22 नवम्बर-शुक्रवार
मुबारक अली से विमल सिर्फ एक बार मिला था जबकि उसने दिल्ली में कदम रखा था, ताकि उसे ख़बर हो जाती कि वहीं बसने के इरादे से अब वो दिल्ली में था।
अब दो महीने बाद दूसरी बार वो उसकी तलाश में निकला था।
मुबारक अली, जो कभी मुम्बई का बड़ा मवाली होता था, अब एक मुद्दत से दिल्ली में था और वहाँ टैक्सी चलाता था। सुजान सिंह पार्क में स्थित एम्बैसेडर होटल का टैक्सी स्टैण्ड उसका स्थायी ठीया था। वहाँ से वो कहीं का भी पैसेंजर उठाये, लौट कर वहीं आता था।
वो स्टैण्ड पर मौजूद था।
एक टैक्सी ड्राइवर अपनी टैक्सी की तरफ इशारा करता उसकी तरफ बढ़ा।
“अरे, साहब अपना रेगुलर पैसेंजर है।” — तत्काल मुबारक अली बोला — “मैं ले के जायेगा न!”
टैक्सी ड्राइवर ठिठक गया, इसने सहमति में सिर हिलाया।
विमल को इशारा करता मुबारक अली अपनी टैक्सी की ओर बढ़ा।
विमल उसकी टैक्सी के करीब पहुँचा, सहज भाव से उसने टैक्सी के पैसेंजर साइड के दरवाजे की तरफ हाथ बढ़ाया।
“पीछू बैठ, बाप।” — तत्काल मुबारक अली बोला।
विमल की भवें उठीं।
“डिरेवर लोग देखता है, पैसेंजर को आगे बैठता देखेगा तो क्या सोचेगा? पैसेंजर डिरेवर का फिरेंड! उसका सगेवाला!”
“है तो सही!”
“बरोबर! पण उन को तो नहीं पता न!”
“पण! लगता है दिल्ली की जुबान अभी भी पकड़ में नहीं आयी।”
“आयी न बरोबर! वो तो तेरे को देखकर पुराना टेम याद आ गया, इस वास्ते अपने आप ही पुरानी जुबान चल गयी।”
“ठीक।”
“पीछू बैठ!”
“मेरे को तेरे से बात करने का।”
“करने का न बरोबर! पण पहले इधर से नक्की करने का। क्या!”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया, फिर टैक्सी की पिछली सीट पर सवार हो गया।
मुबारक अली स्टियरिंग के पीछे बैठा, उसने टैक्सी को पार्किंग से निकाल कर सड़क पर डाला। टैक्सी मंथर गति से चलती लोधी गार्डन के पहलू की सड़क अमृता शेरगिल मार्ग पर पहुँची। वो शान्त, ख़ामोश रिहायशी इलाका था जहाँ वाहनों की आवाजाही बहुत कम होती थी।
मुबारक अली ने एक घने पेड़ की छाँव में फुटपाथ से लगा कर टैक्सी रोकी। उसने इग्नीशन ऑफ किया और विमल की तरफ घूमा — “अभी बोल। नहीं, पहले बोल सब ख़ैरियत है?”
“ख़ैरियत!” — विमल के होंठों पर एक विद्रूपपूर्ण मुस्कराहट आयी — “शायद भूल गया कि सवाल किस से कर रहा है!”
मुबारक अली के माथे पर बल पड़े।
“फिर कोई लफड़ा!” — वो बोला।
“चलता है।” — विमल लापरवाही से बोला।
“लेकिन है बरोबर?”
“बड़ा नहीं। ऐसा नहीं जिसे मैं हैंडल न कर सकूँ।”
“इसी वास्ते इधर आया?”
“नहीं, तेरे से मिलने के वास्ते इधर आया।”
“फिर तो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, ख़ुशामदीद बोलता है, बाप।”
“अब तो बहुत टाइम हो गया इधर! दिल लग गया?”
“नहीं, बाप” — मुबारक अली के लहजे में उदासी का पुट आया — “दिल तो उधरीच लगता था। साला बहुत याद आता है मुम्बई।”
“लौट सकता नहीं!”
“तेरे को मालूम नहीं लौट सकता। मेरे पर ख़ून का इलजाम है उधर। इतना ही होता तो गनीमत थी। पुलिस हैडक्वार्टर से, ऐन पुलिस कमिश्नर की नाक के नीचे से फरार हुआ, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कर . . . कर्ट . . . कर्ट . . . तुका और वागले की नवाजिश से।”
“हूँ।”
“अहद लिया था, बाप, कि उस नवाजिश के बदले में जिन्दगी में कभी तुका के काम आ के दिखाऊँगा। साला मौकाइच नहीं मिला। तुका पहले ही ऊपर चला गया। वागले भी।”
“भेज दिये गये।”
“इसीलिये डबल मलाल है। तुका के काम न आया, न सही, अगर मैं उसके कातिलों को ही . . .”
“वो काम मैंने कर दिया न!”
“मेरे को मुम्बई से फरार न होना पड़ा होता तो मैं करता।”
“एक ही बात है। तूने किया, तेरे अजीज ने किया, एक ही बात है।
“वो तो है!”
“भांजे कैसे हैं?”
“सब ख़ैरियत से हैं, तेरे को याद करते हैं। ख़ासतौर से अली, वली।”
“चौदह?”
“हाँ, अल्लाह के करम से।”
“नाम याद रहते हैं सब के!”
“नाम तो याद रहते हैं लेकिन कभी-कभार ये मुगालता हो जाता है कि कौन सा नाम किसका है।
“सब के साथ!”
“नहीं सबके साथ तो नहीं! अली, वली जुड़वाँ हैं, इसलिये नहीं। हाशमी संजीदासूरत है, ऊँची तालीमयाफ्ता है, फिर चश्मा लगाता है जो बाकी भांजों में से कोई नहीं लगाता। कुछ और के भी ऐसे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, शिनाख़्ती निशान हैं, बाकियों में घिच-पिच कर बैठता हूँ।”
“तकिया कलाम बरकरार है!”
