“मे आई कम इन, सर?” – पंकज झालानी एसीपी कुलकर्णी के ऑफिस में कदम रखता बोला।
विचारमग्न कुलकर्णी ने सिर उठाया।
“झालानी” – वो बोला – “यू आर आलरेडी इन।”
“ओह, सॉरी! फोर्स ऑफ हैबिट, यू नो, सर! एण्ड हैबिट्स डाई हार्ड। दैन यू परमिटिड मी टु ड्रॉप इन एनी टाइम।”
“आओ, बैठो।”
“बैंक्यू!” – झालानी एक विज़िटर्स चेयर पर ढेर हुआ – “मेरे ख़याल से वो एसएचओ भारकर साहब थे जो अभी-अभी यहां से निकल कर लिफ्ट में सवार हुए थे।”
“तुम्हारा ख़याल दुरुस्त है। लेकिन ख़याल से क्यों?”
“दूर से देखा न! वो लिफ्ट के सवार थे, मैं सीढ़िया से आया।”
“क्यों भला?”
“डॉक्टर का हुक्म हुआ न, लिफ्ट अवॉयड करने का!”
“अच्छा, इतनी उम्र हो गई तुम्हारी कि डॉक्टर तुम्हें ऐसी एहतियात बरतने को बोले?”
“मेरे ख़याल से तो नहीं हुई लेकिन डॉक्टर का ख़याल जुदा है।”
“कितनी हुई?”
“बयालीस।”
“ये तो ऐसी एहतियात की उम्र नहीं लेकिन . . . खैर . . . चाय पियोगे?”
“आप पिलायेंगे तो क्यों नहीं पिऊंगा?”
“अभी।”
एसीपी ने कॉलबैल बजाई।
झालानी राजस्थानी था और ‘एक्सप्रेस’ का सीनियर रिपोर्टर था। मोटे फ्रेम वाला चश्मा, कुर्ता, जींस, कोल्हापुरी चप्पल उसका ट्रेडमार्क था। उसकी ख़ास खूबी ये थी कि पुलिस से बना कर रखता था। वो ख़ुद को पुलिस के बीच ‘एक्सप्रैस’ का गुडविल एम्बैसेडर बोलता था।
एक हवलदार ने दोनों को चाय सर्व की।
“कैसे आए?” – एसीपी सहज भाव से बोला।
“बोले तो एसआई गोरे की खुदकुशी लाई।”
“कैसे ख़बर पड़ी? अख़बार में तो कुछ छपा नहीं!”
“एक्सप्रैस’ के लेट सिटी एडीशन में छपा न बराबर!”
“आई सी। क्या कहता है तुम्हारा लेट सिटी एडीशन?”
“वही कहता है जो पुलिस की तहकीकात से सामने आया। जो मौका-एवारदात से एसआई कदम की और ख़ुद एसएचओ भारकर की रिपोर्ट कहती है।”
“ख़ुदकुशी कर ली?”
“जी हां।”
“क्योंकि करप्ट था, बड़े मवाली का भड़वा था, चौतरफा घिर गया था!”
“पुलिस यही कहती है।”
“तुम क्या कहते हो?”
“मैं केस की पुलिस इनवैस्टिगेशन से जुदा कैसे कुछ कह सकता हूँ?”
“शायद कुछ कह सकते होवो!”
“जी!”
“ऐसा न होता तो यहां न आए होते।”
“आप तो अन्तर्यामी हैं!”
“यानी है कुछ तुम्हारे ज़ेहन में! कोई अन्देशा! कोई शुबह! कोई जर्नलिस्टिक एप्रिहेंशन!”
“सर, आप मुझे ज़ुबान दे रहे हैं।”
“जवाब दो।”
“मेरा जवाब पुलिस के जवाब से मुखतलिफ हुआ तो वो आपको नागवार गुज़रेगा।”
“झालानी, कैन दि फैंसी वर्ड्स। स्पीक फ्रीली।” ।
कई क्षण की ख़ामोशी के बाद झालानी दबे स्वर से बोला – “कुलकर्णी साहब, वैसे तो आज के दौर की इस फानी दुनिया में जो न हो जाए थोड़ा है, लेकिन मेरा दिल गवाही नहीं देता कि एसआई अनिल गोरे ने ख़ुदकुशी की। मैं अनिल गोरे को ज़ाती तौर से जानता था, वो एक जोशीला, जियाला नौजवान था जो भरपूर ज़िन्दगी जीने में एतबार रखता था, जो बांकपन से जीता था और जब नौबत आती तो बांकपन से ही मौत को गले लगा कर दिखाता, ख़ुदकुशी जैसी बुज़दिली की तवक्को मैं उससे हरगिज़ नहीं कर सकता था। ऐसी ज़िन्दादिली हर किसी में कहां पाई जाती है जो कहलाती हो— ‘मुझे आता है कौसर, हश्रगाहों से गुजर जाना, मैं इंसा हूँ मेरी तौहीन है घुट-घुट के मर जाना।”
“वो ऐसा बोलता था?” – एसीपी मंत्रमुग्ध भाव से बोला।
“अक्सर।”
“ऐसे शख़्स ने ख़ुदकुशी कर ली!”
“क्योंकि करप्ट था, बड़े मवाली का भड़वा था, ब्ल्डी हैल! ये कोई यकीन में आने लायक बात है?”
“हूँ।”
“चौतरफा घिर गया था बोला आपने ....”
“मैंने नहीं, एसएचओ भारकर ने। मैंने वो दोहराया जो उसने कहा, रिपोर्ट किया।”
“ऐसा शख़्स ख़ुदकुशी करेगा जो कहता हो – ‘हवा है मुख़ालिफ़ मुझे डराता है क्या, हवा से पूछ कर कोई दिया जलाता है क्या?”
“हम्म!”
“जीवन के प्रति इतना प्रबल आशावादी था कि दोस्तों के साथ महफ़िलबाज़ी में होता था तो जोश में या तरंग में अपनी बाबत अक्सर कहता था – ‘फानूस बनके जिसकी हिफ़ाज़त ख़ुदा करे, वो शम्मह क्या बुझेगी जिसे रौशन हवा करे।’’
“भई, तुम दोस्त थे, तुम्हारा उसको एडवोकेट करना बनता है, उसकी तरफदारी करना बनता है, लेकिन जो अकाट्य सबूत सामने आए हैं, उनको कैसे झुठलाया जा सकता है?” __“सर, हकीकत हमेशा वही नहीं होती जो दिखाई देती है। कई मर्तबा हकीकत हकीकत नहीं होती, दृष्टिभ्रम होता है, ऐसा दृष्टिभ्रम होता है जिसको जुदा तर्जुमानी की ज़रूरत होती है। जैसे कि आंख सब को देखती है लेकिन ख़ुद को नहीं देखती। फिर ‘चिराग तले अन्धेरा’ वाली मिसाल याद कीजिए।”
“क्या कहना चाहते हो?”
“सर, मर्डर वैपन गन प्लांट की गई हो सकती है, घटके की मनमाफिक गवाही अरेंज की जा सकती है।”
“नॉट सो फास्ट, झालानी, नॉट सो फास्ट। डोंट पुट दि कार्ट बिफोर दि हास।”
“सर!”
“घोड़े के आगे बग्घी न जोतो। मर्डर वैपन गन पर गोरे के क्लियर फिंगरप्रिंट्स थे।”
“अगर गन प्लांट की जा सकती है तो फिंगरप्रिंट्स भी प्लांट किए जा सकते हैं।”
“कैसे?”
“पता नहीं।”
“फिर क्या बात बनी?”
“एक बार ये मान के चलिए कि गोरे के फ्लैट में निहायत बचकाना तरीके से मर्डर वैपन प्लांट किया गया था, फिर बनेगी न बात! क्यों किसी ने मर्डर वैपन प्लांट किया? ज़ाहिर है कि गोरे को फंसाने के लिए, उसके ताबूत में एक और पुख्ता कील ठोकने के लिए। नो?”
“यस।”
“तो फिर काम अधूरा क्यों छोड़ दिया? गोरे को ये दुहाई देने के काबिल क्यों छोड़ दिया कि गन उसके फ्लैट में प्लांट की गई थी? ये दुहाई तभी फेल होती जब कि गन पर गोरे के फिंगरप्रिंट्स पाए जाते और इस बात का बाकायदा इन्तजाम किया गया।”
“कैसे?”
“नहीं मालूम, सर, नहीं मालूम। अफसोस कि कोई पुख़्ता, कारआमद अन्दाज़ा भी नहीं।”
“गोरे की वो तस्वीर जिस पर डबल एनडोर्समेंट थी – मकतूला नीरजा नायक की भी और उसके डॉक्टर-इन-अटेंडेंस अधिकारी की भी!”
“सॉरी! सर, अगर गोरे को बेगुनाह मान कर चलना है तो ये मानना अपने आप ही ज़रूरी हो जाएगा कि वो तस्वीर – मर्डर गन की तरह ही – किसी हाईक्लास मैनीपुलेशन का नतीजा थी जिसका कोई ओर छोर इस घड़ी पकड़ में आना मुहाल है। सर, आप पुलिस के आला अफसर हैं, आपसे बेहतर कौन जानता है कि सबूत ख़ुद नहीं बोलते, उनको बाजरिया फीज़ीबल, प्लॉज़िबल इन्टरप्रिटेशन, जुबान दी जाती है। और वो ज़ुबान किसी की मनमाफिक भी हो सकती है।”
“फिर सवाल है, कैसे?”
“सर, फिर जवाब है, नहीं मालूम।”
“हूँ। झालानी, इस केस में सबसे बड़ा, सबसे मजबूत सबूत है कि मौका-एवारदात फ्लैट भीतर से लॉक्ड था, मेन डोर के अलावा वहां से निकासी का कोई रास्ता नहीं था और मेन डोर भीतर से बन्द था जिसे कि बाहर से तोड़ कर खोला जाना पड़ा था। एक यूं सील्ड फ्लैट में लाश पंखे से टंगी पाई गई तो ये ख़ुदकुशी न हुई तो क्या हुआ! इस बाबत कुछ बोलो!”
“नहीं बोल सकता। इस बाबत तो बोलती बन्द है, सर।”
“मैं तुम्हारी साफगोई की दाद देता हूँ। अब एक फ्रैंक सवाल का फ्रैंक जवाब दो।”
“फरमाइए, सर।”
“तुम्हें ये केस इसी काबिल लगता है कि इसे ख़ुदकुशी जान के क्लोज़ कर दिया जाए?”
झालानी सोचने लगा।
“भारकर यही करेगा।” – एसीपी बोला।
“सर, आप भी तो दखल दे सकते हैं?”
“किस बिना पर? कहीं कोई फुट होल्ड, बल्कि टो होल्ड भी दिखाई दे तो दखल देने के बारे में सोचूं न!”
झालानी की गर्दन चिन्तित भाव से हिली।
“भारकर डीसीपी पुजारा का चहेता है, उसे डीसीपी की पूरी-पूरी शह है। वोडीसीपी को ही तैयार कर लेगा ख़ुदकुशी के इस केस को ठण्डे बस्ते में डालने के लिए।”
“यू मीन ही विल गो अबोव यू?”
“ही इज़ आलरेडी देयर। ऐसा फेवरिज़्म पुलिस के महकमे में – किसी भी सरकारी महकमे में – कोई बड़ी बात नहीं। मुम्बई पुलिस में हज़ार के करीब इन्स्पेक्टर हैं लेकिन थाने तो हज़ार नहीं हैं! थाने तो सिर्फ चौरानवे हैं जिनमें बतौर एसएचओ, बतौर थाना प्रभारी, सिर्फ चौरानवे इन्स्पेक्टर ही तो बिठाए जा सकते हैं! फिर सारे थाने एक जैसे भी नहीं। कुछ ख़ास थाने हैं- खुफिया ज़ुबान में जिन्हें ‘बैस्ट हफ्ता’ पुलिस स्टेशन कहा जाता है - जहां हर कोई पोस्टिंग चाहता है, जैसे कि बन्दरगाह, यैलो गेट, कोलाबा, सिवरी, मलाड, धारावी – अब बोलो, ऐसी किसी जगह पोस्टिंग के लिए लॉबिंग चलेगी या नहीं चलेगी?”
“बराबर चलेगी।”
“भारकर फन से हर किसी को बताता है – ‘ओये, मैं डीसीपी का आदमी हूँ, सीधा कर दूंगा।”
“एसीपी को भी?”
“इतनी अराजकता तो खैर अभी महकमे में नहीं हैं, लेकिन कभी-कभार तो एसीपी के हाथ बंध ही जाते हैं।”
“दैट्स टू बैड।”
“यस, इट इज़। भारकर बहुत काईयां है, बहुत छंटा हुआ पुलिसिया है, घाट घाट का पानी पिए है, कम्बख़्त। मेरे को एक आंख नहीं सुहाता। किसी बड़े मामले को डीसीपी के संज्ञान में लाये बिना मैं उस पर कोई एक्शन नहीं ले सकता। एसआई गोरे की खुदकुशी एक बड़ा मामला है – बावजूद इसके कि भारकर इसे एक रुटीन सुईसाइड का केस करार देने पर तुला है, एक बड़ा मामला है। झालानी, इस केस की कई धुंडियों का, कई तालाबंदियों का कोई तोड़ निकाल, सबका नहीं तो किसी का तो निकाल ...”
“मैं निकालूं?” – झालानी हड़बड़ाया।
“.... फिर देखना भारकर की वाट लगाने के मामले में मैं डीसीपी की भी परवाह नहीं करूँगा।”
“लेकिन मैं . . . मैं निकालूं?”
“क्यों नहीं?”
“ये पुलिस का काम है।”
“तेरा भी काम है, सौ फीसदी नहीं तो तकरीबन तेरा भी काम है। क्या कहता अपने आपको?”
“क-क्या कहता हूँ?”
“इनवैस्टिगेटिव जर्नलिस्ट! खोजी पत्रकार! कर इनवैस्टिगेशन! कर खोज! पुलिस भी तो यही करती है! खोजी पत्रकार और पुलिस में कोई फर्क है तो ये है कि पत्रकार के पास सरकारी अमलदारी का बैक अप नहीं होता। झालानी, कुछ करके दिखा, तेरा बैक अप मैं।”
“जी!”
