देवराज चौहान की सुबह आंख खुली तो दिन के नौ बज रहे थे।
देवराज चौहान उठकर बैठ गया। चेहरे पर सोचों के भाव आ ठहरे थे। वो मिट्टी में धंसे उस गेट के, रानी के और प्रेमा के बारे में सोचने लगा था कि उसकी सांसों से बीड़ी की स्मैल टकराई।
देवराज चौहान चौंका। खड़ा होकर टैंट से बाहर निकला तो ठिठक गया।
सामने कुर्सी पर जमींदार का नौकर खाने का टीफिन और चाय के थर्मस के साथ बैठा था।
"नमस्कार बाबूजी।" नौकर उसी पल बीड़ी एक तरफ फेंककर खड़ा हुआ--- "आप लोग नींद में थे तो जगाना उचित नहीं समझा। दूसरे बाबूजी तो मालिक के साथ बैठकर कार में कहीं गए थे। उन्होंने ही कहा कि आज चाय भी ले जाऊं।"
"दूसरे बाबूजी!"
"जी हां, वो तो आठ बजे ही जमींदार साहब के यहां पहुंच गए थे।"
देवराज चौहान ने दूसरे टैंट में झांककर देखा।
सोहनलाल वहां था, नींद में था। जगमोहन नहीं था।
देवराज चौहान समझ गया कि जगमोहन सलाखें काटने का सामान लेने जमींदार के साथ कहीं बाजार गया है।
देवराज चौहान ने नौकर से नाश्ता और चाय का थर्मस लिया और उसे वापस भेज दिया।
■■■
होटल ब्लैक बिशप के बाहर, ठीक सामने सड़क पार, कार में रात भर बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव होटल के मुख्यद्वार पर नजर रखते रहे। एक नींद लेता तो दूसरा नजर रखता। इसी तरह रात बीत गई। वे चाहते तो अपने आदमियों को बुलाकर निगरानी पर लगा सकते थे परंतु मोना चौधरी का मामला था। वे किसी भी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहते थे। उन्हें मालूम था कि एक बार मोना चौधरी नजरों से ओझल हो गई तो फिर उसका दिखना कठिन था। जबकि इस वक्त वो मोना चौधरी का नजर से दूर होना सहन नहीं कर सकते थे। दिन होने पर वे दोनों ही फ्रेश थे। थोड़ी-थोड़ी नींद ले चुके थे ।
"छोरे।"
"हां बाप।"
"मोन्ना चौधरी ने तो अपनों को पूरी रात लटका दयो। कुछो भी खाणों-पीणों न दयो।"
"बाप, अपुन तेरे को खाने के वास्ते ला...!"
"इधरो ही टिको रहो। खाणों को मन मार लयो। पाछे से मोन्ना चौधरी आयो तो थारे को किधर ढूंढो अम।" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर गया--- "म्हारी यो हालत गुरदासपुरी में हौवो तो अबो तक तीन बारो वो ठण्डी लस्सी, मक्खनों का गोला डालो के और मिस्सी परांठे ला के अपणों हाथों से म्हारे को खिला दयो।"
"बाप!"
"बोलो छोरे।"
"गुरदासपुर चलेगा ?"
"तम काये को-अम जायो वां पे।"
"अपुन उधर जाके दूर से देखेला बाप कि तेरी वो खातिर करेला या नेई ।"
बांकेलाल राठौर ने रुस्तम राव पर नजर मारी, फिर होटल के गेट को देखने लगा।
"छोरे, जां पे परदा पड़ो हो। पड़ो रैन दयो। तम काये को परदा उठाणों का कष्ट करो हो।"
"परदा बीच में किधर से आइला बाप।"
"रैन दे छोरे ! घड़ो को ढको रैन दे। ढक्कनो उठायो तो बीच में सांपों न निकल जायो।"
रुस्तम राव ने गंभीर निगाहों से बांकेलाल राठौर को देखा।
"उधर गुरदासपुर में क्या होएला बाप! तुम वहां से अपनी महबूबा को छोड़ के क्यों भागेला ?"
"म्हारे को ऐसा मत बोलो हो तम! अम भागो ना ही । छाती ठोको के शान से चल्लो के आयो हो। गुरदासपुरो में अम शानों से...!"
"बाप-मोना चौधरी, पारसनाथ और महाजन निकेईला बाहर को।"
बांकेलाल राठौर ने भी देखा।
वे तीनों होटल के गेट से बाहर निकले और पैदल ही एक तरफ बढ़ गए थे।
"छोरे!" बांकेलाल राठौर कार में बैठा उन्हें घूरता हुआ बोला— “यो पैदलो क्यों चल्लो हो? इनका सबो कुछ नीलाम हो गयो का ?"
"अपने को खबर नेई होएला। इनके पीछे लगेएला। नजर रखेला।"
वो तीनों जब काफी आगे निकल गए तो रुस्तम राव ने कार स्टार्ट की और चींटी की रफ्तार से उनकी तरफ आगे बढ़ा दी।
दस मिनट पैदल चलने के बाद उन तीनों को सड़क के किनारे रुकते देखा। मोना चौधरी और महाजन को वहीं छोड़कर पारसनाथ सड़क पार करके दूसरी तरफ चला गया। वहां सड़क के किनारे सफेद रंग की एसेन्ट कार खड़ी थी। वो उसके दरवाजे के साथ छेड़छाड़ करने लगा। फिर देखते ही देखते कार का दरवाजा खोला और भीतर बैठ गया। रुस्तम राव ने कार पहले ही रोक दी थी। वो पारसनाथ की हरकत देख रहे थे।
"यो तो बढ़िया कारो पर हाथ मारो हो। "
वे दोनों आगे देखते रहे।
पारसनाथ ने एसेन्ट कार आगे बढ़ाई और वापस मोड़कर दूसरी तरफ मोना चौधरी, महाजन के सामने रोक दी। महाजन उसकी बगल में बैठा--मोना चौधरी पीछे। कार फिर आगे बढ़ गई।
"चल छोरे! ईव यो तीनों काशीपुरी गांव की तरफ भागो हो ।"
रुस्तम राव कार आगे बढ़ा चुका था।
वे काफी ज्यादा फासला रखकर मोना चौधरी वाली कार का पीछा करने लगे।
"काशीपुर गांव कब तक पहुंचेंगे ?"
"शाम तक।" पारसनाथ का पूरा ध्यान तेज दौड़ती कार पर था।
"बेबी!" महाजन ने गरदन पीछे की तरफ घुमाकर कहा--- "अगर वहां देवराज चौहान न मिला तो ?"
"वो काशीपुर गया हैं तो उसे ढूंढने में परेशानी नहीं होगी।" मोना चौधरी ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा--- "ढूंढ लेंगे।"
"अगर वो काशीपुर गांव पहुंचा ही नहीं तो?"
"तो भी उसे छोड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं।" मोना चौधरी की आवाज में खतरनाक भाव आ गए--- "वो जहाँ भी होगा, उसे ढूंढा जाएगा और खत्म कर दिया जाएगा।"
"मेरे खयाल में तुम्हें पेशीराम की बात मान लेनी चाहिए थी।" पारसनाथ गंभीर स्वर में कह उठा--- "लोकनाथ का काम छोड़ देती तो हमें देवराज चौहान के सामने न पड़ना पड़ता।"
मोना चौधरी के दांत भिंच गए।
"मुझे देवराज चौहान का डर नहीं।"
पारसनाथ खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरकर कह उठा।
"मैं डरने की बात नहीं कह रहा, बल्कि इसलिए कह रहा हूं कि तुम्हारे और देवराज चौहान के झगड़े में किसी का भला नहीं होगा।"
महाजन ने गहरी सांस लेकर आंखें बंद कर ली थीं।
देवराज चौहान का जिक्र आने पर मोना चौधरी के चेहरे पर कठोरता नाचने लगी थी।
उनकी कार इस वक्त ऐसी लंबी सड़क पर दौड़ रही थी, जिसमें दूर-दूर तक कोई मोड़ नहीं था।
यही वो वक्त था कि एक कार ने तूफानी गति से उन्हें ओवरटेक किया। उस कार की ड्राइविंग सीट पर लड़की बैठी थी। महाजन, पारसनाथ सिर्फ इतना ही देख पाए, परंतु मोना चौधरी ने कमीज सलवार डाले उस लड़की को पहचान लिया। था। वो कुछ कहने लगी कि तभी एक और कार ने उन्हें ओवरटेक किया।
दूसरी कार में तीन व्यक्ति बैठे थे।
एक ने व्हिस्की की खुली बोतल हाथ में पकड़ रखी थी।
"गड़बड़!" महाजन के होंठों से निकला।
"ये लोग आगे वाली कार में बैठी लड़की के पीछे हैं।" पारसनाथ का चेहरा कठोर हो गया।
"वो इन तीनों को संभाल लेगी।" मोना चौधरी ने लापरवाही से कहा।
"क्या मतलब?" महाजन ने गरदन घुमाकर मोना चौधरी को देखा।
"वो नगीना है।"
"नगीना!" महाजन चौंका।
"देवराज चौहान की पत्नी।" पारसनाथ के होंठों से निकला।
"कुछ भी कह लो।" मोना चौधरी का स्वर शांत था--- “नगीना खतरनाक लड़ाका है। मैं उसकी लड़ाई देख चुकी हूं। तलवार से लेकर रिवॉल्वर तक, सारे हथियार उसके लिए खिलौने हैं। खाली हाथों से ही वो कइयों का मुकाबला कर सकती है।"
वे दोनों कारें इतनी आगे चली गई थीं कि नजर आनी बंद होने लगी थी।
"लेकिन वो लोग उसके पीछे क्यों हैं ?" महाजन बेचैन हो उठा।
"कोई भी वजह हो।" मोना चौधरी कह उठी--- "नगीना उनसे डरेगी नहीं।"
कोई कुछ न बोला। कार दौड़ती रही।
पांच मिनट बाद ही पारसनाथ ने ब्रेक लगाए और कार सड़क के किनारे रोक दी। वहां नगीना वाली कार और पीछे लगी कार, दोनों ही रुकी पड़ी थीं।
"यही हैं वे कारें।" महाजन के होंठों से निकला।
"कार क्यों रोक दी पारसनाथ ?" मोना चौधरी ने उसे देखा।
“मोना चौधरी!" पारसनाथ कार का दरवाजा खोलता हुआ बोला--- "नगीना का रिश्ता बेशक देवराज चौहान से है, लेकिन सबसे पहले वो औरत है और इस वक्त वो तीन लोगों से घिरी हुई...!"