“क्योंकि आदत में शुमार है।”
“सिर पर बाल हैं।”
“हाँ। खलवाट खोपड़ी से मैं आजिज था। खलवाट खोपड़ी और दाढ़ी सूरत में तब्दीली लाने के लिये थी। फिर जब पता लगा कि इधर मेरे को पहचानने वाला कोई नहीं था तो किनारा किया दाढ़ी से, खलवाट खोपड़ी से।”
“ठीक।”
“अभी बोल कैसे आया? मेरे से मिलने आया। मिल लिया न! अभी बाकी बोल।”
“बाकी बोलूँ? बाकी क्या बोलूँ?”
“जो तेरे जेहन में है।”
“मेरे जेहन में तो कुछ नहीं है!”
“बाप, मुबारक अली से बात छुपाना और दाई से पेट छुपाना एकीच बात।”
“ऐसा!”
“बरोबर। अब बोल।”
“ख़ास कुछ नहीं है बोलने को, ऐसे ही एक सवाल उठा था जेहन में, सोचा तेरे से साझा करूँ।”
“किस बाबत?”
“हिज़डों की बाबत।”
“क्या बोला, बाप?”
“दिल्ली गेट से, राजघाट से, आईटीओ से जब भी गुजरता हूँ, हिजड़ों को रैड सिग्नल पर खड़े कारवालों से भीख माँगते देखता हूँ . . .”
“भीख नहीं, बाप भीख नहीं। वसूली।”
“क्या!”
“वसूली करते हैं, कम्बख़्तमारे। उँगलियों में मोड़े हुए नोट फंसाये होते हैं, ताकि देखने वाले को, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, इशारा मिल जाये कि वो चिल्लर का कारोबार नहीं था। कम-से-कम दस का नोट कबूल करते हैं जबकि नुमायश के लिये उँगलियों में पचास के, सौ के नोट भी अटकाये होते हैं।”
“मियाँ, मुझे उनके कारोबार से कुछ लेना-देना नहीं था। मेरा सवाल तो किसी और ही मुद्दे की बाबत था।”
“और मुद्दा क्या? खुलासा कर।”
“हिजड़े आते कहाँ से हैं?”
“क्या मतलब?”
“ये खुद तो मल्टीप्लाई कर नहीं सकते . . .”
“क्या नहीं कर सकते?”
“अपनी तादाद नहीं बढ़ा सकते। क्योंकि हिजड़े हैं। तादाद बढ़ाने के लिये जो करना जरूरी होता है, वो करने के नाकाबिल हैं। फिर तादाद बढ़ती कैसे है इनकी? उन्हें तो जिन्दगी मौत की साइकल के हवाले धीरे-धीरे ख़त्म हो जाना चाहिये! लेकिन ख़त्म तो नहीं हो जाते! मरने वालों की जगह लेने के लिये नये आ जाते हैं। नये कहाँ से आ जाते हैं? कैसे आ जाते हैं?”
मुबारक अली ने जवाब न दिया, कई क्षण वो खामोश रहा, आखिर बोला — “बोले तो, जब मैं छोटा था तो देहात में सुना करता था कि कभी किसी घर में इत्तफाक से, घरवालों की बद्किस्मती कहूं तो बेहतर होगा, बच्चा हिजड़ा पैदा हो जाता था तो हिजड़ों को देर सबेर उसकी ख़बर लग जाती थी और वो उस पर अपना दावा ठोकने आ जाते थे।”
“क्या करते थे?”
“माँग करते थे बाकायदा कि बच्चा उनके हवाले किया जाये। वो उन जैसा पैदा हुआ था तो उस पर उन्हीं का हक बनता था। बाप, अपना वो हक हासिल करने के लिये वो ख़ूनखराबे पर उतर आते थे और बच्चे को कब्जा के ही मानते थे।”
“पुलिस दख़ल नहीं देती थी?”
“निरे देहात में पुलिस कहाँ होती थी? करीब कहीं चौकी होती थी तो वहाँ का एक सिपाही पुलिस की हाजिरी दर्ज कराने के लिये कभी-कभार गाँव का चक्कर लगा लेता था।”
“ऐसा कभी अगर होता था, तो अब मुमकिन नहीं। अब निरे देहात में भी इतनी धांधली नहीं चल सकती कि कोई जबरन किसी का बच्चा छीनने आ जाये और गाँव में उसकी सख़्त मुख़ालफत न हो!”
“बात तो तेरी दुरुस्त है!”
“तो?”
“तो तू बोल।”
“मैं बोलूँ? अरे, मैं यहाँ बोलने नहीं आया, सुनने आया।”
“ठीक है। मैं पता करूँगा। वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तफ्तीश करूँंगा इस बाबत। फिर मालूमात की ख़बर करूँगा तेरे को।”
“कैसे?”
“फोन करूँगा।”
“बढि़या।”
24 नवम्बर—रविवार
तीसरे — इतवार के — दिन मुबारक अली का फोन आया।
“तेरे को कमरा बंगश मालूम?” — उसने पूछा।
“मालूम।” — विमल बोला।
“उधर परवेज टी स्टाल! बीच बाजार में!”
“मालूम वो भी।”
“परवेज टी स्टाल के मालिक का नाम है? वहाँ पहुँच और आ के परवेज को बोल मुबारक अली से मिलने का।”
“परवेज वहाँ होगा?”
“हमेशा होता है। न हो तो ही स्टाल बंद होता है।”
“आता हूँ।”
कमरा बंगश जामा मस्जिद के करीब का एक प्राचीन मुस्लिम इलाका था।
टी-स्टाल का मालिक परवेज स्टाल पर मौजूद था। विमल वहाँ जा के खड़ा ही हुआ था कि वो खुद ही बोल पड़ा — “मुबारक अली से मिलना है?”
“हाँ।” — विमल बोला।
“कौल साहब हो?”
