रंजन तिवारी पास आकर ठिठका और शांत भाव में मुस्कराकर बोला।

“आप लोगों ने पहचाना नहीं होगा। मैं -।”

“कमीना। ये ही है जो छिपकर हम लोगों की जान के पीछे।” सोहनलाल ने कहना चाहा।

“मैं वो नहीं हूँ सोहनलाल जी।”

“ओह! तू मेरा नाम भी जानता है।” कहने के साथ ही सोहनलाल ने दाँत भींचकर जेब से रिवॉल्वर निकाली और आगे बढ़कर नाल उसके पेट से लगा दी - “बता, स्टैपनी कहाँ है? उसमें पड़े हीरे कहाँ -।”

“सोहनलाल जी!” रंजन तिवारी ने शांत भाव में कहा - “अगर हीरे मेरे पास होते, मुझे मिल गये होते तो मैं आप लोगों के पास यहाँ पर क्यों मौजूद होता? मजे से कहीं बैठा, गुणगान कर रहा होता।”

“तुम।” सोहनलाल ने कहना चाहा।

“रहने दो सोहनलाल।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा - “इसका नाम रंजन तिवारी है। ये बीमा कम्पनी का जासूस है। कम्पनी के लिए इसे भी हीरों की तलाश है कि कम्पनी को बीमे की रकम केटली को न देनी पड़े।”

“ओह!” सोहनलाल के होंठ सिकुड़े। उसने रिवॉल्वर हटा ली।

“तुम जानते हो मुझे?” रंजन तिवारी ने अजीब-सी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

“ओमवीर को जब तुमने कागज पर टैम्पो वाले का गलत पता लिखकर दिया था, तो तब ओमवीर से मुझे तुम्हारा हुलिया नाम पूछने की जरूरत पड़ी थी।” देवराज चौहान की निगाह एकटक उस पर थी- “मैं ये नहीं जान सका कि तुम मुझ पर नज़र रख रहे हो।”

“मैं बंगले से ही तुम पर नज़र रख रहा हूँ। तुम लोगों की सारी हरकतें मेरी निगाहों में रही। जगमोहन पर मेरी निगाहों के सामने हमला किया गया। हमला करने वाले ने चेहरे पर रुमाल बाँध रखा था। बंगले में कोई तुम लोगों को मार रहा है। मैं जान चुका था। अब नानकचंद की भी जिसने जान ली। मैंने उसे दूर से देखा। उसने चेहरे पर रुमाल बाँधा हुआ था। और तो और, रात को जब तुम, टैम्पो वाले अमृतपाल के घर पर उसका इंतजार कर रहे थे, तो मैं गली के बाहर टैम्पो आने का इंतजार कर रहा था। आधी रात के बाद का वक्त था, जब उसी व्यक्ति ने चाकू से मुझ पर हमला किया। मेरी जान लेने की चेष्टा की, परन्तु वो कामयाब नहीं हुआ और भाग गया। वो ताकतवर व्यक्ति था। उसके पास चाकू था। फिर भी वो भाग गया तो मेरे ख्याल से इस डर से भागा कि कहीं, उसके चेहरे पर से रुमाल उतारकर, उसका चेहरा न देख लूँ। यानि कि वो कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे देखकर उसे पहचाना जा सकता है। और वो अपनी पहचान नहीं करवाना चाहता।”

देवराज चौहान और सोहनलाल की नजरें मिली।

“उसने तुम्हारे साथियों की जान ली। जगमोहन की किस्मत अच्छी रही कि शायद वो बच गया है। और मुझे भी खत्म करने की कोशिश की गई। इससे साफ जाहिर है कि वो नहीं चाहता कि कोई भी हीरों की तलाश करे। इस मामले से जुड़े हर व्यक्ति को वो खत्म कर देना चाहता है।” रंजन तिवारी ने गम्भीर स्वर में कहा- “इसका एक ही मतलब है कि या तो हीरे उसके पास हैं। या फिर हीरों को वो पाना चाहता है।”

“तुम हमसे क्या चाहते हो?” देवराज चौहान ने उसकी आँखों में झाँका।

“तुम्हें भी हीरों की तलाश है और मुझे भी। जगमोहन ने जहाँ हीरे रखे थे। वहाँ से गायब हो चुके हैं।” रंजन तिवारी ने देवराज चौहान को देखकर कहा- “इस सारे मामले में हालात ऐसे बन गये हैं कि हीरों तक पहुँच पाना अब आसान नहीं रहा। अगर हम दोनों हीरों को मिलकर तलाश करें तो शायद हीरे मिल जा।यें।”

“हमारा साथ नहीं बन सकता।” देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा - “तुम बीमा कम्पनी के हक में हीरों को ढूँढ रहे हो। और हम अपने लिए हीरों को तलाश कर रहे हैं। ऐसे में -।”

“आधे-आधे।” रंजन तिवारी मुस्कराया।

“क्या मतलब?” सोहनलाल के होंठों से निकला।

“बीमा कम्पनी को अगर मैंने आधे हीरे भी दे दिए तो कम्पनी को कुछ राहत मिलेगी और बाकी के आधे हीरे तुम लोगों के। दोनों को कुछ न कुछ तो मिलेगा। शायद हम मिलकर, हीरों को ढूँढने में कामयाब हो जाये। मतलब कि आधे-आधे के सौदे में हम लोग साथ मिलकर हीरे ढूँढने की कोशिश कर सकते हैं।”

“इस काम में तुम्हारे साथ की जरूरत नहीं।” सोहनलाल  ने रिवॉल्वर जेब में रखते हुए कहा- “हीरे तुम्हारी सहायता के बिना भी ढूँढ सकते हैं। तुम-।”

“बेशक ढूँढ सकते हो।” रंजन तिवारी कह उठा- “लेकिन हीरों के मामले के, हालातों से जितने तुम लोग वाकिफ हो। उतना मैं भी हूँ। कुछ सोचे तुम्हारी हैं कि हीरे कहाँ हो सकते हैं। कौन ले जा सकता है और कुछ सोचें मेरी भी हैं कि हीरे कौन ले जा सकता है। यानी कि मिल-मिलाकर शायद जल्दी हीरों तक पहुँच पायें  या फिर भी न पहुँचे। क्योंकि मामला बहुत ज्यादा उलझ गया है।”

“तुम्हारे ख्याल से हीरे कौन ले सकता है?” देवराज चौहान ने पूछा।

रंजन तिवारी मीठे ढंग से मुस्कराया।

“इसी बात का तो आधे-आधे का सौदा कर रहा हूँ। हाँ,करो तो कहीं बैठकर बात करते हैं। मैं तुम्हारे बारे में कुछ हद तक जानता हूँ देवराज चौहान। ज़ुबान दे दोगे तो पीछे नहीं हटोगे। यानि कि मैं जानता हूँ कि तुम पर भरोसा किया जा सकता है। इसलिए सौदा करने सीधे-सीधे तुम्हारे पास आ गया।”

सोहनलाल ने होंठ सिकोड़कर देवराज चौहान को देखा।

“मुझे इस वक्त हीरों से ज्यादा दिलचस्पी इस बात में हो रही है कि हीरे कौन ले गया। जबकि किसी को भी नहीं मालूम था कि हीरे जगमोहन ने कहाँ छिपाये हैं।” देवराज चौहान का स्वर गम्भीर था।

“तो आधे-आधे में सौदा पक्का?”

“अभी नहीं।” देवराज चौहान ने कहा - “हाँ या न कहने से पहले मैं जगमोहन से बात करके, तसल्ली से उस वक्त के हालतों के बारे में जानूँगा, जब उसने हीरे छिपाये थे। उसके बाद ही फैसला करूँगा।”

“तो जरूरत पड़ने पर हमारी मुलाकात कहाँ होगी?” रंजन तिवारी ने कहा।

“अब से ठीक तीन घंटे बाद, दादर स्टेशन के बाहर मिलना। मैं नहीं पहुँचा तो समझना हम दोनों का मामला एक साथ नहीं बन सकता।” देवराज चौहान ने सोच भरे सपाट स्वर में कहा।

☐☐☐

वर्मा कार ड्राईव कर रहा था। रंजन तिवारी उसकी बगल में बैठा, सोचों में था।

“तिवारी साहब!” वर्मा ने खामोशी को तोड़ा - “मैं अभी तक नहीं समझ पाया कि देवराज चौहान के पास जाकर इस तरह की बात करने का क्या फायदा है। हीरों को ढूँढने की कोशिश हम भी कर रहे हैं।”

“अब हालात पहले वाले नहीं रहे वर्मा।” रंजन तिवारी गम्भीर स्वर में बोला - “पहले सब कुछ सामने हो रहा था और अब कुछ भी सामने नहीं होगा। हमें मालूम नहीं हो पायेगा कि देवराज चौहान क्या कर रहा है। उसे हीरे मिले या नहीं। केसरिया, नानकचंद और उनका एक साथी और मारा जा चुका है। संख्या कम हो जाये तो फिर उनकी हरकतों के बारे में कैसे पता चलेगा। दूसरे जगमोहन ने जहाँ हीरे रखे थे, वहाँ नहीं मिले। इस बात ने उन्हें चकराकर रख दिया है कौन ले गया हीरों को। मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूँ। ऐसे में देवराज चौहान से मिलकर चलना जरूरी हो गया था कि उसकी हरकतें सामने रहें। पीछे रहकर अब देवराज चौहान पर नजर रखना सम्भव नहीं था।”

“हमे नहीं मालूम कि देवराज चौहान कहाँ गया है।” वर्मा उलझन भरे स्वर में बोला- “अगर वो दादर स्टेशन के बाहर नहीं मिला तो हमें ये भी नहीं मालूम हो पायेगा कि देवराज चौहान है कहाँ?”

“हाँ। लेकिन ये रिस्क लेना जरूरी था। अगर वो दादर स्टेशन पर आकर हमें मिला, तो मेरी आधी योजना सफल हो जायेगी।” रंजन तिवारी कह उठा - “देखते हैं, क्या होता है।”

“अगर हीरे मिलें तो, आधे उसे दे देंगे आप?”

“नहीं।” रंजन तिवारी गम्भीर हो गया - “साढ़े चार अरब के हीरे मेरे तो हैं नहीं कि उसके बारे में आधा-आधा करने का फैसला कर लूँ। अगर मैंने आधे हीरे बीमा कम्पनी के हवाले किए तो वो लोग, इस बात का पक्का शक करेंगे कि बाकी के आधे मैंने हजम कर लिए हैं। उन्हें ये कहूँगा कि देवराज चौहान से आधे-आधे का सौदा किया था, तो मेरी बात का कभी भी विश्वास नहीं करेंगे। यानि कि मैं आधे-आधे के हिसाब में बिना वजह फँस जाऊँगा। इसलिए जब भी हीरे हाथ में लगे तो, मैं देवराज चौहान को धोखा देकर सारे हीरे ले लूँगा।”

“देवराज चौहान को धोखा देना आसान होगा क्या?”

“मैं नहीं जानता।” रंजीत तिवारी गम्भीर था- “लेकिन इस बात की पूरी कोशिश करूँगा।”

“क्या ख्याल है हीरे मिल जायेंगे?”

“देखते हैं, अँधेरे में हाथ-पाँव मारने का कोई फायदा होता है या नहीं।” रंजन तिवारी ने होंठ भींचकर कहा- “मेरे ख्याल में तो हीरे, इन हालातों में एक ही आदमी के पास हो सकते हैं।”

“किसके?”

“अभी मेरी सोचों को फैसले पर पहुँच लेने दो।” रंजन तिवारी ने गहरी साँस लेकर कहा और आँखें बंद कर लीं।

☐☐☐

टैम्पो के आगे बढ़ते ही बुझे सिंह ने चैन की लम्बी साँस ली। उस्ताद जी! भूतों से पीछा छूटा। खामखाह ही फँस गये थे। जान छूटी**। अब तो घर बैठकर आराम से खाते रहेंगे, जब तक वो नोट देता रहेगा। अब तो मैं मक्खन भी डबल डाला करूँगा और  दो रोटियाँ भी ज्यादा खाया करूँगा। अब तो तुसी ये भी नहीं कह सकोगे कि मैं ज्यादा  खाता हूँ। माल मालका दां और खाने वाले हम। क्यों उस्ताद जी। मजा आ गया।”

अमृतपाल खामोश-गम्भीर था।

“तुसी चुप क्यों हो उस्ताद जी?”

“बुझया!” अमृतपाल गम्भीर स्वर में कह उठा- “मेरा बाप कहता होता था कि बैठकर हराम की रोटी नहीं खानी चाहिये जो खाता है, वो कभी बोत बड़ी मुसीबत में फँसता है।”

“आपके बाबूजी कहते थे तो ठीक ही कहते होंगे।” बुझे सिंह ने सिर हिलाया - “लेकिन बैठकर खाना भी तो कोई आसान काम नहीं। हजम करने में बोत मेहनत करनी पड़ती-।”

“तेरे को दस हजार की गड्डी नज़र आ रही है, और मेरे को लग रहा है, हम बोत बड़ी मुसीबत में फँसने वाले हैं। कोई यूँ ही किसी को दस हजार की गड्डी थोड़े न देता है।”

“तुसी कहते तो ठीक हो। पर अब कित्ता की जावे?”

“करना क्या है।  दौड़ चलते हैं।”

“काँ पे?”

अमृतपाल सोचने लगा।

“क्या सोचने लगे?”

