अचानक गूंज गई डोरबैल की चीख से अजय हड़बड़ाकर उठ बैठा।
उसकी रिस्ट वाच साढ़े छह बजने की सूचना दे रही थी।
वह बिस्तर से उठकर प्रवेश द्वार पर पहुँचा।
दरवाजा खोलते ही एक अपरिचित युवक सामने खड़ा दिखाई दिया।
आगंतुक उस ट्रैवल ऐजेंसी से आया था जिसे रात में अजय ने विशालगढ़ की दो ट्रेन टिकट का प्रबन्ध करने के लिए कहा था।
अजय ने उससे टिकट लेकर चैक की और रसीद साइन करके देने के बाद दरवाजा पुनः बंद कर लिया।
ट्रेन जाने में करीब डेढ़ घंटा ही बाकी था। वह टॉयलेट में जा घुसा।
नित्यकर्मों से निवृत्त होने के बाद कॉफी बनाई और बैडरूम में बैठकर चुस्कियाँ लेने लगा।
अचानक उसे दिलीप केसवानी की याद आई। उसे यूँ एकाएक गायब हो गया पाकर दिलीप ने परेशान हो जाना था। इसलिए बता देना ही बेहतर समझा।
उसने रिसीवर उठाकर दिलीप के निवास स्थान का नम्बर डायल किया।
–"हेलो, दिलीप।" संबंध स्थापित होने पर वह बोला–"क्या, हाल है?"
दिलीप का उत्सुकतापूर्ण स्वर लाइन पर उभरा।
–"मजे में हूँ। अपनी सुनाओ। कैसे याद किया?"
–"सारे बखेड़े की जड़ कनकपूर कलैक्शन के बारे में लीड मिली है। हालांकि दमदार लीड तो नहीं कहा जा सकता लेकिन मैंने उसे फॉलो करना है।" अजय ने कहा, फिर, दूसरी ओर से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की जाती पाकर, पूछा–"तुम सुन रहे हो न?"
–"हाँ। कलैक्शन का पता लगाओ। उस शैतान को कानून के हवाले करो जिसने काशीनाथ की हत्या की थी।" केसवानी के स्वर में क्रोध एवं घृणा का गहन पुट था–"ताकि मदनमोहन बेगुनाह साबित हो सके और बेचारी मुक्ता विधवा होने से बच जाए।" संक्षिप्त मौन के बाद पूछा–"बाई दी वे, लीड है क्या?"
–"तुम्हारी बहन रंजना...।"
–"क्या?" तुरन्त बात काटकर पूछा गया–"उसका इससे क्या ताल्लुक है?"
–"कुछ नहीं।" अजय ने कहा–“लेकिन उसका मौजूदा पति ज्वैलर है। मेरी लीड के मुताबिक कनकपुर कलैक्शन उसके चाचा के पास हो सकता है।"
–"गुड! कब जाओगे चैक करने?"
–"बस, जाने ही वाला हूँ।"
–"क्या? लेकिन मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ। मैंने भी तुम्हारे साथ चलना है।"
–"तुम यहीं रहकर मुक्ता का ध्यान रखो। इस वक्त उसे सच्चे हमदर्द की सख्त जरूरत है। लेकिन मेरी इस लीड के बारे में उसे कुछ मत बताना। मैं नहीं चाहता वह कोई झूठी उम्मीद लगा बैठे।"
–"यह सब तो ठीक है लेकिन मैं...।"
–"लेकिन–वेकिन को गोली मारो।" अजय उसकी बात काटता हुआ बोला–"मैं जानता हूं तुम भी इस मामले में कुछ कर गुजरने के लिए मरे जा रहे हो। और तुम्हारी इस भावना की कद्र भी करता हूँ। लेकिन तुम्हारी मौजूदगी यहीं मुक्ता के पास ज्यादा जरूरी है...।"
–"ओफ्फोह, तुम तो लेक्चर झाड़ने लगे, यार।" दूसरी ओर से केसवानी का झल्लाहट भरा स्वर सुनाई दिया–"और नहीं तो कम से कम यही कहकर मेरी तसल्ली कर दो कि जरूरत पड़ने पर मुझे बुला लोगे। समझने की कोशिश करो, विशालगढ़ में मेरे कई क्लायंट हैं जो इस मामले में हमारी मदद कर सकते हैं।"
–"ठीक है।" अजय हँसता हुआ बोला–"मैं होटल, अलंकार में ठहरूँगा और जरूरत पड़ी तो तुम्हें जरूर बुलाऊँगा। खुश हो?"
