लियू ने लिफ्ट इंडिकेटर पर निगाह मारी। एक लिफ्ट ऊपर गई हुई थी। परन्तु दूसरी लिफ्ट का इंडिकेटर नीचे की तरफ था। लिफ्ट को ऊपर बुलाने के लिए, लियू इंडिकेटर का बटन दबाने जा ही रही थी कि रुक गई। इंडिकेटर की लाइट बुझ गई। वह समझ गई कि लिफ्ट ऊपर आ रही है। उसने लिफ्ट को रुकवाने के लिए, इंडिकेटर का बटन दबा दिया।

लियू ने आसपास नजर मारी।

दोनों तरफ सुनसानी ही नजर आई।

तभी लिफ्ट के उस फ्लोर पर पहुंचने और रुकने का संकेत मिला। लियू मन ही मन सतर्क हो गई। आने वाला, वानखेड़े का साथी भी हो सकता है।

लिफ्ट रुकी। दरवाजा खुला। देवराज चौहान बाहर निकला।

दोनों की निगाहें टकराई।

नेपाली सी लगने वाली लियू को, देवराज चौहान ने आसानी से पहचान लिया। लेकिन लियू देवराज चौहान को इसलिए नहीं पहचान सकी कि, जब उनकी मुलाकात हुई थी तब छत पर अंधेरा था।

देवराज चौहान के लिफ्ट से बाहर आते ही लियू लिफ्ट में प्रवेश कर गई। लियू को देखकर, देवराज चौहान के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। क्योंकि जगमोहन उसे खबर कर ही चुका था कि लियू बाहर आ रही है और इस वक्त देवराज चौहान ने उसे रोकने की चेष्टा इसलिए नहीं की कि शोर-शराबा पैदा होने पर, लोग आ जायेंगे। लियू आसानी से बचकर निकल सकती है। वह रूम नम्बर बारह की तरफ बढ़ता चला गया।

दरवाजे के सामने पहुंचकर ठिठका।

लगी सिटकनी को हटाकर देवराज चौहान ने दरवाजा खोला और भीतर प्रदेश कर गया।

“तुम?” वानखेड़े उसे देखते ही चौंका।

देवराज चौहान ने कमरे की उजड़ी हालत पर नजर मारी।

“तुम्हें लियू नहीं मिली।” वानखेड़े दांत भींचकर बोला –“अभी-अभी वह –।”

“मिली थी।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

“तो उसे पकड़ा क्यों नहीं? वह –।”

“उसे पकड़ना ठीक नहीं था। आसपास कमरे हैं। जरा से शोर में लोग इकट्ठे हो जाते। वह बच जाती।”

वानखेड़े बाहर निकलने को हुआ।

“कोई फायदा नहीं। अब वह हाथ नहीं आयेगी। जब तक तुम नीचे पहुंचोगे। वह होटल से जा चुकी होगी।”

वानखेड़े ने ठिठक कर पल भर के लिए देवराज चौहान को देखा फिर अपने आदमियों से बोला।

“जाओ। पकड़ो उसे।”

देखते ही देखते सब बाहर निकलते चले गये।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।

वानखेड़े के चेहरे पर क्रोध था।

“इतने लोग होने के बावजूद भी वह निकल गई।” देवराज चौहान ने कहा।

“हां।” वानखेड़े ने अपने गुस्से पर काबू पाते हुए कहा –“उसे मौका मिल गया।”

“मिला नहीं। उसने मौका हासिल कर लिया होगा। वह वास्तव में चालाक और समझदार है।”

होंठ भींचे वानखेड़े देखता रहा देवराज चौहान को।

“अब क्या इरादा है?”

“किस बारे में?”

“तुमने अपनी कोशिश कर ली। अब आगे मैं करूं?”

“लेकिन लियू तो निकल गई।”

“जगमोहन और सोहनलाल उसके पीछे हैं। जल्द ही मालूम हो जायेगा कि वह कहां है।” देवराज चौहान ने कहा।

वानखेड़े हर पल अपने क्रोध पर काबू पाने की कोशिश में था।

“तुम जो भी करो, मुझे कोई एतराज नहीं। मैं माइक्रोफिल्म वापस चाहता हूं। उसे पकड़ने की हमारी कोशिश भी जारी रहेगी। परन्तु उससे तुम्हारे काम में कोई अड़चन नहीं आयेगी।”

“माइक्रोफिल्म उसके पास नहीं मिली?” देवराज चौहान ने पूछा।

“नहीं।” वानखेड़े की सुलगती निगाह कमरे में घूमी –“उसके पास नहीं थी। और अगर कमरे में होती तो शायद वह इस तरह कमरे से जाती नहीं। जाने से पहले, माइक्रोफिल्म अपने साथ ले जाती।”

“मैंने तुम्हें पहले ही कहा था कि अगर वह समझदार होगी तो फिल्म अपने पास नहीं रखेगी।”

तभी श्याम सुन्दर और नम्बरदार ने भीतर प्रवेश किया।

“दरबान से मालूम किया।” नम्बरदार बोला –“वह पार्किंग में मौजूद कार से निकल भागी है।”

वानखेड़े की खा जाने वाली निगाहें श्याम सुन्दर पर जा टिकी।

“तुमने उसके कपड़ों की तलाशी में पिस्टल हासिल की।”

श्याम सुन्दर ने हौले से सिर हिलाया।

“तो उसे टेबल पर क्यों रखा। मेरे या किसी और के हाथ में दे सकते थे।”

“तब मैं तलाशी में व्यस्त था।” श्याम सुन्दर के माथे पर बल पड़े –“मैंने पिस्टल टेबल पर रख दी तो तुम उठा सकते थे। कोई और उठा सकता था। किसी ने पिस्टल को उठाया क्यों नहीं।”

वानखेड़े ने दांत भींचकर उसे घूरा।

“मतलब कि तुम अपनी गलती नहीं मानना चाहते।”

“गलती मेरी नहीं। सबकी है। खासतौर से तुम्हारी । तुम इस काम में हमारे नेता हो। जो तलाशी में व्यस्त होगा। वह उठकर, दो कदम आगे बढ़कर तो किसी को पिस्टल पकड़ाने से रहा। वह तो पास की नजदीकी जगह उसे रखकर, आगे की तलाशी में लग जायेगा। तब तुम्हें टेबल पर से पिस्टल उठानी चाहिये थी।”

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई। श्याम सुन्दर को देखा। बोला कुछ नहीं।

“श्याम सुंदर ठीक कहता है।” नम्बरदार कह उठा।

वानखेड़े ने अपने गुस्से पर किसी तरह काबू पाया।

तभी बाकी के चार भी वापस लौट आये।

“लियू यहां से निकल गई है।”

देवराज चौहान ने वानखेड़े के हार और गुस्से से भरे चेहरे को देखा।

“मैं जा रहा हूं।”

“कहां?” वानखेड़े के होंठों से निकला।

“उसी फैक्ट्री में । जगमोहन और सोहनलाल वहीं आयेंगे।” देवराज चौहान ने कहा।

“हम भी चलते हैं।” वानखेड़े का स्वर एकाएक थका-थका सा लगने लगा था।

☐☐☐

फैक्ट्री के ऑफिस में उन सबने कदम रखा ही था कि वानखेड़े की कलाई पर बंधी घड़ी में सिगनल मिला। घड़ी को फौरन ट्रांसमीटर का रूप देकर, उसने बात की।

“हैलो–हैलो।” घड़ी में से महीन सी आवाज आ रही थी –“मैं राजकुमार –हैलो –।”

“कहो राजकुमार।” वानखेड़े घड़ी को मुंह के पास ले जाकर बोला।

“लियू शायद आप लोगों के हाथों से निकल भागी है।” राजकुमार की आवाज घड़ी में से निकली।

“हां। ऐसा हो गया।” वानखेड़े ने भिंचे होंठों से कहा।

“लियू को मैंने जाते देख लिया था। तब मैं होटल के बाहर सड़क पर, कार में था। मैंने उसका पीछा किया। वह सीधी एयरपोर्ट पर पहुंची है। मैं इस वक्त पार्किंग में हूं। लियू के पीछे एयरपोर्ट की इमारत में जा रहा हूँ।”

“वैरी गुड राजकुमार। गुड। तुम लियू पर नजर रखो। हम अभी पहुंच रहे हैं।”

“ठीक है।”

बातचीत बंद हो गई। वानखेड़े घड़ी ठीक करता हुआ बोला।

“लियू एयरपोर्ट पर पहुंची है। वह किसी प्लेन पर मुम्बई से बाहर जा रही है। आओ, हम एयरपोर्ट –।”

“एयरपोर्ट पर तुम लियू का क्या करोगे?” देवराज चौहान बोला।

“क्या मतलब?”

“वह अपराधी नहीं है कि तुम उसे रोक सको। उस पर तुम कुछ भी साबित नहीं कर सके। उसे रोकने या पकड़ने की कोशिश की तो, तब सोच ही सकते हो कि क्या स्थिति पैदा हो सकती है।”

वानखेड़े देवराज चौहान को देखने लगा।

“खुलेआम तुम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। अगर यह सोचते हो कि वह माइक्रोफिल्म पास में रखकर प्लेन में सफर करेगी तो गलत सोचते हो। कानूनी तौर पर तुम उसका कुछ नहीं कर सकते।”

वानखेड़े के दांत भिंच गए।

“यह तो एयरपोर्ट पर पहुंचकर देखूंगा कि क्या किया जा सकता है और क्या नहीं।”

देवराज चौहान कुछ नहीं बोला।

“तुम नहीं चलोगे?” वानखेड़े ने पूछा।

“नहीं।”

“क्यों?”

“जगमोहन और सोहनलाल को मैंने यहां आने को कहा है। जब तक उनकी तरफ से कोई खबर नहीं आती मुझे यहीं रहना होगा।”

“लेकिन उन्होंने भी तो लियू के बारे में ही खबर देनी है कि वह कहां गई है। वह खबर तो –।”

“तुम जाओ वानखेड़े।” देवराज चौहान ने कहा –“लियू पर हाथ डालने की तुम्हारी यह आखिरी कोशिश है। एयरपोर्ट पर जो कर सकते हो। कर लो। उसके बाद लियू के रास्ते से हट जाना और मुझे काम करने देना।”

वानखेड़े ने देवराज चौहान को गहरी निगाहों से देखा फिर अपने साथियों के साथ वहां से चला गया।

☐☐☐

करीब डेढ़ घंटे बाद सोहनलाल फैक्ट्री पहुंचकर देवराज चौहान से मिला।

“लियू, होटल से सीधा एयरपोर्ट पहुंची। कार पार्किंग में छोड़कर, एयरपोर्ट की लॉबी से उसने, कहीं लोकल ही फोन किया। उसके बाद ‘पूछताछ’ वाले काउंटर पर गई। मैं और जगमोहन बराबर उस पर नजर रखे रहे। मौका मिलने पर जगमोहन ने पूछताछ वाले काउंटर से किसी तरह पता किया तो मालूम हुआ कि वह सुबह पांच बजे दिल्ली जाने वाले प्लेन के बारे में पूछ रही थी। जगमोहन ने उस प्लेन के यात्रियों की लिस्ट भी देखी, जिसमें लियू का नाम है। मतलब कि वह दिल्ली जा रही है। सीट पहले से ही बुक है।”

सोहनलाल के रुकते ही, देवराज चौहान ने हौले से सिर हिलाया।

“एयरपोर्ट पर लियू किसी से मिली?”

“नहीं। लेकिन हो सकता है, फोन करके उसने दूतावास से किसी को बुलाया हो।”

“जगमोहन लियू पर नजर रखे है?”