“तूने अपनी बहन से मिलने गाँव जाना है ना?” अमृतपाल बोला।

“हाँ। वो तो जाना है।”

“चल। मैं भी तेरे साथ चलता हूँ कुछ दिन वहीं बिता दूँगा।”

“वा जी वा! ए ते मजा ही आ गया। उस्ताद जी, ये तुसी मेरे गाँव नेई जा रहे। बल्कि आपके ग्रह आपको मेरे गाँव ले जा रहे हैं। मेरी बहन से आपका ब्याह कराने।”

“चुप कर।”

“मैं सच कह रहा हूँ जी। तोते वाले ज्योतिषी ने ठीक ही तो कहा था कि जिससे मेरी बहन की शादी होगी उसके पास एक बार बहुत बड़ी दौलत आएगी। आपके पास भी तो आई, लाखों के हीरों के रूप में। वो हमें मालूम नहीं हुआ। हीरों को हम संभाल नहीं पाए और हाथों से निकल गये। ये अलग बात है। पर ये बात तो अपनी जगह ठीक है कि मेरी बहन की शादी आपके साथ -।”

“तू ऐसे ही बोलता रहा तो मैं तेरे गाँव नहीं जाऊँगा।” अमृतपाल झल्ला उठा।

“मैं नेई बोलता जी। लो चुप कर गया। तुसी गाँव ते पहुँचो। ग्रह सारा मामला फिट कर देंगे।” बुझे सिंह का चेहरा ख़ुशी से चमक उठा - “वैसे उस्तादजी, क्या हीरे हमारे टैम्पो में हो सकते हैं?”

“मालूम नहीं।”

“कोई बात नेई। गाँव पहुँचकर टैम्पो दा पुर्जा-पुर्जा करके देख लेंगे। अब पाओ टॉप गियर और चल्लो सीधे गाँव। मेरी बहन आपको देखकर खुश हो जायेगी कि आप कितने अच्छे बंदे हैं। तोते वाले ज्योतिषी से भी मिलेंगे। वो भी आपको देखकर खुश होगा। सौ-पचास चढ़ा देना उसके चरणों में। वो जो जमीन उसने घेरी थी, उस पर चारदिवारी करने के लिए उसको पैसे की जरूरत तो होगी ही।”

☐☐☐

जगमोहन हक्का-बक्का-सा देवराज चौहान और सोहनलाल को देखने लगा।

“मे-मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा। क्या कह रहे हो, तुम लोगों को स्टैपनी में हीरे नहीं मिले।” जगमोहन के स्वर में, कूट-कूटकर अविश्वास के भाव भरे हुए थे।

“टैम्पो में लगी वो समान्य स्टैपनी थी। बीच में ट्यूब मौजूद थी। उसमें हवा थी।” देवराज चौहान गम्भीर स्वर में बोला- “और टैम्पो वाले का कहना है कि वो स्टैपनी उनकी नहीं है। यानि कि किसी ने उनकी स्टैपनी निकालकर वहाँ दूसरी रख दी और ये काम वही कर सकता है,वही करेगा जो कि ये जानता हो कि स्टैपनी में ट्यूब के बदले, हीरे भरे पड़े हैं।”

“कोई कैसे जान सकता है! किसी को मालूम ही नहीं था कि मैंने स्टैपनी में हीरे रखे हैं।” जगमोहन के होंठों से निकला। बेचैनी के भाव चेहरे पर नाचने लगे थे।

“तुमने जब स्टैपनी में हीरे रखे तो वहाँ और कोई था?”

“नहीं। मैंने गाय-भैंसों का पूरा तबेला चैक किया था। वहाँ कोई नहीं था। न ही मैंने किसी को देखा था वहाँ और दोनों पुलिस वाले भी तब आये थे, जब मैं सारे काम से फुर्सत पाकर, हाथ धोकर आराम से उनके पास आने का इंतजार कर रहा था। ऐसे में किसी को कैसे मालूम हो सकता है कि मैंने हीरों को कहाँ रखा?” जगमोहन होंठ भींचे कह रहा था - “कहीं –कोई गड़बड़ है, पकके तौर पर गड़बड़ है। कोई नहीं जान सकता था कि मैंने टैम्पो की स्टैपनी में उन हीरों को छिपाया है।”

“क्या गड़बड़ हो सकती है?” सोहनलाल ने पूछा।

“मैं क्या कह सकता हूँ?” जगमोहन ने उखड़े स्वर में कहा।

“हो सकता है, तब  तबेले में कोई और हो और उसने....” देवराज चौहान ने कहना चाहा।

“नहीं।” जगमोहन पक्के स्वर में कह उठा - “तबेले में उस वक्त कोई नहीं था। हीरो को स्टैपनी में छिपाते मुझे किसी ने नहीं देखा। यह बात मैं पक्के दावे के साथ कह सकता हूँ -।”

“फिर तो ये मामला बहुत उलझ गया।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा - “तुम्हें हीरे छिपाते किसी ने नहीं देखा और किसी ने स्टैपनी ही बदल दी। ऐसे में उस इनसान को ढूँढना आसान काम नहीं। वो आसानी से हमारे हाथों से बच सकता है। उसकी हवा भी हमे नहीं लगेगी।”

“तुम्हारा मतलब है कि हीरे अब हमें नहीं मिलेंगे?” जगमोहन परेशान हो उठा।

“अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, परन्तु मेरा ख्याल यही है। तुम्हारी बात सुनने के बाद हीरों का मिल पाना सम्भव नहीं रह गया।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।

जगमोहन के चेहरे को देखकर ऐसा लगने लगा, जैसे सब कुछ लुट गया हो।

“अब?” सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।

सबके चेहरे और आँखों में एक ही सवाल था - अब?

“हमारे पास आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है। जिधर भी देखो इस बात की उलझन है कि टैम्पो की स्टैपनी किसने बदल दी। किसे मालूम हो गया कि स्टैपनी में हीरे हैं, जबकि ये काम अकेले में किया गया था। कौन हो सकता है वो, उसे इन हालातों में ढूँढ पाना आसान नहीं।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा- “ऐसे में रंजन तिवारी के साथ मिलकर, कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है।”

“हीरे मिल गये तो, वो आधे ले जायेगा।” जगमोहन एकाएक और भी परेशान हो उठा।

देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभरी।

“पहले मिल तो लेने दो।” सोहनलाल ने गहरी साँस ली - “मुझे तो मिलते नजर नहीं आते।”

☐☐☐

देवराज चौहान और सोहनलाल, दादर स्टेशन के बाहर पहुँचे तो रंजन तिवारी ने वर्मा से उनका परिचय कराया।

“तुम्हारे यहाँ आने का मतलब है कि तुम्हें मेरी बात मंजूर है।” रंजन तिवारी ने गम्भीर स्वर में कहा।

“हाँ।” देवराज चौहान आते-जाते लोगों को देखता हुआ बोला- “जो हालात सामने हैं, उन्हें देखते हुए तुम्हारे साथ मिलकर, हीरों को तलाश करने में मुझे कोई एतराज नहीं।”

“कहीं बैठकर बात करते हैं, जहाँ -।”

“स्टेशन के आसपास बहुत होटल हैं।” सोहनलाल कह उठा - “आओ।”

उन्होंने होटल में कमरा लिया और बातचीत के लिए बैठ गये। सबके चेहरों पर गम्भीरता और सोच ही नजर आ रही थी।

“जया केटली को पुलिस ने बंगले से बरामद कर लिया होगा।” रंजन तिवारी बोला।

“मतलब कि तुमने पुलिस को फोन किया होगा कि वो वहाँ बँगले पर है।” देवराज चौहान ने उसे देखा।

“हाँ।” रंजन तिवारी ने सिर हिलाया - “जब तुम टैम्पो ड्राईवर अमृतपाल के घर थे। नानकचंद तुम्हारे साथ सोहनलाल जगमोहन के साथ किसी डॉक्टर के पास था। केसरिया बंगले में मरा पड़ा था और जया केटली बंगले में सिर्फ तुम्हारे एक साथी के साथ के थी, तब पुलिस को फोन किया था कि जया केटली वहाँ है।”

“पुलिस को वहाँ दो लाशों के आलवा कुछ नहीं मिला होगा।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा- “रात को अमृतपाल के घर आते हुए जया केटली को उसके बँगले पर छोड़ दिया था।”

“ओह!” रंजन तिवारी ने कहा - “पुलिस तुम लोगों को ढूँढने के लिए पूरी से भी ज्यादा कोशिश कर रही होगी।”

“तुम अपनी बात करो।” सोहनलाल ने उसे देखा।

“हमें सिर्फ साढ़े चार अरब के हीरों के बारे में बात करनी चाहिये कि उन्हें कौन ले गया।” देवराज चौहान ने कश लेकर कहा- “हम लोग इसी बात के लिए यहाँ इकट्ठे हुए हैं।”

“तुम्हारे ख्याल में यह काम कौन कर सकता है।” रंजन तिवारी बोला।

“मेरी नजरों में ऐसा कोई नहीं है, जिसे मालूम हो सके कि हीरे टैम्पो की स्टैपनी में है और वो आराम से स्टैपनी बदल दे। जगमोहन ने गाय-भैंसों के तबेले में हीरों को स्टैपनी में रखा था। जगमोहन के मुताबिक़ वहाँ तब कोई नहीं था। लेकिन एक परसेंट मैं इस बात का चांस लेता हूँ कि तबेले में तब वहाँ कोई था, जिसे जगमोहन नहीं देख सका। उसी व्यक्ति ने मौका पाकर, कहीं हीरों वाली स्टैपनी बदल दी।”

देवराज चौहान के खामोश होते ही, कुछ पल के लिए वहाँ चुप्पी रही।

“ऐसा भी हो सकता है।” प्रीतम वर्मा ने रंजन तिवारी को देखा।

“हाँ। हो सकता है। जो कुछ भी सामने है उसे देखते हुए कोई भी चांस छोड़ना गलत होगा।” रंजन तिवारी ने सोच भरे स्वर में कहा - “मैं वहाँ से शुरू करता  हूँ, जहाँ से टैम्पो हवालदार सुच्चा राम और कांस्टेबल ओमवीर के हाथ लगा। जब जगमोहन  पकड़ा गया।”

सबकी निगाह रंजन तिवारी पर हो  गई।

“टैम्पो को सुच्चा राम और ओमवीर ने पकड़ा। जगमोहन को भी इन्होने ही गिरफ्तार कर लिया। फिर वे पुलिस स्टेशन पहुँचे। शाम को- इत्तिफ़ाक़  से टैम्पो का मालिक अमृतपाल पुलिस स्टेशन पहुँच गया और ओमवीर ने टैम्पो लिखा-पढ़ी के बाद अमृतपाल के हवाले कर दिया। अगले दिन सुबह अमृतपाल टैम्पो में माल लादकर, सीमापुर चला गया और उससे अगले दिन सीमापुर से लौटा तो तुमने उसे पकड़ किया और जब स्टैपनी देखी गई तो उसमें हीरे नहीं थे। स्टैपनी ही बदल दी थी किसी ने। अब देखना ये है कि जगमोहन के हीरों को छिपाने के बाद टैम्पो किन-किन हाथों से गुजरा। उनमें से ही किसी ने हीरों को पा लिया है। या फिर यूँ कहा जा सकता है कि इत्तिफ़ाक़ से भी किसी को हीरों के बारे में मालूम हो गया और -।”

“हवलदार सुच्चा राम। कांस्टेबल ओमवीर। अमृतपाल और बुझे सिंह।” देवराज चौहान ने रंजन तिवारी को देखा - “टैम्पो इन चारों के पास रहा।”

“हाँ।” रंजन तिवारी ने सिर हिलाया- “और इन चारों में सबसे कमीना कांस्टेबल ओमवीर है। उससे तुम मिल भी चुके हो। रिश्वत का पैसा जिस दिन उसे न मिले, उसे नींद नहीं आती। वर्दी पहनने के बाद तो वो मुर्गे तलाश करता है कि किस पर वर्दी का रौब डालकर, पैसा झाड़ा जा सके। मेरा पहला शक, काफी बड़ा शक ओमवीर पर ही है कि हीरे उसने लिए हैं।”

“मुझे भी वो नम्बरी हरामी लगा था।” सोहनलाल बोला- “बात बाद में करता है और पैसे पहले झाड़ता है। हो सकता है वो किसी तरह जान गया हो कि, स्टैपनी में हीरे रखे गये हैं।”

“माल कहाँ है, ये तो हमेशा वो सूँघता ही रहता है। और उसे खुशबू भी मिल जाती है।” रंजन तिवारी ने कड़वे स्वर में कहा - “पुलिस डिपार्टमेंट की खबरे, पैसे लेकर, बाहरी लोगों को देता रहता है।”

“ओमवीर को पकड़े?” वर्मा बोला - “खुलवा लेंगे साले का मुँह।”

“अभी रुको। आगे की बात भी हो लेने दो।” रंजन तिवारी ने कहा - “लेकिन सबसे ज्यादा वक्त तक टैम्पो अमृतपाल के पास रहा। ऐसे में इस बात का ज्यादा चांस है कि हीरे उसे मिल गये हों। सीमापुर जाने के दौरान टैम्पो का पहिया पैंचर हुआ हो तो स्टैपनी बदलते वक्त उन्हें पता लगा हो कि जो टायर, रिम के बीच फिट है उसके बीच में ट्यूब नहीं हीरे हैं। तब उन्होंने सोचा कि जिसने भी स्टैपनी में हीरे छिपाये हैं वो इन्हें लेने जरूर आयेगा तो वो क्या करेंगे। ऐसे में सोच-समझकर  उन्होंने साढ़े चार अरब के हीरों से भरी स्टैपनी ही गायब कर दी और वहाँ दूसरी स्टैपनी कहीं से खरीदकर रख दी, ताकि हीरे रखने वाला जब स्टैपनी में हीरे न देखकर उन्हें पकड़े तो वो सिरे से ही अनजान बन जायें कि ये स्टैपनी भी उनकी नहीं है। उन्हें कुछ नहीं मालूम। वे तो बेचारे हैं।”

देवराज चौहान ने कश लिया।

“अब एक तीसरा चांस लेते हैं।” कहकर रंजन तिवारी ने देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान ने सिर हिलाया कि वो उसकी बात सुन रहा है।