"उसे सहायता की जरूरत नहीं है।" मोना चौधरी मुस्करा पड़ी--- "मैं जानती हूं कि...।"
"बेशक उसे सहायता की जरूरत न हो।" पारसनाथ बाहर निकल आया था--- "लेकिन मैं अपनी तसल्ली करके ही आगे बढ़ूंगा। "
"मुझे कोई एतराज नहीं।" मोना चौधरी अभी भी मुस्करा रही थी ।
पारसनाथ सड़क के किनारे उतर गया। ये जंगली इलाका था। पेड़, तालाब और बड़े-बड़े पत्थर इस सारी जगह पर फैले हुए थे। पारसनाथ के खुरदरे चेहरे पर कठोरता स्पष्ट नजर आ रही थी।
रुस्तम राव भी उनकी कार को रुकते पाकर पहले ही कार रोक चुका था।
"म्हारे को लगे कि पारसनाथो को सूं-सूं आयो हो । झाड़ में वो करन गयो हो।"
"उधर दो कारें और भी खड़ेला है। "
"का फर्क पड़ो। वो भी...!"
"बाप ये कारें वोई होएला, जो बहुत फास्ट ओवरटेक करेला। पीछे वाली कार में तीन आदमी दिखेला।"
बांकेलाल राठौर की आंखें सिकुड़ीं।
"छोरे। पैले वाली कारों में तो कोईयो छोरी हौवे मन्ने देखा हो उसे को।"
"फिर तो गड़बड़ होएला।" रुस्तम राव की नजरें सामने थीं--- "मोना चौधरी, महाजन और पारसनाथ तभी इधर रुकेला । वो सब ठीक करेला चिन्ता नहीं होएला बाप।"
बांकेलाल राठौर जानता था कि वे लोग गलत नहीं होने देंगे। तभी वे रुके हैं लेकिन वे ये तो सोच भी नहीं सकते थे कि वो लड़की और कोई नहीं नगीना है। मालूम होता तो उन तीनों व्यक्तियों का जाने क्या होता।
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नगीना चार फीट ऊंचे कुछ चौड़े पत्थर के पीछे उकड़ू बैठी थी। चुन्नी उसने कमर से बांध ली थी। वो किसी आहट को सुनने की कोशिश में थी। चेहरे पर दरिन्दगी आ ठहरी थी। कोई खास बात नहीं हुई थी। उसे कहीं पर पहुंचने की जल्दी थी। तेज ड्राइविंग कर रही थी। ऐसे में उसने इन लोगों की कारों को ओवरटेक किया तो ये लोग उसके पीछे लग गए थे। उन्होंने उसकी कार को ओवरटेक ही नहीं किया, बल्कि उलटी-उलटी बातें कहने लगे थे। नगीना ने एक के हाथ में व्हिस्की की बोतल देख ली थी
बहरहाल उसके बाद नगीना ने अपनी कार को तेज दौड़ा दिया।
कई सड़कों की लंबाई खत्म करने के बाद भी इन लोगों ने पीछा नहीं छोड़ा तो इन्हें सबक सिखाने के लिए कार को इस सुनसान वाली जगह पर रोका था। उसे भरोसा था कि ये पीछे आएंगे और आए भी।
तभी सूखे पत्तों के चरमराने की आवाज उसके कानों में पड़ी। वो वैसे ही पत्थर की ओट में दुबकी रही।
कोई दबे पांव उसे तलाश कर रहा था। मिनट-डेढ़ मिट बीता तो उसे वो दिखा। सामने की झाड़ियों से वो निकला था।
नगीना ने एक ही बार में उसे पहचाना कि उन तीनों में एक वो भी था।
नगीना की निगाह उस पर टिकी रही।
उसकी नजरें इधर-उधर घूम रही थीं। धीरे-धीरे उसकी पीठ नगीना की तरफ हुई। वो उसे दूसरी तरफ तलाश कर रहा था। नगीना अपनी जगह पर खड़ी हो गई। पीछे से वो आसानी से उस पर वार कर सकती थी लेकिन नगीना आगे बढ़ी और ठीक उसके पीछे जा पहुंची।
"हैलो!" नगीना के होंठों से निकला।
वो फुर्ती से पलटा। इतने करीब नगीना को देखकर पल भर के लिए हड़बड़ाया फिर दांत फाड़कर हंसा।
"आ गई तू! मुझे अकेला देखकर सामने आ गई। बढ़िया किया---वो दोनों भी होते तो मजा नहीं आता। चल उधर झाड़ियों में, जगह भी खाली है। वहां चुपके से...।"
"यही काम था।" नगीना की आंखों में तीखी कठोरता उभरी।
वो दांत फाड़कर हंसा
"ये क्या कम काम है ? सारी दुनिया ही...!"
उसी पल नगीना का घुटना चला। उसके पेट में जा लगा। वो दोनों हाथों से पेट थामकर चीखा। नगीना का हाथ चला। सीधा उसकी गरदन पर पड़ा। कड़ाक हड्डी टूटने की अजीब सी आवाज उभरी। वो वैसे का वैसे ही नीचे जा गिरा। उसकी आंखें फट गई थीं। मर चुका था वो।
तभी उसके कानों में गुर्राहट पड़ी।
नगीना ने पलटना चाहा कि कोई शरीर तेजी से आता उससे टकराया। वो संभल न सकी और फुटबॉल की तरह कई फीट लुढ़कती चली गई। इसके साथ ही संभली और उछल कर खड़ी हो गई। वो पच्चीस बरस का युवक था जो कि जमीन से उठ गया था। वो ही उछलकर उससे टकराया था।
खड़े होकर उसने नगीना को देखा।
नगीना को वो नशे में लगा।
"क्या किया तूने मेरे दोस्त के साथ ?" उसने दांत भींचकर नगीना को देखा।
"जो ये मेरे साथ करना चाहता था।" नगीना ने कड़वे स्वर में कहा--- "वो मैंने इसके साथ कर दिया।"
"बकवास करती है साली।" वो पहले जैसे स्वर में कह उठा--- "तूने इसे जान से मार दिया है।"
"ये मुझे आत्मा से मार देना चाहता था। मैंने इसे जान से मार दिया।" नगीना ने उसे घूरा ।
"हरामजादी मेरे मुंह लगती है।" वो गुस्से से दो कदम आगे बढ़ा और ठिठक गया--- "जानती नहीं मेरे को!"
नगीना उसे घूरती रही।
"कैसे मारा तूने इसे ?" वो गुर्राया।
नगीना उसे देखे जा रही थी।
"मैं...!" कहते-कहते वो रुका।
उसे अपना साथी दिखाई दिया, जो कि पेड़ों से निकलकर सामने आ गया था। उसने हाथ में रिवॉल्वर थाम रखी थी। अपने साथी को नीचे पड़े देखकर उसकी आंखें सिकुड़ीं ।
"देख ले।" वो नशे में अपने साथी से चीखा--- "अपने यार को मार दिया इस हरामजादी ने।"
रिवॉल्वर वाले ने नगीना को मौत भरी नजरों से देखा।
नगीना की आंखों में खतरनाक चमक थी।
"आगे बढ़।" रिवॉल्वर वाला अपने साथी को देखकर गुर्राया--- "फिक्र मत कर। अब इसने कुछ किया तो गोली मार दूंगा।"
"कपड़े उतार दे हरामजादी के। फाड़ के उतार। इसका तो वो हाल करेंगे कि... !"
"समझ गया-समझ गया!" शराब के नशे में झूमता वो नगीना की तरफ बढ़ा--- "इसे अपने साथ भी ले चलेंगे। हाथ- पांव बांध देंगे। महीना-दो महीने इस हसीना के साथ ऐश करेंगे।" वो नगीना की तरफ बढ़ता जा रहा था।
नगीना आंखों में खतरनाक चमक भरे उसे देखे जा रही थी।
उसका साथी नगीना की तरफ रिवॉल्वर किए खड़ा था। उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वो सच में गोली मार देगा। माहौल खतरनाक हो गया था।
नशे में वो नगीना के पास पहुंचा और दांत फाड़कर हंसा।
"अब क्या करेगी मेरी चिड़िया।" कहते हुए उसने नगीना की तरफ हाथ बढ़ाया।
उसी पल नगीना का हाथ बिजली की सी तेजी से चला और उसके चेहरे पर जा लगा।
वो गला फाड़कर चीख पड़ा। लगा जैसे पूरा जंगल कांप गया हो।
नगीना के हाथ की दो उंगलियां उसकी आंखों में धंस चुकी थी। आंखें फूट गई थीं उसकी। अंधा हो गया था। तड़पकर वो नीचे गिरा और चीखते हुए इधर-उधर लुढ़कने लगा था।
ये देखकर रिवॉल्वर वाला हक्का-बक्का रह गया था।
नगीना फौरन उसकी ओर पलटी।
वो चौंका। संभला । चेहरे पर दरिन्दगी सिमट आई।
"गोली मत चलाना।" नगीना ऊंचे स्वर में बोली।
"तूने !" वो दांत भींचकर किटकिटा उठा--- "इसे अंधा कर दिया। इसकी आंखें...!"
"तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं।" नगीना मुस्कराई--- "तुम्हारे साथ ऐसा कुछ भी नहीं होगा।"
"क्यों ?" उसकी आंखें सिकुड़ने के साथ होंठ भी भिंच गए।
"मुझे तीन-तीन मर्द एक साथ पसंद नहीं।" मुस्करा रही थी नगीना--- "एक बार में एक ही सामने होना चाहिए।"
वो रिवॉल्वर थामे कठोर नजरों से मोना चौधरी को देखता रहा।
"आओ, मेरे पास आओ।" नगीना बोली--- "या मैं करीब आऊं ?"
वो वैसे ही संदेह में खड़ा रहा।
"विश्वास नहीं आ रहा मेरी बात पर ।"
"कौन विश्वास करेगा।" वो सख्त स्वर में बोला--- “तूने मेरे एक साथी को जान से मार दिया। दूसरे को अंधा कर दिया। ऐसे में मैं तुझे आगोश में लेने की भूल कैसे कर सकता....।"
नगीना हंस पड़ी।
नीचे पड़ा वो अभी भी पीड़ा से चिल्लाए जा रहा था। एकाएक वो तेज स्वर में बोला।
"इस पर विश्वास मत करना। ये नागिन से भी ज्यादा खतरनाक है--मुझे अंधा कर दिया। मैं अंधा हो गया। मैं...!" इसी तरह वो चीखे-चिल्लाए रोए जा रहा था।
नगीना ने हंसी रोकी और कहा।
"ये तुम्हारी समझ पर निर्भर है कि तुम इसकी बात पर विश्वास करते हो या मेरी बात पर। यहां कुछ भी ठीक नहीं रहेगा। मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। कोई आरामदेह जगह तो होगी तुम्हारे पास....!"
