तोताघाटी की चुड़ैल

डोईवाला रेलवे स्टेशन। ब्रह्म मुहूर्त से भी पहले का समय। गाड़ी से जब मैं उतरा उस समय चारों तरफ घना कुहरा छाया हुआ था। स्टेशन पर ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी। जो दस-बीस यात्री थे वे भी गाड़ी चले जाने के बाद उस घने कुहरे के आगोश में समा गये। पहले जैसी खामोशी फिर बिखर गयी प्लेटफार्म पर अपना एक छोटा-सा झोला और कम्बल जमीन पर रखकर एक और खड़ा हो गया चुपचाप मैं और सोचने लगा कि क्या करूँ कहाँ जाऊँ अब? काफी देर तक खड़ा सोचता रहा चुपचाप मैं तभी मेरी नजर सामने कुछ दूर खड़े एक अजीब से वस्त्र पहने सख्स पर पड़ी, जो ऊन से बने लबादा पहने हुए था और आँखें एक जगह नियंत्रित कर के चाय बनाने में मशगूल था। शायद उसे पता था की अभी अभी ट्रेन रुकी है तो यात्रियों की भीड़ उसकी चाय की टपरी की तरफ अवश्य रुख करेगी।

न जाने क्या सोचकर मैं उस शख्स के सामने जाकर खड़ा हो गया। शायद मेरी उपस्थिति का आभास लग गया उसे। उसने चायछन्नी घुमाना बन्द कर मेरी ओर देखा उसने। उसका अपनी मिचमिचाती आँखों से इस प्रकार घूर कर देखना मुझे अच्छा नहीं लगा। 

इस पहले की मैं अपनी जुबान हिलाऊं उसने एक कांच की ग्लास में चाय मेरी तरफ बढ़ाते हुए काहे, "लो चाय पी लो, शरीर में गर्मी आ जाएगी।"

मैंने झट से चाय के ग्लास को थाम लिया और अपने होंठो से लगा लिया। मेरी नजर उसके पीछे लगी टीन की बनी हुई एक बोर्ड पर गई जिस पर लिखा था- ‘विवेक काला टी स्टॉल।’

उस शख्स ने मुझे अजीब से घूरते हुए पूछा, "कहां जाना है साहब?"

"क... कहीं नहीं। तुम से मतलब! चाय के कितने पैसे हुए।" मैंने घबराते हुए एक सांस में ही उससे कह दिया।

उसने जवाब न देते हुए अपनी दोनो हथेली ऊपर उठाते हुए अपनी अपनी उंगलियां फैला दीं। उसके बाद उसके होंठो पर अजीब सी मुस्कान फैल गई। 

मेरे चेहरे के तोते उड़ गए जब मेरी नजर उसकी उंगलियों पर गई, मैंने देखा उसकी दोनों हथेलियों में अंगूठा था ही नहीं। मैंने बिजली की फुर्ती से दस का नोट निकाला और चाय के ग्लास के नीचे दबा दिया। मेरे ऐसा करते ही ग्लास में मौजूद शेष चाय का रंग अनवरत बदलने लगा और वह सुर्ख खून की तरह लाल हो गया। 

मैंने अपने सामान को उठाया और अनियंत्रित हो कर एक दिशा की तरफ लगभग दौड़ पड़ा। 

"साहब अपने खुल्ले पैसे तो लेते जाओ।" उस शख्स ने अपनी हथेली को फिर से ऊपर उठाते हुए तंज कसने का सफल अभिनय किया।

"आह बचाओ!" अचानक मेरे कंठ से चीख निकल पड़ी और मैं धरती पर जा गिरा था। मैंने अपनी नजर उठाकर देखा तो सामने एक शख्स किसी विशाल बरगद की भांति खड़ा था और मेरी तरफ हाथ बढ़ाए हुए था।

मेरे मन में शंका घर कर गई और मन ही मन सोचने लगा, "ये...ये...ये तो वही शख्स लग रहा है। ल...लेकिन यह इतनी जल्दी यहां कैसे आया। इसे तो वहां होना चाहिए था।"

"अरे उठोगे भी या यहीं पड़े रहने का इरादा है।" इस लिबास के अंदर से महीन आवाज आई। 

"यह आवाज तो जानी पहचानी सी लग रही है।

आखिर कौन हो सकता है?" मैंने आदत के अनुसार फिर से खुद में बड़बड़ाना शुरू कर दिया था।

"ठीक है यहीं सोने का इरादा है तो पड़े रहो। खमोखा ही मुझ अबला को इतनी ठंड में सुबह आना पड़ा।" उस शख्स ने फिर से मुझ पर ताने मरते हुए कहा था। 

उसकी बातों से यह तो स्पष्ट हो गया था की वह कोई लड़की थी और मुझसे परिचित थी। एक तो उसके चेहरे पर मास्क था और ऊपर से कोहरे का आतंक। मेरी बुद्धि पूरी तरह से काम करना बंद कर चुकी थी। तभी सहसा एक चमत्कार सा हुआ और उसने अपने चेहरे से मास्क हटाने के बाद सिर पर पहने स्कार्फ को भी खोल दिया।

अब उसके बाल खुलकर बिखर गए थे। उसकी आंखे बड़ी बड़ी और स्याह थी। कोमल गाल पर जुल्फ की लटाएं मंडराने का उपक्रम कर रही थी। पतले पतले होंठ बिल्कुल सुर्ख लाल थे। वह किसी अक्षयकन्या जैसी लग रही थी। 

मेरे मुंह से अनायास ही यह शब्द निकल पड़े, "अरे स्वाति तुम और यहां!"

"हां मैं स्वाति सेमवाल ही हूं अक्षय के बच्चे! कोई चुड़ैल या मषाण नहीं जो इतना सहम गए हो की मेरे हाथ थामने में घंटो लगा दिए।"

स्वाति ने मेरी तरफ देखते हुए कहा था।

मैंने उसकी हथेली थामी और खड़ा हो गया।

मैंने अपनी डरने की वजह इसको बताने की कोशिश की, "अरे दरअसल वो चाय वाला है ना..!"

