वानखेड़े गहरी नींद में था।
सुबह के चार बज रहे थे। भागदौड़ के पश्चात वो दो बजे फ्लैट पर पहुंच कर सोया था।
फोन की बेल बजी। बजती रही। बंद हो गई। परन्तु वानखेड़े की आंख नहीं खुली। दो-तीन बार इसी तरह बेल बजने पर वानखेड़े नींद से कुछ होश में आया। बंद आंखों से ही उसने हाथ बढ़ा कर फोन उठाया और बात की।
“हैलो...।” स्वर नींद से भरा था। आंखें बंद थी।
“वानखेड़े।” खेमकर की आवाज कानों में पड़ी –“परेरा मर गया।”
वानखेड़े के मस्तिष्क को झटका लगा। आंखें उसकी खुल गईं।
“परेरा मर गया।” वानखेड़े के होंठों से निकला।
“हां। सोये-सोये ही उसके दिल ने काम करना बंद कर दिया। अभी-अभी मुझे उसकी मौत की खबर मिली तो...।”
“ये... ये कैसे हो सकता है, इस तरह वो नहीं मर सकता।” वानखेड़े का दिमाग तेजी से दौड़ने लगा।
“वो इसी तरह मरा है।”
“कुछ गड़बड़ है खेमकर। कुछ तो गड़बड़ है।”
“जो भी हो, पुलिस के हाथ खाली हो गये उसके मरते ही...।”
“परेरा का पोस्टमार्टम बढ़िया डॉक्टरों से कराना। वो इस तरह नहीं मर सकता। उसे कुछ दिया गया है।”
“वो पुलिस के सख्त पहरे में था। उसके पास कोई बाहरी इन्सान नहीं पहुंच।”
“ए.सी.पी. चंपानेरकर –।” वानखेड़े के होंठों से निकला।
“चंपानेरकर?”
“वो शाम को परेरा से मिलने आया था। जबकि परेरा से उसका कोई वास्ता नहीं था।”
“परन्तु वो तो शाम को...।”
“उसने परेरा को ज़हर दिया हो सकता है।”
“उसके आने के दस घंटे बाद परेरा का हार्ट फेल हुआ है। ऐसा कौन-सा जहर है जो दस घंटों बाद अपना रंग दिखाये?”
“ऐसे कई ज़हर हैं जो खून में मिलने के घंटों बाद असर दिखाते हैं –वो...।”
“चंपानेरकर परेरा को क्यों मारना चाहेगा?”
“मेरे ख्याल में किसी ना किसी रूप में चंपानेरकर वीरेन्द्र त्यागी से मिला हुआ है। शायद उसी ने त्यागी को सतर्क किया हो कि हम उसके मोबाईल की लोकेशन का पता लगाकर उसके पास पहुंच सकते हैं। तभी तो त्यागी मौके पर भाग निकला और अपना मोबाईल फोन हमें चिढ़ाने के लिए उस फ्लैट के टेबल पर छोड़ गया। उसके बाद चंपानेरकर का परेरा के पास जाना और दस घंटों बाद परेरा का हार्ट फेल हो जाना –ये बातें चंपानेरकर को संदिग्ध बनाती हैं।”
खेमकर की आवाज नहीं आई।
“खेमकर –।” वानखेड़े बोला।
“सुन रहा हूं।”
“मेरी बातें अगर सही है तो चंपानेरकर जरूर जानता है कि त्यागी कहां पर है। चंपानेरकर गद्दार है।”
“चंपानेरकर को टटोलना होगा। उसे रंगे हाथ पकड़ना होगा कि अपने बचाव में कुछ कह भी ना सके।”
“ये कैसे होगा?”
“इस बारे में कुछ खास सोचना होगा। ऐसा खास कि चंपानेरकर की गद्दारी फौरन सामने आ जाये।” वानखेड़े ने सोच भरे स्वर में कहा –“ये बात मुझ पर छोड़ दो। सुबह नौ बजे हम पुलिस हेडक्वार्टर में मिलेंगे।”
“परेरा के मरने की वजह से हम इस मामले में और भी पीछे हो गये हैं –वो पुलिस का जबर्दस्त गवाह बन सकता था।”
“उसे हम वापस तो ला नहीं सकते। परन्तु गद्दार को पकड़ कर उसे सीढ़ी बना कर त्यागी तक पहुंच सकते हैं। अगर चंपानेरकर ही गद्दार है तो वो बहुत जल्द हमारे शिकंजे में होगा। और हमें बतायेगा कि त्यागी कहां पर है।” वानखेड़े के दांत भिंच गये थे।
☐☐☐
अगले दिन सुबह आठ बजे देवराज चौहान और जगमोहन तैयार होने के पश्चात चेहरे पर मेकअप करके चेहरा बदल रहे थे कि देवराज चौहान का मोबाईल बजने लगा। देवराज चौहान ने बात की।
“हैलो।”
“मजे हो रहे हैं मेरे बच्चे।” उधर से विनय बरुटा की मुस्कराती आवाज पड़ी।
देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े। चेहरे पर अजीब से भाव आ गये।
“तुम?” देवराज चौहान के होंठों से निकला। (विनय बरुटा के बारे में जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास ‘रॉबरी किंग’)
“आजकल तो मजे हो रहे हैं। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती कर ली। क्राइम ब्रांच, C.B.I., पुलिस और अब तो सुना है कि एंटी रॉबरी सेल भी तुम्हारी तलाश में जुट चुका है। अपने नाम का बढ़िया ढोल बजा रहे हो।”
“ये काम मैंने नहीं किया।” देवराज चौहान के होंठों से निकला।
जगमोहन की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी, फिर बोला– “कौन है?”
“विनय बरुटा –।” देवराज चौहान ने कहा।
“वो हरामी!” जगमोहन उखड़ा –“उसने तुम्हें बच्चा कहा होगा।”
तभी देवराज चौहान के कानों में उधर से विनय बरुटा की आवाज पड़ी–
“मैं जानता हूं कि ये काम तुमने नहीं किया। मेरा बच्चा इतना गलत काम कर ही नहीं सकता कि बाद में छिपने की जगह ना मिले। मैं ये भी जानता हूं कि ये काम वीरेन्द्र त्यागी ने देवराज चौहान बनकर किया है।”
“तुम कैसे जानते हो?”
“अंडरवर्ल्ड की खबरें रखना तो मेरी मौज मस्ती का हिस्सा है। यूं ही मैं हिन्दुस्तान का नम्बर वन डकैती मास्टर नहीं हूं। आंखें खुली रखना ही मेरी जिन्दगी है। परन्तु तुम्हें त्यागी ने उलटा लाद दिया।”
“त्यागी को जानते हो?”
“मिला नहीं। परन्तु उसके हरामीपन के बारे में सुन रखा है। अब तुम क्या छिपते फिर रहे हो?”
“कुछ भी समझ लो।” देवराज चौहान गम्भीर हो गया।
“त्यागी के बारे में कोई खबर है तुम्हारे पास?”
“क्यों पूछ रहे हो?”
“मेरा बच्चा मुसीबत में है तो मैं आराम से नहीं बैठ सकता। कुछ तो करना ही होगा।”
देवराज चौहान के होंठों पर छोटी सी मुस्कान उभरी और लुप्त हो गई।
“क्या करोगे?”
“प्लानिंग है मेरे दिमाग में कुछ। परन्तु उसका फायदा तभी है जब त्यागी का पता चले। फ़िक्र मत करना, मैं तुम्हारे साथ हूँ और तुम्हारी तरफ से त्यागी को तलाश कर रहा हूं। मिल गया तो हिसाब बराबर कर दूंगा।”
तभी जगमोहन ने इशारे से फोन मांगा देवराज चौहान से।
“जगमोहन तुमसे बात करना चाहता है।” देवराज चौहान ने कहा।
फिर जगमोहन ने विनय बरुटा से बात की।
“तुम सभी जिन्दा हो?” जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा।
“मुझे क्या होना है?”
“100 करोड़ का क्या किया जो मुफ्त में तुम्हें मिल गये थे? मैंने ऊपर वाले से कहा था कि तुम्हारे सौ करोड़ लुट-पुट जायें।” (ये सब जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का उपन्यास ‘रॉबरी किंग’)
“ऊपरवाला क्या तेरा ही है। मेरा कुछ नहीं लगता क्या?” उधर से विनय बरुटा का तीखा स्वर कानों में पड़ा –“मैंने ऊपर वाले से कहा था कि उस 100 करोड़ को डबल कर दे और अब वो डबल हो रहे हैं।”
“कैसे?”
“ये तेरे जानने की बात नहीं है। मेरी बात सुन, तू देवराज चौहान के साथ अपनी जिन्दगी खराब कर रहा है। आधी से ज्यादा तो कर ली। अब जो थोड़ी बहुत बची हैं, उसे मैं संवार दूंगा। तू मेरे साथ काम कर। मैं तेरे को आधा हिस्सा दिया करूंगा। देवराज चौहान तो मेरा बच्चा है। वो क्या डकैतियां करेगा। मैं हिन्दुस्तान का नम्बर वन डकैती मॉस्टर हूं। मेरे साथ...।”
“साले फट्टू! मैंने तेरी कोई डकैती नहीं देखी।” जगमोहन कड़वे स्वर में बोला।
“मैं देवराज चौहान की तरह ढोल पीट कर डकैतियां नहीं करता। चुपचाप काम किया और निकल गये। शोर डाल कर काम किया तो क्या किया। अब देख ले, न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती त्यागी ने देवराज चौहान के सिर लगा दी। मेरे इस तरह के दुश्मन नहीं हैं जो –।”
“जहां गुड़ होता है मक्खियां वहीं होती हैं। तेरे साथ गुड़ नहीं चिपटा।” जगमोहन ने व्यंग्य भरे स्वर में कहा।
“गुड़?”
“मतलब कि नोट, वो तेरे पास –।”
“बहुत हैं। सारी जिन्दगी डकैतियां करके नोट ही तो इकट्ठे किए –।”
“एक बार मुझे पता लग जाये कि तूने माल कहां रखा है तो समझ ले तेरा माल गया।”
“तू मेरे साथ काम करने की सोच। देवराज चौहान की तरह –।”
“तेरे को तो मैं तब देखूंगा जब तू सामने होगा!” जगमोहन ने गुस्से से कहा –“अब तेरे को क्या चाहिये?”
दो पलों की खामोशी के बाद विनय बरुटा की आवाज आई–
“देवराज चौहान इस वक्त मुसीबत में है। त्यागी ने उसे फंसा दिया है। मैं देवराज चौहान के काम आना चाहता हूं। त्यागी को ढूंढ रहा हूं। प्लानिंग है मेरे पास। परन्तु त्यागी का कोई अता-पता नहीं मिल रहा।”
“तेरे को कैसे पता चला कि ये काम त्यागी ने ही किया है?”
“ऐसी बातें पता चल जाना मामूली बात है। पुलिस में, अंडरवर्ल्ड में ऐसे बहुत लोग हैं, जो मुझे खबरें देते हैं। जब मुझे पता चला कि देवराज चौहान के नहीं, वीरेन्द्र त्यागी के फिंगर प्रिंट मिल रहे हैं तो मैं तभी समझ गया कि मामला गड़बड़ है। जब ये जाना कि त्यागी के साथ फेसमास्क बनाने वाला जगजीत है तो मामला समझ में आने में देर नहीं लगी।”
“त्यागी का पता-ठिकाना हमें मिल गया होता तो अब तक उसका काम हो गया होता।” जगमोहन गुर्ग उठा।
“मैं भी इसी कोशिश में लगा हूं तू मेरे बच्चे का ध्यान रखना। मुसीबत में कहीं घबरा ना जाये।”
“बच्चा? वो तो तेरा बाप...।”
उधर से विनय बरुटा ने फोन बंद कर दिया था।
“साला!” जगमोहन बड़बड़ा उठा –“100 करोड़ हजम कर लिए। डकार भी नहीं लिया कमीने ने!”
☐☐☐
जूली ने नहा-धोकर पीले रंग का सूट पहना और लम्बे शीशे के सामने बैठ कर अपने बालों को संवारने लगी।
दो कमरों के फ्लैट में रहती थी जूली। बार डांसर थी। उसी से पैसे कमाकर ये फ्लैट खरीदा था। अच्छा पैसा कमा लेती थी, परन्तु जब से बार डांसिंग का काम खत्म हुआ, तब से कमाई में समस्या आने लगी थी। मजबूरी में चोरी-छिपे जिस्म का सौदा करने लगी और खर्चा चलने लगा। अब दो सालों से ऐसे ही काम चल रहा था। परिवार को नाम पर वो अकेली थी। मां तो उसे जन्म देते ही मर गई की और बाप शराब क पी कर तब मरा जब वो 12 साल की थी।
जैसे-तैसे जूली ने अपने जीवन को संभाला और 15 बरस की उम्र से ही बार में डांस करने का काम कर रही थी। वो खूबसूरत थी। जिस्म तीखा था और 24 की हो चुकी थी।
दो महीने पहले पिंटो उससे मिला और उस पर फिदा हो गया। पिंटो ने उसके सामने ऑफर रखी कि वो उसकी बन कर रहे तो उसे खर्चा दिया करेगा। जूली ने ये बात तुरन्त मान ली। वो जानती थी कि अलग-अलग मर्दों के पास जाने से एक का ही बन कर रहना बेहतर है। अब सिर्फ पिंटो से ही उसका नाता था। पिंटो हर तीन-चार दिन बाद आ जाता था, परन्तु इधर आठ-दस दिन से वो नहीं आया था और फोन करने पर व्यस्त होने की बात कह देता था। पिंटो के लिए पैसे भी खत्म हो गये थे। रह-रह कर जूली के मन में आ रहा था कि कहीं पिंटो उससे पीछा तो नहीं छुड़ा रहा। परन्तु जूली ने खुद को समझाया कि ये बात नहीं हो सकती, अभी उसमें बहुत दम-खम है। अभी तो पिंटो को सालों तक अपनी जवानी के दम पर नचा सकती हैं। जूली ने ये भी सोचा कि पिंटो को कहेगी कि उसे इकट्ठा खर्चा दे दिया करे। घर में राशन-पानी डलवा के रखा करे।
अभी शाम के चार बज रहे थे।
जूली ने बाल संवारने के बाद किचन में जाकर कॉफी बनाई और छोटे से ड्राइंग रूम में बैठ कर कॉफी के छूट लेती अपने जीवन के बारे में सोचने लगी कि ऐसे जिन्दगी नहीं कटेगी। किसी को फंसा कर उसे शादी कर लेनी चाहिये। इस विचार के साथ ही सोचने लगी कि कौन से मुर्गे को शादी के लिए पटाये।
तभी कॉल बेल बजी।
जूली विचारों से बाहर निकली। कॉफी का प्याला रखकर दरवाजे की तरफ बढ़ते सोना कि कहीं पिंटो तो नहीं आ गया।
दरवाजा खोला।
सामने जगमोहन खड़ा था।
जगमोहन के सर कदम पीछे देवराज चौहान खड़ा था –जो कि कहीं और देख रहा था।
“जूली हो तुम?”
“हां।”
“मैं तुमसे मिलने ही आया था।”
जूली दो पलों के लिए हिचकिचाई, फिर कह उठी –
“मैंने पहले वाले सब काम छोड़ दिए हैं।”
“क्यों?” जगमोहन मुस्कराया।
“पिंटो के साथ मेरी बात पक्की हो गई है कि वो मेरा खर्चा उठायेगा।” जूली बोली।
“हम कुछ बात तो कर सकते हैं। सिर्फ बात।”
“ठीक है।” जूली ने पीछे खड़े देवराज चौहान को देखा –“ये तुम्हारे साथ है?”
“हां।”
“तो उसे भी भीतर ले आओ।” जूली पीछे हटती कह उठी।
“उसे बाहर ही रहने दो।” जगमोहन भीतर आया और दरवाजा बंद कर लिया।
जूली सोफे पर जा बैठी थी। जगमोहन को ही देख रही थी।
“क्या बात करना चाहते हो?” जूली ने कॉफी का प्याला उठा लिया।
“पिंटो के साथ कब से हो?”
“दो महीने से।”
“अब वो ही तुम्हारा खर्चा उठाता है?”
“हां”
“पिंटो मेरा दोस्त है। उसने मुझे तुम्हारे बारे में बताया था।” जगमोहन एक कुर्सी पर बैठता सहज स्वर में बोला।
“तुम्हारे दोस्त हैं पिंटो।” जूली ने कॉफी का घूंट भरा –“पर तुम मेरे पास क्या करने आये हो?”
“पिंटो से मुझे कुछ काम है, परन्तु वो मिल नहीं रहा कहीं। मैं तो ये सोचकर यहां आया कि वो यहीं होगा।”
“मेरे पास तो वो 8-10 दिन से नहीं आया।”
“तो मुझे बताओ कि वो कहां है, ताकि मैं उससे मिल सकूं।”
“मैं नहीं जानती।” जूली ने इन्कार में सिर हिलाया –“मैं सच में नहीं जानती।”
जगमोहन ने जेब से 500 के नोटों की गड्डी निकाल कर उसे दिखाई।
जूली की आंखों में चमक आ गई।
“चाहिये ये?” जगमोहन बोला।
“अगर तुम पिंटो को कुछ न बताओ तो...।” जूली मुस्कराई –“तो ठीक है।”
“इस पैसों को पाने के लिए तुम्हें कपड़े नहीं उतारने होंगे।”
“तो?”
“मुझे पिंटो के बारे में बता दो कि मैं उससे कहां मिल सकता हूँ।”
“मैं सच में नहीं जानती।” जूली ने मुंह फुलाया।
“तो ये पचास हजार अपने पास रख लूं वापस?”
“मेरे से मजे ले सकते हो...।” जूली चंचल स्वर में बोली –“मुझे पैसे की जरूरत भी है।”
“पिंटो से तुम्हारी कब बात हुई थी?” जगमोहन ने पूछा।
“कल ही –।”
“फोन पर?”
“हां।” जूली ने सिर हिलाया।
“उसका नम्बर बताओ।” जगमोहन बोला।
जूली ने उसके हाथ में दबी गड्डी को देखा, फिर कह उठी–
“मुफ्त में नम्बर बता दूं –।”
“नोट पाना चाहती हो तो उसे फोन करो और कहीं पर बुलाओ उसे –।”
“चक्कर क्या है?” जूली के होंठ सिकुड़े।
“उससे मिलना है। बात करनी है। वो मुम्बई में ही है?”
“हां –।”
“तो उसे कहीं पर आने को कहो। तब ये पचास हजार तुम्हारे हो जायेंगे।”
जूली के चेहरे पर सोचें दौड़ने लगीं।
जगमोहन उसे देखता रहा।
“बात क्या है?” जूली ने गम्भीर स्वर में पूछा।
“मेरा उससे मिलना बहुत जरूरी है।”
“बहुत जरूरी?”
“हां... तुम उसे कहीं बुलाओ और मैं मिल लूंगा। इस तरह पचास हजार तुम्हारे हो जायेंगे।”
“कल ये ही बात मैंने उससे कही थी, परन्तु वो आने को नहीं माना। वो –।”
“आने को नहीं। उसे बुलाओ मत। मिलने को कहो। वो आने को मना करता है तो तुम कहो कि तुम वहां आ जाती हो, मिलने का कोई बहाना तैयार कर लो कि उसे क्या कहोगी?”
“बहाना क्या तैयार करना है। उसके दिए पैसे खत्म हो गये हैं। मुझे पैसों की जरूरत है।”
“तो उससे कहो कि –।”
“अगर उसने मिलने के लिए मना कर –।”
“तुम कैसी औरत हो कि उसे इस काम के लिए तैयार नहीं कर सकती?”
“अगर वो मेरे कोशिश करने पर भी नहीं माना –तो तब ये पचास हजार. मुझे नहीं मिलेंगे?” जूली ने पूछा।
“तब पच्चीस हजार मिलेंगे। अगर काम पूरा कर देती हो तो ये नोटों की गड्डी तुम्हारी।”
“मुझे दो।”
जगमोहन ने नोटों की गड्डी टेबल पर रखते हुए कहा।
“पिंटो को फोन करो।”
जूली ने कॉफी का प्याला रखा और दूसरे कमरे में जाकर मोबाईल ले आई।
“बाद में मुझे पैसे देने से पीछे मत हट जाना?”
“ऐसा नहीं होगा।”
“तुम पच्चीस हजार मुझे पहले दे दो।”
जगमोहन ने गड्डी में से पच्चीस हजार निकाल कर उसे थमा दिए।
नोटों के हाथ में आते ही जूली सन्तुष्ट दिखी और नम्बर मिलाने में लग गई।
जगमोहन चेहरे पर गम्भीरता समेटे जूली को ही देख रहा था।
जूली फोन कान से लगा चुकी थी। दूसरे हाथ में जूली ने नोट पकड़े हुए थे। वो रह-रह कर जगमोहन को देख रही थी।
“हैलो!” उसी पल पिंटो की आवाज जूली के कानों में पड़ी।
“ओह पिंटो!” जूली मीठे स्वर में कह उठी –“तुम आये नहीं। मैं कब से तुम्हारा इन्तजार कर रही हूं...।”
“मैंने कब कहा था आने को?” पिंटो ने उधर से कहा।
“मेरे पास पैसे नहीं हैं। खत्म हो गये। मैंने सोचा ये सुनकर तुम दौड़े आओगे मुझे पैसे देने को।”
“मैं अभी नहीं आ सकता। व्यस्त हूं –दो-चार दिन निकाल ले। उसके बाद...।”
“मुझे पैसों की जरूरत है। तेरी कसम, मेरे पास कुछ भी नहीं है। तू नहीं आ सकता ना?”
“नहीं। अभी दो-तीन दिन तो नहीं।”
“तू है कहां?”
“क्यों?”
“बता तो कि तू है कहां?”
“चैम्बूर में –।”
“इस वक्त तेरे पास कितने पैसे हैं?”
