अरमानों का सैलाब
हालाँकि, रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे पर ऋचा की आँखों से नींद कोसों दूर थी। अनाया की कहानी एक दिलचस्प मोड़ ले रही थी। आगे जानने की उत्सुकता से ऋचा ने अगला पन्ना खोला और पढ़ने लगी। अगली एंट्री, अनाया ने अगले दिन ही लिखी थी-
“सुबह के दस बजे होंगे। मैं नहा रही थी की तभी विवेक ने बाथरूम के दरवाज़े पर दस्तक दी।
“जी?” मैंने फौरन नल बंद कर दिया और कहा।
“सुनो, सुभाष ने एक ठेकेदार को भेजा है। वो अपने कुछ मज़दूरों को लेकर हमारे घर आया है। वो लोग ऊपर की मंज़िल पर काम कर रहे हैं। ये जो ठेकेदार हैं न, उससे सुभाष की अच्छी जान-पहचान है। उसकी अच्छी तरह से खातिरदारी करना। मैं ऑफिस जा रहा हूँ। तुम, उससे चाय-पानी के लिए पूछ लेना।”
“जी, ठीक है।” इतना कहकर मैंने जल्दी से स्नान किया और तैयार हो गयी।
सुभाष सहगल, विवेक के बहुत करीबी दोस्त थे। वो बिलासपुरा के ही रहने वाले थे और अक्सर हमारे घर आते थे। विवेक ने, हमारे घर की ऊपरी मंज़िल पर कुछ नए कमरे बनवाने के काम के लिए, सुभाष जी से कल ही बात की थी। और, उन्होंने आज सुबह ही काम शुरू भी करवा दिया। विवेक के कहे मुताबिक, मुझे उनके मित्र का स्वागत-सत्कार करना था।
मैं एक ट्रे में पानी का गिलास लिए, सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। ऊपर काफी शोर-शराबा था। इधर-उधर, सीमेंट की बोरियाँ और ईंटें रखी हुई थी। एक ओर कुछ मज़दूर सीमेंट घोलने में लगे हुए थे, तो दूसरी तरफ ईंटों पर सीमेंट की पुताई हो रही थी। मैं इन सबके बीच से होते हुए, बहुत संभल कर चल रही थी। तभी मेरा पैर किसी चीज़ से जा टकराया और ट्रे पर रखा पानी का गिलास, मेरी तरफ पीठ कर के खड़े व्यक्ति पर जा गिरा।
“हमें नहीं पता था कि आपको हमारी प्यास बुझाने की इतनी जल्दी थी।” वो आदमी मेरी तरफ मुड़ा और हँसते हुए बोला।
उसकी हंसी की झंकार, सुबह की हवा में किसी मधुर संगीत की तरह घुलकर मेरे कानों तक पहुंची और मेरे दिल के उन तारों को छू गयी, जो बिलकुल बेजान हो चुके थे। मैंने माफ़ी मांगने के लिए उसकी उन भूरी आँखों में देखा तो जैसे मैं वहीं कैद हो गयी। वो भी मुझे ही देखे जा रहा था। उसके जैसे हसीन नौजवान की आँखों में अपनी सुंदरता की तारीफ का भाव देखकर, किस औरत को ख़ुशी नहीं होगी? मुझे भी हुई और मैंने शर्म से अपनी नज़रें झुका ली। पर, मैं झुकी पलकों से भी ये अनुमान लगा रही थी कि वो अब भी मुझे ही देख रहा था। लेकिन, अब मैं उसकी वो सुरीली आवाज़ फिर से सुनना चाहती थी। इसलिए, मैंने ही पहल की।
“मुझे माफ़ कर दीजिये,” मैंने उसकी आँखों में देखते हुए धीरे से कहा, “वो, मेरा पैर फिसल गया था।”
“जी, कोई बात नहीं।” वो फिर हंसा, “मैंने तो यूँ ही मज़ाक में कह दिया था। आप, बुरा मत मानिये।”
“आपको सुभाष जी ने भेजा है, न?”
“जी, हाँ, आपके घर के काम की ज़िम्मेदारी मुझ नाचीज़ को ही सौंपी गयी है।” कहते हुए उसने अपने सीने पर हाथ रखा, “मेरा नाम अरमान सक्सेना है। और, आप?”
“मैं, अनाया त्रिपाठी।” मुझे अगले ही पल अपनी गलती का एहसास हुआ और मैंने फौरन उसे सुधारते हुए कहा, “नहीं, अनाया शास्त्री।”
“आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई, अनाया जी।” इस बार वो मुस्कुराया तो उसकी आँखों में एक अनोखी चमक थी।
“मैं आपके लिए पानी ले आती हूँ।”
“जी, नहीं, शुक्रिया,” अरमान ने हाथ हिलाते हुए कहा।
“तो फिर, क्या लेंगे आप?” मैंने बड़े उत्साह के साथ पूछा, “चाय या कॉफ़ी?”
“फिलहाल, तो इजाजत लूँगा।” कहकर अरमान ने अपने हाथ जोड़े।
“आप जा रहे हैं?” ये सवाल अपने आप ही मेरे मुँह से निकल पड़ा।
“हाँ, कुछ और कंस्ट्रक्शन साइट्स पर भी काम देखना है, मुझे।” उसने जाने की बात कह तो दी, मगर वो अपनी जगह पर ही खड़ा रहा।
मैंने भी सर हिलाकर अनुमति तो दे दी, पर हम दोनों के ही कदम आगे नहीं बढ़ पाए।
“आपके यहाँ का काम पूरा होने में महीने भर से ऊपर का समय लग जायेगा।” उसने एक कदम आगे बढ़ाते हुए कहा।
मेरा मन हुआ उससे पूछने का की 'आप फिर कब आएंगे'? पर, मैंने ये सोचकर अपने आप को रोक लिया कि ये सवाल पूछने का भला मुझे क्या अधिकार बनता है?
