अगर देवराज चौहान हमसे अलग न हुआ होता तो अब तक हम तिलस्म से बाहर निकल गये होते ।" मोना चौधरी ने आगे बढ़ते हुए आसपास देखते हुए कहा--  "अब हमें लंबे रास्तों को तय करना पड़ रहा है ।"

शाम ने ढलना शुरू कर दिया था । मोना चौधरी और रूस्तम राव दोपहर से बढ़े जा रहे थे ।

"अब, कब तिलस्म से बाहर पौंचेला ?" रुस्तम राव ने पूछा ।

"बारह घंटों का वक्त तो लग ही जायेगा ।"

"तुम देवराज चौहान के नाम से तिलस्म क्यों बंधेला था तबं ?" रूस्तम राव बोला--- "तब तो वो तुम्हारा दुश्मन होएला ।"

मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव उभरे ।

"मुझे अब याद आ रहा है कि जब मैं तिलस्म के निर्माण के लिए नक्शा बनाने की तैयारी कर रही थी, तो गुरुवर का आशीर्वाद लेने के लिए उनके पास गई थी। गुरुवर ने आशीर्वाद देते हुए कहा था कि तिलस्म के ताले बांधते वक्त, उन तालों को खोलने के लिए देवा का नाम अवश्य डालूं । जब मैंने पूछा ऐसा क्यों गुरुवर तो गुरुवर सिर्फ मुस्कुरा कर रह गये । गुरुवर की बात तो मैं समझ नहीं सकी । परंतु उन्होंने जो कहा मैंने वैसा ही किया और तिलस्म के ताले खोलने में देवा का नाम डाल दिया । अब सोचती हूं तो यही लगता है कि तब गुरुवर भविष्य में झांक चुके थे कि क्या होने वाला है और वे ये भी जानते थे कि एक दिन मैं और देवा एक साथ पुनः जन्म देकर वापस नगरी में लौटेंगे और तिलस्म के रास्तों से गुजरेंगे । शायद यही वजह रही कि तिलस्म में भटकने के बाद भी देवा की जान सलामत रही । क्योंकि उसके रास्ते में तिलस्म के ऐसे कई ताले आये, जिन्हें अनजाने में तोड़ता हुआ आगे बढ़ता रहा।"

"तिलस्म का मामला तो आपुन की समझ से बाहर होएला । बातें अपुन के भेजे में नेई आएला ।"

"तुमने तिलस्म की विद्या गुरुवर से प्राप्त नहीं की । तभी ऐसा कह रहे हो ।"

"अपुन कैसे विद्या पाएला ।" रूस्तम राव ने गहरी सांस ली--- "उससे पहले ही तुम लोगों का लड़ाई शुरू होएला। फिर कौन बचेला, कोई नेई, कुछ मालूम नेई होएला । पेशीराम इधर भी आग लगाएला और उधर भी लगाएला । तुम्हारी खोपड़ी पर बैठा दालू तुम्हें भड़काएला और तब दालू तुम्हें सच्चा ही लगेगा ।"

"उस वक्त मैं जिन हालातों में फंसी थी, उसके मुताबिक गलत भी तो नहीं थी ।" मोना चौधरी ने कहा ।

"तो तब देवा किधर गलत होएला। बेला और मुद्रानाथ कहां पर गलत होएला ?" रूस्तम राव बोला ।

मोना चौधरी ने कुछ नहीं कहा ।

दोनों तेजी से आगे बढ़े जा रहे थे ।

"कुछ ही देर में रात होएला। किधर को रुकना मांगता क्या ?"

"नहीं ।"

"अंधेरे में रास्ता भटकेला और...।"

"जिन रास्तों को कभी मैंने ही बनाया था, उन्हें कैसे भूल सकती हूं । उनसे कैसे भटक सकती हूं ।"

रुस्तम राव ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला कि चेहरे पर अजीब से भाव आ गये । सीधे इसी रास्ते पर कोई खड़ा नजर आया । मोना चौधरी की निगाह उस पर टिक चुकी थी ।

"सामने कोई होएला।"

"हां ।" आगे बढ़ते ही मोना चौधरी की निगाह, उस पर ही थी ।

"जिस पोज में वो खड़ेला अपुन को उसका इरादा ठीक नेई लगेइला ।"

मोना चौधरी ने कुछ नहीं कहा ।

मिनट भर में ही वो उसके करीब जा पहुंचे।

वो छः फीट लंबा, चौड़ी कद-काठी का युवक था । हाथ में तलवार । कमर में खंजर और कटार फंसी नजर आ रही थी । होठों पर मूंछे थी । बाल छोटे-छोटे थे ।

"अम्बानाथ ।" मोना चौधरी के होठों से निकला ।

"ये कौन होएला ?"

"ये मेरा जंगी सेवक था, पहले जन्म में ।"

अम्बानाथ मुस्कुराया।

"देवी को एक बार फिर अपने सामने देखकर मैं खुश भी हुआ हैरान भी हुआ ।" अम्बानाथ बोला।

"कैसे हो अम्बनाथ ?" मोना चौधरी ने पूछा ।

"अच्छा हूं ।"

"तिलस्म में क्या कर रहे हो ?"

"तुम्हारी हत्या के लिए, तुम्हारी ही तलाश कर रहा था ।" अम्बानाथ ने कहा।

मोना चौधरी की आंखे सिकुड़ी।

"ये तो तुम्हें ही ढूंढेला बाप, मारने के वास्ते ।"

"ये तुम कह रहे हो अम्बानाथ ?" मोना चौधरी के होंठ भिंचते चले गये ।

"मैं जानता हूं ये सब आपको अच्छा नहीं लगेगा । परंतु मैं मजबूर हुं, आपकी मौत के बाद मैं गुलाबलाल की सेवा में चला गया था और अब उसी के आदेश से मेरे लिए सब कुछ है ।" अम्बानाथ ने कहा।

"ओह ! गुलाब लाल के आदेश पर तुम मेरी जान लेने आये हो ?"

"अमरु के आदेश पर । तिलस्म के संबंध में गुलाबलाल और अमरु का आदेश सेवकों के लिए एक जैसा ही होता है । अमरु ने बताया था कि तुम इस रास्ते से गुजरो कि और तुम्हें खत्म करना है । इसलिए मैं यहां आ गया ।"

मोना चौधरी के चेहरे पर क्रोध नाच उठा ।

"मुझे अफसोस है अम्बानाथ कि तुम्हारे मुंह से मुझे ये शब्द सुनने पड़े ।" मोना चौधरी गुर्रा उठी ।

"मैं मजबूर हूं । आपकी मौत के बाद मैंने अपनी सेवा गुलाबलाल के हवाले कर दी थी ।"

"मैंने कभी नहीं सोचा था अम्बानाथ कि एक दिन ऐसा भी आयेगा ।" मोना चौधरी एक-एक शब्द चबाकर कह उठी--- "ठीक है, तू गुलाबलाल के प्रति अपना सेवा भाव पूरा कर ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने मुद्रानाथ का दिया खंजर निकाला और होठों-ही-होठों में मंत्र बुदबुदाया तो खंजर डेढ़ फीट लंबा हो गया।

अम्बनाथ ने खंजर को देखा फिर मुस्कुराया ।

"इस खंजर से तुम तलवार का मुकाबला करोगी ।" अम्बनाथ ने कहा।

"इस खंजर की वजह से तुम कम-से-कम तीन फीट जो मुझसे दूर रहोगे ।" मोना चौधरी ने सख्त स्वर में कहा ।

अम्बानाथ ने वार करने के अंदाज में तलवार संभाली ।

"तुम पीछे हट जाओ।" मोना चौधरी ने रूस्तम राव से कहा ।

"ये मुकाबला बराबर का नेई होएला । तुम्हारे पास तलवार होना मांगता।" रुस्तम राव ने कहा।

"तुम दूर हटो ।" मोना चौधरी ने कठोर स्वर में कहा ।

रुस्तम राव भी छः-सात कदम पीछे हट गया ।

तभी अम्बानाथ ने तलवार का वार मोना चौधरी पर किया । पीछे हटते हुए, मोना चौधरी ने खुद को तलवार के वार से बचाया था। वो खा जाने वाली निगाहों से उसको देख रही थी, जबकि अम्बानाथ के चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे कि वो विजयी होने वाला है।

खंजर थामे मोना चौधरी खूंखार निगाहों से अम्बानाथ की आंखों में झांक रही थी ।

अम्बानाथ ने हाथ में दबी तलवार को यूं ही हवा में दो-तीन बार हिलाया । सुर्र की आवाज पैदा हुई, फिर तलवार के साथ मोना चौधरी पर झपट पड़ा । अम्बानाथ को पूरा विश्वास था कि मोना चौधरी वार से बचने की खातिर पीछे हटेगी । इधर-उधर होगी, यहीं पर वो धोखा खा गया।

मोना चौधरी अपनी जगह पर खड़ी रही । हवा में लहराती तलवार जब उसके शरीर के पास आई तो खंजर आगे कर दिया । तलवार और खंजर के टकराने की आवाज पैदा हुई । तलवार की रफ्तार में बेहद कमी आ गई थी । मोना चौधरी ने फुर्ती के साथ दूसरा हाथ आगे बढ़ाया और अपने शरीर की तरफ आती तलवार के बीचो-बीच अपना हाथ जमा दिया । तलवार वहीं रुक गई । यह सब क्षणों में ही हो गया ।

