बुढा मदमहेश्वर की तरफ
अब समस्या यह थी कि हम तीनों की नींद हो चुकी थी पूरी, और अभी पूरी रात बाकी थी। अब रात भर क्या करें कुछ समझ में नही आ रहा था, महेश की बंद नाक अजीब अजीब आवाजें कर रही थी, वसंत की बकबक शुरू थी और काफी देर से लेटे लेटे पीठ भी दर्द करने लगी। ठंड काफी ज्यादा थी, मुंह ढंक कर सोने पर दम घुटने लगता और मुंह खोलने पर ठंड से नाक मुंह होंठ सुन्न पड़ जाते। किसी तरह इसी बेचैनी में पूरी रात काटी, उलटता पुलटता रहा आखिरकार किसी तरह वापस नींद आई, सुबह साढ़े पांच बजे ही अलार्म बज गया। मैने आलस झटक दिया और सीधे उठ कर बैठ गया। वसंत और महेश की नींद भी खुल चुकी थी।
"मेरा बुढा मदमहेश्वर के लिए निकलने का समय हो गया है। मै निकलता हूँ।" मैंने कहा और अपनी जैकेट वगैरह पहन कर, कान हाथ सब ढंक कर कमरे का दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खोलते ही भीषण ठंडी लहर कमरे में प्रवेश कर गयी।
"थोड़ा उजाला होने का इन्तजार करते है।" महेश ने कहा, वह ठंड से घबरा रहा था।
"उजाला किसी भी समय हो जायेगा, मै उजाला होने से पहले चोटी पर पहुंचना चाहता हूँ। तुम आराम करो, थके हुए हो अभी निचे भी उतरना है, इतनी चढाई चढकर हालत खराब हो जाएगी।" मैंने महेश को समझाने की कोशिश की लेकिन वह नही माना और अपना कैमरा लेकर साथ निकल पड़ा।
बाहर पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ था, चारों तरफ अन्धेरा था। आसमान में हल्के बादल जरुर दिखाई दे रहे थे, बादलों को देखकर मेरा मन खराब हो गया, आज फिर इन बादलों की वजह से शायद चौखम्बा के दर्शन में मुश्किलें आएँगी। मै मन ही सोच रहा था, ठंडी हवा सुई जैसी चुभती महसूस हो रही थी। यहाँ से मदमहेश्वर मंदिर दिखाई दे रहा था, मैंने उसे प्रणाम किया और निकल पड़ा।
बुढा मदमहेश्वर तक जाने के लिए मंदिर की दाहिनी तरफ से कोई पगडंडी जाती थी, मुझे वह रास्ता ज्ञात नही था लेकिन कुछ लोगों को पहाड़ी के बिच में चढाई करते देखा तो अंदाजे से चल पडा, पहाड़ के उपर पत्थरों से बना हुआ एक लम्बा निर्माण दिख रहा था, मुझे लगा शायद वही पगडण्डी होगी जो फिलहाल निर्माणधीन अवस्था में है। हम ऊँचे निचे रास्तों से होते हुए मंदिर से आगे निकल गए।
यहाँ से अन्धेरा शूरु होता था तो मैंने मोबाइल की टॉर्च जला ली, मोबाइल की बैटरी भी खत्म होती दिखाई दे रही थी। यहाँ से पूरा रास्ता कच्चा और उंचा निचा था। जगह जगह पहाड़ से बहते झरनों की वजह से पानी का शोर सुनाई दे रहा था, किसी तरह हम उस पत्थर के अधूरे रास्ते तक पहुंचे और उसके उपर चढ़ गए। वह रास्ता फिलहाल पैदल चलने की स्थिति में बिलकुल नही था और काफी लम्बा भी प्रतीत हो रहा था, वह रास्ता पहाड़ के दूसरे छोर तक जाता हुआ दिखाई दे रहा था और आगे जाकर खत्म भी हो रहा था।
और जो पांच दस लोग लोग चढाई करते दिखाई दे रहे थे वह सीधे पहाड़ ही चढ़ रहे थे, वहां किसी पगडंडी का निशान नही दिखाई दे रहा था जिसका अनुसरण करते हुए हम उपर पहुँच जाए। तो मैंने भी उस सीधी चढाई पर चढने के लिए खुद को तैयार कर लिया और निकल पड़ा, मुझे सीधी चढाई करते देखकर महेश घबरा गया, वह काफी पीछे रह गया लेकिन मै नही रुका और उपर बढ़ते गया। थोड़ी ही देर में मेरी सांस फूलने लगी, काफी ज्यादा थकान हो रही थी। हम उस पहाड़ की चोटी पर थे जहां पहुँचने के लिए हम दो दिन से चढाई कर रहे थे, सर्वाधिक उंचाई पर पहुँचने के बाद एक एक कदम एवरेस्ट चढने के समान भारी लग रहा था, बर्फीली हवाओ के बावजूद शरीर पसीने से तर बतर होते जा रहा था।
अचानक से मैंने महेश की आवाज सुनी, वह इशारे से कुछ पूछ रहा था, मुझे लगा शायद वह चढाई नहीं चढ़ पा रहा है। तो मैंने चीख कर कह दिया कि वापस अपनें कमरे पर चले जाओ, जबरदस्ती मत करों। लेकिन उसने उसके बावजूद चढाई जारी रखी, बिना किसी रास्ते के पहाड़ी ढलान पर चढाई करना वाकई हद से ज्यादा मुश्किल काम था, वह भी तब जब आप शारीरिक और मानसिक रूप से बुरी तरह थके हुए हो, यहाँ सांस लेने में दिक्कत आ रही थी, ऑक्सीजन की कमी अपना असर दिखा रही थी। पहाड़ का आधा अंतर पूरा करने के बाद मै एक जगह सांस लेने के लिए रुका और पलटकर पीछे देखा।
यहाँ से मदमहेश्वर मंदिर और उसके आसपास के परिसर का नजारा अकल्पनीय रूप से अत्यधिक मनमोहक और सुंदर नजर आ रहा था। दूर कहीं पहाडो से बादलों को चीरकर सूर्य की किरणें बाहर निकलने को बेचैन सी दिखाई दे रही थी। मैंने अपनी दाहीनी तरफ देखा, विशालकाय पहाड़ों के पीछे बादलों के बिच झांकता हुआ एक जाना पहचाना चेहरा दिखाई दिया, यह चौखम्बा की झलक थी, उसका थोडा ही हिस्सा बादलों के बिच दिखाई दे रहा था, उसकी बर्फीली सतह चांदी की भाँती दमक रही थी। उसे देखकर मेरी जान में जान आई कि चलो अंतत: चौखम्बा के इतने समीप पहुँच ही गया। मै थक कर बैठ गया और महेश का इंतजार करने लगा, महेश किसी तरह गिरते पड़ते पहुँच गया फिर हमने वापस चढाई शुरू कर दी।
यह बामुश्किल से एक डेढ़ किलोमीटर का ही रास्ता था लेकिन सीधी और खड़ी चढाई इसे काफी मुश्किल बना रही थी। इस चढाई ने हमारा कड़ा इम्तेहान लिया था, जब पहाड़ की कोई चोटी दिखाई देती तो लगता कि वह आखिरी चोटी है, हम पहाड़ पर पहुँच गए, लेकिन उस चोटी पर पहुँचने के बाद एक और चोटी दिखाई देती। इस तरह हमने दो तीन चोटियों को पार किया और अंतिम चोटी पर पहुँच गए। यहाँ से सब समतल दिखाई दे रहा था, अब कोई चोटी कोई चढाई शेष नही थी। यहाँ से लगभग सारे पहाड़ दिखाई दे रहे थे, मदमहेश्वर घाटी का जो भव्य स्वरूप यहाँ से दिखाई दे रहा था वह अकल्पनीय और अलौकिक था। उस दृश्य को देखकर हम अपनी सारी थकान, समस्त पीड़ा को जैसे भूल गए। मैंने चौखम्बा की तरफ देखा लेकिन आज उसका बादलों से बाहर निकलने का मन ही नही था। चौखम्बा के अलावा हर ग्लेशियर दिखाई दे रहा था। उपर एक छोटा सा मंदिर है, मंदिर के सामने छोटा सा तालाब है। जब सूर्योदय होता है तब विराट चौखम्बा का प्रतिबिम्ब इस तालाब में दिखाई देता है, वह दृश्य सुन्दरता और भव्यता की हर सीमा को पार कर जाता है। मैंने अनेक तस्वीरों और वीडियोज में इस तालाब में पड़ते चौखम्बा के प्रतिबिम्ब को देखा था, मुझे भी आज कुछ वैसे ही दृश्य की उम्मीद थी लेकिन बादलों ने आज परीक्षा लेने की ठान रखी थी।
मैंने मंदिर में प्रणाम किया और उस पूरी चोटी के चक्कर लगाने लगा, ऐसा लग रहा था जैसे मै दुनिया की सर्वाधिक ऊंचाई पर पहुँच चुका हूँ, निचे दूर दूर तक दिखाई देते अनेकों ग्लेशियर्स, हरे भरे पहाड़ और हम सबसे उपर, यहाँ तक कि बादल भी हमसे निचे ही थे। मै जी भर कर उस दृश्य को निहार रहा था, अचानक मेरी दृष्टि मदमहेश्वर मंदिर की तरफ पड़ी, दूर किसी ग्लेशियर के उपर से बादलों को चीरते हुए सूर्य की किरणें सीधे मदमहेश्वर मंदिर के मुकुट पर पड़ रही थी। यह अद्भुत था, ऐसा लग रहा था जैसे सूर्य मंदिर को स्पॉट लाईट प्रदान कर रहा था, बादलों से घिरी उस पूरी घाटी में केवल मंदिर ही था जिसपर सबसे पहले सूर्य की किरणें पड़ी थी। मै काफी देर तक उस दृश्य को निहारता रहा, वहीं से चंद्रशिला की चोटी दिखाई दे रही थी, उस पर अब कल के मुकाबले अधिक सफेदी दिखाई दे रही थी जिसका मतलब था कि कल रात भी वहाँ जमकर बर्फबारी हुयी है। मै फिर पलटकर तालाब के पास आ गया,
कुछ लडके तालाब के किनारे अपने मोबाइल और कैमरा ट्राईपॉड्स पर लगा कर चौखम्बा के बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने भी कुछ देर तक मोबाइल स्टैंडबाई में रख दिया। वहा एक लडका काफी देर से ट्राईपॉड पर मोबाइल रखकर बैठा हुआ था, मै जब से आया था तब से उसे मोबाइल लगाये हुए देख रहा था, लेकिन आज चौखम्बा दर्शन देने के मूड में नही लग रहा था, वह बादलों के बिच से कभी कभार झाँक लेते थे बस लेकिन पूरी तरह से बाहर नही आ रहे थे। अब वह लडका भी उकता गया था उसने मोबाइल हटा लिया, लेकिन उन दृश्यों के साथ में तस्वीरें खिंचवाने के अपने मोह से वह खुद को बचा नही पाया, उसने मुझसे तस्वीरें खींचने का निवेदन किया तो मैंने उसकी कुछ तस्वीरें खिंच दी, बदले में उसने भी मेरी तस्वीरें खिंच ली।
"आज बादलों के छटने के कोई आसार नही है, हमे निकलना है देर हो जाएगी इसलिए अब और इन्तजार नही कर सकते।" उस लड़के ने खुद ही कहना शूरु कर दिया। खुद मुझे उस चोटी पर आकर पौना घंटा हो चुका था लेकिन चौखम्बा किसी भी परिस्थिति में बादलों की ओट से निकलना ही नही चाहता था तो क्या कर सकते थे।
आखिरकार मैंने भी अपने मन को कड़ा कर लिया, साढ़े सात बज रहे थे, अब निकलने का समय हो रहा था। हमे वापसी की यात्रा करके आज हर हाल में सोन प्रयाग या गुप्तकाशी तक पहुंचना था। तब भारी मन से मैंने चौखम्बा की तरफ देखा।
"इतनी सरलता से आप भी अपने दर्शन नही देंगे। लगता है आपके विराट स्वरूप के दर्शन करने के लिए फिर एक बार आना पडेगा। शायद इसी बहाने आप दुबारा बुलाना चाहते हैं, क्योकि आपको भी पता है मनुष्य ऐसा प्राणी है जो अपने आकर्षण के प्रति खिंचाव महसूस करते हुए यदि उसे पा लें तो उसके भीतर फिर वह जिज्ञासा और वह आकर्षण नही रह जाता। तो आप इस आकर्षण को सदैव बनाये रखना चाहते हैं, इस जिज्ञासा के बहाने मुझे अनेक बार आपके सानिध्य में बुलाना चाहते हैं तो यही सही, मै भी निराश नहीं हूँ, वापस आने के लिए मेरे पास एक कारण होने से मै प्रसन्न हूँ, मै वापस जरुर आऊंगा और आपके भव्य स्वरूप के दर्शन अवश्य करूंगा।" मैंने मन ही मन चौखम्बा से संवाद किया और पूरी श्रद्धा से उन्हें प्रणाम किया।
