दलिप सिंह ने होटल के सामने जीप रोकी और जल्दी से उतरकर आगे बढ़ा । तब तक सोनू भागा-भागा पास आ गया । उसके साथ आस-पास की दुकानों के तीन लोग भी थे ।

“तूने मेरे को फोन... ।”

“हाँ जी, थानेदार साहब मैंने ही फोन किया ।” सोनू आँखें फाड़कर बोला – “बैंक वैन ले जाने वालों में से एक लुटेरा मेरे पास खाना लेने आया था । पच्चीस रोटियाँ, राजमा, काले छोले और कढ़ी पैक करा कर ले गया है । साथ में बहुत सारे प्याज और मूली । दो नींबू भी, हरी मिर्च भी और... ।”

“ये बता अब वो कहाँ है ?”

“मुझे क्या पता... मैं आपको फोन करने गया तो वो पतीले पर सौ का नोट रखकर चला गया ।”

“चला गया... तूने उसे रोका क्यों नहीं ? तुम सब थे तो ।”

“मैं तो अकेला था तब । आपको फोन करने गया था । पीछे से भाग गया वो ।”

“कौन सा वाला था – तेरे पास दो तस्वीरें हैं उनकी ।”

“बताता हूँ ।” सोनू भागकर भीतर गया दुकान के और दोनों तस्वीरें ले आया – “ये वाला था ।” जगमोहन के चेहरे वाले कागज को आगे करके वह बोला ।

दलिप सिंह की आँखों में चमक आ गई ।

“नाम पूछा था तूने उसका ?”

“मैं क्यों पूछूँगा और वो मुझे क्यों बताएगा ? वो तो रोटी पैक करवाने आया था । रिश्तेदारी गाँठने थोड़े न आया था ।”

“और बता ?”

“और क्या ?”

“कोई और बात हुई हो । तेरी बताई हर बात मेरे काम की है । सबकुछ बता... ।”

“थानेदार साहब, उसे राजमा बहुत अच्छे लगे थे । बहुत तारीफ कर रहा... ।”

“ये सड़ी बात मत बता । कोई बढ़िया बात बता –- जो उसे पकड़ने में हमारी मदद करे ।”

“और तो कुछ भी नहीं है बताने को ।”

“ये तो पता होगा कि किस तरफ गया ?”

“जाते नहीं देखा तो मुझे क्या पता वो किस तरफ गया ।” सोनू ने हाथ हिलाकर कहा ।

“आया वो किस तरफ से था ।”

“उधर से ।”

सोनू से दलिप सिंह को जो बात पता लगी, वो बहुत काम की थी । अब तो ये स्पष्ट हो गया था कि बैंक वैन ले जाने वाले कहीं दूर नहीं गए । डेढ़ सौ करोड़ के नोटों से भरी बैंक वैन के साथ वो आस-पास ही कहीं छिपे हुए हैं । या तो वो नोटों को सँभालने में लगे हैं या फिर अभी उसे खोलने की कोशिश में लगे होंगे ?

दलिप सिंह ने सोनू और उसके साथ खड़े व्यक्तियों को देखा और बोला –

“कान खोल के सुन लो । ये बात बाहर नहीं जानी चाहिए कि हमें बैंक वैन ले जाने वालों के बारे में पता चल गया है । किसी से इस बारे में मत कहना । भूल जाओ कि तुमने कुछ देखा है । किसी को बताया तो केस ठोककर अंदर बन्द कर दूँगा ।”

उसके बाद दलिप सिंह अपनी जीप के पास आया और मोबाईल निकालकर नम्बर मिलाने लगा ।

सोनू चुपचाप होटल में पतीलों के पीछे जा बैठा था । वो तीनों आदमी भी खिसक गए थे ।

लाइन मिलते ही दलिप सिंह बोला –

“मिलापे । मैं बोल रहा हूँ ।”

“सर जी, पहचान लिया ।”

“बात सुन । डेढ़ सौ करोड़ से भरी बैंक वैन ले जाने वालों के बारे में पुख्ता जानकारी मिल गई है । इतना तो पता चल ही गया है कि वो किधर छुपे हुए हैं । थाने की क्या पोजीशन है । कितने आदमी हैं ?”

“थाने में बीस पुलिस वाले हैं सर जी । दस-बारह गश्त पर गए हैं ।”

“सुन, थाना बन्द करके आ जा । जो गश्त पर गए हैं, उन्हें इधर आने को कह दे । सिर्फ एक बन्दा थाने पर छोड़ दियो । उसे समझा देना कि कोई रिपोर्ट लिखाने आये तो उसे सुबह आने को कह देना । हमने आज रात बैंक वैन के साथ उन दोनों लुटेरों को दबोच लेना है ।” दलीप सिंह कह उठा ।

“दो नहीं, उनके साथ पंचम लाल भी है ।”

“सब पकड़े जायेंगे ।”

“ड्राइवर बलवान सिंह और गनमैन मदनलाल सोढ़ी को मार दिया होगा क्या उन्होंने ?”

“क्या पता... आज रात जब उन्हें पकड़ेंगे तो सब सामने आ जायेगा । तू जल्दी आ । सबको लेकर ।”

“आप हैं कहाँ ?”

दलिप सिंह ने बताया ।

“मैं सबको लेकर वहाँ पहुँचता हूँ ।”

“हथियार भी लेते आना । मुठभेड़ हो सकती है उन लुटेरों के साथ । क्या पता वो कितने पानी में हों । मेरी रिवाल्वर के फालतू राउंड लिफाफे में भरकर ले आइयो मिलापे ।” कहकर दलिप सिंह ने फोन बन्द कर दिया और पुकारा – “छोटू ।”

“जी थानेदार साहब ।” सोनू ने पतीलों के पीछे से आवाज लगाई ।

“पानी ला । बर्फ डाल के ठंडा ।”

“लाया जी ।”

आधे मिनट में वो पानी का ठंडा गिलास लेकर आ गया । पानी पीकर दलिप सिंह उसे गिलास लौटाता कह उठा –

“उसने क्या पहना हुआ था ?”

“कमीज-पैंट ।” सोनू ने बताया – “मोटी सी कैम्पा कोला रंग वाली पैंट पहनी थी और खानों वाली कमीज (चैक शर्ट) पहनी थी । कुछ-कुछ फिल्मी हीरो जैसा लगता था । माफी पहले माँगकर एक बात कहूँ ?”

“क्या ?”

“मुझे तो वो बहुत शरीफ लगा था । क्या आपको पक्का पता है कि वो लुटेरा ही है ।”

दलिप सिंह ने खा जाने वाली निगाहों से सोनू को घूरा ।

घबराये से सोनू ने पूँछ टाँगो में दबाई और चुपचाप पतीलों के पीछे जा बैठा । वो समझ गया कि अपनी राय देना ठीक नहीं । कहीं गुस्से में थानेदार साहब उसे ही अंदर न बन्द कर दें ।

दलिप सिंह जीप के पास खड़ा मिलाप सिंह और अन्य पुलिस वालों के आने का इंतजार करता रहा ।

दस मिनट बीते कि सोनू ने पतीलों के पीछे से ऊँचे स्वर में कहा –

“थानेदार साहब । गरमा गरम राजमा खिलाऊँ । बहुत स्वादी हैं ।”

“खिला दे ।”

☐☐☐

एक घण्टे बाद मिलाप सिंह दो जीप पुलिस वालों से भरकर वहाँ पहुँचा ।

“मिलापे । तू तो इमरजेंसी में भी बहुत देर लगा देता है । इतनी देर में तो अपराधी लुधियाने से इंग्लैण्ड पहुँच जावे ।”

दलिप सिंह नाराजगी भरे स्वर में कह उठा – “ढीला-ढीला मत चला कर ।”

“सर जी, हथियारों की तैयारी भी तो करनी थी । वो मालखाने की चाबी नहीं मिल रही थी ।”

“मिल गई अब ?”

“नहीं ।”

“तो हथियार नहीं लाया ?”

“क्यों नहीं लाया सर जी, लाया । मालखाने का ताला तोड़ दिया ।”

“छोड़ अब इन बातों को । मेरी सुन । आज रात हमने बैंक वैन के साथ उन दोनों लुटेरों को ढूँढ़ निकालना है । पकड़ लेना है । गिरफ्तार कर लेना है । कोशिश करना है कि जिन्दा ही पकड़ें ।”

“लेकिन क्या बात है सर जी, हुआ क्या, वो हैं किधर ?”

दलिप सिंह उन सबको बताने, समझाने लगा ।

☐☐☐

बर्तन तो थे नहीं उस कमरे में । एक तरफ अखबारों और मिट्टी के कसोरों का ढेर लगा हुआ था । उसी में सब्जी डालकर और रोटी अखबार पर रखी गई । ये काम संभाला पंचम लाल ने ।

लानती ने बलवान सिंह के बंधन खोल दिए और उसके सामने भी खाना रख दिया ।

पंचम लाल खाना लिए वैन के पास पहुँचा और थपथपाकर बोला ।

“ओ सोढ़ी । ले खाना खा ले ।”

मदनलाल सोढ़ी की आवाज नहीं आई ।

“मर गया क्या ?”

“इतनी आसानी से मरने वाला नहीं ।” सोढ़ी की मध्यम सी आवाज आई ।

“खाना खा ले ।”

“मैं दरवाजा नहीं खोलूँगा ।”

“तो खाना कैसे लेगा ? भूख लगी है तो दरवाजा तेरे को खोलना ही पड़ेगा ।”

कुछ पलों के लिए वहाँ चुप्पी रही । सबकी निगाह वैन पर जा टिकी थी ।

“बलवान सिंह कहाँ है ?” सोढ़ी की आवाज आई ।

“खाना खा रहा है ।”

“बुला उसे ।”

“बलवान सिंह ।” पंचम लाल ने पुकारा – “तेरे को सोढ़ी बुला रहा है ।”

बलवान सिंह फौरन उठकर पास आया ।

“क्या है ?”

“बात कर ।” बलवान सिंह वैन के पीछे वाले दरवाजे के पास जाकर बोला ।

“क्या है सोढ़ी ?”

“मैंने खाना खाना है । दरवाजा खोलकर खाना भीतर लूँगा तो इतने में ये मुझे गोली मार देंगे ।” सोढ़ी की आवाज सुनाई दी ।

बलवान सिंह ने गर्दन घुमाकर सबको देखा ।

“जवाब दे ।”

“मुझे क्या पता ।” बलवान सिंह सूखे स्वर में  बोला – “मैं क्या जानूँ ?”

“तू बाहर है । मेरे को ज्यादा अच्छी तरह बता सकता है कि मैं खाना कैसे भीतर लूँ ।”

“मेरे पर भरोसा मत कर ।” बलवान सिंह जल्दी से बोला – “तू जान, तेरा काम जाने । तू ये क्यों नहीं सोचता कि इन लोगों ने मुझ पर गन लगा रखी हो और मैं तेरे से जो कहूँ झूठ कहूँ ।”

मदनलाल सोढ़ी की आवाज नहीं आई । चुप्पी सी आ ठहरी वहाँ । देवराज चौहान वैन के पास पहुँचा और गंभीर स्वर में कह उठा –  

“मदनलाल सोढ़ी । तुम खाना ले सकते हो । तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा ।”

“तुम्हारी बात का क्या भरोसा ।” सोढ़ी की आवाज आई ।

“इस वक्त तुम्हें भरोसा करना ही पड़ेगा । दूसरा कोई रास्ता नहीं । तुझसे धोखेबाजी नहीं की जायेगी । तुम्हारे पास सुबह तक का वक्त है । अगर सुबह तक तुमने हमारा साथ देना न कबूला तो तब तुम्हारे खिलाफ कोई हरकत की जायेगी ।”

“मुझे तुम पर भरोसा नहीं ।”

“वो तुम जानो । पाँच मिनट के लिए हम सब वैन से दूर हो जाते हैं । बलवान सिंह तुम्हारे पास खाना लिए खड़ा है । थोड़ा सा दरवाजा खोलकर तुम खाना ले सकते हो ।”

फिर देवराज चौहान सबसे बोला – “चलो, सब उधर दीवार के पास ।”

“ले खाना पकड़ ।” पंचम लाल ने खाना बलवान सिंह को थमाया और दीवार की तरफ बढ़ गया ।

देवराज चौहान, जगमोहन, पंचम लाल और लानती उधर दीवार के पास खड़े हुए थे ।

आधा मिनट बीता । बलवान सिंह खाना थामे घबराया सा खड़ा था ।

“सोढ़ी ।” बलवान सिंह कह उठा – “ले ले खाना ।”

“तेरे पास कौन है ?”

