आ, अब लौट चलें

दूसरे सेमेस्टर के आखिर तक आते-आते, पलाश को हफ्ते में एक मेल करने की रस्म बन गई थी। बड़ी नॉर्मल और फॉर्मल। छोटी सी मेल। दूसरे सेमेस्टर के बाद मैं लखनऊ गई और इस बार भी पलाश से मिलना नहीं हो पाया। मैं जब लौटकर आई, तो देखा तीन मेल मेरा इंतज़ार कर रहीं थीं! तीनों पलाश ने अलग-अलग दिन लिखी थी।

पहली मेल में मेरी मेल का छोटा सा जवाब था।

दूसरी मेल में लिखा था- मेरी बेस्ट फ्रेंड, अब तुम बहुत कम और बहुत छोटी मेल करती हो। बिज़ी हो क्या? तुम्हारा दोस्त

तीसरी मेल में लिखा था- जब भी तुम मुझे बुलाओगी, मैं मदद के लिये तुम्हें साथ मिलूँगा। लेकिन अगर, कभी ऐसा हो कि तुम आवाज़ दो और मैं न आऊँ, तो देखने आना दोस्त, शायद मुझे, तुम्हारी मदद की ज़रूरत हो।

यह पढ़कर मेरा दिल धक्क से रह गया- क्या कर बैठी मैं? क्या हुआ पलाश को? ख़ुदगर्ज़ी के किस मुक़ाम पर हूँ मैं? अपने अँधेरों में ऐसी गुम हुई कि अपने दोस्त की ख़बर भी नहीं मुझे।मैं कुछ देर वहीं बैठी रही और उसकी तीसरी मेल को टकटकी बाँधें देखती रही। मेरी रुखाई के लिये मुझसे शिक़ायत करती हुई मेल को। मेरे अहंकार ने तो मुझे उससे उसकी रुखाई की शिक़ायत करने से भी रोक लिया था। क्या उसमें कोई ईगो नहीं? मैंने अपने ईगो के लिये उसे छोड़ दिया और उसने मेरे लिये अपना ईगो छोड़ दिया! मेरे अहंकार और मेरी दोस्ती का मान रखती उस मेल को तकती रही मैं। निर्दोष, निरपराध और निश्छल दोस्त की मनुहार करती मेल को चुपचाप देखती रही मैं। कितने सवाल उठा दिये थे उस मेल ने! किसका क्या जवाब लिखती मैं? बिना कुछ लिखे उठ गयी। कॉलेज पूरा करके हॉस्टल लौटी, खाना खाया और सीधे अपने महादेव के पास पहुँची।

वहाँ जाकर आँखें बन्द किये, सिर झुकाकर बैठ गई। पूरा शरीर थर-थर कांप रहा था मेरा। अपने शिव से पूछ रही थी- हे भगवान! मैं ऐसी कब हो गई? इतनी सेल्फ़ सेंटर्ड, सेल्फ़ अब्सेस्ड और सेल्फ़िश मैं कब थी कि बस अपने ही बारे में सोचूँ? कब मैंने अपनों को परेशान करके अपनी ख़ुशी ढूँढी थी? क्या हो गया है मुझे? पलाश जैसा आज है, हमेशा से ऐसा ही था। वो नहीं बदला, मैं बदली। तब मुझे उसकी तुनक मिजाज़ी, मुझे डाँटने और मुझसे नाराज़ होने पर चिढ़ नहीं होती थी, जब उससे दोस्ती की थी मैंने। दोस्त बन जाने के बाद क्यूँ बदलाव चाहने लगी उसमें? यह तो उसके साथ धोखा हुआ ना? उसकी दोस्ती नहीं बदली, दोस्ती तो मेरी तरफ़ से करप्ट हुई थी। सज़ा उसे क्यूँ मिल रही है? मैं उसके साथ ऐसा क्यूँ कर बैठी? मुझे क्या हो गया है? किस राह चल रही हूँ मैं?’

शिव बिना कोई उत्तर दिये मुझे देख रहे थे। मेरे मन में उस दिन अपराधबोध का और ग्लानि का सैलाब उमड़ रहा था। आज पलाश ने सवाल किया है। पापा-मम्मी को कोर्स ख़तम होने पर मेरे गुमराह होने का पता चलेगा, वो तब सवाल करेंगे। क्या जवाब दूँगी मैं? पहले सेमेस्टर में कैसे गंदे ढंग से पास हुई, दूसरे सेमेस्टर में भी क्या उखाड़ लिया। इस तरह आगे क्या होगा? मम्मी-पापा को कितना भरोसा है मुझपे और कितनी उम्मीदें हैं मुझसे। यह कैसा सिला दे रही हूँ मैं? ना दोस्त अच्छी बन पा रही हूँ, ना अच्छी बेटी और ना ही अच्छी बहन। मेरे यह हाल जानकर क्या पापा मेरे छोटे भाई बहन को ऐसी आज़ादी देंगेकितने लोगों को मुझसे जुड़े होने का ख़ामियाज़ा भुगतना होगा! कितनी बुरी हूँ मैं! हे भगवान! सज़ा की हक़दार सिर्फ़ मैं हूँ, कोई और नहीं। सज़ा मुझे दे ईश्वर, सज़ा मुझे दे।'