“हां।”

देवराज चौहान ने वक्त देखा। सुबह के साढ़े तीन बज रहे थे।

“एयरपोर्ट चलो।”

देवराज चौहान और सोहनलाल बाहर निकलते चले गये।

☐☐☐

वानखेड़े ने एयरपोर्ट की लॉबी में प्रवेश किया।

वहां लोगों का काफी जमघट था। अधिकतर इन्टरनेशनल फ्लाइट आधी रात के बाद ही जाती-आती थी। रिसीव करने वाले और छोड़ने आये लोगों की वहां ज्यादा भीड़ थी।

“देखो उसे, वह कहां है?” वानखेड़े ने सबसे कहा।

वह सब इधर-उधर बिखरते चले गये।

वानखेड़े आने-जाने वाले लोगों की भीड़ से बचता, खोजपूर्ण निगाहें दौड़ाता थीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। अभी चंद कदम ही आगे बढ़ा होगा कि एक आदमी सामने आ खड़ा हुआ। उसे देखकर वानखेड़े के चेहरे पर तसल्ली के भाव उभरे। वह सी.बी.आई. का एजेंट राजकुमार था।

“कहां है वह?” वानखेड़े ने पूछा।

“बाईं तरफ वाली सीटों के काफी पीछे कुर्सी पर मौजूद है। कुछ देर पहले ही दो चीनी उसके पास पहुंचे हैं। मेरे ख्याल में उन दोनों चीनी व्यक्तियों को मैं दूतावास में देख चुका हूं।”

वानखेड़े के होंठों में कसाव आ गया।

“मेरे ख्याल में वह फ्लाइट लेने वाली है। शायद दिल्ली के लिए। उनके कुछ शब्द मेरे कानों में पड़े हैं। राजकुमार ने गम्भीर स्वर में कहा –“इस वक्त उस पर हाथ नहीं डाला जा सकता।”

“तो क्या उसे जाने दें?” वानखेड़े ने शब्दों को चबाकर कहा।

“इसके अलावा और किया भी क्या जा सकता है?”

“कौन सी फ्लाइट से वह दिल्ली जा रही है?”

“शायद पांच बजे वाली।”

“मैं मालूम करता हूं।”

“एक और आदमी लियू पर निगाह रखे हुए है।” राजकुमार बोला।

“कौन?”

“उधर है। मेरे साथ आओ।”

राजकुमार, वानखेड़े को लेकर, एक तरफ पहुंचा और दूर नजर आ रहे, जगमोहन की तरफ इशारा करते हुए कह उठा।

“वह रहा, गुलाबी कमीज वाला।”

वानखेड़े की निगाह जगमोहन पर पड़ी तो वह चौंका फिर तुरन्त ही संभला।

“ठीक है। तुम लियू पर निगाह रखो। मैं अभी पांच बजे वाली फ्लाइट के बारे में मालूम करके आता हूं।”

ठीक पांच बजकर पांच मिनट पर विमान ने दिल्ली के लिए उड़ान ली।

विमान में दो सौ बाईस यात्रियों में देवराज चौहान, जगमोहन थे। सोहनलाल ने यह कहकर एयरपोर्ट से छुट्टी पा ली थी कि उसे कोई खास काम निपटाना है। दोनों पीछे वाली सीटों पर बैठे हुए थे।

वानखेड़े, श्याम सुन्दर, नम्बरदार, दीपसिंह, रामचरण, कर्मवीर यादव और मदनलाल बिखरे-बिखरे से विमान की सीटों पर बैठे थे। परन्तु उन सबकी निगाहों में थी लियू। जो सीट पर आराम से बैठी थी और वानखेड़े तथा उसके आदमियों को पहचान चुकी थी। लेकिन उन्हें अपने पीछे पाकर, उसके चेहरे पर कोई खास भाव नहीं आया था। वह यूं ही लापरवाह सी रही।

लेकिन मन में एक बात तो पक्के तौर पर थी कि इन लोगों से पीछा छुड़ाना है।

देवराज चौहान और जगमोहन को उसने नहीं देखा था। अगर देखा भी होता तो शायद पहचान न पाती क्योंकि वोल्गा वॉल्ट की छत पर उनकी मुलाकात अंधेरे में हुई थी। यह जुदा बात थी कि उनकी आवाज सुनकर, लियू उन्हें पहचान ले। जो चीनी एयरपोर्ट पर उससे आकर मिले थे, वह साथ नहीं आये थे। एयरपोर्ट से ही वापस चले गये थे।

इन सबके अलावा विमान में एक और तूफानी शख्सियत मौजूद थी। जोकि मौकापरस्ती का पुजारी था। खूबसूरती का सिर मूंडने में जिसे असीम मजा आता था। खूबसूरती के पास से दौलत हाथ में आ जाये तो फिर कहना ही क्या? अपने आकर्षक व्यक्तित्व पर उसे में वह दाने को चुग ही लेगी। और उसके बाद मुर्गी को धीरे-धीरे, नोटों से खाली करके खिसक जाना, उसके खेल का आखिरी हिस्सा रहता। यह जुदा बात है कि वह अपने खेल में कितना कामयाब या नाकामयाब रहता।

तो पहचान गये होंगे आप इसे। जी हां, अपना वही नम्बरी जुगल किशोर।

सबसे हसीन इत्तेफाक तो यह रहा कि लियू की सीट जुगल किशोर की बगल वाली ही थी। और जुगल किशोर को लग रहा था कि ऐसा सुनहरी मौका फिर हाथ नहीं आयेगा। उसे शुरू हो जाना चाहिये। शीशे में उतार लेना चाहिये। ताकि दिल्ली पहुंचने के बाद भी इससे हैलो-हैलो होती रहे और उससे किसी तरह नोट झाड़ता रहे। जब विमान ने टेक ऑफ किया तो जुगल किशोर पूरी तैयारी के साथ मैदान में कूद पड़ा।

“हैलो मैडम।” जुगल किशोर मुस्करा कर, मीठे स्वर में, लियू को टोक बैठा।

लियू ने गर्दन घुमाकर बगल में बैठे जुगल किशोर को देखा । गहरी निगाहों से देखा। जवाब में जुगल किशोर के चेहरे पर छाई मुस्कराहट और भी गहरी और भी मीठी होती चली गई।

“आपने मुझसे कुछ कहा?” लियू के होंठ हिले।

साली, ज्यादा ही हवा में उड़ रही है।

“यस मैडम।” दिल के ख्याल दिल में ही रखते हुए जुगल किशोर मुस्कराकर बोला –“मैंने हैलो कहा है।”

“हैलो।” लियू ने सामान्य स्वर में कहा और मुंह दूसरी तरफ फेर लिया।

नीचे नहीं उतरी अभी। हवा में ही है। होना भी चाहिये। खूबसूरत भी तो जी भर के है।

“मैंने कहा मैडम।” जुगल किशोर ने पुनः पहले वाले मीठे स्वर में कहा।

लियू ने गर्दन घुमाकर, पुनः जुगल किशोर को देखा।

“मैडम स्काटलैंड में मेरी एक असिस्टेंट थी। उसका चेहरा बहुत हद तक आपसे मिलता है। पहली बार जब आपको देखा तो लगा जैसमीन ही मेरे पास आ गई है।”

“जैसमीन?” लियू के होंठों से निकला।

“असिस्टेंट मेरी स्काटलैंड में।” जुगल किशोर ने भोलेपन से जवाब दिया।

लियू ने पुनः गहरी निगाहों से उसे देखा।

चारा निगल रही है मछली।

“स्काटलैंड में आप क्या करते हैं?” लियू ने पूछा।

“करता हूं नहीं। करता था।” जुगल किशोर ने सिर हिलाकर कुछ ज्यादा ही लम्बी सांस ली –“फर्स्ट ग्रेड डिटेक्टिव था। पुलिस में भर्ती होकर, खासी तरक्की कर ली। बहुत कठिन-कठिन केस हल किए। तब मन में आया कि वापस हिन्दुस्तान जाकर डिटेक्टिव एजेंसी खोल लूं। इसलिए नौकरी छोड़ आया।”

“तो आप प्राइवेट जासूस हैं।” लियू हौले से मुस्कराई।

फंस रही है लेकिन धीरे-धीरे।

“यस मैडम, यस।” जुगल किशोर ने फौरन सिर हिलाया।

“मुम्बई में एजेंसी खोल रखी है?”

“यस मैडम। लेकिन हैड ऑफिस बैंगलोर में है। मेरे पास बारह डिटेक्टिव काम करते हैं। लेकिन फिर भी फुर्सत नहीं मिलती। चौबीसों घंटे के काम से मैं तंग आ गया हूं। किसी का कुत्ता खो गया है तो किसी की बीवी भाग गई है। किसी को शक है कि जायदाद के लालच में, उसका आदमी उसकी हत्या कर देगा। किसी करोड़पति की लड़की के बाप का कहना है कि उसकी बेटी किसी लफंगे के प्यार में फंसी है, जिससे उसे छुटकारा दिलाया जाये। कोई औरत कहती है उसका पति दूसरी औरत के फेर में है, उसके खिलाफ सबूत इकट्ठे करके उसे दिए जायें। मैं तो तंग आ गया हूं इन सब चीजों से। आखिर पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता। मुंहमांगी दौलत मिलती है। करोड़ों कमा चुका हूं। लेकिन मन को चैन न हो तो, करोड़ों किस काम के। बेकार हैं सब।”

“ठीक कह रहे हैं आप।” लियू ने शांत भाव से सिर हिलाया।

“अब देखिये ना। काम के बोझ से तंग आकर दिल्ली चल पड़ा कि पांच-दस दिन आराम से रहूंगा। यहां तक कि अपना लाइसेंस वाला रिवॉल्वर भी ऑफिस के टेबल के ड्राअर में छोड़ आया। जासूस होना भी मुसीबत का धंधा है। इससे सुखी तो स्काटलैंड में था। सरकारी नौकरी थी। रात को तो चैन से नींद ले लेता था।” कहते हुए जुगल किशोर ने मुंह बनाया।

लियू खुलकर मुस्कराई।

अब काबू में आई है। नखरे-वखरे सब भाग गये।

“आप दिलचस्प इंसान हैं।”

जुगल किशोर ने कुछ नहीं कहा।

“जासूस हैं तो बहादुर भी होंगे ही।”

“अब तो अपनी बहादुरी दिखा-दिखाकर भी तंग आ गया हूं। प्लीज मेरे काम की बातें मत कीजिये। उसी से भागकर कुछ दिन का चैन लेने जा रहा हूं। वही बातें होंगी तो मैं सिर पर बोझ महसूस करूंगा।”

“ओ.के. –।” लियू हौले से हंसी –“कोई और बातें करते हैं।”

आ गई पूरी तरह लाइन पे।

जुगल किशोर ने एकाएक मुस्करा कर उसे देखा।

“मेरा नाम जुगल है। जुगल किशोर।”

“मैं लियू हूं।” लियू अब जुगल किशोर में दिलचस्पी लेती नजर आ रही थी।

“लियू । अच्छा नाम है। नेपाली युवतियों का नाम लियू नहीं होता। खैर, होता होगा।”

लियू हौले से हंसी।

“दिल्ली में कहां ठहरेंगे मिस्टर जुगल।”

“कहीं भी, किसी होटल में।” जुगल किशोर जल्दी से बोला –“और तो कोई ठिकाना नहीं है।”

लियू कुछ नहीं बोली।

“आप नेपाल से यहां कहां?”

“हिन्दुस्तान घूमने आई थी।” लियू मुस्कराई।

“अकेले ही?” जुगल किशोर ने हैरानी जाहिर की।

“हां।”

“किसी को तो साथ होना चाहिये। आप जैसी खूबसूरती का अकेले घूमना ठीक नहीं।”

“आप ठीक कहते हैं।”

“क्या मतलब?”

“कि मेरा अकेले घूमना ठीक नहीं।” लियू थोड़ी सी जुगल किशोर की तरफ झुकी। बाजू से बाजू टकराई।

बन गया काम। पूरी की पूरी जमीन पर आ गई।

“सब ठीक तो है?” जुगल किशोर बोला।

“नहीं।” लियू ने थोड़ा सा सिर आगे किया। उसके मुंह से निकलती गर्म सांसें जुगल किशोर के चेहरे से टकराने लगी –“कुछ बदमाश मेरे पीछे पड़े हैं।”

“बदमाश, आपके पीछे, प्लेन में?” जुगल के होंठों से निकला।

“हां।” लियू ने अपना हाथ जुगल किशोर की बांह पर रख दिया –“जाने कैसे उन्हें मालूम हो गया कि मैं नेपाल के बहुत बड़े बिजनेसमैन की औलाद हूं और बहुत सा पैसा लेकर हिन्दुस्तान आई हूं। मुझे डर है कि कहीं वह लोग मेरा अपहरण न कर लें।”

जुगल किशोर का दिल जोरों से धड़का।

बहुत सा पैसा, मतलब कि उसके हाथ मोटी मुर्गी लग गई है। समझदारी से काम लेना चाहिये। हलाल करने में जल्दी नहीं करनी है। सारी मुर्गी उसकी है। थोड़ा-थोड़ा करके खाना ठीक रहेगा।

जुगल किशोर ने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया।

“मैडम।”

“मैडम नहीं, लियू कहो, सिर्फ लियू। हम दोस्त नहीं बन सकते क्या?”

