भाभी बेगम का बयान।
बड़ी कठिनाई से भाभी बेगम कुछ बता पाई। पहले तो वह सकुचाती रहीं। फिर रो पड़ी। आंसुओं को पोंछते हुए, सिसकते हुये उन्होंने अपना बयान दिया...
कहते जबान कटती है कि मेरे शौहर जो फरिश्ते जैसे शरीफ थे, मेरे हाथ से जहर पीकर जन्नतनशीन हुए।
बहरामशाह ने मुझसे कहा था कि तुम्हारे शौहर की मर्दमी में कुछ कमी है । सफूफे जौहर उन्हें बिना कुछ बताये दूध में पिला देना। तुम्हारे गले में खास असरदार ताबीज मैंने बांध दिया है। इन्शाअल्लाह...नौ महीने बाद ही बेटा होगा।
मैंने वैसा ही किया और मेरे देखते-देखते मेरे शौहर ने मेरे सामने दम तोड़ दिया। मैं लुट गई...मेरे सामने मेरा जहान बर्बाद हो गया और वह भी मेरे हाथों से।
मैंने तय किया कि मैं फौरन शाह नसीर के मजार जाकर बहरामशाह को कत्ल करूंगी और फिर गोमती में डूब कर जान दे दूंगी।
वह अन्धेरी रात थी। मैं घोड़े को तूफानी चाल से दौड़ाती शाह नसीर के मजार पहुंची। लेकिन मैं यह दूसरी बाजी भी हार गई। शाह चौकन्ना था, उसके गुण्डे चौकन्ने थे। जैसे ही मैं मजार पर पहुंची, मुझे घेर लिया गया। मैं अपनी बिसात भर उनसे लड़ी। लेकिन जल्दी ही हांफ गई और उन लोगों ने मुझे ले जाकर मेरे हाथ पांव पलंग के चार कोनों से बांध दिये।
इसके बाद...इसके बाद मेरी अस्मत को शाह ने लूट लिया। मैं बंधी हुई थी, अपनी हिफाजत न कर सकी। मेरी रात बिलखते बीती। प्यास से मेरी जान निकली जा रही थी। मेरा गुस्सा खत्म हो गया और मैं शाह के सामने कुछ घूंट पानी के लिए गिड़गिड़ा रही थी।
इस तरह मैं एक बाजी और हारी।
शाह ने मुझे पानी दिया, पानी का जायका कुछ मीठा-मीठा और अजीब था। पानी पीने के बाद मुझे लगा जैसे मेरे सिर में आग लग गई हो! इसके बाद...इसके बाद मैंने क्या किया, मैं कहां रही...मैं कैसे हवेली वापस पहुंची...मुझे कुछ मालूम नहीं। मैं कल होश में आई और होश में आकर मैंने यह जाना कि मैं पागल हो गई थी। मैंने यह भी जाना कि पाण्डे जी चचा साहब शाह को शाह नसीर के मजार से उठवा लाए और उसी से मेरा इलाज करवाया। जिन्दगी में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। शायद मैं इसीलिये जिन्दा थी कि आपके सामने अपनी कहानी बयान कर सकूँ।
शीशे की अमूल्य प्याली में अब भी अंगूरी शराब थी। अब भी वह प्याली नवाब साहब के हाथों में थी।
परन्तु परिवर्तन भी हुआ था। नवाब साहब की त्यौरियां चढ़ी हुई थीं और चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था।
वह बेदार हो गये, उनमें अब कुछ अधिक सुनने की ताब न रही। उन्होंने कड़े स्वर में सम्बोधित किया-'बहरामशाह!'
कांप उठा शाह। हाथ बांध कर बोला-'हुजूरे आली।'
-'हम फिजूल की बकवास नहीं सुनेंगे...हमें सिर्फ हां और ना में जवाब दो। तुम्हारे बारे में जो बयानात दिये गए हैं...क्या वह सही है?'
-'हां हुजूर, यह बयानात सही हैं। मैंने अपनी जिन्दगी में बहुत से गुनाह किये हैं और यह गुनाह मैंने नबी बख्श की खुशी के लिए किया। मैं...!'
-'यह सब गलत है, यह सब गलत है। यह और कुछ नहीं है नवाब साहेब बहादुर...आपको गलतफहमी में डालने के लिए कहानी बनाई गई है। इदरीस बेग, इदरीस बेग की भावज और बहराम शाह को फौरन गिरफ्तार करने का हुक्म दीजिये।' दृढ़ स्वर में सत्ता और शक्ति के स्वर में रेजीडेन्ट स्लीमन ने कहा।
नवाब ने सुना। अब भी शीशे की बहुमूल्य प्याली में भरी अंगूरी शराब उनके हाथ में थी।
लेकिन आंखों में जैसे खून उतर आया था। नवाब साहब ने कहा-'स्लीमन साहब, क्या मैं यह समझूँ कि आप मुझे हुक्म दे रहे हैं?'
-'मैं आपको हुक्म कैसे दे सकता हूं हुजूर नवाब साहब! यह मेरी अर्ज है। मैं यहां लखनऊ में हुजूर गवर्नर जनरल का नौकर हूं और लखनऊ में अमन बनाए रखना मेरी जिम्मेदारी है। जुर्म हर हालत में जुर्म है। मैं अहसानमन्द रहूंगा, मेहरबानी करके इन्हें गिरफ्तार करने का हुक्म दीजिये। यह सरासर आपकी शान के खिलाफ होगा अगर मैं रेजीडेन्सी से फौज बुला कर इन्हें गिरफ्तार कराऊं तो। फिलहाल चतुरी पाण्डे को हिरासत में लेना होगा। यह सारी कहानी इन्होंने ही तैयार की है।'
-'इसका मतलब है कि आप हुक्म न देकर भी हुक्म दे रहे हैं?'
-'मैं सिर्फ अर्ज कर रहा हूं। मेरी मजबूरी है, मैं गवर्नर जनरल को जवाबदेह हूं। मुजरिम लाजिमी गिरफ्तार किये जायेंगे।'
-'तुम...तुम आज हमें हुक्म दे रहे हो स्लीमन साहब? लखनऊ में गोरी फौजें यह कह कर रखी जाती थीं कि वह नवाबी सल्तनत की हिफाजत के लिये हैं। लेकिन आज हमें मालूम हुआ कि रेजीडेन्सी में फिरंगी फौजें इसलिए हैं कि आप हम पर हुक्म चला सकें। हम खूब उल्लू बने। वजीर साहेब।'
-'आलीजहां।'
-'यह हमारा हुक्म है कि इन सबको, सिर्फ बहरामशाह को छोड़, बाइज्जत महलात से बाहर ही नहीं नवाबी से बाहर पहुंचा दिया जाये।'
-'मेरी मजबूरी है नवाब साहब।' उत्तर दिया रेजीडेन्ट स्लीमन ने-'ऐसा नहीं होगा।'
लखनऊ के नवाब बेबस हो गए। आज उन्हें अपनी ऐशपरस्ती का इनाम मिला।
लखनऊ में नवाबी फौजों के मुकाबले ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फौजी तादाद कई गुना ज्यादा थी।
वह पाण्डे जी की ओर दृष्टि उठा कर नहीं देख सके।
अब भी हाथ में शीशे की बहुमूल्य प्याली में अंगूरी शराब थी।
नवाब की दृष्टि झुकी थी। शरीर और मन का आवेश जैसे प्याली वाले हाथ में सिमटता आ रहा था।
एक अप्रत्याशित घटना घटी...छनाक!