"डोईवाला छोटा सा स्टेशन है। यहां ईक्का दुक्का ही गाडियां रुकती हैं। और ऊपर से साढ़े तीन बजे का समय, ऐसी स्थिति में तुम्हें कोई चाय वाला नहीं मिलेगा यहां।" 

स्वाति ने मेरी बात बीच से काटती हुई बोली थी।

मैंने एक दिशा की तरफ इशारा करते हुए कहा, "लेकिन वहां तो एक चाय वाला था जिसका नाम विवेक काला टी स्टाल था।"

स्वाति ने रुकते हुए कहा, "कहां है दिखाओ तो जरा मुझे भी। मुझे तो यहां जानवरों में कुत्ते बिल्ली भी नजर नहीं रहे हैं और तुमने चाय की टपरी का नाम भी पढ़ लिया। कहीं तुमने कोई खबेश तो नहीं देख लिया।"

यह कहती हुई स्वाति जोर जोर से हंसे लगी। लेकिन मेरे चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई थीं। क्योंकि वास्तव में उस जगह पर चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था और वहां वो चाय स्टॉल भी नहीं थी। 

मैंने बात बदलने का अभिनय किया और स्वाति से बोला, "तुम्हारी मजाक करने की आदत अभी भी नहीं गई ना? याद है ना कॉलेज के वक्त भी एक खबेश तुम्हारे पीछे पड़ गया था और बहुत मुश्किल से उस से पूछा छुड़ाया था।"

अब मैं और स्वाति उसकी कार की तरफ बढ़ते हुए अंदर बैठ गए थे जो उसने सामने कुछ दूरी पर ही पार्क की थी।

स्वाति बोली, "हां उस खैंट पर्वत वाली घटना भला मैं कैसे भुल सकती हूं। तब मेरे बाल खुले भी तो थे, ऐसे में तो खबेश का पीछे पड़ना स्वाभाविक ही था। इसलिए तो इस वक्त मैंने अपने बाल स्कार्फ से बांधे हुए थे लेकिन तुम्हारी वजह से मुझे उन्हें खोलना पड़ा। कहीं तुम खबेश ही तो नहीं हो ना?"

आदत के अनुसार स्वाति ने फिर से मजाक करने की कोशिश की। 

स्वाति सेमवाल अपने घर की इकलौती संतान थी। उसके पिता स्वाति के बचपन में ही अपने गांव पौड़ी से आते हुए रास्ते में किसी दुर्घटना के शिकार हो गए थे और उनकी कार गहरी खाई में जा गिरी थी। उसकी मां सरकारी विद्यालय में एक अध्यापिका थीं। उसके पिता के जाने के बाद उन्होंने ही स्वाति की परवरिश अच्छे तरीके से की और उसे कभी अपने पिता की कमी महसूस नहीं होने दी थी। वह स्वाति की हर ख्वाइश पूरी करती थी लेकिन स्वाति भी काफी समझदार थी और उसमें होशियारी कूट कूट कर भरी थी। उसने हमेशा अपने दायरे में रहकर ही सारे कार्य किए। उसे फिजूलखर्ची बिल्कुल भी पसंद नहीं थी और वह नपीतुली ही जीवन यापन करती। स्वभाव से हंसमुख होने की वजह से वह किसी के सामने बेधड़क बोल देती थी। जो उसके करीबी थे उसे अच्छे से जानते थे की स्वाति दिल से साफ है और वह कोई गलत बात हरगिज भी बर्दाश्त नहीं कर सकती।

मैंने और स्वाति ने साथ में ही देहरादून से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। तो उसके घर साथ आना जाना लगा रहता था। वह डोईवाला से 30 किमी दूर नरेंद्रनगर नमक जगह पर ही बिजली विभाग में इलेक्ट्रिकल इंजिनियर के पद पर कार्यरत थी। मैं पुणे का रहने वाला था फिर बाद में मेरी नौकरी बैंगलोर में एक निजी कंपनी में लग गई जिसकी वजह से पूरे 4 साल बाद उस से मिलना हुआ था। जब मैं यहां देहरादून में पढ़ता था तो मेरी इच्छा बद्रीनाथ जाने की बहुत थी लेकिन ऐसी परिस्थिति बन नहीं पाई की मैं वहां जा सका। लेकिन फिलहाल मेरी कुछ दिन की छुट्टियां थीं तो मैंने अपनी दिल की इच्छा स्वाति को बताया था और उसने मेरे साथ बद्रीनाथ जाने का प्लान बनाया था।

स्वाति ड्राइविंग सीट पर बैठी हुई कोहरे से जूझती हुई काम रफ्तार में ही सही लेकिन अपनी कार अपनी मंजिल की तरफ बढ़ा रही थी। मैंने उसकी तंद्रा तोड़ते हुए कहा, "तुम मुझे लेने इतनी सुबह क्यों आई? मैंने कहा तो था की ट्रेन आधी रात को पहुंचेगी। मैं कुछ देर रेलवे स्टेशन पर इंतजार कर के सुबह आ जाता।"

स्वाति मुस्कुराती हुई बोली, " अक्षय! तुम्हारे कहने से क्या होता है? कहने के लिए तो तुमने यह भी कहा था की यह शहर तुमको इतना पसंद है की इसे छोड़कर वापिस नहीं जाने वाले। लेकिन वैसा किया तो नहीं ना?"

स्वाति ने पुरानी बाते उकेरते हुए उसे ताने मारने की कोशिश की थी।

मैं बोला, "अरे देवी जी मेरे कहने का मतलब यह है की एक तो ऐसी ठंड और ऊपर से इतनी सुबह सुबह मैं बुला कर तुम्हें कष्ट नहीं देना चाहता था।"

स्वाति ने फिर मजाकिया अंदाज में जवाब देते हुए कहा, "भगवान का शुक्र मनाओ की मैं आ गई। नहीं आती तो न तो जीतेजी इस भयंकर ठंड में तुम्हारी कुल्फी बन जानी थी। यहां स्टेशन पर रुकने के लिए कोई यात्री व्यस्था नहीं है समझें मियां!"