“क्यों नहीं बन सकते। परदेश में तो आपको, मेरा मतलब है तुम्हें वैसे भी दोस्त की जरूरत है। अब तुम फिक्र मत करो लियू।” जुगल किशोर ने उसके हाथ को दबाया –“खुद को अकेली मत समझना। तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मैं देख लूंगा उन बदमाशों को।”

“थैंक्यू डियर जुगल। थैंक्स । तुम बहुत अच्छे मौके पर मिले। मैं खुद को अकेली महसूस कर रही थी और किसी अच्छे दोस्त की जरूरत महसूस कर रही थी मैं।”

“चिन्ता मत करो। सब कुछ मुझ पर छोड़ दो। मैं तब तक तुम्हारे साथ रहूंगा, जब तक तुम नेपाल नहीं लौट जाती। इस तरह मुझे भी अपने काम से दूर रहकर आराम मिलेगा।” जुगल किशोर ने अपनेपन से कहा।

“समझ में नहीं आता कि किस तरह तुम्हारा धन्यवाद करूं मैं।”

“धन्यवाद मैं खुद ले लूंगा।” जुगल किशोर मुस्कराया –“एक बात कहूँ।”

“क्या?”

“तुम बहुत खूबसूरत हो?”

“तुम्हारी उस स्काटलैंड वाली असिस्टेंट से भी ज्यादा?” लियू ने शोखी से कहा।

“हां।”

“बहुत बदमाश हो।”

आ गई पूरी तरह मुट्ठी में। अब देखना है कि इसने अपने नोट-माल कहां रखा है।

“जुगल।”

“हूँ।” जुगल किशोर ने अभी तक उसके हाथ पर हाथ रखा हुआ था।

“तुम बहुत बड़े जासूस हो। उन बदमाशों को आसानी से संभाल लोगे।” लियू उकसाने वाले स्वर में बोली।

“मैंने बोला तो, फिक्र मत करो। मैं सब संभाल लूंगा।” जुगल किशोर ने उसका हाथ थपथपाया –“तुम उन लोगों के चेहरे दिखा सकती हो। ताकि प्लेन से उतरने के बाद भी उन्हें पहचान सकूँ।”

लियू ने सावधानी से वानखेड़े और सी.बी.आई. के एजेंटों से, जुगल किशोर को वाकिफ करा दिया। इस तरह कि वह लोग न जान सकें कि क्या हो रहा है।

साले, पूरे सात हैं। सबके सब दम वाले लग रहे हैं। इनमें से दो भी उस पर झपट पड़े तो हड्डियां सलामत नहीं रहने वाली। इनसे तो बचकर ही निकलना होगा।

“क्या हुआ?”

“क्या हुआ?” जुगल किशोर मन के भावों पर काबू पाता हुआ बोला।

“तुम अचानक खामोश क्यों हो गये?”

“कुछ नहीं।” जुगल किशोर ने गहरी सांस ली –“सोच रहा था रिवॉल्वर ऑफिस के टेबल के ड्राअर में रख आया। साथ ही ले आता तो अच्छा रहता। वह लोग सात हैं।”

“उसकी तुम फिक्र मत करो।”

“किसकी –सात की?”

“नहीं, रिवॉल्वर की।” लियू ने उसकी बांह थपथपाई।

“क्यों?”

“उसका इंतजाम मैं कर दूंगी।”

“तुम, कैसे?” जुगल किशोर के होंठों से निकला।

“हर बात मत पूछो डियर जुगल।” लियू जानलेवा मुस्कान के साथ बोली –“फिर भी तुम्हें बता देती हूं कि दिल्ली में एक जगह जानती हूं, जहां से रिवॉल्वर मिल सकती है। वहां से खरीद लूंगी।”

साली पहुंची हुई चीज तो नहीं है, यह?

जवाब में जुगल किशोर ने सिर हिला दिया।

“अपने काम का कुछ बताओ।” लियू प्यार भरे स्वर में कह उठी।

“क्या?” जुगल किशोर के होंठों से निकला।

“कोई जासूसी का किस्सा। अच्छा एक बात बताओ। मैंने सुना है, देवराज चौहान हिन्दुस्तान का बहुत बड़ा डकैती मास्टर है। लगभग सारी ही डकैतियां उसने सफलता से की हैं।”

देवराज चौहान के जिक्र पर जुगलकिशोर मन ही मन सकपकाया। एक बार खामख्वाह ही देवराज चौहान के काम में दखल दे बैठा था। यह तो अच्छा हुआ कि बच गया। वरना देवराज चौहान ने बुरा हाल कर देना था उसका।

“वो देवराज चौहान।” जुगल किशोर ने लियू का हाथ दबाया –“बच गया एक बार मेरे हाथों से।”

“कैसे?” लियू के चेहरे पर दिलचस्पी उभरी।

“एक बार डकैती करके भाग रहा था।” जुगल किशोर ने मुंह बनाकर कहा –“पीछे पुलिस लगी थी। बस इसी घबराहट में सामने से आती मेरी कार से टक्कर मार दी। उसी दिन ही शोरूम से नई गाड़ी निकाली थी। बुरा हाल कर दिया। बाद में कबाड़ के भाव बेचनी पड़ी। खैर, टक्कर लगने के बाद उसकी कार सड़क के किनारे लगे स्ट्रीट लाइट के पोल से जा टकराई। इससे पहले वह निकलता। मैं उस पर चढ़ दौड़ा। कमीज का कॉलर पकड़कर उसे बाहर खींचा और –।”

“तुमने देवराज चौहान के साथ ऐसा किया?” लियू के चेहरे पर हैरानी उभरी।

लगता है कुछ ज्यादा कह गया हूं।

“हां।” बात को संभालते हुए जुगल किशोर जल्दी से बोला –“मैंने कॉलर पकड़कर उसे कार से बाहर खींचा। तब मुझे क्या मालूम था कि वह देवराज चौहान है। मालूम होता तो रिवॉल्वर से उसे कवर करता। बाहर तो मैंने उसे निकाल लिया। लेकिन कुछ बात होने से पहले ही उसने जोरदार घूंसा मेरे पेट में मारा। छोड़ा मैंने भी नहीं। लेकिन लड़ाई ज्यादा नहीं चली। पीछे आती पुलिस कार का सायरन सुनते ही देवराज चौहान भाग गया।” कहने के साथ ही जुगल किशोर ने गहरी सांस ली –“यह तो पुलिस के आने पर मालूम हुआ कि जिससे अनजाने में टकरा गया था। वह देवराज चौहान था। अगर पहले मालूम होता तो क्या ऐसे जाने देता उसे।”

“सुना है वह बहुत खतरनाक है।”

“सुना तो मैंने भी है।” जुगल किशोर मक्खी उड़ाने वाले अन्दाज में बोला –“लेकिन मुझे तो खास नहीं लगा। जब मेरी उससे हाथापाई हुई थी। अब सामने आया तो छोडूंगा नहीं।”

“जानते हो देवराज चौहान कहां रहता है?” लियू ने पूछा।

“जानता होता तो, अब तक उसे कानून के हाथों में पहुंचा चुका होता।” जुगल किशोर मीठे अन्दाज में मुस्कराया।

जवाब में लियू भी मुस्करा दी।

अच्छी-अच्छी बातचीत हो रही थी। देवराज चौहान को बीच में लाकर बातों का सारा मजा खराब कर दिया। एक बार तो गलती से उसके फेर में पड़ गया था, तब उसे पहचानता नहीं था। देवराज चौहान के सामने आते मेरी बल्ले-बल्ले हो जाती है।

“क्या सोचने लगे?” लियू ने प्यार में पूछा।

“सोच रहा था दिल्ली में कौन से होटल में ठहरा जाये।” जुगल किशोर ने प्यार से उसे देखा।

“नेपाल में मेरे पापा ने कहा था कि दिल्ली में जब भी जाऊं, ग्रीन होटल में रहूं। तुम भी वहीं रहना।”

“ग्रीन होटल, यह कहां पड़ता है?”

“कनॉट प्लेस में।”

“लेकिन यह तो कोई छोटा होटल होगा। ताज या ओबराय में।”

“नहीं। हम वहीं रुकेंगे।” लियू ने जिद्द भरे स्वर में कहा।

साली फुटपाथ पर भी रहने को कहे तो मैं वहां भी तम्बू गाड़ लूंगा। एक बार इसका माल पानी हाथ में आ जाये। फिर देखना, मेरी उड़ान।

“ठीक है।” जुगल किशोर ने उसका हाथ दबाया डियर –“तुम आगे। मैं पीछे। जहां रहने को मेरी लियू डियर कहेगी, वहीं रहूंगा।”

“ओह माई डियर जुगल।”

☐☐☐

“यह चिपकू कौन है?” जगमोहन ने पीछे से लियू और जुगल किशोर को बातें करते देखा तो कह उठा।

“सफर का साथी है।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

“दोनों इस तरह बातें कर रहे हैं जैसे हनीमून के लिए निकले हों।”

देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा तो जगमोहन ने सकपका कर दूसरी तरफ मुंह फेर लिया। कई पलों तक उनके बीच खामोशी रही। जगमोहन की निगाह लियू और जुगल किशोर की तरफ ही रही।

“मुझे तो नहीं लगता, इनका अलग होने का इरादा है।” जगमोहन बड़बड़ा उठा।

उसकी बड़बड़ाहट देवराज चौहान ने सुनी।

“लियू इस वक्त जिन हालातों में है, ऐसे में वह किसी को साथ रखना पसंद नहीं करेगी।” देवराज चौहान ने कहा –“लियू ने शायद हमें न पहचाना हो। लेकिन उसने वानखेड़े और उसके साथियों को अवश्य देख लिया होगा। ऐसे में वह किसी से दोस्ती गांठने की अपेक्षा, वानखेड़े से बचने की सोचेगी।”

ठीक तभी जुगल किशोर अपनी सीट से उठा और उस रास्ते की तरफ बढ़ा, जिधर बाथरूम था।

देवराज चौहान और जगमोहन ने, अब देखा जुगल किशोर को ठीक तरह से।

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।

जगमोहन भी कुछ उलझन में नजर आया।

“म..मैंने इसे पहले भी कहीं देखा है।” जगमोहन के होंठों से निकला।

“मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता –।” कहते-कहते देवराज चौहान ठिठका उसके होंठ सिकुड़ गए –“जब हम सुपर कार्गो एजेंसी के बख्तरबंद पर हाथ डालने की फिराक में थे, यह भी उसी फेर में था। बाद में पता चला कि कार्गो एजेंसी के मालिक की बीवी संजना पुरी के फेर में पड़कर, यह इस काम में आ फंसा था।”

“हां। ठीक कहा।” जगमोहन के होंठों से निकला –“तब हमने इसे सही सलामत छोड़ दिया था।”

जुगल किशोर बाथरूम में जा चुका था।

“लेकिन यह यहां लियू के साथ क्या कर रहा है?” जगमोहन उलझन में फंसा कह उठा।

देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव बिखरे रहे।

“यह इतना सीधा नहीं है कि लियू से यूं ही टकरा गया हो।” जगमोहन बोला – “कोई तो बात है।”

“इसका नाम तो हमें मालूम नहीं?” देवराज चौहान ने पूछा।

“नहीं। तब हमने इसका नाम जानने में कोई दिलचस्पी नहीं ली थी।” जगमोहन ने होंठ सिकोड़कर कहा।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।

“यह किसी चक्कर में है।” जगमोहन फैसले पर पहुंचने वाले अंदाज में बोला –“वरना लियू से न मिलता।”

☐☐☐

“जुगल डार्लिंग।” लियू, जुगल किशोर की बांह थपथपाते हुए बोली –“अगर हो सके तो एयरपोर्ट पर ही इन लोगों से पीछा छुड़ाने की कोशिश करना। मेरे घूमने के ट्रिप का सारा मजा खराब कर दिया, इन लोगों ने।”

“मैं भी यही सोच रहा हूं।”

“क्या?”