–"हाँ, शुक्रिया।"
अजय ने संबंध विच्छेद कर दिया।
ठीक तभी डोरबैल की आवाज फ्लैट में गूंजी और वो तब तक गूंजती रही जब तक कि अजय ने दरवाजा नहीं खोल दिया।
आशा के अनुरूप, बाहर नीलम मौजूद थी। औसत से ऊंचे कद वाले उसके गौरे सुडौल शरीर पर फाल्साई रंग का सलवार सूट और ग्रे कार्डीगन सचमुच बेहद जंच रहे थे। उसके चेहरे पर भी खास किस्म की रौनक थी जिसने उसके सुन्दर चेहरे को और ज्यादा सुन्दर बना दिया था। अजय भी प्रभावित हुए बगैर न रह सका। लेकिन उसने ऐसा कुछ जाहिर नहीं किया।
–"तुम?'' वह कृत्रिम रोष प्रगट करता हुआ बोला था–"मैंने तो तुमसे स्टेशन पहुंचने के लिए कहा था।"
–"मुझे याद है।" नीलम उसे धकेलकर भीतर दाखिल होती हुई बोली–"लेकिन मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया।"
–"क्यों?"
नीलम मुस्कराई।
–"इसलिए कि पिछली रात तुम्हारे चले जाने के बाद मुझे महसूस हुआ तुम पर नाराज नहीं होना चाहिए था।" वह बोली–"और मैंने तय किया मेरा जो रोल विशालगढ़ में पहुंचकर शुरू होना है उसे यहीं से शुरू कर देना बेहतर होगा।"
–"सच?"
–"बिल्कुल सच।"
अजय ने बड़े ही रोमांटिक अंदाज में उसे देखने का अभिनय किया।
–"तो फिर।" वह उसकी ओर बढ़ता हुआ बोला–"शुरू हो जाऊं?"
नीलम ने फौरन गिरगिट की भांति रंग बदल दिया।
–"सड़क छाप मजनुओं जैसी एक्टिंग मत करो।" वह आंखें निकालकर गुर्राई–"फौरन कपड़े बदलो और चलो। नीचे टैक्सी इंतजार कर रही है।"
–"क्या?" अजय जानबूझकर बड़बड़ाता हुआ बोला–"सारा रूमानी मूड चौपट कर दिया।" और पलटकर बैडरूम की ओर बढ़ गया।
* * * * * *
उसी शाम विशालगढ़ में।
अजय और नीलम, फाइव स्टार होटल अलंकार में फोर्थ फ्लोर पर स्थित सुइट नंबर चार सौ सत्रह की बाल्कनी में खड़े सूर्यास्त का नजारा कर रहे थे। सामने दूर–दूर तक फैले समुद्र के नीले शांत जल पर पड़ती सूरज की अंतिम किरणें बड़ा ही मनोहारी दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं।
वे दोनों कोई दो घंटे पहले ही होटल में पहुंचे थे। रिसेप्शन पर अजय को बताया गया उनके लिए सुइट बुक है। साथ ही एक सील्ड लिफाफा भी उसे सौंप दिया गया।
जाहिर था थंडर का स्थानीय संवाददाता अरुण कुमार फोन पर दी गई हिदायतों के मुताबिक, सब काम सही ढंग से अंजाम दे चुका था।
नीलम सहित रूम सुइट में पहुंचने के बाद अजय ने लिफाफा खोला। कारपोरेशन के सर्कुलर रोड पर स्थित पार्किंग लॉट की टिकट और कार की चाबियों के अलावा कार रैंटल एजेंसी को बतौर एडवांस दिए गए एक हजार रुपए की रसीद उसमें थी। रसीद में दिए गए ब्यौरे के मुताबिक किराए पर ली गई कार आसमानी रंग की स्टैंडर्ड थी और उसका नम्बर था–वी० एस० 2979।
अजय ने होटल के माध्यम से भी किराए की एक एम्बेसेडर का प्रबंध किया। फिर फ्रेश होने के बाद, वह,और नीलम एम्बेसेडर द्वारा मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर दूर सर्कुलर रोड पहुंचे। अटेंडेंट को जरा भी शक करने का मौका दिए बगैर उन्होंने पार्किंग लॉट में करीब तीन सौ कारों के बीच मौजूद, स्टैंडर्ड की स्थिति का निरीक्षण कर लिया। स्टैंडर्ड का इस तरह गोपनीय ढंग से प्रबंध किसी अप्रत्याशित एमरजेंसी की खातिर किया गया था। इसलिए अजय नहीं चाहता था जरूरत पड़ने पर उसे कारों की भीड़ में ढूंढने में वक्त जाया करना पड़े।
स्पेयर कार के प्रबन्ध से सन्तुष्ट होने के बाद उन्होंने दीवान पैलेस के जो शहर के बाहर समुद्र से सीधा ऊपर ऊंची पहाड़ी पर बनी एक महलनुमा इमारत थी, आसपास भी चक्कर लगाया। अजय ने अपनी योजना के नजरिए से वहां के भूगोल का अध्ययन किया और होटल लौट आए।
अब तक अजय अपनी योजना पर नीलम से भी विचार विमर्श कर चुका था। उसके विचारानुसार खतरनाक होने के साथ–साथ योजना में कई नुक्स थे। खुद अजय भी इससे सहमत था लेकिन उससे बेहतर कोई योजना न तो उसके पास थी और न ही नीलम उसे सुझा पाई। इससे भी बड़ी बात थी अन्य किसी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए जरूरी इन्तजामात करने लायक न तो वक्त था और न ही साधन।
–"अगर तुम रंजना को राजदार बनाकर कोई योजना बनाते।'' नीलम ने अपनी बगल में खड़े सूर्यास्त का दृश्य निहारते अजय को टोका–"तो क्या तुम्हारा काम आसान नहीं हो जाना था?"
