शुक्रवार : बारह मई : दिल्ली मुम्बई

सुबह ड्यूटी पर पहुंचते ही सब-इन्स्पेक्टर जनकराज अपने एस.एच.ओ. के हुजूर में पेश हुआ।

“गुड मार्निंग, सर।” — वो बोला।

“आओ, भाई।” — एस.एच.ओ. नसीब सिंह बोला — “बैठो।”

“शुक्रिया, जनाब।”

“क्या खबर है?”

“कल नौ बजे या उसके बाद टी.वी. न्यूज देखीं?”

“नहीं।”

“आज का अखबार?”

“वो भी नहीं। वो क्या है कि कल मैं बीवी बच्चों के साथ एक शादी पर गया था। आठ बजे का गया डेढ़ बजे लौटा था। दो बजे कहीं जा के सो पाया इसलिये आज साढ़े नौ बजे तक नींद न खुली। अब मैं अभी तुम्हारे आगे आगे ही यहां आ के बैठा हूं।”

“फिर तो करारी खबर है आपके लिये।”

“क्या?”

“वो लड़की सुमन — गोल मार्केट के कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स वाली — काम हो गया उसका।”

“अरे! कब?”

“कल दोपहरबाद किसी वक्त।”

“कहां?”

“दिल्ली में ही।”

“लौट आयी?”

“लौटा दी गयी। लाश की सूरत में।”

“क्या किस्सा है, भई।”

“सर, कल नौ बजे की न्यूज में उस लड़की सुमन वर्मा की तसवीर दिखाई गयी थी और बताया गया था कि महिपालपुर रोड पर एक सरकारी मुर्दागाड़ी एक्सीडेंट की शिकार हो गयी थी। उस मुर्दागाड़ी में सुमन वर्मा की लाश बन्द थी।”

“लाश बन्द थी! यानी कि वो एक्सीडेंट की वजह से लाश न बनी?”

“नहीं, साहब। जिन्दा सुमन वर्मा का मुर्दागाड़ी में क्या काम!”

“तो कैसे... कैसे?”

“मैं सब बताता हूं। मुझे अपनी कह लेने दीजिये, फिर सब अपने आप ही स्पष्ट हो जायेगा।”

“कहो। कहो।”

“टी.वी. की वो खबर देखकर सुमन वर्मा की बाबत मेरी उत्सुकता जाग उठी थी। नतीजतन मैं फौरन महरौली थाने पहुंचा था जिसके अंडर कि वो दुर्घटनास्थल आता था। वहां से मुझे मालूम हुआ कि मुर्दागाड़ी एक खड्ड में जा गिरी थी और उसमें आग लग गयी थी। गाड़ी में एक ताबूत लदा हुआ था जो कि बाहर आ गिरा था और एक पहलू के बल उलटी गाड़ी के नीचे एक तिहाई दब गया था। गिरते वक्त ताबूत खुल गया था और उसमें से लाश नुमायां होने लगी थी।”

“ये गारन्टी कैसे है कि वो लाश ही थी? क्या इसलिये कि वो ताबूत में बन्द थी और ताबूत मुर्दागाड़ी में था?”

“नहीं, साहब। सिर्फ इसलिये नहीं। वो क्या है कि उस लाश का पोस्टमार्टम हुआ हुआ था। गले से लेकर पेट तक सिली हुई वो साफ दिखाई देती थी।”

“तुमने लाश देखी थी?”

“जी हां। वो यकीनन सुमन वर्मा की लाश थी।”

“तुम कहते हो कि एक्सीडेंट के बाद मुर्दागाड़ी में आग लग गयी थी। तो फिर लाश जलने से कैसे बच गयी?”

“जलने से नहीं बची थी लेकिन पूरी नहीं जल सकी थी।”

“क्यों?”