“बीस-तीस हजार होंगे।”
“बहुत हैं। मेरा काम तो दस हजार से चल जायेगा। तू चैम्बूर में कहां है बता मुझे, मैं आती हूं।”
“जूली तू –।”
“बस अब कोई बहाना नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि तूने मेरे को छोड़ने का प्रोग्राम बना –।”
“क्या बात करती है जूली। तू तो मेरे को बहुत अच्छी लगती है।”
“और मुझे तू तब अच्छा लगेगा जब खर्चा-पानी देता रहेगा। वक्त पर पास में पैसे ना हों तो प्यार भी नहीं होता। तू ये कभी नहीं चाहेगा कि पैसों के लिए मैं किसी और की गोद में जा बैठूँ।” जूली बोली।
“तूने ऐसा किया तो फिर मैं तेरे से रिश्ता तोड़ लूंगा।” पिंटो की आवाज आई।
“ऐसी बात है तो नोट दे। बता तू कहां है। मैं तेरे को तंग नहीं करूंगी। एक मिनट में नोट लेकर वापस चल दूंगी।”
पिंटो की आवाज नहीं आई।
“अब बतायेगा भी या नहीं?”
“मुझे दो घंटे बाद फोन करना।”
“तब क्या हो जायेगा जो –।”
“कुछ अंधेरा हो जायेगा तो तब मैं तेरे से मिल सकूँगा”
“तू ऐसा क्या काम कर रहा है जो –!”
“तेरे को जो कहा है, वो ही कर।”
“ठीक है। दो घंटे बाद तेरे को फोन करूंगी। फोन ऑफ मत कर देना, वरना मुझे गुस्सा आ जायेगा।” कहकर जूली ने फोन बंद किया और जगमोहन को सारी बात बता दी।
“तो पिंटो इस वक्त चैम्बूर में कहीं है।” जगमोहन होंठ सिकोड़ कर कह उठा –“ठीक है, मैं अभी यहीं हूं। बाहर खड़े, अपने साथी को भी बुला लेता हूँ। दो घंटे इन्तजार तो करना ही है।”
“ये पैसे मैं ले लूं?” जूली ने टेबल पर पड़े बाकी के पच्चीस हजार की तरफ इशारा किया।
“अभी तुम इसकी हकदार नहीं बनीं।” जगमोहन उठा और देवराज चौहान को भीतर बुला लाया और सारी बातचीत उसे बताने लगा।
☐☐☐
जगजीत कुर्सी पर आंखें बंद किए बैठा था। जबकि वीरेन्द्र त्यागी टहल रहा था।
ये चैम्बूर के इलाके का छोटा-सा फ्लैट था और जगजीत के किसी पहचान वाले का था। कल जल्दी-जल्दी में जगजीत को यहीं आना सूझा था। जिसका फ्लैट था, उसे बीस हजार रुपया देकर जगजीत ने कह दिया था, कि 3-4 दिन के बाद ही आये और उनके बारे में किसी से कुछ न कहे।
वो बीस हजार लेकर चला गया था।
उनकी रात बहुत शान्ति से बीती थी। दिन भी आराम से बीता। त्यागी बार-बार डाइनिंग टेबल पर रखी डिवाइस और मशीन को थपथपा कर मुस्कराने लगता।
एकाएक जगजीत ने आंखें खोली और कह उठा–
“हमें बाकी का काम निपटा देना चाहिये। तुम किस बात का इन्तजार कर रहे हो?”
त्यागी ने ठिठक कर जगजीत को देखा, फिर कह उठा–
“मैं सोच रहा था कि कुछ वक्त बीत जाये तो मामला कुछ ये ढीला पड़ जायेगा। फिर –।”
“पुलिस हमें तो नहीं ढूंढ रही। वो देवराज चौहान और जगमोहन को ढूंढ रही है। क्राइम ब्रांच, C.B.I. एंटी रॉबरी सेल, सब देवराज चौहान को ढूंढ रहे हैं।” जगजीत ने शांत स्वर में कहा।
“परन्तु पुलिस जान चुकी है कि इस मामले के पीछे मैं हूं।”
“आसान नहीं है ये साबित करना। उनके पास तुम्हारी उंगलियों के निशानों के अलावा कोई सबूत नहीं है। तीनों डकैतियों में C.C.T.V. कैमरों ने देवराज चौहान और जगमोहन के चेहरों को कैद किया है।”
त्यागी कुछ नहीं बोला।
उसी पल जगजीत का फोन बजा– “हैलो ।” जगजीत ने बात की। मिनट भर बाद फोन बंद करता जगजीत, त्यागी से कह उठा –“रात परेरा की किसी ने जान ले ली। दोपहर में पोस्टमार्टम हुआ तो उसमें आया है परेरा को इंजेक्शन के जरिये धीमा जहर दिया गया है।”
“ओह! वो तो पुलिस कस्टडी में था।” त्यागी के माथे पर बल पड़े।
“पुलिस ने ही ये काम किया...।”
“असम्भव।” त्यागी कह उठा –“पुलिस के लिए परेरा महत्वपूर्ण गवाह था। वो परेरा को नहीं मारेगी।”
“लेकिन उसे मार दिया गया। जहर दिया गया है उसे।”
त्यागी के होंठ भिंच गये।
“मेरी मानो तो न्यूक्लियर खोजी डिवाइस का सौदा करो और नोट गिनो।” जगजीत गम्भीर था –“सरकारी महकमा देवराज चौहान की तलाश में है और देवराज चौहान हमें ढूंढ रहा होगा।”
“देवराज चौहान का पकड़ा जाना ठीक था। या पुलिस उसे एनकाउंटर में उड़ा देती। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ।”
जगजीत ने मोबाईल फोन त्यागी की तरफ बढ़ाया।
त्यागी ने जगजीत को देखा।
“डिवाइस को बेचने की बात करो। अमेरिका 800 करोड़ देने को तैयार है त्यागी।”
“800 करोड़ कम हैं। वो ज्यादा देंगे।” फोन लेता त्यागी कह उठा।
“मेरे ख्याल में तो 800 करोड़ बहुत बड़ी दौलत है।”
“जब ज्यादा मिल सकता है तो कम क्यों लें?”
“पाकिस्तान की सरकार ने या पाकिस्तान के आतंकवादी गुटों ने डिवाइस की क्या कीमत लगाई?”
“उनकी तरफ से अभी कोई कीमत नहीं लगी। वो कहते थे डिवाइस हासिल करके ही इस बारे में हमसे बात करना।”
“तो अब तीनों पार्टियों से बात करो। जो भी ज्यादा कीमत दे, उसे डिवाइस दे दो।”
त्यागी के चेहरे पर सोच के भाव नाचते रहे।
“अब क्या हुआ?” जगजीत बोला।
“कुछ नहीं।” त्यागी मोबाईल फोन से नम्बर मिलाने लगा –“बात करता हूं।”
नम्बर मिलाकर त्यागी ने मोबाईल कानों से लगाया।
शांत से बैठे जगजीत की निगाह वीरेन्द्र त्यागी पर ही थी।
दूसरी तरफ बेल होने लगी, फिर मर्दाना आवाज कानों में पड़ी–
“हैलो –।”
“मैं देवराज चौहान बोल रहा हूं।” त्यागी ने कहा –“रॉबर्ट से बात करनी है।”
“ओह, एक मिनट मिस्टर देवराज चौहान। सर रॉबर्ट बेसब्री से आपके फोन का इन्तजार कर रहे हैं।”
लाईन पर खामोशी छा गई।
त्यागी फोन कानों से लगाए रहा।
“हैलो –देवराज चौहान।” रॉबर्ट की आवाज कानों में पड़ी –“मैं तो कब से तुम्हारे फोन का इन्तजार कर रहा था। मोबाईल अभी टेबल पर छोड़कर गया था। सबसे पहले मेरी बधाई स्वीकार करो कि तुम न्यूक्लियर खोजी डिवाइस पाने में सफल रहे।”
“शुक्रिया।” त्यागी ने शांत स्वर में कहा –“हमें सौदेबाजी की बात कर लेनी चाहिये।”
“हम में सब बातें हो चुकी हैं, अब तो हमारा मिलना ही बाकी है देवराज चौहान।”
“मिस्टर रॉबर्ट, मैं फिर से, नई शुरूआत से बात करना चाहता हूँ।” त्यागी बोला।
“क्या मतलब?”
“800 करोड़ की रकम कम है।”
“क्या कहते हो देवराज चौहान, ये तो बहुत ज्यादा...।”
“मेरे पास दो पार्टियां और भी हैं जो रकम बढ़ा कर बात कर रही हैं।” त्यागी ने शांत स्वर में कहा –“मेरे पास नायाब चीज है रॉबर्ट साहब। दुनिया की इकलौती न्यूक्लियर खोजी डिवाइस मेरे पास है। इससे ना सिर्फ दुनिया भर के न्यूक्लियर हथियार व बम तलाशे जा सकते हैं, बल्कि उनको कंट्रोल भी किया जा सकता है। जिस देश के बम हों, उन्हें उसी देश की धरती पर फोड़ा जा सकता है और दुनिया ये ही समझेगी कि न्यूक्लियर बम में विस्फोट होना, लापरवाही भरा हादसा है मैं चाहूं तो इस न्यूक्लियर खोजी डिवाइस से पूरी दुनिया का जीना हराम कर सकता हूं। परन्तु मैं शान्ति पसन्द इन्सान हूं। यही वजह कि मैं इसे बहुत ही सस्ते में बेच देना चाहता हूं। रकम बढ़ाईये और सोच-विचार करके रखिए, मैं फिर फोन करूंगा।”
“तुम कितनी रकम चाहते हो?”
“जो मुझे ज्यादा दौलत देगा, सौदा उसी के साथ होगा।”
“अभी तक तुम्हें कितनी रकम दी जा रही...।”
“मैं सिर्फ अमेरिका की बढ़ी हुई कीमत सुनना चाहता हूँ।”
“तुम किन दो और पार्टियों की बात कर रहे...।”
“ये मेरा बिजनेस सीक्रेट है। रकम के बारे में अभी से सोचना शुरू कर दीजिये। मुझे डर है कि कहीं न्यूक्लियर खोजी डिवाइस अमेरिका के हाथ से निकल ना जाये।” त्यागी ने मुस्करा कर कहा।
“तुम जल्दी मत करो। मुझे वक्त दो कि मैं ऊपर बात कर सकूं।”
“कल फोन करूंगा मिस्टर रॉबर्ट...।” कहने के बाद ही त्यागी ने फोन बंद कर दिया।
“क्या बोला?”
“सोचने के लिए वक्त मांगा है। बाकी बात कल होगी। अब ये मुझे 1000 करोड़ रुपये देने की बात करेगा। परन्तु धीरे-धीरे अमेरिका और भी रकम बढ़ायेगा। अमेरिका न्यूक्लियर डिवाइस को हाथ से नहीं जाने देगा। वैज्ञानिक नारायण दास ने सच में कमाल की डिवाइस बनाई है। उसे इसी वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी...।”
“बाकी दोनों पार्टियों से बात करो...।” जगजीत बोला।
“तुम बहुत बेसब्र हो रहे हो।” त्यागी मुस्कुराया।
“मैं चाहता हूं डिवाइस बेचकर हम नोट इकट्ठे करके फिर आराम से जिन्दगी बितायें।”
“ऐसा ही होगा।” त्यागी पुनः मोबाईल से नम्बर मिलाता कह उठा –“हमारी बाकी की जिन्दगी शानदार बीतेगी।”
त्यागी ने फोन कान से लगा लिया।
दूसरी तरफ बेल जा रही थी। फिर एक आदमी की आवाज कानों में पड़ी।
“कौन जनाब हैं?”
“पाकिस्तान से बोल रहे हैं?” त्यागी ने कहा।
“हां।”
“जनाब काले खां से बात कराईये। मैं हिन्दुस्तान से देवराज चौहान बोल रहा हूं!” त्यागी ने शांत स्वर में कहा।
“देवराज चौहान?”
“वो जानते है मुझे। पहले भी मेरी बात हो चुकी है और वो इस बार मेरे फोन का इन्तजार कर रहे होंगे।”
“जरा रुकिये जनाब...।”
फिर लाईन पर खामोशी छा गई।
तभी काले खां की हांफती सी आवाज कानों में पड़ी।
“देवराज चौहान।”
“कैसे हैं काले खां साहब?” त्यागी मुस्करा पड़ा।
“तुमने तो कमाल कर दिया। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस तुमने सच में पा ली।”
“वो तो मुझे पहले ही पता था कि मैं पा लूंगा।”
“मुझे बहुत खुशी हो रही है। ये बताओ कि हम उसका सौदा कैसे करें?”
“अमेरिका वालों से बात हुई, वो बहुत कम रकम लगा रहे हैं डिवाइस की।” त्यागी बोला।
“अच्छा –कितनी लगा रहे हैं?”
“1000 करोड़ रुपये। जबकि मैंने तो सोचा था कि रकम इससे कहीं ज्यादा होगी।”
काले खां की आवाज नहीं आई।
त्यागी के होंठों के बीच मुस्कान ठहरी हुई थी।
जगजीत मुंह खोले त्यागी को देखने लगा था।
“आप लाईन पर ही हैं काले खां साहब?”
“जी हां...जी हां, मैं आपकी बात ही सोच रहा था कि आप कितने में सौदा करना चाहते हो?”
“1000 करोड़ से ऊपर की बात कीजिये। वैसे अमेरिका वाले भी रकम बढ़ाने के बारे में सोच रहे हैं।”
“मुझे अपना फोन नम्बर दो। मैं एक घंटे में तुम्हें फोन करता हूँ।
त्यागी ने जगजीत वाला ही नम्बर उसे दे दिया।
“न्यूक्लियर खोजी डिवाइस एक ही पीस है दुनिया में। अगर ये पाकिस्तान के हाथ लग गई तो मिनटों में हिन्दुस्तान का सफाया किया जा सकता है...।”
“तुम्हारे मुंह में घी-शक्कर।”
“परन्तु ये तभी हो सकता है, जब इसकी सबसे ज्यादा कीमत लगाने का हौसला रखो। पाकिस्तान का ही एक आतंकी गुट इसे खरीद लेना चाहता है। उससे भी मेरी बात चल रही है।”
“देवराज चौहान, तुम न्यूक्लियर खोजी डिवाइस बेचने की जल्दी मत करना। हमें कीमत लगाने का पूरा मौका देना।”
“वो ही दे रहा हूं।”
“मैं तुम्हें एक घंटे में फोन करता हूं।”
“मैं इन्तजार करूंगा।” त्यागी ने कहा और फोन बंद कर दिया।
जगजीत का खुला मुंह हिला।
“कितनी कीमत लगा रहा है पाकिस्तान?”
“एक घंटे बाद बतायेगा।” त्यागी हंसा –“हर कोई इस डिवाइस को पा लेना चाहता है।”
“मतलब कि ये डिवाइस हमारे लिए जैकपॉट है।” जगजीत ने पहलू बदला।
“पक्का। जैकपॉट से भी बड़ी कीमत रखती है डिवाइस।” त्यागी कुर्सी पर बैठता पुनः नम्बर मिलाने लगा।
“किसे?”
“पाकिस्तान के आतंकी गुट के चीफ को।”
“तुमने ये काम करने से पहले ही सबसे बात कर रखी है?”
“ये जरूरी था। इन सब से बातचीत शुरू करने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी।” त्यागी ने फोन कान से लगाया।
दूसरी तरफ बेल बज रही थी।
“मेरी मानो तो जहां से भी ज्यादा रकम मिलती दिखे, निपटारा करके हाथ झाड़ लो। देरी मत करो। नोटों को गिनने-संभालने में भी सर खपाना पड़ेगा। पैसा आते ही हमारी मुश्किलें बढ़ जायेंगी।”
तभी त्यागी के कानों में ‘हैलो’ की आवाज पड़ी।
त्यागी ने ज़फर उतला की आवाज को पहचाना और मुस्करा कर कह उठा –
“कैसे हो ज़फर साहब –?”
“कौन हो तुम?”
“पहचाना नहीं?”
“नहीं।”
“हिन्दुस्तान से देवराज चौहान बोल रहा...।”
“पहचाना। पहचाना।” बीच में ही ज़फर उतला बात काट कर तेज स्वर में कह उठा –“डकैती मास्टर देवराज चौहान। वाह! तुमने कहा था कि न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती कर ली। तुमने बड़ा कारनामा करके दिखा दिया।”
“तुमने कहा था कि न्यूक्लियर खोजी डिवाइस को हासिल करने के बाद बात करना।”
“हाँ मैं चाहता था कि डिवाइस तुम्हारे हाथ आ जाए तो अब सौदेबाजी का मजा आयेगा। खाली-खाली बात करने का क्या फायदा? वैसे वो डिवाइस ठीक से काम करती है ना?”
“चेक करने के बाद ही नोट देना।”
“खूब! अच्छी बात कही। बोलो, कितनी कीमत चाहते हो?”
“अमेरिका और पाकिस्तान की सरकारों से भी बात चल रही है। इसलिये कीमत तुम ही बताओ।”
“शुरूआत तुम करो।”
“1000 करोड़ से ऊपर कितना दे सकते हो?”
“1000 करोड़ से ऊपर!”
“ये मत भूलो कि डिवाईस हाथ में आते ही तुम दुनिया के ऐसे इन्सान बन जाओगे, जिससे सब डरेंगे। तुम आसानी से तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन सकते हो। अमेरिका तुमसे झगड़ा करने में डरेगा और –।”
“सब जानता हूं मैं। मैंने सोच रखा है कि तब मैं इससे भी बड़े काम करूंगा।”
“कीमत बोलो –।”
“तुम इस वक्त किस देश में हो?”
“हिन्दुस्तान में। मुम्बई में। अब कीमत बोलो।”
“तुम्हें रात को फोन करता हूं। सऊदी अरब से बात कर लूं। नोट तो वहीं से आने हैं।”
“मुझे तुम्हारे फोन का इन्तजार रहेगा।” कह कर त्यागी ने फोन बंद कर दिया।
जगजीत फौरन कह उठा–
“ये भी बाद में फोन करने को कहता है –।”
“सऊदी अरब से बात करेगा। कहता है नोट वहीं से आने हैं।” त्यागी ने मुस्करा कर कहा।
“मेरी बात को भूलना मत त्यागी। जहां भी सेटिंग हो, फटाफट सौदा करके नोट गिन लेना।”
त्यागी ने अपना सोच में डूबा चेहरा उठाया।
“नोट आ जाने के बाद भी हम व्यस्त रहेंगे –आगे की जिन्दगी बनाने के लिए।”
“तेरा क्या ख्याल है कि नोट आ जाने के बाद हम इकट्ठे रहेंगे?” त्यागी ने पूछा।
“इकट्ठे नहीं रहना है हमें। अपने-अपने रास्ते पर चल देना है। तेरी अपनी जिन्दगी, मेरी अपनी जिन्दगी। परन्तु बीच-बीच में हम मिलते रहा करेंगे।” जगजीत मुस्करा कर बोला।
“मैं भी ये ही कहना चाहता था।” त्यागी ने कहा –“जैसे हम पहले अलग-अलग रहते आये हैं, वैसे ही अब रहेंगे और जरूरत पड़ने पर मिल लिया करेंगे। वैसे तू आने वाली दौलत में से कितना लेने की सोच रहा है?”
“जो तेरी इच्छा हो दे देना। मैं इस बारे में सोचना भी नहीं चाहता। क्योंकि ये इतनी बड़ी दौलत का मामला है कि मुझे कम से कम दौलत भी देगा तो वो भी मेरे लिए ज्यादा होगी।” जगजीत पुनः मुस्कराया।
“तेरे को जो लेना हो, ले लेना। तू मेरा खास यार है।” त्यागी अपनेपन से कह उठा।।
“बस एक ही बात मन में आती है कि देवराज चौहान मेरी तलाश में लगा होगा।”
“वो ज्यादा देर आजाद नहीं रहने वाला। जल्दी ही वो मारा जायेगा या कानून उसे पकड़ लेगा।” त्यागी ने लापरवाही से कहा।
“कई दिन हो गये...अभी तक वो सलामत है।”
“देवराज चौहान को भूल जा। उसे तो अपनी जान के लाले पड़े होंगे! वो और जगमोहन तो इस वक्त भागे फिर रहे होंगे कि कैसे बचा जाये ! उनके मारे जाने की या पकड़े जाने की खबर कभी भी मिल सकती है। साला पछता रहा होगा उस वक्त को कि जब मेरे से उसने पंगा लिया था। कमीना अब कुत्ते की तरह दुम दबा कर भागता फिर रहा होगा।” त्यागी कहर भरे स्वर में कह उठा।
☐☐☐
गुजरात के सूरत शहर की जवाहर कॉलोनी।
विनय बरुटा के कहने पर कार एक गली के बाहर ही रुक गई। कार में तीन लोग और भी थे।
“तुम तीनों कार में ही रहो। मैं अभी आता हूं।” कहकर विनय बरुटा कार से निकला और गली में बढ़ गया।
गली में और लोग भी आ-जा रहे थे। दोपहर के तीन बजे का वक्त था।
विनय बरुटा मकानों के बाहर लिखे नम्बरों को पढ़ता जा रहा था। फिर 390 नम्बर मकान के सामने रुक गया। सामने का छोटा-सा लोहे का गेट बंद था। उसके पीछे मकान का दरवाजा भी बंद था।
विनय बरुटा ने गेट खोला और दरवाजे के पास पहुंच कर कॉलबेल बजा दी। भीतर कहीं बेल बजने की आवाज आई। विनय बरुटा दरवाजा खुलने का इन्तजार करने लगा। भीतर से बच्चों की आवाजें आने लगीं।
दरवाजा खुला। चालीस बरस की औरत ने दरवाजा खोला था। साथ में दो बच्चे थे। एक दस का लग रहा था, दूसरा आठ का। उस औरत की शक्ल जगजीत से काफी हद तक मिल रही थी।
“जी...कहिये।” वो औरत बोली।
“नमस्कार जी।” विनय बरुटा हाथ जोड़कर, मुस्करा कर बोला –“मैं जगजीत का दोस्त हूं। मुम्बई से सूरत आ रहा था तो उसने कहा कि उसकी बहन विभा का हाल-चाल पूछ आऊं।”
“ओह, आईए भाई साहब।” वो पीछे हटती बोली –“भीतर आ जाईये।”
विनय बरुटा भीतर आया। बच्चों को प्यार किया।
साधारण से ड्राइंग रूम में सोफे पर जा बैठा।
विभा उसके लिए पानी ले आई।
बच्चे पहले से ही खाना खा रहे थे, विभा ने उन्हें खाना खाने दूसरे कमरे में भेज दिया।
“खाना खायेंगे भाई साहब?” विभा ने विनय बरुटा से पूछा।
“नहीं। आज नाश्ता लेट किया था। जगजीत हमेशा इस बात से परेशान रहता है कि उसकी बहन जवानी में ही विधवा हो गई। परन्तु वो कुछ कर नहीं सकता। तुम शादी क्यों नहीं कर लेती?”