“मेरी ख़ामोश, खुफिया सपोर्ट तेरे साथ।”
“ख़ामोश! खुफिया!”
“मजबूरी है। मैं तेरे साथ खुला खेल नहीं खेल सकता। महकमे ने मेरे हाथ बांधे हुए हैं।”
“ओह!”
“फिर भी ये एक खोजी पत्रकार की और एक सीनियर पुलिस ऑफिसर की अनोखी जुगलबन्दी होगी जो शायद रंग लाए।”
“बशर्ते कि रंग लाने लायक कुछ हो!” ।
“न हो। सारे ही तीर तो निशाने पर नहीं बैठते! लेकिन ये सोच कर कोई निशाना लगाना तो नहीं छोड़ देता! या छोड़ देता है?”
झालानी ने संजीदगी से इंकार में सिर हिलाया।
“सो, देयर यू आर। फिर कुछ अच्छा अच्छा होने की उम्मीद करने में क्या हर्ज है! उम्मीद पर आखिर दुनिया कायम है। नहीं?”
“हां।”
“तू खोजी पत्रकार है, पूरे केस से वाकिफ है फिर भी, कर्टसी भारकर, जो सबसे पुख्ता सबूत बताए जा रहे हैं, उनको मैं तेरे साथ नोट्स कम्पेयर करने के अंदाज से दोहराता हूँ। वो हैं मर्डर वैपन गन जो गोरे के फ्लैट में छुपाई गई पाई गई और जिस पर गोरे के स्पष्ट फिंगरप्रिंट्स पाए गए। दो, मौका-ए-वारदात पर एक फुट प्रिंट पाया गया, जो गोरे का बताया जा रहा है, लेकिन निर्विवाद रूप से ऐसा साबित होना अभी बाकी है। तीन, लाश दरवाजा तोड़ कर बरामद की गई जो कि ख़ुदकुशी की तरफ सबसे मज़बूत इशारा है। चार, गोरे की एक मामूली फंटर विनायक घटके से – जो कि रेमंड परेरा नाम के ढंके-छुपे मवाली का करीबी है – सांठ-गांठ बताई गई। और पांच, गोरे के खिलाफ एक मेजर सबूत वो डबल एनडोर्ल्ड तस्वीर बन गई है जो कि गोरे की है और जिसकी बाबत, अब मरहूम, नीरजा नायक ने दावा किया था कि वो ही तुलसीवाडी का शूटर था जो वारदात को अंजाम देने के बाद पिछवाड़े से फरार हुआ था। यानी अपनी ज़िन्दगी में वो औरत गोरे के खिलाफ चश्मदीद गवाह का दर्जा रखती थी। वो डबल एनडोर्ल्ड तस्वीर अभी मीडिया के साथ साझा नहीं की गई है लेकिन मैं तेरे को दिखाता हूँ।”
एसीपी ने भारकर के सामने बनाया तस्वीर का कम्प्यूटर प्रिंटआउट झालानी के सामने रखा।
झालानी ने ग़ौर से प्रिंटआउट को दोनों तरफ से परखा।
“जल्दी की कोई बात नहीं” – एसीपी बोला – “ये प्रिंटआउट तू रख सकता
“अच्छा !”
“हां। लेकिन जब तक भारकर इसे मीडिया के साथ सांझा न करे, इसकी बाबत ख़ामोश ही रहना। ओके?”
“यस, सर।”
“तस्वीर की प्राइम सिग्नेटरी नीरजा नायक तो अब इस दुनिया में है नहीं, इसलिए मेरी मर्जी दूसरे सिग्नेटरी डॉक्टर अधिकारी से मिलने की थी और मैंने बाजरिया भारकर उसे तलब भी किया था। लेकिन ये काम भी अब तू ही कर सकता है।”
“मैं उस डॉक्टर से मिलूं?”
“क्यों नहीं? वो कोई हुज्जत करे तो उसे मेरे पास ले के आना। आने से भी हुज्जत करेगा तो पकड़ मंगवायेंगे।”
“ठीक!”
“तो क्या कहता है आखिर?”
“मैं . . . करता हूँ कुछ।”
“सब कुछ, झालानी, सब कुछ।”
“जी हां।”
“गॉड ब्लैस यू।”
एसीपी अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर से उठकर, विशाल ऑफिस टेबल का घेरा काट कर झालानी के पास पहुंचा और उसने बड़ी गर्मजोशी से झालानी से हाथ मिलाया।
भारकर फिक्रमन्द था।
उस घड़ी वो अपने ऑफिस में मौजूद था और अपने ज़ेहन में अपनी एसीपी के हुई मीटिंग को रीव्यू कर रहा था। अपनी तरफ से उसने एसीपी का माकूल, भरपूर मुकाबला कर लिया था फिर भी बार-बार उसे ये अहसास सता रहा था कि एसीपी के सामने विनायक घटके की बाबत वो ज़रूरत से ज़्यादा बोल गया था और संयोगवश उस तरफ एसीपी की तवज्जो नहीं गई थी, लेकिन उसकी तरह एसीपी उस मीटिंग को कभी रीव्यू करता तो बराबर जा सकती थी। बेध्यानी में उसने पहले हांडी पकाई थी और फिर आग जलाई थी। वक्तीजोश के हवाले को कह बैठा था कि तलसीवाड़ी वारदात के सिलसिले में विनायक घटके नाम के मवाली की - जो कि टोपाज़ क्लब वाले रेमंड परेरा का आदमी का – गोरे से सांठ-गांठ थी और दावा ठोक बैठा था कि अपनी गोरे से जुगलबन्दी की बाबत वो हल्फिया बयान देने को तैयार था।
यानी घटके और गोरे दोनों रेमंड परेरा की हुक्मबरदारी में थे और घटके को परेरा की हिदायत थी कि वो गोरे के साथ मिलकर काम करे जबकि ऐसी कोई हिदायत न थी, न हो सकती थी। घटके को तो वारदात के बाद ही सूझ सकता था कि तुलसीवाडी की उसकी करतूत को हाकिम ने आखिर किस पर थोपा था!
एसीपी ने तभी उससे सवाल किया होता कि घटके क्या करेगा, इसकी उसे कैसे ख़बर थी, ख़बर थी तो वो कैसे आश्वस्त था कि वो हल्फिया बयान देगा, वक्त आने पर मुकर नहीं जाएगा, तो उससे जवाब देते न बनता।
अब डैमेज कन्ट्रोल का यही तरीका था कि वो घटके को अपने मनमाफिक हल्फिया बयान के लिए तैयार करता।
उसने कदम से हासिल हुआ घटके का मोबाइल नम्बर खड़काया तो जब भी उसने ऐसा किया एक ही जवाब मिला – “ये नम्बर मौजूद नहीं है।”
डायरेक्टरी इंक्वायरी से उसने टोपाज़ क्लब का नम्बर हासिल करके बजाया तो होल्ड करना पड़ा।
तब तक भारकर बुरी तरह भुनभुनाता रहा।
“टोपाज़ क्लब।” – आखिर जवाब मिला।
“परेरा साहब से बात करा।” – जब्त के साथ वो बोला।
“परेरा साहब ये टेम इधर नहीं होता।”
“क्या हुआ है ये टेम को?”
“ये टेम क्लब बन्द होता है।”
“वो कब उधर होता है?”
“शाम को। शाम को फोन लगाना।”
“मेरे को इमीजियेट बात करने का। मोबाइल नम्बर बोला”
“परेरा साहब ख़ुद बोलेगा।”
“कैसे बोलेगा? उसे क्या मालूम कौन उसका नम्बर मांगता है!”
“इधर अपना नम्बर छोड़ने का। परेरा साहब को मांगता होयेंगा तो कॉल बैक करेंगा। या शाम को इधरीच फोन लगाना।”
“अरे, मैं बोला न, मेरे को इमीजियेट बात करने का . . .”
“कट करता है।”
“खबरदार!”
“अभी बोले तो?”
“तेरे सिवाय उधर और कौन है?”
“कोई नहीं।”
“घटके! विनायक घटके?”
“वो कौन है?”
“तू घटके को नहीं जानता?”
“नहीं।”
“अभी जानेगा। ऐसा जानेगा कि तेरा परेरा साहब भी जानेगा। साले, मैं तारदेव थाने का एसएचओ उत्तमराव भारकर बोलता है . . .”
“साला मसखरी मारता है कोई। टेम खोटी करता है, खाली पीली।”
लाइन कट गई।
उसने फिर फोन बजाया तो बिज़ी टोन सुनाई दी।
ज़ाहिर था कि दूसरी तरफ से रिसीवर ऑफ कर दिया गया था।
तिलमिलाते, भाव खाते भारकर का जी चाहा कि अभी वो टोपाज़ क्लब पर चढ़ दौड़े लेकिन जब्त जरूरी था क्योंकि वो परेरा से ख़ामोश, खुफिया मीटिंग चाहता था जो टोपाज़ क्लब पर चढ़ दौड़ने पर मुमकिन न होती।
फिर टोपाज़ क्लब जुदा थाने की ज्यूरिस्डिक्शन में थी।
देखता हूँ शाम को।
उसने कॉलबैल बजा कर हवलदार को तलब किया।
“कदम का पता कर।” – अपने उखड़े मूड पर काबू पाता वो बोला।
“इधरीच है।” – हवलदार अदब से बोला – “अभी लौटा।”
“बुला।”
हवलदार के रुख़सत पाते ही कदम वहां पहुंचा।
“क्या ख़बर है?” – भारकर बोला।
“सब ठीक है।” – कदम ने जवाब दिया – “चौकस।”
“मोल्ड अपने मुकाम पर पहुंच गया?”
“यस, सर।”
“किसी की तवज्जो गई हो, कोई शक हुआ हो?”
“नहीं हुआ। सब ऐन चौकस हुआ।”
“बढ़िया।”
“सर, आपने कोई ज़रूरी, पर्सनल बात करनी थी?”
“हां, भई, तभी तो बुलाया!”
“मैं हाज़िर हूँ, सर।”
“बैठ . . . नहीं, पहले बाहर हवलदार को ख़ुद जा के ताकीद कर के आ कि कोई, कोई भी, भीतर न आने पाए।”
कदम ने वो काम किया।
वो लौटा तो भारकर ने उसे एक विजिटर्स चेयर उठा कर अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर के करीब लाने को बोला। चेयर वांछित स्थान पर पहुंच गई तो वो बोला“अब बैठा।”
कदम तनिक झिझकता सा भारकर के पहलू में कुर्सी पर बैठा।
“कदम” – फिर भारकर संजीदगी से बोला – “काम ज़रूरी ही नहीं, पर्सनल ही नहीं बल्कि ऐसा है कि उसे बहुत खुफिया तरीके से अंजाम दिया जाना है। और उस काम को तूने – कदम, तूने – अंजाम देना है क्योंकि तेरे जितना मेरे भरोसे का कोई दसरा आदमी इस थाने में नहीं है।”
“ये मेरे लिए फरव की बात है, सर, कि आप मुझे इतनी अहमियत देते हैं वर्ना मेरी क्या औकात है!”
“भारकर की निगाह में तेरी बहुत बड़ी औकात है।”
“आप ऐसा समझते हैं तो . . . बैंक्यू, सर। अब हुक्म कीजिए काम क्या है?”
“सुन। वो क्या है, कि आज मुझे एसीपी साहब का बुलावा आने से पहले यहां एक गुमनाम टेलीफोन कॉल आई थी जिसमें मेरे किसी पहले के कुकर्म ...आई मीन मिसडीड को लेकर मुझे बाकायदा धमकाया गया था।”
“आपको!” – कदम ने नेत्र फैले – “आप को धमकाया गया था। एक थाना प्रभारी को धमकाया गया था?”
“आज कल जरायमपेशा लोगों के हौसले बहुत बुलन्द हो गए हैं।”
“कमाल है! पर धमकी किस हासिल के लिए?”
“वो उसने नहीं बोला। बोला, फिर फोन करेगा तो बोलेगा।”
“कब?”
“पता नहीं कब। कोई टाइम या दिन तो उसने मुकर्रर किया नहीं!”
“कोई जरायमपेशा भीड?”
“मेरा यही अन्दाज़ा है। क्योंकि किसी शरीफ़ शहरी की ऐसी धमकी जारी करने की – बल्कि ऐसी जुबान ही बोलने की – मजाल नहीं हो सकती।”
“ओह!”
“कदम, मेरा फोकस धमकी पर नहीं, धमकी जारी करने वाले पर है जो कि कोई भारी, खरखराती आवाज वाला मर्द था लेकिन मेरी अक्ल कहती है कि कोई औरत थी।”
“क्या बात करते हैं! कोई औरत मर्दाना आवाज़ में बोली!”
“बाज़ औरतें ऐसी होती हैं जिनकी आवाज़ भारी होती हैं। ऐसी औरत गला और खोल के बोले तो आवाज़ और भारी लगने लगती है। जैसे मर्द गला भींच के बोले तो गुज़ारे लायक ज़नाना आवाज़ निकाल लेता है।”
“कमाल है!”
“कुछ और भी बातें हैं जो उसके औरत होने की चुगली करती थीं।”
“मसलन क्या?”
“मसलन उसका लहजा। डायलैक्ट। बोलने का तरीका। जो कि मझे पंजाबी जान पड़ा। जमा, उसका एक तकिया कलाम मेरी पकड़ में आया। उसने मेरे साथ हुए डायलॉग के दौरान कई बार पर ख़ास लफ्ज़ ‘मल्लबकि’ बोला . . .”
“क्या मतलब हुआ इसका? मेरे ख़याल से तो ऐसा कोई लफ्ज होता ही नहीं - न हिन्दी में और जहां तक मेरा ख़याल है, न पंजाबी में।”
“तेरा खयाल ठीक है। ऐसा कोई लफ्ज़ नहीं होता लेकिन फिर होता भी
“जी!”