“क्योंकि ऐसा हो पाने से पहले फायरब्रिगेड वालों ने मौकायवारदात पर पहुंचकर आग बुझा दी थी। सड़क पर से किसी ने उस आग का नजारा किया था और अपने मोबाइल फोन से फायरब्रिगेड को फोन कर दिया था। फायरब्रिगेड आनन फानन वहां पहुंचा था इसलिये सब कुछ स्वाहा हो चुकने से पहले आग बुझा दी गयी थी। नतीजतन लाश का चेहरा और कन्धे जलने से साफ बच गये थे, छाती और पेट महज झुलसे थे लेकिन कमर के नीचे का तमाम हिस्सा जल कर कोयला हो गया था।”

“ओह! मुर्दागाड़ी के ड्राइवर पर क्या बीती?”

“वो वहां नहीं था।”

“यानी कि एक्सीडेंट होने पर वैन को छोड़ कर भाग गया था?”

“साहब, सरकारी मुर्दागाड़ी का ड्राइवर भाग कर कहां जा सकता था?”

“क्या कहना चाहते हो?”

“वो गाड़ी चोरी की थी।”

“यानी कि वो ड्राइवर फर्जी था?”

“यकीनन। साबित हो चुका है। महरौली थाने वाले गाड़ी के असली ड्राइवर से बात कर भी चुके हैं जो कि गाड़ी को मरम्मत के लिये निकलसन रोड की एक रिपेयर शाप में छोड़ कर आया था। वो निगमबोध घाट की गाड़ी थी जो कि रिपेयर शाप से चुराई गयी थी।”

“उस लाश को ढोने के लिये?”

“जाहिर है।”

“कहां से ढोने के लिये? कहां थी लाश? क्या किस्सा है?”

“लाश क्योंकि ताबूत में बन्द थी और ताबूत पर क्योंकि इन्डियन एयरलाइन्स का एयर फ्रेट का स्टिकर लगा हुआ था इसलिये एयरपोर्ट पर उस बाबत तफ्तीश की गयी थी। पता लगा था कि कल इन्डियन एयरलाइन्स की दोपहर की फ्लाइट से तीन ताबूत पहुंचे थे। उसमें से दो के क्लेमेंट प्लेन पर उनके साथ ही आये थे। तीसरा कार्गो के तौर पर सैल्फ की बुकिंग पर दिल्ली पहुंचा था इसलिये उसे छुड़ाने वाले का कोई नाम पता दिल्ली एयरपोर्ट पर इन्डियन एयरलाइन्स के कार्गो आफिस में उपलब्ध नहीं है। बाकी दो ताबूतों की बाबत ऐसी जानकारी उपलब्ध थी इसलिये महरौली थाने वालों ने उन्हें मुम्बई से लाने वालों से बात कर ली थी।”

“इसका तो साफ मतलब हुआ कि वो तीसरा, सैल्फ वाला, ताबूत ही था जो कि दुर्घटना की शिकार मुर्दागाड़ी में बन्द था!”

“बिल्कुल!”

“यानी कि वो लड़की, वो सुमन वर्मा, ट्रेन पर सवार होकर मुम्बई गयी और दो दिन बाद, कल, लाश बन कर दिल्ली लौटी!”

“वैसे तो, साहब, इतनी ही बात कम रहस्यपूर्ण नहीं लेकिन बात इतनी ही होती तो भी गनीमत थी।”

“यानी कि अभी और भी पोल है?”

“बहुत बड़ी। ढोल की पोल जितनी बड़ी।”

“क्या किस्सा है?”

“उस अधजली लाश को पोस्टमार्टम के सुपुर्द किया गया था क्योंकि एक्सीडेंटल केस में ऐसा ही दस्तूर है। नये पोस्टमार्टम में ये पाया गया था कि मौत हुए अड़तालीस घन्टे हो चुके थे। ये मामूली, प्रोसीजरल बात है। जो खास, हैरान कर देने वाली, बात है वो ये है कि लाश में से उसका दिल, जिगर और आंतें गायब थीं।”

“हे भगवान! लाश क्या किसी अघोरी या किसी चाण्डाल के पल्ले पड़ गयी थी जो...”