पलाश की वो मेल लाइट हाउस की तरह चमक रही थी और बता रही थी, जहाज गलत दिशा में चल दिया था मेरा। दिल को प्यार के मुक़ाम से वापस लाना मुश्किल था, लेकिन अपने व्यवहार को और अपने ऐक्शंस को बैकट्रैक करना इतना भी मुश्किल नहीं था। अब मुझे लौटना था उसी दिशा में, जहाँ से यह सफ़र शुरू किया था मैंने। मैं मंदिर से सीधे कैफ़े गई और बहुत लंबे समय के बाद पलाश को साफ मन से, बिना नाराज़गी के मेल की। एक लंबी मेल, जिसमें लखनऊ ट्रिप के बारे में लिखा और ऐसी ही कुछ और बातें। दिल हल्का सा महसूस हुआ और अब मेरी पढ़ाई-लिखाई मेरे लिये मेरे माँ-पापा को किया हुआ वादा बन गयी थी जो मुझे हर हाल में निभाना था। अब मैं हर रोज़ पढ़ाई-लिखाई को समय देने लगी और ख़ुद को समझाती रहती थी कि वो अफ़साना जिसे अंजाम तक ले जाना ना हो मुमकिन, उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर भूलना अच्छा।

अब मेरे पास दो पलाश हो गए थे- एक मेरा दोस्त पलाश, जिससे मैं मेल पर मिलती थी और दूसरा पलाश, जिससे मैं प्यार करती थी। मैं इन दोनों पलाशों को एक दूसरे से कभी मिलने नहीं देती थी। जिससे प्यार करती थी, उसकी बेपरवाही और बेरुख़ी के लिये अपने दोस्त से नाराज़ नहीं होती थी। और अपने दोस्त की लिखी बातों को अपने प्यार के रंग में रंगने का गुनाह नहीं करती थी। या शायद मैं भी दो हो गयी थी?

तीसरे सेमेस्टर में मेरे सारे सब्जेक्ट में A+ ग्रेड आये। गाड़ी वापस पटरी पर लौट रही थी। मैं पलाश को हर तीसरे दिन मेल करने लगी और अब उसका जवाब भी आता था। साल भर बाद प्लेसमेंट का समय आने वाला था, तो उसकी तैयारी शुरू कर दी। जिसके तहत तीसरे सेमेस्टर के ब्रेक में, मैंने इंदौर में ही रुककर प्रोजेक्ट करने का प्लान बनाया। एक कोचिंग करके नई प्रोग्रामिंग लैंग्वेज V.B. सीखी और उसी में प्रोजेक्ट बनाने की सोची थी। जब से इंदौर आयी थी, पलाश को एक बार भी देखा नहीं था। अब मन में बैठ गयी थी यह बात कि उससे कभी मिलना नहीं होगा। लखनऊ जाऊँगी तो उससे मिलने के इच्छा बहुत ज़ोर मारेगी। मिल तो नहीं पाऊँगी, लेकिन मिलने की दुआ किये बिना कैसे रह लूँगी? “ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगीइसलिये इस बार लखनऊ नहीं जाने का बहाना भी था यह प्रोजेक्ट। बिज़ी रहूँगी, कुछ सीख जाऊँगी और पलाश से मिलने की मृगतृष्णा से बच जाऊँगी, यह सोचकर मैंने लखनऊ का टिकट नहीं करवाया।

इसी सब के बीच एक दिन पलाश की मेल आई- इस बार लखनऊ कब आओगी?’

मैंने बताया- नहीं आऊँगी।

उसने कहा- मैं जा रहा हूँ लखनऊ। तुम भी आ जाती तो मिल पाते। अब M.N.R. U.P.T.U. में नहीं रहा, ऑटोनोमस हो गया है और पहली बार हमारे सेमेस्टर ब्रेक एक ही टाइम पर हैं, तो मिल पाते हम।

मैंने उसे जवाब दिया- टिकट नहीं है मेरे पास। यहाँ से लखनऊ इक्कीस घंटे का सफ़र है। मैं नहीं आ पाऊँगी।

इश्क़ नचाये जिसको यार

पलाश से कह तो दिया था कि लखनऊ नहीं आऊँगी और पूरी कोशिश भी कर रही थी बेस्ट फ्रेंड बनने की। लेकिन दिल अभी भी चुपचाप एक बन्द दरवाज़े को तकता बैठा रहता था। वो सुने या ना सुने, मैं उसका नाम लेना कैसे छोड़ दूँ? वो आये या ना आये, मैं उसका इंतज़ार कैसे छोड़ दूँ? प्रोजेक्ट जल्दी पूरा हो गया या जल्दी पूरा कर लिया, जो भी सच रहा हो, कुल मिलाकर अभी अगला सेमेस्टर शुरू होने में एक हफ़्ता बाकी था। बड़ी कश्मकश रही, एक अधीरता तूफ़ान मचाये थी कि कुछ ही दिन में पलाश वापस चला जायेगा, फिर नहीं मिल पाऊँगी उससे। क्या उसके पास होने पर, उसके सामने होने पर उससे छिपा सकूँगी अपना सच? कुछ तो कर ही लूँगी, निकाल लूँगी कोई राह। निकाल लूँगी ना? एक-एक दिन भारी लग रहा था। आख़िरकार मैंने ख़ुद को बहलाया- लखनऊ चली जाती हूँ, घरवालों से मिल लूँगी। चार दिन घर का अच्छा खाना खा लूँगी। पलाश का नम्बर तो है नहीं मेरे पास और लखनऊ जाकर भी भला कोई मेल चेक करता है! तो उससे मिलना मुश्किल ही है। कोई बात नहीं, मैं अपनी तरफ़ से मेल तो कर ही दूँगी, आगे महादेव की जैसी इच्छा।

