कुछ देर बाद वहां मौजूद पड़ोसियों से मुखातिब होकर इंस्पेक्टर देशमुख ने कहा—“कृपया आप सब लोग अब अपने-अपने घर चले जाएं। वह ड्रामा खत्म हो चुका है, जो कल से यहां चल रहा था। पूनम जिसकी पत्नी थी, वह उसे ले गया।”
बेमन से एक-एक करके सभी वहां से चल दिए।
कमरे में रह गए—बेहोश सिद्धार्थ, डॉक्टर रामन्ना, इंस्पेक्टर देशमुख, हवलदार अनोखेलाल और मिस मंजु मेहता—वहां छाए सन्नाटे को भंग करती मिस मंजु ने पूछा—“आपने उन्हें जाने क्यों दिया सर?”
“फिलहाल इसके अलावा कोई चारा नहीं था।”
मिस मंजु के कुछ कहने से पहले ही डॉक्टर रामन्ना बोले—“हमें लग रहा है इंस्पेक्टर कि वे दोनों हमारे किसी दुश्मन की साजिश के मोहरे हैं?”
"ऐसा किस आधार पर लग रहा है आपको?”
“हम लोगों की इतनी मिन्नतों के बाद न तो ललित ही उसे सिद्धार्थ के पास छोड़ने के लिए तैयार हुआ, न ही वह लड़की—जाहिर है कि सिद्धार्थ की ट्रेनिंग शुरू होने से ठीक पंद्रह दिन पहले वे उसे शॉक देना चाहते थे।"
"महसूस तो मैं भी यही कर रहा हूं, डॉक्टर बाली बल्कि आपसे काफी पहले से मैं ऐसा महसूस कर रहा हूं लेकिन...।”
“लेकिन?”
“महसूस करने सें कुछ नहीं होता। उसे फंसाने के लिए हमें कोई ऐसा सबूत चाहिए, जिससे साबित हो सके कि वह आपके फलां दुश्मन से मिला हुआ है।"
डॉक्टर रामन्ना चुप रह गए।
इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा—“क्या आपके पास ऐसा कोई सबूत है?”
“दुर्भाग्य से नहीं।”
“क्या आपको किसी पर शक है?”
“शक?”
“हां, क्या आपकी नजर में कोई ऐसा आदमी है, जो सिद्धार्थ के विरुद्ध ऐसी साजिश रच सकता है?”
बड़े दीन स्वर में कहा डॉक्टर रामन्ना ने—“किसका नाम ले दें हम?”
“उस दूसरे वैज्ञानिक का क्या नाम बताया था आपने, जिसकी ट्रेनिंग सिद्धार्थ के साथ शुरू होने जा रही थी?”
“आलोक धवन।”
“आलोक और सिद्धार्थ में से किसी एक ही को शटल में जाना है न?”
“हां।”
“तो क्या यह सारी साजिश आलोक नहीं रच सकता?”
“न...नहीं।” डॉक्टर रामन्ना ने एकदम इस तरह विरोध किया, जैसे इंस्पेक्टर देशमुख ने बहुत ही अवैध बात कह दी हो। बोले—“इस ढंग से मत सोचिए इंस्पेक्टर, यह सच है कि शटल में आलोक और सिद्धार्थ में से किसी एक को जाना है, परंतु सिद्धार्थ के विरुद्ध यह साजिश दुनिया का कोई भी शख्स रच सकता है, किंतु आलोक नहीं। उस बेचारे के बारे में तो ऐसा सोचना भी पाप है।”
“आलोक पर इतना विश्वास क्यों है आपको?”
“वह भी हमारे बेटे जैसा ही है—सिद्धार्थ का ही दूसरा नाम समझिए उसे—सिद्धार्थ के लिए अपनी जान तक कुरबान कर सकता है वह।”
मुस्कराते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने कहा—“साजिशें वही रचते हैं डॉक्टर रामन्ना, जिन पर लोग जरूरत से ज्यादा भरोसा करते हैं।”
“नहीं।” रामन्ना ने कहा—“मैं फिर कहूंगा इंस्पेक्टर कि तुम बहुत गलत ढंग से सोच रहे हो—इस संबंध में आलोक से बात तक न करना। प्लीज—अगर तुमने उससे ऐसी बातें कीं तो उसे इससे भी तगड़ा शॉक लगेगा, जितना सिद्धार्थ को पूनम की असलियत सामने आने पर लगा है और फिर सिद्धार्थ की तरह आलोक भी अपसेट को जाएगा। इस तरह हमारे दोनों ही बेटे अंतरिक्ष यात्रा के लिए अनफिट करार दे दिए जाएंगे—ऐसा हरगिज नहीं होना चाहिए। अगर सिद्धार्थ ट्रेनिंग तक फिट नहीं हो पाता तो आलोक को तो शटल में जाना ही है।”
इंस्पेक्टर देशमुख को डॉक्टर रामन्ना द्वारा आलोक की ऐसी अंधी वकालत पर आश्चर्य हुआ। डॉक्टर रामन्ना ने आगे कहा—“फिलहाल तो हमें एक ही चिंता सताए जा रही है।”
“क्या?”
“सिद्धार्थ को जब होश आएगा तो क्या होगा? हम समझते हैं कि भरपूर चेष्टा के बावजूद यह ये मानने को तैयार नहीं होगा कि पूनम चरित्रहीन या बेवफा है। यही कहता रहेगा कि वह किसी मजबूरी के, कारण ललित का साथ दे रही है।”
"निराश न हों डॉक्टर बाली।” उनकी वेदना देखकर इंस्पेक्टर देशमुख कह उठा—“कोई-न-कोई रास्ता मैं जरूर निकाल लूंगा। भारत के होनहार और इतने महान वैज्ञानिक की जिंदगी इतनी आसानी से तबाह नहीं होने दूंगा मैं।”
डॉक्टर बाली का निराश स्वर—“अब हो ही क्या सकता है?”
कुछ देर इंस्पेक्टर देशमुख चुप रहा, फिर इस तरह बोला, जैसे अपने दिल की बात उगल देना चाहता हो—“आपको संदेह है न कि आपके किसी दुश्मन ने सिद्धार्थ का कैरियर खत्म करने के लिए कोई साजिश की है?”
“हां।”
इंस्पेक्टर देशमुख ने पूरी दृढ़ता के साथ कहा—“और मुझे पक्का विश्वास है।”
“क...क्या मतलब?” डॉक्टर रामन्ना बुरी तरह चौंक पड़े।
“फिलहाल साबित भले ही न हो सकता हो कि ललित और पूनम झूठ बोल रहे हैं, लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि वास्तविकता यही है कि उनकी कभी कहीं शादी नहीं हुई। ललित के यहां से भागकर सिद्धार्थ के पास आने वाली कहानी की
अस्वाभाविकता और उस हालत में ललित का पूनम की तलाश में एक बार भी विज्ञान संस्थान न जाना—ऐसे ही तथ्य हैं।”
“फिर आपने उन्हें जाने क्यों दिया?”
“कह चुका हूं कि इन सब चीजों से कुछ साबित नहीं हो सकता।” इंस्पेक्टर देशमुख कहता चला गया—“मैं श्योर हूं कि वे पति-पत्नी नहीं हैं और यदि वे पति पत्नी हैं तो सीधा सवाल उठता है कि उन्होंने यह ड्रामा क्यों किया? जवाब एक ही है—सिद्धार्थ के दिमाग को क्रैश करना—उसे इस हाल तक पहुंचा देना कि वह ट्रेनिंग ज्वाइन न कर सके।”
“जब आप इतना सबकुछ समझ रहे हैं तो...।”
“मैं उन्हें तब गिरफ्तार करना चाहता हूं जब उसे साबित भी कर सकूं, जो समझ रहा हूं।”
“क्या मतलब?”
“निश्चय ही ललित स्वयं इस साजिश का रचयिता नहीं बल्कि वह केवल मोहरा है। साजिश का रचयिता आपका या सिद्धार्थ का कोई बहुत करीबी व्यक्ति होना चाहिए—ऐसे हालात में ललित अपने बॉस से कोई बात जरूर करेगा—अपनी सफलता की कोई रिपोर्ट दे अथवा आगे के लिए कोई निर्देश ले।”
“करैक्ट।”
“मेरा इरादा उसकी ऐसी ही किसी हरकत को सबूत बनाने का है।”
“हम समझे नहीं।”
एकाएक इंस्पेक्टर देशमुख मिस मंजु की तरफ पलटकर बोला—“तुम्हें एक काम करना होगा मिस मंजू।”
“हुक्म कीजिए सर।”
“ललित की शक्तिनगर स्थित कोठी में जाकर तुम उसका फोन टेप कर सकोगी?”
“ऑफकोर्स!”
“यह काम इतने गुप्त तरीके से होना चाहिए कि ललित और पूनम में से किसी को भी भनक तक न लगे।”
“अगर भनक लग गई तो फोन टेप करने का लाभ ही क्या होगा सर?”
“गुड!” प्रशंसात्मक लहजे में कहने के बाद इंस्पेक्टर देशमुख बोला—“याद रहे मिस मंजु, अब हम इस केस पर काम नहीं कर रहे हैं कि पूनम सिद्धार्थ की पत्नी है या ललित की, बल्कि देश के खिलाफ रचे जा रहे षड्यंत्र के खिलाफ काम कर रहे हैं—यह भी हमें हर पल याद रखना है कि अगर हम चूक गए तो देश के दुश्मनों की बहुत बड़ी साजिश कामयाब हो जाएगी—मुल्क से सिद्धार्थ जैसा काबिल वैज्ञानिक छीन लेने की साजिश।”
“मैं इस मामले की गंभीरता को पूरी तरह समझ गई हूं सर।”
“ओoकेo।” इंस्पेक्टर देशमुख ने कहा—“तुम इस काम को देखो, मुझे ललित और पूनम के बयान की कुछ और खोज-खबर करनी है।"
¶¶
भाभा विज्ञान संस्थान!
देश का सर्वोच्च विज्ञान अनुसंधान केंद्र।
संस्थान के निदेशक मिस्टर राम तरनेजा अपने ऑफिस की भव्य कुर्सी पर बैठे किसी फाइल को देखने में मशगूल थे।
पतले-दुबले शरीर वाले राम तरनेजा के चेहरे पर एक-एक हड्डी स्पष्ट गिनी जा सकती थी—आंखों के नाम पर दो गहरे गड्ढे थे—उन पर चढ़ा हुआ मोटे-मोटे लैंसों का चश्मा।
उनके शरीर पर थी ढीली-ढाली शर्ट और पायजामेनुमा पैंट।
अचानक मेज पर रखा इंटरकॉम भिनभिनाया।
बाल पैन मेज पर रखकर उन्होंने रिसीवर उठाया।
“हां, क्या बात है?”
“सर, डिफेंस मिनिस्टरी से कोई साहब आए हैं—वह आपसे बहुत आवश्यक कार्य के लिए इसी वक्त मिलना चाहते हैं।” दूसरी तरफ से किसी नारी का मृदुल स्वर उभरा।
“भेज दो।" कहकर उन्होंने रिसीवर को पटकने वाले अंदाज में रख दिया।
दो मिनट बाद।
“ मुझे केशव मुखर्जी कहते हैं—मैं आपके लिए डिफेंस सचिव का एक विशेष संदेश लाया हूं सर।” आगंतुक कुर्सी पर बैठने के बाद बोला।
राम तरनेजा ने दो गड्ढों से उसे देखा। बोले—“कहिए।”
“सचिव साहब ने उन दो वैज्ञानिकों के फाइनल नाम मंगाए हैं—जिनमें से एक को अमेरिकी अंतरिक्ष शटल में भेजा जाएगा।"
"फिलहाल तो हम फाइनल नाम देने की स्थिति में नहीं हैं।”
“क्यों?”