उसके ऐसा कहते ही मेरी आंखों के आगे फिर से स्टेशन के बाहर खड़े उस शख्स के साथ हुई घटना मेरे मानसिक पटल पर तैर गई। भय की छोटी सी लहर मेरे नख से शीर्ष तक गुजर गई।

स्वाति ने मेरी तरफ देखते हुए फिर से कहा, "क्या हुआ बाबुमोशाय किस ख्याल में खो गए?"

"मैंने और कॉलेज के टाइम तो तुम्हारी आंखें इतनी सुबह खुलती कभी नहीं देखी थी आज कैसे खुल गई?" मैंने तपाक से उसके सामने सवाल रख दिए।

"पापी पेट क्या न करवाए सरकार। सब इस पापी पेट के लिए करना पड़ता है।" स्वाति ने मजाकिया अंदाज में जवाब दिया।

"मतलब!"

"मतलब यह की मेरी ड्यूटी नरेंद्रनगर में है जो की डोईवाला से 30 किमी की दूरी पर है। पूरा रास्ता पहाड़ी है इसलिए वहां जाने में तकरीबन मुझे डेढ़ घंटे का वक्त लग जाता है। फिर सुबह के लिए नाश्ता बना के खाना और दिन के लिए लंच बना के ले जाने के लिए मुझे डेढ़ से दो घंटे और चाहिए होती है। फिर नहाने धोने के लिए अलग से वक्त। अब ऐसे मैं सुबह न उठो तो सारी दिनचर्या गड़बड़ हो जाती है।"

"तो तुम अब रोज नहाने लगी हो क्या?" मैंने इस पर तंज कसे हुए कहा था।

स्वाति ने अपनी आंखे मुझे दिखाती हुई बोली, "कहना क्या चाहते हो?"

मैंने जवाब में मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "यही की पहले तुम केवल इतवार को नहाती थी ना?"

इस बार उसने अपने पंजे को दिखाती हुई किसी खिसियानी बिल्ली की तरह बोली, "देखो मैंने तुम्हारा मुंह नोच लेना है, मेरे से ज्यादा पंगे न लो समझे।"

मैंने आग में घी डालते हुए कहा, "हां भला एक बंदरिया से उम्मीद भी क्या की जा सकती है?"

चिरर्र.... चिर्रर...! यह आवाज गूंज उठा जो की कार में अचानक ब्रेक लगाने की वजह से हुई थी।

स्वाति ने रोष में इस बार जवाब देती हुई बोली, "देखो अक्षय! मैं बता रहीं हूं अभी कार से नीचे उतर दूंगी। फिर तुम्हें मषाण या खबेश उठाकर ले जाए तो न कहना मुझसे।"

खबेश का नाम सुनकर मैंने डरने का नाटक किया और बोला, "अच्छा सॉरी बाबा। चलो इस बार भी मैंने ही अपनी गलती मान ली। चलो अब कार आगे बढ़ाओ भी।" मैंने अपने दोनों कानों को पकड़ते हुए नाटकीय अंदाज में उस से कहा था।

"अरे नीचे उतारो भी, घर आ गया है।" स्वाति यह कहती हुई ड्राइविंग सीट से नीचे उतरी और मेनगेट खोल कर अंदर प्रवेश करने लगी।

अब वे दोनों घर के अंदर थे। 

स्वाति बोली, "अक्षय ऐसा कर लो की कुछ देर आराम कर लो क्योंकि हमें लंबे सफर के लिए रवाना होना है।" स्वाति ने यह कहते हुए सामने कमरे की तरफ इशारा किया जो मेरे लिए सुरक्षित रखा हुआ था। 

जब मेरी आंखें खुली तो मैं सामने दीवार घड़ी को देखकर चौंक गया, दोपहर के 3 बजे का वक्त हो रहा था।

"हे भगवान! मैं इतनी देर सोया रहा और मुझे पता भी नहीं लगा।"

तभी स्वाति भी उसी वक्त मेरे कमरे में दाखिल हुई और सामने मेज पर ट्रे रखती हुई बोली, "लो कॉफी पी लो और फटाफट फ्रेश हो जाओ।"

मैं चौंकते हुए स्वाति से बोला, "लेकिन हमें आज बद्रीनाथ के लिए निकलना है ना?"

"तुम सो रहे थे तो सोचा की तुम्हारी नींद में खलल न पड़े। और वैसे भी तुम थके हुए थे तो तुम्हारा आराम करना बेहद जरूरी था।"

 "तो फिर हम कल जायेंगे क्या?"

"नहीं हम आज ही निकलेंगे। दरअसल मां गांव है और उसके लिए कुछ जरूरी दवाई ले के जाना है जो यहीं मिलती है। हमारे गांव का नाम पन्याली है जो यहां से तकरीबन 80 किमी की दूरी पर है और वही रास्ता आगे जा कर बद्रीनाथ भी चला जाता है। तो हम आज की रात अपने गांव में रुक जायेंगे और फिर सुबह वहां से बद्रीनाथ के लिए भी निकल जाएंगे।"

मैंने स्वाति को फिर से छेड़ते हुए कहा, "वाह तुम्हारा जवाब नहीं। मान गए तुम्हारा दिमाग अब भी काम करता है।"

स्वाति ने मौके पर चौका मारती हुई बोली, "और नहीं तो क्या, मैंने ना सोचा होता तो तुम यहीं पड़े पड़े अभी भी बिस्तर तोड़ रहे होते।

मैंने स्वाति की तरफ देखते हुए कहा, "तुम्हारे पास हर सवाल का जवाब होता है क्या?"

वह अपने दोनो कंधे उचकाती हुई बोली, "हम चीज ही ऐसी हैं, की आसानी से भुलाए भी नहीं जा सकते।" 

यह कहती हुई स्वाति वहां कमरे से बाहर निकल गई और मैंने कॉफी पीने पर ध्यान दिया। 

अब मैं और स्वाति फिर से कार में थे। वो कार को ड्राइविंग सीट पर बैठकर फिर से कार की स्टीयरिंग से खेलती हुई कार को आगे बढ़ा रही थी। 

मैंने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, "स्वाति हम कितनी देर में वहां पहुंच जायेंगे?"