“हाँ।”
“आओ।”
स्टाल के बाजू में ही एक संकरी गली थी। गली ज्यादा लम्बी नहीं थी, वो आगे से बंद थी और वहाँ एक नक्काशीदार लकड़ी का बंद दरवाजा था। परवेज ने सांकल खटखटाई तो कोई दस साल के एक लड़के ने दरवाजा खोला।
“बाबू साहेब को” — परवेज ने आदेश दिया — “बड़े मियाँ के पास ले के जा।”
लड़के ने सहमति में सिर हिलाया और एक ओर हट कर खड़ा हो गया।
परवेज ने विमल को भीतर दाखिल होने का इशारा किया और खुद वहाँ से रुख़सत हो गया।
लड़के ने उसे एक बड़े कमरे में पहुँचाया और पीछे दरवाजा भिड़काता खुद ख़ामोशी से वहाँ से चला गया।
कमरे में मुबारक अली मौजूद था। उसके करीब एक निहायत खूबसूरत युवती बैठी थी। वो पोल्का डॉट्स के डिजाइन वाली वैसी लैगिंग्स पहने थी जो कैपरीज कहलाती थीं। ऊपर वो एक गोल गले की पूरी बाँह की टाइट स्कीवी पहने थी, जिसमें से उसके उरोजों का उत्तेजक उभार स्पष्ट प्रकट हो रहा था। उसके कटे हुए, स्ट्रेट बाल बहुत आधुनिक, बहुत स्टाइलिश थे और चेहरे पर बहुत सलीके का मेकअप था।
विमल के स्वागत में मुबारक अली उठ कर खड़ा हुआ तो वो भी खड़ी हो गयी और बड़े अदब से मुस्कराई।
“ये कौल है।” — मुबारक अली बोला — “वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फास्ट करके फिरेंड है। नमस्ते कर।”
युवती ने बड़ी अदा से तनिक झुक कर दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की।
“बाप, ये . . . ये है।”
“नमस्ते, बहन जी।” — विमल बोला।
मुबारक अली बरबस हँसा।
युवती ने भी बड़ी अदा से, बड़ी नजाक़त से हँसी में उसका साथ दिया।
“क्या हुआ?” — विमल तनिक हकबकाया।
“बता, भई।” — मुबारक अली बोला।
युवती ने सहमति से सिर हिलाया।
“अच्छी तरह से देख लिया?” — फिर महीन, मधुर आवाज से विमल से मुख़ातिब हुई।
“क्या?” — विमल फिर हड़बड़ाया।
“मुझे?”
“तुम्हें? हाँ, देख लिया।”
“अच्छी तरह से?”
“हाँ, भई।”
“कैसी लगी मैं?”
“बढि़या।”
“बस, बढि़या।”
“बहुत बढि़या। ब्यूटीफुल! लाइक ए फिल्म स्टार।”
“पानी आया मुँह में?”
“क्या!” — फिर वो मुबारक अली से मुख़ातिब हुआ — “अरे मियाँ, ये कैसे सवाल कर रही है?”
मुबारक अली मुस्कुराया।
“जवाब दे।” — फिर बोला।
“जवाब दूँ!”
“हाँ। बेचारी इतनी मनुहार से पूछ रही है।”
“नहीं” — विमल वापिस युवती की ओर देखता बोला — “नहीं आया।”
“अरे!” — युवती ने बड़ी अदा से हैरानी जतायी — “क्यों भला?”
“क्योंकि मैं शादीशुदा मर्द हूँ। आई एम ए हैपीली मैरीड मैन।”
“इसलिये सामने जलेबी दिखाई दे तो मुँह में रख लेने को दिल नहीं मचलता?”
“दिल का क्या है! दिल तो लोभी कुत्ता है!”
“ब्रावो! पसन्द आये जनाब, आप मुझे।”
“काफी है।” — विमल का स्वर एकाएक शुष्क हुआ — “तुम कुछ बताने जा रही थीं मुझे!”
विमल के बदले मिजाज की वजह से युवती तनिक सकपकायी, फिर उसने सहमति से सिर हिलाया।
फिर सबसे पहले उसने सिर से विग उतारा।
फिर स्कीवी उतारी जिसके साथ उसके उत्तेजक उरोज भी उतर आये और उसका बालरहित सपाट सीना नुमायां हुआ।
फिर उसने कहीं से एक तौलिया बरामद किया, मेज पर पड़ी मिनरल वाटर की बोतल के पानी से उसे भिगोया और कई बार रगड़ कर अपने चेहरे पर फिराया। उसने तौलिया एक ओर डाला तो विमल ने पाया उसके चेहरे पर से तमाम मेकअप उतर चुका था। अब होंठ पहले जैसे भरे-भरे और चित्ताकर्षक नहीं लग रहे थे। उसके होंठ पतले थे, लेकिन उन पर लिपस्टिक इस ढंग से पोती गई थी कि भरे-भरे जान पड़ते थे। चेहरे से मेकअप की परत हट जाने पर अब रगड़ कर की गयी शेव का भी आभास मिल रहा था — वो हरापन झलक रहा था जो क्लोज शेव के बाद नौजवान शख़्स की चमड़ी पर से झलकता है।
मेज पर एक बैग पड़ा था, जिसमें से उसने पहले एक शर्ट निकाल कर पहनी, फिर जींस निकालकर कैपरीज के ऊपर ही पहनी।
अब वो एक साधारण शक्ल सूरत वाला युवक लग रहा था, युवती जैसे जादू के जोर से गायब हो गयी थी।
विमल को देखता वो मुस्कुराया।
विमल मुँह बाये उसे देखता रहा।
“ये” — मुबारक अली राजदाराना लहजे से बोला — “वो है।”
“कम्माल है!” — विमल के मुँह से निकला।
“है न! इसका जलवा-जोबन देखकर ही रैड लाइट पर खड़े कार वाले इसे कोई बड़ा नोट थमा देते हैं।”
“जानते-बूझते” — विमल के मुँह से निकला — “कि हिजड़ा है!”
“ये हिजड़े के नाम से चिढ़ता है। किन्नर बोल।”
“सॉरी!”
“अल्तमश नाम है। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी को अपना . . . वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में . . . बोल बे, क्या कहते हैं अंग्रेजी में?”
“आइडियल!” — अल्तमश भारी, खुरदुरी, मर्दाना आवाज में बोला — “आदर्श।”
“वही। आई कर के डील” — मुबारक अली बोला — “वही मानता है।”
“पढ़ा लिखा है?” — विमल ने पूछा।
“सातवीं से उठा हूँ।” — अल्तमश यूँ बोला जैसे कोई गुनाह कबूल कर रहा हो।
“फिर भी ‘आइडियल’, ‘ब्रावो’, जैसे अल्फाज से वाकिफ है?”
“इंगलिश पढ़ने, बोलने का बहुत शौक था। अरमान था कि मैं भी इंगलिश में गुफ्तगू कर सकूँ। इसलिये स्कूल छूट जाने बाद, बहुत बाद, जैसे तैसे औनी-पौनी सीखी।”
“सातवीं से क्यों उठा?”
