शाम आठ बजे । अंधेरा होने के पश्चात जयचंद पाटिया आया ।

बातों का सिलसिला चालू हुआ ।

"मालूम हुआ, तीरथराम के बारे में कि वो किस ठिकाने पर है ?" शंकरदास ने पूछा ।

"हाँ...।" जयचंद गंभीर था--- "पाहवा ने तो अपने बंगले को इस समय अपना ऑफिस बना लिया है ।"

"बंगले को ?"

"हाँ...। जबकि उसके पास पचासों ऐसे ठिकाने हैं जहां सुरक्षित ढंग से अपना काम संभाल सकता है ।"

शंकरदास के चेहरे पर सोच के भाव उभरे ।

"जयगणेश" की तबाही पर, उसकी क्या प्रतिक्रिया है ?" सोहनलाल ने पूछा ।

"बहुत बुरी । वो पागल हुआ पड़ा है, जल बिन मछली की तरह तड़प रहा है । तुम लोगों को हर हाल में पाना चाहता है । अपने आदमी उसने तुम दोनों की तलाश में लगा दिये हैं । उसके सख्त आदेश हैं कि तुम लोग पकड़ में न आ सके, तो फौरन ही गोलियों से उड़ा दिया जाये और बाहर की ये हालत है कि तुम लोग आधा घंटा भी सुरक्षित सड़कों पर नहीं चल सकते और उसके आदमियों के घेरे में आ जाओगे।"

सोहनलाल के होंठ सिकुड़  गये ।

"तीरथराम पाहवा का बंगला कहां पर है ?" शंकरदास ने पूछा ।

जयचंद पाटिया ने बताया।

"हमारे रिवाल्वरों की गोलियां लाये हो ?"

जयचंद ने जेबों में से दो लिफाफे निकालकर टेबल पर रख दिये ।

"मेरे ख्याल में गोलियां कम नहीं पड़ेंगी ?" पाटिया बोला ।

दोनों ने कुछ नहीं कहा ।

"अगर तुम लोग उसके बंगले पर जाकर कुछ करने की सोच रहे हो तो मत करना ।"

"क्यों ?"

"वहां तगड़ी सिक्योरिटी है कोई भी भीतर नहीं जा सकता, चला जाये तो बाहर नहीं आ सकता।"

"सिक्योरिटी में कुछ खास भी है ?"

"खास कुछ नहीं ।" गार्ड हैं और गने हैं ।" जयचंद पाटिया ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं खुद चाहता हूँ कि जल्द-से-जल्द पाहवा खत्म हो जाये । परन्तु मैं ये नहीं चाहता कि पाहवा को मारने के चक्कर में तुम लोग खामखाह मर जाओ । तुम दोनों को सख्त कदम उठाने चाहिए । ऐसा कि पाहवा किसी भी हालत में बच न सके । एक ही वार उस पर हो और काम तमाम हो जाये । अगर वो बार-बार बचता रहेगा तो सतर्क हो जायेगा । उसके बाद उस पर हाथ डालना कठिन हो जायेगा । इसलिए वार एक ही होना चाहिए ।

शंकरदास और सोहनलाल की आंखें मिलीं।

"जयचंद ठीक कहता है ।" सोहनलाल बोला ।

"हाँ ।" शंकरदास ने सिर हिलाया--- "पाहवा के बारे में हमें ठंडे दिमाग से योजना बनानी चाहिए । जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए ।"

"ऐसा ही करेंगे ?" कहकर सोहनलाल ने सिगरेट सुलगाई ।

दो पल के लिए वहां पर खामोश ही रही ।

"और मेरे ख्याल में सिर्फ रिवाल्वरों से तुम लोग अपना काम नहीं कर पाओगे ।

"तो...?"

"तुम लोगों को गनों की जरूरत पड़ेगी।"

"जब वक्त आयेगा तो देख लेंगे ? पहले कोई योजना तो बना लें, जयचंद ।" सोहनलाल ने कश लेकर कहा--- "तुम सुन्दरलाल के बारे में जानते हो न, जो हमारे साथ था, जिसे पाहवा के आदमियों ने...?"

"मालूम है...?" सब मालूम है ?"

"पाहवा ने, सुन्दरलाल को कहां रखा है ?" सोहनलाल का स्वर गंभीर था ।

"क्यों...?"

"क्योंकि वो हमारा साथी था ।" सोहनलाल सख्त स्वर में कह उठा ।

जयचंद पाटिया ने समझने वाले अंदाज में सिर हिलाया।

"समझा और अगर तुम लोग सोचते हो कि सुन्दरलाल को जयचंद की कैद से निकाल लोगे तो ये गलती है तुम लोगों की ? पाहवा अपने कैदियों का खास ध्यान रखता है ?" जयचंद ने गंभीर स्वर में कहा ।

"तुम मालूम करके बताओ कि सुन्दरलाल कहां पर कैद है ?" शंकरदास ने कहा ।

जयचंद पाटिया उठ खड़ा हुआ 

"ठीक है ? सुबह नाश्ते पर आऊंगा...?"

"सुन्दरलाल के बारे में मालूम करके...?"

"हाँ...।"

जयचंद पाटिया विदा लेकर वहां से चला गया ।

शंकरदास और सोहनलाल की निगाहें मिलीं ।

"अब...?" सोहनलाल के होंठों से निकला ।

"रात सोकर बिताई जाये तो ठीक नहीं रहेगा ?"

"तो क्या ठीक रहेगा...?"

"हमें पाहवा के बंगले को, वहां की सिक्योरिटी को एक नजर देख लेना चाहिए ।"

"हाँ...।" सोहनलाल ने सिर हिलाया--- "ऐसा करना ही ठीक होगा ।"

"यहां से निकलते ही हमें हर कदम पर सतर्क रहना है। पाहवा के आदमी बिखरे, हमें तलाश कर रहे हैं ।"

"सतर्क तो रहेंगे...?" सोहनलाल मुस्कुराया--- "परन्तु हमारी तलाश वास्तव में भारी पैमाने पर है तो, हम कब तक खुद को बचा सकेंगे । देर-सवेर में उनकी नजर में तो आएंगे ही, तब...।"

"सालों की ऐसी-की-तैसी । शंकरदास ने बहस की स्वर में कहा--- "जो भी सामने आयेगा, कुत्ते की मौत मरेगा । देखते हैं कौन हरामी हम पर हथियार डालने की हिम्मत करता है ।" स्वर में गुर्राहट थी ।

"क्यों तुम्हारी मिलिट्री की पढ़ाई में, उसका भी कोई इलाज बताया गया है ?" सोहनलाल हंसा।

"हाँ...।"

"क्या...?"

"साले के मुंह में रिवाल्वर की नाल घुसेड़ो और घोड़ा दबा दो।"

सोहनलाल गहरी सांस लेकर रह गया ।

उसके बाद दोनों तैयार हुए । जयचंद ने टेबल पर रखे गोलियों से भरे लिफाफे से उन्होंने दो-दो मुट्ठियां भरकर गोलियाँ ठूँसी और बाहर निकल गये ।

■■■

अगले दिन सुबह नौ बजे ही जयचंद पाटिया वहां आ पहुंचा ।

सोहनलाल शंकर दास तब सोते ही उठे थे । पाहवा के बंगले पर निगाह मारकर रात को तीन बजे दोनों लौटे थे और सोते-सोते चार बज गये थे।

"तुम दोनों अभी तक सो रहे हो...? मैं तो सोचकर आया था कि नाश्ता तैयार होगा।"

"तुम्हारे सोचने से क्या होता है ?" सोहनलाल ने लापरवाही से कहा ।

"रात हम बाहर निकल गये थे । पाहवा के बंगले की तरफ ।"

जयचंद पाटिया चौंका ।

"पाहवा के बंगले की तरफ ?"

"हाँ...?"

"क...क्या करने...?" जयचंद अभी तक हक्का-बक्का था ।

"बंगले की सूरत देखने ?" शंकर ने मुस्कुराकर कहा ।

जयचंद पटिया ने समझने वाले भाव में सिर हिलाया ।

"हूँ ? तो क्या लगा वहां पर ?"

"माना कि वहां पर सिक्योरिटी है । परन्तु ऐसा नहीं कि हम अपने कदमों का रुख मोड़ लें।"

"अभी बाहर से, बाहरी रूप देखा है । तभी ऐसा कह रहे हो ?" पाटिया बोला ।

"हमने अपने हिसाब से अच्छी तरह ठोक बजाकर देखा है । जब बाहर का पहरा देख लिया तो भीतर का पहरा भी समझ सकते हैं कि क्या हो सकता है ?" सोहनलाल ने कहते हुए जयचंद पटिया को देखा ।

"कभी-कभी समझने में भूल भी हो जाती है सोहनलाल। और वही भूल मौत का कारण बनती है ?"

"सोहनलाल की गहरी निगाहें पाटिया के चेहरे पर जम गईं ।

"तो तुम ही बता दो, भीतर बाहर के पहरे के बारे में।"

"मालूम होता तो कल शाम ही बता देता । जो मालूम है वो कल रात भी बताया था और अब भी बता रहा हूँ कि यहां पर पांव रखना मौत को दावत देना है ?" जयचंद ने गंभीर स्वर में कहा ।

"तो तुम क्या चाहते हो कि पाहवा को छोड़ दें...।"

"ऐसा मैंने कब कहा ?" जयचंद भाटिया ने मुस्कुराकर कहा ।

"तो...?"

"मेरा कहने का मतलब है उस वक्त का इंतजार करो, कब पाहवा बंगले से बाहर निकलता है । तब उस पर वार कर पाना ज्यादा आसान और ठीक रहेगा।"

"विचार बुरा नहीं ?" शंकरदास ने कहा--- परन्तु इस बारे में हमने क्या कहना है ? कैसे करना है । ये तुम हम पर ही छोड़ दो और राय मत दो । तुम्हारे बार-बार टोकने से हमारा कदम गलत भी हो सकता है जो कि हम लोगों के लिए घातक हो सकता है समझदारी इसी में है कि तड़पने वाले को अकेला छोड़ दिया जाये ।"

जयचंद पाटिया ने मुस्कुराकर सिर हिलाया ।

"शायद तुम ठीक कहते हो ?"