"तू सच में खतरनाक है।" वो कह उठा--- "इतना कुछ करने के बाद भी तेरे माथे पर कोई शिकन नहीं...!"
"इसलिए नहीं कि....।" नगीना हंसी--- "मैं अभी-अभी जेल से भाग निकली हूं।"
"क्या ?" वो चौंका।
"हैरान हो गए ना। मैं तुम्हें हैरान नहीं करना चाहती थी। बताना नहीं चाहती थी लेकिन तुमने बात ही ऐसी की कि बताना पड़ा।" नगीना दोनों हाथ हिलाकर बोली--- "छः लोगों की हत्या के जुर्म में मुझे फांसी की सजा हो चुकी है। कल मुझे फांसी लगनी थी कि तीन पुलिस वालों की हत्या करके जेल से भाग निकली। बाहर कार खड़ी थी वो ले भागी कि रास्ते में तुम लोग पीछे लग गए। अब पता चला कि एक की हत्या करके, दूसरे को अंधा करके मेरे माथे पर शिकन क्यों नहीं आई ?"
रिवॉल्वर थामे उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
नीचे पड़ा वो रह-रहकर चीख-चिल्ला रहा था। उसका चेहरा आंखों से निकलने वाले खून में डूबा, लाल सुर्ख दिखाई दे रहा था।
"मुझे कहीं छिपने के लिए जगह चाहिए। तुम्हारे साथ चलती हूँ। दोनों का काम हो जाएगा।"
"न-हीं!" उसके होंठों से सूखा सा स्वर निकला।
"क्या नहीं!"
"म... मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए।" उसने जान छुड़ाने वाले लहजे में कहा--- "तुम जाओ।"
"जाऊं !" नगीना ने आंखें फैलाई।
उसने सिर हिलाया।
"अब क्या हो गया ? अभी तो तुम मुझे पाने के लिए मरे जा रहे थे!" नगीना मुस्कराई--- "चलते हैं, तुम्हारे घर पर...!"
"तुम जाओ, मुझे तुमसे संबंध नहीं रखना। खतरनाक औरत हो तुम!"
"सोच लो।"
"सोच लिया।"
"ठीक है, जा रही हूं मैं। ये रिवॉल्वर मुझे दे दो।" नगीना उसकी तरफ बढ़ी।
"रिवॉल्वर ?"
"लायसेंस वाली तो नहीं होगी ये ।"
"न... हीं।"
"तो फिर तुम्हें देने में क्या एतराज है।" नगीना उसके सामने चार कदम पहले खड़ी हो गई--- "मैं पुलिस से भागी हुई हूं। कोई भी खतरा मेरे सिर पर आ सकता है। रिवॉल्वर की ज्यादा जरूरत मुझे है। दे दो मुझे।"
उसके चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे।
"क्या सोच रहे हो ?"
"क... कुछ नहीं।"
"या तो मुझे रिवॉल्वर दो या मुझे अपने साथ ले चलो। कुछ दिन मैं तुम्हारे साथ छिपकर ...।"
"तुम इतने खून कर चुकी हो कि तुम्हारे साथ रहने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। तुमसे डर लगता रहेगा मुझे।" उसने जल्दी से कहा--- "तुम रिवॉल्वर ले लो और जाओ। मुझे अपने दोस्त को अस्पताल ले जाना है।" कहकर उसने रिवॉल्वर नगीना की तरफ बढ़ाई तो नगीना ने रिवॉल्वर थामी और उसका रुख उसकी तरफ कर दिया।
ये देखकर उसका चेहरा फक्क पड़ गया।
नगीना के चेहरे पर खतरनाक भाव मचल उठे।
"ये... ये क्या ?" उसकी आंखें भय से फैल गई थी।
"तुम्हारे कर्मों का फल ।" नगीना के होंठों से खतरनाक स्वर निकला और ट्रेगर दबा दिया।
गोली का तेज धमाका हुआ और उसकी छाती में खून का धब्बा उभरा। इसके साथ ही वो इस तरह उछलकर नीचे गिरा जैसे किसी ने उसे धक्का दे दिया हो। उसके बाद वो हिल नहीं सका। मर गया था।
नगीना ने नफरत भरी नजरों से उसे देखा और रिवॉल्वर से उंगलियों के निशान साफ करके, उसकी लाश पर फेंकी और पलटकर जंगल के बाहर की तरफ बढ़ी कि एकाएक ठिठकी। चेहरे पर से कई भाव आकर निकल गए।
तीस-चालीस कदम दूर एक पेड़ के पास पारसनाथ को खड़े देख लिया था। वो इधर ही देख रहा था।
नगीना अपलक उसे देखती रही।
एकाएक पारसनाथ अपनी जगह से हिला और उसकी तरफ बढ़ने लगा।
नगीना उसे देखे जा रही थी। आंखें सिकुड़ीं हुई थीं।
पारसनाथ पास पहुंचा और रुकते हुए बोला।
"आपने मुझे पहचान लिया होगा!" स्वर उसका सपाट ही था।
"मेरे खयाल में आप मोना चौधरी के साथी पारसनाथ हैं।" नगीना सतर्क थी।
पारसनाथ ने सहमति से सिर हिलाया।
“हां। मैंने भी आपको एक ही बार में पहचान लिया था कि आप देवराज चौहान की पत्नी हैं। तब आपने तेजी से मेरी कार को ओवरटेक किया था। पीछे लगी कार भी मैंने देखी और आपको जंगल में जाते देखा। मेरे साथ मोना चौधरी और महाजन भी हैं। वो बाहर ही कार में हैं। मैं इधर आ गया कि शायद आपको मेरी सहायता की जरूरत पड़े।"
ये सुनकर नगीना के चेहरे से तनाव के भाव खत्म हो गए।
"लेकिन मोना चौधरी ठीक कह रही थी कि आपको सहायता की जरूरत नहीं पड़ेगी। मैंने सब कुछ देखा । " पारसनाथ की निगाह लाश पर और आंखें गवां चुके व्यक्ति की तरफ गई, जो कि तड़पे जा रहा था--- "आपने अच्छी तरह अपना बचाव किया। "
"मतलब कि आप इसी काम के लिए आए थे?"
"हां।"
“तो अब आपको चले जाना चाहिए।"
पारसनाथ के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी।
"हां, मेरी अब जरूरत नहीं।"
"तो जाइए।" नगीना की एक-एक निगाह पारसनाथ पर थी--- "मेरी वजह से आपने जो कष्ट उठाया, उसके लिए धन्यवाद!"
पारसनाथ ने सिर हिलाया और पलटकर बाहर की तरफ चल पड़ा। वो जानता था कि मोना चौधरी का साथी होने की वजह से नगीना उसे शक भरी नजरों से देख रही थी।
नगीना उसे जाते देखती रही। जब पारसनाथ नजरों से ओझल हो गया तो वो चीखते आदमी पर निगाह मारकर खुद भी आगे बढ़ गई।
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"छोरे! पारसनाथो आ गयो। लंबो ही सूं-सूं करो के आयो हो। बोत देर लगा दयो। कुछ औरो तो न करो हो।"
"बाप, उधर दो कारें और रुकेला।" रुस्तम राव पारसनाथ को कार में बैठते देख रहा था--- "कोई बात होएला।"
उनके देखते ही देखते पारसनाथ ने कार आगे बढ़ा दी।
रुस्तम राव ने भी कार आगे बढ़ा दी।
पीछा फिर शुरू हो गया।
रुस्तम राव जब उन रुकी दोनों कारों के पास से निकला तो बांकेलाल राठौर ने उस तरफ निगाह मारी।
तभी उसकी निगाह जंगल से बाहर निकलती नगीना पर पड़ी।
"बहना!" बांकेलाल राठौर चौंका।
"क्या बाप ?"
"बहना-नगीना बहना !"
रुस्तम राव ने उसी पल ब्रेक लगाते हुए कार को सड़क के किनारे रोका।
"नगीना दीदी की बात करेला ?" रुस्तम राव अजीब से स्वर में बोला।
"हां।" कहते हुए बांकेलाल राठौर ने दरवाजा खोला और बाहर निकलकर ऊंचे स्वर में बोला--- "बहनो!"
नगीना जो कि अपनी कार के पास पहुंच चुकी थी, आवाज सुनकर चौंकी।
"बांके भैया ?" नगीना ने गरदन घुमाई तो बांकेलाल राठौर को वहां देखकर चौंकी।
"इधर आ जाबो बहना।" बांकेलाल राठौर ने हाथ हिलाकर जल्दी से उसे आने का इशारा किया।
लेकिन नगीना कार वहां नहीं छोड़ सकती थी। जंगल में लाश भी पड़ी थी।
तभी भीतर से रुस्तम राव बेचैनी से बोला ।
"बाप, वो कार दिखनी बंद होएला।"
"जल्दी करो बहना।" बांकेलाल राठौर तेज स्वर में बोला।
नगीना समझ चुकी थी कि कोई बात है। पारसनाथ ने कहा था कि मोना चौधरी और महाजन भी कार में बैठे हैं और अब ये दोनों? क्या ये उनका पीछा कर रहे हैं। उनकी जल्दबाजी का यही कारण उसे समझ आया।
"आप चलो।" नगीना अपनी कार का दरवाजा खोलते हुए बोली--- "मैं पीछे आ रही हूं।"
"लेकिन बहनो...!" बांकेलाल राठौर ने कहना चाहा।
"ये कार मुझे यहां से हटानी है।" नगीना कार में बैठ गई थी और कार स्टार्ट करके आगे बढ़ाई।
बांकेलाल राठौर कार में बैठा तो रुस्तम राव ने उसी पल कार दौड़ा दी।
"छोरे! गड़बड़ो हौवे।"
"का---दीदी क्या कहेला ?”