“कोई नहीं । सब दूर हैं ।”

“हो सकता है तेरे पे गन लगाकर, तेरे को बुलवाया जा रहा हो ये सब ।”

“नहीं । दीपे की कसम । सब दूर हैं । जल्दी से खोल दरवाजा । खाना ले ले ।”

अगले ही पल भीतर से दरवाजा खोलने का स्पष्ट स्वर उभरा ।

बलवान सिंह का दिल धड़क उठा । उसने गर्दन घुमाकर उधर देखा । सब अपनी जगह पर शांत खड़े थे । निगाहें इधर ही थीं । उस बड़े कमरे में चुप्पी सी आ ठहरी थी ।

“बलवान ।” सोढ़ी का कठोर स्वर आया ।

“ह... हाँ ।”

“मैं दरवाजा खोल रहा हूँ । अगर ये कोई चालाकी हुई तो बहुत खून-खराबा हो जायेगा । मैं... ।”

“कोई चालाकी नहीं है । तू खाना ले – जल्दी कर । सब दूर हैं ।”

उसी पल वैन का थोड़ा सा दरवाजा खुला । ऊपर के हिस्से में मदनलाल सोढ़ी की आँख दिखी, जोकि बाहर का नजारा ले रही थी और नीचे वाले हिस्से से गन की नाल जरा सी बाहर आ गई थी ।

सोढ़ी को वो चारों दूर दीवार के पास खड़े दिखे ।

“चार ही हैं वो ?” सोढ़ी ने धीमे स्वर ने पूछा ।

“हाँ ।”

सोढ़ी ने देवराज चौहान और जगमोहन को भरपूर निगाहों से देखा ।

“वही हैं देवराज चौहान और जगमोहन ?”

“हाँ, तू खाना ले ।” बलवान सिंह घबराये स्वर में कह उठा ।

दरवाजा चार इंच और खुला । मदनलाल सोढ़ी ने उसके हाथ से खाना लिया । खाना भीतर किया ।

“बलवान । यहाँ से निकलने का कोई रास्ता है ?” सोढ़ी ने कठोर स्वर में पूछा ।

“न... नहीं ।”

“वो सामने हैं । मैं यहाँ से उनका निशाना ले सकता हूँ ।” मदनलाल सोढ़ी का स्वर खतरनाक हो गया ।

“नहीं । तू ऐसा नहीं करेगा ।” बलवान सिंह फौरन दरवाजे की झिरी के सामने आ खड़ा हुआ – “वो तो नहीं मरेंगे । लेकिन बाद में मेरे को बुरी मौत मार देंगे । नई मुसीबत खड़ी कर देगा । अभी तक तो वो शराफत से काम ले रहे हैं ।”

“मैं उनका सही निशाना ले लूँगा । तू पीछे... ।”

तभी देवराज चौहान की आवाज आई ।

“क्या कह रहा है मदनलाल सोढ़ी ?”

“क... कुछ नहीं । पानी के लिए कह रहा था ।” बलवान सिंह जल्दी से कह उठा ।

“पानी नहीं है । जब आएगा मिल जायेगा ।” पंचम लाल बोला ।

“मैं अभी गाँव के किसी घर से भरकर लाता हूँ ।” लानती कह उठा ।

उसी पल मदनलाल सोढ़ी ने वैन का दरवाजा बंद कर दिया । बलवान सिंह की जान में जान आई । उसके बाद वे सब खाना खाने लगे ।

पंचम लाल, लानती, बलवान सिंह के पास ही बैठे कि खाना भी हो जायेगा और पहरेदारी भी ।

देवराज चौहान और जगमोहन चारपाई पर बैठे, खाने लगे थे । इसी दौरान जगमोहन ने देवराज चौहान को राजेंद सिंह का दोबारा आना बताया और उससे हुई बातें बताईं ।

“मेरे ख्याल में राजेन्द्र सिंह को हम पर किसी तरह का शक हो गया है । उसकी बातें सुनकर तो ये ही लगता है ।”

“मुझे भी ऐसा ही लगता है कि वो हम पर शक कर रहा है ।” जगमोहन ने गंभीर स्वर में कहा ।

“वो कागज दिखाना ।” देवराज चौहान ने कहा ।

“ओह, वो तो अभी तक मैंने भी नहीं देखे ।” जगमोहन ने खाना छोड़कर जेब में रखे कागज निकाले । तह खोली ।

वो दो कागज थे और स्पष्ट नजर आ रहा था कि आर्टिस्ट से चेहरे बनवाकर उनकी फोटोकॉपी निकाली गई थी ।

उन कागजों पर निगाह पड़ते ही देवराज चौहान और जगमोहन ठगे से रह गए थे ।

उनके चेहरों के स्केच उनके सामने थे, जो कि राजेंद सिंह उन्हें दे गया था । यानि कि राजेन्द्र सिंह जानता था कि वो ही डेढ़ सौ करोड़ के नोटों से भरी वैन को ले भागे हैं और वैन इस वक्त यहाँ पर मौजूद हैं ।

दोनों खाना खाना भूल गए थे ।

“पुलिस को हमारे चेहरों के बारे में कैसे पता चला ?” जगमोहन के होंठो से निकला ।

“वो दो व्यक्ति वहाँ छोड़ आये थे हम । जो बलवान सिंह को पीटने के लिए कह रहे थे ।” देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला – “उन्होंने पुलिस को हमारे बारे में बताया होगा । उनसे पूछ-पूछकर पुलिस ने हमारे चेहरों के स्केच तैयार कर लिए होंगे ।”

“राजेन्द्र सिंह तक ये स्केच पहुँचने का मतलब है कि पुलिस को ये शक है कि हम कहीं पास ही हैं ।” जगमोहन बोला ।

“हाँ, समझ में नहीं आता कि ये शक उन्हें कैसे हुआ ?” देवराज चौहान गहरी सोच में लग रहा था – “पुलिस ने हर जगह ये इश्तिहार जैसे पर्चे बाँटे होंगे और तुम अभी बाहर से खाना लेकर आये हो ।”

दोनों की नजरें मिलीं ।

“होटल वाला छोटा लड़का मुझे खाना देकर अचानक कुछ दूर एक दुकान में चला गया था । पैसे भी नहीं लिए थे उसने । तब मैं नहीं समझा था कि वो कहाँ गया । लेकिन अब समझ आ गया ।”

देवराज चौहान, जगमोहन को देखता रहा ।

“वो मुझे पहचान गया था । पुलिस को फोन करने गया होगा वो । उसके पास ही दुकान में ऐसे पर्चे पड़े होंगे । लेकिन उसके वापस आने से पहले ही मैं वहाँ पैसे रखकर चल पड़ा था ।”

“लेकिन इससे पुलिस को ये तो पक्का विश्वास हो जायेगा कि हम पास ही कहीं हैं । वे अब पक्के तौर पर हमारी तलाश इधर-उधर के इलाके से शुरू कर देंगे । हमारे लिए खतरा खड़ा होता जा रहा है ।” देवराज चौहान ने शब्दों पर जोर देते हुए धीमे स्वर में कहा – “अब हमें अपना काम फौरन खत्म करना होगा ।”

जगमोहन की निगाह वैन पर गई । फिर देवराज चौहान को देखा ।

“मेरे ख्याल में पुलिस से ज्यादा खतरा हमें राजेंद सिंह से है । वो जानता है कि हम यहाँ पर वैन के साथ मौजूद हैं और वैन में डेढ़ सौ करोड़ रुपये हैं । उसका दिमाग घूम गया तो पुलिस को हमारे बारे में खबर दे सकता है । लालची है वो ।”

“उसे मिल आओ । कुछ दे आओ ।” देवराज चौहान बोला ।

“वो ज्यादा पैसे माँगेगा ।”

“कुछ लेकर, कुछ देर तो चुप बैठेगा । तब तक हम अपना काम निपटा लेंगे ।”

जगमोहन उठ खड़ा हुआ ।

“लानती दरवाजा बन्द कर ।”

“बाहर जा रहा है । ठहर मैं भी चलता हूँ ।”

“क्यों ?”

“पानी लाना है ।”

“मैं लेता आऊँगा । तू दरवाजा बन्द कर ले ।” जगमोहन दरवाजे के पास जा पहुँचा था ।

लानती दौड़ा-दौड़ा पास आया ।

“किधर जा रहा है ?”

“दरवाजा बन्द कर ले । ज्यादा सवाल न पूछा कर ।” कहते हुए जगमोहन बाहर निकल गया ।

लानती ने दरवाजा बन्द किया और पलटते हुए बड़बड़ाया ।

“खाते-खाते उठा दिया । राजमा ठंडे पड़ गए होंगे ।”

देवराज चौहान तब तक वैन के पास जा पहुँचा था और दरवाजा थापथपकर बोला, “मदनलाल सोढ़ी ।”

“हाँ ।” भीतर से आवाज आई ।

“पहले मैंने कहा था कि हमारे पास वक्त है । लेकिन अब वक्त नहीं है । हमें अभी-अभी पता चला है कि बाहर पुलिस हमें ढूँढ़ रही है और किसी भी वक्त वो यहाँ तक भी पहुँच सकती है ।”

देवराज चौहान के ये शब्द सुनते ही सबको जैसे साँप सूंघ गया । सोढ़ी की आवाज नहीं आई ।

“सुना तूने ?” देवराज चौहान ने पुनः कहा ।

“क्या चाहता है ?”

“तेरा जवाब । हाँ है तो बाहर आ जा । न है तो हम भीतर आएँगे ।” देवराज चौहान का स्वर कठोर हो गया ।

चुप्पी सी ठहर गई ।

देवराज चौहान की निगाह वैन के दरवाजे पर थी । होंठ भिंचे हुए थे ।

“जवाब चाहिए मुझे ।” देवराज चौहान ने पहले वाले कठोर स्वर में कहा – “चुप रहने से अब काम नहीं चलने वाला ।”

“मुझे सोचने का वक्त दो ।”

“वक्त नहीं है मेरे पास ।” देवराज चौहान के दाँत भिंच गए – “दिन निकल जाने से पहले हम यहाँ से दौलत के साथ निकल जाना चाहते हैं । सिर्फ एक घण्टा है तेरे पास । बाहर आ जा । नहीं तो हम भीतर आएँगे । पहले गोलियाँ फिर हम ।”

तब तक पंचम लाल और लानती भी पास आ गए थे ।

“बाहर पुलिस है ?” पंचम लाल का चेहरा फक्क पड़ गया था ।

“हाँ । खामोश रहो और लाइट बुझा दो ।”

पंचम लाल फौरन लाइट के स्विच की तरफ दौड़ा ।

“बलवान सिंह ने खाना खा लिया हो तो उसे बाँध दो ।” देवराज चौहान ने लानती से कहा ।

लानती, बलवान सिंह की तरफ बढ़ गया । देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और कश लेने लगा । पंचम लाल के स्विच ऑफ करते ही बल्ब बन्द हो गया । घुप्प अँधेरा छा गया वहाँ ।

“पंचम, मेरे पास आओ ।”

पंचम लाल देवराज चौहान के पास पहुँचा ।

“वो चारपाई ला और इधर वैन के दरवाजे के पास रख दे ।” देवराज चौहान बोला ।

“इधर क्यों ?”

अँधेरे में एक-दूसरे को देख न पा रहे थे ।

“मदनलाल सोढ़ी अँधेरे का फायदा उठाकर, दरवाजा खोल के बाहर आ सकता है । हमें भून सकता है । दरवाजे के साथ चारपाई सटाकर बैठेंगे तो ये कोई चालाकी नहीं दिखा सकेगा ।”

“समझा ।” पंचम लाल ने कहा और चारपाई की तरफ बढ़ गया ।

☐☐☐

“इतनी रात को आने की क्या जरूरत थी ?” जमींदार राजेन्द्र सिंह दाँत फाड़कर कह उठा – “सुबह नाश्ते के पराठे लेकर मैं ही हाजिर हो जाता । आ ही गए हो तो आओ । भीतर बैठो ।”

गेट बजने की आवाज सुनकर जब राजेन्द्र सिंह की आँख खुली तो वो उठकर बाहर आया । वहाँ खड़े जगमोहन को देखते ही कह उठा था ।

जगमोहन भीतर आया । दोनों कमरे में पहुँचकर बैठे ।

“पानी चाहिए ?” जगमोहन कह उठा ।

“अभी ले ।” राजेन्द्र सिंह बाहर गया और फौरन ही उल्टे पाँव वापस लौट आया । उसके हाथ डालडे घी की प्लास्टिक की कैन थी । पानी की भरी हुई – “ये मैं अपने लिए भरकर रखता हूँ ।” केनी रखकर वो भी पास ही कुर्सी पर बैठ गया और गर्दन आगे करके धीमे स्वर में बोला – “वो पोस्टर देखे ?”