“टैम्पो के मालिक अमृतपाल की निगाहों में ये बात मामूली हो, तो हो सकता है, उसने इसी वजह से इस बात का जिक्र न किया हो। सीमापुर जाते या आते वक्त कहीं पर टैम्पो खराब हो गया हो। तो टैम्पो दो-चार घंटे के लिए किसी मैकेनिक के हवाले करके, खुद खाने-पीने या आराम करने चले गये हों और इस बीच जिसके पास टैम्पो रहा इत्तिफ़ाक़ से उसने जान लिया के टैम्पो की स्टैपनी में ट्यूब के बदले हीरे भरे पड़े हैं तो उसने आनन-फानन वो स्टैपनी कहीं छिपा दी और वहाँ दूसरी लगा दी।”

“ये हो सकता है।” सोहनलाल ने कहा - “अमृतपाल के हाथ हीरे लग गये हों या फिर सीमापुर आने-जाने के दौरान किसी और के हाथ लग गये हों। अमृतपाल से हमने सख्ती से पूछताछ नहीं की।” कहने के साथ ही सोहनलाल ने, देवराज चौहान को देखा।

“अमृतपाल और बुझे सिंह की बातों से मैंने जो महसूस किया है, वो ये कि उन्हें हीरों के बारे में दूर-दूर तक भी कोई खबर नहीं।” देवराज चौहान ने कहा - “अब अगर उनसे बात करके तुम लोग किसी तरह की तसल्ली  करना चाहते हो तो कर सकते हो। मुझे कोई एतराज नहीं।”

“ये भी तो हो सकता है कि सीमापुर आने-जाने के दौरान -।” सोहनलाल ने कहना चाहा।

“इस बात का खुलासा तो अमृतपाल से बात करने के बाद ही होगा।” देवराज चौहान बोला।

कुछ पलों तक उनके बीच सोच भरी चुप्पी रही।

सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगा ली।

रंजन तिवारी कह उठा।

“मेरी सोचो में जो था, मैंने तुम्हें बता दिया। अब तुम बताओ कि कैसे क्या किया जा सकता है।”

देवराज चौहान कश लेकर कह उठा।

“तुम्हारी कही बातों पर गौर किया जाये तो हमें सबसे पहले टैम्पो वाले अमृतपाल से एक बार फिर अच्छी तरह पूछताछ करना चाहिये कि हीरे उसके पास तो नहीं। फिर कांस्टेबल ओमवीर को देखना होगा कि जगमोहन को गिरफ्तार करते वक्त, कहीं वो भाँप गया हो कि स्टैपनी में बेशकीमती हीरे छिपाये गये हैं और उसने स्टैपनी बदलकर, हीरों को अपने कब्ज़े में ले लिया हो। अगर ऐसे में भी कुछ हाथ नहीं लगता तो अमृतपाल से पहले ही पूछ लिया जायेगा कि सीमापुर जाते-आते वक्त कहीं पर उन्होंने कुछ देर के लिए टैम्पो तो नहीं छोड़ा। अगर किसी के पास टैम्पो छोड़ा है तो उसे चैक करना पड़ेगा। यहाँ तक भी अगर बात नहीं बनती तो हम उस तबेले पर रहने वाले लोगों को चैक करेंगे जहाँ पर जगमोहन ने टैम्पो की स्टैपनी में हीरे डाले थे। पूछताछ करके ये जानने की चेष्टा करेंगे कि उस वक्त कोई तबेले में था। अगर कोई था तो यकीनन स्टैपनी उसी ने बदली है। क्योंकि वो जान चुका था, देख चुका था कि स्टैपनी में हीरे डाले गये हैं।”

वर्मा ने तुरन्त सिर हिलाया।

“ये ठीक रहेगा।”

“और इस पूछताछ के दौरान हम अपने दिमाग में यही रखेंगे कि इसी के पास हीरे हैं।” सोहनलाल कह उठा- “शायद इसी शक की वजह से हम हीरों तक पहुँच जाए।”

“हाँ।” रंजन तिवारी ने कहा - “ये ठीक रहेगा। वैसे अब जगमोहन कैसा है?”

“ठीक है। ठीक हो रहा है।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहते हुए सोहनलाल को देखा- “अमृतपाल टैम्पो लेकर अपने किराये के कमरे पर पहुँच गया होगा। उसे और बुझे सिंह को लेकर किसी सुरक्षित जगह पहुँचो और फोन कर दो। हम वहीँ आ जायेंगे।”

सोहनलाल सिर हिलाकर उठ खड़ा हुआ।

“मैं इसके साथ जाता हूँ।” रंजन तिवारी बोला।

“चलो।” सोहनलाल ने कोई एतराज नहीं उठाया।

“एक बात मेरी समझ में नहीं आई।” रंजन तिवारी उठते हुए बोला - “अभी तक हम उस इनसान के बारे में नहीं जान पाये, जिसने तुम्हारे तीन साथियों की जान ली। जगमोहन की भी लेनी चाही, और मुझे भी खत्म करने में उसने अपनी कोशिश में कमी नहीं रखी थी।”

देवराज चौहान का चेहरा सख्त हो उठा।

“वो जो कोई भी है हमसे ज्यादा दूर नहीं है। क्योंकि वो फिर हमारी जान लेने की चेष्टा करेगा और पहले की तरह हर बार, बच कर नहीं निकल सकता। उससे, सब सावधान रहना।”

सोहनलाल और रंजन तिवारी बाहर निकल गये।

☐☐☐

रात के दस बज रहे थे। होटल के कमरे में देवराज चौहान, रंजन तिवारी और प्रीतम वर्मा मौजूद थे। वर्मा पाँच घंटे की नींद लेकर, कुछ देर पहले ही उठा था।

“जब से मैं सोहनलाल के साथ गया हूँ, तब से अमृतपाल के घर नजर रखी है हमने। उसके पड़ोस से पूछताछ भी की है। जब से तुम अमृतपाल के टैम्पो के साथ लेकर वहाँ से निकले थे, उसके बाद से वो वापस किराये वाले कमरे में नही लौटा।” रंजन तिवारी ने कहा।

“सोहनलाल कहाँ है?”

“वो अमृतपाल के घर पर नज़र रख रहा है।” रंजन तिवारी कह उठा- “मेरे ख्याल में ये सारी गड़बड़ अमृतपाल ने ही की है। वो जान गया होगा कि स्टैपनी में हीरे रखे गये है। पहले तो उसने सोचा कि स्टैपनी बदलकर, हीरे रखने वाले को धोखा दे देगा। लेकिन जब उसने नानकचंद की हत्या होते देखी, और तुमने भी ये कहकर उसे छोड़ा कि वो घर पर रहे, तब उसे लगा कि वो भारी मुसीबत में फँसने जा रहा है और बचने वाला नहीं। तुम्हे  देर-सवेर में शक हो जायेगा कि हीरे उसके पास हैं और तुम उसे नहीं...।”

“ये सब तुम्हारे ख्याल हैं।” देवराज चौहान ने टोका - “क्योंकि वो घर पर नहीं मिला।”

“हाँ। ख्याल से ही बात आगे बढ़ती है।” रंजन तिवारी मुस्कराया - “तुमने उसे सख्ती के तौर पर हर वक्त घर रहने को कहा था और घंटों बीत गये। वो टैम्पो के साथ घर पर भी नहीं पहुँचा।”

“उसके टैम्पो की सीटें फाड़ी थीं हीरों की तलाश में। सीटों के कवर लगवाने में व्यस्त हो गये होंगे। तुम अभी इतनी गहराई में मत जाओ। हो सकता वो आराम से घर पहुँचे।”

“अगर न पहुँचे तो?”

“तो तलाश कर लेंगे उन्हें।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली - “वो जहाँ-जहाँ जाते हैं, जा सकते हैं भागदौड़ करके मालूम कर लेंगे। मैंने यूँ ही उन दोनों के गाँव के बारे में पूछ लिया था। दोनों के गाँव मुंबई से ज्यादा दूर नहीं हैं। वहाँ भी उनको तलाशा जा सकता है। लेकिन शायद ऐसी नौबत नहीं आयेगी। वो रात को किसी भी वक्त घर लौट सकते हैं। अभी आने वाले वक्त का इंतजार करो।”

रंजन तिवारी ने प्रीतम वर्मा को देखा।

“वर्मा तुम डिनर ले लो और वहाँ जाकर सोहनलाल का साथ दो। वो थक चुका होगा। उसे नींद के लिए कुछ घंटे -।”

“तुम अभी सोहनलाल के पास चले जाओ।” एकाएक देवराज चौहान दाँत भींचकर कह उठा- “सोहनलाल पर भी दूसरों की तरह जानलेवा हमला हो सकता है। वो पागल, उनकी भी जान ले सकता है। रात भी तुम दोनों एक साथ रहकर ही अमृतपाल के वापस आने का इंतजार करना। देर मत करो। जाओ।”

“देवराज चौहान ठीक कह रहा है वर्मा।” रंजन तिवारी एकाएक कह उठा - “मैं तो उस पागल हत्यारे को भूल गया था। मुझे सोहनलाल को अकेला छोड़ कर नहीं आना चाहिए था। तुम जल्दी से जल्दी उसके पास पहुँचो।”

उसके बाद प्रीतम वर्मा ने वहां से निकलने में ज्यादा देर नहीं लगाई।

रंजन तिवारी ने देवराज चौहान को देखा।

“मुझे तो लग रहा है कि हीरे टैम्पो वाले के पास ही हैं।” रंजन तिवारी कह उठा।

देवराज चौहान ने उसे देखा कहा कुछ नहीं।

“हीरों को तलाशने के बारे में, मैंने पुलिस की मूवमेंट के बारे में मालूम किया है। रंजन तिवारी कह उठा- “परंतु पुलिस किसी नतीजे पर नहीं पहुँची। उस बंगले में केसरिया, भटनागर की लाशें बरामद कर ली हैं। जया केटली के बयान ले लिये हैं। और खासतौर से पुलिस तुम्हें तलाश कर रही है, जबकि जया केटली के बयान से पुलिस जान चुकी है कि हीरे तुम्हारे हाथ से भी निकल गये हैं।”

“मैं नहीं समझता इन हालातों में पुलिस, साढ़े चार अरब के हीरे तक पहुँच पायेगी।” देवराज चौहान ने सोच भरी निगाहों से रंजन तिवारी को देखते हुए कहा।

वर्मा जब गया था तो उसके पैंतालीस मिनट बाद ही उसका फोन आ गया।

☐☐☐

रंजन तिवारी ने रिसीवर उठाया।

“ टैम्पो लेकर वे लोग आ गये?” उसकी आवाज सुनते ही रंजन तिवारी कह  उठा।

“बहुत बुरी खबर है तिवारी साहब।” वर्मा का हड़बड़ाया स्वर उसके कानों में पड़ा।

“ क्या?”

“चाकू के ढेर सारे वार करके, सोहनलाल को खत्म कर दिया गया है।”

“ क्या?” रंजन तिवारी को अपने शरीर पर चीटियाँ सी रेंगती महसूस हुई।

“हाँ। मेरे सामने उसकी लाश पड़ी है। मैं मोबाइल से बात कर रहा हूँ।”

रंजन तिवारी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। कुछ कहते ना बना।

देवराज चौहान पर निगाह मारी जो उसे ही देख रहा था। तिवारी जानता था कि सोहनलाल देवराज चौहान का खास है।

रंजन तिवारी के चेहरे के, बदलते भावों को देखकर देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ी।

“ तिवारी साहब!” वर्मा की आवाज पुनः कानों में पड़ी।

रंजन तिवारी ने खुद को संभाला- “सुनो, तुम वहीं रहना। हम आ रहे हैं।” तिवारी ने रिसीवर रखा।

“क्या हुआ?” देवराज चौहान की एकटक निगाह रंजन तिवारी पर थी।

तिवारी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। वह समझ नहीं पा रहा था कि कैसे बताये।

“ मैंने पूछा, क्या बात है?” देवराज चौहान की आवाज में सख्ती आ गई।

“खासतौर से तुम्हारे लिए बुरी खबर है देवराज चौहान और मुझसे कहते नहीं बन पा रहा।”

“कहो।”

“सोहनलाल की हत्या कर दी गई है।”

देवराज चौहान चिंहुक पड़ा। पाँवों के नीचे से जमीन निकलती महसूस होने लगी।

“क्या बकवास कर रहे हो?” देवराज चौहान गुर्रा उठा।

“व..वर्मा ने बताया। उसने वहाँ पहुँचने पर सोहनलाल की लाश - “

“नहीं।” देवराज चौहान के चेहरे पर जानवर की वहशियत नजर आने लगी। वह एकाएक दुनिया का सबसे बड़ा दरिंदा लगने लगा।”- “ये नहीं हो सकता- ऐसा हुआ है तो उसके हत्यारों को ऐसी मौत दूँगा कि देखने वाले काँप उठेंगे।”

“सोहनलाल को - उसे चाकूओं से मारा गया है। ये उसी हत्यारे की करतूत है, जो सबकी जान लेने की कोशिश में है।” रंजन तिवारी देवराज चौहान के खूँखार-वहशी चेहरे को देख रहा था - “वह एक और जान लेने में सफल हो गया।”

देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली और सिर से पाँव तक पागल हुआ दरवाज़े की तरफ बढ़ता चला गया। रंजन तिवारी व्याकुल-सा उसके पीछे हो गया। वो जानता था कि सोहनलाल की हत्या की एवज में देवराज चौहान हर तरफ कहर बरपा देगा। अब जो ये कर दे वो ही कम होगा।

☐☐☐

रात के साढ़े ग्यारह बजे का वक्त हो रहा था, जब देवराज चौहान और रंजन तिवारी अमृतपाल वाली गली के बाहर पहुँचे। उस वक्त दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था। कभी-कभार ही कोई वाहन वहाँ से निकल जाता था, वरना शांति ही रहती।

