15 मई : शुक्रवार
बत्तीस करोड़ की फॉरेन करेंसी ऑन रोड ढोने के लिए एम्बूलेंस का इस्तेमाल किया गया था जो अपना सायरन बजाती सड़कों पर से गुजरती तो उसको कोई न रोकता। फिर भी उसकी सुरक्षा के लिए उसके आगे एक पायलेट कार थी जिसमें चार हथियारबन्द प्यादे मौजूद थे।
एम्बूलेंस के स्ट्रेचर पर फारेन करेंसी बिछा कर उसे दो मोटी सफेद चादरों से ढंक दिया गया था और दिखाने के लिए उसपर एक प्यादा लेटा हुआ था जिसके मुँह पर ऑक्सीजन का मास्क चढ़ा हुआ था। उसके अलावा वहाँ सफेद कोट पहने और गले में स्टेथस्कोप लटकाए ज्वेलर कालसेकर था और वैसे ही सफेद कोट और स्टेथस्कोप से लैस तीन व्यक्ति और थे जिनका लीडर उमर सुलतान था। तीनों हथियारबन्द थे।
एम्बूलेंस येड़ा जगेश चला रहा था और उसके पहलू में पैसेंजर सीट पर खुद राघव लोखण्डे मौजूद था।
राघव लोखण्डे को उस बड़े प्रोजेक्ट की लीडरी का मौका कल कुबेर पुजारी के साथ गुजरे हादसे की वजह से मिला था। पुजारी के साथ कल का लगभग जानलेवा वाकया न हुआ होता तो लीडरी का मौका बिलाशक उसी को हासिल होता। माइकल गोटी को खड़े पैर पुजारी का कोई विकल्प नहीं सूझा था इसलिए पुजारी की जगह प्रोजेक्ट की कमान लोखण्डे के हाथ दी गई थी।
सब ठीक-ठाक चल रहा था। कहीं कोई पंगा पड़ने की गुंजायश नहीं थी। उस घड़ी वो दादर से गजर रहे थे।
“नाकाबन्दी!” – एकाएक पायलेट कार के ड्राइवर के मुँह से निकला।
“वान्दा नहीं।” — पैसेंजर सीट पर बैठा प्यादा बोला – “एम्बूलेंस के साथ हैं। कोई नहीं रोकेगा।”
एक हवलदार ने रुकने का इशारा किया। पायलेट कार रुकी। उसके पीछे आती एम्बूलेंस मजबूरन रुकी। एम्बूलेंस के पीछे एक टैक्सी थी जिसे विक्टर चला रहा था। पिछली सीट पर आकरे और मतकरी थे। टैक्सी के रुकते ही दोनों बाहर निकले। दोनों के हाथों में लम्बे, तीखे सये थे। चटकियों में वो एम्बुलेंस के पीछे पहुँचे, दोनों ने अपने-अपने सूये एम्बूलेंस के पिछले पहियों में गहरे धुसेड़े और वापिस खींचे।
एक सिपाही ख़ामोशी से वो सब होता देख रहा था। आकरे की सिपाही से क्षण भर को निगाह मिली तो वो सप्रयास परे देखने लगा।
दोनों ने सूये एम्बूलेंस से परे फुटपाथ के करीब फेंके और वापिस टैक्सी में जा बैठे।
सिपाही ने टैक्सी की तरफ फिर निगाह तक न उठाई।
जो कि हैरानी की बात थी। एक हवलदार पायलेट कार की ड्राइविंग साइड में पहुँचा। उसने ड्राइवर को शीशा गिराने का इशारा किया।
ड्राइवर ने शीशा गिराया, फिर बोला – “एम्बूलेंस के साथ है, बाप। अर्जेंट केस। पेशेंट सीरियस। हस्पताल पहुँचना जरूरी।”
हवलदार ने जैसे सुना ही नहीं।
“लाइसेंस दिखा।” – वो बोला।
“वो तो ... वो तो जल्दी में घर पर रह गया।”
“आरसी दिखा। इंश्योरेंस दिखा। पीयूसी दिखा।”
“बाप, गुलदस्ता देता है न!”
“वो तो अच्छा करता है। पण इंस्पेक्टर साथ है। उसके सामने मैं गुलदस्ता कैसे थामेगा? इंस्पेक्टर को बुलाता है। उसको देना। फिर शायद कुछ हमारे हिस्से भी आ जाए... शिन्दे साहब!”
तीन सितारों वाला एक इंस्पेक्टर पायलेट कार की ओर बढ़ा।
“तू बाहर निकल!”– हवलदार ड्राइवर से बोला।
ड्राइवर ने बाहर कदम रखा। वो निश्चिन्त था क्योंकि गुलदस्ते से काम होता उसे लग रहा था। फिर राघव लोखण्डे साथ था। सब सैट कर लेता।
इंस्पेक्टर करीब पहुंचा।
“क्या है?” – वो हवलदार से बोला।
“साहब”– हवलदार बोला – “इसके पास कोई पेपर नहीं हैं दिखाने के वास्ते।”
“बोले तो?”
“ड्राइविंग लाइसेंस नहीं, आरसी नहीं, इंश्योरेंस नहीं, पीयूसी नहीं।”
“तो मेरे को क्या बताता है? पैसेंजर उतार, चालान बना, गाड़ी सीज़ कर।”
“साहब, गुलदस्ता देता है।”
“ये?”
“जी हाँ।”
“तेरे को?”
“मेरे को ही देता था पण मैं बोला साहब लेगा।”
“ठीक बोला।” – इंस्पेक्टर ड्राइवर की तरफ घूमा – “इधर देख।”
“देखता है, बाप।” – ड्राइवर बोला।
इंस्पेक्टर ने इतने ज़ोर का थप्पड़ उसके चेहरे पर रसीद किया कि वो भरभरा कर बोनट पर जाकर गिरा।
“गिरफ्तार करो इसे और इसके कार में मौजूद साथियों को।” – इंस्पेक्टर गर्जा — “तलाशी लो।”
वहाँ ढेर पुलिस मौजूद थी। चुटकियों में तलाशी की प्रक्रिया शुरू की गई। लोखण्डे एम्बूलेंस पर से उतरा।
“अभी उधरीच ठहरने का।” – इंस्पेक्टर सख़्ती से बोला।
“ठहरता है, बाप” – लोखण्डे बोला – “पण एम्बुलेंस का तो लिहाज़ करो! पेशेंट सीरियस है, उसका फौरन हस्पताल पहुँचाना ज़रूरी।”
“अभी करता है लिहाज़। दो मिनट रुको।”
“पण .....”
“सुनता नहीं तुम!”
लोखण्डे ख़ामोश हो गया। तलाशी मुकम्मल हुई। चारों हथियारबन्द निकले। किसी के भी पास फायरआर्स लाइसेंस नहीं था। कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं की गई थी। उनके लिए गुलदस्ता ही लाइसेंस था जो हमेशा – इस बार के अलावा – कारआमद साबित होता था। फौरन उनके हथियार ज़ब्त कर लिए गए और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
उनकी पायलेट कार को एक हवलदार ने ड्राइव कर के बाजू में लगाया। इंस्पेक्टर लोखण्डे के करीब पहुंचा।
“अभी बोलने का।” – वो बोला।
“मैं बोला” – मन ही मन सुलगता लोखण्डे प्रत्यक्षतः विनीत भाव से बोला – “पेशेंट सीरियस है, उसका फौरन हस्पताल पहुँचना ज़रूरी ...”
“तुम कौन है?”
“मैं पेशेंट का रिश्तेदार है। चचेरा भाई है।”
“रिश्तेदार एम्बूलेंस में ड्राइवर के साथ बैठता है?”
लोखण्डे गड़बड़ाया।
“अरे, भई, रिश्तेदार एम्बूलेंस के भीतर बैठता है पेशेंट के साथ। तुम तो बाहर ड्राइवर के साथ बैठेला था!”
“वो... वो ...डॉक्टर लोग ऐसा बोले। बोले भीतर जगह नहीं है।”
“डॉक्टर लोग! कई हैं क्या?”
“चार हैं।”
“मेरे को देखने का।”
अनिच्छापूर्ण भाव से लोखण्डे ने एम्बूलेंस के बैक डोर के दोनों पट खोले। इंस्पेक्टर ने भीतर निगाह दौड़ाई।
“बोले तो” — फिर बोला – “एम्बुलेंस में एक ट्रांजिट पेशेंट के लिए चार डॉक्टर तो मैं कभी भी नहीं सुना! फिर आर्डरली कोई भी नहीं! क्या पेशेंट का स्ट्रेचर भी डॉक्टर साहबान ने उठाया?”
“न-हीं।”
“तो वो कहाँ गए?”
लोखण्डे से जवाब न दिया गया।
“पेशेंट के मुँह से चादर नीचे करो। उसका मास्क हटाओ।”
लोखण्डे ने उमर सुलतान को इशारा किया जिसने आगे बढ़ कर दोनों काम किए।
“हम्म!” – इंस्पेक्टर बोला – “लगता तो है सीरियस! रंग कागज की तरह सफेद पड़ा है। हुआ क्या?”
“धड़का लगा।” – सुलतान बोला – “हार्ट अटैक आया।”
“ओह, सॉरी। मास्क लगाओ।”
सुलतान ने आदेश का पालन किया।
“कौन से हस्पताल ले जाने का?”
सुलतान ने लोखण्डे की तरफ देखा।
“स-संजीवन ... . संजीवन नर्सिंग होमा” – लोखण्डे बोला।
“कम्माल है!” – इंस्पेक्टर बोला – "रिश्तेदार को मालूम है किधर जाना है, डॉक्टर को नहीं मालूम। ऐनीवे, वो तो बहुत पीछे रह गया!”
“ड्राइवर का मिस्टेक ...” ।
“भई, तुम भी तो ड्राइवर के बाजू में बैठे थे!”
“म-मेरा ... मेरा ध्यान भटक गया था।”
“हो जाता है कभी-कभी। अब क्या करोगे?”
“बैक लेंगे।”
“कैसे लोगे? एम्बूलेंस के पिछले दोनों चक्के तो बैठे हुए हैं!”
“क्या!”