मैंने तत्काल का टिकट बुक कराया और पलाश को मेल पर बताया कि मैं अगले दिन तीन दिन के लिये लखनऊ आ रही हूँ। पूरे सफ़र में दिल को समझाती रही- देख, तुझे उसके दरवाज़े बैठना है, तो बैठ। लेकिन दरवाज़ा खुलने की उम्मीद ना करना। बेचैन होकर कुंडी मत खड़काना। दरवाज़ा नहीं खुले कभी भी, तो दहाड़ें मार कर तमाशा मत बनाना। तेरी ढिठाई की क़ीमत मुझसे चुकाई नहीं जा सकेगी। एक बेटी, बहन और दोस्त भी हूँ मैं, तुझ पर इन सबको क़ुर्बान नहीं कर पाऊँगी।बहुत समझाया और दिल सुनता भी रहा, लेकिन फिर भी एक डर सा लगा हुआ था कि दिल की फ़ितरत में ही दगाबाज़ी है।

मैं इन्हीं सब ख़यालों में सुबह नौ बजे लखनऊ पहुँच गयी। खा-पीकर घर वालों के साथ हॉस्टल और पढाई के बारे में बात हुई फिर मैंने सबको बताया कि मैं अपनी दोस्त पीहू के घर उज्जैन गयी। उसके यहाँ कितनी स्वादिष्ट दाल बाटी खायी। दाल बाटी किस पकवान का नाम है यह मेरे घर पर किसी को भी पता नहीं था। पकवान और उसके स्वाद पर कुछ देर चर्चा हुई। फिर कैसे वहाँ महाकाल के दर्शन किए और सुबह की आरती में भी शामिल हुई, यह सब सिलसिला बताया। भाई बहन अपनी बातें बता रहे थे। मेरे भाई तरुणावस्था में प्रवेश कर ही रहे थे और उनके खून की गरमी उनकी बातों से ज़ाहिर हो रही थी। उनके कॉलेज में हुई गुण्डागर्दी की वारदातों के क़िस्से सुने। मेरी बहन ने कहा कि वो मुझे कुछ बतायेगी, लेकिन अकेले में। ऐसी ही बातों और घूमने की योजनाओं में तीन बज गये और फिर हम सब कुछ देर लेटने के लिये बिस्तर की ओर चल दिये। अपने घर का बिस्तर, अपने भाई बहनों के साथ- आहा! स्वर्ग!

जब किसी के आने का ठीक समयपता हो, तो मन बस उस समयके इंतज़ार में समय काटता है। लेकिन जब किसी के आने का कोई समय नियत नहीं हो, तो मन में हर पल आशा निराशा ऐसे आंखमिचोली करती है जैसे किसी दोपहर को खूब तेज हवा में घने पेड़ की पत्तियों से छनकर एक ही जगह कभी धूप आती है तो कभी छाँव। ख़्वाहिशों का अंधड और हक़ीक़त की धूप दोनों अपने पूरे शबाब पर थे। कभी मन के आँगन में हक़ीक़त इठलाती तो कभी आरजू की ठण्डी छांव। शायद पलाश आ जाये! जाने कब पलाश आ जाये! इसी इंतज़ार में पूरी तरह जगी हुई लेटी थी मैं। मिलने की उम्मीदसे कहीं ज़्यादा मिलने की चाहतबलवान थी। घड़ी में साढ़े तीन हुआ था जब घण्टी बजी। मैं झटपट उठकर दरवाज़े की ओर लपकी जैसे मेरे घर पर और कोई आता-जाता ही नहीं। देखा तो निहाल हो गयी। दरवाज़े पर पलाश खड़ा मुस्कुरा रहा था।

इन सत्रह महीनों में उसकी सेहत में सुधार आ गया था। ऐसा महसूस हुआ कि तरुणाई की आलसी तन्द्रा से जागकर वयस्क जीवन में पैर पड़ गए थे उसके। इतने दिनों में मैं भूल ही गयी थी कि उसकी आँखें भी मुस्कुरा लेती हैं। उसे देखकर फिर से जी उठी मैं। मन के दर्पण पर बैठी धूल हट गयी और उसमें पलाश का मुस्कुराता चेहरा पहले से भी साफ़ झलक उठा। मैंने उससे हाथ मिलाया और उसका हाथ पकड़े-पकड़े कमरे तक आ गयी। वो हमेशा की तरह ऊर्जा से भरा चंचल, चपल और अल्हड़ हो रहा था या कहूँ कि सोंधी सी महक वाला चाय का ख़ालिस देशी कुल्हड़ हो रहा था। पलाश मेरे सामने था और मेरे साथ था। कोई अतीत नहीं, कोई भविष्य नहीं.. बस केवल मेरा वर्तमान। लिविंग इन द मोमेंटक्या होता है, मैंने उस दिन जाना।

वो बैठा तरह-तरह की जादुई बातें अपने पिटारे से निकालता रहा। लिंकलिस्ट, माइक्रोप्रोसेसर, बाइनरी सर्च, सॉर्टिंग अलगोरिथमस और फिबोनाकी सिरीज़ किस-किस विषय पर ज्ञान ना दिया उसने। ओहो! उसकी बातों का धनक! कितना सुन्दर! और फिर भी मैं उसके सामने बैठी बार-बार उसमें भटक रही थी। भटकाव की वजह यह कि उसकी बातें केवल उसके मुँह से नहीं होती। उसकी आँखें बोलती हैं, उसका चेहरा बोलता है, उसके हाथ बोलते हैं और उसका पूरा शरीर एक लय पर थिरकता है। किस-किस की सुनूँकभी मन उसकी आँखों पर टिक जाता, कैसे उसकी भूरी कँचे जैसी पुतलियाँ फैलती सिकुड़ती हैं! कैसे अचानक बिजली सी कौंध जाती हैं! कैसे अचानक एक ठहराव वहाँ ठिठक कर टिक जाता है! उसकी मूँछें काली, जैसे रात का अन्धेरा। हँस दे तो दाँतों की चमक, जैसे छम से धूप खिल उठी। दिन रात आपस में उलझ ना जायें, इसलिये बीच में नर्म, नाज़ुक, गुलाबी शाम से उसके होंठ। हाय! मैं तो मर ही जाऊँ। कभी यह हाथ हवा में, तो कभी वो हाथ। उसके हाथ कितने सुकुमार से, गद्देदार! लचीली उँगलियाँ! उसकी भाव भंगिमाएँ! कैसे तैसे खींच-खींचकर अपना ध्यान उसकी बातों पर वापस लाती थी मैं।

