देवराज चौहान ने स्टेयरिंग घुमाया, कार पक्की सड़क से उतरकर फार्मों की तरफ जाने वाले कच्चे रास्ते पर उतरकर आगे बढ़ती चली गई। खुला इलाका था। खिड़की से आती ठण्डी हवा से उसके सिर के बालों की लटें, माथे पर झूल रही थीं। वह पैनी निगाहों से आसपास का जायजा ले रहा था कि शायद कहीं वानखेड़े नजर आ जाये, परन्तु ऐसा कुछ भी उसे नजर नहीं आया था।
उसकी कार आगे बढ़ती चली गई, लाजवन्ती पिछली सीट पर आंखों पर पट्टी बंधवाये लेटी थी, देवराज चौहान ने ही सीट पर लेट जाने को कहा था, ताकि बाहर का कोई आदमी आंखों पर पट्टी देखकर खामखाह शक न करे।
एक तरफ पेड़ों के झुरमुट में खड़ा सुधीर, जाती कार को तब तक देखता रहा जब तक कि वह निगाहों से ओझल नहीं हो गई और पीछे धूल का गुबार नहीं छोड़ गई। सुधीर ने बहुत ही तसल्ली भरे अन्दाज से कार ड्राइव करते देवराज चौहान को पहचाना था। देवराज चौहान को देखते ही उसका दिल बल्लियों उछलने लगा था। मोटा शिकार आ पहुंचा था। कार निगाहों से ओझल होते ही उसने मोबाइल पर वानखेड़े से सम्पर्क बनाया।
"हैलो! मैं सुधीर बोल रहा सर।"
"कोई खबर ?"
"यस सर! अभी-अभी देवराज चौहान कार पर फार्मों की तरफ गया है।" सुधीर ने जोश भरे स्वर में कहा।
"गुड ! वैरी गुड। आंख खुली रखकर अपनी जगह पर डटे रहो।"
"आप आ रहे हैं सर?”
“नहीं। अभी मैं बहुत व्यस्त हूं। कम-से-कम दो-तीन घंटे नहीं आ पाऊंगा।"
"देवराज चौहान का क्या करना है?"
"कुछ नहीं करना। तुम सिर्फ निगरानी करते रहो। खास बात हो तो मुझे खबर करो। अपना काम निपटाकर मैं आता हूं। देवराज चौहान तुम्हारे बस की चीज नहीं है। कहीं गलती से उसके सामने पड़कर सारा खेल मत बिगाड़ देना। उसे मैं ही आकर सम्भालूंगा। चिन्ता की कोई बात नहीं। वह उस वैन से दूर नहीं जा सकता, कहीं गया तो फिर लौट आयेगा।"
“ओ०के० सर। आप दो-तीन घण्टे तक आ रहे हैं न?" सुधीर ने पूछा।
“आशा है कि पहुंच जाऊंगा। ओवर एण्ड आल।" कहने के साथ ही दूसरी तरफ से वानखेड़े ने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया।
सुधीर ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी ठीक की और फार्मों की तरफ निगाहें दौड़ाने लगा।
■■■
"कोई कार हमारे फार्म की तरफ आ रही है।" मोटा नटियाल बड़बड़ा उठा ।
उसकी बड़बड़ाहट सुनकर जगमोहन चौंककर खड़ा हो गया। हाथों में रिवॉल्वर चमक उठी, जबड़े में कसाव आ गया। पल भर में ही कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो गया।
“तुम वैन पर ड्यूटी दो। मैं कार को देखता हूं।" जगमोहन ने भिंचे होठों से कहा और रिवॉल्वर थामे आगे बढ़ गया। परन्तु कार पर निगाह पड़ते ही उसकी आंखें सिकुड़ गईं। वह तो उनकी अपनी कार थी। ठिठककर वह पास आती कार को देखने लगा। कार फार्म के मुख्य गेट के पास रुकी। दरवाजा खोलकर देवराज चौहान नीचे उतरा, लकड़ी का फाटक खोलकर पुनः कार में जा बैठा ।
देवराज चौहान को देखते ही जगमोहन का चेहरा प्रसन्नता से भर उठा ।
कार उसके पास आकर रुकी।
"तुम ठीक हो?" जगमोहन फौरन कार के पास पहुंच कर बोला ।
“क्यों?" देवराज चौहान कार से बाहर निकलते हुए बोला--- "मुझे क्या होना है।”
"वैन के साथ तुम यहां नहीं पहुंचे तो मैंने सोचा... पुलिस ने तुम लोगों को घेर लिया है।"
“नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।" देवराज चौहान ने उसकी बात काटकर कहा--- “दरअसल, बैंक से निकलने के पश्चात् हमने चार करोड़ को यहां लाने का इरादा बदल दिया था। वानखेड़े का डर था हमें।”
“फिर कहां रखा पैसा ?"
“अपने ठिकाने पर ।"
“ओह! तुम।” तभी जगमोहन को कार की पिछली सीट पर हलचल सी महसूस हुई तो कहते-कहते वह रुक गया। पीछे वाली सीट पर उसे अट्ठाइस-तीस बरस की युवती दिखाई दी। जिसकी मांग में सिंदूर चमक रहा था, आंखों पर पट्टी बंधी हुई थी। गोद में तीन बरस का बच्चा था। जगमोहन ने गर्दन घुमाकर देवराज चौहान को प्रश्न भरी निगाहों से देखा ।
“यह वैन में मौजूद गार्ड की बीवी है।” देवराज चौहान ने कहा।
जवाब में जगमोहन सिर हिलाकर रह गया। पल भर में ही वह समझ गया कि देवराज चौहान कौन सा खेल खेलने जा रहा है।
“अब तुम आंखों पर बंधे रुमाल को खोल सकती हो।" देवराज चौहान ने लाजवन्ती से कहा ।
लाजवन्ती ने तुरंत आंखों पर बंधे रुमाल को हटा लिया। दो पल वह आंखों को एडजेस्ट करने में लगी रही कि सब कुछ स्पष्ट देख सके ।
“आओ। नीचे आ जाओ।” देवराज चौहान ने कार का पीछे वाला दरवाजा खोलते हुए कहा।
लाजवंती बच्चे को उठाये कार से बाहर निकली और हैरानी से आसपास का वातावरण देखने लगी। फिर उसकी निगाहें घूमती हुई, देवराज चौहान पर जा टिकीं।
"वह कहां हैं?" लाजवंती के होठों से निकला।
"मेरे साथ आओ।" इतना कहकर देवराज चौहान फूंस वाले कमरे की तरफ बढ़ गया। जगमोहन और लाजवंती उसके पीछे चल पड़े।
उनके करीब पहुंचते ही नटियाल मुस्कुराकर बोला---
"हम तो समझे थे, तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो गया है....।"
"नहीं, सब ठीक है।"
"डालचन्द कहां है-- बैंक डकैती का माल---।"
"कहीं और रखा है।"
देवराज चौहान का जवाब सुनकर नटियाल सिर्फ सिर हिलाकर रह गया। यह अलग बात थी कि नटियाल को देवराज चौहान की बात सुनकर कुछ मायूसी ही हुई थी। वह तो सोच रहा था कि डकैती का माल भी फार्म पर ही आ जायेगा। इधर वैन का दरवाजा भी खुलवा लेंगे। जब सारी दौलत इकट्ठी हो जायेगी तो फिर वह उसे हथियाने के लिए कोशिश करेगा। वरना वायदे के मुताबिक तो उसे सिर्फ पचास लाख ही मिलने थे, बाकी के नौ करोड़ तो इन लोगों ने हजम कर जाने थे।
नटियाल ने हैरानी से भरी निगाहों से लाजवंती को देखा।
“यह औरत कौन है?"
“वैन में बन्द दो में से एक गार्ड की पत्नी।" जगमोहन ने जवाब दिया।
नटियाल की आंखें चमक उठीं।
“इसका मतलब अब तो दरवाजा खुलकर ही रहेगा।" उसकी आवाज में खुशी थी।
"मतलब तो कुछ देर बाद खुद-ब-खुद ही समझ में आ जायेगा।" जगमोहन ने जवाब दिया।
देवराज चौहान ने लाजवंती से कहा---
“जब तक मैं न कहूं, तुम नहीं बोलोगी।"
लाजवंती ने सहमतिपूर्ण ढंग से गर्दन हिलाई।
देवराज चौहान वैन के करीब पहुंचा और उसे थपथपाकर बोला---
“मेरी आवाज सुन रहे हो न?"
"क्यों हमें बार-बार तंग कर रहे हो?" भीतर से उखड़ी आवाज आयी।
"मैं देवराज चौहान हूँ-- तुम लोगों से बात करने आया हूँ।"
"हमसे बात करने का कोई फायदा नहीं। क्योंकि वैन का दरवाजा हम नहीं खोलेंगे।" यह दूसरी आवाज थी।
"पागल मत बनो। आखिर कब तक वैन का दरवाजा बन्द रखोगे। कब तक भीतर रहोगे। कभी तो तुम लोगों को बाहर आना ही पड़ेगा। फिर अब ही हमारी बात क्यों नहीं मान जाते।"
"कान खोलकर सुन लो, हम वैन का दरवाजा कभी नहीं खोलेंगे। चाहे भीतर हमारी जान ही क्यों न चली जाये। इस बात को हम पक्की तरह सोचे बैठे हैं कि लूट की दौलत तुम लोगों के हाथ नहीं लगने देंगे।”
“तुम कौन हो, सीताराम या किशनलाल ?" देवराज चौहान ने पूछा।
वैन के भीतर से कोई जवाब नहीं आया।
लाजवन्ती सकते-की-सी हालत में खड़ी, उनकी बातें सुन रही थी।
"जवाब नहीं दिया तुम लोगों ने?”
“तुम्हें हमारे नामों से क्या लेना-देना?" भीतर से तीखा स्वर आया।
“बहुत कुछ लेना-देना है।” देवराज चौहान ने एकाएक सख्त स्वर में कहा--- “जैसे कि मैं सीताराम को समझाना चाहता हूं कि किशनलाल का तो कोई है नहीं। न कोई आगे न पीछे। अपनी दोनों लड़कियों की शादी करके फारिग हो चुका है। परन्तु सीताराम अभी जवान है। घर में बीवी-बच्चा है। यह उम्र अभी उसके मरने की नहीं है। सीताराम को यह बात सोचनी चाहिए।”
“क्या कहना चाहते हो तुम?" भीतर से कठोर स्वर सुनाई पड़ा।
“मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं कि अपने पर नहीं.... बीवी-बच्चों पर तरस खाओ। खामोशी से वैन का दरवाजा खोलो और बाहर आओ। मैं तुम लोगों को यकीन दिलाता हूं, तुम दोनों को कुछ नहीं कहा जायेगा। बल्कि वैन में मौजूद पैसे में से काफी मोटी रकम भी तुम दोनों को दी जायेगी।”
"तुम्हारे ये लटके-झटके हमारे साथ नहीं चलने वाले।" भीतर से सख्त स्वर में कहा गया--- "अपने दिल से, यह ख्याल भी निकाल दो, कि हम वैन का दरवाजा खोलेंगे।"
"अपने बीवी-बच्चों की खातिर भी नहीं?"
"मेरी समझ में नहीं आता कि तुम्हें मेरे बीवी-बच्चों की चिंता क्यों लग गई।" भीतर से तीखी आवाज में कहा गया--- "जाकर अपना काम करो।"
"मुझे तुम्हारे बीवी-बच्चों की चिन्ता इसलिए हो रही है क्योंकि इस समय वह मेरे पास खड़े हैं-- और मेरे ही रहमोकरम पर हैं, अब तुम ही बताओ कि उनका मैं क्या करूं---।"
“क्या?” भीतर से चौंकाहट से भरा स्वर उभरा।
"बात करना चाहोगे?"
"तुम झूठ बोल रहे हो।" इस बार वैन से आती आवाज बहुत ही तेज और गुस्से से भरी थी ।
“कर लो बात.... । सच-झूठ तुम्हारे सामने आ जायेगा।” इतना कहने के साथ देवराज चौहान ने लाजवंती से कहा--- "अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम अपने आदमी को समझा पाती हो या नहीं....। अगर वह समझ गया तो उसकी जान बच जायेगी। नहीं तो मरेगा।”
लाजवन्ती का चेहरा फक्क पड़ गया, घबराये अंदाज में कांपती टांगों से वह वैन के करीब पहुंची। बच्चे को गोद से नीचे उतार दिया था उसने ।
“सुनो जी!” लाजवन्ती ने थरथराते स्वर में कहा।
“लाजो तुम?" भीतर से ही सीताराम का चौंकाहट से भरा स्वर आया--- “तुम यहां ?”
“मुझे यहां भाई साहब यहां लाये हैं।”
“कौन भाई साहब?”
"यही, देवराज चौहान जी ! यह..... ।”
“खामोश रहो! यह लोग भाई साहब कहने के लायक नहीं हैं।"
"नहीं। आपको बहुत बड़ी गलतफहमी हो रही है। यह औरों की तरह नहीं हैं। बहुत अच्छे हैं। आप बाहर आ जाइये। यह आपको कुछ नहीं कहेंगे।"
“लाजो पागल हो गई है तू---।" भीतर से सीताराम क्रोध भरे स्वर में कह उठा--- "तुम इन लोगों को नहीं जानतीं। इनका हर अच्छा बुरा, पैसे के साथ है। इनकी निगाहों में इंसान की कीमत नहीं। इनके साथ आकर तूने बहुत बड़ी गलती की है। यह तुझे लाये ही इसलिए हैं कि वैन का दरवाजा खुलवा सकें। उसके बाद तो इन्होंने फौरन हमें शूट कर देना है। गोली मार देंगे हमें। जान ले लेंगे हमारी। तुम इन लोगों के बारे में अभी कुछ नहीं जानती।"
“आपको बहुत बड़ी गलती हो रही है पप्पू के बापू। यह लोग बहुत अच्छे हैं।"
“चुप रहो---।" वैन के भीतर से ही दहाड़ने की आवाज आई--- “बेवकूफ औरत, जिसने भी तुम्हारे साथ दो मीठे बोल बोल लिए, वही अच्छा हो गया! अक्ल तो है नहीं तुम्हारे में। समझदारी से तो तुम्हारा दूर-दूर से भी रिश्ता नहीं।”
“आप तो हर समय मुझसे लड़ते ही रहते हैं!" लाजवन्ती ने झल्लाकर कहा।
“और मैं क्या करूंगा! तुम काम ही ऐसा करती हो।"
“छोड़िये न सब बातें, आप बाहर आ जाईये। वैन का दरवाजा खोल दीजिये। जैसा यह कहते हैं, आप वैसा ही कीजिये। मैं आपको लेने आई हूं।" लाजवन्ती ने कहा ।
“सरकारी काम में देखल नहीं दो। तुम नहीं जानतीं कि....।"
“मैं सब जानती हूं। अकल तो आपमें है नहीं। छोड़ो इस मुई नौकरी को! यह नहीं तो कोई और सही! मुझे तो बस आप ठीक चाहिए।" लाजवन्ती ने मुंह बनाकर कहा।
“मैं ठीक तो हूं! मुझे क्या हुआ है?" स्वर में झल्लाहट थी।
“यह कहते हैं, हम वैन को आग लगा देंगे। वैन को आग लग गई तो फिर आप ठीक कैसे रहेंगे?” लाजवन्ती का स्वर भर्रा उठा--- “मेरा कहना मानिये, आप वैन से .... ।”
"बे-अक्ल औरत..... यह लोग वैन को आग नहीं लगा सकते! सपने में भी नहीं लगा सकते। इन लोगों को पैसा चाहिए-- जो कि आग लगते ही राख हो जायेगा। तू घर जा, अपना काम कर। पचासों बार कहा है कि आदमी के काम में दखल मत दिया कर । मेरे पीछे चला कर। आगे चलने की कोशिश मत किया कर। बड़ी आई भाई साहब की बहन !"
लाजवन्ती की आंखों से आंसू बह निकले।
“अगर आपने मेरी बात नहीं मानी तो यह लोग आपको जान से मार देंगे। भगवान के लिए आप वैन का दरवाजा खोलकर बाहर आ जाइये। मुझे आप ठीक चाहिये। जो भी होगा देखा जायेगा। मेरे लिए तो आप हैं तो दुनिया है। नहीं तो कुछ भी नहीं.... ।"
"दिमाग खराब हो गया है तेरा। यह लोग क्या समझते हैं, मैं तेरे कहने से बाहर---।"
“पापा.... ।" तभी तीन बरस के नन्हें से बच्चे ने कहा--- "आप कहां हैं पापा ?"
"तू इसे भी साथ ले आई बेवकूफ....।" भीतर से सीताराम का क्रोध से भरा स्वर आया।
“छोटा-सा तो है। घर छोड़कर कैसे आती?" लाजवन्ती ने भीगे स्वर में कहा।
“हे भगवान! इस बेवकूफ बीवी को तूने मेरे ही पल्ले बांधना था। खुद तो मरेगी ही, मुझे भी मरवायेगी! खोटे सिक्के जितनी भी अक्ल नहीं है इसमें---।"
देवराज चौहान ने मुंह पर उंगली रखकर, लाजवन्ती को खामोश रहने का इशारा किया, फिर खुद वैन की बॉडी थपथपाकर बोला---
“अब बोलो। मानते हो तुम लोग मेरी बात...।"
“एक औरत और एक बच्चे के दम पर बाजी जीतना चाहते हो?" स्वर में क्रोध था।
“तुम भी तो गलत ढंग से वैन में बैठे बाजी जीतने की चेष्टा कर रहे हो। जबकि हम पहले से ही बाजी जीते बैठे हैं।” देवराज चौहान ने स्थिर लहजे में कहा--- "मैं इस बात को बहस का मुद्दा नहीं बनाना चाहता। तुम सिर्फ उसी बात का जवाब दो, जो मैं पूछ रहा हूं। वैन का दरवाजा खोलकर बाहर आते हो या नहीं। सोच-समझकर जवाब देना ।"
“अगर ना आयें तो?"