“मैं, कल सुबह फिर आऊंगा।”
उसने बिना पूछे ही मेरे सवाल का जवाब दे दिया, जैसे उसने मेरे मन की आवाज़ सुन ली हो। मैंने हैरान होकर उसे देखा, तो वो मुस्कुराया और बाहर चला गया।
उसके जाने के बाद भी, उसकी आवाज़, मेरे कानों में गूंजती रही। किचन में काम करते वक़्त, मुझे बार-बार ऐसा लगता कि वो मेरे पीछे खड़े होकर मुस्कुरा रहा है। और, उसकी वो भूरी आँखें तो मेरा पीछा छोड़ती ही नहीं थी। रात को खाने की मेज़ पर, हमेशा की तरह विवेक और चिराग अपनी ही दुनिया में मग्न थे। लेकिन, आज मैंने वो अकेलापन महसूस नहीं किया, जो मैं अक्सर उनके साथ रहकर महसूस करती थी। मुझे ऐसा लग रहा था कि वो सुबह वाला अजनबी, अब भी मेरे साथ है। रात को जब विवेक, चिराग के कमरे में सोने चले जाते थे तो मैं एक अजीब-सा खालीपन महसूस किया करती थी। मगर आज रात, तो वो एहसास भी न जाने कहाँ खो गया था। ये मुझे क्या हो रहा है? हे! ईश्वर, ये कैसी परीक्षा ले रहे हो मेरी?”
* * *
“तो, उस तूफ़ान का नाम अरमान है।” ऋचा ने सर हिलाया और कहा, “हर औरत के मन में किसी का प्यार पाने की लालसा होती है। अनाया के पति को तो उससे प्यार था नहीं। इस स्थिति में उसका किसी और की तरफ खींचे चले जाना बिल्कुल स्वाभाविक है।”
रात काफी हो चुकी थी। अगर, कार्तिक ने ऋचा को जागते हुए देख लिया होता तो वो बहुत नाराज़ होता। ऋचा ने सोचा कि अब सो जाना चाहिए। उसने डायरी को बंद करके मेज़ पर रख दिया और लाइट बंद कर दी।
लेकिन, आगे की कहानी जानने की जिज्ञासा उसे सोने ही नहीं दे रही थी। कुछ देर तो वो करवट बदल-बदल कर सोने की कोशिश करने लगी। बहुत देर तक जब नींद न आयी तो वो उठी और कमरे की लाइट ऑन कर दी। उसने जल्दी से मेज़ पर पड़ी डायरी उठा ली और आगे पढ़ने लगी।
डायरी में अगली एंट्री दो हफ्ते बाद की थी जिसमें कुछ इस प्रकार लिखा था–
“पिछले दो हफ़्तों से अरमान हर दिन सुबह घर का काम देखने आते थे। मैं उन्हें चाय या पानी देने ऊपर जाती थी। हम एक-दूसरे से दस-पंद्रह मिनट, यूँ ही इधर-उधर की बातें करते और उसके बाद वो चले जाते थे। उनसे थोड़ी देर बात करके, मुझे बहुत सुकून मिलता था। शायद, इसकी वजह मेरा अकेलापन ही था। यूँ तो दुनिया की नज़र में एक परिवार था मेरे साथ, पर सच तो यही हैं न कि मेरे साथ सिर्फ मेरी तन्हाई ही है। मेरे पति को मेरे हाल-चाल जानने में न कोई दिलचस्पी थी, न उनके पास मेरे लिए कभी वक़्त होता था। मेरा होना या न होना, मेरे अपनों के लिए तो कोई मायने नहीं रखता था। इसलिए, अगर कोई ग़ैर, मुझे अपनी ज़िन्दगी से दस मिनट भी दे दे और मुझसे थोड़ी भी सहानुभूति दिखाए तो कितनी ख़ुशी मिलती है, ये मेरे लिए लफ़्ज़ों में लिख पाना नामुमकिन है। अपनी तन्हाई बाँटने के लिए मुझे एक दोस्त की ज़रूरत थी, और मेरी ये ज़रूरत अरमान ने पूरी कर दी थी। दिन में केवल दस मिनट उनसे बात करके मुझे ऐसा लगता था कि मैंने हमेशा के लिए तन्हाई के ग़म से छुटकारा पा लिया है।
आज सुबह विवेक, चिराग को चिड़ियाघर दिखलाने ले जाने वाले थे। हालाँकि, मुझे चिड़ियाघर देखने का तो कोई शौक नहीं था मगर मैंने काफी दिनों से घर की चार दीवारी के बाहर की दुनिया नहीं देखी थी। इसलिए, मैंने सोचा अरमान को चाय देने के बाद मैं भी उनके साथ चली जाऊँ। मैं चाय लेकर ऊपर गयी तो मैंने देखा की विवेक भी वहीं खड़े थे।
“विवेक, क्या मैं भी आप लोगों के साथ आ सकती हूँ?”
