विकास सुबह जब सोकर उठा तब तक नौ बज चुके थे


शबनम रात को किस वक्त वहां से गई थी, यह तो याद नहीं था । उसे इतना याद था कि वह उसे बताकर गई थी कि वह जा रही है लेकिन वह बात सुनकर फौरन ही नींद के हवाले हो गया था ।


पिछली रात जो कुछ हुआ था, वह उसे सपना सा लग रहा था ।


बिस्तर से निकलकर वह बाथरूम में दाखिल हो गया ।


नित्यकर्म से निवृत्त होकर और नये कपड़े पहनकर वह कमरे से बाहर निकला ।


दरवाजे पर डेली एक्सप्रेस पड़ा था ।


उसने अखबार उठा लिया और ब्रेकफास्ट की नीयत से नीचे को चल पड़ा ।


नीचे रिसैप्शन पर योगिता मौजूद थी ।


उसे यह बताने की नीयत से, कि पिछली रात उसने उसे डिनर पर आमन्त्रित करने की कोशिश की थी, वह रिसैप्शन की तरफ बढा ही था कि एकाएक वह रास्ते में ही ठिठक गया ।


उसे अखबार के मुख पृष्ठ पर बड़े-बड़े शब्दों में छपा दिखाई दिया :


अपराध निरोधक कमेटी के चेयरमैन को धमकी


सुर्खी के ऐन नीचे एक कोई पचास साल के अधपके बालों और भारी जबड़ों वाले आदमी की तस्वीर छपी हुई थी । तस्वीर के नीचे लिखा था :


प्रकाश देव महाजन


चेयरमैन


अपराध निरोधक कमेटी, विशालगढ


विकास ने योगिता से बात करने का ख्याल फिलहाल छोड़ दिया । वह खबर पढता हुआ डायनिंग हाल की तरफ बढ गया ।


लिखा था :


स्थानीय कार डीलर और अपराध निरोधक कमेटी के चेयरमैन मिस्टर प्रकाश देव महाजन ने पिछली रात पुलिस को रिपोर्ट लिखाई है कि उन्हें जान से मार डाले जाने की धमकी मिली है । धमकी एक चिट्ठी की सूरत में थी और अखबार में से काटे गये अक्षरों को गोंद से कागज पर चिपका कर तैयार की गयी थी । चिट्ठी में लिखा था :


साले चेयरमैन के बच्चे, अपनी हरकतों से बाज आ जा, नहीं तो तेरा काम हो जायेगा । यह आखिरी चेतावनी है । अगली बार चिट्ठी की जगह गोली आयेगी याद रखना ।


मिस्टर महाजन का कथन है कि उपरोक्त चिट्ठी उन्हें अपने ईस्ट बैंक रोड पर स्थित आवास पर लगे लेटर बॉक्स में पड़ी मिली थी जो कि निश्चय ही दोपहर की डाक आ चुकने के बाद वहां डाली गई थी। दोपहर की डाक आ चुकने के वक्त लेटर बॉक्स देखा गया था, उस वक्त चिट्ठी वहां नहीं थी । उसके बाद लेटर बक्स रात के आठ बजे ही देखा गया था, जब कि वह धमकी भरी चिट्ठी उसमें पाई गई थी। चिट्ठी दोपहर और रात-आठ बजे के बीच किसने कब वहां डाली थी, यह कहना कठिन था । हमारे संवाददाता विनोद पुरी को दिये एक विशेष इन्टरव्यू में मिस्टर महाजन ने अपनी यह धारणा व्यक्त की है कि उपरोक्त धमकी नगर में अपराधों को रोकथाम के लिये किये जा रहे उनकी कमेटी के प्रयत्नों की वजह से ही उन्हें मिली है ।