“देखो।”
लोखण्डे ने देखा तो एम्बूलेंस के पिछले पहिए हवा बिना ज़मीन से लगे पाए।
“अब क्या करोगे?” – इंस्पेक्टर ने पूछा।
“साहब! साहब!” – तभी हवलदार बोला – “थोड़ा पीछे एक एम्बूलेंस खड़ेली है पण सायरन नहीं बजा रही। इससे लगता है खाली है।”
“देख के आ। खाली हो तो इधर ले के आ।”
हवलदार पीछे लपका और पीछे वाली एम्बूलेंस को राह दिखाता बैरियर पर पहुँचा।
“खाली है, साहब!” — वो बोला – “काम मुकम्मल करके लौट रही थी। भीतर दो आर्डरली भी हैं।”
“गुड!” – इंस्पेक्टर बोला, फिर लोखण्डे की तरफ घूमा – “अपने पेशेंट को इस एम्बूलेंस में शिफ्ट करो।”
“नहीं!”– लोखण्डे ने तत्काल विरोध किया – “नहीं।”
“क्या नहीं?” – इंस्पेक्टर गुस्से बो बोला – “माथा फिरेला है! अभी बोलता था पेशेंट सीरियस। फौरन हस्पताल पहुँचाना ज़रूरी। अभी नहीं, नहीं करता है।”
“पण ...”
“क्या पण? पेशेंट को हस्पताल पहुँचाना या इधरीच मरने देना?”
लोखण्डे ने ज़ोर से थूक निगली।
“दोनों आर्डरलीज़ को बोलो पंक्चर्ड एम्बूलेंस से पेशेंट को अपनी एम्बूलेंस में शिफ्ट करें” – इंस्पेक्टर ने आदेश दिया – “और पेशेंट के रिश्तेदार और एक डॉक्टर को साथ जाने दें। इतने डॉक्टरों की ज़रूरत नहीं। फिर भी ज़रूरत है तो टैक्सी पकड़ें।”
लोखण्डे के – उमर सुलतान के भी – न-न करते पेशेंट को दूसरी एम्बूलेंस में शिफ्ट किया गया। उमर सुलतान जिद करके आर्डरलीज़ के साथ एम्बूलेंस के भीतर सवार हुआ। लोखण्डे ने साथ सवार होने की कोशिश की तो खुद इंस्पेक्टर ने बांह पकड़ कर उसे रोका।
“आगे।”
वो बोला – “आगे। तुम्हें तो ड्राइवर के साथ बैठना पसन्द! क्या?”
फाँसी लगता-सा लोखण्डे एम्बूलेंस में आगे सवार हुआ।
इंस्पेक्टर एम्बुलेंस के ड्राइवर की साइड में पहुँचा और बोला – “पीछे बहुत ट्रैफिक जमा हो गया है। घूमना मुश्किल होगा। वक्त भी लगेगा। इस वास्ते सीधा जाने का और आगे जो भी हस्पताल, नर्सिंग होम दिखाई दे, उधर पेशेंट को पहुँचाने का। बरोबर?”
ड्राइवर ने अदब से सहमति में सिर हिलाया।
“तुम्हारी एम्बूलेंस की फीस ये” – इंस्पेक्टर ने लोखण्डे की तरफ इशारा किया – “रिश्तेदार भरेगा। ... हाँ बोल, भई!”
से उसने सहमति में सिर हिलाया।
“गुड!” – इंस्पेक्टर बोला – “चलो, निकलो।”
एम्बूलेंस तत्काल आगे बढ़ चली। पीछे सड़क पर खड़े रह गए कालसेकर और दो डॉक्टर टैक्सी के लिए इधर उधर निगाह दौड़ाने लगे।
“अरे, सीट बेल्ट कहाँ है?” - एम्बुलेंस में सवार लोखण्डे बोला।
“नहीं है।” - ड्राइवर इत्मीनान से बोला।
“कहाँ गई?”
“टूट गई। नई लगवाने का टाइम नहीं लगा।”
“तेरी तो है?”
“क्योंकि मेरी नहीं टूटी।”
“साला, श्याना।”
तब तक नई एम्बूलेंस बहुत आगे निकल चुकी थी।
“इस एम्बूलेंस में झरोखा क्यों नहीं है?” – एकाएक लोखण्डे बोला।
“झरोखा बोले तो?” – सड़क पर से निगाह हटाए बिना ड्राइवर बोला।
“अरे, जो इधर ड्राइवर के केबिन के और पीछे एम्बुलेंस के बक्से के बीच में होता है?”
“अच्छा, वो! वो मैंने बन्द कर दिया।”
“तूने ... तूने बन्द कर दिया। क्यों भला?”
“पेशेंट रूट की डायरेक्शन बनाने लगता था। मेरे को डिस्टर्बेस होता था।”
“बोम मारता है, साला! रोक!”
“क्या बोला?”
“अरे, रोक एम्बुलेंस को!”
“क्यों?”
“बोलेगा न। अभी रोक।”
“नर्सिंग होम पर ही रोगा। बस, थोड़ी देर की बात है।”
“सुनता नहीं, साला! रोक अभी का अभी!”
अब लोखण्ड ड्राइवर की पसलियों से गन की नाल सटाए था। “रोक अभी का अभी वर्ना गोली खाएगा।”
ड्राइवर ने एम्बूलेंस की रफ्तार बढ़ा दी।
“अबे, माथा फिरेला है?”
ड्राइवर ने और रफ्तार बढ़ाई। अब एम्बूलेंस हवा से बातें कर रही थी। सड़क के उस हिस्से में ट्रैफिक कम था बर्ना एम्बुलेंस को इतनी तेज़ रफ्तार से दौड़ाया जाना मुमकिन ही न हो पाया होता।
“अबे, एक्सीडेंट करेगा! रोक गाड़ी को वर्ना मैं गोली चलाता है।”
“चला न! फिर न होना होगा तो भी होगा एक्सीडेंट। सारे एक ही टाइम में ऊपर पहुँचेंगे। भीतर वाले तो शायद बच भी जाएँ। सामने वाले – बोले तो तू
और मैं – नहीं बचने वाले।”
“अरे, रोक, मेरे बाप, मैं तेरा भाड़ा ज्यास्ती देता है। अभी का अभी देता है।”
“ठीक है।”
ड्राइवर ब्रेक के पैडल पर जैसे खड़ा हो गया। यूँ एकाएक ब्रेक लगाई जाने पर ड्राइवर तो ख़बरदार था, लोखण्डे अपना बैलेंस खो बैठा, वो सीट पर से उछला, उसका सिर सामने डैश बोर्ड से जाकर टकराया और गन उसके हाथ से निकल गई।
ड्राइवर ने झुक कर पैडल्स के करीब पड़ी गन उठा ली।
“गन की हूल देता था” – ड्राइवर बोला – “किस काम आई! माथा अलग से फोड़ा। क्या?”
“तेरे को क्या माँगता है?” – लोखण्डे बोला।
“गाड़ी रोकना माँगता है तेरे हुक्म के मुताबिक। अब रोकता हूँ|”
एम्बूलेंस की रफ्तार सच में घटने लगी। फिर रफ्तार इतनी घटी कि वो फुटपाथ से साथ लग कर चलने लगी।
“दरवाज़ा खोला” – ड्राइवर बोला।
“क्या?”
“अपनी साइड का दरवाज़ा खोल।”
“क्यों?”
“मालूम पड़ेगा न!”
“पण ...”
“अरे, नीचे उतरेगा तो कुछ करेगा न!”
लोखण्डे ने हैण्डल घुमा कर दरवाज़े को फ्रेम से अलग किया।
ड्राइवर ने स्टियरिंग पर से दोनों हाथ हटा कर एक भरपूर धक्का लोखण्डे को दिया।
लोखण्डे बाहर फुटपाथ पर जा कर गिरा।
गिरने से सिर्फ एक सैकेंड पहले लोखण्डे की निगाह ड्राइवर की निगाह से मिली।
उसके प्राण काँप गए। सोहल!
दोनों आर्डरली साटम और जैक थे जो ‘डॉक्टर’ को और मरीज’ को पहले ही अपने काबू में कर चुके थे। विमल ने दरम्यानी रफ्तार से चलती एम्बूलेंस की पीठ पीछे की पार्टीशन पर दस्तक दी तो एम्बुलेंस के पिछले दोनों पट खुले और नकली डॉक्टर उमर सुलतान और उसके मरीज प्यादे को साटम और जैक ने चलती एम्बूलेंस में से बाहर धकेल दिया। फिर एम्बूलेंस ने रफ्तार पकड़ ली।
उमर सुलतान ने अपना माथा पीट लिया। गिरने से उसे थोड़ी बहुत खरोंचें ही आई थीं जिनकी तरफ उस घड़ी उसका ध्यान भी नहीं था।
अब उसके पास जानने का कोई साधन नहीं था कि एम्बुलेंस किन के कब्जे में थी और उसकी मंजिल कहाँ थी।
और एम्बूलेंस में आगे ड्राइवर के साथ सवार उनका लीडर लोखण्डे कहाँ था?
एम्बूलेंस में तो हो नहीं सकता था! जैसे उन्हें पीछे से बाहर धकेला गया था, मुमकिन नहीं था कि वही ट्रीटमेंट लोखण्डे को पहले ही न मिल चुका होता।
तभी एक ऑटो उनके करीब रुका और उसमें से लोखण्डे बाहर निकला।
अब सुलतान को उससे दरयाफ़्त करने की ज़रूरत नहीं थी कि लोखण्डे के साथ क्या बीती थी।
लोखण्डे के चेहरे पर मुर्दनी थी। उसका बस चलता तो जाकर कहीं मुँह छुपा लेता। सारी प्लानिंग उसकी थी जिसकी बड़ी चतुराई से, बड़ी मुस्तैदी से किसी ने धज्जियाँ उड़ा दी थीं। और नाके की पुलिस ने तो जैसे बाकायदा उसकी स्कीम के हाइजैकर्स का साथ दिया था।
हाइजैकर्स!
सोहल और उसके साथी!
यकीनन!
बशर्ते कि ड्राइवर की आख़िरी एक झलक से उससे सोहल को पहचानने में चूक न हुई हो।
अब उसके सामने बड़ा सवाल था उसकी ऊपर से जवाबदारी तो हो के रहनी थी। वो नौबत आने पर क्या उसे सोहल का नाम लेना चाहिए था?