“तुम क्या बच्ची हो अनाया, जो चिड़ियाघर देखना चाहती हो?” विवेक हँसते हुए बोले, “यहाँ ऊपर के कमरों में पुताई का काम चल रहा है। काम की देख-रेख के लिए, तुम्हारा यहाँ घर पर रहना ही ठीक रहेगा।”
“मैं बहुत दिनों से कहीं बाहर नहीं गयी।” कहते हुए मेरा चेहरा उतर गया।
“एक बार यहाँ का काम ख़त्म हो जाये, फिर तुम्हें भी साथ ले चलेंगे।” कह कर विवेक ने बात टाल दी।
मैं चुप रही क्योंकि मुझे पता था ऐसा कभी नहीं होगा। घर का काम ख़त्म हो भी जाए, तब भी विवेक मुझे, खुद से दूर रखने का कोई और बहाना ढूंढ ही लेंगे।
“आप लोग जाइए विवेक बाबू, यहाँ का काम मैं देख लूंगा।” मुझे निराश होते देख, अरमान बोले, “आज किसी और साइट पर काम नहीं चल रहा है, इसलिए मैं दिन भर यहीं रहूँगा।”
“तब तो आपको चाय-पानी देने के लिए अनाया को यहाँ ज़रूर रहना चाहिये।” विवेक ने अरमान के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
“अरे! आप उसकी फ़िक्र न करें,” अरमान मुस्कुराये।”आप जाने से पहले एक जग में पानी या चाय भरकर यहाँ रख दीजिये, बस दिन भर के लिए बहुत होगा। अब, अनाया जी इतना आग्रह कर रही हैं तो साथ ले ही जाइए न, विवेक बाबू।”
“नहीं अरमान, आप हमारे मेहमान हैं। आप जब तक यहाँ हैं, हममें से किसी-न-किसी का यहाँ होना भी ज़रूरी है।” विवेक ने साफ़ कह दिया, “अनाया, मैं तुम्हें फिर कभी साथ ले जाऊंगा।” इतना कहकर विवेक चले गए और मैं दुखी मन से उन्हें घर से बाहर जाते हुए देखती रही।
“आप बाहर की दुनिया देखना चाहती हैं न, अनाया?” विवेक के जाने के बाद अरमान ने मुझसे कहा, “चलिए, मैं आपको अपने बिलासपुरा की सैर कराता हूँ।”
“रहने दीजिये, अरमान जी,” मैंने रूखे स्वर में कहा, “मेरे सर में दर्द है। मेरा कहीं बाहर जाने का मन नहीं है।”
“लेकिन, आपको बिलासपुरा देखने के लिए बाहर जाने की ज़रूरत तो है ही नहीं।” अरमान अपनी हँसी को दबाते हुए बोले।
“क्या मतलब है, आपका?” मुझे ये सोचकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि हमेशा समझदारी की बातें करने वाला ये इंसान, आज ऐसी अटपटी बात क्यों कर रहा है।
“आइये, हम आपको असली बिलासपुरा दिखाते हैं।” ये कहकर अरमान ने मेरा हाथ पकड़ लिया और खींचते हुए मुझे मुंडेर के पास ले गये।
अरमान ने अपनी पॉकेट से एक दूरबीन निकाली और अपनी आँखों पर लगाकर थोड़ी देर उत्तर दिशा को ताकते रहे। फिर, उन्होंने वो दूरबीन मेरे हाथों में पकड़ा दी। मैं, हैरान होकर उन्हें ही देखती रही।
“ये दूरबीन अपनी आँखों पर लगाकर उस तरफ देखिये।” अरमान ने उँगली से उत्तर की ओर इशारा किया।
मैंने बिना कुछ पूछे, ठीक वैसा ही किया। दूरबीन से मैंने, एक घर की छत पर एक औरत और मर्द को बैठे देखा, जिनमें किसी बात पर बहुत ही घमासान बहस हो रही थी।
“ये हैं, श्री रणजीत ओझा और उनकी धर्मपत्नी।” अरमान बोले, “ये एक आदर्श दम्पति हैं। इन दोनों का आपसी प्यार, समझ और अर्पण भाव पूरे बिलासपुरा के लिए एक मिसाल है।”
“हैं?” मैंने आँखों से दूरबीन हटाकर अरमान को देखा, “क्या सच-मुच?”
मेरी बात सुनकर अरमान हँस-हँसकर लोटपोट हो गए। मुझे पहले तो कुछ समझ न आया। फिर मैंने सोचा शायद अरमान ने कोई व्यंग्य कसा होगा।
“मैं समझ सकता हूँ, अनाया,” अरमान ने अपनी हँसी को काबू में किया और कहा, “उनके बीच जिस गरमा-गर्मी से चर्चा चल रही है, उसे देखकर आपको तो क्या, किसी को भी मेरी बात का विश्वास करना बहुत कठिन ही लगेगा। लेकिन, मैंने जो कहा वो सब सच है। अब, आप सोच रही होंगी कि फिर आज उनके बीच ऐसा क्या हो गया? देखिये, दरअसल बात ये है कि श्री ओझा, सत्तारूढ़ दल के समर्थक हैं जबकि उनकी पत्नी विरोधी दल की। जब भी इन दोनों परस्पर विरोधी दलों में किसी राजनीतिक मुद्दे को लेकर बहस होती है, ओझा जी के घर की शान्ति भी भंग हो जाती है। और जैसे ही दोनों दलों के नेता बैठकर अपने मतभेद को सुलझा लेते हैं, वैसे ही ओझा जी के घर मैं भी 'युद्ध-विराम' घोषित हो जाता है।”
“तो ये बात है!” मुझे अरमान की बात सुनकर हँसी आ गयी।
“और, वो देखिये उस तरफ,” अरमान ने फिर उँगली से इशारा किया, “ओझा जी के घर से दो घर आगे, वहाँ। एक मोटे से आदमी को देख रही हैं, न?”
मैंने दूरबीन से एक भारी-भरकम आदमी को देखा जो अपने बंगले से निकलकर बाहर बगीचे की ओर आ रहा था। वो हाथ में एक बक्सा लिए हुए था और अपने मोटापे की वजह से बहुत धीमी गति से ही चल पा रहा था। उसने अपने आउट हाउस का दरवाज़ा खोला और चोरी से चारों तरफ देखा। फिर वो अपने बक्से को सीने से लगाए उसके अंदर घुस गया।
“वो हैं, हमारे सेठ घनश्याम जी।” अरमान मुस्कुराते हुए बोले, “जितने बड़े रईस हैं, उतने ही बड़े कंजूस भी। और, ये है उनका काला धन छुपाने का ख़ुफ़िया अड्डा।”
“अरे वाह! अरमान जी,” मैंने हँसते हुए कहा, “आप तो सबके राज़ जानते हैं।”
“अभी तो और भी बहुत है।” अरमान के चेहरे पर एक नटखट-सी मुस्कराहट थी, “वो देखिये, सेठ घनश्याम के बगल वाले घर के बरामदे में जो 15-16 साल का लड़का पढ़ाई करता हुआ दिख रहा है न, वो राहुल है। इस साल दसवीं क्लास की परीक्षा दे रहा है। दूर से देखने में आपको लगेगा कि बड़े लगन के साथ पढ़ाई कर रहा है। लेकिन, ज़रा गौर से देखिये अनाया जी, वो बार-बार अपने मोबाइल फ़ोन का सिम कार्ड बदल रहा है।”
“हाँ, मगर वो क्यों?”
