कार जहां से चुराई गई थी, उसी फुटपाथ पर उसी स्थित में खड़ी करने तक सुबह के चार बज चुके थे—वे खुश थे—हेमन्त तो कुछ ज्यादा ही खुश था—शायद इसीलिए कि जो स्कीम वे सफलता के साथ कार्यांवित करके आए थे, वह उसकी अपनी स्कीम थी।
दिक्कतें आई जरूर थीं, किन्तु ऐसी कोई बात नहीं, जिसे बड़ी गड़बड़ कहा जा सके—या जिससे जो कुछ इन्होंने किया था, उसके परिणाम आशाओं के विपरीत निकल सकें।
हेमन्त को तो पूरा यकीन था कि उसके परिवार से संकट के बादल छंट चुके थे।
उधर लाश पुलिस के हाथ लगी और इधर, पुलिस के साथ-साथ समाज के भी सोचने की धारा बदल जाएगी—लोगों को उनके बयान पर यकीन करना पड़ेगा।
मगर।
अपने मकान के दरवाजे पर पहुंचते ही वे ठिठक गए।
बल्कि अगर यह कहा जाए कि दिमाग में खतरे की घंटी बजने लगी तो गलत न होगा—हक्के-बक्के वे दोनों कभी दरवाजे पर झूल रहे मोटे ताले को देख रहे थे तो कभी एक-दूसरे के चेहरे को, अमित बोला—"यह क्या चक्कर है, भइया?"
हेमन्त का दिमाग हवा में नाच रहा था।
"रेखा, बाबूजी और मम्मी कहां गए?" अमित ने दूसरा सवाल किया।
हेमन्त ने सड़क के दोनों तरफ देखा।
दूर तक खामोशी।
सारा मौहल्ला सो रहा था।
अमित के सवालों का जवाब वह देता ही क्या—स्वयं कुछ अनुमान न लगा पा रहा था कि कहीं दूर से चौकीदार की आवाज आई— “ कहां थे, शाब।”
हेमन्त चौकीदार की तरफ लपका। अमित चौंका—“भैया, कहां जा रहे हो?”
हेमन्त ने कोई जवाब नहीं दिया, अमित उसके पीछे दौड़ता चला गया—शीघ्र ही वे चौकीदार के समीप पहुंचे, उनके पास पाकर चौकीदार
ने कहा—"अरे, आप कहां चले गए थे, शाब—यहां तो आपके घर में गजब हो गया!"
"क...क्या हुआ?" हेमन्त ने धड़कते दिल से पूछा।
"आपके साले ने आपकी बहन के मुंह पर तेजाब डालकर उन्हें बुरी तरह जला दिया।"
"क...क्या?" एक साथ दोनों पर बिजली गिरी।
"हां—शाब—मौहल्ले के सब लोगों ने बड़ी मुश्किल से उसे पकड़कर पुलिस के हवाले किया....और आपके माता-पिता आपकी बहन को लेकर अस्पताल गए हैं।"
पैरों-तले से जमीन खिसक गई।
जड़ होकर रह गए दोनों, अवाक्!
मुंह से बोल न फूटा।
वह एक ऐसी घटना हो चुकी थी, जो उनकी कल्पनाओं में कहीं न थी और इसीलिए वे हतप्रभ रह गए, चौकीदार कह रहा था—"जब यहां पुलिस आई तो उन्होंने बाबूजी से आप दोनों के बारे में पूछा।"
"क्या जवाब दिया उन्होंने?"
"कहने लगे कि उन्होंने आपको डॉक्टर अस्थाना के यहां से घर भेज दिया था, जाने रास्ते में कहां रह गए—घर क्यों नहीं पहुंचे, आप कहां रह गए थे, शाब?"
उसके सवाल पर कोई ध्यान दिए बिना हेमन्त ने पूछा—"ये सब कितने बजे की बात है?"
"करीब बारह या साढ़े बारह की शाब।"
विभिन्न सवाल कर-करके हेमन्त ने चौकीदार से घटना का विस्तार पूछा, यह धारणा धूल में मिल गई कि उसके परिवार से मुसीबत के बादल छंट गए थे।
"आओ अमित।" उसने किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े अमित को झंझोड़ा तो वह चौंका, गुर्राया—"अगर रेखा को कुछ हो गया तो मैं मनोज को जिंदा नहीं छोङूंगा, भइया।"
"होश में आओ अमित, चलो यहां से।"
"मैं खून पी जाऊंगा उसका—उस कमीने की हिम्मत कैसे हुई हमारे घर में घुसने की और—और रेखा पर तेजाब फेंका उसने—मैं हरामजादे को कच्चा चबा जाऊंगा।"
"अमित...पागल हो गए हो क्या, चलो।" हेमन्त ने उसे लगभग जबरदस्ती खींचा।
चौकीदार ने पूछा—"अब आप कहां जा रहे हैं, शाब?"
"अस्पताल।" कहने के साथ ही अमित को खींचता हुआ वह दूर ले गया।
¶ ¶
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या अमित...जो चौकीदार के सामने इतना सब कुछ बकने लगा, होश में रहो वरना हम सब पकड़े जाएंगे।"
"आपको पकड़े जाने की पड़ी है, भइया—वह कुत्ता हमारी बहन को...।"
"सुन लिया, सब कुछ सुन लिया है अमित।" हेमन्त गुर्राया—"यह भी कि मनोज ने रेखा को जला दिया है—रेखा तुम्हारी ही नहीं मेरी भी बहन हैं—जितना गुस्सा तुम्हें आ रहा है उतना ही मुझे भी, जितना जोश तुम्हें आ रहा है उतना ही मुझे भी—मगर जोश में होश मत खो मेरे भाई—ऐसा कुछ मत कर कि हम सब जेल में पड़े हों।"
"क्या मतलब?"
"मनोज को पुलिस ने पकड़ लिया है, इसीलिए फिलहाल हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, मगर जमानत पर या सजा के बाद कभी तो बाहर निकलेगा—हम उसे छोड़ेगे नहीं, अपनी बहन पर तेजाब फेंकने का पूरा-पूरा बदला लेंगे—लेकिन तभी न, जब हम खुद सुरक्षित रहें, खुद जेल से बाहर रहें?"
"हमें क्या होने वाला है?"
"अगर तुम जोश में रहे और होश से काम न लिया तो वह हो जाएगा जिससे बचने के लिए हमने इतने पापड़ बेले हैं, जरा सोचो—सामने पड़ते ही हमसे गोडास्कर का सबसे पहला सवाल यह होगा कि सारी रात हम कहां रहे, क्या किया?"
अमित चुप रह गया।
हेमन्त ने आगे कहा—"अगर हम उसे तसल्लीबख्श जवाब न दे सके तो सारे किए-धरे पर पानी फिर जाएगा—गोडास्कर को यह समझते देर नहीं लगेगी कि आज की रात हमने क्या किया है? लाश मिलते ही वह समझ जाएगा कि वहां उसे हम ही टांगकर आए हैं।"
"फ...फिर?"
"मेरे दिमाग में एक तरकीब है।"
"क्या?"
"पुलिस को यह बयान देंगे कि अस्थाना के क्लिनिक से लौटते समय अचानक हमारे दिमाग में यह ख्याल आया कि कहीं सुचि मामा के पास खुर्जा तो नहीं चली गई है—और सुचि की तलाश करने हम उसी समय बस की नाइट सर्विस से खुर्जा चले गए । "
"मगर जब पुलिस मामा के बयान लेगी तो।"
"तुम बस अड्डे चले जाओ।" हेमन्त उसे समझाता हुआ बोला—"मेरठ से आगरा के लिए सारी रात गाड़ियां चलती हैं—अगर वहां कोई गाड़ी न हो तो इंतजार करना—मेरठ से आगरा जाती जो भी बस आकर रुके, तुम्हें उसके कंडक्टर से बुलंदशहर से खुर्जा तक के दो टिकट लेने हैं—टिकट लेते ही कहीं गुल हो जाना हैं—कंड़क्टर वहां सवारियों की गिनती नहीं करता है, रास्ते में कहीं करेगा सो, दो सवारियां कम होने का राज जानने के बावजूद बस को वह वापस बुलंदशहर तो लाने से रहा।"
"उसके बाद।"
"इसके तरह आगरे से मेरठ जा रही कोई बस जब बस अड्डे पर रुके तो वहां उतरने वाले यात्रियों से पूछना कि वे कहां से आए हैं—उनमें से किसी से खुर्जा से बुलंदशहर तक के टिकट लेना—चूंकि वे टिकट उनके लिए बेकार हो चुके होंगे, अतः थोड़े से लालच से ही तुम्हें दे देंगे—अपने बयान को प्रभावित करने के लिए यह टिकट बहुत जरूरी हैं, अमित—एक बस से काम न बने तो दूसरी का इंतजार करना।"
"मैं समझ गया।"
"टेलीग्राम देकर मैं डाकखाने से सीधा बस अड्डे पहुंचूंगा, काम हो या न हो—तुम मुझे वहीं मिलना।"
"ठीक है।"
इस तरह हेमन्त डाकखाने पहुंचा।
टेलीग्राम का मैटर उसने कुछ इस तरह बनाया—"हमने भाभी से एक मजाक किया है मामाजी, अतः अगर आपसे कोई यह पूछे कि मैं और भइया रात को भाभी को पूछने खुर्जा आए थे या नहीं तो आपको कहना है कि हां, रात हम दोनों भाभी को पूछने आपके पास आए थे—आपका भांजा, अमित।"
¶ ¶
"य...यह क्या हो गया बाबूजी, कैसे हो गया यह सब?" पलंग पर लेटी रेखा के चेहरे पर नजर पड़ते ही तड़पकर हेमन्त ने पूछा—"क्या तेजाब ने इसके सारे चेहरे को...?"