फिर वापस चल पड़ा, चढाई के मुकाबले वापसी का रास्ता काफी सरल लग रहा था, जहां हमे चढाई करने में सवा घंटे लग गए थे उतरने में आधा घंटा भी नही लगा। उतरते हुए ही कई बार चौखम्बा बादलों के बिच से आधे अधूरे निकलते दिखाई देते, उनकी वह छवि देखकर मै कुछ रुकता, उन्हें निहारता और मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाता।" मंदिर से आरती के स्वर सुनाई दे रहे थे, आरती हो रही थी।
हमे लगा शायद संध्या आरती की भाँती यह आरती भी काफी देर तक चलेगी और हम समय रहते पहुँच जायेंगे किन्तु हमारे पहुंचने तक आरती समाप्त हो चुकी थी और पुजारी जी आरती की थाल लिए बाहर आ चुके थे। हमने बाहर से ही मंदिर और शिवलिंग को प्रणाम किया और पुन: एक बार वापस आने के वचन के साथ विदा लेकर अपने कमरे की तरफ चल दिए, वसंत हमारा इन्तजार ही कर रहा था।
हमने कमरे वाले भाई साहब से नाश्ते के लिए पराठें और चाय कह दिया था, वो बनाने में लग गए। अब हमे नहाये हुए दो दिन बीत चुके थे, कपडे तीन दिन से पुराने हो गए थे। मुझसे रहा नही जा रहा था तो मैंने जाकर एक बाल्टी गर्म पानी खरीद लिया और नहा कर ही दम लिया। चाय नाश्ता निपटाने के बाद रुकने, रात के खाने और नाश्ते का कुल खर्च मिलाकर तेरह सौ के करीब हुआ जिसका मैंने भुगतान कर दिया और उसे अपने हिसाब में जोड़ लिया। प्रताप भी नाश्ता निपटा रहा था और वह भी निकलने की तैयारी में था, तो हमारे साथ ही चल दिया। अब चूँकि हमे पता था कि वापसी में हमे ज्यादा चढाई नही चढनी है तो चेहरे पर एक सुकून था, एक रात आराम करने के बाद शरीर में फुर्ती थी। मै तेज क़दमों से चलने लगा ठंड इतनी थी कि हमे धुप की सख्त आवश्यकता थी। मंदिर परिसर से एक किलोमीटर आगे से धुप पड़नी शूरु हो चुकी थी।
हम तेजी से वहाँ पहुँच गए, वसंत और महेश ने भी तेजी दिखाई, इस बार दोनों हांफ नही रहे थे, यहाँ से मंदिर के अंतिम बार दर्शन किये, उस सम्पूर्ण परिसर और घाटी को जी भर कर निहारा, भावुक होकर प्रणाम किया और पुन: आने के वचन के साथ निकल पड़ा उन रास्तों पर जहां से हम आये थे।
अब मेरा उद्देश स्पष्ट था हमे हर हाल में ग्यारह बजे से पहले खड्डारा पहुंचकर अपना बोरिया बिस्तर समेट कर वहां से निकलना था। मै अब और कहीं रुकने के मूड में बिल्कुल भी नही था, वापसी में हम काफी जल्दी कून चट्टी, मैखम्बा और नानू चट्टी पार कर चुके थे। इसी के साथ महेश और वसंत की फिर हवाइयां उड़ने लगी, उनकी चाल धीमी पड़ने लगी। मौसम खराब हो रहा था, कल से ही घाटी में बादल इकट्ठे हो रहे थे, मुझे बरसात की पूरी आशंका थी इसलिए मै जल्दबाजी में था।
मै बरसात में इस घाटी में नहीं फंसना चाहता था। मैंने उनपर दबाव बनाया तो उन्होंने भी गति बढ़ाने की कोशिश की लेकिन उनसे हो ही नही पा रहा था।
अब मैंने सब कुछ उपरवाले के हाथ में छोड़ दिया। प्रताप अपनी गति से चल रहा था, हम दोनों आपस में बतियाते हुए काफी दूर चले गए थे। हमे बार बार उनके लिए रुकना पड़ता था। धीरे धीरे धूप पड़नी बंद हो गयी, लगभग तीन घंटे बाद हमे खड्डारा दिखाई दिया, तब जाकर जान में जान आई। अब हमे यहाँ खाना खाना था और निकलना था, मै तो बिना खाना खाए भी निकल सकता था लेकिन मुझे इन दोनों की फ़िक्र थी, दोनों पूरी तरह से उर्जाहीन हो चुके थे, उन्हें थोड़ा आराम और खाने की जरूरत थी। खड्डारा वापस पहुँचने पर लड़के ने हमारा स्वागत किया, अयोध्या वाले भाई साहब आँगन में कुर्सी डाल कर बैठे थे, लेकिन तब तक हल्की बूंदा बांदी शूरु हो चुकी थी, जिसका डर था वही हुआ। पूरी घाटी काले घने मेघों से भर गयी थी। रह रह कर बिजली और मेघ की गर्जना से पूरी घाटी कांप उठती थी।
हम अपने कमरे में पहुंचे, पिछली रात कोई यहाँ रुका नही था तो कमरा जस का तस ही था। लड़के ने उसका कोई एक्स्ट्रा चार्ज नही लिया। बरसात अब थोड़ी तेज हो चुकी थी, माहौल बेहद ठंडा हो गया था। मुझे अब चिंता होने लगी थी, कहाँ आज ही गुप्तकाशी तक पहुँचने की योजना थी और कहाँ आज भी यही फंसे रहने के आसार हो चुके थे। मैंने खाने का ऑर्डर दिया और हम अपने कमरे में आकर बैठ गए। मैंने प्रताप को भी बुला लिया, इस बारिश में वह भी कहाँ जाता तो हमारे साथ आ गया, मैंने खाने के लिए पूछा तो उसने मना कर दिया। थोड़ी ही देर में खाना लग चुका था, मैंने अपना मोबाइल चार्जिंग में लगा दिया, वसंत और महेश बाथरूम वगैरह से फारिग हो लिए लेकिन नहाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
"आज बरसात शुरू हो गयी है और दोपहर का एक बजने वाला है, खाना खाकर निकलने में डेढ़ दो बज जायेंगे। मौसम खराब हो गया है और हमारे पास बरसात से बचने का कोई उपाय भी नही है। मेरे खयाल से हमे आज यहीं रुक जाना चाहिए।" वसंत ने कहा। महेश भी वही चाहता था।
"मेरे खयाल से ये सही कह रहे हैं।" इस बार प्रताप ने भी समर्थन किया। मैंने वेदर फोरकास्ट में देखा, दो दिन बरसात दिख रही थी। नेटवर्क देखकर मैंने फौरन घर पर फोन करके अपडेट कर दिया और यात्रा की सफलता के विषय में बता दिया, अगली केदारनाथ यात्रा को लेकर बनाई हुई योजना भी समझा दी और निश्चिन्त होने के लिए कह कर फोन रख दिया। वसंत और महेश ने यह काम मुझसे पहले ही कर दिया था। अब उन दोनों का मूड पूरी तरह से रुकने का था, उन्होंने जूते खोल दिए और रजाइयों में दुबक गए।
खाना रसोई में ही रखा गया था तो हम वापस चूल्हे की गर्मी में जाकर बैठ गए। बरसात और भयंकर ठंड में चूल्हे के सामने बैठने का आनन्द ही अलग था। दाल चावल सब्जी रोटी खाकर शरीर में वापस ताकत आ गयी। बरसात अभी भी जारी थी, उसके निकलने के कोई आसार नजर नही आ रहे थे, खाना निपटा कर हम बाहर निकले और अपने कमरों में पहुँच गए। मैंने कमरे से दूर तक दिखाई देती घाटियों की तरफ देखा, रांसी गाँव की दिशा में बादल कम दिखाई दे रहे थे। लग रहा था जैसे वहां मौसम साफ़ है।
"सुनो, मै जानता हूँ तुम लोगो का रुकने का मन है, तुम्हे आराम करना है और बारिश हो गयी है तो अब एक वजह भी मिल गयी है। लेकिन तुम लोग शायद स्थिति की गम्भीरता को समझ नही रहे हों, फिलहाल बारिश जरुर हो रही है लेकिन उतनी तेज नही है जितनी लग रही है। उपर छप्पर पर बुँदे गिर रही हैं जिसकी वजह से तुम्हे बरसात ज्यादा लग रही है, आगे का रास्ता पूरी तरह से जंगल वाला है, यह बुँदे हमे ज्यादा भिगों नही पाएंगी। आज बारिश से बचने के लिए यहाँ रुक गए तो क्या पता बारिश और बढ़ जाए? पहाड़ों में बरसात शुरू होने का अंदाजा लगा सकते हो लेकिन खत्म होने का नही, यह अभी शुरुवात है, वेदर फोरकास्ट में दो दिन बारिश दिखा रहा है, रात में और कल अगर हालात मुश्किल हो गए तो हम यहीं फंसे रह जायेंगे। इससे अच्छा यही होगा कि जब तक रिमझिम बरसात है तब तक हम चलते रहेंगे कम से कम वनतोली तक तो पहुँच ही जायेंगे, अगर बारिश तेज हो गयी तो वहीं रुक जायेंगे। अगर नही रुके तो हम शाम तक उकीमठ पहुँच जायेंगे, एक बार वहाँ पहुँच गए तो हमारी यात्रा वापस ट्रेक पर आ जाएगी और हम अगले दिन सोनप्रयाग पहुँच कर ग्यारह बजे से पहले केदारनाथ की यात्रा शुरू कर चुके होंगे। यहाँ जितनी देर करेंगे हमारे फंसने की सम्भावना उतनी ही बढती जायेगी।" मैंने कहा। मेरी बात सुनकर दोनों थोड़े घबरा गए, मै उन्हें डराना नहीं चाहता था लेकिन हाल ही में उत्तराखंड में हुयी भारी बरसात की वजह से काफी जाने जा चुकी थी, वह घटना कोई बहुत पुरानी नहीं थी।
"मेरे ख़याल से अब ये सही कह रहें हैं, मै आपसे ज्यादा सहमत हूँ, निकलना बेस्ट रहेगा।" कहकर प्रताप खड़ा हो गया, मैंने भी अपना बैग समेटना शुरू किया। वसंत और महेश भी मन मारकर उठे और बैग समेटने लगे। मैंने होटल वाले लड़के का हिसाब किताब कर दिया। पांच सौ कमरे के और खाने के अलग से मिलाकर कुछ तेरह चौदह सौ हुए थे अब तक।
"बरसात है तो रुक जाइए, कमरे के पैसे नही लूंगा। आप लोग आराम से जाइए कोई दिक्कत नही।" लड़के ने कहा, उसकी सह्रदयता देखकर मन भर आया लेकिन मैंने उसे समझा दिया वह भी समझ गया। फिर उससे विदा लेकर उनकी माता जी को प्रणाम करके हम बरसात में निकल पड़े।
इस पूरी यात्रा में एक ब्लैक हैट मेरे पास थी, वह कभी धूप से बचने के लिए काम आती तो कभी यूँ ही पहने रहता था, अब बरसात से बचने के लिए लगा ली। हम अब धीरे धीरे चल रहे थे क्योकि अब वापसी का रास्ता था, ढलान थी और बरसात की वजह से फिसलन बढ़ गयी थी, एकाध बार प्रताप भी फिसलते फिसलते बचा था।
बरसात की आवाज और इस के साथ विभिन्न पशु पक्षियों के स्वरों से सम्पूर्ण घाटी गूँज रही थी। नदी के बहने का स्वर तेज हो चुका था, पेड़ों से बड़ी बड़ी बुँदे गिरकर हमे भिगों रही थी।