“बच्चे बड़े हो रहे हैं। उन्हें ही पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाना है। शादी के लिए मेरे पास वक्त नहीं बचा। जगजीत का इतना सहारा ही मेरे लिए बहुत है कि वो मुझे खर्चे के पैसे देता रहता है। बाकी की जिन्दगी कट ही रही है।”
“ये बात भी ठीक है।” विनय बरुटा बोला –“आपको पता है कि जगजीत का मोबाईल नम्बर बदल गया है।”
“बदल गया है?”
“किस नम्बर पर आप जगजीत से बात करती हैं?”
विभा ने मोबाईल फोन का नम्बर सहज अंदाज में बता दिया।
जगजीत का नम्बर ही तो जानना चाहता था विनय बरुटा।
मोबाईल नम्बर अपने दिमाग में सुरक्षित करके बोला– “जाते वक्त मैं आपको जगजीत का नया नम्बर दे जाऊंगा।”
“मैं चाय बनाती हूं आपके लिए –।” कहने के साथ ही वो उठकर किचन में चली गई।
विनय बरुटा ने मोबाईल निकाला और गली के बाहर कार में बैठे तीनों में से एक का नम्बर मिलाया।
“हैलो।” उधर से आवाज आई।
“तुम तीनों 390 नम्बर मकान में आ जाओ। कार गली के भीतर ही ले आओ। एक औरत और दो बच्चों को ले जाना है।” विनय बरुटा का स्वर गम्भीर था। चेहरे पर भी गम्भीरता नाच रही थी।
“ठीक है।”
बरुटा ने मोबाईल जेब में रख लिया।
विभा चाय बनाकर ले आई और बोली –“जगजीत कैसा है?”
“अच्छा है।” विनय बरुटा ने कहा –“सच बात तो ये है कि उसने मुझे किसी काम के लिए ही आपके पास भेजा है। उसे किसी से खतरा है और उसे डर है कि जिससे खतरा है, वो तुम्हें भी नुकसान पहुंचा सकता है।”
“ओह!”
“उसने मुझे भेजा है कि कुछ दिनों के लिए तुम्हें और बच्चों को कहीं सुरक्षित जगह पर रख दूं...।”
विभा ने विनय बरुटा को देखा फिर बोली–
“ऐसी बात थी तो जगजीत मुझे फोन कर देता तो मैं खुद ही बच्चों को लेकर अपनी सहेली के घर पर चली जाती।”
“ये मैं नहीं जानता। उसने मुझे यहां भेजा है कि तुम्हें सुरक्षित जगह पर...।”
“मुझे जगजीत का नया फोन नम्बर दो। मैं उससे बात करती हूं।”
“बात आप कर लेना, परन्तु बच्चों को लेकर पहले यहां से –।”
“पहले मैं बात करूंगी।” विभा दृढ़ स्वर में बोली।
विनय बरुटा मुस्कराया फिर कह उठा– “ठीक है, अभी आपकी बात जगजीत से करा देता हूं।”
तभी कॉलबेल बजी।
विभा फ़ौरन खड़ी हुई तो विनय बरुटा कह उठा– “मेरे तीन आदमी होंगे, उन्हें भीतर ले आओ।”
“क्या मतलब?” विभा के चेहरे पर शक उभरा।
“वो तुम्हें और बच्चों को सुरक्षित जगह ले जायेंगे।”
“मैंने कहा ना कि जगजीत से बात किए बिना में आपकी बात पर यकीन नहीं कर सकती।”
“मैं अभी जगजीत से आपकी बात करता हूं, पहले मेरे आदमियों के लिए दरवाजा खोल दीजिये।”
ना चाहते हुए भी विभा आगे बढ़ी और दरवाजा खोल दिया।
वो तीनों आदमी भीतर आ गये।
“दरवाजा बंद कर दो।” बरुटा बोला।
एक ने दरवाजा बंद कर दिया।
विभा अचकचाई।
विनय बरुटा ने रिवॉल्वर निकालकर विभा को दिखाई।
विभा घबरा उठी।
“जरा भी चिन्ता मत करो। समझदारी से काम लो। जैसे तुम जगजीत की बहन, वैसे ही मेरी बहन हो।” विनय बरुटा ने शांत और गम्भीर स्वर में कहा – “मुझे जगजीत से कुछ काम है, इसलिये कुछ दिन तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को मेरे आदमियों की कैद में रहना होगा। सिर्फ कुछ दिनों के लिए। कैद में तुम्हें पूरी इज्जत दी जायेगी।”
“लेकिन बात क्या –।”
“तुम्हारे जानने लायक कुछ भी नहीं है। अपने बच्चों के साथ चलने की तैयारी करो। मेरे ख्याल में पांच-सात दिन की बात रहेगी,उसके बाद तुम फिर वापस अपने घर पहुंच जाओगी।” विनय बरुटा ने कह कर सोफा छोड़ा और खड़े होकर रिवॉल्वर जेब में रखते अपने आदमियों से कहा –“ये मेरी बहन है। कैद में इसे पूरी इज्जत मिले। कोई बदतमीजी ना हो।”
“आप निश्चिंत रहिये बरुटा साहब।” एक ने कहा।
तभी दूसरा व्यक्ति कह उठा– “वो –आपने कहा था कि हमें साथ लेकर बहुत बड़ी डकैती करेंगे।”
“करूंगा, परन्तु अभी उसका वक्त नहीं आया। इस मामले से तो फुर्सत पा लूं।”
“आपने हमें बताया नहीं कि इस औरत का मामला क्या...।”
“इस बारे में तुम लोगों को जानने की जरूरत नहीं है। जो कहता जाऊं, वो करते जाओ।”
विभा अभी तक घबराई-सी हक्की-बक्की खड़ी थी। वो कह उठी–
“आपका नाम क्या है?”
“मेरे नाम को जानने की तुम्हें जरूरत नहीं है। तैयार हो जाओ, तुम्हें दस मिनट में, अपने दोनों बच्चों को लेकर मेरे इन आदमियों के साथ जाना है। अगर तुम्हें चलने में ऐतराज है तो ये लोग जबर्दस्ती...।”
“मैं...मैं चलूंगी। मेरे बच्चों को कोई तकलीफ मत देना –।” विभा सूखे होंठों पर जीभ फेरते कह उठी।
“यकीन करो। तुम्हें लगेगा ही नहीं कि तुम कैद में हो। वहां तुम्हें हर आराम मिलेगा।” इसके साथ ही विनय बरुटा अपने लोगों से विदा लेकर बाहर निकलता चला गया।
☐☐☐
विनय बरुटा गली से बाहर निकला और सड़क के किनारे-किनारे पैदल ही आगे बढ़ते हुए उसने मोबाईल निकाला और विभा का बताया जगजीत का नम्बर मिला कर फोन कान से लगा लिया।
दूसरी तरफ बेल जाने लगी। बेल जाती रही। फिर उसके कानों में जगजीत की आवाज पड़ी “हैलो –।”
“मैं देवराज चौहान से बात कर रहा हूं?”
पल भर की खामोशी के बाद जगजीत की आवाज पुनः कानों में पड़ी–
“कौन हो तुम?”
“विनय बरुटा। हिन्दुस्तान का नामी डकैती मास्टर...।”
“हिन्दुस्तान का नामी डकैती मास्टर तो देवराज चौहान है।” जगजीत का सतर्क स्वर आया इस बार।
“नम्बर वन डकैती मास्टर मैं हूं, देवराज चौहान नहीं है। चूंकि देवराज चौहान कानून, खबरी चैनल की नज़र में आ गया तो उसके नाम का डंका ज्यादा बजता है। हकीकत में मैं उससे बड़ा डकैती मास्टर हूं –।”
“विनय बरुटा नाम बताया तुमने?”
“हां। परन्तु तुम कौन हो?”
“जगमोहन। देवराज चौहान का आदमी।”
जबकि विनय बरुटा जानता था कि ये आवाज जगमोहन की नहीं है।
“तुम्हें ये फोन नम्बर कहां से मिला?”
“अपनी जरूरत की चीजें तलाश कर लेना मेरे लिए मामूली बात है। देवराज चौहान से मेरी बात कराओ।”
“काम क्या है?”
“पहले मैं तुम्हें बताऊं, फिर देवराज चौहान को बताऊं। ये नहीं होगा मुझसे। तुम देवराज चौहान से बाद में पूछ लेना कि मैंने उससे क्या कहा। जल्दी करो जगमोहन साहब, अब बातें बहुत हो गईं।” विनय बरुटा गम्भीर स्वर में बोला।
करीब मिनट भर लाईन पर शान्ति रही, फिर त्यागी की आवाज कानों में पड़ी– “मैंने तुम्हारा नाम सुन रखा है विनय बरुटा।”
“तुम कौन हो?”
“देवराज चौहान।”
विनय बरुटा के चेहरे पर व्यंग्य के भाव उभरे। परन्तु शांत स्वर में कह उठा– “डकैती मास्टर देवराज चौहान?”
“हां।”
“मैं विनय बरुटा, तुमसे बड़ा डकैती मास्टर हूं।” विनय बरुटा बातचीत को स्वाभाविक बनाता कह उठा।
“काम की बात करो।”
“तुमने गलती से बहुत बड़ा हाथ मारा है। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस ले उड़े–।”
“गलती से नहीं, सोच-समझकर हाथ मारा। तुमने फोन क्यों किया?”
“सच बात तो ये है कि मैं अपनी पार्टी के लिए तुमसे न्यूक्लियर खोजी डिवाइस का सौदा करना चाहता हूं।”
“इसमें तुम्हारा क्या फायदा होगा?”
“जो रकम तय होगी, उसमें अपना फायदा जोड़ कर, पार्टी को बता दूंगा।”
“पार्टी कौन है?”
“कोई देश है।”
“कौन सा?”
“ये मैं तुम्हें नहीं बता सकता। तुम चालाकी करके सीधे उससे बात कर लोगे तो मेरा फायदा...।”
“ऐसा नहीं होगा। ये मैं इसलिये पूछ रहा हूं कि कुछ देशों से मेरी बात चल रही है। तुम कहीं उन्हीं में से तो किसी के लिए ये सौदा तो नहीं कर रहे। ऐसा है तो बाद में गड़बड़ हो जायेगी।”
“तो ये तुम्हारा वादा है कि मैं जिस देश के लिए न्यूक्लियर खोजी डिवाइस पाना चाहता हूं, तुम उससे सीधे सम्पर्क नहीं करोगे?”
“कभी भी नहीं करूंगा।”
“मैं चीन के लिए ये काम कर रहा हूं।”
“चीन से मेरी कोई बातचीत नहीं चल रही।” त्यागी की आवाज विनय बरुटा के कानों में पड़ी।
“फिर तो देवराज चौहान, हम भाई बनकर बात कर सकते हैं न्यूक्लियर खोजी डिवाइस के बारे में।”
“तुम कितने में सौदा करा सकते हो?”
“रकम तुम बोलो –।”
“अमेरिका, पाकिस्तान और पाकिस्तान के एक आतंकवादी गुट से मेरी बात चल रही है।”
“कीमत?”
“अभी तय नहीं हुई –परन्तु 1000 करोड़ से ज्यादा कीमत है। तुम 1000 करोड़ से कितने ज्यादा दिलवा सकते हो चीन से।”
“इतनी बड़ी दौलत तुम संभाल नहीं पाओगे देवराज चौहान।” विनय बरुटा हंसा।
“तुम्हें इस बात की चिन्ता नहीं करनी चाहिये बरुटा। सिर्फ सौदे की तरफ ध्यान दो।”
“तुम कितनी रकम चाहते हो?”
“मैं तो न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की नीलामी के पक्ष में हूं। जो ज्यादा कीमत देगा, ले जायेगा।”
“सोच बुरी नहीं है।”
“तुम बोलो –।”
“मैं तुम्हें दोबारा फोन करूंगा। चीन के बात कर लूं कीमत के बारे में।”
“ठीक है। तुम्हें जगमोहन का ये फोन नम्बर कहां से मिला?”
“बेकार के सवाल मत करो। मैं अपने काम की बातें खोज़ लेता हूं। चीन से बात करके तुम्हें फोन करता हूं।” कहने के साथ ही विनय बरुटा ने फोन बंद करके जेब में रखा और कुछ दूरी पर मौजूद स्टैण्ड की तरफ बढ़ गया। वहाँ से टैक्सी लेकर मुम्बई पहुंच जाना चाहता था। त्यागी और जगजीत वहीं तो थे।
बरुटा सोच रहा था कि ये एक नाजुक बात है कि देवराज चौहान के नाम पर न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती करने के बाद त्यागी, देवराज चौहान बनकर ही सौदा कर रहा था। अपना नाम या अपनी असलियत कहीं भी सामने नहीं आने दे रहा था कि भविष्य में इस मामले में ना फंस सके। ऐसे में देवराज चौहान को तो बुरी तरह फंसा दिया था त्यागी ने! इस हरामी त्यागी को मौका लगाते ही निपटा देगा। विनय बरुटा ने मन ही मन फैसला किया।
☐☐☐
शाम के सात बज रहे थे। कुछ ही देर में अंधेरा फैलना शुरु हो जाना था। देवराज चौहान और जगमोहन जूली के घर पर, उसके पास ही बैठे थे। टेबल पर अभी भी बाकी पच्चीस हजार रखे हुए थे। तीन घंटों के दौरान जगमोहन कई बार कॉफी का दौर चला था। उन्होंने भी पी और जूली ने भी।
जूली दिल खोल कर उसकी बनाई कॉफी की तारीफ करती।
“चल अब फोन कर।” जगमोहन बोला।
“करूं?” जूली की निगाह टेबल पर रखे नोटों पर गई।
“नोट नहीं लेने क्या?”
“क्यों नहीं लेने।” जूली अपना मोबाईल फोन उठाती कह उठी –“वैसे तुम दोनों अजीब मर्द हो। चाहते तो मैं बहुत सस्ते में तुम दोनों को मजा दे देती। तीन घंटों से खामख्वाह ही चाय-कॉफी पिए जा रहे –।”
“चुप कर।” जगमोहन ने मुंह बनाया –“बड़ा भाई साथ में है। तमीज से बात कर।”
“क्यों –वो करता नहीं क्या?”
जगमोहन ने सकपकाकर देवराज चौहान को देखा फिर जूली से कहा– “वो शादी-शुदा है।”
“शादी-शुदा तो ऐसे काम ज्यादा करते –।”
“पिंटो को फोन कर –।”
जूली ने नम्बर लगा कर, फोन कान पर रख लिया।
“बढ़िया बात करना, तभी –।” जगमोहन ने कहना चाहा।
जूली ने हाथ उठाकर उसे खामोश रहने को कहा।
“बोल जूली।” तभी पिंटो की आवाज जूली के कानों में पड़ी।
“आ रहा है?”
“अभी नहीं –व्यस्त हूं।”
“ठीक है। मैं आती हूं, बता तू किधर है?” जूली अधिकार भरे स्वर में बोली –“तूने शाम को फोन करने को कहा था और मैंने कर दिया। समझ में नहीं आता कि ऐसा क्या काम –।”
“एक-आध दिन की बात है। तब मैं तेरे पास –।”
“या तो अभी आ, नहीं तो मुझे बता तू कहां है, मैं आती हूं। नोटों की मुझे सख्त जरूरत है। अगर तू इन्कार करेगा तो मजबूरन मुझे कोई दूसरा रास्ता देखना पड़ेगा। समझा क्या?” जूली तुनक कर बोली।
उधर से पिंटो के गहरी सांस लेने की आवाज आई फिर बोला– “ठीक है। तू आ जा। अब ये समझ ले कि चैम्बूर में मैं तुझे किधर मिलूंगा।”
“बता।”
उधर से पिंटो, जूली को समझाने लगा कि वो कहां मिलेगा।
जूली ने समझा। फिर बोली– “चिन्ता मत कर। तू व्यस्त है तो मैं तेरा ज्यादा वक्त नहीं लूंगी। नोट निकाल कर ऊपर की जेब में रख ले। मैं आऊं तो निकाल कर मुझे दे देना। बात किए बिना, नोट लेकर चली जाऊंगी।”
☐☐☐
देवराज चौहान कार चला रहा था।
जगमोहन, जूली के साथ पीछे वाली सीट पर बैठा था।
“तू मुझसे फिर मिलने आयेगा?” जूली ने जगमोहन से पूछा।
“क्यों?”
“तेरी तो शादी नहीं हुई...।” जूली ने जगमोहन की टांग पर अपना हाथ रखा।
जगमोहन फौरन जूली का हाथ पीछे करता कह उठा –“तूने हमसे मुफ्त में पचास हजार रुपया कमा लिया।”
“मुफ्त में क्यों? मैने तुम्हारा काम नहीं किया क्या? पिंटो के बारे में –।”
तभी देवराज चौहान की आवाज गूंजी– “हमारा पीछा हो रहा है।”
जगमोहन चौंका। तुरन्त गर्दन घुमा कर पीछे देखा।
अंधेरा हो चुका था। पीछे कारों की हैडलाईट की तीव्र रोशनियां चमक रही थीं।
“कौन हो सकते हैं पीछा करने वाले?” जगमोहन सीधा बैठता कह उठा।
“इन हालातों में ये ही सोच सकते हैं कि किसी पुलिस वाले ने हमें पहचाना और पीछे लग गया।” देवराज चौहान ने कहा।
“पुलिस कार है पीछे?”
“नहीं, साधारण कार है।”
“क्या पता पुलिस पीछे ना हो, कोई और ही...।”
“कोई और हमारे पीछे क्यों होगा?”
जगमोहन के होंठ भिंच गये।
“तुम दोनों तो पहुंचे हुए लग रहे हो।” जूली कह उठी –“ऐसा क्या कर दिया जो पुलिस पीछे लग गई तुम्हारे?”
“टी.वी. या न्यूज देखती हो?” जगमोहन बोला।
“मुझे क्या लेना-देना खबरों से! सब खबरें बकवास होती हैं।”
“उन बकवास खबरों को देखा-सुना होता तो हमें देखते ही पहचान जाती।”
“ओह!” जूली गम्भीर हुई –“पिंटो से क्या चाहते हो?”
“वो दोस्त है हमारा। उससे कुछ बात करनी है।” कहते हुए जगमोहन ने पुनः पीछे देखा।
देवराज चौहान ने कार की रफ्तार बढ़ा दी थी।
जगमोहन समझ गया कि देवराज चौहान पीछा छुड़ाने की फिराक में है।
अगले दस मिनटों में देवराज चौहान ने कार को कई जगह मोड़ा। जगमोहन पीछे ही देखता रहा। पीछे एक कार ने उनके पीछे आने की पूरी चेष्टा की, परन्तु जल्दी ही उससे पीछा छूट गया।
अब की बार देवराज चौहान ने कार की रफ्तार तेज ही रखी।
“कोई पीछे है अभी?” जगमोहन ने पूछा।
“नहीं। अब ठीक है।” देवराज चौहान बोला।
“कौन हो सकता है हमारा पीछा करने वाला?”
देवराज चौहान ने जवाब में कुछ नहीं कहा।
50 मिनट में वे लोग चैम्बूर पहुंच गये।
“अब कहां जाना है?” देवराज चौहान ने पूछा।
फिर जूली रास्ता बताने लगी।
उसके बाद दस मिनट बाद जूली ने एक जगह कार रोकने को कहा। देवराज चौहान ने कार रोकी। सड़क के दोनों तरफ फ्लैट बने हुए थे। सड़क आगे तक जा रही थी। जूली हर तरफ देखती बोली– “इसी सड़क पर कहीं पिंटो मौजूद है।”
“कहां?” देवराज चौहान बोला।
“ये तो मुझे भी नहीं पता...।”
“फोन कर उसे...।” जगमोहन ने कहा।
जूली ने मोबाईल निकाल कर पिंटो का नम्बर मिलाया। बात हो गईं।
“कहां है?” जूली बोली –“मैं आ गई।”
“किधर है तू?” पिंटो की आवाज आई।
“उसी सड़क के शुरू में, जहां से फ्लैट शुरू होते हैं।”
“वहां से आगे चलना शुरू कर दे। मैं तेरे को पहचान लूंगा।”
“तू इसी सड़क पर आगे कहीं है?”
“हां।”
“ठीक है। मैं आती हूं।” कहकर जूली ने फोन बंद किया और कह उठी –“पिंटो इसी सड़क पर आगे कहीं है। मैं इस सड़क पर आगे जाऊंगी और वो मुझे पहचान कर बुला लेगा।”
“ठीक है।” देवराज चौहान कार का इंजन बंद करता कह उठा –“तुम आगे-आगे चलो। हम तुमसे पन्द्रह कदम पीछे होंगे।”
“पर इस तरह तो पिंटो से मेरी बिगड़ जायेगी। वो नाराज होगा कि मैं तुम लोगों को उस तक क्यों लाई?”
“तू पिंटो से मिलकर, टैक्सी लेकर वापस चले जाना। हम उसे नहीं बतायेंगे कि तू हमें यहां लाई।” जगमोहन बोला।
“पक्का?”