मोना चौधरी के एक हाथ में खंजर था।

दूसरा हाथ तलवार के बीचो-बीच इर्द-गिर्द कसा हुआ था ।

चेहरे पर मौत से भरी छाया नाच रही थी ।

अम्बानाथ के चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे । इससे पहले कि वो तलवार खींचता । जिससे कि मोना चौधरी का हाथ-उंगलियां कटती, मोना चौधरी ने दूसरे हाथ में दबा खंजर उसके पेट में घुसेड़ दिया । जो कि पीठ से बाहर लहू से सना नजर आने लगा ।

अम्बानाथ के होठों से चीख निकली । तलवार उसके हाथ से छूटकर गिर गई। वो लड़खड़ाया । मोना चौधरी ने तीव्र झटके के साथ पेट में धंसा खंजर निकाला तो अम्बानाथ तड़पकर जोरों से कांप उठा ।

मोना चौधरी ने जूते की ठोकर उसके पेट पर मारी तो वो पीठ के बल नीचे जा गिरा । उसके चेहरे पर पीड़ा थी । रह-रहकर वो कराह उठता । होंठ बार-बार दर्द की वजह से भिंच रहे थे ।

चेहरे पर दरिंदगी समेटे मोना चौधरी अम्बानाथ के पास पहुंची ।

"अम्बानाथ ।" मोना चौधरी गुर्रा उठी--- "तूने तो कभी सोचा भी नहीं होगा कि तेरी मौत मेरे हाथों से होगी ।"

"मुझे तो अभी भी विश्वास नहीं आ रहा कि तुमने खंजर से मुझे हरा दिया ।" अम्बानाथ की आंखों में पीड़ा थी ।

मोना चौधरी ने खंजर की नोक ठीक उसके दिल वाले हिस्से पर रखी ।

"अगर तूने मेरी जान लेने की चेष्टा न की होती तो मैं कभी भी तेरी जान न लेती ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने खंजर की मुठ पर दूसरे हाथ की हथेली इस तरह मारी जैसे हथोड़ा मारा जाता है । एक ही बार में खंजर उसके शरीर में प्रवेश करके दिल को चीरता चला गया।

अम्बनाथ जोरो से चीखकर तड़पा।

मोना चौधरी ने मुंह से पकड़कर खंजर को बाहर निकाल लिया ।

अम्बानाथ का शरीर जोरों से कांपा और शांत पड़ता चला गया ।

रूस्तम राव गंभीर निगाहों से मौत आया तमाशा देख रहा था ।

मोना चौधरी ने अम्बानाथ के शरीर पर पड़े कपड़ों से खंजर को अच्छी तरह साफ किया और मंत्र द्वारा उसे पुनः छोटा करके, कमर में फंसा लिया । चेहरे पर अभी भी क्रोध भरा तनाव था ।

"अब आगे चलने का प्रोग्राम तय करेला क्या ?"

रूस्तम राव के स्वर पर जैसे मोना चौधरी को होश आया । उसने अपना चेहरा रूस्तम राव की तरफ किया फिर सिर हिलाकर कह उठी ।

"चलो ।"

मोना चौधरी और रुस्तम राव पुनः आगे बढ़ गये । चेहरे पर छाये भाव धीरे-धीरे सिमटने लगे थे । बढ़ते कदमों के साथ मोना चौधरी सामान्य होती जा रही थी ।

और अब रात का अंधेरा भी वातावरण में सवार होने लगा था।

■■■

महल के एक कमरे को काम चलाऊ साफ करके वहां जगमोहन, महाजन, बांकेलाल राठौर, पारसनाथ, सोहनलाल, पाली और कर्मपाल सिंह ने वक्ती तौर पर रहने का ठिकाना बना लिया था। चूंकि शाम को ही खाना खाया था, इसलिए किसी को भूख नहीं थी ।

इस वक्त आधी रात के करीब का वक्त हो रहा था ।

फर्श पर ही वे सब लेटे हुए थे। थकान होने की वजह से सब गहरी नींद में डूब चुके थे, परंतु महाजन नींद नहीं ले सका था। जब भी नींद आने लगती तो दालू का चेहरा आंखों के सामने नाचने लगता फिर पिछले जन्म की बातें मस्तिष्क में उथल-पुथल पैदा कर देती ।

महाजन बेचैन-सा करवटें लेने लगता । वहां पर घुप्प अंधेरा था । कमरे की खुली खिड़की से मध्यम-सी रोशनी भीतर पड़ रही थी, जो कि अपर्याप्त होते हुए भी इस वक्त पर्याप्त-सी महसूस हो रही थी । वह महल के भीतर जाने कितने चक्कर लगा चुका था। हर चीज जानी-पहचानी थी । सारे रास्ते वही थे, जो पहले भी तय कर चुका था ।

एकाएक महाजन की आंखों के सामने पूर्वजन्म की मां का चेहरा नाचने लगा । ममता से भरी हर वक्त डांट लगाने वाली मां, जिसे हर कोई मौसी कहकर बुलाता था । एक ही तो बेटा था वह मां का और उसी के सहारे मां अपना जीवन बिता रही थी लेकिन...?

बीती यादों से महाजन अचानक ही बेचैन हो उठा। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करें, क्या नहीं ? क्या सोचे और क्या नहीं ? किसे सच माने, किसे झूठ ? आज वो नीलू महाजन था । परंतु पूर्वजन्म का नीलसिंह भी खुद को पा रहा था । दालू ने डेढ़ सौ बरस से नगरी का समय चक्र रोक रखा है तो नगरी में कहीं-न-कहीं आज भी उसकी मां जिंदा मौजूद है और उसे भूली नहीं होगी । तब...?

महाजन की सोचें थम गई ।

अगले ही पल सतर्क होकर उठ बैठा ।

वह स्पष्ट तौर पर कदमों की आहटें और मध्यम-सी बातों के स्वर सुन रहा था । महाजन ने तुरंत सब पर निगाह मारी। सब गहरी नींद में थे । महाजन उठ खड़ा हुआ और दबे पांव कमरे से बाहर की तरफ बढ़ा । दूसरों को नींद से उठाने से पहले, वो जान लेना चाहता था कि आने वाले कौन लोग हैं ?

"देवा ।" शुभसिंह बोला--- "तुमने तो कहा था कि देवी महल में मिलेगी ।"

"हां, मिलेगी ।" देवराज चौहान ने कहा--- "देर-सबेर में मोना चौधरी यहीं पहुंचेगी ।"

"तुम्हें अपनी बात पर कोई शक तो नहीं ।"

"नहीं ,मोना चौधरी और त्रिवेणी पक्का यहां आयेंगे ।"

इस वक्त वे चारों महल के भीतर अंधेरे में मौजूद थे ।

"लेकिन देवी यहां आयेगी कब तक ?" प्रतापसिंह बोला--- "हम कब तक इंतजार करेंगे ?"

"ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ेगा । कल दिन में किसी भी वक्त मोना चौधरी यहां पहुंच सकती है । अगर वो इससे भी देर लगाती है आने में तो समझो उसके साथ कोई हादसा पेश आ गया होगा ।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा ।

"अब क्या किया जाये ?" कीरतलाल बोला ।

"हम सब थके हुए हैं ।" प्रतापसिंह ने कहा--- "कई दिनों से आराम भी नहीं मिला । दिन निकलने तक हमें नींद ले लेनी चाहिये ताकि कल खुद को ठीक महसूस कर सकें।"

"लेकिन यहां आराम करने की जगह ही कहां है ?"

"जगह मैं बना देता हूं ।" शुभसिंह कह उठा--- "तिलस्मी लकीरें भी खींच दूंगा कि नींद में हमें कोई दुश्मन नुकसान पहुंचाने के इरादे से बाहर न आ सके।"

"यहां तो अंधेरा भी है ।" कीरतलाल बोला ।

"अंधेरा, इस वक्त हमारा सहायक है। किसी तरह की रोशनी करके यह जाहिर करना ठीक नहीं कि हम यहीं हैं । दालू और गुलाबलाल के आदमी हमें तलाश करते फिर रहे हैं ।" देवराज चौहान ने कहा।

"ठीक है ।" शुभसिंह ने कहा--- "मैं जगह तैयार करता हूं ।" कहने के साथ ही अंधेरे में शुभसिंह की बड़बड़ाहट सुनाई दी । फिर कुछ पल बाद बोला--- "जहां हम खड़े हैं, यह जगह अब बिल्कुल साफ हो चुकी है । हम फर्श पर लेटकर नींद ले सकते हैं ।"

तभी महाजन का स्वर कानों में पड़ा ।

"बहुत बढ़िया शुभसिंह, तो अब तू देवा की तरफ हो गया ।"

चारों की निगाहें फौरन आवाज की तरफ गई ।

"महाजन ।" देवराज चौहान के होठों से निकला।

"ये तो नीलसिंह की आवाज है ।" शुभसिंह हैरान-सा कह उठा ।

"हां, मैं नीलसिंह ही हूं ।" महाजन की आवाज पुनः आई ।

"ओह ! अब तो रोशनी करनी ही पड़ेगी ।" शुभसिंह का स्वर गूंजा और फिर अगले ही पल वहां भी बेहद मध्यम-सी रोशनी फैल गई । इतनी कि वे एक-दूसरे को देख सकें।

कुछ ही कदमों के फासले पर मुस्कुराता हुआ महाजन खड़ा था ।

"तुम्हें यहां देख कर खुशी हुई देवराज चौहान ।" महाजन कह उठा ।

"तुम्हें ठीक देखकर मुझे भी खुशी हुई ।" देवराज चौहान मुस्कुरा पड़ा--- "लेकिन यहां पर तुम्हारे मिलने की आशा जरा भी नहीं थी ।"

"संयोग से ही हम यहां आ गये। फकीर बाबा ने यहां पहुंचा दिया । कुछ घंटे पहले ही यहां पहुंचे...।"

"तुमने अभी शुभसिंह और देवा कहा था ।" देवराज चौहान ने टोका--- "इसका मतलब तुम पहले जन्म को याद कर चुके हो । मालूम हो चुका है कि तुम पहले क्या थे और...।"

"हां ।" महाजन ने गहरी सांस ली--- "सब मालूम हो गया है । तभी तो चैन नहीं मिल रहा ।

"नीलसिंह ।" शुभसिंह के स्वर में खुशी के भाव थे ।

"शुभसिंह।" अगले पल दोनों गले जा मिले ।

महाजन, कीरतलाल और प्रताप सिंह से भी मिला।

महाजन ने देवराज चौहान को देखा ।

"बाबा ने कहा था कि तुम्हारे साथ मिन्नो भी होगी । त्रिवेणी भी होगा, वो सब कहां है ?"