साड़ी का पल्लू मुंह में ठूंसकर ललितादेवी फफक पड़ीं।
अमित एकटक रेखा की तरफ देखता रह गया था—उस रेखा की तरफ जिसका संपूर्ण चेहरा सफेद पट्टियों से ढका हुआ था, सांस लेने के लिए केवल मुंह और नाक के छिद्रों को खुला छोड़ा गया था, अभी तक बेहोश थी वह।
बिशम्बर गुप्ता ने बड़े ही दयनीय अंदाज में हेमन्त की तरफ देखा, बोले—"सब कुछ तबाह हो गया बेटे, बर्बाद हो गए हम।"
हेमन्त की आंखों में आंसू झिलमिला उठे, बोला—"ऐसा क्या हो गया है बाबूजी, हमें भी तो कुछ बताइए—क्या कहता है ड़ॉक्टर?"
"तेजाब रेखा की आंखों में चला गया है, अब वह कभी देख नहीं सकेगी....और मेरी बेटी का चेहरा हमेशा के लिए बदसूरत हो गया है—वैसा ही, जैसी चमगादड़ की खाल होती है, काली और चुड़चुड़ी।"
"न...नहीं!" हेमन्त के हलक से निकलने वाली चीख ने सारे अस्पताल को झंझोड़ डाला—बिशम्बर गुप्ता बिलख-बिलखकर रो पड़े थे, किन्तु अमित की आंखों से पानी की एक बूंद नहीं—चेहरे पर वेदना का एक भी लक्षण नहीं।
पथराई हुई आंखों में हिंसा।
चेहरा सपाट—मगर सारा जिस्म गुस्से से कांप रहा था उसका। मुट्ठियां इस कदर कसती चली गईं कि उंगलियों के सिरे हथेली में गड़ गए, मुंह से गुर्राहट निकली—"और यह सब मनोज ने किया है—मैं उस कुत्ते की खाल में भुस भर दूंगा।"
बिशम्बर गुप्ता ने चौंककर उसकी तरफ देखा—अमित की अवस्था देखकर चिहुंक उठे वे—लपककर उसके नजदीक पहुंचे, दोनों कंधे पकड़कर जोर से झंझोड़ते हुए चीखे—"अमित! होश में आओ, बेटे।"
"म...मैं उसका खून पी जाऊंगा, बाबूजी।" अमित गुर्राया—"बोटी-बोटी काटकर चील-कौव्वों के सामने डाल दूंगा उसकी।"
"न...नहीं।" बिशम्बर गुप्ता कराह उठे—"ये सिलसिला ठीक नहीं है बेटे, जिन जज्बातों के शिकार इस वक्त तुम हो, कुछ वैसे ही ज्जबात अपनी बहन के लिए मनोज के दिल में भी होंगे—उनका अंजाम ऐसे भयानक रूप में सामने आया है और अगर तूने खुद को न संभाला तो अंजाम शायद इससे भी ज्यादा भयानक हो।"
"हमने उसकी बहन को क्या किया था?" इस बार चीखने के साथ ही अमित की रुलाई फूट पड़ी—"क...कुछ भी तो नहीं बाबूजी—कुछ भी तो नहीं किया हमने।"
"मगर वह यही समझता है, बेटे।"
"उसने मेरी बहन को बदसूरत बना दिया, अंधी कर दिया—मैं उससे बदला लूंगा बाबूजी, इससे भी भयानक बदला लूंगा।"
"नहीं—तुम ऐसा नहीं कर सकते।" चीखते हुए बिशम्बर गुप्ता हेमन्त की तरफ घूमे—"यह पागल हो गया है हेमन्त, तुम ही समझाओ इसे।"
हेमन्त ने कठोर और प्रभावशाली स्वर में कहा—"उस योजना को मत भूलो अमित, जो हमने बनाई है—अगर दो-दो भाई होकर भी हम रेखा पर जुल्म का बदला न ले सके तो लानत है हम पर—मगर जो चीख-चीखकर बदला लेने की बात कह देते हैं, उनके इरादे पुलिस को पता लग जाते हैं और फिर पुलिस उन्हे बदला लेने का मौका नहीं देती—वैसे भी इस वक्त मनोज पुलिस के कब्जे में है, हम उसका कुछ नहीं कर सकते।"
हेमन्त के शब्द अमित के भेजे में घुस गए।
वह शांत पड़ता चला गया, जबकि चौंककर बिशम्बर गुप्ता ने पूछा—"कौन-सी योजना, कैसी स्कीम—क्या सोच रहे हो तुम लोग—क्या तुम भी पागल हो गए हो हेमन्त, बदला लेने की क्या स्कीम बनाई तुमने?"
"वह हम आपको नहीं बता सकते बाबूजी।" प्रत्यक्ष में ऐसा कहते हुए हेमन्त ने उन्हें संकेत से समझाया कि वह ऐसा सिर्फ अमित को सामान्य करने के लिए कह रहा है—"वह स्कीम हम दोनों भाइयों के बीच गुप्त रहेगी।"
हेमन्त ने बड़ी मुश्किल से हालात संभाले।
ललितादेवी लगातार रोए जा रही थीं—काफी देर की गहरी खामोशी के बाद हेमन्त ने विषय परिवर्तन किया—"यहां से छुट्टी के बारे में डॉक्टर क्या कहते हैं?"
"रेखा को होश आते ही छुट्टी मिल जाएगी।"
"और जख्म?"
"उनके लिए डॉक्टर ने दवाएं लिख दी हैं, उनका कहना है कि हम रोज अस्पताल आकर या घर ही पर किसी कम्पाउंड़र से पट्टियां बदलवा सकते हैं।"
कमरे में पुनः खामोशी छा गई।
काफी देर बाद बिशम्बर गुप्ता ने बताया—"इंस्पेक्टर गोडास्कर यहां से कहकर गया था हेमन्त कि जैसे ही तुम लोग आओ, उसे
इन्फॉर्म किया जाए।"
"शायद वह यह जानना चाहता है कि हम कहां थे?"
"आपका अनुमान बिल्कुल ठीक है, मिस्टर हेमन्त।" इन शब्दों के साथ कमरे में गोडास्कर प्रविष्ट हुआ।
चारों सकपका गए।
गोडास्कर के साथ दो सिपाही थे, बोला—"अस्पताल के एक कर्मचारी ने फोन से आपकी वापसी की सूचना दे दी और मैंने आपको डॉक्टर अस्थाना के यहां से घर भेजा था, अगर तब आप सीधे घर चले आते तो शायद यह भयानक और शर्मनाक घटना न घटती।"
"हम क्या जानते थे इंस्पेक्टर कि ऐसा होने वाला है?"
"बेशक आप नहीं जानते थे—वैसे बाई-द-वे, क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि रात पौने बारह बजे से अब तक कहां रहे?"
हेमन्त ने जवाब दिया, सुनकर गोडास्कर की भृकुटि तन गई, बोला—"हालांकि यही बड़ी अटपटी बात है कि आप किसी से भी कहे बिना खुर्जा चले गए, मगर क्या मैं यह पूछ सकता हूं कि अगर यह मान भी लिया जाए कि अचानक आपको यह ख्याल आया था कि कहीं सुचि खुर्जा आपके मामा के यहां न चली गई हो तब भी, आप दोनों एक साथ खुर्जा क्यों चले गए—इस काम के लिए किसी एक का जाना ही काफी था।"
"हम दोनों चले गए, इसमें आपको आपत्ति...?"
"नो—मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती है?" गोडास्कर ने लापरवाही के साथ कंधे उचकाकर कहा—"और फिर आपके पास कार थी, अगर गाड़ी हो तो खुर्जा है ही कितनी दूर?"
"क्या मतलब?" हेमन्त का दिमाग नाच उठा।
"क्या रात आपके पास कार नहीं थी?"
हेमन्त ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि गोडास्कर ने सख्त स्वर में चेतावनी दी—"झूठ मत बोलना मिस्टर हेमन्त, बंसल ने मुझे बताया कि जब वह तुम्हारी रिक्शा के पीछे-पीछे अस्पताल पहुंचा तो इमरजेंसी बिजी होने के कारण ललितादेवी को कार में डालकर किसी प्राइवेट डॉक्टर के यहां ले जा चुके हो—वह यह न बता सके कि किस डॉक्टर के यहां? अतः वहां से बंसल को अपने घर लौटना पड़ा—रात को जब मैं मनोज को गिरफ्तार करने पहुंचा तो मिस्टर गुप्ता ने बताया कि अस्पताल से वे डॉक्टर अस्थाना के क्लिनिक गए थे—अस्थाना भी मुझे बता चुका है कि आप लोग पेशेंट को कार ही में लेकर आए थे।"
"ह...हमने कब मना किया कि उस वक्त कार नहीं थी?"
"कहां से आ गई कार?" गोडास्कर ने व्यंग्य किया—"क्या पिछली रात की तरह कहीं से चुराई गई थी?"
घबराकर अमित ने कहा—"न...नहीं।"
"फिर?"
"एक कार वाले से थोड़ी देर के लिए लिफ्ट मांगी थी, उस बेचारे ने मदद की।"
"आपने तो ऐसा कुछ नहीं बताया मिस्टर गुप्ता, आप तो कहते थे कि आपको पता नहीं कि अमित कार कहां से ले आया?"
बिशम्बर गुप्ता हकलाते रह गए, जबिक हेमन्त ने कहा—"इन्हें क्या पता, उस वक्त बाबूजी को यह पूछने का होश कहां था कि कार कहां से आई—यह तो मुझे भी तब पता लगा जब अस्थाना के क्लिनिक से चलने के बाद अमित ने मदद के लिए कार वाले का शुक्रिया अदा किया—बेचारा बहुत ही भला आदमी था कोई, जिसने अमित के मिन्नत करने पर हमारी मदद की।"
"मगर बंसल और दूसरे मोहल्ले वालों का कहना तो यह है कि ललितादेवी को लेकर घर से आप दोनों ही चले थे, फिर अमित आपके साथ...।"
"मैंने बताया तो था इंस्पेक्टर, अमित हमें रास्ते में मिला था।" बिशम्बर गुप्ता इस डर से त्रस्त होकर पहले ही बोल उठे कि कहीं उनमें से कोई उनके बयान को काटता हुआ जवाब न दे दे और उनकी इस भावना को अच्छी तरह समझता हुआ गोडास्कर मोहक अंदाज में मुस्कराया, बारी-बारी से वह तीनों को देखता हुआ बोला—"काफी होशियारी से एक-दूसरे का बचाव करने की कोशिश कर रहे हैं आप लोग?"