"देखो भाई आप लोगो को मुंह लटकाने के बजाए खुश होना चाहिए कि हम बरसात में भी ट्रेक कर रहे हैं, इसे एडवेंचर समझ कर चलो यार। पहाड़ देखें, नदियाँ देखीं, झरनों का पानी पीया, जंगल की सैर की, पहाड़ चढ़ें, ग्लेशियर्स देखे, बर्फीली हवाओं में चलते रहें, तेज धुप देखि, भयानक ठंड महसूस की, सितारों भरा आकाश देखा और अब बारिश देख रहे हैं। आगे हो सकता है हम बर्फ भी देखें, प्रकृति के सभी रूप तो हमने इस एक यात्रा में ही देख लिए, कम लोगो को यह सौभाग्य मिलता है, इसलिए परिस्थितियों पर मुंह बना कर उदास होने से अच्छा है उन पर मुस्कुराते हुए उनका आनन्द लेते हुए चलो।" मैंने समझाने की कोशिश की।
जंगल के सारे पेड़ बरसात से बुरी तरह भीगे हुए थे, रास्ते में काई जमी हुयी थी उस पर काफी संभल कर चलना पड़ रहा था।
"तुम्हारी जैकेट वाटर प्रूफ है तुम तो मजे लोगे ही।" वसंत ने कहा, उसकी बात सुनकर मै मुस्कुरा दिया। अब जैकेट वाटर प्रूफ तो नही थी लेकिन पानी को काफी समय तक रोक सकती थी, लेकिन इसमें मेरी कोई गलती नही थी।
मैंने उनके रोने गाने की परवाह नही की और प्रताप के साथ आगे चलता रहा, आगे रहने का उद्देश यही था कि खुद को पीछे छूटा देखकर दोनों अपनी चाल में तेजी लाते, उन्हें अभी भी उम्मीद थी कि शायद हम वनतोली में रुकने वाले हैं, लेकिन मेरा ऐसा कोई इरादा था ही नहीं। हम घंटो तक उतरते रहे और आखिरकार वनतोली पहुँच गए, यहाँ तक आते आते बारिश बूंदा बांदी में बदल चुकी थी तो अब रुकने का प्रश्न ही नही उठता था, दूर कहीं खिली हुयी धुप भी दिखाई दे रही थी।
"देखो आगे रास्ता साफ़ है, बरसात बस उंचाई पर हो रही है, लेकिन निचे भी पहुँचने में देर नही लगेगी तो रुकने का खयाल मन से निकाल दो और चलते रहो।" मैंने कहा।
"वनतोली से आगे तो रास्ता ठीक है लेकिन असली तकलीफ होगी गोंडार के बाद, वहा से तीन साढ़े तीन किलोमीटर की सीधी चढाई है।" वसंत के विचार नकारात्मक हो गए।
"हां तो आते समय मजा आया था ना ढलान पर चलते हुए, वापसी में वह ढलान चढनी तो पड़ेगी ही। और यहीं पर साढ़े तीन बज चुके है, हमे अन्धेरा होने से पहले रांसी पहुंचना है, दो ढाई घंटो में अन्धेरा हो जाएगा तो इस जंगल में हमे अँधेरे में ही भटकना पड़ेगा। और तुम जानते ही हो यहाँ सांप, मकड़ियां, छिपकलियाँ, भालू और तेंदुए तक हैं, अगर तुम्हे रात में जंगल में घुमने मजा आता है तो शौक से धीमे चलो, मुझे तो कोई फर्क नही पड़ता। मै ऐसे माहौल में पहले भी कई बार रह चुका हूँ।" मैंने कहा और प्रताप के साथ निकल पड़ा।
"अगर थकान लगे तो रुकना नही, गति कम कर देना लेकिन चलते रहना बस।" मैंने उन्हें सलाह दी। वापसी के दौरान पुरे रास्ते कोई आदमी नही दिखाई दिया था। हम दोनों ऊँचे निचे रास्तों पर होते हुए आखिरकार गोंडार पहुँच गए और उनका इन्तजार करने लगे, वो हमसे लगभग एक किलोमीटर दूर दिखाई दे रहे थे।
"आपके दोनों साथियों ने तो आपको काफी हैरान कर दिया है, आपका बनाया हर प्लान ध्वस्त कर दिया है इन्होने। पहली बार है क्या इनका?" प्रताप ने पूछा।
"पहली बार और आखिरी बार भी। जिद करके मेरे साथ आये थे अब कभी भविष्य में मेरे साथ आने की जिद नही करेंगे।" मैंने हंसते हुए कहा।
काफी देर इन्तजार करने के बाद दोनों पहुँच गए, दोनों हांफ रहे थे। वसंत को तो देख कर लग रहा था कि उसे कहीं स्ट्रेचर की जरूरत ना पड़ जाए। यहाँ आगे एक दम्पति दिखाई दिए जो लगातार चले जा रहे थें। महिला को इस तरह लगातार चलते हुए देखकर वसंत फिर हैरान था।
"हैरान होने की जरूरत नही है, वह धीमी गति से चल रहे हैं। रुक कर आराम करने के बजाए स्पीड कम करके धीमे चलने वाले फार्मूले पर वो काम कर रहे हैं। इसलिए उनके चेहरे पर उतनी थकान नही है। देखो अब आखिरी तीन किलोमीटर ही बचे हैं, जानता हूँ यह मुश्किल है लेकिन हमे यह करना ही है, अन्धेरा कभी भी हो सकता है। तुम कर सकते हो भाई, इतना चल लिए अब आखिरी तीन किलोमीटर के लिए क्या रोना? वह भी कर लोगे, महादेव का नाम लो और चल पड़ो।" मैंने वसंत से कहा, पता नही उसमे उत्साह जगा या नही लेकिन उसने सिर हिला दिया, इस बार हमने उन्हें आगे जाने देने का फैसला किया और खुद उनके पीछे चल पड़े।
प्रताप और मेरी काफी जमने लगी थी, हमारी बातें खत्म होने का नाम नही ले रही थी। हम एकदूसरे से अपनी यात्राओं के अनुभव बाँट रहे थे, इस दौरान एक कठिन और लम्बे मोड़ पर हम दोनों ने मुख्य रास्ता छोड़ कर खड़ी चढाई पकड ली, हमे लगा हम यह कर सकते है, जब तक वसंत और महेश रास्ते के तीन चक्कर लगाते तब तक हम उसे पार करके उनसे आगे पहुँच चुके थे। उसके बाद हमने यही किया, जब भी लम्बा मोड़ देखते हम सीधी चढाई करके उसके उपर पहुँच जाते, हालांकि मै ऐसा करने की सलाह नही देता। क्योंकि ऐसे शार्ट कट्स कई बार बुरी तरह थका देते हैं और हमारी बची खुची ऊर्जा भी निचोड़ लेते है और दूसरी बात मुख्य रास्ते के अलावा हर रास्ता जोखिमभरा होता है,
सांप और अन्य कीड़े मकौड़ो के साथ साथ गिरने पड़ने से चोट लगने का भी डर रहता है, हम काफी सम्भल कर ही चल रहे थें, जल्दबाजी नही कर रहे थें। इसी तरह से कुछ घंटे बीत गए। हम अब उन दोनों से काफी आगे पहुँच चुके थे, वसंत बुरी तरह थक चुका था, उससे चला भी नही जा रहा था।
"अरे देखो हम पहुँच गए। हो गया खत्म रास्ता, आ गए हम।" मैंने चीखकर कहा। महेश वसंत के साथ ही था। मै और प्रताप आगे बढ़ते रहें, अब अन्धेरा होने लगा था लेकिन अब मुश्किल से आधा किलोमीटर ही रास्ता बचा था। वह अंतिम घर दिखाई दे रहा था जहां से हमने अपनी यात्रा आरम्भ की थी। उसे देखकर शायद महेश के भीतर ऊर्जा का संचार हुआ लेकिन वसंत जस का तस था। उसकी हिम्मत, उसकी ताकत, उत्साह सब इन रास्तों ने खत्म कर दिया था। आखिरकार मै और प्रताप अगतोली धार के बोर्ड के पास खड़े थे। यहाँ से मुश्किल से बीस मीटर की चढाई थी, वही आखिरी सीढियां थी जिससे उतर कर हमने जंगल में पहला कदम रखा था। अब उसी पर चलकर इस रास्ते को पीछे छोड़ रहे थे।
हमने वही बैठकर दोनों का इन्तजार करने का फैसला किया और बातें करने लगे। दोनों को हम तक पहुँचने में आधा घंटा लग गया। मैंने वसंत की पीठ थपथपाई।
"कर दिखाया। बस आखिरी सीढियां है वह चढ़ लें फिर सफर खत्म।" मैंने कहा, वसंत का मुंह उन सीढियों को देखकर देखने लायक था।
"ये रास्तें खत्म ही नही होते यार।" वह बडबडाया। आख़िरकार हमने उन सीढियों को पार किया और मुख्य रास्ते पर पहुँच गए। हमने एक बार दूर तक दिखाई देते पहाड़ों की तरफ देखा, इस बार चौखम्बा बादलों के बिच से बाहर निकल कर पूर्ण रूप से स्वर्णिम आभा से दमक रहा था। शायद वहां भी बरसात रुक चुकी थी, अस्त होते सूर्य की सिंदूरी आभा में चौखम्बा दमक रहा था। चौखम्बा के जितने पास पहुंचा वह उतने ही दूर दिखाई दिया और जितना दूर पहुंचा वह उतना ही और पास आ चुका प्रतीत हो रहा था। मैंने उसे जी भर कर निहारा, जब तक की सूर्यास्त ना हो गया।
यहाँ दो छोटे होटल थे, जिनके सामने एक जिप्सी खड़ी थी। हमने होटल में पहुंचकर वहाँ चाय वगैरह पि। वसंत की फिर वही एसिडिटी वाली समस्या के कारण उसने चाय के लिए मना कर दिया। यहाँ पर प्रताप ने अपना सूटकेस भी रखा था जो उसने छुडवा लिया। बन्दा सूटकेस लेकर यात्रा पर निकला था।
हमने जिप्सी वाले से उकीमठ तक के किराए के बारे पूछा तो वह शेयरिंग पर जाने के लिए तैयार नही हुआ। उसने पूरी जिप्सी का किराया सोलह सौ बता दिया। यह काफी ज्यादा था, हमने भाव ताव करके हजार तक करने की कोशिश की लेकिन फिर बारह सौ पर फाइनल हुआ। तीन सौ रूपये प्रति व्यक्ति अब महंगा नही था वह भी तब जब हमे आराम की जरूरत थी। हमने फिर ज्यादा मोलभाव भी नही किया, और कोई रास्ता भी नही था तो जिप्सी में लद गए। महेश और वसंत जैसे बेहोशी में थे। दोनों गहरी गहरी साँसे ले रहे थे, गाडी चल पड़ी, गढ़वाली गाने बजने लगे।
अब रात हो चुकी थी तो आज गुप्तकाशी पहुंचना संभव नही था, तो रात उकीमठ में ही बिताने की योजना बनी। कुछ घंटो बाद हम उकीमठ पहुँच चुके थे। यहाँ पर भी ठंड थी लेकिन आबादी और मुख्य मार्केट होने की वजह से ठंड कम थी। हमने जिप्सी वाले के पैसे दिए और वही एक अच्छा सा होटल देखकर ठहर गए, प्रताप हमारे साथ ही रुका था, नौ सौ रूपये में शानदार कमरा मिल गया। गर्म पानी, अटेच्ड टॉयलेट देखकर वसंत और महेश खुश हो गए। हमने उसी होटल वाले से कहकर खाने का जुगाड़ भी कर लिया। इस बार काफी हेवी खाना मंगाया, पनीर वाले आइटम्स पर ज्यादा ध्यान दिया गया।
हम सभी बारी बारी जाकर नहा लिए, मैंने वसंत और महेश को कह दिया था कि गर्म पानी से पैरों को अच्छी तरह से रगड़ रगड़ कर धोएं, इससे मालिश हो जाएगी और अकड़ी हुयी मांसपेशियां खुल जाएँगी। मैंने भी मौक़ा देखकर अपने कपडे भी दो दिए। गर्म पानी से नहाने के बाद जो सुकून मिला वह कह नही सकता।
फिर खाना वगैरह खाकर मै बाहर निकल पड़ा, मुझे मार्केट घूमना था और कल के लिए गाडी की इन्क्वायरी भी करनी थी। प्रताप को जाना था बद्रीनाथ तो वह भी इन्क्वायरी के लिए मेरे साथ आ गया। उसे बद्रीनाथ की बस मिल गयी जो सुबह आठ बजे निकलने वाली थी, उसने एडवांस में टिकट ले ली, बाकी सोनप्रयाग तक के लिए सुबह शेयर जिप्सी आसानी से मिल जाएगी यह पता चल गया तो हम वापस कमरे में लौट आये। घर वालों को फोन करके सारी अपडेट्स दे दी।
अब समय था आराम करने का, हमने लाइट्स बंद करके फैन चालु कर दिया। ठंड भले ही थी लेकिन फैन चालु किये बगैर नींद नही आ रही थी।