"सुन्दरलाल के बारे में बोलो । मालूम किया उसके बारे में...।" सोहनलाल ने पूछा।

जयचंद पाटिया के चेहरे पर गंभीरता के भाव उभरे ।

"मालूम किया...।" परन्तु इतना ही मालूम हो सका कि अभी तक वो जिंदा है । कहां है, ये नहीं मालूम हो सका...?" कहते हुए जयचंद ने जेब में हाथ डालकर, तह किया कागज निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया--- "इस कागज पर, पाहवा के खास आदमी महेश चन्द का पता लिखा है । महेश चंद ही जानता है कि सुन्दरलाल को कहां रखा गया है...?"

सोहनलाल के चेहरे पर भूचाल के चिन्ह उभरे। उसने फौरन कागज पाया ।

"महेश चन्द ।" सोहनलाल के होंठों से वहशी से जानवर की भांति गुर्राहट निकली ।

"क्या हुआ ?" शंकरदास ने हैरानी से सोहनलाल को देखा ।

"इस हरामजादे ने तो मेरा बिस्तर ही गोल कर दिया था ।" सोहनलाल ने दांत भींचे हुए थे।"

"मैं समझा नहीं ?" शंकरदास की हैरानी कम नहीं हुई ।

"मैं जय गणेश होटल के बंगले की बिल्डिंग के जिस कमरे से ग्रेनेड फेंक रहा था, वहां ये अचानक ही अपने आदमियों के साथ पहुँचा, मुझ पर काबू पाया और मेरे शरीर के गिर्द ग्रेनेड बांधकर खिड़की से बाहर मुझे उछाल दिया ।" सोहनलाल जहरीले स्वर में कह रहा था ।

"क्या बकवास है ?" शंकरदास ने मुंह बनाया--- "इतनी ऊपर से गिरकर कोई बच सकता है...?"

"हाँ...।" सोहनलाल ने कड़वे स्वर में कहा--- "सोहनलाल बच सकता है ।"

शंकरदास ने कुछ कहना चाहा कि जयचंद पाटिया बोल पड़ा ।

"चुप रहो...उसकी बात तो पूरी हो लेने दो...।"

फिर शंकरदास कुछ नहीं बोला ।

सोहनलाल ने सारी आपबीती सुनाई ।

शंकरदास के होंठों से गहरी सांस निकल गई ।

"वास्तव में मरने से, बचाने वाला बड़ा होता है ?"

शंकरदास कह उठा।

जयचंद पाटिया को तो अभी तक विश्वास नहीं आ रहा था कि इतनी ऊपर से गिरकर सोहनलाल बच गया है, परन्तु अविश्वास का भी सवाल पैदा नहीं होता था ।

"अब ये हरामी मेरे हाथों से नहीं बचेगा...?" सोहनलाल ने दांत भींचकर कहा ।

"जो पता मैंने तुम्हें दिया है, ये महेश चन्द का नहीं, उसकी माशूका का है...।" जहां वो हर रात आता है । वहां पर महेश चन्द पर आसानी से काबू पाया जा सकता है। क्योंकि तब उसके साथ सिर्फ दो खास गनमैन होते है ।" वरना, इसके अपने बंगले पर तो पहरे का तगड़ा इंतजाम होता है ।" पटिया बोला ।

"साला...। हर रात माशूका के पास आ जाता है ।" सोहनलाल कहर से बड़बड़ाया--- "और हम हैं कि आज तक माशूका की महक तक भी नहीं ली।"

"अब तेरी उम्र भी नहीं रही ।" शंकरदास ने मुस्कुराकर कहा ।

"और इस बारे में मुझे कोई गिला भी नहीं । हर काम उम्र के हिसाब से होता है । मेरी ये उम्र दौलत इकट्ठी करने की है ।"

"महेश चन्द को कब पकड़ोगे...?" जयचंद ने पूछा ।

"आज रात ही ।"

"कितने आदमी चाहिए...?"

सोहनलाल ने जयचंद पाटिया को घूरा ।

"आदमी...।" क्यों ?"

"रात के काम के लिये ?"

"कोई जरूरत नहीं । हम दो ही बहुत हैं ।" कहने के साथ ही सोहनलाल ने शंकर को देखा ।

शंकरदास सिर हिलाकर रह गया ।

"हथियार...।"

"वो भी हैं ।"

"मेरी मानो तो गन वगैहरा ले लो ताकि...।"

"जरूरत नहीं ।" सोहनलाल ने ऐसे स्वर में कहा कि जयचंद ने फिर कुछ नहीं कहा ।

"यहां महेश चन्द मारा जाये तो, तीरथराम पाहवा को तकलीफ होगी...?" शंकरदास ने पूछा ।

"तकलीफ ? बहुत तकलीफ होगी ।" जयचंद बोला--- "पाहवा के सारे काम वही देखता है । कई काम तो पाहवा को भी मालूम नहीं होते, जिन्हें करता है ।"

शंकर दास का चेहरा क्रूरता से भर उठा।

■■■

रात के ग्यारह बजे सोहनलाल और शंकरदास, जयचंद पाटिया के बताये पते पर पहुंचे । शहर के बीचों-बीच स्थित, महंगे अपार्टमेंट में चौथी मंजिल पर फ्लैट था। अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर वॉचमैन मौजूद था। रात ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था । कुछ लोग यदा-कदा आते जाते दिखाई दे रहे थे । अपार्टमेंट के भीतर शांति थी ।

दोनों ने एक-दूसरे को देखा । वे अपार्टमेंट के सामने सड़क पर फुटपाथ पर खड़े थे । निगाहें एकटक अपार्टमेंट पर टिकी थीं । सब कुछ शांत नजर आ रहा था ।

"महेश चन्द भीतर होगा अपनी माशूका के साथ ?"

"क्या कहा जा सकता है...?" शंकर दास ने विचारपूर्ण स्वर में कहा ।

"जयचंद ने कहा कि उसके साथ दो आदमी होते हैं । उन्हें अपने साथ अपार्टमेंट के भीतर, फ्लैट में तो ले जाने से रहा । जाहिर है, वो बाहर ही होंगे । परन्तु नजर नहीं आ रहे ।"

शंकरदास ने कुछ नहीं कहा ।

"शायद महेश चन्द आज नहीं आया ।"

"उसके दोनों आदमी चारदीवारी के भीतर भी तो कहीं हो सकते हैं । जरूरी तो नहीं कि वो गेट पर वॉचमैन के पास खड़े होंगे । यहां खड़े रहकर हम सिर्फ बातें ही कर सकते हैं ।"

"तो...?"

"भीतर चलते हैं । महेश चन्द की माशूका के पास ।" शंकरदास दृढ़ स्वर में बोला।

सोहनलाल ने शंकरदास के चेहरे पर निगाह मारी ।

"गेट पर खड़ा वॉचमैन हमें जरूर रोकेगा । रात के समय में शोर-शराबा नहीं होना चाहिए । बेहतर होगा कि किसी तरह से चारदीवारी फलांगकर खामोशी से भीतर प्रवेश करें ।"

"जैसा तुम ठीक समझो...।" शंकरदास ने सिर हिलाया ।

"हाँ । सब कुछ दिमाग में रखना है । लेकिन रिवाल्वर को हाथ में ही रखना । कहीं उसे भी सिर में मत रख देना ।" शंकर दास ने होंठ सिकोड़कर, आस-पास देखते हुए कहा।

और फिर अगले दस मिनटों के पश्चात सोहनलाल और शंकरदास दायीं तरफ वाली दीवार फलांगकर भीतर थे । भीतर कंपाउंड में तीव्र प्रकाश वाले बल्ब जल रहे थे । पर्याप्त प्रकाश था ।

"यहां पर इस तरह चलो कि जैसे भीतर रहते हो और रात के समय टहल रहे हो । ऐसे अंदाज में देखकर कोई भी शक नहीं कर पायेगा कि हम बाहर के हैं ।" शंकरदास ने कहा।

बिना किसी दिक्कत के दोनों, अपार्टमेंट के मुख्य द्वार के भीतर प्रवेश कर गये । सामने ही छोटा-सा रिसेप्शन था । जो कि इस समय खाली था । दाईं तरफ लिफ्ट थी और बाईं तरफ सीढियां । दोनों बिना रुके लापरवाही से भरे अंदाज में सीढ़ियों की तरफ बढ़ गये ।

दोनों सतर्क थे । सावधान थे ।  रिवाल्वरें बाहर निकालने को तैयार थे।

परन्तु चौथी मंजिल पर पहुंचने में कोई भी खतरा सामने नहीं आया । अपार्टमेंट में रहने वाले दो-तीन लोग नीचे की तरफ गये भी, किसी ने उनकी तरफ तवज्जो नहीं दी ।

फोर्थ फ्लोर पर पहुंचकर, उन्होंने जयचंद के दिए नम्बर वाला फ्लैट तलाश किया और उसके बंद दरवाजे के सामने जाकर ठिठक गये । दायें-बायें की पूरी गैलरी सुनसान थी ।

दोनों की निगाहें टकराईं । आंखों-ही-आंखों में इशारे हुए ।

सोहनलाल ने डोर की साइड में, दीवार पर लगी बेल बजाई ।

भीतर घंटी बजने की आवाज आई ।

"पूछने पर क्या कहोगे कि कौन हो...? वो सीधे-सीधे तो दरवाजा खोलेगी नहीं ।"

"चुप रहो...।" सोहनलाल ने दबे स्वर में कहा--- "बात मत करो । अगर भीतर वालों को मालूम हो गया कि हम हैं तो फिर दरवाजा कभी भी नहीं खुलेगा । सारा मामला गड़बड़ होकर रह जायेगा ।"

शंकर दास ने फौरन होंठ बंद कर लिये ।

"भीतर से पहले आहट उभरी फिर मध्यम-सा नारी स्वर आया।

"कौन है...?"