देवराज चौहान दरिंदा लग रहा था। आँखें सुलग रही थी। चेहरा पत्थर की तरह कठोर हुआ पड़ा था। लग रहा था, जैसे हर नज़र आने वाले इनसान को खत्म कर देगा।  रंजन तिवारी बखूबी उसकी हालत साझ रहा था। परन्तु कुछ कह पाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी।

देवराज चौहान दाँत भींचे जल्दी से बाहर निकला, और आसपास देखने लगा। कोई भी नज़र नहीं आया। कम से कम वर्मा को तो वहाँ नज़र आना ही चाहिए था।

“वर्मा।” कार से निकलते ही रंजन तिवारी ने ऊँचे स्वर में पुकारा। वर्मा फिर भी कहीं नजर नहीं आया।

तिवारी जल्दी से अमृतपाल वाली गली में चला गया कि शायद वर्मा वहाँ हो। दूसरे ही मिनट वो गली से बाहर आ गया। हैरानी थी उसे कि वर्मा कहीं भी नहीं था। एकाएक उसका मन आशंका से भर उठा कि कहीं हत्यारे ने वर्मा को भी ख़त्म ना कर दिया हो।

गली से बाहर आते ही ठिठका।

चंद कदमों के फासले पर, देवराज चौहान खड़ा सड़क पर निगाहें टिकाये झुका-सा खड़ा था। तिवारी पास पहुँचा। उसने भी नीचे देखा। वहाँ  ढेर सारा गाढ़ा लाल पदार्थ पड़ा नजर आ रहा था। जिसका रंग रात के इस वक्त ठीक से नजर नहीं आ रहा था।

तिवारी ने तुरन्त माचिस निकालकर तीली जलाई।

दो क्षणों की रोशनी में तरल पदार्थ का रंग सुर्ख नजर आया।

“ये- ये तो खून है।” तिवारी के होंठों से निकला।

“हाँ।” देवराज चौहान के होंठों से मौत भरा स्वर निकला - “सोहनलाल का खून है ये।”

“लेकिन - लेकिन सोहनलाल की लाश और वर्मा कहाँ गये?” तिवारी बेचैन-सा हुआ  पड़ा था।

देवराज चौहान की सुर्ख निगाहें अँधेरे में इधर-उधर फिरने लगीं।

“वर्मा ने तुम्हें सोहनलाल के बारे में, फोन पर क्या कहा था?” देवराज चौहान ने दरिन्दिगी से कहा।

“ये ही कि - कि सोहनलाल को चाकुओं से गोद कर, मार दिया है किसी ने। उसकी लाश पास ही पड़ी है।”

“तो फिर सोहनलाल की लाश कहाँ है? वर्मा कहाँ है? खून वहाँ बिखरा पड़ा -।”

“मैं खुद इन सवालों के जवाब ढूँढ रहा हूँ। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा कि-”

“टैम्पो है गली में?” देवराज चौहान ने वहशी स्वर में पूछा।

“नहीं। वो -।” तिवारी ने एकाएक चौंककर कहा - “कहीं ये सब अमृतपाल और उसके साथी ने तो नहीं किया। उन्होंने सोहलाल  के साथ बाद में वर्मा को भी खत्म कर दिया हो और उन लोगों को टैम्पो में रखकर, कहीं फेंकने के लिए चले गये हों।”

दरिंदगी के सागर में डुबकियाँ लगाते देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।

“ये काम।” देवराज चौहान ने मौत भरे स्वर में कहा - “उसी का है, जिसने केसरिया, भटनागर, नानकचंद को मारा और जगमोहन की जान लेने की चेष्टा की। लेकिन अब वो जहाँ भी है, बहुत बुरी मौत....।”

तभी रंजन तिवारी का मोबाइल फोन बज उठा। तिवारी ने बात की। दूसरी तरफ वर्मा था।

“तुम कहाँ हो वर्मा? ये सब क्या हो रहा है?” रंजन तिवारी ने व्याकुलता से पूछा- “सोहनलाल की लाश कहाँ है? तुम इस वक्त कहाँ हो? तुम्हें तो यहाँ होना चाहिए।”

“तिवारी साहब।” वर्मा की आवाज़ कानों में पड़ी - “आपको फोन करने के बाद मैंने सोहनलाल को फिर से देखा तो लगा जैसे उसकी साँस चल रही है। मैंने जल्दी से उसे कार में डाला और अपने उसी खास डॉक्टर के पास ले आया। सोहनलाल अभी जिंदा है। डॉक्टर उसे देख रहे हैं, परन्तु वो पक्का नहीं कह पा रहे हैं कि, सोहनलाल बच जाएगा या नहीं। यूँ समझिए कि वो किसी भी वक्त मर सकता है।”

“तुम वहीं उसी डॉक्टर के पास हो?”

“हाँ।”

“वहीँ रहना।” कहने के साथ ही तिवारी ने मोबाइल बंद किया और देवराज चौहान से बोला- “सोहनलाल की साँसे अभी चल रही हैं। वर्मा उसे डॉक्टर के पास ले गया है।”

“डॉक्टर कहाँ है?” देवराज चौहान के दाँत भिंचे हुए थे।

रंजन तिवारी ने बताया।

“तुम यहीं रहो। टैम्पो और उन दोनों के आने के इंतजार में। मैं सोहनलाल के पास जा रहा हूँ।”

☐☐☐

देवराज चौहान, रंजन तिवारी के बताये पते पर पहुँचा जो कि छोटा-सा नर्सिंग होम था। सबसे पहले उसने सोहनलाल को देखा। जिसके पास दो डॉक्टर और तीन नर्सें मौजूद थीं। उसे खून चढ़ाया जा रहा था। शरीर के ऊपरी हिस्से पर, ज्यादा संख्या में चाकू के वार किये गये थे। वहाँ हर ज़ख्म पर बैंडेज कर दी गई थी। देखने में एक बारगी तो वो लाश की तरह लग रहा था।

देवराज चौहान ने कमरे से बाहर आकर, प्रीतम वर्मा से बात की।

“सोहनलाल की हालत कैसी है?” देवराज चौहान के चेहरे पर खतरनाक भाव नाच रहे थे।

“कुछ नहीं कहा जा सकता।”वर्मा ने धीमे स्वर में कहा - “डॉक्टरों का जवाब निराशा से भरा है।”

देवराज चौहान के दाँत भिंच गये।

“डॉक्टर को बुलाओ।”

वर्मा गया और तीसरे मिनट ही डॉक्टर को ले आया।

“क्या हाल है उसका?” देवराज चौहान की आवाज़ में सख्ती थी।

“चाकू के बहुत गहरे घाव हैं उसके शरीर पर।” डॉक्टर ने गम्भीर स्वर में कहा - “तीन घाव तो बहुत ही घातक हैं। मेरे ख्याल से वो ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकेगा।”

“उसे हर हाल में बचाना है डॉक्टर।” देवराज चौहन के होंठों से मद्धम-सी गुर्राहट निकली।

“हम जो कर रहे हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते।”

“किसी और बढ़िया डॉक्टर को बुला लो। जो -।”

“उसके शरीर की हालत ही ऐसी है कि कोई भी डॉक्टर कुछ नहीं कर सकता।”

देवराज चौहान ने पचास हजार की गड्डी निकाली और डॉक्टर को थमा दी।

“उसे बचाना है डॉक्टर।”

डॉक्टर ने गड्डी जेब में डाली और कह उठा।

“अगर वो चौबीस घंटे निकाल गया तो फिर उसके बचने की उम्मीद ज्यादा हो जायेगी।”

देवराज चौहान ने एक और पाँच सौ के नोटों की गड्डी निकाली।

“यह लो। उसके चौबीस घंटे निकलने चाहिए। हर पल उसके सिर पर खड़े रहो। उसकी एक-एक सेकंड की हालत का ध्यान रखो। कहीं भी लापरवाह मत हो जाना।” देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।

डॉक्टर ने दूसरी गड्डी भी जेब में डाल ली।

“मेरी तरफ से पूरी कोशिश होगी कि वो जिन्दा रहे।” डॉक्टर की आवाज़ में अब दम आ गया था।

“जाओ उसके पास जाओ। पूरा ध्यान रखो उसका। ये मत सोचना कि बाद में तुम कह दोगे के तुमने तो बहुत कोशिश की, लेकिन वो बच नहीं सका। ये शब्द मैं नहीं सुनूँगा। मुझे, वो जिन्दा ठीक हालत में चाहिए।”

डॉक्टर ने सिर हिलाया और पलटकर फौरन वहाँ से चला गया।

“तुमने यूँ ही लाख रूपये उसे दे दिए। वो उसकी ठीक से देखभाल कर रहा था।” वर्मा कह उठा।

“अब और ठीक से देखभाल करेगा।” देवराज चौहान ने दाँत भींचकर कहा - “ये सब कैसे हुआ?”

“मालूम नहीं। मैं जब वहां पहुँचा तो, सोहनलाल गली के किनारे, अँधेरे में ही पड़ा था। चाकुओं के वार उस पर हुए पड़े थे। खून में भीगा पड़ा था। चैक किया तो महसूस हुआ की वो खत्म हो चुका है। तब मेरी हालत बुरी हो गई थी। मैंने तिवारी साहब को सोहनलाल के मरने की खबर कर दी। उसके बाद जाने क्या सोचकर मैंने फिर उसे अच्छी तरह से चेक किया तो महसूस हुआ कि बहुत ही मद्धम गति से उसकी साँस चल रही है। ऐसे में मैंने वक्त नहीं गँवाया और जैसे-तैसे सोहनलाल को कार की पीछे वाली सीट पर डालकर यहाँ ले आया। ये डॉक्टर पहचान वाला है। उसके बाद मैंने सोहनलाल के यहाँ होने की खबर तिवारी साहब को दी।”

“यानि तुमने नहीं देखा उसे, जिसने सोहनलाल को खत्म करने की चेष्टा की?” देवराज चौहान के दाँत भिंच गये।

“नहीं। वो अपना काम करके जा चुका था।”

“वो वही है, जो सबकी जान लेने की चेष्टा कर रहा है।” देवराज चौहान वहशी स्वर में कह उठा- “वही है वो। लेकिन ज्यादा देर खुद को अब, पर्दे में नहीं रख सकेगा।”

“उसने तिवारी साहब पर भी जानलेवा हमला किया था।”

देवराज चौहान  की आँखों में क्रोध की सुर्खी भरी पड़ी थी।

“तुम यहीं रहना। सोहनलाल के पास। ध्यान रखना, उसके ईलाज में कोई लापरवाही न हो। मुझे सोहनलाल ज़िंदा चाहिये। किसी भी कीमत पर सोहनलाल के पास से नहीं हिलना।”

“लेकिन तिवारी साहब -?” वर्मा ने कहना चाहा।

“तिवारी से मैं बात कर लूँगा।”

वर्मा सिर हिलाकर रह गया।

☐☐☐

देवराज चौहान, जगमोहन के पास पहुँचा। नर्सिंग होम के कमरे में वो बैड पर लेटा आराम कर रहा था। कंधे और कनपटी पर बैंडेज हुई पड़ी थी। पहले से वो बेहतर नजर आ रहा था।  उसने देवराज चौहान की आँखों में सुलगन देखी तो आँखें सिकुड़ गई।

“क्या हुआ?” जगमोहन के होंठों से निकला।

“सोहनलाल की जान लेने की कोशिश की गई है।” देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा।

“क्या?” जगमोहन जोरो से चौंका- “सोहनलाल ठीक तो है?”

“अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। वर्मा उसके पास है और डॉक्टर के मुताबिक बहुत कम चांस है सोहनलाल के बचने के। वो पूरी कोशिश कर रहे हैं कि सोहनलाल बच जाए।” देवराज चौहान चौहान का चेहरा बेहद कठोर था।

जगमोहन के दाँत भिंच गये। आँखों में परेशानी स्पष्ट नजर आने लगी।

“डॉक्टर पर दबाव दो कि वो पूरी से भी ज्यादा कोशिश करे, सोहनलाल को बचाने की।”

“डॉक्टर से ही बात करके  आ रहा हूँ।”

“सोहनलाल पर वार करने वाला कौन…. ?”