“स्कूल में लड़के तंग करते थे। छक्का बोलते थे। टीचर भी मजाक उड़ाते थे। हमजमातियों से ज्यादा परेशान करते थे। स्कूल में बने रहना दूभर हो गया था।”
“ओह!”
“मैं सातवीं तक तो पढ़ा! अमूमन तो मेरे जैसों ने स्कूल की शक्ल भी नहीं देखी होती।”
“यानी तमाम के तमाम किन्नर अनपढ़!”
“तमाम तो नहीं! शायद सुनकर हैरानी हो आपको कि दिल्ली में ही मेरे जैसों में से पाँच फीसदी ऐसे हैं जो ग्रैजुएट हैं।”
“ग्रैजुएट को नौकरी मिल जाती है?”
“असलियत को छुपा के रखे तो मिल जाती है। असलियत खुल जाये तो निकाल बाहर किया जाता है। मेरा एक अपना वाकिफ है जो पूरी एफीशेंसी से काल सेंटर की नौकरी करता था, कभी ऐसी नौबत नहीं आयी थी कि एम्पलायर को उससे शिकायत हुई हो, लेकिन ज्यों ही पता लगा कि वो वो था, खड़े पैर डिसमिस कर दिया।”
“ये तो नाइंसाफी है!”
“और बड़ी नाइंसाफी पुलिस करती है। अपने साथ हुई ज्यादती की शिकायत लेकर कोई ट्रांसजेंडर पुलिस के पास जाता है तो पुलिस सुनती नहीं। डाँट के भगा देती है। खिल्ली अलग से उड़ाते हैं। इसी वजह से जब किसी के साथ नाइंसाफी होती है तो उसकी पुलिस के पास जाने की हिम्मत नहीं होती। कोई किराये पर मकान नहीं देता। बानवे फीसदी को कोई नौकरी नहीं देता, भले ही कितना पढ़े-लिखे हों। कभी मिल भी जाती है तो कम तनख्वाह वाली मिलती है। — ऐसी जिसे कोई दूसरा करने को तैयार नहीं होता।”
“तो क्या करते हैं?”
“फूटी तकदीर को कोसते हैं, और क्या करते हैं!”
“गुजारा कैसे चलता है?”
“मोटे तौर पर शादी-ब्याह की, औलाद पैदा होने की बधाइयों से। भीख माँगने से। सेक्स वर्क से। कुछ सब्जी की, फ्रूट की रेहड़ी भी लगाते हैं।”
“ओह!”
“पढ़ाई की बहुत चाह थी मेरे को।” — वो अरमानभरे स्वर में बोला — “पूरी न हो सकी।”
“बैठ के बात करें, वो कैसा रहे?” — मुबारक अली बोला।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
तीनों बैठ गये — विमल और मुबारक अली अगल-बगल, अल्तमश उनके सामने।
“बड़ी मुश्किल से इसकी ख़बर लगी।” — मुबारक अली बोला — “फिर तिराहा बैरम खान के एक चौधरी को बीच में डाला तो काबू में आया।”
“थैंक्यू।” — विमल बोला।
उसने मुस्करा कर थैंक्यू कुबूल किया।
“किन्नर बहुत हैं हिन्दोस्तान में!”
“कम भी नहीं हैं।” — वो बोला — “सन् 2011 में सरकारी गिनती हुई थी तो आँकड़ा पाँच लाख के करीब बताया गया था, लेकिन असल आँकड़ा साठ लाख बताया जाता है। दिल्ली में ही लाख से ऊपर हैं।”
“इतना फर्क क्यों?”
“अमूमन बताते नहीं अपने बारे में। असलियत छुपा के रखते हैं।”
“ओह!”
“आप को जानकर हैरानी होगी कि सत्तावन फीसदी किन्नर सेक्स अलाइनमेंट सर्जरी से ठीक हो सकते हैं, नॉर्मल हो सकते हैं। लेकिन सर्जरी की फीस भरने के लिये पैसे नहीं, सरकार की कोई मदद नहीं। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से ट्रांसजेंडर्स की बेहतरी के लिये कुछ कायदे कानून मुकर्रर हैं लेकिन सरकारी अमला उन पर अमल करने में नाकाम हैं, खुद अपने कानून उनकी बेहतरी के लिये लाने में नाकाम हैं।”
“आई सी।”
“दस हजार में कोई एक बच्चा सेक्सुअल डिसऑर्डर वाला पैदा होता है और वो ऐसा पैदा हुआ, ये जैसे सरासर उसकी गलती है। कुनबे में उसके साथ कोई हमदर्दी नहीं दिखाता। सब उसे ह्यूमीलियेट करते हैं। माँ बाप ऐसे बच्चे के नुक्स को जिस्मानी नहीं, दिमागी मानते हैं इसलिये उसे हिकारत की निगाह से देखते हैं। अहसास-ए-कमतरी का मारा वो अपनी शिनाख्त को छुपा के रखता है, लेकिन एक उम्र के बाद ये भी मुमकिन नहीं रह जाता। इन तमाम बातों की वजह से सिर्फ दो फीसदी ऐसे लोग हैं, जो फैमिली के साथ रहते हैं।”
“हिजड़े आते कहाँ से हैं? दस हजार में से एक से तो तादाद में साठ लाख नहीं बन जाते होंगे!”
“बनाये जाते हैं।” — वो धीरे से बोला।
“‘बनाये जाते हैं’ का क्या मतलब!”
अल्तमश ने मुबारक अली की तरफ देखा।
“समझ, बाप।” — मुबारक अली बोला — “अच्छे भले आदमजात का अद काट दो तो क्या बनेगा वो?”
विमल के चेहरे पर दहशत के भाव आये।
“खुलासा कर।” — मुबारक अली ने अल्तमश को आदेश दिया।
अल्तमश ने सहमति में सिर हिलाया, हौले से खँखार कर गला साफ किया फिर सुसंयत स्वर में बोला — “आजकल और एक अरसे से बच्चों की चोरी एक बड़ा कारोबार बन गया है। आपको नहीं मालूम तो अब जान लीजिये कि हर साल पचास से पचपन हजार तक बच्चे गायब होते हैं।”
“चोरी होते हैं?”