"दरवाजा खोलो...।" सोहनलाल का स्वर सामान्य और विश्वास भरा था ।

"क्यों...।"

"मैसेज देना है ।"

"किसका...।"

"तीरथराम पाहवा का...।"

"मेरा पाहवा से कोई वास्ता नहीं है । तुम गलत जगह पर आ गये हो ।" भीतर से आवाज आई ।

"तुम्हारा पाहवा से वास्ता नहीं, मालूम है मुझे । परन्तु उसका वास्ता है जो तुम्हारे पहलू में है । मैसेजे उसके लिए है ।" सोहनलाल ने स्वर में झल्लाहट पैदा की--- "फोन पर भी बात हो सकती थी । परन्तु बात ही कुछ ऐसी थी कि पाहवा ने मुझे ही खुद, यहां भेजा है । अब दरवाजा खोलना है तो खोलो, नहीं तो मैं पाहवा से कह दूंगा कि तुमने दरवाजा नहीं खोला । महेश से बात नहीं होने दी ।" सोहनलाल ने अंधेरे में तीर चलाया था । ये भी हो सकता था कि महेश चन्द भीतर हो ही ना । अभी आया ही ना हो।

"तुम किससे बात करना चाहते हो ? नाम लेकर बोलो ।" युवती का स्वर फिर आया ।

"महेश चन्द से । तुम सवाल बहुत पूछ रही हो । मेरे पास इतना वक्त नहीं कि बाहर खड़ा रहूं। महेश से बात कर लो या उसे दरवाजे तक ले आओ । वह दरवाजा खोल देगा।"

सोहनलाल के इन शब्दों ने असर दिखाया । भीतर बात करने वाली युवती, समझ गई कि आने वाला पाहवा का ही आदमी है, उसने सिटकनी हटाकर दरवाजा खोल दिया ।

दरवाजा खोलते देखकर सोहनलाल और शंकरदास का दिल खुशी से उछल पड़ा ।

फिर सामने इतना खूबसूरत चेहरा नजर आया कि दोनों ही हक्के-बक्के रह गये । ये वास्तव में ऐसी थी कि उसके पास हर रोज आया जाये । महेश चन्द इस बारे में गलत नहीं था । उसने शंकरदास को भी देखा । जाने क्यों दोनों को देखकर उसकी आंखों में संदेह के निशान उभरे।

"ये मेरे साथ है ।" इतना कहकर सोहनलाल हाथ से दरवाजा धकेलकर पूरा खोलते हुए भीतर प्रवेश करता चला गया । युवती को उसने आगे सोचने का मौका ही नहीं दिया।

युवती को विश्वास होने लगा कि मामला गड़बड़ है ।

उधर शंकरदास का हाथ, जेब मे पड़े रिवाल्वर पर जा टिका था ।

युवती की तरह, ये बेहद खूबसूरत ड्राइंग रूम था और खाली था । कम-से-कम महेश चन्द वहां पर नहीं था । सोहनलाल की घूमती हुई निगाह, पुनः युवती पर जा टिकीं ।

"कहाँ है महेश...?" जल्दी बुलाओ उसे । हमें वापस पाहवा के पास भी पहुंचना है ।" सोहनलाल बोला।

"कौन हो तुम लोग ? युवती के होंठों पर से विश्वास भरा स्वर निकला ।

"बताओ तो कि...।"

"नहीं...।" तुम लोग वो नहीं हो जो खुद को बता रहे हो । न ही तुम दोनों को पाहवा ने भेजा है । तुम लोग कुछ और ही हो ।" युवती ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा ।

शंकरदास कुछ कहने ही लगा था कि पीछे वाले कमरे के दरवाजे पर महेश चन्द नजर आया । वहां उन दोनों लोगों को मौजूद पाकर जोरो से चौंका।  चेहरा कई तरह के भावों से भर उठा।

शंकरदास और सोहनलाल की निगाहें उस पर जा टिकीं ।

"ये है महेश चन्द।" सोहनलाल ने क्रूरता भरे स्वर में कहा ।

"इतना तो मैं भी समझ सकता हूँ ।" शंकरदास सख्त निगाहों से महेश चन्द को देख रहा था ।

महेश चन्द हक्का-बक्का था । उसने युवती को देखा ।

"ये लोग भीतर कैसे आये...?"

"कह रहे थे, पाहवा ने भेजा है । तुम्हें मैसेज देना है ।" युवती ने बेचैनी भरे स्वर में कहा ।

"उल्लू की पट्टी, पाहवा के नाम पर तू हर ऐरे-गैरे के लिये दरवाजा खोल देगी ।" महेश चन्द ने दांत पीसकर कहा--- "मैं भीतर था । तू मेरे से बात कर सकती थी...परन्तु नहीं की ।"

युवती ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

महेश चन्द की खूंखार निगाहें शंकरदास पर जा टिकीं ।

"तुम...तुम शायद शंकरदास हो...?"

"अंदाजा अच्छा लगा लेते हो ।" शंकरदास बोला ।

सोहनलाल उसे क्रूर निगाहों से देख रहा था ।

"मुझे समझ नहीं आ रहा है कि तुम जिन्दा कैसे बच गये ? तुम्हें तो ग्रेनेडों से बांधकर काफी ऊपर से नीचे फेंका गया था ।"

"हाँ...काफी ऊपर से नीचे फेंका गया था मुझे तो, बचता कैसे...? ये तो अच्छा रहा कि उसी समय मैं सुपरमैन बन गया और नीचे उड़ता हुआ, वहां से दूर चला गया ।" सोहनलाल ने क्रूर स्वर में कहा।

महेश ने दांत भींच लिये । उसने पुनः शंकरदास को देखा ।

"तुम्हारा-हमारा कोई वास्ता नहीं । फिर तुम हमारे खिलाफ क्यों खड़े हो गये ?"

"कोई तो कारण रहा होगा ?"

"मैं वही कारण जानना चाहता हूँ ।"

"इस बारे में तुम्हें कुछ भी नहीं बताया जा सकता है महेश चन्द...।" शंकर दास ने सख्त स्वर में कहा ।

"यहां का पता तुम लोगों को किसने बताया...।" अब महेश चन्द सामान्य हो चुका था ।

"तेरी खूबसूरत माशूका की खुशबू हमें यहां तक खींच लाई ।" सोहनलाल ने जहरीले स्वर में कहा ।

महेश चन्द की आंखों में क्रूरता चमकी और उसने पलक झपकते ही रिवाल्वर निकाल ली।

परन्तु शंकरदास उसकी हरकत को पहले ही पहचान चुका था । उसके हाथ में भी रिवाल्वर दिखाई देने लगा । पलभर में ही मौत का माहौल बन गया था । दोनों ने एक-दूसरे को खूनी निगाहों से देखा ।

युवती सहमकर पीछे हट गयी, आंखों में आतंक के साये लहरा उठे ।

"अपनी रिवाल्वर जेब में रख लो महेश चन्द ।"  कहते हुए सोहनलाल ने भी रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली--- "हम यहां पर खून-खराबा करने नहीं आये । लेकिन जरूरत पड़ी तो हमें इस पर भी कोई एतराज नहीं ।"

परन्तु महेश चन्द, चेहरे पर खतरनाक भाव लिये, रिवाल्वर तानें खड़ा रहा ।

सोहनलाल ने शंकरदास पर निगाह मारी ।

"रिवाल्वर वापस रखने का कोई इरादा नहीं ।" सोहनलाल ने कहा ।

"परवाह नहीं...।"

"ये गोली चला सकता है।"

"मेरी जिम्मेदारी रही कि ये सिर्फ एक ही गोली चला पायेगा, दूसरी नहीं...।" शंकरदास ने क्रूर लहजे में कहा ।

"मतलब हममें से एक अवश्य जिंदा रहेगा ।" सोहनलाल वहशी हँसी हँसा ।

"शायद दोनों ही रहे । इसका निशाना चूक भी सकता है या फिर गोली ऐसी-वैसी जगह पर लगे की मौत न हो ।"

"हाँ...।" सोहनलाल ने गर्दन हिलाई--- "इस तरफ तो मैंने सोचा ही नहीं ।"

उसकी निगाहें पुनः महेश चन्द पर जा टिकीं । हाथों में रिवाल्वरें  थीं ।

महेश चन्द खुद को अजीब-सी स्थिति में फँसा महसूस कर रहा था ।

"तुम लोग यहां क्यों आए हो...?"

"बात करने...।"

"क्या ?"

"पहले रिवाल्वर जेब में रखो । हथियारों की मौजूदगी में हमें, मुँह से बात करने की आदत नहीं है ।"

"तुम दोनों किसी भी हाल में बच नहीं सकोगे । पाहवा के हाथ बहुत लम्बे  हैं।"

"फालतू की बातें नहीं ।" शंकरदास गुर्राया--- "आराम से बात करना चाहते हो...तो रिवाल्वर जेब में रखो । वरना हम तुमसे पहले चला सकते हैं । अगर तुझे गोली ही मारनी होती तो हम कब की चला चुके होते ।"

महेश चन्द ने दो पल सोचा फिर रिवाल्वर जेब में डाल ली ।

सोहनलाल और शंकरदास ने भी रिवाल्वर जेब मे डाल ली ।

"अब कहो...।" महेश चन्द बोला । वो इन दोनों के प्रति बेहद सतर्क था।

"हमें सुन्दरलाल चाहिए ।" सोहनलाल बोला ।

"सुन्दर लाल...?" महेश चन्द चौंका ।

"हाँ । इस समय वो तुम लोगों की कैद में है, और हम उसे आजाद देखना चाहते हैं । सोहनलाल ने एक-एक शब्द को चबाकर कहा--- "वो जहां भी है, उसे लाकर तुम हमारे हवाले करोगे ।"

महेश चन्द के होंठों पर जहरीली मुस्कान नृत्य कर उठी ।

"मैं सुन्दरलाल को लाकर, तुम लोगों को दूँ...?"