“और लाश की पसलियों के पिंजर में प्लास्टिक की एक थैली फंसी पायी गयी थी जिसमें कि सौ ग्राम प्योर हेरोइन थी। यानी कि उस एक थैली में लाखों का माल था।”

एस.एच.ओ. सन्न रह गया।

“अब समझे कुछ, साहब?” — जनकराज अर्थपूर्ण स्वर में बोला।

“हेरोइन की एक थैली!” — एस.एच.ओ. मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला — “सिर्फ एक थैली...”

“जो कि बेध्यानी में, किसी की लापरवाही की वजह से, लाश में अटकी रह गयी थी। लाश में एक थैली की मौजूदगी और उसमें से उसके वाइटल ऑर्गन्स की गैरमौजूदगी साफ जाहिर करती है कि लाश को हेरोइन ढोने के कन्टेनर के तौर पर इस्तेमाल किया गया था। लाश हेरोइन से भरा बक्सा था जो कि, अगर एक्सीडेंट न हुआ होता तो दिल्ली के किसी टॉप के नॉरकॉटिक्स स्मगलर के पास पहुंचता।”

“तुम ये कहना चाहते हो कि लाश हेरोइन की वैसी कई थैलियों से भरी हुई थी और उसमें कई थैलियों की जगह बनाने के लिये ही उसकी आंतें, दिल, जिगर वगैरह निकाल दिये गये थे?”

“बिल्कुल! साहब, लाश में कई थैलियां न होतीं तो एक कहां से आती?”

“यानी कि एक्सीडेंट के बाद लाश में से माल निकाल लिया गया था और ये काम क्योंकि दिनदहाड़े राह चलती सड़क पर किया गया था इसलिये हड़बड़ी में हेरोइन की एक थैली लाश में रह गयी थी!”

“बिल्कुल!”

“फिर तो ये भी हो सकता है कि मुर्दागाड़ी को आग एक्सीडेंट की वजह से न लगी हो, उसे जानबूझ कर, सबूत नष्ट करने के लिये, आग लगायी गयी हो।”

“जी हां। किसी राहगीर ने, किसी मोबाइल वाले राहगीर ने, फायरब्रिगेड को फोन करने की जिम्मेदारी न दिखाई होती तो लाश यकीनन जल कर ऐसी कोयला हो चुकी होती कि उसकी शिनाख्त असम्भव होती और हेरोइन की वो एक थैली भी लाश के साथ ही भस्म हो चुकी होती।”

“और हमें सपने में खयाल न आता कि वो लाश सुमन वर्मा की हो सकती थी जो कि हमारे हवलदार शीशराम की आंखों के सामने सोहल के बच्चे के साथ मुम्बई की गाड़ी में सवार हुई थी।”

“जाहिर है।”

“बच्चे का क्या हुआ होगा?”

“भगवान जाने!”

“लड़की का, उसकी लाश को हेरोइन का सन्दूक बनाने के लिये, कत्ल हुआ होगा या मरी वो दुर्घटनावश ही होगी लेकिन लाश इत्तफाक से हेरोइन स्मगलरों के हाथों पर पड़ी होगी?”

“कुछ भी हुआ हो सकता है लेकिन अगर दूसरी बात सच है तो फिर तो ये लाखों में एक चांस वाला इत्तफाक हुआ!”

“बहरहाल जो भी हुआ, जैसे भी हुआ, हेरोइन स्मगलिंग के एक बहुत सोचे विचारे षड्यन्त्र के तहत हुआ!”

“जी हां।”

“शुक्र है कि ऐसा फसादी केस हमारे पल्ले न पड़ा।”

“महरौली थाने वालों के पल्ले भी नहीं पड़ा है, साहब।”

“मतलब?”

“केस नॉरकॉटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो को सौंप दिया गया है।”

“हूं। तुम्हारा क्या खयाल है, लाश में सात आठ किलो हेरोइन तो समा ही गयी होगी?”

“सात आठ नहीं तो पांच छः किलो तो कहीं नहीं गयी!”