“वही ही होगा, जिसने तुम्हारी भी जान लेने की कोशिश की है। जिसने केसरिया, भटनागर और नानकचंद को मारा है।” देवराज चौहान का स्वर वहशी हो उठा- “मैं उसे छोडूँगा नहीं। वो...।”

“कौन हो सकता है वो?” जगमोहन के चेहरे पर गुस्से से भरे खतरनाक भाव नाच रहे थे।

“वो जो भी है, उस साढ़े चार अरब के हीरे चाहिए।” देवराज चौहान के होंठों से विषैला स्वर निकला - “या फिर वो हीरों को पा चूका है और हमारी भागदौड़ से डरकर हमें खत्म करने की चेष्टा में है कि कहीं हीरों की तलाश करते-करते उस तक न  पहुँच जाएं।  मेरे ख्याल में वो हम पर इस तरह के हमले करके, हमारी जानें लेकर, हमें पीछे हटने को मजबूर कर देना चाहता है कि हम हीरों की तरफ से पूरी तरह अपना ध्यान हटा लें।”

“बीच की बात जो भी हो, परन्तु इस वक्त वो हम सब की हरकतों पर नज़र रख रहा है। तभी तो ठीक मौके पर, हम में से किसी को भी अकेला पाकर, उस पर हमला कर देता है।”

देवराज चौहान के चेहरे पर मौत के भाव सिमटे हुए थे।

“मैं जा रहा हूँ। तुम सतर्क रहना वो दोबारा भी तुम्हारी जान लेने की कोशिश।”

“मैं सतर्क हूँ। रिवॉल्वर है मेरे पास।” जगमोहन ने दाँत भींचकर कहा।

देवराज चौहान वहाँ से जब रंजन तिवारी के पास पहुँचा तो रात के तीन बज चुके थे।

☐☐☐

रंजन तिवारी गली के बाहर, अँधेरे में छिपा हुआ था। अमृतपाल टैम्पो के साथ नहीं लौटा था। साथ ही वो आक्रमणकारी पे प्रति सतर्क था। रह-रहकर उसका हाथ जेब में पड़ी रिवॉल्वर पर जा पहुँचता। एक बार तो हमला करने वाला, उस पर वार करने में नाकामयाब रहा, परन्तु हो सकता है कि इस बात उसे खत्म करने में पूरी ताकत लगा दे और तिवारी उसे कामयाब नहीं होने देना चाहता था।

सोहनलाल की हालत के बारे में सुनकर हमला करने वाले के प्रति, अब उसके दिल में रहम नहीं रहा था। देवराज चौहान की कार रुकते पाकर रंजन तिवारी अपनी जगह से बाहर आ गया।

देवराज चौहान कार से बाहर निकला।

“सोहनलाल की तबियत अब कैसी है?” रंजन तिवारी ने पूछा।

“अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। वो ज्यादा सीरियस है।” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाते हुए अँधेरे में नजरें दौड़ते हुए बोला - “किसी संदिग्ध व्यक्ति को तो नहीं देखा इधर-उधर।”

“नहीं।”

“अमृतपाल नहीं लौटा।”

“नहीं। न अमृतपाल। न टैम्पो।” रंजन तिवारी ने गहरी साँस ली।

होंठ भिंचे देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।

“मुझे तो समझ नहीं आ रहा कि ये जानलेवा हमले कौन कर रहा है। तीन की जान ले चुका है। अगर तुम लोगों के पीछे ही वो पड़ा होता तो यही सोचता वो तुम लोगों का दुश्मन है।” रंजन तिवारी गम्भीर स्वर में कह उठा - “लेकिन उसने मुझ पर भी हमला किया। ये जुदा बात है कि उसे कामयाबी नहीं मिली। सब कुछ सोचकर मैं इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हमलावर नहीं चाहता कि हम हीरों की तलाश करें।”

“हाँ। मेरा भी कुछ ऐसा ही ख्याल बनता जा रहा है कि वो नहीं चाहता कोई हीरों की तलाश करें।”

“क्यों?”

“क्योंकि शायद हीरे उसके पास हैं। और उसे डर है कि हीरों की तलाश करते-करते हम उस तक पहुँच सकते हैं। इसलिए हम लोगों पर जानलेवा हमले करके, हमारे क़दमों को रोकना चाहता है वो।” देवराज चौहान दरिन्दगी भरे स्वर में कह उठा- “लेकिन उसका ख्याल गलत है। मेरे क़दमों को नहीं रोक पायेगा।”

रंजन तिवारी कुछ न कह सका।

“हीरों की तलाश में हम अपनी भागदौड़ जारी रखेंगे। देर-सवेर में हमारी जाने लेने वाला, खुद-ब-खुद ही हमारे सामने होगा। इतना कुछ करके वो बच नहीं सकेगा।” देवराज चौहान का लहजा खतरनाक था।

रंजन तिवारी, देवराज चौहान को देखता रहा।

“उसने तुम पर हमला किया और भाग गया। उसकी कद काठी कैसी थी?” देवराज चौहान ने पूछा।

“मैं नहीं देख सका।” रंजन तिवारी ने सिर हिलाकर कहा - “तब मैं हक्का-बक्का रह गया था कि मेरी जान लेने कौन आ गया। मेरे सम्भलने से पहले ही वो भाग निकला था।”

देवराज चौहान ने कश लिया।

“लेकिन वो फुर्तीला और ताकतवर था।”

“तुम्हारे ख्याल से उसकी उम्र कितनी होनी चाहिए।” देवराज चौहान ने पूछा।

“तीस और चालीस के बीच में।” रंजन तिवारी कह उठा - “अमृतपाल भी जवान है। ओमवीर भी तीस बत्तीस साल का है। दोनों ही ताकतवर और फुर्तीले हैं।”

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।

“अमृतपाल तो लौटा नहीं। मुझे पूरा विश्वास है कि टैम्पो के साथ वो भाग गया है। उसके भाग जाने की वजह से ही मुझे विश्वास हो चुका है कि हीरे उसी के पास हैं।”

“कुछ घंटे और देख लो। मैं कार को वहाँ दीवार के साथ लगाकर भीतर बैठा हूँ। तुम खुले में आकर, अमृतपाल के आने का इंतजार करो।” देवराज चौहान ने भिंचे स्वर में कहा- “इस दौरान अगर वो हत्यारा तुम्हारी जान लेने की कोशिश करता है तो, मैं पकड़ लूँगा उसे।”

“तुम्हारा क्या ख्याल है, वो यहाँ हो सकता है?”

“हाँ। वो कहीं भी छिपा हो सकता है।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।

रंजन तिवारी की निगाहें अँधेरे में फिरने लगीं।

“तुम्हारा साथी वर्मा, सोहनलाल की देखभाल पर है। उसे वहीं रहने देना।”

तिवारी सिर हिलाकर रह गया।

☐☐☐

अगले दिन सुबह के दस बजे देवराज चौहान और रंजन तिवारी दादर स्टेशन के पास के उसी होटल में मौजूद ब्रेकफास्ट करके हटे थे। नहा-धोकर दोनों तैयार थे। आठ बजे वे कमरे में पहुँचे थे। रात तिवारी पर कोई हमला नहीं हुआ था और अमृतपाल भी नहीं लौटा था।  उन के चेहरे पर रात ठीक से नींद न ले पाने की वजह से थकान नज़र आ रही थी, परन्तु वो ये भी जानते थे कि ये वक्त आराम करने का नहीं है। उनके सामने बहुत कुछ है, करने को।

“अमृतपाल टैम्पो के साथ कल से ही गायब है।” रंजन तिवारी बोला- “अब तुम क्या कहते हो?”

“मेरे ख्याल से तो उसे कमरे पर ही होना चाहिए था। उन्हें कोई काम था तो रात को वापस आ जाना चाहिए था।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा - “उनके गायब होने की वजह मैं नहीं जानता। लेकिन जाने क्यों दिल नहीं मानता कि हीरे उनके पास होंगे। कल उनके चेहरों से सच्चाई झलक रही थी कि हीरे उनके पास नहीं हैं।”

“मैं भी उनके चेहरे की सच्चाई देखना चाहता हूँ।” रंजन तिवारी ने शांत स्वर में कहा- “कहाँ ढूँढे उन्हें?”

“अमृतपाल और बुझे सिंह अपने कमरे पर नहीं लौटे तो, मैं पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि वे मुंबई से ही बाहर निकल गये हैं। उनके पास दो जगह हैं, जाने की।”

“कौन-सी?”

“अमृतपाल का गाँव या फिर टैम्पो क्लीनर बुझे सिंह का गाँव। यूँ ही कल उनके गाँवों का नाम पूछ लिया था। अमृतपाल का गाँव तो यहाँ से चार घंटे दूर है। जबकि बुझे सिंह के गाँव तक पहुँचने में दो घंटे के करीब का वक्त लगेगा। पहले क्लीनर के गाँव चलते हैं। अगर वे दोनों वहाँ नहीं  पहुँचे तो फिर अमृतपाल के गाँव चलेंगे।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।

“गाँव में कहाँ रहते हैं वे, ये भी ढूँढना -पता करना पड़ेगा।”

“ढूँढ लेंगे।” देवराज चौहान उठते हुए बोला- “मैं सोहनलाल का हाल देखने जा रहा हूँ। तुम अमृतपाल के यहाँ जाकर देखो। कहीं वो आ तो नहीं गये। सोहनलाल के पास से होकर, मैं वहीं पहुँचता हूँ।”

☐☐☐

सोहनलाल की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ था। वो रात से ही बेहोशी की हालत में पड़ा था। डॉक्टर उसे होश में लाने का और उसके जख्मों का पूरा ध्यान रख रहे थे। वर्मा, इस बात का पूरा ध्यान रख रहा था कि सोहनलाल के ईलाज में कोई कमी न रहे।

देवराज चौहान के पूछने पर डॉक्टर ने यही कहा कि वे पूरी से भी ज्यादा कोशिश कर रहे हैं। सब कुछ भगवान के भरोसे था। डॉक्टर तो कोशिश कर सकते थे, कर रहे थे।

देवराज चौहान भारी मन से अमृतपाल की गली के बाहर पहुँचा तो तिवारी को एक तरफ खड़े पाया। वो पास आया और दरवाज़ा खोलकर भीतर बैठते हुए कह उठा।

“अमृतपाल नहीं लौटा।”

देवराज चौहान ने बिना कुछ कहे कार आगे बढ़ा दी।

“अब, किस तरफ?” रंजन तिवारी ने पूछा।

“गाँव। पहले टैम्पो क्लीनर बुझे सिंह के गाँव। वो पास पड़ता है, अगर वो वहाँ नहीं पहुँचे तो अमृतपाल के गाँव चलेंगे। मुझे पूरा विश्वास है कि वे अपने गाँव चले गये हैं।”

“लेकिन तुमने तो उन्हें कमरे में रहने को कहा था।”

“हाँ।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया - “मुझे लगता है दोनों यहाँ के हालातों से घबराकर भाग गये हैं। नानकचंद की हत्या होते देख वो ज्यादा घबरा गये होंगे और मुम्बई से निकल गये।”

“जबकि मेरा ख्याल है, हीरे उनके पास थे और उन्हें इस बात का खतरा लगने लगा था कि कहीं तुम किसी तरह उनसे हीरे वसूल न कर लो, या फिर नानकचंद की तरह उनकी जान भी न चली जाए। ऐसे में उन्हें मुम्बई से खिसक जाने में ही अपनी भलाई नजर आई -।” तिवारी कह उठा।

देवराज चौहान ने जवाब में कुछ नहीं कहा।

“सोहनलाल की हालत कैसी है?” रंजन तिवारी ने पूछा।

“कोई फर्क नहीं पड़ा। कल जैसी ही है। होश नहीं आया उसे।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

“डॉक्टर क्या कहता है?”

“वो अपनी कोशिश कर रहे हैं। यकीन के साथ सोहनलाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।”

रंजन तिवारी अब कहता तो, क्या?

“चाकू से वार करने वाला, जो भी है।” देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर खतरनाक स्वर में कह उठा- “वो चाकू इस्तेमाल करने में दक्ष है और ये बात बखूबी जानता है कि किसी भी कि जान लेने के लिए, चाकू का वार कहाँ किया जाना चाहिए। वो बहुत ही एक्सपर्ट चाकूबाज है।”

“और पुलिस ट्रेनिंग में ये बात भी बताई जाती है कि जरूरत पड़ने पर चाकू का वार, सामने वाले को घायल करने के लिए कहाँ किया जाना चाहिए और खत्म करना हो तो, वार कहाँ करना चाहिए।”

“क्या मतलब?”

“ओमवीर। कांस्टेबल ओमवीर।” तिवारी ने देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान के जबड़ों में कसाब आ गया। बोला कुछ नहीं।

“पहले अमृतपाल को देख लें। बात नहीं बनी तो मेरा विश्वास करो। वो ओमवीर ही है, जिसके पास हीरे पहुँच चुके हैं, और हम उस तक न पहुँचे। इसके लिए वो हम सबको खत्म करना चाहता है या फिर डर-डराकर,हमें  हीरों की तलाश से हटा देना चाहता है।” रंजन तिवारी एक-एक शब्द चबाकर कह उठा।

☐☐☐

एक दिन पहले की बात है जब बुझे सिंह अमृतपाल के साथ अपने गाँव पहुंचा।

शाम के छः बज रहे थे। वो कच्चा-पक्का गाँव था। दूर-दूर तक खेत-खलिहान लहराते नज़र आ रहे थे। गाँव में ही छोटा-सा बाज़ार था, जहाँ पंद्रह-बीस दुकानें आमने-सामने बनी हुई थीं। गाँव वालों की छोटी जरूरतों की चीजें वहाँ से मिल जाती थीं। कोई बड़ी चीज (ज्यादा कीमत वाली) चाहिए हो तो छः-सात किलोमीटर दूर, कस्बे तक जाना पड़ता था।

“लो उस्ताद जी।” बुझे सिंह ख़ुशी-ख़ुशी कह उठा - “पौंच गये गाँव। शहरी भूतों से तो पीछा छूटा और गाँव के भूत बहुत शरीफ होते हैं जी। एक मुट्ठी आटा भी दे दो तो, मेहरबानी देकर चले जाते हैं।”

अमृतपाल ने कुछ नहीं कहा।

“मेरी बहन बोत खुश हो जाएगी हमें देखकर। देखना उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ेंगे। ऐसे लगेगा जैसे हवा में उड़ रही हो ख़ुशी में। सुबह तक सबको पता चल जायेगा कि बुझया आ गया वे। और ओ सारे मेरे बाहर निकलने का इंतजार करेंगे कि, बुझया का हाल-चाल पूछें। शहर की खबरें मालूम हो उन्हें। बुझया जब गाँव आता है तो आधा गाँव खुश हो जाता है।”

“आधा गाँव।” अमृतपाल मुस्कराया - “पूरा क्यों नहीं, खुश होता।”

“वो बात ये है कि उस्ताद जी कि बाकी का आधा गाँव खाने-कमाने में लगा होता है। उनके पास फुर्सत ही कहाँ होती है, खुश होने की। सुबह खेतों में गये और शाम को थके-टूटे आकर चारपाई तोड़ दी। कई बार तो आस-पड़ोस की औरतें मेरे पास आती हैं कि रात को तेरे चाचे ने चारपाई का पाया तोड़ दिया। इसे ठीक करवाऊँ या नया लगवा दूँ।”

“बहुत पूछ है तेरी -।”

“बोत जी बोत!” बुझे सिंह छाती पर हाथ मारकर बोला- “एक बार तो पड़ोस में लड़की का ब्याह था। मुहूर्त निकला जा रहा था और लड़की मण्डप में बैठने को तैयार नहीं थी। कहती थी जब तक बुझया कसबे से नहीं लौटेंगे, तब तक मैं फेरों पर नेई बैठूँगी। बोत समझाया सबने। पर वो थी कि मानी नहीं। सब परेशान हो गये। फिर मैं आया तो उसने फेरे लिए। ब्याह किया।”

“तेरे आने पर उसने फेरे क्यों लिए?”