“पक्का।”
“ठीक है।” जूली कार का दरवाजा खोलते बोली –“मैं जाती हूं। उससे नोट तो ले लूं।”
जूली कार से निकल कर उसी सड़क पर आगे बढ़ गई।
देवराज चौहान और जगमोहन पन्द्रह कदम का फासला रख कर उसके पीछे चल पड़े।
दोनों की नज़र जूली पर थी कि कहीं अंधेरे का फायदा उठाकर खिसक ना ले। वैसे सड़क पर स्ट्रीट लाईट की रोशनी थी। परन्तु उनकी रोशनी सिर्फ इतनी थी कि सड़क को देखा जा सके।
दो-तीन मिनट बाद उन्होंने जूली को ठिठक कर, पास ही फुटपाथ पर चढ़ते देखा। वहां एक पेड़ था जिस के तने के पास कोई आदमी खड़ा दिखा। जूली उससे बात करने लगी थी। वे दोनों भी रुक गये थे।
“ये ही है पिंटो...।” जगमोहन के होंठों से निकला।
जूली आधा मिनट ही खड़ी हुई थी उसके पास, फिर उससे अलग होकर फुटपाथ से उतरकर वापस चल पड़ी। जूली उनके पास से होकर निकली और बिना रुके कह उठी – “वो ही है पिंटो...।” जूली ने दबे स्वर में कहा और आगे बढ़ती चली गई थी।
देवराज चौहान और जगमोहन के कदम पुनः आगे बढ़ने लगे।
दोनों की चाल शांत थी।
उन्होंने फुटपाथ पर पेड़ के पास छिपे अन्दाज में खड़े पिंटो को देखा।
वो पिंटो ही था।
देवराज चौहान और जगमोहन एकाएक फुटपाथ पर चढ़े और उसके पास जा पहुंचे।
सामने देवराज चौहान और जगमोहन को देखकर पिंटो के पांवों तले से जमीन निकल गई। वो ठगा सा, हक्का-बक्का सा खड़ा दोनों को बारी-बारी देखने लगा। एकाएक घबराहट उस पर सवार होने लगी।
दोनों एकटक पिंटो की बदलती हालत देखते रहे।
स्ट्रीट लाईट की मध्यम-सी रोशनी वहां तक आ रही थी।
“द... देव...राज चौहान।” पिंटो सूखे होंठों पर जीभ फेरकर अटकते स्वर में बोला –“म...मैं तो यूं ही यहां पर खड़ा था। तुम पर नज़र नहीं रख रहा। मैं तो यूं ही...।”
“मैं कहां पर हूं, तेरे को पता है।” देवराज चौहान शांत स्वर में बोला।
पिंटो के होंठ हिलकर रह गये।
देवराज चौहान ने गर्दन घुमा कर सामने के फ्लैटों पर नज़र मारी। वहां हर फ्लैट के कमरों में रोशनियां हो रही थीं। देवराज चौहान ने पुनः पिंटो को देखकर कहा– “मुझे नहीं पता कि मेरे फ्लैट की कौन-सी खिड़की या बालकनी है। तुम बताओ।”
“मैं...मैं...।”
“बताओ...।” देवराज चौहान के दांत भिंच गये।
“व...वो...।” पिंटो ने घबरा कर एक फ्लैट की बालकनी की तरफ इशारा किया, जिसका दरवाजा बंद था। परन्तु भीतर कमरों में रोशनी हो रही थी।
देवराज चौहान और जगमोहन ने उस फ्लैट की बालकनी को पहचाना।
“कौन-कौन है वहां?” देवराज चौहान बोला।
पिंटो ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी और ना समझने वाले ढंग में देवराज चौहान को देखने लगा।
“जवाब दो। उस फ्लैट में कौन-कौन है?”
“त-तुम दोनों ही तो हो वहां...।” पिंटो घबराये स्वर में कह उठा –“म-मैं जानता हूं तुम देवराज चौहान नहीं हो। तुमने देवराज चौहान डकैती मास्टर का मास्क चेहरे पर लगा रखा है। ये भी जगमोहन नहीं है। लेकिन मैं ये बात किसी को बताऊंगा नहीं। मैं तो-मैं तो तुम लोगों से मिलने की सोच रहा था। ब-बात कुछ नहीं है। बस मैं तो थोड़ा-बहुत माल तुम लोगों से लेना चाहता था। दोस्त हूँ तुम लोगों का। पुलिस के पास जाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। तुम लोगों ने बैंक लूटा। ज्वैलर्स शॉप को लूटा। करोड़ों रुपये बना लिए। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस को लूटा। मैंने अखबार में पढ़ा था। खैर...मैं तो सिर्फ इतना चाहता था कि एक-दो करोड़ मुझे दे दो। मेरी जिन्दगी बन जायेगी।”
“एक-दो करोड़ रखने की जगह है तेरे पास?” जगमोहन तीखे स्वर में कह उठा।
“हां...है।” तुरन्त पिंटो ने सिर हिला कर कहा।
देवराज चौहान ने सिर घुमा कर फिर से उस फ्लैट को देखा और पिंटो से बोला–
“मैं असली देवराज चौहान हूं। ये असली जगमोहन है।”
“क्या मतलब?”
देवराज चौहान की निगाह पिंटो के चेहरे पर जा टिकी।
“हम पहले तो नहीं मिले पिंटो?”
“मिले थे, जब ए.सी.पी. चंपानेरकर उस कॉटेज पर।” पिंटो ने सब कुछ बताया।
“वो मैं नहीं था।” देवराज चौहान बोला –“वो वीरेन्द्र त्यागी था।”
“त्यागी?”
“वो, जिसने मेरे चेहरे का मास्क लगा रखा है। मैं असली देवराज चौहान हूं।”
“तुम-तुम तो वो ही हो, जो सामने फ्लैट में...।”
“वो मैं नहीं हूं।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा –“वो वीरेन्द्र त्यागी और जगजीत है, जो कि चेहरों पर मेरा और जगमोहर का फेसमास्क डाले, हमारे नाम पर डकैतियां कर रहे हैं...।”
पिंटो बुरी तरह चौंका।
अब वो सारा मामला समझा।
“तुम...मुझ तक कैसे पहुंचे?” पिंटो के होंठों से निकला –“जूली...तुम लोग जूली के...।”
“पुलिस को तेरी तलाश है पिंटो।” देवराज चौहान का स्वर कठोर था।
“मेरी तलाश-क्यों?”
“पुलिस मानती है कि तू त्यागी और जगजीत पर नज़र रखे है।”
“कैसे जानती है?” पिंटो के दिमाग में जेल घूमने लगी।
“परेरा ने पुलिस को बताया है कि तू उन पर नज़र रख रहा है।”
पिंटो को लगा कि वो कानूनी पचड़े में बुरी तरह फंस गया है।
“तू इस बात का जीता-जागता गवाह है कि वो लोग देवराज चौहान और जगमोहन नहीं, बल्कि चेहरे पर मास्क लगा कर वो देवराज चौहान और जगमोहन बने हुए हैं। तुझे तो गवाह के रूप में पुलिस के पास होना चाहिये।”
पिंटो घबरा उठा।
“ये क्या कह रहे हो?” वो पलटा और फुटपाथ से छलांग लगाकर सड़क पर दौड़ने लगा।
जगमोहन फुर्ती से उसके पीछे दौड़ा।
देवराज चौहान ने दोनों को भागते देखा। चेहरे पर कठोरता थी।
आते-जाते लोगों ने ये भागदौड़ देखी तो वो ठिठक गये कि मामला क्या है।
जबकि देवराज चौहान सोच रहा था कि कहीं त्यागी और जगजीत को बाहर हो रही गड़बड़ के बारे में पता ना चल जायें ऐसा हुआ तो वो फौरन अपना ठिकाना छोड़ेंगे और मजबूरी में उसे, उन्हें शूट करना पड़ेगा, जबकि वो चाहता था कि दोनों पुलिस के हाथ लगें और ये बात कबूलें कि तीनों डकैतियां उन्होंने देवराज चौहान और जगमोहन के चेहरों का मास्क पहन कर की थीं। असली अपराधी वो दोनों हैं।
अब सड़क पर पिंटो और जगमोहन नहीं दिख रहे थे।
चेहरे पर सख्ती समेटे देवराज चौहान ने जेब से मोबाईल निकाला और ए.सी.पी. खेमकर के नम्बर मिलाने लगा। वो उन्हें त्यागी और जगजीत के बारे में खबर देना चाहता था कि उन्हें कानून पकड़ सके और उनसे न्यूक्लियर खोजी डिवाइस हासिल कर सके। उस पर से उस जुर्म का दाग हट सके, जो उसने किया ही नहीं।
देवराज चौहान अभी नम्बर मिला भी नहीं पाया था कि तभी फुटपाथ के पास एक कार आकर रुकी।
बरबस ही देवराज चौहान की निगाह कार की तरफ उठी।
कार के एक आगे का और दो पीछे के दरवाजे खुले। तीन आदमी बाहर निकले। उनके हाथों में रिवॉल्वरें नज़र आ रही थीं। पलक झपकते ही वो देवराज चौहान के पास आ पहुंचे थे।
“कोई शरारत मत करना देवराज चौहान।” एक ने खतरनाक स्वर में कहा –“हम तुम्हें लेने आये हैं। चलो...।”
“कौन हो तुम लोग?” देवराज चौहान के होंठों से निकला। मोबाईल फोन जेब में रख लिया।
“यहां से चलो। पता चल जायेगा।”
रिवॉल्वर उसकी कमर से लग गई।
दूसरे ने उसकी तलाशी में रिवॉल्वर बरामद की।
“मैं इस वक्त जरूरी काम पर हूं और...।”
“हम भी तो अपना जरूरी काम कर रहे है तुम्हें यहां से ले जाकर।”
“बात क्या है?” देवराज चौहान के दांत भिंच गये।
जवाब में एक और रिवॉल्वर उसकी कमर में आ लगी।
“अगर तुमने चलने से इन्कार किया तो तुम्हें शूट कर देंगे।” तीसरा दांत किटकिटा कर कह उठा।
उनकी बात मानने के अलावा देवराज चौहान के पास कोई रास्ता नहीं था। उसने उस तरफ नज़र मारी जिधर पिंटो और जगमोहन गये थे, परन्तु वो नहीं दिखे। उन तीनों के साथ देवराज चौहान कार में जा बैठा और कार आगे बढ़ गई। देवराज चौहान का खून खौल रहा था कि त्यागी, जगजीत, पिंटो के बताये उस फ्लैट में थे, परन्तु इन लोगों ने आकर उसका खेल खराब कर दिया।
“तुम लोग हो कौन?” देवराज चौहान ने पूछा।
“खामोशी से बैठे रहो देवराज चौहान!” कमर पर लगी रिवॉल्वर का दबाव इन शब्दों के साथ बढ़ गया।
☐☐☐
जगमोहन ने पिंटो को एक अंधेरी गली में जा पकड़ा था और तबीयत से जम कर उसकी धुनाई की थी। इतना मारा उसे कि उसका कराहना तक धीमा हो गया था। फिर जगमोहन ने देवराज चौहान को फोन किया।
दूसरी तरफ बेल बजने लगी।
लम्बी बेल जाने के पश्चात ही देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
“उसे पकड़ा?” उधर से देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
“हां, वो –।”
“खेमकर को फोन करके, उसे खेमकर के हवाले कर दो और खेमकर को उन दोनों के बारे में बता दो कि वो किस फ्लैट में हैं। कुछ लोगों ने मेरा अपहरण कर लिया है। पता नहीं दोबारा हमारी कब बात होगी। तुमसे जो कहा है, वो काम कर दो।” देवराज चौहान के इन शब्दों के साथ ही फोन बंद हो गया। परन्तु फोन बंद होने के पहले उसने किसी के कहे ये शब्द सुने कि इससे फोन ले लो।
जगमोहन हक्का-बक्का रह गया था।
देवराज चौहान का किसी ने अपहरण कर लिया?
किसने?
समझ नहीं आया कि अपहरण करने वाले कौन हो सकते हैं। परन्तु ये समझते देर न लगी कि जो कार उनका पीछा कर रही थी, अपहरण करने वाले वो ही लोग हो सकते हैं। उन्होंने सोचा कि पीछा छूट गया, परन्तु वो पीछे ही थे। जगमोहन, देवराज चौहान के बारे में चिन्तित हो उठा।
लेकिन काम उसके सामने था जो देवराज चौहान ने करने को कहा था।
जगमोहन ने नीचे पड़े कराहते पिंटो को देखा, फिर मोबाईल निकालकर खेमकर के नम्बर मिलाने लगा।
☐☐☐
जल्दी ही देवराज चौहान को एहसास हो गया कि उसके अपहरण के पीछे वो अकेली कार नहीं है, बल्कि दो कारें और भी आगे-पीछे हैं। ये एहसास उन लोगों की बातों से परन्तु अभी तक समझ नहीं पाया था कि उसके अपहरण के पीछे कौन है।
रिवॉल्वर अभी तक कमर से लगी थी। वो पीछे वाली सीट पर दो व्यक्तियों के बीच बैठा था। साथ में बैठे दूसरे व्यक्ति ने रिवॉल्वर वाला हाथ अपनी गोद में रखा था और लगातार उसे देखे जा रहा था। आगे एक कार चला रहा था और दूसरा उसकी बगल में बैठा था। यकीनन वो भी रिवॉल्वर पकड़े हुए था।
उसके प्रति पूरी तरह सतर्क थे वे लोग।
जगमोहन का फोन आने पर कठिनता से इन लोगों ने बात करने दी थी। उसके बाद उसका फोन लेकर एक ने अपनी जेब में रख लिया था। देवराज चौहान को इतना तो महसूस हो गया था कि ये किराये के लोग हैं। असल में इस मामले के पीछे कौन है, वो अभी नहीं दिखा था और शायद उसे उसी के पास ही ले जाया जा रहा था।
☐☐☐
एक घंटे बाद देवराज चौहान को फैक्ट्री जैसी इमारत में ले जाया गया। फैक्ट्री में काम चल रहा था। मशीनों की आवाजें सुनाई दे रही थीं। वर्कस इधर-उधर आ-जा रहे थे।
वो तीनों देवराज चौहान को बीच में लिए इस तरह आगे बढ़ रहे थे कि देखने वाले को लगे कि सब कुछ सामान्य है। इमारत के भीतर प्रवेश करके, एक तरफ की सीढ़ियां चढ़ कर वे पहली मंजिल पर पहुंचे। सामने राहदारी में चलते हुए वे एक कमरे में प्रवेश कर गये।
कमरे का दरवाजा खुला हुआ था। भीतर कोई नहीं था।
देवराज चौहान के साथ दो आदमी वहीं रहे। एक बाहर निकल गया।
दोनों ने अब रिवॉल्वरें निकाल ली थीं।
देवराज चौहान आगे बढ़ा और कुर्सी पर बैठा कमरे में निगाहें दौड़ाने लगा। ये कमरा सामान्य कमरों से कुछ बड़ा था और यहां फैक्ट्री जैसा कोई काम नहीं होता था। एक तरफ डबल बेड लगा था। दूसरी तरफ बैठने के लिए सोफा और कुर्सियां थीं। छत पर दो पंखे लगे हुए थे। फ्रिज, टी.वी. और अलमारी वहां थी। देवराज चौहान ने उन दोनों आदमियों पर नज़र मारी।
“किसके पास लाये हो मुझे?” देवराज चौहान ने पूछा।
“अभी पता चल जायेगा।”
जबकि देवराज चौहान सोच रहा था कि जगमोहन ने खेमकर को फोन कर दिया होगा। त्यागी और जगजीत को पकड़ने के लिए पुलिस अपनी तैयारियों में लग गई होगी।
तभी देवराज चौहान ने कदमों की आहटें महसूस की। दरवाजे की तरफ देखा।
उसी पल दो ने भीतर प्रवेश किया। एक तो वो ही था, जो उसे यहां छोड़कर गया था।
देवराज चौहान की निगाह दूसरे व्यक्ति पर जा टिकी।
वो पचास-पचपन का मध्यम कद का व्यक्ति था। बदन पर सफेद कुर्ता-पायजामा था। जो कि सुबह का डाला अब कुछ मैला हो रहा था। सिर के सफेद-काले बाल थे। ऐसे ही बालों की दाढ़ी थी। वो मुसलमान था।
उसने देवराज चौहान को गहरी निगाहों से देखा फिर मुस्करा कर कह उठा– “आदाब! मुझे पठान कहते हैं।”
देवराज चौहान की शांत निगाह उसके चेहरे पर थी
“तुम देवराज चौहान हो? डकैती मास्टर देवराज चौहान?” पठान ने पूछा।
“तुम्हें क्या लगता हूं?” देवराज चौहान बोला।
“अभी तो तुम मुझे कुछ भी नहीं लग रहे।” कहते हुए पठान आगे बढ़ा और अलमारी खोलकर उसमें से लिफाफा निकाला और उसके भीतर रखी तस्वीर निकाल कर उसे देखा, फिर देवराज चौहान को।
वो तस्वीर देवराज चौहान की ही थी, परन्तु पुरानी थी।
“लगता तो यही है।” पठान बड़बड़ाया –फिर अपने आदमियों से बोला –“ये देवराज चौहान ही है ना?”
“जी जनाब।”
“कैसे कह सकते हो?”
“इन दिनों टी.वी. पर देवराज चौहान, यानि कि इसे काफी दिखाया जा गया है। तभी तो इसे पहचान सके।”
“हूँ।” पठान देवराज चौहान की तरफ बढ़ता कह उठा –“फिर तो ये देवराज चौहान ही होगा। जाओ तुम लोग। दरवाजा बंद कर दो और बाहर ही खड़े रहना। एक कान भीतर ही रखना। ये खतरनाक है।”
“हमें तो नहीं लगा।” एक ने कहा।
“नहीं लगा?”
“नहीं...।”
“एक तरफ तो कहते हो कि ये डकैती मास्टर देवराज चौहान है। दूसरी तरफ कहते हो कि ये खतरनाक नहीं है। ये दोनों बातें इस पर एक साथ लागू नहीं हो सकती। इसलिये अपने विचार जाहिर मत करो...।”
वो तीनों बाहर निकले और दरवाजा बंद हो गया।
पठान देवराज चौहान के सामने कुर्सी पर बैठता उसकी तरफ तस्वीर बढ़ा कर बोला– “ये तुम्हारी तस्वीर ही लगती है।”
देवराज चौहान ने तस्वीर लेकर देखी, फिर टेबल पर रखते कह उठा– “मेरी तस्वीर ही है। परन्तु 10 साल पहले की है।”
“10 सालों में खास नहीं बदले तुम।”
देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांक कर कहा– “मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।”
“ये हमारी पहली मुलाकात है।” पठान ने कहा –“तुमने तो कमाल कर दिया। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस तुम्हारे पास है। क्या शानदार तरीके से तुमने डकैती की। आखिर डकैती मास्टर यूँ ही तो नहीं कहे जाते।” पठान हंस पड़ा।
देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े। वो कुछ कहता कि पठान कह उठा– “बीस दिन पहले ज़फर उतला का फोन आया था पाकिस्तान से कि देवराज चौहान को ढूंढो और उस पर नजर रखो। क्योंकि ज़फर उतला चाहता था कि अगर देवराज चौहान न्यूक्लियर खोजी डिवाइस को हासिल कर लेता है तो वो उसे हर हाल में चाहिये। बीस दिन से मैंने अपने सारे आदमी तुम्हारी तलाश में लगा दिए। परन्तु तुम दिखे तो आज शाम को। जब कि न्यूक्लियर खोजी डिवाइस अब तुम्हारे पास है। ये अच्छी बात है कि मेरे आदमियों ने तुम्हें ढूंढ निकाला। अब हम आराम से डिवाइस की सौदेबाजी कर सकते हैं।”
“ज़फर उतला कौन है?” देवराज चौहान ने पूछा।
“तुम जानते तो हो उसे। उससे बात कर चुके हो कई बार...।”
“मैं तुम्हारे मुंह से जवाब सुनना चाहता हूं। क्योंकि मैं तुम्हें नहीं जानता। जबकि तुम जानते हो कि मैं देवराज चौहान हूँ।”
पठान ने सिर हिलाया और गम्भीर स्वर में कह उठा– “जैसा कि मैंने बताया, मुझे जानने वाले, पठान के नाम से जानते हैं और मैं, यहां स्टील के बर्तनों की फैक्ट्री चलाता हूं। परन्तु हकीकत में ज़फर उतला के संगठन के लिए काम करता हूँ। हिन्दुस्तान में, मुम्बई के काम मैं ही देखता हूं। ज़फर उतला बता देता है कि फलां-फलां आदमी को पैसा देना है या उसे हथियार देने हैं। या फिर उसके किसी आदमी को अंडरग्राउंड करना है। जैसा भी काम हो, मैं करता हूं। हिन्दुस्तान में मैं पैदा हुआ, परन्तु बीस सालों से ज़फर उतला के संगठन के लिए काम कर रहा हूं। बहुत गरीब था मैं, परन्तु जब से ज़फर उतला के सम्पर्क में आया, तब से अमीर होता चला गया। मैं उसका विश्वासी आदमी हूं। वो मुझ पर पूरा भरोसा करता है। ज़फर उतला का पाकिस्तान में ताकतवर आतंकी संगठन है। आस-पास के कई देशों से ज़फर उतला के मधुर सम्बन्ध हैं। पाकिस्तान की सरकार तक में ज़फर उतला का दखल रहता है।”
देवराज चौहान का दिमाग तेजी से काम कर रहा था।
“तुम अब मुझसे क्या चाहते हो?”
“अभी-अभी मैंने पाकिस्तान ज़फर उतला से बात की। वो कहता है तुमसे डिवाईस की बात करूं।”
“डिवाइस?”