"कारों को उधर से हटाने वास्तो कहो हो। जंगलो में गड़बड़ो हौवे।''
"अपुन को हैरानी होएला दीदी को इधर देख के ।"
बांकेलाल राठौर ने कुछ नहीं कहा।
“मोना चौधरी वालो कारों भाग गयो ?" बांकेलाल राठौर होंठ भींचकर कह उठा।
“हां बाप, वो आगे निकेला पण काशीपुर गांव का सफर अभ्भी शुरू होईला। कार अभ्भी दिखेला।"
बांकेलाल राठौर ने गरदन घुमाकर पीछे देखा।
नगीना की कार पीछे थी।
दस मिनट बाद नगीना ने एक बाजार के पार्किंग में कार रोकी। सुबह का वक्त होने की वजह से बाजार अभी बंद था। रुस्तम राव ने नगीना की कार को रुकते पाकर अपनी कार को रोक दिया था।
नगीना कार को खड़ी करके दौड़ी आई और उनकी कार में आ बैठी।
रुस्तम राव ने कार को पुनः दौड़ा दिया था।
"दोनों भाइयों को सामने पाकर मुझे बहुत खुशी हो रही है!" नगीना बच्चों की तरह खुश होकर बोली।
"वो तो ठीको हो बहनो।" बांकेलाल राठौर बोला--- "इधरो का करो हो ?"
नगीना ने सारी बात बताई।
सुनकर बांकेलाल राठौर का चेहरा दरिन्दगी से भर उठा।
"हरामियों को ठिकाणों लगा के बोत बढ़ियो करो हो तम।"
"दीदी, अपुन नेई दिखेला ये सब । अपुन लोग पीछे ही रुकेला। मालूम होएला तो....!"
"छोरे, वो मामलो निपट गयो हो। तम आगो को देखो हो।"
कार तूफानी गति से दौड़ रही थी। वे शहर की सीमा पर पहुंचने जा रहे थे।
“थारे को लेने वास्ते गड़बड़ हो गयो। मोन्नो चौधरी आगो को खिसक गयो।"
"क्या कर रहे हो तुम लोग ?" नगीना कह उठी।
"गड़बड़ो हौवे हो।" बांकेलाल राठौर गंभीर स्वर में बोला--- "मालूम थारे को, मोन्नो चौधरी, पारसनाथ और महाजन को लेकर किधर जावे ?"
"किधर ?"
"देवराज चौहान को मारणो वास्ते...!"
"क्या ?" नगीना चौंकी।
"घबरो मत।" बांकेलाल राठौर गुर्राया--- "देवराज चौहान, की तरफो जो हाथ बढ़ो हो, अम उसो को वड दयो।"
नगीना का चेहरा भी सख्त हो चुका था।
"बात क्या है ?"
बांकेलाल राठौर ने बताय कि सारा मामला क्या है।
रुस्तम राव का पूरा ध्यान ड्राइविंग पर था।
"तो मोना चौधरी देवराज चौहान की तलाश में केशोपुर गांव जा रही है।" नगीना ने शब्दों को चबाकर कहा।
"हां, थारे को मालूम हौवे कि देवराज चौहान किधरो हौवे ?"
"परसो से पहले दिन वो मेरे पास से गए थे।" नगीना बोली--- "लेकिन तब उन्होंने ऐसा कोई जिक्र नहीं किया था कि कहीं जाना है।"
दो पलों की खामोशी के बाद बांकेलाल राठौर बोला।
"ईब थारो का प्रोग्रामी हौवो। अम तो दूर जायो हो। तम इधरो उतरो के टैक्सी पकड़ो, वापसो के वास्ते और....!"
"मैं तुम लोगों के साथ ही जाऊंगी।" नगीना दृढ़ता भरे स्वर में कह उठी।
"का जरूरत हौवे। तम घबरो मत, अम सबो कुछो ठीक कर दयो। तम तसल्लो से...।"
"मैं तुम लोगों के साथ चलूंगी भैया।"
"पक्को ?"
"हां।"
"सुन्नो हो छोरे ! बहनो भी...!"
"चलने दे बाप! दीदी अब नेई मानेला। इधर अपने पास भी टाइम नेई होएला कार रोकने वास्ते।"
कार दौड़ती रही।
नगीना भी साथ हो गई थी।
करीब आधे घंटे बाद शहर से बाहर हाइवे पर मोना चौधरी वाली कार नजर में आते ही उन तीनों ने राहत की सांस ली। बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया।
"छोड़ना नहीं छोरे! अम इन सबो को वड दवागें।"
पीछा जारी रहा।
■■■
देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल ने गैस कटर, आरी और हथौड़े की सहायता से उस गेट के ऊपरी हिस्से की मोटी-मोटी सलाखों को काट दिया था।
इस काम के पूरा होने में दोपहर के दो बज गए। ग्यारह बजे तो जगमोहन सामान के साथ लौटा था। अब वहां इतनी जगह बन गई थी कि नीचे जाया जा सके। जगमोहन की लाई टॉर्च से उन्होंने भीतर रोशनी डालकर देखा तो खाली-खाली सूखी सी जगह ही नजर आई उन्हें ।
वो गेट करीब बीस फीट ऊंचा था। यानी कि गेट के भीतर की जमीन बीस फीट नीचे थी। परंतु नीचे उतरना उनके लिए कोई समस्या नहीं थी। पास में लंबा रस्सा मौजूद था। लटककर नीचे उतर सकते थे। लोहे का वो विशाल मजबूत गेट जंग खाया हुआ था। परंतु वो बिलकुल सही सलामत था।
तीनों ने एक-दूसरे को देखा।
"हम नीचे उतर सकते हैं।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।
सोहनलाल कुछ कहने लगा कि बाहर आहट सुनाई दी।
"मैं देखता हूं।" कहने के साथ ही जगमोहन उठा और रास्ता तय करके गड्ढे से बाहर आ निकला।
जमींदार का नौकर था और लंच का बड़ा टीफिन लेकर आया था। जगमोहन ने टीफिन लेकर उसे कहा कि अब वो खाना लेकर न आए। उन्हें जरूरत होगी, वे जमींदार के घर आकर खा लेंगे।
नौकर के जाने के बाद जगमोहन गड्ढे के किनारे पर पहुंचा और नीचे देखकर बोला।
"खाना आया है, खा लेते हैं। कुछ आराम भी हो जाएगा और पेट भी भर जाएगा।"
देवराज चौहान और सोहनलाल बाहर आ गए।
हाथ-मुंह धोकर वे खाने में व्यस्त हो गए।
"क्या करना है अब ?" खाने के दौरान सोहनलाल ने गंभीर स्वर में पूछा।
"करना क्या है।" जगमोहन कह उठा--- "उस गेट से भीतर जाकर देखेंगे कि वहां क्या है और... !"
"तीनों का एक साथ उस गेट के पार उतरना ठीक नहीं होगा।" सोहनलाल ने देवराज चौहान पर भी निगाह मारी--- "अगर कोई मुसीबत आती है तो फंस जाएंगे। सहायता करने वाला भी कोई नहीं होगा।"
चुप्पी छा गई उनके बीच। वे खाना खाते रहे।
खाना समाप्त करने के बाद देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई और बोला ।
"सोहनलाल ठीक कहता है कि तीनों को एक साथ गेट के पार भीतर नहीं उतरना चाहिए। भीतर जाने क्या हो? हम में से एक बाहर रहेगा। ताकि भीतर वालों को जरूरत पड़ने पर काम आ सके।"
"बाहर कौन रहेगा?" जगमोहन कह उठा।
"तुम दोनों फैसला कर लो।" कहकर देवराज चौहान उठा और गड्ढे की तरफ बढ़ गया।
सोहनलाल ने कुछ देर बाहर रहने का फैसला किया था।
देवराज चौहान गेट के भीतर रस्सा लेकर धीरे-धीरे नीचे उतरा। उधर से सोहनलाल और जगमोहन ने रस्सा थाम रखा था। जमीन पर पैर लगते ही देवराज चौहान ने रस्सा छोड़ा और जगमोहन की लाई टॉर्च जेब से निकालकर जलाई और उसकी रोशनी में जहां तक नजर आया, उसने देखा।
वो छोटी सी ग्राउंड जैसी जगह थी।
सूखी सी खाली जमीन थी।
देखने-समझने लायक कुछ भी देवराज चौहान को न दिखा।
"क्या दिखा ?" ऊपर से जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।
"कुछ भी नहीं।" देवराज चौहान टॉर्च की रोशनी में नजरें दौड़ाता कह उठा।
"मैं आ रहा हूं नीचे।"
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा। वो टॉर्च थामे सामने की तरफ बढ़ने लगा। मन में एक ही विचार बार-बार आ रहा था कि इस तरफ इतना बड़ा गेट है तो सामने भी कुछ होना चाहिए। अभी वो कुछ कदम ही आगे बढ़ा होगा कि एकाएक वो ठिठक गया। मध्यम सी सरगोशी उसके कान के पास से हवा की तरह गुजरी।
"स्वागत है देवा।"
देवराज चौहान को समझते देर न लगी कि ये रानी की आवाज है।
"रानी!" देवराज चौहान के होंठों से निकला। उसने हर तरफ नजरें दौड़ाई। टॉर्च की रोशनी घुमाई ।
परंतु कोई न दिखा।
"मैं जानती थी कि तुम अपनी रानी की आवाज पहचान लोगे देवा।" वो ही फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "सैकड़ों बरसों से यहां तुम्हारे ही इंतजार में बैठी हूं देवा। जिस गेट को काटकर तुम भीतर आए हो, उसी गेट पर वायुलाल ने मुझे मंत्रों से कील दिया था। मेरे हवाले ये काम कर दिया कि कोई भीतर न आ सके। इस जगह को कोई खराब न करे। मैंने अपनी जिम्मेवारी को पूरी तरह अंजाम दिया। वायुलाल ने तुम्हारे नाम का मंत्र छोड़ा था कि इस जगह पर सबसे पहले तुम ही प्रवेश करोगे देवा। तभी तो मैं तुम्हें रोक न सकी।"
देवराज चौहान होंठ भींचे खड़ा रहा।
उसे जगमोहन दिखा जो रस्से से लटकता हुआ नीचे आ रहा था।
"वायुलाल कौन है ?"
"नहीं याद आया ?" रानी के गहरी सांस लेने की आवाज कानों में पड़ी।
"नहीं।"
"याद आएगा। धीरे-धीरे सब याद आएगा। तुम मुझे वायुलाल के मंत्रों से आजाद कराओगे देवा। मेरे आजाद होते ही बहुत कुछ पहले जैसा हो जाएगा। मैं भी अपने पहले रूप में आ जाऊंगी। तुम मुझे तब देख सकोगे, छू सकोगे--मुझे प्यार कर सकोगे।"
देवराज चौहान बातों को, हालातों को समझने की चेष्टा कर रहा था।
"मैं... मैं तुम्हें मंत्रों से कैसे आजाद करा सकता हूं?"