स्वाति ने सामने डेसबोर्ड पर तिरछी नजर से देखते हुए कहा, "अभी घड़ी में शाम के छः बज रहे हैं। हम लोग नौ बजे तक गांव में होंगे।"

पिछले दो घंटे से लगातार कार चल रही थी। अब वे दोनों तकरीबन आधे से अधिक सफर तय कर चुके थे। सांझ की स्याह कालिमा अब रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार में बदल चुकी है। आकाश में झिलमिलाते हुए ग्रह-नक्षत्रों की परछाइयां गंगा के शांत निर्मल जल में पड़ रहीं थीं। घोर नीरवता चारों तरफ वातावरण में छाई हुई थी। 

तभी मेरी नजर सड़क के किनारे मील के पत्थर के पास लगे बोर्ड पर पड़ी जहां बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था- तोताघाटी में आपका स्वागत है।

यह पढ़ते मेरे मुंह से हंसी निकल गई और मैं बोला, "तोताघाटी, भला यह क्या नाम हुआ? यहां क्या केवल तोते रहते हैं?"

यह सुनते स्वाति झट से बोली, "अरे ऐसे किसी का मजाक नहीं बनाना चाहिए। तुम्हें पता भी है की तोताघाटी क्या बला है?"

मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा, "नहीं पता मुझे, चलो तुम ही बता दो। देखूं तो भला ऐसी क्या खास बात है?"

स्वाति ने इस बार मुस्कुराते हुए कहा, "नहीं पता तो एक अच्छे श्रोता की तरह सुनो ध्यान से।

दरअसल उत्तराखंड के टिहरी जिले में तोता घाटी का गरिमामय इतिहास रहा है। तोता घाटी बद्रीनाथ मार्ग पर ऋषिकेश से आगे व्यासी और अक्षयप्रयाग के बीच सकनीधार से 10 किमी पहले पड़ने वाली घाटी है। इसके नीचे गंगा नदी बहती है, गंगा नदी के किनारे पर खड़ा इस पहाड़ और इस घाटी का रास्ता और रोड जितना दुर्गम है उतना ही रोमांचक इस घाटी का इतिहास और कहानी है जिसका नाम ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ के नाम पर तोता घाटी पड़ा। यह घाटी अत्यधिक मजबूत चुने के डोलोमाइट चट्टानों से मिलकर बना है जिसको भू-वैज्ञनिकों ने सबसे मजबूत चट्टानों का दर्जा दिया है। इन चट्टानों को तोड़ पाना लगभग असंभव है। यह वही घाटी है जिस पर साल 2020 मे सरकार द्वारा चार धाम यात्रा सुगम बनाने के लिए ऑल वेदर रोड का काम हुआ था। लगभग 6 महीने तक इस रोड पर काम चला था और रोड़ बनाने के लिए तरह–तरह के आधुनिक मशीनों को लगाने के बाद भी NH और सरकार के पसीने छूट गए थे। इस घाटी पर ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ ने 90 साल पहले सड़क बनाई थी और घाटी को तोड़कर सड़क बनाने मे उनकी जमा पूंजी के साथ–साथ उन्हें अपनी संपत्ति तक गवानी पड़ी थी।

तोता सिंह रांगड़ एक ठेकेदार थे जो टिहरी जिले में स्थित प्रतापनगर के निवासी थे। ये अपने ईमानदारी के लिए काफी प्रसिद्ध होने के साथ–साथ बहूत मेहनती और साहसी ठेकेदार थे। सन 1930 में टिहरी के राजा नरेन्द्र शाह ने कीर्तिनगर में स्थित अपने घर जाने के लिए ऋषिकेश से कीर्तिनगर तक सड़क निर्माण की इच्छा जताई। लेकिन इस स्थान पर सड़क निर्माण के लिए कोई भी ठेकेदार तैयार नही था। कारण यह की इस रोड पर व्यासी–अक्षयप्रयाग के बीच में पड़ने वाली तोता घाटी जो अत्यधिक मजबूत डोलोमाइट चुना पत्थर से भी मजबूत चट्टानों से मिलकर बना था। जिसे तोड़ और काट पाना बड़ा मुश्किल और नामुनकिन था। अचानक राजा को किसी ने ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ के बारे मे बताया। राजा ने उन्हें अपने पास बुलाकर अपनी रोड बनाने की इच्छा जताई और यह आदेश दिया कि वो बस ऋषिकेश–कीर्तिनगर रोड पर व्यासी–अक्षयप्रयाग के बीच में पड़ने वाली घाटी पर 10 किमी तक सड़क निर्माण करना है। तोता सिंह रांगड़ ने राजा को हां कह दिया और सन 1931 में अपने साथ 50 मजदूरों और गांव वालों को लेकर रोड निर्माण का कार्य करने लगे।

मगर इस घाटी में इतने खतरनाक पत्थर और चट्टाने थी कि कई मजदूर बीच में ही काम को छोड़कर चले गए और कई मजदूरों की जान तक चली गई। सबसे बड़ी मुश्किल तब आई जब इस रोड पर लगने वाला खर्चा समाप्त हो गया क्योंकि राजा ने तोता सिंह को रोड निर्माण के लिए बस 40 चांदी के सिकके दिए थे। सभी मजदूर काम छोड़कर जाने लगे और जो मजदूर बचे हुए थे उनको बस दो समय का खाना दिया जाने लगा। तब तोता सिंह ने अपने जिंदगीभर की जमा की गई पूंजी इस रोड पर लगा दी और अपने पत्नी के सारे गहने बेच दिए। तोता सिंह और उनके मजदूर दिनभर कमर पर रस्सी बांधकर पहाड़ों को तोड़ते हुए लगभग 4 साल तक रोड निर्माण का कार्य किया। सन 1935 में इस रोड निर्माण का कार्य ठेकेदार तोता सिंह द्वारा पूरा हुआ। तोता घाटी पर रोड का निर्माण तो हो गया था किन्तु इसके बाद तोता सिंह रांगड़ का पूरा परिवार रोड पर आ गया था। क्योंकि इस रोड पर उनके 70 हजार चांदी के सिक्के लगे थे। इसके बाद जब राजा नरेंद्र शाह को इस बात का पता लगा तो राजा ने उनको को न सिर्फ जमीन दी बल्कि उस घाटी पर बने रोड का नाम तोता सिंह रांगड़ के नाम पर तोता घाटी रखा दिया। इसलिए आज इस घाटी को तोता घाटी कहते हैं। तो ये थे वो महान मेहनती ओर सहासी ठकेदार तोता सिंह रांगड़ जिनकी वीरता और साहस से इस दुर्गम घाटी पर रोड का निर्माण हो सका।

जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए इस घाटी पर लगातार दिन–रात काम किया। जिस घाटी पर NH के नए मशीनों और मजदुरों की हालत खराब हो गयी थी, जिस घाटी पर सूरज की किरणों का ताप सह पाना बड़ा मुश्किल है। उस रोड पर अपनी सारी संपत्ति लगा कर पत्नी के जेवरात बेच कर अपने साहसी होने का परिचय दिया। ठेकेदार तोता सिंह रांगड़ को बाद में राजा द्वारा लाड साहब और लोगों द्वारा माँजी नाम की उपाधि भी मिली।"

स्वाति के इतना कहते ही मैं बोला, "वाह वाकई मान गए तोता सिंह रांगड जी को। वास्तव में इंसान के अंदर इच्छशक्ति हो तो वो कुछ भी कर सकता है। कुछ भी नामुमकिन नहीं।"

सहसा अंधेरे में मेरे सामने एक छाया उभरती है। वह छाया धीरे धीरे आगे बढ़ती है। तभी कार अचानक मोड़ पर मुड़ती है तो छाया अदृश्य हो जाती है। 

स्वाति का ध्यान पूरी तरह सावधानी से ड्राइविंग करने पर थी। मेरी हालत पतली होती जा रही थी क्योंकि मैंने उस साए को लगातार तीन बार देख लिया था। वह हर मोड़ के बाद मुझे दिख रही थी। वह किसी औरत की साया थी जो की बेहद खतरनाक लग रही थी। 

चूंकि पहाड़ी मार्ग पर लगातार मोड़ होने की वजह से जो वस्तु दूर होती है वो बार बार हर मोड़ के बाद दिखती है। परंतु वह जब एक बार गुजर जाती है तो वह दुबारा नहीं दिखती लेकिन यहां तो हालात एकदम जुदा थे। 

मेरे माथे पर पसीने के बीज अंकुरित हो चले थे। तभी स्वाति ने लड़खड़ाती जुबान में कहा, "द... अक्षय... क्या मैंने जो देखा वो तुमने भी देखा?"

मैंने माथे से पसीने पोंछते हुए कहा, "हां स्वाति, मैं तुमसे काफी देर से कहने वाला था। मैं उस औरत को लगातार 6 बार देख चुका हूं। वह तकरीबन हर मोड़ के बाद दिख जा रही है।"

स्वाति ने सहमी हुई आवाज में कहा, "कहीं उसे कोई मदद की जरूरत तो नहीं हैं ना?"

मैंने इस बार लगभग चीखते हुए कहा, "पागल मत बनो स्वाति। क्या तुम्हें नहीं पता की वह औरत बार बार हमारे कार के पहुंचने से पहले ही हर मोड़ पर पहुंच जा रही है। कहीं तुम्हारी खबेश वाली बात सच तो नहीं हो गई?"

स्वाति ने रूवांसी आवाज में कहा, "एक तो मेरा डर के मारे हालत खराब है और मुझे संभालने की वजह और डरा रहे हो।"

उसने इतना कहा ही था की तभी वह औरत अगली मोड़ पर फिर से दिख गई। इस बार वह काफी करीब थी। उसका विभत्स चेहरा साफ साफ दिखलाई पड़ रहा था। उसने लाल रंग की साड़ी पहनी हुई थी। उसकी आंखों की जगह गहरी काली सुर्ख गड्ढे थे और उनमें से लाल रंग का गाढ़ा रक्त रिस कर नीचे आ रहे थे। उसके लंबे और नुकीले दांत किसी भी इंसान के गोश्त निकाल सकते थे। 

मैं चीख कर बोला, "स्वाति तुम अपना ध्यान बस रास्ते पर लगाए रखना। तुम उसकी तरफ मत देखना। वह तुम्हारा ध्यान भटकाना चाहती है, ताकि कोई बड़ी दुर्घटना घट जाए।"

मेरा इतना कहना था की तभी मैंने देखा कि अब वह चुड़ैल कार की दूसरी साइड जिधर मैं बैठा था उस तरफ तेज गति में कार के साथ दौड़ रही थी। वह अपनी हाथों से बार बार मारती हुई कुछ बोल रही थी।

डर के मारे मेरी हालत तो खराब थी ही लेकिन मैंने इस बार हिम्मत से काम लेते हुए स्वाति के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "कुछ भी हो जाए स्वाति बस तुम कार मत रोकना। मेरा यकीन मानो यह हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।"

जवाब में स्वाति ने अपना सिर हां में हिलाया और उसने अपना ध्यान नहीं भटकाया। शायद मेरे इस हरकत से उसकी हिम्मत में इजाफा हुआ था। 

तकरीबन एक घंटे के समय के पश्चात वह चुड़ैल दिखनी बंद हो गई थी। अब हम दोनों को कुछ राहत महसूस हुई थी। 

कुछ ही देर बाद सामने एक बोर्ड दिखा जहां लिखा था, तीन धारा की सीमा प्रारंभ।

स्वाति, "शुक्र है की बला हटी। मुझे तो लगा की आज मेरी मौत निश्चित थी।"

मैंने भी माथे से पसीने पोंछते हुए कहा, "स्वाति तुमने फिर आज समझदारी का परिचय दिया है। तुमने अपनी ही नहीं बल्कि मेरी भी जान बचाई है। मैं बहुत खुश हूं की मुझे तुम्हारी जैसी दोस्त मिली है।"

स्वाति बोली, "मैंने कहा था की बाबू हम चीज ही ऐसी हैं। इतनी आसानी से नहीं भुलाई जा सकती।"

यह कहते हुए स्वाति ने कार को साइड में खड़ी कर दी और मुझसे बोला, "अक्षय, पीछे वाली सीट के पास पानी की बॉटल होगी, प्लीज देना जरा।"

मैंने उसे पानी का बॉटल दिया तो स्वाति ने गट गट कर के एक सांस में ही खत्म कर दिया।

मैंने स्वाति से कहा, "अरे सारा बॉटल तो तुमने खत्म कर दिया, अब मैं क्या पियूंगा?"