“कि यह कुल मिलाकर सात हैं। इतने लोगों से टकराना ठीक नहीं होगा। जरूरत पड़ने पर यह एक दूसरे की सहायता के लिए आ जायेंगे। समझदारी इसी में है कि किसी तरह इनसे पल्ला झाड़ा जाये।”

“कैसे?”

तेरे लिए तो मैं ढेरों रास्ते निकाल लूंगा। नोट जो झाड़ने हैं तेरे से। और वह तभी झाड़ सकता हूं जब तू और मैं अकेले होंगे। हम पर किसी तीसरे की निगाह नहीं होगी।

“देखता हूं। कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। प्लेन लैंड होने में कितना वक्त है?”

“सिर्फ पन्द्रह मिनट।”

“ठीक है, मैं देखना चाहता हूं तुम कितनी समझदार हो।”

“वह कैसे?” लियू ने दिलचस्पी भरी निगाहों से उसे देखा।

“मैं तुम्हें कुछ समझाता हूं। अगर तुमने वैसे ही किया तो इनसे हमारा पीछा छूट जायेगा।”

“बताओ मुझे क्या करना होगा?” लियू उत्सुकता भरे अंदाज में मुस्कराई।

साली के रंग-ढंग बता रहे हैं कि कभी भी मेरे पर छलांग लगा देगी।

“मैं इन लोगों से उलझकर किसी तरह इन्हें व्यस्त कर दूंगा। तुम फौरन यहां से निकलकर कनाट प्लेस के ग्रीन होटल में पहुंच जाना। मैं बाद में तुमसे वहीं मिलूंगा।” जुगल किशोर ने कहा।

लियू ने गहरी निगाहों से जुगल किशोर को देखा।

अब मेरे को खायेगी क्या?

“यह काम तुम कैसे कर लोगे?”

“कमाल करती हो तुम। स्काटलैंड में पुलिस में था। अब इतनी बड़ी मेरी डिटेक्टिव एजेंसी है। मेरे लिए तो यह काम चुटकियों का है। मुझ पर भरोसा रखो। तुम्हारी कश्ती में ऐसी पार लगाऊंगा कि दोबारा पानी में लौटेगी ही नहीं।” जुगल किशोर ने बेहद मीठे स्वर में कहा।

☐☐☐

लियू एयरपोर्ट पर टैक्सी पर बैठी तो टैक्सी आगे बढ़ गई। उसके पीछे वाली टैक्सी में जुगल किशोर था। उसके पीछे दो टैक्सियों पर वानखेड़े और उसके साथी थे। एयरपोर्ट से निकलकर बारी-बारी टैक्सियां मुख्य सड़क पर आती चली गईं।

जुगल किशोर ने आगे जा रही लियू की टैक्सी को देखा, जिसकी रफ्तार एकाएक बढ़ गई थी। फिर पीछे गर्दन घुमाकर देखा, पीछे वाली टैक्सियों ने भी तेज रफ्तार पकड़ ली थी।

“उस्ताद जी।” जुगल किशोर टैक्सी ड्राइवर से बोला।

“जी साहब।”

“पांच सौ रुपया, मीटर के अलावा कमाना चाहते हो?” जुगल किशोर ने जल्दी से कहा।

“क्यों नहीं –लेकिन करना क्या होगा?” टैक्सी ड्राइवर ने सिर हिलाया।

“आगे वाली टैक्सी में, लड़की जा रही है और पीछे वाली दोनों टैक्सियों में बुरे लोग हैं। मुंबई से उसके पीछे पड़े हैं। अगर तुम पीछे वाली टैक्सियों को कुछ देर के लिए पीछे ही अटका लो तो पांच सौ तुम्हारे। कोई खास मामला नहीं है। तुम्हें ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ेगी।”

“और कोई बात तो नहीं है ना, साहब।”

“और क्या बात होगी। लड़की ने मुझसे कहा था कि इन लोगों से उसे बचा देना। सो मैं बचा रहा हूं। जनता सेवा ही समझो। पल्ले से माल भी खर्च कर रहा हूं।” जुगल किशोर ने पीछे आती टैक्सियों को देखते हुए कहा –“दोनों टैक्सियां ओवर टेक करने की कोशिश में हैं। पांच सौ कमा लो।”

“ठीक है साहब जी। उनको साइड नहीं देता।”

जुगल किशोर ने लियू वाली टैक्सी को देखा, जो काफी आगे जा चुकी थी।

टैक्सी ड्राइवर, पीछे वाली टैक्सियों को साइड नहीं दे रहा था।

पीछे वाली टैक्सियां हॉर्न पर हॉर्न दे रही थी। अगर वह दाएं-बाएं होकर निकलने की कोशिश करती तो, टैक्सी वाला उस तरफ अपनी टैक्सी कर देता। इस तरह पांच मिनट बीत गये।

लियू की टैक्सी को निगाहों से ओझल हुए चार मिनट बीत गये थे। मतलब कि वह तो अब तक काफी आगे निकल गई होगी। करीब दो मिनट और बीतने पर जुगल किशोर बोला।

“बस उस्ताद । बहुत हो गया। अब ठीक है। अपनी टैक्सी किसी भी मोड़ से दाएं-बाएं ले लेना। ध्यान से पीछे वाली टैक्सियां हमारे पीछे न पड़ जायें।”

“पांच सौ तैयार हो गये मेरे साहब जी।”

“हो गये। मीटर का किराया अलग।”

कुछ देर बाद ड्राइवर ने टैक्सी को अन्य सड़क पर ले लिया।

पीछे वाली टैक्सियों में एक टैक्सी तो उस तरफ बढ़ती चली गई। जिधर लियू वाली टैक्सी गई थी और दूसरी टैक्सी उनके पीछे लग गई। जुगल किशोर के होंठ सिकुड़े।

“उस्ताद । अब एक टैक्सी हमारे पीछे लग गई है। बचा ले। अगर उन्होंने मेरे हाथ-पांव तोड़ दिए तो तेरे को पांच सौ कौन देगा।”

“यह तो डबल काम हो गया साहब जी।”

“पहला काम तूने मेरे लिए किया था। यह काम अपने लिए कर। अपने पांच सौ लेने के लिए कर कि देने वाला सलामत रहे। डाल दे टॉप गियर।” जुगल किशोर जोश दिलाने वाले स्वर में कह उठा।

मरता क्या न करता। ड्राइवर को टैक्सी दौड़ानी पड़ी। पीछे वाली टैक्सी करीब आधा घंटा तो पीछे लगी, उन्हें पकड़ने की कोशिश में रही, उसके बाद वह इस दौड़ में पीछे की पीछे ही रह गई।

☐☐☐

लियू, कनाट प्लेस स्थित, एम ब्लाक में, ग्रीन होटल, पहुंच गई। उसकी टैक्सी को निगाहों में रखे, देवराज चौहान और जगमोहन उसके साथ ही वहां पहुंचे।

लियू का कमरा वहां पहले से ही बुक था।

उसी फ्लोर पर देवराज चौहान और जगमोहन ने कमरा ले लिया।

“अब क्या करना है?” जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।

“हमें माइक्रोफिल्म चाहिये।” देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।

“हाँ।”

“और मुझे पूरा विश्वास है कि कम से कम इस वक्त लियू के पास माइक्रोफिल्म नहीं है। फिल्म के साथ प्लेन में सफर करने का रिस्क वह नहीं उठायेगी, जबकि वानखेड़े और उसके आदमी निगाहों में हों।”

“तो?”

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया।

“मेरे खयाल में वह फिल्म उसे यहां, दिल्ली में डिलीवर की जायेगी।”

“तुम्हारा मतलब कि वह फिल्म लियू मुम्बई में ही छोड़ आई है।” जगमोहन कह उठा।

“हां। अपने साथ नहीं लाई। उसी फ्लाइट में या अगली किसी फ्लाइट में वह फिल्म दिल्ली पहुंचेगी। और लियू के हवाले कर दी जायेगी। लियू की हरकतों का तो यही मतलब नजर आता है। पहले से ही बुक प्लेन में सीट और पहले से ही बुक, इस होटल में कमरा, इसी तरफ इशारा करता है। लियू की योजना पहले से ही बन चुकी थी, तभी तो वह मुम्बई के होटल पैलेस में अकेली रुकी। बिना माइक्रोफिल्म के।”

जगमोहन ने सोच भरे ढंग में सिर हिलाया।

“हमें लियू पर नजर रखनी होगी। खास तौर से यह देखना होगा कि वह किन-किन लोगों से मिलती है। उन्हीं मिलने वालों में से ही कोई उसे फिल्म देगा।”

“यह तो बहुत गड़बड़ वाला काम हो गया।” जगमोहन के होंठों से निकला –“छोटी माइक्रोफिल्म कब कौन लियू के हाथ में थमा दे। मालूम ही नहीं हो सकेगा।”

“आंखें खुली रखोगे तो, मालूम हो जायेगा।”

“वानखेड़े भी लियू के पीछे है।” जगमोहन ने कहा –“उसे पीछे हटने को कह देना चाहिये। जब तक वानखेड़े लियू के पीछे रहेगा। लियू सतर्क रहेगी। और –।”

“तुम ठीक कहते हो। वानखेड़े अकेला होता तो जुदा बात थी। परन्तु उसके साथ सी.बी.आई. के छ: एजेंट हैं। इतने लोग लियू की निगाहों से छिपे नहीं रह सकते। वानखेड़े अब सामने पड़ा तो उससे बात करूंगा। वैसे मेरा ख्याल है कि शायद वानखेड़े यहां तक न पहुंच सके।”

“कैसे?”

“लियू को जो प्लेन में मिला था–वह–।”

“वो चिपकू?” जगमोहन के मुंह से निकला।

“हां। वहीं।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया –“एयरपोर्ट से निकल कर वानखेड़े और उसके साथियों ने जब लियू का पीछा करने की कोशिश की तो, उसके टैक्सी वाले ने उन्हें आगे बढ़ने का रास्ता नहीं दिया और तब तक लियू की टैक्सी निगाहों से ओझल हो चुकी थी।”

“यह सब मैंने तो नहीं देखा।”

“नजरें खुली रखो तो नजर आयेगा। मेरे ख्याल में वानखेड़े शायद यहां तक नहीं पहुंच सकेगा।”

“ओह! लेकिन चिपकू ने ऐसा क्यों किया?”

देवराज चौहान कुछ नहीं बोला।

“समझ गया। लियू ने उसे कोई घुट्टी पिला दी होगी। मतलब कि चिपकू यहां भी पहुंच सकता है। ।”

“पक्का नहीं कहा जा सकता। तुम लियू पर नजर रखो।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।

☐☐☐

लियू ने कमरे में प्रवेश किया और सतर्क निगाहों से हर तरफ देखा। फिर कमरे की अच्छी तरह से तलाशी ली। लेकिन सब ठीक था। लियू कुर्सी पर जा बैठी और आराम करने के अन्दाज में टांगे फैला ली। चेहरा सामान्य था। परन्तु आंखों में सोच के भाव थे। वह जानती थी कि हिन्दुस्तान में अब ज्यादा देर रहना खतरे से खाली नहीं था। उसे फौरन हिन्दुस्तान छोड़ना होगा लेकिन वानखेड़े से बचकर। जो सी.बी.आई. के एजेंटों के साथ उस पर नजर रखे हुए है।

आते वक्त लियू पीछे भी ध्यान रखती आई थी। परन्तु पीछे ऐसी कोई टैक्सी, कोई वाहन नजर नहीं आया जो उसके पीछे हो।

मतलब कि जुगल किशोर अपनी कोशिश में सफल रहा?

लियू ने जुगल किशोर के बारे में सोचा? प्राइवेट जासूस है और उसे पर्यटक समझ रहा है। उसके लिए जुगल किशोर का साथ फायदेमंद रहेगा। कोई मुसीबत आई तो सहायता भी कर सकता है और पर्यटक होने के नाते, वह उसे कहीं भी ले जा सकती है। उसे शक होने का तो मतलब ही नहीं।

लियू को पूरा विश्वास था कि जुगल किशोर उसके पास आयेगा।

तभी दरवाजे पर थपथपाहट हुई।

लियू ने दरवाजा खोला तो बाहर एक चीनी व्यक्ति को ही खड़े पाया। लियू ने फौरन उसे रास्ता दे दिया। वह भीतर आया तो, लियू दरवाजा बंद करते हुए बोली।

“तुम्हें इस तरह मेरे पास नहीं आना चाहिये था।”

उस चीनी व्यक्ति ने छोटा सा बैग टेबल पर रखते हुए कहा।

“इसमें तुम्हारे कपड़े और सामान है।” फिर वह लियू की तरफ पलटा –“क्यों नहीं आना चाहिये था?”