“इतनी मिकदार भी मोटा माल ही कहलायेगी!”

“जी हां।”

“पहले तो दिल्ली का ड्रग लार्ड गुरबख्श लाल हुआ करता था। वो तो पहुंच गया ऊपर। अब कौन पर निकल रहा होगा उसकी जगह लेने के लिये?”

“कोई भी हो सकता है, साहब, लेकिन मेरा ऐतबार झामनानी पर है।”

“वजह?”

“ऐसे ही अन्दर की आवाज है।”

“हुंह।” — एस.एच.ओ. हंसा — “अन्दर की आवाज है। कहता है अन्दर की आवाज है।”

“साहब, जो मेरे मन में था, मैंने बोल दिया।”

“जनकराज, जिन बातों की वजह से झामनानी हमारी निगाहों में आया है, उनका हेरोइन स्मगलिंग से कोई रिश्ता नहीं बनता। हेरोइन स्मगलर न मायाराम था, न सोहल है।”

“साहब, इस बात में अब कोई दो राय मुमकिन नहीं कि हमारा हवलदार तरसेम लाल झामनानी के हाथों बिका हुआ है इसीलिये जाहिर है कि उसी ने मायाराम की बाबत हर बात झामनानी तक पहुंचाई थी। मेरे से नाउम्मीद होकर उसी को सोहल की तसवीरों की कापियों के लिये सांठा गया था।”

“कुबूल। सब कुबूल। लेकिन इनमें से कोई बात हेरोइन स्मगलिंग के खतरनाक धन्धे से जुड़ी नहीं दिखाई देती।”

“तो फिर वो क्यों सोहल की फिराक में है?”

“होगी कोई वजह।”

“वो तो आपने कल भी कहा था और ये भी कहा था कि वो वजह आप जान के रहेंगे लेकिन वजह का कोई सिर पैर, कोई ओर छोर, कोई अन्दाजा तो होना चाहिये!”

“मेरा अन्दाजा है कोई जाती खुन्दक।”

“झामनानी की सोहल से?”

“हां।”

“आप झामनानी का कोई आदमी फोड़ने की जुगत भिड़ाने वाले थे?”

“भई, अभी कल शाम की तो बात है वो! आज करेंगे कुछ। हर काम अभी लगाओ अभी दर्द बन्द वाली किस्म का तो नहीं होता! ऐसे काम होते होते होते हैं।”

“होगा ये काम?”

“उम्मीद तो पूरी है कि देर सबेर होगा। झामनानी का कोई तो ऐसा जमूरा मिलेगा जो पुलिस से बना के रखने का तमन्नाई होगा, जो पुलिस पर अहसान करना अपने लिये मुफीद काम समझेगा!”

“ओह! फिर तो उसी के जरिये ये पता लगाने की कोशिश की जा सकती है कि झामनानी की सोहल से क्या खुन्दक है!”

“करेंगे, भाई, बहुत कुछ करेंगे। पहले सांठ तो पायें ऐसा कोई बन्दा!”

“आप तरसेम लाल को भी फिट...”

“वो भी करेंगे। वो भी करेंगे। तू हौसला रख। अभी तो दिन चढ़ा है, यार।”

जनकराज खामोश हो गया।

छोटा अंजुम ने घड़ी पर निगाह डाली।

साढ़े नौ बज चुके थे।

फिर भी उसने झिझकते हुए ‘भाई’ को फोन लगाया।

“आदाब।” — जवाब मिला तो वो तत्पर स्वर में बोला — “छोटा अंजुम बोलता हूं।”

“क्या खबर है?”

“भाई’, तुकाराम खल्लास। उसका जोड़ीदार वागले खल्लास।”

“अरे! कैसे? कब? कहां?”

छोटा अंजुम ने बताया।

“किसका कारनामा है ये?” — ‘भाई’ ने पूछा।

“मालूम नहीं पण सोहल समझता है कि ये हमारा काम है।”

“कैसे मालूम?”