–"नहीं।" अजय ने जवाब दिया–"रंजना मुझे दीवान पैलेस में सिर्फ चोरी से एन्ट्री दिला सकती थी। वो भी उसी सूरत में कि वह यहां मौजूद रहती। लेकिन उसने बताया था आज शाम उसका पति हरीश विराट नगर पहुंचेगा। फिर पति–पत्नी और सुमेरचन्द का दो–तीन दिन वहीं रहने का प्रोग्राम है।" फिर तनिक रुककर बोला–“आज रात दीवान पैलेस में नौकरों और रंजना के जेठ के अलावा कोई नहीं होगा।"
–"मान लो कलैक्शन वहीं है। तो तुम उस तक पहुंचोगे कैसे?"
अजय मुस्कराया।
–"मैं पहले भी तुम्हें बता चुका हूं पचास फीसदी तो जमील का शागिर्द होने की वजह से और बाकी पचास फीसदी ऐसे मौकों पर अक्सर साथ देने वाली अपनी तकदीर की वजह से।" वह बोला–"मत भूलो नेकी करके दरिया में डालने वालों की खुदा भी जरूर मदद करता है।"
–"तुम्हारी मदद तो तुम्हारा खुदा कर देगा।" नीलम ने पूछा–“लेकिन मेरी मदद कौन करेगा?''
–"तुम्हें मदद की क्या जरूरत है?"
–"क्यों? सेंधमारी करने मुझे साथ नहीं ले चलोगे?"
–"नहीं।"
–"तो फिर मुझे यहां लाए किसलिए हो?"
–"इसलिए कि मुझमें दिलचस्पी लेने वालों को तुम्हें मेरे साथ देखकर मेरा यहां आने का मकसद सिर्फ मस्ती मारना ही नजर आए।"
नीलम ने उसे घूरा और एक–एक शब्द पर जोर देती हुई बोली–"मैं तुम्हारे साथ दीवान पैलेस चलूंगी।"
–"नामुमकिन!'' अजय ने दो टूक जवाब दिया–“तुम्हें वहां मैं नहीं ले जाऊंगा।"
–"और इस खतरनाक काम को करने तुम्हें अकेला मैं नहीं जाने दूंगी।" नीलम ने निश्चयात्मक स्वर में कहा–"यह मेरा आखिरी फैसला है।"
अजय ने समझाने की हर मुमकिन कोशिश की मगर नीलम अपनी जिद पर अटल रही। अन्त में अजय को ही हथियार डालने पड़े। अलबत्ता उसके जोर देने पर नीलम इतना जरूर मान गई थी कि दीवान पैलेस में अन्दर जाने की बजाय वह बाहर रह कर ही अजय के वापस लौटने का इन्तजार करेगी।
* * * * * *
उस वक्त रात्रि के बारह बजकर पैंतीस मिनट हुए थे।
एम्बेसेडर कार सुनसान प्राय: सड़कों पर तेजी से भाग रही थी। ड्राइविंग सीट पर बैठा अजय और उसकी बगल में मौजूद नीलम दोनों ही खामोश थे। उनके चेहरों पर व्याकुलतापूर्ण भाव विद्यमान थे।
वे अपने होटल से शाम को ही निकल आए थे। डिनर बाहर लिया था फिर वक्त गुजारने के लिए दी गॉड फादर का नाइट शो देखा और अब दीवान पैलेस की ओर जा रहे थे। अजय सेंधमारी की तमाम जरूरी चीजों से लैस था।
मुश्किल से दस मिनट बाद, एम्बेसेडर शहर से बाहर पहाड़ी सड़क पर पहुंच चुकी थी। सड़क चौड़ी और साफ थी और चढ़ाई निरन्तर बढ़ती जा रही थी।
सामने ऊँचाई पर स्थित दीवान पैलेस नजर आने लगा था। लेकिन वातावरण में अंधेरा होने की वजह से वह साफ दिखाई नहीं दे रहा था।
थोड़ी–थोड़ी देर बाद आने वाले मोड़ों पर घूमती कार बराबर आगे बढ़ती रही।
सड़क पर दीवान पैलेस की साइड में काफी लम्बी एक दीवार थी जिसमें एक स्थान पर लगभग पन्द्रह फुट चौड़ा गैप था। गैप के आस–पास करीब बीस गज वर्गाकार की एक काफी हद तक समतल चट्टान थी। गैप से कोई सौ गज के फासले पर ठीक सामने, करीब छह फुट ऊंची चारदीवारी में बना, लोहे की मोटी मजबूत सलाखों का ऊँचा गेट था जिसके पीछे अंधेरे और सन्नाटे में लिपटी सफेद पत्थर की दो मंजिला इमारत खड़ी थी। गेट और मुख्य इमारत के बीच करीब तीन फर्लांग लम्बे ड्राइव वे के दोनों ओर लम्बे–चौड़े लान थे। इमारत के पृष्ठ भाग से सटी एक विशाल चट्टान थी।
इस तमाम भूगोल से परिचित अजय ने गैप से गुजर कर, समतल चट्टान पर, दीवार की आड़ में, सड़क की ओर घुमाकर कार रोकी। कार की तमाम लाइटें, गैप के पास पहुँचने से पहले ही, वह ऑफ कर चुका था।