मैं आईने की तरह सामने बैठी थी उसके। वो मुस्कुराए तो मुस्कुरा दूँ, हँस दे तो हँस दूँ और जब वो कुछ सीरियस दिखे तो हम्म करके सिर हिला दूँ, ताकि उसे पता ना चले कि मैं उसकी बातें पूरी तरह सुन नहीं पा रही हूँ। मेरा क्या होगा? मुझ पर क्या बीत रही होगी? इसका पलाश को कोई खयाल ही नहीं था। वो बेख़बर शोख बिजली सा दिल के शामियाने पर कौंधता रहा। मैं लुटती रही, मोती की माला सी बिखरती रही और उस नादां को अपने आस-पास एक मोती भी ना दिखा!

ये नरम-नरम नशा है

उसकी बातों में जब हॉस्टल का ज़िक्र आया, तो उसने अपने हॉस्टल के दोस्तों, अपने रूम, मेस्स और कॉलेज के बारे में बताया। तब मुझे पता चला कि उसके कमरे में चौबीसों घंटे इंटरनेट की सुविधा थी! मेरे एक्सिडेंट वाली बात भी हुई, लेकिन न मैंने कोई सवाल किया और न उसने ही कोई सफाई दी। फिर उसने अपने नये प्रोजेक्ट के बारे में बताना शुरू किया, जो लखनऊ आने से पहले चल रहा था। वो अपने कॉलेज के लिये वेबसाइट बना रहा था। ‘मेरा होनहार और क़ाबिल पलाश’ -मैंने मन ही मन कहा।

फिर बातों ही बातों में उसने पूछा- ‘तुमने RHTDM के गाने सुने?’

मैंने पूछा- ‘यह क्या है?’

उसने कहा- ‘एक फिल्म है “रहना है तेरे दिल में” उसके गाने बहुत अच्छे हैं। मैं रोज़ सुनता हूँ।’

मैंने कहा- ‘मैंने नहीं सुने।’

फिर किसी और टॉपिक पर बात होने लगी। वो रात आठ बजे तक मेरे साथ बैठा बातें करता रहा मुझसे। मुझे इतने लम्बे समय से उसको देखने की, सुनने की और महसूस करने की जो प्यास थी, उसने अनजाने ही उस प्यास का मान रख लिया था। मैंने ऊँट की तरह जी भर और पेट भर पानी पी लिया था अपने आगे के रेगिस्तानी सफ़र के लिये। चलते समय पलाश बोला- ‘अपना खयाल रखना, अगले ब्रेक में फिर मिलेंगे।’

मैं अगले दो दिन और लखनऊ में थी। हॉस्टल से घर आये बच्चे की घर में ऐसी ख़ातिरदारी होती है जैसे ससुराल में दामाद की। मम्मी हर वक़्त के खाने में मेरी ही पसंद के पकवान बनाती और सबसे पहले मेरी ही प्लेट परोसती। दो वक़्त का खाना एक बार में खिलाती और फिर हाजमोला देती। ऐसी ही बातों और स्वादिष्ट खाने के बीच दो दिन उड़ गये। पापा ने वहाँ से मेरी तत्काल टिकट करवाई। पापा मुझे छोड़ने स्टेशन आते थे और वहाँ उन्होंने मुझसे कहा- ‘बेटा ऐसे परेशान मत हुआ करो। पढ़ाई पहले है, मिलना-जुलना तो होता ही रहेगा। रुक जाती वहीं, यह तीन दिन की दौड़ा-दौड़ी करने की क्या ज़रूरत थी? आगे से खयाल रखना।

मैंने कहा- आगे से ऐसा नहीं करूँगी।मुझे ट्रेन में बैठा कर पापा चले गये। ट्रेन चारबाग स्टेशन छोड़ रही थी और मैं सोच रही थी- RHTDM हम्म.. अब इसके गाने सुनने पड़ेंगे। इस बार लौटते हुए बहुत तरोताजा महसूस कर रही थी। मन सोने सा दमक रहा था। पलाश की दीद का, उसके स्पर्श का, उसकी चहक का, उसकी महक का, उसमें साँस लेते जीवन का पारस छू कर जो लौट रही थी। प्यार की नाकामी पर सूखती तो जा रही थी, लेकिन बेस्ट फ्रेंडके ख़िताब ने जैसे सूखा काँटा होने से रोक लिया था। शायद नागफनी हो गयी थी मैं, जिसको फला-फूला पेड़ तो नहीं कह सकते। उसमें काँटे बहुत होते हैं, लेकिन फूल और फल भी तो होते हैं। मेरे शिव को चढ़ावे में नागफनी के फूल पसन्द भी बहुत आते हैं और मेरे दोस्त को मैं अपने इन्हीं फलों को बहुत एहतियात से दोस्ती कहकर परोस रही थी। मैं सोचने लगी कि उस रात के सपने में मेरे हाथों को पलाश के हाथों में देने मेरे शिव ही तो नहीं आए थे! कहीं मेरे शिव मेरे लिये पलाश बनकर मेरे साथ ही तो नहीं! बावले मन की उड़ान का कहाँ कोई ओर छोर, ना जाने क्या-क्या सोचती रहती थी।