“वो अलग-अलग फ़ोन नंबर से अपनी कई सारी प्रेमिकाओं को सन्देश भेज रहा है।”
“अच्छा, बच्चे,” मुझे उसकी चालाकी समझ में आयी तो उस पर गुस्सा भी आया और हँसी भी, “तुम्हारे माँ-बाप से तुम्हारी शिकायत करनी ही पड़ेगी।”
“राहुल के मामले में तो कहा जा सकता है कि उसकी उम्र का दोष है।” अरमान ने एक ठंडी आह भरकर कहा, “पर हमारे परमार जी के बारे में आप क्या कहेंगी जिन्हें पचास साल की उम्र में प्यार हो गया है।”
“क्या?” सुनकर मुझे विश्वास नहीं हुआ।
“जी, हाँ,” कहते हुए अरमान ने अपनी पलकेँ झपका ली, “वो देखिए, उधर उनका घर है। दोपहर का वक़्त है और उनकी पत्नी सो रही हैं। अब, वो सैर करने के बहाने, घर से सज-सँवर कर निकलेंगे। लेकिन, सीधे जायेंगें दूध की डेयरी की तरफ, जहाँ उनकी प्रेमिका माला काम करती है। परमार जी को अपनी पत्नी में कोई दिलचस्पी नहीं है, जो कि देखने में काफी कुरूप है। इसलिए, उनका दिल एक खूबसूरत विधवा पर आ गया है।”
“मुझमें क्या कमी है, अरमान जी?” परमार की कहानी सुनकर मेरा दिल बैठ गया।
“आप में तो कोई कमी या खामी मुझे नज़र नहीं आती, अनाया।” अरमान ने मुझे पल भर में सर से पाँव तक देखकर कहा।
“फिर, मेरे पति को मुझसे प्यार क्यों नहीं है?” पता नहीं ये बात मुझे अरमान से कहनी चाहिए थी या नहीं, लेकिन कहकर मुझे ऐसा लगा कि मेरे मन से कोई बहुत भारी बोझ उतर गया हो।
“ये तो मुझे नहीं पता, अनाया,” कहते हुए अरमान ने अपनी नज़रें झुका ली, “लेकिन, इतना ज़रूर यकीन के साथ कह सकता हूँ कि आप में कोई कमी नहीं है। आप, खुद को दोष मत दीजिये।”
अगर मुझ में कोई खोट नहीं था, तो खोट ज़रूर मेरी किस्मत में रहा होगा। वर्ना, ये सब मेरे साथ कतई नहीं होता। लेकिन जो भी हो, अरमान की बातों ने मेरे ज़ख्मों पर मलहम ज़रूर लगा दी।
* * *
“तुम्हारे साथ किस्मत ने अन्याय ही किया है, अनाया।” ऋचा ने एक ठंडी आह भरते हुए कहा, “अगर, विवेक तुम्हें मन से अपना नहीं सकते थे, तो उन्हें तुमसे शादी भी नहीं करनी चाहिए थी। सिर्फ अपने बारे में सोचने वाले विवेक को स्वार्थी कहना गलत न होगा। मजबूरी में ही सही, उन्होंने अगर तुमसे शादी की है तो उस रिश्ते को सच्चे अर्थों में निभाना भी तो चाहिए था। वो अपनी उस पत्नी को ही प्यार करते रहे, जो मर चुकी है और जो जीवित है, उसके बारे में तो कभी सोचा ही नहीं। आखिर, अनाया के भी तो कुछ अरमान...” अरमान का नाम लेते ही ऋचा बोलते-बोलते रुक गयी।
“अरे! हाँ, अरमान,” ऋचा ने हाथों में पकड़ी हुई डायरी को देखा और कहा, “मैं भी न, पूरी कहानी पढ़ी भी नहीं और टिप्पणी करने बैठ गयी। देखें तो सही, अनाया और अरमान की कहानी आगे किस रंग में ढल जाती है।” ऋचा ने जल्दी-जल्दी कुछ खाली पन्ने पलटे। पिछली एंट्री के एक सप्ताह बाद के पेज पर अनाया ने आगे की कहानी लिखी थी।
“आज, मेरा सबसे प्रिय त्यौहार, दीवाली है। शादी के बाद ये मेरी पहली दीवाली है। कहते हैं, दीवाली प्रकाश का पर्व होता है। मैं भी यही उम्मीद लगाए बैठी थी कि शायद आज मेरे जीवन की अमावस भी प्यार की रोशनी से भर जाए। वैसे, ये उम्मीद तो मैं हर रोज़ अपने पति से लगाती थी और हर बार निराशा ही हाथ लगती थी। लेकिन सोचा, आज फिर एक कोशिश कर के देख लूँ। इसके सिवा मैं और कर भी क्या सकती थी?
आज सुबह, मैं बहुत जल्दी उठ गयी। मुझे बहुत सारी तैयारियाँ जो करनी थी। मेरे मन में एक अलग ही उत्साह था। लेकिन, विवेक के चेहरे पर मैंने आज भी कोई खास उमंग नहीं देखी। वे रोज़ की तरह ऑफिस जाने को तैयार हो गए। मेरे पूछने पर उन्होंने ये कहकर मुझे टाल दिया कि उन्हें ऑफिस में कुछ बहुत ज़रूरी काम है, जिसे आज ही पूरा करना होगा। मैं जानती थी कि माया के जाने बाद, उन्होंने कभी दीवाली नहीं मनाई। भला ऐसे में, मैं विवेक से कैसे उम्मीद कर सकती थी कि वो दीवाली के दिन खुश नज़र आएं? लेकिन, चाहे जो भी हो, कभी-न-कभी तो उन्हें अपने अतीत के गम से उभारना ही होगा। इसलिए, मैंने