जवाब में जगमोहन ने जेब से दस हजार की गड्डी निकालकर उसकी तरफ बढ़ाई ।

“रख लो ।” राजेन्द्र सिंह ने फौरन गड्डी थामी और कह उठा ।

“ये तो कुछ भी नहीं हुआ ।”

“पल्ले से दे रहा हूँ । अभी वो माल हाथ नहीं लगा ।” जगमोहन ने शांत स्वर में कहा ।

“क्यों, हाथ क्यों नहीं लगा ?”

“वो गनमैन वैन के भीतर ही बैठा है । भीतर से दरवाजा नहीं खोल रहा ।”

“लाठी ले जाओ मेरी । वैन को तोड़-फोड़ डालो ।” राजेन्द्र सिंह कह उठा – “मैं साथ चलूँ क्या ?”

“जरूरत नहीं । हम हैं संभालने वाले ।”

राजेन्द्र सिंह ने सिर हिलाकर कहा ।

“वो तो मैं जानता ही हूँ कि तुम लोग सब संभाल लोगे । ये बताओ डेढ़ सौ करोड़ में से मुझे क्या दोगे ?”

“चिंता मत करो । इतना तुम्हें मिल जायेगा कि बाकि उम्र शान से बिताकर मरो ।”

“बल्ले-बल्ले । क्या बात कही है ।” राजेन्द्र सिंह ने दाँत फाड़े – “सुबह पराठे लाऊँ क्या ?”

“ले आना ।” जगमोहन उठा और पानी की केनी भी उठा ली ।

“कुछ और चाहिए हो तो बता देना । अब तो घर वाली बात हो गई ।”

“सुबह बताऊँगा ।” जगमोहन ने मुस्कुराकर कहा और बाहर निकल गया ।

☐☐☐

तीन पुलिस वाले सड़क के किनारे-किनारे बहुत फासला रखकर पहरा दे रहे थे । इस तरह कि अगर कोई खेतों या कच्ची कॉलोनियों की तरफ चुपचाप सड़क की तरफ आये तो उन्हें पता चल जाये ।

इंस्पेक्टर दलिप सिंह, सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह और करीब बाईस-पच्चीस कॉस्टेबल तलाशी लेते हुए आगे बढ़ रहे थे । रात के ढाई पार हो चुके थे । अभी तक उन्होंने दो कच्ची कॉलोनियों और खेतों का काफी बड़ा हिस्सा छान मारा था । परन्तु कोई फायदा न हुआ था ।

अब वो आगे की एक कच्ची कॉलोनी में जा पहुँचे थे । इसके बाद करीब दो किलोमीटर की आगे की जगह में खेत थे । उन्हीं खेतों में जमींदार राजेन्द्र सिंह का भी खेत था ।

इस कॉलोनी में पुलिस वाले घेरा डालने लगे ।

“सर जी !” सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह बोला – “आपकी बातें सुनकर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि वैन ले जाने वाले, वैन के साथ किसी खाली जगह पर अकेले छिपे होंगे । किसी के घर में नहीं ।”

“क्यों ?”

“अगर वो किसी के घर में छिपे होते तो उन्हें खाना लेने के लिए होटल में न आना पड़ता ।”

“घण्टों बाद तू इस नतीजे पर पहुँचा है मिलापे ।” दलिप सिंह ने मुँह बिगाड़ा ।

“हमें कोई ऐसी खाली जगह तलाश करनी चाहिए जहाँ वे बैंक वैन के साथ छिप सकें ।”

“हम ठीक आगे बढ़ रहे हैं । वे लोग जहाँ भी हैं, बच नहीं सकते ।” दलिप सिंह ने गम्भीर स्वर में कहा ।

“हम उन्हें ढूँढ़कर ही रहेंगे ।”

“अगर उन्हें पता चल गया होगा कि बाहर पुलिस उनकी तलाश कर रही है तो वे सतर्क हो जायेंगे ।”

“उन्हें कैसे पता चलेगा ?”

“इधर का लोकल बन्दा, कोई तो उनके साथ होगा जिसने उन्हें छिपने की जगह का इंतजाम करके दिया होगा ।”

मिलाप सिंह की निगाह दलिप सिंह पर ठहर गई ।

“ये बात तो आपने ठीक कही सर जी ।”

“वो लोग लोकल बंदे की सहायता के बिना इस जगह पर नहीं छिप सकते ।”

“इसका मतलब, लोकल बंदे को उन्होंने नोट दिए होंगे ।”

“नोट लिए बिना तो भैंस भी दूध नहीं देती तो वो उन्हें क्यों छिपायेगा मिलापे ।”

“जी ।”

“बातें बन्द, काम की तरफ ध्यान दें । हमारा एक-एक पल कीमती है । वे लोग वैन में नोट लेकर निकलने की तैयारी में भी हो सकते हैं । एक बार वो निकल गए तो बहुत गड़बड़ हो जायेगी । मेरे को ऐसे गाँव में ट्रांसफर कर देंगे, जहाँ पीने को पानी भी नहीं मिलता हो । गाँव के बीस-तीस लोग होंगे । मेरा कॅरियर तबाह हो जायेगा ।”

“ऐसा नहीं होगा सर जी । हम ढूँढ़ लेंगे उन सबको ।”

“उनके साथ-साथ डेढ़ सौ करोड़ भी मिलने चाहिए ।”

“सर जी, आप फिक्र नहीं करो । डेढ़ सौ करोड़ के अलावा, उनकी जेबों में जो भी होगा, वो भी दर्ज कर लेंगे । सालों को एक बार सामने तो आ जाने दो । हमारी पूरी रात खराब कर दी ।”

“रात की बात छोड़ । कहीं जिंदगी खराब न हो जाये । उनका मिलना बहुत जरूरी है मिलापे ।”

घेराबंदी के बाद वे उस कच्ची कॉलोनी को भी अच्छी तरह छानने लगे । हर बड़े घर-बड़ी खुली जगह को वो खुलवाकर देखते जहाँ पर बैंक वैन रखी जा सकती हो । वे चौकस थे, गनें संभाले । हर तरह के हालातों के लिए तैयार ।

रात सरकती जा रही थी ।

☐☐☐

देवराज चौहान ने रेडियम के डायल वाली घड़ी पर निगाह मारी । रात के बारह बज रहे थे । उसने मदनलाल सोढ़ी को एक घण्टे का वक्त दिया था सोचने के लिए । परन्तु दो घण्टो से ज्यादा का वक्त हो गया था ।

पंचम लाल, लानती, कच्ची-पक्की नींद में थे, बलवान सिंह के पास । बलवान सिंह बँधा पड़ा था । जगमोहन चारपाई पर आँखें खोले लेटा था । पास में ही देवराज चौहान बैठा था ।

“अब हमें मदनलाल सोढ़ी से बात कर लेनी चाहिए ।” जगमोहन दाँत भींचकर कह उठा – “अगर वो निकलने को तैयार नहीं तो नीचे से वैन के फर्श पर गोलियाँ चलाकर उसे खत्म किया जाये ।”

“गोलियाँ चलाना खतरनाक होगा । आस-पास पुलिस भी हो सकती है ।” देवराज चौहान ने कहा ।

“नहीं भी हो सकती है ।” जगमोहन बोला – “जरूरी तो नहीं कि पुलिस हमारी तलाश ही कर रही हो ।”

“तलाश नहीं करती हो सकती तो बैंक वैन के बारे में पुलिस ने आस-पास से पूछताछ जरूर की होगी, जब तुम होटल से खाना लेकर आये थे । ऐसे में धमाकों की आवाजें सुनकर लोग पुलिस को खबर कर सकते हैं ।”

“तो क्या ?” जगमोहन के होंठ भिंच गए – “हम सोढ़ी को कुछ नहीं कहेंगे ?”

“देखते हैं ।” देवराज चौहान चारपाई पर बैठे-बैठे ही पीछे हुआ और वैन को थपथपाया – “सुन रहे हो मुझे ?”

“हाँ ।” भीतर से सोढ़ी की आवाज आई –- “सब सुन रहा हूँ ।”

“तुम्हें दिया वक्त खत्म हो चुका है ।”

सोढ़ी की आवाज नहीं आई ।

“क्या फैसला किया ?”

“मैंने तुम दोनों की बाते सुनी हैं । बाहर कहीं पुलिस है । तुम लोग गोलियाँ नहीं चला सकते ।”

देवराज चौहान के चेहरे पर कठोरता आ ठहरी । अँधेरा होने की वजह से वे कमरे में कुछ न देख पा रहे थे । कमरे के दोनों तरफ दीवारों पर मौजूद, छत को छूते नन्हें-नन्हें रोशनदानों से बाहर की चमकती चाँदनी रात नजर आ रही थी ।

“भूल में मत रहना कि हम गोलियाँ नहीं चला सकते । ये भी जरूरी नहीं कि बाहर पुलिस हो ही । ये मात्र हमारा ख्याल ही है कि बाहर पुलिस हो सकती है । तुम अपना जवाब दो कि बाहर आ रहे हो या नहीं ?”

“इसे खत्म कर देना चाहिए ।” जगमोहन गुर्राया – “ये हमारा वक्त खराब कर रहा है ।”

“मुझे भी अब ये ही लगने लगा है ।” देवराज चौहान का स्वर कठोर था ।

“मैं जानता हूँ कि मेरा बाहर निकलना खतरनाक है ।” मदनलाल सोढ़ी की आवाज आई ।

“क्यों ?” जगमोहन गुर्राया ।

“तुम लोग मुझे मार दोगे ।”

“ये बात पहले भी हम में हो चुकी है कि ऐसा कुछ नहीं होगा ।” देवराज चौहान पहले वाले स्वर में कह उठा ।

“मैं तुम लोगों का भरोसा नहीं कर सकता ।”

“भरोसा करो या न करो ।” जगमोहन के शब्दों में गुर्राहट लिपटी हुई थी – “तुम बाहर आ जाओ । न भी आओ तो हमें परवाह नहीं । हमें भीतर मौजूद नोट चाहिए । हम यहाँ से दूर हो जाते हैं । तुम दरवाजा खोल नोट बाहर फेंकना शुरू कर दो ।”

“अब मुझे नोटों से ज्यादा अपनी जान की चिंता होने लगी है ।” मदनलाल सोढ़ी की आवाज आई ।

“बढ़िया रास्ता बताया है मैंने कि जरा सा दरवाजा खोलकर नोटों की गड्डियाँ बाहर फेंकना शुरू कर दो । हम यहाँ से दूर हो जायेंगे । जब सारे नोट बाहर फेंक दो तो दरवाजा बन्द कर लेना । हम कुछ ही देर में नोट लेकर चले... ।”

“बेवकूफी से भरी सलाह अपने पास ही रखो ।” सोढ़ी का तीखा स्वर सुनाई दिया ।

“इसे अब खत्म कर देना चाहिए ।” जगमोहन ने गुर्राकर कहा – “मैं वैन के नीचे से गन.... ।”

“जल्दी मत करो ।” सोढ़ी की आवाज आई – “मैं कुछ सोचता हूँ ।”

“क्या ?”

“बताऊँगा । मुझे थोड़ा सा वक्त और दो ।”

“तुम्हें बताना पड़ेगा कि क्या सोच रहे हो ?”

कुछ चुप्पी के बाद मदनलाल सोढ़ी का गंभीर स्वर उन्हें सुनाई दिया ।

“पहले मुझे सरकारी दौलत बचाने में दिलचस्पी थी । लेकिन अब मुझे अपनी जान बचाने में दिलचस्पी है । तुम लोगों के मन में क्या है, मैं नहीं जानता । लेकिन मैं ये सोचता हूँ कि मेरे बाहर आने पर जब तुम्हारे हाथ में डेढ़ सौ करोड़ की दौलत आ जायेगी तो मुझे और बलवान सिंह को तुम लोग गोली मार दोगे ।”

“ऐसा नहीं होगा ।” देवराज चौहान ने कहा ।

“मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि मेरे साथ क्या हो सकता है । होगा या नहीं – ये तो भगवान ही जाने ।” सोढ़ी का गंभीर स्वर कानों में पड़ रहा था – “अपनी जान बचाने के लिए कुछ सोचना चाहता हूँ ।”

“कितना वक्त चाहिए ?”

