विजय ने उसे गहरी दृष्टि से देखा।
टुम्बकटू बड़े इत्मीनान के साथ, ठीक इस प्रकार, मानो अपने ही कमरे में बैठा हो, उसके सोफे पर बैठा था। उसके पतले-पतले होंठों पर धीमी- धीमी मुस्कान थी। उसकी छोटी-छोटी, किंतु चमकीली आंखों में गजब का आकर्षण था। पतला तो वह इतना था कि जीवन में शायद ही किसी ने ऐसा व्यक्ति देखा हो ।
टुम्बकटू एक विचित्र नमूना था ।
न जाने क्यों विजय को बार-बार ऐसा लगता कि ये टुम्बकटू नामक नमूना अत्यधिक खतरनाक है। विजय उस अजीब नमूने को घूरता ही रहा।
"बेकार चाय ठंडी करने से क्या लाभ?"
अचानक टुम्बकटू की आवाज ने उसे चौंकाया ----- लेकिन जब उसने टुम्बकटू की ओर देखा तो उससे भी अधिक बुरी तरह चौंका।
टुम्बकटू ने चाय का कप उठा लिया था और इस समय वह चाय की चुस्की ले रहा था। न जाने क्यों विजय ने टुम्बकटू को हैंडिल करने का ढंग बदल दिया। उसे लगा कि अगर उसने फिर इस घाघ व्यक्ति पर जंप लगाई तो वह फिर धोखा दे सकता है। अत: अब वह दूसरे ढंग से बोला।
"हां... बेटा, तुम्हारे बाप की चाय है... पी जाओ।"
---- " मैं दुनिया की हर वस्तु को अपनी समझता हूं।" टुम्बकटू उसी प्रकार मुस्कराता हुआ शांत और संयत स्वर में बोला।
"सब पर तुम्हारे बाप का नाम खुदा है ना?"
"पहले शांति से बैठ जाओ।" टुम्बकटू चाय की चुस्की लेता हुआ मुस्कराकर बोला ----- "मैं तुमसे कुछ बातें करने आया हूं।"
विजय आराम से उसके सामने वाले सोफे पर बैठ गया।
अब स्थिति ये थी कि विजय और टुम्बकटू आमने-सामने के सोफों पर बैठे थे। दोनों सोफों के बीच सिर्फ एक लंबी मेज थी।
'अगर चाय पीना चाहते हो तो दूसरा कप मंगाऊं?" टुम्बकटू कृत्रिम गंभीर स्वर में बोला-----"केतली में अभी थोड़ी चाय है।"
"कह तो ऐसे रहे हो, जैसे तुम्हारे बाप का घर है । दोस्ती का रिश्ता बाप से भी कहीं बड़ा होता है । "
"तुम जैसे नमूने कबसे मेरे दोस्त बन गए ?"
"लगता है, तुम मुझसे नाराज हो।'' टुम्बकटू मुस्कराकर बोला।
"अबे ओ पूरे शेर...!" अचानक विजय दहाड़ा।
"कहिए सरकार !"
तुरंत पूर्णसिंह कमरे में प्रविष्ट होता हुआ बोला।
कहते-कहते उसकी दृष्टि टुम्बकटू पर पड़ गई और भला
ऐसा कैसे हो सख्ता था कि किसी व्यक्ति की दृष्टि उसकी ओर उठे और बिना उस नमूने का दस-पांच मिनट निरीक्षण किए वापस आ जाए। अत: पूर्णसिंह आश्चर्य के साथ सोफे पर बैठे टुम्बकटू को देखता रहा।
"अबे, उधर क्या देखता है?" विजय ने उसे डाटा-----"एक खाली कप ला।"
टुम्बकटू को आश्चर्य के साथ घूरता हुआ वह चला गया।
कुछ देर बाद वह कप दे गया, किंतु इस सारे समय में वह आश्चर्य के साथ टुम्बकटू के जिस्म की बनावट देखता रहा, जहां मांस का नामो-निशान ही नजर नहीं आता था। ऐसा लगता था, जैसे वह केवल हड्डियों का ढांचा हो । मानो किसी कंकाल के जिस्म पर पतली-दुबली इंसानी त्वचा का लबादा किसी ने जबरदस्ती पहना दिया हो ।
हड्डियों के इंसानी ढांचे पर लिपटी यह खाल ही उसे कंकालों से भिन्न प्रकट कर रही थी और उससे भी आश्चर्य की बात ये थी कि उसके एक हाथ में दस उंगलियां थी ।
-"क्यों मियां टुम्बकटू!" पूर्णसिंह के जाने के पश्चात विजय चाय अपने कप में डालता हुआ बोला--- "जानते हो, वह तुम्हें इस तरह आश्चर्य के साथ क्यों देख रहा था ?"