देवराज चौहान ने बताया कि किस तरह वो मोना चौधरी और त्रिवेणी से अलग हुआ ।

"वो दोनों जल्द ही यहां पहुंचेंगे ।" देवराज चौहान ने कहा--- "क्योंकि...।"

"देवराज चौहान ।" अचानक ही वहां जगमोहन का स्वर गूंज उठा ।

"जगमोहन ।"

जगमोहन दौड़ता हुआ आया और देवराज चौहान के गले जा लगा ।

"जग्गू ।" शुभसिंह के होठों से निकला।

"कीरतलाल, ये तो जग्गू है ।" प्रतापसिंह के होठों से अविश्वास भरा स्वर निकला ।

"हां, कुदरत का करिश्मा है हमारे सामने ।"

"अभी और भी करिश्मे है यहां ।" महाजन हंसकर बोला ।

"क्या मतलब ?" शुभसिंह ने पूछा।

देवराज चौहान और जगमोहन अलग हुए ।

"बाकी लोगों के बारे में कोई खबर ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

"वो भीतर सो रहे हैं । अभी उन्हें उठाता हूं ।" कहने के साथ जगमोहन वापस पलट गया ।

महाजन ने शुभसिंह, कीरतलाल और प्रतापसिंह को देखा ।

"गुलचंद, परसू और भंवर सिंह भी इस वक्त हमारे साथ हैं ।" इन बातों के दौरान महाजन बेहद अजीब-सा महसूस कर रहा था--- "जग्गू उन्हें लेकर आता है ।

"परसू ।" शुभसिंह के होठों से खुशी भरा स्वर निकला ।

"गुलचंद और भंवर सिंह भी ।" कीरतलाल के स्वर में अविश्वास के भाव थे ।

जगमोहन सबको ले आया ।

वे सब शुभसिंह, कीरतलाल और प्रतापसिंह को मिले । हालांकि उन्हें पूर्वजन्म की बातें याद नहीं आई थी । परंतु उनसे मिलकर वे बहुत खुशी महसूस कर रहे थे । लेकिन शुभसिंह, कीरतलाल और प्रतापसिंह तो उनसे मिलकर खुशी से पागल हो उठे थे ।

पाली और कर्मपाल सिंह उलझन भरे ढंग से ये खुशी भरा मिलन देख रहे थे । उसके बाद नींद कहां आनी थी। बातों में ऐसे लगे कि सुबह ही सो पाये।

■■■

वे सब सुबह नौ बजे जागे। नहा-धोकर तैयार हुए । उसके बाद शुभ सिंह ने खाने-पीने का इंतजाम किया तो खाने के दौरान बातों में व्यस्त हो गये । एक-दूसरे से वो लोग, सब बातें जान चुके थे और अब वे सब हालातों से पूरी तरह वाकिफ हो चुके थे । परंतु जगमोहन, पारसनाथ, सोहनलाल और बांकेलाल राठौर तो पूर्वजन्म के बारे में कुछ नहीं जान पाये थे । इस पर भी वक्ती तौर पर हालातों से वाकिफ हो चुके थे । पाली, कर्मपाल सिंह सब कुछ समझ कर भी, कुछ नहीं समझ पा रहे थे । इसलिए बातों के दौरान वे खामोश ही रहे ।

"आज दालू का अनुष्ठान पूरा हो जाएगा ।" महाजन कह उठा--- "यानी कि हाकिम नगरी में मौजूद होगा ।"

"हकीम नगरी में पहुंच गया तो हमारी खैर नहीं ।" शुभसिंह चिंतित स्वर में कह उठा ।

"हाकिम को आने से रोका तो नहीं जा सकता ।" महाजन ने गुस्से से कहा--- "इसलिए इस बारे में सोचना छोड़कर यह सोचा जाये कि हाकिम से कैसे मुकाबला किया जा सकता है तो शायद कोई रास्ता निकले ।"

शुभसिंह ने देवराज चौहान को देखा ।

"हाकिम से मुकाबला तो देवी ही कर सकेगी । देवा बता रहा था कि...।"

"अभी तक मिन्नो यहां नहीं पहुंची ।" महाजन ने बात काटकर कहा--- "जबकि देवराज चौहान के कहे मुताबिक अब तक मिन्नो को यहां पहुंच जाना चाहिये । पेशीराम ने भी यही कहा था कि मिन्नो जल्द ही यहां आ जायेगी । समझ में नहीं आता कि वो यहां पहुंची क्यों नहीं ?"

दो पल के लिए खामोशी छा गई ।

"वो सब खाना भी खाते जा रहे थे ।

"हो सकता है, मोना चौधरी के सामने कोई दिक्कत आ गई हो ।" देवराज चौहान ने कहा--- "वरना मोना चौधरी के कहे मुताबिक अब तक उसे आ जाना चाहिये था ।"

"तिलस्म में देवी किसी मुसीबत में नहीं फंस सकती ।" शुभसिंह ने विश्वास भरे स्वर में कहा--- "आपने ही बनाये तिलस्म में भला देवी कैसे फंस सकती है।"

"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मोना चौधरी के तिलस्म में मैंने काफी वक्त गुजारा है तिलस्म के सब रास्ते उसने बे-खौफ तय किए हैं ।"

"हो सकता है, दालू ने उसके लिए कोई मुसीबत खड़ी कर दी हो कि...।"

"दालू इस वक्त अनुष्ठान में व्यस्त हैं ।" महाजन ने कहा--- "वो अनुष्ठान के अलावा कोई बात नहीं सोच सकता । बाहरी किसी बात की उसे खबर नहीं । ऐसे में वो मिन्नो के लिए कोई मुसीबत खड़ी नहीं कर सकता ।"

जगमोहन ने कहा ।

"हो सकता है, मोना चौधरी अभी रास्ते में हो । इस तरफ बढ़ रही हो ।"

"हां, इन हालातों में सिर्फ यही सोचा जा सकता है ।" देवराज चौहान ने कहा ।

"मैं तिलस्म का फेरा लगाकर देखता हूं कि...।" शुभसिंह ने कहना चाहा।

"नहीं, अभी मोना चौधरी का इंतजार करने का हमारे पास वक्त है ।" देवराज चौहान ने कहा--- "वैसे भी इस तरह खुले में घूमना ठीक नहीं । गुलाबलाल के आदमी तिलस्म में हम लोगों को ढूंढ रहे होंगे ।"

शुभसिंह ने सहमति में सिर हिलाया।

"यह भी तो हो सकता है कि गुलाबलाल ने तिलस्म में मोना चौधरी के लिए कोई रोड़ा खड़ा कर दिया हो ।" सोहनलाल ने कहा।

"गुलाबलाल तो दालू की तरह व्यस्त नहीं है ।"

"हां ।" पारसनाथ ने सहमति दी--  "गुलाबलाल हर वो काम करेगा, जो दालू के लिए फायदेमंद हो ।"

"गुलाबलाल तो दालू की टांगों पे बैठो हो । वो जो करो, वो ही कम हौवो ।" खाना खाते-खाते बांकेलाल राठौर ने कहा--- "अमको कैद करते ही वो उसी दल्लू को खबर भिजवायो । यो सब ही एको ही थैली के चट्टे बट्टे हौवे।"

"तुम ठीक कहते हो ।" शुभसिंह ने सहमति में सिर हिलाया--  "गुलाबलाल के सारे ठाठ-बाठ दालू की वजह से ही है । ऐसे में वो दालू का अहित नहीं होने देगा ।"

"अगर गुलाबलाल का खास आदमी अमरु हाथ आ जाये तो उससे काम की बातें मालूम हो सकती हैं कि तिलस्म में देवी की क्या स्थिति है ।" कीरतलाल ने कहा ।

"अमरू तो तिलस्म का कीड़ा है ।" प्रतापसिंह ने कहा--- "तिलस्म में उस पर काबू नहीं किया जा सकता ।"

"अमरू तिलस्म में, देवी का मुकाबला नहीं कर सकता।" शुभसिंह ने कहा--- "इसलिए अमरू देवी के लिए कोई मुसीबत नहीं खड़े कर सकता। बल्कि देवी ही उसे खत्म कर देगी ।"