हर बार की तरह पूरा सफ़र आँखों में काटने के बावजूद मैं एकदम चंगी थी। एकदम फ्रेश। एक असाइनमेंट पूरा करना था, तो रुपये लेकर निकल पड़ी C.D. पार्लर। भैय्या, RHTDM है?’ आहा! मिल गई। फटाफट हॉस्टल लौटी और कम्प्यूटर पर उसे कॉपी कर लिया और ध्यान से सुना। उसकी एक लाइन तो पूरे संगीत के साथ मन में धँस गई कैसे मैं कहूँ तुझसे, रहना है तेरे दिल में।रात होने में अभी समय था और मुझे कैफे जाने की तलब लग रही थी।

क्या करूँ? जाऊँ? न जाऊँ? अभी तीन दिन पहले तो मिली हूँ। कल कॉलेज में कम्प्यूटर लैब से मेल चेक कर लूँगी?’ मन में उधेड़बुन चल ही रही थी, कोई फ़ैसला हो भी नहीं पाया था और मेरे पैर मुझे कैफै की ओर ले चले। वहाँ पहुँचकर सोच-विचार चल ही रहा था कि क्या करूँ? तभी नज़र शिव मन्दिर की तरफ़ घूम गई। मैं उधर चल पड़ी। कुछ देर वहीं बैठकर शिव जी से ढ़ेरों बातें की और दोहराया- मुझे मेरा वादा याद है। नहीं करूँगी पागलों वाली हरकत, नीलकण्ठ। दोस्त ही बन कर रहूँगी।

वहाँ बैठकर मन को बड़ी शांति महसूस हुई। सारा उबाल बैठ गया और मैं हॉस्टल लौट आई। वो मन्दिर पूरे कोर्स के दौरान मेरा मजबूत संबल रहा। मेरी हर तरह की मनोदशा और एहसास का गवाह, मेरा मार्गदर्शक, मेरा दोस्त और मेरा आसरा था वो मंदिर। अगले दिन कॉलेज में मेल चेक की, तो देखा पलाश ने पिछली शाम को मेल की थी। मैंने मेल का जवाब लिखा और ख़ुशी से बाकी का दिन बिताया। रात होते ही दिमाग को ना, कुछ हो जाता था।

पता नहीं रात के अंधेरे में क्या काला जादू होता है? दिन भर जिस तरह से सोचो, रात में उसकी मिट्टी पलीत हो जाती थी। दिन भर मैं दिल की नहीं सुनती थी और रात को दिल मेरी नहीं सुनता था। रात में नई हर्षा निकलती थी मेरे अंदर से। अपने प्यार की ख़ुमारी में वो यह तक कह बैठी मुझसे- पलाश भी तुझे पसन्द करता है। बेटा, बहुत सटल हिंट दे रहा है RHTDM कह कर।

दिन के उजाले में यह सब सोचने से भी मेरी रूह कांपे और रात के अंधेरे में क्या जलवा? क्या जलवा! जैसे डूबते को तिनके का सहारा बहुत होता है वैसे ही मुझे पलाश के साथ कुछ घंटे बिता कर जीवन भर का सहारा महसूस हो रहा था।

उसकी बातों का मनमाना मतलब निकाल रही थी मैं। बेख़ुदी में यही गुनगुनाती रहती थी कि शायद वो भी यही गाना गुनगुना रहा होगा या सुन रहा होगा-

आरज़ू है मेरे सपनों की, बैठा रहूँ, तेरी बाँहों में सिर्फ तू मुझे चाहे अब, इतना असर हो मेरी आहों में।

इशारों में दिल लेने वाले

M.C.A. का चौथा सेमेस्टर शुरू हुआ और सब ठीक होने लगा था। पलाश हर रोज़ मेल करने लगा था। एक दिन उसने लिखा- अब तुम कॉल नहीं करती मुझे। कभी फ़ोन कर लेना।

अब मैं कैसे बताती कि उसकी पुरानी मेल मैंने डिलीट कर दी थी। सोचती रही क्या लिखूँ। फिर मैंने लिखा- मुझसे तुम्हारा नम्बर खो गया है, इसलिए कॉल नहीं कर पाती।जवाब में उसने अपने तीन नम्बर दिये। दो M.N.R. के दोस्तों के और एक लखनऊ में पीयूष का। मैंने उस रात उसे कॉल नहीं किया। वैसे भी उसने लिखा था- कभी फ़ोन कर लेना।तो क्या उतावलापन दिखाना कि फ़ोन करने के लिये बस नम्बर मिलने की देरी थी। वैसे मेरा मन तो हर रात मचलता, उसकी आवाज़ सुनने को। लेकिन ज़ब्त किया और इतवार को घर पर कॉल करने के बाद पलाश को फ़ोन किया। कितनी खनक, कितनी मीठी झनक है उसकी आवाज़ में। दुनिया की सबसे प्यारी आवाज़। नाद से सृष्टि की रचना हुई, अगर इस कथन में सच है- तो वो सच और वो नाद यही है।

कुछ देर बातें हुई हॉस्टल की, पढ़ाई की। फिर मैं फ़ोन रखने को हुई, तो वो बच्चों सा चहका, अब कब करोगी फ़ोन? बिना कुछ सोचे ही मुँह से फिसल गया कि दो दिन बाद करूँगी।