'यह धमकी भरी चिट्ठी' - उन्होंने कहा- 'इस बात का सबूत है कि विशालगढ के जरायमपेशा वर्ग के हौसले कितने बढ गये हैं । बड़े खेद का विषय है कि अब गुंडे बदमाश भी नगर में एक संगठन के रूप में सक्रिय हैं। जाने पहचाने बदमाशों की नगर के हर ऐसे संभ्रान्त नागरिक को जान से मार डालने की धमकी देने की हिम्मत हो गई है जिससे नगर का निजाम गुण्डों, बदमाशों द्वारा चलाये जाने पर ऐतराज है । मैं पूछता हूं, क्या मुल्क पर गुण्डे बदमाशों की हुकूमत हो गई है ? क्या कानून के रखवालों के लिये यह शर्म की बात नहीं है कि किसी नागरिक को यूं सरे आम जान से मार डालने की धमकी दी जा रही है। आखिर अपराधी वर्ग के ऐसे हौसले क्यों कर बढ गये हैं ? किसकी शह पर नाच रहे हैं ये लोग ? क्यों नगर में मौजूद कुछ विशिष्ट जरायमपेशा लोग नगर के कानून और व्यवस्था को अपनी जरखरीद लौंडी समझने लगे हैं ? क्या यह हकीकत नहीं कि नगर में करप्शन का इतना बोलबाला हो गया है कि कानून के रखवाले और कानून तोड़ने वाले सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे बन गये हैं ? मुझे मिली मौत की धमकी का मेरे पास एक ही जवाब है। बख्तावर सिंह नाम के एक साहब को मिलाकर इस नगर में कोई साहब अगर यह समझते हैं कि ऐसी धमकियों से भयभीत होकर मैं नगर के अपराध का समूल नाश कर देने के अपने अभियान से मुंह मोड़ लूंगा तो वे सरासर गलत समझते हैं। मैं अपनी आखिरी सांस तक अपराध और अपराधियों से लडूंगा' ।


इस संदर्भ में हमारे संवाददाता विनोद पुरी ने बख्तावरसिंह से सम्पर्क स्थापित करके उनका वक्तव्य लेने की भी कोशिश की थी लेकिन खेद है कि बख्तावर सिंह उपलब्ध न हो सके । उस धमकी-भरी चिट्ठी के सन्दर्भ में पुलिस की छानबीन जारी है। पुलिस के एक प्रवक्ता ने हमेशा की तरह दावा किया है कि वे अड़तालीस घण्टे के भीतर-भीतर केस की तह तक पहुंच जायेंगे ।


ब्रेकफास्ट के दौरान उस समाचार पत्र को विकास ने दो-तीन बार पढा ।


अजीब नगर था वह जहां के गुण्डे-बदमाश भी फिल्म स्टारों की तरह मशहूर थे लेकिन कोई उनका कुछ कर नहीं सकता था । और अजीब जंग थी वह शराफत और बदमाशी में जिसमें पुलिस की हैसियत एक ऐसे तटस्थ दर्शक जैसी मालूम होती थी, जो इस बात का इन्तजार कर रहा था कि जीत शराफत की होती थी या बदमाशी की, जीत अपराध निरोधक कमेटी की होती थी या बख्तावार सिंह की । बख्तावर सिंह की नगर में कितनी धाक थी वह इसी बात से स्पष्ट था कि महाजन ने साफ-साफ अपनी यह धारणा व्यक्त की थी कि उसको जान से मार डालने की धमकी के पीछे बख्तावर सिंह का हाथ था लेकिन पुलिस ने उसे गिरफ्तार करना तो दूर उसकी जवाबतलबी की दिशा में भी कोई कदम नहीं उठाया मालूम होता था ।


बहरहाल अखबार में छपी उस घटना से विकास खुश था । धोखाधड़ी के जिस जाल में वह महाजन को फंसाने वाला था, उसके लिए उसका वर्तमान मूड विकास के लिये बहुत फायदेमन्द साबित हो सकता था । अपने वर्तमान मूड में महाजन किसी ठग के खिलाफ सख्त से सख्त कदम उठाने से बाज नहीं आने वाला था ।


अब विकास को अपनी कामयाबी की और भी ज्यादा गारन्टी थी ।


******


साढे बारह बजे के करीब विकास कमर्शियल स्ट्रीट पहुंचा और मेहतानी गैरज के कम्पाउन्ड में दाखिल हुआ ।


उसके वहां कदम रखते ही ऑफिस की इमारत से एक नौजवान निकला और चेहरे पर केवल ग्राहक के लिये सुरक्षित मुस्कराहट सजाये उसके पास पहुंचा ।


"यस, सर !" - वह बोला ।


"मैं एक स्पोर्टस कार खरीदना चाहता था ।" - विकास कम्पाउन्ड में खड़ी कारों पर निगाह फिराता हुआ बोला “आपके यहां तो कोई स्पोर्टस कार दिखाई नहीं दे रही ।" 


"स्पोर्टस कार" - युवक मीठे स्वर में बोला "साहब, - भारत में तो बनती नहीं और विशालगढ जैसे छोटे शहर में फारेन कार की मार्केट नहीं है । इसलिये स्पोर्टस कार तो आपको यहां मिलने से रही । "


"ओह !"