“क्या बजा है ?”

“रात के साढ़े बारह का वक्त होगा ।” जगमोहन उखड़े स्वर में बोला ।

सिर्फ एक दो घण्टे और दे दो ।”

“मतलब कि तुम हमारी पूरी रात खराब करोगे ।” जगमोहन दाँत पीसकर कह उठा ।

उसकी आवाज नहीं आई ।

“ये आखिरी वक्त मिल रहा है तुम्हे ।” जगमोहन ने वार्निंग वाले भाव में कहा – “मेरा दिल तो चाहता है कि वैन के फर्श से गन लगाकर तुम्हें अभी भून दूँ और चलते बनें हम नोट लेकर । गलती तो हमने ये की है कि वैन हाथ लगते ही तुम्हें खत्म कर देना चाहिए था । लेकिन याद रखना – अगर हमारी बात न मानी तो आज की रात तेरी जिंदगी की आखिरी रात होगी ।”

मदनलाल सोढ़ी की आवाज नहीं आई । उसके बाद चुप्पी छा गई ।

उधर उनकी बातें सुन रहे लानती ने पंचम लाल से कहा ।

“पट्ठा तो बाहर आने को तैयार नहीं ।”

“देवराज चौहान को ज्यादा सख्ती से काम लेना चाहिए ।” पंचम लाल सोच भरे स्वर में बोला ।

“मेरे ख्याल में देवराज चौहान समझदारी से काम ले रहा है । रात के वक्त का फायदा उठाकर सोढ़ी को सोचने का पर्याप्त वक्त दे रहा है । दिन निकलने के वक्त देवराज चौहान तेजी से हरकत में आयेगा ।”

“सोढ़ी जानता है कि फँसा पड़ा है । इसलिए डर रहा होगा ।”

“इतनी आसानी से वो बाहर नहीं आएगा ।”

“आना तो पड़ेगा ही, वरना मरेगा ।” पंचम लाल कड़वे स्वर में कह उठा ।

“छोड़ इन बातों को पंचम – पुलिस की बात कर ।” लानती व्याकुलता से कह उठा ।

“पुलिस की बात ?”

“देवराज चौहान का कहना है कि इस इलाके में पुलिस हो सकती है । तभी तो यहाँ की लाइट ऑफ की है ।”

“पता नहीं ।” पंचम लाल ने व्याकुल भाव में कहा – “सावधानी बरतने में क्या हर्ज है ।”

“पुलिस के हाथ पड़ गए तो ?”

“चुप कर । हर वक्त सड़ी बात करता रहता है ।” पंचम लाल ने झल्लाकर कहा ।

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सुबह के चार बजने जा रहे थे ।

इंस्पेक्टर दलिप सिंह और सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह ने अन्य पुलिस वालों के साथ मिलकर उस कच्ची कॉलोनी को पूरी तरह छान मारा था । न तो उन्हें बैंक वैन मिली और न ही देवराज चौहान और जगमोहन ।

“सर जी – कुछ समझ नहीं आ रहा ।” सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह कह उठा – “होटल वाले के मुताबिक बैंक वैन ले जाने वाला आदमी इस तरफ से खाना लेने आया था तो अब हमें मिल क्यों नहीं रहा ? वैन की भी कोई खबर नहीं ।”

“खबर पाने के लिए तो रात काली कर रहे हैं ।”

दलिप सिंह ने सिगरेट सुलगाई ।

“रात तो काली हो गई । सुबह होने वाली है । मेरे को एक बात लग रही है ।”

“बोल मिलापे ?”

“ऐसा तो नहीं कि बैंक वैन कहीं और चली गई हो । उनका एक आदमी यहाँ कहीं टिका हो ।”

“सिर्फ एक यहाँ टिक कर क्या करेगा । डेढ़ सौ करोड़ के नोटों से भरी वैन को भला कोई छोड़कर अकेला क्यों रहेगा ?”

“ये बात भी ठीक है ।”

“फिर वो होटल वाले छोकरे ने कहा था कि वो बीस-पच्चीस रोटियाँ पैक करा कर ले गया है । इतनी रोटियाँ क्या वो अकेले खायेगा । अब ये मत कह देना कि हफ्ते भर की इकट्ठी ले गया है । यानी कि वो सब यहीं हैं । पास ही कहीं । मेरे हाथ नहीं लग रहे । लेकिन एक बात तू याद रखना ।”

“क्या ?”

“मेरा ट्रांसफर करके मुझे भैंसो वाले गाँव की चौकी भेजा गया तो मैं तेरे को भी साथ ले जाऊँगा ।” दलिप सिंह मुँह बनाकर बोला ।

“मुझे ।”

“तेरे बिना मेरा दिल नहीं लगेगा ।”

“मुझे साथ क्यों ले जाते हो छोटे से गाँव में ? मेरा दिल तो लुधियाने शहर में लगता... ।”

“ऐसा है तो बैंक वैन को ढूँढ़ । ताकि तू भी लुधियाने रहे और मैं भी ।”

“जी, सर जी ।” मिलाप सिंह सतर्क दिखा –”अब किधर ढूँढ़ना है ?”

दलिप सिंह ने दूसरी तरफ देखा ।

“आगे दो-तीन किलोमीटर तक कोई कॉलोनी नहीं है । खेत है । खेतों के पीछे राजेन्द्र सिंह वाला गाँव पड़ता है । वो लोग बैंक वैन के साथ उधर हो सकते हैं । वहाँ नहीं मिले तो समझ मिलेंगे ही नहीं ।”

“क्यों ?”

“होटल पर वो खाना लेने डेढ़-दो-ढाई किलोमीटर से ज्यादा दूर नहीं आएगा । ये तो मानता है ।”

“हाँ, सर जी । आस-पास से ही आया होगा वो ।”

“तो समझ ले कि ज्यादा से ज्यादा आगे खेतों तक से आया होगा । वो लोग वहाँ भी नहीं मिले तो, हमें एक बार फिर से सोचना पड़ेगा कि वो हमें मिले क्यों नहीं ? कहाँ गड़बड़ हुई ?”

“फिर तो गड़बड़ होटल वाले से ही हुई ।”

दलिप सिंह की निगाह अँधेरे में मिलाप सिंह पर टिकी ।

“क्या मतलब ?”

“वो होटल वाले छोकरे ने खाना लेने आये व्यक्ति को गलत पहचाना होगा । वो बैंक वैन ले जाने वाला व्यक्ति होगा ही नहीं । पहचानने में धोखा खा गया होगा और हमारी रात काली कर दी ।”

“ये भी हो सकता है । चल अब जल्दी कर... उधर के सारे खेत और गाँव भी छान लेते हैं । छोटा सा गाँव है । एक-डेढ़ घण्टे में फुर्सत पा लेंगे । शायद वे लोग मिल भी जाएँ । बुला सबको ।”

मिलाप सिंह ने ऊँची आवाज में इधर-उधर फैले पुलिस वालों को पुकार कर पीछे आने को कहा और बीच में से ही खेतों की तरफ बढ़ गया ।

ऊपर सड़क पर पर्याप्त फासला रखे पुलिस वाले अँधेरे में पहरा दे रहे थे ।

मिलाप सिंह चलते-चलते बोला –

“सर जी । खेतों में कैसे ढूँढ़ना है उन्हें ?”

“खेतों में बने कमरों में देखेंगे । गन्ने वगैरह के खेत हो तो सावधानी से भीतर घुसकर भी देखना है । कहीं बैंक वैन को गन्नों की ओट में, बीच में न छिपा रखा हो ।”

“ठीक है । सब देख लेंगे ।”

वो अँधेरे में रास्ता देखते खेतों की तरफ बढ़ रहे थे । सावधानी के नाते उन्होंने टॉर्च का इस्तेमाल न किया था ।

“मैंने पंचम लाल के बारे में पता कर लिया था ।” मिलाप सिंह बोला ।

“क्या ?”

“उसका परिवार वगैरह नहीं है । शादी नहीं की । गैराज पर ही ऊपर दो कमरे बनाकर, लानती नाम के बन्दे के साथ रहता है ।”

“लानती ?”

“नाम तो उसका पता नहीं । लानती ही उसे कहते हैं । वो हमेशा पंचम लाल के साथ ही रहता है ।”

“जब हम गैराज पर गए तो हमें लानती नाम का कोई बंदा नहीं मिला ?”

“नहीं मिला ?”

“हो सकता है वो लानती भी पंचम लाल के साथ, इस बैंक वैन के पास हो ।”

“हो सकता है ।” मिलाप सिंह ने सिर हिलाया ।

“पंचम लाल बंदा कैसा है ?”

“ठीक-ठाक ही है । किसी ने तारीफ नहीं की उसकी । बुराई भी नहीं की ।” मिलाप सिंह कह उठा – “जसदेव सिंह को तो आप जानते ही होंगे । लुधियाने का मशहूर बंदा है । कई धंधे हैं उसके और... ।”

“जानता नहीं हूँ । नाम सुन रखा है । अब जसदेव सिंह हमारी बात में कहाँ से आ गया ?”

“पंचम लाल उसका साला है सर जी ।”

“जसदेव सिंह का साला ?” दलिप सिंह के होंठों से निकला – “कमाल है । इतने बड़े आदमी का साला डकैती जैसा काम करता है ।”

“अभी हमें पक्का तो नहीं पता कि पंचम लाल डकैती में टांग अड़ाए बैठा है या नहीं । हम तो अंदाज ही लगा रहे हैं ।”

“शक का आधार तो है हमारे पास ।”

“परन्तु पूरा विश्वास तो नहीं । इतनी ही बात है कि बैंक वैन ले जाने वाले दोनों व्यक्ति उसके गैराज पर गए थे और पंचम लाल ने उन्हें चाय पिलाई थी । चाय तो कोई भी किसी को पिला देता है । क्या पता वो उसके गैराज पर क्यों पहुँचे थे ? क्या बात हुई ?”

“ये बात तो है । पंचम लाल गायब कहाँ हो गया ?”

“सर जी, वो तो आप कह रहे हो कि वो गायब हो गया । क्या पता पटियाले तक किसी काम के लिए गया हो । साथ में वो लानती भी गया हो । कभी-कभी अचानक जाने का प्रोग्राम बन जाता है । किसी को बताने का वक्त ही नहीं मिलता । उनके साथ भी ऐसा ही हुआ हो । अब तक आ गए हों या दिन में आ जायेंगे ।”

दलिप सिंह कुछ नहीं बोला ।

“कुछ कहोगे नहीं सर जी ।” चुप्पी लम्बी हुई तो मिलाप सिंह कह उठा ।

“पहली फुर्सत मिलते ही पंचम लाल के गैराज पर चलेंगे ।” दलिप सिंह ने कहा ।

“मिलापे । तेरे को जैसा समझाया है, खेतों को और खेतों में बने भूसा रखने वाले कमरों को चैक कर ले । मैं तब तक राजेन्द्र सिंह के पास जाता हूँ । गाँव की भी तो तलाशी लेनी है । तुम सब जब वहाँ जाओगे तो चाय तैयार रखी होगी । अभी जाकर चाय का पानी चढ़वा देता हूँ ।”

“ठीक है सर जी ।”

“वो उधर ।” दलिप सिंह ने राजेन्द्र सिंह के खेतों की तरफ इशारा किया – “राजेन्द्र सिंह के खेतों में भी एक कमरा है । उसे देखकर वक्त बर्बाद मत करना । वो अपने राजेन्द्र सिंह का ही कमरा है ।”

“जी सर जी ।”

दलिप सिंह पैदल ही खेतों के पीछे बने गाँव की तरफ चल पड़ा ।

दलिप सिंह ने पुलिस वालों को इकट्टा किया और तलाशी अभियान शुरू कर दिया ।

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पैदल चलता थका सा दलिप सिंह, जमींदार राजेन्द्र सिंह के मकान पर पहुँचा और उसे पुकारते हुए जोरों से गेट थपथपाया । आधा मिनट भी न बीता कि राजेन्द्र सिंह बाहर आया ।

इस बे-वक्त दलिप सिंह को आया देखकर राजेन्द्र सिंह का दिल धड़का ।

“थानेदार तू इस वक्त ?” राजेन्द्र सिंह गेट खोलता बोला ।

“क्या बताऊँ जमींदार । रात काली हो गई ।”

“पर हुआ क्या ?” राजेन्द्र सिंह ने गेट खोला ।

“रात तेरे को बताया तो था कि बैंक वैन ले जाने वाले इधर ही कहीं छिपे हैं । बस उन्हीं को ढूँढ़ रहे हैं ।”

“तू अकेला ?”