"हाँ...।"

"क्यों...?"  महेश चन्द व्यंग से हंसा ।

अगले पल सोहनलाल और शंकरदास के हाथों में रिवाल्वर चमक उठी।

महेश चन्द चौंका । अगले ही पल बाद ठगा-सा रह गया ।

"अब समझे ।" शंकरदास सख्त स्वर में बोला--- "तुम ये काम क्यों करोगे ?"

"तो तुम लोग रिवॉल्वरों के दम पर जबरदस्ती मुझसे ये काम करवाना चाहते हो...।"

"जैसा भी समझ लो । तुम्हारे इंकार करने पर हम दूसरी बार तुम्हें नहीं कहेंगे । उसी स्थिति में शूट करके चले जायेंगे । सुन्दरलाल का क्या है उसे तो हम जैसे-तैसे वसूल कर ही लेंगे।"

"शंकरदास के स्वर में ऐसे भाव थे कि महेश चंद को समझते देर न लगी कि वास्तव में उसका इंकार, उसकी जान ले सकता है । दो-दो रिवाल्वरों के सामने उसने खुद को बेबस महसूस किया । किसी से इस समय सहायता की आशा भी नहीं थी । बाहर उसके पास दो आदमी मौजूद थे । परन्तु उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि भीतर क्या हो रहा है ?"

महेश चन्द एकाएक फैसला नहीं कर पाया कि क्या करे ? कैसे खुद को बचाये ?

"हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है महेश चन्द ।" सोहनलाल दरिंदगी भरे स्वर में कह उठा--- "या तो हमारा काम करो, नहीं तो हमें जवाब दो । ताकि तेरी खोपड़ी उड़ाकर सुन्दरलाल के लिए कोई दूसरा रास्ता तलाश करें ।"

"मैं...मैं चाहकर भी ये काम नहीं कर सकता ।" महेश चन्द ने विवशता भरे स्वर में कहा ।

"क्यों...तेरे पांव में मेहंदी लगी है क्या ?" सोहनलाल ने पूर्ववतः लहजे में कहा।

महेश चन्द ने उसे देखा, फिर गंभीर स्वर में कह उठा।

"सुन्दर लाल सख्त पहरे में है।  अगर मैंने उसे वहां से निकाला तो, बात पाहवा तक फौरन पहुंचेगी और पूछने पर मैं पाहवा को क्या कहूँगा ? ये जानकर कि, सुन्दरलाल को मैंने तुम लोगों के हवाले किया है...। वो मुझे भूनकर रख देगा । ये बात पाहवा कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगा कि ऐसा कुछ हो ।"

सोहनलाल ने शंकरदास को देखा ।

"ये ठीक कहता है ।" शंकरदास बोला--- "ऐसा करने से तो उसकी जान खामखाह चली जायेगी ।"

शंकरदास ने विचार भरी मुद्रा में सिर हिलाया ।

"ऐसा कोई रास्ता नहीं है कि तुम सुन्दरलाल को खामोशी से, वहां से निकाल लाओ...?"

"नहीं ऐसा संभव नहीं है।"

दो पल के लिए वहां पर खामोशी-सी छा गई ।

"फिर तो ये काम हमें ही करना होगा ।" सोहनलाल बोला ।

"कैसे ?" शंकरदास बोला ।

"इससे उस जगह का पता ले लेते हैं जहां पर सुन्दरलाल है ।" सोहनलाल बोला ।

"माना तुम ठीक कह रहे हो । परन्तु तब तक ये सुन्दर लाल को वहां से हटवा भी सकता है । आखिर है तो पाहवा का ही आदमी । इस समय इसे हमारी रिवाल्वरों ने मजबूर कर रखा है । ये जुदा बात है।"

सोहनलाल ने होंठों को सिकोड़कर, महेश चन्द को देखा ।

"इसे समझा देंगे कि ये ऐसा कुछ न करे। अच्छी तरह से समझा देंगे ।" सोहनलाल बोला ।

"ये समझ जायेगा...?"

"समझाने का ढंग होना चाहिए ।" सोहनलाल की आवाज में कड़वाहट आ गई ।

"ठीक है, देख लो समझाकर, अगर ये समझता है तो...नहीं तो...।" शंकरदास ने शब्द अधूरे ही छोड़ दिये ।

सोहनलाल ने हाथ की उंगलियों में रिवाल्वर नचाकर महेश चन्द को देखा।

"क्यों...बात आई समझ में...?"

महेश चन्द ने होंठ भींच लिये ।

"बता, सुन्दर लाल कहां पर कैद है ? झूठ बोलने की चेष्टा मत करना । हमारी-तुम्हारी कोई दुश्मनी नहीं है । अगर हमसे झूठ बोला तो हम पाहवा को छोड़कर तुम्हारे पीछे लग जायेंगे । वो तो पाहवा है जो अभी तक हमारे हाथों से दूर है लेकिन तुम्हें तो हम घंटों में साफ कर देंगे।

महेश चन्द का चेहरा विवशता से भर उठा ।

अब बोलेगा भी या मुंह बंद रखेगा...।" सोहनलाल गुर्राया ।

"इस मामले में मुंह खोलना मेरे लिए घातक हो सकता है , यदि पाहवा को पता चल गया कि मैंने तुम लोगों को कुछ बताया है तो वो मुझे छोड़ने वाला नहीं । महेश चन्द ने गंभीर स्वर में कहा।

"पहली बात तो ये कि पाहवा को कुछ भी पता नहीं चलेगा । अपनी इस छोकरी को समझा देना कि ये मुंह बंद रखे और दूसरी बात, बार-बार, पाहवा-पाहवा कहना छोड़ो । सीधी बात करो । जल्दी बोलो सुन्दरलाल को कहां पर कैद कर रखा है...?  पता ठीक बोलना...।"

जो भी हो, महेश चन्द को अपनी जान सस्ते में छूटती लगी । वरना यह दोनों से शूट भी कर दें तो हालातों के मुताबिक यह मामूली बात होगी...।

"मेरा नाम तो बीच में नहीं आयेगा...?" महेश चन्द ने पूछा ।

"नहीं बशर्ते कि तुम्हारी दिया पता सही हो...।" सोहनलाल ने सख्त स्वर में कहा--- "अगर तुम्हारा दिया पता गलत हुआ तो तुम्हारी जान बच नहीं सकेगी । मैं पहले भी कह चुका हूँ ।"

महेश चन्द ने पता बताया, जो कि पुरानी-सी कॉलोनी का मकान था ।

"सुन्दर लाल के साथ क्या किया जा रहा है ?" सोहनलाल ने पूछा ।

"उससे तुम्हारे ठिकाने के बारे में पूछा जा रहा है ।" महेश चन्द ने गंभीर स्वर में कहा ।

"यातना देकर...?"

"हाँ...।"

सोहनलाल के जबड़ों में कसाव आ गया । उसने एक निगाह युवती के हसीन चेहरे पर डाली । मामला निपटते देखकर उसके चेहरे पर राहत के भाव आने लगे ।

"सुन्दर लाल इसी पते पर है न...सोच लो महेश चन्द ?" शंकरदास सख्त स्वर में बोला ।

"हाँ ! उसने अभी तक मुंह नहीं खोला कि सोहनलाल कहां है...?"

"कैसे खुलेगा मुँह ! वो तो जानता ही नहीं कि मैं कहाँ हो सकता हूँ ।" सोहनलाल क्रूर स्वर में बोला--- "उसका-मेरा सिर्फ इतना ही रिश्ता था कि मैं उसके घर पर छिपा बैठा था।"

"चंद क्षणों के लिए वहां शांति छाई रही । कोई कुछ नहीं बोला और इसी शांति ने महेश चन्द के मन में बेचैनी भर दी । रह-रहकर उसका हाथ, जेब में पड़े रिवाल्वर को छूने लगा ।

"और तो कोई काम नहीं मेरे से ।" महेश चन्द ने दोनों पर निगाह मारी ।

"एक छोटा-सा काम है ।"  सोहनलाल का स्वर क्रूर था ।

"हमारी तुमसे कोई दुश्मनी नहीं थी । सीधे-सीधे तुमसे दुश्मनी नहीं थी। पाहवा के द्वारा ही, हमारे बीच तनाव पैदा हुआ । तनाव वाला मामला भी चल जाता । हम तुम्हें जिंदा छोड़ जाते, मगर तुमने मुझे ग्रेनेडों के साथ बांधकर खिड़की से बाहर, मरने के लिए न फेंका होता।" सोहनलाल का स्वर ठंडा था ।

महेश चन्द की आंखें सिकुड़ गईं ।

"तुमने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी । पूरा-का-पूरा वार दिया था मुझे । ये तो मेरी किस्मत अच्छी रही थी कि उसी समय मैं सुपरमैन बन गया, और बच गया, तब हम दोनों के बीच जाति दुश्मनी की नींव पड़ गई थी । तुमने कैसे सोच लिया कि जिसे तुमने मारने की चेष्टा की वो तुम्हें जिंदा छोड़ जायेगा ?"