ख़ुशियों की लहरों में बहती मैं वापस हॉस्टल पहुँची तो एक जानी-पहचानी ख़ुशबू से मुँह में स्वाद सा घुल गया। हर इतवार को हॉस्टल मेस्स में दोपहर का खाना खास होता था। वैसे रोज के खाने में दाल, सब्जी, चावल और रोटी होती थी और लड़कियाँ ज्यादा रोटी ना खायें इसके लिये अफ़वाह उड़ी हुई थी- आटे में सोडा मिला हुआ है और सोडे से मोटापा बढ़ता है।इतवार को कभी दाल-बाटी, कभी पनीर-पूड़ी साथ में जीरे के तड़के वाला चावल, रायता, अचार, चटनी और हलवा या गुलाब जामुन। ओहो! इस महाभोज का हम लोग पूरे हफ्ते इंतज़ार करते थे। जो लड़कियाँ मीठे की शौकीन थी, उन्होंने उन दूसरी लड़कियों से साँठ गाँठ कर रखी थी जो मीठा नहीं खाती थी। ऐसा करना इसलिये जरूरी हो जाता था क्यूंकि मिठाई सबको एक ही मिलती थी और आज खाने के काउन्टर पर एक अतिरिक्त कर्मी होती थी इस बात की निगरानी के लिये। उसका काम उस दिन यही होता था कि चेहरा याद रखो किस किसने मिठाई ले ली, मतलब एकदम चुस्त नाकाबंदी। वो कर्मी अपना चेहरा एकदम खूंखार जेलर सा बनाये, हम सबको देखती रहती थी। यह इसलिये था कि कोई बाई जी, बाई जीकरके मासूम चेहरा बनाकर उनसे कहीं रियायत ना मांग ले। जब यह महाभोज निपट जाने के बाद वो लौट रही होती थी, तो उसके चेहरे पर सौम्यता लौट आती थी और वो ऐसी नज़रों से देखती थी मानो कह रही हो- गंदा है, पर धंधा है।

खैर, अब मैं और पलाश हर दो दिन बाद बातें करते, ढ़ेरों बातें पूरी दुनिया की। बस, इतना ख़याल रखते कि एक दूसरे को हम तड़पते बिलखते हुए ना लगें। बेस्ट फ्रेंड हैं बस, इससे ज़्यादा और कुछ नहीं।

एक दिन फ़ोन पर उसने पूछा- तुम चैटिंग नहीं करती?’

मैंने कहा- याहू पर मेरा ईमेल आईडी नहीं है। वैसे भी किससे करनी है चैटिंग? तुमसे मेल और फ़ोन पर बात हो जाती है और यहीं के दोस्तों से चैटिंग करना, बहुत ही अजीब सी बात है।

उसने हामी भरी और कुछ दूसरी बात होने लगी। अगले दिन पलाश ने मेल पर मेरे याहू आईडी की जानकारी भेजी। शाम का समय भी लिखा था टेस्टिंग के लिये। लिखा था- मैं ऑनलाइन रहूँगा, टू हेल्प अगर कोई प्रॉब्लम हुई तो।

मैं शाम को गयी कैफ़े और टेस्ट किया। सब ठीक होना ही था, सो सब ठीक ही था। पलाश ऑनलाइन था तो उससे कुछ बात हुई। मैंने पूछा नहीं कि आईडी क्यूँ बनाया मेरा और उसने भी कुछ नहीं कहा। उस दिन मैं जब हॉस्टल लौटी तो मेरे पैर ज़मीन पर नहीं, रुई के बादलों पर पड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था दुनिया में जितने भी तरीक़े हैं पलाश से जुड़ने के, वो सब मेरे पास हैं। फिर तो अक्सर चैटिंग होती थी, मेल और फ़ोन तो था ही। हालांकि कोई वादा नहीं होता था, तो कभी मैं मायूस लौटती तो कभी वो इंतज़ार करके वक़्त बिताता था।

एक दिन चैट पर जब मैंने हैलोकिया, तो जवाब में उसने लिखा– ‘प्रीटि वुमन।

मेरा दिल बड़ी जोर से धड़कने लगा, उंगलियाँ कुछ कांपने सी लगी और असमंजस में मैंने लिखा- ‘??????’

उसने रिप्लाई किया- ‘SRK का नया गाना है। बहुत मस्त। वही सुन रहा हूँ।

मैंने लिखा- ओके।

बात पूरी करके लौटी, तो बहुत ही ख़ुश थी मैं- क्या उसने मुझे प्रीटि वुमन कहा? फिर बात बिगड़ न जाये, इस ख़याल से SRK की आड़ ले ली। क्या आज उसने मुझसे पहली बार फ़्लर्ट किया? मेरा मन इसका जवाब हर बार हाँ में ही देता था। या मुझे पहली बार समझ में आया कि उसने फ़्लर्ट किया? उसकी बातें मुझे जादू सी तो हमेशा लगती हैं। हो सकता है पहले भी कभी उसने ऐसा किया हो, लेकिन, आज पहली बार, मेरे लेवल पर उतर कर जोखिम उठाया है। वो जोखिम उठाने को राज़ी हो गया?’ यह सोचते ही ख़ुशी मेरे होंठों से फिसलती हुई पूरी दुनिया में दौड़ गयी।

हॉस्टल लौटकर अपने कंप्यूटर पर उस दिन पहली बार मैंने "प्रीटि वुमन" गाने को ध्यान से देखा। उस दिन पहली बार मेरा दिल धड़कते हुए थम गया जब SRK पूछ कर रुक गया, ‘क्या उसे मैं कह दूँ?’ स्क्रीन पर SRK और दिल में वो नटखट चैटिंग वाला लड़का चुप हो गया। ऐसा लगा कि दोनों मुझसे ही से पूछ रहे थे। बेबस मुस्कुराने के सिवाय मैं और क्या करती? उन बेचैन ख़ामोशियों में अब दिल ब्लास्ट होने को था कि तभी हिट इटकहकर SRK ने संभाल लिया। मेरे मन के ढोल स्क्रीन पर बज उठे और उस धुन पर सारी दुनिया नाचने लगी थी। पलाश मुझसे अकेले में मेरे कानों में पूछता था- तुम सचमुच नहीं मानती कि मैं तुम्हारा हूँ।