“बहुत माथा फोड़ने पर मेरे मगज में बजा कि बोलने वाला जो कहना चाहता था, वो असल में मतलब कि’ था, यानी कि दो लफ्ज़ थे, अपने बोलने के स्थापित अंदाज़ के तहत जिन्हें वो जोड़ कर, बिगाड़ कर एक लफ्ज़ की तरह बोलता था। अपनी तरफ से वो ‘मतलब कि’ ही कहता था लेकिन ख़ास डायलेक्ट के तहत ‘मतलब’ में से ‘त’ हज़्म कर जाता था और दो लफ़्जों को एक लफ़्ज की तरह गडु मडु करके ‘मल्लबकि’ बोलता था और बोलने वक्त बीच-बीच में मल्लबकि’ ठोकना उसकी आदत बन गयी थी।”
“जिसे आपने तकिया क्लाम बोला?”
“हां। जिसे कि अन्दाज़-ए-बयां भी बोलते हैं।”
“लेकिन, गुस्ताखी माफ, सर, इतने से साबित हो गया कि बोलने वाला कोई मर्द नहीं था, औरत थी!”
“ऐसा डायलेक्ट औरतों का ही होता है, ख़ासतौर से पंजाबी औरतों का।”
“सर, फिर गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज़ है कि ये कोई दमदार बात नहीं है, कोई कनविंसिंग बात नहीं है।”
“चल, तू इसे मेरा ज़ाती ख़याल समझ कि बोलने वाली कोई औरत थी और पंजाबी थी। ऐसी सोच के तहत ख़यालात गलत भी तो हो ही जाते हैं!”
कदम ख़ामोश रहा, उसके चेहरे पर आश्वासन के भाव न आए।
“फिर एक दूसरी बात भी तो है जो बोलने वाले के औरत होने की तरफ इशारा करती थी!” – भारकर बोला।
“दूसरी बात क्या?”
“एक बार, सिर्फ एक बार, वो जो बोला, पुल्लिंग की तरह नहीं, स्त्रीलिंग की तरह बोला।”
“जी!”
“कोई औरत पहली बार मर्द की तरह बोली हो तो ऐसी कोताही उससे हो सकती है।”
“कैसी कोताही?”
“डायलॉग के दौरान एक बार उसने बोला – ‘आगे वो शार्ट फिल्म जो मैं आप को फॉरवर्ड करना चाहती हूँ। क्या बोला? ‘चाहती हूँ। कोई मर्द ऐसा क्यों बोलेगा भला? जवाब है, मर्द न बोला औरत बोली, इस सिलसिले में एक बार जिस की जुबान फिसल गई।”
“सर, आपकी ये बात दमदार है लेकिन औरत का पंजाबी होना ....”
“चल, वो मेरा तुक्का सही पर यूं हमें बोलने वाले की एक ख़ासियत तो पता चली – जो कि उसकी शिनाख्त का ज़रिया बन सकती है – कि वो जो बोलती है, अक्सर उसमें ‘मल्लबकि’ जोड़ देती है जो उसकी आदत बन गई है इसलिए मुंह से निकल जाता है। अनजाने में मुंह से निकल जाता है। पता ही नहीं लगता कब मुंह से निकला।”
“ठीक।”
“अब तू कॉल करने वाले को औरत मान के चल और इस बात की तरफ तवज्जो दे कि उसने ख़ुद अपनी जुबानी कहा कि वो तारदेव थाने के एसएचओ के - जो कि मैं हूँ, इन्स्पेक्टर उत्तमराव भारकर – मोबाइल नम्बर से या ई-मेल आइडेन्टिटी से वाकिफ नहीं थी, थाने की लैंडलाइन का नम्बर भी उसे इसलिए मालूम था क्योंकि थाने के बाहर लगे थाने के साइनबोर्ड पर दर्ज था। बोली, तीन लैंडलाइन नम्बर वहां दर्ज थे जिन्हें उसने बारी-बारी बजाया तो तीसरा नम्बर मेरा निकला और उसकी मेरे से बात हो पाई। कदम, लैंडलाइन नम्बर कॉल करने वाले को– अब यकीनी तौर पर वाली को - किसलिए मालूम थे? क्योंकि थाने के साइन बोर्ड पर दर्ज थे। यानी कोई तारदेव पहुंचा, ख़ास इस मकसद से तारदेव पहुंचा, और उसने आकर साइन बोर्ड पर दर्ज थाने के लैंडलाइन नम्बर नोट किए। नो?”
“यस, सर, इट स्टैण्ड्स टु रीज़न।”
“यू एग्री विद वॉट आई सैड?”
“फुल्ली ।”
“तो फिर ये भी रीज़न पर स्टैण्ड करने वाली बात है कि यूं साइन बोर्ड पढ़ने बीस-तीस किलोमीटर कोई नहीं जाता। तारदेव मुम्बई के साउथएण्ड पर है, कोई ऑल दि वे नार्थएण्ड से नहीं पहुंच जाता इस काम के लिए।”
“लेकिन अगर बाशिन्दे की रिहायश ही नार्थएण्ड पर कहीं हो – मसलन बोरीवली में हो, दहिशर में हो, भयंदर में हो!”
“तो उसका इतनी दूर तारदेव में क्या काम?”
“सर, रिजक की तलाश किसी को कहीं भी ले जा सकती है। नार्थएण्ड में कहीं से क्या, लोग-बाग ठाणे से आते हैं, कल्याण से आते हैं, पुणे से आते हैं।”
भारकर ने उस बात पर विचार किया।
“तो” — फिर बोला – “उसकी रिजक की तलाश साउथएण्ड पर कहीं ख़त्म होती होगी! वो इधर कहीं कोई जॉब करती होगी!”
“लेकिन होगी कोई औरत ही! सच में कोई मर्द नहीं?”
भारकर के चेहरे पर नाराजगी के भाव झलके।
“सॉरी, सर।” – तत्काल कदम ने खेदप्रकाश किया – “बोले तो ज़रा लाउड थिंकिंग की।”
भारकर ने सप्रयास सहमति में सिर हिलाया।
“आपका मतलब है रहती कहीं दूर दराज़ होगी!”
“क्या वान्दा है?”
“यूं तो कोई नहीं।” – कदम एक क्षण ठिठका फिर बोला – “बहरहाल, रेजीडेंस हो या वर्क प्लेस हो, साउथएण्ड पर वो औरत – जो कोई भी वो है - तारदेव के आसपास कहीं पाई जाती है!”
“यकीनी तौर पर।”
“सर, फिर गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज़ है, यकीनी तौर पर तो नहीं! अलबत्ता उसके तारदेव के आसपास कहीं की होने की सम्भावना ज़्यादा है।”
“एक बात और भी तो है जो इसी सम्भावना को पुख़्ता करती जान पड़ती है!”
“वो क्या?”
“उस औरत के हमारे मरहूम सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे से ताल्लुकात हो सकते हैं।”
“ख़ामख़ाह!” – कदम तत्काल सम्भला – “सॉरी, सर। जोश में मुंह से निकल गया।”
“वान्दा नहीं।”
“पर फिर भी मैं पूछे बिना नहीं रह सकता कि वो कौन सी बात है जो उस गुमनाम कॉलर का - किसी औरत का रिश्ता एसआई गोरे से जोड़ती है?”
“बात तो है, कदम, लेकिन वो मैं तुझे बता नहीं सकता।”
कदम ने गिला करती निगाह से अपने आला अफसर को देखा।
“यार” – भारकर एकाएक बेतकल्लुफ होता बोला – “कोई तो राज़ भारकर के पास भी महफूज़ रह लेने दे! आखिर तो तेरे को सब बताना ही पड़ेगा लेकिन अभी तो मेरा मान रख। अभी तो ये मान के चल कि उस औरत के गोरे की ज़िन्दगी में उससे ताल्लुकात थे!”
“कैसे ताल्लुकात?”
“जैसे किसी मर्द से किसी औरत के होते हैं।”
“सर, गोरे शादीशुदा, बाल-बच्चेदार आदमी था। ही वॉज ए हैप्पीली मैरीड मैन!”
“अरे, कभी-कभार घर का खाना छोड़ कर किसी का पीज़ा, बर्गर खाने को भी दिल कर सकता है कि नहीं! वड़ा पाव, भेलपूरी खाने को भी दिल कर सकता है कि नहीं!”
कदम ख़ामोश रहा।
“इतना दूध का धुला कोई नहीं होता। मर्द की फितरत होती है मौका लगे तो आसपास मुंह मार लेने की। लेकिन ऐसा कोई कभी-कभार का शगल मैं नहीं समझता कि गोरे की कांशस पर बोझ बन जाता होगा।”
“कभी-कभार का शगल?”
“और क्या? और क्या गोरे का बीवी को तलाक देकर किसी और से शादी करने का इरादा था?”
“ये तो, खैर, नहीं हो सकता था।”
“तो फिर ऐसे नौजवान, हॉट-ब्लडिड शख़्स को, जिसकी बीवी अक्सर मायके गई रहती हो, छोटा-मोटा कैजुअल रिलेशन क्या कहता था?”
“कैजुअल रिलेशन?”
“और क्या सीरियस अफेयर! तू पढ़ा-लिखा, अर्बन मिज़ाज़ वाला भीड़ है, ये न भूल, आदमजात फितरतन पोलीगैमिस्ट होता है। बनाने वाले ने उसे बनाया ही ऐसा है।”
“बोले तो बीवी घर न हो तो गोरे कभी-कभार दाएं बाएं मुंह मार लेता था?”
“और मैं क्या बोला!”
“हम्म!”
“कदम, तू बात को यूं समझ कि मेरे दोपहर के कॉलर को औरत तसलीम किए बिना मेरे मगज में जो कहानी है, वो आगे नहीं बढ़ सकती।”
“ओके! प्लीज़, आगे बढ़िए।”
“आगे ये कि ऐसे ताल्लुकात ज़्यादा फासले पर, दूरदराज़ जगह पर नहीं बनते, कोई वक्ती ज़रूरत आसपास से ही पूरी की जाती है। इस लिहाज़ से औरत का वहीं-कहीं का होना बनता है जहां कि गोरे रहता था, या जहां कि उसकी नौकरी थी।”
“धोबी तलाव के आसपास कहीं! तारदेव के आसपास कहीं!”
“हां। फिर गोरे की इन इलाकों के बार्स में बड़ी गुडविल थी। किसी बार में वो ड्रिंक करने जाता था तो उसकी सर्विस ऑन हाउस होती थी।”
कदम की भवें उठीं।
“भई, उसे बिल नहीं दिया जाता था। इसरार करने पर भी बिल नहीं दिया जाता था।”
“ओह!”
“ऐसे बार्स में रंगीन माहौल होता है क्योंकि बारबालाएं होती हैं, होस्टेसिज़ होती हैं, वेट्रेसिज़ होती हैं, जिनको हिदायत होती है कि मेहमान ख़ास हो तो उसकी ख़ातिर भी ख़ास हो।”
“यानी गोरे की कैजुअल सखी कोई बारबाला, कोई होस्टेस हो सकती थी?”
“हो तो कोई भी सकती थी लेकिन मुमकिन है ऐसी जगहों पर ऐसी यारी लगाना उसे कदरन आसान लगता हो! क्या पता बार ओनर्स की भी इस मामले में शह रहती हो।”
“सर, बार्स तो सारी मुम्बई में बहुताहत में हैं, आपका ख़ास फोकस कहां है?”
“आसपास के बार वाले ठिकानों पर। जैसे ग्रांट रोड, लेमिंगटन रोड, फॉकलैंड रोड, फारस रोड, हेनस रोड वगैरह।”
“मुश्किल काम है। टाइमखाऊ भी।”
“भेजा लगाए तो नहीं मुश्किल, नहीं टाइमखाऊ। देख, कितने टैलटेल क्लूज़ हैं तेरे पास! उस औरत का मुकाम उन इलाकों में से ही किसी में होगा जिनका मैंने जिक्र किया क्योंकि वो धोबी तलाव से करीब हैं जहां कि गोरे रहता था, तारदेव के करीब हैं, क्योंकि तारदेव थाना उसकी वर्क प्लेस था। नम्बर दो, वो औरत थाने का साइन बोर्ड पढ़ने तारदेव पहुंची इसलिए वो किसी दूरदराज़ जगह से इस काम के लिए तारदेव पहुंची नहीं हो सकती थी। नम्बर तीन, उसकी एम्पलायमेंट हॉस्पिटेलिटी बिज़नेस में हो सकती थी। वो उन जगहों के किसी बार की, किसी रेस्टोरेंट की, किसी केटरिंग एस्टैब्लिशमेंट की मुलाज़िम हो सकती थी जिनका मैंने ज़िक्र किया। नम्बर चार, वो गोरे की कैजुअल माशूक हो सकती थी जिसकी उन्हीं बार्स में से किसी से पिक किए जाने की सम्भावना ज़्यादा थी जिनमें गोरे का अक्सर आना-जाना होता था। नम्बर पांच, उसकी आवाज़ मोटी थी जो गला खोल कर बोलने से और मोटी हो सकती थी और मर्दो जैसी लग सकती थी। नम्बर छः, उसके पंजाबी होने की पूरी-पूरी सम्भावना थी। और आखिर में उसका बोलने का अन्दाज़ न भुलाया जा सकने लायक था, पंक्चुएशन मार्क की तरह जाने अनजाने हर तीसरे फिकरे में ‘मल्लबकि’ लगाती थी, यानी बोलती ‘मतलब कि’ थी पर सुनाई ‘मतलब कि’ देता था। इतने क्लूज़ काबू में होने के बाद भी कहता है मुश्किल काम है, टाइमखाऊ काम है?”
“अब नहीं कहता।” – कदम निर्णायक भाव से बोला।
“यानी कर गुज़रेगा कुछ?”
“जी हां।”
“जल्दी। वॉर फुटिंग पर?”