“अकेला कहाँ – पुलिस वालों की फ़ौज है बाहर ।”

राजेंद्र सिंह का दिल और भी तेजी से धड़का ।

“बाहर क्यों खड़ा है, आ भीतर आ ।”

दोनों भीतर कमरे में पहुँचकर बैठे ।

“तूने तो रात बताया नहीं कि उन दोनों को रात भर जगह-जगह ढूँढ़ना है ।”

“वो बाद में प्रोग्राम बना । सड़क पे दुकानों के पास होटल है न खाने का ।”

“हाँ – हाँ ।” राजेन्द्र सिंह ने गर्दन हिलाई ।

“बैंक वैन ले जाने वाला रात वहाँ से खाना पैक करा कर ले गया था । खाना देने वाले लड़के ने उसे पहचान लिया था । मैंने उसे कागज पर बनी तस्वीरें तो दिन में ही दे दी थी ।” दलिप सिंह ने कहा ।

राजेन्द्र सिंह को जगमोहन के हाथ में थमा रात का खाने का लिफाफा ध्यान आया ।

“लड़के ने पहचानते ही मुझे फोन किया । मैं वहाँ पहुँच गया । तब तक वो खाना लेकर जा चुका था । उसके बाद थाने से पुलिस वालों को बुलाया और उनकी तलाश शुरू कर दी । वो यहीं कहीं छिपे हुए हैं ।”

राजेन्द्र सिंह ने सिर हिलाया ।

“तब से रात काली किये जा रहे हैं ।”

“मिले नहीं ?”

“अभी कहाँ – पीछे की सारी कॉलोनियाँ देख लीं । अब इधर तुम्हारे एरिया में आ पहुँचे हैं ।”

“हमारा एरिया ।”

“यही खेत वगैरह । उन पर बने भूसा डालने के कमरे । उन्हें चैक करना.... ।”

राजेन्द्र सिंह का दिल धड़कना भूल गया ।

“मिलाप सिंह और बाकी पुलिस वाले हर जगह खंगाल रहे हैं । उन्हें बोल दिया कि तुम्हारे खेत पर बने कमरे को देखने में वक्त खराब न करें । वो अपना ही है ।” दलिप सिंह बोला – “अब इधर गाँव को भी चैक करना है ।”

राजेन्द्र सिंह ने मन ही मन चैन की साँस ली फिर बोला –

“इधर गाँव में कोई नहीं आया ।”

“वो तो ठीक है । कागजी कार्यवाही भी तो पूरी करनी है । सरकार को दिखाना भी तो है कि तनख्वाह लेने के बदले हमने भी तो कुछ काम किया है । चाय पिला, थोड़ी सी आँखें खुलेंगी ।”

राजेन्द्र सिंह ने आवाज देकर नौकर को बुलाया ।

“तेरे को कितनी बार कहा है कि चार बजे उठ जाया कर ।”

“तीन तो भैंसे हैं आपकी जमींदार साहब । आधे घण्टे में उनका दूध निकाल देता हूँ । आप भी तो पाँच बजे उठते हैं ।”

“कोई मेहमान आ जाये तो क्या तू सोया रहेगा ?”

“मेहमान ?” उसकी निगाह दलिप सिंह पर गई, फिर मुस्कुरा पड़ा ।

“जा चाय बना ।”

“अभी लो जी ।” वो जाने को हुआ ।

“आज बीस-तीस मूली-गोभी के पराठे बना दियो । बड़े-बड़े ।”

“बीस-तीस । बड़े-बड़े ?” उसने ठिठककर राजेन्द्र सिंह को देखा ।

दलिप सिंह की निगाह भी राजेन्द्र सिंह पर जा टिकी ।

“आज से पंद्रह साल पहले आज के दिन मेरा बाप भगवान को प्यारा हो गया था ।” राजेंद्र सिंह ने कहा – “वो इसी तरह बड़े-बड़े पराठे खाता था । मैं हर साल उसकी आत्मा की शांति के लिए बड़े-बड़े बीस-तीस पराठे बनवा कर, गरीबों को खिलाता हूँ ।”

“अगर नहीं खिलाएँगे तो क्या होगा, जमींदार साहब ?”

“ऐसा मत कह । मेरा बाप बहुत गंदा था, नहीं खिलाऊँगा तो किसी रूप में आकर मेरा गला दबा देगा ।”

“फिर तो बना देता हूँ जमींदार साहब ।”

“पहले चाय लेकर आ दरोगा साहब के लिए, फटाफट ।”

वो बाहर निकल गया ।

“दो-चार पराठे मेरे लिए भी बनवा लियो जमींदार साहब ।” दलिप सिंह कह उठा – “रात भर की भागदौड़ से भूख भी बहुत लग रही है । जब तक पुलिस वाले आते हैं । यहीं पर नहा लेता हूँ ।”

“ये तो बढ़िया हो जायेगा । आराम मिलेगा ।” राजेन्द्र सिंह ने सिर हिलाया – “मैं तेरे लिए दस पराठे बनवा देता हूँ । तू चुपचाप दो-चार मिलापे को भी खिला दियो । सबके लिए तो बनाना कठिन है ।”

“दस पराठे बनवा दियो तू ।”

“बैंक वैन को कहाँ से ढूँढेगा ?” राजेन्द्र सिंह ने उसे देखा ।

“जरूर ढूँढूँगा ।” दलिप सिंह एकाएक पक्के स्वर में कह उठा – “है तो वो पास ही कहीं ।” राजेंद्र सिंह का दिल पुनः धड़का ।

“कमिश्नर साहब को फोन करके पच्चीस-तीस पुलिस वाले और बुलवाने पड़ेंगे । जाने नहीं दूँगा उन्हें । मेरी भी इज्जत का सवाल है जमींदार । वरना कमिश्नर साहब मुझे किसी गाँव का थाना दे देंगे । वहाँ एक टेबल, चार कुर्सियाँ और वर्दी के नाम पर डालने के लिए कमीज ही होगी । नीचे पायजामा डालना पड़ेगा ।”

“मेरे ख्याल में होटल वाले को पहचानने में गलती लगी हो । जिसे उसने पहचाना वो कोई दूसरा भी हो सकता है ।”

“ये बात तो मिलाप भी कहता है ।”

“मिलाप भी मेरी तरह ठीक ही कहता है । तू पराठे खा दरोगा और घर जाके आराम कर । वो लोग तो नोटों से भरी गाड़ी के साथ कहीं दूर बैठे मजे ले रहे होंगे । तुम लोग खामख्वाह अपनी रातें काली कर रहे हो यहाँ ।”

दलिप सिंह सोच भरी नजरों से राजेंद्र सिंह को देखने लगा ।

“क्या देखता है दरोगा ?”

“सोच रहा हूँ कि क्या करूँ और क्या न करूँ ?”

तभी नौकर चाय ले आया ।

“ले पहले चाय पी ले । उसके बाद नहा ले । साथ-साथ सोचा भी जायेगा ।”

उसने एक चाय दलिप सिंह को थमाई । दूसरी राजेन्द्र सिंह को ।

“पराठों की तैयारी शुरू कर दे । दस पराठे दरोगा साहब के लिए बना देना ।”

“दस ? इतने ज्यादा तो... ।”

“उल्लू के पट्ठे, तू कम-ज्यादा का हिसाब क्यों लगाता है । अपना काम कर ।”

वो फौरन बाहर निकल गया ।

“जमींदार । आज घर पे गेहूँ भिजवा देना दो बोरे ।”

“ये पराठे बना ले । फिर इसके साथ ही गेहूँ भिजवाता हूँ ।”

☐☐☐

जगमोहन की आँख लग गई थी जब उसने दरवाजे के बाहर आवाजें सुनी । वो चौंककर उठ बैठा । हाथ जेब में पड़ी रिवाल्वर की तरफ सरक गया । तभी पास बैठे देवराज चौहान ने उसकी कलाई दबाई कि चुप रहो । फिर देवराज चौहान दबे पाँव दरवाजे के पास जा पहुँचा और बाहर की आहट लेने लगा ।

पंचम लाल और लानती की भी आँख खुल गई थी । वो भी अँधेरे में आँखें फाड़े दरवाजे की तरफ देखने की चेष्टा कर रहे थे । इतना तो समझ गए थे कि कोई गड़बड़ है ।

देवराज चौहान दरवाजे के इस तरफ खड़ा, उस पार की आहटें लेता रहा ।

उस पार चार-पाँच जोड़ी कदमों की आहटें थी ।

“ये रहा कमरे का दरवाजा ।” एक आवाज सुनाई दी ।

“दरवाजा बड़ा है । बैंक वैन इसके भीतर ले जाई जा सकती है ।” दूसरी आवाज सुनाई दी ।

देवराज चौहान के दाँत भिंच गए ।

“ताला लगा होगा ।”

“अभी तोड़ देता हूँ ।”

तभी दूर से आती सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह की आवाज देवराज चौहान ने सुनी ।

“यहाँ क्या कर रहे हो ?”

“कमरे के भीतर से... ।”

“मैंने कहा था कि उधर देखने की जरूरत नहीं है ।”

मिलाप सिंह की आवाज अब पास आ गई थी – “ये इंस्पेक्टर साहब के खास दोस्त राजेन्द्र सिंह के खेत हैं । यहाँ बैंक वैन हो ही नहीं सकती । उधर जा के देखो ।”

उसके बाद वो चार-पाँच जोड़ी जूतों की आवाज नहीं आई । यानी कि वे दूर चले गए थे । देवराज चौहान मन ही मन सतर्क हुआ । उसका अंदेशा ठीक था कि बाहर उन्हें पुलिस जगह-जगह तलाश कर रही है ।

देवराज चौहान बे-आवाज चारपाई के पास पहुँचा । पंचम लाल और लानती भी पास पहुँचे थे ।

“क्या हुआ ?” जगमोहन ने दबे स्वर में पूछा – “कौन थे वे लोग ?”

“पुलिस ।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा – “वे लोग बैंक वैन को तलाश कर रहे हैं । उन्हें विश्वास है कि बैंक वैन के साथ हम यहीं कहीं हैं । अभी चले गए हैं वे । एक पुलिस वाले ने कहा कि ये राजेन्द्र सिंह के खेत हैं और वो इंस्पेक्टर साहब का दोस्त है । वरना वे कमरे की तलाशी के लिए भीतर आने की सोच रहे थे । मेरे ख्याल में उन्होंने दरवाजे को ठीक तरह देखा नहीं । अँधेरा हमें बचा गया । दरवाजे पर ताला नहीं है बाहर । ऐसे में वो फौरन समझ जाते कि भीतर कोई छिपा हो सकता है । लेकिन वे चले गए ।”

“वो फिर आ सकते हैं ।” पंचम लाल बोला ।

“मुझे नहीं लगता कि से अब फिर वापस आएँगे ।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा – “हमसे एक गलती हो चुकी है । हमें ये इंतजाम करके रखना चाहिए था कि हम भीतर हो तो बाहर ताला लग जाये ।”

“हममें से एक को बाहर रहना चाहिए था । वो ताला लगाकर खेतों में छिपकर बैठ जाता ।” पंचम लाल बोला ।

“ये काम तो मैं कर लेता ।” लानती कह उठा ।

जगमोहन गहरी साँस लेकर बोला –

“राजेन्द्र सिंह की वजह से हम बच गए । वो कहता तो था कि दरोगा उसका दोस्त है । लेकिन मैं सोचता कि ऐसे ही फेंक रहा होगा । बच गए ये ही बहुत है । अब सोढ़ी से पूछो कि वो बाहर आता है या गोलियाँ चलायें हम ।”

“अभी खामोश रहो ।”

“क्या मतलब ?”

“बाहर पुलिस है ।” देवराज चौहान गम्भीर स्वर में बोला – “पुलिस को यहाँ से जाने में एक घण्टा भी लग सकता है और तीन घण्टे भी । हमारे पास डेढ़ सौ करोड़ की दौलत मौजूद है । हमें किसी तरह का रिस्क नहीं लेना है कि शोर-शराबा हो और पुलिस का ध्यान इस तरफ हो जाये । ये वक्त हमें चुपचाप बैठकर निकालना है ।”

“क्या भरोसा पुलिस सारी रात यहाँ रहे ।” लानती बोला – “जाते-जाते पुलिस वाले दो कॉन्स्टेबिल यहीं छोड़ जाएँ कि हर तरफ वे नजर रखेंगे । तब... ?”