मैं उसका चेहरा अपने हाथों में लिये उससे कहती- ऐसा तो नहीं है कि इंसान की समझने की शक्ति सुने हुए शब्दों की मोहताज हो और ना ही इंसान के महसूस करने की ताक़त सिर्फ़ उसके कानों के भरोसे है। जब भाषा नहीं थी तब भी प्यार की ज़ुबान होती होगी और प्यार का इज़हार होता ही होगा। लेकिन मैंने वो दौर ना देखा ना जाना। मैं तो आजकल के समय की लड़की हूँ जो साफ़-साफ़ आय लव यूसुने बिना यह हरगिज़ ना मानूँ कि तुम प्यार करते हो मुझसे। कह दो ना कि मुझसे प्यार करते हो। नहीं तो मैं समझूँगी कि यह बस दिल्लगी ही है तुम्हारी।ऐसी ही ख़याली महफ़िल में मनाते, कसमसाते, तड़पते और शिक़वा करते रात गुज़र गयी। ख़यालों में भी ना उसने मेरा हाथ थामा, ना प्यार का इज़हार किया और ना ही मेरी हथेलियों को अपने होंठों से छुआ।

भरोसा है? तो दाँव लगा ले

ऐसे ही हँसी-ठिठोली में समय बीत रहा था, जब एक दिन पलाश ने फ़ोन पर पूछा- तुम मुझे प्रपोज़ कब करोगी?’

यह सुनकर मेरे कानों में सैकड़ों घंटियाँ बजने लगीं। मुझे विश्वास नहीं हुआ अपने कानों पर। मैंने पूछा- क्या?’

उसने कहा- कब कहोगी I Love You?’

मैंने कहा- तुम पागल हो गए हो क्या? क्यूँ कहूँगी मैं तुमसे ऐसा?’

वो खिलखिलाकर हँसा और बोला- अरे, आज मेरे एक दोस्त के साथ यह हादसा हो गया, तो मैंने सोचा मैं हम दोनों के बीच यह बात क्लियर कर लूँ।

मैंने पूछा- ऐसा क्या हो गया तुम्हारे दोस्त के साथ।तो कोई कहानी सुनानी शुरू की पलाश ने, लेकिन पूरे समय मेरा दिल बहुत तेज़ धड़कता रहा और मैं किसी दूसरी ही सोच में थी। ऐसे कैसे चोरी पकड़ी गयी मेरी? पकड़ी गयी क्या? या फिर सच में मज़ाक़ ही कर रहा था? मेरी कहानी इस मोड़ तक नहीं पहुँच सकती। शायद हमारा साथ छूटने का समय आ गया है।

उस दिन फ़ोन रखकर जब मैं S.T.D. बूथ से बाहर निकली तो अजीब घबराहट में थी। उस दिन पीहू भी थी मेरे साथ। उसने मेरा हाथ हल्के से दबाया और पूछा- सब ठीक, हर्षा? तू कुछ हैरान सी लग रही है। तेरे कान लाल हो रहे हैं।

मैंने उस दिन पीहू के सामने अपना सच पहली बार खोला और कहा- जब मैं इन्दौर आई थी तब पलाश मेरा दोस्त था, लेकिन पता नहीं कब मुझे उस अक्खड़ से प्यार हो गया। पता है, पहले तो मुझे लगता था कि मैं उसके लिये कुछ भी नहीं। उसे मेरी कोई परवाह ही नहीं।

तू ऐसा क्यूँ कह रही है, यार? तुम लोग तो रोज़ मेल करते हो ना एक दूसरे को? तूने कभी अपनी तरफ़ से नहीं बताया इसलिये मैंने भी कुछ नहीं कहा, लेकिन मुझे सच में लगता था कि तुम दोनों का अफेयर चल रहा है।’- पीहू ने कुछ हैरान होकर पूछा।

यार, मैं रोज कैफ़े जाती ज़रूर थी, लेकिन रोज मेल न मैं करती थी और न वो। पर एक झूठी ख़्वाहिश थी, झूठी उम्मीद थी, तो रोज मेल चेक करने जाती थी।

फिर?’- पीहू ने पूछा तो मैंने आगे बताया- एक दिन पलाश ने मुझे मेल में मेरी बेस्ट फ्रेंडलिखा, तो मुझे पता चला कि वो मुझे अपनी बेस्ट फ्रेंड मानता है। मैं इतने से ही ख़ुश हो गयी थी और मैंने तय कर लिया था कि उसको कभी अपने दिल की बात पता नहीं चलने दूँगी।

पर, यार ऐसा क्यूँ?’- पीहू ने दुःख और हैरानी से पूछा और फिर ख़ुद ही बोली- यार किसी को तो पहले बताना ही होता है, तो तू ही बता दे। जैसे तुझे पता नहीं था कि तू उसकी बेस्ट फ्रेंड है, हो सकता है ऐसे ही तुझे यह भी पता न हो कि वो तुझे प्यार करता है।

नहीं, पीहू। इतनी ख़ुशफ़हमियां अच्छी नहीं। जो वो कह ही नहीं रहा हो, वो बात मैं ख़ुद से कैसे मान लूँ? और एक बात कहूँ तो कभी-कभी मुझे लगता है कि मैंने जबरन उसकी मुझसे दोस्ती करवाई है। वो तो शुरू में मेल तक नहीं करता था। मैं ही हर दूसरे दिन मेल करती रहती थी। कभी तो लगता है उसकी दोस्ती उसका एहसान है मुझ पर।’- कहते-कहते मेरा गला भर आया और आँखों में आँसू डबडबा गए।

