम्मीद है कि आपको मेरा कल वाला पत्र भी प्राप्त हो गया होगा । आज एक खास बात मैं पत्र में लिख रहा हूं, यह तो कल के पत्र में लिख ही चुका हूं कि यहां खाद्य सामग्री समाप्त हो चुकी है, अतः अब हमारा सुनहरा दिन करीब आता ही जा रहा है। आज मैं इस पत्र में आपके लिए एक बहुत ही मुख्य बात लिख रहा हूं—वह यह कि आज परेशान होकर सुरेंद्र भैया कांता को मारने के लिए तैयार हो गए — किन्तु इस बात की चिन्ता मत करना, यह तो खैर मैं नहीं होने दूंगा, किन्तु विशेष रूप से चिन्ता का कारण शेरसिंह है। उसका कहना है कि वह अपनी ऐयारी के बल पर बिना लड़े आपको राजधानी के बाहर से ही नहीं, बल्कि भरतपुर के बाहर कर देगा । उसका कहना है कि उसके दिमाग में एक ऐसी तरकीब आ चुकी है कि जिस तरकीब से वह अकेला ही आपको इस हद तक विवश कर देगा कि आप स्वयं ही भरतपुर से अपनी सेना को लेकर बाहर निकल जाएंगे। यह तो मैं भी नहीं समझ पाया कि ऐसी उसके पास कौन-सी तरकीब होगी – परन्तु यह बात आप भी जानते हैं कि शेरसिंह कितना चतुर ऐयार है—उसने अपने दिमाग की योजना सबके सामने नहीं बताई, बल्कि राजा को तखलिए में ले जाकर बताई है। मैं इस पत्र में यह तो नहीं लिख पा रहा कि शेरसिंह किस तरह की ऐयारी करेगा, किन्तु आपको सतर्क करता कि आप किसी तरह के धोखे में न आएं। बस —–—याद रहे, चाहे जैसी भी परिस्थिति बन जाए, मगर आप यहां से अपनी फौज मत हटाना। अपने ऐयारों को सतर्क कर दीजिए। मैं फिर लिखता हूं कि आप किसी तरह के धोखे में न आएं। वरना आप अपने लड़के शंकरदत्त को कभी कांता नहीं दे सकेंगे और मैं कभी भरतपुर का राजा नहीं बन सकूंगा | शेरसिंह की ऐयारी से सावधान | चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए, किन्तु फौजें मत हटाना—इसी में मेरी और आपकी भलाई है। 


— आपका दोस्त हरनामसिंह ।


-“ओह !" पूरा पत्र पढ़ने के बाद गोपालदास बोला— “तो हरनामसिंह गद्दी के लिए अपनी भतीजी (कांता) और भाई सुरेंद्रसिंह का ही दुश्मन बन गया । "


रुकावट के लिए खेद है।


पिशाच की पत्नी रामकली के अपहरण करने के पीछे दुश्मन के ऐयारों का क्या उद्देश्य था ? और वे किसके ऐयार थे—– उमादत्त के, दलीपसिंह के, गौरवसिंह के या बेनजूर के ?


क्या वह रामकली असली थी, जो पिशाच के कमरे में सोई हुई थी कुछ नकाबपोश ऐयारों ने अपहरण कर लिया था ?


या वह जिसे रामकली की खाट के नीचे छिपा नकाबपोश कौन था ?


अर्जुनसिंह की लड़की प्रगति तथा उसके विश्वासपात्र ऐयार नानक को पिशाचनाथ ने कहां कैद करके रखा हुआ था ? क्या प्रगति व नानक पिशाचनाथ की कैद से निकल सके ?


पिशाचनाथ टमाटर को देखकर क्यों घबरा उठता था ?


कलमदान में ऐसा कौन सा रहस्य था, जो मेघराज उमादत्त का राज्य हड़पने से पहले उसे प्राप्त कर लेना बहुत आवश्यक समझता था ? क्या मेघराज वह कलमदान प्राप्त कर सका ?


मेघराज ने रामरतन और चंद्रप्रभा को किस तिलिस्म में नजरबन्द करके रखा था ?


बख्तावरसिंह को उमादत्त ने देश निकाला कर दिया था। क्या उन दोनों में समझौता हो सका ?


विक्रमसिंह उमादत्त का विश्वासपात्र ऐयार था या मेघराज का ? पिशाचनाथ किसका साथ दे रहा था— —— दारोगा मेघराज का या बख्तावरसिंह का ?


क्या शेरसिंह चंद्रप्रभा को झांसा देने में सफल हो सका ? जोरावरसिंह का क्या हुआ ? क्या वह वास्तव में गद्दार था ? ऐसे बहुत सारे प्रश्न हैं जो अनुत्तरित रह गए हैं उन सबके लिए आगामी भाग तीन और चार अवश्य पढ़ें ।

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