“कल रात वारदात के बाद मेरे को फोन किया। बहुत तड़प रहा था। बहुत वाहीतबाही बक रहा था” — छोटा अंजुम एक क्षण ठिठका और फिर झिझकता हुआ बोला — “आपके खिलाफ। साफ इल्जाम लगा रहा था कि तुका का कत्ल आप... हमने कराया था।”

“तू क्या बोला?”

“मैं वही बोला जो सच था। मैंने कसम खाकर कहा कि उस काम में हमारा कोई हाथ नहीं था।”

“उसे यकीन आ गया?”

“लगता तो नहीं।”

“क्यों?”

“क्योंकि वो बहुत भड़का हुआ था। आपके... हमारे खिलाफ आग उगल रहा था।”

“छोटा अंजुम!”

“बोलो, बाप।”

“तू अहमक है।”

“जी!”

“अरे नामाकूल, जब तुका की मौत की चोट उस पर इतनी भारी गुजरी थी तो उसे समझने देना था कि वो काम हमारा था! किसी और के मुगालते में अगर उसे हमारी ताकत का अहसास हो रहा था तो होने देना था!”

“ओह! ये तो बहुत बड़ी भूल हुई!”

“और मैं क्या बोला?”

“मेरे को ये नहीं सूझा था। मैंने तो उलटे जी जान से कोशिश की थी उसे ये यकीन दिलाने की कि ये काम हमारा नहीं था। मुझे सूझा ही नहीं था कि जिस वाकये ने उसे ऐसा हिला कर रख दिया था, उसका क्रेडिट हमें लेना चाहिये था।”

“बहरहाल यूं उसकी एक कमजोरी हमारे हाथ लगी है। अपने किसी अजीज की, किसी करीबी की जान जाती देखकर वो तड़पता है।”

“अंगारों पर लोटता जान पड़ता था, बाप।”

“अब तू किसी ऐसे शख्स की तलाश कर जो उसका करीबी हो ताकि हम उसके और तड़पाने का सामान कर सकें। तू सोहल को तलाश न कर सका लेकिन क्या तू उसके किसी करीबी को, किसी अजीज को, किसी खासुलखास को भी नहीं तलाश कर सकता?”

“मैं समझ गया। मैं पूरी कोशिश करूंगा।”

“वो दोबारा तुका की बाबत तेरे से बात करे और अभी भी यही समझता लगे कि वो काम हमारा था तो समझने दे उसे। बल्कि शह दे उसे। उसे समझने दे कि पहले तूने उस बाबत झूठ बोला था।”

“भाई’, मैं पाक परवरदिगार की कसम खाकर...”

“कसम तोड़ने को कौन बोला तुझे? मैं बोला उसे समझने दे। मैं ये नहीं बोला कि तू उसे समझा। तू बात ही मत करना इस बाबत उससे। तू जितना इस बात को टालेगा, उसका शक उतना ही मजबूत होगा कि असल में ये काम हमारा ही था और पहले उसके कहर से खौफ खाकर तूने झूठ बोला था।”

“मैं समझ गया, बाप। सब ऐसीच होगा।”

“बढ़िया।”

घन्टी बजने पर विमल ने रिसीवर उठाकर कान से लगाया।

“हल्लो!” — वो माउथपीस में बोला।

“बाप” — आवाज आयी — “मैं मुबारक अली।”

“बोलो, मियां। कैसे फोन किया सुबह सुबह?”

“अच्छा हुआ तू होटल के फोन पर मिल गया। बाप, बुरी खबर।”

“क्या हुआ?”

“बहुत बुरी खबर है, बाप। इतनी बुरी कि जुबान पर नहीं आती।”

“अरे, अब कुछ कह भी चुको। क्यों मुझे सस्पेंस में डाल रहे हो?”

“बाप, सुमन बीबी...”

“क्या हुआ उसे?”

“मेरे से नहीं कहा जाता। हाशमी से सुन। मैं फोन उसे देता है।”

हाशमी ने दबी आवाज में सुमन की बाबत वो सब बयान किया जो कि टी.वी. की खबरों में आया था और अखबारों में छपा था।

“दाता!” — विमल के मुंह से निकला — “किस जंजाल में जा फंसी वो बेचारी?”