महेश चन्द के होंठ भिंच गये ।

"परन्तु सुन्दरलाल का पता जानने के पश्चात तुमने मुझे न मारने का वायदा किया था।"

"वायदा ।" सोहनलाल का स्वर खतरनाक हो गया--- "तुम लोग खामखाह मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गये और फिर ये आशा करते हो कि मैं अपने वायदे पर डटा रहूँ ? ये कैसे हो सकता है, कमीने लोगों के साथ वायदे भी कमीनेपन के किये जाते हैं, जिसका कोई सिर-पैर नहीं होता । मेरा वायदा भी ऐसा था ।"

महेश चंद के होंठों से गुर्राहट निकली।

"अपने वायदे को झूठ मत बनाओ, ये अच्छी बात नहीं ।"

"मैं तो हूँ ही झूठा आदमी ।" सोहनलाल मौत की-सी हँसी हँस पड़ा--- "झूठ का ही खाता हूँ। हर नये शहर में जाकर कभी बम्बई वाला सोहनलाल बन जाता हूँ तो कभी वर्दी डालकर झूठा पुलिसवाला । यानी कि मेरा धंधा ही झूठ पर टिका हुआ है । झूठा वायदा तो मेरे धंधे की कील है ।"

महेश चन्द की मुद्रा में कोई फर्क नहीं आया ।

"नहीं बेबी । तभी शंकर दास का सर्द स्वर निकला--- "अपनी जगह से मत हिलो ।" शंकरदास के हाथ में भी रिवाल्वर आ गई । युवती अपनी जगह पर खड़ी हो गई।  उसके सरकते कदम रुक गये । वो दीवार के पास मौजूद दराज वाली टेबिल के बेहद करीब पहुंच चुकी थी । शंकरदास के टोकते ही उसका चेहरा फक्क पड़ गया था ।

सोहनलाल और महेश चन्द की निगाहें उसकी तरफ घूम गई थीं ।

"वापस आओ ।"

शंकरदास के शब्द सुनते ही, युवती लड़खड़ाती हुई पीछे हटकर वापस आ गई।

शंकर आगे बढ़ा । टेबिल के समीप पहुंचकर ठिठका और उसकी दराजें खोलने लगा । बीच वाली दराज में ऊपर ही रिवाल्वर मौजूद थी । शंकरदास ने रिवाल्वर को हाथ नहीं लगाया और सारे दराज बंद करके पलटा और युवती को देखने लगा । भय से युवती का चेहरा हल्दी की तरह पीला पड़ गया था।

सोहनलाल की एक आंख महेश चन्द पर थी । महेश चन्द के प्रति वो पूरी तरह से सतर्क था । जरा-सी चूक भी, महेश चन्द के रिवाल्वर से निकली गोली उसकी जान ले सकती थी और वो अपनी जान को किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहता था।  खासतौर से तब तक जबकि सारी बाजी उसके हाथ में थी।

और महेश चन्द भी मौका ढूंढ रहा था । रिवाल्वर निकालने का उसे पूरा विश्वास था । कि अगर जेब में पड़ी रिवाल्वर उसके हाथ में आ गई तो वो इस मौत के खेल को अपने हक में पलट देगा । वो इस बात को भी महसूस कर चुका था कि सोहनलाल उसके प्रति पूरी तरह सतर्क है । अगर उसने जरा भी हरकत करने की चेष्टा की तो, सोहनलाल फौरन उसे शूट कर देगा । फिर भी वो इस चेष्टा में था कि रिवॉल्वर निकाल सके।

युवती भयभीत निगाहों से, शंकरदास को देखे जा रही थी । उसके चेहरे पर मंडराते आतंक के साये और भी गहरे हो गये थे । रह-रहकर वो सूखे होंठों पर जीभ फेर रही थी ।

शंकरदास उसके करीब पहुंचकर ठिठका और हाथ में पकड़ी रिवाल्वर की नाल उसकी ठोड़ी पर लगाते हुए मौत से भरे स्वर में कह उठा--- "तुम्हारी उम्र रिवाल्वरों से खेलने को नहीं है । बैड पर खेलने की है, अपनी उम्र से चार कदम आगे चलने से इंसान कभी-कभी अपनी जान गंवा बैठता है ।"

युवती के चेहरे पर जमे आतंक के साये और भी गहरे हो गये । उसकी सांस फँसने लगी।

"अब यहां से हिलना नहीं । आगे की तरफ भी नहीं, पीछे की तरफ भी नहीं, वरना...।"

शंकरदास की आवाज में भाव ऐसे थे कि युवती सिर से पांव तक सिहर गई ।

शंकरदास पलटा ।

यही वो क्षण था, जब सोहनलाल मात्र पल भर के लिए महेश चन्द के प्रति लापरवाह हुआ और महेश चन्द को भी पल भर का ही वक्त चाहिए था । उसने बिजली की फुर्ती से रिवाल्वर निकाली । सीधी की और बिना किसी देरी के ट्रेगर दबा दिया । सब कुछ सपने की भांति फौरन हो गया।

उधर जब शंकरदास पलटा तो उसने महेश चन्द को हरकत में आते देखा।  तब तक महेश चन्द रिवाल्वर निकाल चुका था । शंकरदास को इस बात का अहसास था कि मौत सामने खड़ी हो तो अपनी जान बचाने के लिए चूहा भी शेर हो जाता है । फिर वो तो महेश चन्द था ।

शंकरदास ने सोचने की जरूरत नहीं समझी। फौरन ट्रेगर दबा दिया ।

एक साथ दो फायर हुए । कानों को फाड़ देने वाले धमाकों ने कमरे को जैसे हिला दिया हो।

शंकरदास ने महेश चन्द पर फायर किया और महेश चन्द ने सोहनलाल पर । दोनों के फायरों में मात्र दो पलों का अंतर था।  शंकरदास के रिवाल्वर से निकली गोली महेश चन्द के गले की हड्डी को तोड़ती हुई बाहर निकल गई, महेश चन्द फायर करते समय महसूस कर चुका था कि शंकरदास उस पर फायर करने जा रहा है । परन्तु इस सिलसिले में वो फौरन कुछ नहीं कर सकता था।  इन्हीं सोचों और घबराहट में उसका हाथ हिल गया और उसकी चलाई गोली सोहनलाल के सिर के करीब से बालों को झुलसाती हुई निकल गई । सोहनलाल बाल-बाल बचा।

युवती के होंठों से मौत भरी चीख निकल गई ।

सोहनलाल और शंकरदास की आंखें मिलीं ।

"गोली की आवाज हो चुकी है, अब यहां रुकना ठीक नहीं ।" सोहनलाल बोला ।

"हमारा काम भी पूरा हो गया है, चलो ।"

"ये ?" सोहनलाल का इशारा युवती की तरफ था ।

"रहने दो इसे । शंकरदास ने कहा--- "इसकी जान लेने से हमें क्या फायदा ?"

"ठीक है । लेकिन इसे पांवों पर खड़े छोड़ना हमारे हक में ठीक नहीं होगा । ये पाहवा को खबर कर सकती है कि हम सुन्दरलाल के पास जा रहे हैं ।" सोहनलाल ने गंभीर स्वर में कहा ।

शंकरदास ने तुरन्त सहमति भरे भाव से सिर हिलाया ।

"मैं इसका ऐसा इंतजाम कर जाता हूँ कि कम-से-कम चार घंटे ये बेहोश ही रहे।"

"सिर पर चोट मारोगे...।" शंकरदास ने पूछा ।

"हाँ ।"

"ठहरो, ये काम मैं तुमसे बेहतर कर सकता हूँ ।" कहकर शंकरदास युवती की तरफ बढ़ा ।

युवती की दबी-दबी-सी चीख निकली ।

"भगवान के लिए मुझे मत मारो...प्लीज । मैं...।"

"चुप...।" शंकरदास के होंठों से गुर्राहट निकली ।

युवती के दांत आपस में चिपक गये । आंखों में खौफ ही खौफ था।

"घूमो...।"

"मैं...।"

"सुना नहीं तुमने ।" शंकरदास का स्वर क्रूर स्वर हो उठा ।

काँपती टांगों से युवती मुड़ी । शंकरदास ने होंठ भींचकर, एक के बाद एक हाथ में दबी रिवाल्वर की नाल से दो चोटें उसकी कनपटी पर मारी ।

युवती चीख भी नहीं सकी । दोनों हाथों से उसने सिर दबा लिया । घुटने मुड़े और नीचे जा गिरी । वो बेहोश हो चुकी थी।

कनपटी से थोड़ा-सा खून बह उठा था।

"अब ये कुछ घंटे होश में नहीं आयेगी ।" शंकर दास ने कहा ।

"निकलो यहां से ।" सोहनलाल जल्दी से बोला--- "फायरों की आवाज सुनकर, उसके बाद मौजूद आदमी आते ही होंगे और हम सीढ़ियों से नीचे जाएंगे । जल्दी करो जल्दी...।"

उसके बाद सोहनलाल और शंकरदास निकले । वक्ती तौर पर उन्होंने रिवाल्वर जेबों में डाल दी थी । बाहर गैलरी में दो-चार लोग नजर आये जो कि शायद गोलियाँ चलने की आवाज सुनकर बाहर आ गये थे, परन्तु ये नहीं समझ पा रहे थे कि गोलियाँ चली कहां हैं।

दोनों उनकी तरफ ध्यान दिए बिना ही सीढ़ियों की तरफ बढ़ गए और अगले दो मिनट में वो अपार्टमेंट से बाहर थे । किसी से भी उनका टकराव नहीं हुआ था।

■■■

ठीक एक घंटे बाद सोहनलाल और शंकरदास उस मकान के आगे मंडरा रहे थे, जिसका पता महेश चन्द ने उन्हें दिया था और बताया था कि सुन्दर लाल यहां पर कैद है । मध्यमवर्गीय इलाके का मकान था । वास्तव में ये जगह ऐसी थी कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये तीरथराम पाहवा जैसी हस्ती का ठिकाना हो सकता है और यहां किसी को कैद करके रखा जा सकता है ।

दोनों की निगाहें मिलीं।

"यहां तो कोई चेहरा ही नजर नहीं आ रहा ।" सोहनलाल बोला ।

"मैं भी यही सोच रहा हूँ । शंकरदास अंधेरे में निगाहें दौड़ाता हुआ कह उठा ।

"सुन्दर लाल यहां होगा भी कि नहीं...। कहीं महेश चन्द ने गलत पता तो नहीं बताया ।"

शंकरदास ने सोहनलाल के चिंतित चेहरे पर निगाहें मारीं।

"कुछ भी हो सकता है । महेश चन्द ने अगर गलत पता बताया हो तो कोई बड़ी बात नहीं।" शंकर दास ने कहा--- "वो हमसे हर गलत बात करने की, झूठ बोलने की स्थिति में था, क्योंकि हम एकदम उसके सच-झूठ की जांच नहीं कर सकते थे, और ऐसा करके महेश चन्द वक्ती तौर पर अपनी जान बचा सकता था ।"

"छोड़ो उस हरामजादे की बात ।" सोहनलाल ने घड़ी पर निगाह मारी । रात का एक बज चुका था--- "आओ भीतर चलते हैं । हम सही जगह पर हैं या गलत जगह पर, सामने आ जायेगा ।"