“ज़फर उतला का कहना है कि तुम बहुत ज्यादा कीमत मांग रहे हो।”
“ज्यादा कीमत?” देवराज चौहान सतर्क हो गया था। वो समझ गया था कि त्यागी, देवराज चौहान बनकर ही न्यूक्लियर खोजी डिवाइस का सौदा कर रहा है। जो कि खतरनाक बात थी। वो उसे पूरी तरह बदनाम करने में लगा था कि डिवाइस के मामले में उसी का हाथ है।
“तुमने ज़फर उतला से कहा कि 1000 करोड़ से ज्यादा कीमत लोगे। ये कीमत बहुत ज्यादा है। ज़फर उतला तुम्हें इतना पैसा देने के खिलाफ है। इसलिए तुम्हें कीमत कम करनी होगी। तुम्हारी जान भी अब मेरे हाथ में है। तुम्हारी जान बख्श देने के साथ तुम्हें 100 करोड़ दिया जायेगा और तुम डिवाइस मुझे दे दोगे।”
देवराज चौहान के माथे पर बल थे।
“लगता है तुम्हें मेरी बात पसन्द नहीं आई...।” पठान उसके माथे पर बल देखकर कह उठा।
तभी दरवाजा खुला। एक आदमी ने भीतर प्रवेश किया। हाथ में बजता मोबाईल था।
“जनाब –।” वो आदमी बोला –“ये इसी देवराज चौहान का मोबाईल है। बज रहा है।”
“तुम अभी अपने फोन की कोई कॉल रिसीव नहीं करोगे, जब तक कि हम में तसल्ली भरी बात –।”
“पहले मुझे फोन पर बात करने दो।”
“नहीं।” पठान ने कहा –फिर अपने आदमी से बोला –“फोन को बेड पर रखकर बाहर निकल जाओ।”
उसने ऐसा ही किया।
फोन डबल बेड पर रखकर कमरे से बाहर निकल कर उसने दरवाजा बंद कर दिया।
फोन बजना बंद हो गया था।
देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती के भाव आ गये। उसने पठान को देखा।
“कोई शरारत मत करना देवराज चौहान, वरना –।”
“तुमने गलत बंदे को पकड़ लिया है।”
“क्या मतलब?”
“मैं देवराज चौहान नहीं हूं।”
“क्या बकवास कर रहे...?”
“मैं वो वाला देवराज चौहान नहीं हूं जिसने न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती की है।”
“तुम पागलों जैसी बात कर रहे हो –जैसे दो-दो देवराज चौहान हों।”
“हां।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया –“इस वक्त दो देवराज चौहान ही हैं। एक मैं, तुम्हारे सामने हूँ। दूसरा वो जिसने मेरे चेहरे का मास्क तैयार करवाकर, देवराज चौहान बन कर न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती की –और अब वो उसी डिवाइस का सौदा दूसरों से कर रहा है। ऐसा वो इसलिये कर रहा है कि फंसे तो देवराज चौहान ही फंसे। वो ना फंसे।”
पठान, तीखी निगाहों से देवराज चौहान को घूरने लगा।
“अब तुम चाहते हो कि तुम्हारी बकवास का मैं विश्वास कर लूं?” पठान कड़वे स्वर में कह उठा।
“तुम्हें करना पड़ेगा।” देवराज चौहान का स्वर सख्त किन्तु व्यंग्य भरा हो गया।
“दिल तो कहता है कि तुम्हें गोली मार दूं।” पठान गुर्राया –“तुम कितने सस्ते ढंग से मुझे बेवकूफ बना रहे –।”
“मैं सच कह रहा हूं कि तुम्हें जिस देवराज चौहान की जरूरत है, वो मैं नहीं...।”
“साले!” पठान गुर्राया –“सीधा हो जा, वरना –।”
“मेरी सच बात पर तुम्हें विश्वास करना चाहिये। डकैती मास्टर देवराज चौहान मैं ही हूं। परन्तु जिसने न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती की, जिसने पाकिस्तान में मौजूद ज़फर उतला से बात की, वो मैं नहीं हूं। वो वीरेन्द्र त्यागी नाम का इन्सान है, जो मेरे चेहरे वाला मास्क पहनकर देवराज चौहान बना ऐसा कर रहा है।”
“वो ऐसा क्यों करेगा?” पठान ने दांत भींच कर कहा।
“उसकी मेरी दुश्मनी है। वो पहले भी एक बार ऐसा कर चुका है। वो जानता है कि जब भी वो मेरे सामने पड़ गया, मैं उसे जिन्दा नहीं छोड़ने वाला। ऐसे में वो मुझे बुरी तरह फंसा कर मेरा पक्का इन्तजाम कर देना चाहता है कि, मेरा खतरा उस पर से हट जाये।”
“उसने तुम्हारे चेहरे का मास्क कैसे बना लिया?”
“जगजीत से।”
“कौन जगजीत?”
“वो मास्टर है फेस मास्क बनाने का। किसी के चेहरे का मास्क बना लेने में उसे महारत हासिल है, बस उसे उसकी तस्वीर चाहिये होती है, जिसके चेहरे का फेसमास्क बनाना हो।”
“तुम्हारी तस्वीर उन्हें कहां से मिली?”
“मेरी तस्वीर हासिल कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है। पुलिस रिकॉर्ड में मेरी कई तस्वीरें मौजूद हैं। कोई भी पुलिस वाला पैसे लेकर पुलिस रिकॉर्ड की, दूसरी तस्वीर बनाकर दे सकता है।” देवराज चौहान ने कहा।
पठान ने अपने सिर को झटका दिया और गुस्से से कह उठा–“तुम कोरी बकवास कर रहे हो। मैं तुम्हारी बातों में नहीं आने वाला। इस घटिया कहानी को मुझे सुनाने या दोहराने की जरूरत नहीं है। तुम सिर्फ मेरी बात सुनो। 100 करोड़ के साथ तुम्हारी जान बख्श दी जायेगी। ये बात ज़फर उतला कह रहा है। बात नहीं मानोगे तो तुम्हें मार दिया जायेगा। मैं समझ सकता हूं कि तुम असली-नकली देवराज चौहान की बात इसलिये कर रहे हो कि मेरा ऑफर तुम्हें पसन्द नहीं आया। परन्तु तुम्हारा ड्रामा नहीं चलेगा। सौदा वैसे ही होगा जैसे ज़फर उतला चाहता है। 100 करोड़ और तुम्हारी जानबख्शी। तुम्हें ये बात माननी होगी। नहीं तो दिल पर पत्थर रखकर हम न्यूक्लियर खोजी डिवाइस को भूल जायेंगे, और तुम्हें शूट कर देंगे।”
देवराज चौहान के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
पठान तिलमिला-सा उठा।
“बोलो देवराज चौहान –मंजूर है?” पठान ने सख्त स्वर में पूछा।
“मैं वो देवराज चौहान नहीं। मेरे पास न्यूक्लियर खोजी डिवाइस नहीं है। मैंने उसकी डकैती नहीं की।”
“तुम ये कहना छोड़ोगे नहीं?”
“मेरी सच बात पर यकीन करो...।”
पठान कड़वे अन्दाज में देवराज चौहान को देखने लगा।
देवराज चौहान शांत रहा।
“तुम चाहो तो हमारे साथ दोस्ती कर सकते हो।” पठान एकाएक मुस्कराया।
“दोस्ती?”
“हां। हमसे दोस्ती करोगे तो रोज कम उम्र की नई-नई लड़कियां तुम्हारे पास भेजी जायेंगी। महंगी शराब देंगे हम। हथियार देंगे। उम्दा किस्म की जितनी चाहो उतनी ड्रग्स दिया करेंगे। हमारे पास हर चीज का इन्तजाम है। तुम काम के बंदे हो! माने हुए डकैती मास्टर हो, परन्तु डकैतियों में रखा ही क्या है। हमारे पास बहुत पैसा है। तुम कुछ महीनों में बहुत बड़ी दौलत कमा सकते हो, हमारे साथ काम करके। इतनी दौलत तुमने कभी देखी भी नहीं होगी। हमें तुम जैसे जांबाजों की हमेशा जरूरत रहती है। तुम्हें कोई बड़ा ओहदा दे दिया जायगा। तुम्हें हमसे दोस्ती कर लेनी चाहिये। हर तरफ से फायदे में रहोगे।”
देवराज चौहान के चेहरे पर मुस्कान नाच रही थी।
“न्यूक्लियर खोजी डिवाइस मुझसे लेना चाहते हो।”
“वो तो लेनी ही है।”
“वो त्यागी के पास है।”
“फिर बकवास!” पठान दांत किटकिटा उठा –“तुम क्यों अपनी मौत को बुला रहे हो।”
तभी दरवाजा खुला और एक आदमी ने भीतर झांक कर कहा– “कुछ चाहिये जनाब?”
“दरवाजा बंद करो।” पठान गुर्राया।
दरवाजा बंद हो गया।
पठान ने देवराज चौहान को देखकर सख्त स्वर में कहा– “तुम्हारी बकवास ज्यादा देर नहीं चलने वाली –तुम –।”
उसी पल पठान का फोन बजने लगा।
पठान ने फोन निकाला और बात की।
“हैलो –।”
“पठान।” ज़फर उतला की आवाज कानों में पड़ी –“देवराज चौहान भाग गया तुम्हारी कैद से –?”
“वो मेरे सामने बैठा है जनाब। ये आप क्या कह रहे हैं।”
“सामने बैठा है? असम्भव! दो मिनट पहले तो देवराज चौहान से मेरी बात हुई है।”
“ये कैसे हो सकता है? मैं देर से देवराज चौहान के सामने हूं और –।”
“उसने किसी से फोन पर बात नहीं की?”
“नहीं।”
“उससे मेरी बात कराओ।”
पठान ने देवराज चौहान को मोबाईल दिया और कहा– “ज़फर उतला साहब से बात करो।”
देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़े मोबाईल कान से लगाया।
“हैलो –।”
“कौन हो तुम?” ज़फर उतला की आवाज कानों में पड़ी।
“देवराज चौहान।”
“न्यूक्लियर खोजी डिवाइस तुम्हारे पास है?”
“नहीं। मैंने उसकी डकैती नहीं की।”
“तुम देवराज चौहान नहीं हो सकते। मैं जिस देवराज चौहान से बात करता रहा हूँ, उसकी आवाज दूसरी है।”
“मैं तो कब से कह रहा हूं पठान से –कि मैं वो देवराज चौहान नहीं हूं –।”
“क्या मतलब?”
“असली देवराज चौहान मैं हूं। वो नकली है जिससे तुम बात करते रहे डिवाइस की। उसने मेरे चेहरे का मास्क लगाकर ये सारा काम किया। अब भी वो देवराज चौहान बनकर सौदा कर रहा...।”
“पठान को फोन दो।” उधर से ज़फर उतला ने कहा।
देवराज चौहान ने पठान को फोन दिया।
“ये तुम किसे पकड़ लाये? ये देवराज चौहान नहीं है पठान।” उधर से ज़फर उतला ने उखड़े स्वर में कहा।
“ये देवराज चौहान ही है। मैं –।”
“ये वो देवराज चौहान नहीं है जिससे मेरी बात होती रही। जिसके पास डिवाइस है। उसकी आवाज दूसरी है।”
“ओह! इसका मतलब ये सच कह रहा है कि त्यागी इसके चेहरे का मास्क लगाकर सारे काम कर रहा –।”
“ये जो भी है, गोली मार कर इसे कहीं फेंक दो। ये जान गया है डिवाइस का मामला।”
“ये असली देवराज चौहान –।”
“मुझे असली-नकली से मतलब नहीं। डिवाइस से मतलब है –और वो इसके पास नहीं है। तुम गलत आदमी को पकड़ कर झंडा फहरा रहे हो । इतने दिनों बाद देवराज चौहान को पकड़ा परन्तु वो भी गलत रहा –।”
पठान खामोश रहा।
“खत्म करो इसे। अब इतना वक्त भी नहीं रहा कि तुम उसे तलाश सको जिसके पास डिवाइस है। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस को पाने के लिए अब मुझे बड़ी रकम चुकानी पड़ेगी।” इसके साथ ही उधर से ज़फर उतला ने फोन बंद कर दिया था।
पठान ने उलझन में फंसे फोन कान से हटाया और जेब में रख लिया।
“तुम्हारे ज़फर उतला ने तुम्हें कहा कि मुझे खत्म कर दो।” देवराज चौहान बोला।
“तुम्हें कैसे पता?” पठान के होंठ सिकुड़े।
उसी पल बैठे-बैठे देवराज चौहान उछला और पठान पर जा गिरा।
पठान को संभलने का मौका ही नहीं दिया देवराज चौहान ने।
देवराज चौहान, पठान के साथ कुर्सी लिए नीचे जा गिरा।
फुर्ती के साथ देवराज चौहान ने उसके होंठों पर हथेली टिका दी थी कि चीखे नहीं। दरवाजे के बाहर खड़े तीनों आदमियों तक उसकी आवाज ना जाये। नीचे गिरते ही फर्श से पठान के सिर का पिछला हिस्सा टकराया। होंठों पर सख्ती से हथेली ना टिकी होती तो पठान ने पीड़ा से चीख उठना था। परन्तु अब सब ठीक रहा।
पठान तड़पा देवराज चौहान के शिकंजे से निकलने के लिए।
परन्तु देवराज चौहान ने उसके मुंह पर हथेली टिकाये बैठे-बैठे थोड़ा सा उछल कर घुटने का बोझ तीव्रता से उसकी गर्दन पर डाला तो अगले ही पल ‘कड़ाक’ की आवाज गूंज उठी।
पठान की गर्दन की हड्डी टूट गई थी।
देवराज चौहान की हथेली उसके चेहरे पर टिकी रही।
पठान का शरीर चंद पलों के लिए जोरों से तड़पा, फिर शांत पड़ता चला गया।
मर गया था पठान।
देवराज चौहान ने उसके होंठों से हथेली हंटाई।
आंखें फटी पड़ी थीं। होंठ बंद थे।
देवराज चौहान फुर्ती से उसके ऊपर से उठा और उसके कपड़े टटोलने लगा। शीघ्र ही उसे पायजामे में फंसी रिवॉल्वर मिल गई। जिसे थामे देवराज चौहान बेड के पास पहुंचा और वहां रखा अपना मोबाईल उठाकर जेब में रखा। दरिन्दगी नाच रही थी चेहरे पर। बिना वक्त गंवाए वो दरवाजे के पास पहुंचा।
दरवाजा थपथपाया।
तुरन्त ही दरवाजा खुला और एक आदमी ने तेजी से भीतर प्रवेश किया।
‘धांय’ –फायर की तेज आवाज उभरी।
देवराज चौहान ने पलक झपकते ही ट्रिगर दबा दिया था।
गोली उसकी कमर में जा लगी थी। वो चीख कर नीचे जा गिरा था।
देवराज चौहान उसी क्षण खुले दरवाजे पर जा खड़ा हुआ।
दरवाजे पर खड़े दोनों अभी तक हक्के-बक्के थे कि– धांय-धांय।
देवराज चौहान ने दो फायर किए और गोलियां उनकी छातियों पर जा लगी थीं।
देवराज चौहान फुर्ती से आगे बढ़ा। बाहर निकला। राहदारी खाली थी। उन दोनों की तरफ देखने की एक बार भी कोशिश नहीं की थी देवराज चौहान ने और गैलरी में आगे बढ़ गया। रिवॉल्वर हाथ में थी। चौकन्नी निगाहें हर तरफ जा रही थीं। वो जानता था कि ये फैक्ट्री पठान के आदमियों का ठिकाना है। कभी भी हथियारबंद आदमी सामने आ सकते थे। उसका फौरन यहां से निकल जाना बेहतर था।
गैलरी समाप्त होते ही वो ठिठका।
एक तरफ नीचे जाने के लिए सीढ़ियां थीं और सामने ही एक खुली खिड़की नजर आ रही थी।
तभी सीढ़ियों की तरफ से आवाजें आईं –जैसे कुछ लोग ऊपर आ रहे हों।
देवराज चौहान जल्दी से आगे बढ़ा और खुली खिड़की पर जा चढ़ा। पहली मंजिल थी, जहां नीचे कम रोशनी में जमीन नज़र आ रही थी। देवराज चौहान नीचे कूदता चला गया।
दस-बारह-तेरह फीट की छलांग थी।
नीचे पांव टकराते ही देवराज चौहान संभला और तेजी से बाहर जाने वाले गेट की तरफ बढ़ गया। हाथ में रिवॉल्वर दबी थी जिसे पीठ पीछे कर लिया था।
गेट पर हलचल थी। लोग आ-जा रहे थे। किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया।
देवराज चौहान बाहर निकलता चला गया।
रिवॉल्वर जेब में रख ली।
सड़क किनारे तेजी से आगे बढ़ते हुए उसने खाली टैक्सी पर नजर रखी जो कि उसे जल्दी ही मिल गई। टैक्सी आगे बढ़ गई। पीछे वाली सीट पर बैठे देवराज चौहान ने मोबाईल निकाला और जगमोहन को फोन किया।
“तुम कहां हो?” उसकी आवाज सुनते ही जनमोहन ने बेसब्री से पूछा।
“मैं ठीक हूं। जिन लोगों ने मुझे पकड़ा था, उनकी कैद से निकल आया हूं –।” देवराज चौहान ने कहा!
“वो चाहते क्या थे?”
“वो मुझे डिवाइस वाला देवराज चौहान समझ रहे थे।”
“ओह! तुम –।”
“त्यागी और जगजीत का क्या हुआ?”
“वो हाथ से निकल गये। उन्हें शक हो गया होगा। जब पुलिस दल ने उस फ्लैट को घेरा तो फ्लैट खुला पड़ा था। वहां कोई भी नहीं था। टी.वी. चल रहा था। लाईटें रोशन थीं कमरों की। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस भी वहां नहीं थी।”
“और पिंटो?”
“उसे मैंने पकड़ लिया था और पुलिस को बता दिया था कि वो कौन-सी गली में पड़ा है। मैं दूर से देखता रहा। पुलिस ने उसे पकड़ लिया था।” उधर से जगमोहन की आवाज कानों में पड़ रही थी।
“मतलब कि हमारी सारी मेहनत बेकार गई।”
“बस पिंटो ही हाथ आया। वो जो जानता है, पुलिस उससे जान लेगी।”
“त्यागी डिवाइस बेचने की फिराक में है।” देवराज चौहान बोला –“वो ये सारे काम देवराज चौहान बनकर ही कर रहा है। खरीदने वाले भी ये ही समझते हैं कि वो देवराज चौहान से सौदा कर रहे हैं।”
“ये तो हमारे लिए खतरनाक बात हुई।”
“तुम बंगले पर पहुंचो। मैं वहीं आ रहा हूं...।” कहकर देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया।
☐☐☐
जगजीत कार चला रहा था। वीरेन्द्र त्यागी उसकी बगल में बैठा था। पीछे वाली सीट पर चादर की गठरी पड़ी थी। जिसमें डकैतियों का करोड़ों रुपया और जेवरात पड़े थे। डिग्गी में डिवाइस को रखा हुआ था।
दोनों के चेहरों पर गम्भीरता थी।
“ये तो अच्छा हुआ कि मैं उस वक्त यूं ही बालकनी में चला गया और मैंने वहां कुछ पुलिस वालों की झलक पा ली। वरना आज तो गये थे –।” जगजीत सिर हिलाकर, गहरी सांस लेकर कह उठा।
“जब तक न्यूक्लियर खोजी डिवाइस पास में है, इसी तरह मुसीबतें आती रहेंगी।” त्यागी बोला।
“तभी तो कहता हूं कि जो मिलता है, वो ले और डिवाइस से छुटकारा पा ले।”
“ये ही करना पड़ेगा।” त्यागी गम्भीर था –“अब हमारे पास कोई ठिकाना नहीं रहा।”
“मुझे तो ये भी समझ नहीं आ रहा कि पुलिस हम तक पहुंची कैसे। उन्हें कैसे पता चला कि हम कहां पर हैं। पुलिस इतनी तेज नहीं होती कि इस तरह पहुंच जाये।” जगजीत बोला।
“तेरे घर पर चलें?” त्यागी बोला।
“नहीं। फंस जायेंगे। पुलिस को ये तो पता चल गया है कि इस मामले में तुम हो। तो ये भी पता चल गया होगा कि तुम्हारे साथ मैं हं। मैंने ही देवराज चौहान के चेहरे का मास्क बनाया होगा।”
“हमें ठिकाना चाहिये जगजीत।”
जगजीत के चेहरे पर गम्भीरता नाच रही थी।
“मुम्बई हमारे लिए सुरक्षित नहीं रही।” त्यागी ने होंठ भींचकर कहा।
तभी जगजीत का फोन बजने लगा।
कार चलाते जगजीत ने मोबाईल निकाल त्यागी को दिया।
त्यागी ने बात की।
“हैलो –।”
“देवराज चौहान।” उधर से विनय बरुटा की आवाज कानों में पड़ी –“मैं विनय बरुटा –पहचाना?”
“हां –।” त्यागी गम्भीर हुआ।
“इस वक्त तो फंसी को तेरे को फोन कर रहा हूं। जबकि डकैतियों के मामले में तू मेरा बच्चा है। अगर तू न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती नहीं करता तो अगले दिन ये काम मैंने कर देना था।” बरुटा की आवाज कानों में पड़ी।
“काम की बात कर –।” त्यागी ने गम्भीर स्वर में कहा –“चीन से बात हुई?”
“हो गई। चीन का कहना है कि वो हर कीमत पर डिवाइस खरीदेगा। वो नहीं चाहता कि ये अमेरिका के हाथ लगे।”
त्यागी के चेहरे पर मुस्कान उभरी। बोला– “अमेरिका भी हर कीमत पर न्यूक्लियर खोजी डिवाइस खरीदना चाहता है।”
“अमेरिका क्या देता है?”
“अब बात अमेरिका और चीन में जिद की हो गई है। इसलिये दोनों को सामने बिठाना होगा।”
“सामने?”
“नीलामी होगी। जो ज्यादा कीमत देगा, डिवाइस उसी की हो जायेगी।” त्यागी ने कहा।
“कौन-कौन लोग होंगे नीलामी में?”
“अमेरिका, चीन के अलावा पाकिस्तान और पाकिस्तान का एक आतंकवादी संगठन।”
“मतलब कि चार लोग।” दूसरी तरफ से विनय बरुटा ने कहा।
“हां, चार लोग...।”
“नीलामी कब और कहां होगी?”
“एक-दो दिन में ये बात भी बता दूंगा!” त्यागी ने कहा –“परन्तु एक बात मुझे समझ नहीं आ रही।”
“क्या?”
“तुम्हें जगमोहन का फोन नम्बर कहां से मिला?”