"वायुलाल ने मुझे कील देने के पश्चात तुम्हारे नाम का मंत्र छोड़ा था कि देवा चाहे तो पुनः जन्म लेकर यहां आ सकता है। रानी को आजाद करा सकता है। तुम्हारे हाथ, तुम्हारा स्पर्श ही मुझे आजादी दिला सकता है।" रानी की फुसफुसाहट में गंभीरता आ गई थी– "लेकिन ये काम इतना आसान नहीं है। इसके लिए तुम्हें जान का पूरा खतरा उठाना होगा।"
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।
"क्या तुम खतरा उठाओगे मेरे लिए?"
जगमोहन चंद कदमों के फासले पर खड़ा देवराज चौहान के मुंह से निकलने वाले शब्दों को सुन रहा था। वो समझ चुका था कि देवराज चौहान रानी से ही बात कर रहा है, परंतु वो नजर नहीं आ रही।
"मैं जानता नहीं तुम कौन हो, क्यों तुम्हारे लिए खतरा उठाऊं ?" देवराज चौहान गंभीर स्वर में कहा--- "लेकिन मैं तुम्हारे कहे मुताबिक काम करूंगा, क्योंकि मैं जानना चाहता हूं कि ये सब मामला क्या है ?"
कुछ क्षणों तक खामोशी रही।
"ठीक है देवा।" रानी की शांत फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "ऐसे ही सही। मैं चाहती हूं, तुम ये काम करो। कर रहे हो, मेरे लिए यही बहुत है।"
"मेरे पास बहुत सी बातें हैं, जो तुमसे पूछना....!"
"अभी नहीं देवा। अभी बातों का वक्त नहीं आया। मुझे मंत्रों से मुक्त कराओ, ताकि मैं अपने रूप में वापस आ सकूँ। अपना शरीर पा सकूं। तुम मुझे छू सको। मैं तुम्हें छूकर, फिर से वो ही एहसास पा सकूं जो कभी मुझे होता था।" रानी की सरसराहट कानों में पड़ रही थी--- "अभी तुम्हें बहुत कुछ करना है देवा ।"
"बहुत कुछ ?"
"हां, मुझे वायुलाल के मंत्रों से आजाद करवाना है। तुम्हारा असली काम तो तब शुरू होगा, जब मैं अपना असली रूप पा लूंगी। उसके बाद तो तुम्हें अपने पहले के छोड़े काम शुरू करने हैं और उन्हें पूरा करना... ।"
"मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा।" देवराज चौहान कह उठा।
"समझ में आ जाएगा।" फुसफुसाहट कानों में पड़ रही थी— "सब जान जाओगे अगर तुम जिन्दा रहे और मुझे मंत्रों से मुक्त करा दिया तो । बहुत खतरा है मुझे मुक्त कराने में।"
देवराज चौहान ने होंठ भींच लिए।
"डर गए देवा ?" फुसफुसाहट में मुस्कान आ ठहरी ।
"नहीं, मैं डरता नहीं हूं।"
"मुझे मालूम है कि देवा मौत से नहीं डरता। किसी चीज से नहीं डरता। जो आदतें पहले थी तुममें, वो ही अब हैं।" रानी की गंभीर फुसफुसाहट उसे सुनाई दे रही थी--- "बातों के साथ-साथ कुछ काम भी होता रहे तो ठीक रहेगा।"
"कैसा काम ?"
"आगे बढ़ो, जिधर बढ़ रहे थे--उधर ही बढ़ो। सैकड़ों बरस हो गए, यहां अंधेरा है। किसी ने दिया भी न जलाया तो रोशनी कहां से होती, लेकिन यहां रोशनी कर सकते हो।"
"कैसे?"
"वायुलाल ने तुम्हारे नाम का बहुत कुछ यहां तैयार कर रखा है। तुम आगे बढ़ोगे तो दरवाजे खुलते चले जाएंगे। मालूम है देवा कि वायुलाल ने जानबूझकर तुम्हारे नाम का ये सब क्यों बांधा था... वो सोचता था कि तुम दोबारा जन्म लेकर कभी भी यहां नहीं आ सकोगे। मैं हजारों बरसों तक इसी गेट पर कीली रहूंगी लेकिन उसकी सोच पूरी नहीं हो सकी। समय चक्र घूमता हुआ पुनः वहीं पर पहुंचा और तुम फिर जन्म लेकर आ गए। मेरा देवा मेरे लिए आ गया। चलो देवा।"
देवराज चौहान ने गंभीर नजरों से कुछ दूर खड़े जगमोहन को देखा।
"तुम वहीं रहो।"
"तुम कहां जा रहे हो ?" जगमोहन की तेज आवाज वहां गूंजी।
"यहीं हूं मैं ।"
"मैं तुम्हारे पास...!"
"शायद अभी रोशनी हो जाए यहां। तुम वहीं रहो।"
"किससे बातें कर रहे हो ?"
"रानी से !"
"वही जो सिर्फ आवाज है, जिसे तुमने देखा नहीं है ?"
"हां।"
"वो धोखा हो सकती है देवराज चौहान! वो तुम्हें मौत भी दे सकती है।"
इसी पल देवराज चौहान के कानों में रानी की मधुर हंसी पड़ी।
"जग्गू हमेशा की तरह शक्की ही है। पहले जन्म में भी शक्की था और अब भी। हर बात में शक करता है।"
"वो मेरा भला चाहता है।"
"जानती हूं, तुम्हारी बड़ी चिन्ता करता है ये। मेरे से भी तुम्हारे लिए नाराज हो जाया करता था और तो और तुम्हारी वजह से इसने वायुलाल का गला पकड़ लिया था। वो दिन मैं कभी नहीं भूल सकी।"
"क्या हुआ था तब ?"
"उन बातों का वक्त नहीं है अभी। अभी तुम्हें और फिर बाद में हमें मिलकर बहुत काम करने हैं। जब तक यहीं खड़े रहोगे, तब तक कुछ नहीं हो सकेगा। बातों के साथ काम भी होता रहना चाहिए।"
देवराज चौहान आगे बढ़ा। टॉर्च की रोशनी सामने जा रही थी। चालीस-पचास कदमों के बाद वो सामने नजर आ रही दीवार के पास जा पहुंचा था। जबकि पहले वो इस जगह को मिट्टी का ढेर समझ रहा था--अंधेरे की वजह से।
उसके रुकते ही रानी की आवाज कानों में पड़ी।
"दीवार पर हाथ रखकर वायुलाल को पांच बार याद करो। उसका नाम लो।"
देवराज चौहान ने हथेली दीवार पर रखी और पांच बार वायुलाल का नाम लिया।
ठीक इसी पल वहां पर जगह-जगह मध्यम सी रोशनी फैल गई।
देवराज चौहान ने उसी क्षण गरदन घुमाकर, हर तरफ देखा। कई जगह छोटे-छोटे बल्ब जलते नजर आने लगे थे। मध्यम सा प्रकाश हर तरफ फैल गया था। जिस दीवार के पास वो खड़ा था। उससे कुछ फासले पर लकड़ी का बहुत बड़ा दो पल्लों वाला दरवाजा था। जो कि बीस फीट ऊंचा और इतना ही चौड़ा था। उसके पल्ले कुछ खुले हुए थे। भीतर भी हो रही रोशनी दिखाई दे रही थी। उसी दीवार में तीन खिड़कियां थों, जो कि खुली हुई रोशनी में भीग रही थी।
जगमोहन पास आ पहुंचा था।
"ये... ये क्या ?" जगमोहन हैरत भरे स्वर में कह उठा ।
“मैं खुद नहीं जानता।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में 'कहा--- "रानी ने मुझे दीवार पर हाथ रखकर पांच बार वायुलाल को याद करने को कहा। मैंने ऐसा ही किया तो यहां जगह-जगह रोशनी हो गई।"
"ऐसा कैसे हो सकता है ?" जगमोहन अभी भी सकते की हालत था।
रानी की फुसफुसाहट देवराज चौहान के कानों में पड़ी।
"कैसा लग रहा है देवा ?"
"हैरान कर देने वाला।" देवराज चौहान के होंठों से निकला--- "यहां रोशनी के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता था।"
रानी की खनखनाहट कानों में पड़ी।
जगमोहन देवराज चौहान को देखने लगा था।
“हैरान होना छोड़ दो देवा। ये तो कुछ भी नहीं, अभी बहुत कुछ देखना है तुमने। वायुलाल के मंत्रों का एक 'मनका' तुमने तोड़ दिया। अब तुम धीरे-धीरे अपने पूर्वजन्म में प्रवेश करोगे। उसके लिए तुम्हें कुछ 'मनके' और तोड़ने हैं। जानते हो ये जगह क्या है ?"
"क्या ?"
"ये मंदिर है। जहां हम मिला करते थे, खेला करते थे।"
"मंदिर ?"
"ज्यों-ज्यों तुम आगे बढ़ोगे, वायुलाल के मंत्रों को काटोगे। तुम्हें पहले की बातें याद आती जाएंगी। मंदिर के भीतर चलते हैं। ये तो मंदिर का आंगन है। लकड़ी वाले फाटक की तरफ बढ़ो। सबसे पहले मुझे वायुलाल के मंत्रों से मुक्ति दिलाकर आजाद कराओ।"
"कैसे?"
"चलो भीतर, बताती हूं।"
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
"आओ।"
"कहाँ ?"
“ये कभी मंदिर हुआ करता था। इसके भीतर चलना है।"
"तुम्हें किसने कहा ?"
"रानी ने।"
"वो तुम्हें पागल बना रही है। वो...!"
"इस तरह झूठ बोलकर उसे क्या मिलेगा ?"