"विज्ञान संस्थान ने अपने जिन दो युवा वैज्ञानिकों की घोषणा की थी, उनमें से जो सबसे योग्य वैज्ञानिक मिस्टर सिद्धार्थ हैं—जिनका नाम हमने पहले नंबर पर रखा था—वह किन्हीं कारणों से आजकल कुछ डिस्टर्ब चल रहे हैं—अब अगर वह इसी तरह डिस्टर्ब रहे तो उनकी जगह दूसरे नाम पर विचार किया जाएगा।" राम तरनेजा ने कहा—“तभी हम फाइनल नाम भेज पाएंगे।”
“कब तक?”
“कम-से-कम दस दिन तो लगेंगे ही।”
“अगर संभव हो सके तो जरा और जल्दी।”
"हम पूरी कोशिश करेंगे।”
“थैंक यू, सर।” कहता हुआ केशव मुखर्जी कुर्सी से खड़ा हो गया। उसके जाने के बाद राम तरनेजा न जाने किस सोच में डूब गए।
तभी!
“क्या सोच रहे हैं, डैडी?” दरवाजे से आने वाली इस आवाज ने उनकी तंद्रा भंग की।
उन्होंने हल्के से चौंककर उधर देखा और फिर मुस्कराते हुए बोले—“सिद्धार्थ के बारे में अच्छी सूचनाएं नहीं आ रही हैं प्रमोद बेटे।”
तब तक प्रमोद उनके पास आ गया और इस बात को सुनकर उसने जोरदार ठहाका लगाया। बोला—“अब तो पूरे-पूरे चांस नजर आ रहे हैं।"
राम तनरेजा कुर्सी की पुश्त से मीठ टिकाते हुए गंभीर स्वर में बोले—"डॉक्टर रामन्ना का फोन आया था मेरे पास—कह रहे थे कि सिद्धार्थ को सामान्य करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं वे—अत: सिद्धार्थ का नाम हम बेहिचक ऊपर भेज दें।”
"फिर?” प्रमोद का चेहरा उतर गया।
“फिर क्या?”
“अगर वह ठीक हो गया तो मेरा क्या होगा?”
"तुम्हें इस ढंग से नहीं सोचना चाहिए बेटे। ऐसे छोटे विचारों को छोटे लोगों के लिए छोड़ दो—तुम एक वैज्ञानिक हो और तुम्हारी जैसी हैसियत के युवकों में अपने सहपाठियों के प्रति प्रतिस्पर्धा की भावना तो होनी चाहिए, किंतु ईर्ष्या या द्वेष की नहीं—सिद्धार्थ और आलोक से आगे अगर तुम्हें निकलना ही था तो उनसे ज्यादा मेहनत करके उनसे ज्यादा योग्य बनना चाहिए था—इतना कि कमेटी के मैम्बर्स स्वयं ही तुम्हारे नाम का प्रस्ताव रखते।”
“आप तो मुझे उपदेश देने लगे, डैडी।”
“यह उपदेश नहीं बेटे, सच्चाई है।”
“हुंह! आप चाहते ही नहीं कि मैं अंतरिक्ष शटल में जाऊं।”
दर्दयुक्त फीकी-सी मुस्कान उभर आई तरनेजा के होंठों पर। बोले—“दुनिया में ऐसा कौन बाप होगा, जो अपने बेटे की तरक्की न चाहता हो, मगर...।”
“मगर?”
”हमारी लाख मेहनत के बावजूद तुम सिद्धार्थ और आलोक से पीछे रहे गए, भारत के तीसरे नंबर के युवा वैज्ञानिक—इसमें हम कर ही क्या सकते हैं?”
“अगर आलोक और सिद्धार्थ में से एक न रहे तो मैं पहले दो वैज्ञानिकों में गिना जाऊंगा न?”
“सिद्धार्थ के बारे में जो सूचनाएं मिल रही हैं, उनसे लगता कि तुम्हारा नसीब जोर मार रहा है।”
“क्या मतलब?”
“पांच दिन बाद हम कमेटी के मैम्बर्स की मीटिंग बुला रहे हैं।”
"उस मीटिंग में आप मेरे नाम का प्रस्ताव रख सकते हैं।”
“हमारे प्रस्ताव रखने से कुछ नहीं होता, मैम्बर्स का बहुमत दो नाम फाइनल करेगा।”
प्रमोद खूंखार स्वर में बोला—“और जब तक धवन और सिद्धार्थ हैं, तब तक कमेटी के मैम्बर्स का बहुमत मेरे साथ हो नहीं सकता।”
“तभी तो कह रहे हैं कि तुम्हारा नसीब जोर मार रहा है। सिद्धार्थ के बारे में जो सूचनाएं मिल रही हैं, अगर पांच दिन बाद भी
हालात ऐसे ही रहे तो आलोक के साथ तुम्हारा नाम खुद-ब-खुद जुड़ जाएगा—कमेटी के अधिकांश मैम्बर्स को तुम्हारा नाम फाइनल करना ही होगा, लेकिन...।”
“लेकिन?”
“देश के लिए यह सब अच्छा नहीं होगा प्रमोद! सिद्धार्थ का शटल में न जाना इस मुल्क के लिए दुर्भाग्य की बात होगी, क्योंकि अमेरिकी वैज्ञानिकों के मस्तिष्क पर ऐसी छाप छोड़ने में वही सक्षम है कि दुनिया में भारत का सिर गर्व से तन जाए।”
“ आप तो सिद्धार्थ के ‘फैन’ बनकर बोल रहे हैं?”
“किसी को फैन अपने गुणों से बनाया जाता है प्रमोद! हमारी दिली इच्छा तो तुम्हारा फैन बनने को थी, मगर तुमने हमें निराश कर दिया। योग्यता में तुम किसी भी तरह सिद्धार्थ और आलोक से कम नहीं हो—कमी है तो सिर्फ यह कि तुम अपने साथी वैज्ञानिकों के प्रति प्रतिस्पर्धा की भावना के साथ उनसे ज्यादा योग्य बनने को कोशिश के स्थान पर उनसे ईर्ष्या करने लगते हो। उनकी टांग खींचकर अपने पीछे लाने का प्रयास रहता है तुम्हारा, न कि उनसे ज्यादा मेहनत करके उनसे आगे निकल जाने का।”
“आप फिर उपदेश देने लगे डैडी।”
राम तरनेजा अभी कुछ कहना ही चाहते थे कि मेज पर रखे फोन की घंटी घनघना उठी। रिसीवर उठाकर तरनेजा ने कहा—“हैलो।”
¶¶
“मैं ललित बोल रहा हूं।” उसने माउथपीस में कहा।
“हूं।” हल्के से हुंकारे के बाद पूछा गया—“क्या रिपोर्ट है?”
ललित ने कहा—“रिपोर्ट तो आपको मिल ही गई होगी।”
“फिर भी, हम तुम्हारे मुंह से सुनना चाहते हैं।”
“जो काम आपने मुझे सौंपा था, उसमें पूरी तरह कामयाब हो गया हूं।” ललित ने बेहिचक कहा—“इंस्पेक्टर देशमुख को हालांकि अंत तक पूरी तरह यह यकीन नहीं था कि मैं और पूनम जो कहानी सुना रहे हैं, वह सच्ची है। वह अभी भी नहीं माना है कि हम पति-पत्नी हैं।”
“फिर?”
"बावजूद इसके वह कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि अपनी कहानी के पक्ष में मैंने तर्क और गवाहियां ही इतनी सख्त जुटा रखी हैं—पूनम के भाई मोहन से इंस्पेक्टर देशमुख को यही रिपोर्ट मिली कि पूनम ने घर से भागकर पहली शादी मुझसे की थी। उधर, इंस्पेक्टर देशमुख के सारे इरादों पर पूनम के बयान से पानी फिर गया।”
“तुम्हें इंस्पेक्टर देशमुख को पूरा यकीन दिलाना है कि पूनम तुम्हारी ही पत्नी है।"
"वर्तमान हालात में उसे पूरा यकीन दिलाना तो कठिन है, क्योंकि वह इस एक बात को पकड़कर बैठ गया है कि जब पूनम मेरे घर से गायब हुई तो उसे ढूंढने मैं एक बार भी विज्ञान संस्थान क्यों नहीं गया, परंतु...।”
“परंतु?”
“आपको इस बात से मतलब नहीं होना चाहिए कि इंस्पेक्टर देशमुख क्या सोच रहा है। आपने मुझे सिद्धार्थ की बीवी को उससे छीन लेने का काम सौंपा था, सो मैंने कर लिया है।”
“फिर भी, सावधान रहना—हमारा अगला आदेश मिलने तक यह भेद खुलना नहीं चाहिए कि तुम और पूनम पति-पत्नी नहीं हो।”
"नहीं खुलेगा, मगर अब इस काम की कीमत दुगनी होगी।”
“क...क्यों?” दूसरी तरफ से बोलने वाला चिहुंक उठा।
"क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम अपना कितना बड़ा उल्लू सीधा करना चाहते हो?”
“क्या मतलब?”
मुकम्मल धूर्तता के साथ कहा ललित ने—“जब तुमने मुझे सिद्धार्थ से उसकी बीवी छीन लेने का यह काम सौंपा था तो मैंने कल्पना की थी कि सिद्धार्थ से छोटी-मोटी दुश्मनी निकालने के कारण शायद तुम ऐसा करा रहे हो और इसी हिसाब से मैंने तुम्हें इस काम की कीमत बता दी थी, मगर अब मुझे मालूम हो चुका है कि तुमने ऐसा सिद्धार्थ का वह कैरियर समाप्त कराने के लिए कराया है, जो मुल्क के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है।”
“तुमसे यह सब किसने कहा?” बौखलाया हुआ स्वर।
“ डॉक्टर रामन्ना ने खुलेआम यह संभावना व्यक्त की थी—और मुझे यह समझते देर न लगी कि मेरे द्वारा कराए गए ड्रामे के पीछे आपकी वजह यही है।"
“वहम हो रहा है तुम्हें।”
“तो छोड़ो, मैं अभी इंस्पेक्टर देशमुख के पास जाकर सारी हकीकक बता रहा हूं।”
“न...नहीं।” दूसरी तरफ से चीखकर कहा गया—“तुम ऐसा नहीं कर सकते।”
ललित ने एक-एक शब्द पर जोर देते हूए कहा—“अगर रकम दुगनी न की गई तो मैं निसंदेह ऐसा ही करूंगा।”
“ओoकेo—जैसा तुम चाहते हो, वही होगा।”
“थैंक यू।” कहकर ललित ने सफलता भरी मुस्कान के साथ रिसीवर क्रेडिल पर पटका और अपने पीछे खड़ी पूनम की तरफ पलटकर मुस्कराया। पूनम के होंठों पर भी वास्तविक मुस्कान थी।
¶¶
अपनी तोंद पर से बार-बार फिसली जा रही पैंट को संभालने का प्रयत्न करते हवलदार अनोखेलाल ने जिस वक्त ऑफिस में कदम रखा तो मिस मंजु और इंस्पेक्टर देशमुख को उसने मेज के आर-पार, आमने-सामने चुपचाप बैठे पाया।
यह भी चुपचाप एक कोने में जाकर खड़ा हो गया।
सिर से कैप उतारकर हाथ में ले ली थी।
सावधान की मुद्रा में खड़ा था वह।
उसकी यह हरकत देखकर मिस मंजु और इंस्पेक्टर देशमुख चक्कर में पड़ गए। इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा—“क्या हुआ अनोखेलाल?”