“चोरी भी होते हैं और वैसे भी हाथ में आ जाते हैं।”
“वैसे कैसे?”
“घर से भागे हुए बच्चे होते हैं, खोये हुए बच्चे होते हैं। गिरोहबाज ऐसे बच्चों पर निगाह रखते हैं।”
“ओह!”
“लेकिन ऐसे गिरोहबाज बच्चा चुरायें तो बच्ची की जगह बच्चे को तरजीह देते हैं।”
“हैरानी की बात है। ऐसा क्यों?”
“क्योंकि इस कारोबार में लगे लोगों में सब्र नहीं होता। उनको अपनी करतूत का फौरी नतीजा चाहिये होता है। बच्ची के बड़े होने में, धन्धे पर बिठाये जाने के काबिल बनने में सालों लग जाते हैं, इतना सब्र उन लोगों से, गिरोहबाजों से, नहीं होता। बच्चे जल्दी कमाऊ बन जाते हैं।”
“कैसे?”
“दो तरीके हैं। एक तो उनका अंग भंग करके उन्हें भीख माँगने पर लगा देते हैं। बच्चा एक टाँग से, एक बाँह से लाचार है तो लोगबाग आदतन उस पर तरस खाते हैं, उस को पैसा दे कर पुण्य कमाते हैं।”
“तौबा! अच्छे भले तन्दुरुस्त बच्चे की टाँग तोड़ देते हैं? बाँह तोड़ देते हैं?”
“बच्चा खूबसूरत हो तो काट ही देते हैं। टाँग घुटने से, बाँह कोहनी से या कन्धे से।”
“दाता!”
“खूबसूरत, निरीह, हाथ या पाँव से या दोनों से लाचार बच्चा जब चौराहे पर भीख माँगता है तो लोगों के मन में दया का समन्दर ठाठें मारने लगता है, आम मँगते को रुपया देते हैं तो उसको दस रुपये देते हैं, बीस रुपये देते हैं, कोई कोई तो सौ पचास भी दे देता है।”
“लेकिन कमाई का इतना घिनौना, इतना नृषंस धन्धा! चार पैसे कमाने के लिये अच्छे भले तन्दुरुस्त बच्चे के हाथ पांव तोड़ देते हैं!”
“क्योंकि कमाई महज ‘चार पैसे’ की नहीं होती। एक-एक टोले में ऐसे बच्चे कई-कई दर्जनों में होते हैं।”
“बच्चों को कोई ऐतराज नहीं?”
“उनको ऐतराज के काबिल नहीं छोड़ा जाता।”
“मतलब?”
“छोटी उम्र में ही उन्हें नशे की लत लगा दी जाती है — इस हद तक कि तेरह-चौदह साल का बच्चा ही पक्का नशेड़ी बन जाता है। शुरू में नशा गिरोहबाज उसे मुफ्त में देते हैं, बाद में उसे खुद जुगाड़ करना पड़ता है इसलिये नशा खरीदने लायक बनने के लिये कुछ भी करने से नहीं हिचकता। इसी वजह से इतने छोटे-छोटे लड़के भीड़भरी बसों में, ट्रेनों में ब्लेड चलाना, चाकू चलाना सीख जाते हैं, चलती बस-ट्रेन से चढ़ने उतरने में, जेबें काटने में माहिर हो जाते हैं। पहले चरस, गांजा पीना सीखते हैं, फिर सूई भी लगाने लग जाते हैं। फ्लुइड पीने लगते हैं।”
“फ्लुइड क्या?”
“स्याही मिटाने के लिये इस्तेमाल किया जाने वाला वाइटनर।”
“उससे भी नशा होता है?”
“ढेर पियो तो होता है। एक पन्द्रह साल का लड़का तो एक दिन में बीस डबल पी जाता था।”
“डबल क्या?”
“एक पैकिंग में फ्लुइड की दो शीशी होती हैं, इसलिये उसे डबल बोलते हैं।”
“पुलिस कोई कार्यवाही नहीं करती?”
“भिक्षा उन्मूलन अभियान के तहत कई बार कुछ बच्चों को पकड़ लेती है लेकिन उन्हें सिखाया पढ़ाया गया होता है कि ऐसी नौबत आने पर उन्होंने टोले के मालिक का नाम नहीं लेना। धमकी के तौर पर उसके चेहरे के आगे लोहे की दहकती सलाख लहराई जाती है। उसकी मजाल नहीं होती कुछ गलत बोलने की। यही दुहाई देता है कि मेले में माँ बाप से बिछुड़ गया था, अब मजबूरी में भीख माँगता था।”
“पुलिस यकीन कर लेती है?”
“नहीं कर लेती तो यकीन कराने का आला होता है न टोले के मालिक के पास!”
“क्या!”
अल्तमश ने उँगली और अँगूठे से सिक्का उछालने का एक्शन किया।
“रिश्वत!”
“पुलिस बच्चों को न भी पकड़े तो उनका हिस्सा उन तक पहुँचता है। तभी तो वो बेखतर चौराहों पर विचरते हैं।”
“फिर भी पकड़ ले तो?”
“तो क्या? बच्चा है। बालिग जैसी सजा तो उसे मिल नहीं सकती। न ही बालिग की तरह उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। पुलिसवाले या तो शाम तक थाने में बिठाते हैं और फिर दो डण्डे मार कर भगा देते हैं या उसे बाल सुधार गृह में भेज देते हैं जहाँ का बन्दोबस्त इतना झोलझाल होता है कि दो दिन में वो वहाँ से भागने की जुगत कर लेता है।”
“हूँ।”
“जो बच्चे शक्ल सूरत में चोखे हों, उनको शादी-ब्याहों में चोरी के लिये लगाया जाता है।”
“वो कैसे?”