"वो तुमसे अपना कोई काम निकालना चाहती होगी ।"
"ऐसा कुछ नहीं है। उसकी बातों में सच्चाई है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- “वरना मेरे हाथ रखने से, ये जगह रोशन न होती।"
"ये उसकी कोई चाल है। समझ में नहीं आता कि आखिर रानी है कौन ?" जगमोहन झुंझलाया--- "अभी तक तुमने उसे देखा नहीं और उसकी बातों पर विश्वास करने लगे। वो तुम्हें किसी मुसीबत में फंसा देगी।"
देवराज चौहान उसे नहीं बता सकता था कि रानी पर विश्वास करने का आधार क्या है? इस सवाल का जवाब वो भी नहीं जानता था तो जगमोहन से क्या कहता। सिर हिलाकर गंभीर स्वर में बोला।
"आओ, दरवाजे की तरफ। वहां से भीतर जाना है।" कहकर वो आगे बढ़ा।
जगमोहन साथ चलते कह उठा।
"समझ में नहीं आता तुम पागलों की तरह रानी की बातों पर विश्वास क्यों कर रहे हो। वो कहती है, इधर चलो तो तुम चल रहे हो। वो जो भी करने को कहती है तो तुम वो कर रहे हो। उस पर विश्वास मत... ।"
"जगमोहन !" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "जब तक उसकी बातें मुझे ठीक लग रही हैं, मैं उसका कहना मानूंगा।"
जगमोहन के होंठ भिंच गए। कहा कुछ नहीं।
चलते हुए वे लकड़ी के दरवाजे के पास पहुंचे और भीतर मंदिर में प्रवेश कर गए।
भीतर का हिस्सा धूल भरा, ध्वस्त हुआ लग रहा था, जैसे कभी तूफान गुजरा हो यहां।
दरवाजे के भीतर बहुत बड़ी खुली जगह थी। दाईं और बाईं तरफ रास्ता जा रहा था। ठीक सामने इतना बड़ा हॉल था कि कोई भी खेल खेला जा सके। छत पर लटका फानूस ठीक नीचे गिरा हुआ था। फर्श डिजाइन वाला था, परंतु उस पर धूल ही धूल जमी थी। कोई भी जगह ऐसी नहीं थी, जहां से फर्श नजर आ रहा हो।
इस हॉल के बीच जगह-जगह मूर्तियां खड़ी थीं। आदमकद बुत की भांति। धूल और वक्त के थपेड़ों की वजह से वो भी ठीक से नजर नहीं आ रही थी। छत पर से मोटी-लंबी जंजीर में बड़े-बड़े घंटे बंधे लटक रहे थे। दो घंटे अपनी जगह के ठीक नीचे फर्श पर गिरे हुए थे। हॉल के किनारों पर दीवारों के पास सीमेंट की बड़ी-बड़ी कुर्सियां रखी थी कि जो नीचे नहीं बैठ सकते या बैठना नहीं चाहे, तो वे ऊपर बैठ सकते हैं।
छत पर हर तरफ रंगों से चित्रकारी की गई थी। जो कि वक्त के थपेड़ों के साथ धुंधली पड़ गई थी। कलाकार ने वहां क्या किया है, स्पष्ट पता नहीं चल रहा था।
ठीक सामने, प्रवेश द्वार से दूर, चार फीट ऊंचे चबूतरे पर कोई मूर्ति रखी हुई थी, जिसे कि कभी चादर से ढका होगा, परंतु अब वो चदर मूर्ति पर से चीथड़े-चीथड़े होकर झूल रही थी। उसका रंग मैला हो चुका था। यकीनन वो ही मूर्ति होगी, जिसकी मंदिर में पूजा की जाती रही होगी।
बहुत ही भव्य मंदिर था। और जगमोहन की नजरें हर तरफ जा रही थीं।
वहां फैले प्रकाश में सब कुछ स्पष्ट नजर आ रहा था।
"कैसा लग रहा है देवा ?" रानी की फुसफुसाहट कान में गूंजी।
"मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूं।"
"धीरे-धीरे सब समझ जाओगे। बाईं तरफ बढ़ो।"
देवराज चौहान ने बाईं तरफ देखा, जहां सीधा रास्ता जा रहा था।
जगमोहन भींचे देवराज चौहान की हरकतों को देख रहा था।
"उधर क्या है ?"
"चलो बताती हूं।"
देवराज चौहान ने जगमोहन को साथ आने का इशारा किया और बाईं तरफ चल पड़ा। फर्श पर धूल ही धूल थी। जगमोहन उसके साथ था। जहां भी वे पांव रखते, वहीं धूल में उनके जूतों के निशान फर्श पर बन रहे थे। यहां उन्हें सांस लेने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी।
"देवा!" रानी की फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "आगे तुम्हें वो जगह मिलेगी, जहां तुम्हें प्रवेश करना है। वहां मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकूंगी। उधर खतरा है, अगर तुम उस खतरे पर विजय पा गए तो मैं आजाद हो जाऊंगी !"
"क्या है वहां ?"
"वायुलाल ने उस जगह को सख्ती से बांध रखा है। हर सात बरस बाद उस जगह का दृश्य बदल जाता है। अलग-अलग तरह की चीजें और खतरे आ जाते हैं। इस वक्त वहां जंगल है।"
"जंगल ?"
"हां! वहां कोई खतरनाक चीज है, जो उस जंगल की मालिक है। जाने क्या कुछ है--मुझे नहीं मालूम । वायुलाल की माया है वहां। तुम्हें वहां जाकर उस शै से टकराना होगा। उसे मार दिया तो मैं मुक्त हो जाऊंगी, नहीं तो तुम भी जान गंवा बैठोगे।"
"ओह!"
"अब हम दोनों की जान एक-दूसरे से बंध चुकी है।"
"क्या मेरा वहां जाना जरूरी है ?" देवराज चौहान ने पूछा।
"अगर तुम अपनी रानी को आजाद करवाना चाहते हो तो तुम्हें वहां जाना होगा देवा।" रानी की फुसफुसाहट में गंभीरता के भाव आ गए--- "तुम अपनी रानी को फिर से अपने सामने नहीं देखना चाहते। क्या तुम उसे...!"
"मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो ?"
"हां!" फुसफुसाहट ने गहरी सांस ली--- "सच में तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूं? ये ही जानने के लिए तुम्हें आगे बढ़ना होगा। ये काम पूरा करोगे तो आगे का रास्ता खुल जाएगा। वहां तुम्हारे पूर्वजन्म के वो काम पड़े हैं, जो अधूरे हैं। उन्हें पूरा करना है तुमने। लेकिन मुझे शक है कि तुम उन्हें पूरा कर सको।"
"कैसा शक ?"
"वायुलाल तुम्हें आगे नहीं बढ़ने देगा। तुम पर अपनी शक्ति का इस्तेमाल तो नहीं कर सकेगा, क्योंकि उसने ये जगह तुम्हारे नाम से बांध दी थी। ऐसे में वो तुम्हारा अहित नहीं कर सकता। उसने तो ये सोचकर, ऐसा किया था कि तुम कभी भी यहां नहीं आ पाओगे। लेकिन तुम आ गए, अब वो ये बात पसंद नहीं करेगा कि तुम उसके मंत्रों के जाल को तहस-नहस कर दो।"
"रोकने की वजह ?"
"वो आज भी अपनी दुनिया में बड़ा बना हुआ है। तुमने उसके मंत्रों को तोड़ना शुरू किया तो उसका सिंहासन हिल जाएगा। उसके खिलाफ दूसरे बड़ी शक्ति वाले उठ जाएंगे। विद्रोह हो जाएगा। वायुलाल के लिए हर तरफ समस्याएं ही समस्याएं होंगी। ऐसे में कोई भी उसे मार देगा। बहुत कुछ होगा, जिसकी कल्पना भी तुम नहीं कर सकते।" फुसफुसाहट में गंभीरता थी।
"मैं तुम्हारी बातें सुन रहा हूं। परंतु ठीक से समझ इसलिए नहीं पा रहा कि मुझे सारे हालात नहीं मालूम और...!"
"सब मालूम हो जाएगा, आगे बढ़ते रहो।"
वो गैलरी जैसा रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
"हम कहाँ जा रहे हैं?" जगमोहन ने पूछा।
देवराज चौहान ने उसे रानी की कही सारी बात बता दी।
"उसने जो कहा, तुमने मान लिया।" जगमोहन उखड़े स्वर में बोला--- "उसके बताए रास्ते पर चल पड़े।"
"तो क्या करूँ?" देवराज चौहान का स्वर शांत था--- "यहां हम क्या करने आए हैं?"
"कम-से-कम अपनी जान गंवाने तो नहीं आए। हमें वापस चलना चाहिए।"
"वापस ?"
"हां, बाहर सोहनलाल हमारा इंतजार कर रहा है। वो...।"
"बेवकूफी वाली बातें मत करो। कितनी मेहनत के बाद हम यहां पहुंचे हैं।"
"तो।"
"हमें देखना है कि यहां पर क्या है? रानी कौन है और वो वायुलाल..।" चलते-चलते देवराज चौहान ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा।
"क्या जरूरत है हमें कुछ देखने-जांचने की। दूसरों के मामलों से हमें क्या लेना-देना, जो...!"
"ये हमारे मामले भी हो सकते हैं।"
"हमारे मामले ?"
"रानी मुझे देवा कह रही है। तुम्हारा जिक्र जग्गू कहकर कर रही है। ये हमारे पूर्वजन्मों के नाम हैं, पहले भी हम पूर्वजन्म के हादसों में प्रवेश कर चुके हैं। रानी की बातों से स्पष्ट है कि ये जगह भी हमारे पूर्वजन्म से संबंध रखती है। मुझे पूरा विश्वास है कि हमारे कदम पूर्वजन्म के मामलों की तरफ बढ़ रहे हैं। कि हमारे न होने की वजह से रुक गए थे। हमारे आ जाने की वजह से तब के रुके मामले फिर शुरू हो जाएंगे। मुझे देखना है कि ये सब क्या है ?"
"पागलों जैसी बातें कर रहे हो। हम ये जन्म जी रहे हैं। हमें क्या लेना पूर्वजन्म की बातों से, जिनमें जान जाने का भय हो। उस जंगल में कोई खतरनाक चीज है। वो जंगल की मालिक है। उसे मारना है हमने या फिर वो हमें मार देगी। और...।"
"अगर हमने उसे खत्म कर दिया तो रानी को अपना असली रूप मिल...!"
"असली रूप !" जगमोहन भड़का--- "उसका नकली रूप क्या है? देखा है तुमने, जो तुम उसके असली रूप की बात कर रहे हो!"
देवराज चौहान ने होंठ भींच लिए।
"बार-बार उसका जिक्र कर रहे हो, जिसे तुमने देखा नहीं और... ।"
"तुम ठीक कह रहे हो लेकिन मैं भी जानता हूं कि रानी का वजूद है। वो है सच में ?" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा— "क्योंकि जब भी उससे बात करता हूं तो मेरे मस्तिष्क में उसकी मौजूदगी का मीठा-मीठा एहसास होता है। वो मुझे अभी तक अजनबी नहीं लगी। उससे बातें करते हुए हर बार ऐसा लगता है, जैसे मैं उससे बरसों से बातें कर रहा हूं और उससे बातें करता ही रहूं।"
चलते-चलते जगमोहन हैरानी से देवराज चौहान का चेहरा देखने लगा।
"ये तुम कह रहे हो!"