"मातम मना रहा हूं सर।”
“किसकी मौत का?”
"जिसका आप दोनों मना रहे थे।”
"क्या मतलब?”
“ऑफिस में दाखिल होने पर मैंने आप दोनों को मातम मनाने की अवस्था में ही देखा सर। मैंने सोचा, कोई मर गया है, सो बिना आपको डिस्टर्ब किए मैं भी मातम...।”
और—दोनों के मुंह से बेसाख्ता ठहाका फूट पड़ा। हंसने के बाद इंस्पेक्टर देशमुख ने कहा—“हम मातम नहीं मना रहे थे अनोखेलाल, बल्कि सोच रहे थे।"
“क्या?” पैंट संभालता हुआ वह मेज की तरफ बढ़ा।
“ललित के बारे में सोच रहे थे। मिस मंजु ने उसका फोन टेप कर लिया है। उम्मीद है कि अब तक उसने जितनी बार जिससे फोन पर बातें की होंगी, सब टेप हो चुकी होंगी।”
“फिर?”
"अब समस्या टेप को वहां से निकालकर लाने की है, ताकि सुनकर जान सकें कि उनमें से कोई बात हमारे काम की है भी या नहीं।"
"टेप को वापस लाने की समस्या क्या है? जिस तरह लगाया था, उसी तरह वापस भी लाया जा सकता है।”
“तुम नहीं समझोगे। ललित बेहद काइयां शख्स है।”
अनोखेलाल ने हाथ नचाया—“अजी खाक काइयां है!”
"क्या मतलब?”
“मैं तो कल ही आपको एक सलाह देना चाहता था, मगर फिर यह सोचकर चुप रह गया कि आप उसे अनोखेलाल की अनोखी सलाह समझकर मानेंगे नहीं।”
"कैसी सलाह?”
“कानून के बारे में बड़ी लंबी-चौड़ी बातें कर रहा था न वह बागड़बिल्ला?”
“हां।”
“उसे पटखनी खिलाने के लिए हमें कानून के पंडित की सलाह या मदद लेनी चाहिए।"
"कौन कानून का पंडित?"
“लो… आप जानते ही नहीं हैं?” अनोखेलाल ने इस तरह कहा, जैसे इंस्पेक्टर देशमुख ने देश के प्रधानमंत्री के बारे में उक्त शब्द कहे हों। वह कहता चला गया—“ बिना एल.एल.बी. पास किए कचहरी में वकील बना बैठा है वह—पिछले दिनों मैं एक केस के सिलसिले में कचहरी गया था। वहां चर्चा थी कि उसने बड़े-बड़े वकीलों के छक्के छुड़ा रखे हैं। खुद को कानून का पंडित कहलवाना पसंद करता है वह।”
“ क्या बक रहे हो?” इंस्पेक्टर देशमुख ने बुरा-सा मुंह बनाया।
मिस मंजु बोली—“अनोखेलाल ठीक कह रहा है सर, उसकी चर्चा मैंने भी सुनी है।”
“मगर हमारे मसले से उसका क्या संबंध?”
“फिलहाल हम यही तो चाहते हैं न कि ललित को किसी ऐसे चक्कर में फंसाकर जेल भेज दें, जिससे वह आसानी से निकल न
सके—तब तक पूनम का इस्तेमाल सिद्धार्थ को नॉर्मल करने में किया जा सकेगा।”
“मगर किसी भी मामले के ऐसे सबूत तो नहीं मिल रहे हैं जिनके आधार पर ललित को लम्बे समय के लिए जेल भेजा जा सके।”
सुना है कानून का पंडित दिमाग का इतना तेज है कि अपने ऑफिस में बैठा-बैठा वह हवा में से किसी के भी खिलाफ इतने सबूत पैदा कर सकता है कि हर कोर्ट उसे जेल भेजने पर विवश हो जाए। दूसरी तरफ मुजरिमों में ‘मसीहा’ के नाम से कुख्यात होता जा रहा है वह—कहते हैं कि बहस के वक्त अच्छे-अच्छे वकीलों के छक्के छुड़ा देता है।”
“तुम इतनी क्यों तारीफ कर रहे हो?”
“यह सब मैंने सुना है सर।”
“लगता है, फिर तो कानून के पंडित से मिलना ही पड़ेगा।”
¶¶
सिद्धार्थ भवन का एक कमरा।
सिद्धार्थ ने अपने सामने रखी बोतल की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि...।
“स...सिद्धार्थ!” लगभग चीखता हुआ आलोक धवन अंदर आया।
सिद्धार्थ ठिठका।
चेहरा ऊपर उठाया उसने। मारे नशे के सराबोर आंखों से उसे घूरता हुआ लड़खड़ाते स्वर में बोला—“आओ.....आओ आलोक।”
“यह क्या कर रहा है तू?” आलोक गुर्राया।
बोतल से शराब गिलास में डालते हुए सिद्धार्थ ने कहा—“कमाल है! पी मैंने है और नशा तुझे हो गया यार। देखता नहीं—गम गलत
कर रहा हूं।”
"किसका गम?"
“क्या तुझे नहीं मालूम......डैडी ने नहीं बताया?”
"किस बारे में?”
“प…पूनम के बारे में। वह साले ललित जाखड़ की बीवी निकली।” कहने के साथ ही उसने गिलास उठा लिया और अभी अपने होंठों की तरफ ले जाना चाहता ही था कि आलोक ने उसके हाथ पर अपना हाथ मारा। साथ ही गुर्राया—“मैं यह जहर तुझे और नहीं पीने दूंगा।”
गिलास कालीन पर एक कोने में जा गिरा।
“अरे—यह क्या किया तूने—शराब बिखेर दी?”
“शराब जिस्म में स्फूर्ति और गर्मी लाने के लिए पी जाती है, सिद्धार्थ, बेहोश होने के लिए नहीं।"
“म...मगर मैं बेहोश ही होना चाहता हूं।”
“क्यों?”
“प...पूनम...।”
“उफ! तुम पूनम को भूल क्यों नहीं जाते?”
“वाह! भूल जाऊं—बड़ी आसानी से, दो लफ्जों में कह दिया तुमने कि भूल जाऊं, मगर किसी को भूलना इतना आसान नहीं है, दोस्त—तू क्या जाने, हां—तू जानेगा भी कैसे—जाने तो तब, जब किसी से प्यार किया हो।”
“हुंह—प्यार! यह वाहियात लफ्ज उन लोगों के लिए बना है, जिन्हें अपनी जिन्दगी में कोई बड़ा काम नहीं करना है—जिनके जीवन का कोई लक्ष्य ही नहीं है—जो चंद सांसें लेने के लिए ही इस धरती पर आए हैं सिद्धार्थ और फिर चले जाएंगे—तुम्हें इस वाहियात लफ्ज से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए।"
“प्यार लफ्ज नहीं, एक भावना है दोस्त।”
“उफ—जी चाह रहा है कि तेरी ये बेवकूफी भरी बातें सुनकर अपने बाल नोच लूं—आखिर हो क्या गया तुझे—समझता क्यों नहीं कि तू किसी के गम में डूबकर देवदास बनने के लिए नहीं, बल्कि इस मुल्क की, इस प्यारे राष्ट्र की ‘नाक’ बनने के लिए पैदा हुआ है।”
“वाह—क्या तू जानता है कि देवदास कौन था?”
“हां, दुनिया भर के पागलों का सरदार था वह।”
“पागलों का नहीं, प्रेमियों का सरदार था।”
"चल मान लिया, मगर तेरे जैसा बुद्धिहीन भी नहीं था वह। जिसके लिए वह शराब में डूबा था, वह उसकी, सिर्फ उसी की थी। उसके प्रति वफादार थी वह, मगर जिसके लिए तू खुद को बरबाद कर रहा है, वह क्या थी?”
“क्या थी?”
“अपने मुंह से कहा उसने कि तुझे फंसाने से पहले वह ललित जाखड़ की बीवी थी। तेरी दौलत और शोहरत से चकाचौंध होकर अपने पति के घर से भाग आई थी वह। बोल—क्या ऐसी लड़की पारो हो सकती है?”
"यह सब झूठ है।”
“खुद उसके स्वीकार करने के बावजूद तू ऐसा कह रहा है।”
"ललित के बच्चे ने उसे डरा रखा होगा। कोई धमकी दे रखी होगी उसे। पूनम ऐसी नहीं है। वह अपने घर से भागकर मेरे पास आई थी। तब, जब उसका जलील भाई शराब के एक ठेकेदार को....।”
"यह कहानी वह है बेवकूफ, जो उसने तुझे मूर्ख बनाने के लिए सुनाई थी और तू बन गया—समझता क्यों नहीं कि अब उस कहानी से परदा उठ चुका है।”
वह पागलों की तरह बड़बड़ाया—“मेरी पूनम ऐसी नहीं हो सकती।”
“तुझे अमेरिकी अंतरिक्ष शटल में जाना है सिद्धार्थ। अगले हफ्ते ट्रेनिंग शुरू होने जा रही है—समझता क्यों नहीं?”
“मैं कहीं नहीं जाऊंगा।”
“क...क्या?”
“त...तू ही जा शटल-वटल में।"
"इसका मतलब, तू अपने मम्मी, डैडी और बहन के साथ-साथ सारे देश की आशाओं को धूल में मिला देगा—जानता है, तुझे शटल में भेजने के लिए कितना परिश्रम किया है अंकल ने?”
“क्या किया है डैडी ने?”
“अंकल के मुंह से निकली बात पत्थर की लकीर होती थी। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने अपने निश्चय को बदला हो, मगर तेरे मामले में ऐसा हुआ है सिद्धार्थ! तेरी कोठी पर कभी न जाने का निश्चय करके भी वे वहां गए हैं। यहां लाए हैं तुझे—सिर्फ इसलिए कि तू शटल में जा सके। उनका इतना भी ख्याल नहीं रखेगा तू—उनके सारे सपने, सारे ख्वाब धूल में मिला देगा?”
“म...मैं माफी मांग लूंगा उनसे।”
“और तेरे माफी मांगने से उनके सारे सपने पूरे हो जाएंगे?”