फैसला किया कि मैं बहुत सादे तरीके से ही सही पर दीवाली मनाऊंगी ज़रूर। चिराग, दीवाली की छुट्टियों में अपने ननिहाल गया हुआ था। विवेक के ऑफिस चले जाने के बाद, मैंने घर की साज-सजावट का काम शुरू कर दिया। कुछ स्वादिष्ट पकवान भी बनाये। दोपहर को ही दीयों में तेल भरकर रख दिया ताकि शाम को पूजा के बाद उन्हें जला कर पूरे घर में सजा दूँ। अब बस, रंगोली बनानी ही बाकी रह गयी थी। विवेक कह कर गए थे कि शाम को जल्दी आ जायेंगे। इसलिए, मैं शाम होने से पहले ही नहा-धोकर, नयी साड़ी पहनकर तैयार हो गयी। मैंने अपनी दोनों कलाइयाँ चूड़ियों से भर ली। आँखों में काजल डाला, माथे पर बिंदिया लगायी और अपनी मांग को सिन्दूर से भर लिया। जब मेरी आँखें, सामने शीशे में मेरी परछाई से मिली तो अपना रूप-लावण्य देखकर मुझे स्वयं लाज आ गयी। मैं आईने के सामने बैठी साज-शृंगार कर ही रही थी की फ़ोन की घंटी बजी। मुझे लगा, विवेक होंगे फ़ोन पर इसलिए मैं हॉल की तरफ दौड़ी।
“हेलो,” फ़ोन का रिसीवर उठाकर मैं हाँफते हुए बोली।
“सुनो,” फ़ोन पर विवेक धीरे से बोले, “मैं आज ज़रा देर से आऊंगा। ऑफिस में बहुत काम है। तुम खाना खाकर सो जाना। मेरा इंतज़ार मत करना।”
मेरे जवाब का इंतज़ार किए बिना ही विवेक ने फ़ोन रख दिया।
मेरी सारी खुशियाँ, सारा उत्साह एक पल में ख़त्म हो गया। मैं उस सदमे में वहीं कुर्सी पर स्तब्ध-सी होकर बैठ गयी। आस-पास के घर दीयों की रोशनी से जगमगा उठे थे। पटाखों की आवाज़ भी चारों तरफ गूंज उठी थी। लेकिन, मुझे न कुछ सुनाई दे रहा था, न दिखाई दे रहा था। मुझे हर ओर केवल शून्यता ही नज़र आ रही थी। न जाने मैं उस स्थिति में कितनी देर बैठी रही? मुझे वक़्त का कोई होश नहीं रहा। तभी दरवाज़े की घण्टी बजी और मैं चौंक उठी। अँधियारों में घिरे मेरे मन के किसी कोने में उम्मीद का एक छोटा-सा दीपक जल उठा। मुझे लगा, शायद विवेक अपना काम ख़त्म कर जल्दी आ गये हो। मैं उठी और दरवाज़ा खोल दिया।
“विवेक बाबू हैं?” दरवाज़े पर अरमान थे, “मैं आप लोगों के लिए कुछ मिठाईयाँ लाया हूँ।”
“अंदर आइए,” मैंने उनके हाथ से मिठाई का डिब्बा लेते हुए कहा।
“क्या बात है, अनाया?” अरमान इधर-उधर नज़र घुमाते हुए बोले, “आज दीवाली है और आपने अपने घर में दिये नहीं जलाये। विवेक बाबू, कहाँ हैं?”
“वो दीवाली नहीं मनाते,” मैंने अपने दुःख को एक नक़ली मुस्कान के मुखौटे के पीछे छुपाने की कोशिश नहीं की जैसा कि शायद मुझे करना चाहिए था, “उनसे मिलना है तो उनके ऑफिस चले जाइए।”
“भला, ऐसा क्यों?”
“उनकी पत्नी माया की मौत एक कार दुर्घटना में हुई थी।” मैंने हाथ से अरमान को बैठने का इशारा किया और वापस अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गयी, “वो अपनी कार लेकर दीवाली की खरीददारी करने गयी थी। वापस आते वक़्त, समाने से आती ट्रक ने उसकी कार को कुचल दिया और उसकी मौत हो गयी। उसके बाद से विवेक ने दीवाली मनाना ही छोड़ दिया।”
“और तुम, अनाया?”
“क्या मतलब?” अरमान के इस सवाल का अर्थ मुझे समझ न आया।
“माया तो मर चुकी है।” अरमान ने बड़े ही शांत स्वर में कहा, “पर, तुम तो ज़िंदा हो। हर जीवित इंसान की तरह तुम्हें भी अधिकार है खुश रहने का। ईश्वर की दी इस ज़िन्दगी को भरपूर जीने का। तुम क्यों यूँ खुद को बेमौत मार रही हो?”
“तो फिर मैं क्या करूँ, अरमान?” मैंने अपना सर अपने हाथों में थाम लिया, “आपको क्या लगता है मुझे क्या शौक है, इस तरह अपनी ज़िन्दगी को जहन्नुम बनाने का? पर क्या करूँ, हालातों ने मुझे मजबूर बना रखा है।”
“तुम्हें मजबूर खुद तुमने बना कर रखा है, अनाया।” अरमान की आवाज़ में अचानक आक्रोश आ गया, “हालातों को दोष मत दो।”
“ये आप कह रहें है?” मैंने बड़ी बेरुखी से अरमान को देखा, “आप तो मेरी हालत जानते हैं। आपसे कभी कुछ नहीं छुपाया, मैंने। आप अच्छी तरह से जानते हैं मेरे और मेरे पति के बीच कैसा रिश्ता है। फिर, भी आप मुझे ही दोष दे रहे हैं?”