"देसी मेक की हमारे पास बहुत अच्छी हालत वाली कारें हैं ।”


"मेरा दिल स्पोर्टस कार खरीदने पर ही था । आपकी निगाह में विशाल गढ़ में कोई और कार डीलर है जिसके पास स्पोर्टस कार मिल सकती हो ?"


युवक ने इन्कार में सिर हिला दिया । उसे ऐसा कोई डीलर मालूम होता भी तो वह उसे उसका पता शायद ही बताता। कौन अपने सम्भावित ग्राहक को अपने प्रतिद्वन्द्वी के पास भेजता है ।


"स्पोर्टस कार आपको यहां कहीं नहीं मिलेगी, साहब" - युवक बोला - "मैंने अर्ज किया न कि यहां विदेशी कार की मार्केट नहीं है । विदेशी कार दिल्ली, बम्बई जैसे बड़े शहरों में ही बिकती हैं । "


"मैंने यहां लोगों को विदेशी कारें चलाते तो देखा है ।"


"जरूर देखा होगा लेकिन जिसके पास भी विदेशी कार है वह उसे बाहर से ही लाया है । यहां सेल के लिए विदेशी कार कोई नहीं रखता ।"


" यानी कि यहां मुझे स्पोर्टस कार नहीं मिलने वाली ?" "


मुझे तो उम्मीद नहीं ।"


"ओह !" - विकास के स्वर में निराशा का पुट आ गया


“आप हमारी कारें देखिये" - युवक बोला- "शायद आप को इन्हीं में से कोई पसन्द आ जाए।"


"लेकिन..."


“अजी साहब देखने में क्या हर्ज है ?"


कारें देखने के लिये भी विकास बड़ी हील हुज्जत के बाद माना । वहां केवल फियेट और एम्बैसेटर ही मौजूद थीं।


एक फियेट को देख कर विकास ने ऐसा अभिनय किया जैसे गाड़ी उसे पसन्द आ रही हो लेकिन वह इस बात को छुपाना चाहता हो ।


उसके अभिनय ने युवक पर प्रत्याशित असर दिखाया ।


युवक मन ही मन अपने आपको शाबाशी दे रहा था कि उसकी तीखी निगाहों ने ग्राहक के मूड को फौरन भांप लिया था । फौरन उसकी जुबान कतरनी की तरह चलनी आरम्भ हो गई । वह विकास को उस कार के बेशुमार गुण समझाने लगा ।


“कीमत ?”


“तीस हजार ।”


और दस मिनट की चबर-चबर के बाद कीमत पच्चीस हजार पर पहुंच गई ।


युवक इस बात से बहुत खुश था कि उसने सवेरे-सवेरे ऐसे ग्राहक को कार खरीदने के लिए पटा लिया था, फियेट में जिसकी कोई दिलचस्पी भी नहीं थी ।


विकास बखूबी जानता था कि वह बीस हजार से ज्यादा का माल नहीं था ।


"कीमत इससे कम नहीं हो सकती ?" - विकास ने पूछा । 


"यह तो एकदम बाटम प्राइस है, साहब" - युवक बोला "इससे कम कीमत और क्या होगी ?"


"लेकिन हकीकतन मैं स्पोर्टस कार ही खरीदना चाहता था।"


"स्पोर्टस कार आपको यहां नहीं मिलने वाली, साहब ।


और यह फियेट आपको बहुत सूट करेगी। इस मॉडल की, इतनी कम चली फियेट आपको इतनी कम कीमत में और कहीं नहीं मिल सकती ।"


"अच्छी बात है ।" - विकास यूं बोला जैसे भारी अनिच्छा के साथ वह फियेट खरीदने को तैयार हो रहा था ।


उसने अपनी जेब से चैक बुक निकाली।


"आप पेमेंट चैक से करेंगे ?" - युवक संदिग्ध भाव से बोला ।


“और ?" - विकास हैरानी से बोला- "तुम्हारे ख्याल से पच्चीस हजार रुपया क्या मैं जेब में लिए लिए फिरता- ?"