"यह बात तो सही है ।" प्रतापसिंह ने कहा ।

महाजन चेहरे पर क्रोध के भाव समेटे, शुभसिंह को देखकर कह उठा ।

"शुभसिंह ।" महाजन पर जैसे पागलपन का दौरा पुनः रहा हो--- "मुझे तो दालू की हिम्मत पर हैरानी हो रही है कि कुत्ते की तरह दुम हिलाने वाला आज नगरी का मालिक बन बैठा है । हमें आंखें दिखा रहा है ।"

शुभसिंह दो पल चुप रहकर कह उठा।

"देवी की कुछ गलतियां हुई । दालू ने उसका फायदा उठाया । इसके साथ ही उसके हाथ में तिलस्मी ताज आ गया, जो अपने आप में दैविक शक्तियां लिए हुए हैं । जिससे उसने नगरी का समय चक्र रोक दिया । उसी ताज की वजह से खुद को पूरी तरह सुरक्षित कर लिया । इसके साथ ही उसने चालाकी से काम लेते हुए हाकिम से दोस्ती गांठ ली । यानी कि सब ताकतें दालू के बस में हो गई । ऐसे में वो क्यों किसी से डरेगा।"

महाजन दांत पीसकर रह गया ।

"दल्लू तो बोत किस्मत वालों निकलो हों उसो की दाल तो पूरी गलो हो ।"

"जितनी दाल गलनी थी गल गई । डेढ़ सौ बरस तक नगरी पर राज कर लिया, नगरी वालों को दुख देकर। लेकिन अब उसे अपने किए की सजा भुगतनी होगी । मैं मारूंगा दालू को उसे...।"

"नीलसिंह ।" शुभसिंह गंभीर स्वर में कह उठा--  "तुम दालू को मारने की बात कर रहे हो, जबकि उसे देख पाना भी आसान नहीं है । मैं तुम्हें फिर कहता हूं उसे पहले वाला दालू न समझ, बल्कि उसे शक्तिशाली दुश्मन समझो। शायद अभी हम उसका मुकाबला कर सकें ।"

"अनुष्ठान पूरा होते ही हाकिम आ जायेगा ।" जगमोहन ने कहा--- "ऐसे में कोई भी दालू का कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि हाकिम से टक्कर नहीं ली जा सकती ।"

"इन बातों को छोड़कर, हमें मन को शांत रखते हुए मोना चौधरी का इंतजार करना चाहिये। अगर वो वक्त पर पहुंच गई और उसे वो किताब मिल गई, जिसमें हाकिम को समाप्त करने की तरकीब दर्ज है तो उस स्थिति में शायद हाकिम को खत्म किया जा सके ।" देवराज चौहान ने कहा।

"इसो बात की क्या गारंटी हौवो कि डेढ़ सौ बरस से वो किताब वां ही पड़ो हौवो ?"

बांकेलाल राठौर के शब्दों पर कईयों के चेहरे पर बेचैनी उभरी ।

पाली, कर्मपाल सिंह के कान में फुसफुसाया ।

"इनकी बातें तेरी पल्ले पड़ रही है ?"

"मेरे को लग रहा है, मैं किसी अजीब तरह के पागलखाने में पहुंच गया हूं ।" कर्मपाल सिंह ने कहा ।

"वही तो मैं कह रहा हूं ।" पाली में व्यंग से धीमे स्वर में कहा--- "डेढ़ सौ बरस पहले की बातें हो रही हैं । लोग वैसे के वैसे ही। समय चक्र को रोक दिया गया है । ये बातें सुनता रहा तो मैं पागल अवश्य हो जाऊंगा । अब ये हाकिम का जिक्र कर रहे हैं । क्या वो रावण से भी खतरनाक है जो...।"

"रावण से निपटने के लिए तो वहां राम था । यहां कोई राम भो तो मौजूद नहीं ।" कर्मपाल सिंह बोला ।

महाजन ने शुभसिंह से कहा ।

"दालू तिलस्मी ताज की ताकत से ही हम लोगों को खत्म कर सकता था । ऐसे में हाकिम को क्यों बुला रहा है वो ?"

"दालू जितना शक्तिशाली बन गया है, जितनी ताकतें उसके पास है, उतना ही डरपोक भी हो गया है । हमें खत्म करने के लिए ताज सहित उसे खुले में आना पड़ता और उसे डर रहा होगा कि कहीं वह हमारी किसी चाल का शिकार होकर जान न गंवा बैठे । इसी वजह से उसने हाकिम को बुलाया ।"

महाजन ने दांत पीसकर कहा।

"दालू शुरू से ही दिमागी चालों में शातिर रहा है । हम लोग मैदान में मुकाबला करते थे, परंतु दालू हर बात का मुकाबला अपने दिमाग से करता था । यही वजह रही कि मिन्नो उसके धोखे में फंसी रही ।"

"लेकिन अब दालू की पोल हमारे सामने खुल चुकी है । यह बात दालू भी जान चुका है ।" शुभसिंह की आवाज में भी गुस्सा आ गया---- "उसने मुझे बुत बनाकर, झूठे इल्जाम में कैद में डाल दिया क्योंकि वो जानता था कि मैं उसकी झूठी बातों में नहीं फंसूंगा और उसके विरोध में खड़ा हो जाऊंगा ।"

"सब बातों का हिसाब दालू को देना होगा ।"

खाना समाप्त करके, वे हाथ-मुंह धोने में लग गये ।

महाजन ने देवराज चौहान से कहा ।

"तुम्हारे परिवार वाले कैसे हैं ?"

"वैसे ही, जैसे उन्हें छोड़कर घर से झगड़े के लिए निकला था ।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली ।

"मेरा मां से मिलने को दिल कर रहा है ।" महाजन की आंखों के सामने अपनी मां (मौसी ) का चेहरा नाच उठा--- "मेरे बिना, जाने कैसे वो जी रही होगी ?"

जवाब में देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा ।

"जगमोहन के परिवार वालों से मुलाकात हुई ?"

"नहीं, उनसे मिलने का वक्त नहीं मिल पाया । ज्यादा देर नहीं रूक पाया बस्ती में ।"

यही वो वक्त था, जब महाजन की निगाह मोना चौधरी पर पड़ी, जो रूस्तम राव के साथ सामने से तेजी से बढ़ी आ रही थी ।

"बेबी ।" महाजन खुशी से चिल्ला उठा ।

सबकी निगाहें उस तरफ उठीं ।

■■■

मोना चौधरी और रुस्तम राव उन सबको वहां देखकर प्रसन्न हो उठे । करीब पहुंचकर वे सबसे हंसी-खुशी मिले । प्रतापसिंह और कीरतलाल, देवी का संबोधन देते हुए, मोना चौधरी के पैरों में लेट गये ।

मुलाकात के कामों से मोना चौधरी फारिग हुई ।

"तुमने पहुंचने में इतनी देर कैसे लगा दी ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

"देर तुम्हारी वजह से हुई ।" मोना चौधरी ने कहा ।

"मेरी वजह से ?"

"हां, तुम अचानक गायब हो गये, तुम्हारे साथ होने पर कई जगह से तिलस्म टूटना था और रास्ता छोटा हो जाना था । परंतु तुम्हारे साथ न होने से लंबे रास्तों को तय करके आना पड़ा ।" मोना चौधरी ने कहा--  "लेकिन तुम्हें यहां देखकर हैरानी हो रही है । अचानक कहां गायब हो गये थे ?"

"मुझे अमरू ने वहां से गायब करके, तिलस्म में कहीं और छोड़ दिया था ।" देवराज चौहान ने बताया--- "वहां मुझे शुभसिंह, प्रतापसिंह और कीरतलाल मिल गये, जो कि तुम्हारी ही तलाश कर रहे थे । मैंने इन्हें बताया कि तुम महल में पहुंचने वाली हो तो शुभसिंह मुझे यहां ले आया।"

"समझी ।" मोना चौधरी ने जगमोहन और दूसरों को देखा--- "तुम लोग यहां कैसे आ गये ?"

जगमोहन ने बताया ।

अनुष्ठान समाप्ति पर है, यह जानकर मोना चौधरी गंभीर हो गई । महाजन के चेहरे पर एकाएक आई कठोरता देखकर मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ी ।

"तुम्हें क्या लगता है महाजन ?" मोना चौधरी ने पूछा ।

"इसे दालू पर गुस्सा आया हुआ है देवी ।" शुभसिंह ने कहा ।

"दालू पर...।" मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे--- "तो क्या तुम्हें सब कुछ याद आ गया ?"

"हां ।" महाजन के होठों से खतरनाक स्वर निकला--- "तिनका-तिनका याद आ गया है । वो कुत्ता दालू जो कभी सिर झुका कर सामने खड़ा होकर हुकुम का इंतजार करता था, आज वो हमारे मुकाबले पर उतर आया है । हमें मारने के लिए हाकिम को बुला रहा है । तुम्हारा ही चहेता था दालू ।"

मोना चौधरी के चेहरे पर गंभीरता आ गई ।

"कितनी बार तुम्हें आगाह किया था कि दालू तुम्हें गलत रास्ता दिखा रहा है । उसका मन साफ नहीं । परन्तु तुमने न तो मेरी सुनी, ना परसू की । अपने बापू की भी नहीं मानी । मुद्रानाथ और बेला ने कितना समझाया कि दालू को अपनी सेवा से मुक्त कर दो और तुम दालू के खिलाफ सुनने को तैयार नहीं थी।"

मोना चौधरी की निगाह महाजन के सुर्ख चेहरे पर टिकी रही ।

"तुम्हारे तिलस्मी ताज पर कब्जा जमाये बैठा है । क्या कर लोगी अब तुम उसका ?"