उंगलियों के निरन्तर दबाव के कारण शीशे की बहुमूल्य प्याली टूट गई। शीशे के कण नवाब की उंगलियों और हथेलियों को जख्मी कर गये। शीशे की बहुमूल्य प्याली चूर-चूर होकर मसनद पर गिर पड़ी। अंगूरी शराब ने मसनद भिगो दी।
एक दासी ने शीशे के टुकड़े बड़ी तत्परता से समेटे। दूसरी नवाब साहेब का लहुलुहान हाथ साफ करने बढ़ी।
-'नहीं।' अपना हाथ देखते हुए नवाब साहेब बोले-'खून को बहने दो...खून को बहने दो। जिस खून में ऐय्याशी हो, बुजदिली हो...उसका बह जाना ही अच्छा है। पाण्डे जी हम शर्मिन्दा हैं। हम यह तो नहीं चाहते कि हमारी फौज और हमारी रियाया कम्पनी फौज की संगीनों से कुचल दी जाए। लेकिन यकीन रखिये खून आपके नवाब का भी बहेगा। शायद फिरंगी आपको और इन्हें जिन्दा न छोड़ें...लेकिन जिन्दा हम भी न रहेंगे। हम मुजरिम हैं और हमारी सजा है खुदकशी...यकीन मानिए, हम खुद अपने सीने में कटार मार लेंगे।'
-'आलीजहां!' कभी द्रवित न होने वाले पाण्डे जी की आंखों में आंसू छलछला उठे-'आली जहां आपका नमक खाया है, कोई घास नहीं खाई है। लेकिन जब लखनऊ पर, लखनऊ की सल्तनत पर फिरंगिओं का हुक्म चलता है तो आपके इस नमकख्वार का फर्ज बदल जाता है। जब तक जिन्दगी है...अब आपका यह नमकख्वार रहमत बेग के इस लड़के के साथ फिरंगी का बागी रहेगा। अपने मन को दुख मत दीजिए नवाब साहेब, आपने सांपों को पालना शुरू किया तो आपके इस गुलाम ने सांप के काटे का जहर उतारना सीखा है। जो आपकी दिली ख्वाहिश है, वह पूरी होगी। रेजीडेन्ट स्लीमन जैसे हजारों आपके गुलाम की अन्टी में लगे हैं...।'
-'पाण्डे...!' रेजीडेन्ट स्लीमन ने म्यान से तलवार खींच ली।
पाण्डे जी ठहाका मार कर हंस पड़े-'अपना मजाक खुद मत बनाओ स्लीमन साहब। मेरे यह बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं। यहां जो हुआ वह कुछ भी तो अचानक नहीं है। मैं सब कुछ जानता था। महल में शाही बैठक के बाहर हर जगह वह सिपाही तैनात हैं जो मेरे वफादार हैं। आप सिर्फ शाम तक इसी बैठकखाने में मेरे मेहमान रहेंगे। शाम तक मैं और यह बच्चे वहीं होंगे जहां की हवा भी नहीं पा सकते आप। लेकिन एक दिन जब हमारे और आपके बीच लोहा बजे, तलवार लेकर आईएगा...दोनों में पानी भी छन जाएगा। कहे देता हूं, अगर जान प्यारी हो तो दरवाजे से बाहर पांव शाम से पहले न रखियेगा। बहरामशाह को तोहफे के बतौर छोड़े जा रहा हूं...नबी बख्श को दे दीजियेगा।'
पाण्डे जी यह चेतावनी देने के बाद बढ़े, नवाबी मसनद चूमी।
फिर सभी ने ऐसा किया।
इसके बाद बहराम शाह के अतिरिक्त सभी चले गये।
उनके पीछे ही क्रोध से कांपते रेजीडेन्ट स्लीमन ने भी जाने की कोशिश की।
परन्तु जैसे ही वह दरवाजे पर पहुंचे दो भाले वाले सैनिकों ने उन्हें रोक दिया।
दो में से एक ने कहा-'हमारे पहरे में आप शाही बैठकखाने से बाहर न जा सकेंगे। दिन के आखिरी पहर तक हमारा पहरा है।'
रेजीडेन्ट हाथ मलते रह गए।
नवाब के चेहरे पर गर्वपूर्ण मुस्कराहट थी। अब भी उनका एक हाथ लहूलुहान था ।
वजीर अली नकी पत्थर के बुत बने खड़े थे।
बहरामशाह दीवार के सहारे खड़ा अपने अन्तिम समय की प्रतीक्षा कर रहा था।
रेजीडेन्ट स्लीमन क्रोध खाये नाग की भांति फन पटकता-सा बैठक में टहल रहा था।
इसके बाद वह कहानी शुरू होती है जो भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण इतिहास में लिखी हुई है।
पाण्डे जी का प्रबन्ध कच्चा न था। पहले से ही उनके सब प्रबन्ध थे। वह बूढ़ा जो अपने गांव में बुढ़ापे के दिन बिता रहा था, फिर कमर से तलवार बांध कर सैनिक बन गया। जो गुरु का व्रत...वह चेले का। नजीर साथ चला।
लगभग चालीस थे इदरीस के साथी। साथ में थी आयशा, भाभी बेगम और नजीर की अम्मी। जुबैदा भी खुशी से साथ चली।
पाण्डे जी ने इन सबके साथ सांझ ढलने से पहले ही लखनऊ छोड़ दिया।
परन्तु लखनऊ छोड़ने से पहले वह उस दौलत को निकालना न भूले, जो बहराम शाह के यहां से लाकर पुराने कुएं के निकट दबाई थी। यह सब दौलत इदरीस को सौंप दी गई और निश्चय हुआ कि दौलत का उपयोग आजादी के लिए लड़ने वाली सेना के लिए किया जाएगा।
लखनऊ से दूर...।
लखनऊ से बहुत दूर...सैकड़ों कोस दूर। अलग-अलग प्रदेशों के युद्ध नेता मिले।
जन-जन में आजादी की जंग का प्रचार करने के लिए रोटी और कमल का फूल चिन्ह बनाया गया।
आजादी की सेना बनने लगी।
एक छोटे से गांव में एक साधारण-सी कुटिया में एक दिन छोटा-सा जश्न हुआ।
यह था आयशा और इदरीस तथा जुबैदा और नजीर का निकाह।
इन स्त्रियों में भी जागरण की भावना थी। आयशा, जुबैदा और भाभी बेगम सैनिक शिक्षा लेने लगीं। नजीर की अम्मी भी तलवार चलाना सीखने लगीं।
उधर!
नवाब और रेजीडेन्ट स्लीमन में ठन गई।
ठन तो गई...परन्तु वह खून जिसमें ऐय्याशी थी, बुजदिली थी...वह बह नहीं सका ।शाम हुई तो रेजीडेन्ट जाकर अपना जाल फैलाने लगा और नवाब साहेब के हाथ में शाही हकीम ने पट्टी बांध दी।
शराब ढलने लगी।
नाच होने लगे और नवाब साहेब हरम की हसीनाओं की गोद में जागने और बेहोश होने लगे। नवाब के हुक्म से वजीर अली नकी खां ने कलकत्ता में कम्पनी के गवर्नर जनरल के पास रेजीडेन्ट स्लीमन के खिलाफ बदतमीजी की शिकायत भेजी।
परन्तु स्लीमन तो बहुत दिनों से नवाब के लिए जाल बुन रहा था।
उसने गवर्नर जनरल के पास नवाब के खिलाफ लम्बा अभियोग पत्र भेजा।
इन तथ्यों से ऊपर एक सत्य था। ब्रिटेन के सेठों की, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भागीदारों की नजर सम्पूर्ण भारत पर थी। उन्होंने अपना तनखाहदार गवर्नर जनरल अजगर के रूप में छोड़ रखा था जो एक के बाद एक भारतीय शासक को हड़पता जा रहा था।
लखनऊ सल्तनत भी तो आंख का कांटा थी।
नवाब की शिकायत पर रेजीडेन्ट स्लीमन को वापस बुला कर लखनऊ में नया रेजीडेन्ट भेजा गया...ओटरम।
ओटरम के पास एक यह भी काम था कि स्लीमन के अभियोग पत्र की जांच करे। या अभियोग पत्र की जांच का मजाक नवाब के साथ करता रहे!
जंगे आजादी का बिगुल बजा।
देश के हर कोने से...हर जगह से।
सिपाही देश के लिए जान देने लगे। परन्तु दिल्ली का बादशाह, लखनऊ का नवाब और अन्य राजा...उनके सम्बन्धी, उनके बेटे आदि अपना स्वार्थ साधने के लिए कभी लड़ने का दिखावा करते, कभी सुलह के प्रस्ताव रखते। उन्हें देश की आजादी नहीं अपनी रियासतें, अपने मजे और ऐश की जरूरत थी।
सिपाहियों ने जाने दीं। राजाओं और नवाबों की जानें अग्रेजों ने ली।
एक के बाद एक रियासत पर कम्पनी सरकार का कब्जा होता गया। इसलिए कि आजादी के दीवानों का साथ राजा और नवाबों ने नहीं दिया। फिर भी मिट गए।
एक वृक्ष समाप्त हो जाता है, सूख जाता है...परन्तु क्या उसे समाप्त कहा जा सकता है जबकि उससे उत्पन्न हजारों बीज वृक्ष बन जाते हैं।
शासकों के स्वार्थ ने, शासकों की ऐशपरस्ती ने फिरंगिओं को बहुत मजबूत बेड़ियां बनाने का मौका दिया था जो भारत के पांवों में कस दी गई।
उन बेड़ियों पर, गुलामी की मजबूत जंजीरों पर स्वतंत्रता के दीवाने अपना सिर पटक-पटक कर प्राण देते रहे।
अगले दिन!
फिर सभी किस्सा सुनने के लिये बड़े कमरे में एकत्र हो गये।
राजेश बोले-'तो कल वाला किस्सा तो काफी बड़ा था। आज आपको किस्सा छोटा ही सुनाएंगे। चचा नवाब साहेब को अधिक देर बैठने से थकान हो जाती है।'
प्रश्न किया गया-'किस्से तो अभी बहुत हैं?'
-'हां, इतने किस्से हैं कि सुनाते-सुनाने मेरी छुट्टियां खत्म हो जाएंगी लेकिन किस्से खत्म नहीं होंगे। अलग से एक सूचना है कि नवाब साहब के महल में बेगमों से लेकर रखेलों तक की गिनती नौ सौ पचास थी। जब उन्हें कलकत्ता ले जाकर मटिया बुर्ज के महल में रखा गया तो उन्हें दो लाख रुपये महीना की पेन्शन ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने देनी स्वीकार कर ली। वहां नवाब साहेब को परिन्दों और जानवरों का चिड़ियाघर बनाने की सनक सवार हुई और उसी शौक में साठ हजार रुपये हर महीने खर्च हो जाते थे। खैर यह तो केवल सूचना है, अब किस्सा शुरू करता हूं। इस किस्से को नाम दिया गया है...जाफरी बेगम के पाजेब।
वह साधारण पाजेब नहीं थे, सोने के उन पाजेबों में कीमती नग जड़े हुये थे।
इसके अतिरिक्त जाफरी बेगम उन पाजेबों को बहुत ही सौभाग्यशाली मानती थीं...जब से वह पाजेब बेगम के पांवों की शोभा बने थे तभी से नवाब उन पर विशेष आसक्त रहने लगे थे।
नवाब कलावन्त दासी के रबाब पर भैरवी की धुन सुन कर जब जागे तो दिन का एक पहर बीत चुका था।
जैसे ही जागे बांदी ने झुक कर आदाब बजाया-'जहांपनाह, जाफरी बेगम बाहर इन्तजार कर रही हैं।'
-'फौरन बुलाओ।'
चहेतियों में से एक जाफरी बेगम...!