“अपने काम की चीज हासिल कर लेना मामूली बात है मेरे लिए। ऐसी बातें मत सोचो। मैं तुम्हें परसों फोन करूंगा।” इसके साथ ही उधर से बरुटा ने फोन बंद कर दिया था।
त्यागी ने मोबाईल से रॉबर्ट का नम्बर मिलाया।
दो-तीन बार कोशिश करने पर दूसरी तरफ बेल बजने लगी।
“हैलो।” रॉबर्ट की आवाज कानों में पड़ी।
“देवराज चौहान।”
“ओह देवराज चौहान।” रॉबर्ट का खुशनुमा स्वर कानों में पड़ा –“मैं तुम्हें फोन करने की सोच रहा था, परन्तु तुम्हारा नम्बर मेरे पास नहीं था। जो है उस पर फोन लग नहीं रहा।”
“वो फोन मैंने फेंक दिया।”
“क्यों?”
“कोई खतरा आ गया था उस फोन में तुम…।”
“मैं आज शाम ही मुम्बई आ गया हूं। सोचा पास बैठ कर बात करेंगे तो ठीक रहेगा। एम्बेसी में हूं मैं। मिलते हो अभी?”
“अभी नहीं...।”
“हमें बात करनी चाहिये देवराज चौहान। 800 करोड़ में सौदा...।”
“वो पुरानी बात है। मैंने तुमसे कहा था कि 1000 करोड़ से ऊपर की रकम बोलो...।”
“परन्तु इसके लिए हमें मिलना तो पड़ेगा कि हम...।”
“अमेरिका के लिए परेशानी बढ़ गई है।” त्यागी के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
“क्यों?”
“चीन इस सौदे में आ गया है और वो 1200 करोड़ रुपये देने को तैयार है।”
“तुम सौदा करने में देर करोगे तो ये सब होगा ही –।”
“अब अमेरिका को 1200 करोड़ रुपये से ऊपर की रकम बोलनी होगी। तैयार हो?”
“अमेरिका हर कीमत पर न्यूक्लियर खोजी डिवाइस पाना चाहता है।”
“चीन भी ये ही कहता है।”
“फिर सौदा कैसे होगा देवराज चौहान?”
“नीलामी। चीन और अमेरिका को सामने बिठा कर डिवाइस की नीलामी करनी होगी।”
“मुझे मंजूर है।”
“चीन भी इस बात को मंजूर कर चुका...।”
“नीलामी की जगह और समय बताओ।”
“रॉबर्ट!” त्यागी के चेहरे पर जीत की मुस्कान थी –“अगले दो दिनों में तुम्हें जगह और समय बता दूंगा।”
“ठीक है। पेमेंट किस रूप में लोगे?”
“आधी नगद। बाकी डायमंड के रूप में।” त्यागी ने कहा। तभी कार चलाता जगजीत कह उठा–
“आधी नकद ज्यादा हो जायेगा। 25 प्रतिशत नकद। 75 प्रतिशत डायमंड में...।”
त्यागी हंसा जगजीत को देखकर, फिर फोन पर बोला–
“मेरा साथी जगमोहन कहता है कि पच्चीस परसेंट नकद। बाकी डायमंड।”
“ठीक है। इसी तरह पेमेंट की जायेगी।”
“मैं तुम्हें जगह और वक्त बताने के लिए फोन करूंगा।” कहकर त्यागी ने फोन बंद कर किया और जगजीत से बोला–
“डिवाइस की कीमत काफी बढ़ सकती है। चीन और अमेरिका नीलामी में रकम बढ़ाते रहेंगे।”
“मैं सोच रहा हूं कि पाकिस्तान और ज़फर उतला को इस मामले से निकाल देते हैं। वो लोग कमजोर पार्टी हैं। इतनी बड़ी रकम नहीं दे सकते। खामख्वाह उन्हें बुलाकर दुकान दिखाने का क्या फायदा –।”
“बात तो तेरी ठीक है जगजीत...।” त्यागी के होंठ सिकुड़े –“अमेरिका और चीन से ही हमारा मतलब हल हो जायेगा।”
जगजीत ने कुछ नहीं कहा।
“पहले हमें ठिकाना तलाश करना है, उसके बाद ही आगे के बारे में सोच सकेंगे।” त्यागी बोला।
“सूरत में एक ठिकाना है। वहां मेरी बहन रहती है।” जगजीत बोला –“तीन-चार दिन हम वहां रह सकते हैं और वहां हम अपना माल भी रख सकते हैं, जिसे कि साथ लेकर हमें भागना पड़ रहा है।”
“ये ठीक रहेगा। इस तरह हम मुम्बई से दूर हो जायेंगे।” त्यागी बोला –“सूरत ही बहन के घर चल –।”
“सीधा सूरत ही निकल चलते हैं।”
“नीलामी की जगह भी मुम्बई से दूर हो तो ज्यादा ठीक रहेगा।” त्यागी ने सोच भरे स्वर में कहा।
“दिल्ली रख लें?” जगजीत ने कार की स्पीड बढ़ाते हुए कहा।
“पहले सूरत पहुंच –उसके बाद सोचेंगे।” त्यागी मुस्कराया –“मैं तो देवराज चौहान के बारे में सोच रहा हूं कि यह काम तो हमने कर दिया। साला बचने वाला नहीं पुलिस के हाथों...।”
“पुलिस जानती है कि ये काम हमने किया...।” जगजीत ने कहा।
“अदालत में पुलिस साबित नहीं कर सकती ये बात। जानना अलग बात है। देवराज चौहान बचने वाला नहीं।”
☐☐☐
रात का एक बज रहा था।
पिंटो को उसी अस्पताल में रखा गया था, जहां परेरा को रखा था। यहां तक कि कमरा भी वो ही था। परन्तु इस बार पहरे में बेहद सख्ती इस्तेमाल की जा रही थी। कमरे के बाहर तो पहरा था ही, कमरे के भीतर पिंटो के पास भी तीन पुलिस वाले थे और उन्हें सख्त हिदायत थी कि कोई भी, चाहे वो कोई भी हो, डॉक्टर के अलावा, उनकी इजाजत के बिना पिंटो के पास ना जा सके। परेरा की मौत से ये तो सबक मिल गया था कि किसी पर भी विश्वास करना ठीक नहीं। खेमकर और वानखेड़े को बहुत हद तक यकीन था कि परेरा की मौत के पीछे ए.सी.पी. चंपानेरकर का ही हाथ है। परन्तु इस बात का उनके पास कोई सबूत नहीं था। लेकिन उनका ध्यान चंपानेरकर पर लग चुका था।
पिंटो का हाल पहले से बेहतर था।
जगमोहन ने पिंटो की ऐसी ठुकाई की थी कि पिंटो का कराहना थम नहीं रहा था। आधा शरीर घायल था। डॉक्टर पूरी देख-रेख कर रहे थे पिंटो की। दर्द दबाने के लिए डॉक्टर ने इंजेक्शन दिए थे। जख्मों पर दवा लगाई। जब कुछ संभला था पिंटो तो खेमकर और वानखेड़े ने पूछताछ शुरू की।
उसके बाद तो घबराया सा पिंटो सब कुछ कहता चला गया।
जो पिंटो जानता था इस मामले में, वो सब बता दिया उसने।
अब ये बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई थी कि ये मामला देवराज चौहान और जगमोहन का नहीं, बल्कि वीरेन्द्र त्यागी और जगजीत का था। अब तो पिंटो रूपी गवाह भी सामने था।
एक बजे रात के, दोनों पिंटो से पूछताछ कर के हटे और कमरे में मौजूद पुलिस वालों से कहा कि इसका बयान सुबह मजिस्ट्रेट के सामने लेकर, उसे सीलबंद कर दिया जाये। इस सारे काम के लिए सुबह नौ बजे इंस्पेक्टर विजय दामोलकर यहां आ जायेगा। फिर डॉक्टर आया और पिंटो को नींद का इंजेक्शन दे गया।
खेमकर और वानखेड़े कार में बैठ कर पुलिस हेडक्वार्टर चल दिये।
“पिंटो ने अगर शुरू से ही कानून का साथ दिया होता तो त्यागी कब का पकड़ा जाता। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती भी ना होती।”
“पिंटो तो खुद छोटा-मोटा अपराधी है।” वानखेड़े बोला –“वो पुलिस का साथ क्यों देता? क्यों बताता सब कुछ? वो तो इस चक्कर में था कि त्यागी को ब्लैकमेल करके उससे रकम वसूली जाये।”
“अब ये तो पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि ये सब कुछ त्यागी कर रहा है और वो दो बार हमारे हाथों से बच गया।” खेमकर ने कहा।
“त्यागी सच में खतरनाक है।”
“अब इस तक कैसे पहुंचा जाये?” खेमकर ने वानखेड़े को देखा।
“वीरेन्द्र त्यागी बचने वाला नहीं।” वानखेड़े बोला –“देवराज चौहान उसे हर हाल में ढूंढ निकालेगा।”
“हम क्यों नहीं ढूंढ सकते?”
“कानून के हाथ लम्बे जरूर है, परन्तु वो कानून की सीमा से ही बंधे रहते हैं। इसलिए लेगी से काम नहीं करते। लेकिन देवराज चौहान के हाथ किसी भी कानून से नहीं बंधे। वो खुद एक अपराधी है और दूसरे अपराधी को आसानी से ढूंढ लेगा।”
“तुम्हें देवराज चौहान पर बहुत विश्वास है।”
“जब तुम देवराज चौहान को जान जाओगे तो तुम्हें भी उस पर भरोसा होने लगेगा। शाम को त्यागी किसी भी कीमत पर बचकर नहीं निकल सकता था। देवराज चौहान ने कुछ ही मिनटों में त्यागी का काम कर देना था और न्यूक्लियर खोजी डिवाइस भी हासिल करके पुलिस को दे देता। परन्तु उसने खुद को भी निर्दोष साबित करना था। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की संगीन डकैती उसने नहीं की, कानून को ये बताया था तभी तो उसने जगमोहन द्वारा पुलिस (हमें) खबर दी कि त्यागी फला जगह पर है-ताकि हम उसे रंगे हाथों पकड़ कर उसके मुंह से सच निकलवा सकें। परन्तु जाने कैसे त्यागी को खतरे का आभास हो गया और वो भाग निकला। पिंटो हमें ढूंढे भी नहीं मिल रहा था लेकिन देवराज चौहान ने पिंटो हमारे हाथों में पहुंचा दिया।”
“ये बात तो मैं जानता हूं –।” खेमकर ने कहा।
कार तेजी से भागी जा रही थी।
“देवराज चौहान फिर त्यागी तक पहुंचेगा खेमकर।”
खेमकर सिर हिलाकर रह गया।
“अब घर जाने का वक्त नहीं है। मैं हेडक्वार्टर में ही नींद लूंगा।” वानखेड़े ने कहा।
“मुझे घर जाना होगा।” खेमकर बोला ।
“सुबह दस बजे हेडक्वार्टर पहुंच जाना।”
“क्यों?”
“मैं ए.सी.पी. चंपानेरकर से परेरा के बारे में बात करूंगा।” वानखेड़े ने सख्त स्वर में कहा।
“क्या बात करोगे?” खेमकर के माथे पर बल पड़े।
“तुम सुन लेना। मैं ऐसा इन्तजाम करूंगा कि तुम सुन सको और हमें बातें करते देख भी सको। एक-दो गवाह भी अपने साथ रख लेना। मुझे पूरा भरोसा है कि चंपानेरकर ने परेरा को तब जहर दिया, जब शाम को वो परेरा से मिलने आया था।”
“लेकिन तुम चंपानेरकर से बात क्या करोगे वानखेड़े?” खेमकर बेचैन दिखा।
“तुम परेशान क्यों हो रहे हो खेमकर?”
“चंपानेरकर बहुत घिसा हुआ और चालाक इन्सान है। वो कभी भी नहीं मानेगा कि उसने परेरा को जहर दिया।”
“उसके अलावा परेरा के पास कोई नहीं गया था –।”
“मैंने कहा है वो नहीं मानेगा और तुम पर एक्शन ले लेगा। तुम मुसीबत में फंस जाओगे।”
“निश्चिंत रहो। खुद को बचाना मुझे आता है।” वानखेड़े ने होंठ भींचकर कहा और मोबाईल निकाला।
“तुम जरूर कोई मुसीबत खड़ी करोगे अपने लिए –।”
वानखेड़े ने गहरी सांस ली और नम्बर मिलाने लगा।
“मुझे डर है कि वीरेन्द्र त्यागी डिवाइस को किसी को बेच ना दे।” खेमकर बोला।
“हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं। हमें तुरन्त वीरेन्द्र त्यागी, को मोस्ट वांटेड की लिस्ट में डालकर उसकी तस्वीरें हर तरफ भेज कर रेड अलर्ट घोषित कर देना चाहिये।” वानखेड़े बोला।
“ओह! ये बात पहले मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई। अब मैं घर नहीं जाऊंगा। तुम्हारे साथ हेडक्वार्टर ही चलता हूं। त्यागी के बारे में एक घंटे में मुम्बई तो क्या पूरे देश में रेड एलर्ट करवा देता हूं।”
त्यागी ने फोन कान से लगा लिया।
“इस बार हमारे मुखबिर भी कोई काम की खबर नहीं दे...।”
“मुखबिर खबर दे भी दें तो कोई फायदा नहीं। वो देवराज चौहान और जगमोहन की खबर पाने में लगे हैं। जबकि हमें वीरेन्द्र त्यागी चाहिये। जगजीत की कोई तस्वीर है पुलिस के पास?”
“नहीं। परन्तु तुम रात के इस वक्त किसे फोन कर रहे हो?”
“देवराज चौहान को।”
“क्यों?” खेमकर के होंठों से निकला।
“उससे थोड़ी बातचीत कर लेना ठीक –।”
तभी दूसरी तरफ से देवराज चौहान की नींद से भरी आवाज कानों में पड़ी।
“हैलो...।”
“मैं वानखेड़े बोल रहा हूं।”
“ओह तुम...।” अब देवराज चौहान की आवाज से नींद गायब हो गई थी।
“तुम यकीनन बहुत कोशिश करके त्यागी तक पहुंचे होंगे। परन्तु वो बचकर निकल गया।” वानखेड़े बोला।
“पता चला कि उसने पहले ही फ्लैट खाली कर दिया था।”
“हां। उसे कुछ शक हो गया होगा। जो भी हो, वो हाथ नहीं आया। पिंटो को पुलिस के हवाले करने का शुक्रिया।”
“ये मेरा ही काम है। पिंटो पुलिस को बता सकता है कि ये काम मैंने नहीं किया। उसने त्यागी को चेहरे से, मेरे चेहरे वाला फेस मास्क उतारते देखा था। उसका बयान मेरे को बचा सकता है इस संगीन डकैती से।”
“उससे हमने पूछताछ कर ली है। सब कुछ उसने हमें बता दिया है। कल सुबह मजिस्ट्रेट के सामने उसके बयान भी हो जायेंगे। पुलिस के लिए वो अहम गवाह है। अगर त्यागी या जगजीत हाथ में आ जाये तो –।”
“मैं उन्हें ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं।” देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
“हम भी कर रहे हैं। परन्तु न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की चिन्ता है कि त्यागी उसे किसी देश को बेच ना दे।”
“इसके लिए पुलिस को बड़े पैमाने पर भागदौड़ करनी चाहिये।” उधर से देवराज चौहान ने कहा और फोन बंद कर दिया।
चेहरे पर गम्भीरता समेटे वानखेड़े ने फोन कान से हटाया।
“क्या कह रहा था?” खेमकर ने पूछा।
“उसका कहना है कि पुलिस ठीक तरह काम नहीं कर रही।” वानखेड़े ने गहरी सांस लेकर कहा।
“पुलिस के पास जादू का डंडा तो है नहीं कि घुमाया और सब काम ठीक से निपट गया। हमसे जितना हो रहा है वो हम कर ही तो रहे हैं, फिर भी –।”
“पुलिस गलत राह पर चल रही है। हमें देवराज चौहान नहीं –वीरेन्द्र त्यागी चाहिये।”
“मैं अभी हेडक्वार्टर पहुंच कर वीरेन्द्र त्यागी के बारे में मोस्ट अर्जेन्ट रेड अलर्ट जारी करता हूं।”
☐☐☐
सुबह के साढ़े तीन बजे वीरेन्द्र त्यागी और जगजीत सूरत पहुंचे। विभा के घर के बाहर कार जा खड़ी हुई। रात का अंधेरा और खामोशी हर तरफ थी। कभी पास तो कभी दूर कुत्तों के भौंकने की आवाजें आ जाती थी।
“तुम्हारी बहन का पति क्या काम करता है?” त्यागी ने कार से निकलते हुए पूछ।
“वो जिन्दा नहीं है। कुछ साल पहले बीमारी से मर गया था।” जगजीत भी कार से निकला।
“ओह! तो अपनी बहन का खर्चा तुम देते हो?”
“हां। दो बच्चे हैं। उन्हें पढ़ाना है।”
“कार में दौलत पड़ी है।” त्यागी बोला –“मैं यहीं रहूंगा। तुम घर खुलवाओ।”
जगजीत आगे बढ़ गया।
घर के मुख्य दरवाजे पर उसे बाहर से कुंडी लगी मिली।
उलझन में घिरे जगजीत ने कुंडी खोल कर दरवाजे को धकेला भीतर प्रवेश कर गया।
“विभा...।” जगजीत ने आशंका में घिरे, मध्यम आवाज पुकारा।
परन्तु कोई जवाब नहीं मिला।
“बंटी, सूरज...।”
जवाब में खामोशी छाई रही।
जगजीत ने जल्दी से सारा घर छान मारा।
परन्तु घर में कोई नहीं था।
जगजीत परेशान हो उठा। वो तुरन्त बाहर खड़े त्यागी के पास पहुंचा।
“गजब हो गया त्यागी –।” जगजीत बोला –“विभा और बच्चे घर में नहीं हैं।”
“तुम्हारी बहन कहीं गई होगी...।”
“दरवाजे को बाहर से कुंडी लगी है –ताला नहीं लगा।” जगजीत ने व्याकुल स्वर में कहा।
“बाहर से कुंडी लगी है। रात इस वक्त?”
“हां –वो –।”
“फिर तो कोई गड़बड़ हैं। इस वक्त पड़ोसियों से भी नहीं पूछा जा सकता।” त्यागी सोच भरे स्वर में बोला।
“मैं विभा को फोन करके देखता हूं।” कहकर जगजीत ने मोबाईल निकाला और नम्बर मिलाने लगा।
त्यागी की सतर्क निगाह हर तरफ घूम रही थी।
जगजीत ने नम्बर मिलाकर फोन कान से लगाया। दूसरी तरफ बेल जाती पाकर उसने चैन की सांस ली।
लम्बी बेल जाने के पश्चात उसके कानों में किसी आदमी की आवाज पड़ी।
“हैलो...।”
“तुम-तुम कौन हो?” जगजीत तो विभा की आवाज की आशा कर रहा था।
“तू अपनी कह...।”
“ये फोन मेरी बहन विभा का है। मेरा नाम जगजीत है।”
“समझा, तो वो तेरी बहन है।”
“क्या मतलब? तुम कौन हो, मेरी बहन कहां...।”
“चिन्ता मत कर। वो ठीक-ठाक हालत में हमारे पास है। बच्चे भी सलामत हैं और –।”
“तुम कौन हो?”
“हम तो किराये के लोग हैं। किसी के कहने पर तेरी बहन को कल ही उठाया था। उसने हमें कहा था कि जब भी जगजीत का फोन आये तो उसे कह दूं कि चिन्ता की कोई बात नहीं, सब ठीक...।”
“वो कौन है?”
“मैं नहीं जानता।”
“मेरी बहन को क्यों उठाया?”
“मैं नहीं जानता।”
“वो क्या चाहता है, इतना तो बता दो।”
“मैं नहीं जानता। उसका मैसेज तेरे को दे दिया है। उसने कहा था कि तेरे को आराम से बैठने के लिए कह दूं और बोलूं कि जब भी ठीक वक्त होगा, तेरे से वो बात कर लेगा।”
“कैसे वो बात कर लेगा? मेरा फोन नम्बर उसके पास है क्या?”
“ये बातें वो ही जाने।”
“विभा तुम्हारे पास है? बच्चे तुम्हारे पास हैं?”
“हाँ...।”
“विभा से मेरी बात कराओ।”
“इस बात की मनाही है। तू शांत बैठ। बहन की चिन्ता मत कर। बच्चे मजे से खा पी रहे हैं और टी.वी. देख रहे हैं। जल्दी ही वो तेरे से बात करेगा, जिसके कहने पर हमने तेरी बहन को उठा रखा है।”
“मेरी बात तो करा दो विभा से।” जगजीत भिंचे स्वर में कह उठा।
उधर से फोन बंद कर दिया गया।
चिन्ता में डूबे जगजीत कान से फोन हटाता कह उठा–
“गड़बड़ है त्यागी...।”
“कैसी गड़बड़?” त्यागी की निगाह जगजीत पर थी।
“किसी ने मेरी बहन का अपहरण कर लिया है। दोनों बच्चों का भी...।”
“किसने?”
“नहीं पता। परन्तु किराये के आदमी ने कहा कि मैं आराम से रहूं। जिसने अपहरण करवाया है, वो जल्दी ही बात करेगा।”
“मतलब कि तेरे को पता नहीं चला कि अपहरण किसने करवाया है?”
“नहीं। वो विभा से भी मेरी बात नहीं करा रहा। मुझे समझ में नहीं आता कि जगजीत को जानने वाला ऐसा कौन है जो मेरी बहन को जानता है कि वो सूरत में रहती है...। मैंने तो ये बात किसी को भी नहीं बता रखी।”
“जरूर बताई होगी।”
“नहीं बताई।”
“तेरे को याद नहीं होगा। सोच-अपने दुश्मन को याद कर कि –।”
“दुश्मन के नाम पर मेरे लिए देवराज चौहान और जगमोहन ही हैं।” जगजीत कह उठा।
“ये काम देवराज चौहान और जगमोहन का नहीं हो सकता...।” त्यागी बोला।
“क्यों?”
“मन नहीं मानता। वो तो इस वक्त मुम्बई में फंसे पड़े हैं। हमें ढूंढ रहे...।”
“देवराज चौहान को किसी तरह पता चल गया हो कि मेरी बहन यहां रहती है और उसने ये सब कर दिया हो।”
त्यागी ने सोच भरी नजरों से जगजीत को देखा।
“तेरी बहन के पास तो तेरा नम्बर है?”