“हाँ, हाँ, अनाया,” अरमान ने तैश में आकर मेज़ पर ज़ोर से अपना हाथ दे मारा, “इसमें दोष तुम्हारा ही है। क्यों तुम उस पत्थर की पूजा कर रही हो जिसके मन में तुम्हारे लिए रत्ती भर भी प्यार नहीं है? क्यों तुम ऐसे आदमी के लिए खुद को तिल-तिल कर मार रही हो जिसे तुम्हारी ज़रा भी फ़िक्र नहीं? ये गलती तुम्हारी नहीं है तो किसकी है? क्यों तुम्हें खुश रहने के लिए किसी और की ज़रूरत है? क्या तुम अपने लिए खुशियाँ खुद नहीं ढूँढ़ सकती? अगर, विवेक माया की मौत का मातम मना रहा है, तो तुमने क्यों अपनी ज़िन्दगी को ग़म में डूबा रखा है? विवेक को तो तुम्हारे सुख-दुःख की कोई चिंता नहीं। फिर, तुम क्यों उसके दुःख को अपनी नियति मान रही हो? तुम अपनी ज़िन्दगी ख़ुशी-ख़ुशी जियो, हँसों, गाओ, हर त्यौहार धूम-धाम से मनाओ।”
“मैं ऐसा इसलिए नहीं कर सकती मिस्टर सक्सेना, क्योंकि शादी के बाद पत्नी का सुख-दुःख उसके पति से जुड़ जाता है।” मुझे ऐसा लगा कि अरमान सब कुछ जानते हुए भी मेरी मजबूरियों का मज़ाक उड़ा रहा है और ये सोचकर मुझे उस पर गुस्सा आ गया।
“तो क्या पति का सुख-दुःख पत्नी से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए?” अरमान ने मुझे घूरते हुए पूछा, “तुम्हारे पति को तो खबर भी नहीं होगी कि तुम यहाँ उसकी याद में आँसू बहा रही हो।”
“मैं इस तन्हाई को और बर्दाश्त नहीं कर सकती, अरमान।” मैंने अरमान की तरफ पीठ कर ली, “मुझे भी किसी का प्यार चाहिए। मुझे भी किसी का साथ चाहिए। मैं चाहती हूँ कि कोई मेरा भी हाथ थाम कर कहे कि वो मुझे बहुत प्यार करता है। और ज़िन्दगी में चाहे जो हो जाये, वो हर हाल में मेरा साथ निभाएगा। मुझे आज़ादी नहीं, प्यार का बन्धन ख़ुशी देता है। इसीलिए, ये जानते हुए भी कि विवेक को मुझसे प्यार नहीं है और शायद कभी होगा भी नहीं, मैं हमेशा उनका प्यार पाने की कोशिश करती रहती हूँ।”
तभी अरमान ने मेरी बाँह पकड़कर अपनी ओर खींच लिया और मुझे अपनी बाँहों में जकड़ लिया।
“अरमान!” मैंने खुद को छुड़ाने की कोशिश की तो अरमान ने मेरे दोनों हाथों को पीछे मेरी कमर पर कसकर पकड़ लिया।
“क्यों करती हो उस ज़ालिम से इतना प्यार?” अरमान ने धीरे से मेरे चेहरे पर हाथ फेरा और झुककर मेरे कानों में कहा, “कितनी खूबसूरत हो तुम, अनाया। अब, मुझे विवेक से जलन होने लगी है।”
“छोड़िये मुझे!” मैंने अरमान की गिरफ्त से आज़ाद होने के लिए अपना पूरा ज़ोर लगा दिया पर उसकी ताक़त के आगे मैं बहुत कमज़ोर थी।
वो चुप-चाप मुझे अपनी बाँहों में छटपटाते हुए देख रहा था जैसे मानो मेरी बेबसी का मज़ा लूट रहा हो। मेरा दिल ज़ोरों से धडकने लगा और मैं पल भर में ही पसीने से नहा गयी। मैं खुद को छुड़ाने की कोशिश करती रही, ये जानते हुए भी कि वो मुझसे कहीं गुना ज़्यादा ताकतवर है। बहुत ज़ोर लगाने पर भी जब मैं छुड़ा न सकी, तब मेरा मन किया कि मैं ज़ोर से चिल्लाऊँ। पर, चारों तरफ पटाखों का शोर था। उस शोर-गुल में मेरी आवाज़ कोई नहीं सुन पाता। मैं इतना डर गयी कि मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। मेरी मदद करने वाला कोई नहीं था और अब अरमान मुझे बड़ी आसानी से अपना शिकार बना सकता था। उसकी हवस की बलि चढ़ने के ख़ौफ़ ने मेरे विरोध करने की ताकत को तोड़कर मुझे अपने काबू में कर लिया था। ऐसी हालत में चिल्लाना तो दूर की बात थी, मेरे मुँह से तो आवाज़ ही नहीं निकल रही थी कि मैं अरमान से अपने लिए दया की भीख माँग सकूँ। उसकी आँखों में अपने लिए प्यास देखकर मेरा बदन थर-थर काँपने लगा। मुझे चक्कर आने लगा और मैं आधी-बेहोशी की हालत में अरमान की बाँहों में ही गिर पड़ी। उसने मुझे फौरन थाम लिया। मैं अब विरोध करने की स्थिति में नहीं थी इसलिए अरमान ने मुझ पर अपनी पकड़ ढ़ीली कर दी थी। उसने बड़े प्यार से मुझे बाँहों में भर लिया और मेरी पीठ पर हाथ फेरकर मुझे तसल्ली देने लगा।
“आँखें खोलो, अनाया।”
अरमान ने धीरे से मेरे गालों पर थपकियाँ दी तो मुझे होश आया। मुझे अब भी चक्कर आ रहा था लेकिन फिर भी मैंने धीरे से आँखें खोलकर अरमान को देखा।
“मैं तुमसे प्यार करता हूँ, अनाया।” अरमान ने धीरे से कहा, “और, मैं हर हाल मैं तुम्हारा साथ निभाऊँगा।”