“तुम अच्छी तरह जानते हो कि वानखेड़े मेरे पीछे है,वह –।”

“तो क्या होगा। मेरा क्या बिगाड़ लेगा।” उसने मुस्करा कर कहा –“मैं तो उसे।”

“सवाल तुम्हारा नहीं, मेरा है।” लियू का स्वर कठोर हो गया –“तुम्हें तो यहीं रहना है और मुझे चीन के लिए निकलना है। वानखेड़े आस-पास हुआ और उसने तुम्हें मेरे पास आते देख लिया तो वह यकीनन यही सोचेगा कि तुमने वह माइक्रोफिल्म मेरे हवाले कर दी है। वह फिर मुझे घेरने की कोशिश।”

“फिल्म न तो मेरे पास है, और ना ही मैंने तुम्हें दी है। ऐसे में क्या करेगा, वह? तुम्हें घेर कर तलाशी लेगा। ले देने दो। रही बात मेरे से तुम्हारी मुलाकात की तो सीधी सी बात है। तुम मेरे ही देश की हो और मैं तुम्हारे सामने वाले कमरे में ठहरा हुआ हूं। अपने देशवाली को देखा तो मिलने आ गया।”

“फांग।” लियू ने गम्भीर स्वर में कहा, –“तुम मामले की गम्भीरता को नहीं समझ रहे।”

“मैं तुम्हारा बैग देने आया था।”

लियू ने बैग पर निगाह मारी।

“अब तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?” फांग ने पूछा।

“हिन्दुस्तान से निकलना। यहां से श्रीनगर। वहां से आगे उसके बाद समन्दर का रास्ता।”

“ठीक है। मैं दूर रहकर तुम पर नजर रखूगा।”

“मेरे खयाल में इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी।” लियू ने शांत स्वर में कहा।

“क्यों?”

“कोई मिला है। जो मेरे काम आ सकता है। जुगल किशोर नाम है उसका प्राइवेट जासूस है और मेरी खूबसूरती का दीवाना है। वह मुझे नेपाल से आई पर्यटक मानता है और हिन्दुस्तान घूमने के दौरान मेरे साथ रहेगा। वानखेड़े मेरे पीछे था। लेकिन उसने एयरपोर्ट से आते वक्त, वानखेड़े और उसके साथियों से मेरा पीछा छुड़ा दिया।”

“गुड। अब कहां है वह?”

“कभी भी यहां पहुंच सकता है।”

“कहीं ऐसा तो नहीं कि वह पुलिस का आदमी हो और –।”

“फांग, तुम अच्छी तरह जानते हो कि लियू को धोखा देना आसान नहीं। वह आदमी ठीक है और मेरे काम का है। श्रीनगर तक के सफर में वह मेरे साथ रहेगा तो कोई मुझ पर शक भी नहीं कर सकेगा।”

“ठीक है।” फांग ने सिर हिलाया –“मैं यहीं से तुमसे अलग हो जाता हूँ।”

“यही बेहतर रहेगा।”

“लेकिन जब तक तुम होटल में हो, तब तक मैं यहीं रहूंगा।”

“मुझे कोई एतराज नहीं।”

“फिल्म तुम्हें कैसे मिलेगी?”

“अभी इस बारे में बात मत करो। मैं थकी हुई हूं। शाम को बात करना।” लियू ने फांग को देखा।

“ओ.के.।” फांग दरवाजे की तरफ पलटता हुआ बोला –“शाम को मिलूंगा।”

फांग के निकलने के बाद, लियू ने दरवाजा भीतर से बंद कर लिया।

☐☐☐

जगमोहन जिसने लियू पर निगाह रखने के बाद, फांग को उसके पास बैग लेकर जाते और दस-पन्द्रह मिनट बाद खाली हाथ लौटते देखा।

जगमोहन, कमरे में देवराज चौहान के पास पहुंचा।

“लियू के ठीक सामने वाले कमरे में, एक चीनी ठहरा हुआ है। वह लियू से मिला। दस मिनट उसके पास रहा।”

देवराज चौहान ने सोच भरी निगाहों से, जगमोहन को देखा।

“एक बैग, वह चीनी, लियू के कमरे में ले गया था। परन्तु वापसी पर वह खाली हाथ था।” जगमोहन ने पुनः कहा –“अब तो यह पूरी तरह स्पष्ट है कि लियू का यहां पहुंचना, तयशुदा प्रोग्राम था।”

“वह चीनी लियू के सामने वाले कमरे में है?” देवराज चौहान ने पूछा।

“हां। हो सकता है उसने वह माइक्रोफिल्म लियू के हवाले कर दी हो।”

“तुम लियू पर निगाह रखो। वह किसी भी हालत में निगाहों से ओझल न हो सके।” देवराज चौहान ने अपने शब्दों पर जोर दिया –“सब को भूल कर सिर्फ लियू पर ध्यान दो।”

“लेकिन वह चीनी–।” जगमोहन ने कहना चाहा।

“उसे एकदम छेड़ना ठीक नहीं होगा। तुम लियू पर निगाह रखो। देखो कि वह कब-कब लियू से मिलता है। जरूरत पड़ी तो रात को उस चीनी व्यक्ति से बात करेंगे।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई –“मुझे पूरा विश्वास है कि लियू आज दिन में किसी से अवश्य मिलेगी। या फिर कोई लियू से मिलेगा क्योंकि लियू जानती है कि उसके पीछे वानखेड़े है सी.बी.आई. के एजेंट हैं। ऐसे में वह बेकार में कहीं रुककर, अपना वक्त खराब नहीं करेगी। वह यहां रुकी है तो इसकी अवश्य कोई खास वजह होगी।”

“मेरे ख्याल में जो माइक्रोफिल्म वह मुम्बई में छोड़ आई है। उसके आने का इन्तजार होगा।”

“कुछ भी हो सकता है।”

“वह फिल्म अगर लियू के हाथ में आ गई तो फिर लियू का अगला कदम क्या होगा?” जगमोहन ने पूछा।

“तब लियू हिन्दुस्तान से निकलने की कोशिश करेगी। और हमने उससे हर हाल में फिल्म हासिल करनी है।” कहते हुए देवराज चौहान की आवाज में सख्ती और चेहरे पर कठोरता नजर आने लगी थी –“उस फिल्म को लियू ने हमारे हाथों से छीना है। ऐसे में उसका दिया बोझ में ज्यादा देर कंधों पर नहीं रख सकता। जल्दी ही बोझ उतारना है हमें।”

“उतर जायेगा।” जगमोहन गहरी सांस लेकर बड़बड़ा उठा।

☐☐☐

जुगल किशोर नौ बजे ग्रीन होटल पहुंचा। रिसेप्शन से लियू के कमरे के बारे में जानकारी ली और पहुंच गया वहीं । दरवाजा थपथपाने पर लियू ने दरवाजा खोला।

वह नहा-धोकर हटी थी। चेहरे पर और भी निखार और ताजगी आ गई थी। बदन पर नाइट सूट था जो शरीर के उभारों को और भी उभार रहा था।

जुगल किशोर उसे सिर से पांव तक देखता ही रह गया।

इसे मैं क्या अपना हिन्दुस्तान घुमाऊंगा। यह तो मुझे ही अपना नेपाल घुमा देगी।

“क्या देख रहे हो?”

जुगल किशोर सोचों से निकला और बेहद मीठी मुस्कान के साथ कह उठा।

“प्लेन में मैं नहीं पहचान पाया था कि जिसका मैं गाईड बना हूं वह इतनी खूबसूरत है।”

“अब मालूम हो गया।” लियू हौले से हंसी।

“हां। लेकिन पूरी तरह नहीं।” कहते हुए जुगल किशोर भीतर आ गया।

लियू ने दरवाजा बंद करते हुए मुस्करा कर कहा।

“पूरी तरह कब मालूम होगा?”

“जब तुम्हारी मेहरबानी होगी।” कहते हुए जुगल किशोर ने लम्बी सांस ली।

“मेरी मेहरबानी?”

“हां।” जुगल किशोर ने उसकी आंखों में देखा।

“ओह । डियर जुगल । तुम बहुत शरारती हो।” लियू इठला कर कह उठी।

मेरी शरारतें तूने देखी ही कहां हैं। एक बार जो देख लेता है, दोबारा मेरी तरफ मुंह नहीं करता।

“उन बदमाशों का क्या हुआ, जो मेरे पीछे थे।” लियू ने पूछा।

“होना क्या है।” जुगल किशोर कुर्सी पर बैठता हुआ लापरवाही से बोला –“वह तो मेरे लिए मामूली सा काम था। तुम्हारे लिए तो मैं बड़े से बड़ा काम भी कर सकता हूं।”

“सच?” लियू के होंठों पर मुस्कान थी।

“कहो तो दिल खोलकर दिखा दूं।”

"नहीं-नहीं। इतना ही बहुत है।” लियू हंसी –“यह बताओ, हिन्दुस्तान में मुझे क्या-क्या दिखाओगे?”

“जो कुछ तुम देखना चाहो। अपनी पसंद बोलो।”

“ठीक है।” लियू ने कहा –“मैं आज का दिन सोचकर बताती हूँ।”

जुगल किशोर की छिपी निगाह लियू के बैग की तरफ गई।

यह इसका बैग है तो रोकड़ा इसमें होना चाहिये। मौका मिलने दे, सब साफ हो जायेगा।

“यह कमरा तुमने पहले से ही ले रखा था लियू डियर?” जुगल किशोर ने पूछा।

“तुम्हें कैसे मालूम?”

“तुम यह भूल रही हो कि मैं पेशे से जासूस हूं।” मुस्करा कर कहते हुए जुगल किशोर ने लियू को देखा फिर कान की लौ मसली –“फिर भी तुम्हें बता देता हूं कि मुझे कैसे मालूम हुआ। रिसेप्शन से जब तुम्हारे बारे में मालूम किया तो जवाब मिला कमरा तो कल से ही बुक है। लेकिन मैडम सुबह ही आई हैं।”

लियू मुस्कराई। आगे बढ़कर जुगल किशोर के सामने जा बैठी। थोड़ा सा आगे झुकी तो नाइट सूट का नजारा जुगल किशोर की आंख के सामने आ गया।

दिखाती है। दिखा ले। मेरे बाप का क्या जाता है, देखने में।

“ऐ।” लियू ने आंखें नचाकर शरारती स्वर में कहा –“क्या देख रहे हो?”

“जो तुम दिखा रही हो।”

“क्या?” लियू फौरन पीछे हो गई –“मैं क्या दिखा रही थी।”

“जो मुझे नजर आ रहा था।”

“तुम तो हद से ज्यादा शरारती हो।” लियू मुंह फुलाकर कह उठी।

साली, अब नखरेबाजी दिखाती है। लेकिन यह तो औरतों की अदा है। पहले दिखाया फिर पीछे लगवा लिया। न–न कहते-कहते, वाह-वाह हो जाती है।

“मैं नहा कर आता हूं फिर –।” जुगल किशोर उठ खड़ा हुआ।

“फिर?” लियू ने प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखा।

“फिर का, फिर बताऊंगा।” जुगल किशोर ने आगे बढ़कर उसका नाक पकड़ा। प्यार से हिलाया और सामने नजर आ रहे बाथरूम की तरफ बढ़ गया।

लियू उसे तब तक देखती रही, जब तक कि उसने बाथरूम में प्रवेश करके दरवाजा बंद नहीं कर लिया। जब भीतर से पानी गिरने की आवाज आने लगी तो लियू उठकर फोन के पास पहुंची। रिसीवर उठाकर नम्बर मिलाने लगी। चेहरे पर सोच के भाव थे।

ठीक तभी बाथरूम का जरा सा दरवाजा खुला। झिर्री में आंख लगाकर, जुगल किशोर ने देखा। लियू को फोन पर बात करते पाकर, झिर्री में लगी उसकी आंख सिकुड़ी। यह तो नेपाल से घूमने आई है। पर्यटक है। इसकी कोई पहचान वाला नहीं। तभी तो उसे साथ लिया है। अब किससे बात कर रही है। पहचान वाला इतनी जल्दी कहां से पैदा हो गया? लियू फोन पर इतने धीमे स्वर में बात कर रही थी कि, उसके शब्द जुगल किशोर को सुनाई नहीं दे रहे थे। मुझे क्या जिससे भी बात करे। बड़बड़ाते हुए जुगल किशोर की निगाह बैग की तरफ गई फिर दरवाजा बंद कर लिया।

“हैलो।” लाइन मिलते ही लियू फुसफुसाते स्वर में कह उठी –“मैं दिल्ली पहुंच गई हूं।”

“कोई दिक्कत आई?” दूसरी तरफ से आने वाली आवाज कानों में पड़ी।

“खास नहीं। वानखेड़े और उसके साथी मेरे पीछे थे। लेकिन प्लेन में एक आदमी मेरा दोस्त बन गया। उस ने मुझे उन लोगों से छुटकारा दिला दिया। वह मुम्बई में प्राइवेट जासूस है।”

“ऐसे किसी इंसान को तुम्हें अपने पास नहीं रखना चाहिये।”

“मुझे मालूम है किसे साथ रखना है और किसे नहीं। सलाह नहीं मांगी मैंने।” लियू की आवाज तीखी हो गई –“इस मिशन की मैं इंचार्ज हूं। इस बात को अपने दिमाग में रखो।”

“जो मर्जी करो। यह बताओ। सामान कब लेना है?”