खुशनुमा गुलाबी रंग...हंसे तो जैसे फूल झड़ें...मुस्कराहट तो जैसे कयामत।
परन्तु आज!
वह नवाब साहेब के पांवों में सिर रख कर रो पड़ी।
-'ऐसा गजब मत करो जाफरी बेगम। हम लखनऊ सल्तनत को आप पर कुर्बान कर सकते हैं, हम आपके लिये जान भी दे सकते हैं। अब फरमाइये...क्या तकलीफ है?'
-'हुजूर मैं लुट गई...मेरे सोने के पाजेब चोरी हो गये। रात में जब सोई तो पाजेब पांवों में थे...सुबह जागी तो नदारद।'
नवाब हंसे-'बस इतनी सी बात! आज ही सुनार से कहलवा देंगे, कल उससे भी बढ़िया पाजेब बन कर आ जाएंगी।'
-'नहीं जाने आलम। हमें वही पाजेब चाहिएं। आपको कैसे समझायें कि वह पाजेब हमारी खुशकिस्मती थीं...वही पाजेब...!'
-'ठीक से उठ कर बैठ जाइए, अगर आपको ऐसी ही जिद है तो यकीनन वही पाजेब मिल जायेगी। आंसू पोंछ लीजिए, और शर्त है कि एक बार हमारे सामने मुस्कराइए।'
जाफरी बेगम ने वैसी ही चेष्टा की। मुस्कराये जाने आलम-'कोई है...?'
एक साथ दो बांदी कक्ष में हाजिर हुईं।
-'फौरन ही पाण्डे जी को इत्तला की जाये कि हमने उन्हें याद किया है।'
बेगम तनिक चौंकी। पाजेब की चोरी से परेशान बेगम जाफरी को यह आदेश अच्छा नहीं लगा। परन्तु कुछ कह भी न सकी।
जाने आलम ने फिर कहा-'बेगम साहिबा आप जाइये। कहा जाता है कि हथेली पर सरसों नहीं जमाई जा सकती। लेकिन हमारे चतुरी पाण्डे हथेली पर सरसों जमाने में माहिर हैं।'
आदेश पाकर बेगम चली गई।
लगभग दो घन्टे बाद...तब जब कि नवाब साहेब हमाम में गुसल कर आये थे, नाश्ता कर लिया था, और अब हाथ में अंगूरी शराब की प्याली थी।
खास जासूस चतुरी पाण्डे ने आकार आदाब बजाया।
जाने आलम मुस्कराये-'शिकायत है पाण्डे जी। सुना है घर में खुशी हुई थी, और आपने हमें दावत नहीं दी।'
-'जाने आलम माफ कीजिएगा। यह खबर मैंने ही आपको दी थी कि पत्नि ने बेटे को जन्म दिया है। आपने पांच अशर्फी बच्चे को देने के लिये दी भी थीं।'
-'हम दावत की बात कह रहे हैं पाण्डे जी!'
-'जाने आलम ने जो हवेली रहने के लिये दे रखी है, बेशक अच्छी है। लेकिन आस-पास वैसा माहौल नहीं है कि हुजूर को वहां आने का बुलावा देता। हुजूर की इज्जत का सवाल था।'
-'हमारी इज्जत बड़ी चीज है, या वह इज्जत बड़ी चीज है जो आपके लिए हमारे दिल में है।'
-'बेशक आपके दिल की इज्जत बड़ी चीज है। लेकिन क्या मुझे यह नहीं सोचना चाहिए कि जाने आलम को कहां जाना चाहिये कहां नहीं? बच्चा जब एक साल का हो जायेगा, तो आपको आदाब बजाने के लिये हाजिर होगा।'
-'हमें उस दिन का इन्तजार रहेगा। अब पाण्डे जी हमारी मुसीबत सुनिये। एक हैं जाफरी बेगम।'
-'जी।'
-'खूबसूरत हैं, और बेशक पांव तो और भी खूबसूरत हैं। हमने उनके लिये सोने के जड़ाऊ पाजेब बनवा दिये थे। वह चोरी हो गए। मामूली बात है, हमने कहा नये बनवा देंगे। लेकिन उनकी जिद है कि वही पाजेब चाहिये। आपको पाजेब बरामद करने होंगे।'
-'जो हुक्म। हुजूर से पहले कुछ अर्ज किया था मैंने।'
-'हमें याद है। आपने कहा था कि जनाने महल के लिये आप एक औरत जासूस को तैयार कर देंगे। माफ कीजिएगा, औरत और मर्द में बहुत फर्क है। जितने ईमानदार आप हैं, जितने ईमानदार आपके शागिर्द हैं...उतनी कोई औरत...संस्कृत में कुछ ऐसा कहा गया है कि आदमी की किस्मत और औरत का चाल चलन अल्लाह भी नहीं जानता। आपके लिए जनाने महल में जाने की रोक नहीं है।'
-'यह तो आपकी खास मेहरबानी है हुजूर, लेकिन मैं दूसरी बात सोचता हूं।'
-'आपको कोई भी बात नहीं सोचनी चाहिए।'
-'सिर्फ इतना सोचता हूं कि बेगमात को मेरा जनाने महल में जाना अच्छा नहीं लगेगा, अच्छा नहीं लगता है...।'
-'तो फिर साफ बात ही सुन लीजिये। जिस बेगम को आपका जनाने महल में जाना अच्छा नहीं लगेगा, वह महल की बेगम ही नहीं रहेगी। हमें जितना आप पर यकीन है उतना अपने आप पर भी यकीन नहीं है।'
-'शुक्रिया।'
-'शुक्रिया की जरूरत नहीं है। बेगम को कहा जाता है जाफरी बेगम।'
-'जी।'
-'वह पाजेब शायद भोला सुनार ने बनाये थे। खास पहचान यह है कि उसमें ऐसे नग जड़े हुए हैं कि रात के अन्धेरे में भी दमकते हैं।'
-'खोजने की पूरी कोशिश करूंगा।'
-'आपसे हमें यह सुनने की बिल्कुल ही उम्मीद नहीं थी। पाजेब मिलने ही चाहिये। चोर पकड़ा ही जाना चाहिये।'
-'चोर तो पकड़ा ही जाएगा। सवाल सिर्फ यही है कि चोर ने पकड़े जाने के डर से कहीं पाजेबों को गला न लिया हो!'
-'काश ऐसा न हो।'
-'उम्मीद तो यही है। कौन सुनार देखते ही यह नहीं पहचान लेगा कि पाजेब जनाने महल की हैं। कौन अपनी मौत चाहेगा? बशर्ते चोर ही सोना गलाने की तरकीब न जानता हो!'
-'खैर आप कोशिश तो कीजिये ही।'
-'जी हां...अभी फौरन आदाब बजा लाता हूं।'
जनाना महल...पहली मुलाकात होती है छम्मो कहारिन से।
-'पाण्डे जी परनाम।'
-'सो तो हो गई, बात क्या है छम्मो...कुछ दुबली सी है, लेकिन चेहरे पर खास रौनक है?'
-'दो महीने पहले एक बेटा जना है।'
-'किसका है?'
-'यही अफसोस की बात है पाण्डे जी, वह आपका है यह तो कह नहीं सकती।'
-'होश में रह कर बात कर शैतान की नानी...चल कर यह बता कि जाफरी बेगम कहां रहती है?'
-'आइए, बेचारी की पाजेब खो गयी हैं। सुबह से ही रो रही हैं।'
-'तेरी जान को तो नहीं रो रही हैं?'
-'बेटे की कसम पाण्डे जी, वैसा कुछ भी नहीं है। वैसे भी जाफरी बेगम पाक साफ है।'
पाण्डे जी ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह छम्मो के साथ-साथ चल रहे थे।
-'यही है।' रुकते हुए छम्मो बोली।
दरवाजे पर नंगी तलवार लिये तातारी बांदी खड़ी थी, उसने पाण्डे जी का अभिवादन किया।
-'रात में तेरा ही पहरा रहा?'
-'यहां रात में पहरा नहीं रहता।'
-'क्यों?'
-'बेगम साहिबा अन्दर से दरवाजा बन्द करके सोती हैं।'
-'हूं, जा बेगम से कह कि पाण्डे आया है।'
सूचना भेजी गई।
कुछ ही क्षण बाद सुन्दर जाफरी बेगम प्रगट हुई। पाण्डे जी की हैसियत जानती थी, इसलिये दोनों हाथ जोड़ कर अभिवादन किया।
-'आइये बेगम साहिबा, अन्दर से आपकी आरामगाह देखनी है।'
पाण्डे जी छम्मो और जाफरी बेगम सहित उस कक्ष में प्रविष्ट हुये।
कक्ष की सजावट देख कर ही प्रतीत होता था कि वह नवाब साहब की चहेती बेगम है। ईरानी कालीन, फ्रांस के फानूस और पूरब की ओर खुलने वाली खिड़की में रंग-बिरंगे बेलजियम के शीशे लगे हुए।
कुछ क्षण पाण्डे जी कक्ष को देखते रहे।
-'बेगम साहिबा!'