“बच्चे को उम्दा कपड़े पहना कर उम्दा तरीके से सजा कर, पूरी तरह से हाई क्लास बनाकर शादी के पण्डाल में घुसा दिया जाता है। ऐसे बच्चे पर कौन शक करेगा! जो देखेगा, सहज ही सोच लेगा कि किसी मेहमान के साथ होगा, या मेजबान की फैमिली से होगा। बच्चा खाता पीता है और बेरोकटोक सारे पंडाल में विचरता है। लड़की की शादी हो तो बाप बधाईयों के लिफाफे बटोर रहा होता है और आगे लड़की की माँ को थमा रहा होता है। माँ वो सारे लिफाफे एक बैग में भरती जाती है। मेहमानों की आमद घटने पर रैस्ट के लिये जब वो कहीं जाकर बैठती है, तो प्लेट में कुछ खाता, सजा धजा, इज्जतदार बच्चा उसके करीब जा बैठता है और मौका ताड़ कर उसकी शादी पर पहनने के लिये खासतौर से खरीदी बेशकीमती साड़ी पर, टोमैटो सॉस गिरा देता है। फौरन औरत को साड़ी सम्भालने की, नैपकिन से सॉस पोंछने की पड़ जाती है और लड़का बैग लेकर चम्पत हो जाता है। जब तक माँ को इस बात की ख़बर लगती है, लड़के की परछाईं नहीं मिलती।”
“फिर भी पकड़ा जाये तो?”
“बैग तो भी बरामद नहीं होता, वो बैग हाथ आते ही इसी काम के लिये साथ आये, पंडाल के करीब कहीं छुप कर बैठे दूसरे लड़के को थमा देता है जो फौरन वहाँ से हवा हो जाता है और खुद दुहाई देने लगता है कि भूखा था, खाने के लालच में घुस आया था, उसे किसी बैग की चोरी की कोई ख़बर नहीं थी।”
“क्या कहने!”
“ऐसे ही शादी के जेवरों पर सेंध लगाईं जाती है।”
“कुछ हाथ न आये तो?”
“तो क्या! आये दिन शादियाँ होती हैं, अगली शादी में आ जायेगा। उससे अगली शादी में आ जायेगा।”
“ठीक!”
“ऐसे ही कदरन बड़े बच्चों को रैडलाइट पर खड़ी कारों में से कीमती सामान चुराने पर लगाया जाता है।”
“वो क्या करते हैं?”
“कई तरीके आजमाते हैं। मसलन एक बच्चा कार की खिड़की ठकठका कर कार चलाते मालिक की तवज्जो अपनी तरफ करता है और बोलता है पीछे पैट्रोल लीक कर रहा था। मालिक चैक करने के लिये पीछे जाता है, वो आगे से उसका लैपटॉप या बैग, या मोबाइल या जो भी कीमती सामान आगे पड़ा दिखाई दे, चुटकियों में गायब कर देता है।”
“गॉड!”
“या किसी कार के पिछले पहिये में चुपचाप सूआ घुसेड़ देते हैं और आगे चौराहे से पार चले जाते हैं। बत्ती हरी होने पर कार चौराहा पार करती है, तो पहिया बैठ जाता है। मालिक उतर के पहिया तब्दील करने लगता है, जब फारिग होता है तो पाता है लैपटॉप गायब है, ड्राइवर औरत है, तो पाती है उसका बैग गायब है।”
“हम्म!”
“अकेले कार चालक का रैडलाइट पर ध्यान बंटाने के उनके पास बहुत तरीके हैं, जिनमें से कुछ वो खुद सीख जाते हैं और कुछ उनके उस्ताद लोग सिखाते हैं। वक्त के साथ-साथ ये बच्चे इतने शातिर बन जाते हैं कि शायद ही कभी चोरी से उड़ाये कीमती सामान के समेत पकड़े जाते हैं। अब चोरी के सामान के समेत न पकड़े जायें तो कैसे उन्हें चोर साबित किया जा सकता है!”
“ठीक!”
“यूँ पकड़ में आया बच्चा कभी अपना पता ठीक नहीं बताता। माँ बाप का नाम भी गलत बताता है। फिर जब उसकी कोर्ट में पेशी होती है तो वहाँ नकली माँ बाप आ जाते हैं . . .”
“नकली माँ बाप क्या मतलब?”
“कोई-सा मर्द, कोई-सी औरत, भले ही वो एक दूसरे को जानते भी न हों — बच्चे को तो वो जानते होते ही नहीं — कोर्ट में पेश होते हैं, उसे अपना बच्चा बताते हैं और उसकी बेगुनाही की दुहाई देते हैं। फिर जमानत कराने के लिये वकील आ जाता है, जो ऐसा भाड़े का टट्टू होता है कि कोई भी बच्चा पकड़ा जाये, दिल्ली के छः कोर्ट में से किसी भी कोर्ट में उसका केस लगे, जमानत की अर्जी लगाने के लिये बच्चे की तरफ से वही वकील पेश होगा। मैजिस्ट्रेट तमाम रैकेट को समझता है, जानता है पुलिस जानबूझ कर झोल-झाल केस बनाती है लेकिन वो मजबूर है, कायदे कानून के मुताबिक उसे बच्चे को जमानत पर छोड़ना पड़ता है। फिर अगली पेशी पर बच्चा गैरहाजिर पाया जाता है और पुलिस को ढूंढे़ नहीं मिलता क्यों उसका नाम पता, उसके माँ बाप का नाम, सब गलत होता है और . . .”
“भई, टोकने के लिये सॉरी! तुम्हारी इन बातों से मेरी जनरल नॉलेज में तो बहुत इजाफा हुआ, लेकिन वो मतलब हल नहीं हुआ जिसकी वजह से तुम यहाँ हो, मैं यहाँ हूँ।”
अल्तमश के चेहरे पर उलझन के भाव आये।
“तुमने कहा था गिरोहबाज बच्चों से दो तरीकों से कमाई करते हैं। एक तरीके का तो तुमने बड़ा वसीह खुलासा कर दिया, अब दूसरे तरीके पर आओ। दूसरा तरीका क्या है?”
“बच्चों को हिजड़ों के किसी टोले को बेच देते हैं। अच्छी कीमत मिलती है।”
“अच्छी कीमत चुकाने वाले को क्या मिलता है?”
“उनको अपनी तादाद में इजाफा करने का जरिया मिलता है।”
“वो कैसे?”
“वो खरीदे गये बच्चे को, जो कि पन्द्रह साल तक का हो सकता है, हिजड़ा बनाते हैं।”
“कैसे?”
“उसका अदद, गोटियां उड़ा देते हैं।”
“दाता! इतना जुल्म!”
“उन्हें नहीं लगता। वो ऐसा कदम न उठायें तो इस फानी दुनिया में उनका वजूद ही बाकी न रहे।”
“कैसे करते हैं ये काम, मालूम?”
इसने सहमति में सिर हिलाया।
“कैसे करते हैं?”