“अभी नहीं। पहले मुझे पूरी तरह तसल्ली हो जाये कि वानखेड़े मेरे पीछे नहीं है। मैंने अभी बाहर जाकर चेक नहीं किया है। इस बारे में दोपहर बाद फोन करूंगी।”

“ठीक है। मैं हर वक्त फोन पर ही मिलूंगा।”

लियू ने रिसीवर रख दिया। वापस आकर कुर्सी पर बैठी। इस वक्त वह दिमागी तौर पर तनाव से कोसों दूर थी कि अब खास खतरे वाली कोई बात बाकी नहीं रही है। वानखेड़े की वजह से दिक्कत आने के चांसेज थे लेकिन अब शायद उससे भी पीछा छूट गया है। सिर्फ एक बात बाकी रही थी। देवराज चौहान से मिलकर, उसे चीन के लिए काम करने को कहना। परन्तु इस वक्त ऐसे हालातों में थी कि देवराज चौहान को ढूंढने में वक्त खराब नहीं कर सकती थी। मन ही मन यही तय किया कि दोबारा जब हिन्दुस्तान आना हुआ तो तब देवराज चौहान को तलाश करके, उससे बात करेगी।

☐☐☐

जगमोहन ने कमरे में प्रवेश किया तो देवराज चौहान उसके चेहरे के भाव देखकर चौंका।

“क्या हुआ?”

“वो चिपकू फिर आ गया है।”

देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े। उसने हौले से सिर हिलाया।

“वह साला एक नम्बर का हरामी है।” जगमोहन ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा –“जो इंसान हमारे काम में दखल दे सकता है। वह कैसा हो सकता है। तुम खुद ही –।”

“मैंने कब कहा है कि वह शरीफ इंसान है।” देवराज चौहान नेसोच भरे अन्दाज में सिर हिलाया।

“चिपकू का फिर, लियू से आ चिपकना, इस तरफ इशारा करता है कि उन दोनों में कोई खास बात है। कोई बड़ी बात नहीं कि वह लियू का साथी हो।”

“नहीं।” देवराज चौहान ने फौरन सिर हिलाया –“वह लियू का साथी नहीं है।”

“साथी नहीं है तो फिर यूं ही लियू से चिपका जा रहा है। और लियू इस वक्त जिस मामले में हाथ डाले बैठी है। ऐसे में वह किसी बाहरी इंसान को अपने साथ नहीं रख सकती।”

“ऐसा कुछ नहीं है, जैसा कि तुम सोच रहे हो।” देवराज चौहान ने कहा –“उस इंसान ने प्लेन में अपने किसी मतलब की खातिर दोस्ती की है। और लियू ने अपने मतलब के लिए उसे साथ रख लिया कि जिन हालातों में वह फंसी है, उसमें वह उसकी सहायता कर सकता है। तभी तो उसने लियू के कहने पर पीछे आते वानखेड़े और उसके साथियों को अटका दिया कि वह लियू के पीछे न जा सके और यह काम निपटाकर वह फिर वापस लियू के पास आ गया।”

“तुम्हारा मतलब कि लियू उसे अनजाने में इस्तेमाल कर रही है।” जगमोहन के होंठों से निकला।

“हां। अभी तक तो यही अंदाजा लगता है।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा –“लेकिन यह आदमी जो कोई भी है। इसका फायदा हम उठा सकते हैं।”

“कैसे?”

“माइक्रोफिल्म लियू के पास नहीं है अभी। लेकिन किसी भी वक्त उसके पास पहुंच सकती है। किसी भी ढंग से पहुंच सकती है। हो सकता है हमें इस बात की हवा भी न लगे। क्योंकि माइक्रोफिल्म जैसी छोटी सी चीज का लेन-देन कभी भी हो सकता है और मैं लियू पर तब हाथ डालना चाहता हूं जब वह फिल्म उसके पास हो। मैं एक ही वार लियू पर करना चाहता हूं कि जिसमें हमें सफलता मिले और वो जो लियू के साथ है। इस बात की खबर वह हमें दे सकता है।”

“लेकिन वह हमें खबर क्यों देगा?”

“देगा। रिवॉल्वर के डर से हमारा साथ देगा। नोटों के लालच में हमारा साथ देगा। जैसे भी हो वह हमारा साथ देगा। तुम कोई ऐसा मौका तलाशों कि जिससे, उससे बात की जा सके।” कहते हुए देवराज चौहान के होंठों में कसाव आ गया था।

☐☐☐

जुगल किशोर नहा कर जब बाहर निकला तो लियू को नाइट सूट की अपेक्षा बाहर जाने वाले कपड़ों में देखा तो कह उठा।

“कहीं बाहर जा रही हो?”

“यूं ही जरा रिसेप्शन तक।” लियू ने कहा जबकि उसका इरादा पांच-दस किलोमीटर का चक्कर लगाकर यह देखना था कि वानखेड़े से उसका पीछा छूट गया है या नहीं।

जुगल किशोर की छिपी निगाह लियू के बैग की तरफ बढ़ गई।

“कोई खास काम है?”

“नहीं। आधे घंटे तक लौट आऊंगी।”

जुगल किशोर समझ गया कि लियू होटल से बाहर जा रही है। ऐसे में बैग को अच्छी तरह देख सकता था। उसमें से कुछ मिला तो लेकर खिसक सकता था।

“ठीक है।” जुगल किशोर बेड की तरफ बढ़ता हुआ बोला –“तुम हो आओ। मैं कुछ देर आराम कर लेता हूं। उसके बाद ब्रेकफास्ट एक साथ करेंगे। लेकिन जरा जल्दी आना।”

“क्यों?”

जुगल किशोर ने उसे सिर से पांव तक देखा।

लियू ने उसकी नजरों को पहचाना।

“समझ गई?” जुगल किशोर मुस्कराया।

“शरारती कहीं के –।” कहकर हंसते हुए लियू आगे बढ़ी और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई। वह सोच रही थी कि जुगल किशोर को बेवकूफ बनाकर, अपने साथ रखा है और जुगल किशोर सोच रहा था कि उसे अपनी बातों में फंसाकर, उसके साथ रह रहा है।

अपनी-अपनी जगह दोनों के मतलब हल हो रहे थे।

लियू के बाहर निकल जाने के बाद, जुगल किशोर धड़कते दिल के साथ दरवाजे को देखता रहा। बहुत बढ़िया मौका मिल गया था उसे, अगर बैग में माल पानी है तो? जब दो-चार मिनट बीत गये। तो जुगल किशोर आगे बढ़ा दरवाजे से बाहर देखा। लियू कहीं नहीं थी। फिर दरवाजा बंद करके सिटकनी लगा दी और झपट्टा मारने वाले अंदाज में बैग की तरफ बढ़ा।

जुगल किशोर ने बिना सांस लिए बैग को खोला और बैग का सामान बाहर निकालकर रखने लगा। पहले कपड़े निकले। उसके बाद कैमरा। फिर उसके हाथ की उंगलियां नोटों की गड्डियों से टकराईं। जुगल किशोर का दिल धड़क उठा। एक-दो-चार-पांच। सौ-सौ के नोटों की पूरी पांच गड्डियां।

पचास हजार रुपया।

जुगल किशोर का मन किया कि खुशी से वाह-वाह लियू करने लगे। उसे अपनी पैंतीस हजारी याद आने लगी कि इस वक्त वह होटल के बाहर खड़ी होती तो उसमें सवार होकर उड़न छू हो जाता। खैर कोई बात नहीं। इस वक्त टैक्सी ही किराये पर ले लेगा। उसने तो दस-पन्द्रह हजार का हाथ सोचा था कि इतना माल मिल सकता है। पूरे पचास हजार पल्ले पड़ने की तो उसने सोचा भी नहीं था।

जरा सी मेहनत और पूरा पचास हजार।

जुगल किशोर ने कैमरे को देखा। जांचा-परखा। मेड इन चाईना की मुहर थी। बढ़िया क्वालिटी का था। सात-आठ हजार में तो बिक ही जायेगा।

जुगल किशोर ने कैमरा भी ले जाने की सोची।

उसने इधर-उधर निगाह मारी। कोई लिफाफा या ऐसा ही कुछ, जिसमें गड्डियां डाल कर ले जा सके। कैमरे की तो कोई दिक्कत नहीं थी। गले में लटका कर चल पड़ना था।

तभी दरवाजे पर थपथपाहट पड़ी।

जुगल किशोर को अपना सपनों का महल धराशाही होता लगा।

उसने सकपकाकर दरवाजे की तरफ देखा। आधे घंटे बाद लौट के आने को कहा था। पहले आ गई। ठगा सा जुगल किशोर कई पलों तक वहीं का वही रह गया। समझ में नहीं आया कि अपना सिर पीटे या क्या करे?

थपथपाहट पुनः हुई।

“गई भैंस पानी में।” जुगल किशोर बड़बड़ाया और फुर्ती के साथ नोटों की गड्डियां, कैमरा और कपड़े वैसे ही बैग में रखने लगा। जैसे कि पहले रखे हुए थे।

इन सारे काम में फुर्सत पाकर उखड़े चेहरे को किसी तरह सामान्य किया था। उस पर जबरदस्ती की मीठी मुस्कान थोपी और आगे बढ़कर दरवाजा खोला।

लेकिन सामने लियू के बदले जगमोहन को खड़ा पाकर चेहरे पर उखड़ेपन के भाव उभरे।

“जब चाय-पानी का आर्डर देना होगा। रूम सर्विस को दे दूंगा। जाओ यहां से।” जुगल किशोर ने मुंह बनाकर कहा।

“उल्लू के पट्ठे।” जगमोहन कड़वे स्वर में कह उठा –“मैं तेरे को वेटर नजर आता हूं।”

उसके अन्दाज पर जुगल किशोर दो पल के लिए सकपकाया।

“क्या है?” जुगल किशोर के माथे पर बल पड़े।

जगमोहन ने हाथ बढ़ाकर उसे कमीज के कॉलर को पकड़कर बाहर खींचा।

“यह क्या-क्या कर रहे हो। मैं तुम्हारी रिपोर्ट।”

“चुप।” जगमोहन ने दांत भींचकर कहा। कमीज का कॉलर अभी भी पकड़े हुए था –“दरवाजा बंद कर।”

जुगल किशोर इस नई मुसीबत को समझ नहीं पाया। अच्छा भला उसका काम हो गया था। वह तो नोटों और कैमरे के साथ खिसकने ही वाला था कि यह क्या हो गया।

जुगल किशोर ने जल्दी से दरवाजा बंद किया।

जगमोहन उसकी कमीज का कॉलर पकड़े आगे बढ़ा।

“तुम्हें जरा भी तमीज नहीं कि शरीफ इंसान से कैसे बात की जाती है।” जुगल किशोर गुस्से से कह उठा –“कम से कम ढंग से तो पेश आओ। बात तो बताओ कि मैंने तुम्हारा क्या कर डाला है। क्यों खामख्वाह मुझ पर चढ़े जा रहे हो। मुझे ज्यादा गुस्सा दिलाया तो –।”