“तो तुम्हारी बीवी और बच्चा हमारे रहमो-करम पर है, जो कि इनके लिए ठीक नहीं है। हम सच कह रहे हैं। दौलत की परवाह किए बिना इस वैन को आग लगा देंगे। और साथ में तुम्हारी बीवी और बच्चे को बांध देंगे। हमने सच कहा है-- और इस सच को अभी अपनी आंखों से देख लोगे।”
अगले ही पल सीताराम का क्रोध से जला-भुना स्वर आया---
“देखो! जिसे तुम अपना भाई साहब कह रही हो, सुन ली उसकी करतूत। ऐसे इन्सान को भाई साहब कहते शर्म नहीं आई थी तुझे-- जो तेरे सुहाग को जिंदा जलाने को कह रहा है।"
लाजवन्ती का चेहरा फक्क । बच्चे को उसने अपने सीने मे चिपका लिया।
"हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है। जवाब दो हमारी बात का।"
तभी दूसरे गार्ड, यानी कि किशनलाल की आवाज आई---
"तुम लोग वैन को आग लगाने का हौसला नहीं कर सकते। इसमें साढ़े पांच करोड़ कैश पड़ा है। नोटों के लिए ही तुम लोगों ने यह सब कुछ किया है, फिर उन्हें आग कैसे लगा सकते हो।"
"लगा सकते हैं।" देवराज चौहान की आवाज में भेड़िये की-सी गुर्राहट थी--- "यह ठीक है कि सब कुछ हम दौलत प्राप्त करने के लिए ही कर रहे हैं, परन्तु हमें इन साढ़े पांच करोड़ की इतनी ज्यादा आवश्यकता नहीं रह गई। क्योंकि आज सुबह ही हमने उसी बैंक से चार करोड़ रुपये और लूटे हैं। चाहो तो अपने वॉयरलैस सेट पर मेरी बात की सत्यता की जांच कर सकते हो। साढ़े पांच करोड़ हाथ से निकल भी गये तो, चार करोड़ तो हमारे पास रहेगा ही, ये राहत वाली बात है हमारे लिए। अब हमें वैन में बंद साढ़े पांच करोड़ के बारे में नहीं सोचना, बल्कि तुम लोगों को अपनी जान के बारे में सोचना है कि जीना है या मरना चाहते हो। अच्छी तरह सोच लो.... ।”
इसके बाद कई पलों के लिए खामोशी छा गई वहां पर ।
कोई कुछ न बोला।
करीब दो-ढाई मिनट के बाद, वैन के भीतर से सीताराम की आवाज आई।
“मैं बाहर आ रहा हूं।"
नटियाल और जगमोहन के चेहरों पर खुशी की तीव्र लहर, दौड़ती चली गई।
देवराज चौहान की आंखों में हल्की-सी चमक उभरी।
“आ....जाओ।"
“फायर करने की कोशिश मत करना।" सीताराम की आवाज पुनः आई।
“चिन्ता मत करो। हम बेवजह किसी की जान लेने में यकीन नहीं रखते....।"
"वैन से पीछे हट जाओ। कम-से-कम बीस फीट दूर हो जाओ।" आवाज फिर आई।
“ठीक है।” देवराज चौहान ने कहा--- “लेकिन एक बात ध्यान रखना, जब तुम वैन से बाहर निकलोगे तो गन को भीतर रखना मत भूलना। खाली हाथ ही बाहर आना।"
"खाली हाथ ही आऊंगा....।" जगमोहन, देवराज चौहान और मोटा नटियाल वैन से बीस फीट दूर हट गये।
एक मिनट बीत गया कुछ नहीं हुआ। फिर वैन का पिछला दरवाजा हिलना आरम्भ हुआ। अगले ही पल पिछले दरवाजे के दोनों पल्ले खुले। सीताराम बाहर कूदा। दरवाजे के दोनों पल्ले बन्द हो गये। भीतर से सिटकनी चढ़ने की आवाज स्पष्ट सुनाई दी।
सीताराम तन्दुरुस्त बदन का व्यक्ति था। चौड़ी छाती। उठे हुए कन्धे । खूबसूरत। सख्त चेहरा। लम्बा कद। अपने जॉब पर यह बिल्कुल फिट बैठता था।
देवराज चौहान का चेहरा एकाएक कठोर होकर लाल सुर्ख हो उठा।
"तुम हमसे धोखा कर रहे हो सीताराम।”
“मेरे स्वामी....।" लाजवन्ती दौड़कर सीताराम से जा लिपटी ।
"तेरे कारण मेरी हिम्मत टूट गई है... ।"
“तो इसमें मेरा क्या कसूर है? मैंने....सबका भला चाहा।”
"चुप रह। आई बड़ी भले वाली। वैन में मैं खतरे में नहीं था, अब मैं खतरे में हूं तेरे कारण.... ।”
लाजवन्ती की आंखों से बड़े-बड़े आंसू बह निकले।
सीताराम ने सख्त निगाहों से देवराज चौहान को देखा।
“तुम किस धोखे की बात कर रहे हो?"
"वैन से तुम अकेले बाहर निकले हो ।"
"तो मैंने कब कहा था कि मेरे साथ किशनलाल भी बाहर निकलेगा? बाहर निकलने की बात तो सिर्फ मेरी ही हो रही थी।" कहने के साथ ही सीताराम आसपास के माहौल का जायजा लेता जा रहा था कि वह किस जगह पर है। यह जगह कहां हो सकती है।
“बात तो तुम दोनों के बाहर निकलने की हो रही थी---।"
“गलत! बात सिर्फ मेरी ही हुई थी.... ।" सीताराम ने कमर पर हाथ रखकर कहा।
दोनों कई पल एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे।
देवराज चौहान समझ गया कि सीताराम इतना सीधा नहीं है जितना कि वह समझ रहा था। कठोर किस्म का सख्त विचारों वाला व्यक्ति है, इसे सीधा करने में काफी मेहनत करनी पड़ेगी।
“किशनलाल को बाहर आने को कहो....।" देवराज चौहान ने पूर्ववत लहजे में कहा।
"क्यों?"
"हमें वैन में मौजूद दौलत को बाहर निकालना है?"
“अभी तुम लोगों को कुछ नहीं मिलेगा।" सीताराम ने दृढ स्वर में कहा।
"क्या मतलब?”
“किशनलाल बाहर आयेगा। तुम हम दोनों को शूट करके दौलत ले लोगे।"
“जब दौलत हमें आसानी से मिल जायेगी तो हम तुम लोगों को क्यों शूट करेंगे?”
“इसलिए कि हम तुम्हारे कामों में कोई अड़चन नहीं डालें, या फिर ऐसी ही कोई बात को.... ।”
“लगता है, तुम्हें अपने बीवी-बच्चे की परवाह नहीं है।" देवराज चौहान ने क्रूर स्वर में कहा और जेब से रिवॉल्वर निकाल ली--- “अभी भी वक्त है, सोच लो....।"
सीताराम की आंखों में दरिन्दगी के भाव आ गये।
“मेरे बीवी-बच्चे को मारने से भी तुम्हें दौलत नहीं मिलने वाली।" सीताराम ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "अलबत्ता रहने से तुम्हें शायद दौलत मिल भी जाये। मैं तुम लोगों के साथ रहकर देखूंगा कि वास्तव में तुम विश्वास के काबिल हो या नहीं। अगर तुम लोग मुझे भरोसे के काबिल लगे तो, किशनलाल से कहकर मैं वैन का दरवाजा खुलवा दूंगा।"
देवराज चौहान होंठ भींचे कई पलों तक उसकी आंखों में देखता रहा।
"ठीक है।" देवराज चौहान के चेहरे पर वहशीपन के भाव आ गये--- "तुम ऐसा चाहते हो तो ऐसा ही सही। लेकिन एक बात का ध्यान रखना, तुम्हारी बीवी और बच्चा हर समय कॉटेज में हमारी कैद में रहेगा। जहां भी तुमने हमसे किसी प्रकार की चालाकी की, वहीं हम तुम्हारी बीवी-बच्चे और तुम्हें शूट कर देंगे। आज के बाद तुम अपने बीवी-बच्चे से तभी मिल सकोगे, जब हमारे हाथ दौलत लग जायेगी, नहीं तो कभी भी नहीं मिल सकोगे।"
सीताराम ने चुनौती भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा, फिर खा जाने वाली निगाहों से अपनी पत्नी को देखकर कह उठा--- "देख ली न अपने भाई साहब की करतूत ? बड़ी आई थी भाई साहब वाली! तुझे यहां आने को किसने कहा था। बेअक्ल! सारी उम्र तुझे समझाते-समझाते मर जाऊंगा, लेकिन तेरे को अक्ल नहीं आने वाली.... ।”
लाजवन्ती पुनः आंसू बहा-बहाकर रोने लगी।
“जगमोहन....।" देवराज चौहान से सीताराम को घूरते हुए सख्त स्वर में कहा--- "मां-बेटे को यहां से ले जाओ और कॉटेज के भीतर किसी कमरे में बंद कर दो और इस सीताराम पर गिद्ध जैसी निगाह रखो। यह मुझे काफी तेज इन्सान लगता है।"
जवाब में सीताराम के होठों पर मुस्कुराहट उभरी।
“जहां भी सीताराम किसी प्रकार की चालाकी करे, वहीं इसे और इसकी बीवी-बच्चे को शूट कर दो। इस काम में जरा भी देर नहीं होनी चाहिए। और तुम भी सुन लो सीताराम-- मैं तुम्हें सिर्फ दो दिन का समय दूंगा। परसों इस वक्त तक तुमने वैन का दरवाजा भीतर से हर हाल में खुलवाना ही है। अगर नहीं खुलवाया तो तब भी तुम लोगों की मौत निश्चित है।"
सीताराम ने जवाब में कुछ भी नहीं कहा।
"तुम अच्छी तरह हमें परसों इस समय तक देख लो।” देवराज चौहान चौहान एक-एक शब्द चबाकर खतरनाक लहजे में गुर्राकर कह उठा।
सीताराम फिर भी कुछ ना बोला।
■■■
नीना पाटेकर टैक्सी से उतरी। उसके चेहरे पर गहरी गम्भीरता छाई हुई थी। सामने ही राजाराम का अड्डा था। वह मन-ही-मन इस बात का फैसला करके ही आई थी कि राजाराम को समझा कर, डालचन्द की मां-बहन को उसकी कैद से निकाल ले जायेगी। राजाराम उसका पुराना जानकार था। बहुत पहले से उसे जानता था। उसे विश्वास था कि वह राजाराम को लाइन पर ले आयेगी।
वह आगे बढ़ी, राजाराम के अड्डे में प्रवेश कर गई। राजाराम तक पहुंचने में उसे कुछ दिक्कत अवश्य हुई, परन्तु दस मिनट पश्चात् वह राजाराम के सामने थी।
राजाराम उसे देखकर मुस्कुराया। खुलकर मुस्कराया।
“पाटेकर मेम साहिबा ! नमस्कार ।" राजाराम हंसकर बोला--- "कैसी हो? बहुत मुद्दत हो गई तुमसे मिले-- जब धन्धे में थी तो अक्सर मुलाकात हो ही जाया करती थी। सुना है, कोई हरामजादा तुम्हारा सारा माल ले उड़ा। वह हरामी हाथ में आया कि नहीं?"
"अभी तो नहीं आया....।" पाटेकर ने शांत भाव में जवाब दिया।
"आयेगा भी नहीं साला।" राजाराम हंसा--- "साला, तुम्हारा माल लेकर ऐसा उड़ा होगा कि देश के सबसे आखिरी शहर में ही जाकर रुका होगा। मैं नहीं समझता कभी वह वापस आयेगा।"
"मुझे मालूम है, वह जो भी है, मेरे हाथ नहीं चढ़ने वाला।" नीना पाटेकर ने सिर हिलाकर कहा--- "वैसे भी अब मैंने उसके बारे में सोचना बन्द कर दिया है।"
"ठीक किया। जो चीज बस में ना हो, उसके बारे में तो सोचना ही नहीं चाहिये।"
“मैं तुम्हारे पास किसी खास काम के सिलसिले में आई हूँ राजाराम....।" नीना पाटेकर बोली।
राजाराम ने पास खड़े भीमराव से कहा---
"तू यहां क्या कर रहा है। पाटेकर साहिबा के लिए चाय-पानी का इन्तजाम कर।"
भीमराव फौरन बाहर निकल गया।
राजाराम ने सिगरेट सुलगाकर, नीना पाटेकर को गहरी निगाहों से देखा।
"हम कब से नहीं मिले पाटेकर साहिबा ? साल से ऊपर हो गया होगा....।"
"हां, डेढ़ साल का वक्त बीत चुका है।" नीना पाटेकर ने शांत भाव में कहा।
"डेढ़ साल हमें मिले हो गया। हम में काम-धन्धे का कोई सिलसिला बाकी नहीं बचा। फिर भी आज तुम मिली हो तो कह रही हो कि, मेरे पास किसी खास काम के सिलसिले में आई हो।"
“जरूरी नहीं कि हमसे हर काम धन्धे से ही सम्बन्धित हो....।"
राजाराम ने सिर हिलाया। बेहद शांत भाव से सिर हिलाकर बोला---
“बात तो ठीक है तुम्हारी। खैर, कहो कौन-सा खास काम तुम्हें हमसे पड़ गया।"
नीना पाटेकर क्षण भर खामोश रही, फिर गम्भीर स्वर में कह उठी---
"डालचन्द को जानते हो ना तुम?"
"कौन?" राजाराम ने असमंजसता भरी निगाहों से नीना पाटेकर को देखा।
"डालचन्द जो शंकर रोड पर रहता है।"
"व.... वह जो कार रेसर है।"
"हां, मैं उसी की बात कर रही हूं....!"
"बहुत ही अच्छी तरह जानता हूं।" राजाराम की आंखें सिकुड़ गईं--- "क्या हुआ है उसे?"
"उसे कुछ नहीं हुआ।" नीना पाटेकर बोली--- "मैं उसी के लिए तुम्हारे पास आई हूं।"
“खुलकर कहो।"
“उसकी मां-बहन तुम्हारे कब्जे में हैं।"
"हैं....।"
“उन्हें छोड़ दो। मैं उन्हें ले जाने आई हूं राजाराम ।”
राजाराम एकाएक खामोश हो गया। चेहरे पर गहरी सोच के भाव उभरते चले गये। उसकी आंखों को ही देख कर कहा जा सकता था कि वह एक ही समय में बहुत कुछ सोच रहा है। रह-रहकर वह नीना पाटेकर पर भी निगाह मार लेता था।
जब उसकी खामोशी लम्बी होने लगी तो नीना पाटेकर ने कहा---
“इसमें इतना सोचने की क्या जरूरत है राजाराम ?"
दो पल राजाराम सिर हिलाता रहा--- फिर सिगरेट सुलगा कर बोला---
“इसमें बहुत कुछ सोचने वाली बात है। वैसे डालचन्द से तेरा क्या वास्ता ?"
"हम दोनों शादी करने वाले हैं।"
“शादी!” राजाराम हंस पड़ा--- "तुझ जैसी खतरनाक शह और शादी! कमाल है!”
"कोई कमाल नहीं है। मैं जो भी हूं, लड़की भी हूं।" नीना ने तीखे स्वर में कहा।
"कब बना शादी का प्रोग्राम....?"
“दस दिन ही हुए हैं....।"
राजाराम मुस्कुराया । तीखी मुस्कान सहित उसने पाटेकर की आंखों में झांका।
“तू आजकल क्या कर रही है?"
"तेरे को इससे क्या मतलब है कि मैं आजकल क्या कर रही हूं....।"
"डालचन्द से तो मतलब है ना, उसी का बता दे कि वह इन दिनों क्या कर रहा है....।"
“तेरे को इस बात से क्या लेना-देना....।"
"बहुत कुछ लेना-देना है।" राजाराम ने एकाएक कड़वे स्वर में कहा--- “डालचन्द जो कर रहा है, वही तू कर रही है। जो तू कर रही है, वही डालचन्द कर रहा है। यानी कि इन दिनों तुम दोनों एक ही काम में लगे हो। वहीं पर तेरी मुलाकात डालचन्द से हुई और शादी का प्रोग्राम बन गया, वरना डालचन्द जैसे इन्सान के साथ तेरा दूर-दूर तक भी वास्ता नहीं होना चाहिए। मैंने गलत तो नहीं कहा।"
“चलो मान लिया कि तू ठीक कहता है।" नीना पाटेकर बोली--- “अब उसकी मां-बहन को....।"
“एक मिनट।” राजाराम हाथ उठाकर बोला--- “अभी मेरी बात समाप्त नहीं हुई। मैं यह जानना चाहता हूं डालचन्द इन दिनों क्या कर रहा है?"