स्वाति ने सामने इशारा करते हुए कहा, "वो देखो सामने ढाबा है। वहां जरूर पानी की बॉटल मिल जायेगी।"

अब मैं उस ढाबे के सामने था। मैंने वहां पैसे चुकते किए और बॉटल को हाथ में ले कर बढ़ने लगा। तभी मेरे पीछे से एक मधुर आवाज आई, "साहब। थोड़ा सुनिए तो।"

मैंने पीछे पलटकर देखा तो चौंक गया। वहां एक युवती खड़ी थी। उसकी उम्र अठारह वर्ष से अधिक नहीं थी। वह अनिंद्य सुन्दरी थी वह। सुगठित देह, चम्पई रंग, उन्नत वक्ष, नितंबों तक लहराती काली-घनी केश-राशि, मोर जैसी आँखों में काजल पुष्ट- की तीखी रेखाएँ, अनार के फूल जैसे कोमल लाल होंठ। उसके गले में मोतियों की मालायें पड़ी हुई थीं।

इतना रूप, ऐसा अनिर्वचनीय सौन्दर्य और ऐसा उद्दाम यौवन किसी एक ही नारी में हो सकता है, इसकी कल्पना भी मैंने कभी नहीं की थी।

वह अगले ही पल मेरे करीब थी। मैंने देखा कि जब तक मैं उसके रूप के जाल में मुग्ध था तब तक उसने अपनी दुकान बंद कर के ताला लटका चुकी थी। वह मेरे करीब आई और बोली, "ऐ नौना मैं ते पार बीटी छोड़ दिया जरा।"

मैंने चौंकते हुए कहा, "हैं। तुम क्या बोल रही हो मैं नहीं समझा।"

मेरा ऐसा कहते ही वो हंस पड़ी। स्वाति भी मेरे साथ ही खड़ी थी उसने उस लड़की से गढ़वाली भाषा में बात की और उसे अपने साथ कार में बिठा लिया। वह युवती पीछे वाली सीट पर बैठ गई। 

मैंने स्वाति से कहा, "यह लड़की कौन है और इसे कहां लिए जा रही हो।"

स्वाति ने जवाब देते हुए कहा, "अरे यह दुकान इसके पापा की है। इसके पापा कुछ दिनों से बीमार है तो यही दुकान में काम देखती है। यह हमारे ही गांव की है और इसे भी पन्याल ही जाना है।"

इस बार मैंने मायूसी से बोला, "अरे यार लेकिन रात के 9 बज गए हैं। तुम्हारा पन्याल गांव आयेगा कब?"

इस बार स्वाति की जगह वह युवती जवाब देती हुई बोली, "बाबू, यहां से एक किलोमीटर आगे तीन धारा बैंड है। उसके आगे जाने पर ठीक 3 किलोमीटर दूर ही पन्याल गांव आ जायेगा।"

उसकी जवाब सुनते हुए मुझे बहुत खुशी हुई की उसे हिंदी भी आती है। थोड़ी देर में ही तीन धारा वाली जगह आ गई। तभी वह युवती कुछ अजीब स्वर में बुदबुदाई- "क्या मौत, जिन्दगी का अन्त है ? क्या मौत के बाद सब कुछ समाप्त हो जाता है ? नहीं, नहीं, यह सब अज्ञानता है। मनुष्य, शरीर से बाहर निकलने की स्थिति को, शरीर में प्रवेश करने की स्थिति को और शरीर के भीतर रहकर विषयों के भोगने की स्थिति को न जान पाता है और न तो कभी समझ ही पाता है। जब हम अपने शरीर से अलग होते हैं तब परम सुख की अनुभूति होती है और उस सुख की अनुभूति अब मैं तुम दोनों को देने वाली हूं।"

मैंने उसे डांटते हुए कहा, "तुम पागल हो क्या यह क्या बकवास कर रही हो।"

मैंने पीछे पलटकर देखा तो वह युवती वहां मौजूद ही नहीं थी। मैं यह दृश्य देखकर जड़वत हो गया। तभी मैंने देखा कि स्वाति की दृष्टि ऊपर साइड मिरर में टिकी हुई थी। उस मिरर में उस युवती का पूरा शरीर दिख रहा था। वह एक नरकंकाल दिख रही थी। उसके शरीर पर कोई भी कपड़ा या मांस नहीं था।

स्वाति की आंखें पथराई हुई सी दिख रही थी। उसकी पुतलियां फैली हुई थी मानो जैसे उसे किसी ने सम्मोहन कर दिया हो। मेरा शरीर भी जकड़ा हुआ था मैं चाहकर भी हिल डुल पाने में असमर्थ था। 

कार अपनी रफ्तार पकड़े हुए आगे बढ़ी जा रही थी। अब कार के आगे एक गहरी खाई थी जहां से गिरने का मतलब था की कार के परखच्चे उड़ जाने थे। हमदोनो में से कोई भी जीवित नहीं बचने वाला था।

"चटाक SSS!"

अचानक किसी ने जोर से एक साथ मेरे और स्वाति के गाल में चांटा मारा था। स्वाति ने वक्त रहते ही झट से स्टीयरिंग खाई की तरफ से उल्टा घुमा दिया और कार ऊपर पहाड़ की तरफ जा टकराई।

कुछ देर तक एकदम सन्नाटा पसरा गया। हम दोनो को यकीन नहीं हो रहा था की हम जीवित थे या मौत के गाल में समा चुके थे। तभी मैं थोड़ा सामान्य हुआ और स्वाति के कंधे को हिलाते हुए बोला, "स्वाति जल्दी बाहर निकलो। देखो कार में आग लग गई है।" 

आग देखते ही स्वाति की तंद्रा भंग हुई और वह कार से झटके से बाहर निकल आई। 

जैसे ही हम दोनो बाहर आए तो यह देखकर दंग रह जाते हैं की आगे एक बहुत बड़ा बैंड (मोड़) था जिसके नीचे कुछ गाडियां पहले से ही गिरी हुई थीं। वहां कुछ अजीब तरह के प्रेत घूम रहे थे। किसी प्रेत का सिर तो किसी का पैर तो किसी का हाथ ही उनके शरीर पर मौजूद नहीं था। 

तभी 3-4 प्रेत कहीं से आ गए और मेरे सम्मुख खड़े हो गए और एक तरफ इशारा करने लगे। मैंने अंधेरे में आंख गड़ा कर उधर देखने की कोशिश की तभी खामोशी में तैरता हुआ किसी का विगलित स्वर सुनाई दिया। 

"ऐ भैजी। मेरू नौनियाल ते थामा जारा। येन कबरी होश में औण बाबा? मैं ये कू बूबा छों।"

(ए भाई, मेरे बेटे को थामे जरा। मैं इसका बाप हूं यह कब होश में आयेगा?)