तभी जगमोहन ने रिवॉल्वर निकाली और सामने कर दी।

रिवॉल्वर को देखते ही जुगल किशोर के होंठ बंद हो गये।

“समझ गया।” जगमोहन जहर भरे स्वर में बोला।

“हां। पूरा समझ गया।” जुगल किशोर ने गहरी सांस लेकर सिर हिलाया –“सब कुछ समझ गया। सिर्फ इतना समझा दे कि मेरा इतना सेवा-सत्कार क्यों किया जा रहा है। मैंने तो तेरी कोई सेवा नहीं की।”

“अभी मालूम हो जायेगा।” जगमोहन रिवॉल्वर वापस जेब में रखते बोला –“तब तक जुबान बंद रख। मुंह बंद रख। हाथ-पांवों को फालतू का हिलाना बंद कर दे।”

जुगल किशोर समझ गया कि भागने का कोई रास्ता नहीं।

जगमोहन ने उसकी कमीज का कॉलर छोड़ा तो उसने कॉलर ठीक किया। जगमोहन के साथ चलता हुआ, जुगल किशोर एक कमरे के बंद दरवाजे पर जा रुका।

“दरवाजा खोल और चल अन्दर।”

“यह।” जुगल किशोर ने दरवाजे पर नजर मारी –“अपना ही है ना। किसी और का –।”

“चल साले चिपकू।” होंठ भींचे कहते हुए जगमोहन ने हाथ बढ़ाकर दरवाजा खोला। जुगल किशोर को भीतर धकेला और खुद भी भीतर आकर दरवाजा बंद कर लिया।

उलझन में फंसे जुगल किशोर ने तीखे स्वर में कुछ कहने के लिए मुंह खोला कि उसका मुंह फौरन बंद हो गया। आंखें हैरानी से फैलती चली गई। वह हक्का-बक्का सा खड़ा का खड़ा रह गया। नजरें सामने कुर्सी पर बैठे देवराज चौहान पर टिक चुकी थी।

☐☐☐

“तु–तुम।” जुगल किशोर के होंठों से निकला –“दे–देवराज चौहान।”

उसे शांत निगाहों से देखते हौले से सिर हिलाया देवराज चौहान ने।

“तो पहचान लिया एक ही बार में।” जगमोहन व्यंग्य से कह उठा।

जुगल किशोर ने जगमोहन को देखा।

“मैंने तुम्हें भी पहचान लिया है। तुम जगमोहन हो। एक बार देखा था तुम्हें। अब पहचान गया।”

“वाह बेटा चिपकू। डण्डा घूमा तो फटाफट पहचानने लगा।” जगमोहन की आवाज में कड़वापन था।

देवराज चौहान और जगमोहन के बीच खुद को फंसा पाकर,जुगल किशोर सकपकाया हुआ था।

“भाई लोगों।” जुगल किशोर दोनों को देखकर, मुंह लटकाकर कह उठा –“अगर मुझसे कोई गलती हुई है तो मैं तुम दोनों के पांवों में पड़कर, माफी मांग लेता हूं। नहीं गलती हुई तो, तब भी हाथ जोड़कर माफी मांग लेता हूं। मैं तो छोटी मछली हूं। आप जैसे बड़ों से मेरा क्या मुकाबला। मैं तो –।”

“चुप हो जा।” जगमोहन उसे घूरता हुआ बोला।

जुगल किशोर खामोश होकर जगमोहन को देखने लगा। ऐसे किसी मौके पर देवराज चौहान और जगमोहन से मुलाकात होगी, यह तो उसने सोचा भी नहीं था। साथ-ही-साथ उसे पचास हजार की गड्डियां याद आ रही थी, जिन्हें लियू के बैग में वापस रख आया था।

“तेरे को एक बार तो बच्चा समझकर छोड़ दिया।” जगमोहन उसे दबाने वाले स्वर में कह उठा –“लेकिन तू क्या समझता है कि हर बार तेरे को छोड़ते ही रहेंगे।”

“बच्चा समझकर।” जुगल किशोर के होंठों से निकला।

“नहीं तो और क्या है। बोल –।”

“तुमने ठीक कहा। मैं बच्चा हूं छोटा सा बच्चा।” जुगल किशोर सिर हिलाकर कह उठा –“माना कि पहली बार तो मुझसे अनजाने में गलती हुई तो जो आप लोगों के काम के बीच आ गया। लेकिन इस बार मुझसे क्या खता हो गई। अगर गलती से आपके किसी काम में, इस बार भी आ गया हूं तो।”

“गलती से। तेरे को हर बार गलती से हम छोड़ते ही रहेंगे।”

“लेकिन मेरे से हुआ क्या?”

“तू लियू के साथ क्यों चिपका?” जगमोहन ने फाड़ खाने वाले अन्दाज में कहा।

“मैंने तो उससे इसलिए यारी गांठी कि मौका मिलते ही उससे जो माल-पानी मिलेगा। लेकर चलता बनूंगा। जब तुम आये तब उसके बैग में पड़े पचास हजार और कैमरा हाथ लगा था। वह लेकर जाने ही वाला था कि तुम आ गये। लियू, साहब लोगों का सामान है तो मैं पीछे हट जाता हूं।”

“बहुत बोलता है तू।”

जुगल किशोर कुछ नहीं बोला।

“कौन है लियू। जानता है उसे?”

“लियू खूबसूरत लड़की है। नाम आप जानते ही हैं। नेपाल से हिन्दुस्तान घूमने आई है और मैंने अपना परिचय उसे प्राइवेट जासूस बनकर दिया, जो अपने काम से इतना थक गया है कि कुछ दिन आराम से बिताने निकला है। उसे हिन्दुस्तान घुमाने के लिए, मैंने उसके सामने उसका गाईड बनने की ऑफर रखी और वह मान गई। और मैं बता ही चुका हूं कि मेरा इरादा उसका रोकड़ा लेकर खिसक जाने का था और खिसक भी रहा था। अब आगे जैसे आप लोगों का हुक्म हो। यह छोटी सी कहानी है।”

“ऐसे ही काम करता है तू?”

“हां। यही छोटा-मोटा मेरा धंधा है कुछ नांवा पीटकर गुजारा चला लेता हूं। जहां हाथ मारने का मौका मिलता है। हाथ मार लेता हूं। जहां मुंह मारने का मौका मिलता है, मुंह मार लेता हूं। सीधा-सादा इंसान हूं। ज्यादा पाने की कभी सोचता ही नहीं।”

“नाम क्या है तेरा चिपकू।”

“जुगल किशोर।”

“पुलिस ने कितनी बार पकड़ा है तुझे?”

“मेरे सीधे-सादे धंधे में पुलिस का क्या काम। उन्हें तो आप जैसे बड़े कामों से फुर्सत मिले तो वह मुझे देखे।”

“चुप।”

“जो हुक्म।” जुगल किशोर इन बातों के दौरान उलझन में था कि देवराज चौहान और जगमोहन जैसे लोग उससे चाहते क्या हैं। भला लियू जैसी सीधी-सादी युवती से इन लोगों को क्या लेना-देना?

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।

“मेरे लिए।” उन्हें खामोश पाकर जुगल किशोर बोला –“कोई हुक्म। कोई सेवा?”

“मैं तो तेरे को गोली मारना चाहता हूं।” जगमोहन सख्त स्वर में कह उठा।

“यह तो ज्यादती होगी। क्योंकि मैं अपनी हर गलती मानने को तैयार हूं।” जुगल किशोर जल्दी से बोला।

“उधर बात कर।” जगमोहन ने देवराज चौहान की तरफ इशारा किया।

जुगल किशोर ने देवराज चौहान को देखा और हाथ जोड़ दिए।

“हुकम?”

“आराम से बैठ जाओ।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा –“घबराने की कोई जरूरत नहीं।”

जुगल किशोर जल्दी से कुर्सी पर बैठ गया।

“लियू के बारे में क्या जानते हो?”

“बताया तो, वह नेपाल से घूमने आई है और –।”

“इसका मतलब नहीं जानते।” देवराज चौहान ने कश लिया।

“नहीं जानता?” जुगल किशोर ने देवराज चौहान को देखा –“क्या कुछ और भी है जानने को?”

“सबसे पहले तो यह जान लो कि जो लोग लियू के पीछे थे, एयरपोर्ट के बाहर रास्ते में, जिनकी राह की रुकावट तुम बने, वह लोग सी.बी.आई. के अधिकारी थे।”

“सी.बी.आई.?” जुगल किशोर सकपकाया।

“हाँ।”

“लेकिन लियू ने तो कहा था कि वे लोग बदमाश हैं। उसके पीछे पड़े हैं।” जुगल किशोर के होंठों से निकला।

“इस वक्त जो मैं कह रहा हूं सिर्फ वही सुनो, वही सच है। बाकी सब झूठ है।” देवराज चौहान बोला।

जुगल किशोर ने सिर हिला दिया। अब तक वह इतना तो समझ गया था कि मामला खास है। खास न होता तो यह लोग या वो सी.बी.आई. के अधिकारी इस मामले में न होते।

“हिन्दुस्तान के बारे में, जहां तुम पैदा हुए हो। देश के बारे में क्या ख्यालात हैं तुम्हारे? देश से वास्ता रखता कोई काम तुम्हारे सामने आये तो, तुम क्या करोगे?” देवराज चौहान ने पूछा।

“मुझे क्या लेना-देना हिन्दुस्तान–पाकिस्तान से।” जुगल किशोर कह उठा –“छोटा सा ठग हूं। घटिया सा धंधा है मेरा। किसी तरह पेट पाल लेता हूं। मेरे जैसे लोगों के लिए तो हर देश, एक जैसा है।”

जगमोहन मुंह बनाकर रह गया।

देवराज चौहान के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी।

“अगर तुम्हें मालूम हो कि लियू बाहरी देश की जासूस है और हिन्दुस्तान की कोई महत्वपूर्ण चीज चुरा कर ले जा रही हो तो तुम क्या करोगे?” देवराज चौहान ने पूछा।

“मैं फौरन उसकी गर्दन थाम लूंगा और बोलूंगा आधा हिस्सा मेरा नहीं तो तेरे को फंसा दूंगा।” जुगल किशोर ने ढीठता से कहा।

“देख ली इसकी नस्ल।” जगमोहन ने तीखे अन्दाज में, देवराज चौहान से कहा।

देवराज चौहान ने सिर हिलाकर कश लिया।

“लियू हकीकत में चीनी है। चीनी जासूस है। हिन्दुस्तान में से वह, हिन्दुस्तानी वैज्ञानिकों का बेहद खास फार्मूला चोरी करके चीन ले जा रही है। सी.बी.आई. वाले उसके पीछे थे। लेकिन उनके रास्ते में तुम आ गये। लियू ने तुम्हें इसलिए साथ रखा कि मौके-बे-मौके पर उसके काम आ सको। जब तक कि वह हिन्दुस्तान से निकल नहीं जाती।”

यह सब सुनकर जुगल किशोर का दिमाग तेजी से चल रहा था।

“सच्चाई तुम्हें मालूम हो गई है। यहां से बाहर जाकर अब क्या करोगे?”

“मैं सीधा लियू के कमरे में जाऊंगा। अगर वह नहीं लौटी होगी तो उसके बैग में पड़े पचास हजार लेकर चलता बनूंगा। अगर वह कमरे में हुई तो नोट पार करने के मौके की तलाश में रहूंगा।”

“चिकना घड़ा है। जितना भी पानी डालो। ठहरेगा नहीं।” जगमोहन कड़वे स्वर में कह उठा।

“मतलब कि तुम्हें सिर्फ नोटों से मतलब है। लियू कौन है। क्या है, तुम्हें कोई मतलब नहीं।”

“सच बात तो यह है कि ठग को सिर्फ ठगी से, नोटों से, माल से मतलब होता है। कौन चीन का है। कौन हिन्दुस्तान का है। मेरे पेट को इससे क्या वास्ता।” जुगल किशोर ने देवराज चौहान को देखा

देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभरी।

“मैंने तुम्हें अच्छी तरह पढ़ लिया है जुगल किशोर।” देवराज चौहान बोला।

“क्या पढ़ा?”