तीनों को सांप सूंघ गया।
अपने हाथ में दबे रूल को बड़ी स्टाइल से घुमाते हुए गोडास्कर ने कहा—"मगर यह समझने की भूल मत करना कि इस झूठे बयान से तुम लोग गोडास्कर को धोखा देने में कामयाब हो गए हो?"
"क...क्या मतलब?" अमित के हलक में जैसे कुछ अटक गया।
"मतलब यह मेरे बच्चे कि मेरे जाने के बाद तुम तीनों सिर जोड़कर जरा इस बात पर विचार करना कि मुझे दिया गया तुम्हारा बयान कितना अटपटा है?"
"अ...आप गलत समझ रहे हैं।"
"मैं अभी साबित कर सकता हूं कि हकीकत वही है, जो मैं समझ रहा हूं।"
हेमन्त के मुंह से निकला—"कैसे?"
"न तो तुम्हें अपने कथित मददगार का नाम ही मालूम होगा, न ही उस गाड़ी का नम्बर जिसमें रात तुमने लिफ्ट ली।"
"न...नाम हमने पूछा था, मगर उसने बताया नहीं, कहने लगा कि अगर मैं आपको अपना परिचय दे दूं तो समझूंगा कि मैंने आपको कोई मदद नहीं की और नम्बर देखने का तो होश ही न था।"
"मैं बिल्कुल ठीक समझ रहा हूं न।" गोडास्कर ने बड़े जानदार अंदाज में उन्हें घूरते हुए कहा—"मजे की बात यह है कि अस्पताल के बरामदे में खड़े तीनों व्यक्ति और डॉक्टर अस्थाना का बयान भी यह है कि आपके साथ अन्य कोई नहीं था।"
"जब वह कहीं गाड़ी से बाहर ही नहीं निकला तो ये लोग क्या बताते?"
"चकमा देने की कोशिश मत करो, मिस्टर हेमन्त। ” एकाएक गोडास्कर गुर्राया—"मैं सब समझ रहा हूं कि वह गाड़ी कहां से आई थी—मिस्टर अमित गाड़ी चुराने के मामले में सिद्धहस्त हो चुके हैं।"
"य...यह झूठ है।" अमित का प्रतिरोध बड़ा कमजोर था।
"गाड़ी चुराने के जुर्म में अभी तक आप लोगों को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार नहीं कर रहा हूं, क्योंकि बुलंदशहर के किसी थाने में अभी तक किसी गाड़ी के चुराए जाने की रपट नहीं लिखवाई गई है, मगर कब तक—उसे तो रपट लिखवानी ही होगी, जिसकी गाड़ी चोरी हुई—और ऐसी रपट लिखी जाते ही तुम सब गिरफ्तार कर लिए जाओगे।"
"जरूर गिरफ्तार करना, इंस्पेक्टर।" अपनी स्कीम पर मन-ही-मन मुस्कराते हुए हेमन्त ने कहा—"मगर तब जब किसी गाड़ी के चोरी हो जाने की रपट हो।"
"वैसे बाई-द-वे, आपके इस मददगार ने आपको कहां छोड़ा?"
"बस अड्डे पर।"
"वहां से आप खुर्जा गए?"
"जी हां।"
बड़ी हो मोहक मुस्कान के साथ गोडास्कर ने पुनः कहा—"और दुर्भाग्य से न तो आपके पास यहां से खुर्जा जाने के टिकट होंगे, न ही खुर्जा से यहां आने के।"
"ये रहे टिकट।"
इस बार गोडास्कर की खोपड़ी नाच गई, काफी देर तक वह हेमन्त को घूरता रहा, जबकि मन-ही-मन अपनी सफलता पर बल्लियों उछल रहे हेमन्त ने कहा—"बड़े शर्म की बात है इंस्पेक्टर कि मनोज के इस घिनौने और संगीन जुर्म के बाद भी हमें परेशान कर रहे हो—कदम-कदम पर हमारी ही गतिविधियों पर शक किया जा रहा है।"
"मनोज ने जो किया उसके आरोपो में उसे गिरफ्तार किया जा चुका है, मिस्टर हेमन्त ” —गोडास्कर का लहजा खराब था—"उसने एक शर्मनाक और जघन्य जुर्म किया है—अदालत से उसके जुर्म की पूरी-पूरी सजा दिलाने की मैं पुरजोर कोशिश करूंगा, लेकिन...। ”
उसके इस जुर्म से न आपके उस गुनाह में कोई कमी आती है जो आप कर चुके हैं और न ही वे गुनाह हल्के पड़ते हैं जो अभी तक कर रहे हैं—वादा रहा, मुकम्मल सबूत हाथ लगते ही मैं न सिर्फ आप सब लोगों को गिरफ्तार कर लूंगा, बल्कि अदालत से सजा दिलाने के लिए भी उतनी ही पुरजोर कोशिश करूंगा, जितनी मनोज को उसके कुकृत्य की सजा दिलाने के लिए।"
"तभी न, जब सबूत तुम्हें मिलेंगे?" हेमन्त ने अपने आप से कहा—"सुचि की लाश मिलते ही सारे पासे पलटने वाले हैं, बच्चू—तुम्हारी खोपड़ी को भी हवा में न घुमा दिया और तुम बाबूजी से माफी मांगने घर न आए तो मेरा नाम भी हेमन्त नहीं।"
¶ ¶
सब-इंस्पेक्टर अब्दुल जिस समय फोर्स के साथ वहां पहुंचा, तब तक घटनास्थल के चारों तरफ गांव वालों की भीड़ लग चुकी थी, मगर पुलिस को देखते ही भीड़ ने काई की तरह फट कर रास्ता दे दिया।
शीघ्र ही अब्दुल को एक वृक्ष की शाख से लटकी लाश नजर आई।
उसे मिली इन्फॉर्मेशन के मुताबिक लाश किसी विवाहिता युवती की ही थी—एक पल ठिठककर अब्दुल ने दूर ही से लाश का निरीक्षण किया—फिर, उसी पर नजरें टिकाए धीरे-धीरे आगे बढ़ा।
लाश के इर्द-गिर्द दुर्गंध फैल चुकी थी।
अब्दुल ने ईंटों के उस ढेर को देखा, जिस पर खड़े होकर संभवतया युवती ने आत्महत्या की थी—आधी-अधूरी ईंटों का वह चट्टा लाश के ठीक नीचे था और इतना ऊंचा था कि जिस पर खड़े होकर युवती ने रस्सी का एक सिरा आराम से शाख में बांधा होगा—बहुत-सी ईंटें चट्टे के चारों तरफ लुढ़कती पड़ी थीं।
लाश के पैरों के अंगूठे चट्टे की शेष ईंटों से बाल बराबर स्पर्श हो रहे थे।
पहली नजर में अब्दुल के दिमाग में यह कहानी उभरी कि सबसे पहले युवती ने आत्महत्या के इरादे से, इधर-उधर से आधी-अधूरी ईंटें ढूंढकर शाख के नीचे इतना ऊंचा चट्टा लगाया जिस पर खड़ी होकर एक सिरा शाख में बांध सके—उसके बाद रस्सी के दूसरे सिरे पर बने फंदे में अपनी गर्दन डालकर चट्टे पर खड़ी हो गई और तब उसने पैरों से चट्टे की ईंटें हटानी शुरू कीं।
ईंटें हटती गईं, फंदा कसता गया।
क्लाइमेक्स आने पर इहलीला खत्म।
अब्दुल को यह मामला शुद्ध आत्महत्या का लगा, किन्तु दिमाग में यह विचार जरूर अटककर रह गया था कि युवती कौन है और उसने यहीं आकर आत्महत्या क्यों की?
कहीं अन्य क्यों नहीं?
आत्महत्या बड़े परिश्रम और समझदारी के साथ की गई थी।
अब्दुल यह सोचने के लिए बाध्य था कि क्या आत्महत्या करने वाले के दिमाग में इतनी समझदारी रहती है कि वह चुन-चुनकर ईंटों का चट्टा बनाने जैसा परिश्रम करने कि स्थिति में होता है?
यह रस्सी इसे कहां से मिली?
क्या आत्महत्या करने के लिए यह रस्सी अपने साथ लेकर चली थी—अगर हां, तो यह बात कितनी स्वाभाविक हैं—जहां से यह रस्सी लेकर चली थी, वहीं आत्महत्या क्यों नहीं की—यहां आकर क्यों?
एकाएक उसके दिमाग में विचार उठा कि कहीं यह हत्या तो नहीं?
आस-पास कदमों के निशान ढूंढने के लिए उसने नजर मारी, परन्तु वहां नंगें पैर गांव वालों के इतने निशान थे कि किसी निष्कर्ष तक पहुंचना असंभव था।
अब्दुल का दिमाग पूरी तरह सक्रिय हो उठा।
अब वह इसे पूरी तरह आत्महत्या नहीं मान रहा था, बल्कि यह सोचकर चल रहा था कि मुमकिन है किसी ने हत्या करके लाश यहां इस ढंग से लटका दी हो कि आत्महत्या नजर आए—अंतिम फैसला तो वह यह पता लगाने पर ही कर सकता था कि युवती कौन थी और वहां कैसे पहुंच गई?