वो उसे सोहल का कारनामा कुबूल करता तो कूपर कम्पाउन्ड पर कोई बड़ा हल्ला ही उसकी बिगड़ी साख संवार करता था।
फिलहाल तो उसके तसव्वुर में वो सजा थी जो उसे मिल सकती थी।
क्या? कहीं गैंग से बाहर का रास्ता ही न दिखा दिया जाता! कहाँ वो मुकम्मल ज़िन्दगी के लिए अपाहिज़ हो गए अपने बॉस कुबेर पुजारी की जगह पाने के सपने देख रहा था और कहाँ अब उसे गैंग से ही बाहर कर दिए जाने की दहशत सता रही थी।
एम्बुलेंस की मंजिल सायन, कोलीवाड़ा में होटल मराठा थी जहाँ से आगे उसे अन्धेरी, अवधूत के गैराज में पहुँचाया जाना था। एम्बूलेंस के दोनों पहलुओं पर जिस हस्पताल का नाम दर्ज था, उसका कहीं कोई वजूद नहीं था और उसकी रजिस्ट्रेशन नम्बर प्लेट्स नकली थीं।
एम्बूलेंस की बाबत आगे सब सम्भालना अवधूत के ज़िम्मे था और फॉरेन करेंसी में बत्तीस करोड़ की विपुल धनराशि सम्भालना ‘मराठा’ के मालिक, सोहल के सदा के मेहरबान सलाउद्दीन के ज़िम्मे था।
माइकल गोटी उम्र में साठ के करीब पहुँचता, अपनी उम्र के लिहाज़ से निहायत तन्दुरुस्त, लम्बा ऊँचा व्यक्ति था जो अपनी ठोढी पर बकरा दाढ़ी रखता था जो कि गोटी कहलाती थी और जिसकी वजह से उसका नाम माइकल ‘गोटी’ था। वैसी दाढ़ी उसकी मर्जी नहीं, मजबूरी थी कि कुदरत ने ही उसकी सूरत ऐसी बनाई थी कि ठोढ़ी के अलावा उसके मुँह पर तरीके से बाल उगते ही नहीं थे। मूंछ अलबत्ता वो अपनी मर्जी से रखता था क्योंकि समझता था कि मूंछ का दाढ़ी के साथ तालमेल बैठता था।
वो पुराना मवाली था, अपने मौजूदा गैंग में उसने कोई कम तरक्की नहीं की थी। दुर्दान्त हत्यारा था इसलिए टॉप बॉस की हमलावर बाँह माना जाता था।
अंगारों पर लोटता वो शिवाजी चौक पहुँचा जहाँ उसका इन्तज़ार करने का हुक्म लोखण्डे को हुआ था। आते ही उसने पिछले ऑफिस की रिसैप्शनिस्ट समेत वहाँ मौजूद प्यादों को डिसमिस कर दिया। वो अपने खुद के चार प्यादों के साथ वहाँ पहुँचा था जो कि बतौर बाडीगार्ड्स हमेशा उसके साथ रहते थे।
उसके भीतर कदम रखते ही लोखण्डे उछल कर खड़ा हुआ, उसने लपककर भीतर का दरवाज़ा खोला ताकि वो जाकर कुबेर पुजारी के ऑफिस में बैठ पाता।
“नहीं माँगता!” – माइकल गोटी यूँ कड़क कर बोला कि लोखण्डे सिर से पाँव तक काँप गया।
गोटी के इशारे पर उसके साथ आए प्यादों में से दो बाहर चले गए और दो उनके पीछे प्रवेशद्वार बन्द कर के मजबूती से उसके सामने खड़े हो गए।
“कुबेर पुजारी की गैरहाज़िरी में” – माइकल गोटी एक-एक लफ्ज़ अँगारों की तरह उगलता बोला – “जो पहला बड़ा काम पूरी तरह से तुम्हेरे हवाले था, उसी को बंगल किया बन हण्डर्ड पर्सेट। अभी बोलो, फॉरेन करेंसी में – डॉलर में या पाउन्ड में या यूरो में या सब में – बत्तीस करोड़ रूपिया साला किधर गया! तुम साला इधर है, रोकड़ा किधर है?”
जवाब देने की कोशिश में लोखण्डे के होंठ काँप के रह गए।
“फुल हैण्ड दिया तुम्हेरे को बड़े- बोले तो तुम्हेरी औकात से बड़े इस काम में। फुल परमिशन दिया कुछ भी, कैसे भी आर्गेनाइज़ करने का वास्ते। आखिर क्या किया? सब बंगल किया – ऐसा कि कोई अड़वा पट्टा भी न करता। क्या?”
जवाब देने की नाकाम कोशिश में लोखण्डे के गले की घंटी ज़ोर से उछली।
“कालसेकर – ज्वेलर – किस वास्ते साथ था?”
“ब-बॉस ... बॉस सोचता था कालसेकर साथ होगा तो रोकड़े के मामले में ज्यास्ती ज़िम्मेदारी दिखाएगा।”
“कौन-सा बॉस सोचता था?”
“बिग बॉस।”
“कौन बिग बॉस! नाम लेने का बिग बॉस का ताकि बाद में ऐसा न हो कि तुम साला कुछ बोला, दूसरा कोई कुछ समझा। कोई कनफ्यूजन नहीं माँगता मेरे को। कौन बिग बॉस?”
“मिस्टर क्वीन! राजा सा'ब।”
“राजा सा'ब ख़ुद तेरे से उस बाबत डायलॉग किया?”
“नहीं, बॉस।”
“तो?”
“मेरे को कालसेकर बोला, जिस से राजा सा'ब फोन पर डायलॉग किया।”
“कैसे मालूम राजा सा'ब कालसेकर से डायलॉग किया?”
“कुबेर पुजारी बॉस बोला।”
“तुम्हेरे को?”
“कालसेकर को। वही राजा सा'ब से कालसेकर का डायलॉग अरेंज किया।”
“बोले तो असल बात – कि बिग बॉस बंगल हुए काम में कालसेकर को साथ होना माँगता था – आजू बाजू कई जगह ट्रैवल करती आख़िर तुम्हेरे तक पहुँची। क्या?”
“मैं स ... समझा नहीं, बॉस।”
“तो राजा सा'ब सोचता था कि कालसेकर रोकड़े के साथ होगा तो ज्यास्ती ज़िम्मेदारी दिखाएगा?”
“हं-हाँ।”
“क्या ज़िम्मेदारी दिखाया? दिखाता तो कैसे दिखाता? साथ साला तोप ले के आया?”
“न-नहीं।”
“एम्बूलेंस का आइडिया बोले तो चौकस! पण इन्तज़ाम तो चौकस न किया, साला मगज से न किया! मगज से काम लिया होता तो अक्कल में बैठता कि एम्बूलेंस में पेशेंट के साथ ज्वेलर समेत साला चार .... चार डॉक्टर किस वास्ते! डॉक्टर चार, आर्डरली एक भी नहीं। नाके पर इस बात पर साला शक जाहिर किया गया तो क्या गलत किया गया! फिर एम्बूलेंस भी ऐसी पकड़ी जो चौकस न निकली। साला एक नहीं. दो व्हील पंक्चर हो गए ऑल एट वंस। कैसे... कैसे हुए?”
“बॉस, हैरानी है। एम्बूलेंस बिल्कुल चौकस थी। पहिए पंक्चर होने का कोई मतलब ही नहीं था।”
“तो कैसे हो गए? नाके पर तैनात पुलिस ने लुटेरों की मदद की?”
लोखण्डे बेचैनी से पहलू बदलता बॉस से आई कॉन्टैक्ट से बचता रहा।
“गुलदस्ताप्रेमी, करप्ट लोकल पुलिस का ऐसी मदद को तैयार हो जाना कोई बड़ी बात नहीं। पण ऐसे कामों के लिए तैयार होने से पहले पुलिस अपने हासिल पर निगाह रखती है। नाके की पुलिस को क्या हासिल हुआ साला!” – वो एक क्षण ठिठका, उसने घूर कर लोखण्डे को देखा, फिर आगे बढ़ा – “बोले तो हासिल बाद में ... बाद में होगा?”
“शा-शायद।”
पुलिस ऑन क्रैडिट काम करती है?”
लोखण्डे फिर गड़बड़ाया। “पुलिस पहले वसूली करती है, गुलदस्ता पहले थामती है, फिर किसी काम आती है। पण नाके की पुलिस तो गुलदस्ता थामा ही नहीं! साला तुम्हीं बोला कि नाके का इंचार्ज इंस्पेक्टर गुलदस्ता के ज़िक्र से भड़क गया। क्या?”
“हं-हाँ।”
“अभी बोले तो तुम्हेरी एम्बूलेंस के दो पहिये नाके की पुलिस पंक्चर किया! गुलदस्ता थामे बिना लुटेरों की ख़ातिर वो काम किया!”
“ब-बॉस, मैं तो नहीं कहता पण ....”
“लुटेरा भीड़ लोग बाद में बिल भेजेगा ... फॉर सर्विसिज़ रेन्डर्ड। नो!”
“अभी क्या बोलेगा, बॉस!”
“पहिए पंक्चर हुए, एम्बूलेंस चलने के काबिल न रही तो दूसरी – खाली, ऑफ ड्यूटी – एम्बूलेंस ऐन मौके पर क्या उधर आसमान से टपकी?”
“बॉस, इत्तफ़ाक ...”
“अक्खा इडियट का माफिक बोलता है। दूसरी एम्बूलेंस इत्तफ़ाक से उधर थी तो पेशेंट के उसमें शिफ्ट हो जाने के बाद, जैसा कि एक्सपैक्टिड था, किसी हॉस्पिटल का रुख क्यों न किया? नाकाबन्दी से निकल लेने के बाद वो तुम्हेरे, तुम्हेरे भीड़ लोगों के काबू में क्यों न आई? उलटे तुम उन लोगों को काबू में आ गए। तुम्हें, डॉक्टर बने उमर सुलतान को, पेशेंट बने प्यादे को बाहर धकेल दिया गया और एम्बूलेंस का तुम्हरे को पताइच न लगा कि किधर गई। उसके साथ रोकड़ा किधर गया? यहीच हुआ न!”
लोखण्डे ने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“पायलेट कार का आइडिया अच्छा था। पण ड्राइवर के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं, कार के कोई डाकूमेंट्स नहीं ....”
“बॉस, आप जानते ही हैं कि गुलदस्ता ऑफर किए जाने पर कोई प्रॉब्लम पेश नहीं आती, सब ओके हो जाता है।”
“हुआ काहे नहीं?”
“है-हैरानी है।”
“पायलेट कार में चार हथियारबन्द प्यादे! किसी के पास फायरआर्स का लाइसेंस नहीं ....”
“बॉस, प्यादों के पास नहीं होता लाइसेंस ....”
“मालूम मेरे को।”
“... न ही हो सकता है। बोले तो जो बड़ी हैसियत वाले इस्ट्रेट करके भीड़ होते हैं, उन में भी सौ दरख्वास्त दें तो दो को लाइसेंस जारी होता है...”