“इसके अलावा मैं और कर भी क्या सकता हूं?” सिद्धार्थ ने अजीब स्वर में कहा—“हां, एक काम और कर सकता हूं मैं—मैं मर सकता हूं आलोक—हां आलोक, मर सकता हूं मैं।”
बार-बार यही कहता हुआ नशे की ज्यादती के कारण सिद्धार्थ बेहोश होकर सोफे पर लुढ़क गया।
कमरे में खामोशी छा गई।
कुछ देर तक आलोक उसे देखता रहा, फिर एकाएक कमरे के दरवाजे की तरफ मुखातिब होकर बोला—“अ...अंकल।”
चौखट के पीछे से डॉक्टर रामन्ना प्रकट हुए।
उफ! चेहरा इस कदर फक्क था उनका, जैसे किसी का कत्ल कर बैठे हों। हाथ-पांव कांप रहे थे। आगे बढ़ने के प्रयास में वे लड़खड़ाए ही थे कि आलोक धवन ने लपककर उन्हें संभाला—“खुद को संभालिए अंकल, हौंसला रखिए।”
“क्या हौसला रखें बेटे!” टूटा स्वर एकाएक उभरा।
“सब ठीक हो जाएगा। सिद्धार्थ को इस प्रेम-जाल से निकालना ही होगा—अंतरिक्ष शटल में जाने से संबधित ट्रेनिंग में हिस्सा लेना ही पड़ेगा इसे।”
“हमें भी ऐसी ही उम्मीद थी। सोचा था कि तुमसे बात करने के बाद जरूर बात इसकी समझ में आ जाएगी—तभी तो तुमसे इसे समझाने के लिए कहा था, मगर…।"
“निराश न हों अंकल! मैं फिर कोशिश करूंगा।”
“नहीं बेटे, छोड़ो इस नालायक को—तुम्हें भी तो ट्रेनिंग ज्वॉइन करनी है। अपनी तैयारी में लगो तुम—मीटिंग में हम मैम्बर्स से कह देंगे कि हमारा सिद्धार्थ नाम का बेटा नालायक निकल गया। अब आलोक ही शटल में जाएगा।”
¶¶
ब्रेकों की तीव्र चरमराहट के साथ जीप सीधी ठीक उस कमरे के बाहर रुकी, जिसके मस्तक पर लटके काले बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘कानून का पंडित’ लिखा था और उसके नीचे लिखा था—“ यहां आप हर किस्म के केस के सिलसिले में कानूनी सलाह ले सकते हैं। आप चाहें तो कानून का पंडित कोर्ट में आपका पक्ष भी रख सकता है, परंतु ध्यान रहे, कानून के पण्डित के पास वकालत की कोई डिग्री नहीं है।”
जीप से निकलते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने इस दिलचस्प बोर्ड को पढ़ा।
होंठों पर मुस्कान उभर आई उसके।
कमरे के अंदर कदम रखते ही उसकी नजर एक मेज के पीछे कुर्सी पर बैठी लड़की पर पड़ी है, जो कुछ लिखने में व्यस्त थी। आहट पाकर उसका ध्यान भंग हुआ।
“कहिए!” लड़की ने मधुर स्वर में कहा।
“मुझे कानून के पण्डित से मिलना है।”
“नाम?”
“इंस्पेक्टर देशमुख।”
“एक मिनट बैठिए।” एक कुर्सी की तरफ संकेत करके वह प्लाईवुड का दरवाजा खोलकर कमरे के दूसरे हिस्से में चली गई—प्लाईवुड की मदद से उन्होंने एक कमरे के दो पार्ट कर रखे थे।
मुश्किल से आधा मिनट में लड़की वापस आकर बोली—“आप उनसे मिल सकते हैं।”
अपना रूल संभाले इंस्पेक्टर देशमुख ने प्लाईवुड का दरवाजा खोलकर कमरे के दूसरे पार्ट में कदम रखा ही था कि इस तरह उछल पड़ा, जैसे उसके जिस्म पर सैकड़ों बिच्छुओं ने एकसाथ डंक मारे हों।
मारे हैरत के बुरा हाल हो गया था उसका।
“त...तुम?” इंस्पेक्टर देशमुख के मुंह से अनायास ही निकला।
एक बेहद चौड़ी और चमकदार सनमाइका वाली मेज के पीछे ऊंची पुश्त वाली रिवॉल्विंग चेयर पर बैठे ललित जाखड़ ने मोहक मुस्कान के साथ उसका स्वागत करते हुए कहा—“बैठिए इंस्पेक्टर देशमुख।”
और!
इंस्पेक्टर देशमुख की हालत यह थी कि अभी तक वह अपने आश्चर्य पर काबू नहीं पा रहा था। लड़खड़ाते स्वर में पूछा उसने—“त...तुम कानून के पंडित हो?”
“इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है आपको?”
“त...तुमने तो कहा था कि तुम विज्ञान पत्रिका के रिपोर्टर हो?”
“जी हां, मैंने आपको अपना प्रेस कार्ड भी दिखाया था।”
“फ...फिर?”
"वह भी सच था और यह भी सच है, जो आप देख रहे हैं।”
“यानी तुम रिपोर्टर भी हो और कानून के पंडित भी?”
“इन दोनों में से कोई भी सरकारी सर्विस नहीं है। व्यक्ति अगर सरकारी मुलाजिम न हो तो एक ही समय में कई धंधे चला सकता है।”
“म...मगर तुमने उस वक्त तो नहीं बताया कि तुम कानून के...।”
"ऐसा कोई वृतांत ही नहीं चला, जिसकी वजह से मुझे अपना यह परिचय देना पड़ता। तुमने पूछा था कि मैं मिस्टर सिद्धार्थ बाली के घर कैसे पहुंचा, सो मैंने बता दिया कि मैं मैगजीन के लिए इंटरव्यू लेने गया था।”
“और वहां तुम्हारी पत्नी तुमसे टकरा गई?”
ललित ने कंधे उचकाकर कहा—“मेरा नसीब!”
“नसीब-वसीब कुछ नहीं, वह सब तुम्हारी साजिश थी।” भन्नाया हुआ इंस्पेक्टर देशमुख दहाड़ उठा—“पूनम से तुम्हारी कभी कहीं भी शादी नहीं हुई।”
“बड़े दुख की बात है इंस्पेक्टर देशमुख कि आप मेरे सारे सबूतों को नजरअंदाज करते हुए बिना अपने पक्ष में एक भी सबूत पेश किए ऐसा कह रहे हैं।”
“वे सारे सबूत तुम्हारे गढ़े हुए थे।”
“बेहतर हो कि आप अपने कथन के हक में कोई सबूत नहीं तो तर्क ही दें।”
"बड़ा गर्व है तुम्हें अपनी कानून की जानकारी और तार्किक बुद्धि पर?”
"आप गलत महसूस कर रहे हैं।”
“मुझे कभी यकीन नहीं आया कि पूनम तुम्हारी बीवी है। लाख सबूतों के बावजूद मुझे यकीन था कि तुम्हारी सारी कहानी गढ़ी हुई थी और तुम्हें यहां, इस रूप में देखकर तो मेरा विश्वास हिमालय की तरह अडिग हो गया है।”
“आप अभी भी गलत सोच रहे हैं इंस्पेक्टर।”
“यह बात तो समझ में आ गई कि यह काम तुमने अपने पेशे के मुताबिक किसी से फीस लेकर किया है। अब यह और बता दो कि इस काम के लिए तुम्हें फीस किसने दी? ”
"एक ही सांस में आपने एक नहीं, कई गलत बातें कह दी हैं।”
“क्या मतलब?”
"पहली बात तो यह कि फीस लेकर ही मैं लोगों को कानूनी सलाह देता हूं या कोर्ट में किसी का केस लड़ता हूं—क्राइम नहीं करता फिरता। दूसरी बात यह कि पूनम वाले मामले का मेरे पेशे से कोई ताल्लुक नहीं है, अत: जब किसी से फीस ली ही नहीं तो नाम बताने का सवाल ही नहीं उठता। तीसरी और अंतिम बात यह कि अगर यह काम मेरे पेशे से संबंधित होता, तब भी मैं आपको फीस देने वाले का नाम नहीं बताता, क्योंकि एक क्लाइंट का नाम किसी दूसरे को बताना, मेरे पेश के बिल्कुल विपरीत है।”
“तुम जरूरत से ज्यादा चालाक बनने की कोशिश कर रहे हो मिस्टर ललित जाखड़, मगर इस बार तुम्हारा वास्ता भी मुझसे पड़ा है। मेरा नाम इंस्पेक्टर देशमुख है और एक-से-एक चालाक मुजरिम को जेल भेजने का मेरा अच्छा अनुभव है।”
“अगर आप मुझे धमकी देने आए थे तो मैंने सुन ली है। अब आप बाइज्जत यहां से जा सकते हैं।”
“तुम्हें देख लूँगा मैं।” इंस्पेक्टर देशमुख ने एक-एक शब्द चबाया।
“वैसे मेरे ख्याल से आप यहां इस उद्देश्य से नहीं आए थे, क्योंकि आपको मालूम नहीं था कि कानून का पंडित मैं ही हूं—यहां आने की वजह कोई दूसरी ही थी आपकी। अत: आराम से बैठकर वह वजह बताएं तो बेहतर होगा।”
इंस्पेक्टर देशमुख ने रूल का निचला सिरा मेज पर टिकाया, सीधे खड़े रूल के ऊपरी सिरे पर ठोड़ी टिकाए कहा उसने—“तुम्हारे साथ-साथ यह अवैध दुकान भी बंद न करा दी तो मेरा नाम भी इंस्पेक्टर देशमुख नहीं।”
“मैंने सुन लिया।” ललित ने शांति के साथ कहा।
भन्नाया हुआ इंस्पेक्टर देशमुख घूमा और हवा के तीव्र झोंके की तरह बाहर निकल गया।
¶¶
“बोल—बोल हरामजादे।” मोहन के बाल पकड़े इंस्पेक्टर देशमुख कहर भरे स्वर में चीखा—“बारह अप्रैल को पूनम घर से भाग गई थी या उससे पहले? घर से भागकर उसने सीधे सिद्धार्थ बाली से शादी की थी या ललित जाखड़ से?”
टॉर्चरूम में मोहन की चीखें गूंजकर रह गईं।
पिछले करीब एक घंटे से वह इसी हालत में उल्टा लटका हुआ था। जिस्म पर सिर्फ एक अंडरवियर था—लगातार मार पड़ रही थी उस पर।
इंस्पेक्टर देशमुख पर मानो खून सवार था।
इस बार जो उसने अपने सिर की टक्कर उल्टे लटके मोहन की नाक पर मारी तो बिलबिला उठा वह। मुंह से चीखें नहीं, बल्कि डकारें निकलने लगीं और साथ ही चीखा—“रुको-रुको इंस्पेक्टर साहब! मैं सबकुछ बता दूंगा।”
“बोलो।” इंस्पेक्टर देशमुख ने अपनी मुट्ठी में दबे उसके बालों को झटका।
"म..मुझे सीधा कीजिए—बताता हूं।"
“इसी तरह बोलो।”
"पूनम बारह अप्रैल को ही गई थी। सचमुच मेरी मति इतनी मारी गई थी कि पांच हजार के लालच में शराब के ठेकेदार को घर लाया था।”
“फिर झूठ क्यों बोला था मुझसे?”
इस बार वह चुप रह गया।
इंस्पेक्टर देशमुख ने रूल का वार पूरी बेरहमी के साथ मोहन के घुटनों पर किया। जिस वक्त वह चीख रहा था, ठीक उसी वक्त इंस्पेक्टर देशमुख गरजा—“बको।”
“ललित जाखड़ ने मुझसे ऐसा कहने के लिए कहा था।”
“कितने पैसे दिए थे उसने?”
"द…दस हजार।”
"कहां हैं वो पैसे?"