मोना चौधरी चुप रही ।

सबकी निगाहें उन दोनों पर थी ।

"नगरी का समय चक्र रोक रखा है । नगरी में दहशत फैला रखी है । आज हर कोई डरता है दालू से । उसके सामने सिर उठाने की किसी की हिम्मत नहीं । नगरी और तिलस्म का मालिक बना बैठा है । हाकिम की ताकत उसके पास है । बोलो, क्या कर लोगी तुम ?"

"महाजन ।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा--- "बीती बातों पर नजर मारने से कोई फायदा नहीं होगा । हमें आज का मसला हल करना है ।"

"इसके सिवाय तुम कर भी क्या सकती हो ?" महाजन ने सुलगे स्वर में कहा ।

मोना चौधरी ने दूसरों पर नजर मारी ।

"और किस-किस को पिछला जन्म याद आया है ?" मोना चौधरी ने पूछा ।

"किसी को भी नहीं ।" पारसनाथ ने गंभीर स्वर में कहा--- "तुम सब की बातों से, हालातों की जानकारी तो हो गई है, परंतु तब क्या हुआ था, ये नहीं जान पाया ।"

"सब याद आयेगा । पेशीराम यानी कि फकीर बाबा याद दिलायेगा । गुरुवर याद दिलायेंगे । लेकिन इन सब बातों से पहले दालू और हाकिम से निपटना है ।" मोना चौधरी ने होंठ भींचकर कहा ।

"म्हारे को पैले जन्में में भंवर सिंह कहो का ?"

"हां ।" जवाब दिया देवराज चौहान ने--- "तुम भंवर सिंह ही थे । तुम्हारी पत्नी थी । एक बच्चा था । नगरी का समय चक्र रुका हुआ है । इसलिए वो अब भी होंगे ।"

"का ?" बांकेलाल राठौर ने अपनी मूंछ उमेठी--- "म्हारो लुगाई भी हौवो का ?"

"हां ।" देवराज चौहान के होठों पर हल्की-सी मुस्कान उभरी ।

"वो अभ्भी भी हौवो ?"

"हां ।"

"थारे ख्याल से का उम्र होवो उसो की ?"

"बाप ।" रूस्तम राव हंसा--- "मुंह में पानी आएला क्या ?"

"चुप छोरे। अंम आपणों परिवारों की खैरियत जानो हो ।" बांकेलाल राठौर ने आंखें निकाली--- "थारे को यो तो पता हौवे कि म्हारो लुगाई की उम्र का हौवे ?"

"बाप ।" रुस्तम रावण व्यंग से कह उठा--- "तुम्हारा गाड़ी पटरी से सरकेएला ।"

"छोरे तम फिर बोलो हो ।"

महाजन ने रूस्तम राव से कहा ।

"तेरा तो लाडो से ब्याह हो रहा था ।"

""हां, पण फेरे पूरे नहीं हो पाएला और बीच में ही उठेला बाप ।" कहकर रुस्तम राव ने सोहनलाल को देखा--- "गुलचंद आएला अपुन के पास, जब अपुन मंडप में होएला । नशे में धुत होएला और अपुन को बोला, देवा कालूराम के चुंगल में फंसेला है । ये सुनते ही अपुन को उठना पड़ेला बाप । ब्याह अधूरा ही रएला ।

"लाडो मिली ?"

"हां, मिएला बाप।" रुस्तम रानी गहरी सांस ली--  "अपुन को रोटी बनाकर भी खिलाएला । बोत बातें करेला । पण उसे छोड़कर तिलस्म में पौंचेला । पेशीराम ऐसा करने कूं बोला ।"

देवराज चौहान शांत स्वर में मुस्कुरा कर रह गया ।

मोना चौधरी ने मुस्कुराकर महाजन से कहा ।

"मौसी से मिली मैं...।"

"क्या ?" महाजन का स्वर एकाएक खुशी से कांप उठा--  "मां...मां से मिली तू ?"

"हां, मौसी तेरा हाल पूछ....।"

"कैसी है मां ?"

"अच्छी है, बिल्कुल वैसी ही है । मौका नहीं छोड़ती ताने मारने का ।" मोना चौधरी हौले से हंसी--- "मक्की की रोटी और सरसों का साग खिलाते हुए मेरे को ही कौसती रही कि मैं नीलसिंह को ले मरी । लेकिन मैंने मौसी की बात का बुरा नहीं माना क्योंकि उसका दिल हमेशा साफ रहता...।"

"बेबी ।" महाजन की आंखों में पानी चमक उठा--- "मैं मां से मिलना चाहता हूं । मैं...।"

"जरूर मिलना, लेकिन हाकिम का जो खतरा है, पहले उससे निपट लें ।"

महाजन ने कुछ नहीं कहा और गीली आंखों को साफ करने लगा ।

"पारसनाथ ।" मोना चौधरी ने कहा--- "मुझे इतना वक्त नहीं मिल पाया कि तुम्हारे परिवार वालों से मिल पाती ।"

पारसनाथ के खुरदरे चेहरे पर मुस्कान उभरी ।

"मिल भी आती तो मुझे क्या फर्क पड़ता है मोना चौधरी ।" पारसनाथ कह उठा--- "क्योंकि मुझे तो बीती बातें याद नहीं । कुछ भी पता नहीं कि मैं खुश या नाखुश होता ।"

"सब को याद आयेगा ।" मोना चौधरी विश्वास भरे स्वर में कह उठी ।

तभी शुभसिंह ने कहा ।

"देवी, तुम नहा-धोकर कुछ खा लो । फिर आराम करना । ताकि...।"

"नहीं ।" मोना चौधरी की निगाह महल के भीतरी हिस्सों की तरफ उठी--- "मुझे सबसे पहले उस किताब को देखना है, जिसमें हातिम की मौत का ढंग दर्ज है । वो मैंने इसी महल में छिपा कर रखी थी । किताब मिल गई तो हाकिम से टक्कर लेने की सोची जा सकती है ।"

"ये काम बहुत जरूरी है बेबी ।" महाजन के होठों से निकला ।

"आओ देवराज चौहान ।"

मोना चौधरी और देवराज चौहान महल के भीतर की तरफ बढ़ गये ।

"अम भी साथो ही आयो ।" बांकेलाल राठौर उनके साथ हो गया ।

पारसनाथ और जगमोहन भी ।

रुस्तम राव ने शुभसिंह से कहा ।

"अपुन नहाकर रेस्ट मारेला बाप । तुम अपुन को खाना देएला ।"

"हां । त्रिवेणी ।" शुभसिंह मुस्कुराया--- "आओ नहाने के लिये पानी का इंतजाम उधर कर रखा है।"

■■■

सारा महल धूल-ही-धूल से अटा पड़ा था । दीवारों, फर्श और छतों पर मकड़ी के जाले नजर आ रहे थे । देखकर स्पष्ट ऐसा लगता था कि बरसों से यहां किसी के कदम नहीं पड़े ।

सबसे आगे मोना चौधरी इस तरह आगे बढ़ रही थी जैसे यहां रोज का आना हो । महाजन को भी सब अपना ही लग रहा था। पारसनाथ को भी । परंतु देवराज चौहान रूस्तम राव और बांकेलाल राठौर के लिए महल के रास्ते पूरी तरह अनजान थे ।

महल का हॉल पार करने के बाद सीढ़ियां तय करके वे पहली मंजिल पर पहुंचे । उनके कदमों की आवाजें वहां गूंज रही थी ।

"किताब रखी कहां थी बेबी ?" महाजन ने पूछा ।

"किताबों वाले कमरे में ।" मोना चौधरी ने कहा ।

गैलरी के कोने में स्थित कमरे के सामने पहुंचकर वे ठिठके । मोटा-सा ताला टूटा हुआ, एक तरफ पड़ा था । धूल की तहें उस पर इस कदर जमी थी कि उसे पहचानना कठिन हो रहा था ।

"मैंने ताला लगाया था ।" मोना चौधरी बोली--- "किसी ने ताला तोड़ा है।

"दालू की करतूत होगी ।" महाजन कड़वे स्वर में कह उठा ।

"हो सकता है क्योंकि उस किताब की सबसे ज्यादा जरूरत उसे ही रही होगी ।" मोना चौधरी दरवाजे के मोटे-भारी पल्लो को धकेलते हुए बोली--- "अगर वो किताब दालू ले गया है तो हमारे लिए बहुत कठिनाइयां पैदा हो जायेंगी ।"

"वड के रख दांगे दल्ले को।"

सब कमरे में प्रवेश कर गये

कमरे में धूल और जाले भरे पड़े थे।

दूसरे ही पल मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ गई कमरे में मोटी-पतली, छोटी-बड़ी किताबें ही किताबें इस तरह बिखरी हुई थी कि जैसे किसी ने जमकर किताबों की छानबीन की हो ।

महाजन के होंठ भिंच गये ।

किसी ने किताबों से तगड़ी छेड़छाड़ की है ।" महाजन होंठ भींचे कह उठा।

"हां ।" मोना चौधरी की निगाह हर तरफ घूम रही थी--- "और वो जो कोई भी होगा, उसे उसी किताब की तलाश होगी, जिसमें हाकिम को समाप्त करने का ढंग दर्ज है । क्योंकि वही सबसे बेशकीमती किताब है ।"

कमरे में बड़ी-सी टेबल कुर्सियां और किताबे रखने की शैल्फें बनी हुई थी।

"वो किताब तुमने कहां रखी थी ? उसे देखो ।" देवराज चौहान ने कहा ।

देवराज चौहान के शब्दों के साथ ही मोना चौधरी आगे बढ़ चुकी थी । टेबल को पार करके वो एक जगह रूकी और नीचे के फर्श पर नजरें टिका दी ।

"किताब अपनी जगह पर सलामत है ।" मोना चौधरी ने कहा ।

यह सुनते ही सबके चेहरों पर खुशी के भाव उभरे। वे पास पहुंचे ।

"कां पे हौवे ?"