“बच्चे नहीं पढ़ा।” – माइकल गोटी चिढ़ कर बोला – “मैं साला कल पैदा हुआ या अभी कल गॉड के पास पहुँचने वाला है?”
“स-सॉरी बोलता है, बॉस।”
“तमाम प्यादों को, शूटर्स को हिदायत है कि नहीं कि नौबत आने पर गैरकानूनी हथियार उन के पास से बरामद होना नहीं माँगता। वो चारों प्यादे नाके पर फायरआर्स के साथ थाम लिए गए। साला ज़मानत में भी लोचा। अभी जब मालूम पड़ेगा कि पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक सब नोन क्रिमिनल तो लम्बी लगेगी। साला कोई कुछ नहीं कर पाएगा। या तुम कर लेगा कुछ? सब कुछ?”
लोखण्डे ने बेचैनी से पहलू बदला।
“किसी को रोकड़े की मूवमेंट की ख़बर बरोबर। किसी ने बाकायदा तैयारी कर के तुम्हेरे प्लान को हाइजैक किया। इसी वास्ते नाके पर ऐन मौके पर एक खाली, रिप्लेसमेंट एम्बूलेंस अवेलेबल, जिसका मूव तुम साला, तुम साला लीडर, समझ न सका ...”
“बॉस, स-समझा तो सब पण पुलिस के दखल की वजह से पेश न चली।”
“क्यों न चली? तुम साला आर्ड था, एम्बूलेंस चलाते ड्राइवर के बाजू में बैठेला था, क्यों न चली? एक भीड़ को, ऐसे भीड़ को जिसने ड्राइव करना था, काबू में नहीं कर सकता था।”
“क-क-किया था।”
“क्या किया था?”
“उसको गन से कवर किया था।”
“गुड! तो वो काबू में काहे वास्ते नहीं आया?”
लोखण्डे ने डरते हकलाते वजह बताई।
“फेंकता है तुम!”- माइकल गोटी साँप की तरह फँफकारा – “साला बत्तीस करोड़ दाँव पर था! या मारता या मर जाता। बच जाता, रोकड़ा बचा लेता तो टॉप बॉस खुद गले लगा के शाबाशी देता। साला जान से जाता तो भी बॉस तारीफ करता और बोलता, यू डाइड फॉर ए कॉज़। नो?”
लोखण्डे से जवाब न दिया गया।
“अभी बोलो, कौन हमारे प्रोजेक्ट को हाइजैक किया? किस के पास है हमारा रोकड़ा? जवाब माँगता है मेरे को।”
“म-मालूम नहीं।”
“क्यों मालूम नहीं? तुम साला एम्बूलेंस में उसका बाजू में बैठेला था। क्या देखा? न देखा तो क्यों न देखा? नकाब पहने था?”
“न-नहीं।”
“सोहल था?”
लोखण्डे की जुबान तालू से जा लगी। कठिन फैसला था। वो सोहल था, कुबूल करे या न करे!
“अभी बोलता काहे वास्ते नहीं?” - माइकल गोटी आग्नेय नेत्रों से उसे घूरता बोला – “अभी कल साला तुम इधरीच फेस टु फेस सोहल के सामने था। विद इन ट्वेन्टी फोर आवर्स शक्ल भूल गया!”
“म-मेरी ड्राइवर की शक्ल की तरफ तवज्जो नहीं थी” – वो सहमा-सा बोला – “मेरा सारा ध्यान उसको काबू में करने की तरफ था पण .....”
“क्या पण? कम क्लीन!”
“जब मेरे को एम्बुलेंस से बाहर धकेला गया था तो एम्बुलेंस के आगे निकल जाने से पहले मुझे एक बहुत ही मुख़्तसर सी झलक ड्राइवर की शक्ल की मिली थी।”
“सोहल था?”
लोखण्डे की अक्ल गवाही दे रही थी कि उसे सोहल की बाबत ख़ामोश रहने का था। सोहल का नाम लेना, उसका ज़िक्र करना ही एक बड़े गलाटे की बुनियाद बन सकता था लेकिन बॉस जैसे कच्चा चबा जाने के अन्दाज़ से उसके साथ पेश आ रहा था, सोहल की बाबत ख़ामोश रहना उसके लिए मुँह खोलने से बड़ी मुसीबत का बायस बन सकता था।
फिर जो निकला, अपने आप उसके मुँह से निकला। “हं-हाँ।”
“गुड। यानी हमारा रोकड़ा सोहल के कब्जे में है?”
“हाँ।”
“कूपर कम्पाउन्ड में एम्बूलेंस का पता किया?”
“न-नहीं।”
“क्यों? जब तुम हाइजैक को सोहल का कारनामा बताता है तो कूपर कम्पाउन्ड का ख़याल तुम्हेरे मगज में क्यों न आया?”
“आया, बॉस?”
“तो क्या किया? गया उधर?”
“जाने का था। पण पहले आप का हुक्म मिला इधर आप का वेट करने का था।”
“मेरे को ख़ुशी कि ऑर्डर ज़िम्मेदारी से फॉलो किया तुम। बैंक्यू बोलता है। अभी क्या करेगा? सोहल से रोकड़ा वापिस छीन लेगा तुम?”
“म-मैं!” – वो हकबकाया – “मैं?”
“क्यों नहीं? छिन जाने भी तो साला तुम्हीं दिया!”
लोखण्डे के मुँह से बोल न फूटा। उसके गले की घन्टी ज़ोर से उछली।
“तुम साला लीडरी के काबिल तो हैइच नहीं, हमेरे काम का भीड़ भी नहीं।”
देवा! अब बाहर का रास्ता दिखाया जाना निश्चित था। माइकल गोटी के हाथ में गन प्रकट हुई तो लोखण्डे को ख़बर ही न हुई। उसने लोखण्डे को प्वायन्ट ब्लैंक शूट कर दिया।
बाहर का रास्ता तो लोखण्डे को दिखाया गया लेकिन गैंग से बाहर का नहीं, इस फानी दुनिया से बाहर का।
एक घन्टे बाद वहीं ज्वेलर वसन्तराव कालसेकर की पेशी हुई।
तब तक लोखण्डे की लाश ठिकाने लगाने के लिए वहाँ से हटाई जा चुकी थी।
वहाँ के निज़ाम को काबू में करने के लिए अब न कुबेर पुजारी उपलब्ध था और न उसकी साइड किक राघव लोखण्डे उपलब्ध था। उस ज़िम्मेदारी को तत्काल ग्रहण करने के लिए टोनी पचेरो को तलब किया गया था जो पुजारी की जगह लेने के लिए माइकल गोटी की निजी चायस था।
कालसेकर को वहाँ लिवा कर उमर सुलतान लाया था जिसे बाहुक्म गोटी वहीं रोक लिया गया था। उसके सामने वहाँ कुछ नहीं हुआ था फिर भी लोखण्डे के हौलनाक अंजाम की ख़बर उसे लग चुकी थी।
माइकल गोटी उस घड़ी पुजारी के निजी ऑफिस में उसकी एग्जीक्यूटिव चेयर पर विराजमान था।
गोटी ने ज्वेलर को बाइज्जत कुर्सी पेश की।
टोनी पचेरो और उमर सुलतान दरवाजे के करीब खड़े रहे। जब उन्हें डिसमिस किए जाने का हुक्म न हुआ तो वो मुस्तैदी से बन्द दरवाज़े के करीब दीवार से पीठ लगा कर खड़े हो गए।
“मैं माइकल गोटी।” – गोटी संजीदगी से बोला। कालसेकर ने ख़ामोशी से सहमति में सिर हिला कर परिचय कुबूल किया।
“डे टाइम में ऑन रोड जो बीती, उसका तुम ख़ुद गवाह है इस वास्ते आजू बाजू की बातों में टेम ज़ाया करना मैं नहीं समझता कि मुनासिब होगा। क्या?”
“ठीक!” – कालसेकर दबे स्वर में बोला।
“एम्बूलेंस में तुम्हेरी मौजूदगी किस काम आई?”
“किसी काम न आई। किसी काम आ भी नहीं सकती थी। रोकड़े के साथ मेरी मौजूदगी कतई गैरज़रूरी थी लेकिन मेरे को बोला गया ऐसा।”
“क्या? क्या बोला गया?”
“कि मेरी मौजूदगी मेरे में सैंस ऑफ रिस्पांसिबलिटी पैदा करेगी।”
“बंडल! कौन बोला ऐसा?”
“कुबेर पुजारी। वो बिग बॉस के हवाले से बोला जिससे कि उसने मेरी फोन पर बात करवाई।”
“कौन बिग बॉस?”
“मिस्टर क्वीन।”
“क्या हवाला? ये कि बिग बॉस ऐसा माँगता था? माँगता था कि तुम्हेरे को रोकड़े के साथ होना?”
“हाँ।”
“शेकड़ा एम्बुलेंस में ढोया जाना था, इस बात की ख़बर तुम्हेरे को पहले ही लग गई थी या खड़े पैर लगी?”
“पहले ही लग गई थी।”
“पुजारी से?”
“लोखण्डे से।”
“पहले किस लिए?”
“वो बोला, मेरे को एम्बूलेंस में बतौर डॉक्टर मौजूद होना था जिसके वास्ते मेरे को अपने साइज के डॉक्टरों वाले सफेद कोट का इन्तज़ाम करके रखना था क्योंकि मेरे एक्सएक्सएल साइज का वैसा कोट मार्केट में अवेलेबल नहीं था।”
“तो बोले तो तुम्हेरे को मालूम था कि रोकड़ा एम्बूलेंस में ढोया जाना था?”
“भई, दो ट्रक तो कोई न बोला ऐसा, पर अन्दाज़ा ... अन्दाज़ा तो पूरा-पूरा था!”
“क्या अन्दाज़ा? कि रोकड़ा एम्बुलेंस में ढोया जाना था?”
“हाँ।”
“तुम एम्बूलेंस के इस इस्तेमाल के हक में था?”
“नहीं।”
“वजह?”
“इतनी बड़ी रकम का मामला था, आर्ड सिक्योरिटी वैन ऐंगेज की जानी चाहिए थी जो बैंकों को, फाइनांशल आर्गेनाइज़ेशंज़ की अवेलेबल होती थी और जिस में कैश की ट्रांसपोर्टेशन की सिक्योरिटी कम्पनी की ज़िम्मेदारी होती थी।”
“तुमने ये इन्तज़ाम किसी को सुझाया?”
“नहीं।”
“क्यों?”