कार में बैठे वह और नीलम, व्याकुलतापूर्वक 'दीवान पैलेस' की ओर ताकते रहे।
कोई पाँच–सात मिनट बाद, बिना कोई आहट किए कार से उतरे और अंधेरे में दीवार से सटकर पुनः सावधानीवश इन्तजार करने लगे।
धीरे–धीरे आधा घंटा गुजर गया।
कहीं से किसी प्रकार की हलचल का आभास न पाकर निश्चिन्त हो गए। अगर किसी ने उन्हें वहाँ रुकते देख लिया होता तो अब तक छानबीन शुरू हो गई होती।
वे वहाँ से हटने ही वाले थे कि, सड़क पर जाती एक कार के इंजिन की आवाज उन्हें सुनाई दी और वे तुरन्त जहाँ के तहाँ सिमट गए।
कार गैप के सामने से गुजर गई। कुछ ही देर में उसकी आवाज सुनाई देनी भी बंद हो गई।
–"तुम्हें अन्दर कितनी देर लगेगी?" नीलम ने धीमे चिंतित स्वर में पूछा।
–"कम से कम तीन घंटे।" अजय ने जवाब दिया। उसके स्वर में व्याकुलता का पुट था।
–"जब तक तुम वापस नहीं आओगे।" नीलम उसकी बाँह को दोनों हाथों में दबोचती हुई बोली–"मैं यहीं खड़ी इंतजार करती रहूंगी।"
–"मुझे भी तुम्हारी फिक्र है।" अजय ने कहा–"मैं ज्यादा देर इन्तजार नहीं कराऊँगा।"
–"ओह, अजय! म...मैं बेहद प्यार...।" अचानक भावावेग में नीलम का गला रुंध गया, वह स्वयं पर काबू नहीं पा सकी और अजय के सीने से लग कर उसे अपनी बाँहो में भींच लिया।
अजय ने उसकी ठोढ़ी पकड़ कर चेहरा ऊपर उठाया और होंठों पर दीर्घ चुंबन अंकित कर दिया।
उसकी पीठ सहलाता हुआ बोला–"डोंट बी सिली, नीलम। अभी वक्त है। तुम कार लेकर वापस होटल लौट जाओ...।"
–"नहीं!" नीलम उसे स्वयं से परे धकेल कर बोली–"मैं यहीं रहूंगी। तुम जाओ अपना ध्यान रखना। विश यू आल दी बैस्ट।"
–"थैंक्यू।"
अजय 'दीवान पैलेस' की ओर बढ़ गया।
वह दीवार फांदकर भीतर पहुँचा।
चन्द क्षण इन्तजार किया। लेकिन कहीं किसी प्रकार की हलचल का आभास नहीं मिला।
दबे पाँव तेजी से चलता हुआ वह मुख्य इमारत की साइड की ओर बढ़ा।
चेहरे पर नकाब की शक्ल में एक रूमाल बाँधने के बाद हाथों पर रबड़ के पतले दस्ताने चढ़ाता हुआ वह उस तरफ की निकटतम खिड़की के पास पहुँचा और अपने तिजोरीतोड़ उस्ताद जमील की हिदायतें मन ही मन दोहराते हुए अजय ने पैंसिल टार्च की रोशनी में सावधानीपूर्वक निरीक्षण किया।
लकड़ी के बने, अन्दर की ओर खुलने वाले मजबूती से बंद ग्रिलविहीन खिड़की के पल्ले करीब एक फुट वर्गाकार खानों में बंटे थे जिनमें कांच के मोटे टुकड़े जड़े हुए थे। पैंसिल टार्च की सीमित धीमी रोशनी में अन्दर खिड़की की साइड में एक बिजली की केबिल नजर आई।
–"सिक्योरिटी अलार्म।" बड़बड़ाकर अजय पीछे हट गया।
एक–एक करके उसने ग्राउंड फ्लोर की तमाम खिड़कियों का निरीक्षण कर डाला। सब में उसी तरह अलार्म फिट था।
अजय 'दीवान पैलेस' में पहले भी रंजना और उसके मौजूदा पति हरीश दीवान से मिलने, एक बार आ चुका था। अपनी उसी विजिट के आधार पर इमारत के अन्दर के भूगोल का एक नक्शा उसने अपने दिमाग में बना रखा था। उसी को ध्यान में रखते हुए उसने अनुमान मात्र से एक खिड़की चुनी और काम शुरू कर दिया।
उसने गोंद लगे हुए काफी मोटे कागज का करीब आठ इंच चौड़ा एक रोल, पानी की भरी छोटी शीशी और स्पंज का टुकड़ा अपने कोट की भीतरी जेब से निकाले। पैंसिल टार्च को मुँह में दबाकर, कागज के रोल से उसकी पूरी चौड़ाई का फुट भर से थोड़ा कम ही लम्बा एक टुकड़ा फाड़कर बाकी रोल वापस जेब में रख लिया। शीशी से पानी डालकर स्पंज गीला किया। फिर उससे कागज की गोंद वाली साइड को अच्छी तरह गीला करने के बाद वो कागज उसने खिड़की के बाएँ पल्ले के नीचे से दूसरे खाने में लगे काँच के टुकड़े पर अच्छी तरह चिपका दिया।