“जी हां। लेकिन सर, इस बारे में अगर कुछ कहते कि आपको कैसे मालूम था कि आपकी कॉलर से गोरे के ताल्लुकात हो सकते थे तो मुझे फास्ट ट्रैक पर ये काम करने में सहूलियत होती।”
“बस, यही एक बात है जो मैं तेरे से साझा नहीं कर सकता। तू मेरा अज़ीज़ है, मेरे दिल के करीब है, लेकिन इस सिलसिले में मेरा कहना मान, ये जान के कहना मान कि ये मेरी ज़िन्दगी का बड़ा राज़ है, मेरी ज़िन्दगी का ऐसा अन्धेरा पहलू है फिलहाल जिसकी परतें उधेड़ना मैं अफोर्ड नहीं कर सकता। तू आंख बन्द करके मेरा यकीन कर और ये मान के चल कि मेरे कॉलर के गोरे से ताल्लुकात होने के बारे में मैंने जो कहा, सौ टांक सच कहा लेकिन अभी ये जानने की ज़िद न कर कि वो बात मेरे को कैसे मालूम है। तू मेरी ये बात मान कर अपना काम कर कि जो क्लू मैंने पेश किए, अगर उनके सदके कोई नतीजा न निकला तो मैं सब कुछ बयान कर दूंगा, कुछ भी तेरे से नहीं छुपाऊंगा। ओके नाओ?”
कदम ने इस बार बिना हिचके सहमति में सिर हिलाया।
“कदम, अगर ये काम तू कामयाबी से कर पाया तो तेरे को तोप की सलामी।”
“सर, मैं आपका बच्चा हूँ, आपके पांव की धूल हूँ, मेरे लिए यही बहुत बड़ा ईनाम होगा कि मैं आपके किसी काम आया, कामयाबी के काम आया।”
“देख तोप की सलामी एक मुहावरा था जो तुझे एनकरेज करने के लिए, मोटीवेट करने के लिए मैंने इस्तेमाल किया। तू ये काम करके दिखा, आइन्दा दिनों में मेरे बाद तू इस थाने का सब से इम्पॉर्टेट पुलिस ऑफिसर होगा। ये मेरा वादा है तेरे से।”
“थै क्यू, सर।”
“आइन्दा जैसे मेरे सिर पर डीसीपी पुजारा का हाथ है, वैसे तेरे सिर पर मेरा हाथ होगा।”
“थैक्यू, सर। मैं कैसे भी आपका ये काम करके दिखाऊंगा, आपकी उम्मीद से जल्दी करके दिखाऊंगा।”
“जीता रह।”
भारकर कोलाबा और आगे टोपाज़ क्लब पहुंचा।
विनायक घटके संयोगवश उसे रिसैप्शन पर ही मिल गया।
जो कि अच्छी बात थी। उसने वहां रेमंड परेरा से भी उसी के बारे में दरयाफ़्त करना था जिसकी अब ज़रूरत नहीं रही थी।
“कैसा है, घटके?” – भारकर बोला।
घटके उसकी तरफ घूमा तो उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आए।
“बाप, तुम इधर!” – उसके मुंह से निकला।
संजीदगी से भारकर ने सहमति में सिर हिलाया।
“कैसे ... कैसे आया, बाप?”
“तेरे से मिलने आया।”
“बोम मारता है, बाप।”
“अच्छा हुआ तू इधर मिल गया वर्ना पूछना पड़ता, पता करना पड़ता।”
“बोले तो क्या मांगता है, बाप?”
भारकर ने एक उड़ती निगाह रिसैप्शन के पीछे मौजूद नुमायशी बाला पर डाली!
“तेरे से बात करने का।” – फिर बोला – “पण इधर नहीं। इधर कोई प्राइवेट करके जगह बोल या मेरे साथ बाहर चल।”
घटके ने सहमति में सिर हिलाया। रिसैप्शन के पीछे ही एक बन्द दरवाज़ा था जिस पर पहुंच कर उसने उसे खोला और भारकर को इशारा किया। भारकर कमरे में दाखिल हुआ तो घटके ने उसके पीछे दरवाज़ा बन्द कर दिया।
वो एक स्टैण्डर्ड ऑफिसनुमा कमरा था जिसमें ऑफिस फर्नीचर – मेज, कुर्सियां, फाइलिंग कैबिनेट वगैरह – के अलावा कुछ नहीं था।
घटके जब तक दरवाजा भिड़का कर वापिस घूमा, उसने भारकर को ऑफिस टेबल के पीछे की कुर्सी पर बैठा पाया।
घटके कुछ क्षण बन्द दरवाज़े पर ठिठका, हिचकिचाया फिर उसने आगे बढ़कर एक विज़िटर्स चेयर पर मुकाम पाया।
तत्काल भारकर के चेहरे पर गहन अप्रसन्नता के भाव आए, घटके से अपेक्षित था कि हाकिम उसे अपने सामने खड़ा पाता और हाकिम की मर्जी होती तो वो उस पर अहसान-सा करता उसे बैठने को बोलता वर्ना इरादतन वो उसे अपने सामने खड़ा रखता।
जिसकी कि नौबत ही न आई।
भारकर ने घूर कर उसे देखा।
घटके की निगाह भटकी तक नहीं, उसने वैसे ही निडर भाव से हाकिम से आंख मिलाई।
“अभी बोलो, बाप।” – घटके सहज भाव से बोला – “बोले तो हुक्म!”
“हुक्म!” – भारकर की भवें उठीं।
“अभी बोला न, बाप, अपुन से मिलना मांगता था! बोले तो . . . हुक्म!”
“हूँ। फोन का जवाब क्यों नहीं देता?”
“तुम लगाया, बाप?”
“हां। तभी तो पूछा!”
“फोन गया, साला। कोई लोकल में पॉकेट मार लिया।”
“नवे का नम्बर बोल!”
“नवां अभी नहीं लिया।”
“क्यों?”
“टेम नहीं मिला।”
“फोन बिना कैसे चलता है?”
“चलता है, बाप। मैं कौन-सा कोई इम्पॉर्टेट करके भीड़ है!”
“परेरा तेरे से बात करना मांगता हो तो?”
“तो, बोले तो, पिराब्लम। कल लेता है नवां फोन।”
“मेरे को नवें नम्बर की ख़बर करके रखने का।”
“बरोबर, बाप। अभी हुक्म बोलो न, बाप!”
“बोलता हूँ। तेरे को सब-इन्स्पेक्टर गोरे की ख़बर लगी?”
“लगी न, बाप! बोले तो कमाल किया! साला अपना ही भीड़ टपका दिया!”
“किसने?”
“हेंहेंहें।”
“हंसता क्यों है?”
“बाप, माफी के साथ बोलता है, तुम्हीं तो हंसाता है!”
“अभी हंस चुका या मैं इन्तज़ार करे?”
“हिन्ट पकड़ा न बाप, बोलता है न! वो क्या है कि तुम्हेरे को किसी भीड़ को फिट करना मांगता था जिसकी वजह से बोला कि मैं तुम्हेरे राडार पर नहीं था। साफ बोला कि कत्ल के मामले में मैं तुम्हेरा निशाना नहीं था, तुलसीवाडी वाले डबल मर्डर के लिए मेरा जिम्मेदार निकल आना तुम्हेरे को माफिक नहीं था, तुम किसी और भीड़ को कातिल प्रोजेक्ट करना मांगता था। अभी किया न मैं यहीच! वेट किया न में! अभी मेरे को मालूम कौन कुर्बानी का बकरा!”
“कौन?”
“तुम्हेरा सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे। साला नायक और उसकी बीवी को मैं टपकाया, ज़िम्मेदार अनिल गोरे, जो साला कुछ भी न किया फिर भी अपनी बेगुनाही की दुहाई देने की जगह पंखे से टंग गया। ख़ुदकुशी कर ली खजूर ने। काहे वास्ते! जब कुछ किया ही नहीं तो काहे वास्ते!” – घटके ने आंखों में अचरज भर कर उसकी तरफ देखा – “साला टोटल कमाल! कैसे कर लेता है, बाप?”
“मैं? मैं कर लेता हूँ?”
“या करवा लेता है, बाप?”
“उसके खिलाफ पक्के सबूत हैं।”
“मालूम। एक ठो साला मैंइच सप्लाई किया! तुलसीवाडी की वारदात की मर्डर वैपन गन साला मैंइच तो दिया तुम्हेरे को! अभी सेम टु सेम गन एसआई गोरे की खुदकुशी के बाद उसके फिलेट से बरामद। खाली उस पर उंगलियों की छाप मेरी नहीं, गोरे की। कैसे वो गन गोरे के फिलेट से बरामद हुई? वो तो मैं तुम्हेरे को दिया! उसके बाद मैं खाली वेट किया। क्योंकि मेरे को मालूम कि जो बकरा मेरी जगह तुलसीवाडी वाले केस में फंसेगा, वो सामने आ जाएगा। अभी फंसा न! सामने आया न!”
“बकवास बन्द कर।” – एकाएक भारकर भड़का – “मैं साला इधर तेरी बकवास सुनने आया!”
घटके को झटका सा लगा।
“सॉरी बोलता है, बाप!” _ वो दबे स्वर में बोला – “साला भाव खा गया मैं। ज्यास्ती बोल गया। सॉरी बोलता है।”
“सॉरी सुना मैं। अभी कान खोल के सुन मैं इधर काहे वास्ते आया।”
“सुनता है न, बाप!”
“तेरे को गवाही देने का। जैसी मैं बोलूं, वैसी गवाही देने का। क्या!”
“आगे बोलो, बाप।”
“मेरी बात गौर से सुन। गवाही में जो तू बोलेगा, उसके लिए तेरा मुंह पकड़ने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि जो भीड़ तेरा मुंह पकड़ सकता था, वो तो टपक गया! साला खुद ही अपने को खल्लास किया।”
“सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे की बात करता है, बाप?”
“हां।”
“मेरे को उसके खिलाफ गवाही देने का था?”
“खिलाफ नहीं। खिलाफ नहीं। उसकी बाबत।”
“बोले तो?”
“जैसे तू परेरा का ख़ास है, वैसे आजकल एसआई अनिल गोरे परेरा का ख़ास बना हुआ था।”
“नक्को !”
“सुनता नहीं है। जब तू ऐसा बोलेगा तो कौन तेरा मुंह पकड़ेगा? जो मर गया?”
“पण ऐसा बोलेगा काहे वास्ते मैं?”
“ताकि पक्की हो कि तुलसीवाडी वाली वारदात के सिलसिले में तेरे बॉस परेरा के मुलाहज़े में गोरे की तेरे से सांठ-गांठ थी।”
“किधर थी? मैं तो .....”
“घटके, जब मैं बोलता है थी तो थी। क्या!”
घटके बेचैनी से पहलू बदलता ख़ामोश हो गया।
“अभी बोले तो तू और अनिल गोरे दोनों पिछले दिनों रेमंड परेरा के ऑर्डर पर काम करते थे और परेरा का ऑर्डर था कि तुलसीवाडी वाला लफड़ा निपटाने के वास्ते तेरे को गोरे के साथ मिलकर काम करने का था।”
“पण परेरा बॉस का ऐसा कोई ऑर्डर नहीं था। होता तो क्या मेरे को खबर न होती?”
“अभी मैं बोला न, था!”
“अरे बाप, ऐसीच भाव नहीं खाने का। पहले बात को समझने का, फिर भाव खाने का।”
“समझा!”
“किसी एसआई अनिल गोरे को मैं जानता हैइच नहीं। जब तुम बोला कि उस दोहरे कत्ल के मामले में तुम्हेरा निशाना मैं नहीं, कोई और था तो तुम कभी न बोला कि वो कोई और कौन था! तुम्हेरे एसआई के साथ उसके धोबी तलाव के फिलेट पर जो बीती, उसको मैं कैसे भी नहीं जान सकता था, उसकी मेरे को तभी खबर लगी थी जबकि मैं खबर छापे में देखा। अभी बोलो, कैसे मैं उस भीड़ की बाबत कोई बयान दे सकता है जिसको मैं जानता तक नहीं, जिसकी मैंने कभी शक्ल तक नहीं देखी?”
“जानता था। रेमंड परेरा के जनवाए जानता था। तेरे को ऐसीच बोलने का।”
“कि मैं गोरे के साथ मिलकर काम करता था?”
“परेरा के हक्म पर।”
“बोले तो कत्ल में मैं भी शरीक था? शरीक नहीं था तो जो गोरे करने वाला था, मेरे को उसकी खबर थी?”
“हां।”
“हां, बोला, बाप! ऐसी गवाही देने का मतलब समझता है, बाप!”
“तेरे को कुछ नहीं होगा।”
“नहीं होगा! मैं कत्ल में शामिल समझा जाऊँगा।”
“वो तो तू है ही।”
“मैं अनिल गोरे की जुगलबन्दी में कत्ल में शामिल समझा जाऊँगा। और तुम्हेरे कहे मुताबिक मैं ख़ुद अपनी मौत का परवाना साइन करता होयेंगा।”
“इतनी लम्बी छोड़ने का नहीं, घटके। अपनी गवाही के ज़रिए तू खाली हिंट टपकायेगा कि सब किया धरा गोरे का था।”
“हिंट भी किधर से आएगा? जब मैं भीड़ को जानता थाइच नहीं ....”
“अरे, उसके खिलाफ और भी तो पुख़्ता सबूत हैं!”
“तो उन्हीं को काफी मानो न!”
“नहीं।”
“तेरा गवाह बनना ज़रूरी है।”
“नहीं।”
“अरे, मैं तेरे को वादामाफ गवाह बनवा दूँगा।”
“तो भी नहीं।”
“इंकार करता है? मेरे हुक्म से इंकार करता है?”
“मजबूरी है, बाप। ऐसी झूठी, बेबुनियाद गवाही मेरी वाट लगा देगी। मेरे को नहीं मांगता।”
“मेरे से बाहर जाएगा, साले, तो वाट तो तेरी लग के रहेगी। साले, दो खून कर चुकने के बाद ...”
“कौन से दो खून कर चुकने के बाद?”
“सुबोध नायक और नीरजा नायक के दो खून कर चुकने के बाद।” ।
“वो तो तुम्हेरे एसआई अनिल गोरे ने किए! ख़ुद छापे में साबित करके दिखाया। चश्मदीद गवाह की गवाही से साबित करके दिखाया”
भारकर भौंचक्का-सा घटके का मुंह देखने लगा।
“साले!” – फिर वो सांप की तरह फुफकारता बोला – “मैं चाहूँ तो केस को पलट सकता हूँ। असल में तो तू ही है कातिल!”
“कौन बोला?”