सामने एक कफन में एक लाश पड़ी थी।

मेरे समझते देर न लगी की वह निश्चय ही इस अभागे बाप का बेटा था जिसे वह उठाने की कोशिश कर रहा था। मगर उसके जख्मी दिल में अपने जवान बेटे के प्रति इतना मोह और इतनी ममता थी कि अब वह लाश को लाश मानने को तैयार ही नहीं था। 

मैंने जैसे ही कफन को हटाया तो मेरे हलक में प्राण आ गए। उस लाश का धड़ तो था लेकिन उसका सिर एकदम से पिचका हुआ था, मानो जैसे किसी बड़े से टायर के नीचे उसका सिर आ गया हो।

अगले ही पल वह लाश एक झटके में अपनी जगह पर खड़ा हो गया।

मैं जोर से चीख मार पड़ा। सारे भूत,प्रेत और चुड़ैलो की मंडली एक साथ तेज गर्जना में हंसने का उपक्रम शुरू कर दिया।

मैं और स्वाति एक दिशा में भागने लगे थे। आज हमें अपनी मौत निश्चित लग रही थी। हम दोनो बेतहाशा गिरते पड़ते भागे जा रहे थे। 

स्वाति भागती हुई बिलखती हुई बोल रहे थी, "मुझे अब खुद पर पछतावा हो रहा,  मैंने क्यों उस लड़की को अपनी कार में बैठने को कहा? हे धारी मां मेरी रक्षा करो। है भगवती अपने भक्त की लाज रख लें।"

कहीं टन्न टन्न कर के ग्यारह बार घंटा बजा। साथ ही कुत्तों का विलाप भी बंद हो गया था। मैंने देखा कि हम किसी गांव के अंदर प्रवेश कर गए थे और हमारी आंखों के आगे अंधेरा छा गया था। हम दोनो ही मूर्छित हो कर गिर पड़े थे। 

जब मुझे होश आया तो देखा कि कमरे के एक कोने में काठ की तिपाई पर रखा एक दिया टिमटिमा रहा था। फिर वहां खड़े किसी एक व्यक्ति ने जेब से एक मोमबत्ती निकालकर जलाया फिर उसी मोमबत्ती की सहायता से 

दीये को जलाया और वहां कोने में मूर्छित पड़ी एक लड़की के मुंह के सामने ले जा कर बैठ गया। पीली मोमबत्ती का पीला प्रकाश उस लडकी के चेहरे पर पड़ते ही मैं चौंक गया। वह लड़की कोई और नहीं बल्कि स्वाति की ही थी। 

साधु-संन्यासी के भेष में वहाँ बहुत से लोग इकट्ठे थे। सभी का चेहरा कठोर और गम्भीर था। मुझे वातावरण भी उदास और खिन्न लग रहा था। आँगन के किसी कमरे में कोई अपने अभ्यस्त हाथों से नगाड़ा बजा रहा था। नगाड़े के अलावा कई साज और भी बज रहे थे। जिसका करुण स्वर नगाड़े की ध्वनि के साथ मिलकर वातावरण को और भी अधिक उदास और खिन्न बना रहा था। उन साधु-संन्यासियों के अतिरिक्त ग्रामीण परिवेश में बहुत से लोग वहां एकत्रित हुए थे। 

मन्दिर के भीतर देवी के सामने कई दोपाधारों में एक साथ चौमुखे दीप जल रहे थे और हवन कुण्ड से निकल कर सुगन्धित धूम्र चारों ओर फैल रहा था। उस समय देवी की प्रतिमा लाल रेशमी साड़ी में लिपटी हुई थी और प्रतिमा के गले में पुष्पों की मालाएं थीं। ऐसा प्रतीत हुआ मुझे उस समय ऐसा लगा मानो अभी कुछ समय पहले उस महाशक्ति का पूजन हवन हुआ है। कुल मिलाकर उस समय वहां का बड़ा ही गजब का वातावरण था।

पूजा के आँगन में पहुँचते ही सभी  साधु-संन्यासियों की नजरें एक साथ धूम गईं। उनके चेहरे भी पहले से ज्यादा कठोर हो गये और उपेक्षा का भाव भी दिखायी देने लगा। उन युवतियों के नगाड़े की आवाज पर थिरक रहे पैर अपने आप रुक गये।  उस मूर्ति के सामने रखा पात्र एकबारगी छलक उठा और उसी के साथ उनके हाथ भी अपनी जगह थम गये।

"अमंगल-अमंगल। बहुत बड़ा अनिष्ट हो गया है। इस लड़की के साथ कुछ बुरी शक्तियां भी इस गांव की सीमा में प्रवेश कर गई हैं। मुझे जल्द ही इसका उपाय करना ही होगा नहीं तो यह गांव बहुत जल्द लाशों के ढेर में परिवर्तित हो जायेगी।"

वहां मौजूद पंडित ने गांव वालों को चेताने का प्रयास किया और उसके बाद वह अबूझ भाषा में मंत्र पढ़ने लगा।

मोमबत्ती की पीली रोशनी, रह-रह कर स्वाति के गोरे चेहरे पर काँप उठती। वह अब भी मूर्छित अवस्था में ही थी। वातावरण में रात का गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। चारों ओर साँय साँय कर रहा था। कभी-कभी उस नीरवता को भंग करती हुई जंगली झींगुरों की झीं-झीं की आवाज सुनायी पड़ जाती थी। समय बीतता चला गया। एक घंटा कब निकल गया कमरे में बैंठे मुझे तनिक भी पता न चला। 