कोई दो मिनट इंतजार करने के बाद उसने एक जेब से रूमाल और दूसरी से अपनी रिवाल्वर निकाली। रूमाल को, खिड़की पर चिपके कागज के बीच में रखकर रिवाल्वर की मूठ से नपे–तुले ढंग से जोरदार प्रहार किया।
बहुत ही मामूली आवाज हुई और काँच टूट गया।
अजय ने धीरे–धीरे उस खाने में लगा सारा काँच तोड़ दिया। टूटे हुए काँच के तमाम टुकड़े गोंद की वजह से कागज पर चिपक गए थे। अजय ने काँच के टुकड़ों समेत वो कागज नीचे गिरा दिया।
खाने में लगे रह गए काँच के टुकड़ों को भी निकाल फेंकने के बाद उसने टार्च की रोशनी अंदर फेंकी।
आशा के विपरीत, उस कमरे में टूटा फर्नीचर भरा हुआ था।
अजय ने आगे झुककर खिड़की के खाली खाने के आस–पास का बारीकी से निरीक्षण किया। बिजली की वो केबिल खिड़की के निचले भाग की पूरी चौडाई में चौखट के साथ–साथ तनी हुई थी शक की जरा भी गुंजाइश नहीं थी। केबिल सिक्योरिटी अलार्म की ही थी और खिड़की के पल्लों के जरा खुलते ही या किसी अन्य चीज का केबिल से स्पर्श होते ही अलार्म ने बज उठना था।
अजय के सामने एक ही उपाय था। दोनों पल्लों के निचले दो–दो खानों को एक बड़े खाने में तब्दील करके, अलार्म केबिल को जरा भी स्पर्श किए बगैर, उससे गुजर कर भीतर प्रवेश कर जाए।
अजय ने अपनी पीठ के इर्द–गिर्द बंधी टूल किट बैल्ट से रबड़ के हैंडल वाली एक आरी निकाली और खिड़की के पल्ले के खाली खाने के नीचे वाली फट्टी को, जो निचले दोनों खानों के बीच में थी, काटना शुरू कर दिया।
रात्रि की निस्तब्धता में लकड़ी पर आरी चलने की आवाज अपेक्षाकृत जोर से सुनाई दी। अजय ने हाथ रोक कर आहट लेने की कोशिश की। देर तक भी जब कुछ सुनाई नहीं दिया तो वह पुनः निश्चिन्तता पूर्वक तेजी से आरी चलाने लगा।
पांच–सात मिनट में ही वो फट्टी कट गई और उस पल्ले के दोनों खाने दो फुट आकार के एक लम्बे खाने में तब्दील हो गए। फिर अजय ने उसी पल्ले की बाहरी चौड़ी फट्टी को लम्बे खाने से काटना शुरू कर दिया।
इस दफा उसका हाथ ज्यादा तेजी से चल रहा था।
उससे फारिग होने में अपेक्षाकृत कम समय लगा। फिर वह दूसरे पल्ले के निचले दोनों खानों को भी उसी तरह आरी से एक बनाने में जुट गया।
करीब आधे घंटे तक आरी चलाने के बाद आखिरकार वह अपने मकसद में कामयाब हो ही गया। खिड़की के दोनों पल्लों के निचले हिस्से तकरीबन दो फुट वर्गाकार के ऐसे खानों में तब्दील हो गए जिसके चारों ओर फ्रेम तो था मगर बीच से वो सारा खाली था। और उससे गुजर कर आसानी से भीतर जाया जा सकता था।
अजय ने आरी वापस टूल बैल्ट में रख ली। फिर खिड़की में बनाए खाने से शरीर के किसी हिस्से को अलार्म केबिल से जरा भी न छूने देने की पूरी एहतियात बरतते हुए, उसने पहले अपनी दायीं टाँग धीरे–धीरे अन्दर गुजारी। जब उसका पैर फर्श पर जा टिका तो अपना सर और कंधे भी झुका कर उसने खाने से गुजारे और अन्त में अपनी बायीं टाँग भी अन्दर खींच ली।
सकुशल भीतर दाखिल होने के अहसास से भारी राहत महसूस करते अजय ने कमरे में चारों ओर टार्च की रोशनी घुमाई और टूटे फर्नीचर से स्वयं को बचाता हुआ दबे पाँव चल कर दरवाजे पर पहुंचा।
वो दरवाजा एक गलियारे में खुलता था जिसमें दाएँ–बाएँ कई बन्द दरवाजे थे और दूसरे सिरे पर प्रवेश हाल था। उसमें खुलने वाला प्रवेश द्वार लॉक्ड था। वहाँ भी सिक्योरिटी अलार्म केबिल नजर आ रहा था।