सोहनलाल ने आगे बढ़ना चाहा कि शंकरदास ने उसे फौरन टोका।

"हमारी मिलिट्री सर्विस के दौरान एक बात कूट-कूटकर हमारी खोपड़ी में भर दी जाती है कि दुश्मन को कमजोर मत समझो और उसके ठिकाने पर आंख बंद करके मत जाओ ।"

"लेकिन अभी ये बात स्पष्ट नहीं हुई कि यहां हमारे दुश्मन का ठिकाना है ।"

"इसलिए तो इस जगह को हमें दुश्मनों का ठिकाना समझना चाहिए ।" शंकरदास ने गंभीर स्वर में कहा---

"अगर ये हमारे काम की न हुई तो तब इसे हम दुश्मनों का ठिकाना नहीं समझेंगे ।"

सोहनलाल ने शंकरदास की बात के पश्चात मकान पर पुनः बाहरी निगाह डाली । वहां के एक कमरे की लाइट रोशन थी । भीतर किसी प्रकार की हलचल महसूस हो रही थी।

"मेरे ख्याल से पिछली तरफ से भीतर जाना चाहिए ।" सोहनलाल बोला ।

मकान के दायें-बायें अन्य मकान सेट थे, सिर्फ उनके पीछे और आगे मकान खुला था । आगे की तरफ बड़ी गली का हिस्सा था और पीछे की तरफ छोटी-सी गली थी ।

"चलो...।" शंकरदास ने गम्भीर स्वर में कहा ।

दोनों गली से बाहर निकलकर, चक्कर काटते हुए मकान के पिछले हिस्से की छोटी गली में पहुँचे, और उसी मकान के पीछे वाले हिस्से में, मकान का पिछला दरवाजा भी था, जो कि बंद था । दोनों ने एक-दूसरे को देखा फिर रिवाल्वर निकालकर मुँह में दबाई और हल्की-सी छलांग लगाकर उन्होंने दीवार की मुंडेर थामी जो कि मात्र सात फीट ऊँची थी।

चंद ही पलों के उपरांत वो दोनों मकान की चारदीवारी के भीतर थे ।

दाँतों में फंसी रिवाल्वरें पुनः हाथों में आ गयी थीं। दोनों बेहद सतर्क थे । मकान के पीछे वाले भाग में बिल्कुल अंधेरा था । सामने छोटी-सी लॉबी थी । बायीं तरफ किचन था और दायीं तरफ बाथरूम वगैरह । दोनों कुछ पलों तक वहीं खड़े रहे।

फिर सोहनलाल आगे बड़ा लॉबी में पहुँचकर ठिठका, निगाहे चारों तरफ घूम रही थीं । शंकरदास वहीं पर रिवाल्वर थामें, हर प्रकार के खतरे के प्रति सजग था । एक तरह से उसने सोहनलाल को पीछे से कवर कर रखा था । लॉबी में जब सोहनलाल की आंखें अंधेरे में देखने में अभ्यस्त हो गईं तो उसकी निगाहें अलग-अलग बने दरवाजों पर जा टिकीं, जो मकान के भीतर खुलते थे और छोटी-सी लॉबी के कोने में थे।

सोहनलाल आगे बढ़ा । बेआवाज, फिर वो बंद दरवाजों के समीप पहुंचकर ठिठका । हाथ से दोनों दरवाजों को खोलने की चेष्टा की हैंडिल दबाए, परन्तु दोनों ही दरवाजे भीतर से बंद थे ?" शंकरदास उसके कानों में फुसफुसाया ।

सोहनलाल ने सहमति से सिर हिलाया ।

"कैसे खुलेंगे...?"

"इसकी चाबी मिल जाए तो तुरन्त खुल जायेगे ।" सोहनलाल ने व्यंग से कहा ।

शंकरदास होंठ भींचकर रह गया।

"अब तो एक ही रास्ता था कि सामने की तरफ से जाकर ही दरवाजा खटखटाया जाये ।" शंकरदास ने दृढ़ स्वर में कहा--- "फिर जो भी होगा देखा जायेगा ।"

"मेरे ख्याल से इस हारामी महेश चन्द ने हमें गलत पता बताया है ।" सोहनलाल ने दाँत भींचकर कहा ।

शंकरदास ने उसकी इस बात का कोई जवाब नहीं दिया ।

"आओ, सामने की तरफ चलते हैं।" शंकरदास ने कहा ।

"एक रास्ता है ।"

"क्या ?"

"दरवाजे पर लगे हैंडिल के पेंच खोलकर, हम सिटकनी को बेकार कर सकते हैं, दरवाजा खोल सकते हैं, परन्तु दिक्कत यह है कि पेंचों को खोलने के लिए हमारे पास पेचकस नहीं है।"

शंकरदास विचार भरी निगाहों से सोहनलाल को देखने लगा ।

"पेचकस तो इस समय कहीं से भी नहीं मिल सकता ।"  आखिरकार शंकरदास बोला।

"नहीं मिल सकता...?"

"नहीं ।"

"ठीक है, तुम यहीं रुको, मैं अभी आता हूँ ।" कहते हुए सोहनलाल ने रिवाल्वर जेब मे डाली और पलटा ।

"लेकिन...।"

"मेरे आने का इंतजार करो । कुछ ही देर में आ जाऊंगा।"  कहने के पश्चात सोहनलाल आगे बढ़ा और दीवार फलांगकर जिस तरह भीतर आया था, उसी तरह बाहर निकल गया।

फिर बीस मिनट के बाद सोहनलाल वापस लौटा पेंचकस के साथ ।

"कहाँ से लाये...?" शंकरदास की आवाज में अजीब से भाव थे।

"बहुत आसान बात है, रात को इस समय लगभग हर घर में ही दो पहिए वाले स्कूटर खड़े होते हैं और लगभग आधे स्कूटरों की डिग्गी में ऐसा सामान मौजूद होता है ।"

"ओह ।" शंकर दास मुस्कुराया--- "इस तरफ तो मैंने सोचा ही नहीं था...।"

"कैसे सोचोगे, मिलिट्री में रहे हो, ऐसी उल्टी बातें सोचना तो हम लोगों का काम है।"

वो दोनों बेहद ही धीमें स्वर में फुसफुसाते हुए बातें कर रहे थे ।

सोहनलाल पेंचकस थामे नीचे झुक गया और अंधेरे में ही सिटकनी तलाश करके, पेंचकस से उसे खोलने में जुट गया । अंधेरे के कारण समय भी ज्यादा लग रहा था और काम भी सही प्रकार से नहीं हो पा रहा था । सोहनलाल इस बात का पूरा ध्यान रख रहा था कि पेंचकस स्लिप होकर दरवाजे पर लगकर आवाज पैदा न करे । इससे भीतर वाले सावधान हो सकते हैं ।

शंकरदास झुककर बोला ।

"लाइट जला दूँ...? सामने स्विच बोर्ड है ।"

"नहीं ।" सोहनलाल ने सिर हिलाया--- "लाइट ऑन होने से भीतर वाले सावधान हो सकते हैं ।"

"बिना लाइट के तुम काम नहीं कर पाओगे।  तकलीफ होगी और...।"

"मेरी फिक्र मत करो, ज्यादा से ज्यादा वक्त लग जायेगा । उसकी कोई बात नहीं, हमारे पास वक्त-ही-वक्त है ।" सोहनलाल ने लापरवाही से कहा और अपने काम में व्यस्त हो गया।

शंकरदास पास खड़ा रिवाल्वर थामें आस-पास निगाहें दौड़ाता रहा ।

सोहनलाल सावधानी से अपने काम में व्यस्त हो गया ।

शंकरदास पास खड़ा रिवाल्वर थामें आस-पास निगाहें दौड़ाता रहा ।

सोहनलाल सावधानी से अपने काम में जुटा रहा।

एक घंटे से कुछ मिनट ऊपर ही लगे, सोहनलाल को अपना काम निपटाने में, काम तो मामूली ही था, दो पेंचों  को खोलना, परन्तु चंद दिक्कतें उसके सामने थीं । एक तो अंधेरा और फिर दरवाजे के एक तरफ ही उसे सपोर्ट थी, अगर दोनों तरफ से सपोर्ट होती तो दूसरी तरफ से पेंचों में पेंच-चाबी लगाकर, मिनट भर में ही दोनों पेंच खोल देता।

फिर भी ये उसकी काबिलियत का ही नमूना था कि इस तरह इतने कठिन काम को उसने करीब एक घंटे में ही निपटा डाला था । ये जुदा बात थी कि वो सिर से पांव तक पसीने-पसीने हो उठा था । पेंचों के खुलते ही सिकनी लटक गई थी । उसकी ग्रिप समाप्त हो गई थी । और उसका लॉक जुदा-सा हो गया था । सोहनलाल पेंचकस एक तरफ रखकर उठा । बैठे-बैठे उसका जिस्म अकड़ गया था । उठकर जिस्म को सीधा करने लगा ।

अब दरवाजे को सिर्फ धकेलने की जरूरत थी कि उसने पूरा खुल जाना था ।

शंकरदास का चेहरा तसल्ली से भरा था कि काम सफलता पूर्वक निपट गया है। मेहनत और समय बर्बाद नहीं हुआ ।

उसने भीतर जाने की जल्दी नहीं की । वो सोहनलाल को फ्रेश होते देखता रहा । दो मिनट में ही सोहनलाल ने अपना अकड़ा जिस्म दुरुस्त कर लिया था ।

"चलो...।" शंकर दास धीमे स्वर में फुसफुसाया ।

जवाब में सोहनलाल मुस्कुराया और जेब से रिवाल्वर निकालकर आहिस्ता से आगे बढ़कर दरवाज़े को धकेला, वो खुलता चला गया । करीब आधा खुला।