"लेकिन आज शनिवार है। शनिवार को यहां के बैंकों में पब्लिक डीलिंग ग्यारह बजे बन्द हो जाती है। आज तो आपका चैक कैश होगा नहीं ।"


"तो सोमवार को करा लेना । "


"यह तो बड़ी दिक्कत हो जायेगी ।"


"तो फिर छोड़ो जाने दो" - विकास ने चैक बुक अपनी जेब में रखली- "मैं कहीं और जाता हूं। शायद कोई और डीलर चैक लेना कबूल कर ले ।"


युवक बौखलाया ।


इतनी मुश्किल से पटाया हुआ ग्राहक अनायास ही हाथ से निकला जा रहा था ।


"आप जरा एक मिनट ठहरिये" - फिर कुछ सोचकर वह जल्दी से बोला - "मैं मालिक से बात कराता हूं आपकी|"


"ठीक है ।"


विकास युवक के साथ आफिस में पहुंचा। युवक ने उसका परिचय अपने बॉस जी एन मेहतानी से कराया । मेहतानी लगभग पच्चास साल का दुबला-पतला और सिर से एकदम गंजा सिन्धी था ।


युवक ने जल्दी-जल्दी उसे सारी स्थिति समझाई ।


सौदा पच्चीस हजार पर हुआ था, यह सुनकर मेहतानी की आंखों में जो चमक आई, वह विकास से छुपी न रही ।


फिर बात चैक पर आई ।


फिर मेहतानी को यह भी मालूम हुआ कि ग्राहक उस नगर का रहने वाला नहीं था ।


वह धन्धा उसे पसन्द नहीं था लेकिन फिर भी उसने विकास का चैक लेना कबूल कर लिया ।


पहली बात तो यही विकास के बहुत काम आई कि सूरत-शक्ल और रख रखाव से वह बहुत ही संभ्रान्त और कुलीन आदमी लगता था । यह उसको भगवान की तरफ से वरदान था जिसका वह अपने धन्धे में भरपूर इस्तेमाल करता था । अपने सुन्दर व्यक्तित्व और मीठी जुबान से वह सामने वाले पर ऐसा जादू-सा कर देता था कि वह उसे एक बेहद ईमानदार और विश्वस के काबिल व्यक्ति मानने के लिए ।


मजबूर हो जाता था ।


दूसरे वहां सरदार प्रीतिमसिंह और स्वरूपदत्त का हवाला बहुत काम आया । उसने बताया कि वह विशाल गढ़ को अपना स्थायी आवास बनाने की नीयत से वहां आया था और सरदार प्रीतमसिंह, जिसके बम्बई रहते किसी रिश्तेदार का वह दोस्त था, उसे नदी किनारे एक कॉटेज खरीदवाने वाला था । उसने उन कॉटेजों का वर्णन भी किया जो पिछले रोज उसने सरदार प्रीतम सिंह के साथ देखे थे । बैंक मैनेजर स्वरूप दत्ते से भी वाकफियत होने का दावा उसने किया और साथ ही उसने महतानी को बैंक की पास बुक भी दिखाई जिसके मुताबिक नैशनल बैंक में उसके पचास हजार रुपये जमा थे ।


विकास के हक में फैसला कराने वाली तीसरी और सबसे बड़ी बात यह थी कि उसकी कार उसकी उम्मीद से ज्यादा मोटे मुनाफे में बिक रही थी और ग्राहक यह बात साफ-साफ कह चुका था कि चैक ठुकराया जाने की सूरत में वह किसी दूसरे कार डीलर के पास जा सकता था ।


और दूसरा कार डीलर उसका चैक स्वीकार कर सकता था। 


उसने बैंक फोन किया तो दूसरी ओर से कोई उत्तर न मिला । तब तक एक बज चुका था थौर प्रत्यक्षत: बैंक बन्द हो चुका था ।


लालच से जकड़े हुए उस सिन्धी कार डीलर ने एक आखिरी निगाह 'सूरत से ही शरीफ लगने वाले अपने ग्राहक पर डाली और इस शर्त पर चैक लेना स्वीकार कर लिया कि विकास अपने होटल का नाम और कमरा नम्बर भी चैक की पीठ पर लिख दे ।