इसके लिए लाश की तलाशी लेना जरूरी था और फोटो आदि से पहले लाश को छेड़ना उसने मुनासिब नहीं समझा।
फिंगर प्रिंट्स विभाग और फोटोग्राफर के वहां पहुंचने में अभी समय था, अतः उसने सभी गांवों वालों की तरफ देखते हुए ऊंची आवाज में पूछा—"क्या आप में से कोई इस युवती को जानता है?"
कहीं से कोई जवाब नहीं।
कई बार पूछने पर भी जब कोई आगे न आया तो अब्दुल समझ गया कि युवती गांव वालों के लिए नितान्त अपरिचित थी, वैसे भी लिबास से युवती शहरी लग रही थी।
ऊंची आवाज में उसने दूसरा सवाल किया—"सबसे पहले लाश किसने देखी?"
"मैंने साब।" एक ग्रामीण ने कहा।
"क्या तुम इधर से गुजर रहे थे?" अब्दुल ने पूछा।
"नहीं साब, यह कोई रास्ता तो है नहीं जो गुजर रहा होता....।"
"फिर तुम इधर कैसे आ निकले?"
"कल रात से मेरी गाय खोई हुई है साब, रात को अच्छी-भली छप्पर तले बंधी थी कि सुबह को गायब देखी, सो उसी को ढूंढता फिर रहा था कि इधर आ निकला—लाश पर नजर पड़ी तो ऊपर का दम ऊपर रह गया साब, नीचे का नीचे—चिल्लाता हुआ गांव की तरफ भागा और कुछ ही देर में हम सब यहां इकट्ठे हो गए—फिर आपको खबर देने का फैसला किया गया।"
अपने अनुभव के आधार पर अब्दुल को लग रहा था कि लाश तीस-पैंतीस घंटे पुरानी थी, अतः उसने ऊंची आवाज में पूछा—"क्या इससे पहले किसी ने लाश देखी थी?"
खामोशी।
"कल रात या कल सारे दिन?"
कोई जवाब नहीं।
अब अब्दुल ने एक और सवाल किया—"यह बाग किसका है?"
"मेरा है साब।" एक अन्य ग्रामीण आगे आया।
"क्या तुम हर रोज अपने बाग की देख-रेख नहीं करते हो?" अब्दुल ने पूछा—"लाश बता रही है कि वह परसों रात से यहां टंगी हुई है—कल दिन में तो तुम यहां आए होगे—लाश पर तुम्हारी नजर तो पड़नी ही चाहिए थी?"
"बाग पर हमें चौबीस घंटे नजर रखनी पड़ती है साहब, मगर तब जबकि पेड़ों पर फल लगे हों—आप देख ही रहे हैं कि यह बाग आम का है, आजकल आम नहीं लगते सो, इधर आए एक-एक हफ्ता गुजर जाता है।"
फोटोग्राफर और फिंगर-प्रिंट्स विभाग के लोगों के आने तक अब्दुल ग्रामीणों से इसी किस्म के सवाल करता रहा—कोई खास सूत्र उसके हाथ न लगा—जबकि उन लोगों ने आते ही यन्त्रवत अंदाज में अपना काम शुरू कर दिया।
अब्दुल ने कई फोटो अपनी इच्छा के एंगल से खिंचवाए—कई ईंटों से फिंगर-प्रिंट्स उठवाए और उनका काम खत्म होने के बाद पुलिस वालों की मदद से उसने खुद लाश उतरवाई—जब उसने लाश एम्बुलेंस के साथ आए स्ट्रेचर पर रखवाई, तब नजर एक कागज पर पड़ी।
कागज का कोना लाश की छाती से बाहर झांक रहा था।
अब्दुल की आंखें चमक उठीं—उसे लगा कि इस कागज से उसे युवती का नाम-पता मिल जाएगा—उसने कागज निकालकर खोला और पढ़ा—
शंकर,
यह सोचकर मुझे आपसे घृणा हो रही है कि कभी मैंने तुमसे प्यार किया था—वह शायद युवावस्था का जोश ही था, जिसने मुझे तुम्हारी तरफ आकर्षित किया, वरना आज सोचती हूं कि किसी लड़की के प्यार की तो बात ही दूर, तुम घृणा के लायक भी नहीं हो और उन दिनों अगर जानती कि भविष्य में तुम मेरे जीवन के कोढ़ बन जाओगे तो कभी तुमसे प्यार न किया होता, पत्र न लिखे होते।
आज से दो साल पहले तुम मेरा सब कुछ लूटकर हापुड़ से इस तरह गायब हो गए जैसे कभी कहीं थे ही नहीं—उस कमरे पर गई जहां तुम रहते थे, परन्तु मकान-मालिक से पता लगा कि तुम कमरा छोड़ गए हो और मकान-मालिक को भी तुम्हारा पता-ठिकाना मालूम न था—कितना ढूंढा, कितना तलाश किया—मगर तुम न मिले और उन दिनों मुझे अपने आप पर तरस आ रहा था—यह सोचकर कि मैंने तुम्हारे बारे में उस किराये के कमरे से आगे कभी जानने की कोशिश ही नहीं की—घरवाले शादी की जिद कर रहे थे, मुझे तुम्हारी तलाश थी—एक साल गुजर गया और तब मैंने तुम्हें अपने दिमाग में एक धोखाबाज करार देकर वहां शादी कर ली जहां पापा ने कही।
तुम मेरी जिंदगी के दाग थे शंकर और यह दाग मैं किसी को दिखाना नहीं चाहती थी—संयोग से मुझे अच्छी ससुराल मिली, अच्छा पति और हंसी-खुशी मेरे दिन गुजर रहे थे कि एक बार तुम फिर मेरी जिंदगी में आ गए—उस दिन मैं शाम के वक्त हेमन्त के साथ गांधी पार्क में टहल रही थी कि मेरी नजर तुम पर पड़ी—तुम किसी हिंसक पशु की तरह मुझे घूर रहे थे—उस वक्त मेरी जो हालत हुई, उसे मैं बयान नहीं कर सकती—उस दिन के बाद तुम मेरी जिंदगी के कोढ़ बन गए—तुम मेरे पुराने प्रेमी नहीं, बल्कि ब्लैमेलर बनकर मिले—सुख-चैन और हंसी-खुशी में गुजर रही मेरी जिंदगी को तुमने झंझोड़ डाला शंकर—मेरे पत्र हेमन्त को दिखाने की धमकी देकर तुम मुझसे छोटी-मोटी रकम ऐंठने लगे—मैं अपने पत्र वापस लेने के लिए रोई, गिड़गिड़ाई, हाथ जोड़े तुम्हारे पैर पकड़े मगर तुम न माने—पूरे कमीने हो तुम—कहने लगे कि पत्र तब दे सकते हो जब मैं तुम्हें बीस हजार दूं—इतनी बड़ी रकम भला मैं कहां से लाती—जब यही बात तुमसे कही तो तुम ठहाका लगाकर हंस पड़े—बताया कि मेरी राइटिंग में तुम एक ऐसा पत्र हापुड़ डाल चुके हो जिससे बीस हजार का इंतजाम हो जाएगा, मुझे तुम्हारी किसी भी राइटिंग की नकल उतार देने की वह आर्ट स्मरण हो आई, जिसका प्रदर्शन आज से दो साल पहले करते थे—और जब तुमने पापा के पास डाले गए पत्र का मजमून बतलाया तो मैं दंग रह गई—चीख पड़ी कि मेरे पापा इतने पैसों का इंतजाम नहीं कर सकेंगे मगर तुम वहशियाना अंदाज में हंसे—बोले कि बाप चाहे जितना गरीब हो, मांग यदि लड़की की ससुराल से आए—दुल्हन ही अपने बाप से मांगे तो उसे इंतजाम करना पड़ता है—मेरे डाले गए पत्र के मुताबिक तुम चार तारीख को वहां जाना, रकम मिल जाएगी।
मुझे चारों तरफ से जकड़ लिया था तुमने।
विवश होकर सोचा कि जब तुमने पत्र डाल ही दिया है तो क्यों न बीस हजार तुम्हारे मुंह पर मारकर अपने पत्र वापस ले लूं—चार तारीख को ससुराल वाले रोकते रह गए, मगर मैं जिद करके बुलंदशहर से हापुड़ गई—रकम लाई।
तुमने मुझसे कहा था कि जिसे दिन मेरे ससुराल में हापुड़ से कोई टेलीग्राम मिले, उसी रात को मैं तुम्हें बीस हजार सौंपने और अपने पत्र वापस लेने के लिए गुलावठी बस अड्डे पर पहुंच जाऊँ—रुपए लाने के अगले दिन यानी आज ही हापुड़ से अंजू की शादी का टेलीग्राम पहुंचा, मैं समझ गई कि तुम्हीं ने डाला है, क्योंकि तुम जानते थे कि अंजू मेरी सबसे प्यारी सहेली है।
जाने क्यों मुझे यकीन न आ रहा था कि तुम बीस हजार लेकर भी मेरे पत्र लौटा दोगे—यह सोच-सोचकर डर रही थी कि अगर तुमने अब भी पत्र न लौटाए तो क्या करूंगी—अगर ऐसा हुआ तो मैं तुम्हें खत्म कर दूंगी और खुद भी मर जाऊंगी—यह निश्चय करके मैंने बाबूजी का रिवॉल्वर चुरा लिया।
मैं ही जानती हूं कि किन-किन मुसीबतों से गुजरकर मैं आज तुम से गुलावठी में मिली, उन्होंने अमित को मेरे साथ लगा दिया था—बड़ी मुश्किल से बहाना बनाकर उसे बराल से टाला—तुम मुझे गांव में टूटे-फूटे और कच्चे मकान में ले आए—वही हुआ जिसका मुझे पहले डर था, तुमने बीस हजार ही नहीं, बल्कि मेरे गहने भी ले लिए—कहा कि ससुराल और पीहर वालों से कह दूंगी कि अटैची बस में गुम हो गई—तुमने कुत्तेपने की हद कर दी थी शंकर—अतः मैंने उस कहानी का वहीं अंत करने का निश्चय कर लिया। जो सोचकर आई थी—मगर वह भी न हो सका—चालाकी से तुम मुझे इस कमरे में कैद करके चले गए हो, जहां बैठी मैं अपना आखिरी पत्र लिख रही हूं।