-'जी।'
-'खिड़की में रंग-बिरंगे शीशे लाजवाब है। क्या लाजवाब चमक है...जब पुर्वा हवा चलती होगी तो बड़ा अच्छा लगता होगा।'
-'जी मैंने कभी यह खिड़की खोली ही नहीं।'
-'क्यों?'
-'दूसरी तरफ शाही बाग है, बेपर्दगी तो होती ही है।'
-'आप भी कमाल करती हैं! खिड़की की ऊंचाई ऊंचे पेड़ों के बराबर है, बेपर्दगी कैसे होगी?'
पाण्डे जी ने वह विशालाकार खिड़की खोल दी, ऐसा तो नहीं लगा कि खिड़की कभी खुलती ही न हो।
खिड़की के निकट ही आम के वृक्ष की मोटी डाल थी। शायद उसे काट कर खिड़की की ओर बढ़ने से रोक दिया गया था।
पाण्डे जी खिड़की पर चढ़े और आम के पेड़ की डाल पर झूल गये। फिर वह उसी पेड़ के सहारे नीचे बाग में उतर गये।
नीचे पहुंच कर उन्होंने आवाज दी-'मियां माली हैं क्या...?'
दूर से आवाज आई-'हाजिर हुआ हुजूर।'
थोड़ी देर लगी। शायद अधेड़ माली कहीं दूर था। निकट आकर बोला-'परनाम करता हूं पाण्डे जी।'
-'सलाम मियां माली। यह कहो कि बाग में फालतू आदमी तो नहीं घुस आते?'
-'अब तो नहीं, लेकिन जब आम लगने शुरू होते है तब अक्सर बच्चे दीवार फांद कर आ जाते हैं। महल दारोगा से कई बार कहा है कि दीवार एक गज और ऊंची करा दी जाए।'
-'तो बच्चे दीवार फांद कर आ जाते हैं?'
-'जी हां, जब आम फलते हैं या जामुन।'
-'अच्छा मियां, रात की पहरेदारी होती है क्या?'
-'वैसा चलन तो नहीं है हुजूर।'
-'ठीक। अच्छा वैसे कोई दिक्कत या शिकायत तो नहीं है?'
-'नहीं पाण्डे जी, आपकी किरपा है।'
-'अच्छा बड़े मियां...आदाब।'
-'परनाम पाण्डे जी।'
पाण्डे जी जिस प्रकार पेड़ के सहारे गए थे उसी प्रकार लौटे, डाल पर झूले और खिड़की में। खिड़की से कक्ष में।
उन्होंने खिड़की बन्द करते हुए कहा-'छम्मो तू जरा बाहर जा। और खबरदार अगर बातें सुनने की कोशिश की तो!'
धीमे से पाण्डे जी ने कहा-'बेगम साहिबा...!'
बेगम जाफरी की दृष्टि झुक गई-'जी।'
-'कोई रोज या कभी-कभी खिड़की के रास्ते महल में आता है और वही चोर है। आपको बताना होगा कि वह कौन है। बता देंगी तो यह रहस्य मेरे साथ ही चिता में जाएगा। वर्ना नवाब जाने आलम का प्यार तो आपने देखा है, गुस्सा नहीं देखा। चाहें तो देख लीजिये।'
बेगम जाफरी ने हाथ जोड़े-'बताती हूं पाण्डे जी।'
बांके!
हां, नवाबी युग में यह शब्द बहुत प्रचलित था।
बांके का अर्थ था अपने क्षेत्र का गुण्डा। जो सलाम बजाए, जो साप्ताहिक सलामी दे वह मौज में रहे। वरना बांके गरीबों को छेड़ते नहीं थे और अमीरों को छोड़ते नहीं थे।
पाण्डे जी का युवक शागिर्द था नजीर।
घोड़ा नजीर के मकान के सामने रुका। नजीर को आवाज दी।
वह हाजिर हुआ...अपने गुरु को प्रणाम किया।
-'नजीर।'
-'जी।'
-'लखनऊ में कितने बांके हैं...?'
-'यूं तो गुरु जी जब तक शादी न हो, हर नौजवान अपने आपको बांका ही समझता है, लेकिन शहर लखनऊ में एक सौ आठ बांके मशहूर हैं।
-'कभी अली कमाल बांके का नाम सुना है?'
-'जी हां, एक बार तो मुर्गों की लड़ाई में कुछ ठन भी गई थी। म्यान से कटारें भी निकल आई थीं, शायद उस दिन फैसला ही हो जाता! लेकिन किसी ने कान में कह दिया कि सामने पाण्डे जी का शागिर्द है। सो उसने कटार म्यान में रखी और गले मिल कर माफी मांगी।'
-'उसका घर जानते हो?'
-'जी हां, गाजी सराए के सामने है।'
-'फौरन घोड़ा कसो, रस्सी में लगा फन्दा भी साथ रहे...फौरन।'
देर नहीं की नजीर ने, परन्तु यह भी कहा-'अम्मी सलाम कह रही है और यह...!'
दूध भरा कटोरा था, पाण्डे जी ने दूध पी लिया।
कटोरा देते हुए कहा-'बहन से मेरा सलाम कहो। आज जल्दी है, वर्ना कुछ देर बैठता भी।'
और फिर दोनों घोड़े अली कमाल के घर के ठीक सामने रुके।
नजीर घोड़े से उतरा। घर का दरवाजा खटखटाया।
एक अधेड़ औरत ने दरवाजा खोला।
नजीर ने पूछा-'मियां कमाल से मिलना है।'
उत्तर मिला-'काफी देर हो गई, कानपुर जाने के लिए कह गया है।'
पाण्डे बोले-'नजीर, इन बहन से कह दो कि अपने सपूत से कहें कि शहर लखनऊ से उसका दाना पानी उठ गया है। अब कहीं दूसरे शहर में जाकर रहे। यह बात चतुरी पाण्डे कह रहा है। वैसे उससे भी मुलाकात होगी और यह बात मैं खुद उससे भी कह दूंगा। चलो नजीर।'
कुछ दूर घोड़ा दौड़ा कर नजीर ने पूछा-'कानपुर चलना है गुरु जी?'
-'नहीं, मामला है महल की एक बेगम की जड़ाऊ सोने की पाजेब का। महल के जेवरों को लखनऊ या कानपुर में कोई सुनार नहीं गलाता। फैजाबाद चलना है...तेज चाल से। आज यही देखना है कि तुम्हारा घोड़ा कितना तेज दौड़ता है!
और गुरु तथा शिष्य के घोड़े फैजाबाद जाने वाले रास्ते पर हवा की गति से दौड़ रहे थे।
फैजाबाद तो अभी दूर था।
चौंक कर नजीर ने कहा-'गुरु जी, बेशक वह कमाल ही जा रहा है! चितकबरा घोड़ा उसी का है।'
-'ठीक है, अभी अधिक दूरी है। रस्सी घोड़े से बंधी रहे और निशाना साध कर जब ठीक हो तब फन्दा फेंको।'
और गुरु ने देखा फि शिष्य अयोग्य नहीं था। लगभग बारह गज की दूरी से नजीर ने फन्दा फेंका और फन्दा कमाल की छाती और हाथों को कसता चला गया तो घोड़ा स्वयं ही रुक गया।
कमाल ने घोड़ा मोड़ा।
चौंका-'नजीर!'
-'हां नजीर, और साथ में हैं गुरु जी।'
-'पाण्डे जी, मैं इज्जत करता हूं आपकी। मेरा रास्ता मत रोकिये वरना खून की नदियां बह जायेंगी।'
-'तुम पागल हो कमाल। तीन आदमियों के खून से तो रास्ता गीला भी नहीं होगा। घोड़े से उतर जाओ, खून खराबे की बातें बाद में...पहले कुछ और बातें हो जायें।'
ऐसे जैसे कुछ बात ही न हो।
तीनों ने अपने घोड़े वृक्ष से बांध दिए।
-'सुनो कमाल, जाफरी बेगम से इश्क किया...वह सब तो महल में चलता ही है। जाफरी की पाजेब क्यों उतार लाये?'