“जनाब” — हाशमी की आवाज आयी — “वो बहुत बड़ी साजिश का शिकार हुई जान पड़ती है।”

“किस की साजिश?”

“पता लगाने की कोशिश करेंगे।”

“अब लाश का क्या होगा?”

“मामू भी यही पूछ रहे हैं?”

“मामू! तुम भी मुबारक अली के भांजे हो?”

“हां। मामू ने ही बताया था आपको।”

“कब?”

“तब जब पिछली बार आप दिल्ली में थे। जब मैं आपका भेजा कुल्लू से वापिस लौटा था।”

“ओह! भूल गया मैं। याददाश्त बहुत बिगड़ती जा रही है मेरी।”

“हम चौदह भांजे हैं मामू के। पांच बहनों से।”

“ओह!”

“लाश का कोई क्लेमेंट सामने न आया तो उसे लावारिस करार दे दिया जायेगा और इलेक्ट्रिक क्रीमेटोरियम के हवाले कर दिया जायेगा।”

“ऐसा नहीं होना चाहिये।”

“तो क्या करें? हम तो मुसलमान हैं। हमें हिन्दू की लाश कौन सौंपेगा?”

“मुझे सोचने दो। होल्ड रखना।”

विमल ने माथा थाम लिया। अभी वो तुका और वागले के हौलनाक अंजाम से उबरा नहीं था कि वो नयी विपत्ति सामने आ गयी थी। जिस लड़की ने उसके बेटे को उस तक सुरक्षित पहुंचाने के लिये इतनी जहमतें उठाईं थीं, जिसकी जान ही उनकी वजह से गयी जान पड़ती थी, उसे क्या वो लावारिस विद्युत शवदाह गृह के हवाले हो जाने दे!

लेकिन एक ही वक्त में वो दिल्ली और मुम्बई दोनों जगह भी तो मौजूद नहीं हो सकता था।

“मैं दिल्ली जाती हूं।” — तब तक खामोशी से पास बैठी नीलम एकाएक बोली।

“सूरज!” — विमल के मुंह से निकला।

“फिरोजा सम्भाल लेगी। थोड़े ही अरसे की तो बात है! कल तक तो लौट भी आऊंगी।”

“सोचते हैं। अभी चुप कर।”

नीलम खामोश हो गयी।

दिमाग पर जोर देता विमल उस दुश्वारी का कोई हल सोचता रहा।

वाहेगुरु सच्चे पातशाह, जीऊ जंत सभि सरण तुम्हारी, सरब चिंत तुध पासे।

“हाशमी!” — वो माउथपीस में बोला।

“जनाब!” — हाशमी की आवाज आयी।

“गैलेक्सी के शुक्ला साहब के पास जा। उनको बोल कि वो अपने आपको सुमन का अभिभावक बता कर उसकी लाश क्लेम करें।”

“वो करेंगे ऐसा?”

“मेरी खातिर जरूर करेंगे।”

“अगर आप आ सकते होते तो...”

“तो बात ही क्या थी! लेकिन ऐसा नहीं हो सकता।”

“गुस्ताखी माफ, जनाब, वजह?”

“कल रात तुकाराम और वागले के लन्दन से मुम्बई पहुंचते ही उनका कत्ल हो गया है। उन दोनों का भी इस दुनिया में कोई नहीं। मेरा उनकी खातिर इधर रुकना जरूरी है।”

“तुकाराम? वागले?”

“तू नहीं जानता। मुबारक अली जानता है।”

“जरा होल्ड कीजिये।”

कुछ क्षण हाशमी की खुसर पुसर जैसी आवाज विमल को सुनायी दी, फिर मुबारक अली लाइन पर आया।

“बाप, ये क्या बोला तू? कौन ये नापाक काम किया?”