हां, आखिरी पत्र।
तुम यह कहकर गए हो कि मेरे पत्र उस दिन लौटाओगे जिस दिन मैं तुम्हें एक लाख दूंगी—मगर मैं जानती हूं कि पत्र, मुझे कभी भी नहीं मिलेंगे—तुम मेरे दामन के कोढ बन गए हो और वक्त के साथ यह कोढ़ बढ़ता ही जाएगा—जिंदगी मेरे लिए नर्क बन गई है—ऐसे ही पत्र डाल-डालकर तुम मेरे पापा को भी जीते-जी मार दोगे—ऐसी जिंदगी से तो मौत अच्छी—मेरी मौत के साथ ही यह सिलसिला रुकेगा, मगर छप्पर की इस छत में कहीं इतनी जगह भी तो नहीं है, जहां मैं आराम से मर सकूं—मगर वह रस्सी जो इस कमरे में शायद कपड़े टांगने के लिए बंधी थी, मैंने कमरे पर अपनी साड़ी के नीचे लपेट ली है—तुम शायद आने ही वाले होंगे, भविष्य में एक लाख देने का वादा करके मैं यहां से निकल जाऊंगी और फिर वह भविष्य कभी नहीं आएगा, शंकर।
यह पत्र तुम्हें मेरी लाश के साथ मिलेगा और मेरी लाश वहां मिलेगी, जहां इस रस्सी पर झूलकर आराम से मरने की जगह होगी—यह पत्र लिखने का अभिप्राय सिर्फ यह है कि मां, पापा, भइया—हेमन्त, अमित, रेखा, मांजी और बाबूजी को यह पता लग जाए कि मैं उनमें से किसी को मुंह दिखाने के लायक न थी—मैं सबकी दोषी हूं, मुझे माफ कर देना मगर शंकर नाम के राक्षस को कभी माफ न करना हेमन्त, मैं तुम्हारी कसम खाकर कहती हूं मेरे देवता कि मैं गंगा-सी पवित्र तो नहीं, मगर जब से तुम्हारी हुई, तब से तुम्हारी ही हूं और शंकर वह दरिंदा है जो शादी से पहले लड़कियों को फंसाकर उनकी शादी हो जाने देता है, ताकि बाद में उन्हें ब्लैकमेल कर सके—बाहर का दरवाजा खुला, शायद वह आ रहा है—सुचि।
अंतिम शब्द बुरी तरह घसीट मारकर लिखे गए थे।
पत्र पढ़ते ही लाश के सम्बन्ध में अब्दुल के जेहन में जितनी गांठें थीं, सब खुलती चली गईं—उसकी आंखों के सामने आज का अखबार चकरा उठा।
एक खबर बड़ी सुर्खियों में थी।
बुलंदशहर के सम्मानित नागरिक रिटायर्ड मजिस्ट्रेट श्री बिशम्बर गुप्ता की बहू के गायब होने की खबर—अब्दुल ने पढ़ा था कि लड़की का पिता ससुराल वालों पर दहेज मांगने का आरोप लगा रहा है—सारे शहर के साथ-साथ पुलिस का भी अनुमान है कि ससुराल वालों ने सुचि की हत्या करके लाश कहीं ठिकाने लगा दी है।
अब्दुल ने महसूस किया कि लाश बरमदगी की सूचना सबसे पहले बुलंदशहर पहुंचनी चाहिए, अतः उसने आदेश दिया—"लाश को एम्बुलेंस में रखवाओ।"
¶ ¶
हापुड़ के दहेज विरोधी संगठनों, व्यापारियों और महिला समितियों की एक संयुक्त आपातलीन बैठक पिछली रात ही हो चुकी थी—उसमें हापुड़ बंद का प्रस्ताव ध्वनि मत से पास हुआ।
आज हापुड़ बंद था।
हापुड़ के नागिरकों से भरी बसें सुबह से ही बुलंदशहर पहुंचने लगीं।
सारे शहर का वातावरण गर्म हो उठा।
बुलंदशहर के नागरिक भी उनके साथ थे—सो, आनन-फानन में 'बुलंदशहर बंद' की भी घोषणा कर दी गई।
बुलंदशहर बंद।
दहेज-विरोधी नारे लगाता हुआ विशाल जुलूस निकला—जनसमूह बिशम्बर गुप्ता परिवार के साथ ही पुलिस के विरुद्ध भी नारे लगा रहा था—सुचि का पता लगाने सम्बन्धी नारे लग रहे थे—हर तरफ उत्तेजित भीड़, गर्म नारे।
जुलूस थाने के बाहर पहुंचा।
लोग कुछ ज्यादा ही जोश में आ गए, नारे और ज्यादा गर्म हो उठे।
इंस्पेक्टर गोडास्कर ने भीड़ को शांत करके कहा—"आप लोग यकीन रखें, दोषी को जरूर सजा मिलेगी—सुचि को ढूंढने की पुलिस पुरजोर कोशिश कर रही है—बिशम्बर गुप्ता और उसके परिवार के लोगों को गिरफ्तार करने में कुछ कानूनी पेचीदगियां हैं, जो शाम तक राइटिंग एक्सपर्ट की रिपोर्ट आने पर दूर हो जाएंगी—मेरा विश्वास है कि आज शाम तक उन लोगों को जरूर गिरफ्तार कर लिया जाएगा।"
गोडास्कर अभी इतना ही बोल पाया था कि एक कांस्टेबल ने आकर उसके कान में सूचना दी—"गुलावठी सब—इंस्पेक्टर अब्दुल का फोन है, वह आपसे बात करना चाहते हैं।"
गोडास्कर अन्दर चला गया।
भीड़ भला कहां संतुष्ट होने वाली थी—नारे कुछ ज्यादा ही बुलंदी से उछलने लगे और फिर यह जुलूस जिलाधीश को ज्ञापन देने चल पड़ा।
¶ ¶
रेखा को सुबह सात बजे होश आया।
आठ बजे तक वे हस्पताल से घर आ गए—चीखने-चिल्लाने और रोने के बाद बिस्तर पर पड़ी रेखा अब सो चुकी थी—बाकी लोग भूखे-प्यासे, डरे-सहमें से ड्राइंगरूम में बैठे थे—सुबह का अखबार वे पढ़ चुके थे।
शहर के वातावरण से वे भी अपरिचित न थे।
उन्हें लग रहा था कि उत्तेजित जनसमूह को शांत करने के लिए पुलिस उन्हें किसी भी क्षण गिरफ्तार कर सकती थी, यह बात बिशम्बर गुप्ता ने अभी-अभी कही थी। जवाब में हेमन्त बोला—"अब आपको इतना डरना नहीं चाहिए बाबूजी, यह हंगामा और शोर-शराबा केवल तभी तक है जब तक सुचि की लाश नहीं मिल जाती—लाश मिलते ही सब कुछ बंद हो जाएगा, सबके मुंह पर ताले लग जाएंगे।"
"मगर उससे पहले पुलिस हमें गिरफ्तार तो कर सकती है?"
"केवल लोगों को शांत करने के लिए—कानूनी रूप से न पुलिस अभी पुख्ता है, न हो सकेगी क्योंकि एक्सपर्ट की रिपोर्ट हमें फेवर करेगी—गिरफ्तार हो भी गए तो पुलिस को तुरन्त छोड़ना पड़ेगा।"
"म...मगर एक बज गया है, लाश आखिर कब मिलेगी?"
"इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, मुमकिन है कि आज सारे दिन ही न मिले, क्योंकि लाश को हम ऐसे स्थान पर छोड़कर आए हैं जहां से उसे कोई आसानी से देख न सके।"
बिशम्बर गुप्ता के कुछ कहने से पहले ही कॉलबेल बज उठी।
सबने सवालियां नजरों से एक-दूसरे की तरफ देखा, यह लिखना गलत न होगा कि हेमन्त ने अपने पिता को आदेश दिया—"आप देखिए बाबूजी, कौन है?"
सस्पैंस में फंसे बिशम्बर गुप्ता दरवाजा खोलने चले गए—जब वापस आए तो उनके साथ एक व्यक्ति था और उस व्यक्ति को देखते ही ललितादेवी चीख पड़ीं।
"भइया!" वह दौड़कर उस व्यक्ति से जा लिपटी।
"बात क्या हुई ललिता, यह सब कैसे और क्यों हो गया?" कहते हुए उस व्यक्ति ने स्नेहपूर्वक उसके सिर पर हाथ फेरा—ललितादेवी फफक-फफककर रो रही थीं—इस कदर कि वह अपने भाई के सवाल का जवाब भी न दे सकीं, पीड़ा युक्त स्वर में बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"सब तकदीर का खेल है, जगदीश—लोग हमें दहेज के लोभी और हत्यारा कह रहे हैं—हमारे बारे में वह सब सोच रहे हैं जो कभी खुद हमने नहीं सोचा।"
"लेकिन हुआ क्या है जीजाजी, मुझे भी तो कुछ बताइए—टेलीग्राम और आज का अखबार मुझे लगभग साथ ही मिले—पढ़कर चौंक पड़ा मैं।"
बिशम्बर गुप्ता ने हेमन्त की तरफ देखा—जैसे पूछ रहे हों कि जगदीश को सच किस हद तक बताया जाए, जगदीश बोला—"बेहिचक मुझे सब कुछ बता दीजिए, अगर कोई ऊक-चूक बात भी हो गई होगी, तब भी मैं आपके साथ हूं—ऐसा भला कैसे हो सकता है कि बहन मुसीबत में हो और भाई साथ न दे?"
जगदीश के शब्द एक मजबूत घूंसा बनकर बिशम्बर गुप्ता के दिल पर लगे, कराह से उठे वह—"क्या तुम्हें हमसे और अपनी बहन से भी यह उम्मीद है जगदीश कि हमने दहेज मांगा होगा—सुचि की हत्या की होगी?"