“कि तुम पक्के मक्कार हो। मौके से चूकना तो जानते नहीं।” देवराज चौहान ने कहा।

जुगल किशोर सकपका कर जगमोहन को देखने लगा।

“लियू के यहां से तुम्हारे हाथ कितने पैसे लग सकते हैं?”

“पचास हजार।” जुगल किशोर ने फौरन कहा।

“मैं तुम्हें लाख दूंगा।”

“लाख ज्यादा है। यह इक्यावन हजार में ही मान जायेगा।” जगमोहन जल्दी से कह उठा।

देवराज चौहान ने जगमोहन की बात पर ध्यान न देकर जुगल किशोर से कहा।

“बोलो, एक लाख ठीक रहेंगे।”

“ठीक क्या, बढ़िया रहेंगे। लेकिन लाख रुपया मुझे क्यों दे रहे हो।” जुगल किशोर समझ गया कि वह अब किसी नई मुसीबत में फंसने जा रहा है।

“लियू ने हिन्दुस्तान से निकलना है।” देवराज चौहान बोला –“इस दौरान वह कहीं से एक माइक्रोफिल्म हासिल करेगी। कोई उसे देगा। जब उसे फिल्म मिल जाये तो तुमने हमें फौरन खबर करनी है। हम इसी तरह साथ-साथ रहेंगे। वक्त रहते खबर दोगे तो लाख के हकदार बन जाओगे।”

जुगल किशोर को लगा जैसे मुसीबत उसके गले में पड़ गई है।

“लेकिन मैं इस तरह के काम नहीं करता।” जुगल किशोर के होंठों से निकला।

“जल्दबाजी में जवाब मत दो, क्योंकि यह काम तो तुम्हें हर हाल में करना ही पड़ेगा।”

देवराज चौहान के शब्दों में छिपी धमकी को, जुगल किशोर ने साफ-साफ पहचाना।

“ठीक है।” जुगल किशोर गहरी सांस लेकर कह उठा –“तुम्हें इंकार भी तो नहीं कर सकता।”

“चाहो तो दो लाख के हकदार भी बन सकते हो।”

“दो लाख।” जगमोहन हड़बड़ा कर कह उठा –“यह तुम्हें दो लाख का बन्दा लगता है।”

“मैं तो कई लाख का बंदा हूं।” जुगल किशोर कह उठा।

“तू–।”

“हां–मैं–।”

“मुझे तो किसी भी तरफ से नजर नहीं आता।”

“किसी हसीना से पूछ, जो मेरे पर फिदा हो।”

जगमोहन तीखे स्वर में कुछ कहने ही वाला था कि देवराज चौहान कह उठा।

“अगर वह माइक्रोफिल्म आसानी से तुम्हारे हाथ लग जाये तो लाकर हमें दे देना। तुम्हें दो लाख मिल जायेंगे। लेकिन पैसे के लालच में ऐसी कोई हरकत मत कर बैठना कि लियू को तुम पर किसी तरह का शक हो जाये। तुम्हारी वजह से खेल बिगड़ा तो मैं तुम्हारी गर्दन तोड़ दूंगा।”

जुगल किशोर का हाथ खुद-ब-खुद ही अपनी गर्दन पर पहुंच गया।

“जितना काम कहा जाये, तुम्हें उतना ही करना है।” देवराज चौहान ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा –“इस बात को अपने दिमाग में रखोगे तो सुखी रहोगे कि अब तुम जो काम कर रहे हो अपने लिए नहीं। मेरे लिए कर रहे हो।”

“समझ गया। सब कुछ समझ गया।”

“अब तुम लियू के पास मौजूद पचास हजार की तरफ ध्यान नहीं दोगे। बल्कि उसकी हरकतों पर नजर रखोगे। इस बात की टोह में रहोगे कि, तुम्हें माइक्रोफिल्म के बारे में कोई जानकारी मिले।”

जुगल किशोर ने गहरी सांस लेकर सिर हिला दिया।

“कुछ पूछना है तुम्हें?” उसके चेहरे के भावों को देखकर देवराज चौहान ने कहा।

“हां। अगर तुम्हें एतराज न हो तो।”

“अगर बात इस मामले से वास्ता रखती है तो बेहिचक पूछ सकते हो।”

“तुम बता रहे थे कि लियू चीनी जासूस है और हिन्दुस्तान से फार्मूला लेकर चीन भाग रही है। मतलब कि उस माइक्रोफिल्म में वह फार्मूला है।” जुगल किशोर बोला।

“देखो तो पट्ठे को। एक ही बार में पूरी रामायण याद हो गई।” जगमोहन मुंह बनाकर कह उठा।

देवराज चौहान, जुगल किशोर को देखता रहा।

जुगल किशोर ने जगमोहन पर नजर मारी फिर देवराज चौहान को देखा।

“तुम लोगों को उस फार्मूले से, माइक्रोफिल्म से, चीनी जासूस से क्या मतलब?”

“साले।” जगमोहन ने गुस्से से कहना चाहा लेकिन देवराज चौहान के इशारे पर खामोश हो गया।

“यह बात तुम्हें इसलिए बतानी पड़ रही है कि, तुम सारा काम आराम से करो। तुम्हारे दिमाग में उलझन न रहे। जिस तरह तुम पैसे के लिए काम करते हो। उसी तरह हम भी पैसे के लिए काम करते हैं और इस बार, सरकार के लिए काम कर रहे हैं।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

“सरकार के लिए?” जुगल किशोर के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।

“हाँ।”

“पैसे लेकर?”

“हां।”

“अब यह मत पूछने लग जाना कि कितने पैसे लेकर हम काम कर रहे हैं।” जगमोहन तीखे स्वर में बोला।

“सच कह रहे हो?” जुगल किशोर की आवाज में शंका थी।

“हां। जिन सी.बी.आई. वालों को तुमने लियू के पीछे से भटका दिया। वह, हमारे साथ मिलकर ही, लियू से उस माइक्रोफिल्म को पाने की फिराक में थे। लेकिन दिखावे के तौर पर सी.बी.आई. वालों से हमारा कोई वास्ता नहीं था, इसलिए लियू हमें नहीं पहचान पाई।

“ठीक है। वह सी.बी.आई. वाले मिल जायें तो यह बात उनसे पूछ सकता हूं। कोई एतराज?”

“कोई एतराज नहीं।” देवराज चौहान मुस्कराया।

“बहुत पूछताछ हो गई। अब काम पर लग जा।” जगमोहन कह उठा।

“लियू तुम लोगों को जानती है क्या?” जुगल किशोर बोला।

“यह क्यों पूछ रहे हो?”

“वह प्लेन में मुझसे तुम्हारा अता-पता पूछ रही थी।”

“वह मुझे सिर्फ नाम से ही जानती है। एक बार इत्तेफाक से मुलाकात हो गई थी। लेकिन तब गहरा अंधेरा था। वह मेरे चेहरे को नहीं देख पाई थी। सिर्फ नाम ही जान पाई थी।”

जुगल किशोर का दिमाग तेजी से दौड़ रहा था। बात कुछ भी हो, लेकिन वह इस हकीकत से भी वाकिफ था कि देवराज चौहान के काम को इंकार करना ठीक नहीं। इंकार करके खिसक गया और फिर कभी देवराज चौहान के रास्ते में पड़ गया तो जिन्दा बचने वाला नहीं। इसलिए काम करने में, नखरे दिखाने का कोई फायदा नहीं। वैसे भी इंकार करके, बच पाना कठिन है। अब यह काम तो करना, ही होगा।

जुगल किशोर उठ खड़ा हुआ।

“मैं चलता हूं।”

“जाओ और जो कहा है। उस पर ध्यान दो। काम पूरा करके दिखाना।” देवराज चौहान की आवाज में कठोरता आ गई –“अपनी ठगी के हथकंडे मुझ पर इस्तेमाल करने की कोशिश मत करना। वरना –।”

“कैसी बातें करते हो।” जुगल किशोर जल्दी से कह उठा –“तुम्हारी हर बात सिर-माथे पर। नोटों की जो कमी थी, वह भी तुमने पूरी कर दी। फिर मैं तुमसे धोखेबाजी करने की सोच भी नहीं सकता।”

“मैं तो चाहता हूं तू सोचे। धोखेबाजी करे।” जगमोहन कड़वे स्वर में कह उठा।

“यार तू क्यों मेरे पीछे पड़ा है।” जुगल किशोर ने जगमोहन को देखा।

“तू हजारों का बंदा है। लाखों का सौदा हमसे करके, हमें ठग रहा है।”

“ऐसा मत कह। मैं लाखों का ही बंदा हूं।”

“साबित कर।”

“अबकी बार किसी मालदार, हसीन युवती को फांसूंगा तो तुम्हें याद कर लूंगा। तब तुम आकर देख लेना कि वह मुझ पर कैसे लाखों रुपया वारती है।”

“घटिया काम करता है।”

“अब मैं अपने मुंह से कैसे कहूं कि हम लोग जो भी काम करते हैं नोटों के लिए करते हैं। काम करने के ढंग-ढंग में फर्क है। तुम ऊपर से छलांग मारते हो, मैं नीचे से ऊपर को –।”

“बहुत फर्क है। तेरे जैसे ठग को यह बात समझ नहीं आयेगी। जा, जाकर चिपक।”

“क्या –किसको चिपकूं?”

“अबे चिपकू, लियू के पास जा। अपने काम की तरफ ध्यान दे।”

जुगल किशोर बाहर निकल गया।

“मुझे तो इस आदमी पर एक पैसे का भी विश्वास नहीं।” जगमोहन बोला।

“इस पर विश्वास करने के अलावा, हमारे पास और कोई रास्ता भी नहीं।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा –“यह लियू के करीब है और बहुत अच्छे ढंग से उस पर नजर रख सकता है। हमारे काम आ सकता है, अगर हमसे ही ठगी करने की कोशिश न करे।”

“करके तो देखे। ऐसा बुरा हाल करूंगा कि –।”

जुगल किशोर कमरे में पहुंचा। लियू अभी तक नहीं लौटी थी। बैग वैसे ही पड़ा था, जैसे वह छोड़ गया था। वह आगे बढ़ा और बेड पर जा लेटा। चेहरे पर गम्भीरता नाच रही थी। इस वक्त उसकी सारी सोचें देवराज चौहान और माइक्रोफिल्म पर थी।

जुगल किशोर को महसूस हो रहा था कि देवराज चौहान उसे बेवकूफ बना रहा है। माइक्रोफिल्म में वास्तव में फार्मूला था या फिर कीमती चीज है। छोटे काम में तो देवराज चौहान हाथ डालने से रहा। वह सी.बी.आई. वालों के लिए काम नहीं कर रहा। ऐसा कहकर उसे बेवकूफ बना रहा है। देवराज चौहान तो मोटे ही माल के चक्कर में है। उस माइक्रोफिल्म से वह बहुत बड़ी रकम कमा लेगा और उसे दे रहा है लाख दो, लाख?

जुगल किशोर का दिमाग अब ठगी की दिशा में दौड़ने लगा।

ऐसा क्या करे कि तगड़ी दौलत उसके हाथ लगे। देवराज चौहान से तो सौदेबाजी करने की हिम्मत उसमें नहीं थी। तो क्या लियू से बात करे। नहीं, ऐसी कोई गड़बड़ की तो देवराज चौहान उसे जिन्दा नहीं छोड़ेगा। तो फिर क्या करे? कौन सा रास्ता निकाले?

जुगल किशोर इन्हीं सोचों में उलझा रहा।

दस मिनट बाद ही लियू लौट आई। उसे देखते ही जुगल किशोर इस तरह बेड पर बैठ गया जैसे उसके सामने कोई खास डिश रखी जाने वाली हो।

“बहुत देर लगा दी?”

“देखने गई थी कि वह बदमाश लोग अभी भी मुझ पर नजर रख रहे हैं या नहीं?”

“तो क्या देखा?”

“पीछा छूट गया उनसे। यू आर ग्रेट जुगल डियर।”

“मालूम है। मैं हूं ही ग्रेट। यहां आ जाओ।” जुगल किशोर बेड थपथपा कर बोला।

“बेड पर?”

“हां।”

“क्यों?”

“जो ग्रेट होता है, उससे क्यों नहीं पूछते। सीधे-सीधे आ जाते हैं।”

लियू मुस्कराई।

जुगल किशोर समझ गया कि कोई इंकार नहीं। एतराज नहीं।

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