“तू ख़ुद बोला। वरली के फ्लैट में मेरे सामने ख़ुद बोला।”
“नहीं बोला।”
“मैंने तेरे पास से आलायकत्ल बरामद किया। उस पर तेरी उंगलियों के निशान हैं।”
“और आगे जब एसआई गोरे के सिर थोपा तो उस पर उसके भी उंगलियों के निशान। बरोबर?”
भारकर सकपकाया।
“आलायकत्ल तो एकीच गन, बाप। और तुम्हेरे अपने महकमे के श्याने लोग साला विलायती टैस्ट करके साबित करके रखा कि वहीच कत्ल का औजार और उस पर ‘कातिल’ – मैं नहीं बोला, तुम बोला, बाप – एसआई अनिल गोरे की उंगलियों की छाप। फिर मेरे पास से कैसे तुम वो आलायकत्ल बरामद करके दिखाया?”
विचलित भारकर ने अपलक घटके की तरफ देखा।
“ऐसे क्या देखता है, बाप?” – घटके सहज भाव से बोला।
“पर निकल आए तेरे, साले हलकट!” – भारकर दांत पीसता बोला – “काटने पड़ेंगे।”
“कैसे करोगे, बाप? जरिया तो हाथ से निकल जाने दिया!”
“तेरे से बरामद गन को मैंने पहले पुलिस एक्सपर्ट के हवाले किया था जिसने उस पर बने उंगलियों के निशानों की तस्वीरें निकाली थीं जो कि मेरे पास हैं। ये पहले ही पक्की हो चुका है कि जिस गन पर से वो निशान उठाए गए थे, उसी से वो गोलियाँ चली थीं जो नायक पति-पत्नी के जिस्म से निकाली गई थीं।”
“बोले तो मैं कातिल?”
“हां।”
“मेरे को इलज़ाम मंजूर, बाप। अभी मेरे को गिरफ्तार करो, पंचनामा करो, कातिल ठहरा के कोर्ट में पेश करो और सजा दिलवाओ मेरे को। फांसी की ही दिलवाना। क्या?”
भारकर ने जवाब देते न बना।
“बाप, तुम हाकिम है, बड़ा हाकिम है, रसूख वाला हाकिम है, तुम्हेरे पास किसी के भी पर काटने के, किसी की भी वाट लगाने के बहुत जरिए हैं। तुम्हेरे हाथ में ताकत है, तुम्हें उसको किसी के भी खिलाफ इस्तेमाल करने से कोई नहीं रोक सकता पण कभी-कभी कोई-कोई ताकतवर को भी उलटी पड़ जाती है।”
“क्या मतलब है, भई, तेरा?”
“मतलब समझाने के वास्ते मेरे को उठके जाना पड़ेगा। बाप, जाने दोगे या मैं अभीच गिरफ्तार है?”
“कहां जाना चाहता है?”
“बोलेगा न! तुम्हेरे ही तो काम से जाने का!”
“मेरे काम से?”
“तुम्हेरे मतलब के काम से। खाली जा के आने का।”
“जा।”
“शुक्रिया बोलता है, बाप।”– वो उठ खड़ा हुआ- “पीछे कोई ठण्डा? गर्म?”
“नहीं।”
“या डिरिंक। शाम का टेम है . . .”
“टेम खोटी न कर।”
“जाता है, बाप।”
भारकर को पीछे अनजाने सस्पेंस में छोड़कर घटके वहां से रुख़सत हुआ। भारक पीछे बैठा उंगलियों से मेज ठकठकाता रहा, पहलू बदलता रहा।
जाके आने वाला घटके दस मिनट में लौटा।
भारकर ने आंखें तरेर कर उसे देखा।
“सॉरी बोलता है, बापा”-घटके बोला- “लैपटॉप मांगे काथामने में टेम लगा।”
“लैपटॉप किस वास्ते मांगता था?”
“बोलता है न, बाप” – घटके वापिस कुर्सी पर बैठा। उसने लैपटॉप ऑन किया उसके स्लॉट में पैन ड्राइव लगाई और जब स्क्रीन पर जगमग हो गई तो लैपटॉप का मुंह भारकर की ओर घुमा दिया।
“क्या है?” – भारकर रुखाई से बोला।
“देखने का न, बाप!” – घटके अनुनयपूर्ण स्वर में बोला।
भारकर स्क्रीन पर देखने तो लगा लेकिन जल्दी ही उतावला हो उठा।
“अरे, क्या है ये?” – वो झल्लाया।
“अभी, बाप, अभी। बस अभी तुम्हेरै मतलब का शो शुरू होता है।”
भारकर को स्क्रीन पर अपनी सूरत दिखाई दी।
फिर दोनों की।
संजीदासूरत उसने स्क्रीन पर से तब तक निगाह न उठाई जब तक कि रिकॉर्डिंग ख़त्म न हो गई।
घटके ने लैपटॉप अपनी तरफ किया, पैन ड्राइव को निकाल कर जेब के हवाले किया और लैपटॉप बन्द कर दिया।
“क्या!” – घटके बोला।
“हूँ।” – भारकर ने निरर्थक, गम्भीर हूँकार भरी।
“बोले तो मेरे को मेरे फिलेट में पहले भेजना तुम्हेरा मिस्टेक। बोले तो टोटल बलंडर। तुम्हेरे फिलेट पर पहुंचने से पहले मैं उधर खुफिया रिकॉर्डिंग का खुफिया इन्तजाम करके रखा ...”
“खड़े पैर इन्तज़ाम किधर से आया?”
“रखता है न, बाप। परेरा बॉस के काम आता है, इस वास्ते रखता है। अभी काम आया न!”
“परेरा के?”
“पहले मेरे। बाद में शायद परेरा बॉस के भी।”
“हूँ।”
“अब सब वीडियो रिकॉर्डिंग में कि तुम्हेरे को मालूम कि मैं कातिल, फिर भी जानते बूझते मेरे को नक्की करके रखा और दूसरे, बेगुनाह भीड़ को - अपने ही मातहत पुलिस अफसर को – कातिल प्रोजेक्ट करने का इन्तज़ाम किया। अभी” – घटके के स्वर में धृष्टता का पुट आया – “जो देखा, जो सुना, मुकरना उससे।”
“क्या मांगता है?”
“पिरेशर नहीं मांगता, बाप। पिरेशर का इन्तजाम तुम्हेरे पास था पण ज्यादा होशियारी के चक्कर में, बाप, तुम उस इन्तजाम को मेरे खिलाफ इस्तेमाल में लाने का चानस खो दिया।”
“जानता है न, किस से बात कर रहा है!”
“जानता है, बाप। जानता है इस वास्ते मेरे को फिकर। साला पोटला बनवा देगा और साथी लोग ढूंढ़ता होयेंगा कि किधर गया विनायक घटके करके भीड़!”
“फिर भी ये तेवर हैं?”
“मजबूरी है, बाप। तुम जो मेरे को चानस देता है, वो ऐसीच है जैसे कि पूछता हो – जहर खा के मरना मांगता है या गोली खा के!”
“लपेटे वाली बात न कर। साफ बोल, क्या मांगता है?”
“बाप, पूछो, क्या नहीं मांगता! बोगस गवाह बनना नहीं मांगता। वादामाफ भी नहीं। तुम मरने वाले के खिलाफ अभी भी जो मर्जी करो पण बाप, जो करो उसमें मेरे को शामिल न करो।”
“ठीक है। तब चुप तो रहेगा?”
“बाई गॉड खा के बोलता है, हां।”
“ये रिकॉर्डिंग नष्ट कर देगा?”
“अभी नहीं।”
“हूँ।”
ख़ामोशी छा गई।
‘रिकॉर्डिंग! रिकॉर्डिंग! रिकॉर्डिंग!’ – वो मन ही मन कुढ़ रहा था – ‘साली माडर्न टैक्नॉलोजी ही जी का जंजाल बन गई!’ ‘साला, अपनी मौत बुलाता है। जानता नहीं कौन हूँ मैं! नाग हँ मैं। काला नाग। अभी पसर ले हठेला, आखिर जानेगा। न गोटी से लटकाया तो मेरा भी नाम उत्तमराव भारकर नहीं।’
“मेरी परेरा से बात करा।” – एकाएक वो बोला।
“सॉरी, बाप” – घटके विनयशील स्वर में बोला – “परेरा बॉस ये टेम क्लब में नहीं है।”
“जब उसका क्लब में होने का टाइम ही ये है तो क्यों नहीं है?”
“चानस की बात है बाप। बॉस को और भी काम होते हैं।”
“नम्बर दे उसका।”
घटके ने रिसैप्शन से क्लब का फैंसी कार्ड लाकर उसे दिया।
“तेरा नम्बर भी मांगता है मेरे को। अभी तू साला हवा में उड़ता है इस वास्ते हवाबाज़ से कभी मेरे को भी बात करने का। जब नवां फोन खरीद ले, तब नम्बर पहुंचाना।”
“बरोबर, बाप।”
“जाता है।”
“मैं पीछू परेरा बॉस को बोले एसएचओ भारकर साहब आया?”
भारकर ने जवाब न दिया। बिना घटके पर दोबारा निगाह डाले वो वहां से रुखसत हो गया।
उसे पूरा यकीन था कि परेरा क्लब में ही था और घटके ने जो ज्यास्ती टाइम लगाया था, वो परेरा से मशवरा करने में, उससे हिदायात हासिल करने में लगाया था।
‘अरे, मैं साला थानेदार है या चौकीदार है!’ – भारकर ख़ुद पर कलपा - ‘साला हर कोई मेरे खिलाफ बोलता है। डरता ही नहीं कोई! अनिल गोरे की तो फिर भी कोई बात थी, वो साली दो टके की फरेबी औरत कोंपल मेहता थाने आके हूल दे गई मेरे को। साली डरने की जगह डरा गई। अभी ये गटर छाप फंटर कुत्ते की तरह भौंकता है। साला जिस कुत्ते को निवाला दिया, वो भी भौंकता है। वीडियो हर किसी की ताकत साला।
‘देवा!’
‘देबूंगा’- दांत पीसता वो मन ही मन बोला- ‘घटके और उसके बाप परेरा, दोनों को देखंगा। इतनी आसानी से हालात से मात खाने वाला नहीं मैं। मौजदा हालात में कोई जान जोखम वाला कदम भी उठाना पड़ा तो उठाऊंगा। अभी डीसीपी पुजारा है न सिर पर! मेरे से नहीं होगा तो वो सब सैट कर देगा। मिलता हूँ पहली फुरसत में।’
यूं ही अपने आपको तसल्लियां देता भारकर कोलाबा से वापिस लौटा।
□□□
अपने नए, विशिष्ट अभियान की शुरुआत झालानी ने रतन टाटा मार्ग वाले हस्पताल से की।
सुबह साढ़े दस बजे वो वहां पहुंचा।
डॉक्टर अधिकारी हस्पताल में मौजूद था।
झालानी ने उसे अपना परिचय दिया, ‘एक्सप्रेस’ का अपना आई-कार्ड दिखाया और पांच मिनट की मुलाकात की दरख्वास्त पेश की।
“मुलाकात का प्रयोजन?” – डॉक्टर बोला।
“प्रयोजन नौकरी ही है, सर, जो मैं ‘एक्सप्रैस’ के रिपोर्टर के तौर पर इस घड़ी कर रहा हूँ।”
“मतलब?”
“मैं नायक पति-पत्नी के डबल मर्डर को इनवैस्टिगेट कर रहा हूँ।”
“ये पुलिस का काम है।”
“मेरा भी है। बतौर इनवैस्टिगेटिव जर्नलिस्ट मेरा भी है। मैं खोजी पत्रकार हूँ, खोज करना मेरा काम ही नहीं, फर्ज़ भी है। इसी काम की मुझे तनख़ाह मिलती है।”
“हूँ। आओ।”
डॉक्टर उसे एक छोटे से केबिन में लेकर आया जहां वो दोनों आमने-सामने बैठे।
“मैने आईसीयू में वापिस लौटना है” – उसने जैसे आगाह किया – “इसलिए मैं कोई कर्टसी ऑफर नहीं कर सकता।”
“ज़रूरत भी नहीं, सर।” – झालानी तनिक व्यग्र भाव से बोला – “मेरे लिए यही बड़ी कर्टसी है कि आपने मुझे टाइम दिया।”
“पांच मिनट।”
“श्योर, सर। आइल कम टु दि प्वायंट राइट अवे!” – उसने अपनी जेब से पिछले रोज़ एसीपी कुलकर्णी से हासिल फोटोकॉपी निकाली और उसे सीधा कर के दोनों तरफ से डॉक्टर को दिखाया। – “सर, आपको ख़बर ही होगी कि ये वो तस्वीर है जिसके सदके दिवंगत नीरजा नायक ने तुलसीवाडी के शूटर की, अपने हमलावर की, शिनाख़्त की थी और इन्स्पेक्टर भारकर के इसरार पर – जिसके पास कि तफ्तीश के लिए वो केस था – आपकी मौजूदगी में अपने दस्तख़तों के तहत तस्वीर को सत्यापित किया था।”
“ठीक।”
“यानी इस बात को मोहरबन्द किया था कि तस्वीर वाला शख्स ही तुलसीवाडी का शूटर था।”
“हां। अख़बार में भी छपी थी।”
“और आपने भी तस्वीर को एनडोर्स किया था!”
“नहीं।”
“जी!”
“मैंने तस्वीर को नहीं, पेशेंट नीरजा नायक के दस्तख़तों को एनडोर्स किया था। यानी एक तरह से गवाही दर्ज की थी कि पेशेंट ने मेरी मौजूदगी में तस्वीर की पुश्त कर दस्तख़त किए थे और तारीख डाली थी।”
“मतलब कि तस्वीर आपने नहीं देखी थी?”
“तब नहीं देखी थी। तब इन्स्पेक्टर ने मुझे तस्वीर दिखाना ज़रूरी नहीं समझा था, सिर्फ तस्वीर पर मेरी एनडोर्समेंट के तौर पर मेरे दस्तख़त हासिल करना ज़रूरी समझा था।”
“जैसे नोटरी बिना डाकूमेंट्स को पढ़े उनको नोटराइज़ करता है?”
“यू सैड इट।”
“आपने कहा, तस्वीर तब नहीं देखी थी लेकिन आखिर ....आखिर देखी थी?”