सोहनलाल ने भीतर कदम रखा ।

तभी उसकी कमर से रिवाल्वर की नाल आ लगी । रिवाल्वर लगाने वाला आधे खुले दरवाजे के पीछे था । सोहनलाल ठिठका, उसके कदम लगभग जड़ होकर रह गये ऐसी स्थिति की तो उसने कल्पना भी नहीं की थी । तभी उसके कानों में खतरनाक स्वर पड़ा ।

"हिलना नहीं...।"

सोहनलाल का इरादा तो वैसे भी हिलने का नहीं था ।

शंकरदास ने अभी भीतर प्रवेश नहीं किया। वहां मिलिट्री मैन था और इस प्रकार के खतरों के प्रति अक्सर सजग रहता था । सोहनलाल की कमर से उसने रिवाल्वर लगते देख ली। वो सतर्क-सा होकर दरवाजे के बाहर ही दीवार की तरफ सरककर दीवार की ओट में चिपक गया था । रिवाल्वर उसके हाथ में थी । वो पचास बरस का खतरनाक-सा  नजर आने वाला व्यक्ति था।

"मुंडी सीधी कर...।" वो गुर्राया ।

सोहनलाल ने फौरन हड़बड़ाकर सिर सीधा कर लिया ।

"तेरा साथी कहाँ है...?" वो उसी खतरनाक लहजे में बात कर रहा था ।

"साथी...।" सोहनलाल के होंठों से निकला और सिर पीछे को घुमाया । शंकरदास उसे नजर नहीं आया । वो समझ गया कि भीतर खतरे को देखकर शंकरदास दायें-बायें हो गया है । सोहनलाल ने गर्दन सीधी की फिर चेहरे पर हैरानी लाकर बोला--- "तुम किस साथी की बात कर रहे हो...?"

"जिससे तुम बात कर रहे थे ।" वो दाँत भींचकर बोला ।

"पागल तो नहीं हो गये तुम। मैं किसी से बातें नहीं कर रहा था । भला मेरे साथ कौन होगा ?"

"ज्यादा चालाक मत बनो, मैंने अपने कानों से बातों की आवाज सुनी है ।"

सोहनलाल ने सिर हिलाया और समझने वाले भाव से बोला।

"अब समझा, तुमने बातों की जो आवाज सुनी है, ये दो की नहीं, एक की है । मुझे अकेले में खुद से बातें करने की आदत है ।"  सोहनलाल ने बेहद संजीदगी भरे स्वर में कहा ।

"बकवास करते हो, मैं...।"

"मेरे भाई ।" सोहनलाल उसकी बात काटकर शांत स्वर में कह उठा--- "मैं जो कह रहा हूँ, सच कह रहा हूँ, मेरा विश्वास करो, झूठ बोलने का मुझे क्या फायदा । अगर विश्वास नहीं आता तो बाहर जाकर देख लो ।"

कई पलों के लिए उनके बीच शांति रही ।

"कौन है तू...?"

"देख भाई...।" कहकर सोहनलाल पलटने को हुआ कि उसकी कमर में रिवाल्वर का दबाव बढ़ गया।

"वैसे ही खड़ा रह ।" गुर्राहट उसके कानों में पड़ी ।

सोहनलाल पुनः पहले की-सी स्थिति में आ गया ।

"जो कहना है इसी तरह खड़े-खड़े कह, और अपने हाथ में पकड़ी रिवॉलवर को गिरा दे । अपने से कम-से-कम छः फिट दूर। उसके स्वर में सख्ती और खतरनाक भाव थे। वो बेहद सतर्क था।

सोहनलाल ने बिना कुछ कहे रिवाल्वर सामने उछाल दी । वो पाँच फीट दूर जा गिरी । रिवाल्वर गिरने की, आवाज उभरी, फिर शांति छा गई ।

"अब कह ।"

"मैं कह रहा था । कि मैं मामूली-सा चोर हूँ और यहां चोरी...।"

"मामूली-सा चोर ।" उसने दाँत भींचकर कटु स्वर में कहा---- "रिवाल्वर रखने वाला, मामूली-सा चोर ? वाह क्या बात कही है...शायद तुम्हें मालूम नहीं कि मामूली से चोर रिवाल्वर नहीं रखते ।

"आजकल रखते हैं ।"

"रखते हैं ?"

"हाँ । आजकल रखते हैं ? क्योंकि चोरों को भी लोग डाकू समझ कर, मार-मार कर पूरी तरह मार ही देते हैं । इसी कारण रिवाल्वर मैंने रखनी शुरू कर दी कि ऐसा मौका आये तो अपनी जान बचाई जा सके।"

"साला उल्लू का पट्ठा, चलाता है मुझे । क्या नाम है तेरा ?"

"भजन सिंह ।"

"हूँ । तू अकेला है...।"

"कितनी बार पूछेगा । बाहर जाकर देख ले ।" सोहनलाल का स्वर तीखा हो गया।

उसने कुछ नहीं कहा। कई पलों तक वहां चुप्पी रही। सोहनलाल बोला ।

"तेरा चेहरा और रिवाल्वर होना बता रहा है कि तू भी कोई शरीफ आदमी नहीं है ।"

"तो...?"

"मुझे इजाजत दे, मैं चलूँ, रात हुई पड़ी है, जाकर कोई और शिकार देखूँ । यहां आकर गलती कर दी मैंने ।"

"तू कहीं नहीं जायेगा ।"

"क्यों मेरे धंधे का सत्यानाश करता है ? कुछ कमा लेने दे मुझे ।" सोहनलाल जोर से बोला ।

"चले जाना, परन्तु हमें तसल्ली होने के पश्चात कि तू वास्तव में चोर ही है, कोई और नहीं है और तेरा यहां आने का मकसद वास्तव में चोरी करना ही था ।" वो सख्त स्वर में बोला।

"और ये तसल्ली कैसे होगी, झूठ-सच पकड़ने वाली मशीन है, तुम्हारे पास ?"

"मेरे साथी आने वाले हैं, वही इस बात का फैसला करेंगे, मैं इस बारे में अकेला फैसला नहीं कर सकता ।"

"यार क्यों बात को बढ़ा रहा है, मेरी बात मान और मुझे जाने दे । मेरी रात छोटी मत कर, धंधे का...।"

"चुप रह ।" वो गुर्राया ।

सोहनलाल खामोश हो गया ।

"भीतर चल दूसरे कमरे में दायीं तरफ वाले दरवाजे की ओर ।"

सोहनलाल ने लम्बी-सी साँस ली और शराफत से उसके कहे मुताबिक आगे बढ़ गया ।

वो व्यक्ति दरवाजे की ओर से निकला और पलटकर बाहर की तरफ देखा, जहां से सोहनलाल आया था । वहां उसे कोई नजर न आया । पल भर सोचता रहा कि उसने हर हाल में दो व्यक्तियों की बातें सुनी है ,बेशक मध्यम और कठिनता से सुनी थी, हो सकता है कि वो चोर ठीक कह रहा हो और उसे अपने आपसे बातें करने की आदत है ।"

"भाई मेरे, मैं अकेला ही हूँ ।"  सोहनलाल की सामान्य आवाज उसके कानों में पड़ी । उसने गर्दन घुमाकर सोहनलाल को देखा--- "नहीं विश्वास तो बाहर जाकर अच्छी तरह देख ले ।"

उसने सिर को झटका दिया और रिवाल्वर थामे सोहनलाल की तरह बढ़ता हुआ बोला।

"माना कि तू अकेला है आगे चल, रुक मत ।"

रिवाल्वर के साए में सोहनलाल ने भीतर प्रवेश किया, परन्तु भीतर की हालत देखते ही चौंक पड़ा, ठिठका-सा रह गया । सामने ही कुर्सी पर सुन्दरलाल मौजूद था । उसके हाथ-पांव बंधे हुए थे । बुरी हालत थी उसकी । शरीर पर जख्मों के निशान थे, चेहरे की बुरी हालत थी, एक आंख सूजकर नीली पड़ी हुई थी । स्पष्ट नजर आ रहा था कि उसे तगड़ी मार मारी जा रही है, उसका ठिकाना पूछने के लिए जो कि वो जानता ही नहीं था।

वो दूसरी कुर्सी पर जाकर बैठा था ।

"ये कौन है ?" सोहनलाल ने पलटकर उसे देखा ।

उसके चेहरे पर कड़वे भाव आ गये 

"ये भी तुम्हारी तरह चोर है ।"

"चोर ?" सोहनलाल  चौंका।

"हाँ । नही करता है ये, परन्तु हमें विश्वास नहीं आया इसलिए अब उसे बांधकर पूछा जा रहा है । इसकी असलियत क्या है । आज जब तक ये नहीं बतायेगा, तब तक इसकी यही हालत रहेगी ।"

"हो सकता है ये वास्तव में चोर ही हो...।"

"कुछ भी हो सकता है ।" उसने खतरनाक स्वर में कहा--- "तुम इसे जानते हो...?"