“इस बात से तेरा कोई वास्ता नहीं होना चाहिए।"
“वास्ता!" राजाराम शब्दों को चबाकर बोला--- “कभी-कभी पैदा हो जाता है। मेरी बात का जवाब दो।"
नीना पाटेकर, राजाराम को देखती रही। बोली कुछ भी नहीं।
“अब तुम कैसे मुंह खोलोगी। खैर, मैं ही बता देता हूं। मैंने डालचन्द को बैंक वैन ड्राईव करते देखा। पीछे पुलिस थी और वह आगे। क्यों, मैंने गलत तो नहीं कहा?”
नीना पाटेकर ने बेचैनी से पहलू बदला।
“और आज सुबह मैंने उसे सफेद रंग की वैन ड्राईव करते देखा। सेवाराम-मेवाराम एक्सपोर्ट कम्पनी वाली वैन। बहुत तेज, हवा की माफिक दौड़ा रहा था वैन को और बीच में चार करोड़ रुपया पड़ा था।"
पाटेकर ने पुनः पहलू बदला ।
“और.... ।” उसे कुछ ना कहते पाकर राजाराम बोला--- “कल की बैंक वैन में साढ़े पांच करोड़ था.....।”
पाटेकर के चेहरे पर व्याकुलता की छाप गहरी हो गई।
"कुल मिलाकर साढ़े नौ करोड़ की दौलत बनती है पाटेकर साहिबा, जो कि काफी बड़ी दौलत है। वैसे भी देवराज चौहान के पास काफी दौलत है। बहुत डकैतियां मारी हैं उसने...।"
देवराज चौहान का नाम सुनते ही पाटेकर ने चौंककर राजाराम को देखा।
"तो तुम सब कुछ जानते हो कि हम लोगों ने क्या किया है।"
"हां। कल तुम लोगों ने साढ़े पांच करोड़ के नोटों से भरी बैंक वैन को उड़ाया और आज सुबह बैंक में तुम लोगों ने चार करोड़ रुपये की सफल बैंक डकैती की।"
"कर भी ली तो इसमें तेरा क्या चला गया राजाराम?" पाटेकर ने सर्द लहजे से कहा।
“मेरा तो कुछ नहीं गया।" राजाराम हंसा--- "लेकिन खुरक होती है। खुरक होती है कि तुम लोगों ने चौबीस घण्टों में साढ़े नौ करोड़ पर हाथ मार लिया, जो कि काफी मोटी रकम है। ठीक है ना पाटेकर साहिबा ? वैसे इस काम में तुम्हें कितना मिलेगा ?"
“करोड़ से ऊपर....।”
"वैरी गुड। सबके हिस्से बराबर ही होंगे?"
“हां।”
“सुना है, आज बैंक डकैती में तुम लोगों का एक साथी मारा गया। उसके हिस्से का क्या होगा ?”
“बाकी साथियों में बंट जायेगा।"
“यानी कि जो मरता जायेगा, उसका हिस्सा बाकियों में बंटता चला जायेगा....।"
पाटेकर ने सहमति से सिर हिलाया।
“फिर ठीक है। डकैती का माल कहां पड़ा है पाटेकर साहिबा ?”
“यह बात तो मैं तुझे कभी भी नहीं बता सकती।"
“मुझे मालूम है, इस बारे में तू मुंह नहीं खोलेगी। यह भी नहीं बतायेगी कि डकैती में और कौन-कौन लोग शामिल हैं। खैर, कोई बात नहीं। मैं---।"
“राजाराम....।" पाटेकर ने एकाएक सख्त स्वर में कहा--- “तू मुझे खामखाह की बातों में उलझा रहा है-- जबकि मैं तेरे पास डालचन्द की मां-बहन के लिए आई हूं-- छोड़ दो उन्हें।"
“आई तो तुम अपनी सास-ननद को छुड़ाने ही। अरे वाह, कितनी अजीब बात है। कोई सुनेगा तो उसे कैसा लगेगा कि पाटेकर साहिबा की सास और ननद पैदा हो गई। पाटेकर साहिबा ने हथियार रखकर चूड़िया पहनना शुरू कर दिया है। अब मांग में सिंदूर भी...।"
"राजाराम!" नीना पाटेकर एकाएक गुर्रा उठी।
अगले ही पल राजाराम के हाथ में साइलेंसर लगा रिवाल्वर चमक उठा, जिसका रुख पाटेकर की तरफ था। पाटेकर ठगी सी बैठी रह गई।
"पाटेकर साहिबा, यह वह खिलौना है, जिससे तुम बहुत सालों.. तक खेली हो...।"
"इससे तो मैं अब भी खेलती हूं।" पाटेकर ने सर्द लहजे से कहा--- “अभी भी मेरी जेब में मौजूद है।"
“लेकिन अब तू उससे नहीं खेल सकेगी!"
"क्यों?"
“क्योंकि तू मरने जा रही है। मैं तुझे शूट करने जा रहा हूं। अभी के अभी।"
“मुझे मारने की वजह? दुश्मनी का कारण?" पाटेकर के होंठ भिंच चुके थे।
"कोई वजह नहीं। कोई कारण नहीं। दरअसल इसमें मेरा ही स्वार्थ है। डालचन्द की मां-बहन मेरे कब्जे में हैं। साढ़े नौ करोड़ में वह भी बराबर का हिस्सेदार है। डकैती में एक भाग मारा गया। डालचन्द का हिस्सा बढ़ेगा।"
“तेरे को इस बात से क्या फायदा कि---।"
"बहुत फायदा है।" राजाराम ने कहर भरे स्वर में कहा---
“डालचन्द की मां-बहन मेरे कब्जे में हैं। हिस्सा लेने के बाद उसने मेरे ही दरवाजे पर आना है। जितना ज्यादा उसके पास हिस्सा होगा, उससे उतना ही ज्यादा मैं वसूल कर सकूंगा। समझी ना मेरी बात । तू खामखाह ही बीच में आ फंसी । "
नीना पाटेकर के चेहरे पर सर्द भाव उभरे। निगाहें साईलेंसर युक्त रिवॉल्वर पर जा टिकीं। होंठ भिंच गये थे। चेहरा पत्थर के समान सख्त हो उठा था।
तभी राजाराम के हाथ में दबी रिवॉल्वर से दो खामोश शोले निकले और नीना पाटेकर की छाती में प्रवेश कर गये। नीना पाटेकर का शरीर उछला और कुर्सी से नीचे जा गिरा।
राजाराम के चेहरे पर मौत के भाव छाये हुये थे।
उसी समय भीमराव ने भीतर प्रवेश किया। हाथ में चाय की ट्रे थाम रखी थी। परन्तु कमरे का द्वार खोलते ही वह ठिठक गया। आंखों में अजीब से भाव उभरे।
"ले आ चाय। मैं पी लूंगा। इसकी किस्मत में यह चाय पीना नहीं था।" राजाराम ठण्डे स्वर में बोला।
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खूबचन्द को ना तो उठकर चैन था। ना बैठकर और ना ही खड़े होकर।
बैंक से वह सुबह ही घर पहुंच गया था। तब वह और व्याकुलता से भरा पड़ा था। चार करोड़ की डकैती उसके सामने हुई थी। चौबीस घंटों के दरम्यान साढ़े नौ करोड़ की हुई लूट का वह चश्मदीद गवाह था। उसे पूरा भरोसा था कि कल की बैंक वैन की तरह आज भी चार करोड़ को, फार्म पर ही ले जाया गया होगा।
वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे? उसे मालूम था कि साढ़े नौ करोड़ की दौलत कहां पड़ी है। परन्तु कुछ कर पाने की हिम्मत उसमें नहीं थी, इसलिए बेबस था हाथ पर हाथ रखकर बैठने को। परन्तु बैठता भी कैसे! इतनी बड़ी दौलत उसे परेशान किए दे रही थी, वह सिर्फ यही सोच रहा था कि अगर साढ़े नौ करोड़ में पचास लाख भी उसे मिल जायें तो उसकी जिन्दगी संवर जाएगी।
परन्तु पचास लाख भी आएं कैसे?
बहुत सोच-विचारने के बाद उसे एक ही रास्ता नजर आया। वह जानता था कि इससे आगे वह कुछ भी कर गुजरने के काबिल नहीं था। इसके लिए किसी दमदार व्यक्ति को पकड़ना पड़ेगा, जो इन लोगों से निपटकर, दौलत को हथिया सके। इस काम के लिए किसे पकड़े जो देवराज चौहान जैसे इंसान से टक्कर लेकर उसे हरा सके। जो भी हो, कम-से-कम उसका विश्वासी होना चाहिये। कहीं ऐसा ना हो कि सारी दौलत वही लेकर चलता बने और वह खाली हाथ ही मलता रह जाये। खूबचन्द ने काफी सोचा, परन्तु किसी निश्चय पर नहीं पहुंच सका। उसे मालूम था कि उसे जल्दी ही किसी फैसले पर पहुंचना है। क्यों कि ज्यादा वक्त नहीं था। अगर वह लोग आपस में अपना-अपना हिस्सा बांटकर अपनी राहों पर चले गये तो वह हाथ मलता रह जायेगा। खूबचन्द के सोचने की गति और भी तेज हो गई।
■■■
“तो वह वैन यहां से गुजरी। सफेद रंग की वैन?" इंस्पेक्टर वानखेड़े ने सिर हिलाया ।
"हां साहब।" उस आदमी ने हाथ उठाकर कहा--- "वह देखिये। टेलीफोन का खम्बा भी टेढ़ा हुआ पड़ा है। वैन की साइड उस खम्बे से टकराई थी। मैंने अपनी आंखों से सब कुछ देखा था। मुझे तो लगा जैसे वैन उलटने वाली हो, परन्तु खम्बे से टकराते ही, सीधी सड़क पर दौड़ पड़ी। इसमें तो कोई शक नहीं कि उस वैन का ड्राईवर मास्टर था ड्राइविंग में। वरना जिस तेजी से वैन दौड़ रही थी, उस हिसाब से वह ज्यादा दूर सही-सलामत जा ही नहीं सकती थी।"
वानखेड़े ने सिगरेट सुलगा कर कश लिया।
“एक बात बताओगे साहब?”
"क्या?"
“मैंने सुना है, वैन में मौजूद लोग बैंक डकैती करके भाग रहे थे?"
“हां।” वानखेड़े के होंठों पर हल्की-सी मुस्कान उभरी।
“ओह....।”
“तीन हत्याएं भी उन्होंने की हैं।"
"हे भगवान! कितने की डकैती की?”
“चार करोड़ की..... ।”
“चार करोड़ की!” वह आदमी हड़बड़ा उठा--- "आपका मतलब है जब वैन खम्बे से टक्कर मारकर भाग रही थी तो उसमें चार करोड़ था... ।”
“हां। चार करोड़ था।” वानखेड़े बोला--- “उसके बाद वैन किस तरफ गई ?”
सकते की-सी हालत में, उसने हाथ उठाकर सामने की तरफ इशारा कर दिया।
इंस्पेक्टर वानखेड़े कार में बैठा और आगे बढ़ गया। डेढ़ घंटे से वह वैन के बारे में जानकारी प्राप्त कर रहा था कि वह किस रास्ते पर गई थी। वैन की गति इस कदर खतरनाक थी कि वह कईयों की निगाहों में आई थी। इसी कारण वैन के रास्ते के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती जा रही थी कि वह किन-किन रास्तों से होकर गई है।
आधा किलोमीटर आगे जाने पर फिर उसने वैन के बारे में पूछताछ की। दो तीन से पूछने पर एक फल वाले ने उसे जो जानकारी दी, वह बेहद आशाजनक थी और चौंका देने वाली थी। वानखेड़े को लगा कि वह डकैतों के बेहद करीब आ पहुंचा है।
“साहब! मैंने वैन को एक बार नहीं दो बार देखा।" फल वाले ने धीमें स्वर में फुसफुसा कर कहा ।
“दो बार ?” वानखेड़े ने असमंजसता भरी निगाहों से उसे देखा।
"हां साहब! वह सामने सड़क है ना! जिसके मोड़ पर लैटर बाक्स लगा है, उसी सड़क पर वह सफेद वैन गई थी। मेरी निगाह उस पर जमने का कारण था उसकी स्पीड । तूफान की तरह उड़ी जा रही थी। मैं तो देखते ही समझ गया था कि वह वैन दो चार को मारकर भागी है। पहियों के नीचे कुचल दिया होगा उसने।" कहकर उसने प्रश्न भरी निगाहों से वानखेड़े को देखा, जैसे पूछ रहा है कि उसका विचार सही है या गलत।
उसका हौसला बढ़ाने के विचार से वानखेड़े ने कहा---
“तुमने ठीक सोचा है कि वह वैन किसी को कुचल कर भागी है। फिर?"
"फिर क्या साहब, देखते ही देखते वैन निगाहों से ओझल हो गई।” फल वाले ने पुनः कहा--- “और अभी दस-बारह मिनट भी नहीं बीते होंगे कि वह वैन सामने वाली सड़क से फिर आती दिखाई। दी। पहले की तरह ही स्पीड थी। और इस सड़क से निकलकर उस तरफ निकल गई। मैं समझ नहीं पाया कि उसी रास्ते से वापस क्यों आ गई थी।"
परन्तु वानखेड़े समझ गया था। फल वाले की बात सुनते ही उसकी आंखों में गहरी चमक उभर आई थी। यह जाहिर था कि कहीं आस-पास ही देवराज चौहान ने दूसरा ठिकाना बना रखा होगा, जहां पर चार करोड़ रखा गया है। इसका मतलब वह उस जगह के बेहद करीब है, जहां उन लोगों ने नोटों को रखा है।
वानखेड़े ने पास ही कार पार्क की और पैदल ही उस सड़क की तरफ बढ़ गया, जिधर वैन के आने-जाने के बारे में फल वाले ने बताया था।
उस गली के भीतर थोड़ा-सा बढ़ने पर गलियों का छोटा सा चौराहा था। एक सड़क वह थी जिससे वह खुद चलकर आया था। दूसरी ठीक सामने जा रही थी और तीसरी चौथी दाएं-बाए थीं। वानखेड़े वहीं ठिठक कर आसपास निगाहें दौड़ाने लगा। लोग आ-जा रहे थे। कुछ बच्चे गली में खेल रहे थे।
चन्द क्षण सोचने के बाद वह खेलते बच्चों के पास पहुंचा।
“आप लोगों ने दो-तीन घण्टे पहले यहां आई सफेद वैन को देखा था ?"
सब बच्चे एक-दूसरे को प्रश्न भरी निगाहों से देखने लगे।
“अंकल, हम तो अभी आये हैं खेलने। हमें कुछ नहीं मालूम।"
वानखेड़े के चेहरे पर मायूसी की हल्की परत छा गई। वह जानता था कि वह वैन यहां से कहीं ज्यादा दूर नहीं गई होगी। करीब ही कहीं आई होगी। किसी और से पूछने का विचार बनाकर वह वहां से हटने ही वाला था, कि एक आठ वर्षीय बच्चा बोला---
“अंकल, मैंने देखी थी वह सफेद रंग की वैन ।”
“कहां.... । कहां देखी थी?” वानखेड़े के होठों से निकला।
“बहुत तेज स्पीड थी उसकी। मेन सड़क से सीधी निकल गई थी।" बच्चे ने हाथ उठाकर बताया।
वानखेड़े पुनः चौराहे पर आया और उस तरफ बढ़ गया, जिस तरफ लड़के ने कहा था। उस गली में प्रवेश करते ही वानखेड़े ठिठक गया। वह गली आगे से बंद थी, दस बारह मकान दाई तरफ थे, दस-बारह बाईं तरफ। गली बन्द होने की वजह के कारण ही वैन उसी रास्ते से बाहर निकली थी। यानी कि इन्हीं मकानों में से एक मकान देवराज चौहान का ठिकाना था, यहां दो-तीन घंटे पहले उसने वैन से चार करोड़ को उतार कर रखा था।
वानखेड़े के जिस्म में तनाव भरता चला गया। वह समझ गया कि वह उन लोगों के ठिकाने के बेहद करीब खड़ा है। बस, अब उसे यह मालूम करना था कि इन लोगों का ठिकाना कौन-सा मकान है। और यह बात इस ढंग से उसे जानने की चेष्टा करनी थी कि भीतर मौजूद उन लोगों को इस बारे में शक न हो सके।
■■■
शाम के चार बज रहे थे। सूर्य का झुकाव पश्चिम की तरफ होता जा रहा था। फार्म पर सूर्य की धूप पूरे जोरों के साथ पड़ रही थी, साथ ही अब मध्यम सी हवा चलनी आरम्भ हो गई थी।
फार्म की कॉटेज के एक कमरे में लाजवन्ती और उसका बच्चा बन्द था। खाना उन्हें वक्त पर दे दिया गया था। लाजवन्ती कुछ ज्यादा ही घबराई हुई नजर आ रही थी। देवराज चौहान ने स्पष्ट शब्दों में उसे तसल्ली दी थी कि अगर सीताराम उनके साथ चालाकी नहीं करेगा तो कुछ भी बुरा नहीं होगा। सीताराम का कुछ नहीं बिगड़ेगा। जवाब में लाजवन्ती सिर हिलाकर रह गई थी।
दूसरे कमरे में सीताराम को बंद कर रखा था। नटियाल और जगमोहन में से एक भीतर, सीताराम की ड्यूटी पर होता तो एक बाहर वैन की ड्यूटी पर।
देवराज चौहान एक कमरे में गहरी नींद में पड़ा था।
मोटा नटियाल इस समय कॉटेज की किचन में चाय बनाने में व्यस्त था। सीताराम के कमरे का दरवाजा वह बाहर से बंद कर आया था। जगमोहन कॉटेज के पिछली तरफ फूंस के कमरे में मौजूद वैन की निगरानी पर, कुर्सी पर बैठा था। तभी जगमोहन उठा और वैन के करीब पहुंचकर साइड से उसे थपथपा कर बोला--- “किशनलाल.....।"
“हां....।” वैन के भीतर से आवाज आई।
"कैसा हाल है तुम्हारा?"