“हां।”
“कब? कैसे?”
“नीरजा नायक के आईसीयू स्टेशन से इन्स्पेक्टर मेरे साथ बाहर निकला था, तब तस्वीर उसके हाथ में थी और उसका रुख मेरी तरफ था। तब आइडल क्यूरासिटी के तौर पर मैंने पूछा था कि येथा वोशूटर! वो कातिल! और इन्स्पेक्टर ने उस बात की तसदीक की थी।”
“ओह! यानी जैसे आपकी पेशेंट का तस्वीर में दर्ज सूरत से वाकफियत का दावा था, वैसे आपका कोई दावा नहीं था?”
“कैसे होता, भई? मैं क्या नीरजा नायक की तरह मौका-ए-वारदात पर मौजूद था!”
“सॉरी! वैरी स्टूपिड ऑफ मी।”
“तभी तो बोला मैंने तस्वीर को नहीं, अपने पेशेंट के दस्तख़तों को - यूँ समझो कि बतौर गवाह – एनडोर्स किया था।”
“तस्वीर में दर्ज सूरत याद रही आपको?”
“भई, एक सरसरी निगाह डालने का ही मौका मिला था। इतने भर से ही वो कैमरा प्रिंट की तरह तो मेरे जेहन में दर्ज नहीं हो गई थी!”
“कुछ तो याद रहा ही होगा?”
“हां, कुछ तो याद रहा!”
“कोई नोन ऑफेंडर था? हिस्ट्रीशीटर था?”
“ये सवाल मैंने भी इन्स्पेक्टर से किया था। उसने उसके ऐसा कोई शख़्स होने की तसदीक नहीं की थी।”
“क्योंकि तस्वीर किसी ऑफेंडर की, किसी हिस्ट्रीशीटर की थी ही नहीं, तस्वीर एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर की थी, अनिल गोरे की थी, जिसने अपने फ्लैट में फांसी लगाकर कल रात ख़ुदकुशी कर ली और केस का प्रभारी अधिकारी जिसे बतौर कातिल प्रोजेक्ट कर रहा है।”
“क्या! एक पुलिस ऑफिसर को?”
“ऐसे पुलिस ऑफिसर को जिसने अपने किसी बुरे अंजाम से ख़ौफ खाकर ख़ुदकुशी कर ली।”
“आई कान्ट बाई दैट।”
“मेरे पास ‘एक्सप्रेस’ में छपी उसकी तस्वीर है।” – झालानी ने पेपर की एक कटिंग पेश की।
डॉक्टर ने ग़ौर से उस तस्वीर को देखा।
“इसी शख़्स की थी वो तस्वीर”– झालानी अपलक डॉक्टर को देखता बोला – “जो आपने इन्स्पेक्टर भारकर के हाथ में देखी थी?”
“भई, जब तुम कहते हो, तुम्हारा अख़बार कहता है, इनवैस्टिगेटिंग पुलिस ऑफिसर कहता है, मकतूला नीरजा नायक की एनडोर्समेंट कहती है तो और किसकी होगी?”
“सर, गुस्ताख़ी माफ, ये जवाब नहीं है, आyमेंट है। आप, प्लीज़, बिना किसी बात से प्रभावित हुए अपनी कनसिडर्ड ओपिनियन बयान कीजिए, अपना बैटर जजमेंट बयान कीजिए।”
डॉक्टर ख़ामोश हो गया। एकाएक वो बेचैन दिखाई देने लगा। कई बार उसने बेचैनी से पहलू बदला।
झालानी धीरज से उसके जवाब की प्रतीक्षा करता रहा।
“मैं किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता।” – डॉक्टर बोला – “आई डोंट वॉन्ट टू रेज़ ऐनी कन्ट्रोवर्सी।”
“लगता है तस्वीर से आप मुतमईन नहीं!”
“अब क्या बोलूं? सिवाय इसके कि मैं कोई कन्ट्रोवर्सी नहीं चाहता। मैं पुलिस की कोई लाइन क्रॉस नहीं करना चाहता।”
“पुलिस की कोई लाइन क्रॉस करने की कोई नौबत क्योंकर जाएगी भला?”
“नो कमैंट्स।”
“सर, आपके मन में कुछ है। मैं आपसे दरख्वास्त करता हूँ कि जो आपके मन में है, उसे आप मेरे साथ शेयर करें।”
“एक मीडिया पर्सन के साथ ....”
“एक ज़िम्मेदार, कमिटिड मीडिया पर्सन के साथ।”
“... जो बाजरिया मीडिया सारे शहर में, बल्कि सारे मुल्क में, ढिंढोरा पीट देगा!”
“सर, ए जर्नलिस्ट नैवर रिवील्ज़ हिज़ सोर्स ऑफ इनफर्मेशन। इस कमिटमेंट के तहत, बल्कि इस ज़िद के तहत, कई पत्रकार जेल जा चके हैं। उन्होंने सज़ा भुगत ली, अपना मुंह न खोला ...”
“युअर फाइव मिनट्स आर अप।”
“सर, ऐसा न कीजिए। मैं आपसे वादा करता हूँ कि जो भी बात होगी, वो हम दोनों के बीच में रहेगी।”
डॉक्टर ने उतावले भाव से अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली।
“ओके!” – वो बोला – “सुनो!”
“प्लीज़, सर! आई एम ऑल इयर्स।”
“लेकिन ये सोचकर, ये समझकर सुनो कि जो तुमने सुना वो मैंने नहीं कहा।”
“सर, मैं समझा नहीं।”
“समझो। इतने नादान नहीं हो। आखिर स्थापित, प्रतिष्ठित खोजी पत्रकार हो। अगर तमने किसी बात का सोर्स मेरे को प्वायन्ट आउट किया तो मैं साफ मुकर जाऊँगा।”
“आप ऐसा करेंगे?”
“हां।”
“एक ज़िम्मेदार ...”
“डोंट वेस्ट टाइम। माई प्रेजेंस इन आईसीयू मे बी रिक्वायर्ड एनीटाइम।”
“सर, आई गिव यू माई सॉलम वर्ड, माई पेपर्स सॉलम वर्ड, दैट वॉटऐवर यू से नाओ, वोट गो बियांड दि टू ऑफ अस।”
“यकीन किया मैंने तुम्हारी बात पर। अब सुनो। पिछले शुक्रवार इन्स्पेक्टर भारकर की आईसीयू में विज़िट से फारिग हो के उसके वहां से रुखसत होते वक्त जो तस्वीर मैंने उसके हाथ में देखी थी, वो ये नहीं थी जो तुम मुझे अब दिखा रहे हो!”
“श्योर?”
“नॉट हण्डर्ड पर्सेट बट फेयरली श्योर।”
“लेकिन ये कैसे हो सकता है! इस तस्वीर की-जो कि सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे की है, मकतूला नीरजा नायक ने बाकायदा, पुख़्ता शिनाख्त की थी और शिनाख़्त को मोहरबन्द करने के लिए तस्वीर को अपने दस्तख़तों से दो गवाहों के सामने बाकायदा एंडोर्स किया था और आपने अपने दस्तख़तों के ज़रिए डबल एनडोर्स किया था ....”
“कैसे हो सकता है, घर जा के सोचना।” – डॉक्टर एकाएक उठ खड़ा हुआ – “क्या, कैसे, क्योंकर हो सकता है, बहस का मुद्दा है जिसमें मैं खुद को शरीक नहीं करना चाहता।”
“लेकिन ...”
“बस! मैं पहले ही ज़रूरत से ज़्यादा बोल गया हूँ। पत्रकारों का ये भी शायद कोई कमाल है कि जैसे-तैसे ज़ुबान खुलवा ही लेते हैं। अब अपने वादे पर खरे रहना। मेरे से तुमने कुछ नहीं जाना। वादाफरामोश बन कर दिखाओगे तो... तो मुझे अफसोस होगा। इंसानी आला किरदार पर से मेरा ऐतबार हमेशा के लिए उठ जाएगा।” – वो उठ खड़ा हुआ— “मैं जाता हूँ। तुम बेशक बैठो।”
“सर! सर!” _ झालानी भी चाबी लगे गड्डे की तरह उठा – “प्लीज़! प्लीज़! एक आखिरी सवाल! पॉजिटिवली दि लास्ट क्वेश्चन!”
डॉक्टर ठिठका, उतावलेपन के हवाले उसने झालानी की ओर देखा।
“आप कहते हैं कि जो तस्वीर उस रोज आईसीयू में आपने इन्स्पेक्टर के हाथ में देखी, वो ये तस्वीर नहीं थी जो मैंने आपको अख़बार में छपी दिखाई, जिसकी पुश्त पर मकतूला नीरजा नायक की एनडोर्समेंट थी। आप इस बारे में, बकौल ख़ुद, हण्डर्ड पर्सेट श्योर नहीं हैं लेकिन हैं भी ....” ।
“आगे! आगे!”
“मैं ये मान के चलता हूँ कि आपने कोई जुदा तस्वीर देखी....”
“अरे, भई, आगे! आगे!”
“जो जुदा तस्वीर आपने देखी, उसको फिर देखने का मौका आपको मिले तो आप उसे पहचान लेंगे?”
“हं-हां।”
“फिर भी जबकि उस वाकए को दो दिन हो चुके हैं?”
“हां।”
“थैंक्यू, सर। “थैंक्यू वैरी मच, सर।”
डॉक्टर ने सहमति में सिर हिला कर थैंक्यू’ कुबूल किया।
साढ़े ग्यारह बजे से झालानी तारदेव थाने में था और अब एक बज चुका था।
वो तमाम वक्त उसने कैन्टीन में बैठकर थाने के जूनियर स्टाफ के साथ गपशप में गुज़ारा था और थानाध्यक्ष भारकर से और उसके चमचे एसआई कदम से - कदम के उस स्पैशल स्टेटस की थाने में सबको ख़बर थी - आमना-सामना होने से ख़ास परहेज़ किया था।
जो डेढ़ घन्टा उसने थाने के जूनियर स्टाफ के साथ सर्फ किया था, उसमें एकाध बात को छोड़कर-जो कि एक निगाह में कोई ख़ास अहम भी नहीं लगती थी – उसकी जानकारी में कोई ख़ास इज़ाफ़ा नहीं हुआ था। वो बात जो सहज स्वाभाविक ढंग से, रोज़मर्रा की गुफ्तगू के तौर पर उसके कान में पड़ी थी वो ये थी कि दो हफ्ते पहले बतौर नॉरकॉटिक्स पैडलर एक औरत पकड़ कर थाने लाई गई थी तो उसको ख़ुद थानाध्यक्ष ने हैंडल किया था लेकिन बिना उसके खिलाफ कोई केस दर्ज किए उसे जल्दी ही रिहा कर दिया गया था। झालानी ने उसके बारे में और जानकारी खोदने की कोशिश बराबर की लेकिन कामयाब न हो सका।
फिर भी उसने उम्मीद न छोड़ी क्योंकि अभी उसकी आस्तीन में तुरुप का एक पत्ता और था।
हवलदार लक्षमणराव भाटे।
हवलदार भाटे से झालानी की बढ़िया बनती थी और भाटे भी झालानी को बाकायदा भाव देता था, उसकी पीठ पीछे उसकी इज्ज़त करता था।
थाने में जूनियर स्टाफ में उसकी पीठ पीछे सब उसे नारद मुनि कहते थे। और जो नारद मुनि के नाम से नहीं वाकिफ थे, उसे ऑल इन्डिया रेडियो कहते थे। उसे ख़बर लगी कि हवलदार भाटे सुबह से ही थाने में नहीं था लेकिन लंच तक ज़रूर लौट आने वाला था।
सिगरेट फूंकता झालानी धीरज से उसके लौटने का इन्तज़ार करता रहा।
वो दो बजे लौटा।
झालानी उसके रूबरू हुआ।
“नमस्ते, हवलदार साहब!” – वो मीठे स्वर में बोला।
हवलदार भाटे ने सिर उठाया फिर हर्षित भाव से तत्काल बोला – “अरे, अख़बारी लाल जी!”
भाटे झालानी को बड़े स्नेहभाव से अखबारी लाल कहता था जिसका झालानी कभी बुरा नहीं मानता था। आखिर स्क्राइब का हिन्दी संस्करण अखबारी लाल बनता तो था!
हवलदार लक्षमणराव भाटे उम्रदराज शख़्स था जो और दो साल में रिटायर होने वाला था। उसके सारे सहकर्मी, ख़ासतौर से उसकी उम्र की वजह से, उसकी इज़्ज़त करते थे, अदब करते थे।
भाटे एक भारी भरकम फ्रेम वाला लम्बा ऊंचा मराठा था जो उस उम्र में भी चश्मा नहीं लगाता था। उसके व्यक्तित्व की ख़ास शिनाख़्त उसकी मूंछ थी जिनको उसकी पीठ पीछे उसके सहकर्मी पुलिसिये रावण की मूंछ कहते थे- जो उससे ख़ास हिले-मिले थे, वो उसके मुंह पर भी कहते थे – लेकिन भाटे कभी बुरा नहीं मानता था। उसकी भवें भी उसकी मूंछ जैसी ही घनी और उलझी उलझी थीं। आकार इतना विशाल था कि बामुश्किल वर्दी में समाता था। तोंद तो बाकायदा बैल्ट के ऊपर से बहती जान पड़ती थी।
लेकिन ख़ुशमिज़ाज़ था। अक्सर ख़ुद कहता था – ‘सालो, भड़वो, मोटे ख़ुशमिज़ाज़ ही होते हैं।’
या जो ख़ुशमिज़ाज़ होते हैं, वही मोटे हो जाते हैं।
“कैसे हो, लक्ष्मण जी!” – झालानी बोला।
“बस, किरपा है महालक्ष्मी की! गणपति बप्पा की। आप कैसे हो, पंकज बाबू?”
“इधर भी सब ठीक ही है।”
“ठीक ही होना चाहिए। कैसे आए? इधर से गुज़र रहे थे, चले आए या कोई काम लाया?”
“अरे, हवलदार साहब, मेरा तो पेशा ही ऐसा है कि चारों दिशाओं में ही काम होता है। जिधर का भी रुख हो जाए, काम निकल जाता है या काम निकाल लेता हैं।”
“ऐसा?”