"ख...खर्च हो गए।"
“अदालत में तुम्हें यह सब बताना होगा।”
“हां साहब, मैं वही करूंगा, जो आप कहेंगे—मुझे यहां से उतार लीजिए।”
और!
एक पल भी गंवाए बिना इंस्पेक्टर देशमुख टॉर्चररूम का दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया। ऑफिस में पहुंचते ही एक सिपाही को बुलाकर उसने मोहन को टॉर्चररूम से निकालकर हवालात में बंद करने का हुक्म दिया।
अत्यंत उत्तेजित था वह।
फोन पर नंबर रिंग करके उसने रिसीवर कान से लगा लिया। दूसरी ओर से रिसीवर के उठते ही इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा—“गाजियाबाद कोतवाली?”
“यस।”
“मैं दिल्ली से इंस्पेक्टर देशमुख बोल रहा हूं।”
“जी हां, जो एड्रेस आपने दिया था—हम वहां जाकर पूछताछ कर चुके हैं—वहां वे ही रहते हैं, जो नाम आपने बताए हैं। उनके बयान के मुताबिक आप द्वारा बताई गई तारीख को वहां पूनम और ललित जाखड़ नामक जोड़े की शादी भी हुई थी।”
“ओह, थैंक यू।” कहने के बाद इंस्पेक्टर देशमुख ने अभी रिसीवर रखा ही था कि एक सरदार के साथ लेडी सब-इंस्पेक्टर मिस मंजु ऑफिस में दाखिल हुई।
सरदार पर नजर पड़ते ही इंस्पेक्टर देशमुख की आंखों में आशा की ज्योति चमक उठी।
मिस मंजु ने कहा—“गंदे नाले पर कोई ऑटोरिक्शा स्टैंड नहीं है सर, वहां निकटतम ऑटोरिक्शा स्टैंड किशनगंज रेलवे स्टेशन के बाहर है—और वहां खड़े होने वालों में सरदारजी सिर्फ ये हैं।”
“क्या तुमने इससे मतलब की बात की?”
“यस सर। एक रात बारह बजे के करीब ये ही पूनम को विज्ञान संस्थान छोड़कर आए थे।”
“क्यों?” इस बार उसने सीधे सरदार से पूछा।
“हां साहब, उसे मैं ही विज्ञान संस्थान छोड़कर आया था।”
“क्या तुम पूनम को जानते हो?”
"हां, साहब।"
“कैसे जानते हो तुम उसे?”
“ जिस क्वार्टर में वह रहती थी साहब, उस किस्म के क्वार्टर में ऐसे कम ही लोग रहते हैं, जो ऑटोरिक्शा से कहीं आते-जाते हों। हम भी किशनगंज में एक ऐसे ही क्वार्टर में रहते हैं, मगर बिल्डिंग दूसरी है—पूनम बिटिया रोज सुबह नौ बजे ऑटोरिक्शा से विज्ञान संस्थान जाती थी और पांच बजे वहां से आती थी।”
“क्या वह रोज तुम्हारे ही ऑटोरिक्शा में जाती थी?”
“नहीं साहब, जो भी मिल जाता—हां, चूंकि अक्सर हम ही उसे स्टैंड पर मिलते थे, सो ऐसा इत्तफाक हो जाता था—उधर, संयोग से शाम के पांच बजे के करीब अगर हम विज्ञान संस्थान वाली साइड में होते तो उसे ले आते थे।”
“क्या ऐसा अकेले तुम ही करते थे?”
“नहीं साहब, स्टैंड पर खड़े होने वाले हम दस ऑटोरिक्शा वाले हैं—इसी तरह किशनगंज से नियमित ऑटोरिक्शा से सवारी करने वाले भी गिने-चुने हैं—हम दसों को पता है कि कौन, कहां सर्विस करता है।”
“तुम्हें कैसे याद है कि एक रात...।”
“क्योंकि पूनम बिटिया रात को कभी विज्ञान संस्थान नहीं जाती थी और वह भी साढ़े ग्यारह बजे—पूनम बिटिया कहने लगी कि उसकी नाइट ड्यूटी लग गई है। हमने सोचा, शायद लग गई होगी।"
“कैसा मूड था उसका?”
“जैसे खूब रोई हो। बहुत गुस्से में भी थी वह।”
“क्या तुम बता सकते हो कि उस दिन, कितनी तारीख थी?”
"बारह अप्रैल साहब।”
इंस्पेक्टर देशमुख चौंका। बोला—“एकदम इतनी एक्यूरेट तारीख कैसे बता दी तुमने?”
“लेडी इंस्पेक्टर साहिबा ने भी स्टैंड पर हमसे यही सब सवाल किए थे साहब, जो आपने किए हैं। कौन-सी सवारी, किस तारीख में कहां गई, यह याद रखना तो बहुत मुश्किल है, मगर...।”
“मगर?”
"एक आदत हमारी बड़ी खराब है।”
“कौन-सी आदत?”
“ अपने ऑटोरिक्शा की डिक्की में हम एक डायरी रखते हैं। उसमें एक-एक दिन का हिसाब है—कहां-से-कहां तक की कितनी सवारी ढोई और अगर मालूम होता है तो सवारी का नाम भी लिख लेते हैं।”
“यह बुरी नहीं, अच्छी आदत है।”
“जब आपकी तरह लेडी इंस्पेक्टर साहिबा ने तारीख पूछी थी तो हमने डायरी में देखकर बता दी थी। अब भला किशनगंज से यहां तक के रास्ते में थोड़ी भूल सकते हैं।”
“वैरी गुड।” इंस्पेक्टर देशमुख की आंखें चमक उठीं। बोला—“अब मैं उस कानून के पंडित के बच्चे को बताऊंगा मिस मंजु कि इंस्पेक्टर देशमुख किस हस्ती का नाम है। मोहन भी टूट चुका है।”
“कॉन्ग्रेचुलेशन सर।” मिस मंजु ने प्रसन्नतापूर्वक कहा—“आज की रात हमें किसी भी तरह उसके फोन में फिट किया गया टेप हासिल करना है। अगर उसमें हमारे मतलब की वार्ता टेप हो तो मजा आ जाए।”
“अपनी तरफ से कहानी उसने मुकम्मल रूप से सुदृढ़ गढ़ रखी थी, शायद इसीलिए जरूरत से ज्यादा अकड़ रहा था।” उत्साहित इंस्पेक्टर देशमुख कहता चला गया—“गाजियाबाद से रिपोर्ट आई है कि उसके बताए हुए पते पर शादी हुई थी।”
“या तो वे लोग ललित के अपने होंगे या उन्हें मोहन की तरह खरीद लिया होगा उसने।”
“इसके अलावा और हो भी क्या सकता है?”
“तो अब स्कीम बनाते हैं सर कि आज रात हमें अपना टेप कैसे हासिल करना है।”
“इसके लिए न रात का इंतजार करने की जरूरत है और न ही स्कीम बनाने की।"
"बया मतलब सर?”
“आओ मेरे साथ।” कहने के साथ ही इंस्पेक्टर देशमुख ने मेज पर रखी अपनी कैप उठा ली। मिस मंजु ने उसे पहले कभी इतना उत्तेजित नहीं देखा था।
¶¶
“हैलो, मिस्टर ललित।” उसकी कोठी के हॉल में दाखिल होता हुआ इंस्पेक्टर देशमुख सफलता के मद में चूर था। ललित से टकराव शुरू होने के बाद पहली बार उसकी आवाज में इतना आत्मविश्वास था, जबकि उसे देखकर ललित के चेहरे पर घबराहट का एक भी लक्षण उत्पन्न नहीं हुआ। हां—सोफे से उठकर खड़े होते हुए इतना अवश्य कहा उसने—“लगता है इंस्पेक्टर कि तुम्हारे पेट में रह-रहकर दर्द उठने लगता है।”
“बस यूं समझो मिस्टर कानून के पंडित कि यह दर्द मेरे पेट में आखिरी बार उठा है—और मेरा इरादा जानने के बाद ऐंठन तुम्हारे पेट में शुरू हो जाएगी।”
“ऐसा?” ललित ने दिलचस्प मुस्कराहट के साथ कहा ओह आइए, पूनम देवी— आप भी आ जाइए।” अभी-अभी हॉल में दाखिल हुई पूनम को देखकर इंस्पेक्टर देशमुख ने कहा।
इंस्पेक्टर देशमुख के साथ मिस मंजु और अनोखेलाल के अलावा एक इंस्पेक्टर और था।
उन्हें वहां देखकर पूनम के चेहरे पर सन्नाटा-सा खिंच गया। बोली—“आप यहां भी पहुंच गए इंस्पेक्टर साहब?”
“हुंह, यह तो सिर्फ शक्तिनगर है—अपने इस नकली पति के साथ अगर तुम पाताल में जाकर भी बस जातीं तो मैं वहां भी पहुंच जाता।”
“न...नकली पति?” पूनम ने कहा—“नहीं इंस्पेक्टर, तुम्हें फिर कोई गलतफहमी है—मिस्टर ललित ही मेरे पहले पति हैं।”
“पुलिस की बेवकूफ तो बनाया जा सकता है मैडम, मगर अस्थाई तौर पर। स्थाई तौर से पुलिस कभी बेवकूफ नहीं बनती।”
“क्या मतलब?”
“तुम दोनों को झूठा साबित करने के लिए मैंने मुकम्मल सबूत ढूंढ लिए हैं।”
एकाएक ललित बोला—“ऐसे कौन-से सबूत हैं इंस्पेक्टर, जिनके बूते पर तुम इतना उछल रहे हो?”
“उन सबूतों के बारे में बाद में बात करेंगे, फिलहाल देखते रहो कि हम इस हॉल ही में से तुम्हारे खिलाफ किस तरह सबूत पैदा करते हैं।” कहने के साथ ही उसने जेब से रिवॉल्वर निकालकर उन पर तान दिया और बोला—“अगर तुमने पुलिस कार्यवाही में अड़चन डालने की कोशिश की तो मैं अपने अधिकार का इस्तेमाल बेहिचक करूंगा—और कानून का पंडित होने के नाते यह तो तुम जानते ही होंगे कि किसी को पुलिस कार्यवाही में अड़चन डालते देखकर एक पुलिस इंस्पेक्टर क्या कुछ कर सकता है?”
ललित ने कहा—“सिर्फ अपने इलाके में।”
“मैं जानता था कि फंसने पर तुम यह कानूनी नुक्ता अड़ाने की चेष्टा कर सकते हो, अत: इनसे मिलो, इंस्पेक्टर भरत बनर्जी—ये इस इलाके के थाना इंचार्ज हैं।”
“ओह!” ललित के होंठों पर मौजूद मुस्कराहट और गहरी हो गई—“लगता है इस बार फ्रंट पर जाने वाले सैनिक की तरह तैयार होकर आए हो?”