"क्यों देख रहा था?'' टुम्बकटू ने उसी प्रकार मुस्कराते हुए पूछा।
" पहले एक बात मैं तुमसे पूछना चाहता हूं।"
"क्या?"
- "यही कि तुम्हारे जिस्म का ये ढांचा क्या उसी खुदा पहलवान के क्राखाने में तैयार हुआ था, जिसमें हम सब इंसानों का ?"
-"क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता?"
- "लगता तो ऐसा ही है प्यारे टुम्बकटू!" विजय ने कहा-----"ढांचा तो तुम्हारा भी वहीं पर तैयार हुआ है, लेकिन...।"
"लेकिन क्या?"
-''मैं ये सोच रहा हूं कि खुदा पहलवान के कारखाने में वह कौन-सा इंजीनियर है, जिसने तुम्हारा ढांचा पास कर दिया?"
विजय की इस बात पर टुम्बकटू ठहाका लगाकर हंस पड़ा।
परंतु उसके ठहाके की आवाज भी बड़ी विचित्र थी। उस आवाज में कुछ अजीब-सा भय और डरावनापन था।
विजय आश्चर्य के साथ पलकें झपकाता हुआ कुछ देर तक तो टुम्बकटू को घूरता रहा, फिर वह उसे चिढ़ाने के अंदाज में बोला।
-"पहले हंसने भी नहीं आता।" का तरीका सीखो----तुमको हंसना तक
----- "शायद ये भी किसी गलत इंजीनियर की हरकत है।" कहकहे के बाद टुम्बकटू बोला।
उसके इस उत्तर पर विजय कुछ देर तक तो उसे घूरता रहा कि सामने बैठा ये विचित्र नमूना आखिर है किस प्रवृत्ति का ? उसके जीवन में शायद यह पहला ऐसा व्यक्ति था, जिसके विषय में विजय को यह सब सोचना पड़ रहा था ।
-"बेटा टुम्बकटू!" विजय बोला----- "लगता हैं तुम भी पूरे खलीफा हो, लेकिन पहले शराफत से मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर दो।"
- "तुम प्रश्न कर सकते हो।" चाय का कप खाली करने के पश्चात उसने दुनिया से अलग-थलग एक विचित्र - सी सिगरेट निकालकर होंठों में फंसाते हुए कहा ।
विजय फिर प्रश्न भूलकर आश्चर्य के साथ टुम्बकटू को घूरने लगा। जैसी सिगरेट वह इस समय टुम्बकटू के अधरों के बीच फंसी हुई देख रहा था ---- - ऐसी उसने अभी तक के समूचे जीवन में आज से पूर्व कभी नहीं देखी थी।
उस सिगरेट का रंग गुलाबी था। सिगरेट किसी चित्रकार की खासी लंबी-कूची के बराबर थी और वह गोल न होकर चौखुंटी थी। उसमें हरा-सा तंबाकू भरा था। पीछे उस स्थान पर, जहां से मुंह में लगाई जाती है, वहां एक अजीब-सा टोपा था।
उसने वह सिगरेट सुलगाई।
एक कश लगाकर धुआं छोड़ा तो विजय एक बार फिर चकराकर रह गया !
टुम्बकटू के पतले-पतले होंठों के मध्य से निकलने वाला हरे रंग का धुआं बड़ा विचित्र लग रहा था। आज तक विजय ने नहीं देखा था कि किसी की सिगरेट से हरा धुआं निकलता हो!
"क्यों मियां टुम्बकटू, ये सिगरेट कौन-से कारखाने की है?"
-'"जिसका मैं हूं।'' टुम्बकटू ने मुस्कराकर उसे टका-सा उत्तर दिया।
"तुम किसके हो ?"
"जिसकी ये सिगरेट है । "
'अबे, दोनों कहां के हो?" विजय झुंझला गया।
"एक ही कारखाने के।" टुम्बकटू शरारत के साथ बोला।।
-"देखो मियां टुम्बकटू!"
विजय अभी कुछ कहने ही जा रहा था कि टुम्बकटू बीच ही में बोल पड़ा।
-"क्यों-----बोर हो गए? मैंने तो सुना था कि तुम बोर करने में माहिर हो।"
विजय को लगा कि यह व्यक्ति उसका दिमाग खराब कर देगा। अत: वह बोला ।
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