"हां, क्या मैं नहीं कह सकता ?"
"नगीना भाभी को पता चल गया तो...!"
"नगीना मेरे इस जन्म की साथी है। शायद... शायद पहले जन्म की साथी रानी होगी। तभी तो... !"
"तुम अब बेकार की बातें कर रहे हो देवराज चौहान।" जगमोहन तीखे स्वर में कह उठा।
देवराज चौहान का चेहरा कठोर हो गया।
दोनों आगे चलते जा रहे थे।
"तुम वापस जा सकते हो, जहां सोहनलाल है।"
"वापस !"
"हां, क्योंकि तुम्हें पसंद नहीं कि रानी से मैं बात करूं या उसकी बात को सच मानकर...!"
"मैं ये कह रहा हूं कि उसकी बात पर चलने की तुम्हें जरूरत क्या है ? हम वापस चलते...!"
"मैं आगे ही जाऊंगा। तुम अपना फैसला खुद कर लो।"
जगमोहन के दांत भिंच गए। चलते-चलते वो देवराज चौहान को देखने लगा।
देवराज चौहान ने उसे एक बार भी नहीं देखा।
करीब दस मिनट चलने के पश्चात आगे का रास्ता बंद हो गया। गैलरी सिकुड़ते हुए चार फीट पर आकर रुक गई थी। सामने लकड़ी का भारी दरवाजा बंद था।
दोनों ठिठके ।
जगमोहन मन ही मन तय कर चुका था कि वो देवराज चौहान के साथ ही रहेगा।
"देवा!" तभी रानी की फुसफुसाहट कान में गूंजी--- "इस दरवाजे के पार जंगल है। दरवाजा धकेलो और भीतर चले जाओ।"
देवराज चौहान के होंठ भिंच गए।
"मैं जा रही हूं। तुमने अगर अपना काम पूरा कर लिया तो तभी तुम्हारे पास आऊंगी।"
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
"हमें इस दरवाजे के पार जाना है।"
"दूसरी तरफ क्या है ?" जगमोहन के माथे पर बल उभरे।
"वो ही जंगल, जिसका जिक्र मैंने किया था।" देवराज चौहान ने कहने के साथ ही दरवाजे को धकेलने के लिए हाथ बढ़ाया।
दरवाजे को हाथ लगते ही देवराज चौहान के शरीर को तीव्र झटका लगा और पास ही दीवार से टकराता हुआ नीचे जा गिरा। जगमोहन फुर्ती से उसकी तरफ लपका।
"क्या हुआ ?"
देवराज चौहान ठीक से बैठा फिर खड़े होते हुए दांत भींचकर बोला।
"दरवाजे को छूते ही जैसे किसी ने मुझे पीछे धकेल दिया।"
"ओह!" जगमोहन की निगाह दरवाजे की तरफ गई।
"अगर यहां ऐसा कोई खतरा होता तो रानी मुझे अवश्य बता देती।” देवराज चौहान ने कहते हुए आस-पास नजरें दौड़ाईं। गैलरी जैसा रास्ता पीछे तक सुनसान नजर आ रहा था। वहां उनके अलावा कोई नहीं था।
जगमोहन चिन्तित दिखा।
"मेरी मानो तो वापस चलते...!"
"चुप रहो।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा और दरवाजे की तरफ बढ़ा।
जगमोहन ने होंठ भींच लिए।
देवराज चौहान ने हाथ आगे किया, पुनः दरवाजे को छुआ।
परंतु इस बार पहले की तरह कुछ भी न हुआ।
देवराज चौहान ने दरवाजे को धक्का दिया तो उसके दोनों पल्ले खुलते चले गए।
जगमोहन ने राहत की सांस ली कि सब ठीक रहा।
दरवाजा खुलते ही उन्हें सामने जंगल नजर आने लगा। अंधेरे जैसा जंगल। जंगल में स्याह जैसा माहौल रहा था। पेड़-पौधे इस तरह खड़े थे कि वो बुत की तरह लग रहे थे। लगता था जैसे वहां हवा ही न हो। वहां से नजर आते पेड़ आपस में इस तरह गुथे हुए थे कि वो किसी छाते की तरह लग रहे थे।
क्षणों में वहां का माहौल देखने के पश्चात उन्हें मनहूसियत का एहसास हुआ।
दोनों की नजरें मिलीं।
“आओ!” कहने के साथ ही देवराज चौहान आगे बढ़ा।
दरवाजा पार करने के लिए उसने अपनी टांग उठाई।
लेकिन उसका जूता जाने किस चीज से टकराकर रुक गया। खुले दरवाजे के उस पार न जा पाया। इस बारे में देवराज चौहान कुछ सोच पाता, समझ पाता कि बेहद प्रभावशाली आवाज वहां गूंजी।
"देवा, पीछे हट जा।"
देवराज चौहान ठिठक गया। उसकी आंखें सिकुड़ीं ।
"ये-ये किसकी आवाज है?" जगमोहन के होंठों से निकला।
"कौन हो तुम?" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।
“मुझे नहीं पहचानता तू। वायुलाल को पूछता है कि वो कौन है ! दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा।" वो ही ऊंची आवाज वहां पुनः गूंजी— “दोबारा जन्म लेकर तू पहले से भी ज्यादा बदतमीज हो गया है।"
"वायुलाल!" देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"लगता है इसे बात करना नहीं आता।" जगमोहन कड़वे स्वर में बोला ।
"जुबान को संभाल जग्गू! तुम दोनों पहले से ज्यादा बदतमीज हो गए हो।"
वायुलाल की गूंजने वाली आवाज देवराज चौहान को अपने मस्तिष्क में चुभती महसूस हुई। दूसरे ही पल उसे लगा जैसे किसी ने उसके सिर को अपनी मुट्ठी में लेकर पूरी तरह दबा दिया हो।
देवराज चौहान को अपनी आंखों के सामने चटकीले रंगों के चांद सितारे चमकते नजर आने लगे। उन्हीं चांद सितारों में उसे स्पष्ट दृश्य दिखा। सोने की परत लगे, बड़े से पलंग पर पचास-पचपन बरस का व्यक्ति आरामदेह तकियों के सहारे बैठा है। उसका चेहरा चमक रहा है। बालों को गूथकर चुटिया के रूप में पीछे की तरफ बांध रखा था। शरीर पर भगवे कपड़े को लपेट रखा है। माथे पर चंदन के तिलक की तीन लकीरें खिंची नजर आ रही हैं। पास ही उस जैसा परिधान पहने एक व्यक्ति बड़ा सा पंखा हिला रहा है। गले में जनेऊ पड़ा था। हाथ की कलाई पर रुद्राक्ष की माला लिपटी हुई है। वो साफ-सुथरा और पवित्र व्यक्ति लगा।
"वायुलाल!" एकाएक ही देवराज चौहान के होंठों से निकला।
जगमोहन हैरानी से उसे देखने लगा।
लेकिन देवराज चौहान तो किसी और ही दुनिया में था। पलंग पर बैठे व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
"पहचान लिया तूने मुझे।" उस व्यक्ति के होंठ हिलते देवराज चौहान ने देखे ।
"ह...हां, तुम्हें पहचान लिया वायुलाल ।"
जगमोहन खड़ा उनकी बातें सुन रहा था। दोनों के स्वर स्पष्ट उसके कानों में पड़ रहे थे।
"क्या कर रहा है।" उस व्यक्ति के पुनः होंठ हिले--- "कहां जा रहा है? मेरी दुनिया में क्यों दखल दे रहा है। जा अपनी दुनिया में। तू अपने काम कर और मुझे अपने कर्म करने दे देवा ।"
"मैं तेरे पास आ रहा हूं वायुलाल।"
"क्यों ?" उसके होंठ पुनः हिले--- "मेरे पास क्यों---मैं...!"
"पहले जन्म का हिसाब बाकी है।" देवराज चौहान की आवाज में कठोरता आ गई थी--- "तूने दगा की, मेरे को धोखा दिया--रानी के साथ तूने...।"
"अब तू मुझे सिखाएगा कि मैंने ठीक किया या गलत। मैंने कुछ भी गलत नहीं किया। रानी ने ही....!"
"चुप।" देवराज चौहान दहाड़ा--- "रानी को गलत मत कह।
"ओह!" वायुलाल की आवाज में व्यंग आ गया--- "तो अभी भी रानी के हुस्न का भूत तेरे पर चढ़ा हुआ... !"
"खबरदार वायुलाल! रानी के बारे में कुछ भी कहने की...।"
"क्यों-क्या लगती है वो तेरी ?"
देवराज चौहान दांत पीसकर रह गया।
"तेरा रानी पर कोई अधिकार नहीं है देवा।" वायुलाल ने पुन: कहा--- "उससे जबरदस्ती रिश्ता कायम मत कर। उसका और तेरा रास्ता एक नहीं है। तू गलत रास्ते पर बढ़ रहा...।"
"मैं जो कर रहा हूं, ठीक कर रहा हूं।" देवराज चौहान सख्त स्वर में कह उठा--- "तू अपनी शक्तियों पर घमण्ड...।"
"जुबान को संभाल देवा!"
"बहुत संभाल कर बोल रहा हूं।" देवराज चौहान कह उठा--- "तूने रानी के साथ बहुत अन्याय किया है। उसका हिसाब लेने तो मुझे आना ही था। देख ले, अब आ गया मैं और....!"
"मैंने कोई अन्याय नहीं किया। मैंने तो उसे सिर आंखों पर बिठाया। उसे चोरी-छिपे विद्या भी सिखा दी। मेरे से विद्या सीखकर वो शक्तिशाली बन गई और वक्त आने पर मुझी पर वार करने...।"
"ये झूठ है।" देवराज चौहान गला फाड़कर चीखा ।
तभी देवराज चौहान को अपना सिर घूमता हुआ लगा। उसने फौरन दीवार का सहारा लिया। गहरी-गहरी सांसें लेते देखा तो सामने खड़े जगमोहन से उसकी नजरें मिलीं।
एकटक जगमोहन उसे देख रहा था। उसने सब कुछ सुना था।
देवराज चौहान ने खुद को संभाला। अभी-अभी जो बातें हुई थीं, वो सब उसे याद थीं।
"क्या हुआ.. तुम...!" जगमोहन ने कहना चाहा।
"देवा!" वायुलाल का तीखा-तेज-ऊंचा स्वर वहां पुनः गूंजा--- "तुम इस तरह चुप होकर बात खत्म नहीं कर सकते।"
“क्या-क्या चाहते हो ?'' देवराज चौहान अपने पर काबू पाता जा रहा था।
"चले जाओ यहां से, फिर कभी वापस मत आना।" वायुलाल की गरजदार आवाज सुनाई दी।
"मैं जाने के लिए वापस नहीं आया वायुलाल।"
"तो क्या मेरे से झगड़ा करोगे ?"