"ऐसी बात नहीं है, जीजाजी?"
"फिर तुमने यह सोच कैसे लिया कि कोई ऊक-चूक बात हुई होगी?"
"मैंने तो यूं ही—शहर में इतना शोर मच रहा है, कोई बात तो होगी और मैं वही बात जानने के लिए बुरी तरह उत्सुक हूं।"
हेमन्त ने सब कुछ बता दिया।
सब कुछ।
यह भी कि सुचि की लाश को उन्होंने घर से निकालकर क्यों, कैसे और कहां पहुंचाया है, सुनकर जगदीश गंभीर हो गया, बोला—"मेरे ख्याल से आप लोगों ने बस यही ठीक नहीं किया।"
"क्या?"
"आप तो मुझसे बेहतर जानते हैं जीजाजी कि जुर्म को जितनी सख्ती के साथ दबाने का प्रयास किया जाए, उतनी ही तेजी से उछलकर लोगों के सामने आता है—सुचि की लाश मिलने तक न आपने कोई गुनाह किया था न झूठ बोला था, मगर उसके बाद जो कुछ किया, वह ठीक नहीं था । "
"हमने तो कहा था जगदीश, हेमन्त ही न माना।"
"क्यों हेमन्त?"
हेमन्त ने उल्टा सवाल किया—"आप हमारी जगह होते तो क्या करते?"
"लाश मिलते ही पुलिस को सूचित कर देता।"
"हुंह—कहना आसान है मामाजी, करना बहुत मुश्किल।"
"क्या मतलब?"
"पुलिस उसी समय सुचि की हत्या के जुर्म में हमारे हाथों में हथकड़ी डालकर थाने ले जाती।"
"लेकिन झूठ झूठ ही होता है, एक दिन सच्चाई अदालत और लोगों के सामन जरूर आती—मगर अब, मुसीबतों का फंदा अपने गले में तुम खुद डाल चुके हो।"
"सच्चाई कभी सामने नहीं आनी थी मामाजी, क्योंकि उसे सामने लाने के लिए हमारे पास कोई सबूत न था—आप बाबूजी से पूछ सकते थे, सुचि के पत्र की रोशनी में हर आदमी को हमारी कहानी इतनी खोखली लगती कि वह व्यंग्य से हंसने लगता था—नकवी और गोडास्कर उदाहरण हैं।"
"मगर अब ही तुमने क्य़ा कर लिया है—मेरा ख्याल तो यह है कि तुम्हारी स्कीम बुरी तरह फ्लाप होगी—यह साबित होने में देर नहीं लगेगी कि लाश को वहां तुमने पहुंचाया है—उसके बाद तुम लाख कहते रहना कि लाश तुमने वहां पहुंचाई जरूर है, मगर हत्या नहीं की—कोई विश्वास नहीं करेगा।"
"आप देखते रहे मामाजी, सब विश्वास करेंगे—सारी दुनिया को यकीन होगा—ये अदालतें उस झूठ को सच मानती है, जिसके पास सबूत हो, उस सच को सच नहीं जिसके सबूत न हों।"
जगदीश के कुछ कहने से पहले ही कॉलबेल पुनः बजी।
इस बार दरवाजा खोलने हेमन्त खुद गया, वापस आया तो साथ में गोडास्कर था—वह पहली बार बिना किसी पुलिस वाले को साथ लिए आया था—हेमन्त के चेहरे पर तो हवाइयां उड़ ही रही थीं—पुलिस को देखते ही जगदीश सहित अन्य सभी के चेहरे भी फक्क पड़ गए—बुरी-बुरी आशंकाओं से दिल धड़कने लगे।
गोडास्कर की भूरी आंखें जगदीश पर जम गईं और जब जगदीश ने ऐसा महसूस किया तो उसके पेट में गैस का गोला उठकर दिल पर ठोकर मारने लगा, गोडास्कर ने सीधे उसी से पूछा—"आपका परिचय?"
"ज...जी—मेरा नाम जगदीश है, इन बच्चों का मामा हूं—खुर्जे में...।"
"ओह, अच्छा—जिनके यहां कल रात मिस्टर अमित और हेमन्त गए थे?"
जाने क्यों जगदीश की इच्छा उनके झूठ में शामिल होने की न हुई और सच शायद बहन के प्यार ने न बोलने दिया। अतः वह चुप ही रहा—गनीमत यह हुई कि उसकी तरफ से किसी किस्म का जवाब मिलने का इंतजार किए बिना गोडास्कर ने हेमन्त की तरफ घूमकर सवाल किया—"क्या आप किसी शंकर नाम के व्यक्ति को जानते हैं?"
हेमन्त का दिल बल्लियों उछल पड़ा।
गोडास्कर के पहले ही सवाल से जाहिर था कि वह न सिर्फ सुचि की लाश तक पहुंच चुका था, बल्कि पत्र भी पढ़ चुका था—उसका दिल किसी ड्रम की तरह बजने लगा था।
"आपने जवाब नहीं दिया, मिस्टर हेमन्त?"
"ज...जी—कौन शंकर—मैं किसी शंकर को नहीं जानता।"
"याद कीजिए, दरअसल यह बहुत जरूरी है—दिमाग पर जोर डालकर सोचिए, मुमकिन है कि सुचि ने कभी इस नाम के किसी आदमी का जिक्र किया हो?"
"स...सुचि ने?"
"जी हां।"
हेमन्त को लगा कि गोडास्कर वही सोच रहा है जो वह सुचवाना चाहता था, कामयाबी की चमक को अपने चेहरे पर उभरने से बड़ी मुश्किल से रोका उसने, बोला—"नहीं तो, मगर—यह शंकर कौन है और सुचि को इस आदमी का जिक्र मुझसे क्यों करना चाहिए था?"
उसकी बात का जवाब देने के स्थान पर गोडास्कर ने बिशम्बर गुप्ता, ललितादेवी और अमित की तरफ देखते हुए सवाल किया—"क्या आप में से किसी ने कभी सुचि के मुंह से यह नाम सुना है?"
"नहीं।" तीनों का संयुक्त स्वर।
"मैं फिर कहता हूं कि ठीक से याद कीजिए।" गोडास्कर ने अपने शब्दों पर जोर दिया—"दरअसल शंकर नाम का यह आदमी आप लोगों को बेगुनाह साबित कर सकता है।"
"य...यह तुम क्या कह रहे हो, इंस्पेक्टर?" हेमन्त ने बड़ी ही खूबसूरत एक्टिंग की—"क...कौन है शंकर और वह हमें बेगुनाह कैसे साबित कर सकता है?"
"क्योंकि असली गुनहगार वही है।"
"क...क्या मतलब, हम कुछ समझे नहीं—पहेलियां मत बुझाइए इंस्पेक्टर, साफ-साफ बताइए कि बात क्या है—कौन शंकर, क्या किया है उसने और इस केस में अचानक ही यह अजनबी नाम कहां से जुड़ गया?"
"सुचि के पत्र से।"
"स...सुचि का पत्र—क्या पुलिस को मिला है, कहां से—प्लीज, जल्दी बताइए इंस्पेक्टर कि सुचि ने पत्र कहां से डाला है—कहां है वह, कहां है उसका पत्र?"
"सुचि मर चुकी है।"
"क...क्या?" योजना के मुताबिक हेमन्त, अमित और बिशम्बर गुप्ता मुंह फाड़े किसी स्टेच्यू के समान खड़े रह गए और ललितादेवी दहाड़े मार-मारकर रोने लगीं—खबर सुनते ही हेमन्त के निर्देशानुसार उन्हें इसी तरह रोना था।
जगदीश अपनी बहन की खूबसूरत एक्टिंग को देखता रह गया।
सबसे पहले नियंत्रित होने का नाटक हेमन्त ने किया, बोला—"क—कहां है वह—मेरी सुचि की लाश पुलिस को कहां से मिली?"
जो कुछ उसे अब्दुल से पता लगा था, वह सब बताने के बाद गोडास्कर ने सुचि की लाश से बरामद पत्र भी उन्हें पकड़ा दिया—अकेले हेमन्त ने नहीं, बल्कि उसके ऊपर झुककर जगदीश सहित पत्र लगभग सभी ने पढ़ा और उस पर आंसू टपकाने की खूबसूरत एक्टिंग भी की, जबकि गोडास्कर कह रहा था—"यह पत्र सुचि के गायब होने और आत्महत्या की सारी कहानी खुद सुना रहा है।"
"क्या पत्र यह नहीं बता रहा इंस्पेक्टर कि हमारा बयान अक्षरशः सच था?" हेमन्त ने जोश में भरकर कहा—"वह बयान जिस पर तुम यकीन न कर रहे थे?"
"स...सॉरी मिस्टर हेमन्त, सचमुच मैंने आपके साथ बड़ी ज्यादती की है—मगर आप तो जानते हैं, गुप्ताजी—हम पुलिस वाले कर ही क्या सकते हैं—सामने खड़ा व्यक्ति झूठा है या सच्चा, यह जानने का हम पर एक ही पैमाना होता है—सबूत—और आपके खिलाफ सबसे ठोस सबूत वह पत्र था जो अब शंकर का लिखा साबित हो रहा है और शायद इस पत्र की मौजूदगी की वजह से ही आपका बयान भी एकदम अस्वाभाविक, अटपटा और काल्पनिक लग रहा था—आई एम रियली वैरी सॉरी गुप्ताजी।"
सारे परिवार का दिल चाह रहा था कि वे बल्लियों उछलें—खुशियां मनाएं—नाचें, मगर उन जज्बातों को बड़ी मुश्किल से दबाए ललितादेवी ने कहा—"अब कहां है मेरी बहू? मुझे उसके पास ले चलो।"
"सॉरी मांजी।" गोडास्कर पहली बार सम्मानपूर्वक बोला—"अभी ऐसा नहीं हो सकता, आप लोगों को धैर्य़ रखना पड़ेगा।"
"क्यों?" बिशम्बर गुप्ता के मुंह से निकला।
"लाश चीरघर में है, पोस्टमार्टम के बाद आपको मिलेगी।"
"हम चीरघर जा रहे हैं, अपनी बहू की लाश को खुद यहां लेकर आएंगे।"
"सॉरी गुप्ताजी, अभी आप ऐसा नहीं कर सकते—आपको पुलिस, कानून और व्यवस्था की मदद करनी होगी।"
"हम समझे नहीं।"
गोडास्कर ने एक सिगरेट सुलगाई, गहरे कश के बाद सारा धुआं गटकता हुआ बोला—"बात दरअसल यह है कि गुप्ताजी कि लाश और यह पत्र मिलने का राज अभी तक गुप्त रखा गया है।"
"क्यों?"