“हां –।”
“अगर देवराज चौहान ने ये सब किया होता तो कब का उसका फोन तुझे आ गया होता।” त्यागी गम्भीर था –“ये काम देवराज चौहान ने नहीं किया। किसी और के बारे में सोच –जो तेरी बहन के बारे में जानता हो। तेरा दुश्मन हो।”
“ऐसा कोई भी नहीं है।”
“मैं नहीं मानता। कोई तो होगा।”
जगजीत के चेहरे पर सोच के भाव उभरे। कुछ पल ठहरकर वो कह उठा– “मेरा कोई दुश्मन नहीं है।”
“अपहरण करने वाला क्या कहता है?”
“वो कहता है कि जिसके कहने पर उसने अपहरण किया है, उसका मैसेज जगजीत के लिए है कि मैं आराम से बैठ जाऊं। जल्दी ही वो मुझसे फोन पर बात करेगा।” जगजीत ने कहा।
“तो तू उसके फोन का इन्तजार कर...।”
“मुझे अपनी बहन और बच्चों की बहुत चिन्ता हो रही है।” जगजीत परेशान सा कह उठा।
“विभा और बच्चे ठीक से हैं?”
“कहा तो मुझे यही है।
“वो ठीक से ही होंगे। चिन्ता मत कर। उसके फोन के आने का इन्तजार कर –।”
“समझ में नहीं आ रहा कि ये सब क्या हो रहा है। हम तो यहां कुछ दिन सुरक्षित रहने आये...।”
“वो तो अब भी रह सकते हैं।” त्यागी ने कहा –“गाड़ी का सामान उठाकर भीतर ले चल।”
“ये ठीक नहीं होगा। पता नहीं विभा का क्या चक्कर है। हमारे लिये कोई बड़ी मुसीबत –।”
“सब ठीक है। वो तेरा कोई दुश्मन है जिसने तेरी बहन और बच्चों को उठाया है। जब उसका फोन आयेगा, सब ठीक कर दूंगा मैं।”
“मेरे ख्याल में किसी होटल में चल कर रहें तो –।”
“डर मत। मैं तेरे साथ हूं। हमें यहां कोई खतरा नहीं। सामान उठा और भीतर चल।”
फिर दोनों कार में रखी, गठरी रूपी दौलत और न्यूक्लियर खोजी डिवाइस को मकान के भीतर ले गये।
☐☐☐
मुम्बई पुलिस हेडक्वार्टर।
सुबह 9 बजे ए.सी.पी. चंपानेरकर ने अपने ऑफिस में प्रवेश किया और चपरासी को कॉफी लाने को कह कर टेबल पर रखी फाइलों में से एक को उठाकर चेक करने लगा।
दस मिनट में ही चपरासी कॉफी दे गया।
फाईल देखते हुए चंपानेरकर ने कॉफी का पहला घूंट भरा ही था कि वानखेड़े ने भीतर प्रवेश किया।
“गुड मॉर्निंग ए.सी.पी. साहब।” वानखेड़े ने मुस्करा कर कहा।
“आओ वानखेड़े।” चंपानेरकर फाईल से नज़रें हटा कर मुस्कराया –“आज सुबह मेरे पास कैसे?”
“आपसे मिले बहुत दिन हो गये। सोचा मिल लूं।” वानखेड़े बैठते हुए बोला।
“कॉफी लोगे?”
“नहीं। अभी पी थी।”
“तुम आज कल खेमकर के साथ न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती पर काम कर रहे हो?”
“हां।”
“सफलता मिली कुछ?”
“कल शाम मिलते-मिलते रह गई। हमारे पहुंचने के कुछ मिनट पहले ही देवराज चौहान और जगमोहन ने वो जगह छोड़ दी थी।”
“तुम ढीले हो वानखेड़े।”
“वो कैसे?”
“देवराज चौहान को अब तक पकड़ लिया या मार दिया होता तो ठीक रहता। सालों से तुम्हारे पास देवराज चौहान का केस है –और तुमने इस मामले में खास कुछ नहीं किया।”
चंपानेरकर ने कॉफी का घूंट लेते कहा।
“देवराज चौहान का अब कोई इन्तजाम होकर ही रहेगा।”
“अब तो इन्तजाम होगा ही। इस संगीन डकैती के बाद वो जिन्दा कैसे रह सकता है –।”
वानखेड़े की निगाह चंपानेकर पर थी।
“कुछ कहना चाहते हो?” चंपानेरकर बोला।
“परेरा की मौत के बारे में तो आपको पता चल गया होगा।”
“हां। पता चला।” चंपानेरकर ने सिर हिलाया।
“वो जिस रात मरा, उस शाम आप उससे मिलने गये थे...।” वानखेड़े ने कहा।
“तो?” चंपानेरकर की निगाह वानखेड़े के चेहरे पर जा टिकी।
“जबकि ये मामला आपका नहीं है। आपको परेरा के पास नहीं जाना चाहिये था।”
“उत्सुकता के नाते मैं उससे मिलने चला गया था। सोचा उससे कुछ पूछताछ करके देखूं।”
“कमाल की बात है कि पुलिस हेडक्वार्टर से निकल कर, दस किलोमीटर आप परेरा से मिलने गये, अपने काम छोड़कर। जबकि परेरा से मिलने का आपका कोई मतलब ही नहीं था।” वानखेड़े का स्वर सामान्य था।
“मैं परेरा से मिला, क्या इस पर किसी को एतराज है?” चंपानेरकर का स्वर भी सामान्य था।
“वहां कमरे में लगे C.C.T.V. कैमरे को एतराज था ए.सी.पी. साहब।”
चंपानेरकर चिहुंक उठा।
फटी-सी नज़रों से उसने वानखेड़े को देखा।
वानखेड़े के होंठ भिंच गये थे।
वे एक-दूसरे को देखते रहे।
फिर चंपानेरकर ने लम्बी सांस ली और हड़बड़ाये स्वर में कहा– “वहां C.C.T.V. कैमरा लगा था?”
“हां।” वानखेड़े ने गम्भीर स्वर में कहा –“उसी कैमरे की फुटेज देखने पर पता चला कि आप वहां किस जरूरी काम के लिए गये थे। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में भी इस बात का जिक्र है कि परेरा को धीमा जहर दिया गया जो कई घंटों बाद असर करता है।”
चंपानेरकर के चेहरे का रंग फक्क पड़ गया।
“तुम-तुम यूं ही तुक्का भिड़ा रहे हो। परेरा को दिए ज़हर से मेरा कोई मतलब नहीं है।”
“पक्का?”
“हां पक्का, भला मैं क्यों परेरा को जहर दूंगा।”
“यही बात मैं आपसे जानने आया था –।” कहते हुए वानखेड़े ने जेब से C.C.T.V. कैमरे की कैसेट निकाली –“इसे देखने के बाद मुझे लगा कि परेरा को जहर आपने दिया है। आप कहते हैं कि आपने नहीं दिया तो ये फुटेज मैं खेमकर को दे देता हूँ। वो ही इस सारे मामले को देखकर फैसला करेगा कि –।”
“इसी कैसेट में, परेरा से मिलने की मेरी फुटेज है?” चंपानेरकर बेसब्री से पूछ बैठ।
“हां, मैं इसे खेमकर को –।”
तभी चंपानेरकर ने झपट्टा मार कर वानखेड़े से C.C.T.V. कैमरे की कैसेट ले ली।
वानखेड़े सकपकाया।
“ये आप क्या कर रहे हैं चंपानेरकर साहब –।” वानखेड़े कह उठा।
“ये कैसेट मुझे दे दो।”
“क्यों?”
“तुम ये मुझे ही देने आये थे ना?”
“हां, लेकिन उससे पहले मैं आपसे बात करना चाहता –।”
“बात अब भी कर सकते हो। परन्तु पहले बताओ कि परेरा से मेरी मुलाकात की फुटेज तुम्हारे अलावा किसने देखी?”
“सिर्फ मैंने देखी।”
“किसी और ने नहीं?”
“नहीं।”
चंपानेरकर ने चैन की सांस ली। कैसेट उसके हाथ में थी।
वानखेड़े की निगाह चंपानेरकर के चेहरे पर थी।
“वानखेड़े!” चंपानेरकर ने मुस्कराने की चेष्टा की –“तुम जो रकम चाहते हो, वो मैं तुम्हें दूंगा। अपना मुंह बंद रखना।”
“रकम के साथ मैं आपका राजदार भी बनना चाहता हूं कि क्यों आपने परेरा को जहर दिया। क्यों उसे मारा?”
“ऐसा करना मेरी मजबूरी हो गई थी।”
“क्यों?”
“हमारी बातें बाहर नहीं जानी चाहिये।”
“क्यों जायेंगी, ये तो आपके और मेरे बीच की बात है।” वानखेड़े धीमे स्वर में बोला।
चंपानेरकर ने सिर हिलाया फिर धीमे स्वर में कह उठा – “कुछ वक्त पहले देवराज चौहान मुझसे मिला और –।”
“देवराज चौहान आपसे मिला?” वानखेड़े के होंठों से निकला।
“हां –मेरे से मिला। उसे अपने काम के लिए तीन लोगों की जरूरत थी और वो चाहता था कि मैं ऐसे हालात पैदा करूं कि तीनों आसानी से उसके काम में साथ देने को तैयार हो जायें।
“कौन थे वे तीनों?” वानखेड़े ने उत्सुकता दिखा कर पूछा।
“जॉन अंताओ परेरा। कन्हैया लखानी और राजू वाडेकर।”
“ये तीनों वो ही थे जिन्होंने देवराज चौहान और जगमोहन के साथ न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती की?”
“हां, ये ही थे तीनों। मैंने ही ऐसा चक्कर चलाया कि तीनों ने देवराज चौहान का साथी बनना मंजूर कर लिया। ऐसा ही देवराज चौहान चाहता था। इस काम के बदले देवराज चौहान ने मुझे बड़ी रकम देने को कहा था। परन्तु मैंने काफी बड़ी रकम इस काम से वैसे ही बना ली, इसलिये देवराज ने मुझे रकम नहीं दी।”
“तब आपको पता था कि देवराज चौहान क्या काम करने जा रहा है?”
“नहीं पता था।”
“पता होता –तो क्या तब भी उसके लिए आदमियों का इन्तजाम करते?”
“जरूर करता। देवराज चौहान ने डकैतियां तो करनी ही हैं। मैं उसके काम न आता तो कोई और ये काम कर देता।”
वानखेड़े में सिर हिलाया, फिर बोला।
“परेरा को जहर देकर क्यों मारा?”
“वो पुलिस कस्टडी में पहुंच गया था और कभी भी मेरे बारे में तुम लोगों को बता सकता था कि –।”
“समझा। फिर तो परेरा को खत्म कर देना ही ठीक था।” वानखेड़े बोला।
“वो ही मैंने किया। परन्तु मैं नहीं जानता था कि हॉस्पिटल के उस कमरे में C.C.T.V. कैमरा लगा है।”
“वो हमने ही वहां लगवाया था कि परेरा से मिलने वालों के बारे में पता चलता रहे। वहां जाकर परेरा को जहर देना, खतरे का काम था। तब कोई देख सकता था या C.C.T.V. कैमरे की फुटेज किसी और के हाथ पड़ जाती तो –।”
“मेरी किस्मत अच्छी थी कि तुमने ही फुटेज में परेरा को जहर का इंजेक्शन लगाते देखा मुझे –और सीधे मेरे पास आ गये।”
चंपानेरकर ने मुस्करा कर गहरी सांस ली –“मैं तुम्हें एक करोड़ दूंगा।”
“उसके बाद देवराज चौहान से नहीं मिले?”
“एक बार मिला था। जब पुलिस उसके मोबाईल फोन की लोकेशन द्वारा उस तक पहुंचने जा रही थी –तो मैंने ही उसे फोन करके उसे आगाह कर दिया था और वो बच निकला। इसके बदले उसने मुझे अच्छा पैसा दिया।”
“तो वे आप थे देवराज चौहान को पहले ही खबर देकर उसे भगाने वाले...।” वानखेड़े मुस्कराया।
“ये करना जरूरी था। मैं नहीं चाहता था कि देवराज चौहान पुलिस के हाथों में पड़े और मेरा नाम ले ले कि मैंने इस काम में उसकी सहायता की। साथ ही ये भी जानता था कि इस काम का देवराज चौहान मुझे पैसा देगा।” चंपानेरकर कह रहा था –“तुम चाहो तो मेरे से पांच करोड़ कमा सकते हो।”
“अच्छा, वो कैसे?
“देवराज चौहान को खत्म करके।”
“वो तो मैंने उसे यूं भी पकड़ना या खत्म करना –।”
“उसे पकड़ो मत। खत्म कर दो। पांच करोड़ तुम्हें मैं दूंगा इस काम के लिए...।”
“पर देवराज चौहान को खत्म करना क्यों जरूरी है?” वानखेड़े ने पूछा।
“मैं नहीं चाहता कि भविष्य में वो पुलिस की पकड़ में आये और मेरे बारे में बता दे कि मैंने उसकी सहायता की।”
“ये काम तो आप भी कर सकते हैं।”
“कैसे?”
“देवराज चौहान को फोन करके किसी बहाने से बुलाओ कहीं और उसे शूट कर दो। खतरा भी खत्म हो जायेगा और तरक्की भी मिल जायेगी। बहुत आसान काम है आपके लिए ये तो...।”
“अब मेरे पास देवराज चौहान का फोन नम्बर नहीं है। जो नम्बर मुझे पता था, वो मोबाईल पुलिस को उस फ्लैट से मिला था!”
“मतलब कि अब आपकी देवराज चौहान से बात नहीं हो सकती?”
“नहीं...।” चंपानेरकर मुस्करा कर कह उठा –“पांच करोड़ में से ढाई करोड़ तुम्हें पहले दे दूंगा। बेशक आज ही ले लो।”
“आज ही?” वानखेड़े मुस्कराया।
“हां। ये वर्दी पहनकर मैंने बहुत पैसा बनाया है। पांच करोड़ मेरे लिए मामूल रकम है।”
“आप वर्दी के दम पर पैसा बनाते रहे –और किसी को आज तक पता भी नहीं चला –।”
“चिन्ता मत करो। पैसा बनाने के सारे ढंग मैं तुम्हें सिखा दूँगा। बहुत आसान है। वर्दी पहन कर किसी को भी पकड़ लो। हर कोई वर्दी वाले से डरता है। कानून के पचड़े में कोई नहीं फंसना चाहता –और आसानी से नोट दे देता है।”
“आपकी ये बात मुझे अच्छी लगी।” वानखेड़े मुस्कराया।
“तुम आज रात को मेरे घर आना। मैं तुम्हें ढाई करोड़ दूंगा। देवराज चौहान को जल्दी खत्म कर देना।”
“आपने तो अपने इतने राज बता दिए –अब मैं भी कुछ बताऊं आपको। वानखेड़े सामान्य था।
“क्या?”
“हॉस्पिटल में, परेरा वाले कमरे में कोई भी C.C.T.V.कैमरा नहीं लगा था।” वानखेड़े ने कहा।
चंपानेरकर के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा। उसने हाथ में दबी कैसेट को देखा।
“क्या बकवास कर रहे हो?” चंपानेरकर के होंठों से निकला।
“कसम से। सच कह रहा –”
“तुमने अभी तो कहा कि वहां कैमरा लगा था। और ये कैसेट –।”
“बेकार है कैसेट। मैं तो आपका मुंह खुलवाने आया था, क्योंकि मुझे पूरा शक था कि परेरा को ज़हर आपने दिया है। इसलिये आपको बातों के जाल में फंसाना पड़ा। बल्कि कैमरा तो इस वक्त, आपके इसी ऑफिस में लगा है। हमारी बातचीत रिकॉर्ड हो रही है। देखा-सुना भी जा रहा है हमें और –।”
“क-कौन देख-सुन रहा...।”
“खेमकर, कामेश्वर साहब और साथ में कई पुलिस वाले हैं। वो सब बगल वाले कमरे में हैं।” बोला वानखेड़े।
चंपानेरकर फटी-फटी आंखों से वानखेड़े को देखता रह गया।
“एक बात और –कि जिसके लिए आपने काम किया वर्दी पहन कर, वो देवराज चौहान नहीं था। देवराज चौहान के चेहरे का मास्क अपने चेहरे पर लगाए शातिर अपराधी वीरेन्द्र त्यागी था। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती, देवराज चौहान ने नहीं, देवराज चौहान बनकर वीरेन्द्र त्यागी ने की है।” वानखेड़े के चेहरे पर कड़वे भाव आ गये थे –“मैं जानता हूं कि पुलिस में गद्दार भी होते हैं और आज आप जैसे गद्दार को पकड़ने का सौभाग्य प्राप्त हो गया मुझे।”
तभी ऑफिस का दरवाजा धकेल कर खेमकर और कामेश्वर के साथ कई पुलिसवालों ने भीतर प्रवेश किया। खेमकर ने रिवॉल्वर पकड़ रखा था। चेहरे पर गुस्सा था।
“चंपानेरकर! अब तक हम न्यूक्लियर खोजी डिवाइस और वीरेन्द्र त्यागी को पकड़ चुके होते, जब हम उसके मोबाईल के सहारे उस तक पहुंचने जा रहे थे, परन्तु तुमने उसे खबर कर दी।”
चंपानेरकर का चेहरा सफेद पड़ गया था।
“परेरा हमारा अहम गवाह था, परन्तु तुमने उसे जहर देकर मार दिया। तुम्हारी बातें, पूरी तस्वीरें रिकॉर्ड हो चुकी हैं और मैं तुम्हें गिरफ्तार कर रहा हूं। हिलना मत। कामेश्वर, इसके होलेस्टर से रिवॉल्वर निकालो।”
कामेश्वर तुरन्त आगे बढ़ा।
खेमकर ने उस पर रिवॉल्वर तान रखी थी।
एकाएक चंपानेरकर का जिस्म गुस्से से कांपा और हाथ में दबी कैसेट वानखेड़े पर फेंक मारी।
वानखेड़े फुर्ती से खुद को बचा गया।
तब तक कामेश्वर ने पास पहुंचकर अपनी रिवॉल्वर निकाली और चंपानेरकर की गर्दन पर लगा दी।
☐☐☐
जगमोहन की नींद सुबह नौ बजे खुली। रात देर से सोया था। उठ कर हाथ-मुंह धोया और किचन में जाकर दो कॉफी बनाई, फिर देवराज चौहान के बेडरूम में पहुंचा कि ठिठक गया।
देवराज चौहान वहां नहीं था। बेड पर नाईट सूट रखा था जो रात को उसने पहना था।
जगमोहन को समझते देर न लगी कि देवराज चौहान बंगले से बाहर जा चुका है। उसने कॉफी के प्याले रखे और मोबाईल से देवराज चौहान को फोन नम्बर मिलाया, फौरन ही बात हो गई।
“कहां हो तुम?” जगमोहन ने पूछा।
“वीरेन्द्र त्यागी की कोई खबर पाने की चेष्टा कर रहा हूं।” देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
“तो मुझे यहां क्यों छोड़ दिया?”
“तुम नींद में थे। मेरी आंख सुबह खुल गई थी।”
“इस तरह खुले में घूमना तुम्हारे लिए ठीक नहीं...।”
“मैं मेकअप में हूं। चेहरे को कुछ बदल रखा है।”
जगमोहन ने गहरी सांस ली फिर बोला–
“मुझे बताओ तुम कहां हो। मैं भी आता...।”
“तुम अपने तौर पर त्यागी की खबर पाने की चेष्टा करो।” देवराज चौहान ने कहा।
“ठीक है।” जगमोहन ने कहा और फोन बंद करके कॉफी का प्याला उठा लिया। चेहरे पर सोचें नाचती रही।
☐☐☐
हुशांग ली।
चीनी था परन्तु जन्म से हिन्दुस्तानी था। मुम्बई में ही पैदा हुआ। यहीं पढ़ा-लिखा। वो हिन्दी में ही सोचता था और कॉलेज में हिन्दी का प्रोफेसर था। काम चलाऊ चीनी बोलना भी जानता था। उसके दादा चीन से मुम्बई आये थे बिजनेस के सिलसिले में और फिर यहीं बस गये थे। हुशांग ली चेहरे को छोड़कर बाकी पूरा हिन्दुस्तानी था। दीवाली-होली का त्यौहार मनाता और मन्दिर में जाता। गुरुद्वारे-चर्च जाता। पचास बरस का हो गया था। महाराष्ट्रियन युवती से उसका ब्याह हुआ था और तीन बच्चे थे। अपनी जिन्दगी से वो खुश था।
दोपहर के तीन बजे वो कॉलेज से बाहर निकला और पैदल ही आगे बढ़ गया। कॉलेज के पास ही उसका घर था। इसलिये वो कॉलेज पैदल ही आता-जाता था।
कॉलेज से थोड़ी दूर ही गया होगा कि पीछे से विनय बरुटा आकर उसके साथ चलने लगा।
“नमस्कार प्रोफेसर साहब।” बरुटा मुस्करा कर बोला।
हुशांग ली ने ठिठक कर उसे देखा।
“मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।” हुशांग ली ने हिन्दी में कहा।
“मेरा नाम विनय बरुटा है। चलते हुए बात करते हैं।”
दोनों पुनः चल पड़े।
“मुझे चीनी आदमी की तलाश थी। बहुत कोशिश करने के बाद आपका पता चल पाया।” बरुटा ने कहा।
“चीनी?” हुशांग ली मुस्करा पड़ा –“मैं चीनी कहां, मैं तो हिन्दुस्तानी हूं।”
“दिखने में तो चीनी ही हैं।”
“सिर्फ दिखने में।”
“थोड़ी बहुत चीनी भी बोल लेते होंगे?”
“हां-थोड़ी-बहुत। चीन से मेरा इतना ही रिश्ता है कि मेरे दादा चीन से मुम्बई आकर बस गये थे। खैर, तुम कहो। मुझसे क्या काम है जो तुम चीनी व्यक्ति की तलाश कर रहे थे?” हुशांग ली ने पूछा।
“आप कॉलेज में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। कितनी तनख्वाह लेते हैं?”