“अभी मालूम नहीं। यहां की पुलिस इसे गैंग किलिंग बता रही है लेकिन किसी की निशानदेही की जिम्मेदारी नहीं ले रही।”

“लेकिन होंगे कौन वो मरदूद जिन्होंने...”

“नहीं मालूम। कुछ समझ में नहीं आ रहा। अक्ल ये कहती है कि ये ‘कम्पनी’ की किस्म का काम है। लेकिन ‘कम्पनी’ अब कहां रखी है?”

“बाप, आज अगर मैं जिन्दा हूं, मैं कब का फांसी पर नहीं झूल गया तो तुकाराम की वजह से, जिसने पुलिस हैडक्वार्टर से, ऐन पुलिस कमिश्नर की नाक के नीचे से मेरे भाग निकलने और फरार हो जाने का इन्तजाम किया था। बाजरिया वागले, मैंने उसे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, पैगाम भेजा था कि अगर मुबारक अली जिन्दा रहा तो कभी उसके किसी काम आ के दिखायेगा। अब तू बोलता है कि वो मुझे मौका दिये बिना ही इस जहां से रुखसत हो गया?”

“हां।”

“अपना कर्जा छोड़ गया वो मेरे ऊपर।” — मुबारक अली, जो खतरनाक मवाली और दुर्दान्त हत्यारा था, का गला रुंध गया — “अब मैं कर्जाई मरूंगा, बाप।”

विमल खामोश रहा।

“बाप, तू उधरीच रह। इधर मैं सब सम्भालता है। हाशमी सब सम्भालता है। हम सब सब सम्भालते हैं।”

“चार बजे मुझे फिर फोन करना और जो सूरत अहवाल हो, उसकी खबर करना।”

“ऐसीच करेंगा, बाप।”

सम्बन्ध विच्छेद हो गया।

विमल ने रिसीवर क्रेडल पर रखा और माथा थाम लिया।

“तुमने मुझे चुप करा दिया था।” — नीलम उसके कन्धे पर हाथ रखती हुई बोली — “अब बोलो मेरे जाने में क्या हर्ज है?”

“हर्ज कोई नहीं लेकिन फायदा भी कोई नहीं। अलबत्ता नुकसान बहुत है।”

“नुकसान?”

“हां, नुकसान। क्या भूल गयी कि क्यों मैं तुझे दिल्ली से साथ लाया था?”

“कोई फायदा क्यों नहीं?”

“क्योंकि जो काम वहां जाकर तू करेगी, उसे शुक्ला साहब भी कर सकते हैं। असल काम उसकी लाश क्लेम करना नहीं है, उसका अन्तिम संस्कार करना है जो कि मुझे करना चाहिये क्योंकि वो मुझे अपना भाई मानती थी।”

“ओह!”

“लेकिन मैं एक ही जैसे कामों को दो मुख्तलिफ जगह कैसे अंजाम दे सकता हूं! इधर मैंने अपने पिता समान तुका को, अपने भाई समान वागले को भी तो मुखाग्नि देनी है! ये कैसा इम्तहान ले रहा है मेरा वाहेगुरु मेरा!”

“सब ठीक हो जायेगा। धुन्ध‍ मिट जायेगी। चानण हो जायेगा। सूरज निकलेगा तो तारे छुप जायेंगे, अन्धेरा भाग जायेगा। सब ठीक हो जायेगा, सरदार जी, सब ठीक हो जायेगा।”

विमल ने सहमति में सिर हिलाया और एक आह भरी।

“मुझे वो दिन याद आते हैं” — फिर वो बोला — “जबकि बखिया से हमारी जंग जारी थी। तब बखिया ने तुका के भाईयों पर ऐसा कहर बरपाया था कि एक की मिट्टी उसने अभी ठिकाने नहीं लगाई होती थी कि दूसरे की मौत की खबर आ जाती थी। कैसा शेरदिल था तुका जो इतने सदमे झेल गया?”