"क्योंकि लोग अभी इकट्ठा हैं, एक जुलूस की शक्ल में हैं और उत्तेजित भी हैं—वे पूरी तरह यह मानते हैं कि सुचि को दहेज के लिए आप ही ने मारा है—इस वक्त अगर उन्हें सच्चाई बता दी जाए तो किसी को प्रिय नहीं लगेगी और इसीलिए वे इस सच्चाई पर यकीन भी नहीं करेंगे बल्कि उल्टे भड़क उठेंगे—पुलिस पर आपसे मिली-भगत या रिश्वत का इल्जाम लगाएंगे—तोड़-फोड़ और हिंसा भी भड़क सकती है—इस स्थिति से बचाने के लिए पुलिस के उच्चाधिकारीयों ने यह निश्चय किया कि आज का दिन निकल जाने दिया जाए—जुलूस आदि निकालने के बाद लोग ठंडे पड़ जाएंगे—अपने-अपने घरों में जाकर सो जाएंगे।"
"फिर?"
"कल सुबह जब लोग सोकर उठेंगे तो अखबार में उन्हें सुचि की लाश के फोटो, सारी कहानी और यह पत्र भी छपा मिलेगा उस वक्त लोगों को हकीकत जल्दी स्वीकार हो जाएगी।"
"ऐसा क्यों?" बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"आंदोलन, हिंसक वारदातें—तोड़-फोड़ और पुलिस पर इलजाम आदि तो वे कल भी लगा सकते हैं?"
"हरगिज नहीं—उत्तेजित भीड़ और एक व्यक्ति की मानसिकता में जो फर्क होता है उसे आपको समझना चाहिए—इस वक्त हम एक-एक व्यक्ति को अलग-अलग सच्चाई बता नहीं सकते और भीड़ सुनेगी नहीं, समझेगी नहीं—कल सुबह अलग-अलग, अपने-अपने घरों में जब लोग सच्चाई जानेंगे और समझेंगे भी—ऐसा जाहिर करेंगे जैसे आज के जुलूस में वे थे ही नहीं—कोई सड़क पर नहीं आएगा, भीड़ नहीं लगेगी तो बलवा भी नहीं होगा—य़दि किसी छोटे-मोटे संगठन ने भीड़ जुटाने की कोशिश भी की तो उसे आसानी से दबाया जा सकता है।"
"यानि आज हम सारे दिन अपने खिलाफ नारे लगने दें—गालियां सुनते रहें, लोगों का वह सब कहना सहन करते रहें जो हमने नहीं किया? ”
“मजबूरी है गुप्ताजी, इतनी मदद तो कानून की आपको करनी ही चाहिए और फिर, दूसरे लोगों की तरह अगर हकीकत अभी आपको भी नहीं बताई जाती, तब भी तो यह सब आपको सहन करना ही पड़ता?"
"तो फिर हमें हकीकत बताई ही क्यों गई?"
"उच्चाधिकारियों की बैठक का नतीजा यह निकला कि जब सच्चाई यह पत्र है तो गुप्ताजी के बेगुनाह परिवार को बेवजह उस तनाव में क्यों रखा जाए जिसमें रखने का कम-से-कम हकीकत खुलने के बाद पुलिस को कोई हक नहीं है, जिस क्षण से यह स्कैंडल उठा है उसी क्षण से आप लोग जिस तनाव मॆं हैं उससे मुक्त करने के लिए केवल आपको वास्तविकता बताने का निश्चय किया गया। ”
"मगर चीरघर तो हम जा सकते हैं?"
"मैं एक बार फिर क्षमायाचना के साथ कहूंगा कि नहीं—शहर के ज्यादातर लोग आपको और आपके परिवार के लोगों को जानते हैं—यदि आप किसी भीड़ में घिर गए या चीरघर पर आपको किसी ने देख लिया तो स्थिति बिगड़ सकती है।"
"मगर मुझे तो कोई नहीं जानता।" जगदीश ने कहा—"मैं तो चीरघर जा सकता हूं?"
एक पल जाने क्या सोचा गोडास्कर ने, फिर बोला—"आप जा सकते हैं, परन्तु याद रखें—कल सुबह से पहले न तो आपको किसी से हकीकत का जिक्र करना है, न ही यह बताना है कि गुप्ता परिवार से आपका क्या सम्बन्ध है और यह सब कानून की मदद करने के साथ-साथ आपको अपनी हिफाजत के लिए भी करना है।"
"जी।" जगदीश ने सिर्फ इतना ही कहा।
जेब से सुचि के पत्रों का गट्ठा निकालकर हेमन्त की तरफ बढ़ाते हुए गोडास्कर ने कहा—"यह अपनी अमानत संभालिए, मिस्टर हेमन्त—इन्हें पढ़ने के बाद इतना ही कह सकता हूं कि मुझे आपके दाम्पत्य जीवान पर फख्र है—इतने मधुर सम्बन्ध कम लोगों के होते हैं।"
"थैंक्यू।" कहकर हेमन्त ने पत्र ले लिए।
यह सोचकर उन सबकी बांछें खिल गई थीं कि पत्रों के रूप में उनके विरुद्ध एकमात्र जो सबूत गोडास्कर के कब्जे में था, उन्हें भी उसने लौटा दिया था—अपनी खुशी को बड़ी मुश्किल से दबाए अमित ने पूछा—"क्या उन दोनों पत्रों के सम्बन्ध में एक्सपर्ट की रिपोर्ट आ गई है?"
"जी हां, और वह भी आपकी फेवर में है।"
"क्या मतलब?"
"अपनी रिपोर्ट में एक्सपर्ट ने साफ लिखा है कि दोनों पत्र भिन्न व्यक्तियों द्वारा लिखे गए हैं।"
हेमन्त का दिल चाहा कि वह झपटकर गोडास्कर का मुंह चूम ले।
¶ ¶
"हा—हा—हा।" हेमन्त गगनभेदी कहकहों के साथ हंस रहा था—खुश सभी थे, मगर हेमन्त तो पागल ही हुआ जा रहा था—गोडास्कर के कुछ देर बाद जगदीश चीरघर चला गया और उसके जाने के बाद तो जैसे वहां दीवाली मनाई गई।
हेमन्त निरन्तर हंसता चला गया।
इतनी देर तक कि बिशम्बर गुप्ता चौंक पड़े, हेमन्त को झंझोड़ते हुए चीख पड़े वह—"हेमन्त—संभालो खुद को—खुशी से कहीं पागल ही न हो जाना।"
"हा—हा—हा...आपने देखा बाबूजी—आपकी पुलिस, आपका कानून हार गया—सब वही सोच रहे हैं जो मैंने चाहा...हा...हा...मैंने कहा था न बाबूजी कि पुलिस और कानून उस झूठ को सच मानते हैं जिसके सुबूत हों—उस सच को झूठ जिसके सबूत नहीं।"
"मान गए कि तुम ठीक कहते थे।" बिशम्बर गुप्ता बोले—"मगर खुद को संभालो बेटे—झूठ को सच साबित करके इतना खुश होने की जरूरत नहीं—खुश उस दिन होना जब सच को सच साबित करो—तुम्हें समय मिला है—यह जानने का समय कि सुचि किस चक्कर में उलझी हुई थी—बीस हजार का उसने क्या किया—अगर वह ब्लैकमेल हो रही थी तो ब्लैकमेलर कौन है—उसने आत्महत्या क्यों की?"