अबूझ गढ़वाली भाषा में मंत्रों का उच्चारण करते पंडित जी के दबे गले की ध्वनि दूर पर बजते घण्टे की तरह ध्वनित होती थी। मोमबत्ती की काँपती लौ में स्वाति की छाया भी पीछे की दीवार पर काँपने लगी और लगा, जैसे घर के हल्के अन्धकार में अनेक छाया-मूर्तियाँ इधर-उधर घूमने-फिरने लगी हों, और फिस-फिस करते हुए बातें करने लगी हों।

अपनी मूर्छित अवस्था में स्वाति स्थिर बैठी थी। मोमबत्ती की उस पीली रोशनी में उसका गोरा, लाल चेहरा फक पड़ा-सा दिख रहा था। उस ठंडी रात में भी माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। पंडित जी समझ गये कि उसके ऊपर भूत,प्रेत और चुडैलो की पूरी सेना आ गयी है। उसके बाद उसकी आँखों की मशाल और दीप्त-सी हो गयी। स्वाति के पीले चेहरे पर अपनी आँखों को केन्द्रित करके पंडित जी ने अपने अन्तिम मंत्र का उच्चारण किया, जिसके साथ ही स्वाति का पीला चेहरा धीरे-धीरे काला पड़ गया।

उस अजीब से भयानक दृश्य को देख कर एकबार को तो मैं काँप-सा गया। अचानक ही वहां मंदिर के प्रांगण में प्रज्ज्वलित मशाल धीरे-धीरे बुझ गयी। 

"बाप रे! यह क्या हो गया? अमंगल! भयानक अमंगल के लक्षण!" पंडित एक बार फिर से चीखा।

"यह तो इसी पन्याल गांव की लड़की है। भला इस जैसी सुन्दरी सरल और पवित्र लड़की का भविष्य इतना अन्धकारपूर्ण और कालिमामयी कैसे हो सकती है? मुझे जल्द ही इसका निवारण करना ही होगा।" पंडित जी ने यह कहते हुए बड़ी व्याकुलता से अपनी जेब से अगरबत्ती जैसी चीज निकाल कर जला दी।

कुण्डलाकार सुगन्धित धुआँ धीरे-धीरे कमरे में उठने लगा, और उसी धुएँ के साथ समस्त अशरीरी बाह्य शक्तियां का दल कमरे से बाहर हो गया। कमरे का वातावरण सहज और हल्का हो गया और स्वाति के चेहरे का रंग स्वाभाविक हो गया। पंडित जी ने दिया जला कर मोमबत्ती बुझा दी।

पंडित जी ने दोनो हाथ ऊपर उठाए और दोनो हथेली को जोड़ते हुए बोले,

"ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

जय हो मां धारी देवी की।"

अब सूर्योदय होने लगा था और चारों तरफ सूरज की किरणे अपना अधिकार विस्तार करने लगी थी। धीरे धीरे अब स्वाति भी सामान्य हो चुकी थी और उसके सारे संकट के बादल मां धारी देवी की कृपा से छंट गए थे। 

स्वाति ने संशय और अनिश्चितता से काँपते गले से मुझसे पूछा- "अक्षय! मैं यहां कैसे आई? और यहां यह सब क्या क्या हुआ? तुमको धारी मां की कसम, सच-सच बतलाना?"

मगर मैंने जो भी कुछ चंद घंटों में देखा था उसकी एक अलग ही सच्चाई थी। मेरी हिम्मत नहीं हो पा रही थी की मैं उसको सच बात बता सकूं। 

तभी वह पंडित जी स्वाति के करीब आए और चेहरे पर यथावत् प्रसन्नता लाते हुए कहा, "अब तुम्हारा कोई चाह के भी अनिष्ट नहीं कर सकता। तुम दोनों का जीवन सुखी होगी। दुःख की कोई छाया तुम्हें छू न सकेगी। अगर...!"

स्वाति चौंकती हुई बोली, "अगर क्या?"  पंडित जी ने स्वाति के चेहरे की ओर देखा। उन्होंने शब्दों में ममता उड़ेलते हुए कहा- "अगर कोई तुम्हारे साथ प्यार सहित जीवन निर्वाह करे।"

स्वाति चौंकती हुई बोली, "लेकिन भला अचानक ही इस वक्त कौन भला करेगा मुझसे शादी?"

मैंने अपने हाथ को ऊपर उठाते हुए कहा, मैं करूँगा शादी। मैं स्वाति के साथ विवाह के लिए तैयार हूं।"

स्वाति के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई। पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। लेकिन जब पंडित जी ने बताया की मां धारी देवी की ही कृपा से उसकी जान बची है। उनकी ही चमत्कार की वजह से वह पलक झपके ही 3 किलोमीटर की दूरी को मात्रा कुछ क्षण में तय कर के अपने गांव में प्रवेश कर पाई है। यहां गांव में प्रवेश करते ही हम दोनो ही बेहोश हो गए थे क्योंकि हमारे पीछे कई सारे भूत प्रेतों की मंडली थी जो हमारी प्राणों की भूखी थी। 

वह तो शुक्र हो की समय रहते मां धारी देवी की कृपा से उन्होंने दोनो के गाल पर चांटा मार कर उन दोनो का सम्मोहन तोड़ा और उनका ध्यान भंग किया। नहीं तो वो भी अन्य यात्रियों की तरह आज उस तीन धारा की खाई में उन विक्षिप्त लाशों के ढेर में उनकी संख्या का इजाफा कर रहे होते। इस खतरा को टालने का एकमात्र उपाय यही था की दोनो विवाहित हो जाए। ऐसी दशा में वो अनिष्टकारी शक्तियां उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगी। इसे मां धारी देवी की आज्ञा ही मानी जाए।

गांव के उस कूल मंदिर जो की मां धारी देवी को समर्पित थी वहां उस मन्दिर में बड़े धूम-धाम से मेरी और स्वाति की शादी हो गई थी।


***समाप्त***