“कोई पूछा नहीं।”
माइकल गोटी ने आग्नेय नेत्रों से सुलतान की ओर देखा।
सुलतान अपने आप में सिकुड़ कर रह गया। रह-रहकर उसके जेहन पर लोखण्डे का अंजाम उबरने लगा।
“एम्बूलेंस के साथ” – गोटी वापिस ज्वेलर की ओर आकर्षित हुआ – “तुम्हेरे को मौजूद रहने का था, इस वास्ते तुम्हेरे को एम्बूलेंस की ख़बर थी। ये ख़बर लीक कैसे हुई?”
“किसको लीक हुई?”
“तुम्हेरे को बोलने का। लीक तो हुई न! वर्ना इतनी तैयारी के साथ हमेरा प्रोजेक्ट कैसे हाइजैक हो सका?”
ज्वेलर ख़ामोश हो गया, उसके माथे पर ऐसे बल पड़े जैसे गम्भीर सोच में हो। गोटी बड़े धीरज से उसके बोलने का इन्तज़ार करने लगा।
“ऑनेस्ट बोलूँ?” – आख़िर ज्वेलर बोला।
“ऑनेस्ट ही बोलने का।” – गोटी कदरन नाखुश लहजे से बोला।
“तुम्हें मालूम होगा कि दूसरे ट्रेडर्स से रोकड़ा कलैक्शन की ज़िम्मेदारी मेरे को सौंपी गई थी जो मैंने पूरी मुस्तैदी से निभाई थी। मेरी गुडविल पर ट्रेडर्स रोकड़ा मेरे को सौंपने को तैयार हो गए पर सबने पूछा कि रोकड़ा उसकी मंजिल पर ढोया कैसे जाना था। मैंने उस बाबत टालमटोल की तो वो रोकड़ा मेरे को सौंपने में आनाकानी करने लगे। मैंने पुजारी को इस बाबत ख़बर की तो उसने आगे जो किया, बहुत बुरा किया।”
“क्या किया?”
“मेरे इकलौते नौजवान बेटे विष्णु का अगवा कर लिया और हुक्म सुनाया कि अगर मैं विष्णु की सलामत वापिसी चाहता था तो जो काम मेरे को सौंपा गया था, कैसे भी मैं वक्त रहते उसे अंजाम दूँ। मजबूरन सारे ट्रेडर्स से एम्बूलेंस की बाबत अपनी जानकारी मेरे को शेयर करनी पड़ी और गिड़गिड़ा के उन से सहयोग की माँग करनी पड़ी।”
“मिला?”
“हाँ, मिला। वक्त रहते सब से रोकड़ा भी मिला पर अब एम्बुलेंस की जानकारी पन्द्रह और हाथों में थी और वो कहीं से भी लीक हो सकती थी।”
“पण कहीं से लीक न हुई – तुम्हेरे साथी ट्रेडर्स ने ज़िम्मेदारी दिखाई – वो जानकारी लीक ख़ुद तुमने की। कुबूल करने का।”
“हाँ।”
“क्यों?”
“क्योंकि कोई दूसरा भी वैसी ही धमकी मेरे सिर पर खड़ी किए था जैसी मेरे बेटे का अगवा कर के तुम्हारे लोगों ने खड़ी की थी। फर्क ये था कि इधर का निशाना मेरा बेटा था, किसी दूसरे का निशाना ख़ुद में था।”
“तुम्हेरे को धमकी थी जान से मार दिए जाने की?”
“हाँ।”
“कौन था धमकी जारी करने वाला?”
“मालूम नहीं।”
“उससे कॉन्टैक्ट किसके ज़रिए हुआ था?”
“वो एक नामालूम शख़्स था जो ख़ुद को बिचौलिया बताता था।”
“क्या कहता था?”
“कहता था मैं कोऑपरेट करूँगा तो आइन्दा कभी कोई माँग खड़ी नहीं होगी – न मेरे से, न मेरे फैलो ट्रेडर्स से।”
“वो ऐसा कर सकता था?”
“बिचौलिया था। करा सकता था। इस सिलसिले में सरपरस्तों का हवाला देता था।”
“सरपरस्त कौन?”
“पत्थरमार!”
“बंडल! उनका कोई वजूद नहीं।”
“बिचौलिया कहता था कि ये भी उनकी स्ट्रेटेजी थी कि समझा जाता कि उनका कोई वजूद नहीं था। कहता था इसी स्ट्रेटेजी के तहत ये अफवाह कायम की गई थी कि उनका लीडर दशरथ अहिरे तमाम रोकड़ा लेकर फरार हो गया था जब कि आज की हाइजैक की वारदात को उसी ने आर्गेनाइज़ किया था और ख़ुद ये अफवाह प्लांट की थी कि वो कारनामा सोहल का था।”
गोटी मुँह बाये ज्वेलर की तरफ देखने लगा। ज्वेलर ने उससे आँख न मिलाई।
“बंडल!” – गोटी एकाएक भड़का – “सब बंडल! पत्थरमारों का न कोई वजूद है, न हो सकता है। अभी साला कल जिनका नाम सुनाई देना शुरू हुआ, वो इतनी बड़ी वारदात को अंजाम नहीं दे सकते, भले ही उनका लीडर कितना ही बड़ा सूरमा हो। हर किसी की कोई औकात होती है, औकात का कोई दायरा होता है जिससे बाहर उसकी पेश चलना मुमकिन नहीं होता। अब्बल तो पत्थरमार कोई हैइंच नहीं, हैं तो ख़्वाब में भी इतने बड़े प्रोजेक्ट को – और प्रोजेक्ट भी किसका! हाइजैक करने का ख़याल नहीं कर सकते। क्या?”
उमर सुलतान हड़बड़ाया, कदरन देर से उसकी समझ में आया कि बॉस का सवाल उससे था।
“बॉस” – सुलतान संकोच से बोला – “मैंने खुद पड़ताल की थी और कई तरीकों से तसदीक की थी कि पत्थरमारों का कोई वजूद नहीं था। पण बोले तो इधरीच एक भीड़ है, हमेरा अपना एक भीड़ है जो मेरी राय से मुतमईन नहीं। वो शुरू से ही पुरइसरार कहता आ रहा है कि पत्थरमार न सिर्फ हैं, बल्कि एकजुट होकर हमारे खिलाफ एक्टिव हैं।”
“कौन है वो भीड़?”
“अनिल चिकना।”
“क्या बोला?”
“विनायक। अनिल विनायक।”
“हम्म! आगे?”
“फिर हमारा हनीफ़ गोगा कर के एक ख़बरी प्यादा कूपर कम्पाउन्ड से ख़बर निकाल कर लाया था कि पत्थरमारों का दशरथ अहिरे नाम का लीडर, जो सिन्धी कॉलोनी सायन में रहता बताया जाता था, तब तक का लुटा सत्तर लाख रुपया लेकर फरार हो गया था। ये बात सुनने में इतनी चौकस और मजबूत जान पड़ती थी कि दो भीड़ पड़ताल के लिए लगाए गए जिन्होंने उस पते की तसदीक की, फरार होने से पहले जहाँ दशरथ अहिरे रहता था और बाकायदा कई पड़ोसियों ने तसदीक की कि अहिरे वहाँ साईं चाल के पहले माले की खोली नम्बर 107 में रहता था, पण हाल में खोली खाली कर गया था और गायब हो गया था।”
“इतनी तसदीक शुदा बातों के बावजूद तुम्हेरे को लगता है वो नाम फर्जी है और पत्थरबाज़ों का कोई वजूद नहीं?”
“गुस्ताखी माफ, पण हाँ, बाप।”
“वजह?”
“वो सब बातें कूपर कम्पाउन्ड से प्लांट की गई हैं।”
“तुम्हारा ख़बरी प्यादा ... क्या नाम बोला था?”
“हनीफ़ गोगा।”
“प्लांट करने का काम वो कर रयेला है?”
“बाँस, उसका काम उधर की ख़बरें इधर लाना था। वो जो उधर सुन के आया और आकर इधर बोला, उसपर ऐतबार करना तो पड़ता ही है न!”
“सुन के आया था या सीख के आया?”
सुलतान से जवाब देते न बना।
“अभी किधर है वो प्यादा हनीफ़ गोगा?”
“इधरीच है।”
“बुला के ला।”
“अभी।”
डरता झिझकता हनीफ़ गोगा माइकल गोटी के सामने पेश हुआ।
“कूपर कम्पाउन्ड में किस से वास्ता तेरा?” – गोटी कहरबरपा लहजे से बोला – “कौन तेरे को उधर यहाँ के लिए ख़बरें सप्लाई करता है? अभी ये नहीं बोलने का कि तू इतना श्याना कि ख़बरें सूंघ के आता है। खाली बोलने का कि कौन ख़बरें सप्लाई करता है। झूठ बोला तो इधरीच मरा पड़ा होयेंगा। क्या?”
“इ-इ-इरफ़ान।” - हनीफ़ गोगा साफ-साफ हकलाता बोला।
“वो तेरे को दशरथ अहिरे का स्टोरी फीड किया आगे इधर फीड करने का वास्ते?”
“हं-हाँ।”
“दशरथ अहिरे कोई नहीं?”
“हं-हाँ।”
“तो उसकी तसदीक कैसे हुई? उसके घर के पते की तसदीक कैसे हुई?”
“सब इरफ़ान भाई अरेंज किया।”
“जो कि तेरा इरफ़ान भाई! इधर हम तेरे कोई कुछ नहीं?”
गोगा के मुँह से बोल न फूटा।
“साला हरामी! जिस थाली में खाता है, उसी में छेद करता है। लेके जाने का। मालूम, किधर लेके जाने का?”
“मालूम, बॉस।” – सुलतान बोला। उसने हनीफ़ गोगा को मुंडी से पकड़ा और लगभग घसीटता बाहर ले चला। हनीफ़ गोगा की वहाँ फौरी पेशी इसलिए हुई थी ताकि ज्वेलर पर उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता। ज्वेलर को इस बाबत कोई शक नहीं था कि हनीफ़ गोगा को जहन्नुम की राह दिखाने को ले जाया गया था।
अब वो साफ-साफ विचलित दिखाई दे रहा था। उमर सुलतान के लौटने तक वहाँ ख़ामोशी छाई रही।
“बॉस” – वो आशापूर्ण स्वर में बोला – “मैं अनिल विनायक को बुलाए?”