कुछ पलों की चुप्पी के बाद जगमोहन बोला –

“इसका भी रास्ता है ।”

“क्या ?”

“राजेन्द्र सिंह नाश्ता लेकर आएगा । बाहर की खबर वो हमें देगा ।” जगमोहन गम्भीर स्वर में कह उठा ।

अँधेरे में वे एक-दूसरे के चेहरे के भाव नहीं देख सके ।

कुछ ही देर में दिन निकलने वाला था ।

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आठ बजे राजेन्द्र सिंह ने दलिप सिंह को बाकी सारे पुलिस वालों के साथ विदा किया । उसके सामने ही दलिप सिंह, मिलापे से कह रहा था कि बाहर सड़क पर दो पुलिस वालों का पहरा बैठा देना है कि इधर कोई हो तो शायद कोई खबर मिल जाये । वैसे वे अब इसी तरफ सोच रहे थे कि होटल वाले लड़के को पहचानने में गलती हुई है । शायद बैंक वैन इधर नहीं है ।

राजेन्द्र सिंह उनसे चिपका बराबर उनकी बातें सुनता रहा था ।

सारा गाँव भी उन्होंने अच्छी तरह देख लिया था । दलिप सिंह ने नहा धोकर, चार पराठे का तगड़ा नाश्ता कर लिया था । मौका पाकर मिलाप सिंह को भी पराठे खिला दिए थे । चलते वक्त दलिप सिंह ने मिलाप सिंह से कहा –

“बाकी पुलिस वालों को थाने भेज और हम उस पंचम लाल के गैराज पर चलेंगे । अच्छी तरह पूछताछ करनी है उसके बारे में । साथ में उसका जो बन्दा है, वो क्या नाम है – हाँ, लानती । उसके बारे में भी ।”

“ठीक है सर जी । अभी चलते हैं । उसके बाद थाने पहुँचकर कुछ सुस्ता लेंगे । रात भर झपकी भी नहीं ले सका ।”

नौ बजे छिपता-छिपाता, पराठों को कपड़े में लपेटे राजेन्द्र सिंह खेत में बने कमरे पर पहुँचा और धड़कते दिल के साथ दरवाजा थपथपाया । इसके साथ वो आस-पास भी देखे जा रहा था । धूप में चमकते खेत लहलहा रहे थे । हरियाली की वजह से धूप ज्यादा चुभती महसूस न हो रही थी ।

तभी थोड़ा सा दरवाजा खुला । देवराज चौहान था उस तरफ । दोनों की नजरें मिलीं । राजेन्द्र सिंह ने दाँत दिखाए ।

देवराज चौहान ने दरवाजा इतना खोल दिया कि वो भीतर आ सके । राजेन्द्र सिंह सरक के भीतर आया तो देवराज चौहान ने दरवाजा बन्द करके कुण्डी चढ़ा दी ।

दो कदम भीतर जाकर राजेन्द्र सिंह हड़बड़ाकर ठिठक गया था और नजरें हर तरफ जाने लगी । पराठों की पोटली हाथ में पकड़ी थी जिसकी महक वहाँ के वातावरण में भरने लगी थी ।

आखिरकार राजेन्द्र सिंह की निगाह बैन वैन पर जा टिकी ।

जगमोहन चारपाई पर बैठा उसे देख रहा था । चारपाई अब वैन से कुछ हटकर रख दी गई थी ।

जगमोहन से निगाह मिलते ही राजेन्द्र सिंह ने दाँत फाड़े और जल्दी से उसके पास जा पहुँचा ।

“पराठे । गरमा गरम ।” कहकर राजेन्द्र उसके पास बैठता बोला – “जल्दी-जल्दी में दही तो नहीं ला सका, परन्तु पुदीने-धनिये की चटनी घोंट लाया हूँ । उसके साथ लगा के खाने में बहुत मजा आएगा । दोपहर को लस्सी ले आऊँगा ।”

लानती फौरन पास आ पहुँचा और पराठों की पोटली उठाता कह उठा –

“मुझे तो भूख लगी है ।”

राजेन्द्र सिंह ने उसे देखकर दाँत फाड़े ।

लानती ने कुछ नहीं कहा और पंचम लाल,  बलवान सिंह के पास जा बैठा ।

देवराज चौहान भी पास आ पहुँचा था । राजेन्द्र सिंह ने बारी-बारी दोनों को देखा फिर कह उठा –

“रात भर, तुम लोगों को और बैंक वैन की तलाश में पुलिस आस-पास के इलाके को छानती रही ।” राजेन्द्र सिंह बोला – “घण्टा भर पहले ही पुलिस वाले गए हैं ।”

“मतलब कि पुलिस वाले गए । अब वो इधर नहीं आएँगे ?” जगमोहन बोला ।

“ये मुझे क्या पता । लेकिन दो-तीन पुलिस वाले सड़क पर छोड़ गए हैं कि अगर तुम लोग इधर ही हो तो कोई खबर मिल जाये । मुझे तो हैरानी है कि तुम लोग बच गए । वे इधर नहीं आये थे क्या ?”

“आये थे । बाहर दरवाजे तक पहुँच गए लेकिन ये जानकर कि तुम्हारा कमरा है उन्होंने तलाशी का विचार छोड़ दिया ।”

“फिर तो बाल-बाल बच गए ।” राजेन्द्र सिंह ने गहरी साँस ली ।

तभी दूर बैठे पंचम लाल ने कहा –

“पराठे खा लो, अभी गरम हैं ।”

पंचम लाल, लानती और बलवान सिंह खाने में लगे हुए थे । उन्होंने इस वक्त बलवान सिंह के बन्धन खोल दिए थे । देवराज चौहान और जगमोहन खामोश रहे ।

राजेन्द्र सिंह की निगाह बैंक वैन पर जा टिकी थी ।

“ये अभी तक बन्द ही है क्या ?”

“हाँ । भीतर गनमैन है ।”

“ससुरा, बाहर निकलने को मना कर रहा है क्या ?” राजेन्द्र सिंह ने मुँह बनाया ।

देवराज चौहान और जगमोहन की नजरें मिलीं ।

“सड़क दूर है ।” देवराज चौहान सख्त स्वर में कह उठा – “गोली की आवाज शायद वहाँ तक न पहुँचे । पहुँचेगी भी तो उनके लिए समझ पाना कठिन हो जायेगा कि आवाज किधर से आई थी ।”

जगमोहन के दाँत भिंच गए । उसने राजेन्द्र सिंह से पूछा –

“सड़क पर कितने पुलिस वाले हैं ?”

“मैं नहीं जानता । दो-तीन तो होंगे ।” राजेन्द्र सिंह बोला और थाम रखा लठ नीचे मारकर बोला – “दो लठ मारकर ही वैन को तोड़ दूँ । मुझे तो हैरानी हो रही है कि इतनी बड़ी दौलत भीतर है और तुम लोग दिल पर पत्थर रखे कल से बैठे हो । मैंने तो अब तक सब बराबर कर देना था ।”

“भीतर जो बैठा है, उसके पास गन है ।” जगमोहन बोला ।

“बँदूक है ?”

“वो हम सबको मार देगा अगर उसे गन की नाल भी बाहर निकालने का मौका मिले ।”

राजेन्द्र सिंह जवाब में सिर हिलाकर रह गया ।

“उसे निकालने से पहले गोली मारनी पड़ेगी ।”

तभी देवराज चौहान ने रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली ।

“हमें इतना रिस्क तो लेना ही पड़ेगा कि खेतों के पार मुख्य सड़क पर मौजूद पुलिस वाले फायर की आवाज सुन पाते हैं या नहीं । मेरे ख्याल में शायद वहाँ तक आवाज न पहुँचे ।” देवराज चौहान बोला ।

जगमोहन के चेहरे पर अजीब सी कठोरता आ गई । उसने भी रिवाल्वर निकाल ली ।

पंचम लाल ये देखकर पराठे खाना छोड़कर, हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ था ।

“लानती । इसे फटाफट बाँध दे । वहाँ कुछ होने जा रहा है ।”

बलवान सिंह का चेहरा फक्क था । लानती जल्दी से बलवान सिंह को बाँधते हुए कह उठा –

“बाकी पराठे फिर खा लेना बलवान सिंह ।”

देवराज चौहान पुनः जगमोहन से कह उठा –

“मैं वैन के नीचे, फर्श से नाल लगाकर, मदनलाल सोढ़ी पर गोलियाँ चलाने जा रहा हूँ । तुम इस बात का ध्यान रखना कि वो दरवाजा खोलकर बाहर निकलते हुए सबको गोली मारने की चेष्टा न करे ।”

जगमोहन ने रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली ।

तभी राजेन्द्र सिंह बोला –

“भीतर वाला क्या बाहर आने को मना करता है ?”

“हाँ...वो... ।”

तभी राजेन्द्र सिंह आगे बढ़ा और लाठी से वैन को ठकठका कर बोला –

“ओये, तू जो भी है बाहर आ जा ।”

“ये मुझे मार देंगे ।” भीतर से सोढ़ी की आवाज आई ।

“मार तो तेरे को अब भी रहे हैं । अब तू चूहे की तरह मरने जा रहा है ।”

“हम नहीं मारेंगे तेरे को ।” जगमोहन दाँत पीसे कह उठा ।

“हाँ–हाँ, मैं गवाह हूँ ।” राजेन्द्र सिंह कह उठा – “तू मेरा विश्वास कर ले । इज्जतदार हूँ । जमींदार हूँ । दरोगा भी मेरा विश्वास करता है । ये तेरे को कुछ नहीं कहेंगे ।”

दो पलों की चुप्पी के बाद मदनलाल सोढ़ी की आवाज आई –

“देवराज चौहान ।”

“हाँ ।” देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती थी ।

“तुम्हें पैसा चाहिए तो ले लो, लेकिन मुझे जाने दो ।”

“क्या मतलब ?”

“मुझे डर है कि मुझे बाहर निकलते ही मार दिया जायेगा । मेरे इस डर को मानते हुए मुझे जाने दो यहाँ से । मैं वैन से बाहर निकलूँगा और ये जो भी जगह है । यहाँ से चला जाऊँगा । तुम पैसा ले लेना ।”

“यानी कि तुम यहाँ से जाते ही पुलिस को यहाँ भेज दोगे ।” जगमोहन दाँत भींचे कह उठा ।

“नहीं, ऐसा नहीं होगा ।” सोढ़ी की आवाज आई ।

“क्यों नहीं होगा ऐसा । तुम हम पर विश्वास नहीं कर रहे हो तो हम तुम पर क्यों करें ?”

“मैं डरा बैठा हूँ । यहाँ से बाहर चला जाना चाहता हूँ । अगर तुम लोग मेरी बात मान सकते हो तो मान लो । नहीं तो जो मन में आये करो ।” सोढ़ी के इन शब्दों के साथ खामोशी छा गई ।

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा ।

“बात नहीं बनेगी । तुम जो करने जा रहे थे, वही करो । इसे तब ही खत्म कर देना चाहिए था जब हम यहाँ पहुँचे थे ।”

तभी लानती पास पहुँचा । देवराज चौहान और जगमोहन ने उसे देखा ।

“मैं ये कह रहा था ।” लानती बोला – “सोढ़ी सच में घबराया हुआ है । वो बाहर आना चाहता है लेकिन उस पर सवार मौत का डर उसे बाहर नहीं आने दे रहा । मैं सोढ़ी को लेकर जमींदार राजेन्द्र सिंह के साथ इसके घर चला जाता हूँ । तुम लोग पैसा निकालकर फुर्सत पा लेना । इस तरह खून-खराबा नहीं होगा ।”

“बात तो बढ़िया कही ।” राजेंद्र सिंह फौरन कह उठा ।

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा ।

“हमें नोट निकालकर ले जाने के लिए सिर्फ एक-डेढ़ घण्टा चाहिए ।”

“ये बेवकूफी से भरी बात है कि इस तरह गनमैन को हम बाहर जाने दें ।” देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा ।

“फिक्र क्यों करते हो ।” राजेन्द्र सिंह कह उठा – “मैं इस पर पक्की नजर रखूँगा ।”

“मैं साथ रहूँगा इन दोनों के ।” लानती बोला – “बस एक रिवाल्वर मेरे को दे देना । सोढ़ी जरा सा भी इधर से उधर हुआ तो सारी गोलियाँ इसके भीतर उतार दूँगा, लेकिन पुलिस के पास नहीं जाने दूँगा ।”

देवराज चौहान और जगमोहन की नजरें मिलीं ।

“हमें एक-डेढ़ घण्टा चाहिए ।” जगमोहन ने पुनः देवराज चौहान से कहा – “इस तरह इतना वक्त हमें आसानी से मिल जायेगा ।”

चंद पलों की सोच के बाद देवराज चौहान ने वैन को देखा ।

“मदनलाल सोढ़ी से पूछ लो कि क्या ऐसा करना उसे मंजूर है ?”