"हेलिकॉप्टर का कितना कॉस्ट आ जायेगा केदारनाथ में?" महेश ने पूछा, मै समझ गया आगे और परेशानी होने वाली है, अभी केदारनाथ बाकी ही है।
"पांच हजार के आसपास लगता है दोनों साइड मिला कर। इसके लिए तुम दोनों को फाटा में रुकना पडेगा, अगर हेलिकॉप्टर से जाना है तो रास्ते में फाटा उतार दूंगा और मै आगे निकल जाउंगा, मुझे तो पैदल ही यात्रा करनी है।" मैंने कहा।
"नहीं, अलग अलग नही जाना है, साथ ही यात्रा करेंगे। घोड़े खच्चर कितने के पड़ेंगे?" वसंत ने पूछा।
"चौदह पन्द्रह सौ के आसपास पड़ते हैं।" मैंने कहा।
"ठीक है हम वही करेंगे फिर, तुम पैदल ही जाओगे पक्का? हो जाएगा न?" वसंत को संदेह हो रहा था।
"सो जाओ अब। कल की कल देखेंगे।" मैंने कहा।
"भाई आपका प्लान सही था, हम रुके नही वह अच्छा किया। आपने काफी टाइम बचा लिया, हम आज उकीमठ भी पहुँच गए और कल सुबह की बस भी मिल गयी। वरना बारिश देखकर तो मै भी रुकने की सोच चुका था।" प्रताप ने कहा।
अब मै क्या कहता, पहले ही मेरी योजना में अतिरिक्त दिन जुड़ चुके थे। अब बस सुबह का इन्तजार था।
पुन: एक बार केदारनाथ
सुबह साढ़े पांच बजे ही उठकर मैंने नहा धोकर तैयारी कर ली उसके बाद मैंने अपने दोनों साथियों को जगाया, ये दोनों नहाने में भैंसे की तरह नहाने वाली प्राणी थे, मतलब इनके हिसाब से माहौल मिल गया और गर्म पानी की व्यवस्था हो गयी तो ये पौने घंटे से कम में बाहर निकलने वालों में से नही थे।
मैंने उन दोनों को जगाया और जल्दी से जल्दी तैयार होने की हिदायत भी दे दी और खासतौर पर देर ना करने की बात पर ज्यादा जोर दिया। फिर बाहर जाकर मैंने कुछ जिप्सी वालों से बात की तो एक भाई साहब मिल गए जिन्होंने तीन सौ रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से किराया तय किया, वो साढ़े सात बजे निकलने वाले थे, उसके बाद मै फौरन होटल में पहुंचा तो इनका ढीलापन देखकर मेरा दिमाग खराब हो गया। हर काम बेहद आराम से कर रहे थे, महेश अब तक मंजन ही कर रहा था, उपर से इनकी एक आदत यह भी खराब थी कि जहां भी रुकते थे बैग से जरूरत भर का सामान निकालने के बजाये लगभग आधा बैग खाली करके रख देते थे। जिसे समेटने में इन्हें अच्छा खासा समय लगता था, जितनी देर में ये बैग समेटते उतनी देर में मै अपना बैग कंधे पर लेकर हमेशा तैयार रहता था। मैंने उन्हें हडका दिया और जल्दी तैयार होने के लिए कह दिया।
उनका काम जारी था, प्रताप की नींद भी खुल चुकी थी वह भी अपना बैग समेट कर वापस बिस्तर पर आकर बैठ गया था। महेश को नहाने गए हुए आधा घंटा बीत चुका था, मेरे सब्र का बाँध टूट गया तो मै चिल्ला पडा।
"अरे यार यहाँ गाड़ियां हमारे शहरों जैसे हर वक्त नही मिलती, सुबह सुबह सीधे सोनप्रयाग तक की गाडी मिल रही है, बड़ी बात है लेकिन तुम लोगो का हर काम ढीला है, साढ़े सात बजे गाडी निकलेगी अगर तुम लोगो ने देर किया तो मै उस गाडी में निकल जाउंगा फिर तुम लोग आते रहना आराम से, वैसे भी तुम्हे घोड़ों पर ही आना है।" मैंने कहा तो महेश फौरन बाहर आकर तैयार होने लगा। फिर वसंत की बारी आई, वह पहले से ही धीमा आदमी था उसका हर काम धीमा था तो वह भी आराम से बाथरूम में गया और अजीब अजीब आवाजें निकालने लगा। इन कुछ दिनों में मै इनकी इन अजीब अजीब हरकतों से तंग आ चुका था। किसी की नाक बंद रहती तो मुह से अजीब आवाजें निकलती, किसी को दिन भर डकारें आती रहती थी, किसी का मन खराब रहता था, खाते वक्त चपर चपर की आवाजें करते थें जो कि मुझे बिल्कुल भी नही पसंद। कभी एसिडिटी, कभी टॉयलेट, मतलब आदमी अगर कोई मशीन होती तो इन दोनों मशीनों के हर पार्ट्स में खराबी थी।
इन नौजवान लोगों में अभी से इतनी तकलीफें देखकर मुझे काफी हैरानी होती थी, अभी तो पूरी जिन्दगी पड़ी थी आगे भगवान ही मालिक था। वसंत को भी समय लगने लगा तो मेरा दिमाग खराब हो गया, मैंने अपनी जैकेट पहनी, बैग उठाया और होटल से बाहर निकल पड़ा।
"तुम दोनों आराम से आ जाना, मै चलता हूँ। यहाँ और भी गाड़ियां मिल जाएँगी, पहुँच जाना।" कहकर मैने प्रताप से विदा ली और महेश की तरफ देखा वह अपना बैग फैला कर बैठा था।
"ये तुम लोगो की क्या गन्दी आदत है? जरूरी चीजें बैग के उपर वाली जेबों में क्यों नही रखते? एक भी चीज निकालनी तो पूरा बैग खाली कर देते हो, जहां रुकते हो बैग फैला देते हो। अब समेटते रहो इसे, मै तो चला।" मैंने कहा, महेश कुछ कहता उससे पहले मै कमरे से बाहर निकल चुका था। निकलने से पहले मैंने अपनी लाठी उठा ली थी जो हमे मनसूना वाली बस में मिली थी और पूरी यात्रा के दौरान हमारे साथ थी। मै निचे पहुंचा तो ड्राइवर किसी और का इन्तेजार कर रहा था, उसने कहा पन्द्रह बीस मिनट और लगेंगे तब तक आप चाय नाश्ता कर लीजिये। सामने ही होटल था तो मै उसमे जाकर बैठ गया और चाय समोसे मंगा लिए। नाश्ता निपटाने तक ड्राइवर का आदमी आ चुका था, उसने आवाज दी तो मै बैग लेकर चल पड़ा। बैग उपर रखवा दी गयी। उसी समय वसंत और महेश आते दिखाई दिए।
आते ही उनके बैग भी रख दिए। फिर वसंत ने कहा वो लाठियां कमरे में ही भूल गए हैं, वापस लेकर आता हूँ कहते हुए वह वापस चला गया। मेरी झुंझलाहट बढ़ गयी, आने में उसे दस मिनट लग गए। लाठियां बैग्स के साथ ही रखवा दी गयी और आखिरकार पौने आठ बजे हमारी जिप्सी चल पड़ी। मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया, आगे ऊँचे निचे पहाड़ी रास्तों पर गाडी दौड़ने लगी, ठंडी हवा महसूस होने लगी तो हमने अपने आपको जैकेट्स की हूडी के बिच छिपा लिया। सडक की बाई तरफ दूर से दिखाई देता चौखम्बा अब भी अपने विराट स्वरूप में हमारे साथ साथ चल रहा था।
लगभग एक घंटे बाद हम गुप्तकाशी पहुँच चुके थें, गुप्तकाशी के बस स्टैंड पर जिप्सी कुछ देर के लिए रुकी। मै उस जगह को अच्छी तरह से पहचानता था, बस स्टैंड से कुछ ही मिटर पहले वह होटल था जहां मै पिछली केदारनाथ यात्रा के दौरान रुका था, बस अड्डे से सीधे उपर की तरफ गुप्तकाशी का मंदिर था जहां केदारनाथ जी की डोली विश्राम करती है। मैंने दोनों को इस बारे में बताया, यहाँ से चौखम्बा अपने चतुर्भुज स्वरूप में दिख रहा था, चारों कोने दिखाई दे रहे थे, अब धुप थोड़ी तीव्र होने लगी थी। जिप्सी के चलते ही हवा की ठंडक ने धुप की तीव्रता को गायब ही कर दिया, हम ऊँचे निचे सांप की तरह बलखाते रास्तों पर आगे बढ़ रहे थे। हर जगह रास्तों का निर्माण कार्य चल रहा था, रास्ते संकरे और अंधे मोड़ होने के कारण गाड़ियां बीस किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से चल रही थी।
रास्ते के एक किनारे पर दिखाई देती गहरी खाई हर मोड़ के साथ और गहरी होती जा रही थी, वसंत और महेश ने ये नज़ारे नही देखे थें, यह उंचाई देखकर वो थोड़ा घबराने लगे थे। इसी बिच ड्राइवर से बातचीत हुई और पता चला कि वो सोनप्रयाग के बजाय सीधे गौरीकुंड जाएगा। मैंने उससे इस बाबत पूछा भी कि सोनप्रयाग से आगे किसी गाडी को आने की अनुमति नही देते केवल लोकल्स ही गौरीकुंड तक जा सकते हैं। उन्होंने बता दिया कि उनकी पहचान है और उन्हें गौरीकुंड में ही किसी से काम है। उनकी बात सुनकर मैंने चैन की सांस ली, उन्होंने हमारा लगभग आधा पौना घंटा बचा लिया था। जो सोनप्रयाग में जिप्सी के लिए कतार में लगने में लगना था।
कुछ ही घंटो में हम सोनप्रयाग पहुँच चुके थे, सोनप्रयाग बस अड्डा दिखाई देने लगा था। गाड़ी एक लम्बा राउंड मार कर बस अड्डे की प्रदक्षिणा करते हुए आगे बढ़ी। त्रियुगीनारायण के लिए जाने वाला मार्ग दिखाई दिया।
"यह रास्ता त्रियुगिनारायण के मंदिर की तरफ जाता है, शायद यहाँ से तेरह किलोमीटर है। यह वही स्थान है जहाँ माता पार्वती एवं शिवजी का विवाह हुआ था। अगर संभव हुआ तो वापसी के दौरान यहाँ जरुर जायेंगे, यहाँ चलना नही पड़ेगा, मंदिर तक सीधे गाड़ियाँ जाती है।" मैंने कहा, वसंत और महेश ने सिर हिला दिया। इसी के साथ हमने सोनप्रयाग का पुल पार कर लिया और केदारनाथ मार्ग पर प्रवेश कर गए। एक गाडी वाले ने ड्राइवर को रोका, उनकी कुछ बातचीत हुयी और गाडी आगे बढ़ गयी। अब असली यात्रा पथ शुरू हो रहा था, केदारघाटी आरम्भ हो चुकी थी, मंदाकिनी अपने पुरे आवेग के साथ बह रही थी। घाटी में ठंडी हवा बह रही थी, पेड़ पौधे सभी मंदाकिनी के प्रवाह और हवा के जोर से जैसे नृत्य करते प्रतीत हो रहे थे। कुछ ही देर में हम गौरीकुंड पहुँच चुके थे। यह अंतिम पडाव था, यहाँ से आगे का मार्ग हमे पैदल ही पार करना था। हमने जिप्सी वाले को किराया दिया, यहाँ तक पहुंचाने के लिए सौ रूपये अलग से भी दिए।
"तो भाइयों यह है केदारनाथ मार्ग, अब यहाँ से सोलह किलोमीटर की पैदल यात्रा आरम्भ होती है। यहाँ से कुछ दूर तक सीढियां और खड़ी चढाई है, उसके बाद घोड़े वगैरह मिल जायेंगे तो तुम दोनों कर लेना अपने हिसाब से।" कहते हुए मैंने केदारनाथ जाने वाली सीढियों पर अपना माथा टिकाया, हर हर महादेव का जयघोष किया और चल पड़ा। आरम्भ में लगभग एक डेढ़ किलोमीटर तक होटल, दुकानें और घरों सघन जाल फैला हुआ है जो काफी हद तक बनारस की गलियों की याद दिला देता है। बस्ती खत्म होने के बाद दिखता है गौरीकुंड जिसमे तप्त पानी का कुंड है जहां यात्री स्नान इत्यादि करते हैं, प्रलय के पहले यह कुंड काफी बड़ा था, प्रलय के बाद यह नष्ट हो गया था जिसे वापस बनाया जा रहा है। उसके आसपास कुछ नए निर्माण भी दिखाई दे रहे थे। सीढियों पर चढने से पहले ही मैं नए बने सिंह द्वार को देखकर थोड़ा हैरान रह गया था, यह पिछले साल नही था। चीजें तेजी से बदलने लगी थी।