विकास ने ऐसा ही किया ।


और पांच मिनट बाद फियेट को ड्राइव करता हुआ वह वहां से निकल गया ।


एक मंजिल और पूरी कामयाबी के साथ तय हो गई थी।


******


लगभग उसी समय मनोहर लाल एजरा स्ट्रीट पहुंचा ।


उस रोज वह अपनी कर्नल की यूनीफार्म में नहीं था । उस रोज वह एक मामूली-सी पतलून, धारियों वाली खुले गले की कमीज और चमड़े की जैकेट पहने था । अपने गले में उसने एक लाल रंग का रुमाल बांधा हुआ था । और सिर के बाल जान-बूझ कर उलझाये हुए थे और माथे पर बिखरे हुए थे । अपने होंठों में उसने एक सुलगा हुआ सिगरेट यूं लगाया हुआ था जैसे सिगरेट से एक क्षण की भी जुदाई से उसकी जान पर आ बन सकती हो । ।


वह जानबूझ कर वैसा हुलिया बनाकर आया था । राजनारायण के काले धन्धे में वैसा हुलिया किसी परिचय का मोहताज नहीं होता था ।


राजनारायण की ज्वेल शाप में दाखिल होने से पहले उसने एक उड़ती सी निगाह सड़क से पार प्रोविजन स्टोर पर डाली ।


प्रोविजन स्टोर का दरवाजा बन्द था और उस पर एक बड़ा-सा ताला झूल रहा था ।


वह पहले से ही यह मालूम करके आया था कि राजनारायण उस वक्त दुकान में अकेला होता था ।


राजनारायण उसे वहां अकेला ही मिला ।


परसों की डकैती से उसने कोई सबक लिया नहीं मालूम होता था । या फिर उसे गारण्टी थी कि वैसी नौबत दोबारा नहीं आने वाली थी ।


राजनारायण ने सन्दिग्ध भाव से उसकी तरफ देखा । उसके चेहरे पर वह स्वागतपूर्ण रौनक न आई जो किसी ग्राहक को देख कर दुकानदार के चेहरे पर आनी चाहिए ।


"बोलो।" - वह रूखे स्वर में बोला ।


"दुकान में कोई और है ?" - मनोहर ने उसे घूरते हुए पूछा। 


"नहीं । क्यों ?"


" पांच मिनट के लिये शटर गिरा दो ।”


"क्यों ?"


"तुम्हें मालूम है क्यों ? जो कहा है करो।"


उक्त वक्त वह किसी कर्नल जैसी दबंग या किसी शरीफ आदमी जैसी शालीन भाषा नहीं बोल रहा था । उस वक्त वह अन्डरवर्ल्ड की अक्खड़ भाषा बोल रहा था और उसे मालूम था वही भाषा वहां कारगर साबित होने वाली थी ।


राजनारायण अपने स्थान से उठा और दुकान का शटर गिरा आया ।


“अब बोलो।" - वह बोला ।


"बैठ जाओ।" - मनोहर बोला ।


वह बैठ गया ।


मनोहर उसके सामने बैठ गया । उसने अपनी जेब से शनील की थैली निकाली और उसके सारे हीरे अपने और राजनारायण के बीच में काउन्टर पर पलट दिये ।


काउन्टर पर जगमग जगमग हो गई ।


"यह क्या है ?" - राजनारायण तीखे स्वर में बोला ।


“तुम्हें नहीं पता क्या है ?" - मनोहर ने उसे घूरा ।


राजनारायण ने दो तीन हीरे उठाकर परखे । फिर उन्हें गिनने लगा ।


“दस पन्द्रह कम होंगे।" - मनोहर बोला ।


राजनारायण ने तत्काल हीरे गिनने बन्द कर दिये ।


"तुम्हारे पास कहां से आये थे ?" - उसने पूछा ।


"कहीं से भी आये हों ?" - मनोहर अक्खड़ स्वर में बोला - "तुम्हें इससे क्या ? तुम आम खाने से मतलब रखो, खलीफा पेड़ गिनने से नहीं ।"


"लेकिन यह चोरी का माल है ।"


“अच्छा !" - मनोहर के स्वर में व्यंग्य का पुट आ गया - " और जो बाकी माल तुम्हारी दुकान पर आता है, वह कैसा होता है ?"


"यह मेरी ही दुकान से चोरी गया हुआ माल है ।"


“च... च... च । यह तो चोर की बड़ी ज्यादती है।"


राजनारायण कसमसाया, तिलमिलाया ।


" अंटी से नावां ढीला करते हो या मैं किसी और के पास जाऊं ?"