मोना चौधरी ने फर्श के एक हिस्से को पास से ठकठकाकर कहा ।

"फर्श के नीचे, यहां पर लोहे की छोटी किन्तु बहुत मजबूत तिजोरी है । उसमें किताब रखी है थी । फर्श का ठीक-ठाक होना बता रहा है कि डायरी अपनी जगह पर मौजूद है ।"

"फर्श के नीचो हौवे का । म्हारे को तो विश्वास ना हौवे । फर्श तो बराबर अपना जगह फिटो हौवे । किताब रखने के बादो, फर्श को बनवायो का ?" बांकेलाल राठौर ने मोना चौधरी को देखा ।

"नहीं ।" मोना चौधरी नीचे झुकी और फर्श पर पड़ी मिट्टी साफ करते हुए बोली--- "यहां फर्श खास तरह की लकड़ियों का बना है । धूल में स्पष्ट नजर नहीं आ रहा । टुकड़ी उठाकर किताब रखने के बाद, टुकड़ी को वैसे ही रख दिया गया था, जैसे कि पहले थी । इस काम में...।" मोना चौधरी की निगाह पारसनाथ की तरफ उठी--- "तब पारसनाथ मेरे साथ था ।"

जवाब में पारसनाथ खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरकर रह गया, क्योंकि उसे कुछ भी याद नहीं था ।

मिट्टी साफ होते ही बांकेलाल राठौर ने देखा वो तीन फीट चौड़ी, तीन फीट लंबी, खूबसूरत पत्थर की टुकड़ी थी । वैसी ही दो टुकड़ियां जोड़-जोड़ कर फर्श बनाया गया था ।

"इस टुकड़ी को निकालना पड़ेगा ।"

"ये तो पूरी तरह फिटो हौवे, कैसे निकलो ?"

देवराज चौहान ने पास पहुंचकर फर्श पर लगी उस टुकड़ी को चेक किया ।

"बांके ।" देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव थे ।

"हुकुम ।"

"इस टुकड़ी को बिना औजारों के नहीं उखाड़ा जा सकता । यह मजबूती के साथ अपनी जगह पर टिकी हुई है । इसे तोड़ना पड़ेगा ।"

कहने के साथ ही देवराज चौहान ने मोना चौधरी को देखा--- "इसे तोड़ने से नीचे मौजूद तिजोरी पर तो कोई असर नहीं पड़ेगा । तिजोरी की कोई परत टेढ़ी हो सकती है ?"

मोना चौधरी ने पारसनाथ को देखा फिर देवराज चौहान से कह उठी ।

"वो तिजोरी बहुत ही मोटे लोहे की बनी हुई है । उसकी परतें करीब आधा-आधा फीट चौड़ी है । मेरे ख्याल से तिजोरी को किसी भी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा ।"

"बांके ।" देवराज चौहान ने कहा--- "फर्श के इस पत्थर को तोड़ने का इंतजाम करो ।"

"इसो के लिए तो बाहर से भारी-भारी पत्थरों को उठाकर लाना पड़ो। अंम अभ्भी सबों को ड्यूटी पर लगाए देता हो ।" कहने के साथ ही बांकेलाल राठौर वहां से बाहर निकलता चला गया ।

"आओ पारसनाथ, ऊपर की मंजिल से तिजोरी की चाबी ले आयें ।"

मोना चौधरी पारसनाथ के साथ बाहर निकल गई ।

देवराज चौहान वहीं खड़ा इधर-उधर निगाहें घुमाता रहा । रुस्तम राव भी इधर-उधर देख रहा था । उसे अच्छी तरह याद था कि महल में आने की उसे कभी भी जरूरत नहीं पड़ी थी। इसलिए वह यहां के हर रास्तों, हालातों से अनजान था।

मोना चौधरी पारसनाथ के साथ महल की दूसरी मंजिल पर पहुंचे । गर्द से वहां हर चीज का बुरा हाल कर रखा था । दूसरी मंजिल पर कभी उसका शयनकक्ष हुआ करता था । मोना चौधरी लंबी गैलरी पार करके उसी शयन कक्ष में पहुंची ।

कमरे में हर चीज वैसी ही मौजूद थी ।

विशाल बैड, ड्रेसिंग टेबल जैसी चीज, जिसके सामने शीशा लगा था । कपड़ों के लिए लकड़ी की बड़ी-बड़ी अलमारियां । मोना चौधरी ने आगे बढ़कर अलमारी के पल्लों को खोला । जो कि काफी मोटे और मजबूत थे । भीतर कपड़े लटक रहे थे, परंतु डेढ़ सौ बरस के वक्त के दरम्यान फटकर चिथड़े होकर झूल रहे थे ।

धूल से भरे उस शयनकक्ष का वातावरण बेहद अजीब-सा लग रहा था ।

"चाबी कहां है ?" पारसनाथ ने पूछा ।

मोना चौधरी बीते वक्त के ख्यालों से बाहर निकली और बेड की तरफ पलटी।

"पारसनाथ।" आगे बढ़कर मोना चौधरी ने बेड के एक पाये को हाथ लगाया--- "इस पाये के भीतर चाबी है । इसे किसी पेच की तरह खोलो । यह पाया खुल जायेगा ।"

पारसनाथ आगे बढ़ा और एक हाथ से बेड उठाकर नीचे झुकते हुए पाये को किसी तरह घुमाकर खोलने की कोशिश की । परंतु पाया टस से मस नहीं हुआ ।

"जाम हो गया लगता है ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने दोनों हाथों से बेड थामकर उसे ऊंचा किया--- "तुम दोनों हाथों से अब पाये को घुमाने की कोशिश करो ।"

पारसनाथ घुटनों के बल नीचे बैठा और दोनों हाथों से पाया पकड़कर पूरी शक्ति लगा दी उसे घुमाने में । जोर लगाने से पारसनाथ का चेहरा लाल सुर्ख हो उठा ।

पाया थोड़ा सा हिला और फिर धीरे-धीरे किसी पेच की तरह अटक-अटक कर घूमने लगा ।

पांच मिनट में ही पाया खुलकर अलग हो गया । मोना चौधरी ने बेड छोड़ा तो पाया हट जाने की वजह से वो एक तरफ झुक गया था । पाया बीच में से खाली था।

मोना चौधरी ने पाया थामा और उसे उल्टी करके हिलाया तो करीब पौन फीट लंबी एक इंच के व्यास जितनी मोटी चाबी तीव्र आवाज के साथ नीचे जा गिरी । देखने में वो बेहद पुरानी और जंग में लिपटी लग रही थी । चाबी के दांतों की बनावट भी अजीब-सी थी।

पारसनाथ ने चाबी उठाई । जो कि भारी थी ।

"ये है उस तिजोरी की चाबी ?" चाबी पर से निगाहें हटाने के बाद, पारसनाथ ने मोना चौधरी को देखा ।

"हां ।" मोना चौधरी ने गहरी सांस ली--- "इसे किसी चीज से अच्छी तरह साफ कर लो ।"

"अजीब-सी चाबी है ।"

"हां, ये बहुत मजबूत तिजोरी की चाबी है । चाबी के बिना वो तिजोरी नहीं खुल सकती और उससे तिजोरी को तोड़ा नहीं जा सकता । क्योंकि उसकी लोहे की दीवारें आधा-आधा फीट मोटी हैं ।"

"मैं चाबी को साफ करता हूं ।"

मोना चौधरी और पारसनाथ बाहर निकल गये ।

■■■

उस तीन फीट चौड़ी, तीन फीट लंबी फर्श की टुकड़ी को तोड़ने में तीन घंटे का वक्त लग गया, जबकि इस काम में सब लोग लगे थे । बड़े-बड़े भारी पत्थरों से उस टुकड़े पर मार कर उसे तोड़ा गया । फिर सबने मिलकर छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़ों को उठाकर एक तरफ फेंका । जगह साफ की।

तो नीचे लोहे की परत नजर आने लगी ।

मोना चौधरी घुटनों के बल नीचे बैठी और लोहे की परत को और भी अच्छी तरह साफ करने लगी तो शुभसिंह, प्रतापसिंह, कीरतलाल फौरन पास पहुंचे ।

"देवी, तुम हमारा अपमान कर रही हो ।" शुभसिंह ने आदर भरे स्वर में कहा--- "हमारे होते हुए आप यह काम करें तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता ही क्या है ?"