"हां।" हेमन्त ने चौंककर एक झटके से कहा—"मैं यह सब पता लगाकर रहूंगा—ब्लैकमेलर के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा मैं—अपनी सुचि की मौत का बदला उससे लेकर रहूंगा—अब मुझे मौका मिला है, सुचि के हत्यारे को मैं पाताल से भी खोज निकालूंगा, बाबूजी।"
बिशम्बर गुप्ता के चेहरे पर छाया तनाव कम होता चला गया।
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जगदीश रात के आठ बजे चीरघर से लौटा, उसने बताया कि पोस्टमार्टम हो चुका था, परन्तु उन्हें रिपोर्ट कल पता लगेगी।
खुशी से झूमते हुए हेमन्त ने बिशम्बर गुप्ता से कहा—"पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में होता ही क्या है—डॉक्टर सिर्फ यह बताता है कि मृत्यु कब और कैसे हुई—जाहिर है कि कल रात किसी समय सुचि ने गले में फंदा डालकर आत्महत्या की—रिपोर्ट भी यह बताएगी, यह नहीं कि आत्महत्या सुचि ने अपने कमरे में की या पेड़ से लटककर, अतः हमें किसी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं है।"
बात बिशम्बर गुप्ता को जमी।
नौ बजे से पहले-पहले वे सब सो गए।
सारी रात बिना किसी नए हंगामें के आराम से गुजर गई
सुबह।
पांच बजे।
नियमानुसार बिशम्बर गुप्ता को बिस्तर छोड़ देना चाहिए था परन्तु आज ऐसा नहीं हुआ—परिवार के अन्य सदस्यों की तरह लिहाफ में दुबके वे अब भी लम्बे-लम्बे खर्राटे भर रहे थे और ऐसा शायद इसलिए था, क्योंकि पिछली रात इनमें से कोई भी सो नहीं पाया था, बल्कि अमित बेचारा तो दो रात का जगा हुआ था।
दूसरे।
जब वे सोए, दिमाग चिंतामुक्त भी थे।
हां—जगदीश की स्थिति जरूर भिन्न थी, सो दूसरी बार कॉलबेल के चीखने पर उसकी नींद टूटी—जल्दी से उठा।
"जीजाजी—जीजाजी।" उसने बिशम्बर गुप्ता को झंझोड़ा तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठे—इसके बाद ललिता, अमित और हेमन्त को भी उसी तरह झंझोड़कर उठाया गया—यह सोचकर सभी के चेहरों पर आतंक फैल गया कि इतनी सुबह कौन हो सकता है, जबकि उस आतंक को देखकर हेमन्त ठहाका लगा उठा, बोला—"ये चेहरों पर बारह क्यों बजा रखे हैं, अब हमारे लिए डरने जैसी कोई बात नहीं है।"
कोई कुछ न बोला, कॉलबेल पुनः घनघनाई।
"मैं खोलता हूं, दरवाजा। इंस्पेक्टर शायद आज का अखबार लेकर आया है।" कहने के बाद वह दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
जाने क्यों—अज्ञात आशंकाओं से घिरे उनके दिल धाड़-धाड़ करके बज रहे थे—चेहरों पर हवाइयां और मन कुछ बोलने को न कर रहा था।
"क...क्या हुआ बाबूजी—कौन आया है?" हाथ दाएं-बाएं फैलाए अपने इर्द-गिर्द टटोलती रेखा ने ड्राइंगरूम में कदम रखा—तड़पकर ललितादेवी उसकी तरफ झपटीं और सहारा देती हुई बोलीं—"तू बिस्तर से क्यों उठ आई बेटी?"
उधर।
दरवाजा खोलते ही हेमन्त को गोडास्कर के दर्शन हुए।
हेमन्त के दिमाग में एक ही बात आई— ' यह कम्बख्त सोता भी है या नहीं?'
"हैलो मिस्टर हेमन्त!" गोडास्कर का व्यग्यांत्मक स्वर।
"हैलो, गुडमार्निंग इंस्पेक्टर।" कहते हुए हेमन्त की नजर उसके साथ आई फोर्स पर पड़ी और इस क्षण में उसका माथा ठनक गया—इतनी फोर्स के साथ वह पहली बार आया था—मकान के ठीक सामने दो जीपें और एक पुलिस एम्बेस्डर खड़ी थी।
हेमन्त के मुंह से अभी कोई आवाज न निकल पाई थी कि गोडास्कर ने अपनी बगल में खड़े अफसर का परिचय दिया—"इनसे मिलो हेमन्त, यह हमारे एस.पी. सिटी श्री आर.एन. शुक्ला हैं।
दिमाग घूम गया हेमन्त का।
असामान्य फोर्स और एस.पी. की मौजूदगी ने उसे हजार शंकाओं में घेर लिया, परन्तु स्वयं को सामान्य दर्शाते हुए हाथ जोड़ दिए। गोडास्कर ने बताया—"इन्हीं की दरियादिली के कारण कल सुचि की लाश की बरामदगी की सूचना सिर्फ तुम्हें दी गई थी।"
"ह...हम आपके एहसानमंद हैं, शुक्लाजी।" हेमन्त बड़ी मुश्किल से कह सका—"दरअसल सुचि के गायब होने से ही क्योंकि सारा शहर हम पर शक कर रहा था, इसीलिए हम लोग जबरदस्त टेंशन में थे और आपने हमें उस टेंशन से मुक्त किया।"
मिस्टर शुक्ला कुछ बोले नहीं।
जिस अंदाज में हेमन्त को घूर रहे थे, उस अंदाज को देखकर हेमन्त के प्राण खुश्क हुआ जा रहे थे, जबकि गोडास्कर ने कहा—"क्या हम लोगों को यहीं खड़ा रखेंगे, मिस्टर हेमन्त?"
"ओह, सॉरी—आइए, अन्दर आइए।"
इस तरह, वे लोग अन्दर प्रविष्ट हो गए—हेमन्त को लगा कि कुछ सशस्त्र सिपाही दरवाजे पर रुक गए थे—उसने महसूस किया कि पुलिस मकान के चारों तरफ घेरा डाल रही थी—ऐसा महसूस करते ही उसके रोंगटे खड़े हो गए थे कि इस सम्बन्ध में वह कुछ पूछ नहीं सकता था।
वे ड्राइंगरूम में पहुंचे।
बिशम्बर गुप्ता, जगदीश, ललितादेवी, रेखा और अमित वहां किसी संगतराश से तैयार की गईं मूर्तियों के समान खड़े थे, एकाएक रेखा ने कहा—"क्या बात है मम्मी—कोई खतरा तो नहीं है?"
हेमन्त के छक्के छूट गए, यह सोचकर वह कांप उठा कि पुलिस के आगमन से अनभिज्ञ रेखा कहां ऐसी वाक्य मुंह से न निकाल दे, जो उनकी सभी कारगुजारियों का पर्दाफाश कर दे, अतः जल्दी से बोला—"बैठिए एस.पी. साहब, आप भी बैठिए, इंस्पेक्टर।"
"क...क्या पुलिस आई है, मम्मी?"
"हां बेटी । " ललितादेवी ने कहा—"मगर अब डरने की कोई बात नहीं है, पुलिस बहू की आत्महत्या का असली कारण जान चुकी है।"
शुक्ला या गोडास्कर में से कोई भी बैठा नहीं था, व्यग्र हेमन्त ने सवाल किया—"आज का अखबार सबके सामने हमारी स्थिति साफ कर देगा न इंस्पेक्टर?"
"बेशक।" गोडास्कर ने कहा—"मगर सुबह का नहीं, शायद आज शाम का अखबार सारे शहर के समाने इस केस की असलियत रख देगा।"
"श...शाम का क्यों, आपने तो कहा था कि आज सुबह का अखबार।"
"अभी हम लोगों की इन्वेस्टीगेशन पूरी नहीं हो सकी है, मिस्टर हेमन्त।" उसका वाक्य बीच ही में काटकर गोडास्कर ने कहा—"हम लोग आपके मकान की तलाशी से अब आपकी इनवेस्टीगेशन का क्या ताल्लुक रह गया है—आप लोग तो जान चुके हैं कि...।"
"बात दरअसल यह है गुप्ताजी कि अभी तक शंकर का कुछ पता नहीं लगा है, मुमकिन है कि सुचि ने मकान में कहीं शंकर के बारे में कुछ लिखकर छोड़ रखा हो?"
"म...मगर तलाशी तो तुम कल ही ले चुके हो?"
"केवल सुचि के सामान और उसके कमरे की।" गोडास्कर का सपाट लहजा—"जबकि आज हम आपके पूरे मकान की तलाशी अच्छी
तरह लेना चाहते हैं।"
"उससे क्या होगा?"
"क्या आपको हमारे तलाशी लेने से कोई ऑब्जेक्शन है?" काफी देर से खामोश खड़े शुक्ला ने एकाएक पूछा तो हेमन्त बोल उठा—"ब...बिल्कुल नहीं—हमें भला क्या ऑब्जेक्शन हो सकता है, परन्तु...।"
"परन्तु?"
"ब...बात कुछ समझ में नहीं आई, अगर शंकर के बारे में सुचि ने कुछ लिखकर छोड़ रखा होता तो उसके कमरे में सामान में ही होता—बाकी मकान की तलाशी से क्या होगा?"
"आप इन सवालों पर सोचकर अपना दिमाग खराब न करें।" शुक्ला का स्वर बेहद कठोर था—"यह सब सोचना पुलिस का काम है, आप सिर्फ यह बताइए कि हमें तलाशी की इजाजत दे रहे हैं या सर्च वारंट की जरूरत है?"
"सर्च वारंट का अङंगा अपने बचाव के लिए अपराधी डालते हैं, सर।" गोडास्कर ने कहा—"जो बेगुनाह हों, उन्हें भला पुलिस को सहयोग देने में क्या आपत्ति हो सकती है, क्यों मिस्टर हेमन्त—क्या मैं गलत कह रहा हूं?"
"ब...बिल्कुल नहीं।" अपने ही शब्दों के जाल में फंसे हेमन्त को कहना पड़ा—"हमें भला क्यों आपत्ति होने लगी—आप शौक से तलाशी लीजिए।"
"काम शुरू करो, गोडास्कर।" शुक्ला ने उसे हुक्म दिया और गोडास्कर ड्राइंगरूम में मौजूद आधे सिपाहियों को लेकर मकान के भीतरी भाग में चला गया—हेमन्त ने महसूस किया कि जो सिपाही यहां बचे थे, वे परिवार के सभी सदस्यों के चारों तरफ ऐसे अंदाज में फैल गए थे जैसे घेरे में ले रहे हों।
हेमन्त को आसार अच्छे नहीं लगे।
पुलिस की कार्यवाही और रवैया इतना संदिग्ध था कि जगदीश सहित सभी के चेहरे खुद-ब-खुद फक्क पड़ गए—अमित और ललितादेवी के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं—बिशम्बर गुप्ता को काटो तो खून नहीं।
रेखा बेचारी तो सस्पैंस में फंसी खड़ी थी।
हेमन्त को लग रहा था कि कहीं-न-कहीं—कुछ-न-कुछ गड़बड़ जरूर हो गई थी।
लेकिन कहां?
क्या?
उसकी समझ में कुछ न आ सका।
सारी स्कीम में कहीं भी तो कोई लूज प्वाइंट नहीं था—योजना पूरी तरह कामयाब थी—कहीं, किसी गड़बड़ की संभावना नहीं—फिर, पुलिस के इस बदले हुए रवैये और संदिग्ध कार्यवाही की आखिर वजह क्या थी?
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