जमील की हिदायतों पर अमल करते अजय के लिए सबसे पहले बिजली के मेन स्विच का पता लगाकर उसे आफ करना बेहद जरूरी था। क्योंकि अलार्म सहित शेष सारा सिक्योरिटी सिस्टम भी इलेक्ट्रिक्ली आप्रेटेड ही होना था।
अजय ने आस–पास टार्च की रोशनी डाली। प्रवेश द्वार की बगल में, दायीं ओर, दीवार में, पाँच फुट गुणा तीन फूट आकार की एक आलमारी बनी हुई थी। वो लॉक्ड थी और उसके ऊपरी हिस्से में लगी काँच की चौड़ी पट्टी के पीछे बिजली के दो मीटर दिखाई दे रहे थे। जाहिर था मेन स्विच वहीं होना था।
अजय ने बारीकी से निरीक्षण करने पर पाया आलमारी का लॉक मामूली था और उसकी सुरक्षा का कोई अतिरिक्त प्रबंध नहीं था।
ताला खोल कर डोमेस्टिक लाइट और पावर दोनों के मेन स्विच ऑफ करने में किसी प्रकार की दिक्कत उसे नहीं हुई।
उसने, चैक करने की नीयत से, वहाँ मौजूद तमाम स्विच एक–एक करके ऑन कर दिए। लेकिन न तो ट्यूब लाइटें रोशन हुई और न ही सीलिंग फैन घूमे। फिर उसने प्रवेश द्वार पर लगा सिक्योरिटी अलार्म केबिल पकड़कर जोर से खींचा। कई क्षण इंतजार करने के बाद भी जब कोई आवाज सुनाई नहीं दी वह पूर्णतया निश्चिन्त हो गया मेन स्विचेज से आगे इमारत में जा रही बिजली की सप्लाई कट चुकी थी।
जमील की अगली हिदायत के मुताबिक अब उसने स्ट्राँग रूम का पता लगाना था। अजय द्वारा यह बताए जाने के बाद, कि 'दीवान पैलेस' एक विशाल चट्टान के सहारे बना हुआ था, जमील ने अपने अनुभव के आधार पर संभावना व्यक्त की थी स्ट्राँगरूम के लिए उस चट्टान से अधिक सुरक्षित स्थान दूसरा नहीं हो सकता। और उस तक पहुँचने का रास्ता, स्ट्राँग रूम के मालिक के बैडरूम, स्टडी या लाइब्रेरी से होकर होना चाहिए। जमील ने ये बातें बड़े ही विश्वासपूर्वक कही थीं। यही वजह थी वह सेंधमारी का रिस्क लेने को तैयार हो गया था। इसके अलावा रंजना भी अनजाने में ही जानकारी दे चुकी थी कि सुमेरचन्द ग्राउंड फ्लोर पर रहता है। इसका सीधा सा मतलब था अजय की तलाश ग्राउंड फ्लोर तक ही महदूद रहनी है।
विशाल इमारत में व्याप्त गहन निस्तब्धता को जरा भी भंग न होने देने की अधिकतम सावधानी बरतते हुए, विभिन्न गलियारों से गुजरने तथा कई कमरों में झांकने के बाद, अन्त में अजय स्टडी रूम में पहुँचने में सफल हो ही गया।
कमरा अन्दर से लॉक करके अजय ने बड़ी टार्च की रोशनी में देखा–शानदार स्टडी रूम में ऊँची रैक्स में मूल्यवान पुस्तकें सजी हुई थीं।
कमरे में निगाहें दौड़ाने के बाद अजय ने खिड़की खोलकर बाहर झांका। कमरे की पिछली दीवार चट्टान से सटी हुई थी।
खिड़की बंद करके वह उसी दीवार के पास पहुंचा। टार्च की रोशनी में रैक्स, शेल्वज और पुस्तकों का बारीकी से निरीक्षण किया।
अनुमानतः वहां ऐसा कोई बटन या हैंडिल होना चाहिए था जिसके दबाने या खींचने से किसी रैक में गुजरने लायक राह पैदा हो सके। लेकिन हाथ से टटोलने पर भी ऐसी कोई चीज नहीं मिल सकी।
अन्त में, जब उसे यकीन हो गया ऐसी कोई चीज रैक्स और शैल्वज में नहीं थी, तो वह आगे बढ़ा और नीचे बिछे कारपेट का उस तरफ की पूरी लंबाई का सिरा खींचकर ऊपर उलट दिया। नर्म कारपेट के नीचे लकड़ी के मजबूत तख्तों का बना फर्श था। एक बुक रैक के निकटतम तख्ते के बीचो–बीच प्लास्टिक का काला बटन नजर आ रहा था। लेकिन उसकी सुरक्षा के प्रबंध का कोई चिन्ह वहां नहीं था।