मोना चौधरी ने शुभसिंह को देखा, फिर उठ खड़ी हुई ।

"अच्छी बात है शुभसिंह ।" मोना चौधरी बोली--- "यह होल तिजोरी का है । तिजोरी का दरवाजा समझ सकते हो इसे। ऊपर पड़ी मिट्टी की वजह से ये स्पष्ट नहीं है । इसे अच्छी तरह साफ करो । बिल्कुल नये की तरह ।"

शुभसिंह ने प्रतापसिंह और कीरतलाल को इशारा किया तो दोनों सफाई में जुट गये ।

"चाबी देना पारसनाथ ।"

आगे बढ़कर पारसनाथ ने मोना चौधरी को चाबी थमा दी।

"इतने बरसों के बाद ये चाबी काम करेगी ।" जगमोहन बोला--- "यह हो सकता है, तिजोरी का ताला ही खराब हो गया हो। कहीं भी खराबी आ सकती है ।"

"थारी बात तो बारहो आनो ठीको हौवे ।" बांकेलाल राठौर सोच भरे स्वर में कह उठा ।

महाजन ने आगे बढ़कर प्रतापसिंह और कीरतलाल को जगह साफ करते देखा ।

"हो सकता है, कोई दिक्कत पेश न आये और चाबी लग जाये ।" मोना चौधरी बोली ।

"किताब की हमें सख्त जरूरत है ।" महाजन होंठ भिंचे कह उठा ।

आधा घंटा लगाकर प्रतापसिंह कीरतलाल ने वो जगह साफ की । अब नीचे का लोहा स्पष्ट तौर पर चमक रहा था । उसकी लंबाई-चौड़ाई ढाई-ढाई फीट थी।

देवराज चौहान ने आगे बढ़कर उस लोहे की चादर को देखा तो एक तरफ गोल-सा छेद नजर आया तो वो समझ गया कि वही चाबी का छेद है । उसने मोना चौधरी के हाथों से चाबी ली और उस छेद में डालकर हौले से घुमाई तो वो कहीं फंस गई ।

देवराज चौहान चाबी घुमाने लगा तो मोना चौधरी बोली ।

"चाबी को उल्टा घुमाना है ।"

देवराज चौहान ने हौले से सिर हिलाया और चाबी को उलटी दिशा में घुमाया । परंतु वो चाबी जरा-सी भी नहीं घूमी।

"चाबी नहीं घूम रही है ।" जगमोहन बोला ।

"डेढ़ सौ बरस से लगे ताले को खोलने के लिए काफी जोर लगाना पड़ेगा ।" देवराज चौहान ने कहा--- "लॉक सिस्टम जाम हो गया होगा ।"

"मैं जोर लगाता हूं ।" पारसनाथ ने आगे बढ़कर कहा।

देवराज चौहान ने पारसनाथ को देखा । मुस्कुराया, बोला कुछ नहीं और पुनः चाबी घुमाने में लग गया । दस मिनट तक देवराज चौहान को जी-जान से जोर आजमाइश करनी पड़ी । उसके बाद वो बड़ी-सी चाबी हल्के से खटके के साथ घूम गई ।

"घूमो ।" बांकेलाल राठौर बोला--- "ससुरी अब न घूमतो तो वड के रख देता ।"

मोना चौधरी कह उठी ।

"देवराज चौहान चाबी को इसी तरह बारह बार घुमाना पड़ेगा। लॉक सिस्टम में एक गरारी है । बारह बार चाबी घुमाने पर वो गरारी पूरी घूमती है और उसका लॉक खुल जाता है ।"

पारसनाथ के खुरदरे चेहरे पर मुस्कान उभरी ।

"छोटी-से-छोटी बात भी याद है तुम्हें ।" पारसनाथ कह उठा।

"सब कुछ याद आ गया है तो फिर छोटी और बड़ी बात में फर्क ही क्या बचा ?" मोना चौधरी मुस्कुराई ।

देवराज चौहान चाबी घुमाता रहा । अब चाबी घुमाने में खास दम नहीं लगाना पड़ रहा था । वो घूमती जा रही थी और बारह बार घूमने के पश्चात रुक गई ।

"इसका हैंडल कहां है, जिसे पकड़ कर तिजोरी का दरवाजा खोला जाये ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

"अब ये चाबी ही हैंडल का काम करेगी ।"

देवराज चौहान ने चाबी हिलाकर देखा तो उसे फिक्स पाया।

"ये चाबी अब तभी बाहर निकलेगी, जब चाबी वापस बारह बार घूमेगी ।" मोना चौधरी ने कहा ।

देवराज चौहान ने चाबी पकड़कर खींचते हुए तिजोरी का दरवाजा उठाने की कोशिश की, परंतु वो अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ ।

"लगता है डेढ़ सौ बरस से बंद दरवाजा जाम हो गया है ।"

पारसनाथ ने कहा और आगे बढ़ा । देवराज चौहान के साथ मिलकर चाबीनुमा हैंडल को पूरी शक्ति के साथ बाहर खींचा । फर्श पर बिछे उस लोहे के टुकड़े में हल्का सा कम्पन हुआ।

एक बार फिर जोर लगाने पर वह थोड़ा सा उठा ।

"लोहे का ये टुकड़ा भी बहुत भारी है और चाबी जैसे हैंडल से खींचकर इसे उठाने में दिक्कत आ रही है ।" देवराज चौहान ने कहकर पारसनाथ को देखा--- "इस बार जब यह थोड़ा-सा ऊपर उठे तो उसी समय इसे झटके से साथ खींचना ।"

पारसनाथ ने सहमति से सिर हिलाया ।

एकबार फिर जोर लगाया । तो वो ढाई फीट का चौड़ा दरवाजा, एक तरफ से जरा-सा उठा तो दोनों ने तीव्र झटके के साथ इसे बाहर खींचा । वो और ऊपर उठा। इतना उठ गया कि नीचे लोहे का गड्ढा नजर आने आया । झुर्री-सी पैदा हुई । देवराज चौहान ने उसी पल चाबी को छोड़कर दोनों हाथों की उंगलियां झुर्री में फंसा दी, ताकि वो वापस बंद न हो सके ।

"तुम पीछे हट जाओ।" होंठ भिंचे देवराज चौहान ने कहा ।

पारसनाथ ने चाबी छोड़ दी ।

दोनों हाथों की उंगलियां छोटे से दरवाजे में फंसाये देवराज चौहान उसे ऊपर की तरफ खींचने लगा । पूरी शक्ति लगा दी, तब कहीं जाकर वो दरवाजा कुछ और ऊपर उठा । क्षणिक रुककर देवराज चौहान ने पुनः जोर लगाना शुरू किया कि पास आता बांकेलाल राठौर कह उठा।

"यो दरवाजों को तो उठाने के वास्ते म्हारी मूंछों का एको बाल ही बोत हौवे ।" करीब पहुंचकर बांकेलाल राठौर झुका और बाकी की जगह में हाथ की उंगलियां डालकर देवराज चौहान के साथ जोर लगाया । वो दरवाजा धीरे-धीरे उठता और छत की तरफ होकर खुल गया ।

नीचे दो फीट गहरा खाना नजर आया । जिसमें पुरानी-सी नजर आने वाली किताब पड़ी नजर आई। इसके अलावा वहां कुछ भी नहीं था ।

अपनी सांसों पर काबू पाते हुए देवराज चौहान ने झुककर वो किताब उठाई और उसे खोल कर देखा । स्याही से हाथ की लिखाई से वो किताब लिखी गई थी ।

"ये लिखावट तो गुरुवर की है ।" शब्दों पर निगाह पड़ते ही देवराज चौहान बोला ।

"हां ।" मोना चौधरी ने गंभीरता से सिर हिलाया--- "गुरुवर ने ही हाकिम को खत्म करने की तरकीब इस किताब में दर्ज की थी और किताब हमेशा उसी के अधिकार में रही, जो नगर की कुलदेवी चुनी जाती रही। ऐसा करने के पीछे गुरुवर का एक ही मकसद था कि अमरत्व प्राप्त हाकिम नगरी वालों के लिए कभी दहशत पैदा करे तो उसे खत्म करके नगरी को बचाया जा सके ।"

देवराज चौहान ने किताब मोना चौधरी को थमा दी ।

किताब थाम लेने के बाद मोना चौधरी ने शुभसिंह से कहा ।

"शुभसिंह । एकांत के क्षण मैं इसी कमरे में बिताया करती थी और इस वक्त भी मुझे एकांत चाहिये। ताकि मैं इस किताब में दर्ज, हाकिम को खत्म करने का तरीका जान सकूं ।"

"आज्ञा देवी ।"

"इस कमरे को जल्द-से-जल्द अच्छे ढंग से साफ कर दो । मेरे पास वक्त कम है ।"

"ये काम अभी हो जायेगा देवी ।" शुभसिंह ने आदर भरे स्वर में कहा ।

मोना चौधरी, देवराज चौहान बाकी सब उस कमरे से बाहर आ गये ।

"देवराज चौहान ।" मोना चौधरी के चेहरे पर गंभीरता थी--- "दालू का अनुष्ठान कभी भी पूर्ण हो सकता है । हाकिम की मौजूदगी कभी भी नगरी में दर्ज हो सकती है और मैं नहीं चाहती कि किसी को पता चले कि हम यहां हैं। इसलिए इस बात का ध्यान रखना कि कोई महल से निकलकर बाहर न जाये। हाकिम से टक्कर लेने के लिए खुद को तैयार करने के पश्चात ही हम महल से बाहर निकलेंगे और आसानी से कोई सोच भी नहीं सकता कि हम लोग महल में हो सकते हैं ।"

"तुम ठीक कहते हो ।" देवराज चौहान गंभीर था--- "मैं इस बात का ध्यान रखूंगा ।"

"तब तक मैं किताब पढ़ती हूं ताकि उसके बाद हाकिम को खत्म करने का रास्ता तैयार किया जा सके ।"