“बिल्कुल ठीक हूं। क्यों?"
"तुम्हारा साथी सीताराम तगड़ी ऐश कर रहा है।" जगमोहन ने कहा--- “अपनी खातिरदारी ऐसे करवा रहा है जैसे ससुराल में बैठा हो। नहा-धोकर उसने मेरे नये कपड़े भी पहन लिए हैं।
“यह तो बहुत अच्छी बात है।" वैन के भीतर से किशनलाल का स्वर आया।
“सीताराम कह रहा था कि यूं ही इतना लम्बा समय वैन में बैठा रहा।"
“तुम क्या चाहते हो कि मैं भी वैन से बाहर निकल आऊं ?" भीतर से किशनलाल हंसा।
“मेरी बात छोड़ो, तुम्हारी इच्छा हो तो बेशक बाहर आ सकते हो।" जगमोहन मुस्कुराया ।
“नहीं। मैं वैन के भीतर सीताराम से भी अच्छा हूं। तुम मेरे बारे में फिक्र ना करो।"
“सीताराम बता रहा था कि वैन में खाना खत्म होने वाला है?"
जवाब में किशनलाल ने कुछ नहीं कहा।
"वह इस बात के लिए भी अब धीरे-धीरे तैयार होता जा रहा है कि वैन में पड़ी दौलत में से उसे हिस्सा ले लेना चाहिए। वह समझ चुका है कि हम लोग उसे या उसकी बीबी को छोड़ने वाले नहीं हैं।"
"वह कुछ भी करे, मेरा उससे कोई वास्ता नहीं।" भीतर से किशनलाल की आवाज आई।
"मेरी मानो, तुम भी बाहर आ जाओ।"
"ताकि तुम लोग साढ़े पांच करोड़ को समेट सको?" इस बार किशनलाल हंसा।
"उसमें से तुम्हें भी तो मोटा हिस्सा मिलेगा।”
“पागल हो। मैंने अब दौलत लेकर क्या करनी है? मेरा तो ना कोई आगे, ना पीछे। लड़कियों की शादी कर ही चुका हूँ। अकेली जान हूं। मजे से गुजारा चल जाता है। हिस्सा लेकर खुद को मुसीबत में क्यों डालूं? मैं ऐसे ही ठीक हूं मेरे भाई। अगर दौलत हाथ लग जाये तो तुम लोग ही मजे करना.... ।”
“तुम्हारी मर्जी । नहीं हिस्सा लेना तो मत लो। यह तो और भी अच्छी बात है।" जगमोहन ने सिगरेट को सुलगाकर कश लिया-- "वैन से तो बाहर आ जाओ....।”
“मेरे बाहर आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।"
"मतलब कि जब सीताराम कहेगा, तब बाहर आओगे?"
“हां.... । सीताराम से कहो कि वह यहां आकर मुझे बाहर आने को कहे....।"
"वह तो अभी अपनी खातिरदारी करवा रहा है।"
“जब खातिरदारी करवा ले, तब उसे कहना। उसके कहते ही मैं बाहर आ जाऊंगा।"
“पक्का ?"
“पक्के से भी पक्का।” किशनलाल ने हंस कर कहा--- "लेकिन एक बात सुन लो। वह सीताराम है। तुम लोगों की बात में नहीं आयेगा। वह मुझे कभी भी बाहर आने को नहीं कहेगा।"
“देखते हैं!” जगमोहन वैन से हटकर वापस कुर्सी पर जा बैठा ।
तभी मोटा नटियाल कॉटेज से बाहर निकलकर उसके पास आया। हाथ में चाय का गिलास थाम रखा था, जो कि जगमोहन को थमाते हुए बोला---
"तुम पियो, तब तक मैं सीताराम, उसकी बीवी और देवराज चौहान को चाय दे आऊं.....।"
जगमोहन ने चाय का गिलास थाम लिया। नटियाल वापस चला गया।
नटियाल किचन से गिलास उठाकर सीताराम वाले कमरे में पहुंचा, बाहर से सिटकनी हटाई और भीतर प्रवेश कर गया। सीताराम कुर्सी पर बैठा था। नटियाल उसे देखकर मुस्कुराया। जवाब में सीताराम उसे घूरता रहा।
“लो चाय पियो....।" नटियाल ने चाय का प्याला तिपाई पर रख दिया।
सीताराम फिर भी कुछ न बोला।
"हमारे मेहमान बनकर, तुम्हें कैसा लग रहा है.... सीताराम ?" नटियाल ने मुस्कुराहट भरे लहजे में पूछा।
"मेरी पत्नी कहां है?" सीताराम ने शुष्क स्वर में कहा।
"बगल वाले कमरे में हिफाजत से है। तुम उसकी फिक्र मत करो। हम उसके गार्ड बनकर उसका ख्याल रख रहे हैं। कुछ देर पहले ही मैंने तुम्हारे बच्चे के लिए दूध गर्म करके दिया है।"
सीताराम ने जवाब में कुछ नहीं कहा।
"सीताराम।" नटियाल बोला--- "हम लोगों ने डकैती अवश्य की है। परन्तु वास्तव में हम अच्छे इन्सान हैं। तुम निश्चिंत होकर, किशनलाल को वैन से बाहर आने को कह सकते हो। हम तुम दोनों को कुछ नहीं करेंगे। बल्कि लाखों का माल देकर विदा करेंगे। हम लोग जुबान के पक्के हैं।"
सीताराम शांत निगाहों से नटियाल को देखता रहा-- कुछ नहीं कहा उसने।
"अरे भाई, कुछ तो जवाब में कहो। हां कहो तो कहो.....।"
"तुम लोग अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकोगे। जिस दौलत पर तुम लोगों का हक नहीं, वह तुम लोगों को मिल भी नहीं सकती।" सीताराम ने दृढ़ता भरे लहजे में कहा।
"वह हमारी है। हमने उसे लूटा है।"
"लूटे जाने से पहले वह सरकार की दौलत थी। तुम लोगों का उस पर कोई हक नहीं।"
"यह तुम कहते हो...।"
"हां! यह कहकर मैंने कोई गुनाह तो नहीं कर दिया।" सीताराम मुस्कुराया ।
"शायद तुम जानते नहीं कि तुम्हें हर हाल में किशनलाल को बाहर आने के लिए कहना ही पड़ेगा।"
"हर हाल में क्यों?"
"इसलिए कि तुम और तुम्हारी बीवी और वह छोटा सा बच्चा हमारे कब्जे में हैं। देवराज चौहान के दिए वक्त के भीतर तुमने हमारी बात नहीं मानी तो अपने साथ बीवी-बच्चों की मौत के जिम्मेदार भी तुम होगे।" नटियाल ने सख्त स्वर में उसे चेतावनी दी।
"देवराज चौहान के दिए वक्त तक बात पहुंचेगी ही नहीं।" सीताराम ने सर्द लहजे में कहा।
“क्यों नहीं पहुंचेगी?"
“क्योंकि- ।” सीताराम का चेहरा दरिन्दगी से भरे भावों से भर उठा--- "जब मैं वैन से निकला तो तुम लोगों ने मेरी तलाशी नहीं ली। गन के साथ हमें एक रिवॉल्वर भी मिलता है, जिसे मैं वैन से निकलते समय अपने कपड़ों में छिपा लाया था। यह देखो।" अगले ही पल सीताराम के हाथ में रिवॉल्वर चमक उठी। जिसका रुख नटियाल की तरफ था और उंगली ट्रेगर पर।
नटियाल की आंखें फटी-की-फटी रह गईं, उसके होठों से कोई शब्द न निकला।
“बोलो।” सीताराम की आवाज में ठहराव था--- "अब क्या कहते हो?"
नटियाल को एकाएक होश आया। सूखे होठों पर उसने जीभ फेरी।
“बोल मोटे! अब क्यों नहीं बोलता पहले की तरह लम्बे-लम्बे डायलॉग ?"
“तू.... तू मरेगा। अपने साथ-साथ अपने बीवी-बच्चों को भी ले डूबेगा।"
"मतलब कि तुम मुझे बताने की चेष्टा कर रहे हो कि अगर मैंने कुछ ऐसा-वैसा करने की कोशिश की तो तुम लोग मेरे बीवी-बच्चों की जान ले लोगे।" सीताराम कहर भरी हंसी हंसा।
“जाहिर है।" नटियाल की निगाहें बार-बार रिवॉल्वर की तरफ उठ रही थीं।
सीताराम हंसा।
"इसमें हंसने की बात क्या है। नटियाल ने जल्दी से कहा--- “अपना रिवॉल्वर हमारे हवाले करके हमसे दोस्ती कर लो। हमसे दोस्ती करने का तुम्हें सुनहरा मौका मिला है। तुम्हारा हिस्सा भी बढ़ जायेगा।"
"तुम लोगों से दोस्ती करके मैं अपने बीवी-बच्चों की गर्दन नहीं कटवाना चाहता। वैन के खुलने की देर है, हम सब की लाश इधर-उधर बिखरी होंगी और तुम लोग दौलत के साथ कब के यहां से उड़ चुके होगे। मैं बच्चा नहीं हूं जो कि---।"
“तुम बच्चे नहीं, बेवकूफ हो।" नटियाल ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा--- "हम सब सच्चे मन से तुम लोगों के साथ दोस्ती करना चाहते हैं और तुम हो कि---।"
“बस करो।" सीताराम एकाएक गुर्राया--- "बातों में मुझे फंसाने की कोशिश मत करो....। तुम लोगों की यह बात मेरे लिए बहुत पुरानी है। रिवॉल्वर है तुम्हारी जेब में?"
नटियाल ने सहमति से सिर हिला दिया।
"कौन-सी जेब में?" सीताराम गुर्राया ।
"पैंट की दायीं तरफ वाली जेब में!" नटियाल उसकी आंखों में झांकते हुए बोला।
सीताराम कुर्सी से उठा। वह बेहद सतर्क था, रिवॉल्वर का रुख हर पल नटियाल की तरफ था--- "हरकत मत करना। तुम्हारी जेब से रिवॉल्वर निकालने जा रहा हूं।"
नटियाल खामोशी से खड़ा रहा।
सीताराम ने उसके करीब पहुंचकर रिवॉल्वर निकाली और पोछे हट गया।
“तुम ठीक नहीं कर रहे सीताराम...।"
“मेरे पास आओ।" सीताराम पूर्ववतः लहजे में बोला।
उसकी आंखों में झांकते हुए नटियाल आगे बढ़ा और उसके पास पहुंच गया।
“घूमो! और अपनी पीठ मेरी तरफ करो।"
“मुझे बेहोश करके, तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा, यहां से फरार नहीं हो सकोगे।"
“तुम्हें जो कुछ कहा है, तुम वही करो।" सीताराम एक-एक शब्द चबाकर गुर्राया।
नटियाल के होंठ भिंच गये। वह घूमा, उसकी पीठ सीताराम की तरफ हो गई। सीताराम ने पलक झपकते ही रिवॉल्वर की नाल से थामा और उसका दस्ता वेग के साथ नटियाल के सिर के पीछे वाले हिस्से में मारा। नटियाल के होठों से दर्द भरी कराह निकली। दोनों हाथों से उसने सिर को थाम लिया। आंखों के सामने लाल-पीले तारे नाच उठे।
सीताराम ने दूसरे हाथ में थाम रखी रिवॉल्वर उसकी पीठ से सटा दी।
"सिर से हाथ हटाओ।" सीताराम ने दांत भींचकर कहा।
नटियाल के सिर से हाथ हटते ही सीताराम ने पुनः रिवॉल्वर का दस्ता उसकी खोपड़ी पर मारा। नटियाल का जिस्म लहराया। टांगें मुड़ती चली गयीं और वह बेहोश होकर नीचे जा गिरा। सीताराम ने नटियाल वाली रिवॉल्वर जेब में डाली और अपनी सीधी करके पकड़ी। दस्ते पर नटियाल के सिर का खून लग गया था। जिसे उसने नीचे पड़े नटियाल के कपड़ों से ही साफ किया और कमरे से बाहर निकल गया। चेहरा हद से ज्यादा सख्त हुआ पड़ा था।
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जगमोहन ने चाय समाप्त की। उसके हाथ में रिवॉल्वर थी। निगाहें वैन के बन्द दरवाजे पर थीं-- जिसे कि किशनलाल कभी-भी खोलकर अपनी गन से गोलियां बरसा सकता था।
वैन के बंद दरवाजे को घूरते हुए किसी गहरी सोच में था कि जब गर्दन से ठण्डा लोहा लगा-- तब उसे होश आया। वरना उससे पहले तो, पीछे से आते सीताराम का आभास ही नहीं हो सका था। वह दबे पांव बेहद सतर्कता के साथ आया था। जगमोहन ने चौंककर खड़ा होना चाहा।
“बैठे रहो।" सीताराम की सर्द आवाज उसके कानों में पड़ी।
दो क्षण के लिए तो जगमोहन सकते की सी हालत में बैठा रह गया। अगले ही क्षण उसके मस्तिष्क में बिजली कौंधी। सीताराम यहां, उसके पास रिवाल्वर, इसका मतलब नटियाल का काम हो गया। उसके जबड़े कसते चले गये।
“सीताराम ?” जगमोहन के होठों से निकला।
"हां।"
"हमारी दोस्ती का तुमने यह सिला दिया हमें?" जगमोहन का स्वर तीखा था।
"कैसी दोस्ती? मैंने तो तुम लोगों को कभी दोस्त माना ही नहीं।" सीताराम ने क्रूर स्वर में कहा--- "वैसे भी तुम लोग दोस्त बनने लायक हो ही नहीं। मेरी बीवी-बच्चे को उठा लाये। मैं वैन से निकला तो मुझे कमरे में कैद कर लिया। तुम लोगों की निगाहों में यह दोस्ती की नींव हो सकती है-- मेरी निगाहों में यह दुश्मनी का ही एक हिस्सा है।"
“गलत ख्यालात हैं तुम्हारे। हमारी शराफत देखो। हमने तुम्हारी बीवी-बच्चे को कोई तकलीफ नहीं होने दी, तुम्हें सिर्फ सावधानी के नाते कमरे में बन्द किया था, वैसे हमारा इरादा कोई बुरा नहीं, यह बात अब तक तुमने भी बखूबी समझ ली होगी।"
"मुझे मालूम है तुम लोगों का इरादा बुरा नहीं है।" सीताराम ने कड़वे स्वर में कहा--- "बस, तुम लोग सिर्फ मुझे और मेरे साथी को वैन से निकालकर शूट कर देना चाहते हो, ताकि वैन में मौजूद दौलत पर अपना कब्जा जमा सको। अब अपने हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर ढीली करो।"
“क्यों?"
"रिवॉल्वर की पकड़ ढीली करो।" सीताराम गुर्राया।
जगमोहन ने होंठ भींचकर रिवॉल्वर की पकड़ ढीली कर दी।
सीताराम ने पीछे से हाथ बढ़ाया और जगमोहन के हाथ में से रिवॉल्वर लेकर अपनी जेब में ठूसी और बोला--- “इसी तरह बैठे रहना। हिलना मत।"
जगमोहन ने हिलने की जरा भी कोशिश नहीं की। सीताराम के हाथ में रिवॉल्वर था। और इस समय वह ऐसे हालातों से घिरा था कि जरा-सी गड़बड़ होते ही सीताराम बेहिचक शूटिंग कर सकता था। सीताराम कुर्सी से पीछे हटा और जगमोहन पर निगाह रखे वैन तक पहुंचा।
“किशनलाल!” सीताराम ने पुकारा।
"हां!" वैन के भीतर से सतर्क स्वर सुनाई दिया।
"मैं इन लोगों पर काबू पाने का प्रयत्न कर रहा हूं।" सीताराम बोला।
“बहुत गलत कदम उठा लिया है तुमने।" भीतर से किशनलाल का चिंतित स्वर आया--- "तुम अकेले हो और वह....वह कितने हैं सीताराम! चार या पांच?"
“यहां पर तो सिर्फ तीन ही हैं।"
"तीनों खतरनाक है। तुम इनका मुकाबला नहीं कर सकोगे सीताराम।”
"अब इन बातों का कोई फायदा नहीं। मैं कदम उठा चुका हूं।"
“मैं आऊं?”
“नहीं। तुम भीतर ही रहो। जब तक मैं न कहूं, बाहर मत आना!”