"क्योंकि मैं जानता था कि इस बार पाला कानून के पंडित से पड़ना है।”
ललित केवल मुस्कराकर रह गया, बोला कुछ भी नहीं।
रिवॉल्वर से ललित के साथ-साथ पूनम को भी कवर किए इंस्पेक्टर देशमुख ने निर्देश दिया—“तुम अपना काम करो मिस मंजु, मैं इन्हें हिलने तक नहीं दूंगा।”
उधर मिस मंजु कॉर्निस पर रखे फोन की तरफ बढ़ी।
इधर ललित ने कहा—“जब सारी कानूनी आवश्यकताएं पूरी करके यहां आए हो तो इस तरह रिवॉल्वर तानने की कोई जरूरत नहीं है इंस्पेक्टर। मैं ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे कानून टूटे।”
इस बार इंस्पेक्टर देशमुख चुप रहा।
अधिकांश नजरें मिस मंजु पर स्थिर थीं।
वह कॉर्निस पर रखे फोन के नजदीक पहुंची। क्रेडिल से रिसीवर उठाया और अपनी जेब से निकाले हुए एक पेंचकस से उसने रिसीवर खोल डाला।
जिस वक्त उसने रिसीवर से एक टेप कैसेट निकाली, उस वक्त अकेली पूनम का ही नहीं, बल्कि ललित का चेहरा भी फक्क पड़ गया।
और अपनी पहली सफलता का अहसास करके इंस्पेक्टर देशमुख मुस्करा उठा।
एकाएक ललित गुर्राया—“क्या आप जानते हैं इंस्पेक्टर कि चोरी-छिपे किसी का फोन टेप करना भारतीय दंड विधान की कौन-सी धारा के तहत जुर्म है?”
"तुम शायद यह नहीं जानते कि जुर्म को उजागर करने के लिए भारतीय दंड विधान पुलिस को अनेक अधिकार देता है।”
“मैं तुम पर मुकदमा करूंगा।” भन्नाया हुआ ललित गुर्राया।
इंस्पेक्टर देशमुख ने उसकी कचहरी वाली टोन में कहा—“जरूर करना।”
“त...तुम एक शरीफ शहरी को...।”
“अगर शरीफ शहरी हो तो इस तरह उखड़ क्यों रहे हो? अभी तो सिर्फ कैसेट सामने आई है—यह नहीं कि इसमें क्या भरा है। जब तुमने फोन पर किसी से कोई अवैध बात की ही नहीं है तो इसमें होगा क्या—बौखलाने की जरूरत ही क्या है?”
ललित गुर्राया—“मेरा फोन टेप करने की तुमने हिम्मत कैसे की?”
“हमें सबूत मिल चुके थे कि तुम मुजरिम हो।” इस बार इंस्पेक्टर देशमुख भी गुर्राया—“उनमें एक और सबूत जोड़ने के लिए तुम्हारा फोन टेप करने की जरूरत पड़ी।”
“कैसा सबूत?”
“पूनम का भाई जिसका नाम मोहन है, जिसको अपने हक में बयान देने के लिए तुमने दस हजार रुपये दिए थे—टूट चुका है। अब वह कह रहा है कि बारह अप्रैल की ही रात थी, जब वह शराब के ठेकेदार को अपने घर लाया और पूनम किसी तरह अपनी इज्जत बचाकर भागी थी।”
ललित को काटो तो खून नहीं।
पूनम के चेहरे पर तो पहले ही से हवाइयां उड़ रही थीं।
“वह ऑटोरिक्शा चालक सरदारजी भी कोर्ट में बयान देने के लिए तैयार हैं, जो बारह अप्रैल की रात साढ़े ग्यारह बजे पूनम को किशनगंज से विज्ञान संस्थान छोड़कर आए थे। मजे की बात तो यह है कि वे एक डायरी मेन्टेन करते हैं।”
ललित अवाक् नजर आ रहा था।
इंस्पेक्टर देशमुख पूरी तरह हावी होता हुआ बोला—“अब जरा वह टेप सुनते हैं।”
बाकी सब चुप।
“उधर, टीoवीo के ऊपर टेपरिकॉर्डर रखा है मिस मंजु।” इंस्पेक्टर देशमुख ने निर्देश दिया—“इस कैसेट को उसमें डालकर जरा सबको सुनवाओ।”
मिस मंजु ने हुक्म का पालन किया।
ललित द्वारा किसी एक व्यक्ति से नहीं, बल्कि कई व्यक्तियों से की गईं बातें उस कैसेट में भरी हुई थीं मगर उस फोन का विवरण शुरू होते, जिसमें ललित ने किसी अज्ञात व्यक्ति से रकम दुगनी करने की बात की थी, उसका और पूनम का चेहरा अब अच्छी तरह निचुड़े हुए कपड़े-सा नजर आने लगा।
इंस्पेक्टर देशमुख की ही नहीं, बल्कि समस्त पुलिस पार्टी की आंखें जुगनुओं की मानिन्द चमकने लगी थीं—समाप्त होते-होते ललित और पूनम की हालत ऐसी हो गई थी, जैसे भरे चौराहे पर नग्न कर दिया गया हो उन्हें।
इंस्पेक्टर देशमुख मारे खुशी के झूम रहा था।
विजयी मुस्कान के साथ ललित की आंखों-में-आंखें डालते हुए पूछा उसने—“अब बोलो मिस्टर कानून के पंडित, अपनी सफाई में तुम्हें कुछ कहना है?”
ललित ने थूक सटका। बड़ी मुश्किल से कहा उसने—“तुमसे अब मुझे कुछ नहीं कहना। जो कहना है, अदालत में ही कहूंगा।”
“यानी फिलहाल हथियार डाल रहे हो तुम?”
“कह चुका हूं कि कोर्ट में बताऊंगा।”
“और तुम?” वह पूनम से मुखातिब हुआ—“तुम क्या कहती हो पूनम देवी?”
वह चुप रही।
इंस्पेक्टर देशमुख पुन: बोला—“मुमकिन है कि मिस्टर ललित को रहस्यमय व्यक्ति से ये बातें करते तुमने न सुना हो, यानी ये बातें इसने तुम्हारी गैरमौजूदगी में की हों, मगर अब सुन चुकी हो, अत: जान चुकी हो कि यह व्यक्ति सचमुच सिद्धार्थ बाली के कैरियर को तबाह करने वाले अभियान पर काम कर रहा था और…।”
“ये बातें इन्होंने मेरे सामने ही की थीं।” पूनम ने एक झटके से कहा।
“ओह!” इंस्पेक्टर देशमुख को आश्चर्य हुआ—“यानि यह बात तुम्हारी जानकारी में थी कि यह षड्यंत्र देश से एक महान वैज्ञानिक को छीन लेने के लिए किया जा रहा था?”
“आप जो चाहे अनुमान लगा सकते हैं।”
"यानी आप भी इस भयानक षड्यंत्र में इनकी साथी हैं?”
“हां-हां—मैं इनके साथ हूं।” पूनम अचानक हिस्टीरियाई अंदाज में चिल्ला उठी—“मैं सिद्धार्थ बाली को बरबाद करके रख दूंगी। इसी मकसद से मैं उसकी जिन्दगी में दाखिल हुई थी—डॉक्टर रामन्ना खून के आंसू रोएगा। उससे अपना प्रतिशोध लेकर ही रहूंगी मैं।”
“प्र...प्रतिशोध?” इंस्पेक्टर देशमुख चौंका।
“हां !” पूनम हिंसक शेरनी की मानिन्द गुर्राई—“प्रतिशोध—बदला—इंतकाम।”
“कैसा इंतकाम?”
“जिसे आप लोग, यह सारी दुनिया बहुत बड़ा वैज्ञानिक समझती है, वह इतना घिनौना और गंदा है कि शैतान भी शरमा जाए।" हिस्टीरियाई अंदाज में पूनम चीखती चली गई—“अगर उस जलील कुत्ते के चेहरे से मैंने नकाब...।”
“प....पूनम।” उसकी तरफ लपकता हुआ ललित गरजा—”चुप रहो। अभी यह सब कहने का वक्त नहीं आया है।”
“नहीं ललित—-अब मुझे मत रोको।” पूनम चीखती चली गई—“ये लोग डॉक्टर रामन्ना को देवलोक से उतरा देव-पुरुष समझते हैं। इन्हें यह नहीं मालूम कि इंसान की शक्ल में कितना बड़ा दरिंदा है वह। उसने मेरी मां की इज्जत लूट ली—अपने घर में बर्तन मांजने वाली के साथ मुंह काला किया डॉक्टर रामन्ना ने।”
"य...यह क्या बक रही हो तुम?” इंस्पेक्टर देशमुख दहाड़ उठा।
“हां-मैं बक रही हूं। जब गरीब सच्चाई कहता है तो यही कहा जाता है कि वह बक रहा है और जब रामन्ना जैसे अमीर और बड़े लोग झूठ बोलते हैं तो कहा जाता है कि वे फरमा रहे हैं—यही दस्तूर है तुम्हारी दुनिया का, मगर मैं डरूंगी नहीं। तुम मानो या न मानो लेकिन मैं चीख-चीखकर कहूंगी एक बार नहीं, हजार बार कहूंगी कि डॉक्टर रामन्ना वहशी है, राक्षस है—आज से पंद्रह साल पहले मेरी मां उसके आलीशान बंगले में बर्तन मांजने जाया करती थी और एक रात जब डॉक्टर रामन्ना की बीवी बच्चों को लेकर अपने पीहर गई हुई थी, तब तुम्हारे उस देव-पुरुष ने, विज्ञान की दुनिया के मसीहा ने एक बर्तन मांजने वाली की इज्जत लूट ली। मेरी मां गरीब जरूर थी, मगर बेगैरत नहीं—उसने उसी रात गले में फंदा डालकर अपनी जिन्दगी खत्म कर ली—लोगों ने यह अनुमान लगाया कि उस अभागी ने अपने शराबी पति से तंग आकर आत्महत्या कर ली है।”
इंस्पेक्टर देशमुख सहित सभी सांस रोके सुन रहे थे। ललित दोनों हाथों से अपना चेहरा ढांपकर फर्श पर बैठ गया।
इंसपेक्टर देशमुख जल्दी से बोला—“यह सब तुम्हें मिस्टर ललित ने बताया है न?”
“नहीं—ललित भला यह सब क्यों बताएगा? यह हकीकत तो पिछले पंद्रह साल से मेरे दिलो-दिमाग में तूफान मचाए हुए है—उस वक्त मैं आठ साल की थी, जब रामन्ना बाली के यहां से मां अपनी इज्जत गंवाकर आई थी। तब न मेरा बाप घर में था और न भाई—मां ने मुझे सबकुछ बताया, मगर छोटी होने के कारण उस वक्त ठीक से कुछ समझ नहीं सकी थी—उम्र बढ़ने के साथ-साथ समझ में आने लगा कि मरने वाली रात को कहे गए मां के उन शब्दों का क्या अर्थ था—दिलो-दिमाग में उतनी ही आग भरती जाती, जितना मेरी समझ में आता जाता, मगर अपने नालायक भाई और बाप से मैं कुछ कह नहीं सकती थी—दूसरा कोई मेरी सुनता ही क्यों—और सुन भी लेता तो यकीन कैसे करता—कोई सबूत तो मेरे पास था नहीं, सो ऊपर से मैं ठंडी ज्वालामुखी बनी रही, जबकि भीतर-ही-भीतर लावा उबल रहा था और
फिर...।”
“फिर क्या हुआ?”
“इंतकाम लेने के लिए मैं आगे बढ़ी। सबसे पहले विज्ञान संस्थान की नौकरी हासिल की—वहां रहकर जाना कि डॉक्टर रामन्ना नाम के नरपिशाच ने अपने लड़के के बारे में कैसा ख्वाब सजा रखा है। वह सिद्धार्थ को भारत का ही नहीं, बल्कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक बनाना चाहता था और बस—यह जानकर मुझे राह मिल गई—मैंने निश्चय कर लिया कि अपना इंतकाम कैसे लेना है—रामन्ना द्वारा किए गए राक्षसी कृत्य की सजा मुझे क्या देनी है।”
“क्या निश्चय किया तुमने?”