“वा-जी-वा! मेरे आने से पहले वो फेरे कैसे ले सकती थी। जो साड़ी डालकर उसने फेरे लेने थे,उस साड़ी का फॉल नहीं लगा था। और गाँव की दुकान पे उस रंग का फॉल नहीं था। तो मैं उसकी साड़ी लेकर साइकिल पर कस्बे में गया था। फॉल लगवाकर लाया। वो साड़ी उसने पहनी और फिर फेरे लेकर अपने ससुराल गई।”

“मान गये तेरी पूछ को। सिगरेट सुलगाकर दे।”

बुझे सिंह ने सिगरेट सुलगाकर उसे दी।

“अब तेरा गाँव कहाँ है?”

“वो रहा उस्ताद जी। वो देखा, जहाँ बड़ा-सा आम का पेड़ नज़र आ रहा है। उस पर सावन का झूला पड़ा हुआ है और गाँव की नटखट लड़कियाँ झूला झूल रही हैं। थोड़ा-सा आगे जाकर बायें को मोड़ लेना। सीधी सड़क दो मिनट में ही गाँव में पहुँचा देगी।”

कुछ देर बाद ही टैम्पो गाँव में प्रवेश कर गया। बुझे सिंह रास्ता बताता रहा। टैम्पो कच्ची-पक्की गलियों से होता हुआ आगे बढ़ता रहा।

“उस्ताद जी!”

“हूँ -।”

“फुर्सत दे वक्त, टैम्पो नू खोल-खाल के देखेंगे कि कहीं हीरे न पड़े हों।”

“अब नहीं है टैम्पो में हीरे किसी ने निकाल लिए हैं। पहले जरूर थे। तब हमें मालूम नहीं हुआ।”

“फिर भी उस्ताद जी। देख लेने में क्या हर्ज है। लेकिन तोते वाले ज्योतिषी की बात तो सच हो गई कि मेरी बहन का ब्याह जिसके साथ होगा,उसके पास एक बार बोत बड़ी दौलत आएगी। ये अलग बात है कि वो दौलत को संभाल पाता है या नहीं और आप नहीं संभाल पाये। कोई बात नहीं। जो होना है, वो तो होना ही है। अब आप ये बताओ कि तोते वाले ज्योतिषी के मुताबिक़ आप मेरी बहन से ब्याह कब कर रहे हो?”

“बुझया। तू -।”

“देखो उस्ताद जी! अब मौक़ा भी है, फुर्सत भी है। पूरा वक्त है हनीमून का भी। मैं तो चारपाई बाहर बिछा लिया करूँगा कि आपको कोई डिस्टर्ब न करे। सुबह उठने में देरी हो गई तो कोई बात नहीं। नाश्ता पड़ोसी के यहाँ कर लिया करूँगा। हाँ, कर देने में भलाई ही भलाई है। दस हजार की गड्डी है पास में। ब्याह में जो एक दो हजार का खर्चा होता है, वो गड्डी में से ही -।”

“गड्डी निकाल।”

“क्या?”

“गड्डी मेरे को दे दस हजार की। वो तेरे लिए नहीं है। टैम्पो की सीटों के कवर लगवाने के लिए है। तू टैम्पो पर तनख्वाह पर है। पार्टनर नहीं है मेरा।”

“वाह उस्ताद जी!” बुझे सिंह जेब से गड्डी निकालता हुआ बोला- “माल मालका दां और मजे तुसी लो। मेरी किस्मत में तो टैम्पो का झाडू-पौचा ही लिखा है। बस वो काले वाले गेट के पास टैम्पो रोक दो। वो ही घर है मेरा।”

अमृतपाल ने टैम्पो वहीं ले जा रोका।

“देखो उस्ताद जी! वहाँ मुझे टैम्पो का कोई काम करने को मत कहना। दरवाजे-खिड़कियाँ तुसी ही बंद करके आना। गाँव में इज्जत है मेरी। लोग देखेंगे तो क्या सोचेंगे कि बुझया दूसरे के टैम्पो की खिड़कियाँ-दरवाजे बंद करता फिर रहा है।”

अमृतपाल ने मुस्कराकर इंजन बंद किया और चाबी जेब में डाल दी।

“मैं अन्दर जा रहा हूँ। तुसी भी आ जाना उस्ताद जी।” कहने के साथ ही बुझया दरवाज़ा खोलकर नीचे उतरा और आगे बढ़कर टूटा-पुराना काला गेट धकेलता हुआ भीतर प्रवेश कर गया - “ओ चन्द्रकांता! कहाँ है भई तू। देख तेरा पाई(भाई) आ गया। खुश हो जा। वा-भई-वा!”

☐☐☐

टैम्पो का काम खत्म करके दस मिनट बाद अमृतपाल मकान में प्रवेश कर गया। कच्चा-सा घर था। मिट्टी के गारे पर ईंट रखकर दीवारें खड़ी की गई थीं। छत की जगह लोहे की चादरें डाल रखी थीं। फर्श मिट्टी का था। जगह अवश्य थोड़ी-सी खुली थी।

सामने ही कमरा था। अमृतपाल भीतर प्रवेश कर गया।

बुझे सिंह अपनी बहन चन्द्रकांता से हँस-हँसकर बातें कर रहा था।

चन्द्रकांता पर निगाह पड़ते ही अमृतपाल का दिल जोरों से धड़का।

दिल से मिले दिल।

वो थी ही इतनी खूबसूरत। चेहरे पर से नजरों ने हटने का नाम नहीं लिया। भरी-पूरी नदी में जैसे जोरों का उफान आ गया हो। कुछ ऐसा था चन्द्रकांता का पूरा का पूरा हाल।

चन्द्रकांता की नजरें अमृतपाल आर पड़ीं तो -।

बहुत कर दी मेहरबान आते-आते।

कुछ एस ही हाल हो गया  चन्द्रकांता का। भरा-पूरा बाँका जवान उसके सामने खड़ा था। जैसा कि अक्सर वह अपने सपनों में देखती थी। उसके दिल के तारों का पूरा बंडल झनझना उठा।

आँखों के रास्ते बिना कहे ही एक-दूसरे की बातें पलभर में ही दिलों तक पहुँच गई।

“उस्ताद जी!” बुझे सिंह कह उठा- “देख लिया आपने गरीबों दा मकान। और ये मेरी बहन है चन्द्रकांता। वैसे पहचान तो लिया होगा कि ये मेरी बहन ही है। वो बात ये है कि देखने वाले कई बार धोखा खा जाते हैं कि ये बुझया की बहन कैसे हो सकती है। वो बात ये है उस्ताद जी कि जब मैं पैदा हुआ तो मेरी माँ का रंग साँवला था। मेरे पैदा होने के बाद मेरी माँ ने पाउडर लगाना शुरू कर दिया तो रंग गोरा होने लगा और जब ये मेरी बहना पैदा हुई तो माँ ने पाउडर लगा रखा था, तभी इसका रंग गोरा है और मेरा साँवला। छोटी-सी बात है। ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, इस मामले में।”

अमृतपाल सिर हिलाकर रह गया। चन्द्रकांता पर से नजरें हटाता तो, पुनः उस पर आ टिकतीं। नजरें बेकाबू हुई हद से बाहर होती जा रही थीं उसकी।

“तू खड़ी-खड़ी मुँह क्या देख रही है। साथ जोड़कर नमस्ते कर। मेरे उस्ताद जी आये हैं।”

चन्द्रकांता  ने फौरन हाथ जोड़कर मुस्कराकर कहा।

“नमस्ते जी।”

क्या मुस्कान है। अमृतपाल को लगा, पागल हो जायेगा वो।

“उस्ताद जी! मेरी बहन पूरी छः क्लासें पढ़ी है। अखबार पढ़ लेती है। किताबें पढ़ लेती है। एक बार तो गाँव में, पुलिस ने डाकू की फोटो लगाकर ढाई हजार का ईनाम भी उस पर छाप दिया था तो इसने पढ़कर मुझे बता दिया था कि जो उस डाकू को पकड़ेगा उसे पच्चीस सौ रुपया मिलेगा। वो अलग बात थी कि डाकू को सतपाल ने पकड़ लिया और ईनाम मुझे नहीं मिला। तू तभी तक खड़ी है। उस्ताद जी क्या नीचे बैठेंगे। वो टूटी हुई कुर्सी ला, जो -।”

अमृतपाल फौरन नीचे बैठे गया।

“नीचे ही बैठ गये उस्ताद जी! कोई बात नहीं, आखिर टूटी कुर्सी पर भी कब तक बैठा जाता। नीचे दर्द होने लगती तो बाद में भी नीचे ही बैठना पड़ता। तू अभी तक खड़ी है! पानी पिला उस्ताद जी को।”

चन्द्रकांता पलटी और कमरे से बाहर  निकलती चली गई।

“मज़ा आ गया घर की जमीन पर बैठकर। क्यों उस्ताद जी। तुसी बैठो मैं हाथ-मुँह धोकर आता हूँ। रात को नहाने में मज़ा आता है गाँव में। बोत ठण्डी हवा चलती है रात को।” बुझे सिंह उठा और बाहर निकल गया।

तभी चन्द्रकांता पीतल के बड़े गिलास में पानी लाई। पास पहुँची। नीचे झुकर पानी का गिलास आगे बढ़ाया। दोनों की नजरें मिली। मीठी-मीठी घंटियाँ बजने लगीं।

आप आज तक कहाँ थे मेरे सरताज?

तुम्हारी ही तलाश में भटक रहा था चन्द्रकांता।

मुझे छोड़कर चले तो नहीं जाओगे?

ऐसा मत कहो चन्द्रकांता। मैं तो तुम्हें दुल्हन बनाकर ले जाने आया हूँ।

अमृतपाल ने हाथ बढ़ाकर पानी का गिलास थामा। हाथों की उँगलियाँ आपस में टकराई तो चन्द्रकांता ने शर्माकर सिर झुका लिया। अमृतपाल ने पानी का गिलास होंठों से लगाया और उसके खूबसूरत चेहरे पर नजरें टिकाये गिलास खाली कर दिया। चन्द्रकांता ने पल भर के लिए नजरें उठाईं तो उसे अपनी तरफ देखता पाकर, पुनः शरमाकर सिर झुका लिया।

“चन्द्रकांता!” बुझे सिंह भीतर प्रवेश करता हुआ बोला। चन्द्रकांता। अमृतपाल से खाली गिलास थामकर, खड़ी हो गई - “अब तो चाय पीने का वक्त निकल चुका है। चाय बनाकर, क्यों दूध-चीनी और चाय की पत्ती खराब करती है। सीधे-सीधे रोटी बनाने की तैयारी कर। शहर में हम मक्खन के बिना रोटी नहीं खाते। खैर, यहाँ पर तड़का तो डालडे का लगा लेना और वो जो शुद्ध घी का डिब्बा मैं पिछली बार लाया था उसमें से थोड़ा-सा घी दाल-सब्जी के ऊपर डाल देना। खुशबू से ही, दिल को तस्सली देकर काम चला लेंगे।”

अमृतपाल और चन्द्रकांता की नजरें मिलीं।

अपने सरताज की दाल-सब्जी मैं शुद्ध घी में ही बनाऊँगी।

मुझे शुद्ध घी का क्या करना चन्द्रकांता! तू मिल गई तो मुझे लग रहा है, जैसे मुझे दूध और घी की नदी मिल गई हो। तेरे हाथों की सूखी रोटी खाकर भी मैं  धन्य हो जाऊँगा।

मेरे होते हुए सूखी रोटी खायें आपके दुश्मन।

सूखी दे, गीली दे। अब तो तेरा अमृतपाल, तेरे हवाले है चन्द्रकांता। जो देगी ले लूँगा। जैसे रखेगी, रह लूँगा। बस, मेरे से जुदा मत होना। मेरी बनकर रहना।

जुदाई का शब्द फिर कभी होंठों पर मत लाईयेगा। हम तो एक-दूजे के लिए बने हैं। मैं तो मर ही जाऊँगी आपसे जुदा होने की भी सोचकर।

“रोटी वगैरह की तैयारी कर। उस्ताद जी को वक्त पर रोटी मिलनी चाहिए। क्यों उस्ताद जी!”

एक दूसरे की आँखों में झाँकती दोनों की आँखें हटीं।

चन्द्रकांता गिलास थामे कमरे से बाहर निकल गई।

“क्यों उस्ताद जी! कैसा लगा?”

“क्या?” अमृतपाल के होंठों से निकला।

“मेरा गाँव। मेरा घर।”

“बहुत अच्छा।” चन्द्रकांता के सपनों में खोया, अमृतपाल कह उठा।

“क्यों मजाक करते हो उस्ताद जी!” बुझे सिंह ने दाँत दिखाये - “गाँव तो आपका बढ़िया है। कितना बड़ा खुला मकान है आपका। वो भी पक्का। कितने ज्यादा कमरे हैं। एक कमरे में तो डबल बेड भी है। मेरा तो वहाँ बहुत दिल लगता है। बहन से न मिलना होता तो हम वहीं जाते। आपके गाँव।”

“बुझया! मेरा गाँव तो बेकार है। जो यहाँ है, भला वो मेरे गाँव में कहा।” अमृतपाल ने गहरी साँस ली।

“ये बात तो है। हमारे गाँव में तोते वाला ज्योतिषी ही है। वो आपके गाँव में नहीं है। कल जाऊँगा उससे मिलने। वो मुझे देखकर बहुत खुश होगा। देखूँगा, उसने शादी-ब्याह करवाने का जो नया बिजनेस खोला है वो चला कि नहीं। हो सकता है, शायद चन्द्रकांता के लिए उसने अच्छा सा रिश्ता संभाल रखा हो।”

अमृतपाल के दिल पर छुरियाँ चलने लगीं।

उसके बाद तो जब-जब अमृतपाल के सामने चन्द्रकांता आती तो दोनों के दिल बातें करने लगते और होंठ एकदम बंद। न इधर चैन तो न उधर चैन।

☐☐☐

अगले दिन सुबह!