हमने मार्ग पकड लिया, मैंने घड़ी में देखा दस बज रहे थे, काफी देर हो चुकी थी मुझे हर हाल में दो बजे से पहले मंदिर पहुंचना था। लेकिन यहाँ शुरुवात में ही दोनों की साँसे उखड़ने लगी। दोनों चलने में एकदम से असमर्थ हो चुके थे, मै रुक गया।
उन्होंने घोड़े वाले से भाव ताव करना शुरू कर दिया तो मैंने उनसे कह दिया कि मै आगे बढ़ता हूँ। तुम्हे घोड़ों से ही आना है तो आराम से भाव ताव करते हुए आ जाना। यहाँ फिक्स रेट है, उससे कम में नही होगा फिजूल में अपना समय व्यर्थ मत करो और फाइनल करके निकल पड़ो। चलो मै आगे मिलता हूँ।" कहकर मै आगे बढ़ गया। यहाँ से रास्ता काफी गंदा हो चुका था, घोड़े खच्चरों की लीद और नमी की वजह से लगभग एक किलोमीटर तक का रास्ता कीचड़ में तब्दील हो चुका था, मै दो बार फिसलते फिसलते बचा। चारों तरफ घोड़ों की लीद की बदबू और कीचड़ फैली हुयी थी। बड़ा ही भयानक माहौल था यह, मन उल्टी जैसा होने लगा था किन्तु मै जानता था कि यह केवल शुरुवाती एकाध डेढ़ किलोमीटर तक ही है, उसके बाद भी लीद, घोड़े, खच्चर मिलेंगे लेकिन इस मात्रा में गंदगी नही होगी।
मै उस कीचड़ में सावधानी से चलते हुए अपनी गति बनाये हुए था, लगातार चलते रहने के बाद बैग कंधे पर भारी पड़ने लगा था और गर्मी भी होने लगी थी। शरीर पसीने से तर हो चुका था, लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद मैंने जैकेट उतारने का फैसला किया और उतार कर बैग में रख दिया। अब मेरे शरीर पर हाफ स्लीव की पोलो टी शर्ट और मेरा भगवा गमछा ही था। मैंने यहाँ से देखा तो वसंत और महेश अभी भी घोड़े वालों से बातचीत करते ही दिखाई दे रहे थे। मैंने उन्हें नजरअंदाज किया और चल पड़ा। धुप तेज होने लगी थी जिस वजह से ठंड के बावजूद पसीना बह रहा था, थोड़ी थोड़ी दुरी पर रुक कर सांसो को नियंत्रित करना पड़ रहा था। अब कंधे थोड़े दर्द करने लगे थे, मैंने लगातार इतनी यात्रा आज से पहले कभी नही की थी तो उसकी थकान असर दिखाने लगी थी, इसी तरह मै कुछ ही देर में रामबाड़ा तक पहुँच चुका था, रामबाड़ा के बाद असली चढाई शुरू होती है जो अच्छे अच्छो के कस बल ढीले कर देती है। यहाँ तक की चढाई तो काफी आसान थी। इसी समय मुझे वसंत और महेश घोड़ों पर सवार होकर आते हुए दिखाई दिए।
"अपना बैग हमे दे दो, जब घोड़े पर है ही तो क्यों फ़ालतू इसे लाद कर घूम रहे हो।" वसंत ने कहा। मैंने अपना बैग नही दिया, मै फ़ालतू में किसी का बोझा नही बढाना चाहता था।
"अरे दे भाई, सौ किलो का बैग नही है तुम्हारा, आगे बहुत रास्ता पार करना है। तीन चार दिन से लगातार चलते जा रहे हो, कहीं भी रुक कर सांस तक नहीं ले रहे हो। तकलीफ हो जाएगी जिद मत करो।" वसंत ने जोर दिया, तकलीफ तो वाकई हो रही थी, दोनों कंधे बुरी तरह दर्द कर रहे थे। मन मारकर अपना बैग उन्हें देना पड़ा, खिली हुयी धुप थी, ठंड का नामोनिशान तक नही था इसलिए बैग से जैकेट भी नही निकाली। वो दोनों बैग लेकर निकल पड़े, पीठ का बोझा हटते ही जैसे शरीर को पंख मिल गए, बीस किलो का वजन भी ऐसे मौको पर कितना भारी हो जाता है इसका अंदाजा आज हो रहा था।
मै रामबाडा पुलिया पर पहुंचा, पुल बड़ी जोरों से हिलोरे ले रहा था, इतनी जोर से की बिना सहारे के खड़े भी नही हुआ जा रहा था। मैंने किसी तरह रेलिंग पकड कर आगे बढ़ गया, पुल के बगल में मंदाकिनी के घाट के किनारे कुछ लडकियां योगा करते हुए फोटोशूट करा रही थी, काफी लोगो की नजरें उन्हें ही घूर रही थी, कुछ लोग मंदाकिनी के प्रचंड प्रवाह को नजरअंदाज करते हुए उसके एकदम किनारों पर बैठ कर तस्वीरें और वीडियोज बना रहे थे। यह खतरनाक किस्म की लापरवाही थी, जाने क्यों लोग खतरों को देखकर भी अनदेखा करते हैं और केवल तस्वीरों के चक्कर में अपने जीवन को जोखिम में डालते हैं, एक कदम फिसला तो मंदाकिनी के इस बहाव में आदमी का पता तक नही चलेगा। मैंने उनसे अपना ध्यान हटाया और तेजी से जिगजैग होते रास्तो को पार करने लगा, अब मै भी धीरे धीरे थकने लगा था लेकिन रुकने के बजाय मैंने अपनी गति धीमी कर ली। इसी तरह कुछ किलोमीटर की कठिन चढाई करने के बाद मौसम बिगड़ने लगा।
अचानक से धुप गायब हो गयी और हवा में ठंडापन एकदम से बढ़ गया। मै मौसम के इस अप्रत्यक्षित बदलाव से हतप्रभ रह गया। इस तरह अचानक से मौसम बदल जाएगा मुझे इसकी बिल्कुल भी उम्मीद नही थी।
चारों तरफ जैसे बादल छाये हुए थे, दूर से दिखाई देते केदार पर्वत के शिखर जो पहले स्पष्ट दिखाई दे रहे थे वो अब धूसर दिखने लगे थे। जैसे कोहरे में घिर गए हों, और तब मुझे समझ में आ गया कि वह कोहरा नही था, केदारनाथ धाम में बर्फबारी हो रही है। इसी के साथ मेरे बदन में भय की एक लहर दौड़ गयी, केदारनाथ अभी भी सात किलोमीटर दुरी पर था और मौसम बिगड़ चुका था। देखते ही देखते तापमान माइनस में पहुँच चुका था और मेरे पास जैकेट तक नही थी, मै बस एक हाफ टी शर्ट में था, इस हालत में माइनस तापमान जानलेवा हो सकता था, तापमान ने अपना असर दिखाने में बिल्कुल भी देर नही की, मेरे शरीर में कंपकम्पी शुरू हो चुकी थी। मैंने लगातार चलने का निर्णय लिया, लगातार तेजी से चलने की वजह से गर्मी बनी रहेगी जिससे थोड़ा तो आराम मिलेगा। मैने जैसे ही आगे कदम रखा हवां में रुई के फाहें दिखाई देने लगे, यह स्नोफॉल था। मेरी जिन्दगी का पहला स्नोफॉल, कोई और अवसर होता तो ख़ुशी से चीख पड़ता लेकिन यह बर्फबारी मेरे लिए मुसीबत बन कर आई थी।
लगातार बर्फ गिरनी शुरू हो गयी, ठंड भयानक रूप से बढ़ गयी। आगे बढ़ते बढ़ते मेरी उंगलिया सुन्न होने लगी। सारा शरीर अकड़ने लगा। मैंने अपना गमछा ओढ़ लिया लेकिन वह पतला कपड़ा भला इस तापमान को कहाँ झेल सकता था। मैंने उसी हालत में एक किलोमीटर रास्ता जैसे तैसे पार किया, मेरे होंठ सूख गए, गला सुख गया, जुबान चिपकने लगी थी। ठंड बेतहाशा बढती जा रही थी, आसपास के पर्वतों पर बर्फ की सफ़ेद चादर और घनी होती जा रही थी। वातावरण में अब बर्फ के धुंधलके के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, धीरे धीरे मेरी गति धीमी पड़ने लगी। मै ठिठुर रहा था, मैंने केदार पर्वत की तरफ देखा पर्वत उस धुंध में एकदम अदृश्य हो चुका था।
मैंने अपने फोन की तरफ देखा, सिग्नल ही नही था। मेरे दोनों साथी शायद अब तक आगे निकल चुके होंगे, वो मेरी जैकेट लेकर वापस नही आ सकते लेकिन मेरे फोन करने पर कम से कम जहां थे वहाँ जरुर रुक कर मेरा इन्तजार कर सकते थे, मै किसी तरह उन तक पहुँच कर जैकेट वगैरह ले लेता।
ठंड की वजह से दिमाग की सोचने समझने की क्षमता जैसे कुंद होती चली जा रही थी। मुंह से भांप निकल रही थी, दांत किटकिटा रहे थे, ऐसे में एक छोटा सा होटल दिखाई दिया जो बंद होने ही जा रहा था। मै फौरन वहां पहुंचा।
खाने पिने के लिए पूछा तो चाय के अलावा कुछ भी उपलब्ध नहीं था, मैंने चाय ही मंगवा ली। बाहर बर्फबारी जोर पकड चुकी थी, यात्रि गण बर्फबारी के मजे ले रहे थे, खुश हो रहे थे, तस्वीरें खिंचवा रहे थे और मै बुरी तरह कांप रहा था, लोग बाग़ मेरी तरफ हैरानी से देख रहे थे कि गजब का दुस्साहसी आदमी है, ऐसी बर्फबारी में एक टी शर्ट पर यात्रा कर रहा है। लेकिन असलियत तो मुझे ही पता थी, मेरी कांपती उंगलिया चाय के कप को थाम नही पा रही थी, मैंने बिस्किट मंगवा लिया कि कुछ खाउंगा तो गर्माहट रहेगी। मेरे सारे रोंगटे खड़े ना जाने कब से जस के तस खड़े थे।
बिस्किट का पैकेट तक मुझसे नही फट रहा था, उंगलिया इस कदर अकड़ी हुयी और कांप रही थी कि पैकेट पर पकड बन ही नही पा रही थी। किसी तरह मैंने दांतों से पैकेट को फाड़ा और बिस्किट निकाल कर चाय के साथ खाए। चाय खत्म होने के बाद एक और मंगवा ली उसे भी पीकर खत्म कर दिया और पैसे वगैरह देकर मै स्टोव्ह के पास जाकर खड़ा हो गया, मैंने दो चार मिनट उंगलिया सेंकी और फिर निकल पड़ा। रुकने का कोई अर्थ नही था बर्फबारी बढती जाएगी और अँधेरा होने के बाद ठंड असहनीय हो जाएगी। मुझे हर हाल में अपने साथियों तक पहुंचना था। मैं बर्फबारी के बिच थरथर कांपते हुए चलता रहा, एक एक सांस जैसे चुभने लगी थी। उँगलियों का हाल सबसे बुरा हुआ पड़ा था, अब नाक भी सुन्न होने लगी थी।
दांत लगातार किटकिटा रहे थे, जुबान थरथरा रही थी। लग रहा था जैसे अब गिरा कि तब गिरा, लेकिन कब तक? आखिर शरीर की सहन शक्ति की भी एक सीमा होती है, माइनस तापमान में इस तरह यात्रा करते हुए मुझे लगभग डेढ़ घंटे हो चुके थे और जैसे जैसे मै आगे बढ़ रहा था ठंड वैसे वैसे और बढती जा रही थी, ग्लेशियर्स जितने पास आ रहे थे गलन उतनी भयानक ढंग से बढती जा रही थी।