“किस वास्ते?” – गोटी उलझनपूर्ण भाव से बोला।
“बॉस, आपको पक्की कि पत्थरमार कोई नहीं फिर भी खाली अनिल विनायक है जिसकी ज़िद है कि पत्थरमारों का वजूद है।”
“नहीं, नहीं माँगता मैं उसको इधर। वो हमारा वफ़ादार है, हमारा परखा हुआ भीड़ है, उसकी और तुम्हेरे हनीफ़ गोगा की औकात मैं एक बरोबर कर के देखना नहीं माँगता। क्या?”
होंठ काटता सुलतान ख़ामोश हो गया।
“अभी पत्थरमारों की बाबत बंसफॉर ऑल बोलना माँगता है, सब अफवाह है?”
“हं-हाँ।”
“अफवाह का फायदा?”
“फायदा है न! दशरथ अहिरे बोलता है कारनामा सोहल का, कूपर कम्पाउन्ड से ख़बर आती है कारनामा पत्थरमारों का। नतीजतन हम कहीं भी फोकस नहीं कर पाएँगे।”
“हमारा फोकस कूपर कम्पाउन्ड पर है।” – गोटी निर्णायक भाव से बोला – “एण्ड दैट्स फाइनल।”
“यस, बॉस।”
“तुम्हेरा” – गोटी ज्वेलर की तरफ घूमा – “बेटा वापिस लौट आया?”
“हाँ।” – कालसेकर दबे स्वर में बोला।
“बढ़िया। अभी मेरे को विद फुल अटेंशन सुनने का। जो स्टोरी अभी इधर तुम किया, वो मेरे को ओके नहीं पण अभी मेरे को वो मंजूर, क्योंकि अभी तुम भी इधर है, तुम्हेरा बेटा भी इधर है, तुम्हारा बिजनेस भी इधर है। दिस इज़ ए वर्ड टु दि वाइज़। नो?”
“य-यस।”
“मेहमान को रिस्पेक्टफुल्ली बाहर छोड़ के आने का।”
“यस, बॉस!” – सुलतान तत्पर स्वर से बोला। सुलतान ने लपक कर ज्वेलर के लिए दरवाज़ा खोला।
ऊपर से नॉर्मल दिखने की कोशिश करता पर भीतर से हिला हुआ कालसेकर वहाँ से रुख़सत हुआ।
रात दस बजे शंघाई मून’ में चारों डॉन जमा थे।
चारों डॉन!
अन्डरवर्ल्ड में जिनकी शिनाख्त गैंग ऑफ फ़ोर’ के तौर पर होती थी। जो ख़ुद भी ‘गैंग ऑफ फ़ोर’ कहलाया जाना पसन्द करते थे।
मैनेजर जमशेद कड़ावाला को डिसमिस कर दिया गया था और अब उसके ऑफिस पर उन चारों का कब्जा था। कड़ावाला की कुर्सी पर ‘राजू-राजा-राजा सा'ब विराजमान था और उसके सामने विज़िटर्स चेयर्स पर बाकी तीन बिग बॉस बैठे थे जिनमें से एक माइकल गोटी था, जिसने कि वो अर्जेंट मीटिंग बुलाई थी, और बाकी दो के नाम दिवाकर झाम और नेविल मेंडिस थे। उन तीनों के चेहरों पर गहरी संजीदगी थी और उन्होंने राजा सा'ब की ड्रिंक्स की पेशकश से सख्ती से इंकार कर दिया था।
“हम तीनों को” – माइकल गोटी बोला – “आज की वारदात की ख़बर है, जिसमें कि फॉरेन करेंसी में बत्तीस करोड़ रुपया लुटा, तुम क्या कहते हो?”
“मेरे को भी ख़बर है।” – राजा सा'ब बोला – “बिना ख़बर हुए कैसे रह सकती थी?”
“साफ हिंट मिले हैं कि लूट सोहल का कारनामा था।”
“रोकड़ा ढोने में लापरवाही बरती गई ....”
“वो मद्दा अब अहम नहीं। साँप निकल जाने के बाद लकीर पीटने का कोई मतलब नहीं, कोई मकसद नहीं। इस वक्त मुद्दा ये है कि हम सोहल से मुकाबिल हैं या नहीं!”
“तुम बोलो।”
राजा सा'ब ने बाकी दो की तरफ देखा।
“हैं।” – दोनों समवेत् स्वर में बोले।
“मैं तुम लोगों से सहमत हूँ।” - राजा सा'ब बोला।
“शुक्रिया।” – गोटी शुष्क स्वर में बोला – “दूसरा अहम सवाल ये है कि हम सोहल से अपना रोकड़ा वापिस छीन सकते हैं या नहीं!”
“नहीं, सवाल ये नहीं है कि हम ये काम कर सकते हैं या नहीं, सवाल जो है, ये है कि जब हमें मालूम है हम सोहल के मुकाबिल है तो हम उसका मुकाबला कर सकते हैं या नहीं!”
“तुम जवाब दो।”
“नहीं भी कर सकते तो करना पड़ेगा वर्ना इतनी बड़ी रकम का ग़म खाना पड़ेगा।”
“मुझे मंजूर नहीं।” – नेविल मेंडिस भड़कने को हुआ।
“मुझे भी।” – दिवाकर झाम भी वैसे ही गुस्से से बोला।
“मेरे को सबकी राय से इत्तफ़ाक है।” – राजा सा'ब बोला – “इस सूरत में अहमतरीन काम जो है, मालूम करना है कि सोहल कहाँ है!”
“तमाम अन्डरवर्ल्ड जानता है” – गोटी बोला – “कि सोहल मायावी मानस है। वो कब कहाँ होता है, इसकी ख़बर पा लेना कोई आसान काम नहीं। हमारी सात-आठ महीने पहले की जानकारी कहती थी कि वो हमेशा के लिए मुम्बई छोड़ गया था। फिर दिल्ली से औनी-पौनी ख़बर आई थी कि वो वहाँ छिड़ी किसी गैंगवार में मर-खप गया था। फिर पता लगा था कि उसने वहाँ हमारे
ओहदेदार स्टीवन फेरा समेत कई इम्पॉर्टेट करके लोकल लोगों को मार डाला था और खुद गायब हो गया था पण ये कोई नहीं बोला था कि दिल्ली से गायब हो गया था तो वापिस मुम्बई पहुँच गया था ....”
“वो मुम्बई में है। हमारे ज़ीरो नम्बर्स की चौकस ख़बर है।”
“अब हमारा भी यही ख़याल है।”
“खयाल क्यों, यकीन है।” – झाम बोला।
“सब मंजूर।” – राजा सा'ब बोला – “अब बोलो, चाहते क्या हो? इस बैठक का मुद्दा क्या है?”
झाम और मेंडिस ने यूँ गोटी की तरफ देखा जैसे रहनुमाई चाहते हों।
“हम” – गोटी बोला – “शाह से मीटिंग चाहते हैं।”
“हाँ।” – झाम पुरज़ोर लहजे से बोला।
“हम एक अरसे से नोट कर रहे हैं” मेंडिस बोला – “कि हमें अवॉयड किया जा रहा है। हम कोई मुद्दा शाह से डिसकस करना चाहते हैं तो हमें टाइम नहीं दिया जाता। हमें तुम से मिलने की राय दी जाती है।”
“शाह टॉप बॉस है।” – राजा सा'ब बोला – “टॉप बॉसिज़ अपने नैक्स्ट-इन कमांड को जो है, अपनी पावर्स डेलीगेट करते ही हैं।”
“पण ...”
“टॉप बॉस शाह है तो मैं वजीर हूँ, फरजी हूँ। फरजी शाह के हुक्म से काम करता है तो क्या गलत करता है?”
“जो आज हुआ है” – गोटी सख़्ती से बोला – “वो हम शाह से ही डिसकस करना चाहते हैं।”
“कम से कम इस बार हमें फरजी की कमांड मंजूर नहीं।” – मेंडिस बोला।
“मेंडिस” – राजा सा'ब सख्ती से बोला – “दिस विल बी इनसबार्डीनेशन।”
“अगर ऐसा है तो हम ये बात शाह की जुबानी सुनना चाहेंगे।”
“अंजाम बुरा होगा।”
“भुगतेंगे।”
राजा सा'ब ख़ामोश हो गया।
“हमें” – गोटी ज़िदभरे लहजे से बोला – “कम से कम इतना तो मालूम होना चाहिए कि हमारी रहनुमाई करने के लिए शाह अवेलेबल भी है या नहीं!”
“मुम्बई में भी है या नहीं!” – झाम बोला।
“इन्डिया में भी है या नहीं!”
मेंडिस बोला।
“कभी शाह के हमें बुलावे आते थे” – गोटी बोला – “अब हम शाह के पास नहीं फटक सकते। ऐसी नाकद्री हमें कुबूल नहीं।”
“बात का जो है, बतंगड़ बनाने की जरूरत नहीं।” – राजा सा'ब सख़्ती से बोला – “कोई नाकद्री नहीं।”
“न सही।”
झाम बोला – “पण हमारी शाह से मीटिंग में प्रॉब्लम क्या है?”
“बोलँगा।”
“अभी बोलो वर्ना ....”
“वर्ना क्या?”
“वरना जो हमें मुनासिब लगेगा, हम करेंगे।”
“मेरी इजाज़त के बिना?”
“इस बार हाँ।”
“वर्ना हमें”– मेंडिस बोला – “रोकड़े को गुडबाई बोलना पड़ेगा।”
“जो कि गैंग के लिए गलत सिग्नल होगा।” – गोटी बोला – “हर कोई समझेगा कि हम पिलपिला रहे हैं ...”
“मुझे नहीं पता सब क्या समझेंगे।” – राजा सा'ब भड़का – “मेरे से बाहर जाना जो है, शाह से बाहर जाना होगा। शाह की हुक्मउली....”
“कैसी उदूली? हुक्म होगा तो उदूली होगी न! हुक्म ही तो हम चाहते हैं! कैसे होगा जब तुम हमें शाह के करीब ही नहीं फटकने दोगे?”
“वेट करो।”
“नो! ये वेट करने वाला मामला नहीं। हमें फौरन शाह से मीटिंग माँगता है। वर्ना जो हमें मुनासिब लगेगा, हम करेंगे। अब क्या कहते हो फौरन मीटिंग के बारे में? हाँ या न?”
“फैसला जो है शाह ने करना है। ही विल टेक हिज़ ओन टाइम।”
“अरे, इतना तो बताओ” – झाम झल्लाया – “हमारा बॉस है कहाँ? मुम्बई में – या इन्डिया में है कहाँ?”