"मैं झगड़ा करने भी यहां नहीं आया।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।
तभी देवराज चौहान को लगा कि उसका सिर पकड़कर कोई दबा रहा हो। लाल-पीले तारे उसकी आंखों के सामने चमक उठे। तभी उसे सोने के तख्त पर बैठा व्यक्ति दिखा। वो अब आलथी-पालथी मारकर बैठा था और व्यंग भरी निगाहों से उसकी तरफ देख रहा था। होंठों पर जहरीली मुस्कान थी।
पास खड़े जगमोहन की निगाह देवराज चौहान पर थी, जिसने जोरों से आंखें बंद कर रखी थीं। जैसे उसकी आंखों में किसी ने मिर्चें डाल दी हो। वो रह-रहकर देवराज चौहान को बोलते देख रहा था। सुन रहा था।
"तुम मुझसे झगड़ा ही कर रहे हो देवा।" तख्त पर बैठा वायुलाल जोरों से बोला ।
"नहीं, मैं झगड़ा नहीं कर रहा। मैं तो रानी को तुम्हारे मंत्रों से आजाद करवाना चाहता हूँ। तुमने उसे मंदिर के गेट पर कीला क्यों ?"
"वो इसी की हकदार थी।"
"तुम रानी के दुश्मन बने हुए हो। तुम...।"
"दुश्मन और मैं!" वायुलाल हंसा--- "देवा, वो तो मेरे लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। मैं तो रानी के बुरे की सोच भी नहीं सकता। उसे तो मैं हर वक्त अपने पास रखता हूं।"
"झूठ मत बोल वायुलाल!" देवराज चौहान गुस्से से बोला--- “तू उसका जीवन बरबाद कर रहा है।"
वायुलाल की आंखों में गुस्से के भाव स्पष्ट रूप से चमक उठे।
"मैं सब जानता हूं। सब याद है मुझे। मैं तेरी बातों में नहीं फंस सकता वायुलाल।" देवराज चौहान की आवाज गुस्से में कांपने लगी थी--- "तू दूसरों को बहका सकता है लेकिन मेरे को नहीं।"
वायुलाल का चमकता चेहरा क्रोध से भर उठा।
“तो अब तू मेरी शांति भंग करके ही रहेगा। गलती मेरी थी जो मैंने तेरे को पेशीराम की बातों में आकर छोड़ दिया। पेशीराम ने जुबान दी थी कि दोबारा फिर कभी तू मेरे मामले में नहीं आएगा।"
"पेशीराम ने मेरे से पूछकर तुझे कुछ नहीं कहा। जो कहा, अपने मन से कहा।"
"वापस चला जा देवा! इस भ्रम में मत रहना कि तू मेरे तू मंत्रों को काटकर आगे बढ़ जाएगा।" वायुलाल की आवाज में कूट-कूटकर जहरीलापन भर गया--- "रानी को आजाद करा लेगा। मेरी शक्ति पहले से बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है। सैकड़ों सालों से मैं तपस्या और यज्ञ में ही लगा रहा। शक्तियां प्राप्त करता रहा। तेरा-मेरा कोई मुकाबला नहीं।"
"मैं तेरे से मुकाबला करने नहीं आया।"
"मेरे कैदी को छुड़ाने आया है और कहता है मुकाबला नहीं कर रहा।" वायुलाल बेहद गुस्से में था--- "अगर तू वापस नहीं गया तो जंगल से ही तू कभी वापस नहीं आ सकेगा। वहां मौजूद मेरी शक्ति तेरे को खत्म कर देगी। वो बहुत खतरनाक है।"
"ऐसा है तो फिर तू मेरे से डरता क्यों है? रोकता क्यों है ?"
"तेरे भले के लिए मैं तुझे रोक रहा हूं देवा। यहां के शांत वातावरण में मैं कोई हलचल पैदा नहीं करना चाहता, लेकिन मुझे लगता है तू ऐसे नहीं मानेगा। अपनी जान गंवाकर ही रहेगा।" वायुलाल ने दांत किटकिटाकर कहा।
"मेरी मौत की तू फिक्र मत कर।"
"जब तेरे को फिक्र नहीं तो मैं क्यों करूंगा। जा मर।"
देवराज चौहान होंठ भींचे वायुलाल को देखता रहा ।
"तेरे को रानी चाहिए। उसकी मुक्ति चाहिए। उसी को पाने के लिए तू आया है ना।"
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।
"जवाब दे।"
"तेरे को जो कहना है, कह वो—मैं बाद में कहूंगा।"
"मैं तुझे रानी की आजादी का सरल रास्ता बता देता हूं। लेकिन वादा कर कि तू रानी को लेकर चला जाएगा।"
"मैं तुमसे कोई वादा नहीं करूंगा।"
"क्यों ? तेरी नीयत में खोट है। तभी तू वायदा नहीं...।"
"मुझे ठीक से कुछ याद नहीं कि पहले क्या हुआ था? तेरे को देखकर पहचान रहा हूं तुझे। मैं रानी से मालूम करूंगा कि तब क्या-क्या हुआ था, उसके बाद ही फैसला...।"
"तेरे को समझाना मेरा फर्ज था।" वायुलाल के होंठों से गुस्से से भरे शब्द निकले--- "मैं जानता हूं, तू चैन से नहीं बैठेगा। आया है तो उलटे काम ही करेगा। जंगल में जाना चाहता है तू । रानी को आजाद करवाना चाहता है--जा लेकिन याद रख जंगल में मौजूद मेरी शक्ति तेरे को जिन्दा नहीं छोड़ेगी। तेरा ये जन्म इस तरह मरकर व्यर्थ हो जाएगा।"
इन शब्दों के साथ ही देवराज चौहान को लगा जैसे उसका सिर किसी ने छोड़ दिया हो। जकड़न से आजाद हो गया हो वो। बंद आंखों के सामने चमकते लाल-पीले सितारों से वो बाहर आ गया। आंखें खोली।
सामने जगमोहन को देखा।
"क्या हुआ ?" जगमोहन बोला--- "तुम आंखें बंद करके क्यों बातें कर रहे थे ?"
"मैं...।" देवराज चौहान गहरी-गहरी सांसें लेते बोला--- "वायुलाल से सीधे बात कर रहा था।"
"सीधे !"
"वो मेरे सामने था। मैं उसे देख रहा था।"
जगमोहन की आंखें सिकुड़ीं।
"ऐसा कैसे हो सकता है ?"
"मैं नहीं जानता।" देवराज चौहान ने बांह से चेहरे पर उभरे पसीने को पोंछा--- "वो...वो बातें करने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर रहा होगा। मेरे खयाल में वो सच में शक्तिशाली है।"
"वो तो है ही।" जगमोहन फौरन सिर हिला उठा--- "वापस चलना ही बेहतर है।"
"तुम जा सकते हो।" देवराज चौहान अब सामान्य हालत में आता जा रहा था।
"तुम भी साथ चलोगे।"
देवराज चौहान की निगाह खुले दरवाजे की तरफ उठी, जिसके पार जंगल नजर आ रहा था।
"मैं जंगल में जा रहा हूं।"
जगमोहन गहरी सांस लेकर कह उठा।
"फिर तो मैं भी तुम्हारे साथ हूं।"
"तुम यहीं रहो तो ठीक रहेगा। वहां ज्यादा खतरा हो सकता...।"
"मैं तुम्हारे साथ हूं।" जगमोहन ने दृढ़ता के साथ कहा--- "चलो।"
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा फिर सिर हिलाकर दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
"रानी नहीं आई बात करने ?"
"वो अब नहीं आएगी।" देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला--- "जंगल में मौजूद शक्ति का मैं मुकाबला करके विजयी हुआ तो तब रानी आकर मुझसे बात करेगी।" उसने जगमोहन को देखा।
"ऐसा क्यों ?"
"मैं नहीं जानता। रानी ने ऐसा ही कहा मेरे से।"
जगमोहन दो पल चुप रहकर कह उठा ।
"तुम रानी को वायुलाल के मंत्रों से आजाद करवाने की कोशिश करके कोई गलती तो नहीं कर रहे ?"
"कैसी गलती ?"
"मैं नहीं जानता।" जगमोहन गंभीर था--- "जो बात मन में आई, पूछ ली।"
"मेरे खयाल में ऐसी कोई बात नहीं है।" कहकर देवराज चौहान पलटा और खुले दरवाजे से जंगल में प्रवेश कर गया।
जगमोहन भी आगे बढ़ा और दरवाजा पार करके जंगल में पांव रख दिया।
दोनों कई पलों तक जंगल में नजरें दौड़ाते रहे।
अजीब सा लगा उन्हें ये जंगल ।
गुमसुम सा था। न हवा, न पेड़ों की महक । हर तरफ हरियाली थी, परंतु हरियाली का एहसास मस्तिष्क की तरंगें छू नहीं पा रही थी। कई पेड़ों की फुनगियों पर लगे सफेद या संतरी रंग के फूल अजीब सा दृश्य पैदा कर रहे थे। आसमान में सूर्य चमक रहा था परंतु उसकी किरणें जमीन पर नहीं पड़ रही थीं। पेड़ों ने आपस में मिलकर अपनी टहनियों और पत्तों को इस तरह फैला लिया था कि जमीन पर किसी दूसरे का साम्राज्य न हो सके।
"अजीब सा महौल है जंगल का।" कहते हुए जगमोहन ने पीछे की तरफ गरदन घुमाई तो चिहुंक पड़ा।
पीछे भी दूर-दूर तक जंगल ही था।
"ये क्या ?"
देवराज चौहान फौरन पलटा ।
"वो...वो दरवाजा कहां गया? हम... हम तो जंगल के बीचो-बीच खड़े हैं जैसे...!"
देवराज चौहान की निगाह हर तरफ घूमने लगी।
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