पागल, ऐसा थोड़ी ही ना होता है। ऐसा नहीं होगा यार। तू तो इतनी मस्त लड़की है, अपनी इंस्टी में ही तेरे पीछे कितने पगलाये हुए हैं। तू तो सेक्सी उर्मिला है अपन लोगों की।’- पीहू ने माहौल हल्का किया तो मुझे भी हँसी आ गयी।

हो सकता है ना कि पलाश को हेज़िटेशन होती होगी कि कैसे कहे तुझसे ऐसी बात? लड़कों को (जो सच में सीरियस होते हैं) वैसे भी प्रपोज़ करने में बहुत हिचक होती है। और तू भी तो कितनी बदल गयी है! लखनऊ में जब उससे मिली थी तू तो कैसी भोली-भाली सी, सीधी सी बच्ची थी। अब तू ख़ुद ही देख ले, तू क्या से क्या हो गयी है! उसको अजीब तो लगता होगा यार कि हर्षा तो बदल गयी।पीहू ने पलाश की साइड लेते हुए समझाया मुझे। कुछ देर चुप रहकर उसने पूछा- आज क्या हुआ? क्या कहा पलाश ने?’

वो पूछ रहा था कि मैं उसे आई लव यू कब कहूँगी?’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

वाह यार! तेरा तो आधा काम अपने आप ही हो गया। अब तो बता ही दे उसे। पागल हो जायेगा ख़ुशी से, पलाशपीहू ने ख़ुश होते हुए कहा।

एक तीखी टीस उठी दिल में और मैंने कहा- नहीं पीहू। मैं उससे यह कभी नहीं कहूँगी। उसकी दोस्ती मुझे एहसान लगती है और यह बात मैं सह भी लेती हूँ। लेकिन प्यार मेहरबानी में मिले, यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा। अगर उसे प्यार है मुझसे, तो वो ही कहे। मैं इंतज़ार कर सकती हूँ चाहे जितना भी लम्बा हो, लेकिन मैं पहले नहीं कहूँगी कि प्यार करती हूँ उससे।

‘क्या यार हर्षा? अपन तो सोचते हैं कि कोई अपन के साथ भी तेरे पलाश जैसा होता, तो अपन भी हैप्पी मेमोरी बनाते यार। हॉस्टल में सबको जलन होती है तुझसे। तेरा बॉयफ्रेंड है और यहाँ भी तेरे आगे-पीछे इतने घूमने वाले हैं। चल तेरी जैसी मर्जी। अब क्या करेगी? क्या जवाब देगी उसको?’- पीहू ने मुझसे पूछा तो मैंने कहा- मना करूँगी। छुपा लूँगी।

कुछ देर बाद पीहू मुझे छेड़ते हुए बोली- अरे! तूने ग़ौर किया हर्षा, तुम दोनों के नाम भी जुड़े हुए हैं “PalasHarsha” जहाँ उसका नाम ख़तम होता है, वहीं से तेरा नाम शुरू होता है। तू तो उसकी मंजिल है पागल।

अपनी सहेली से भी सच नहीं बोल पायी मैं- 'मेरे प्यार की कोई मंज़िल नहीं है इसलिये मैं इस सफ़र को यहीं रोक रही हूँ।' खैर मेरा स्वाभिमान भी कहता था कि मुझे एहसान नहीं चाहिये। प्यार को फ़र्ज़ का रास्ता काटने की इज़ाजत नहीं दी कभी मैंने। मेरी पढ़ाई एक बेटी और एक बहन का वादा था तो सेमेस्टर के रिज़ल्ट इस बार भी अच्छे थे, A और A+ में ही थे ग्रेड। सब लोग सेमेस्टर ब्रेक में प्लेसमेंट की तैयारी करने के लिये इंदौर में ही रुकने का प्लान बना रहे थे।

पलाश लखनऊ जा रहा था। मुझे उससे मिलना था। उसे चार पेज भर का स्पष्टीकरण पत्रदेना था। जिसमें मैंने उससे पहली बार मिलने से लेकर अब तक का सफ़रनामा लिखा था। हाँ, उसमें से अपने सपने का ज़िक्र हटा दिया था। उसमें से सारी तड़प और फ़ड़फड़ाहट हटा दी थी। प्यार को दोस्ती से रंग दिया था। लिख दिया था कि जो जगह एक बेस्ट फ्रेंड की होती है ज़िन्दगी में, वही जगह पलाश की है मेरी ज़िन्दगी में।

दिल में बहुत धुकधुकी थी कि कैसा दाँव लगा रही हूँ! मुझे पलाश की बे-इन्तेहां आरजू थी। शायद मैं उसके बिना जी भी नहीं पाती, लेकिन फिर भी मैं उसे मुझसे रिहाई का मौका दे रही थी। मुझे डर था कि कहीं वो मेरे पागलपन पर रीझकर मेरा होने को तैयार हो जाये, तो आगे क्या करूँगी मैं? पापा को इतना बड़ा झटका कैसे दे दूँ? वो मुझसे प्यार नहीं करता और यह उसके लिये अच्छा ही है। रायता जितना फैल चुका, बहुत है। अब और नहीं। कभी मेरे अन्दर प्यार कराहता तो कहता- काश! वो मेरा होता।

मैं लखनऊ गयी और पलाश मेरे घर आया। ऐसे मिले हम, जैसे दोस्ती में प्यार का कोई कंकड़ गिरा ही नहीं कभी। जब वो जाने को हुआ, तो मैंने उसे वो ख़त दिया। उसने पूछा- क्या है?’

मैंने कहा- तुम्हारे सवालों का जवाब।उसने जेब में ख़त रखा और चला गया। ब्रेक के बाद हम दोनों यथास्थान लौट गये।