जवाब में किशनलाल ने कुछ नहीं कहा।
“मैं यह मालूम करने की कोशिश करूंगा कि इस समय हम कहां हैं? मालूम होते ही तुम्हें बता दूंगा....। तुम वायरलैस पर पुलिस हैडक्वार्टर खबर कर देना।"
"ठीक है, लेकिन अपने बीवी-बच्चे का ख्याल रखना।"
“चिंता मत करो।” कहने के साथ ही सीताराम ने जगमोहन को देखा।
“नटियाल के साथ तुमने क्या किया है?"
“खास कुछ नहीं।” सीताराम के होठों पर कहर भरी मुस्कान उभरती चली गई।
“मैंने पूछा है क्या किया है।"
“खोपड़ी में रिवॉल्वर की चोट मारकर बेहोश किया है। वह उसी कमरे में बेहोश पड़ा है जिसमें मैं बन्द था। तुम लोग खतरनाक डकैत हो। चाहता तो उसे गोली भी मार सकता था। परन्तु मैंने ऐसा नहीं किया। देखी मेरी शराफत!”
"सीताराम !” जगमोहन कहर भरे स्वर में कह उठा--- "तुम चाहकर भी उसे गोली नहीं मार सकते थे। उसे शूट नहीं कर सकते थे। क्योंकि गोली चलने का मतलब था मेरा और देवराज चौहान का सतर्क हो जाना, फिर तुम कुछ भी नहीं कर सकते थे। अब तक मरे पड़े होते।"
सीताराम मौत की-सी हंसी हंसा। बोला कुछ भी नहीं।
“अब क्या करना चाहते हो?" जगमोहन ने उसकी आंखों में झांका।
"उठो ।”
जगमोहन ने कुर्सी छोड़ी और उठ खड़ा हुआ।
"कॉटेज के भीतर चलो। उस कमरे तक चलो, जहाँ देवराज चौहान मौजूद है।"
"वह कॉटेज पर नहीं है, बाहर गया है।" जगमोहन ने शांत लहजे में कहा।
"ओह!" सीताराम व्यंग्य से बोला--- "फिर तो तुम्हारा वह मोटा....क्या नाम है उसका, नटियाल गलत कह रहा होगा कि देवराज चौहान कॉटेज के कमरे में सोया पड़ा है।"
जगमोहन के होंठ भिंच गये।
"जैसा मैं कहता हूं वैसा ही करते जाओ....। इसी में तुम्हारा भला है।" एकाएक सीताराम गुर्राया।
जगमोहन ने खा जाने वाली निगाहों से सीताराम को देखा।
"यह ठीक है कि मैंने नटियाल पर रिवॉल्वर का इस्तेमाल नहीं किया। परन्तु इसका मतलब यह मत निकालना कि, मैं रिवॉल्वर का इस्तेमाल करूंगा ही नहीं। जहां मुझे जरूरत पड़ेगी मैं पलक झपकते ही गोली चला दूंगा....निशानेबाजी में मैं इनाम ले चुका हूं।"
जगमोहन के दांत पर दांत जम गए।
"चलो।”
जगमाहन बिना कुछ कहे पलटकर कॉटेज की तरफ बढ़ गया। उससे दो कदम पीछे सीताराम हाथ में रिवॉल्वर पकड़े सतर्कता के साथ चलने लगा। एकाएक सीताराम हंसकर बोला---
“तुमने वो कहावत तो सुनी होगी कि सिर मुंडाते ही ओले पड़े।"
“तुमसे ज्यादा अच्छी तरह सुन रखी है।" जगमोहन एक-एक शब्द चबाकर कह उठा।
“बस यही बात तुम लोगों के साथ हुई....।" सीताराम व्यंग्यात्मक हंसी हंसा--- “मेरी बीवी-बच्चे को साथ ले आये कि उनके दम पर मुझे फंसा लोगे। मुझे मजबूर कर दोगे, अपने कहने पर चलने के लिए। देख लो, हुआ उलटा ही, मेरी पत्नी के दम पर तुम लोगों ने जो खेल खेला, वह उल्टा पड़ गया। जो हालत मेरी होनी चाहिए थी, वही हालत अब तुम लोगों की हुई पड़ी है।"
“तो इसमें खुश होने की क्या बात है?" जगमोहन ने सर्द लहजे में कहा।
"इसमें तो सारी बात ही खुश होने की है।" सीताराम ने पूर्ववतः स्वर में कहा।
"बाजी जब पलटती है तो आभास नहीं हो पाता-- जैसे कि हमें नहीं हो सका।"
"भूल में हो। अब बाजी सीताराम के हाथ में है और सीताराम के हाथ में ही रहेगी।" सीताराम के लहजे में कठोरता आयी--- "मैं बाजी को किसी भी हालत में अपने हाथों से नहीं निकलने दूंगा, क्योंकि मैं जानता हूं....बाजी हाथ से निकली कि मेरी जान भी गई।”
"कब तक? आखिर कब तक अपने आपको बचाये रखोगे?" जगमोहन मुस्कुराया ।
"जब मुझे लगेगा कि तुम लोग मेरे लिए खतरनाक बनने जा रहे हो तो मैं गोली चलाने में देर नहीं लगाऊंगा।" सीताराम की आवाज में दरिन्दगी का पुट भरता चला गया था।
"तुम---।"
"फालतू की बात मत करो।" सीताराम उसकी बात काटकर गुर्राया--- “तुम लोगों के साथ मैं बातें करूंगा, दिल खोलकर करूंगा, लेकिन पहले देवराज चौहान से निपट लूं, सबसे बड़ा खतरा तो वही है।"
जगमोहन ने होंठ भींच लिए। उसके बाद वह नहीं बोला। जगमोहन कोई ऐसा मौका चाहता था कि वह सीताराम के हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर पर हाथ डाल सके। परन्तु सीताराम उसकी आशा से कहीं अधिक चालाक और फुर्तीला था। उसने उसको जरा भी मौका नहीं दिया।
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देवराज चौहान के शरीर को झटका लगा, वह गहरी नींद में था। आंखें मिचमिचाकर उसने आंखें खोलीं और करवट लेकर सिर घुमाया, सामने जो नजारा नजर आया, उसे देखते ही उसने चौंककर उठना चाहा तो सीताराम ने कठोर स्वर में कहा---
“हिलो मत ।”
देवराज चौहान जड़ होकर रह गया। उसने तो कभी सोचा भी न था कि खतरनाक खेल का पांसा, इस तरह पलट जायेगा! वह तो निश्चिंत से भी ज्यादा निश्चिंत था, क्रोध भरे अन्दाज में उसने जगमोहन की आंखों में झांका।"
"मुझे नहीं मालूम यह सब कैसे हुआ! मैं तो वैन पर गया। पीछे से आकर इसने मुझे कवर कर लिया, यही बता रहा था कि इसने नटियाल के सिर पर चोट मारकर उसे बेहोश किया है।"
"नटियाल इसके कब्जे में आसानी से नहीं आ सकता था।" देवराज चौहान के होठों से निकला।
"ठीक कह रहे हो।" सीताराम एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--- "नटियाल तो क्या कोई भी मेरे कब्जे में आसानी के साथ नहीं आ सकता था। अगर मेरे पास रिवॉल्वर न होती तो---"
"रिवॉल्वर?" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ गई।
"हां! जब मैं वैन से निकला तो मेरी जेब में, यही वाली सरकारी रिवॉल्वर भी था। जोकि ऑन ड्यूटी हमें दिया जाता है। गन तो मैं वैन में ही रख आया था, परन्तु रिवॉल्वर साथ ले आया था। तुममें से किसी ने भी मेरी तलाशी नहीं ली।"
देवराज चौहान जबड़ों को भींचे सीताराम को घूरता रहा। उसका हाथ काफी देर से जेब की तरफ बढ़ रहा था और अब वह जेब तक पहुंच ही चुका था कि सीताराम सर्द स्वर में बोला---
"जल्दी मरना चाहते हो तो अपने हाथ को हरकत में रखो। जीना चाहते हो तो अपना हाथ जेब के पीछे कर लो। मुझसे किसी रहम की आशा मत रखना देवराज चौहान।”
देवराज चौहान का हरकत करता हाथ ठिठक गया। आंखों में वहशीपन के भाव आ गये। उसने दांत भींचकर जगमोहन को देखा।
"मैंने खास तौर से तुमसे कहा था कि वह आदमी टेढ़ा किस्म का है। इसका ध्यान रखना--- यह तुम लोगों की लापरवाही का ही नतीजा है कि---।”
"किसी ने लापरवाही नहीं की।" सीताराम गुर्राया--- “अगर पूछो तो सच बात यह है कि यह सारी लापरवाही तुम्हारी है। अगर तुम, वैन से निकलने पर मेरी तलाशी ले लेते तो यह सब न होता।"
देवराज चौहान की खतरनाक निगाहें सीताराम पर थीं।
“उठो।" सीताराम ने जगमोहन को कवर किये देवराज चौहान से कहा ।
देवराज चौहान बिना कुछ कहे खामोशी से खड़ा हो गया।
"खिड़की पर लटके पर्दे की डोरी निकालकर लाओ।” सीताराम ने आदेश दिया।
देवराज चौहान अपनी जगह से नहीं हिला ।
“सुना नहीं तुमने---।" सीताराम दांत किटकिटाकर गुर्रा उठा--- "जो मैंने कहा है, फौरन करो।"
देवराज चौहान ने अपने मनोभावों पर काबू पाया और खिड़की की तरफ बढ़ा।
"अपना हाथ जेब से दूर रखना।" पीछे से सीताराम ने चेतावनी दी।
देवराज चौहान ने पर्दे की डोरी खींचकर निकाली तो पर्दा नीचे गिर पड़ा। डोरी थामे देवराज चौहान सीताराम की तरफ बढ़ आया।
“बस, वहीं रहो।"
देवराज चौहान ठिठक गया।
“अपनी जेब से रिवॉल्वर निकालो और नीचे फैंक दो सीताराम ने दरिंदगी भरे स्वर में कहा और रिवॉल्वर जगमोहन की कमर से हटाकर उसके कन्धे पर रख दी। नाल का रुख देवराज चौहान की तरफ था। अब स्थिति यह थी कि देवराज चौहान या जगमोहन कोई भी हरकत करते तो सीताराम आसानी से उन्हें शूट कर सकता था और जेब से रिवॉल्वर निकालते समय देवराज चौहान सीताराम पर गोली चलाता तो वह जगमोहन को लगती क्योंकि सीताराम जगमोहन की ओट में बिल्कुल सुरक्षित था।
देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब से निकाली और नीचे फेंक दी।
“गुड! अब हाथ में पकड़ी पर्दे की डोरी नीचे फैंको ।"
सीताराम के कहने पर देवराज चौहान ने पर्दे की डोरी भी नीचे फैंक दी।
“अब बैड पर पेट के बल लेट जाओ और हाथ पीठ पर रख लो।"
देवराज चौहान के जबड़े कस गये। आंखों से क्रोध की चिंगारियां उभरी जा रही थीं।
"जो तुम कर रहे हो, उसका अंजाम जानते हो?" देवराज चौहान गुर्राया ।
“अन्जाम की परवाह कर लो या काम कर लो।" सीताराम कठोर हंसी हंसा--- “एक ही काम हो सकता है--- और मैं इस वक्त खुद को काम में व्यस्त रखना चाहता हूं। चलो, जो कहा है वही करो।"
दांत पर दांत जमाते देवराज चौहान, सीताराम को घूरता हुआ आगे बढ़ा और बैड पर पेट के बल जा लेटा। अपने दोनों हाथ उसने पीठ पर रख लिए थे।
सीताराम रिवॉल्वर की नाल से जगमोहन की खोपड़ी ठकठकाकर बोला---
"तुम सुनो, अब तुम्हें क्या करना है। याद रहे, जो भी करोगे, मेरी रिवॉल्वर के साये में करोगे। जहां भी तुमने गलत हरकत की, वहीं पर मैं तुम्हें शूट कर दूंगा।" सीताराम ने खतरनाक स्वर में कहा--- "आगे बढ़ो और नीचे पड़े पर्दे की डोरी उठाकर देवराज चौहान के हाथ सख्ती से पीठ पर बांध दो। ध्यान रहे, अगर तुमने चालाकी का इस्तेमाल करते हुए बंधन ढीले बांधे तो मैं तुम्हें शूट करने में जरा भी देर नहीं करूंगा। मरना तो तुम सबको है ही, सोच लेना कि अभी मरना है या थोड़ा-सा और जीना है।"
जगमोहन के चेहरे पर खतरनाक भाव विद्यमान हो गए। अगर उसका बस चलता तो सीताराम को कच्चा ही खा जाता। परन्तु अभी रिवॉल्वर के सामने वह वेबस था, उसका हर कहना मानने पर विवश था।
“सुना नहीं तुमने, जल्दी करो।" सीताराम गुर्राया।
जगमोहन न चाहते हुए भी आगे बढ़ा। और नीचे पड़ी पर्दे की डोरी उठाई और बैड के करीब पहुंचकर क्षण भर के लिए ठिठका। फिर देवराज चौहान के दोनों हाथों को पीठ पर बांध दिया।
“पीछे हटो और छः कदम दूर हो जाओ!" सीताराम बोला।
जगमोहन ने फौरन उसका कहना माना।
"अब देवराज चौहान के बंधन चैक करने जा रहा हूं--- अगर मुझे बंधन ढीले मिले तो तुम्हारी मौत अभी इसी वक्त निश्चित है।" सीताराम ने सर्द लहजे में कहा--- और आगे बढ़कर देवराज चौहान के बन्धनों को चैक किया। अच्छी तरह चैक किया। परन्तु बन्धन ठीक थे।
सीताराम पीछे हटा और जगमोहन से बोला---
"अब पर्दे से अपने लिए डोरी निकालकर लाओ।"
जगमोहन न चाहते हुए भी आगे बढ़ा और परदे से डोरी निकाल लाया। सीताराम ने उसे भी बैड पर डालकर उसके हाथ भी पीछे की तरफ बांध दिए। तब तक देवराज चौहान सीधा हो चुका था और अंगारे भरी निगाहों से सीताराम को देखे जा रहा था, सीताराम ने रिवॉल्वर जेब में डाली और पर्दों से दो डोरियां और निकाली, जिससे देवराज चौहान और जगमोहन की टांगें बांध दीं।
अब वह दोनों बिल्कुल ही बेबस होकर रह गए थे।
"मजा आ रहा है न?" सीताराम दोनों की हालत देखकर हंसा।
"सीताराम, तुम अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार रहे हो।" देवराज चौहान गुर्राया।
"अपने पांव पर।" सीताराम हंस रहा था--- "मैं तो तुम्हारी गर्दन पर कुल्हाड़ी चलाने की सोच रहा हूँ....। सुना है तुम बहुत खतरनाक आदमी हो। क्यों, हो खतरनाक आदमी या ऐसे ही हो?”
"मालूम नहीं।" देवराज चौहान एकाएक सर्द लहजे में बोला--- "लोग ही कहते हैं कि मैं खतरनाक हूं।"
“वायरलैस पर जब मैंने तुम्हारा नाम लिया तो, वह लोग हमें दो मिनट तक बताते रहे कि तुम क्या हो, परन्तु अब सोचता हूं तो लगता है लोगों ने खामखाह तुम्हें सिर पर चढ़ा रखा है। तुम खास कुछ नहीं।"
“सही कह रहे हो तुम।" देवराज चौहान ने सर्द लहजे में कहकर सिर हिलाया।
“अब तुम आराम करो, मैं जरा अभी आया।" सीताराम ने कहा और पलटकर बाहर निकल गया।
सीताराम सीधा उस कमरे में पहुंचा, जहां वह नटियाल को बेहोश करके आया था। बहुत अच्छे वक्त पर पहुंचा वहां, क्योंकि तब नटियाल को होश आ रहा था, उसके होठों से कराहें निकल रही थीं। पीड़ा के कारण अभी आंखें पूरी तरह न खुल पा रही थीं। इससे पहले कि उसे पूरी तरह होश आता, सीताराम ने पर्दे की डोरी खींची और उससे ही उसके हाथ-पांव बांध दिए। तब तक उसे होश आ गया था। नटियाल ने आंखें खोल दीं। ।
सीताराम दांत फाड़कर मुस्कुराया।
“क्यों मोटे! क्या हाल है तेरा?"
जवाब में नटियाल गुर्राया। परन्तु बंधनों में जकड़ा होने के कारण छटपटाकर रह गया। खतरनाक निगाहों से वह सीताराम को घूरता रह गया।
"गुस्सा आ रहा है मेरे मोटे को?" सीताराम बराबर मुस्कुराये जा रहा था।
"बहुत ज्यादा।" नटियाल गुर्राया ।
"तो फिर तड़प! आराम से क्यों पड़ा है?" सीताराम हंसा।
मोटा नटियाल दांत किटकिटाकर रह गया।
"अपने साथियों का हाल नहीं पूछेगा।"
"कहां हैं वह ?"
"तेरी जैसी ही हालत है उनकी। दूसरे कमरे में बंधे पड़े हैं।" सीताराम हंसा।
“दे.... देवराज चौहान भी?” नटियाल ने अचकचाकर पूछा।
“क्यों। देवराज चौहान आसमान से उतरा फरिश्ता है क्या, जो किसी के काबू में नहीं आ सकता। वह भी हमारी तरह इन्सान है। हांड़-मांस का पुतला है।"
नटियाल भिंचे दांतों से उसे देखता रहा। बोला कुछ भी नहीं।
“अब तुम आराम करो।” सीताराम मुड़ता हुआ बोला--- “फुरसत पाकर तुम्हारे हाल वगैरहा मालूम करने आऊंगा।"
परन्तु नटियाल के पुकारने पर ठिठककर पलटा वह।
“एक बात तो बताओ।"
“क्या?”