राजेन्द्र सिंह फौरन कह उठा –

“मैं पूछ लेता हूँ । जमींदार हूँ । शरीफ बंदा हूँ । मेरी बात का विश्वास जल्दी कर लेगा ।” फिर उसने लाठी से वैन को ठकठका कर ऊँचे स्वर में कहा – “मेरी बात सुन ले गनमैन । मैं बहुत भारी जमींदार हूँ । आस-पास के सब गाँव मेरी इज्जत करते हैं । मेरे को मानते हैं । झूठ नहीं बोलता । वैसे तो ये भी बहुत शरीफ हैं । तू यूँ ही डर रहा है । पीछे पास ही गाँव है मेरा । मकान है । तू मेरे साथ वहाँ चल । तब ये वैन में पड़े नोट निकाल लेंगे । तेरी बात भी पूरी हो जायेगी और इनकी भी । बात यूँ है कि ये भी तेरे से डर रहे हैं कि तू यहाँ से निकलकर पुलिस के पास पहुँचकर इनकी रिपोर्ट कर देगा ।”

“मैं ऐसा नहीं करूँगा ।”

“मेरे को पता है कि तू ऐसा नहीं करेगा । लेकिन तेरी तरह ये भी तुझ पर विश्वास नहीं कर रहे ।”

कुछ खामोशी सी छा गई । राजेन्द्र सिंह पुनः बोला –

“अब तेरे को मेरी बात मंजूर हो तो कह नहीं तो ये गोलियाँ चलाएँ ।”

“ठीक है । इन्हें बोलो कि अपने हथियार एक तरफ रख दें ।” सोढ़ी की आवाज आई ।

“मतलब कि तू बाहर निकलने जा रहा है ?”

“हाँ ।” सोढ़ी के गहरी साँस लेने की आवाज आई ।

“आ जा ।” राजेन्द्र सिंह ने देवराज चौहान और जगमोहन को देखा – “उसने मेरा विश्वास कर लिया है । वो बाहर आ रहा है । तुम लोग भी अपने हथियार एक तरफ रख दो ।”

देवराज चौहान और जगमोहन ने रिवाल्वर नीचे रख दी ।

“बाहर आ जा ।” राजेन्द्र सिंह भीतर बैठे सोढ़ी से बोला – “हथियार रख दिए हैं । धोखे से कोई तेरे पर गोली नहीं चलाएगा । तू भी खाली हाथ ही बाहर आना । हथियार लेकर बाहर आएगा तो ये भी हथियार उठा लेंगे ।”

“मैं खाली हाथ बाहर आऊँगा ।”

तभी लानती, देवराज चौहान से बोला –

“मैं साथ जाऊँगा इनके । सोढ़ी पर पूरी नजर रखूँगा ।”

पंचम लाल, लानती के पास आ गया था ।

“पंचम ।” लानती धीमे से बोला – “इनसे नोट ले लेना अपने हिस्से के ।”

“चिंता मत कर । इनके साथ हूँ मैं । तू मुझे गैराज पर ही मिलना ।”

“आता है बाहर ?” राजेन्द्र सिंह ने व्याकुल स्वर में कहा ।

“आ रहा हूँ ।” वैन के भीतर से सोढ़ी की आवाज आई – “कोई मुझ पर गोली न चलायें ।”

“नहीं चलाएगा । मेरा भरोसा कर । जमींदार हूँ । झूठा बंदा नहीं हूँ ।”

तभी वैन के बन्द दरवाजे पर भीतर से खड़खड़ाहट हुई । मदनलाल सोढ़ी बाहर आने के लिए दरवाजा खोल रहा था ।

सबकी निगाह वैन के दरवाजे पर जा टिकी ।

कुछ पलों बाद दरवाजा खुला । धीरे से वैन का एक पल्ला खुला । सोढ़ी ने सावधानी से बाहर झाँका । उसने सबको देखा । बलवान सिंह को भी बँधे देखा । राजेन्द्र सिंह से नजरें मिलीं ।

“आ-जा, तेरे को कोई कुछ न कहेगा ।” राजेन्द्र सिंह धड़कते दिल से बोला ।

मदनलाल सोढ़ी बाहर आया । बीस घण्टों से वो वैन के भीतर बैठा था । थक सा गया था । चेहरे से ही थकान झलक रही थी । कपड़े मैले हो रहे थे । बाल बिखरे थे । चेहरे पर पसीने की चिपचिपाहट थी और आँखों में व्याकुलता और घबराहट की छाप स्पष्ट नजर आ रही थी ।

लानती ने फौरन आगे बढ़कर सोढ़ी की कलाई थाम ली ।

“जमींदार साहब, चलो ।” लानती बोला ।

सोढ़ी ने हाथ मारकर दरवाजे का खुला पल्ला बंद कर दिया ।

“मैं इसे अपने घर ले जा रहा हूँ ।” राजेन्द्र सिंह बोला ।

देवराज चौहान और जगमोहन की निगाहें सोढ़ी पर थीं ।

“मेरे को जो देना हो, वो यहीं छोड़ देना ।” राजेन्द्र सिंह बोला – “दो घण्टे बाद इधर आऊँ क्या ?”

“आ जाना ।” जगमोहन ने वैन को देखा ।

“मुझे जल्दी से यहाँ से ले चलो ।” सोढ़ी घबराया सा राजेन्द्र सिंह से बोला ।

“चलते हैं, चलो ।”

लानती, सोढ़ी की कलाई थामे दरवाजे की तरफ बढ़ गया । राजेन्द्र सिंह पीछे था ।

“दरवाजा बन्द कर ले ।” जगमोहन ने पंचम लाल से कहा ।

पंचम लाल फौरन उनके पीछे बढ़ा ।

दरवाजा खोलकर राजेन्द्र सिंह और लानती, सोढ़ी को लिए बाहर निकले । पीछे से पंचम लाल ने दरवाजा बन्द कर लिया ।

बाहर तेज धूप और गर्मी थी । हवा भी न के बराबर चल रही थी । खेत शांत खड़े थे । हर तरफ खामोशी और चुप्पी भरा माहौल लग रहा था । तीनों खेतों के बीच में से गाँव की तरफ बढ़े ।

“गर्मी बहुत हो गई है । लस्सी पिलाता हूँ चलकर, कुछ खट्टी-कुछ मीठी । मसाला डालकर ।”

तभी मदनलाल सोढ़ी फुर्ती से नीचे झुका । पत्थर उठाया और राजेन्द्र सिंह के सिर पर मार दिया । राजेन्द्र सिंह के हाथ से लाठी छूट गई । दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और घुटने मुड़ते चले गए । फिर नीचे गिरकर वो बेहोश हो गया ।

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पंचम लाल दरवाजा बन्द करके पलटा और गम्भीर निगाहों से देवराज चौहान और जगमोहन को देखा ।

देवराज चौहान की निगाह अभी भी बाहर जाने वाले दरवाजे पर थी ।

“मदनलाल सोढ़ी को यूँ बाहर जाने देने को मेरा दिल नहीं मान रहा ।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा ।

“वो गया, अब भूल जाओ उसे ।” जगमोहन वैन की तरफ बढ़ा – “हमें नोट समेटने में एक घण्टे से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा ।” कहकर जगमोहन ने वैन का दरवाजा खोलना चाहा । परन्तु दरवाजा बन्द रहा ।

“ऑटोमैटिक लॉक सिस्टम है ।” जगमोहन बोला – “दरवाजा लॉक हो गया है ।”

उसके बाद वैन का दरवाजा खोला जाने लगा ।

बीस मिनट की कोशिशों के बाद भी दरवाजा खोलने में सफलता न मिली तो देवराज चौहान ने रिवाल्वर लेकर नाल लॉक पर रखी और ट्रेगर दबा दिया । फायर की आवाज गूँजी और दरवाजे का लॉक टूट गया ।

पंचम लाल का दिल जोरों से धड़का । जगमोहन ने जल्दी से वैन के पल्ले को देखा । भीतर निगाह पड़ते ही उनके दिल धक्क रह गए । पंचम लाल जल्दी से पास आ पहुँचा था ।

कुछ दूर बँधा पड़ा बलवान सिंह भी आँखें फाड़े इधर ही देख रहा था । वैन के भीतर देखते देवराज चौहान की आँखे सिकुड़ चुकी थीं ।

“ये क्या ?” पंचम लाल के होंठों से निकला ।

“वैन तो खाली है ।” जगमोहन हक्का-बक्का था – “डेढ़ सौ करोड़ की दौलत कहाँ है ?”

देवराज चौहान के होंठ भिंच चुके थे । पैना सन्नाटा उनके बीच उभर आया था ।

“ये – ये क्या चक्कर है ?” पंचम लाल के होंठों से हक्का-बक्का स्वर निकला – “मैं तो लुट गया । वैन तो खाली है । एक पैसा भी नहीं है भीतर ।”

वैन के फर्श पर मदनलाल सोढ़ी की छोड़ी गन पड़ी नजर आ रही थी ।

“मदनलाल सोढ़ी ।” एकाएक जगमोहन दरवाजे की तरफ दौड़ा । दरवाजा खोलकर जगमोहन बाहर निकल भागा ।

पंचम लाल भी पीछे भागा । देखते ही देखते दोनों बाहर निकले ।

तेज धूप में दो पल के लिए उनकी आँखें चौंधियाँ गई । खेतों से गाँव की तरफ जाते कोई भी नजर न आया । परन्तु दो मिनट में ही उन्हें पास ही में राजेन्द्र सिंह बेहोश पड़ा मिल गया । उसके सिर से खून बहकर रुक चुका था । उसका माथा खून से सना हुआ था ।

“ये तो बेहोश है ।”

“गड़बड़ हो गई ।” जगमोहन के दाँत भिंच गए ।

“लानती किधर है ?” पंचम लाल बोला ।

जगमोहन और पंचम लाल ने आस-पास लानती को तलाश किया । परन्तु वो बेहोश पड़ा कहीं न मिला ।

“लानती कहाँ मर गया ।” पंचम लाल बड़बड़ाया – “सोढ़ी भाग गया होगा । लानती पक्का उसे पकड़ने भागा होगा ।” उसकी निगाह जगमोहन पर पड़ी तो जगमोहन के चेहरे को सुलगते पाया उसने ।

दोनों की निगाह मिली ।

“तेरा क्या ख्याल है । बैंक वैन से पैसा कहाँ चला गया ? पैसा तो वैन लेकर चली थी ।”

“बलवान सिंह बताएगा ।” जगमोहन गुर्रा उठा ।

“बलवान सिंह ?”