मैंने कांपती उँगलियों से मोबाइल निकाला, एक पॉइंट सिग्नल दिखा तो मैंने वसंत को फोन लगाया, उसका फोन स्विच ऑफ था। महेश को ट्राई किया तो उसका फोन नॉट रीचेबल। अब रास्ते में दिखाई देते यात्री भी जैसे एकदम से गायब हो गए थे, मुझसे अब चला भी नही जा रहा था। अभी तो लगभग पांच किलोमीटर रास्ता बाकी था, मैंने फिर भी कोशिश जारी रखी, कुछ नही सूझता तो महादेव का नाम स्मरण करता, और बढ़ते रहता। लेकिन अब हालत बिगड़ने लगी थी, दृष्टि धुंधली होने लगी थी, सांस बुरी तरह फूलने लगी थी, अब लगने लगा था शायद यही मेरे जीवन की अंतिम यात्रा है। अब उम्मीद टूटने लगी थी, शरीर ने काम करना जैसे बंद कर दिया था, इसी समय मेरा फोन वाइब्रेट हुआ। देखा तो महेश का कॉल था, मैंने फौरन उठाया उसने पूछा आप कहा हो, मैंने अपनी लोकेशन बताई तो वो बोला आप दिखाई दे रहे हो वहीं रुके रहो। मैंने हैरान होकर आगे पीछे देखा, वो तो घोड़ों पर सवार थें, मुझे लगा कि वो शायद अब तक मंदिर भी पहुँच चुके होंगे लेकिन वो मुझे खुद से आधा किलोमीटर दूर दिखाई दिए। मुझे सवाल नही पूछना था, क्यों पीछे रह गए, क्या वजह रही इससे मुझे कोई मतलब नही था। जो भी हुआ था जैसे भी हुआ था सब सही था, मेरी जान बच गयी थी, और मेरे लिए वही बहुत कुछ था। मेरी आँखों में ख़ुशी के आंसू आ गए, मैंने महादेव को कोटि कोटि धन्यवाद दिया अन्यथा आज मैंने अपना अंतिम समय देख ही लिया था, अगर और थोड़ी देर मुझे मदद ना मिलती तो पता नही मेरे साथ क्या होता।
पन्द्रह बीस मिनट तक मैं ठिठुरता हुआ उनका इन्तजार करता रहा, उनके अपने पास पहुँचते ही फौरन अपने बैग्स से जैकेट, ग्लव्स और कनटोप निकाल कर फौरन खुद को उसमे लपेट लिया।
ओह्ह! कितनी राहत, कितना सुकून। मेरा बसा रोना ही बाकी रह गया था लेकिन मै उन दोनों के सामने रोना नहीं चाहता था। मैंने दोनों को हृदय से धन्यवाद दिया, शायद उनके धीमे चलने और हर चीज में देरी की आदत की वजह से आज वह फिर पीछे रह गए, यदि वे जल्दबाजी करते तो मेरा क्या होता वह मै सोच भी नही सकता था।
" जब बर्फ गिरने लगी तभी हमे लगा कि देवेन के पास तो जैकेट वगैरह है ही नही, वह कहाँ भटक रहा होगा, उसकी हालत खराब हो गयी होगी। जब बर्फबारी होने लगी तो हमारे घोड़े एक शेड के निचे रुका लिए थे। फिर देखा कि बर्फबारी नही रुक रही है तो हम आगे बढ़ गए, तुम्हे फोन करने की कोशिश की तो अब जाकर लगा।" वसंत ने कहा।
"भाई बहुत सही समय पर आ गए तुम दोनों, वरना मेरी हालत खराब हो चुकी थी। ठीक है आगे बढो, अब मै ठीक हूँ, आता हूँ पीछे पीछे।" कहते हुए मैंने उन्हें विदा किया और चल पड़ा। शरीर में गर्माहट मिलते ही एक नयी उम्मीद और नया जोश आ गया। अब मै भी उस बर्फबारी का आनन्द लेते हुए चला जा रहा था, थोड़ी देर पहले जो बर्फ मौत का दुसरा रूप लग रही थी अब वही कितनी खुबसुरत दिखाई देने लगी थी।
इसी बर्फबारी के बिच मै लिंचौली पहुँच गया, यहाँ एक युवक मिला जो कम्बल ओढ़ कर चला जा रहा। उसने पूछा और कितनी दूर है मैंने तीन किलोमीटर का अंतर बता दिया।
"आप को तो अंतर पता है, लगता है आप पहले भी कभी जा चुके हैं।" उस युवक ने कहा।
"जी यह तीसरी बार है, लेकिन हर बार आने पर पहली बार ही लगता है, हर बार का अनुभव पिछली यात्रा से अलग ही होता है।" मैंने कहा।
"आपने और कौन सी यात्राए की है इसके अलावा?" युवक अब घुलने मिलने लगा था। मैंने मदमहेश्वर, तुंगनाथ, चन्द्रशिला, कार्तिक स्वामी की की गयी यात्राओं के विषय में संक्षेप में बता दिया।
"बढ़िया है, बुरा ना माने भैया तो आपके बताने के अंदाज से लगता है आप कोई क्रिएटिव फिल्ड के आदमी हैं।" युवक ने कहा। मुझे नही पता था कि मैंने ऐसे कौन से वाक्य विन्यास अथवा शब्दों का प्रयोग किया था जिसकी वजह से उसने यह अंदाजा लगा लिया।
"हां छोटा मोटा लेखक हूँ, कुछ किताबें लिख चुका हूँ।" मैंने कहा तो वह हैरान रह गया, उसने किताबों के नाम पूछे तो मैंने बता दिया।
"आप साहित्य जगत से जुड़े व्यक्ति हैं जानकर मुझे ख़ुशी हुई। भैया हम भी साहित्य प्रेमी व्यक्ति हैं, फलाने लेखक हमारे प्रिय हैं, क्या कमाल लिखते हैं हमे लगता है आज के परिवेश में उनके जैसा जमीन से जुडा लेखक कोई और हो ही नही सकता।" युवक ने एक लेखक का नाम लिया जो अपने गमछे की वजह से अक्सर चर्चित रहते हैं।
"यहाँ तक कि उनके उपन्यास की नकल करके लोगो ने फलानी नाम की वेब सीरिज भी बना ली।" युवक ने कहना शुरू किया, वह अपने उन लेखक भैया के गुणगान में डूबा हुआ था।
"देखो भाई, आपके उन भैया की वह किताब हमने भी पढ़ी है जिसके बारे में दावा है कि उस किताब की कहानी चुरा कर यह सीरिज बनाई गयी है। आपने सीरिज देखि है?" मैंने पूछा।
"नही, देखि। नकल की हुयी चीजें मै नही देखता।"
"यही बात है, पहले जाओ और सीरिज देखो और तब बताओ क्या चीज आपको नकल की हुयी लगती है। मैंने किताब भी पढ़ी है और सीरिज भी देखि हुयी है, दोनों कहानियों का आपस में दूर दूर तक कोई लेना देना नही है। और रही बात आपके भैया के सबसे श्रेष्ठ लेखक होने की बात तो मै सत्य व्यास जी को अधिक सफल और बढिया लेखक मानता हूँ।" मैंने कहा।
अब हमारी बातें मनोरंजक होती जा रही थी, ऐसी बातों में लम्बे रास्ते भी कब आसानी से कट जाते है पता ही नही चलता।
"हम व्यास जी को सतही लेखक मानते हैं, उन्हें सफल नही कहेंगे, वे बाजारवादी लेखन करते हैं।" उन्होंने कहा।
"यह बाजारवादी लेखन क्या होता है? आप लिखते है और उससे यदि पैसे कमाने के नए नए तरीके आप जुटा पाते हैं तो इसे बाजारवादी लेखन तो नही कह सकते। उनके लगभग हर उपन्यास पर वेब सीरिज या फिल्म निर्माणाधीन है इसके बावजूद आप उन्हें सफल लेखकों की श्रेणी में नही रखते तो माफ़ करना भाई धरातल से जुडा लेखन मेरे भी किसी काम का नहीं यदि वह लेखक को ही पहचान नही दिला सकता, उसे सफल नही बना सकता। लेखक को तो बाजार के लिए लिखना ही चाहिए, उसमे क्या गलत बात है? यह नैतिकता वाला ठप्पा केवल लेखकों के लिए ही क्यों? जरुरी है हमेशा गमगीन कहानियां लिखी जाए या भारी भरकम शब्दों का प्रयोग किया जाए, जिनका आम बोलचाल की भाषा में कभी प्रयोग ही नही होता। गंभीर साहित्य को आम आदमी कितना समझ पाता है? अगर आम आदमी से जुडा गंभीर साहित्य कोई लिखते थे तो वो थे प्रेमचंद एवं शरतचंद, उनके बाद से तो धरातल से जुड़ना वगैरह के नाम पर बस कठिन वाक्य विन्यास और भाषाई पांडित्य दिखाने का चलन ही ज्यादा रहा है। पता नही किसके लिए ऐसा लेखन होता है, बस पुरस्कारों, सरकारी खरीद और सम्मान वगैरह के लिए ऐसा लेखन लिखा जाता है। आपके सफल और असफल लेखक की व्याख्या एकदम अनुचित है।" मैंने कहा।
"लगता है आप उन्हें पसंद नही करते।" युवक ने कहा।
"पसंद नापसंद की बात नही है, मुझे बेवजह की गंभीरता और बिना बात के हमेशा विवाद पैदा करने वाले लोग शुरुवात से ही ख़ास नहीं पसंद, उपर से वामपंथी विचारधारा के लेखन को मै दूर से नमस्कार करता हूँ, उसमे सिवाय डिप्रेशन, तनाव और समस्याओं के अलावा कुछ भी तो नही होता। उनके पास बस समस्याए होती हैं, सवाल होते है, समाधान और जवाब किसी का नहीं होता।" मैंने कहा।
"नहीं भैया आप गलत समझे हैं वो वामपंथी नही हैं, यही तो दिखावा है। दरअसल उनका उस माहौल में उठना बैठना ज्यादा रहता है तो उन्हें दिखावा करना पड़ता है वामपंथी होने का।" युवक ने मुस्कुरा कर कहा। मैंने कोई जवाब नही दिया।
"उपर रुकने की क्या व्यवस्था की है? सुना है होटल बड़े महंगे मिल रहे है, चार पांच हजार रूपये तक लग रहे है।" मैंने पूछा।
"आपके साथ रह लेंगे, दो एक लोग और हैं हमारे साथ, ज्यादा महंगा होगा तो शेयर कर लेंगे।" युवक ने कहा।
"मेरे साथ पहले ही दो साथी हैं, आप अकेले होते तो आपको साथ रख लेते लेकिन आपके साथ और लोग है तो मुश्किल हो जायेगा, वैसे टेंट वगैरह मिल जाते है। गद्दे रजाइयां और कॉमन टॉयलेट मिल जाता है। उसमे व्यवस्था कर सकते है अगर इमरजेंसी में कुछ और ना मिला तो" मैंने उसे सुझाव दिया, और इस तरह हम आखिरकार उस स्थान पर पहुँच गए जहां घोड़ो का अंतिम पडाव था, यहाँ से केदारनाथ एक किलोमीटर दूर था। वसंत और महेश अभी भी नही पहुंचे थे, युवक के दोस्त मिल गए तो वह मुझसे विदा लेकर उनके साथ चल पड़ा, बर्फबारी अब कम हो चुकी थी लेकिन जारी थी। मेरे सामने ही केदारनाथ का सम्पूर्ण ग्लेशियर अपने भव्य और विराट स्वरूप में दिखाई दे रहा था।
ताजा हुई बर्फबारी के बाद केदारनाथ घाटी का पूरा स्वरूप ही बदल चुका था। मै उस अद्भुत और दैवी सुन्दरता को निहारता रहा और थोड़ी देर बाद वसंत और महेश भी पहुँच ही गए। अब यहाँ से आगे घोड़े नही जा सकते थे तो दोनों मेरे साथ पैदल चल दिए। दोनों उस वातावरण को देखकर स्तब्ध थे, दोनों तरफ बर्फ से ढंकी विशालकाय पर्वत श्रृंखलाएं, सामने केदार पर्वत जैसे दुनिया का अंतिम छोर प्रतीत हो रहा था, हवा में अब भी बर्फ के हल्के फाहें उड़ रहे थे, बिच बिच में बुँदे भी गिर रही थी। ठंड यहाँ दुगुनी बढ़ चुकी थी। हम कांपते हुए आगे बढ़े, और अंतत हेलीपैड के पास पहुँच गए, वहां से मंदिर आधा किलोमीटर के लगभग ही था। दोनों फोटोग्राफी में व्यस्त हो गए लेकिन मेरी प्राथमिकता दर्शन करने की थी, दोपहर के पौने दो बज रहे थे।