“इन्डिया में या फॉरेन में कहीं?” - मेंडिस बोला।
“बॉस खुद बोलेगा।”
राजा सा'ब बोला।
“कब?” – गोटी बोला।
“मैं बोलूँगा।”
“कब?”
राजा सा'ब ख़ामोश हो गया।
गोटी एकाएक उठा खड़ा हुआ। उसकी देखादेखी उसके दोनों साथी भी उठ खड़े हुए।
“एक आख़िरी बात” – गोटी बोला – “और कहने की इजाज़त दो।”
राजा सा'ब की भवें उठी।
“अपनी नम्बर टू की हैसियत में, वजीर की हैसियत में तुम शाह का कोई हुक्म हमें पास ऑन करो तो वान्दा नहीं हमेरे को ....”
उसने अपने साथियों की तरफ देखा। दोनों के सिर निसंकोच सहमति में हिले। “... पण तुम्हीं हमें हुक्म देने लगो तो वान्दा बरोबर हमेरे को।”
“क्या मतलब?” – राजा सा'ब नेत्र सिकोड़ता बोला।
“समझो! इतने नादान नहीं हो कि ये न समझ सको कि गैंग में हम चारों की हैसियत में कोई फर्क नहीं है- है तो बस, उन्नीस, बीस का – हम सब ईक्वल्ज़ हैं और तुम फर्स्ट अमंग ईक्वल्ज़ हो। बस इतनी-सी बात है जिसको, तुम समझते हो कि, समझाए जाने की ज़रूरत है। राजू भाई, दिस इज़ ए वर्ड टु दि वाइज़। अगर वाइज़ की पकड़ में वर्ड आ गया हो तो वो समझे कि अपनी ज़ाती हैसियत में हम तीनों में से किसी को हूल नहीं देने का वर्ना ....”
“क्या वर्ना?” - राजा सा'ब का लहजा तल्ख हुआ।
“... अंजाम बुरा होगा।”
“किस के लिए?”
“ये तो आने वाला वक्त बताएगा। वेट करने का। हम भी करते हैं।”
फिर बना फरजी को अभिवादन किए तीनों वहाँ से रुखसत हुए। पीछे राजू-राजा-राजा सा'ब मेज़ ठकठकाता ख़ामोश बैठा रहा।
आसार अच्छे नहीं थे। हालात फिक्र पैदा करने वाले थे। गैंग में टॉप लैवल पर फूट की बुनियाद बनती दिखाई दे रही थी।
या शायद बन चुकी थी।
हाइजैक का नतीजा सारी रकम होटल मराठा के मालिक सलाउद्दीन के हवाले थी। वो एक बड़े ट्रक में महफूज़ थी जिसका मुकाम होटल की बेसमेंट में था।
मिडल क्लास क्लायंटेल के लिहाज़ से ‘मराठा’ का शुमार महँगे होटलों में होता था लेकिन अपनी रेटिंग – टू स्टार – के होटलों के मुकाबले में ही कदरन महँगा था, असल महँगे होटलों के मुकाबले में फिर भी अफ़ोर्डेबल था। इसी वजह से उसका शुमार राउन्ड-द-इयर बिज़ी होटलों में था। वहाँ मेहमान आते थे, चले जाते थे, कभी, कभी भी, किसी को भनक नहीं लगी थी कि होटल में बेसमेंट भी थी।
तुकाराम की ज़िन्दगी में सलाउद्दीन उसका जिगरी था और इस वजह से विमल भी सलाउद्दीन का जिगरी था। सलाउद्दीन की और उसके होटल की खूबी ये थी कि दोनों ही कभी भी ‘कम्पनी’ के राडार पर नहीं आए थे। इस अहम वजह से कई मर्तबा ‘मराठा’ सोहल के लिए सेफ पनाहगाह बन चुका था। होटल के टॉप फ्लोर पर एक ही बैडरूम था जो सोहल को बावक्तेज़रूरत हमेशा उपलब्ध होता था। सलाउद्दीन के चार- जावेद, नासिर, आरिफ़, आमिर-नौजवान बेटे थे जो होटल चलाने में अब्बा की मुस्तैद मदद करते थे और कई बार दिलोजान से सोहल के काम आ चुके थे-ख़ासतौर से छोटा साहबज़ादा आमिर जो कि बहुत ही दक्ष ड्राइवर था, इतना कि ‘फार्मूला-वन’ में शिरकत का अरमान रखता था।
उस घड़ी रात के ग्यारह बजे थे। होटल लड़कों के हवाले कर के सलाउद्दीन घर जा चुका था जो कि होटल के करीब सायन में ही था। अब्बा की गैरहाज़िरी में लड़के तीन-तीन घन्टे की शिफ्टों में रात को रोटेशन में ड्यूटी करते थे।
उस घड़ी शिफ्ट-ड्यूटी बड़े लड़के जावेद की थी जो कि रिसैप्शन पर मौजूद होने की जगह नीचे बेसमेंट में था और उस बड़े ट्रंक का ताला खोलने में मशगूल था जिसमें उसकी जानकारी के तहत फॉरेन करेंसी में बत्तीस करोड़ रुपए यानी पैंतालिस लाख डॉलर बन्द थे।
आख़िर ताला खुला। उसके हाथ में एक मजबूत पेपर बैग था जिसमें उसने सौ-सौ डॉलर की आठ गड्डियाँ भरी तो पेपर बैग में और जगह बाकी न बची।
ताला खोलने के मुकाबले में उसे वापिस बन्द करना आसान था। उस काम से फारिग होकर पेपर बैग सम्भालता वो वापिस घूमा तो सन्न रह गया।
तहखाने की आखिरी सीढ़ी पर सलाउद्दीन खड़ा था।
“अब्बू!” – जावेद ख्रिसियाया-सा बोला – “आपने तो मुझे डरा ही दिया!”
“वापिस रख दे।”– सलाउद्दीन भावहीन लहजे से बोला।
“क-क्या ... ब-बोला?”
“जो तूने सुना। मेरी दाढ़ी सफेद हो गई, दामन हमेशा हमेशा उजला रहा। अब जब मेरी ख़ुदावन्द करीम के पास हाज़िरी भरने की उम्र है तो मेरा उजला दामन दाग़दार न कर। वापिस रख दे।”
“ल-लौट कैसे आए?”
“इलहाम हुआ। भीतर कहीं घन्टी बजी कि कुछ गलत हो रहा था। तहखाने में झाँकते ही पता लगा कि कुछ नहीं, बहुत कुछ गलत हो रहा था। अमानत में खयानत का मंज़र मैं अपनी आँखों के सामने देख रहा था। जो काम तेरे अब्बू ने ताज़िन्दगी न किया, तूने चुटकियों में कर दिखाया। पराए माल पर निगाह मैली की।”
“आप बात को नाहक बढ़ा-चढ़ा के कह रहे हैं।”
“अच्छा !”
“लूट का माल था। कोई गिन कर आपके हवाले नहीं किया गया था। घट-बढ़ हो सकती थी।”
“कितने की?”
जावेद हिचकिचाया।
“जवाब दे। या पेपर बैग इधर कर।”
“अब्बू, तालाब में से कोई एक लोटा पानी निकाल ले तो तालाब का पानी घट नहीं जाता।”
“बहुत सयानी बात कही! कितना हुआ एक लोटा पानी?”
“आ-आठ गड्डी ।”
“सब सौ-सौ डॉलर की?”
“हं-हाँ।”
“अस्सी हज़ार डॉलर! तकरीबन सत्तावन लाख रुपए! ये एक लोटा पानी हुआ?”
वो ख़ामोश रहा, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“पेपर बैग ही क्यों भरा? बड़े वाला झोला भरता! बल्कि ट्रंक ही गायब कर देता! फिर आगे जो सफाइयाँ देनी होतीं, वो तेरा अब्बू देता रहता। अपनी ज़ात औकात पर तुफ़ तेरा अब्बू लेता रहता। नहीं?”
उसके होंठ खुले, बन्द हुए: खुले, बन्द हुए।
“मेरे नालायक, नामाकूल, नामुराद बरखुरदार, चोरी कक्ख की भी चोरी है, चोरी लक्ख की भी चोरी है। ज़मीरफ़रोश बनके ही रहना है तो थोड़े से ही सब्र क्यों? पूरा ही मुंह काला कर। नाम रौशन कर अपने अब्बू का, उसे दो जहां का गुनहगार बना के छोड़ा उसने जो नेकनामी आज तक कमाई है, फना कर दे उसे। तेरा यही मंसूबा है कि मैं सोहल को मुँह दिखाने लायक न बचूँ, उससे सामना होने से पहले डूब मरूँ कहीं जा कर तो ऐसा ही सही!”
“आप नाहक जज़्बाती हो रहे हैं। चोर से चुराया चोरी नहीं होता।”
“ये रौशन ख़याल तेरे ज़ेहन के अब आया? तब न आया जब जिसको इतनी बेलिहाज़ी, इतनी बेशर्मी से चोर कह रहा है, उसकी शागिर्दी पर फ़ख्न महसूस करता था, दौड़-दौड़ कर कदमबोसी करता था?”
उसके गले की घन्टी ज़ोर से उछली, होंठ फिर खुले, बन्द हुए।
“ये सयानक पहले कहाँ चली गई थी? फिर जब तू इतना सयाना है तो थोड़े में ही सब्र क्यों कर लिया?”
उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“तू मेरी औलाद है।” – सलाउद्दीन आगे बढ़ा और लड़के के सामने ठिठका – “तेरे गुनाह बख़्शवाना मेरा फर्ज है। समझ, वक्ती तौर पर मन पर कालिख की परत आ गई जो पछतावे के अब्र से घुल कर साफ हो जाएगी। वापिस रख।”
“अब्बू, अब जो हो गया, सो हो गया ...”
“अरे, नालायक, नामाकूल! तू मेरी औलाद है भी या नहीं! किसने पढ़ाया तेरे को अमानत में खयानत का सबक? जब ये बेग़ैरत सबक पढ़ ही लिया है तो मैं बिना ख़यानत तेरी पैसे की भूख पूरी करता हूँ।”
“क-कैसे?”
“होटल बेच देता हूँ। सारा पैसा तेरे हवाले।”
“भाई?”
“मेरे से बाहर नहीं जाएँगे- जैसे तू मेरे से बाहर गया। अभी बुलाता हूँ सबको। तीनों तेरे सामने हामी भरेंगे। तू चाहता है मैं ऐसा करूँ?”