“तुम हमारा क्या करोगे। हमें बांध तो लिया है.... । आखिर कुछ तो करोगे ही---।”
“जो भी करूंगा, वह तुम सबके सामने आ जाएगा। मैं चाहूं तो तुम सबको शूट कर सकता हूं। सरकार तुम लोगों को मारने के बदले मुझे तगड़ा इनाम देगी। मेरी तरक्की हो जायेगी।”
“तुम...तुम हमें मारोगे?” नटियाल सकपका उठा।
“अभी सोचा नहीं।” सीताराम मुस्कुराया--- "लेकिन एक बात का ध्यान रखना कि तुम लोगों ने वैन रॉबरी के समय हमारे साथी वैन के ड्राईवर को मारा था, उसे शूट किया था।”
“मैंने नहीं मारा....। मैं तो अभी इन लोगों के साथ शामिल हुआ हूं, वैन की निगरानी के लिए।"
“हो तो देवराज चौहान के साथी ही---।”
"तो क्या देवराज का साथी होना जुर्म हो गया?"
“जुर्म का दूसरा नाम ही देवराज चौहान है। मैं तुम्हें वही बातें बता रहा हूं जो वायरलैस पर हमें उसके बारे में बताई गईं। बहरहाल अभी सोचूंगा, तुम लोगों के बारे में मुझे क्या करना। तुम लोगो को शूट करना है....या गोद में बिठाकर खिलाना है।" कहने के साथ ही सीताराम बाहर निकल गया।
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लाजवन्ती बच्चे को सीने से चिपकाये बन्द कमरे में डरी सी बैठी थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह सब क्या हो रहा है। उसने देवराज चौहान के साथ आकर क्या बुरा किया है? देवराज चौहान तो उसे बहुत अच्छा इन्सान लगा है। फिर उसके पति उसे बुरा क्यों कह रहे थे। देवराज चौहान ने उसके पति को मारने की धमकी दी थी, तभी वह उसे बुरा कह रहे होंगे, लाजवन्ती इसी प्रकार उलटी-सीधी सोचों में व्यस्त थी।
तभी बाहर से दरवाजा खुलने की आहट पाकर, वह सहम-सी गई। दरवाजा खुला और सीताराम को भीतर प्रवेश करते देखकर लाजवंती खिल उठी। बच्चे को नीचे खड़ा किया और दौड़कर सीताराम से जा लिपटी---
“नाथ, मेरे स्वामी....।"
"चुप रह। बड़ी आई स्वामी की पुजारिन।" सीताराम ने झल्लाकर उसे अपने से जुदा किया।
"आप हर समय मुझे डांटते ही रहते हैं।" लाजवंती रुआंसी होकर कह उठी।
“तो और क्या करूं तेरा?" सीताराम झल्लाकर बोला--- “तुझे आदमी के काम में दखल देने को किसने कहा था? किसने कहा था कि तू यहां आ जा....।"
“वो भाई साहब---।"
“भाड़ में गए भाई साहब! अरी अक्ल की अन्धी, अभी तक तेरे को समझ नहीं आई.... । तू उस इन्सान को भाई साहब कहे जा रही है....जो तेरे आदमी को जिंदा जलाने जा रहा है।"
“वह सच में थोड़े न जला रहे थे। वह तो आपको डरा रहे थे।"
“उफ!” सीताराम ने माथे पर हाथ मारा और दांत पीसकर कहा--- "तुझे समझाते मेरी सारी उम्र बीत जायेगी, लेकिन तुझे अकल नहीं आने वाली। तुझसे शादी करके तो मैं बाज आया। अगर....अगर मुझे भगवान शादी करने का मौका दे दे तो कभी शादी न करूं। कुंवारा ही बैठा रहूंगा।"
"क्या है ।" लाजवंती की आंखों से आंसू बह निकले--- "अब आप शादी करेंगे।"
"नहीं भाग्यवान नहीं। मैं तो देवराज चौहान की शादी की बात कर रहा था।" सीताराम माथे पर हाथ मारकर बोला--- "कहता कुछ हूं और सुनती तुम कुछ हो---।"
"अभी तो आप भाई साहब को बुरा कह रहे थे, और अब आप उनकी शादी की बात कर रहे हैं...।"
"गलती हो गई। गलती हो गई भाग्यवान। फिर नहीं कहूंगा।" सीताराम दोनों हाथों को जोड़कर माथे से लगाता हुआ बोला--- "यह बता, तू ठीक है न यहां पर?"
"हां ठीक हूं। आप ठीक हैं तो मैं बिल्कुल ठीक हूं। भाई साहब कहां हैं?"
"फिर भाई साहब! तुझे भाई साहब की क्या जरूरत पड़ गई जो---।"
"आप फिर गुस्सा करने लगे। मैंने भाई साहब के बारे में पूछ लिया तो क्या बुरा किया....।"
"कुछ बुरा नहीं किया....।" सीताराम ने बहुत लम्बी सांस ली--- "तू आराम कर, कुछ देर बाद आऊंगा मैं।"
“भाई साहिब---।”
"हां... हां भाई साहब से कह दूंगा, बहन जी याद कर रही थीं।" सीताराम ने कड़े स्वर में कहा और पलटकर बाहर निकलता चला गया।
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सीताराम चैन के पास पहुंचा और थपथपाकर बोला---
"किशनलाल!"
“हां।" भीतर से किशनलाल की आवाज आई--- “तू ठीक तो है।"
"मैं बिल्कुल ठीक है। वह सब लोग मेरे कब्जे में हैं।"
“तेरे कब्जे में?” किशनलाल की आवाज में हैरानी का पुट था।
"हां! तीन ही तो थे, बांध दिया है उन्हें। चिन्ता की कोई बात नहीं।"
"और वह देवराज चौहान ?"
“उसे भी बांध दिया है।"
"कमाल है, वह तो बहुत खतरनाक इन्सान है। तूने कैसे बांध दिया उसे?"
"होगा खतरनाक। मुझे तो किसी तरह की कोई परेशानी नजर नहीं आई।" सीताराम ने हंसकर कहा--- "वैसे भी वह मुझे कोई खास खतरनाक नहीं लगा। बड़ा सादा इन्सान लगा है वह।"
"तो क्या वायरलैस पर पुलिस वालों ने हमें उसके बारे में गलत बताया?”
"मैंने कब गलत बताया। मैंने तो अपना विचार जाहिर किया है तुम पर ।"
“खैर छोड़। मैं बाहर हूं।"
"नहीं.!” सीताराम फौरन बोला--- “बाहर निकलने की गलती मत कर बैठना।”
“क्यों?"
“मुझे तो वह तीन ही नजर आये हैं....। हो सकता है चौथा भी हो। अभी मैंने आसपास निगाह नहीं मारी। और एक बात ध्यान में रखना कि जब तक तुम वैन के भीतर हो। दरवाजा बंद है--- तब तक हमारी साइड दमदार रहेगी। इधर तुम बाहर आ गये, उधर वह लोग किसी प्रकार बंधनों से आजाद हो गए तो खुद सोच लो हमारी क्या स्थिति होगी....। वह लोग क्या हाल करेंगे हमारा ।”
“बात तो तुम्हारी सही है। परन्तु अब क्या करना है?"
“तू ही बता क्या करूं?"
“तूने भी तो कुछ सोचा होगा।"
“अभी तक तो दो ही बातें मेरी समझ में आ रही हैं कि या तो इन सब लोगों को शूट कर दिया जाये, नहीं तो यह जानकर कि यह कौन-सी जगह है, पुलिस को इन्फार्म कर दिया जाये।"
“यह फार्म है, आसपास भी फार्म ही फार्म हैं।"
“मैं बाहर आ जाऊं तो काम बन सकता है, हम एक के दो हो जायेंगे।"
“तुम्हारा कहना तो ठीक है किशनलाल। अगर उनमें से कोई आजाद हो गया। उसने मुझ पर काबू कर लिया या तुम पर काबू पा लिया तो, वैन की दौलत वह ले उड़ेंगे, और हमें भी शूट कर देंगे। क्योंकि तुम्हारे बाहर आ जाने पर हम वैन को भीतर से बंद नहीं कर सकते।"
"तो फिर तू ही कुछ कर---।"
चन्द पलों की खामोशी के पश्चात सीताराम कह उठा---
"किशनलाल इन लोगों को वहां छोड़कर मैं यह मालूम करने के लिए आसपास भी नहीं जा सकता कि यह जगह कहां पर है, अगर जाता हूं तो पीछे मेरे बीवी-बच्चे यहां रहेंगे और अगर इस बीच किसी ने खुद को आजाद कर लिया तो वह मेरी बीवी-बच्चे को नहीं छोड़ेंगे....। मैं सोचता हूं क्यों न इनके मुंह से ही यह जानने की चेष्टा करूं कि यह कौन सी जगह है। अगर नहीं मालूम होता तो कल सुबह यहां से बाहर जाकर मालूम करूंगा। अब तो शाम हो चुकी कुछ ही देर में अन्धेरा हो जायेगा। मुझे ऐसी कोई जल्दी नहीं कि अभी बाहर जाकर मालूम करूं।"
"कहता तो तू ठीक है, लेकिन मेरी भी सोच, अब तो दम घुटता है बन्द वैन में।"
“बस आज की रात बिता ले। तकलीफ सह ले। कल तक इनका इन्तजाम करके तुझे बाहर आने को कह दूंगा। अभी-अभी ताजा-ताजा उन सबको अकेला बांधा है, ज्यादा देर उन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं। क्या मालूम बाहर कितनी देर लगती है।"
तभी सीताराम को लाजवंती कॉटेज से बाहर निकलती दिखाई दी।
"सुनिए जी।" लाजवंती वहां से चीखी--- “भाई साहब कहीं नजर नहीं आ रहे।"
“किशनलाल!” सीताराम होंठ भींचकर कह उठा-- - "तुझसे मैं फिर बात करूंगा। पहले इस भूतनी के सिर से भाई साहब का भूत उतार दूं।"
"तू समझदार है सीताराम, गुस्सा क्यों करता है औरतें ऐसी ही होती हैं।" भीतर से किशनलाल की आवाज आई।
“हद होती है हर बात की-- मैं ।”
“सीताराम ।” किशनलाल की आवाज में सख्ती भर आई--- “होश में रहकर बात कर! तू इस समय घर में नहीं बैठा। यहां हम खतरों से घिरे खड़े हैं। अपनी बीबी की बात पर ध्यान मत दे ।”
"मैंने कहा जी, आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया, कि भाई साहब कहां गये?" लाजवन्ती ने पुनः दूर से ही ऊंचे स्वर में पूछा।
जवाब में सीताराम दांत पीसकर रह गया। वैन के भीतर से किशनलाल के हंसने की आवाज उसके कानों में पड़ी।
■■■
शाम हो रही थी और वानखेड़े परेशानी की हालत में उसी गली के मोड़ पर खड़ा था। दो घण्टे बीत चुके थे उसे गली की निगरानी करते। कई घरों से लोग निकले थे, परन्तु उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था जिसे कि शक की निगाहों से देख सके।
यह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे! अगर निगरानी करने से काम नहीं बना तो सीधा-साधा दूसरा रास्ता था। पुलिस वालों को बुलाकर, यह गली घेरकर घर-घर की तलाशी ले। इससे यह मालूम हो सकता था कि वह लोग कौन से मकान में हैं और कानून की गिरफ्त में भी आ सकते थे। परन्तु यह रास्ता खतरनाक था, इस तरह घर-घर की तलाशी लेने पर वह लोग फायरिंग भी कर सकते थे—जबकि वानखेड़े की कोशिश थी कि खून-खराबा न हो। सब कुछ सुख-शांति से निपट जाये। जिसके आसार उसे दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे थे।
तभी मोबाइल बजा। वानखेड़े ने बात की।
"हैलो!"
"वानखेड़े!" कमिश्नर साहब की आवाज कानों में पड़ी--- “तुम्हारे लिए खबर है।"
“क्या सर?"
“एक जवान और खूबसूरत लड़की की लाश मिली है जो शायद नीना पाटेकर की है। "
“व्हाट सर !” वानखेड़े जोरों से चौंका।
“देखने वालों ने बताया है कि मरने वाली नीना पाटेकर है।"
“यह सम्भव नहीं सर ।"
“क्यों! नीना पाटेकर इस समय तुम्हारे पास है?" कमिश्नर साहब की आवाज आई।
“मेरा मतलब....यह नहीं था सर। "
“लारेंस रोड के पुलिस स्टेशन में लाश मौजूद है-- जाकर देख लो।"
“लाश कहां से मिली सर?”
“यह बात तुम लारेंस रोड पुलिस स्टेशन जाकर भी मालूम कर सकते हो।"
“ले....लेकिन सर, मैं यहां से नहीं हिल सकता।”
"क्या मतलब?"
"मतलब यह सर कि मैं इस समय निगरानी पर हूं। यह जगह छोड़ना मेरे लिए सम्भव नहीं।"
"सुधीर यह काम नहीं कर सकता?"
"सर, मैंने आपसे सुबह बात की थी। सुबह के और अब के हालातों में काफी फर्क है।" वानखेड़े ने गहरी सांस लेकर कहा--- "सुबह मैंने आपको फार्म हाऊस के बारे में बताया था।"
"हां।"
"उस जगह की निगरानी तो सुधीर कर रहा है। मैं तब ही वहां से शहर में आ गया था। आज जो बैंक से चार करोड़ लूटे गये, उस बारे में छानबीन करने के लिये। सर, वैन की गति बहुत तेज थी। उसकी गति के दम पर ही मैंने पूछताछ की और करते-करते उस जगह के करीब आ पहुंचा हूं, जहां पर बैंक डकैती के चार करोड़ और वह लोग हो सकते हैं।"
"वण्डरफुल वानखेड़े! तुमने तो कमाल कर दिया....।"
"मैंने नहीं किया सर -खुद-ब-खुद हो गया।"
“तुम कहां हो?”
"रेलवे रोड के करीब। यहां चौदह ऐसे मकान हैं, जिनमें से एक में वह लोग हो सकते हैं। बस यही समझ में नहीं आ रहा है कि वह लोग किस में हो सकते हैं।" वानखेड़े ने क्षण भर ठिठक कर कहा--- “और सर, ऐसे में नीना पाटेकर की हत्या होना भी अजीब लगता है।”
“हूं.... ।” कमिश्नर साहब का स्वर कानों में पड़ा--- "किसी को भेज दूं तुम्हारे पास ? थोड़ी देर के लिए तुम्हें छुट्टी मिल जायेगी। वैसे भी तुम जिस स्थिति में हो, ऐसे समय में तुम्हारे पास कोई होना चाहिए।”
“आल राइट सर।" वानखेड़े ने कहा--- “भेज दीजिये ।”
“तुम कहां हो? एक बार फिर बता दो।"
वानखेड़े ने अपनी जगह की स्थिति अच्छी तरह समझा दी।
“एक बात कहूं वानखेड़े।"
"यस सर।”
"तुम्हें देवराज चौहान के दो ठिकाने मालूम हैं। कुछ करने की अपेक्षा तुम्हें फौरन एक्शन में आ जाना चाहिये। सबको और दौलत को फौरन अपने कब्जे में ले लो। तुम कहो तो रेड करने का सारा इन्तजाम मैं कर देता हूं।" कमिश्नर साहब की आवाज कानों में पड़ी।
"आप ठीक कह रहे हैं सर!" वानखेड़े ने शांत लहजे में कहा--- “लेकिन मैं दौलत के साथ देवराज चौहान को भी पकड़ना चाहता हूं। वह इस समय यहां पर नहीं है। सुधीर ने बताया था कि मेरे आने के बाद वह फार्म वाले इलाके में गया है। अब यहां से फुर्सत मिले तो वहां जाकर कुछ करूं। अभी तो मुझे यह भी नहीं पता, कि उन फार्मों के जाल में से वह किस फार्म पर मौजूद है।"
“तुम समझदार हो वानखेड़े और अच्छी तरह जानते हो कि कोई भी अपराधी हो, उसे ज्यादा देर तक आजाद छोड़ना ठीक नहीं। तुम उन्हें काफी मौका देते जा रहे हो-- जो कि ठीक नहीं है।"
“मैं आपकी बात का ध्यान रखूंगा सर....।"
“ध्यान ही नहीं रखो। कुछ करो। एक्शन लो।” कहने के साथ ही कमिश्नर साहब ने गहरी सांस ली--- “आल राइट! मैं फिलहाल निहाल चंद को भेज रहा हूं।"
"ठीक है सर।" वानखेड़े ने मोबाइल ऑफ कर दिया।
■■■
वानखेड़े लारेंस रोड पुलिस स्टेशन पहुंचा।
“हैलो! वानखेड़े ने इन्स्पेक्टर से बात की--- “कुछ देर पहले आपको एक जवान युवती की लाश मिली है।"
"ओह! वानखेड़े साहब बैठिये बैठिये, आप खड़े क्यों हैं।" इन्स्पेक्टर ने तुरन्त संभल कर कहा ।
“किसकी है वह लाश?” वानखेड़े बैठते हुए बोला।
“जवान युवती की। सुनने में आ रहा है कि वह नीना पाटेकर नाम की गैंगस्टर युवती की है। परन्तु मैंने अभी तक इस बात का विश्वास नहीं किया, क्योंकि मेरे पास उसकी कोई तस्वीर, कोई रिकार्ड नहीं है। हवलदार को हैडक्वार्टर भेजा हुआ है इसी सिलसिले में। उसके आने पर ही....।"
“आप मुझे उसकी लाश दिखाईये।”
“श्योर सर। वैसे क्या आपने नीना पाटेकर को देखा हुआ है?" इन्स्पेक्टर ने पूछा।
“हां।” वानखेड़े ने सिर हिलाया--- “लाश कहा है?"