अजय ने एहतियातन यह सोचकर वहां तक बिजली की अतिरिक्त सप्लाई की लाइन भी हो सकती है जिसका वह पता नहीं लगा पाया था, जेब से एसबेस्टस का बारीक दस्ताना निकालकर दाएं हाथ पर पहना और बटन दबा दिया। उसे लगा मानो कोई लीवर आपरेट हुआ था। फिर अगले ही क्षण पहले क्लिक और फिर खिसकने की आवाज सुनाई दी।
अजय का मन मयूर खुशी से नाच उठा। एक बुक रैक का एक हिस्सा स्लाइडिंग डोर के रूप में खुल गया था जिसके पीछे गहरा अंधेरा था। उसने आगे बढ़कर टार्च की रोशनी डाली चट्टान में लोहे का भारी आदमकद दरवाजा बना था। उस पर की होल की जगह बस एक गोल हैंडिल उभरा हुआ था।
अजय ने हैंडिल को खींचने घुमाने की कोशिश की मगर कामयाब नहीं हुआ। उसने दरवाजे और उसके इर्द–गिर्द चट्टानी दीवार का बड़ी बारीकी से मुआयना किया तो दीवार में खोखले किए गए स्थान पर एक स्विच उसकी निगाहों से बचा नहीं रह सका। उसने स्विच ऑन किया मगर कुछ नहीं हुआ। इसका सीधा सा अर्थ था वो इलैक्ट्रिक सिस्टम द्वारा चालित था और उसे पुनः बिजली के मेन स्विच ऑन करने थे।
अच्छी तरह तसल्ली कर लेने के बाद कि लोहे के उस दरवाजे की सुरक्षा के लिए अलार्म जैसी किसी चीज का प्रबंध नहीं था, अजय स्टडी से निकलकर सावधानीपूर्वक प्रवेश हाल में पहुंचा और दोनों मेन स्विच ऑन करके वापस लौट आया।
एहतियातन एस्बेस्टस का दस्ताना वह अभी भी पहने था। उसने आशंकित मन से स्विच ऑन कर दिया। तुरन्त पहले क्लिक की फिर धीमी संक्षिप्त सी टनटनाहट की आवाज सुनाई दी।
अजय ने कई क्षण इंतजार किया फिर दस्ताने वाले अपने हाथ से हैंडिल मजबूती से पकड़ कर खींचा। दरवाजे को बाहर की ओर खिंचता पाकर उसकी धड़कनें बढ़ गई थीं। अपनी कामयाबी पर खुद ही हैरान सा एक ही स्थान पर खड़ा वह किसी स्वचालित मशीन की भांति धीरे–धीरे दरवाजे को खींचता रहा। दरवाजा इतना खुला कि उससे भीतर दाखिल हुआ जा सके। लेकिन अजय को मानो अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। भीतर घुसने की जरा भी कोशिश किए बगैर दरवाजे की आड़ में खड़े अजय ने उसे बाहर खींचना जारी रखा।
अचानक वह बुरी तरह चौंका।
एक–एक करके लगातार तीन फायरों की सी लेकिन धीमी आवाजें उसे सुनाई दी। साथ ही ऐसा प्रतीत हुआ कि हर दफा कोई चीज लोहे के भारी दरवाजे के भीतरी भाग से जोर से टकराई थी।
फिर और कुछ नहीं हुआ।
अजय ने पूरा दरवाजा खोलकर टार्च की रोशनी भीतर डाली। ठीक सामने लोहे की मजबूत सलाखों वाला एक अन्य दरवाजा उसे नजर आया। वो भी इकहरे पल्ले वाला ही था।
लेकिन उस पर एक स्प्रिंग के साथ, इस ढंग से बैलेंस्ड एक ऑटोमेटिक पिस्टल बंधी थी कि बाहरी दरवाजा गुजरने लायक खुलते ही पिस्टल से फायर होने शुरू हो जाते थे। पिस्तौल का रुख सीधा अपनी ओर पाकर अजय समझ गया चन्द क्षण पहले सुनी गई तीनों आवाजें उसी पिस्तौल से हुए फायरों की थीं और अगर उसने जल्दबाजी की होती तो तीनों गोलियां उसके पेट से गुजर गई होती।
अजय ने अत्यन्त सावधानीपूर्वक सलाखोंदार दरवाजे का मुआयना किया।
दरवाजे में किसी प्रकार का कोई ताला नहीं लगा था। अलबत्ता उसमें दायीं ओर अन्दर की तरफ एक स्विच जरूर लगा था। अजय ने स्विच ऑन करके दरवाजे पर दबाव डाला तो वो खुलता चला गया।
वो अन्तिम बाधा थी।
अजय आगे बढ़ा और टार्च की रोशनी में ढूंढकर लाइट स्विच ऑन कर दिया। अगले ही क्षण फैल गई तेज रोशनी में उसने स्वयं को जिस स्थान पर पाया उसे बस एक ही नाम दिया जा सकता था–स्ट्रांग रूम।