“नहीं।”
“तो पैसा वापिस रख।”
“रखता हूँ। पर ताला खोलने में टाइम लगेगा।”
“लगा।”
दस मिनट में पेपर बैग का पैसा वापिस ट्रंक में था और चाबी सलाउद्दीन के हवाले थी।
“चल!”
सलाउद्दीन घूमा तो जावेद उसके पीछे चलने लगा।
“आइन्दा रात की शिफ्ट ड्यूटी” – रास्ते में सलाउद्दीन बोला – “दो-दो भाई मिल के करोगे। देर रात तक दो जने, उसके बाद सुबह तक दूसरे दो जने। सुना?”
“हाँ।”
दोनों ऊपर और आगे रिसैप्शन पर पहुंचे।
“अभी दो बातें गौर से सुन।” – सलाउद्दीन सख़्ती से बोला – “एक तो ये कि तहखाने के ख़ास सामान की ख़बर तहखाने से या होटल से बाहर गई तो तू ज़िम्मेदार होगा और फिर ख़ुदा शायद तुझे बख़्श दे, मैं नहीं बख़्शृंगा। सुना?”
“हं-हाँ।”
“दूसरे, अगर तूने सोहल की अमानत की नीचे मौजूदगी के दौरान तहखाने में कदम भी रखा तो टाँगे तोड़ दूंगा।”
“अब बस करो न अब्बू!” – जावेद दयनीय भाव से बोला – “अभी और कितना ज़लील करोगे? मैं अपनी हरकत पर ... .”
“करतूत पर।”
“... तहेदिल से शर्मिंदा हूँ। अब और शर्मिंदा करने से बेहतर होगा कि गर्दन मार दो।”
सलाउद्दीन फिर न बोला।
आधी रात को एक ट्रक-लोड हथियारबन्द प्यादे कूपर कम्पाउन्ड पहुँचे जिनका लीडर नया भीड़ टोनी पचेरो था।
अन्धेरे में डूबा कूपर कम्पाउन्ड भां-भां कर रहा था। किसी का होना तो दूर, लगता था वहाँ कभी कोई था ही नहीं।
उसे बताया गया था कि उधर से खुल्ला चैलेंज था कि वहाँ पचास प्यादे पहुँचेंगे तो सौ कैब ड्राइवर मुकाबिल पाएँगे। कहाँ थे सौ जने जिन से निपटने के लिए वो इतनी तैयारी के साथ आया था! वहाँ तो मरघट का सा सन्नाटा था!
अपनी पहली ही बड़ी असाइनमेंट में नाकाम टोनी पचेरो के पास नाउम्मीद लौट जाने के अलावा और चारा नहीं था।
लेकिन अभी तुरुप का एक और पत्ता उसकी आस्तीन में था।
रात के डेढ़ बजे टोनी पचेरो ने अपने एक पसन्दीदा प्यादे पैड्रो के साथ जुहू के होटल अमृत की लॉबी में कदम रखा। दोनों वक्त की ज़रूरत के मुताबिक सजे धजे थे, फाइव स्टार होटल के माहौल में खपने लायक लग रहे थे।
उनके साथ चार प्यादे और थे जो पार्किंग में मौजूद थे और पचेरो के पूर्वनिर्धारित सिग्नल का इन्तज़ार कर रहे थे।
जल्दी ही पचेरो की तीखी निगाह ने भाँप लिया कि वहाँ के सिक्योरिटी स्टाफ की वर्दी कैसी थी। रिसैप्शन और मेन डोर से परे ऐसे एक सिक्योरिटी वाले को उसने अपना निशाना बनाया। पचेरो उसे एक पिलर की ओट में ले गया, उसने उसकी मुट्ठी में एक पाँच सौ का नोट सरकाया।
तत्काल सिक्योरिटी वाले के चेहरे पर रौनक आई।
“यस, सर!” – वो तपाक से बोला – “वॉट कैन आई ड्र फॉर यू, सर?”
“शोहाब से मिलना है।” – पचेरो सहज भाव से बोला।
“जी!”
“बहुत ज़रूरी। अभी। मेरा बॉस बाहर कार में बेठेला ... बैठा है। मुलाकात के बाद सीधा एयरपोर्ट जाएगा जिधर उसको गोवा की अली मार्निंग फ्लाइट पकड़ने का। क्या?”
वो ख़ामोश रहा।
“अरे भई, शोहाब को जानते तो हो न! इधर सिक्योरिटी ऑफिसर है!”
“शोहाब अहमद?”
“हाँ। यही होगा पूरा नाम। मेरे को खाली शोहाब मालूम।”
“जानता हूँ।”
“गुड। किधर है? मैं उसको बाई नेम ही जानता है, बाई फेस नहीं जानता। इस वास्ते मेरे को उसके पास ले के चलने का या उसको इधर बुला के लाने का।”
“मैं ... नाइट ड्यूटी मैनेजर को बुलाता हूँ।”
वो घूम के तत्काल आगे बढ़ चला।
“अरे, सुनो तो!”
वो न रुका लेकिन उलटे पाँव एक काला-सूटधारी व्यक्ति के साथ वापिस लौटा।
“आप शोहाब को पूछ रहे थे?” – मैनेजर बोला।
“हाँ।” – पचेरो बोला – “अर्जेंट कर के मिलता है उससे। वजह मैंने ...”
“सर, नहीं मिल सकते।”
“क्यों ?”
“ही हैज़ रिजाइंड।”
“क्या!”
“आज नाइट ड्यूटी पर आया तो ड्यूटी करने की जगह इस्तीफा थमा के गया।”
“यकायक?”
“हाँ।”
“कोई वजह न बताई?”
“बताई। ज़ाती वजुहात बोला।”
“बोले तो?”
“पर्सनल रीजंसा ही रिज़ाइन्ड ड्यू टू पर्सनल रीजंस।”
“ओह! अब कहाँ मिलेगा?”
“कूपर कम्पाउन्ड, चैम्बूर। यही पता दर्ज है उसका होटल के रिकॉर्ड में। उधर ट्राई करो।”
“किया पहले। वो उधर नहीं है। कोई और पता मालूम?”
“नहीं मालूम।”
“मोबाइल नम्बर?”
“नो!”
“मालूम नहीं या बताने में लोचा?”
“दोनों ही बातें हैं। सॉरी!”
“अपना सैलरी वगैरह का फाइनल हिसाब कर गया?”
“नहीं, अभी नहीं। बोलता था टाइम लगेगा तो आएगा।”
“कब टाइम लगेगा?”
“पता नहीं। कुछ बोला नहीं। नाओ, मे आई बी एक्सक्यूज्ड?”
“एक आखिरी सवाल। यहाँ के सिक्योरिटी स्टॉफ में शोहाब नाम का कोई और भी भीड़ है?”
“नहीं। एक ही था जो रिज़ाइन कर गया। एक्सक्यूज़ मी नाओ।”
मैनेजर घूमा और जिधर से आया था, उधर वापिस चला गया। फिर पाँच सौ रुपए टिप से नवाज़ा गया सिक्योरिटी वाला भी वहाँ न रुका। पचेरो के पास लौट चलने के अलावा कोई चारा नहीं था।
मैनेजर अपने ऑफिस में वापिस लौटा।
वहाँ एक विज़िटर्स चेयर पर शोहाब मौजूद था। मैनेजर ने अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर काबू में की।
डोरमैन की तीखी निगाह शोहाब के काम आई थी। उसने एक बोलेरो को वहाँ पहुँचते देखा था जिसमें छ: जने सवार थे, दो सूट-बूट से सजे हुए थे और चार मामूली टपोरी जान पड़ते थे। चार टपोरी भीड़ओं के साथ बोलेरो पार्किंग की ओर बढ़ गई थी और दो सूट-बूट धारी जने पीछे रह गए थे जिनके लिए डोरमैन ने दरवाज़ा खोला था तो उसने सावधानीवश लॉबी में ड्यूटी पर तैनात सिक्योरिटी ऑफिसर शोहाब को उनकी बाबत इशारा किया था। शोहाब ने उन्हें एक सिक्योरिटी स्टॉफ के रूबरू होते देखा था जिसे वो दोनों एक पिलर की
ओट में ले गए थे और जहाँ उसने एक को सिक्योरिटी स्टाफ को पाँच सौ का नोट सरकाते देखा था।
ये शोहाब के हित की बात थी कि उसकी बाबत दरयाफ़्त करते दोनों काला सूट खाली उसके नाम से वाकिफ़ थे, उसकी सूरत से वाकिफ़ नहीं थे। वो चुपचाप लॉबी से खिसक कर मैनेजर के कमरे में आ गया था और तब मैनेजर के लौटने तक वहीं था।
“गए?” – शोहाब बोला।
“हाँ।” – मैनेजर बोला – “कौन थे?”
“मवाली।”
“क्या चाहते थे?”
“मेरे को खल्लास करना चाहते थे।”
“देवा रे! क्यों?”
“लम्बी कहानी है।”
“मैं नहीं सुनना चाहता। लेकिन वो लौट के आ सकते हैं।”
“आज रात तो नहीं।”
“फिर कभी। कभी भी!”
“जब आपने मेरे इस्तीफे की बाबत बोला तो...”
“ज़रूरी नहीं उन्हें ऐतबार आ जाए। वो फिर भी- पहले से ज़्यादा होशियारी से, चालाकी से – तुम्हारी फिराक में हो सकते हैं।”
शोहाब के चेहरे पर गहन चिन्ता के भाव आए।
“तुम बहुत मेहनती शख़्स हो, थोड़े ही टाइम में यहाँ हर कोई तुम्हें पसन्द करने लगा है – मैं भी – इसलिए कहो तो मैं कोई राय ,?”
“ज़रूर। प्लीज़।”
“छुट्टी अप्लाई करो।”
“मिलेगी? अभी मेरी थोड़ी-सी तो नौकरी है!”
“एक हफ्ते की छुट्टी अप्लाई करो। जीएम से छुट्टी पास कराना मेरा ज़िम्मा।”
“अच्छा !”
“हाँ। एक हफ्ते में या तो तुम्हारी प्रॉब्लम सॉल्व हो जाएगी या फिर सच में ही रिज़ाइन कर देना।”
“उस दौरान मेरे बारे में फिर कोई – खुफ़िया – पूछताछ हुई तो?”
“तो यहाँ से यही जवाब मिलेगा कि तुम नौकरी छोड़ गए।”
“ओह! ठीक है फिर। मैं छुट्टी अप्लाई करता हूँ।”
मैनेजर ने एक छपा हुआ एप्लीकेशन फार्म उसके सामने रख दिया।
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