आज से दो दिन बाद केदारनाथ के कपाट बंद होने वाले थे। उसी उपलक्ष्य में केदारनाथ मंदिर को फूलों से सजाने की तैयारियां चल रही थी। मै तेज तेज क़दमों से होते हुए मंदिर के पास पहुंचा, दोनों अभी भी आराम आराम से चल रहे थे, सीढियां देखते ही जैसे वसंत को धीमा चलने का दौरा सा पड़ जाता था, उसकी आधी जान तो सीढियां देखकर ही निकल जाती थी।
मैंने उसे नजरअंदाज किया और मंदिर प्रांगण में पहुँच गया, दर्शन के लिए बीस बाईस लोग ही कतार में खड़े थे, मैंने फौरन एक फूल प्रसाद वाले के पास अपना बैग और जूते रखवा दिए और जाकर पंक्ति में लग गया। मंदिर के कपाट किसी भी क्षण बंद होने वाले थे, देखते ही देखते मेरी बारी भी आ गयी। मैंने भाव विभोर होकर मंदिर की सीढियों पर माथा टेका और मंत्रोच्चार करते हुए भीतर दाखिल हुआ, मंदिर की दीवारों पर पांडवों एवं गणेश कार्तिकेय की प्राचीन प्रतिमाए बनी हुयी थी, सभा मंडप में नंदी विराजमान थे और नदी के मुख के आगे गर्भगृह में थे हमारे प्रिय शिव जी, तिकोने लिंग स्वरूप में। मैंने जी भर कर उनका दर्शन किया, आज साक्षात मृत्यु से जिस प्रकार उनकी कृपा से बचा था उससे मेरा विश्वास उनपर और प्रगाढ़ हो गया था। मैंने उनकी उस छवि को जी भर कर अपने नेत्रों में समेटा और मंदिर से बाहर आ गया।
वसंत अभी भी सीढियों पर ही था। मैंने उसे जोर जोर से आवाजें देकर बुला लिया, मै कहता रहा कि कपाट बंद हो जायेंगे जल्दी आ जा, लेकिन वह अपनी मरी हुयी चाल में चला आ रहा था। जब तक वह मंदिर तक पहुंचा तब तक मै फिर पंक्ति में लग चुका था, पुन: दर्शन का अवसर था तो कैसे गंवाता, महेश भी खड़ा हो गया, उसने अपने जूते निकाल कर बैग रख दिए और वसंत को उन्हें देखने के लिए कह कर मेरे साथ मंदिर में चला गया। पुन: एक बार शिव जी की छवि के दर्शन करके जब हम मंदिर के बाहर निकले तब कपाट बंद किये जा चुके थे। वसंत का चेहरा उतर गया।
"तुम्हारी ही गलती है, तुम्हे जल्दी आना चाहिए था। पुरे रास्ते घोड़ों पर बैठ कर आये हो फिर भी सीढियां नही चढ़ी जा रही तुमसे, कह रहा हूँ कपाट बंद हो जायेंगे लेकिन मान ही नही रहे हो। अब भुगतो, या तो शाम को दर्शन होंगे या सुबह।" मैंने कहा।
अब बर्फबारी थम चुकी थी, वातावरण एकदम जैसे दमक रहा था। चारों तरफ जैसे चांदी सी बिखरी हुयी थी, अब कहीं से ढंके छिपे सूर्य की किरणें बर्फ पड़ने लगी थी जिससे सम्पूर्ण घाटी दमक रही थी। केदारनाथ मंदिर का फूलों से किया हुआ श्रृंगार अत्यंत मनोहारी था, प्रतीत हो रहा था जैसे यही बैठे रहें और बस देखते रहे। मंदिर को पुन: एक बार अच्छी तरह से देखना था लेकिन अभी हमे अपने लिए कमरा देखना था, तो पिछली बार जिस होटल में मै रुका था वहीं चला गया। लोगो की भीड़ और कोरोना काल में दो तीन महीने के लिए खुली हुयी यात्रा के कारण हर चीज के दाम चार से पांच गुणा बढ़ चुके थे, जो कमरा पिछले वर्ष मैंने नौ सौ में लिया था अब उसी के चार हजार मांगे जा रहे थे। किसी तरह मोल भाव करते करते आखिरकार पच्चीस सौ पर कमरा फाइनल हुआ।
कमरे में पहुँचते ही हमेशा की तरह दोनों रजाइयों में जा घुसे, मैंने अपने हाथ मुंह वगैरह धोये और शाम के खाने के लिए ऑर्डर भी दे दिया। यहाँ मोबाइल के नेटवर्क काम कर रहे थे तो घरवालों को फोन करके सारी अपडेट्स दे दी, इसके बाद अब मेरा मन कमरे में पड़े रहने का तो हरगिज भी नही था, मुझे बाहर निकलना था, केदारघाटी के परिवेश को देखना था, महसूस करना था उस दिव्य ऊर्जा को जो यहाँ के वातावरण में फैली हुयी थी।
मेरे बाहर निकलने के बाद दोनों मन मारकर साथ हो लिए, थोड़ी ही देर में हम मंदिर प्रांगण में पहुँच चुके थे। रिमझिम बरसात होकर जा चुकी थी, चारों तरफ गीलापन दिखाई दे रहा था, बरसात के बाद गलन में भी अप्रत्यक्षित रूप से बढ़ोतरी हो चुकी थी। शाम होने वाली थी, सूर्य की बची हुयी अंतिम किरणों से शुभ्र हिमालय की चोटियाँ स्वर्णिम हो रही थी। केदारनाथ मंदिर के पीछे वाले ग्लेशियर पूरी तरह से सोने के छत्र के समान प्रतीत होने लगे थे, हर गुजरते समय के साथ उसका रंग बदलते जा रहा था, पहले वह स्वर्णिम दिखाई दिया, फिर उसमे रक्तिम आभा झलकने लगी और सबसे अंत में वह गुलाबी रंगत लेकर दुधियाँ रंग में बदल गया। सूर्य अस्त हो चुका था किन्तु पर्वत अब भी शिव जी के मस्तक पर विराजमान चन्द्रमा की भाँती दमक रहे थे।
फूलों से सजा हुआ विशालकाय मंदिर, रंग बिरंगे प्रकाश से नहाया हुआ था, वह अद्भुत छवि ही ऐसी थी कि चाह कर भी दृष्टि हटने का नाम नही ले रही थी। इसी समय मंदिर के कपाट पुन: खोल दिए गए। कपाट खुलते देख कर मैं, वसंत और महेश पंक्ति में पुन: लग गए, सभी भक्तगण शिव जी के जयघोष कर रहे थे, बम बम भोले, हर हर महादेव के जयकारों से सम्पूर्ण वातावरण जैसे गूँज रहा था। शीघ्र ही हमारी बारी आई हमने मंदिर की सीढियों पर अपना शीश नवाया और भीतर प्रवेश कर गए, पुन: शिवलिंग के अच्छे से दर्शन किये और बाहर आ गए। उसके पश्चात मै उन दोनों को लेकर मंदिर के पीछे स्थित भीम शिला की तरफ ले गया।
माना जाता है कि जब केदारनाथ मंदिर के पीछे वाले पर्वतों पर स्थित चोराबाड़ी तालाब टूट गया था तब उसी बहते मलबे से कहीं से यह विशालकाय शिला बहते हुए आई और मंदिर के ठीक पीछे जाकर रुक गयी, जिस वजह से पानी का बहाव दो भागों में बंट गया और मंदिर को जरा भी नुक्सान नहीं हुआ। यदि आप इस भीम शिला को देखेंगे और प्रलय के जल के बहाव का अंदाजा लगायेंगे तो आप पायेंगे कि यह शिला उस बहाव के सामने कुछ भी महत्व नही रखती थी, उस भीषण बहाव में सैकड़ों मकान अपनी नींव सहित उखड़ गए, घाटी का भूगोल बदल गया, बड़े से बड़े भूखंड बह गए उस तेज बहाव को यह शिला रोक पायेगी यदि आप ऐसा सोचते है तो आश्चर्य की बात है।
शिला तो बस एक माध्यम बनी थी, अन्यथा मंदिर की बनावट स्वयं इतनी शक्तिशाली थी कि उस प्रलय में उसका शायद ही कोई ख़ास नुक्सान होता, किन्तु शिला पीछे आ गयी तो क्रेडिट उसका भी बनता है। हम शिला के पीछे जाकर बैठ गए और आकाश में छाई बैंगनी लाली ओ देखने लगे। कितना विचित्र मौसम था यहाँ का, कुछ ही घंटो पहले बर्फबारी हो रही थी, फिर बरसात हुयी और अब मौसम इतना साफ़ हो चुका था कि कोई कह नही सकता था कि यहाँ कभी बरसात हुई होगी, आकाश में बादलों का नामोनिशान तक नही था। जैसे जैसे अन्धेरा होने लगा था वैसे वैसे गलन भयंकर रूप से बढ़ने लगी थी, वसंत और महेश ठंड से ठिठुरने लगे थे, वैसे भी हमने शायद ही सुबह से कुछ खाया था, इस समय हमे खाने पिने की जरूरत थी
हम वापस होटल में गए और हमने खाने के लिए कह दिया, खाना बनने में अभी थोड़ा समय लगना था। तब तक मंदिर परिसर से घंटियों और डमरू के स्वर गूंजते सुनाई देने लगे, संध्या आरती आरम्भ हो चुकी थी। मै फौरन दोनों के साथ वापस मंदिर प्रांगण में पहुँच गया, वहां काफी लोग एकत्रित हुए थे, सबको कतार में बिठाया जा रहा था। इसी समय श्याम भाई का फोन आया और उन्होंने बताया कि राजस्थान से उनके कोई जानने वाले अगली कतार में हैं, उनसे भी मिल लीजिये। उन्होंने उन्हें मेरा नम्बर दिया तो उन्होंने मुझसे सम्पर्क किया, बताये गए दिशा निर्देशों का पालन करते हुए हम मंदिर के सामने वाली सबसे पहली कतार में पहुँच गए। वहाँ उनके वे मित्र मिले, हमने कुछ औपचारिक बातें की और फिर आरती का आनन्द लेने में तल्लीन हो गए।
डमरू और घंटियों के नाद में आरती आरम्भ हो चुकी थी। पुजारी जी मंदिर के बाहर पूजा कर रहे थे, मंदिर प्रांगण में ही कुछ लोगों ने नृत्य आरम्भ कर दिया, बड़ा ही दिलचस्प नजारा हो गया था, रात्री के अन्धकार में दमकता केदारनाथ मंदिर वाकई स्वर्ग प्रतीत हो रहा था। मै हाथ जोड़े इस सम्पूर्ण समय को अपने भीतर समाहित करने का प्रयास करता रहा। कुछ देर पश्चात आरती समाप्त हुयी, पूजा की थाल रखी हुयी थी जिसमे दीप प्रज्वलित थे, हमने उनमे से आरती ली और फिर आसपास घुमने टहलने लगे। राजस्थान वाले मित्रों से थोड़ी बातचीत हुयी, पता चला वे कल बदरीनाथ जा रहे थे और हम वापसी के सफर पर। उसके पश्चात एक जगह हमने अलाव देखकर अपने हाथ तापे और मंदिर के पिछले हिस्से में चले गए जहां श्री शंकराचार्य जी की समाधि एवं प्रतिमा का कार्य अंतिम चरण में रहा था, वहां पहुंचकर पता चला कि फिलहाल किसी को भी प्रवेश नहीं दिया जा रहा है, अगले साल तक समाधि जनता के दर्शन हेतु खोल दी जाएगी किन्तु इस साल यह सम्भव नही था।
वहीं पर भीम शिला के पीछे मैंने एक को व्यक्ति नंगे बदन बैठे हुए देखा, इस भयानक ठंड में कौन था वह जो इस प्रकार नंगे बदन बैठा हुआ था। उसकी पगड़ी देखकर वह कुछ जाना पहचाना सा लगा। वह औघड़ो के साथ तस्वीरें खिंचवा रहा था, एक औघड़ ने उसे डपट कर भगा दिया तो वह कुनमुनाता हुआ चल पड़ा।
फिर उसकी नजर मुझ पर पड़ी और मै पहचान गया। यह वही युवक था जो घोड़ा पड़ाव से पहले मिला था, साहित्य प्रेमी और एक ख़ास लेखक का जबरा वाला प्रशंसक। उसने दूर से ही मुझे भैया जी भैया जी कहते हुए पुकारा और पास आ गया। उसकी आँखे सुर्ख लाल हुई पड़ी थी, उसका कम्बल उसके हाथों में ही था। मै समझ गया था कि वह शायद गांजे के नशे में धुत था।
"आपको कमरा मिल गया?" उसने पूछा अब मुझे लगा बताने पर कहीं हमारे साथ ही ना चिपक जाए तो मैंने ही सवाल के जवाब में सवाल पूछ लिया।
"आपके कमरे का क्या हुआ?"