“उसकी जानकारी में आये बिना पैसा बैंक वैन से गायब नहीं हो सकता ।” कहते हुए जगमोहन पलटकर वापस दौड़ा । पंचम लाल उसके पीछे था ।

दोनों ने खुले दरवाजे से भीतर प्रवेश किया और दरवाजा बन्द कर लिया गया । उनके चेहरे के भाव देखकर देवराज चौहान समझ गया कि मदनलाल सोढ़ी हाथ नहीं लगा ।

“बाहर राजेन्द्र सिंह बेहोश पड़ा है ।” पंचम लाल बोला – “सोढ़ी और लानती का कुछ नहीं पता कि वो किधर है ।”

देवराज चौहान के होंठ भिंच गए । वो फौरन पलटा और बलवान सिंह की तरफ बढ़ा ।

बलवान सिंह, देवराज चौहान के चेहरे के भावों को देखकर काँप उठा ।

“ये कमीना जानता है कि बैंक वैन में से पैसा कहाँ गया ?” जगमोहन के होंठों से गुर्राहट निकली ।

देवराज चौहान चेहरे पर मौत भरे भाव समेटे बलवान सिंह के पास पहुँचा और नीचे झुककर उसके बंधन खोलने लगा । देवराज चौहान के चेहरे के भाव देखकर बलवान सिंह की जान सूख रही थी । चेहरा पीला सा पड़ने लगा था ।

टाँगो में वो हल्का-हल्का सा कम्पन महसूस कर रहा था ।

बंधन खोलकर देवराज चौहान ने उसे बाँह से पकड़ कर टाँगो पर खड़ा किया । इतने में ही बलवान सिंह को अपनी जान निकली महसूस होने लगी थी ।

“वैन में डेढ़ सौ करोड़ की दौलत रख कर चले थे तुम ?” देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर मौत भरे स्वर में कह उठा ।

“हाँ – हाँ ।” बलवान सिंह के होंठों से सूखा सा स्वर निकला – “मैंने अपनी देख-रेख में नोटों से भरे सात सरकारी थैले भीतर रखवाए थे । उसके बाद सोढ़ी भीतर बैठा । दरवाजा भीतर से बन्द किया और मैं वैन लेकर चल पड़ा था ।

“कहाँ हैं वो डेढ़ सौ करोड़ ?” देवराज चौहान ने रिवाल्वर की नाल उसकी छाती पर रख दी – “मदनलाल सोढ़ी के साथ मिलकर रास्ते में कहीं छिपा आये हो या फिर किसके हवाले कर दिए ?”

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इंस्पेक्टर दलिप सिंह, सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह के साथ पंचम लाल के गैराज पर पहुँचा तो सुबह के नौ बज चुके थे । गैराज खुल चुका था । कल वाले दोनों लड़के सफाई कर रहे थे । बाहर पेड़ के नीचे कुर्सी रखे मिस्त्री बैठा था कि पुलिस वालों को आया पाकर फौरन उठ खड़ा हुआ ।

दोनों जीप से उतरकर मिस्त्री के पास पहुँचे ।

“सलाम साहब ।” मिस्त्री जल्दी से बोला ।

“पंचम लाल कहाँ है ?” दलिप सिंह ने पूछा ।

“उस्ताद तो कल का गया अभी तक नहीं आया ।” दोनों लड़के सफाई छोड़कर पास आ पहुँचे थे ।

“क्या कहकर गया था कि कहाँ जा रहा हूँ ?”

“कहना क्या है – जैसे उस्ताद जी अक्सर जाते हैं । वैसे ही चले गए थे ।” दूसरा लड़का बोला ।

“सुना है कोई लानती भी है ।”

“कोई नहीं थानेदार साहब ।” वो लड़का जल्दी से बोला – “लानती एक ही हैं । सब उसे इसी नाम से बुलाते हैं । उस्ताद जी के मुँह लगा है । वो भी उस्ताद जी के साथ गया था । वो भी नहीं आया अभी तक ।”

“पंचम लाल का घर परिवार किधर रहता है ?”

“वे तो कुँआरे हैं थानेदार साहब ।” छोकरा मुस्कुराया – “रहने के लिए गैराज के ऊपर ही दो कमरे डाल रखे हैं ।”

दलिप सिंह ने मिलाप सिंह को देखा ।

“सर जी । मैंने भी तो आपको यही बताया था ।”

दलिप सिंह ने मिस्त्री और दोनों छोकरों को देखा ।

“पंचम लाल का कोई रिश्तेदार तो होगा ?”

“हाँ जी । उनकी बहन लुधियाना के बहुत बड़े आदमी जसदेव सिंह के साथ ब्याही हुई है । सिविल लाइन्स में जसदेव सिंह का बँगला है ।” वो मिस्त्री फौरन कह उठा – “उस्ताद जी तो उन्हीं जसदेव सिंह के साले हैं ।”

“मिलापे ।” दलिप सिंह बोला – “तूने भी तो यही बताया था ।”

“हाँ, सर जी ।”

“थानेदार साहब ।” मिस्त्री बोला – “क्या बात हो गई ? आप उस्ताद जी के बारे में इतनी पूछताछ क्यों कर रहे हैं ?”

“तुम्हारे उस्ताद जी मिल नहीं रहे । उन्हें ढूँढ़ रहे हैं हम ।” मिलाप सिंह ने गोल-मोल जवाब दिया ।

“कैसा बंदा है ये पंचम लाल ?” दलिप सिंह ने पूछा– “रूपये-पैसे के मामले में कैसा है ?”

वे दोनों पंचम लाल के बारे में पूछताछ करते थे ।

आखिरकार दलिप सिंह ने पूछा –

“ये बताओ कि पंचम लाल कहाँ जा सकता है – अपनी बहन के घर पर हो सकता है ?”

“हमें क्या पता । बहन के घर भी जाते ही रहते हैं । वहाँ भी हो सकते हैं ।” मिस्त्री ने बताया ।

“हमें दिखाओ, पंचम लाल और लानती, ऊपर कमरों में कहाँ रहते हैं ?”

वे तीनों दलिप सिंह और मिलाप सिंह को गैराज के पीछे वाले हिस्से में ले गए । जहाँ से ऊपर सीढ़ियाँ जाती थीं ।

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पंद्रह मिनट उन्होंने ऊपर के कमरों की तलाशी ली । ऐसा कुछ नहीं मिला जो उनके काम का हो । उसके बाद वो पुलिस की जीप पर सीधा जसदेव सिंह के बँगले पर सिविल लाइन जा पहुँचे ।

नौकर उन्हें बँगले के भीतर ले गया और उन्हें बिठाया ।

“मालिक तो अभी-अभी काम पर गए हैं ।” नौकर बोला – “मालकिन को भेजता हूँ ।” कहकर नौकर चला गया ।

दोनों बीस मिनट बैठे रहे तब बिल्लो वहाँ पहुँची । सूती सूट पहन रखा था उसने और दुपट्टा ले रखा था । बालों की दो लटें झूलकर उसके चेहरे को आकर्षक बना रही थीं ।

“नमस्ते जी । आपको इंतजार करना पड़ा ।” बिल्लो उनके सामने सोफे पर बैठती हुई बोली – “क्या करूँ, भैंसो का दूध नाप रही थी कि उन्होंने कित्ता-कित्ता दूध दिया है । पूरा हिसाब रखना पड़ता है जी कि कौन सी भैंस ने कम दिया है और किसने ज्यादा । पता तो चले कि कौन सी भैंस डाउन जा रही है ।”

मिलाप सिंह फौरन सिर हिलाकर रह गया ।

“आजकल भैंसे भी तो बहुत तंग करती हैं । कभी तो इतना दूध दे देंगी कि दूध ही खराब हो जायेगा । कभी कम दे देती हैं तो शक हो जाता है कि दूध निकालने वाले ही दूध पी जाते हैं ।”

मिलाप सिंह ने पुनः सिर हिलाया ।

“ये बातें तो होती रहेंगी ।” बिल्लो कह उठी – “आपका आना कैसे हुआ ?”

“पंचम लाल जी आपके भाई हैं ?” दलिप सिंह ने पूछा ।

“पंचम, हाँ मेरा भाई है । क्या कर दिया उसने ?” बिल्लो सम्भली ।

“कुछ काम था उससे । कल से उसे ढूँढ़ रहे हैं । लेकिन मिल नहीं रहा । आपके बारे में पता चला तो यहाँ पूछने आ गए ।”

“कल से नहीं पता चल रहा पंचम का । आजकल अपहरण भी बहुत हो रहे हैं । उठा लिया होगा उसे किसी ने कि उसका जीजा बहुत पैसे वाला है । छोड़ने के वो पैसे दे देगा । छुड़ा लेंगे । मेरे वो पैसे दे देंगे ।”

दलिप सिंह और मिलाप सिंह की नजरें मिलीं ।

“हमने ये नहीं कहा कि उसका अपहरण हो गया है ।” मिलाप सिंह बोला ।

“पता है मुझे कि आपने क्या कहा । ये तो मैं बता रही हूँ कि हो सकता है किसी ने पंचम को उठा लिया हो ।”

“हमें अभी तक ऐसा कुछ नहीं लगा कि उसका अपहरण किया गया हो ।”

“तो फिर कहीं चला गया होगा ।” बिल्लो ने हाथ हिलाया ।

“लानती, वो लानती को तो आप जानती हैं ?”

“हाँ –हाँ, बहुत अच्छी तरह जानती हूँ । पंचम का यार है वो । मेरे हाथ के पराठे खाने आ जाता है । अभी दो-तीन दिन पहले ही ठूस-ठूस कर खा के गया है । बहन कहता है मुझे ।”

“वो भी नहीं मिल रहा ।”

“फिर वो दोनों इकट्ठे ही गए होंगे ।” बिल्लो तुरन्त सिर हिलाकर बोली – “दिल्ली चले गए होंगे । दोनों को ही दिल्ली घूमने का बहुत शौक है । वहाँ कनॉट प्लेस ही घूमते रहते हैं । दो-चार दिन में अपने आप आ जायेंगे ।”

“बहन जी, जब आएँ तो हमें खबर कर देना ।” दलिप सिंह बोला – “मैं अपना फोन नम्बर दे... ।”

“मेरे को क्या कहते हो । उसके गैराज पर बोल दो । पंचम सीधा मेरे पास थोड़े न आएगा ।”

“गैराज पर तो बोल दिया है । अगर यहाँ आये तो... ।”

“कर दूँगी खबर । नम्बर दे जाओ अपना ।”

दलिप सिंह ने अपना नम्बर वाला कार्ड टेबल पर रख दिया और मिलाप सिंह के साथ उठ खड़ा हुआ ।

“जा रहे हो ।” बिल्लो उठते हुए बोली – “चाय-पानी पीना हो तो मँगवा देती हूँ ।”

“नहीं, फिर कभी ।”

“दोबारा जब आओ तो इस वक्त मत आना । सुबह-सुबह चाय-पानी पिलाने में दिक्कत आती है । इस वक्त अपने भी बहुत काम होते हैं । शाम के वक्त आओगे तो पकौड़े भी खिलाऊँगी ।”

“जी, शाम को ही आएँगे ।” मिलाप सिंह हाथ जोड़कर कह उठा ।

दोनों पलटने जा रहे थे कि एकाएक दलिप सिंह ठिठका और जेब से देवराज चौहान, जगमोहन के चेहरे वाले कागज निकालकर खोलता उसके सामने करता कह उठा –

“इन्हें पहचानती हैं आप ?”

बिल्लो ने कागज हाथ में लिए तो चौंकी । उसने देवराज चौहान और जगमोहन को फौरन पहचान लिया था । परन्तु चेहरे के भावों पर उसने तुरन्त काबू पा लिया था । उन कागजों पर से नजरें हटाकर दलिप सिंह को देखा ।

“वो क्या है कि चश्मे के बिना मुझे नजर नहीं आता । कल ही मेरा चश्मा टूट गया था । बनने को दे दिया है । एक-आध दिन में आ जायेगा बन के । तब देखूँगी । आपने फिर आना ही है, पकौड़ो के साथ चाय पीने । ये कागज यहीं छोड़ जाओ फिर बता दूँगी कि इन्हें पहचानती हूँ या नहीं ।”

दलिप सिंह, मिलाप सिंह चले गए ।

बिल्लो उन कागजों को थामे, सिर पकड़ने वाले ढंग में सोफे पर बैठ गई ।

“जेठ जी और देवर जी की तस्वीरें पुलिस वाले लेकर घूम रहे हैं ।” बिल्लो बड़बड़ा उठी – “पुलिस वाले पंचम और लानती को भी पूछ रहे हैं । जरूर इन्होंने मिलकर कोई गड़बड़ की है । मेरे को बेवकूफ बना रहे थे कि साइकिलों की फैक्ट्री खोलने का प्रोग्राम बना रहे हैं । तब वो किसी गड़बड़ को करने का प्रोग्राम बना रहे होंगे और गड़बड़ कर दी । अब पुलिस पीछे है और वे सब छिपे पड़े हैं । बुरे काम का नतीजा भी तो बुरा होता है, भुगतना तो पड़ता ही है ।” बिल्लो के चेहरे पर हल्की सी परेशानी की छाया नजर आ रही थी ।

कुछ पल बैठी रही फिर पोस्टरों की तह लगाती बड़बड़ा उठी ।

“इन्हें छिपा देती हूँ । नौकरों ने देख लिया तो गड़बड़ हो जायेगी । रात को जब ये आएँगे तो इन्हें दिखाऊँगी । भैंसो का झंझट खत्म नहीं होता और ये एक नई बात अब परेशान करने को खड़ी हो गई ।”

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