“हां।”
“अभी काम निकला या निकाला?”
“दोनों ही काम हुए।” – फिर झालानी ने जल्दी से जोड़ा – “लंच किया?”
“कहां! अभी तो लौटा!”
“मैंने भी नहीं किया।”
“ऐसा?”
“बोले तो बाई चांस।”
“फिर तो कैंटीन में चलते हैं।”
“नहीं, वहां नहीं।”
“वजह?”
“गब्बर आ जाएगा।”
“गब्बर आ जाएगा! ओह! अभी मिले नहीं एसएचओ साहब से!”
“नहीं मिला। साम्बा से भी नहीं मिला।”
“साम्बा! हा हा हा। बोले तो कदम! मज़ाख . . . मज़ाख बढ़िया करते हो, पंकज बाबू!”
झालानी हंसा।
“बाहर चलते हैं।” – फिर बोला – “आज लंच मेरी तरफ से।”
“वो तो एक ही बात है। पण मैं ज़्यादा देर बाहर नहीं रह पाऊँगा। जिस काम से बाहर भेजा गया था, उसकी मेरे को रिपोर्ट पेश करने का।”
“अभी लौटे कहां हो!”
“ऐसा?”
“हां।”
“फिर तो चलो।”
दोनों आजू-बाजू चलते परिसर से बाहर की ओर बढ़े।
“वैसे भी” – झालानी रास्ते में बोला – “भूख ज़्यादा लगी हो तो खाना जल्दी खाया जाता है।”
“वो तो है!”
“यूं जो टाइम बचेगा, उसमें एकाध दिल की बात कर लेंगे।”
“करना न, पंकज बाबू, क्या वान्दा है?”
दोनों एक करीबी रेस्टोरेंट में पहुंचे जहां झालानी ने भाटे की ख़ास पसन्दीदा डिशिज़ का ऑर्डर दिया।
दोनों ने ख़ामोशी से लंच किया।
आखिर में पंकज ने उसे एक सिगरेट पेश किया – जो उसने बड़े कृतज्ञ भाव से कुबूल किया - और एक ख़ुद लिया। उसने बारी-बारी दोनों सिगरेट सुलगाए। भाटे ने सिगरेट का एक लम्बा, तृप्तिपूर्ण कश लगाया और बोला – “अब बोलो, अखबारी बाबू, क्या जानना चाहते हो? कौन सी सूंघ तारदेव थाने लाई?”
“ऐसा कुछ कब कहा मैंने?” – झालानी ने जानबूझ कर हड़बड़ा कर दिखाया।
“हर बात कहने की ज़रूरत पड़ी तो क्या फर्क हुआ हवलदार लक्षमणराव भाटे में और काले चोर में! अरे, भई हम हम हैं, उड़ते पंछी के पर गिन लेते हैं। पूछ के कुछ जाना तो क्या हम हुए!”
“क्या कहने!”
“ये बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं।”
“सफेद कहां! गणपति खैर करें, सब काले हैं।”
“मुहावरा इस्तेमाल किया।”
“ओह! मुहावरा इस्तेमाल किया। मैं भी तो कहूँ बाल कहां सफेद ...”
“मेरे ख़याल से अब चैनल चेंज कर लो। थाने देर से लौटना मैं भुगत लूँगा पण ज्यास्ती देर नहीं भुगत पाऊंगा। बोलो, क्या है मगज में?”
“है तो सही कुछ!”
“क्या?”
“इत्तफाक से तुम्हारे थाने से ताल्लुक रखती एक बात पता लगी जो... बोले तो खटकने वाली थी।”
“क्या?”
“तुम्हें तो मालूम ही होगी ....”
“अरे, मेरे को बहुत बातें मालूम हैं। पण ये तो पता लगे कि ये टेम कौन-सी बात है जो खटकने वाली है!”
“साफ बोलू?’
“हां। आपसदारी में पर्दादारी थोड़े ही होती है!” ।
“बोलता हूँ तुम्हारी इजाज़त से। वो क्या है कि कोई दो हफ्ते पहले एक औरत पकड़ कर थाने लाई गई थी जिस पर डोप पैडलर होने का शक किया गया था लेकिन औरत अपने आपको सोशल ईवेंट्स आर्गेनाइज़र बताती थी जिसका कि नॉरकॉटिक्स ट्रेड से कतई कोई लेना देना नहीं था। मेरी जानकारी कहती है उस औरत को सब-इन्स्पेक्टर कदम ने थामा था लेकिन थाने में उसको हैंडल ख़द थानेदार भारकर ने किया था। बाद में उसे लेडी सब-इन्स्पेक्टर रेखा सोलापुरे के हवाले किया था क्योंकि उस औरत की जामातलाशी होनी थी जिसे कि थाने का कोई लेडी स्टाफ ही अंजाम दे सकता था। कहते हैं तलाशी में उस औरत के पास से एस्टेसी की गोलियाँ बरामद हुई थीं।”
“तो?”
“ये बात सच है?”
“अरे, तो?”
“तो ये कि उसको हिरासत में भी न लिया गया जब कि ड्रग्स की बरामदी की बिना पर उसके खिलाफ ओपन एण्ड शट केस बनता था। न सिर्फ हिरासत में न लिया गया, थोड़ी ही देर बाद उसे आज़ाद भी कर दिया गया और ऐसा खुद इन्स्पेक्टर भारकर ने किया।”
“तो? तेरे को क्या पिराब्लम हुई इससे?”
“जाती तौर पर कोई प्रॉब्लम न हुई लेकिन एक पत्रकार के तौर पर बराबर हुई। क्यों उस औरत से इतना नर्मी का व्यवहार किया गया! अगर वो बतौर डोप पशर सस्पैक्ट थी और इसी वजह से उसे पकड़ कर थाने लाया गया था, उसके पास से ऐस्टेसी की गोलियाँ भी बरामद हुई थीं तो कैसे ... कैसे वो इतनी बड़ी दुश्वारी से - जो कि उसे पांच-सात साल के लिए अन्दर करा सकती थी - इतनी आसानी से, इतनी सहूलियत से निजात पा गई!”
“बरामद गोलियाँ ऐस्टेसी की नहीं थीं, ऐस्परिन की थीं।”
“तो इतने खुफिया तरीके से क्यों छुपाई गई थीं?”
“कितने खुफिया तरीके से?”
“सुना है उसके हैण्डबैग के मैटल के हैंडल में थीं। ऐस्परिन की गोलियाँ कोई ऐसे छुपाता है!”
“कोई ऐसे छुपाए तो उस पर कोई केस बनता है?”
“वो तो नहीं लेकिन इतनी खुफिया एहतियात की ज़रूरत क्या थी जबकि गोलियाँ एस्परिन की थीं?”
“उस औरत से पूछना।”
“कहां मिलेगी?”
“या एसएचओ से पूछना।”
“लक्षमण जी, शिकायत कर रहा हूँ आपसे, आप उखड़ रहे हैं। ऐसे बिहेव कर रहे हैं जैसे मुझे भाव न देना चाहते हों।”
“अच्छा! ऐसा कर रहा हूँ मैं?”
“आपको नहीं मालूम?”
“सिगरेट दे।”
झालानी ने तत्काल नया सिगरेट पेश किया जिसे भाटे ने अपने पहले बचे हए सिगरेट से ही सलगाया।
उसका अभी पहला ही सिगरेट चल रहा था।
भाटे ने बड़ी संजीदगी से नए सुलगाए सिगरेट के दो-तीन लम्बे कश खींचे।
“मामला विकट है, अखबारी।” – फिर बोला।
“आपके लिए?”
“मेरे लिए भी। मैंने बोला न, मामला विकट है! उस औरत की थाने में हाजिरी में कोई राज़ तो था, लेकिन क्या राज़ था, मेरी पकड़ में न आया।”
“आपकी . . . आपकी पकड़ में न आया?”
“अब है तो ऐसीच। उस औरत के एसआई रेखा सोलापुरे को हवाले किए जाने के आधे घन्टे बाद वो बेरोक टोक थाने से रुखसत हो गई थी तो कोई राज़ तो था उस में!”
“सच में ही बेगुनाह होगी!”
“क्या पता लगता है! या गुनाह वार्निंग देकर छोड़ दिए जाने के काबिल होगा!”
“फिर जामातलाशी किसलिए? ख़ुद एसएचओ का दखल किसलिए?”
“नहीं मालूम, यार।” – भाटे झुंझलाया।
“तारदेव थाने से ताल्लुक रखती कोई ऐसी भी बात मुमकिन है जो हवलदार लक्षमणराव भाटे को नहीं मालूम तो . . . हैरानी है।”
भाटे ख़ामोश रहा, उसने संजीदगी से सिगरेट का लम्बा कश खींचा।
“अच्छा, यही बताइए” – झालानी ने इसरार किया – “उसका नाम क्या था और वो कहां से थामी गई थी?”
“नहीं मालूम, अखबारी!”
“मालूम कर तो सकते हैं?”
भाटे की भवें उठीं।
“आप कहते हैं एसआई कदम ने उसको थामा था और थाने लाकर
एसएचओ के हुजूर में पेश किया था!”
“हां।”
“तो कम से कम एसआई कदम को तो मेरे इन दो सवालों का जवाब मालूम होगा!”
“वो तो है! एसएचओ को भी मालूम होगा लेकिन वो थानाध्यक्ष है, उसकी मालूमात में मैं दखल नहीं दे सकता।”
“एसआई कदम की मालूमात में तो दखल दे सकते हैं?”
उसने जवाब न दिया।
“अब ये न कहना कि एसआई कदम भी आपके लिए, हवलदार लक्षमणराव भाटे के लिए, आउट ऑफ बाउन्ड है।”
“अरे, पंकज बाबू, जानते नहीं हो किससे बात कर रहे हो! अरे, हम हम हैं।”
“बढ़िया। फिर एसआई रेखा सोलापुरे ने भी जामातलाशी के सिलसिले में कोई छोटी मोटी रिपोर्ट बनाई होगी और आगे पुटअप की होगी! नहीं?”
“मैं औरतों के मुंह नहीं लगता” – भाटे ने एकाएक सिगरेट को तिलांजलि दी और उठ खड़ा हुआ – “लेकिन कदम की बात जुदा है।”
“क्या जुदा है?”
“मालूम पड़ेगा। आता हूँ। यहीं मिलना।”
वो चला गया।
झालानी ने नया सिगरेट सुलगाया और इन्तज़ार करने लगा।
तभी वेटर उसके करीब पहुंचा।
“साब, बिल लाऊं?” – वो बोला।
“बिल!”– झालानी तनिक हड़बड़ाया – “नहीं, अभी नहीं। अभी चाय ला।” वेटर चला गया, फिर चाय के साथ वापिस लौटा।
चाय में झालानी की कोई दिलचस्पी नहीं थी, उसने उसे एक बार चुसक के छोड़ दिया।
दस मिनट गुज़रे।
भाटे न लौटा।
ज़रूर इस बार हम हम हैं’ बुढ़ऊ की पेश नहीं चल रही थी।
लेकिन इन्तज़ार लाज़मी था।
वेटर फिर लौटा।
“यार, चाय की तरफ से ध्यान हट गया।” – झालानी बोला – ठण्डी हो गई। नई ले के आ।”
वेटर धुंआ छोड़ती चाय लाया।
आधा घन्टा गुज़र गया।
झालानी को नाउम्मीदी होने लगी, नई चाय को भी नज़रअन्दाज़ करता वो बेचैनी से पहलू बदलने लगा।
और दस मिनट गुज़रे।
और इन्तज़ार फिजूल समझ कर वो वेटर को बिल के लिए आवाज़ देने ही लगा था कि भाटे उसे रेस्टोरेंट में दाखिल होता दिखाई दिया।
झालानी के मन में प्रत्याशा जागी जबकि वो उसे अपनी नाकामी की ख़बर करने लौटा हो सकता था।
भाटे आकर धम्म से उसके सामने कुर्सी पर बैठा।
“सिर्फ दो मिनट रुकूँगा।” – भाटे बोला – “बड़ा साहब कई-बार मेरे बारे में दरयाफ्त कर चुका है।”
झालानी का दिल निराशा से भर उठा। दो मिनट में तो वो यही बताता कि वो कुछ भी नहीं कर सका था।
झालानी ने उसकी तरफ सिगरेट का पैकेट बढ़ाया।
“नहीं मांगता।” – भाटे अतिव्यस्त भाव से बोला – “तू सुन।”
“सुन रहा हूँ।”
“उस औरत का नाम कोंपल मेहता है और बन्दरगाह का इलाका उसका कार्यक्षेत्र है।”
“कोंपल मेहता!” – झालानी ने चैन की सांस लेते नाम दोहराया – “लेकिन बन्दरगाह का इलाका बहुत बड़ा है!”
“डिमेलो रोड पर फोकस रख। उस सड़क पर कई बार, डिस्को वगैरह हैं। वहां से पता करना।”
“सब जगहों से! कोई एक जगह फोकस में होती तो ...”
“नहीं है। भटकन का काम है लेकिन कर लेगा तू। बतौर अखबारची आदत है तुझे भटकने की।”
“अरे जनाब, जब एसआई कदम से नाम बता दिया तो ....”
“अब ज़्यादा न पसर। मैंने तेरा अन्न खाया इसलिए तेरे लिए ये काम किया वर्ना कदम मुझे कोई भाव नहीं दे रहा था। बड़ी मुश्किल से मैं नाम निकलवा पाया।”
“इसलिए लौटने में इतनी देर लगी!”
“देर किसी और वजह से लगी।”
“और वजह क्या?”
“कदम एसएचओ की हाजिरी भर रहा था।”
“ओह!”
“फारिग हुआ तो मिला।”
“ओह! बहरहाल शुक्रिया।”
“चलता हूँ। लंच का तेरा भी शुक्रिया।”
बिना कोई राम सलाम किए वो वहां से रुख़सत हो गया।
पीछे झालानी के जेहन में बजता रहाः
कोंपल मेहता!
डिमेलो रोड!