"हमे मिल गया, तीन हजार लगे।" उसने कहा, मैंने सिर हिलाया, उसके मुंह से गांजे की महक आ रही थी। उसका व्यवहार अजीब होते जा रहा था, उसे किसी मित्र ने आवाज दी तो हम अभी आते हैं कह कर वह निकल लिया। उसके निकलते ही मै भी फरार हो गया।
"सुबह हम भैरों नाथ जी के दर्शन करेंगे जो पांच सौ मीटर उपर की तरफ हैं, उसके बाद हम वापस चल देंगे। अब मेरा मन हो रहा है बद्रीनाथ जाने का तो मै बद्रीनाथ जाऊँगा।" मैंने अपना निर्णय सुना दिया। फिर हम कमरे में आये और स्वादिष्ट भोजन निपटाया और रजाइयों में जा धंसे।
"हम तो बुरी तरह थक गए है, हमे अब वापस जाना है।" वसंत और महेश ने कहा।
"हां मै वापसी की टिकट बुक कर दूंगा चले जाना तुम दोनों, मै थोड़ा रुक कर आउंगा।" मैंने कहा, और फिर हम सोने की कोशिश करने लगे। लेकिन इतनी उंचाई पर आसानी से नींद भी कहां आती है, सुबह नींद खुली तो पूरा बदन टूट रहा था। मैंने पचास रूपये में एक बाल्टी गर्म पानी मंगवाया और उसी से नहा धो कर तैयार हो गया। मेरे दोनों साथियों का नहाने का बिल्कुल भी मन नहीं था तो वो नहीं नहाये, बाहर निकल कर हमने रात के खाने और किराए के पैसे होटल वाले को थमा दिए। उसके बाद हमने अब तक के खर्चे का कुल हिसाब करके उसे तीन हिस्सों में बाँट कर पैसे ले देकर हिसाब शून्य कर दिया।
अब बारी थी भैरों नाथ के दर्शन की, लोग कहते है एक डेढ़ किलोमीटर की चढाई है, लेकिन यह सच नही है। भैरोनाथ जी की चढाई मुश्किल से आधा किलोमीटर भी नही है, लोग मंदिर से वहां तक के पैदल रास्ते को भी उसी में जोड़ कर बता देते हैं। हम मंदिर की बाई तरफ की गलियों से होते हुए मंदाकिनी के किनारे पहुंचे, वहां से मंदाकिनी का उद्गम स्पष्ट दिखाई दे रहा था, मुझे उद्गम से पानी और प्रतीक के रूप में कुछ पत्थर लेने थे तो मै नदी के पास चला गया और एक छोटी सी बोतल में पानी भर कर नदी के पात्र से कुछ पत्थर उठा लिए। उसके बाद लोहे के पुल को पार करके हम भैरो नाथ जी के मंदिर की तरफ चल पड़े, जैसा कि उम्मीद थी वसंत और महेश का रोना फिर शुरू हो गया, मै मंदिर पर पहुँच चुका था और आराम से दर्शन भी कर चुका था लेकिन दोनों का आधा रास्ता भी पूरा नही हुआ था तो उनकी प्रतीक्षा करने लगा। भैरोनाथ जी की प्रतिमा केदारनाथ मंदिर के शिवलिंग के समान ही तिकोने आकार में है, यहाँ से केदारनाथ मंदिर और उसके आसपास के परिसर का अतिशय विहंगम दृश्य दिखाई देता है।
पीछे वाले ग्लेशियर्स का स्वरूप तो और भी विराट और अप्रतिम दिखता है यहाँ से। दोनों किसी तरह वहाँ पहुंचे, उन्होंने भी दर्शन किये और हमने केदारनाथ और भैरोनाथ जी के हाथ जोड़े और पुन: आने के वचन के साथ वहाँ से विदा लिया।
अब हम वापसी के मार्ग पर थे, हेलीपैड के पास कुछ पीले चोंच वाले कौव्वे देखकर वसंत और महेश चकित रह गए लेकिन मैंने उन्हें बताया कि ऐसे कौव्वे यहाँ आम बात है। आगे रास्तों पर सम्भल कर चलना पड़ रहा था, पक्के पथरीले रास्तों की नमी ठंड से जमकर बर्फ की पपड़ी बन चुकी थी, जिस पर चलना अत्यंत जोखिम भरा कार्य था। वही वापसी के दौरान मै उस तालाब को देखकर ठिठक गया जहां मै अक्सर रुक कर तस्वीरें खिंचवाया करता था। उस तालाब में केदार पर्वतों का प्रतिबिम्ब दिखाई देता था, किन्तु इस बार वह तालाब जम चुका था, कुछ तस्वीरें लेकर हम वापस चल दिए, रास्ते में अनेक लोगो को बर्फ पर फिसलकर गिरते पड़ते देखा तो मैंने पक्का रास्ता छोड़ कर दर्रे में उतरने वाले रास्ते पर चलने का निर्णय ले लिया।
धीरे धीरे धूप निकलने लगी और इसी के साथ उस भयानक ठंड से राहत मिलने लगी। हम उस दर्रे में उतर कर सुनसान रास्ते से आगे बढ़ते रहे। सारे रास्तें दोनों की हालत बेहद खराब रही, दोनों आगे बढ़ ही नही पा रहे थे। और मुझे किसी भी हाल में आज के आज त्रियुगीनारायण भी जाना था, मैंने समझाने की कोशिश की इसके बावजूद वो अपनी ही गति से चलते रहे तो अंत में मैंने उन दोनों को पीछे छोड़ कर अपनी ही गति से आगे बढने का निर्णय लिया। और चल पड़ा, वापसी का रास्ता इतना लम्बा हो जाता है कि कटने का नाम ही नही लेता, धीरे धीरे चलते रहने या रुकने पर तो और भी लम्बा लगने लगता है, इस कारण मै वापसी में अपनी पूरी गति के साथ चल रहा था। मैंने लिंचौली पार कर लिया, रामबाड़ा पार कर लिया, भीम बली, जंगल चट्टी तक पार कर लिए, बिच बिच में फोन करके उनके बारे में खोज खबर लेने की कोशिश करता तो पता चलता कभी वे तीन किलोमीटर पीछे हैं तो कभी चार।
मैंने चलने का निर्णय लिया और रास्ते भर खूब पानी और निम्बू शरबत पीते हुए आगे बढ़ता रहा और आखिरकार गौरीकुंड की सघन बस्ती दिखाई दी तब जाकर चैन की सांस ली। उस बस्ती को पार करके मैंने अंतत: यात्रा आरम्भ होने वाली पहली सीढ़ी पर कदम रख कर यात्रा का समापन किया। मुझे बुरी तरह भूख लगी हुयी थी तो मैंने सामने ही दिखाई देते एक होटल में डेरा डाल दिया, पराठें और सब्जी का ऑर्डर देकर मैंने अपना मोबाइल चार्जिंग में लगा दिया और उनके इन्तजार में बैठ गया। दोपहर के डेढ़ बज चुके थे। मेरा खाना वगैरह सब हो गया, डेढ़ से ढाई बज गए लेकिन उनका पता नही था, फोन किया तो वो अभी भी काफी दूर थे, मै समझ चुका था कि त्रियुगीनारायण वाले योजना अब बिगड़ चुकी है, उन्हें आने में ही तीन साढ़े तीन बज जायेंगे और इस समय शायद ही वहां के लिए कोई गाडी मिले।
मै झुंझला उठा, फिर लगभग सवा घंटे बाद वे दिखाई दिए, जब पहुंचे तब मैंने उन्हें भी नाश्ता करने के लिए कह दिया। उन्होंने खाने में आधा घंटा और लगा दिया, फिर पता चला कि गाड़ियों को अब उपर नही आने दे रहे हैं और वापसी की गाड़ियां काफी पीछे रुक रही हैं, मतलब हमे एकाध दो किलोमीटर और चलना था, चलने का नाम सुनते ही वसंत को फिर बुखार ने जकड़ लिया लेकिन अब कोई रास्ता नहीं था तो मन मार कर चल पड़ा। लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद हमे जिप्सी मिल गयी जिसने आखिरकार हमे गौरी कुंड से सोनप्रयाग तक छोड़ दिया। सोनप्रयाग की पुलिया को पार करते ही मुझे हरिद्वार और ऋषिकेश की कुछ बसें दिखाई दी। मुझे जाना था त्रियुगीनारायण तो मैंने दोनों को ऋषिकेश जाने वाली बस में बिठा दिया।
"तुम दोनों की कल की ट्रेन टिकट बुक कर दूंगा, तुम लोग बस से निकल जाओ।" मैंने कहा।
"और तुम?" वसंत ने पूछा।
"मेरी यात्रा अभी बाकी है, मुझे त्रियुगीनारायण जाना है फिर बद्रीनाथ भी तो है , सम्भल के जाओ। कोई दिक्कत होगी तो फोन करना।" कहकर मै बस से उतर गया, उन्हें यकीन ही नही हो रहा था कि मै वाकई इतनी यात्रा करने के बावजूद अकेले कहीं और के लिए निकल गया हूँ। मैंने आगे जाकर काफी गाडी वालों और लोकल्स से त्रियुगीनारायण वाली गाड़ियों के बारे में पूछताछ की लेकिन आज के दिन कोई गाडी वहाँ नही जा रही थी। आखिरकार थक हार कर मै भी उसी बस में वापस आ गया। मुझे वापस आया देखकर दोनों फिर हैरान हो गए, मै उनकी बगल वाली सीट पर जाकर बैठ गया।
"तुम दोनों की सुस्ती की वजह से मेरा त्रियुगी नारायण जाने का प्लान फेल हो गाया है, और मुझे लगता नहीं तुम दोनों ऋषिकेश तक ठीक से पहुँच पाओगे। इसलिए मैंने फैसला लिया है कि तुम्हे ऋषिकेश छोडकर अगली सुबह की बस पकड कर मै बदरीनाथ चला जाउंगा, हालांकि मुझे वापस घूमकर आना पड़ेगा और काफी उलटा भी पडेगा, लेकिन ठीक है। देखता हूँ अगर रुद्रप्रयाग में मन हुआ तो उतर जाउंगा, रात भर किसी होटल में रुक कर सुबह बद्रीनाथ की तरफ जाती कोई बस पकड लूंगा।" मैंने कहा और पसर गया। लगभग साढ़े चार बजे के आसपास बस चल पड़ी। रुद्रप्रयाग आते आते काफी समय लग गया तो मेरा मन बदल गया, मैंने ऋषिकेश जाकर ही वापस आने की योजना बनाई। और इसी बिच उन दोनों की अगले दिन की ट्रेन की वापसी टिकट भी बुक कर के उन्हें फॉरर्वेर्ड कर दिया। कई घंटो के सफर के बाद हम रात में लगभग ग्यारह बजे के आसपास हरिद्वार पहुँच गए। हमने उसी होटल में कमरा लिया जहां हम आने से पहले ठहरे हुए थे, बाहर ही किसी होटल से भारी खाना खाया और आकर कमरे में पड गए। अबकी नींद बड़ी तगड़ी आई थी, मैंने घर पर मैसेज करके सब हाल समाचार सुना दिया और सो गया। अगली सुबह उन्हें विदा करना था, उन्हें इससे पहले शॉपिंग
करनी थी तो दोनों उसी में लग गए, उनकी खरीदारी देखकर मै बुरी तरह उकता गया, मुझे लगता था महिलाए ही खरीदारी में इतना समय लगा सकती है लेकिन इन दोनों ने उनका भी रिकॉर्ड तोड़ दिया। वीडियो कॉल कर करके घरवालों को चीजें दिखा दिखा कर खरीद रहे थे। मुझे बड़ी कोफ़्त हो रही थी तो मै आगे जाकर एक होटल में खाना खाने बैठ गया। मेरा खाना खाकर भी हो गया लेकिन दोनों की खरीदारी जारी थी। फिर उन्हें मेरा ख्याल आया तो फोन किया, मैंने उन्हें बताया कि अब निकल जाओ, बारह बजे की ट्रेन है, साढ़े ग्यारह बजा चुके हो खरीदारी में ही।" कहते हुए फिर भी मै उनसे मिला और उन्हें विदा किया। मन ही मन हाथ जोड़ लिए कि भैया इस यात्रा पर मिले हो अगली किसी यात्रा में ना मिलना।
उनके जाने के बाद मै होटल के कमरे में पहुंचा और बिस्तर पर लेट गया, मैंने चैन की सांस ली, मैंने वह दोपहर सोते हुए बिताई और शाम होते ही ऋषिकेश चल दिया, ऋषिकेश में परमार्थ निकेतन की गंगा आरती का अनुभव किया और वापस आकर हरिद्वार में रुक गया। वह रात आराम से सोया और अगली सुबह बद्रीनाथ जाने वाली बस के लिए इन्क्वायरी करने पहुँच गया, उस दिन दीपावली थी और मै यह बात भूल ही गया था। उस दिन बद्रीनाथ के लिए कोई बस उपलब्ध नही थी। मेरी बद्रीनाथ की योजना भी फेल हो गयी तो मै वापस अपने कमरे में आ गया, मैंने ट्रेन की टिकट चेक की और अगले दिन की वापसी टिकट बुक कर ली।
उस दिन मै ऋषिकेश हरिद्वार, चंडी घाट ही घूमता रहा और अगले दिन मैंने इस देवभूमि को प्रणाम किया और स्टेशन पहुँच कर ट्रेन पकड ली। इस तरह मेरी यह यात्रा समाप्त हुयी।
इस यात्रा में काफी उतार चढाव देखे, भिन्न भिन्न प्रकार के लोगों से मिला, नए नए अनुभव हुए। बरसात, बर्फबारी, जंगल, पहाड़, ग्लेशियर्स, दर्रे, तारों भरा आकाश, ना जाने प्रकृति के कितने ही रूप एक साथ देख लिए, तीन घंटे बर्फबारी में ठिठुरते हुए साक्षात अंत के निकट तक पहुँच गया था, तो मदमहेश्वर की आरती में दिव्य अनुभूति भी प्राप्त की।
मुंबई पहुँचने के पश्चात भी यात्रा का प्रभाव बना हुआ था, जिससे बाहर निकलने में मुझे पुरे एक महीने लगे। यात्रा समाप्ति के बाद मैंने श्याम भाई को फोन करके अपडेट दी, तो उन्होंने अगले साल श्री खंड महादेव की यात्रा की योजना फिर से बना डाली। श्रीखंड महादेव यात्रा जो लगभग साढ़े सत्रह हजार फीट की उंचाई पर स्थित है, महादेव की सर्वाधिक कठिन यात्रा कहा जाता है इसे। मैंने हाँ कह दिया, वैसे भी कोरोना काल में श्रीखंड महादेव की योजना कितनी ही बार बनी और बिगड़ी थी, सोचा इस बार यदि महादेव की इच्छा रही तो अवश्य पहुंचूंगा और नए अनुभवों की गठरी समेटे वापस आउंगा। हो सकता है कि जब आप यह पुस्तक पढ़ रहें हों तब तक मैं श्रीखंड कैलाश की यात्रा आरम्भ कर चुका होऊंगा।
हर हर महादेव।
0 Comments