“आइये मेरे साथ।” इन्स्पेक्टर उठ खड़ा हुआ।
दोनों उस कमरे से निकलकर, अन्य कमरे में पहुंचे। जहां लकड़ी के बैंच पर मानव शरीर पड़ा नजर आ रहा था। उसके ऊपर चादर डाल रखी थी। इन्स्पेक्टर ने आगे बढ़कर चादर को हटाकर उसका चेहरा नंगा किया है। चेहरा देखते ही वानखेड़े चौंका।
वह नीना पाटेकर की ही लाश थी।
वानखेड़े को विश्वास नहीं आ रहा था कि आज सुबह सफल बैंक डकैती में हिस्सा लेने वाली, खतरनाक गैंगस्टर मर चुकी है। किसी ने उसकी हत्या कर दी है। सीने में दो गोलियों के स्पष्ट निशान नजर आ रहे थे।
वानखेड़े इन्स्पेक्टर के साथ वापस आया, पहले वाले कमरे में आ पहुंचा।
“लाश कहाँ से मिली ?"
“यहां से एक किलोमीटर दूर पार्क के बैंच पर से। पहले तो देखने वाले ने समझा कोई सोया पड़ा है। परन्तु जब पास जाकर देखा तो मालूम हुआ कि किसी की डैडबॉडी है। तो उसने हमें फोन किया।"
“तो आप जाकर लाश उठा लाये....।”
“हां। खानापूरी करने के बाद हम बॉडी को यहां ले आये क्योंकि एक पुलिस वाला उसके नीना पाटेकर होने का दावा कर रहा था। इसलिए हमारे लिए यह जानना जरूरी था कि वह नीना पाटेकर की ही लाश है या किसी और की ?"
“कुछ मालूम हुआ किसने शूट किया था उसे?"
"नहीं। कोशिश तो हमने की, परन्तु मालूम नहीं हो सका। वैसे मैं जल्दी ही मालूम कर लूंगा।"
इन्स्पेक्टर से विदा लेकर वानखेड़े बाहर निकला। वह बेहद कशमकश में था कि नीना पाटेकर को गोलियां किसने मारीं। इस बारे में तो उसे पूरा विश्वास था कि कम से कम देवराज चौहान एण्ड पार्टी तो नीना पाटेकर की जान लेने से रही। वह जानता था कि देवराज चौहान अपने साथियों का पूरा ध्यान रखता है। फिर डकैती के बाद तो, उसे शूट करने का कोई मतलब हो ही नहीं सकता था।
पुलिस स्टेशन से निकलकर, वह अपनी कार तक पहुंचा ही था कि एक कांस्टेबल उसके पास आया और उसकी बांह पकड़कर एक तरफ ले जाकर बोला---
“आप कौन हैं सर?"
"क्या मतलब?" वानखेड़े ने हैरानी से उसे देखा।
"मुझे मालूम हुआ है कि आप बड़े ऑफिसर हैं और नीना पाटेकर की लाश के बारे में इन्क्वायरी करने आये हैं।" कांस्टेबल ने धीमें स्वर में कहा।
"तुम्हारा कहना सही है।"
"सर, मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि पाटेकर की लाश किसी पार्क में नहीं मिली?"
"तो फिर कहां मिली है?" वानखेड़े के स्वर में हैरानी भर आई।
"राजाराम के अड्डे से। अपना इन्स्पेक्टर राजाराम का पिट्टू है। हफ्ता लेता है। उसका हर कहना मानता है। अपने साथ चार पुलिस वालों को ले जाकर, यह लाश हमने राजाराम के अड्डे से उठाई और पार्क के बैंच पर डाल दी। मैं हर पल इन्स्पेक्टर के साथ ही था। बैंक पर डालने के पश्चात् वहां से हर जरूरी खानापूरी इस प्रकार की गई, जैसे लाश बेंच से ही मिली हो।"
"ओह!" वानखेड़े के होंठ सिकुड़ गये।
"हमारा इन्स्पेक्टर तनख्वाह सरकार से लेता है-- और काम करता है राजाराम के...।"
"एक बात बताओगे?" वानखेड़े ने एकाएक कहा।
“क्या?"
"सच बताना।"
“आप पूछिये!"
"तुमने यह बात मुझे क्यों बताई? अपने इन्स्पेक्टर के खिलाफ क्यों गये?"
कांस्टेबल ने क्षण भर सोचा, फिर कह उठा---
"नीना पाटेकर की लाश उठवाते समय राजाराम ने मेरे सामने इन्स्पेक्टर को दस हजार की गड्डी दी और उस गड्डी में से उसने सिर्फ सौ का नोट मुझे दिया। बाकी सब अपनी जेब में डाल लिया। पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है। हम क्या सिर्फ सौ के नोट के लिए ही रह गये हैं-- और वह हजारों बनाता रहे!" हवलदार ने कड़वे स्वर में कहा।
वानखेड़े के होठों पर मुस्कान फैलती चली गई।
“वास्तव में।" वानखेड़े की आवाज में व्यंग था--- "इन्स्पेक्टर ने बहुत बड़ी ज्यादती की है तुम लोगों के साथ। वैसे क्या राजाराम ने कहा था कि पाटेकर को उसने मारा है?"
"हाँ। यह बात वह कह रहा था और हंस भी रहा था हरामजादा।" हवलदार ने मुंह बनाकर कहा।
वानखेड़े ने उसका कंधा थपथपाया और कार की तरफ बढ़ गया।
■■■
शाम तक खूबचन्द ने फैसला कर लिया कि उसे क्या करना है। यूँ उसकी निगाहों में राजाराम पर विश्वास करना ठीक नहीं था, परन्तु कोई और मुनासिब बन्दा सामने न आने पर उसने राजाराम पर ही विश्वास करने की सोच ली थी। उसे डर था कि वह कहीं सोचता ही न रह जाये और यह लोग, अपना-अपना हिस्सा लेकर अपनी-अपनी राह पर चलता कर दें।
खूबचन्द तैयार होकर शाम को राजाराम के अड्डे पर जा पहुंचा। यूँ उसकी निगाहों में राजाराम से बात करना ही बड़ी बात है। दिल जोरों से धड़क रहा था कि कहीं राजाराम किसी बात से क्रोधित होकर, उसके साथ कुछ बुरा ना कर दे।
राजाराम से मिलने में उसे बड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ा। पहले तो उसे राजाराम तक पहुंचाने को कोई तैयार नहीं हुआ। फिर जब खूबचन्द ने इस बात पर जोर देना शुरू किया कि बहुत जरूरी मामला है, राजाराम से बात करनी बहुत जरूरी है, तो उसे रिवॉल्वर के साये में राजाराम तक ले जाया गया। रिवॉल्वर की नाल बदन से लगते ही वह पसीने-पसीने हो उठा था। टांगों में भी कम्पन उभर आया था। उसे महसूस हुआ कि राजाराम के पास आकर गलती कर दी है।
जब वह राजाराम के पास पहुंचा तो कुछ रिवॉल्वरों का डर, कुछ राजाराम का। खूबचन्द की हालत काफी बुरी हो चुकी थी। सूखे होठों को वह बार-बार गीला किए जा रहा था।
राजाराम ने गहरी और भरपूर निगाहों से खूबचन्द को सिर से पांव तक देखा।
"इसकी तलाशी ली।" राजाराम ने अपने आदमियों को देखा।
"जी। कुछ नहीं मिला---।"
"ठीक है। तुम लोग जाओ।"
वह सब बाहर निकल गये।
राजाराम ने खूबचन्द को देखते हुए सिगरेट सुलगाई।
खूबचन्द की हालत पल-प्रतिपल पतली होती जा रही थी। वह एक क्षण के लिए भी इस बात को नहीं भूल पा रहा था कि, उसके सामने राजाराम नाम का खतरनाक आदमी खड़ा है।
“तू मुझसे मिलने आया है?" राजाराम बोला।
खूबचन्द ने थूक निगल कर, गले को गीला करते हुए सिर हिला दिया।
"मुंह में जुबान नहीं है क्या?" राजाराम के माथे पर बल पड़ गये ।
“हां....ह....है...।" खूबचन्द के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं।
“तो मुंह से फूट। अपनी बासी खोपड़ी क्यों हिलाता है।" राजाराम ने पूर्ववतः लहजे में कहा।
“हां-हां।” खूबचन्द के होठों से निकला।
"बैठ---।"
खूबचन्द खड़ा रहा।
“सुना नहीं! बैठ---।" राजाराम एकाएक दहाड़ उठा।
खूबचन्द जल्दी से कांपती टांगों से आगे बढ़कर कुर्सी पर जा बैठा।
“मुझसे घबरा रहा है तू?” राजाराम पुनः बोला।
“हां....हां।”
“मुझते इतना घबरा रहा है तो फिर तू, मेरे से बात क्या करेगा।" राजाराम की आवाज में नर्मी भर आई थी--- “घबरा मत, मैं तुझे खामखाह कुछ नहीं कहने वाला। अगर मुझे तेरी बात पसंद नहीं आई तो बाहर निकाल दूंगा, बस। बोल, क्या करने आया है मेरे पास?"
खूबचन्द ने सूखे होठों पर जीभ फेरी और बोला---
“कुछ बताने आया था।"
“तो बता ना।"
"वो...वो देवराज चौहान है ना। बहुत ही खतरनाक आदमी है।"
“देवराज चौहान---।” राजाराम चौंका--- “वही, जो अक्सर डकैतियां डालता रहता है?"
“हां-हां। मैं उसके बारे में बताने आया था कि आज उसने बैंक में डकैती डाली है, चार करोड़ की और कल उसने, वजीर चंद प्लेस की ग्राउंड फ्लोर पर मौजूद बैंक अहाते में बैंक वैन रॉबरी की है। साढ़े पांच करोड़ रुपया था उस बैंक वैन में ।"
राजाराम ने बेचैन निगाहों से खूबचन्द को देखा।
“तो यह बात तू मुझे क्यों बता रहा है? आखिर कुछ तो बात होगी।"
"हां।" खूबचन्द ने सूखे होठों पर जीभ फेरी--- "मुझे मालूम है वह सारा पैसा कहाँ है---।"
“क्या?” राजाराम उछल पड़ा--- "तू तुझे मालूम है?"
"हां---।"
“साढ़े नौ करोड़ रुपया कहां पर मौजूद है--- तुझे सब पता है?"
"पता है। "
"बता, कहां पर है?" राजाराम की आंखों में तीव्र चमक समा चुकी थी।
खूबचन्द हिचकिचाया। फिर उसने अपने होंठ बंद कर लिए।
“अबे---थोबड़ा खोल । साले, बता वह साढ़े नौ करोड़ कहां पर हैं---।"
"ले-- लेकिन मुझे क्या मिलेगा?" खूबचन्द कठिनता से यह शब्द कह सका।
“तुझे-तुझे क्या चाहिए---।"
“जो भी तुम खुशी से दे दो।" खूबचन्द का हौसला अब वापस आ रहा था।
“ठीक है। एक तेरा---।"
“एक लाख ?” खूबचन्द हड़बड़ा उठा।
“उल्लू के पट्ठे, लाख नहीं--साढ़े नौ में से एक करोड़ तेरा---।" राजाराम झल्लाया।
एक करोड़ के बारे में सुनते ही खूबचन्द का दिल खूब जोरों से हिला।
"अब मुंह से फूटेगा भी हरामी---।"
खूबचन्द ने फार्म की सारी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा---
"इस फार्म पर साढ़े नौ करोड़ पड़ा है।" बैंक वैन तो खूबचन्द इस फार्म पर देख ही चुका था और आगे उसका अनुमान ही था कि बैंक डकैती का पैसा भी फार्म पर ले जाया गया था।
"इस डकैती में कितने लोग हैं---। तुझे मालूम है?"
“हां। देवराज चौहान। जगमोहन। नीना पाटेकर। डालचन्द जिसे कि तुम जानते ही हो। मंगल पांडे और मोटा नटियाल। एक और था, उसका नाम मुझे नहीं मालूम। वह आज सुबह बैंक डकैती के समय मारा गया।
"वाह---।" राजाराम खुशी से हंसा--- "तू तो बहुत कुछ जानता है। इस मामले में कैसे जानता है?"
खूबचन्द ने मोटे तौर पर यह बात भी बता दी।
"हूं---।" राजाराम ने घंटी बजाई और कलाई पर बंधी घड़ी में निगाह मारी।
कुछ ही पलों उपरान्त भीमराव ने भीतर प्रवेश किया।
“भीमराव---।" राजाराम अब गम्भीर था--- "यह खूबचन्द है। इससे सुन ले, क्या कहता है यह। अभी शाम के छः सात बजे हैं। इसकी बात सुनकर चलने की तैयारी कर ले। रात ग्यारह-बारह बजे चलेंगे।"
भीमराव ने प्रश्न भरी निगाहों से खूबचन्द को देखा।
■■■
इंस्पेक्टर वानखेड़े वापस पहुंचा। निहाल चंद निगरानी पर था।
“क्या रहा?"
“मुझे तो कुछ भी नजर नहीं आया सर...।” निहाल चंद बोला--- "ऐसा कोई भी आदमी इस गली के किसी घर से नहीं निकला, जिस पर मैं किसी तरह का शक कर सकूं---।"
वानखेड़े ने सोच भरी मुद्रा में सिर हिलाया।
“अब मैं ज्यादा देर इन्तजार नहीं कर सकता। वह लोग बाहर निकलने का नाम नहीं ले रहे। बहुत ही सावधानी इस्तेमाल कर रहे हैं। इस तरह तो हो सकता है वह कल भी बाहर ना निकलें। जब कि मुझे सुधीर के पास जल्दी पहुंचना है।" कहने के साथ ही वानखेड़े ने मोबाइल निकाला और कमिश्नर साहब से बात की--- “सर, आप पुलिस फोर्स का इन्तजाम कीजिए।”
“कहां पर ?”
“जहां आपने निहाल चंद को भेजा था।"
“आल राइट। कितने में काम चल जायेगा?"
“पैंतीस-चालीस तो कम से कम चाहिए।"
“ठीक है। मैं अभी इन्तजाम करता हूं। वैसे कोई नजर आया?"