“डॉक्टर रामन्ना के लिए इससे बड़ी कोई सजा नहीं हो सकती थी कि सिद्धार्थ को भटका दिया जाए—उसे वह बनने ही न दिया जाए, जो डॉक्टर रामन्ना बनाना चाहता था—अपने इसी लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए शुरू में मैंने सिद्धार्थ पर डोरे डालने चाहे, मगर वह मेरी तरफ ध्यान ही नहीं देता था—विज्ञान की दुनिया में पूरी तरह मशगूल रहता था वह—और फिर उसका ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए मैंने दूसरा रास्ता इस्तेमाल किया या यूं कहो कि वह रास्ता खुद-ब-खुद निकल आया।”
“कौन-सा रास्ता?” इंस्पेक्टर देशमुख ने उत्सुकता से पूछा।
“नहीं—नहीं पूनम।” एकाएक ललित पुन: अपने स्थान से खड़ा होता हुआ चीखा—“इससे आगे कुछ मत बताना। तुम समझती क्यों…।”
“मिस्टर ललित!” इंस्पेक्टर देशमुख गुर्राया—“तुम अपनी गंदी जुबान बंद रखो। हकीकत सामने आने दो, वरना मैं तुम्हें गोली मारने से भी नहीं हिचकूंगा—आप आगे बोलिए पूनमदेवी—आपसे वादा करता हूं कि अगर आप सच बोल रही हैं, अगर डॉक्टर रामन्ना सचमुच इतना गिरा हुआ आदमी है तो मैं आपको इंसाफ दिलवाऊंगा। उसे अपने किए की सजा अवश्य मिलेगी। औरों की नजर में भले ही न हो, मगर इंस्पेक्टर देशमुख की नजर में मुजरिम है वह शख्स। भले ही वह तुम्हारी तरह गरीब हो या रामन्ना जैसा बड़ा, आदमी।”
भन्नाई हुई पूनम ललित की तरफ देख रही थी।
इंस्पेक्टर देशमुख उसे प्रोत्साहित करने की गरज से बोला—“मेरा यकीन करो पूनम, तुम्हारे साथ हर कदम पर इंसाफ होगा।”
इस बार पूनम ने अपेक्षाकृत धीमे स्वर में कहा—“जिन दिनों मैं सिद्धार्थ को रिझाने की कोशिश कर रही थी, उन्हीं दिनों ललित मुझसे प्यार करने लगा। मैं इसके प्यार से खुद को उस तरह न बचा सकी, जिस तरह मेरे प्यार से सिद्धार्थ खुद को बचाए हुए था और एक दिन ऐसा भी आया, जब ललित ने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा। जवाब में मैंने कहा कि अपनी जिन्दगी का एक अहम मकसद पूरा किए बगैर मैं शादी नहीं कर सकती। ललित ने उस मकसद के बारे में पूछा तो मैं टाल गई, मगर ललित हर मुलाकात पर मकसद जानने की जिद करता रहा और एक दिन मैंने सारी बातें ललित को बता दीं। सुनने के बाद यह गंभीर हो गया। जब मैंने इसके गंभीर होने का कारण पूछा तो यह टालने लगा, परंतु मैंने जिद पकड़ ली और फिर इसने बताया कि किसी अज्ञात व्यक्ति ने इसे पचास हजार रुपये देकर मुझे फंसाने का काम सौंपा था—सुनकर मैं चौंक पड़ी। समझ न सकी कि मुझे फंसाने के लिए कोई ललित को इतनी मोटी रकम क्यों देगा—जब पूछा तो ललित ने बताया कि अज्ञात व्यक्ति मेरे द्वारा सिद्धार्थ को प्रेम-जाल में फंसाना चाहता था। मुझ ही को इसलिए चुना गया, क्योंकि विज्ञान संस्थान की नौकरी के कारण मैं सिद्धार्थ के करीब रहती थी—इस सबके अलावा ललित ने यह भी कहा कि निस्संदेह यह मेरी तरफ अज्ञात व्यक्ति के पचास हजार रुपयों के लिए बढ़ा था, परंतु ड्रामा करते-करते सचमुच मुझसे प्यार करने लगा है—उस वक्त मुझे ललित की इस दूसरी बात पर यकीन नहीं आया था—जबकि ललित मुझे यकीन दिलाने के लिए शादी तक करने के लिए तैयार था—इस शंका से ग्रस्त मैं ललित से शादी करना चाहती थी कि कहीं ललित मुझे धोखा न दे दे, मगर कठिनाई यह थी कि शादी होते ही मुझे विज्ञान संस्थान की नौकरी से हाथ धोना पड़ता—ऐसा मैं नहीं होने दे सकती थी, क्योंकि नौकरी छूटने पर तो मैं अपने मकसद से ही दूर हो जाती। उधर अज्ञात व्यक्ति का इंट्रेस्ट भी मुझमें खत्म हो जाता और ललित को इस मिशन के बदले कुछ भी न मिलता—ललित भी यह चाहता था कि मिलने वाली मोटी रकम न मारी जाए—खुद को दोनों तरफ से फंसी महसूस कर रही थी मैं, अत: बीच का रास्ता निकाला—मैंने ललित के सामने गुप्त, परंतु विधिवत शादी का प्रस्ताव रखा—ललित ने बेहिचक उसे स्वीकार कर लिया और तब हमने गाजियाबाद जाकर ललित के एक दोस्त के यहां विधिवत शादी की, मगर इस शादी की दिल्ली में हमारे किसी भी परिचित को भनक न लगे, इस गरज से हम एक साथ नहीं रहे—ललित यहां रहा और मैं गैर शादीशुदा बनी किशनगंज स्थित अपने मकान में।”
“फिर?”
“बारह अप्रैल की रात को जब मोहन शराब के ठेकेदार को घर ले आया और मैं ललित के गाजियाबाद वाले दोस्त के माता-पिता द्वारा दी गई लाल अटैची के साथ वहां से भागी तो सोच रही थी कि सीधे ललित के पास यहां आऊंगी, परंतु ऑटोरिक्शा स्टैंड तक पहुंचते-पहुंचते ख्याल आया कि जो कुछ मेरे साथ घटा है, अगर वह सब मैं सिद्धार्थ को जाकर बता दूं तो प्यार भले ही न सही, उसे मुझसे सहानुभूति जरूर होगी। जो सिद्धार्थ मेरी तरफ ध्यान नहीं देता था, उसका ध्यान खींचने के लिए मुझे वह सुनहरा अवसर जान पड़ा—ऑटोरिक्शा में बैठी, यह सोचती मैं विज्ञान संस्थान पहुंच गई कि जब अपनी कहानी सुनाने के बाद सिद्धार्थ से यह कहूंगी कि मैं बेघर हो गई हूं और उसकी शरण में आई हूं तो मुझे शरण देना वह अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझेगा। और वही हुआ—उस रात उसने मुझे ‘सिद्धार्थ भवन’ में रखा—अगले दिन एक कमरे का इंतजाम करके अलग—क्योंकि वह इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझता था कि मुझे कोई परेशानी न हो, इसलिए समय निकालकर मेरे कमरे पर आने लगा और इतना मौका मेरे लिए काफी था—अपनी अदाओं से उसकी सहानुभूति मैंने प्यार में तब्दील कर ली—धीरे-धीरे वह मेरे चंगुल में फंस गया। उधर ललित को मैंने सबकुछ बता दिया। मैं वह सबकुछ अपनी मां के साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए कर रही थी, उधर अज्ञात व्यक्ति को ललित यही बता रहा था कि उसकी स्कीम पर ठोस काम हो रहा है।”
“इसके बाद?”
“सिद्धार्थ को अपने रूपजाल में मैंने इस कदर फंसा लिया कि अपने घरवालों से बगावत करके उसने मुझसे शादी कर ली—यह मेरी पहली कामयाबी थी। जिसे डॉक्टर रामन्ना नहीं जान पाया। शायद आज भी नहीं जानता कि मैं उसी बर्तन मांजने वाली की बेटी हूं जिसके साथ उसने कभी मुंह काला किया था—उसने तो शादी का विरोध सिर्फ इसलिए किया, क्योंकि उसकी नजर में मुझ जैसी गरीब लड़की केवल इज्जत लुटाने के लिए होती है, शादी करने के लायक नहीं—शादी के बाद मैंने धीरे-धीरे बड़ी सतर्कता के साथ अपना काम किया—मेरा काम भी सिद्धार्थ को भटकाना, उसे विज्ञान की दुनिया से निकालकर अपने रूपजाल की दुनिया में कैद कर लेना था—यह काम मैंने इस होशियारी के साथ किया कि सिद्धार्थ मेरा असली मकसद न ताड़ सके—जब वह विज्ञान की दुनिया के प्रति उदासीनता दिखाता था तो मैं नाराज होने का नाटक करती थी।”
“ओह!”
“फिर, अब जबकि अमेरिकी अंतरिक्ष शटल में जाने के लिए आवश्यक ट्रेनिंग में सिर्फ पंद्रह दिन रह गए तो सिद्धार्थ के दिमाग को ऐसा शॉक देने की योजना मैं और ललित बना ही रहे थे, जिससे सिद्धार्थ उबर न सके.......कि अज्ञात व्यक्ति ने भी फोन पर ललित को यही निर्देश दिया—हमारी स्कीम कुछ और थी। उसमें सिद्धार्थ द्वारा लंदन कॉन्फ्रेंस मिस कर देने के कारण थोड़ी गड़बड़ हो गई।”
“क्या स्कीम थी?”
“मेरी और ललित की नज़र में वह लंदन जा चुका था और वहां से उसे एक हफ्ते में वापस आना था। जब वह वापस आता तो मुझे ललित की पत्नी के रूप में देखकर शॉक ट्रेनिंग से सिर्फ एक हफ्ता पहले लगता—मगर वह अगले दिन ही वापस आ गया। इसके बावजूद मैं जानती हूं कि पंद्रह दिन तो क्या, पंन्द्रह जन्म तक भी वह मेरे उस जादू से मुक्त नहीं हो पाएगा, जिसमें मैंने उसे फंसाया है—यही तो मैं चाहती हूं इंस्पेक्टर डॉक्टर रामन्ना बाली की बरबादी ही तो मेरा लक्ष्य है—जानती हूं कि अपने बेटे की यह बरबादी उसका हार्ट तक फेल कर सकती है।”
“ल...लेकिन अगर तुम्हें लन्दन से लौटे सिद्धार्थ को ही शॉक देना था तो पहले दिन ललित को पहचाने से इनकार करने या चीख-चीखकर यह कहने की क्या जरूरत थी कि वह तुम्हारा पति नहीं है?”