दिल से दिल फिर टकराने लगे।

अमृतपाल और बुझे सिंह ने नाश्ता किया। कल वाले ही सादे से, सूती सूट में चन्द्रकांता चाँद का टुकड़ा लग रही थी। दोनों के दिल एक दूसरे को देखकर गाने गा रहे थे।

“उस्ताद जी!” बुझे सिंह कह उठा - “चल्लो। तोते वाले ज्योतिषी के पास चलते हैं।”

“तू जा।”

“तुसी?”

“मैं आराम करूँगा बुझया , तोते वाले ज्योतिषी से फिर मिल लूँगा।”

“ठीक वे। तुसी कम से कम जाने के वास्ते हाँ तो की। ओ चन्द्रकांता! चन्द्रकांता?”

चन्द्रकांता फ़ौरन हाज़िर।

“मैं तोते वाले ज्योतिषी के पास जा रहा हूँ। तेरे लिए शायद कोई बढ़िया-सा रिश्ता मिल जाए। उस्ताद जी, आराम करेंगे। इनकी चाय-पानी का ख्याल रखना। फ़िक्र नेई कर। बोत शरीफ बंदे हैं ने उस्ताद जी।”

चन्द्रकांता सिर हिलाकर रह गई।

बुझे सिंह बाहर निकल गया।

अमृतपाल और चन्द्रकांता की नजरें मिलीं।

मिले। दो दिल मिले। अब कोई गम नहीं।

मेरे सरताज। तुसी आराम करो। मैं दोपहर का खाना तैयार कर लूँ।

मैं भूखा रहना गँवारा कर लूँगा। तेरी सूरत मुझसे दूर हो जाए। ये मैं नहीं सह सकता।

कैसी बातें करते हो जी! मेरे होते हुए, भूखे रहें आपके दुश्मन।

न जाओ चन्द्रकांता। कुछ पल रुक जाओ। बैठ जाओ मेरे पास।

चन्द्रकांता के चेहरे पर शर्म की लाली उभरी और दुपट्टा, होंठों से दबाती हुई पलटी और दौड़ती हुई कमरे से बाहर निकल गई। चन्द्रकांता को गया पाकर अमृतपाल तड़प उठा। कुछ पल बीते, जब उससे न रहा गया तो वो उठा और उस दरवाजे की तरफ बढ़ गया, जिधर चन्द्रकांता गई थी। चन्द्रकांता को उसने पीछे वाले आँगन में चारपाई पर बैठे सब्जी काटते पाया।

अमृतपाल पास पहुँचकर, चारपाई के कोने में बैठ गया।

थोड़ा-सा इधर होकर बैठिये मेरे सरताज ! कोने से आप नीचे गिर जायेंगे।

तेरे क़दमों में जान निकले तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है।

छी! कैसी बातें करते हो। तुसी बूढ़े हो जाओगे तो भी मरने नहीं दूँगी। सावित्री की तरह यमराज के हाथों से भी छीनकर ले जाऊँगी।

अमृतपाल बेचैन-सा तड़पकर कह उठा।

“चन्द्रकांता।”

“मेरे सरताज।” चन्द्रकांता के होंठों से प्यार की गहराइयों में लिपटे शब्द निकले।

“ब्याह की कौन-सी तारीख पक्की करूँ? मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।” अमृतपाल प्यार से पागल हो उठा था।

“सरताज!” चन्द्रकांता के होंठों से शब्द निकले - “हमें मुहूर्त और तारीख से क्या लेना देना। आज से अच्छा शुभ दिन कौन-सा हो सकता है। मंदिर चलकर पण्डित से दस मिनट में ब्याह करवा लेते हैं।”

“अभी चलें?”

“जैसा मेरे सरताज का हुक्म। मैं हाथ-मुँह धोकर आती हूँ।” सिर झुकाए, शर्म से डूबे शब्दों में कहती हुई चन्द्रकांता उठी और वहाँ से भागती चली गई।

अमृतपाल दीवानों की तरह उसे जाते देखता रहा।

☐☐☐

बुझे सिंह दोपहर तीन बजे लौटा।

तब तक ब्याह के पश्चात अमृतपाल और चन्द्रकांता सुहाग दिन भी मना चुके थे।

“ओ चन्द्रकांता, भई रोटी वगेरह दे। बोत भूख लग रही है। मुम्बई में तो अब तक खा-पीकर हजम भी हो जाती थी रोटी। साथ में तेरे को खुशखबरी भी सुनाता हूँ। तोते वाले ज्योतिषी ने बोला है, आज तेरे ग्रह बहुत अच्छी हालत में आ गये हैं। अगर आज तेरी शादी हो गई तो ज़िन्दगी भर तू रानी बनकर रहेगी। साथ ही तोते वाले ज्योतिषी ने एक लड़का भी बताया है। शाम तक ब्याह हो जाये तो तेरी किस्मत जाग जायेगी। ये भी सुन ले। अगर आज तेरा ब्याह न हुआ तो ग्रहों के अनुसार अगले पचास बरस तक तेरी किस्मत में ब्याह का योग नहीं है। तू रोटी दे। पेट भर जाएगा तो, मिल बैठ के फैसला कर लेते हैं कि क्या करना है।” घर में आने के बाद कहते हुए बुझे सिंह चारपाई पर आ बैठा था।

कोई आवाज़ नहीं आई? जवाब में सुनने को।

“चन्द्रकांता कहाँ है तू?” बुझे सिंह ने फिर पुकारा - “उस्ताद जी! तुसी कहाँ गुम हो गये?”

कोई आवाज़ नहीं।

“कमाल वे! कईं चन्द्रकांता उस्ताद जी को, हमारे गाँव के लहलहाते खेत दिखाने तो नेई ले गई। याँ तो भूख के मारे जान निकल रही है। वो कईं खेतों में गन्ना चूस रहे होंगे।” बुझे सिंह गहरी साँस लेकर उठा और घर का फेरा लगाने के इरादे से आगे बढ़ गया।

दूसरे कमरे का दवाजा बंद मिला।

“कौन है अन्दर?” बुझे सिंह ने दरवाज़ा थपथपाया।

तीसरी बार थपथपाने पर भीतर से चन्द्रकांता की आवाज़ आई।

“पराजी (भाई साहब) मैं हूँ अन्दर।”

“तू अन्दर क्या कर ही है? मैं कब से आवाजें मार रहा हूँ कि मुझे भूख लगी है।”

“आज खाना नहीं बना। किसी के घर से खा आओ।”

“पागल तो नहीं हो गई चन्द्रकांता। खाना नहीं बना। मेरे उस्ताद जी क्या सोचेंगे कि बुझया के घर जाकर वो भूखे रहे। मेरे लिए तो डूब मरने वाली बात हो जायेगी।”

“उनको भी आज भूख नहीं है।” कमरे के भीतर से चन्द्रकांता की आवाज़ आई।

“कमाल वे! उस्ताद जी को भूख नेई है। ये तो बड़ी अजीब बात है। मुझे भूख लगे और उस्ताद जी को न लगे। पर ये बता तू कमरे में क्यों बंद हुई पड़ी है। उस्ताद जी खेतों में तो नेई चले गये।”

“जी, वो तो मेरे पास हैं पराजी।”

“पास हैं?” बुझे सिंह के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे - “काँ पे पास हैं।”

“कमरे में।”

“कमरे में! क्या मतलब! दरवाजा बंद करके तुसी दोनों कमरे में बंद हो।” बुझे सिंह का मुँह खुला-का-खुला रह गया - “ये क्या कर रहे हो? शर्म नेई आती?”

तभी दरवाजा खुला और चन्द्रकांता नजर आई। कपड़े तो वे ही पहने हुए थे, परन्तु माँग में सिन्दूर लगा हुआ था। चेहरे पर शीशे जैसी, ऐसी चमक थी कि बयान कर पाना सम्भव नहीं था।

चन्द्रकांता की माँग में सिन्दूर लगा देखकर बुझे सिंह की आँखें फैल गईं।

“ये क्या कर लिया तूने?” उसके होंठों से निकला।

“ब्याह कर लिया पराजी(भाई साहब)। ओ बोत अच्छे ने।”

“ओ -कौन -उस्ताद जी।”

“उस्ताद जी तो आपके हैं। मेरे तो 'वो' हैं।”

बुझे सिंह ख़ुशी से भर उठा।

“वा-पई-वा! तोते वाले ज्योतिषी ने ठीक ही कहा था, जब तेरा ब्याह होगा तो झटपट हो जायेगा। मैं भी तो सोचूँ कि आते वक्त गली में लोग मुझे बधाईयाँ क्यों दे रहे हैं। भूख लगी थी तो पूछने का टाइम नेई मिला कि बधाईयाँ क्यों दे रहे थे। मैं तो -।”

“वो सब ब्याह में शामिल थे। मंदिर साथ गये थे।”

“समझ गया। समझ गया। बोत बढ़िया हो गया। मुझे तो लग रहा है, जैसे मैं भी ब्याह में ही था। ये बता कि फेरे पूरे लिए या जल्दी में एक आध कम ले लिया।”

“पूरे लिये।”

“चन्द्रकांता!” भीतर से अमृतपाल की आवज़ आई।

“आई जी!” कहने के साथ ही चन्द्रकांता पलटकर भीतर चली गई।

बुझे सिंह हाथ बाँधे वहीँ खड़ा रहा। बहुत खुश था वह।

तभी चन्द्रकांता दरवाज़े पर नज़र आई और हाथ में पकड़े रूपये उसे थमाते हुए बोली।

“परा जी! ये रूपये उन्होंने दिए हैं। उनके लिए कस्बे से कमीज-पैंट और मेरे लिए दो सूटों का बढ़िया-सा कपड़ा ले आओ अभी। वो कह रहे हैं ढाबे पर, मक्खन डालकर खाना खा लेना। मेरे और इनके लिए मक्खन डाल कर पैक करा लाना।”

“ठीक वे।” बुझे सिंह ने नोट पकड़कर सिर हिलाया - “अभी गया और अभी आया।”

“पराजी!” चन्द्रकांता ने शरमाकर मुँह घुमा लिया- “वो एक बात और भी कह रहे हैं।”

“क्या? बोल बहना।”

“वो कह रहे हैं अपनी चारपाई बाहर गेट के पास बिछा लेना। भीतर आना हो तो चार बार खाँसकर आना या फिर जोर से आवाज़ मार के ...।”

“समझ गया। समझ गया। मैं तो पैले ही गेट के पास सोने की सोच रहा था। वाँ पे रात को बोत ठण्डी-ठण्डी हवा आती है। वा-पई-वा मजा आ गया। तो मैं कस्बे में जाकर सामान लेकर शाम के छः बजे तक आ जाऊँगा। बोत अच्छे ग्रहों में तेरा ब्याह हुआ है। रब तेरे को सुखी रखे। मेरी कोशिश रंग ले ही आई। आखिर उस्ताद जी ने ज़िन्दगी भर का, मेरे खाने-पीने का ठेका ले ही लिया। लेते भी क्यों नहीं। अब तो साला बन गया हूँ उस्ताद जी का।”

“चन्द्रकांता-!” भीतर से अमृतपाल की आवाज़ आई - “मेरा टाइम खराब हो रहा -।”

“जीजाजी को बोल -।” बुझे सिंह जल्दी से कह उठा - “बुझया कस्बे चला गया सामान लाने।” कहने के साथ ही वो पलटा और बाहर जाने वाले दरवाजे की तरफ बढ़ता हुआ खुशी से बड़बड़ा उठा- “मेरी बहन का घर बस गया। वा-पई-वा। मज़ा आ गया। सिर से सारा बोझ उतर गया, खाने-कमाने का। सबसे पहले तो कस्बे में पहुँचकर ढेर सारा मक्खन डालकर सब्ज़ी में, रोटी खाऊँगा। ख़ुशी में खाने की पार्टी अकेले ही कर लूँगा। अब उस्ताद जी के पास टैम कहाँ। वो तो गृहस्थी वाले बन गये हैं। पर जो भी हो, मजा आ गया। चौधरी की साइकिल माँग लेता हूँ कस्बे जाने के लिये। अब तो जीजाजी कोई सेकिण्ड हैण्ड साइकिल भी खरीद देंगे, मेरे को। साला हूँ अब टैम्पो वाले का। कोई मज़ाक थोड़े न है।”

☐☐☐

शाम के छः बज रहे थे। बुझे सिंह साइकिल पर कस्बे से, गाँव में वापस लौटा। पीछे कैरियर में सामना फँसा रखा था, जिसे कि बार-बार हाथ पीछे करके, छूकर देख लेता था कि कहीं सामान गिर तो नहीं गया। बहुत खुश था कि बहन की शादी हो गई और वो भी उस्ताद जी के साथ।

अभी उसने गाँव में प्रवेश ही किया था कि उसकी निगाह सामने से आती कार पर पड़ी तो उसने तुरंत ब्रेक मारकर साइकिल रोक ली। उसे लगा इस कार को तो उसने देख रखा है और जब कार पास आई तो पहचान लिया कि इन्हीं कार वालों ने उसे दस हज़ार की गड्डी दी थी।

कार पास आकर रुकी।

देवराज चौहान और रंजन तिवारी बाहर निकले।

“ये तो यहीं मिल गया।” रंजन तिवारी के होंठ सिकुड़े - “ढूँढना नहीं पड़ा -।”

उन्हें देखते ही बुझे सिंह खुश हो उठा।

“आओ जी आओ। बोत ही चंगे मौके पर आये। आज का दिन तो बोत ही किस्मत वाला है। आज मेरी बहन की शादी हो गई उस्ताद जी के साथ। बोत अच्छे हैं उस्ताद जी, नेई तो गरीबों की लड़की से बिना पैसे के कौन ब्याह  करता है। एक पैसा भी नहीं लिया उस्ताद जी ने। अपने पल्ले से खर्च कर रहे हैं। वो आपने दस हजार की गड्डी दी थी, उसी से सारा काम चल रहा है। खबर मिल गई होगी आपको मेरी बहन की शादी की। तभी तो फटाफट आ पहुँचे। आओ जी, आओ। घर पे चलते हैं। दोनों आशीर्वाद देना। सौ-पचास शगुन के तो उनके हाथ पर रख ही दोगे। आज का खर्चा बाहर बाहर से ही निकल आयेगा।”

रंजन तिवारी ने देवराज चौहान को देखा।

“बहुत चालाक बन रहा है, ऐसी बातें करके कि हम ये शक ना करें कि हीरे इनके पास हैं।”तिवारी बोला।

देवराज चौहान ने मुस्कुराकर सिगरेट सुलगा ली।

“चल्लो जी। घर पर चल्लो। शर्माने की क्या जरूरत है। अपना ही घर समझो। आओ जी, आओ।”

उन्होंने कार वहीं छोड़ी और बुझे सिंह  के साथ चल पड़े।

बुझे सिंह खुशी-खुशी साइकिल थामे उनके साथ था।

“मैंने तुम दोनों को कहा था कि अपने उसी कमरे में रहना।” देवराज चौहान बोला  - “गाँव में क्यों आये?”