मुझे उसकी आँखों में वो प्यार नज़र आया जिसके लिए मैं आज तक तरस रही थी। उसने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया और प्यार से मेरे होंठों को चूमा। उसके होंठों के स्पर्श ने मुझे ये एहसास दिलाया कि मैं भी किसी का प्यार पाने के काबिल हूँ। मुझे लगा, मेरे जीवन में भी प्यार के कई हज़ार दीप एक साथ जल उठे हैं। उसके चुम्बन में जाने क्या नशा था कि मैं भी अपनी सुध-बुध खोकर पागलों की तरह उसे चूमने लगी। वो अमावस की रात दीयों और पटाखों की रोशनी से जगमगा रही था और हम दोनों इस सब से अनजान बस एक-दूसरे में खोये हुए थे। तभी किसी पटाखे की तेज़-तरारी आवाज़ मेरे कानों में गूँजी और मुझे होश आ गया। मुझे एहसास हुआ कि एक अजनबी मुझे अपनी बाँहों में लिए, मेरे साथ प्रेम-क्रीड़ा कर रहा है। उससे भी ज़्यादा दुःख और घृणा मुझे ये जानकर हुई कि मैं भी अपनी मान-मर्यादा भूलकर उसे अपने साथ वो सब करने की इजाजत दे रही थी। मुझे जितना गुस्सा अरमान पर आया, उससे कहीं ज़्यादा नफ़रत और घिन्न अपने आप से हुई। मैंने धक्का देकर खुद को अरमान से अलग कर लिया।
“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे हाथ लगाने की?” खुद के लिए मेरी नफरत मेरी आँखों से आंसुओं के रूप में बह निकली, “मेरे पति को मुझसे प्यार नहीं तो इसका मतलब ये नहीं है कि कोई भी आकर मेरे साथ कुछ भी कर सकता है।”
“ऐसा नहीं है, अनाया,” अरमान ने एक कदम मेरी तरफ बढ़ाया।
मुझे पता था कि अगर उसने मुझे फिर से दबोच लिया तो वो मुझे फिर अपने प्यार का नशा पिलाकर बेसुध कर देगा और मैं कुछ नहीं कर पाऊँगी। इसलिए, मैंने मेज़ पर रखा फूलदान उस पर दे मारा। लेकिन, अरमान झुक गया और वो फूलदान फर्श पर गिरकर टूट गया।
“मेरी बात तो सुनो, अनाया,” अरमान ने अपनी बाहें मेरी तरफ बढ़ायी और कहा, “तुम मुझे गलत समझ रही हो।”
“चले जाओ यहाँ से,” कह कर मैं अपने कमरे में चली गयी और मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया।
मैंने दरवाज़े की कुण्डी लगाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि मुझे चक्कर आ गया। मेरे हाथ ठन्डे पड़ गए और मेरे पैर लड़खड़ाने लगे। कुछ पल बाद, बाहर जल रहे दीयों की रोशनी धीरे-धीरे धुँधलाने लगी और जल्द ही मैं बेहोश होकर वहीं फर्श पर गिर गयी।
* * *
“तुम्हारी जैसी किस्मत ईश्वर किसी को न दे, अनाया।” ऋचा ने एक लम्बी साँस लेते हुए कहा, “तुम्हारे पति ने तुम्हें स्वीकार तो किया, मगर प्यार न कर सका। और जिससे तुम्हें प्यार मिल रहा है, उसे तुम स्वीकार भी नहीं कर सकती।”
रात काफ़ी बीत चुकी थी। सुबह होने में अब वक़्त भी कम था और ऋचा में आगे की कहानी जानने की उत्सुकता भी बढ़ रही थी। उसने जल्दी से अनाया की डायरी का अगला पेज पलटा और आगे की कहानी पढ़ने लगी।
“मुँह पर पानी के छींटे पड़े तो मुझे होश आया। मैंने देखा विवेक मेरे सामने खड़े थे। उनके हाथ में पानी का गिलास था। खिड़की के बाहर से इधर-उधर जलते कुछ दीयों की रोशनी नज़र आ रही थी लेकिन अब पटाखों का शोर शांत हो चुका था और चारों तरफ सन्नाटा था। मुझे लगा रात काफी हो चुकी है। मैं बहुत देर से बेहोश थी इसलिए मुझे वक़्त की कोई खबर न थी। विवेक को देखते ही मेरे चेहरे का रंग उड़ गया और मैं फौरन उठ खड़ी हुई। विवेक मुझे सहारा देकर पलंग तक ले गए और वहाँ बिठा दिया।
“खाना खाया, तुमने?” पूछते हुए विवेक मेरे पास ही बैठ गए।
मैं हमेशा से चाहती थी कि विवेक यूँ मेरे पास बैठकर मुझसे चंद बातें करें। लेकिन, वो हमेशा मुझसे दूर-दूर ही रहे। पर, आज जब वो मेरे पास बैठें हैं तो खुश होने की बजाय मुझे डर लग रहा था। आज, जो मेरे और अरमान के बीच हुआ, उसके बाद मेरी हिम्मत ही नहीं हो पा रही थी कि मैं अपने पति से नज़रें मिला सकूँ। मैं अपने किए पर इतनी शर्मिंदा थी कि मैंने पलकें झुका ली और सिर्फ सर हिलाकर उनके सवाल का जवाब दिया।
“क्यों नहीं खाया?” विवेक ज़रा नाराज़गी से बोले, “मैंने कहा था न मुझे देर हो जाएगी, मेरा इंतज़ार मत करना। वक़्त पर खाना खा लेती तो आज तुम्हारी ये हालत नहीं होती। रात को खाना न खाने की वजह से तुम्हें कमज़ोरी हो गयी होगी। मैं जब आया था तब तुम फर्श पर बेहोश पड़ी थी।”
विवेक ने मेरी तरफ़ देखा, पर मैं चुप ही रही। कहने के लिए मेरे पास था ही क्या? डर और शर्मिंदगी का एहसास मुझ पर इतना हावी हो गया था कि मेरे मुँह से शब्द ही नहीं निकल रहे थे।
“चलो, अब खाना खा लो।” विवेक का स्वर थोड़ा नर्म हुआ।
“नहीं, विवेक,” मैंने अपनी नज़रें नीची ही रखी, “मुझे भूख नहीं हैं।”
“ठीक है,” विवेक उठ खड़े हुए, “मैं तुम्हारे लिए दूध ले आता हूँ। तुम आराम करो।”
उनके जाते ही मैं बिस्तर पर लेट गयी और अपनी आँखें कस कर बंद कर ली। थोड़ी देर बाद विवेक फिर आये और दूध का गिलास मेज़ पर रखकर चले गए। उनके जाते ही मैंने अपनी आँखें फिर से खोल ली। आज मुझे नींद कहाँ आने वाली थी? मैंने कई बार करवट बदल-बदल कर सोने की कोशिश की मगर कोई फायदा न हुआ। बार-बार, मेरे मन में एक सवाल उठता था जिसके बारे में सोचते ही मेरी रूह काँप जाती थी, “कहीं विवेक ने मेरे और अरमान के बीच वो सब होते देख तो नहीं लिया होगा?”