उसने फिर बैग की तरफ तवज्जो दी। बैग को उसने अपने करीब खींच लिया और फिर उसमें से हरे बांस का कोई एक फुट लंबा टुकड़ा निकाला।
“ये बांस” — वो टुकड़ा विमल के सामने करता बोला — “आधे रास्ते तक बीच में से दो फाड़ कटा हुआ है। कहाँ से कटा हुआ है, ये गौर से देखने पर ही मालूम होता है। अभी देखना।”
उसने बांस के ऊपरी सिरे को दायें बायें से पकड़ा और दोनों हाथों को एक दूसरे से विपरीत दिशा में चलाया तो दोनों सिरे चिमटे की तरह खुल गये। उसने हाथ हटाये तो दोनों सिरे फिर वापिस आन मिले।
ऐसा उसने दो तीन बार किया।
“आपने देखा” — वो बोला — “कि बांस के चिरे हुए हिस्से को जबरन खोल कर छोड़ा जाये तो वो यूं वापिस अपने मुकाम पर आ जाता है जैसे बीच में कोई स्प्रिंग लगा हो।”
“हां, देखा” — विमल बोला।
“अब ये देखिये।”
उसने बैग में से एक गाजर निकाली, बांस के ऊपरी सिरे को चिमटे की तरह फिर खोला, दोनों सिरों के बीच में अनकटे हिस्से के करीब गाजर रखी और दोनों सिरों को छोड़ दिया।
गाजर मजबूती से चिमटे में फँस गयी, यूँ कि उसकी एक तरफ सिर्फ जड़ थी और दूसरी तरफ बाकी गाजर थी। उसने गाजर को एक उँगली से धकेल कर दिखाया कि वो इतनी मजबूती से बांस में फँसी हुई थी कि अपनी जगह से हिल नहीं रही थी।
बैग से उसने जो अगली आइटम बरामद की वो नाईयों वाला उस्तरा था। उसने बांस को बायें हाथ में और उस्तरे को खोल के दायें हाथ में थामा।
फिर बिना किसी वार्निंग के उसने उस्तरा चलाया।
गाजर कट कर परे जाकर गिरी। वो बांस के करीब ऐन जड़ से कटी थी। अब बांस की दूसरी तरफ सिर्फ उसकी जड़ दिखाई दे रही थी।
विमल के चेहरे पर हाहाकारी भाव आये।
“क्या समझे, जनाब?” — अल्तमश बोला।
“समझा, भई।” — विमल बोला — “जो समझाना चाहते हो, वही समझा। तभी तो दहशत में हूँ।”
“गाजर अदद की जगह थी। गोटियों का कोई गाजर जैसा इन्तजाम मुझे खड़े पैर न सूझा। बहरहाल दोनों अदद के लिये यूँ एक ही वार काफी होता है।”
“ये तो जुल्म है। बल्कि कहर है।”
“निर्वाण प्राप्ति है।”
“क्या!”
“गुरु इस काम को अंजाम देता है। इस काम को पुनर्जन्म का नाम दिया जाता है। कैस्टरेशन को निर्वाण प्राप्ति माना जाता है। चेला ये काम राजी से कराता है। वो निर्वाण कहलाता है।”
“लेकिन इतनी तकलीफ़ . . .”
“नहीं होती। होती है तो बहुत वक्ती होती है।”
“अरे, इतने नाजुक अंग धारदार औजार के एक ही वार से उड़ा दिये, लड़का जान से नहीं जाता?”
“नहीं जाता। आज तक कोई जान से नहीं गया।”
“लेकिन साक्षात मौत का नजारा . . .”
“वो भी नहीं। थोड़ी देर के लिये बेहोश हो जाता है, बस! जब होश में आता है तो न ख़ून बहता पाता है, न नाकाबिलेबर्दाश्त दर्द महसूस करता है।”
“कमाल है!”
“किन्नरों का भी भगवान होता है। किन्नर बहुचरा माता के भक्त होते हैं, जिसे कि दुर्गा का अवतार माना जाता है। गुजरात में बहुचरा माता का बाकायदा मंदिर है, जहाँ हिजड़े जाते हैं। गुरु को बहुचरा माता के प्रतिनिधि का दर्जा हासिल होता है इसलिये गुरु की गद्दी चलती है। उसे किन्नरों का दोस्त, उपदेशक, पथप्रदर्शक समझा जाता है। वो जब इस काम को अंजाम देता है, तो फौरन बाद बाकी बचे हिस्से पर एक ख़ास जगह की, ख़ास तरह की मिट्टी थोपता है जिससे ख़ून बहना फौरन बंद हो जाता है और दर्द भी धीरे-धीरे घटने लगता है। यूँ निर्वाण इम्पोटेंट मेल से पोटेंट किन्नर बन जाता है। गुरु शिक्षा देता है कि जो अपनी राजी से, बहुचरा देवी के आशीर्वाद से किन्नर बनता है, वो जन्म-जन्मांतर तक किन्नर ही रहता है।”
“हूँ।”
“नये बने किन्नर को चालीस दिन का एकान्तवास करना पड़ता है। उसके बाद उस का शृंगार किया जाता है, उसे दुलहन का लिबास पहनाया जाता है, बड़ी धूमधााम से उसका जुलूस निकाला जाता है और तब उसका निर्वाण मुकम्मल माना जाता है।”
“तो यूँ हिजड़े बनाये जाते हैं?”
“हाँ।”
“ये सब . . . अक़्सर होता है?”
“इसका जवाब ये है कि दिल्ली में एक आल इंडिया हिजड़ा कल्याण सभा है जिसका कहना है कि सिर्फ एक फीसदी हिजड़े स्वाभाविक तौर से पैदा होते हैं, बाकियों को मजबूरी बनाती है।”
“ओह!”
“आपकी एक और जानकारी के लिये भजनपुरे में एक हिजड़ा क्लब है जिसका नाम जीनत क्लब है जिसे स्पेस (SPACE : Society for People’s Awareness Care and Empowerment) नाम की एक एनजीओ चलाती है। जीनत क्लब सिर्फ हिजड़ों के लिये है, वहाँ बाइसैक्सुअल नहीं जा सकते, गे नहीं जा सकते।”
“ऐसे टोले बहुत हैं?”