“तुम भी शेरदिल हो। सरदार हो। खालसा हो। माता भगवती भवानी तुम्हें बेपनाह ताकत देगी। दाती ही तुम्हें दिशाज्ञान करायेगी।”

विमल खामोश रहा।

अगम अगोचर अलख अपारा। चिंता करहु हमारी।

तभी इरफान और शोहाब वहां पहुंचे।

“क्या खबर है?” — विमल व्यग्र भाव से बोला।

“बारह बजे होगा पोस्टमार्टम।” — शोहाब बोला — “एक बजे तक लाशें मिल जायेंगी।”

“जल्दी क्यों नहीं?”

“पोस्टमार्टम वाला डाक्टर आता ही बारह बजे है और ढाई तीन से पहले असल काम नहीं शुरू करता।”

“कुछ करना था इस बाबत।”

“किया। तभी तो पोस्टमार्टम बारह बजे होगा और फौरन सुपुर्दगी की कार्यवाही होगी वरना वो तो शाम भी कर दे तो कोई बड़ी बात नहीं।”

“इसका मतलब है कि मैं तीन बजे तक अन्तिम संस्कार से फारिग हो सकता हूं और फिर चार या पांच बजे की फ्लाइट पकड़ कर दिल्ली...”

“बाप” — इरफान जल्दी से बोला — “तू ऐसा नहीं कर सकता।”

“क्या बोला? कैसा नहीं कर सकता?”

“तू तुका और वागले का संस्कार नहीं कर सकता।”

“क्या बकता है? वो मेरे...”

“मालूम। मालूम। वो दोनों मेरे भी उतने ही सगे थे जितने कि तेरे, बल्कि तेरे से ज्यादा, लेकिन उनके संस्कार की बाबत जो तू चाहता है, वो नहीं हो सकता।”

“क्यों नहीं हो सकता?”

“क्योंकि मैं तेरे को ऐसा नहीं करने दूंगा।”

“अरे, क्यों नहीं करने देगा?”

“क्योंकि मरने वाला तुका था जिससे तेरे ताल्लुकात से तमाम अन्डरवर्ल्ड ही नहीं, पुलिस भी वाकिफ है। हर कोई इस बात से भी वाकिफ है कि तुका का इधर कोई नहीं है। कभी इधर उसके साथ उसके चार भाई थे लेकिन सब के सब ‘कम्पनी’ के साथ छिड़ी तेरी जंग में शहीद हो गये। जिन लोगों ने तुका को मारा है, वो इस हकीकत से बेखबर नहीं हो सकते। उन्हें भी और पुलिस को भी तेरे से बराबर ये ही उम्मीद होगी कि तुका की चिता को आग तू देगा। वागले की बाबत उन्हें कोई गलतफहमी हो सकती है लेकिन तुका की बाबत नहीं। वो तुका की लाश पर निगाह रखेंगे और जहां लाश जायेगी वहां पहुंचेंगे। बाप, नतीजा जानता है क्या होगा? या तो तू तुका के कातिलों के हाथों मारा जायेगा या पुलिस की गिरफ्त में पहुंचेगा।”

“मुझे परवाह नहीं। मैं चाहे गोली खाऊं, चाहे फांसी लगूं, तुका का अन्तिम संस्कार मेरे ही हाथों होगा। और अगर वागले का कोई सगा सम्बन्धी सामने नहीं आता तो उसका भी।”

“बाप, तू जज्बाती हो रहा है।”

“कम्बख्तो! क्या उम्मीद करते हो मेरे से इन हालात में? पत्थर हो जाऊं?”

“वक्त की जरूरत तो ये ही है लेकिन लगता है कि तू वक्त की जरूरत को नहीं समझने वाला।”

विमल‍ खामोश रहा।

शोहाब को उम्मीद थी कि विमल उससे पिछली रात की बाबत सवाल करेगा लेकिन ऐसा न हुआ।

खुद शोहाब ने उस नाजुक घड़ी में उस बाबत जुबान खोलना मुनासिब न समझा।

“ठीक है।” — इरफान असहाय भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला — “करते हैं कुछ।”

‘जौहर ज्वाला’ में जारी

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