चट्टान के अन्दर बना वो कमरा काफी बड़ा था। उसकी दीवारें, फर्श और छत अनगढ़ पत्थरों की बनी होने की बजाय साफ और चिकनी थीं। वहां एक दीवार के साथ काफी पुरानी तीन बड़ी–बड़ी तिजोरियां थीं। उनके सामने वाली दीवार पर मूल्यवान पेंटिंग्स, विभिन्न प्रकार की मूर्तियां, वगैरहा लगी थीं और दरवाजे के ठीक सामने वाली दीवार के सहारे कई पेटियां ऊपर–नीचे रखी हुई थीं।
– अजय को समझते देर नहीं लगी कि वे तमाम वस्तुएं दुर्लभ और चोरी की थीं। संभवतया, अपने भतीजों की मदद से सुमेरचन्द दीवान चोरी की वस्तुओं का संग्रहकर्ता बना हुआ था। और उन तमाम चीजों को उसने किसी कंजूस की दौलत की भांति इकट्ठा किया हुआ था।
अजय ने अपनी गरदन को झटका देते हुए अपनी मुख्य समस्या 'कनकपुर कलैक्शन' के बारे में सोचा जिसकी वजह से काशीनाथ की हत्या की गई थी और उसकी हत्या के अपराध में मदन मोहन सेठी को न सिर्फ सजा–ए–मौत सुना दी गई थी बल्कि उसे नौ दिन बाद फाँसी पर लटका भी दिया जाना था। अजय के अनुमानानुसार वो कलैक्शन तीनों तिजोरियों में से ही किसी एक में होना चाहिए था और कलैक्शन की कीमत को ध्यान में रखते हुए उसके सबसे मजबूत तिजोरी में होने की ही अधिक सम्भावना थी।
उसने तीनों तिजोरियों पर बारी–बारी से निगाह डाली फिर निश्चितता पूर्वक सबसे पहली तिजोरी के सम्मुख जा खड़ा हुआ। किसी भी तिजोरी की अतिरिक्त सुरक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं था।
जमील द्वारा सिखाए गए पाठ को मन ही मन दोहराते हुए उसने टूलबैल्ट खोलकर तिजोरी पर रखी और काम शुरू कर दिया।
लेकिन काम न तो आसान था और न ही अजय को उसका तजुर्बा था। फिर भी वह विभिन्न औजारों को इस्तेमाल करता हुआ काम में लगा रहा।
मगर तिजोरी खुलने का कोई आसार उसे नजर नहीं आया। धीरे–धीरे उसका जोश खत्म होने लगा और उम्मीद साथ छोड़ने लगी।
करीब चालीस मिनट बाद, जब अजय पूरी तरह निराश हो चला था, अचानक तुक्का लग गया और तिजोरी खुल गई।
अजय ने दरवाजा खोलकर भीतर झांका–कोई एक दर्जन ज्वैल बाक्सेज उसमें मौजूद थे। लेकिन उसे जिसकी तलाश थी वो सबसे ऊपर एक खाने में अलग ही रखा था।
पहली ही निगाह में पहचान कर उसने तुरन्त हाथ बढ़ाकर बाक्स उठाया और खोलकर देखा।
चाँदी के बने नक्काशीदार बाक्स में 'कनकपुर कलैक्शन' ही था जिसकी फोटुएं मरहूम काशीनाथ जावेरी ने उससे खिंचवाई थीं।
लेकिन अजय संदेह की कोई गुंजाइश बाकी नहीं रहने देनी चाहता था। उसने देखा अंदर की ओर सुर्ख मखमल का अस्तर लगे और ढक्कन के भीतरी भाग पर सोने के तारों द्वारा सुन्दर कशीदाकारी में कढ़े हुए 'कनकपुर कलैंक्शन' वाले करीब चौदह इंच गुणा छह इंच गुणा छह इंच आकार के उस बॉक्स में चार इंच घनाकार की चाँदी की वे ही तीन डिब्बियां रखी थीं। और उन डिब्बियों में अलग–अलग मौजूद थे–हू ब हू एक जैसे असाधारण आकार और चमक, वाले चार हीरे, चार मोती और चार नीलम।
अजय ने एक लम्बी मुद्दत बाद पहली बार राहत की गहरी सांस ली।
तिजोरी उसी प्रकार खुली छोड़कर अजय ने, कलैक्शन वाला बाक्स, अपने कंधे पर कोट के नीचे लटकते थैले में डाला। फिर तमाम औजार समेटकर बैल्ट में रखे और बैल्ट पीठ के इर्द–गिर्द बांधकर कोट के बटन बंद कर लिए।
शेष काम आसान था।
स्ट्रांग रूम से निकलकर वह स्टडी से बाहर आया, जिस खिड़की से इमारत में दाखिल हुआ उसी से बाहर निकला, और दीवार फांदकर 'दीवान पैलेस' से बाहर आ गया।
लेकिन अपनी कार के पास पहुंचते ही उसकी खोपड़ी घूमकर रह गई।
नीलम वहां नहीं थी।
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