“तुम्हें इससे क्या?”
“कुछ तो है, तभी पूछ रहा हूं।”
“तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें अपनी तनख्वाह बताऊं?” हुशांग ली पुनः ठिठक गया।
“हां।” बरुटा भी ठिठका।
“ये कैसे सम्भव है कि मैं अंजान आदमी को अपनी तनख्वाह बता दूं?”
“जो बात मैं करने जा रहा हूं, उसके लिए ये जानना जरूरी है।”
“पता नहीं तुम कौन हो...। मैं तुमसे बात नहीं करना चाहता।” कहकर हुशांग ली पुनः चल पड़ा।
विनय बरुटा उसके साथ चलता कह उठा–
“ठीक है। तनख्वाह मत बताईये। 30-40 हजार होगी आपकी तनख्वाह। मैं आपको 50 हजार रोज का दे सकता हूं। कुछ दिन के लिए मुझे किसी चीनी व्यक्ति की जरूरत है।”
“मैं तुम्हारी बात नहीं सुन रहा।”
“क्यों?”
“मैं अनजाने लोगों से बात नहीं करता।”
“मैं आपको 50 हजार हर रोज का देने को तैयार हूं...।” बरुटा ने कहा।
“मैं नहीं लेना चाहता। मैं अपनी नौकरी से सन्तुष्ट हूं।”
“मैं आपको नौकरी छोड़ने को नहीं कह रहा।”
“मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी है।”
“मिस्टर हुशांग ली।” विनय बरुटा गम्भीर स्वर में बोला –“मुझे किसी काम के लिए ऐसे चीनी व्यक्ति की जरूरत है –जो मेरी बात को समझे और मेरे साथ रह कर किसी खास काम को पूरा कर सके।”
हुशांग ली खामोशी से आगे को चलता रहा। उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसे बरुटा की बात की परवाह नहीं है। तभी बरुटा ने उसकी बांह पकड़ी। दोनों रुक गये। हुशांग ली ने अपनी बांह छुड़ाकर उसे देखते हुए कहा– “तुम इस तरह से मेरे पीछे पड़े रहोगे तो मैं पुलिस को फोन कर दूंगा।”
“तुम खुद को हिन्दुस्तानी कहते हो?” विनय बरुटा गम्भीर था।
“मैं हूं ही हिन्दुस्तानी। ये ही मेरा देश है।”
“तो देश के काम आना तुम्हारा कोई फर्ज है। मैं तुम्हें देश के ही किसी काम के लिए इस्तेमाल करना चाहता हूं।”
“पुलिस वाले हो?”
“नहीं।”
“कौन हो?”
विनय बरुटा ने होंठ भींच लिए।
“तुम कोई धोखेबाज हो जो –।”
“तुमने न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती के बारे में अखबारों में पढ़ा है। टी.वी. में सुना है?” बरुटा सीधे-सीधे बोला।
“हां...।”
“ये डिवाइस क्या काम करती है, क्या महत्व रखती है, ये भी सुना होगा?”
“हां।”
“मैं इसी न्यूक्लियर खोजी डिवाइस को पाने के लिए तुम्हारी सहायता चाहता हूं।”
“क्या मतलब?”
“जिसके पास डिवाइस है, मैं उसके सम्पर्क में हूँ और...।”
“मतलब कि तुम डकैती मास्टर देवराज चौहान को जानते हो और उसके सम्पर्क में हो।”
विनय बरुटा ने पल भर के लिए होंठ भींच लिए, फिर बोला– “मैं तुम्हें सारी बात बताता हूं। मेरी बात सुनकर तुम्हें यकीन आये तो अपने कुछ दिन, देश की खातिर मेरे को जरूर दे देना। ना यकीन आये तो चले जाना, परन्तु ये बातें किसी को मत बताना।”
हुशांग ली ने सहमति से सिर हिलाया।
विनय बरुटा उसे न्यूक्लियर खोजी डिवाइस से जुड़ी सारी बातें, देवराज चौहान की बातें, वीरेन्द्र त्यागी की बातें, अपनी बातें, तब कुछ बताता चला गया हुशांग ली को।
करीब एक घंटा दोनों के बीच वहीं खड़े सवाल-जवाब होते रहे।
हुशांग ली की तसल्ली होती नज़र आई उसके चेहरे से।
“तुम भी डकैती करते हो। क्या मालूम तुम वो डिवाइस अपने लिए हासिल करना चाहते हो?”
“मैं ऐसी खतरनाक बातों में हाथ नहीं डालता। मेरा विश्वास करो। मैंने तुमसे जो कहा है, सच कहा है। अगर मैंने झूठ बोलना होता तो सबसे पहले मैं अपनी हकीकत तुमसे छिपाता।”
“वो न्यूक्लियर खोजी डिवाइस हाथ आते ही तुम फौरन मेरे हवाले कर दोगे। वो मैं खुद सरकार के हवाले करूंगा।” हुशांग ली बोला।
“मंजूर है।”
“और जो तुम पचास हजार रोज का देने को कह रहे थे, उसका क्या होगा?” हुशांग ली ने पूछा।
“वो भी दूंगा।”
☐☐☐
अगले दिन जगजीत की आंख सुबह नौ बजे खुली। चेहरे पर परेशानी थी और आंखों के सामने विभा, सूरज और बंटी के चेहरे नाच रहे थे कि वे उसकी वजह से किसी मुसीबत में फंसे हैं। जाने अब किस हाल में होंगे। उन्हें आराम से रखा जा रहा है या तकलीफ दी जा रही है। विभा के साथ ज्यादती तो नहीं हो रही?
बेचैनी में घिरे जगजीत ने त्यागी पर नजर मारी जो कि नींद में डूबा था, फिर यो अपना मोबाईल उठाकर ड्राइंग रूम में आ गया। कुर्सी पर बैठते हए उसने विभा का नम्बर मिलाकर फोन कान से लगाया।
दूसरी तरफ बेल जाने लगी, फिर आदमी की आवाज कानों में पड़ी– “हैलो...।”
“मैं जगजीत बोल रहा हूँ।” ये कल वाली आवाज नहीं थी जिससे उसने बात की थी।
“उस औरत का भाई?”
“विभा का।” जगजीत ने अपनी व्याकुलता दबाते हुए कहा।
“बंटी और सूरज का मामा।”
“हाँ...।”
“कहो...।”
“मेरी बहन को तुम लोग कैसे रख रहे हो...?” जगजीत बोला।
“क्या पूछना चाहते हो?”
“उसके साथ कुछ बुरा तो नहीं कर रहे। उसे तकलीफ तो नहीं दे रहे...।”
“उसे हम अपनी बहन की तरह रख रहे हैं। ऐसा ही ऑर्डर मिला है हमें...।”
जगजीत ने चैन की सांस ली और बोला– “और बच्चों को?”
“उन्हें भी प्यार से रखा जा रहा है। तुम चिन्ता मत करो इस बारे में।”
“लेकिन तुम लोग चाहते क्या हो?”
“हम तो किराये के आदमी हैं और किसी के कहने पर ये सब कर रहे हैं।”
“कौन है वो?”
“नाम बताना मना है।”
“वो चाहता क्या है?”
“हमें नहीं मालूम।”
“मैं उससे बात करना चाहता हूं।”
“उसने कहा था कि वक्त आने पर वो खुद जगजीत से बात कर लेगा।”
“और वो वक्त कब आयेगा”
“हमें कुछ नहीं मालूम।”
“तुम कितने लोग हो?”
“ये जानने की तुम्हें जरूरत नहीं! तुम्हारी बहन और उसके बच्चों को सुरक्षित रखा है। तुम आराम से रहो । वो जब ठीक समझेगा, तुमसे बात कर लेगा। बार-बार हमें फोन करने की जरूरत नहीं है।”
“विभा को सूरत में ही रखा हुआ है?”
“हां...।”
“मेरी बात कराओ उससे।”
“मनाही है।” उधर से कहकर फोन बंद कर दिया गया।
जगजीत ने परेशानी वाले अन्दाज में फोन को टेबल पर रखा और किधर में जाकर चाय बनाने लगा।
जगजीत समझ नहीं पा रहा था कि उसका ऐसा कौन-सा दुश्मन पैदा हो गया, जो विभा के बारे में जानता था। उसने तो आज तक किसी का ऐसा कुछ बिगाड़ा नहीं कि कोई उसकी बहन और बच्चों का अपहरण कर ले।
तभी वीरेन्द्र त्यागी भी नींद से उठ गया। किचन के दरवाजे पर आकर बोला–
“मेरे लिए भी चाय बनाना।”
कुछ ही देर में दोनों छोटे से ड्राइंग रूम में बैठे चाय के घूंट भर रहे थे।”
“ये जगह अपने लिए सुरक्षित है।” त्यागी ने कहा।
“मुझे विभा की चिन्ता हो रही है।” जगजीत ने व्याकुलता से कहा।
“फोन आया कोई?”
“मैंने ही विभा के फोन पर कॉल की तो किसी ने बात की। परन्तु फायदा कुछ नहीं हुआ! वो किराये के आदमी हैं, जिनके पास विभा और बच्चे हैं! ये बताने को तैयार नहीं कि वो किसके लिए काम कर रहे हैं। कहते हैं वो जब ठीक समझेगा, मुझे फोन कर लेगा। विभा से मेरी बात भी नहीं करा रहे।” जगजीत होंठ भींचकर कह उठा।
“तुम्हारी बहन और बच्चों के साथ वे कैसा सलूक कर रहे हैं?”
“मुझे क्या पता, परन्तु कहते हैं कि उन्हें अच्छे ढंग से रखा जा रहा है।”
त्यागी के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
“मेरा ऐसा कोई दुश्मन नहीं। परन्तु ये सब जो भी कर रहा है, वो मेरा दुश्मन ही है।”
“शांत रह। वो तेरे को जल्दी ही फोन करेगा। अपनी बात रखेगा।” त्यागी ने कहा।
जगजीत होंठ भींच कर रह गया।
“तेरी बहन को उठाने वाला तेरा नाम जानता है तो स्पष्ट है कि वो तेरी ही पहचान वाला है। बहन के बारे में सोच-सोचकर तू परेशानी में पड़ेगा तो अपना नुकसान करेगा। ऐसे वक्त में अपने को सख्त बना के रख। न्यूक्लियर खोजी डिवाइस के बारे में मत भूल कि उसे कैश कराना है। सैकड़ों करोड़ की दौलत हासिल करनी...।”
“लेकिन मेरी बहन...।”
“चिन्ता क्यों करता है। मैं तेरे साथ हूं। मुझे भी तेरी बहन की चिन्ता है। वक्त आने पर तेरी बहन और उसके बच्चों को छुड़ाने के लिए मैं अपनी जान लगा दूंगा। फिरौती मांगी गई तो परवाह नहीं, हमारे पास पैसा आने वाला है।”
“त्यागी।” जगजीत कह उठा –“कहीं अपहरणकर्ता ऐसा इन्सान तो नहीं कि जो हम पर नज़र रख रहा हो –और जानता हो कि न्यूक्लियर खोजी डिवाइस बेच कर हम मोटी दौलत पाने वाले हैं और वो विभा और बच्चों को वापस करने के लिए हमसे पैसा ले सके...।”
“ये बात नहीं...।”
“तुम कैसे कह सकते हो?”
“ऐसा होता तो विभा और बच्चों का अपहरण करते ही हमें इस बारे में फोन करता। परन्तु उसने फोन नहीं किया। फिर हमें खुद नहीं मालूम था कि हम सूरत आ सकते हैं और यहां आने पर हमें उनके अपहरण का पता चलेगा। फिर –।”
“हमारी बातें कोरी अटकलें हैं।” जगजीत गम्भीर स्वर में बोला –“आने वाला वक्त ही बतायेगा कि मामला क्या है।”
त्यागी चाय का खाली प्याला टेबल पर रखता कह उठा।
“न्यूक्लियर खोजी डिवाइस के बारे में हमें सोचना चाहिये।”
“क्या सोचें?” जगजीत का मन खराब हुआ पड़ा था।
“डिवाइस की नीलामी सिर्फ चीन और अमेरिका के बीच ही करायेंगे।”
“ये ही ठीक रहेगा।”
“परन्तु इसके लिए हमें ऐसी जगह का चुनाव करना है, जहां हमारे लिए खतरा ना रहे।”
“जगह?”
“जो हमारे लिए सुरक्षित हो। दिल्ली सुरक्षित जगह नहीं है। मुम्बई भी सुरक्षित नहीं है।” त्यागी ने कहा।
“इस बारे में, हम दोपहर तक कुछ सोच लेंगे।” जगजीत ने कहकर आंखें बंद कर ली।
त्यागी उठा और सामने रखे टी.वी. को ऑन किया और रिमोट उठा कर बैठ गया, फिर चैनल बदलने लगा। मिनट भर भी नहीं बीता होगा कि न्यूज चैनल पर थम गया त्यागी।
स्क्रीन पर उसकी तस्वीर दिखाई जा रही थी। नीचे मोटा-मोटा वीरेन्द्र त्यागी लिखा था। तेज आवाज में बताया जा रहा था कि ये खतरनाक मुजरिम है और पुलिस को इसकी सख्त जरूरत है। मुम्बई के अलावा ये देश के किसी भी कोने में हो सकता है। इसके बारे में पक्की खबर देने वाले को एक लाख रुपया ईनाम दिया जायेगा और उसका नाम-पता भी गोपनीय रखा जायेगा। ये बातें टी.वी. पर बार-बार दोहराई जा रही थीं।
जगजीत की आंखें भी खुल चुकी थीं।
त्यागी के होंठ भिंच गये थे।
“हो गई गड़बड़...।” जगजीत के होंठों से निकला।
“मेरे बारे में पुलिस हरकत में आ गई है।” त्यागी ने कहा।
“खतरा बढ़ गया।”
“परन्तु मेरे पकड़े जाने पर भी पुलिस कभी साबित नहीं कर पायेगी कि न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की डकैती मैंने की है। मुझे कोई भी ऐसा खतरा नहीं कि मुझे चिन्ता होने लगे।” त्यागी मुस्करा पड़ा।
“परन्तु खतरा तो बढ़ गया तेरे लिए।”
“हमें न्यूक्लियर खोजी डिवाइस का सौदा जल्दी करना होगा। ये काम किसी छोटे शहर में हो तो बेहतर रहेगा। छोटे शहरों की पुलिस इतनी सतर्क नहीं होती कि हम जैसों को पकड़ सके।” त्यागी की नज़रें टी.वी. स्क्रीन पर थीं।
“छोटा शहर?” जगजीत ने होंठ सिकोड़े।
“हां। चीन और अमेरिका के लोगों को सौदा तय करने के लिए छोटे शहर में बुलाना होगा।”
“लोगों को? कितने लोगों को तुम बुलाने की सोच –।”
“सिर्फ दो-दो लोगों को। दो लोग चीन के, दो अमेरिका के।”
“इतने तो ठीक हैं।”
“जगह के बारे में सोच कि –।”
“मेरे ख्याल में शिमला ठीक रहेगा।”
त्यागी ने जगजीत को देखा।
“शिमला छोटा-सा पहाड़ी शहर है। अपराध कम होते हैं वहां और पुलिस भी ढीली है। मीटिंग शिमला के माल रोड पर रखी जाये तो बेहतर होगा –वहां के रिज़ प्वाईंट पर । वहां जगह-जगह बेंच पड़े रहते हैं और हर समय टूरिस्टों की भीड़ रहती है। बातचीत बेंचों पर ही होगी। पाँच मिनट का वक्त बहुत होगा बात के लिए। इतनी देर में आसानी से तय हो जायेगा कि डिवाइस का मालिक कौन बनेगा। उन्हें कहना होगा कि नोट लेकर शिमला पहुंचें।”
“बात तुम्हारी ठीक है।” त्यागी ने सिर हिलाया।
“आज से पांचवें दिन का वक्त रख लो शिमला का।” जगजीत ने कहा – “परन्तु तुम्हें अब मेकअप करके ही यहां से बाहर निकलना होगा। टी.वी. पर तुम्हारा चेहरा दिखाया जा रहा है –और तुम किसी खतरे में नहीं पड़ना चाहोगे।”
“बाजार से मेकअप का सामान ला देना।”
“उन लोगों से तो हमने देवराज चौहान और जगमोहन के रूप में ही मिलना है।”
“हां। वो ये ही जानते हैं कि डिवाइस का सौदा वे देवराज चौहान से कर रहे हैं।” त्यागी मुस्कराया –“हिन्दुस्तान में मेरे लिए खतरा बढ़ गया है। टी.वी. पर मेरी तस्वीर दिखाई जा रही है। तगड़ी दौलत मुझे मिलने वाली है। सोचता हूं कि हिन्दुस्तान से बाहर चला जाऊं।”
“जो भी तुम्हारी मर्जी।”
“खैर, इस बारे में विचार करने को अभी वक्त है। हिन्दुस्तान में भी रहा जा सकता है।”
“मुझे अपनी बहन की चिन्ता है...।”
“उसकी फिक्र मत करो। ये काम पहले निपटा कर तुम्हारी बहन और बच्चों को भी उन लोगों से आजाद करा लेंगे, जिन्होंने उन्हें कैद कर रखा है। डिवाइस का काम पहले निपट जाये तो ज्यादा बेहतर होगा।” कहने के साथ ही त्यागी ने मोबाईल निकाला और विनय बरुटा के नम्बर मिलाते कह उठा –“उन लोगों को जगह और वक्त बता दूं?”
जगजीत ने कुछ नहीं कहा।
त्यागी की विनय बरुटा से बात हो गई।
“देवराज चौहान बोल रहा हूं।”
“ओह देवराज चौहान।” विनय बरुटा की आवाज कानों में पड़ी –“मैं तुम्हारे फोन का इन्तजार कर ही रहा था।”
“मेरे ख्याल में अब हम लोगों को मिल लेना चाहिये।”
“क्यों नहीं, मैं तैयार हूं। चीन वाले तैयार –।”
“इस काम में ज्यादा आदमियों की जरूरत नहीं है।”
“पांच-छः चीनी लोग तो मेरे साथ रहेंगे।”
“नहीं। तुम्हारे साथ सिर्फ एक चीनी व्यक्ति रहेगा। कुल दो लोग। यही शर्त अमेरिका के लिए है। मैं भीड़ नहीं चाहता।”
“परन्तु वो लोग डिवाइस को चेक भी तो करना चाहेंगे।”
“डिवाइस चेक करा दी जायेगी। परन्तु नीलामी के वक्त दो लोग तुम और दो अमेरिका के होंगे। सिर्फ पांच मिनट तुम लोगों को मिलेंगे अपनी-अपनी कीमत बताने के लिए। जिसकी कीमत ज्यादा होगी, डिवाइस उसकी हो जायेगी। इसके बाद डिवाइस को चेक करने और टेस्ट करने के लिए आधे घंटे का वक्त दिया जायेगा।”
“समझ गया। तुम जैसा चाहते हो ऐसा ही होगा।” बरुटा की आवाज कानों में पड़ी –“ये मीटिंग कब और कहां होगी?”
“आज से पांचवें दिन, शिमला के माल रोड पर।”
“ठीक है। लेकिन हम एक-दूसरे को पहचानेंगे कैसे? तुम मुझे पहचानते हो?”
“नहीं।”
“लेकिन मैं तुम्हें पहचान सकता हूं। तुम्हारी तस्वीर हाल ही में टी.वी. पर बहुत बार देखी है।”
“जगमोहन की तस्वीर भी देखी होगी –।”
“हां।”
“तब हम दोनों में से कोई एक सामने आयेगा। तुम पहचान लोगे?”
“हां, मैं पहचान लूंगा।”
“कीमत साथ लानी है। किस रूप में तुम कीमत लाओगे?”
“डायमंड ठीक रहेंगे?”
“असली।”
“एकदम असली और बेशकीमती। चीन हर हाल में वो डिवाइस खरीद लेना चाहता है। वैसे शिमला के माल रोड पर तुम मुझे आसानी से पहचान सकोगे। मेरे साथ कोई चीनी व्यक्ति होगा।”
“वो कोई समस्या नहीं है। हमारे पास फोन होंगे। तब हम फोन पर भी एक-दूसरे की लोकेशन पूछ सकते हैं। पचहत्तर प्रतिशत कीमत डायमंड के रूप में होगी और पच्चीस प्रतिशत कीमत हिन्दुस्तानी नोटों में।”
“इन्तजाम हो जायेगा।”
“तो अब से पांचवें दिन शिमला के माल रोड पर मुलाकात होगी।”
त्यागी ने फोन बंद किया जऔर रॉबर्ट का नम्बर मिलाने लगा।
रॉबर्ट से भी बात हो गई।
“ओह देवराज चौहान। अच्छा हुआ तुमने फोन कर दिया। मैं तुमसे बात करने की –।”
“आज से पांचवें दिन हम लोग शिमला के माल रोड पर मिलेंगे रॉबर्ट।”
“ये तो अच्छी खबर है।”
“वहां चीन वाले भी होंगे। नीलामी में जो ज्यादा रकम बोलेगा, वो...।”
“देवराज चौहान!” रॉबर्ट की बेचैनी भरी आवाज कानों में पड़ी –“चीन को बीच में लाने की क्या जरूरत है? अमेरिका ही तुम्हें इतनी बड़ी रकम देने की सोच रहा है कि तुम...!”
“नीलामी में रकम बढ़ सकती है। क्योंकि चीन को भी न्यूक्लियर खोजी डिवाइस की जरूरत है।”
“अमेरिका तुम्हें 1500 करोड़ रुपये देने की सोच रहा है।”
“क्या पता चीन 2000 करोड़ दे दे...।”
रॉबर्ट के गहरी सांस लेने की आवाज आई।
“नीलामी होना जरूरी है। क्योंकि मैं ज्यादा-से-ज्यादा रकम चाहता हूं।”
“ठीक है।” रॉबर्ट की ढीली आवाज आई।
“रकम का पच्चीस प्रतिशत नकद और पचहत्तर प्रतिशत डायमंड में।”
“ऐसा ही होगा। आज से पांचवें दिन शिमला के माल रोड पर?”
“हां...।” त्यागी ने कहा और फोन बंद कर दिया।
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