"यह मेरा माल है। इसकी कीमत मैं एक बार अदा कर चुका हूं।"


“यह उसका माल है जिसके पास यह इस वक्त है । अभी यह मेरा माल है । जब नावां ढीला कर चुके होगे तो यह तुम्हारा हो जायेगा।"


"मैं तुम्हें गिरफ्तार करवा सकता हूं।"


"जरूर । किसने रोका है ! पुलिस को बुला लो । दोनों हवालात में एक ही कोठरी अलाट करवा लेंगे। खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे उठाईगीरे दो ।"


राजनारायण ने बेचैनी से पहलू बदला ।


"मेरे पास फालतू वक्त नहीं है।" - मनोहर बेसब्रेपन से बोला - "जल्दी बोलो क्या कहते हो ।”


"यह मेरा माल है।" - राजनारायण ने फरियाद सी की "मैं इसकी कीमत...”


“अफ्फोह ! उस्ताद जी, या तो ट्यून बदलो या फिर मैं अपना बिस्तार यहां से गोल करता हूं।"


"देखो।" - एकाएक राजनारायण के स्वर में थोड़ी दिलेरी आ गई - "मेरे साथ धोखाधड़ी का अंजाम बहुत बुरा हो सकता है आज के पेपर में जगतपाल के बारे में तुमने पढ़ा

ही होगा । देख लेना, उसकी लाश का भी पता नहीं लगने वाला ।"


“तो इसमें तुम्हारा कौन-सा कमाल है । उसे फैंस को लूटने की सजा दे दी भाई लोगों ने । वह ऐसी सजा का हकदार था ।"


"तुम भी तो मुझे लूट रहे हो ?"


"गलत । मैं तुम्हारे साथ धन्धा कर रहा हूं। मैं तुम्हारे पास चोरी का माल बेचने आया हूं। खरीदना है तो बोलो । नहीं खरीदना तो जवाब दो... और वही राग दोबारा मत अलापना जो तुम मुझे पहले सुना चुके हो । "


"तुम्हारे पास यह आया कहां से ?"


" उस्ताद, जी वो देखो खिड़की से बाहर कितनी खूबसूरत चिड़िया उड़ रही है । "


राजनारायण ने एक आह भरी ।


“लगता है तुम्हारे दाने बिक गये हैं।" - मनोहर मेज पर से हीरे बटोरता हुआ बोला- "अब तुममें माल खरीदने का दम नहीं रहा ।"


“क्या चाहते हो ?”


"एक लाख ।"


“पागल हो गए हो क्या ?"


“यह पांच लाख का माल है ।"


"तीन लाख का ।”


"तो साठ हजार दे दो।"


"इसमें से दस-पन्द्रह हीरे कम भी हैं । "


“पचास दे दो।"


"पिछली बार पूरे माल के मैंने तीस दिए थे । "


"पागल हुए हो । दस फीसदी तो बीमा कम्पनी वाले चोरी का माल बरामद करवाने की फीस दे देते हैं । "


"तीस हजार रुपये तुम बीमा कम्पनी से हासिल नहीं कर सकते । वहां तुम्हें यह बताना पड़ेगा कि तुम्हारे पास माल आया कहां से । उसकी कोई सफाई दे भी दोगे तो वहां क्लेम पास होने में महीनों लग जाते हैं । "


"मुझे मालूम है। तभी तो मैं तुम्हारे पास आया हूं।"


"मैं बीस दूंगा ।"


"तीस से एक पैसा भी कम नहीं । तीन लाख का माल तो इसे तुम बता रहे हो । मेरी अभी भी गारन्टी है कि यह पांच लाख से कम कीमत का माल नहीं । "


"बाइस।"


"अट्ठाइस दे दो। इससे एक पैसा भी कम नहीं । "


"तेइस ।”


"पच्चीस निकालो नहीं तो भाड़ में जाओ।"


और वह फिर माल बटोरने लगा ।


"मंजूर ।" - राजनारायण बोला । मनोहर ने हाथ खींच लिया ।


“अब तो बता दो माल तुम्हारे हाथ कैसे लगा ?"


"चाचा, वह खूबसूरत चिड़िया फिर आ गई खिड़की के बाहर ।"


"अच्छा मेरे बाप, मत बताओ।"


राजनारायण नोट गिनने लगा ।


मनोहर ने होंठों में लगे सिगरेट के टुकड़े से नया सिगरेट सुलगा लिया ।


चौबीस घन्टे से भी कम समय में पैंतीस हजार रुपये की कमाई हो गई थी ।