अगले दिन सुबह, खाने की मेज़ पर मैं और विवेक चुप-चाप नाश्ता कर रहे थे। विवेक का पूरा ध्यान आज के अख़बार में छपी खबरों पर केंद्रित था, जिसे वो बड़े चाव से पढ़ रहे थे। मैं अब भी बीती रात के हादसे को भूला नहीं पायी थी। कल रात की घटना से जुड़े घिनौने दृश्य, बार-बार मेरी आँखों के सामने उभर आते और मेरी आत्मा को कचोटते थे। सुबह से न जाने कितनी बार मैं अपने जिस्म पर अरमान की बाँहों के दबाव को महसूस कर चुकी थी, न जाने कितनी बार उसके होंठों का स्पर्श मुझे प्रताड़ित कर चुका था। कभी-कभी तो यूँ भी लगता था कि अदृश्य रूप में अरमान अब भी कहीं मेरे आस-पास ही छुपा बैठा है। वो ताक में बैठा होगा कि कब मुझे धर-दबोचने का मौका उसे मिल जाये। मुझे उसके होंठों की छुवन के ख्याल से भी सिहरन होती थी। डर लगता था कि कहीं फिर से उसने अपनी वासना का जाम मुझे पिला दिया तो उसकी मदहोशी मुझे फिर से मर्यादा की सीमा लांघने पर मजबूर कर देंगी।
मेरा मन, कल रात की अमावस के अँधेरे में भटक ही रहा था कि तभी मेरे मोबाइल फ़ोन की घण्टी बजी। उसकी आवाज़ से मैं चौंक गयी और हक़ीक़त की दुनिया में वापस आ गयी।
मेरी आँखें मेज़ पर रखे फ़ोन की तरफ गयी और मैंने देखा कि वो अरमान का कॉल था। मैंने तुरंत वो कॉल काट दिया और चोरी से विवेक की ओर देखा। विवेक अब भी अखबार पढ़ने में लगे हुए थे।
अगले ही पल, मेरे फ़ोन की घंटी फिर से बजी और अरमान का नंबर देखकर मैंने फिर से काट दिया।
“अगर ज़रूरी कॉल है तो बात कर लो।” विवेक ने अखबार से नज़रें उठाये बिना कहा।
“नहीं, बिलकुल ज़रूरी नहीं है।” मैंने काँपती उँगलियों से अपना फ़ोन स्विच ऑफ करते हुए कहा, “बस यूँ ही, कभी तो बैंक वालों के फ़ोन आते रहते है कि लोन ले लो, क्रेडिट कार्ड ले लो। या फिर मोबाइल फ़ोन कंपनी वालों के फ़ोन आते हैं कि ये ऑफर आया है, वो ऑफर आया है। बस और क्या?”
“हाँ, ये तो है।” विवेक अखबार से नज़र हटाए बिना चाय की चुस्की लेते हुए बोले, “नाक में दम कर रखा है इन लोगों ने।” विवेक की बात ख़त्म ही हुई थी कि लैंड-लाईन फोन की घंटी बज उठी।
“ज़रा, देखो तो कौन है।” विवेक ने जैसे ही कहा, मैं फौरन उठकर फ़ोन की तरफ चल पड़ी।
“हेलो,” रिसीवर कान पर रखने की देर थी की मेरा पूरा शरीर सुन्न पड़ गया।
“अनाया, मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।” फ़ोन पर अरमान की आवाज़ बिजली की तरह कड़क रही थी, “मैं तुम्हारे घर के बाहर ही हूँ। विवेक के ऑफिस जाने के बाद आता हूँ। मुझे तुमसे बहुत ज़रूरी बात करनी है।” उसकी बात सुनते ही मुझे फिर से चक्कर आ गया। मुझे ऐसा लगा कि पूरा घर मेरे इर्द-गिर्द परिक्रमा कर रहा है। मैंने आँखें बंद की और रिसीवर रख दिया। मैं जैसे-तैसे चलकर अपनी कुर्सी तक पहुँची और बैठ गयी।
“किसका फ़ोन था?” विवेक ने अखबार नीचे रख दिया और मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
“पता नहीं,” मेरा गला सूख रहा था, “शायद, कोई यूँ ही ब्लैंक कॉल कर रहा है।”
तभी फ़ोन की घंटी दोबारा से बजी। मुझे पक्का यकीन था कि अरमान ही होगा। मैं फौरन उठ खड़ी हुई।
“तुम बैठो,” विवेक ने हाथ से इशारा किया, “मैं देखता हूँ।”
विवेक की बात सुनकर मेरा दिल बैठ गया। मुझे डर था कि अरमान कहीं विवेक से कोई गलत बात न कह दे। विवेक ने फोन उठाया तो उनका चेहरा एकदम से उतर गया। ये देखकर मैंने अपनी आँखें बंद कर ली। मुझे लगा, एक पल में मेरी ज़िन्दगी ही उजड़ जाएगी। मेरी दुनिया, मेरी नज़रों के सामने ही टूट कर बिखर रही थी।
“अनाया,” विवेक मेरे पास आकर बैठ गए और ज़रा गंभीर स्वर में बोले, “तुम्हारे घर से फ़ोन आया था। तुम्हारे बाबा को कल रात बहुत तेज़ बुखार आया था। पर, चिंता करने की कोई बात नहीं है। अब, उनकी तबीयत काफ़ी सुधर गयी है।”
“क्या?” अरमान के चंगुल से निकलने का एक रास्ता मेरे सामने खुल गया था, “मुझे मेरे बाबा के पास ले चलिए, विवेक। मुझे उनसे मिलना है।”
“ठीक है,” विवेक ने अपनी चाय एक ही घूँट में ख़त्म की और जल्दी से उठ खड़े हुए, “तुम जल्दी से तैयार हो जाओ। तुम्हें, तुम्हारे घर छोड़कर, मैं ऑफिस चला जाऊँगा।”
“जी”
मैंने मन-ही-मन ठान ली थी कि जब तक ऊपर की मंज़िल का काम खत्म न हो जाये, मैं इस घर में वापस नहीं आऊँगी। बाबा की बीमारी का बहाना बनाकर अपने मायके में ही रहूँगी। अरमान से पीछा छुड़ाने का यही सबसे अच्छा उपाय था।”
* * *
ऋचा डायरी के पन्ने पलटने लगी। आगे के कई पन्ने खाली थे। ऋचा की पलकें नींद के बोझ से दबी जा रहीं थी और अब उनमें दर्द और जलन भी हो रही थी। ऋचा ने आँखें मलते हुए घड़ी की और देखा। सुबह के तीन बज चुके थे। वो इतना थक चुकी थी की अब आगे पढ़ना उसके लिए मुमकिन नहीं था। ऋचा ने डायरी बंद की और उसे अपने सीने से लगाकर अनाया की विडम्बना के बारे में सोचने लगी। कुछ पलों में ऋचा की पलकें खुद-ब-खुद की बंद हो गयी और वो नींद के आगोश में समां गयी। डायरी उसके सीने से फिसलकर फर्श पर जा गिरी।
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