चौंका कमाल।
-'अब तीन बातें हैं...ध्यान से सुनो। एक, अब जाफरी बेगम से मिलना छोड़ दो। इसलिये कि मामला आशिकी का बिल्कुल नहीं है। अगर सचमुच ऐसा ही मामला होता तो पाजेब की चोरी की शिकायत वह जाने आलम से न करती। यह मैं मानता हूं कि वह गहरी नींद में सो गई और तुम पाजेब उतार लाये। लेकिन अगर उसके मन में तुम्हारे लिये सच्ची चाहत होती तो न वह जाने आलम के पास जाती और ना मुझे तुम्हारा नाम बताती। तीसरी और आखिरी बात...पाजेब मुझे दे दो।'
कमाल ठगा-सा पाण्डे जी की ओर देख रहा था।
-'अगर झगड़े से न डरते हो, अगर खून में उबाल है तो नजीर पर अपनी कटार आजमा कर देख लो। अगर सचमुच तुम इससे जीत गये तो पाजेब तुम्हारी। अगर समझदारी से सोचते हो तो पाजेब मुझे दे दो और लखनऊ छोड़ कर कहीं और चले जाओ। महल की बेगमात सुख चाहती हैं, उनमें किसी के लिये भी वफादारी नहीं है। अगर किसी और के सामने उसने तुम्हारा नाम ले दिया तो जिन्दगी नहीं बचेगी। जो मुझे कहना था वह कह चुका, अब जो भी मुनासिब समझो।'
कुछ देर तक कमाल सोचता रहा।
फिर उसने अपने चोगे में से पाजेब निकाली। उसमें जड़े हुए नग दमक उठे।
-'पाण्डे जी, यह हैं पाजेब। एक इस हाथ की मुट्ठी में दूसरी दूसरे हाथ की मुट्ठी में। बात नजीर की नहीं है, आपका उस्तादी जौहर देखना चाहता हूं। पाजेब ले लीजिये।'
-'अच्छा...तुम्हारा यह मजाक भी मानूंगा।'
पाण्डे जी ने कमाल के सीधे हाथ की कलाई पकड़ी और उसे इतनी तेजी से उमेठ दिया कि कमाल के मुख से आह निकली और मुट्ठी खुल गई। और दूसरी मुट्ठी उसने खुद ही खोल दी। दोनों पाजेब पाण्डे जी के हाथों में आ गई।
उन्होंने पाजेबों को एक नजर देखा और फिर चोगे में रखते हुए कहा-'तो कमाल, तुम्हारी समझदारी की दाद देता हूं। खून नहीं बहा, तू-तू मैं-मैं नहीं हुई और आपस में लिहाजदारी भी बनी रही। रास्ते में एक कस्बा था, छोटा-सा बाजार भी वहां था। वहीं चलेंगे, घोड़ों को भुने चनों का नाश्ता देंगे और तीनों दूध के साथ पेड़े भी खायेंगे। चलो।'
-'पाण्डे जी।'
-'कहो।'
कमाल ने पाण्डे के दोनों पांव पकड़ कर कहा-'मुझे अपना शागिर्द बना लीजिए।'
-'जरूर बना लेता। लेकिन दस्तूर है और कसम भी है कि एक ही शागिर्द बना सकता हूं। लेकिन जहां भी रहोगे, किसी भी परेशानी या मुसीबत में मुझे या नजीर को याद करोगे तो यकीन मानो हमें अपने पास पाओगे।'
-'शुक्रिया...आपने लखनऊ छोड़ देने का हुक्म दिया है।'
-'मजबूरी है...महल की रखेलों की न तो वफादारी पर यकीन किया जा सकता है, न...! खैर, यह तुम्हारी भलाई के लिये ही कह रहा हूं।'
-'कहां जाऊं...गुजारा कैसे होगा?'
-'गुजारा तो तुम हर शहर में कर सकते हो...वैसे अगर यह चलन छोड़ना चाहो तो...।'
-'गुजारा हो सकेगा?'
-'हां, कानपुर जाना या फिर बिठूर ही चले जाना। खत लिख दूंगा। नाना साहेब के खास अंगरक्षक बना दिये जाओगे।'
-'साथ में अम्मी भी है।'
-'चाहो तो उन्हें भी साथ ले जाना, या उन्हें यहीं छोड़ जाना। इस बहाने कभी-कभी लखनऊ आना होता रहेगा।'
-'कोतवाल हाशिम खां मुझसे दुश्मनी मानता है।'
-'उसकी फिक्र मत करो। उसे हम देख लेंगे।'
-'शुक्रिया पाण्डे जी।'
-'तो चलें?'
-'जो हुक्म।'
-'शायद घर से खाना खाकर नहीं चले हो! लेकिन अच्छा खाना तो लखनऊ में ही मिलेगा। वैसे उस बाजार में दूध और पेड़े खाने की छूट होगी।'
-'सचमुच आप रहमदिल हैं।'
-'अब क्या कहें तुमसे...! नवाबी महल में साढ़े नौ सौ औरतें हैं। बदचलन हो जाना उनकी मजबूरी है, और मेरी मजबूरी यह है कि जाने आलम का नमक खाता हूं। आओ चलते हैं।'
सांझ से कुछ पहले ही।
दोनों सोने के जड़ाऊ पाजेब जाने आलम के सामने रखते हुए पाण्डे जी ने कहा-'जाने आलम का इकबाल बुलन्द रहे। पाजेब की जोड़ी जाफरी बेगम साहिबा को दिखा ली जायें। वह पहचान लें कि उनकी पाजेब की जोड़ी यही हैं या नहीं!'
जाने आलम ने एक बांदी को आदेश दिया-'जाफरी बेगम को हाजिर किया जाये।'
घबराई-सी जाफरी बेगम आई।
जाने आलम मुस्कराये-'लो बेगम पहचान लो, यही हैं तुम्हारी पाजेब?'
देख कर बेगम ने स्वीकार किया-'हां, शुक्रिया हुजूर...बेशक यही मेरी पाजेबों की जोड़ी है।'
-'पाण्डे जी का शुक्रिया अदा करो। हथेली पर सरसों जमा दें यह करामात पाण्डे जी ही जानते हैं।'
जाफरी बेगम घबराई हुई थीं।
अगर पाण्डे जी रहस्य खोल दें तो...?
दृष्टि झुकी हुई थी। बोली-'शुक्रिया पाण्डे जी।'
-'इसकी जरूरत नहीं है बेगम साहिबा। यह तो मेरा फर्ज है। आशा है जाने आलम मुझे आपसे कुछ कहने की इजाजत देंगे।'
-'जरूर...कहिये।'
-'कहना सिर्फ यह है कि आप रात के वक्त दरवाजे पर तातारी बांदी का पहरा रखने की इजाजत नहीं देतीं। ऐसी हालत में आपको दरवाजा बन्द करके सोना चाहिये। दरवाजा खुला हो और आप बेखबर नींद में हों तो नतीजा यही होगा। खैर, अब होशियार रहिएगा। आपकी पाजेब आपको मिल गई...जाइये आराम कीजिये।'
जाफरी बेगम ने सन्तोष की सांस ली, जाने आलम को आदाब बजा कर पाण्डे जी की ओर हाथ जोड़ कर वह चली गई।
परन्तु नवाब!
-'पाण्डे जी?'
-'जाने आलम!'
-'पाजेब बरामद हो गईं, लेकिन मुजरिम...मुजरिम को हमारे सामने पेश किया जाये।'
-'मुजरिम नहीं है जाने आलम।'
-'क्या मुजरिम को माफ कर दिया?'
-'नहीं जाने आलम...मुजरिम को मैं कैसे माफ कर सकता हूं? यह हक तो आपको या शहर के काजी को ही है।'
-'तब मुजरिम कहां है?'
-'दस मन मिट्टी के नीचे।'
-'क्या?'
-'जाने आलम, यह मजबूरी की बात है कि जनानखाने में बाहर से सैकड़ों औरतें रोज आती हैं। कुछ बेगमात को मालिश कराने का शौक है, कुछ रोज ही नई तरह से बालों को सजवाती हैं। पेशेवर दर्जी का काम करने भी और आती हैं, दाई वगैरह भी आती रहती हैं।'
-'यह जानकारी हमें है।'
-'तो हुजूर एक औरत थी, मालिश करने में माहिर थी और बेगमों का बदन दबाने में भी हुनर का कमाल उसमें था। बड़े इमामबाड़े के पास एक झोपड़ी में रहती थी। दरवाजा खुला देखा तो जाफरी बेगम के कमरे में जा पहुंची और नींद में बेखबर सोई बेगम के पांवों से पाजेब खोल कर ले गई।'
-'वह जिस हालत में भी हो...?'
-'यही तो कहना चाहता था हुजूर कि जब मैं वहां पहुंचा तो वह मुझे देख कर भागी, सचमुच गजब की दौड़ लगाई। मजबूरी थी, मैंने निशाना लेकर उसकी तरफ खंजर फेंका...वैसा चाहता नहीं था। परन्तु खंजर कमर में घुस कर पेट में निकल आया। पाजेब तो मिल गई, लेकिन वह जिन्दा न रही। लोगों के अलग-अलग बयान थे। कुछ ने कहा अकेली रहती है, कुछ ने कहा रात में अक्सर कोई मर्द आता है। अब लाश को यूं ही तो छोड़ा नहीं जा सकता था। नहलाना, नमाजे जनाजा कराना और फिर कब्र में उतारना...।'
-'कुछ खर्च भी हुआ ही होगा?'
-'हां कुछ चांदी के सिक्के खर्च हुए। भिखमंगों से कहा कि लूट लो, झोपड़ी में जो कुछ मिले वह आपस में मिल बांट लेना।'
-'शाबाश पाण्डे जी।'
-'जाने आलम का इकबाल बुलन्द रहे। यह किस्सा खत्म कर देना ही मुनासिब समझा।'
-'हमें खुशी हुई...लो...!'
गुलाबी थैली, पाण्डे जी जानते थे कि इसमें सोने के ग्यारह सिक्के होते हैं।
-'शुक्रिया जाने आलम, सब कुछ आपका ही दिया हुआ है।'
इन्कार तो किया नहीं जा सकता था, पाण्डे जी ने थैली ले ली और कोरनीस की।
महत्वपूर्ण बात यह कि पाण्डे जी ने जाफरी बेगम की आबरू बचा ली।
इसके बाद इतना अवश्य हुआ कि आम के बाग की वह डालें जो जनाने महल की खिड़कियों की ओर थीं, पाण्डे जी के हुक्म से कटवा दी गयी।
यह सुनाने के बाद राजेश बोले-'तो हुजूर चचा जान, आज बस यहीं तक। आप आराम करें, कल फिर...।'
नवाब बोले-'राजेश बेटे, अभी हमें इतना बूढ़ा तो मत बनाओ कि बैठ ही नहीं सकें। किस्सा अच्छा था, लेकिन बहुत छोटा था। एक किस्सा और सुनाओ।'
-'जी ऐसा भी कहा जाता है कि दिन में किस्से कहानी सुनाने से मामा रास्ता भूल जाते हैं, मेरे कहने का मतलब है कि बहन और भानजों के घर का रास्ता!'