"नहीं ।" सोहनलाल ने सिर हिलाकर लापरवाही से कहा--- "इसे मैंने पहली बार देखा है ।"

"चल कुर्सी पर बैठ जा...।"

सोहनलाल आगे बढ़ा और कुर्सी पर बैठ गया ।

उस व्यक्ति ने कुर्सी खींची और दरवाजे के पास सरककर बैठ गया । रिवाल्वर उसके हाथ में रही।  वो सावधान था और रिवाल्वर का रूख सोहनलाल की तरफ था । सोहनलाल के तसल्ली भरे चेहरे देखकर उसके मन में बार-बार यही आ रहा था कि हो सकता है कि वो वास्तव में चोर ही हो।"

और सोहनलाल इसलिए निश्चिंत था कि बाहर शंकरदास मौजूद है जो कि इस स्थिति को आसानी से संभाल लेगा, उसका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। और वो कुर्सी खींचकर बैठा दरवाजे के पास था । दरवाजे की तरफ उसकी पीठ थी । शंकरदास वहां पहुंचकर आसानी से उस पर काबू पा सकता था ।

"इसकी हालत बता रही है कि ये काफी देर से बंधा हुआ है...।" सोहनलाल बोला।

"तुम्हारा ख्याल ठीक है ।" उसने रिवाल्वर थामे शांत स्वर में कहा ।

"तभी सोहनलाल को दरवाजे के पास शंकरदास नजर आया । सोहनलाल के चेहरे पर किसी तरह के भाव नहीं उभरे, वो बेहद शांत स्थिति में बैठा रहा ।

सुन्दर लाल का सिर छाती की तरफ झुका हुआ था । वो आधी बेहोशी की हालत में था । कभी-कभार रह-रहकर उसके होंठों से निकली पीड़ा भरी कराह सुनाई दे जाती थी ।

अगले ही पल शंकरदास ने भीतर प्रवेश किया और हाथ में दबी रिवाल्वर उसकी खोपड़ी से सटा दी ।

वो चौंका, उसने उठना चाहा।

"बैठे रहो ।" शंकरदास कहर भरे स्वर में बोला--- "वरना भेजा फाड़कर रख दूँगा ।"

वो हक्का-बक्का-सा फौरन ही कुर्सी पर जम गया । कोई कई पलों तक तो समझ नहीं पाया कि क्या हो गया । परन्तु इतना तो वो समझ ही गया कि उसका शक ठीक था । वो दो थे और वो महज उसका वहम नहीं था, हकीकत थी, परन्तु वो लापरवाही इस्तेमाल करके खुद ही बेवकूफी कर बैठा था और अब उसके नतीजे में खतरनाक माहौल उसके सिर पर सवार खड़ा था।

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शंकर दास ने पीछे से हाथ बढ़ाया और उसके हाथ से रिवाल्वर लेकर कमरे के कोने में उछाल दी । वो निहत्था क्या हुआ, जैसे उसकी जान ही निकल गई हो, चेहरा फक्क पड़ चुका था । आंखों में आतंक के साये मंडरा उठे थे, भय की मूर्ति बना कुर्सी से चिपका रह गया था।

सोहनलाल कुर्सी से उठा और दूसरे कमरे में फेंकी अपनी रिवाल्वर उठा लाया ।

शंकरदास उसके सामने आया ।

उसने शंकरदास को देखा, उसके चेहरे पर क्रूरता के भाव पाकर वह मन-ही-मन काँप उठा 

"तुम्हारे बाकी साथी कहां हैं ?" शंकरदास ने भिंचे दांतो से पूछा ।

"बा...बाहर गये हैं ।"

"कहाँ...बाहर कहाँ...?"

"पा...पाहवा, तीरथराम पाहवा का बुलावा आया था ।" उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"कि...किसी ने महेश की हत्या कर दी है, पाहवा को इकट्ठा कर रहा है ।"

"कितनी देर हो गई है उन्हें गये हुए...।"

"घंटा-भर हो गया है ।" वो जल्दी से बातों का जवाब दिए जा रहा था, उसे डर था कि सामने खड़ा बड़ा खतरनाक इंसान, कहीं क्रोध में आकर उस पर गोली न चला दे ।

"कब तक आयेंगे...?"

"फुर्सत मिलने पर, घंटे भर में वापस भी आ सकते हैं, या फिर सुबह तक, वैसे वो जल्दी आने की कोशिश करेंगे, क्योंकि इस कैदी के पास मैं अकेला हूँ ।" उसने बेचैनी से कहा ।

"कितने हैं वे...?"

"चार, मुझे मिलाकर पाँच।" उसने कहा । फिर हिम्मत करके पूछ बैठा--- "तू...तुम कौन हो...?"

शंकर दास के कुछ कहने से पहले ही सोहनलाल दरिंदगी से कह उठा ।

"तुमने सोहनलाल और शंकरदास का नाम सुना है...?"

इन शब्दों के साथ ही आतंक के साये से उसकी आंखें फटती चली गईं ।

"तुम...तुम लोग वो दोनों हो ? सोहनलाल शंकरदास ?" उसकी जैसे जान ही सूख गई थी । चेहरा फक्क पड़ गया था । फटी- फटी-सी आंखों से वो उन्हें देखता रह गया ।

"हाँ, मुझे सोहनलाल कहते हैं ।" सोहनलाल का स्वर पहले जैसा ही था ।

उसकी खौफपूर्ण निगाहे शंकर दास की तरफ घूमीं ।

शंकरदास का चेहरा भयानक भावों से भर उठा ।

"शंकरदास को देख रहे हो ।"

"शंकरदास के कहने का अंदाज ऐसा था कि उसकी रही-सही जान सूख गई ।

सोहनलाल और शंकरदास की आंखें मिलीं।

"उसकी हालत चलने लायक नहीं है ।" सोहनलाल ने कहा ।

"हाँ...मैं भी यही देख रहा हूँ ।"

तभी वो व्यक्ति सकते की हालत में पूछ बैठा--- "महेश चन्द को तुम लोगों ने मारा है...।"

"हाँ... हमने ही मारा है ?" सोहनलाल क्रूरता से हँसा--- "ऐसी-तैसी फेरकर रख दी साले की ।"

"उसने भयभीत निगाहों से सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"तुम दोनों बहुत बड़े खतरे में हो । पाहवा महेश चन्द की हत्या बर्दाश्त नहीं करेगा ।"

"हम तो पाहवा की तरफ से कब से खतरे में हैं, देख नहीं रहा पाहवा के कुत्ते दर-दर ठोकरें खाते हमें गोलियों से भूनने के लिए कदम-कदम पर तलाश कर रहे हैं ?" सोहनलाल ने वहशी स्वर में कहा--- "ऐसे में हम महेश चन्द को उड़ायें या उसके बाप को, वहां और क्या कर लेगा ? हमारी सेहत पर क्या फर्क पड़ेगा ?"

वो कुछ ना कर सका ।

तभी शंकरदास बोला ।

"इसके साथी कभी भी आ सकते हैं । वो आ गये तो मामला बढ़ सकता है।"

"ठीक है । उठाओ सुन्दरलाल को...।"

मैं उठाऊँ...?"

"हाँ । मुझे यहां और भी काम हैं ।" सोहनलाल वहशी अंदाज में हँसा ।

"और काम...?" शंकरदास ने प्रश्न भरी निगाहों से सोहनलाल को देखा ।

"हाँ...इसका इंतजाम भी तो करना है ।" सोहनलाल ने उस व्यक्ति को देखा ।

उसकी आंखें दहशत भरे अंदाज में फटती चली गईं ।

शंकरदास कुर्सी पर बंधे, सुन्दरलाल की तरफ बढ़ गया। 

"तु...तुम...मेरे साथ क्या करोगे...?" वह आतंक भरे स्वर में कह उठा ।

"वही, जो पहले तुम मेरे साथ कर देना चाहते थे ।" सोहनलाल कड़वे स्वर में बोला।

उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरी । चेहरे पर छाये आतंक के साये गहरे होने लगे ।

"नहीं...भगवान के लिए मुझे मत मारो...मैं तो नौकर हूँ । तुम्हारी मेरी क्या दुश्मनी । मैंने तो तुम लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ा है ।" वो गिड़गिड़ाये से अंदाज में कह उठा ।

"नहीं मारूँ...?" सोहनलाल ने होंठ सिकोड़े ।

"नहीं...।" उसके होंठों से आज्ञा भरा स्वर निकला ।

"नहीं ?"

"नहीं, भगवान के लिए नहीं।"

"तब तक शंकरदास, सुन्दरलाल के बंधन खोलकर, कंधे पर लाद चुका था ।

"तुम निकलो ।" सोहनलाल ने शंकरदास से कहा--- "दीवार मत फलांगना, दरवाजा खोलकर निकलना।"

सुन्दर लाल बेहोशी की-सी हालत में था । रह-रह कर उसके होंठों से पीड़ा भरी मध्यम-सी कराह निकल जाती थी । वो नहीं जानता था इस समय उसके साथ क्या हो रहा है ।

"कब तक बाहर आ रहे हो...?" शंकर दास ने पूछा, फिर कहा--- "ज्यादा देर मत लगाना ।"

सोहनलाल ने सिर हिलाया...सुन्दर लाल को उठाये शंकर दास बाहर निकल गया ।

सोहनलाल ने उस व्यक्ति को देखा फिर हाथ में पकड़ी रिवाल्वर हिलाई ।

उसके चेहरे पर घबराहट के भावों ने पुनः जोर मारा ।

"मैं तेरे को छोड़ रहा हूँ ।" सोहनलाल मुस्कुराया।

ये शब्द सुनकर, उसके चेहरे पर, जिंदगी की लहर दौड़ने लगी ।

"दिल तो नहीं कर रहा तुझे छोड़ने का...। लेकिन तुम मुझे भले आदमी लग रहे हो । इसलिए जान बख्श देता हूँ । आज के बाद शराफत से जिंदगी बिताने की कोशिश करना । दोबारा कभी मेरे हत्थे मत चढ़ना ।"

"हाँ... हाँ...।" उसका स्वर खुशी से काँप उठा--- "तुम जो कह रहे हो, मैं वैसा ही करुँगा ।"

"गुड । मेरी बात मानेगा तो तेरा अगला जन्म सुधर जायेगा, तू नौकर नहीं, पाहवा जैसा बनेगा अगले जन्म में।

उसने खुशी भरे अंदाज में सिर हिलाया । वो फौरन सोहनलाल से छुटकारा पाना चाहता था ।

"उठो...।"

सोहनलाल शब्द का शब्द पूरा होते ही वो फौरन उठ खड़ा हुआ ।

"गुड ।" सोहनलाल मुस्कुराया--- "किस्मत वाले हो । खैर, घूमो...पीठ मेरी तरफ...।"

वह फौरन घूम गया ।

सोहनलाल ने ट्रेगर दबाया । नाल से निकली गोली ने उसकी खोपड़ी उड़ा दी ।

"मेरे वायदे पर विश्वास करके जिंदगी से मुक्ति मिल गई और तुझे क्या चाहिए । खुशनसीब इंसान ।" सोहनलाल ने कहर भरे स्वर में कहा और उसकी लाश को फलांगता  हुआ, रिवाल्वरें थामें कमरे से बाहर निकलता चला गया।

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