यानी नई गर्दिश।
डिमेलो रोड पर झालानी को उतना न भटकना पड़ा जितने का कि उसे अन्देशा था। तीसरे ही बार में उसका काम बन गया।
बार का नाम ‘स्पैक्ट्रा’ था। उसे ख़बर लगी कि रात नौ बजे के बाद वो डिस्को बन जाता था और डिस्को की सूरत में रात दो बजे तक चलता था।
‘स्पैक्ट्रा’ के मैनेजर का नाम आशीश पारेख था और वो कोई चालीस साल का बहुत ख़ुशमिज़ाज़, बहुत मिलनसार आदमी था।
जो कि झालानी के लिए अच्छी बात थी।
झालानी ने उसे अपना परिचय दिया तो वो उसे अपने निजी कक्ष में ले गया।
“बैठो।” – वो बोला।
“थै क्यू।”
“जब में छोटा था तो मन में दो ही ख़्वाहिश जागती थीं, एक एक्टर बनने की और दूसरी जर्नलिस्ट बनने की। दोनों ही पूरी न हुईं।”
“आप जिस कारोबार में हैं” — झालानी उसे तरह देता बोला – “वो भी कोई कम तो नहीं!”
“दिल को बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है। हा हा हा।”
मसाहिबी अंदाज़ से झालानी ने हंसी में उसका साथ दिया।
मेरे से पूछो तो हमारे मुल्क में ग्लैमर सिर्फ तीन धन्धों में है। पूछो कौन से तीन?”
“कौन से तीन?” – झालानी ने पूछा, साफ जान पड़ रहा था कि मैनेजर आदतन बातूनी आदमी था।
“एक फिल्म, दूसरा रैम्प, और तीसरा जर्नलिज्म। नहीं?”
“हां। सही कहा आपने।”– वो एक क्षण ठिठका फिर बोला – “पारेख साहब, दरअसल में आपसे कोंपल मेहता के बारे में बात करना चाहता था।”
मैनेजर की हंसी को ब्रेक लगी।
“जानते हो कोंपल को?” – उसने घूरते हुए झालानी से पूछा।
“खाली नाम से वाकिफ़ हूँ।”
“हूँ। क्यों बात करना चाहते हो?”
“क्योंकि अवेलेबल नहीं है। होती तो उसी से बात करता।”
“क्या? क्या बात करना चाहते हो?”
“वो क्या है कि मैं एक स्टोरी पर काम करा रहा हूँ जिसमें कोंपल मेहता का भी दख़ल है।”
“यहां क्यों आए?”
“ख़ास यहां तो न आया! मेरे को मालूम पड़ा था कि वो ईवेंट ऑर्गेनाइज़र थी और बन्दरगाह के इलाके में पाई जाती थी। इधर आया तो मालूम पड़ा कि कोई ऑफिस वो यहां मेनटेन नहीं किए थी लेकिन डिमेलो रोड के स्पैक्ट्रा बार के ज़रिए उससे कान्टैक्ट किया जा सकता था। लिहाज़ा मैं यहां हाज़िर हुआ।”
“हूँ”
“यहां कैसे कान्टैक्ट होता था उससे?” उसने उत्तर न दिया।
“पारेख साहब, प्लीज़” – झालानी ने याचना की – “नौकरी का सवाल है। रोज़ी-रोटी का सवाल है।”
“अच्छा !”
“मैं खोजी पत्रकार हूँ और खोज में बहुत धक्के खाने पड़ते हैं। आपसे थोड़ा सहयोग हासिल होगा तो भटकन से थोड़ी राहत मिल जाएगी।”
“तो क्या कहते हैं? जब इस जगह से उसे ऐसी सुविधा हासिल हुई तो मैनेजर की तो ख़ास ही हुई वो!”
“ख़ास नहीं, भई, प्रेफर्ड।”
“किस लिहाज़ से?”
“लिहाज़ ही था उसका जो इत्तफाकन बन गया था वर्ना उसके साथ मेरे कोई पर्सनल ताल्लुकात नहीं थे।”
“आई सी।”
“जर्नलिस्ट हो - जो मैं न हो सका – इसलिए बोलता हूँ। देखो, वो मेहनती औरत थी जो ईवेंट आर्गेनाइज़र के तौर पर जिस कारोबार में थी, उसमें कम्पीटीशन बहुत था इसलिए बिज़नेस का स्कोप कम था। फिर अकेली ऑपरेट करती थी इसलिए बड़ी पार्टियां अरेंज करना उसके बस की बात नहीं थी और छोटी पार्टियों के लिए कहां लोग ईवेंट आर्गेनाइज़र एंगेज करते हैं!”
“फिर भी एक्टिव तो थी इस धन्धे में!”
“ज्यादा नहीं। बहुत लम्बे-लम्बे वक्फ़े ऐसे आ जाते थे कि काम नहीं मिलता था।”
“तब क्या करती थी?”
“कैजुअल होस्टेस की ड्यूटी करती थी। कोई होस्टेस किसी वजह से छुट्टी पर चली जाए तो उसकी जगह लेने के लिए डेली वेजिज़ पर उसे तलब किया जाता था। इधर बार, डिस्को, रेस्टोरेंट्स, रेस्टोबार वगैरह बहुत हैं इसलिए ऐसे डेली वेजिज़ पर काम करने वाली लड़कियां आम मिल जाती हैं। लेकिन मेरी प्रेफ्रेंस कोंपल थी।”
झालानी की भवें उठीं।
“भई, अच्छी पर्सनैलिटी थी, खुशमिज़ाज़ थी, फिर गुजराती थी। मैं खुद गुजराती हूँ इसलिए मेरे मन में उसके लिए स्वाभाविक लिहाज़ था, पहले से लिहाज़ था। मैं उसे यहां कॉल रिसीव कर लेने देता था, उसके मैसेज रिसीव करके आगे उसे ट्रांसफर कर देता था, कभी किसी पार्टी से उसने मीटिंग करनी हो तो उसे अपने ऑफिस में बैठ लेने देता था।”
“यहां कैजुअल होस्टेस की ज़रूरत पड़ती है?”
“डिस्को में पड़ती है, जो नौ बजे के बाद अलाइव होता है, बार रनिंग में होस्टेस का कोई रोल नहीं।”
“बहरहाल कोंपल आपकी फेवरेट थी!”
“प्रेफर्ड थी।”
“एक ही बात नहीं?”
“नहीं। फेवरेट से कुछ और ही मतलब निकलता है।”
“आई सी।”
“भाया, गुजरात से बाहर मुम्बई जैसे बड़े शहर में गुजराती गुजराती के काम आया तो क्या बड़ी बात हुई!”
“कोई बड़ी बात न हुई। दुनिया ऐसे ही चलती है।”
“वही तो!”
“तो बतौर ईवेंट आर्गेनाइज़र बारह महीना, तीन सौ पैंसठ दिन काम नहीं था उसके पास, इसलिए कर्टसी युअर गुडसैल्फ़, उसे डिस्को में कैजुअल होस्टेस की ड्यूटी करना मंजूर था?”
“अपनी आमदनी में इज़ाफ़ा करने के लिए, जिसकी कि उसे ज़रूरत थी, मंजूर था।”
“मालूम पड़ा है कि यहां बन्दरगाह के इलाके में, जो कि उसका कार्यक्षेत्र है, आजकल उसका कोई अता पता नहीं है?”
“वजह है न!”
“क्या?”
“यहां से किनारा कर गई।”
“ओह, नो”
“बोले तो हमेशा के लिए।”
“जनाब, क्यों मेरी स्टोरी की वाट लगा रहे हैं?” ।
“मैं क्या कर रहा हूँ! जो किया अपनी मर्जी से ख़ुद कोंपल ने किया।”
“यहां से खुद को, अपने बिज़नेस को पक्का ही कहीं शिफ्ट कर लिया?”
“ऐसा ही बोली वो।”
“कहां?”
“मालूम नहीं। लेकिन इतना बोल के गई कि साउथएण्ड से उसका दाना पानी हमेशा के लिए उठ गया था। वजह कोई बोली नहीं। मैंने भी पूछने पर ज़ोर न दिया। बालिग, ख़ुदमुख़्तार औरत थी, इधर से अज़िज़ थी तो थी।”
“लेकिन क्यों? क्या हुआ एकाएक?”
“मालूम नहीं। कोई वजह न बोली।”
“कोई अन्दाज़ा हो! इस बारे में आपका कोई निजी खयाल हो?” उसने उस बात पर विचार किया।
“भाया” – फिर तनिक आगे को झक कर दबे स्वर में बोला – “कोई ख़ास बात बोलूं तो उसे अपने तक रख सकोगे?”
“हां। यकीनन।”
“अपने अख़बार में ढिंढोरा पीटने से परहेज़ रख पाओगे?”
“हां। आपसे वादे के तहत तो ज़रूर।”
“तो सुनो। दो हफ्ते पहले की बात है कि एक उड़ती-उड़ती ख़बर मेरे तक पहुंची थी कि बन्दरगाह के इलाके में पुलिस कोंपल मेहता, ईवेंट आर्गेनाइज़र को तलाश कर रही थी।”
“ओह, नो!”
“फिर मालूम पड़ा था कि पुलिस ने कोंपल को तलाश कर भी लिया था और तब पुलिस कोंपल को अपने साथ ले कर गई थी।”
“गिरफ्तार करके?”
“गिरफ्तार करके तो नहीं क्योंकि दो-ढाई घन्टे के बाद वो लौट आई थी। तभी वो मेरे से मिली थी तो उसने ये बात सिर्फ मेरे से – अपने गुजराती वैलविशर से - शेयर की थी कि वो हमेशा के लिए बन्दरगाह के इलाके से, साउथएण्ड से, किनारा कर रही थी।”
“किसी पुलिस इनवॉल्वमेंट की वजह से?”
“मालूम नहीं। लेकिन हो तो सकता है! पुलिस साथ ले के गई तो . . . हो तो सकता है!”
“कहां ले के गई? किसी नज़दीकी थाने में ही ले के गई होगी!”
“कोई ज़रूरी नहीं। पुलिस थानों में ही नहीं, पुलिस के और महकमों में भी होती है।”
“ज़रूर किसी पूछताछ के लिए उसे कहीं ले जाया गया होगा और पूछताछ तसल्लीबख़्श हो जाने के बाद उसे वापिस भेज दिया होगा!”
“हां। तभी तो जल्दी लौट आई!”
“लेकिन लौटने पर इतना बड़ा, साउथएण्ड छोड़ने का, संकल्प किसलिए?”
“भई, पूछताछ तसल्लीबख़्श नहीं हुई होगी!”
“उस सूरत में वो कहीं भी होती, फिर पकड़ मंगवाई जा सकती थी; बावजूद साउथएण्ड छोड़ दिया होने के, पकड़ मंगवाई जा सकती थी!”
“भाया, कनफ्यूज़ कर रहे हो मेरे को।”
“मैं ख़ुद कनफ्यूज़ हो रहा हूँ। साउथएण्ड छोड़ने का बोली वो, आपके ख़याल से क्या मुम्बई छोड़ गई होगी?”
“नहीं, मुम्बई तो नहीं छोड़ गई होगी! मुम्बई किसी को छोड़ती है क्या!”
“तो कहां गई?”
“साउथएण्ड से दूर कहीं गई। बोल के गई कि साउथएण्ड से दूर कहीं जा रही थी।”
“कहां?”
“नहीं मालूम, भाया।”
“आप कोंपल के इतने क्लोज़ थे, आपको नहीं मालूम?”
“इत्तफाक की बात है। फिर मेरी अपनी मसरूफ़ियात की बात है। मेरे को उम्मीद थी कि वो ही ख़बर करेगी इस बाबत लेकिन शायद इत्तफाक न हुआ। शायद ज़्यादा मसरूफ़ हो गई।”
“अपने बिज़नेस में? ईवेंट आर्गेनाइज़ करने के बिज़नेस में?”
“और क्या? एक ही काम का तो तजुर्बा था उसे!”
“बहरहाल, अभी मालूम नहीं कि वो कहां है!”
“फोन आएगा न!”
“फोन आएगा?”
“हां। हमेशा ही तो ओवरबिज़ी नहीं रहेगी!”
“पारेख साहब, फोन आप भी तो कर सकते हैं!”
“क्या बोला?”
“जब आप उसके मैसेज उसको ट्रांसफर करते थे तो उसका फोन नम्बर तो होगा ही आपके पास!”
“गॉड! क्या हो गया मेरी अक्ल को!”
“आप भी तो उसकी खैरियत, उसका हालचाल दरयाफ़्त कर सकते हैं!”
“इतनी मामूली बात मेरे को नहीं सूझी!”
“करेंगे फोन आप?”
“पहली फुरसत में करूँगा।”
“फोन नम्बर मेरे को भी देने की मेहरबानी कीजिए।”
“क्या फायदा? वो किसी अजनबी से बात नहीं करेगी।”
“अरे, पारेख साहब, ईवेंट आर्गेनाइज़र के तौर पर उसका कोई नया क्लायंट भी तो उसके लिए अजनबी ही होगा! नए लोगों से बात किए बिना कैसे उसका धन्धा चल सकता है!”
“तुम्हारी बात मानी मैंने। तुम्हारी लॉजिक कुबूल की मैंने। लेकिन ज़रूरी थोड़े ही है कि कोई अजनबी कॉल रिसीव करने के बाद उसे अजनबी को अपना मौजूदा पता देना भी कुबूल हो!”
“ये आप मेरे पर छोड़ दीजिए। उसे अपना पता देना कुबूल न हुआ तो नुकसान मेरा। इस मुद्दे पर मैं आपको बिल्कुल परेशान नहीं करूँगा।”
“वादा?”
“पक्का। मैं उसके सामने एक्सप्रेस’ के लिए एक इन्टरव्यू की दरख्वास्त रखंगा, वो नाकुबूल हुई तो दोबारा मैं कभी उसे फोन नहीं करूँगा। इस सिलसिले में आपके पास भी नहीं लौटूंगा, भले ही तब तक आप उसका मौजूदा पता पा चुके हों। ओके नाओ?”
पारेख ने सहमति से सिर हिलाया। फिर अपने एक विज़िटिंग कार्ड की पीठ पर उसने एक मोबाइल नम्बर घसीट कर कार्ड झालानी को सौंपा।
झालानी ने चैन की सांस ली।
0 Comments