हंसे नवाब-'जहां तक हमें याद है तुम्हारे मामा तो बहुत पहले ही इस दुनिया से जा चुके हैं। रही उन मामाओं की बात जो तुम्हारी चची के भाई हैं, हवेली से हवेली सटी हुई है...अगर शैतान भी चाहें तो वह रास्ता नहीं भूल सकते। काश वह रास्ता भूल ही जायें!'
चची बेगम चहकीं-'क्यों रास्ता भूल जायें...आपका वह कुछ ले तो नहीं जाते?'
-'बेगम, क्यों सभी के सामने हमारा मुंह खुलवाती हो? बच्चों के मामा जब भी हवेली में आते हैं, निगाह मुर्गीखाने पर रहती है। जो भी बढ़िया मुर्गा देखते हैं, बगल में दबा कर चल देते हैं।'
राजेश जानते थे अब दोनों के बीच चख-चख शुरू हो जाएगी, इसलिए वह बोले-'चचा हुजूर, अगर किस्सा सुनना है तो आप हमारे मामू को कुछ नहीं कह सकेंगे। सो एक और किस्सा शुरू करता हूं।'
एक दिन एकदम सुबह ही नौकर ने आकर पाण्डे जी को खबर दी-'महाराज, शाही हकीम तशरीफ लाए हैं।'
चौंके पाण्डे जी। शाही हकीम तो महल के सिवा कहीं जाते नहीं। बुजुर्ग आदमी, जहां गुणी हैं वहीं हद दर्जे के शरीफ भी हैं। शायद किसी की बीमारी के बारे में कहता तो आ भी जाते। लेकिन आए किसलिए हैं?
उन्होंने नौकर को आदेश दिया-'कढ़ाई में गाय का दूध जाफरान डाल कर उबाला गया है, फौरन कटोरा भर दूध हकीम साहेब को पेश करो। कोई मामूली आदमी तो हैं नहीं, जरूरी है इसलिए मैं कायदे के कपड़े पहन कर अभी हाजिर होता हूं। उन्हें बैठक में इज्जत के साथ बैठा तो दिया है न?'
-'जी हां।'
-'शाबाश, दूध का कटोरा ले जाओ। मैं अभी पहुंच रहा हूं।'
बहुत जल्दी पाण्डे जी तैयार होकर बैठक में पहुंच गये। आदाब के उत्तर में हकीम जी ने जीते रहो कहा।
और यह भी कहा-'शुक्रिया पाण्डे जी, दूध बहुत जायकेदार है। आओ बैठो।'
पाण्डे जी बैठे नहीं, बोले-'आपके आने से गरीब का झोंपड़ा सचमुच महल की इज्जत पा गया। हुक्म दीजिए।'
-'लखनवी तकल्लुफ बहुत हो गया। अब मेरे पास आकर बैठो।'
-'यह कैसे मुमकिन है हकीम साहब...आप जैसे बुजुर्ग के सामने में कैसे बैठ सकता हूं।'
-'देखिये पाण्डे जी, पुश्त दर पुश्त से मैं भी लखनवी हूं। माना कि नौजवान हो, यह भी मानता हूं कि बुजुर्गों की इज्जत करना लखनवी तहजीब है। लेकिन आप हैं बरहमन...और इस लिहाज से मुझे आपके सामने खड़े होकर बात करनी चाहिए। लेकिन बैठ गया तो बैठ गया। बात तो तभी होंगी जब आप मेरे बराबर बैठेंगे। वर्ना हवेली के बाहर पालकी खड़ी है, लौट जाऊंगा।'
मजबूरी थी, पाण्डे जी बैठ गए।
हकीम जी ने गम्भीर स्वर में कहा-'पाण्डे जी, खानदान में पुश्त दर पुश्त से हिकमत ही होती आई है। तीन पुश्त पहले शाही हकीम का दर्जा मिला। न मिला होता तो अच्छा था। शहर के गरीब अमीरों के बीच मजे में रहता। इस तरह कहूं तो बुरा मत मानिएगा...शाही हकीमी को मैं कैदखाना समझता हूं।'
-'मानता हूं हुजूर, बात गलत नहीं है। देखा है...कई बार देखा है कि इस उम्र में आपको महल में जाने कितना चलना पड़ता है। यह भी जानता हूं कि महल में ही रहने की वजह से आप रात को भी चैन की नींद नहीं सो पाते।'
-'आपकी लम्बी उम्र हो, आपने सच ही कहा है।'
-'जी सच तो और भी कड़वा है, रात में किसी को छींक भी आ गई तो फौरन हुजूर को तलब कर लिया।'
-'यही तो परेशानी है, हकीम का फर्ज मरीज की तीमारदारी है। लेकिन शाही नखरों का क्या करूं?'
-'अब हुजूर अगर कुछ बात है तो मुझे हुक्म दीजिए। वैसे यकीन मानिए कि आपकी परेशानियां देख कर मुझे सचमुच तकलीफ होती है। अगर कोई मेरे लिए हुक्म हो तो मैं हाजिर हूं।'
-'हां, इसीलिए तो आया हूं पाण्डे जी। महल के जो कायदे हैं वह आप भी जानते हैं। जाने आलम की रखेलों को शराब पीने की छूट है, पान और जर्दे की भी मनाही नहीं है और हुक्के में वह अम्बरी तमाखू भी पी सकती हैं।'
-'जी हां, मुझे जानकारी है।'
-'लेकिन मर्दों के लिये तो नहीं, औरतों के लिए अफीम की पाबन्दी है। सख्त पाबन्दी है।'
-'जी हां।'
-'एक नई लड़की आई है, नाम है फिरोजा। रात में वह बुरी तरह तड़प रही थी। मुझे बुलाया गया तो मैं गया। खैर जान गया कि उसे अफीम की आदत है। अफीम दी और उसकी हालत सुधर गई। तब मैंने उसके बारे में जानकारी उसी से हासिल की।'
-'शायद महल में नई ही है।'
-'हां, परसों रात ही तो आई है। सरफराज खां ताल्लुकेदार ने उसे दस हजार चांदी के सिक्कों में खरीदा और जाने आलम को पेश कर दिया।'
-'जाहिर है कि दस हजार के बदले इनाम में जरूर इकबाल सराय वाला गांव जाने आलम से ले लिया होगा। उनकी बहुत दिनों से उस पर नजर थी। खास तरह के आमों की पैदावार वाला गांव है, बहुत मालगुजारी मिलती है।'
-'बिल्कुल, बरहमन तो नजूमी होते हैं।'
-'वैसी कोई बात नहीं हुजूर। लेकिन अब मेरा काम ही ऐसा है कि सभी पर नजर रखनी पड़ती है। खैर आप यह बात जाने दीजिये। फरमाइए मामला क्या है?'
-'जब मैंने उस लड़की को अफीम दे दी, और उसकी तबियत सुधरी तो उसके सिर पर हाथ रखा। कहा...खुदा गवाह है कि तुम मेरी पोती की उम्र की हो, और अपनी पोती ही समझ कर पूछ रहा हूं कि तुम्हारी जिन्दगी...यह छोटी सी जिन्दगी किस तरह शुरू हुई है, और किस तरह बीती है? तो उसने गीली आँखों से मुझे इस बारे में बताया...वह एक डेरेदार तवाइफ की लड़की थी, पैदा होने के बाद ही उस तवाइफ ने अफीम चटाना शुरू कर दिया था। शायद उसकी मजबूरी थी, अपना काम धन्धा सम्भाले या बच्ची को पाले! तो जब लड़की ने होश सम्भाला तो उसे अफीम की लत पड़ चुकी थी...अब उसकी उम्र है उन्नीस साल। यानि उन्नीस साल से अफीम की आदत है।'
-'हुजूर।'
-'जी पाण्डे जी।'
-'आपकी हिकमत में ऐसा भी तो है कि अफीम खाने की आदत छुड़ाई जा सके!'
-'बेशक ऐसा है। लेकिन पाण्डे जी, जिसे उन्नीस साल से अफीम की लत हो...अफीम छुड़वाने के लिए कम से कम कुछ महीने तो चाहिएं ही! लेकिन यहां भी दिक्कत है।'
-'वह क्या?'
-'लड़की महल में आकर खुश नहीं है। उसे जान देना तो मन्जूर है, लेकिन महल में रहना मन्जूर नहीं है। यह इरादा कितना खौफनाक है...यही सोच लीजिये।'
-'सचमुच बात तो खौफनाक ही है। वर्ना अफीम तो आपकी दवाओं में भी काम आती है। बड़ी आसानी से आप उसे हर महीने के हिसाब से अफीम दे सकते हैं, लेकिन अगर वह सभी एक दिन ही घोल कर पी ले तो जान चली जाएगी।'
-'अब मैं क्या करूं...यही सलाह करने आपके पास आया हूं।'
पाण्डे जी कुछ क्षण सोचते रहे।
फिर बोले-'अच्छे या बुरे...महल के जो नियम हैं, उन्हें तोड़ने या बदलने का अधिकार तो सिर्फ जाने आलम को ही है। अगर उन्हें कोई दूसरा तोड़ता है तो वह मुजरिम है।'
-'यह भी एक सवाल है कि मुजरिम कौन है?'