“पड़ोसियों और पुलिस को ऐसी कहानी देकर जाना हमारा उद्देश्य था, जो सिद्धार्थ को लन्दन से लौटते ही पता लग जाए। उसे मुझसे सहानुभूति रहे। सोचे कि ललित ने मेरे साथ कोई जबरदस्ती की है और अगले सारे हफ्ते वह मुझे ललित के चंगुल से निकालने के फेर में ही लगा रहे—ट्रेनिंग का ख्याल तक उसके दिमाग में न आए, परंतु जब फोन पर उसने मुझे अगले दिन ही मुंबई से लौटकर जाने की सूचना दी तो मन-ही-मन बुरी तरह बौखला गई मैं—कुछ समझ न सकी। रात को मेरे और ललित के बीच इस समस्या पर बात हुई। अपनी योजना में हमने थोड़ी-सी तब्दीली करने का निश्चय किया और अगली सुबह तब्दीली के मुताबिक मेरा बयान बदला हुआ था।”
“यही सब तुम अदालत में भी कहोगी?”
“मैं अब हर जगह चीख-चीखकर यही कहूंगी कि डॉक्टर रामन्ना बाली वहशी है, दरिंदा है—मेरी मां के साथ रेप किया था उसने और आज उसके सारे अरमान, सारे सपने और ख्वाब सिर्फ मेरी मुट्ठी में हैं—मेरे बिना सिद्धार्थ ट्रेनिंग सेंटर तरफ सरक नहीं सकता और मैं उसे मिलूंगी नहीं।”
“तुम्हें सिद्धार्थ से बात करनी होगी पूनम।”
“हुंड्ड।” पूनम इस तरह मुस्कराई जैसे नागिन विष वर्षा कर रही हो—“ उस बेवकूफ से मिलने के लिए मुझे कोई मजबूर नहीं कर सकता। उसके साथ मेरी शादी अवैध है। मेरी पहली विधिवत शादी ललित के साथ हुई है और तुम्हारे ऑटोरिक्शा वाले सरदारजी तथा मोहन की गवाही मेरे इस बयान के बाद कोई महत्त्व नहीं रखेंगे इंस्पेक्टर, यह बात शायद तुम समझ गए होंगे।”
"म...मगर… ।”
"क्या मगर?”
“कोर्ट में तुम्हारे द्वारा यह बयान देने का मतलब है, यह स्वीकार कर लेना कि तुमने जानबूझकर सिद्धार्थ का कैरियर तबाह किया है—और क्या तुम किसी ऐसे व्यक्ति के कैरियर को तबाह करने की सजा जानती हो, जिसका महत्त्व राष्ट्रीय स्तर का हो?”
पूनम बेखौफ बोली—“मुझे किसी सजा की कोई परवाह नहीं है, भले ही कानून मुझे फांसी पर चढ़ा दे, मगर डॉक्टर रामन्ना बाली को बरबाद करके रहूंगी मैं—मुझे मतलब है रामन्ना के अरमानों से, उसके इरादों से, उसकी भावनाओं और आकांक्षा से।”
पूनम के इरादे सुनकर अंदर-ही-अंदर कांप गया इंस्पेक्टर देशमुख। फिर भी, उसे रास्ते पर लाने का प्रयत्न करता हुआ बोला—“यही तो मैं तुम्हें समझाने का प्रयत्न कर रहा हूं पूनम कि डॉक्टर रामन्ना बाली द्वारा किए गए जुर्म की सजा उसके बेटे को क्यों दे रही हो तुम? सिद्धार्थ बेचारे का भला क्या दोष हो? उसके कैरियर को क्यों तबाह करना चाहती हो?”
“क्योंकि रामन्ना बाली की इच्छाएं उससे जुड़ी हैं।”
“क्या यह सिद्धार्थ का दोष है?” अपने एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ इंस्पेक्टर देशमुख चीखा—“नहीं पूनम—नहीं—सिद्धार्थ का कोई दोष नहीं है—बहुत गलत राह पर अपने कदम बढ़ा दिए हैं तुमने—अभी समय है, अपने कदमों को खींच लो पूनम—सिद्धार्थ ने भला तुम्हारे साथ क्या बुरा किया है? तुम्हें मुसीबत में जानकर उसने तो तुम्हारी मदद ही की है—यह दूसरी बात है कि अपनी तरफ से तुम किसी स्कीम पर काम कर रही थीं—सिद्धार्थ ने तुम्हारे लिए सबकुछ छोड़ दिया—अपने मां-बाप, बहन और शानदार कैरियर तक—सबसे विद्रोह करके उसने तुमसे शादी कर ली, अपनी अर्धांगिनी बना लिया उसने तुम्हें। क्या यही उसका दोष है? नहीं पूनम—अपने पिता की गंदगी का तो एक अंश भी नहीं है उसमें—रामन्ना बाली अगर राक्षस है तो सिद्धार्थ देवता है—नहीं, तुम उसके साथ ऐसा नहीं कर सकतीं। सिद्धार्थ का कैरियर तबाह नहीं कर सकतीं तुम।”
“मुझे भावनाओं में बहाने की कोशिश मत करो इंस्पेक्टर।” पूनम ने तनिक भी प्रभावित हुए बगैर सपाट और खुरदुरे स्वर में कहा—“मैं नहीं बहूंगी भावना में, क्योंकि सिद्धार्थ से मेरा कोई भावनात्मक लगाव नहीं है।"
इंस्पेक्टर देशमुख ने झुंझलाकर कहा—“इस देश से तो भावनात्मक लगाव है?”
“मुझे बरगलाने की तुम्हारी हर कोशिश बेकार जाएगी।”
“उफ!” इंस्पेक्टर देशमुख कसमसा उठा। दांतों-पर-दांत जमाकर गुर्राया वह—“तुम्हारे सीने में दिल नहीं धड़कता, पत्थर रखा है—पत्थर।”
“मां के मुंह से यह सुनते ही बच्चों के दिल पत्थर के बन जाते हैं कि उसके साथ किसी ने बलात्कार किया है। मेरे सीने में भी वही पत्थर दिल है।”
“बदले की आग ने तुम्हें पागल कर दिया है पूनम। यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आ रही है कि डॉक्टर रामन्ना से बदला लेने के फेर में तुम इस देश से बदला ले रही हो। सारे राष्ट्र के मुंह पर कालिख पोत रही हो।”
“काश—वह तुम्हारी मां होती इंस्पेक्टर!” पूनम फुफकारी—“तब तुम समझते कि मेरे अंदर किस किस्म का लावा धधक रहा है।"
इंस्पेक्टर देशमुख इस नतीजे पर पहुंच गया कि पूनम को समझाने की हर कोशिश व्यर्थ है, अत: ललित की तरफ पलटकर पूछा—“अब तुम क्या कहते हो मिस्टर कानून के पंडित?”
“मुझे क्या कहना है अब?” ललित टूटे-से स्वर में बोला—“सबकुछ तो पूनम ने कह दिया है। अब बाकी बचा ही क्या है?”
”बीच-बीच में तुम पूनम को बयान देने से रोकने की चेष्टा क्यों कर रहे थे?”
“उसका उद्देश्य तुम लोगों से कुछ छुपाना नहीं था।"
“फिर?”
“तुम लोगों के सामने तो सारी स्थिति उस टेप ने स्पष्ट कर ही दी थी।” ललित ने कहा—“मैं यह सोच रहा था कि अगर पूनम मुकम्मल बयान न दे तो उस अज्ञात आदमी से मिलने वाली रकम तो कम-से-कम मिल ही जाए—भावनाओं में बहकर पूनम ने वह रकम गंवा दी है। इस बयान के बारे में पता लगने के बाद वह समझ जाएगा कि हम उसके ही लिए काम नहीं कर रहे थे, बल्कि हमारा अपना स्वार्थ भी इसी में है।”
“कौन है वह?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“क्या मतलब?”
“ वह सिर्फ एक बार मेरे कचहरी स्थित ऑफिस में आया था, वह भी ऐसा हुलिया बनाकर कि मैं उसकी उंगलियों तक की त्वचा न देख सका—चेहरे की बात तो बहुत दूर है। तभी उसने मुझे यह काम सौंपा था—साथ ही पच्चीस हजार रुपये एडवांस भी दिए थे—उसके बाद वह मेरे सामने कभी नहीं आया—हां, फोन पर बात जरूर करता था।”
“फोन नंबर क्या है उसका?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“तुम झूठ बोल रहे हो?”
“यह सच है। जब भी बात होती है, वही मुझे फोन करता है।”
इंस्पेक्टर देशमुख ने व्यंग्य-सा किया—“उसने सिर्फ तुम्हें पच्चीस हजार रुपये दिए और उनमें से दस हजार तुमने अपना मनमाफिक बयान दिलाने के लिए मोहन को भी दे दिए?”
“वे दस हजार उसने एक्स्ट्रा भिजवाए थे।”
“क्या मतलब?”
“एक दिन मेरे कचहरी स्थित ऑफिस में उसने फोन किया। मैंने बताया भी कि मोहन हमारे मनमाफिक बयान देने के लिए पंद्रह हजार रुपये मांग रहा है। उसने कहा, मैंने सौदा ज्यादा में कर लिया है, मगर मजबूरी थी, सो उसने कहा कि जब मैं ऑफिस से अपने घर पहुंचूंगा तो हॉल में एक सूटकेस पड़ा मिलेगा—उसमें पंद्रह हजार रुपये होंगे और ऐसा ही हुआ।”
"यानी पांच हजार तुम उस सौदे में भी डकार गए?”
ललित चुप रहा।
कुछ देर चुप रहने के बाद इंस्पेक्टर देशमुख ने आगे कहा—“मैं सब बातों पर यकीन कर सकना हूं मगर इस बात पर यकीन नहीं कर सकता कि तुम कथित अज्ञात व्यक्ति को जानते नहीं हो। जिस तरह की दुकान तुम कचहरी में खोले बैठे हो, उससे तुम्हारे कैरेक्टर की जो तस्वीर बनती है, उसके मुताबिक तुम इतने बेवकूफ नहीं हो सकते कि अज्ञात व्यक्ति के बारे में कुछ जाने बिना इतने आगे निकल जाओ।”
"यकीन मानो।” ललित ने अजीब स्वर में कहा—“मैं इतना ही बेवकूफ हूं।”
कटकर रह गया इंस्पेक्टर देशमुख। झुंझलाया-सा बोला—“अपने कचहरी वाले ऑफिस में तुमने कहा था कि अपने क्लाइंट के बारे में बताना तुम्हारे पेशे के विरुद्ध है।”
“अब वह मेरा क्लाइंट नहीं रहा, क्योंकि पूनम ने अपने बयान से उससे आगे व पीछे भी मिलने की सारी उम्मादों पर पानी फेर दिया है।”
“यानी इस तरह उसका नाम पता नहीं बताओगे?”
"जो बात मुझे मालूम नहीं है, वह आप मुझसे किसी भी तरह से नहीं जान सकते।”
“जानने के ढेर सारे तरीके हमें सिखाए जाते हैं।” इंस्पेक्टर देशमुख गुर्राया।
“उन तरीकों का इस्तेमाल करने की इजाजत कानून आपको नहीं देता। काले कोट और सफेद पैंट वाले कानून के कई प्रहरी आपको अपने थाने में पहले से ही बैठे मिलेंगे—उनके सामने आप मुझसे या पूनम से पूछताछ तो कर सकते हैं, मगर अवैध तरीके इस्तेमाल नहीं कर सकते। ऐसा करने पर आप उल्टे फंस जाएंगे।”
“ओह, इतने इंतजाम हैं तुम्हारे पास?”
“अपने चारों तरफ इस किस्म के इंतजाम मुझे हमेशा रखने पड़ते हैं। अगर न रखूं तो आपके भाई कचहरी में एक पल भी मेरी दुकान न चलने दें।”
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