“अब आपको क्या बतायें जी! जो भी होता है सब ऊपर वाले के इशारे पर होता है। ग्रह बहुत ही बलवान होते हैं। आपके साथ तो मैं लड़ाई कर सकता हूँ। लेकिन ग्रहों के साथ कौन लड़े। वो क्या है जी, ऊपर वाले ने मेरी बहन की और उस्ताद जी की शादी का आज का मुहूर्त निकाला था। यही बात रही कि ग्रह हमें कमरे में न ले जाकर गांव में ले आये और उन दोनों का ब्याह हो गया। मैं तो तोते वाले ज्योतिषी के पास गया हुआ था। सब कुछ इतनी जल्दी हो गया कि मैं ब्याह में शामिल न हो सका। मौहल्ले वाले हो गये। ऊपर वाले का खेल है सारा। खैर, बहन का घर बस गया। सारी उम्र के लिए मेरी भी रोटी पानी का जुगाड़ हो गया। मेरे माँ-बाप ज़िन्दा होते तो ये  सब देख कर कितना खुश होते कि बुझया ने सब ठीक कर दिया-।”

“बहुत चालू है ये?” रंजन तिवारी धीरे स्वर में देवराज चौहान के कान में बोला- “बीमा कंपनी के मैंने ऐसे कई केस सुलझाये हैं कि जिसमें अपराधी अपनी हरकतों और बातों से खुद पर शक ही नहीं होने देता कि सब कुछ उसी का किया-धरा है। यह मामला भी मुझे ऐसा ही लग रहा है। ये जानबूझकर भोलेपन की बातें कर रहा है।”

देवराज चौहान पुनः मुस्कुराया।

“तुम मुस्कुरा रहे हो-।” रंजन तिवारी के स्वर में उखड़ापन आ गया।

“तुम यहाँ अपनी तसल्ली करने आए हो -?”  देवराज चौहान बोला।

“हाँ -।”

“तो करो -।”

“और तुम?”

“मेरी हो चुकी है। हीरे इनके पास नहीं है।” देवराज चौहान का स्वर शांत और पक्का था।

“मतलब की हीरे न  इनके पास और  ना टैम्पो  में हैं।”

“हाँ। टैम्पो में भी नहीं है। स्टैपनी में थे और कोई स्टैपनी बदल चुका है।”

“तुम देखना हीरे इनके पास से निकलेंगे। मैं ही निकालूँगा।” देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।

उन्हें धीमे से बातें करते पाकर बुझे सिंह  बड़बड़ा उठा।

“ये  आपस में तय कर रहे होंगे कि शगुन कितना डालना है।”

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अमृतपाल और चन्द्रकांता नहा-धोकर आंगन में चारपाई बिछाई शाम की ठंडी हवा में अपने मधुर सपनों में खोये बातें कर रहे थे। चंद ही घण्टों में चन्द्रकांता की खूबसूरती में और भी निखार आ गया। माँग  में चमकता सिंदूर , बहुत सज रहा था उस पर।

“सुनिये जी- !”चन्द्रकांता ने मीठे-मदहोश स्वर में पुकारा।

“कहो मेरी चन्द्रकांता -!” अमृतपाल प्यार के सागर में डूबा हुआ था।

“आप मुझे ऐसे ही प्यार करते रहेंगे? आपका प्यार कम तो नहीं होगा?”

कैसी बात करती हो चन्द्रकांता! हम तो बने ही एक-दूजे के लिए....।”

आगे के शब्द अमृतपाल के होठों में ही रह गये। हक्की-बक्की हालत में मुँह खुला ही रह गया। प्यार का भूत, गधे के सिर से सींग की भांति गायब हो गया। उसने बुझे सिंह के साथ देवराज चौहान और रंजन तिवारी को भीतर प्रवेश करते देखा तो, चेहरे पर से कई रंग आकर चले गये।

“उस्ताद जी, देखो। मेहमान आये हैं। ब्याह की  बधाई देने। शगुन वगैरह भी डालेंगे ही। चन्द्रकांता, भीतर से दूसरी चारपाई ले आ और ठंडे-गर्म का इंतजाम कर। ये ले। ये  सामान मँगवाया था, ले आया हूँ। खाना भी पैक है। भीतर ले जा। बैठने का इंतजाम जल्दी कर -।”

चंद्रकांता सामान भीतर ले गई।

भीतर से दूसरी चारपाई आ गई। दोनों बैठ गये। बुझे सिंह भी बैठा।

अमृतपाल समझ नहीं पा रहा था कि यह दोनों यहाँ कैसे आ गये।

“हूँ-।” तिवारी कड़वे स्वर में  कह उठा - “तो तुम समझते हो कि मुम्बई  से भागकर यहाँ पर आ जाओगे और तुम्हें कोई ढूँढ नहीं सकेगा। सारे हीरे खुद ही हजम कर जाओगे। तुम्हारी सारी योजना बेकार  हो गई। हमारे हाथों से कोई नहीं बचा। समझदारी इसी में है कि थोड़े-बहुत हीरे रखकर, बाकी के हमे वापस दे दो। वरना तुम अच्छी तरह समझ सकते हो कि हम तुम्हारा क्या हाल करेंगे। तुम -।”

“मुझे नहीं मालूम हीरे कहाँ हैं।” अमृतपाल घबराकर कह उठा - “मेरे पास हीरे नहीं हैं।”

रंजन तिवारी के दाँत भिंच गये।

“बेटे! हम तेरा ये जवाब सुनने नहीं आये। हमें हीरे -।”

“देखो बाऊजी।” बुझे सिंह उखड़ गया- “तमीज से बात करो। पैले की बात और थी अब ये मेरे जीजाजी हैं। ये मत भूलो कि तुसी मेरे गाँव में, मेरे घर में बैठे हो। बां पकड़ कर बाहर निकाल दूँगा। हीरे-वीरे गये कुएं में। मैंने तो समझा था शगुन के सौ-पचास देने आये हो। तुसी ते आते ही फैलने लगे।”

“अपनी जुबान बंद रख -।” रंजन तिवारी दाँत भींचकर कह उठा।

“क्यों बंद रखूँ? ये मेरा घर है और मेरे सामने मेरे जीजाजी नूँ....।”

तभी रंजन तिवारी ने जेब से रिवॉल्वर निकाली।

रिवॉल्वर देखते ही बुझे सिंह फौरन चुप हो गया।

तिवारी ने रिवॉल्वर जेब में वापस डाली, उसे कठोर निगाहों से घूरते हुए।

“लाला जी-!”बुझे सिंह ठण्डे-ठण्डे, संभलकर मुँह लटका कर कह उठा - “भूतों की तरह क्यों हमारे पीछे पड़ गये हो। हम तो बोत शरीफ बंदे हैं। टैम्पो चला कर ही पेट भरते हैं। मेरी बहन और उस्ताद जी की आज शादी हुई है। कितना खुशी का दिन है। तुसी क्यों रंग में भंग पा रहे हो।”

“हीरे  हमारे वाले करो। हम चले जाते हैं।” राजन तिवारी गुर्राया।

“कर देते हैं जी। हम कब मना कर रहे हैं। पैले हीरे हमें दे दो। तभी तो हम वापस करेंगे। जब हमें दिए ही नहीं तो कां से वापस करेंगे।”बुझे सिंह मुँह लटकाकर कह उठा।

“हीरे स्टैपनी में थे और -।”

“लाला जी! स्टैपनी में हों या स्टेयरिंग में। जब हमने देखे ही नहीं तो, हमें इस बारे में क्या मालूम -।”

“तुम झूठ -। “ तिवारी ने कहना चाहा।

“सुनो -।”अमृतपाल कह उठा- “तुम लोग बड़े धोखे में हमारे पीछे पड़े हो। हमारे पास हीरे  तो क्या, हमने हीरे देखें भी नहीं। टैम्पो की  स्टैपनी  में हीरे रखे हैं तो हमें नहीं मिले। टैम्पो की तो स्टैपनी ही बदल दी किसी ने। हमारे टैम्पो में कोई कुछ रख दे और कोई निकालकर ले जाये तो, इसमें हमारी क्या जिम्मेवारी -।”

“ठीक बात तो कही जीजाजी ने  -।”

“मैं तुम लोगों के झूठ में नहीं आने वाला। हीरे दो, वरना तुम दोनों को गोली मार कर जाऊँगा।”

देवराज चौहान बातों के दौरान खामोश बैठा था।

“जीजाजी को धमकी देते हो गोली मारने की। मैं चौधरी को बुला लाऊँगा। दोनाली बन्दूक है उसके पास। वो बोत गुस्से वाला है। बात बढ़ जायेगी। थाने तक जाना पड़ेगा। हमारी तो तो कोई बात नहीं। तुम लोगों की इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी, थाने जाकर। वैसे भी चौधरी को, कई पुलिस वाले जानते हैं।”

रंजन तिवारी ने कठोर निगाहों से बुझे सिंह को देखा।

“देखते क्या हो जी। बुलाऊँ  चौधरी को -।”

देवराज चौहान के होठों पर शांत मुस्कान उभरी।

तिवारी ने झुँझलाकर देवराज चौहान हो देखा।

“देखा जीजाजी। चौधरी का नाम सुनते ही सीधा हो गया। ये अभी जानते नहीं बुझया को। बुझया की बहुत इज्जत है गाँव में। सब दूर से सलाम मारते हैं। जाओ यहाँ से। नेई तो बात बढ़ जायेगी।”

“तुम्हारे ख्याल से हीरे  इनके पास हैं।” देवराज चौहान रंजन तिवारी से बोला।

“हाँ -।” तिवारी भिंचे होठों से कह उठा।

“ठीक है। तुम अपनी तसल्ली करो। इस घर की तलाशी लो। अगर हीरे इनके पास हैं तो इस वक्त यकीनन वो घर में ही होंगे। टैम्पो को भी देख सकते हो। लेकिन मैं अभी तक, अपनी उसी बात पर कायम हूँ कि हीरों से इनका कोई वास्ता नहीं रहा। अमृतपाल ठीक कहता है किसी ने रखा किसी ने रखे और किसी ने निकाल लिये। और उन्हें कुछ नहीं मालूम कि टैम्पो चोरी होने के बाद, टैम्पो में क्या-क्या हुआ - ?”

“मैं अपनी तस्सली किए बिना यहाँ से नहीं जाऊँगा।” रंजन तिवारी कह उठा।

“आप जैसे भी तसल्ली करना चाहते हैं कर लीजिये।” अमृतपाल कह उठा - “आपको इस बात का विश्वास दिलाने के लिए कि हीरे हमारे पास नहीं है, आप जो कहेंगे हम करने को तैयार हैं।”

“ठीक तो कहते हैं जीजा जी। हम कोई चोर हैं क्या?”

“घर की तलाशी देने में तुम लोगों को कोई ऐतराज है?” रंजन तिवारी ने पूछा

“एतराज कैसा जी! हम खुद आपके साथ घर की तलाशी लेंगे। और बोलो।” बुझे सिंह कह उठा।

रंजन तिवारी ने सिगरेट सुलगाई और बोला।

“सीमापुर आते-जाते रास्ते मे कहीं टैंपो खराब हुआ। किसी मैकेनिक ने टैंपो ठीक किया था?”

“ओ जब टैंपो खराब ही नहीं हुआ तो मैकेनिक बीच मे कैसे आ गया?”

“किसी को टैंपो, कुछ देर के लिए दिया हो?”

“टैंपो भी भला कोई देने की चीज है। हम तो पाँच रूपये किसी को नहीं देते-।”

“अच्छी बात है।” रंजन तिवारी सोच भरे कह उठा –”हम तुम्हारे घर की तलाशी लेंगे। अगर हीरे नहीं मिले तो फिर टैंपो की तलाशी लेंगे।”

“जो मर्जी करो। खाना-वगैरह ले आना। आज घर मे खाना नहीं बना। आज ही मेरी बहन का ब्याह हुआ है। उसके पास टैम नहीं है, खाना बनाने का। और पीछे वाले कमरे की तलाशी लेकर, वो कमरा पहले ही फारिग कर दो। मेरी बहन और जीजाजी ने खा-पीकर सोना है। ये दोनों की खुशियो का दिन है। मैं नहीं चाहता कि मेरे जीजाजी का कोई प्रोग्राम खराब हो–।”

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