“नो सर । उन लोगों ने पूरी तरह खुद को घर में छिपा रखा है।"
“ठीक है।” कमिश्नर साहब का स्वर कानों में पड़ा--- “एक घंटे तक वहाँ फोर्स पहुंच जायेगी। तुम फोर्स को अपने ढंग से इस्तेमाल करने के लिए आजाद होगे ।"
"थैंक्यू सर।" वानखेड़े ने कहा और मोबाइल बंद कर दिया।
■■■
सीताराम ने देवराज चौहान, जगमोहन और मोटे नरियाल को कुर्सियों में बांध दिया था। इस तरह सख्ती के साथ बांधा था कि वह अपनी मर्जी से जरा भी हिल ना सकें।
देवराज चौहान वास्तव में बेबस होकर रह गया था, वह चाहता था उसे सिर्फ एक क्षण के लिए मौका मिले। परन्तु सीताराम उसकी तरफ से खास सावधान था। क्षण तो क्या उसे क्षण के सौंवे हिस्से जितना भी मौका नहीं देना चाहता था। बैंच से उठकर कुर्सी से बांधने के बीच जरा भी लापरवाही नहीं बरती थी उसने। देवराज चौहान का खून खौल रहा था। इतनी बुरी गत उसकी कभी नहीं हुई थी। जिसने भी कुछ उल्टा करने की कोशिश की, उसे दूसरी दुनिया में पहुंचा दिया था। परन्तु यह सीताराम तो उसे मौका देने को ही तैयार नहीं था।
जगमोहन भी बेबस शेर की भांति कुर्सी पर बंधा दहाड़ रहा था। वह भी सिर्फ एक क्षण का मौका चाहता था, जो कि उसे नहीं मिल रहा था।
अलबत्ता नटियाल खामोशी से कुर्सी से बंधा बैठा था। उसका मोटा जिस्म कुर्सी में फंस कर रह गया था।
अगर उसे बांधा न भी जाता तो तब भी, वह बंधे के ही समान था। वह उठता तो कुर्सी ने उसके साथ ही उठ जाना था।
सीताराम उन तीनों को खतरनाक निगाहों से देखता हुआ खड़ा हुआ था। देवराज चौहान की जेब से हासिल किए सिगरेट के पैकिट से उसने सिगरेट सुलगाई।
"इसे देखो तो जरा---।" जगमोहन ने व्यंग से कहा--- "कैसे हराम की सिगरेट पी रहा है। लगता है जैसे पहली बार सिगरेट हाथ लगी हो। नहीं तो बीड़ी पर ही गुजारा चल रहा था।"
सीताराम, जगमोहन को देखकर मुस्कुराया ।
“मुझे अफसोस है कि मैं तुम्हें सिगरेट नहीं पिला सकता।" कहकर सीताराम हंसा।
“तुमसे मांगी भी किसने है?" जगमोहन ने दांत भींचकर कहा।
"कहने का अंदाज तो ऐसा ही था कि जैसे सिगरेट मांग रहा हो।"
तभी नटियाल ने देवराज चौहान से कहा।
"यह सारी मुसीबत तुम्हारी बुलाई हुई है। ना तुम इसकी बीवी को न लाते, ना यह वैन से बाहर आता-- और न ही हमें यह वक्त देखना पड़ता।"
"इसकी बीवी को हम अपने फायदे के लिए लाये थे।" देवराज चौहान ने स्थिर लहजे से कहा--- "यह अलग बात है कि बाजी पलट गई।”
“इस हालत के जिम्मेवार तुम हो---।"
देवराज चौहान ने खतरनाक निगाहों से घूरा तो, नटियाल ने फौरन दूसरी तरफ मुंह घुमा दिया। सीताराम मुस्कुराया, फिर हंसा वह बहुत खुश नजर आ रहा था। एकाएक ही अगले पल उसका चेहरा कठोर हो उठा। वहां क्रूरता के भाव विद्यमान होते चले गये।
नटियाल सकपका कर रह गया।
सीताराम ने दांत भींचकर तीनों को बारी-बारी देखा, सिगरेट का कश लेकर धुंआ उगला। फिर बेहद सर्द स्वर में, खतरनाक अन्दाज में कह उठा---
“यह बात तो तुम लोग अच्छी तरह जानते हो कि मैं तुम तीनों को शूट कर दूं तो सरकार और पुलिस डिपार्टमेंट मुझे इनाम देगा। सिर पर बिठाकर रखेगी।”
“तुम्हारी तरक्की भी हो जायेगी।” देवराज चौहान ने मुस्कुरा कर कहा ।
“बिल्कुल होगी।”
“इस पर भी तुम जिन्दगी भर इतना नहीं कमा सकोगे। इतना पैसा इकट्ठा नहीं हासिल कर सकोगे-- जितना कि तुम हमसे मुफ्त ले सकते हो।” देवराज चौहान ने कहा।
“लालच दे रहे हो मुझे---।"
"कुछ भी समझ लो ।”
“एक बात तुम लोगों को बताता हूं---।" सीताराम हंसा--- "तुम लोगों को मारकर, इसी फार्म पर जमीन में दफन करके सारा पैसा लेकर खिसक जाऊं तो पुलिस यही समझेगी कि देवराज चौहान ने गार्डो को मार दिया होगा और खुद पैसे के साथ भाग गया होगा।"
"यानि कि सारा पैसा खुद हड़पने की सोच रहे हो?" देवराज चौहान भी हंसा।
“तो इसमें बुरा क्या है?"
"कोई बुराई नहीं। लेकिन वैन में मोजूद किशनलाल का क्या करोगे?"
"उसके बारे में तुम फिक्र मत करो देवराज चौहान। किशनलाल वही करेगा जो मैं कहूंगा नहीं मानेगा तो उसे भी जमीन के नीचे तुम लोगों की बगल में दफन कर दूंगा।"
सीताराम ने कहर भरी आवाज में कहा---
"कैसा रहा मेरा आईडिया?"
"आईडिया तो बुरा नहीं---।" देवराज चौहान ने सर्द लहजे में कहा--- "लेकिन कहीं ऐसा न हो कि जब तक तुम अपना यह काम करो, तब तक मैं अपने बंधन खोल लूं। ऐसा हो गया तो, हमारे बदले सिर्फ तुम्हारी लाश ही जमीन में दफन होगी। तब पुलिस ठीक ही सोचेगी कि देवराज चौहान, वैन के गार्डों को मारकर वैन में मौजूद सारी दौलत ले उड़ा होगा।"
“तुम मजाक अच्छा कर लेते हो!" सीताराम ने हंस कर सिगरेट का कश लिया।
"मुझे मौका मिल जाए तो तब तुम्हें मालूम हो कि मजाक---।"
“बस-बस रहने दो।" सीताराम उसकी बात काटकर गुर्राया और देवराज चौहान के सिर पर जा खड़ा हुआ--- "अब मुझे यह बताओ कि यह फार्म शहर के किस भाग में है?"
“यह बात तुम इसलिए जानना चाहते हो कि वैन में से वायरलैस द्वारा पुलिस हैडक्वार्टर सूचित कर सको कि हम लोग कहां पर हैं?" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।
“हां।" सीताराम ने पूर्ववत लहजे से कहा--- "कहां है यह फार्म?"
"बाहर जाकर मालूम कर लो।"
"मैं बाहर नहीं जाना चाहता तुम लोगों को यहां छोड़ कर । तुम तीनों खतरनाक हो। मैं नहीं चाहता कि जब मैं फार्म के बारे में मालूम कर आऊं तो, वापसी पर मुझे अपनी बीवी बच्चे की लाशें देखने को मिलें।" सीताराम का रूप अब एकदम बदला नजर आने लगा था--- "इसलिए यह बात तुम लोगों से मालूम करके रहूंगा कि यह फार्म किस जगह पर है।"
"हो सकता है फार्म शहर से बाहर हो।"
"नहीं, फार्म शहर के भीतर ही है। कल जब तुम लोग वैन यहां लाये थे, तो हमने हिसाब लगा लिया था कि हम शहर में ही हैं। पैंतीस मिनट की ड्राइविंग करके शहर से बाहर नहीं जाया जा सकता।" सीताराम ने एक-एक शब्द चबा कर कहा--- "बोलो, जवाव दो मेरी बात का।"
“यह बात तुम हमसे कभी-भी नहीं जान सकते!" देवराज चौहान का स्वर सख्त था।
तभी सीताराम का हाथ उठा और देवराज चौहान के चेहरे से जा टकराया।
"बोलो, यह जगह कहां है?"
“तुम यह बात मेरे मुंह से कभी नहीं निकलवा सकते सीताराम ।"
“देवराज चौहान! तुम ही नहीं यह दोनों भी अभी बोलेंगे कि यह फार्म कहां पर है।"
“यह तुम्हारी गलतफहमी है।"
“कमीने-कुत्ते-!" एकाएक कुर्सी पर बंधा जगमोहन तड़पकर दरिंदगी भरे स्वर में कह उठा--- “एक बार मुझे खोल दे फिर तुझे बताता हूं कि यह फार्म कहां पर है।"
"अगर मैंने तुम्हें खोलना ही होता तो बांधता ही क्यों?" कहते हुए सीताराम, जगमोहन के पास ठिठका--- "अब तू बतायेगा कि यह जगह कहां है।"
“मेरी बताती है जूती!" जगमोहन दांत किटकिटाकर बोला।
सीताराम कहर भरे अंदाज में हंस पड़ा। उसने नटियाल को देखा।
“तू.... तू.... तो कहता था कि तू इन लोगों का साथी नहीं है।"
“बिल्कुल नहीं हूं।" नटियाल ने गर्दन हिलाई।
"फिर तो तू ही बता देगा कि यह फार्म कहां पर है--- कहां पर है?"
“मैं तुम्हें अवश्य बता देता, परन्तु जब यह लोग मुझे वैन की निगरानी के लिए यहां लाये थे तो मेरी आंखों पर इन्होंने पट्टी बांध रखी थीं।" नटियाल ने सफेद झूठ बोला। क्योंकि वह किसी भी कीमत पर बताना नहीं चाहता था कि यह फार्म कहां पर है।"
"मोटे, अगर तू मेरा साथ दे तो मेरी सिफारिश पर तुझे सरकारी गवाह बना लिया जायेगा--- वरना सारी उम्र जेल में तू सड़ता रहेगा।"
"तू ठीक कहता है।" नटियाल ने लम्बी सांस ली--- "काश! मुझे मालूम होता कि यह फार्म कौन सी जगह पर है।"
"मत बता तेरी मर्जी! लेकिन बाद में तू बहुत पछतायेगा मोटे।"
नटियाल कुछ न बोला।
सीताराम पुनः देवराज चौहान के पास पहुंचा।
“देवराज चौहान, मेरी दिली ख्वाहिश है कि तू अपना मुंह खोले।"
"फिर तो तेरी ख्वाहिश कभी पूरी नहीं होने वाली--- लगा रह सारी उम्र ।"
"कोशिश करने में क्या हर्ज है?"
“कोई हर्ज नहीं।" देवराज चौहान ने जहरीले स्वर में कहा। उसी पल सीताराम का घूंसा देवराज चौहान के गाल से जा टकराया।
देवराज चौहान के होठों से कराह निकली।
"बोल, कहां पर है फार्म?" सीताराम दहाड़ा।
"हरामजादे--- मेरा मुंह नहीं खुलेगा।"
सीताराम एकाएक हंस पड़ा।
“तू बतायेगा। बहुत जल्द ही तू मेरी बातों का जवाब देगा।"
जवाब में देवराज चौहान के होठों पर बेहद खतरनाक मुस्कान नाच उठी।
सीताराम की मुखमुद्रा बेहद कठोर होती जा रही थी। आंखों मे दरिंदगी के भाव भरते जा रहे थे। उसने जेब से रिवॉल्वर निकाल लिया--- और तीनों को बारी-बारी से वहशी निगाहों से देखा।
तीनों की निगाहें उस पर थीं।
रिवॉल्वर और चेहरे के भाव आपस में मेल खा रहे थे।
सीताराम देवराज चौहान के करीब पहुंचा और दरिंदगी भरे स्वर में कह उठा---
“अब मैं तुम्हें मौत का खेल दिखाता हूं---।"
देवराज के जबड़े कसते चले गये। सीताराम छोटे-छोटे कदम उठाता हुआ नटियाल के समीप पहुंचकर ठिठका।
"मौत के खेल की शुरुआत मैं तुमसे शुरू करूंगा मोटे। एक प्रश्न--- एक गोली।"
नटियाल ने सूखे होठों पर जीभ फेरी ।
अचानक ही वहां मौत का सा सन्नाटा फैलता चला गया।
"बोल!" सीताराम ने रिवॉल्वर की नाल नटियाल की ठोड़ी पर लगाई--- “कहां है यह फार्म ?"
नटियाल के होठों से अब भी आवाज न निकली। सीताराम के चेहरे पर छाये भावों को देखकर ही उसने अनुमान लगा लिया था कि सीताराम कुछ भी कर सकता है।
"सुना नहीं तूने? जवाब दे मेरी बात का?" सीताराम ठंडे स्वर में कह उठा ।
“न....मुझे क्या मालूम।" नटियाल के होठों से शब्द निकले।
उसी पल तेज धमाका हुआ।
नटियाल की ठोढ़ी से लेकर चेहरे तक के चिथड़े उड़ गये। पल भर में ही नटियाल का मोटा चेहरा मांस का लटकता लोथड़ा नजर आने लगा।
सीताराम ने देवराज चौहान की तरफ देखा।
“एक को मारकर मैंने सरकार से एक गोल्ड मैडल तो हासिल कर लिया। अभी दो मैडल हासिल करने बाकी हैं। सिर्फ एक प्रश्न- एक गोली ।" कहने के साथ ही सीताराम ने रिवॉल्वर की गर्म-गर्म नाल जगमोहन की ठोढ़ी से लगा दी।
जगमोहन का चेहरा कठोर हो गया। दांत पर दांत जम गये।
देवराज चौहान के चेहरे से हिंसक भाव उभर कर नाचने लगे। आंखों में मौत के तूफान की लहरें उछलने लगीं। परन्तु बन्धनों में जकड़ा होने के कारण वह बेबस होकर रह गया था। सीताराम ने जगमोहन की आंखों में झांका, फिर मौत से भरे लहजे में कह उठा---
“बोलो, जवाब दो! यह फार्म शहर के किस हिस्से में पड़ता है?"
जगमोहन भिंचे दांतों से उसी मुद्रा में बैठा सीताराम की आंखों में झांकता रहा।
सीताराम का चेहरा और भी सख्त हो गया, जगमोहन को जवाब न देता देख कर। ट्रेगर पर उसकी उंगलियों का कसाव बढ़ा। उसने जगमोहन को शूट करने का निर्णय ले लिया था।
तभी दरवाजा खुला और हड़बड़ाई सी लाजवंती ने भीतर प्रवेश किया। कमरे का दृश्य देखते ही उसके होश उड़ते-उड़ते बचे।
“लाजो!" सीताराम गुर्राया--- "तू जा यहां से।"
लाजवंती ने क्रोधित निगाहों से सीताराम को देखा---
"यह आप क्या कर रहे हैं? पागल तो नहीं हो गये हैं आप? हे भगवान! आपने तो एक इन्सान की जान ले ली। अब तो गंगा स्नान करना ही पड़ेगा! यह अच्छा हुआ कि ठांय की आवाज सुनते ही मैं यहां आ गई, वरना अनर्थ हो जाता। आप इनकी और भाई साहब की भी जान ले लेते---।"
सीताराम दांत पीसकर पलटा।
"मेरे काम में दखल मत दे। चली जा यहां से नहीं तो बहुत बुरा होगा।"
“इससे ज्यादा बुरा और क्या होगा कि आप मुझे भी ठांय कर देंगे।”
“लाजो, यह सरकारी काम है। नहीं समझेगी। तू अभी जा, मुन्ने के पास। बेवकूफ मत बन। मैं बाद में तुझे समझा दूंगा।"
“मैं सब समझती हूं.... सब देख रही हूं।" लाजवंती ने आगे बढ़कर सीताराम के हाथ से रिवॉल्वर छीन ली--- “चलिए, खोलिए इन्हें ।"
“पागल हो गई है तू---।"
“पागल तो आप हो गए हैं।"
“मेरे मुंह मत लग वरना---।"
"मुझे धमकी मत दीजिए। बस, आप भाई साहब को खोल दीजिए। मैं इनकी यह हालत नहीं देख सकती। मेरे सीने पर सांप लोट रहा है।"
"इन्हें खोलकर मैं अपनी मौत को बुलावा नहीं देना चाहता।" सीताराम लाजवंती को अपने सामने से हटाना चाह रहा था--- मगर अपनी गांव की बेवकूफ पत्नी के आगे वह विवश होकर रह गया था।
"यह आपको कुछ नहीं कहेंगे। बहुत अच्छे हैं।" लाजवंती ने कहा।
“तू चुप कर बड़ी आई अच्छे-बुरे की ज्ञाता।" सीताराम भड़क उठा--- "घर चलकर तुझे अच्छी तरह समझाऊंगा कि आदमी के कामों में दखल नहीं देते।"
"घर की बात घर चल कर करेंगे--- पहले भाई साहब को खोलिए और इनसे माफी मांगिए।"
सीताराम का दिल चाहा कि वह अपने बाल नोच ले, ऐसी पत्नी से तो बिना पत्नी के अच्छा। इसके दिमाग में तो भूसा भरा हुआ है।
“सुना नहीं आपने?” लाजवंती ने सीताराम को क्रोधपूर्ण निगाहों से देखा।
सीताराम ने दांत पीसकर लाजवंती को देखा--- फिर पलटकर जगमोहन और देवराज चौहान को देखते हुए गुर्राया---
"भगवान ने तुम लोगों को जीने का थोड़ा सा वक्त और दे दिया है....।"
"मैं कहती हूं... भाई साहब को खोल दीजिए।"
“तू चल तो-- अभी तुझे बताता हूं कि आदमी के काम में टांग नहीं अड़ाया करते।" सीताराम लाजवंती को खींचता हुआ बाहर निकलता चला गया। देवराज चौहान और जगमोहन ने चैन की सांस ली। कई पलों तक कोई कुछ न बोला।
फिर देवराज चौहान ने ही खामोशी को तोड़ा---
“जिस तरह सीताराम ने नटियाल को शूट किया---उससे साफ जाहिर होता है कि सीताराम बेहद खतरनाक इरादे वाला इंसान है।"
“हां।" जगमोहन बोला--- “अगर उसकी पत्नी न आती तो मेरा हाल भी नटियाल जैसा ही होना था।”
"तुम सही कह रहे हो।” देवराज चौहान ने गहरी सांस लेकर कहा।
"इस मुसीबत से छुटकारा कैसे मिलेगा?" जगमोहन बोला।
“जब तक यह बंधन नहीं खुलेंगे, हम कुछ नहीं कर सकते। कुछ करो देवराज।”
देवराज चौहान के होठों पर मुस्कुराहट रेंगती चली गई।
“सीताराम के बांधे बंधनों को नहीं खोला जा सकता। साले ने बड़ी मजबूती से बांध रखा है।"
"तो क्या हम ऐसे ही बंधे रहेंगे?"
“मेरे ख्याल से तो ऐसे ही बंधे रहना हमारी मजबूरी है जगमोहन ।”
"हरामजादा फिर अभी आ टपकेगा हमें शूट करने ।" जगमोहन बोला।
देवराज चौहान कुछ कहने की अपेक्षा पुनः अपने बंधनों को खोलने की चेष्टा करने लगा। यह उनकी मौत और जिंदगी का सवाल था। जगमोहन ने खुली खिड़की के बाहर निगाह मारी। आसमान में तारे नजर आ रहे थे। रात का अंधेरा कब का फैल चुका था। और ठंडी हवा खिड़की से आकर कुर्सी से बंधे उनके जिस्मों को राहत सी पहुंचा रही थी।
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