-'सरफराज...यह जानते हुए भी कि महल में कोई स्त्री अफीम की आदी नहीं होनी चाहिये, वह महल के लिये ऐसी लड़की को लाया।'
-'बात तो बिल्कुल ठीक है। लेकिन सवाल यह है कि वह जाने आलम का वफादार समझा जाता है। क्या उसकी शिकायत जाने आलम को पसन्द आएगी?'
-'शायद नहीं, लेकिन जाने आलम यह भी तो नहीं जानते कि उन्हें धोखा दिया गया है।'
-'बेशक नहीं जानते। लेकिन उन्हें जानकारी देना क्या उन्हें नाराज करना नहीं होगा?'
-'शायद, लेकिन यह जानकारी आपको नहीं देनी है। शायद आपसे जाने आलम यह पूछें कि वह लड़की अफीम की आदी है...तो आपको बताना ही होगा।'
-'बेशक सच बात है, लेकिन यह बात उनसे कहने की पहल नहीं कर सकता।'
-'आपकी मजबूरी मैं समझता हूं।'
-'तब क्या उस लड़की को मर जाने देना चाहिए?'
-'मैं समझता हूं कि उसे मरना नहीं पड़ेगा। आप बेफिक्र हो जाइये। सिर्फ दो बाते हैं। एक दवा के रूप में सिर्फ आज आप उसे अफीम पहुंचवा दीजिए। कल अगर आपसे जाने अलाम यह सवाल पूछें तो बता दीजिएगा कि वह जन्म से ही अफीम की आदी है।'
-'आप क्या करेंगे?'
-'यह सवाल अभी आप मत पूछिए। वैसे जो करूंगा आप जान ही जायेंगे। जैसा कि मैंने कहा...आप बेफिक्र हो जाइए।'
शाही हकीम उठे-'तब फिर मुझे इजाजत दीजिये।'
हाथ जोड़ कर पाण्डे जी ने कहा-'आप मेरे लिए आदरणीय हैं, और आयु में पिता के समान हैं। हाथ जोड़ कर कह रहा हूं कि यहां आना आपकी शान के खिलाफ है। आज के बाद... रोज ही महल में तो जाता ही हूं...आपको बिना नागा सलाम बजाने आया करूंगा। मेरे योग्य जो भी सेवा हो आप फरमा दिया कीजिएगा।'
गुरु और शिष्य।
-'नजीर।'
-'जी।'
-'घोड़ा कसो, और दोपहर तक फजलपुर पहुंच जाओ।'
-'यानि सरफराज की ताल्लुकेदारी में?'
-'हां, फजलपुर में ही सरफराज की हवेली है। मानता हूं समय कम है, वहां शाम तक यह पता लगाना है कि सरफराज की हवेली में निकाहशुदा बेगमों के अलावा कितनी रखैल हैं, और उन रखेलों की स्थिति क्या है?'
-'यह काम तो बड़ी आसानी से हो जाएगा, सिर्फ कुछ-चांदी के सिक्के खर्च करने पड़ेंगे।'
-'शाम या रात तक मैं भी वहां पहुंच जाऊंगा। वहां है रोशन सराय...वहीं मेरा इन्तजार करना।'
-'जो हुक्म, मैं वहां पहुंच रहा हूं।'
-'शाबाश...काम सावधानी से करना।'
ऐसा नहीं हुआ कि नजीर चला गया और पाण्डे जी आराम करने लगे। उन्होंने तुरन्त ही सोलह कहारों सहित बड़ी पालकी का प्रबन्ध किया, और उस पालकी सहित वह भी फजलपुर पहुंचने के लिये घोड़े पर सवार हो गये।
बस चाल का ही अन्तर था, नजीर घोड़ा दौड़ाता हुआ फजलपुर पहुंचा। पाण्डे जी पालकी वालों की चाल के साथ-साथ वहां पहुंचे। जब वह पहुंचे तो सांझ हो रही थी।
पालकी पाण्डे जी ने कस्बे के छोर पर छोड़ दी थी और वह अकेले ही रोशन सराय पहुंचे।
कुछ देर इन्तजार करना पड़ा...नजीर भी वहां पहुंच गया।
-'कहो क्या...खबर है?'
-'सरफराज की हवेली में उनकी तीन निकाहशुदा बेगमें हैं, और ग्यारह रखेलें हैं। उनमें से एक है बेगम दिलावर जान। उसकी वजह से वह परेशान भी हैं।'
-'परेशान क्यों हैं?'
-'वह उसे किसी गांव से उठवा लाये हैं। बेहद खूबसूरत भी है, लेकिन बंजारिन है और सामने आने पर सरफराज के मुंह पर थूक देती है। उसे महल में जंगली बिल्ली कहा जाता है।'
-'ठीक।' पाण्डे जी ने जेब से छोटा-सा चांदी का बना हुआ मोर निकाला और नजीर को देते हुए कहा-'यह लो, शाही निशानी है। मैं समझता हूं कि सरफराज तुम्हें पहचानता नहीं है। उसे यह निशानी देना और कहना...जाने आलम ने फौरन बुलाया है। यह भी कहना कि अकेले ही चलना है, कुछ काम ही ऐसा है।'
शाही निशानी लेकर नजीर चला गया, और पाण्डे जी अब वहां पहुंच गए जहां पालकी वाले थे।
रात का एक पहर बीता। तब चांदनी रात में पाण्डे जी ने देखा कि दो घुड़सवार आ रहे हैं। एक नजीर था, और दूसरा सरफराज।
रस्सी का फन्दा उन्होंने तैयार कर रखा था। जैसे ही घोड़े पर सवार सरफराज निकट आया, उन्होंने फन्दा फेंक कर जो रस्सी खींची तो वह घोड़े से गिरा और उन्होंने फुर्ती से उसे उसी रस्सी में बांध दिया। कहावत थी कि पाण्डे जी जिसे बांध दें, वह चाहने पर भी खुल नहीं सकता।
उसे अच्छी तरह बांधने के बाद उन्होंने पूछा-'नजीर, निशानी किसके पास है?'
-'जी मेरे पास।'
उन्होंने बन्धे हुए सरफराज के हाथ से चमकती हुई हीरे की अंगूठी निकाली और नजीर को देते हुए कहा-'यह अंगूठी निशानी के तौर पर ले जाओ। पालकी वाले साथ जायें। अंगूठी हवेली के दारोगा को दिखा कर कहना कि मालिक ने दिलावर बेगम को बुलवाया है। बात फैले नहीं...मामला ही ऐसा है।'
नजीर पालकी वालों के साथ फिर चला गया।
रस्सी से जकड़ा हुआ सरफराज बोला-'पाण्डे, मैंने तुझे पहचान लिया है। और अब तू फांसी से बच नहीं सकेगा।'
-'जनाब सरफराज साहब, आपके लिए चुप रहना ही मुनासिब होगा। वर्ना पांव से आपकी ही जूती निकाल कर आपकी ही खोपड़ी पर मारना शुरू करूंगा। दस मारूंगा और एक गिनूंगा। फिर यह न कहना कि पाण्डे ने खोपड़ी पिलपिली कर दी। यानि मियां की जूती मियां के सिर! खामोश और एकदम खामोश।'
अबकी बार नजीर को लौटने में कुछ देर हुई। परन्तु पालकी साथ थी, और उसमें...!
पाण्डे बोले-'बहन, तुम्हारा जो भी नाम हो...यह समझ लो कि मैं और नजीर...जो तुम्हें लाया है, तुम्हारे भाई हैं। और तुम्हारी इज्जत ही हमारी इज्जत है। पहुंचना है रातों-रात लखनऊ। पालकी से बाहर आकर यह बताओ कि लखनऊ तक सफर पालकी ही में करोगी या घोड़े पर?'
इकहरे बदन की दिलावर पालकी से बाहर आई। वह चूड़ीदार पाजामा और कुर्ता पहने हुए थी, अदब प्रगट करने के लिये उसने ओढ़नी से सिर ढक रखा था।
बोली-'भाई जान, जात की बनजारिन हूं। खूब अच्छी घुड़सवारी जानती हूं। बस एक वायदा चाहती हूं कि मुझे इस खूसट से छुटकारा दिला दिया जाये।'
-'जब तुम्हें बहन कहा है तब मैं और नजीर भाई का फर्ज भी निभायेंगे। ठीक है, उस घोड़े पर सवार हो जाओ। पालकी वाले खलीफा, इस हरामजादे को पालकी में डालो और चलो।'
और चांदनी रात में सफर शुरू हो गया।
सुबह होने में कुछ देर थी जब वह सभी लखनक पहुंचे।
पाण्डे जी ने आदेश दिया-'नजीर।'
-'जी गुरु जी।'
-'इस हरामजादे को पालकी में से बाहर उठा कर रखो। इस बहन को अपने घर पालकी में ले जाओ। बड़ी बहन से कह देना कि छोटी बहन को कोई तकलीफ न हो।'
सरफराज को पालकी से उठा कर एक ओर रख दिया गया। दिलावर पालकी में बैठी और नजीर पालकी वालों के साथ चला गया।
अब पाण्डे ने सरफराज के बन्धन खोले।
-'देख, यह तेरा घोड़ा खड़ा है...अब जहां चाहे जा सकता है। वैसे एक बात पेशगी ही कहे देता हूं, अगर जाने आलम के पास जाएगा तो मुसीबत में पड़ जायेगा।'
-'जाऊंगा, हजार बार वहीं जाऊंगा। और पाण्डे, यह दिन तेरी जिन्दगी का आखिरी दिन है।'
-'मेरी फिक्र मत कर, अपने लिए जन्नत और जहन्नुम की बात सोच ले। जा मेरी आंखों के सामने से फौरन दूर हो जा। सुबह-सुबह मैं किसी की हड्डी पसली नहीं तोड़ा करता।'
सारी रात पालकी में बंधा पड़ा रहा था। हाथ पांव बुरी तरह अकड़ गये थे, किसी तरह घोड़े पर चढ़ा और महलों की तरफ चला गया।
पाण्डे जी भी घोड़े पर सवार हुये। परन्तु वह गोमती की ओर गये।
मन्दिर में पहुंच कर पुजारी से रामा कृष्णा हुई और अच्छी खासी सर्दी में वह कपड़े उतार कर गोमती में कूद गये।
स्नान के बाद।
कपड़े पहन कर वह घोड़े की ओर बढ़ रहे थे कि पुजारी कटोरे में दूध लिए आये-'महावीर हनुमान का प्रसाद है पाण्डे जी।'
जाने आलम उठे, तो उन्हें सूचना दी गई-'ताल्लुकेदार सरफराज दरे दौलत पर हाजिर हैं। हालत खराब है...ठीक से खड़े भी नहीं हो पा रहे हैं, और रो रहे हैं।'
-'अजीब बात है, मर्द होकर रो रहे हैं! बुलाओ।'
टेढ़ी मेढ़ी चाल चलते हुए सरफराज आया। झुक कर ठीक से अभिवादन भी नहीं कर सका। गिर ही पड़ता अगर पहरेवाली बांदी सही समय पर सम्भाल न लेती।
-'क्या बात है सरफराज...बीमार हो क्या?'