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वो आखिरी पन्ना था ।

दालू जिस किताब को पढ़ रहा था, उसका आखिरी पन्ना ।

अग्निकुंड की आग की लपटें जैसे आसमान को छू रही हों । चंदन की लकड़ी की महक वहां फैली हुई थी । सामग्री की सुगंध भी वातावरण में मौजूद थी । शुद्ध घी की महक, लोबान की खुशबू । हर तरफ शांति, दालू के होठों से निकलने वाले शब्द ही वातावरण में गूंज के समान गूंज रहे थे । माहौल में ऐसी निस्तब्धता थी कि सब कुछ रहस्यमय-सा लग रहा था।

केसर सिंह और सेवक अपने काम में मन लगाकर व्यस्त थे । तीसरा दिन समाप्त होने को आ रहा था । वो तीनों जैसे बैठे थे । वैसे ही बैठे हुए थे । कुछ खाने की बात तो दूर, पानी की एक बूंद भी उनके गले में नहीं गई थी । वैसे भी कुछ खाने-पीने की इच्छा नहीं हुई थी।

अब दालू किताब के आखिरी पन्ने की आखिरी लाइन पर आ पहुंचा था ।

वो लाइन भी समाप्त हो गई ।

दालू का बढ़ना रुक गया । इसके साथ ही वह अग्निकुंड की तरफ हाथ जोड़कर ऊंचे स्वर में मंत्र बुदबुदाने लगा । जाने किस भाषा में मंत्र बुदबुदा रहा था । केसर सिंह और सेवक अपनी क्रिया में व्यस्त थे । करीब दो मिनट बाद दालू का मंत्र समाप्त हुआ ।

इसके साथ ही दालू की आंखों में तीव्र चमक पैदा हो गई । चेहरे की आभा देखने लायक थी । जैसे पूरे विश्व को अपनी मुट्ठी में भींच लिया हो ।

हाथ के इशारे से दालू ने केसर सिंह और सेवक को रुक जाने को कहा । दोनों ने सामग्री और घी को अग्नि कुंड में डालना बंद कर दिया और यथावत ही बैठे रहे ।

कुछ क्षण ही बीते होंगे कि अग्नि कुंड में हल्का-सा कंपन हुआ ।

दालू के चेहरे पर विजयी मुस्कान उभर आई ।

तीनों की निगाहें अग्निकुंड पर ही लगी थी।

अग्निकुंड में पुनः कम्पन हुआ ।

और फिर देखते-ही-देखते आग की आकाश छूती लपटें सिमटने लगी । जैसे किसी ने लपटों को बाध्य कर दिया हो कि वो सिमट जाये । तब लपटों की ऊंचाई मात्र पांच फिट रह गई होगी कि पल के लिए आंखों को भ्रम हुआ जैसे वो लपटें कोई इंसान का रूप अख्तियार कर रही हों। धीरे-धीरे वो लपटें कभी इंसानी रूप अख्तियार करती तो कभी अपने असली रूप में आ जाती । कुछ देर तक यूं ही लपटों और इंसानी रूप की आंख मिचोली होती रही ।

और फिर ऐसा लगा जैसे लपटों ने इंसानी रूप अख्तियार कर लिया हो ।

अब वहां, कहीं भी आग की लपट नहीं थी ।

कोई धुंआ नहीं था ।

वातावरण बिल्कुल स्वच्छ साफ-सुथरा हो गया था।

अग्निकुंड के ठीक बीचो-बीच पांच फीट लंबा, स्वस्थ किंतु सामान्य शरीर वाला व्यक्ति खड़ा था । सिर के छोटे-छोटे बाल । कानों में छोटे-छोटे सोने के कुंडल । पतले चेहरे पर छोटी मूंछे। गले में कई तरह की मालाएं । कलाइयों में एक-एक लोहे का कड़ा पहन रखा था । उसकी आंखें छोटी, किंतु उनमें चतुरता भरी हुई थी । नाक में तीखापन था क्योंकि उसकी समझदारी और तेज-तर्रारी को दर्शा रहा था । सामान्य आकर्षक वाले चेहरे पर बेहद शांत भाव थे और कमर के गेट सफेद धोती लिपटी हुई थी, जिसका पल्लू कंधे पर जा रहा था ।

इधर-उधर देखने के बाद उसकी चमक भरी निगाह दालू पर जा टिकी थी ।

तब तक दालू खड़ा हो चुका था । चेहरे पर खुशी के भाव नाच रहे थे । उसे अपनी तरफ देखता पाकर दालू फौरन आगे बढ़ा और अग्निकुंड में जाकर राख दो उंगलियों में उठाकर उसके माथे पर तिलक लगाया। हाथ जोड़कर खुशी भरे लहजे में कह उठा ।

"हाकिम को दालू का प्रणाम ।"

अग्निकुंड से प्रकट होने वाला हाकिम ही था ।

हाकिम के चेहरे पर शांत मुस्कान उभरी ।

"हाकिम, दालू का प्रणाम स्वीकार करता है ।" हाकिम का स्वर सामान्य था ।

"मुझे अफसोस है हाकिम कि तुम्हें कष्ट देकर, मैंने यहां बुला लिया ।" दालू ने कहा ।

"अपनों के लिए हाकिम हमेशा हाजिर रहता है ।" हाकिम ने पूर्ववत स्वर में कहा--- "लेकिन मुझे तुमसे शिकायत है दालू कि मैंने तुम्हें एक काम बोला था और तुम वो पूरा नहीं कर सके ।"

"क्या काम हाकिम ?"

"उस किताब को तलाश करना, जिसमें मेरी मृत्यु का ब्योरा दर्ज है । जिसे मेरे ही पिता श्री ने लिखा था । वो किताब नगरी में ही कहीं है और उसे तुम  ढूंढ नहीं पाये ।" हाकिम ने कहा ।

"मैंने कोशिश की और भी कर रहा हूं, लेकिन सफल नहीं हो पाया ।"

"नगरी का रुख मैं उस किताब की वजह से ही नहीं करता कि किसी के हाथ वो किताब लग जाये तो वो मेरी जान ले सकता है ।" हकीम ने गंभीर स्वर में कहा--- "असल समस्या तो यह है कि मुझे भी नहीं मालूम कि अमरत्व प्राप्त करने में कहां कमी रह गई कि कैसे मेरी जान भी जा सकती है । मैं नहीं जानता । अगर यह मुझे मालूम होता तो शायद मैं अपना बचाव करने में सफल हो जाता, वक्त आने पर ।"

दालू के चेहरे पर पुनः मुस्कान उभरी ।

"हाकिम, तुम्हारी इस समस्या का हल मेरे पास है । इस बारे में तुम चिंता न करो ।"

"क्या हल है दालू ?"

"हाकिम, इस बारे में अगर हम आराम से बातचीत करें तो बेहतर रहेगा ।" दालू ने कहा।

हाकिम की निगाह दालू के चेहरे पर जा टिकी ।

"तुमने किसी कारणवश मुझे बुलाया ?"

"सब  बताऊंगा हाकिम । तुम्हारी समस्या का बुरा हाल है मेरे पास । आओ, अपने महल में, एकांत में बैठकर सब बात करेंगे । तब तक मैं भी नहा-धोकर स्वच्छ हो जाऊंगा ।"

हाकिम के माथे पर बल उभरे ।

"दालू  ।"

"हां ।"

"तुम यह भूल गये कि मेरे आने पर मेरा संस्कार कैसे किया जाता है ? हालांकि अभी तक अग्निकुंड में खड़ा हूं ।"

"ओह ! माफ करना हाकिम । मैं जाने क्यों भूल गया ।" कहने के साथ ही दालू आगे बढ़ा और साथ कटोरों में पड़े लहू के कटोरे जो कि अब आधे खाली हो उठे थे। एक-एक करके दालू उन्हें उठाकर हाकिम को थमाने लगा ।

हाकिम हर कटोरे में मौजूद लहू को पीता और कटोरा फेंक देता ।

इस तरह उसने सातों कटोरों में मौजूद लहू को पी लिया ।

हाकिम के होंठ और ठोड़ी खून से गये थे । वो एकाएक भयानक-सा लगने लगा था । दालू उसके सामने अग्निकुंड के बाहर शांत-सा खड़ा रहा।

केसर सिंह व सेवक अपनी जगह पर बुत की तरह बैठे थे ।

हाकिम ने होठों और ठोड़ी पर लगे लहू को साफ करने की कोशिश नहीं की ।

"तीसरे कटोरे वाला लहू स्वादिष्ट था । उस मानव का सारा लहू निकालकर, मुझे पिलाना दालू ।"

"अवश्य हाकिम । मेरे साथ आओ । तुमसे कुछ महत्वपूर्ण बातें करनी है ।"

हाकिम ने अपना कदम उठाया और अग्निकुंड से बाहर आ गया ।

दालू ने केसर सिंह और सेवक से कहा ।

"तुम दोनों खड़े हो जाओ ।"

केसर सिंह व सेवक खड़े हुए और उन्होंने हाकिम को प्रणाम किया ।

हाकिम उन्हें देखकर सिर हिला कर रह गया ।

"तीसरे कटोरे में किस मनुष्य का लहू था केसरे ?" दालू ने पूछा।

"गुलचंद का ।" केसर सिंह ने कहा ।

दालू ने सिर हिलाया फिर हाकिम से बोला ।

"आओ हाकिम, महल में चलते हैं ।"

हाकिम ने कदम आगे बढ़ा दिए । वो नंगे पांव था ।