-'हुजूर पाण्डे...!'
-'यानि चतुरी पाण्डे। क्या उनकी मदद की जरूरत है?'
-'मेरी यह हालत पाण्डे ने ही बनाई है, मुझे रस्सी से बांध कर लखनऊ तक लाया गया है।'
-'क्यों...पाण्डे से तुम्हारी क्या दुश्मनी है?'
-'नहीं जानता हुजूर।'
-'अजीब बात है...पाण्डे जी को फौरन हाजिर किया जाए।'
सरफराज से खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। जाने आलम ने उसे बैठने की इजाजत दे दी। वह सही तरीके से बैठ भी नहीं सका, बैठ रहा था कि फर्श पर लुढ़क गया।
उधर पाण्डे जी को तो अपने बुलावे की प्रतीक्षा थी ही, अधिक देर नहीं लगी। उन्होंने कक्ष में आकर जाने आलम का अभिवादन किया।
-'यह हम क्या सुन रहे हैं पाण्डे जी! सरफराज की ऐसी हालत आपने बनाई है?'
-'जी जाने आलम।'
-'यह जानते हुये भी कि सरफराज हमारे वफादार ताल्लुकेदार हैं?'
-'मजबूरी थी जाने आलम। आपके साथ ही इन्होंने धोखा किया था...इसीलिये।'
-'हमारे साथ धोखा?'
-'जी जाने आलम।'
-'साफ बात बताइए।'
-'हुजूर, जो कायदे आपने बनाये हैं या आपके बुजुर्गों ने बनाये हैं...उन्हें सिर्फ आप ही बदल सकते हैं, दूसरा कोई नहीं।'
-'आपकी बात ठीक है...।'
-'हुजूर के लिए सरफराज ने एक तोहफा दिया था, उन्नीस साल की लड़की...नाम है फिरोजा।'
-'हमें याद है।'
-'महल में औरतों को अफीम खाने की इजाजत नहीं है। उस लड़की की उम्र उन्नीस साल है, और उन्नीस साल से ही वह अफीम की आदी है।'
तनिक चौंके नवाब-'आपको यह जानकारी कैसे मिली?'
-'यह तो हुजूर जानते ही हैं कि मैं जनाने महल में तभी जाता हूं जब आप इजाजत देते हैं। मुझे यह जानकारी शाही हकीम जी से मिली। मैंने यह जरूरी समझा कि आपको यह जानकारी देने से पहले मुजरिम को आपके सामने पेश कर दूं।'
-'क्या सचमुच ऐसा है?'
-'जी बेहतर जवाब शाही हकीम ही दे सकते हैं।'
नवाब साहब ने शाही हकीम को तलब किया।
यह महल का, नवाबों का पुराना कायदा था कि शाही हकीम को नवाब हमेशा ही अपने पास बैठाते थे।
हकीम जी आये। जाने आलम ने उठ कर उनका स्वागत किया और अपने पास पलंग पर बैठाया।
-'हकीम साहब।'
-'जी जाने आलम।'
-'क्या पाण्डे जी सच कह रहे हैं?'
-'जी हां।'
-'माफी चाहते हुए एक बात पूछना चाहता हूं। अगर ऐसी बात थी तो आप हमसे कह सकते थे, आपने पाण्डे जी से ही यह कहना क्यों मुनासिब समझा?'
-'इसलिए कि जिसने आपके साथ गद्दारी की है, वह आपके सामने मौजूद हो। ऐसा तभी मुमकिन था जब मैं यह शिकायत कोतवाल या पाण्डे जी से करता। मैंने पाण्डे जी से शिकायत करना मुनासिब समझा।'
-'ठीक ही किया। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि सरफराज को यह बात मालूम ही न हो?'
-'इसका जवाब तो फिरोजा बेगम ही दे सकती हैं।'
-'ठीक फरमाते हैं।'
उन्होंने आदेश दिया...फिरोजा नाम की नई बेगम को हाजिर किया जाये।
कुछ देर कक्ष में मौन छाया रहा। और फिर फिरोजा उपस्थित हुई।
नवाब ने पूछा-'तो तुम्हारा नाम फिरोजा है! अच्छा अब अपने बारे में बताओ।'
-'वतन कहां है यह तो मैं नहीं जानती। इतना जानती हूं कि मेरी मां डेरेदार तवाइफ थी।'
-'अफीम के बारे में कुछ बताओ।'
-'डेरेदार तवाइफ के लिए यह बड़ा मुश्किल होता है कि वह औलाद को पाले या अपना धन्धा करे। मां ने ही बताया था कि वह मुझे परेशानी से बचने के लिये अफीम चटाने लगी थी। जब होश सम्भाला तो मैं अफीम की आदी हो चुकी थी। दो महीने पहले मां का इन्तकाल हो गया, और मां का एक नौकर मेरा सरपरस्त बन गया। उसी ने मुझे ताल्लुकेदार सरफराज खां के हाथ दस हजार चांदी के सिक्कों में बेच दिया।'
-'तुम सरफराज की हवेली में भी रहीं?'
-'जी, तकरीबन पांच दिन।'
-'सरफराज तुम्हें अफीम देते थे?'
-'जी हां।'
-'जिस दिन इन्होंने तुम्हें हमारे सामने पेश किया...?'
-'जी उस दिन भी अफीम ले चुकी थी। कुछ अफीम पास भी थी। दिक्कत तब शुरू हुई जब अफीम खत्म हो गई। बुरी तरह तड़प रही थी, तब रात के तीसरे पहर में हकीम साहब को बुलवाया गया।'
-'अगर महल से तुम्हें छट्टी दे दें तो कहां जाओगी?'
-'जी बनारस...वहां मेरी मौसी रहती है।'
-'ठीक है।' नवाब साहब ने सफेद रंग की थैली उठा कर फिरोजा की ओर बढ़ा दी-'जो जेवर तुम्हारे बदन पर हैं वह तुम्हारे हुए। यह सौ चांदी के सिक्के सफर खर्च के लिए हैं। पाण्डे जी, यह जिम्मेदारी आपकी है कि इसे हिफाजत के साथ बनारस पहुंचवा दो।'
फिरोजा ने झुक कर आदाब बजाते हुए कहा-'शुक्रिया।'
पाण्डे जी बोले-'अभी एक मामला और भी है जाने आलम। यह जानकारी मुझे अच्छी तरह है कि अवध के बनजारे हुजूर के वफादार हैं। बैलगाड़ी ही उनका घर होता है और माल लादते तथा बेचते अवध में घूमते हैं। सरफराज खां के गुण्डे एक बनजारिन लड़की को उठा लाये हैं। उसके साथ इन्साफ किया जाए।'
चौंके नवाब-'सरफराज को खड़ा किया जाये।'
दो बांदिओं ने सहारा देकर उसे खड़ा किया।
-'क्या यह शिकायत सही है?'
-'माफी चाहता हूं जाने आलम।'
-'यानि शिकायत सही है। हुक्म लिखा जाये कि इकबाल सराए वाला गांव इनाम में पाण्डे जी को दे दिया गया। सरफराज, तुम्हें पन्द्रह दिन कैद में रहना होगा। पहली शिकायत है इसलिए ताल्लुका जब्त नहीं कर रहे हैं। पाण्डे जी आपका शुक्रिया, आपने हमें बदनामी से बचा लिया। इसे हिफाजत के साथ बनारस पहुंचाना होगा और उस बन्जारिन को उसकी टोली में। लीजिये, यह ग्यारह अशर्फी उस बंजारिन को देना और बन्जारों के मुखिया से कहना कि सरफराज की हिमाकत से हमें तकलीफ हुई है।'
यह सुना कर राजेश बोले-'यह छोटी-सी कहानी इस बात की गवाह है कि नवाब वाजिद अली शाह इन्साफ पसद भी थे।'
कथानक वाजिद अली शाह के बारे में किवदन्तीओं पर आधारित है-लेखक।
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