“दिल्ली में तो ज्यादा नहीं हैं, लेकिन इतना बड़ा मुल्क है, क्या पता लगता है!”
“कमाई का एक जरिया और देखा मैंने! उसका जिक्र नहीं किया तूने!”
“कौन सा?”
“चौराहों पर लाल बत्ती पर कार वालों से वसूली।”
“वो सिलसिला हालिया है। किन्नरों का असल कारोबार तो आज भी शादी-ब्याहों पर, लड़का पैदा होने पर उगाही है। खाता-पीता घर हो तो लड़का पैदा होने पर लड़-झगड़कर, नंगे नाचने लगने की धमकी देकर बीस-बीस, तीस-तीस हजार रुपये आम झाड़ लेते हैं। उन्हें लोगों के इस विश्वास का भी फायदा पहुँचता है कि हिजड़ों की दुआयें बहुत कारगर होती हैं।
“मालूम कैसे पड़ता है कहीं लड़का हुआ है?”
“जन्म और मृत्यु पंजीकरण कार्यालय से। शादी की ख़बर घोड़ी वालों से, बैंड वालों से, ईवेंट कोआर्डीनेटर्स से। सब हिजड़ों से हमदर्दी दिखाते हैं।”
“और?”
“और आप बताइये।” — इस बार अल्तमश के गले से एकाएक महीन, जनाना आवाज निकली।
“तेरा ये करतब जनाना मेकअप से भी ज्यादा बाकमाल है। सॉलिड, ऑथेंटिक जनाना आवाज! कैसे कर लेता है?”
जवाब में वो केवल मुस्कुराया।
फिर उसने अपना पेट थपथपाया।
“पापी पेट का सवाल है।” — तर्जुमानी मुबारक अली ने की।
अल्तमश ने संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया।
“फिलहाल काफी है, अल्तमश” — विमल बोला — “लेकिन उम्मीद है कि आगे भी काम आओगे।”
“आगे भी?” — अल्तमश मर्दाना आवाज में बोला।
“रेजर हैंडल करने में तुम्हारी महारत काबिलेतारीफ़ है। शुक्रिया।”
उसने सहमति में सिर हिला कर शुक्रिया कुबूल किया और अपना सामान बटोर कर बैग में वापस भर लिया।
फिर उसने सवालिया निगाह से मुबारक अली की ओर देखा।
मुबारक अली ने पाँच-पाँच सौ के दो नोट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाये।
“मैं देता हूँ न!” — विमल जेब की तरफ हाथ बढ़ाता व्यग्र भाव से बोला।
“तू हजार देगा।” — मुबारक अली विनोदपूर्ण भाव से बोला — “हजार का नोट बंद हो गया है।”
“मजाक कर रहे हो।”
“तेरा मेरा न कर, बाप। . . . ले, बे!”
अल्तमश ने नोट थाम लिये।
“मोबाइल!” — विमल बोला। — “है न तुम्हारे पास?”
अल्तमश ने सहमति में सिर हिलाया।
“नम्बर छोड़ के जाओ।”
“मेरे पास है।” — मुबारक अली बोला।
“फिर ठीक है।”
अल्तमश ने अपना बैग सम्भाला लेकिन उठने का उपक्रम न किया।
विमल ने उसकी जगह सवालिया निगाह मुबारक अली पर डाली।
“धन्धे का टेम है।” — मुबारक अली बोला — “तैयारी करेगा न!”
“ओह!”
अल्तमश ने पन्द्रह मिनट लगाये और फिर रूपवती युवती बन गया।
इस दौरान विमल ख़ामोशी से, मंत्रमुग्ध भाव से वो ट्रांसफार्मेशन देखता रहा।
अल्तमश चित्तार्षक भाव से मुस्कुराया, उसने एक तौबाशिकन अंगड़ाई ली, फिर मादक, स्त्री स्वर में बोला — मीशा। मिस हाइड ऑफ डॉक्टर जैकिल।”
“कमाल है!” — विमल के मुँह से निकला — “तू तो, यार, सातवीं से उठा नहीं हो सकता!”
“बोला न” — उसका लहजा फिर मर्दाना हुआ — “स्कूल से उठा तो खुद अपना उस्ताद बना।”
“क्या ख़ूब बना! शाबाशी है तेरे को। तेरी लगन को।”
“शुक्रिया, जनाब!” — वो एक क्षण ठिठका, फिर बोला — “आप तो बड़ा लोग हो, कार पर आये होंगे!”
“बड़ा लोग तो नहीं, लेकिन हाँ, कार पर आया हूँ। क्यों?”
“कहाँ छोड़ी?”
“करीब ही। जामा मस्जिद की पार्किंग में। क्यों?”
“आगे किधर जाओगे?”
“अरे, भई, क्यों पूछ रहे हो इतने सवाल?”
“आईटीओ की तरफ कहीं जा रहे होते तो मुझे लिफ्ट मिल जाती।”
प्रतिवाद में मुबारक अली का मुँह खुला लेकिन विमल पहले ही बोल पड़ा — “उधर ही जा रहा हूँ। आईटीओ से ही गुजरूँगा।”
“मुझे साथ बिठाने में अगर आप की हेठी न हो तो . . .”
“पागल! अरे, जब मेरे को पता नहीं लगा कि तू . . . वो है तो जो मुझे मेरे साथ बैठा देखेंगे, उन्हें पता लगेगा?”
“तो . . .”
“बाहर जा। मैं आता हूँ।”
अल्तमश ने बैग उठाया और चेहरे पर कृतज्ञता के भाव लिये वहाँ से रुख़सत हुआ।
“क्या इरादा है, बाप?” — पीछे मुबारक अली तनिक चिन्तित भाव से बोला।
विमल ने बताया।
“कर लेगा?”
“तेरा क्या ख़याल है?”
“कर लेगा।” — मुबारक अली पूरे विश्वास के साथ बोला — “इज्जत आबरू का दाँव है, कर लेगा।”
“फिर मुबारक अली जैसा जांबाज दोस्त! चौदह जियाले भांजे . . .”
“धोबियों की पलटन। जो बिखर गयी है लेकिन फिर जमा की जा सकती है।”
“बढि़या।”
“फिर मुश्किलात से जूझे बिना आदमजात को अपनी ताकत का अहसास भी तो नहीं होता!”
“लाख रुपये की बात कही।”
“गृहस्थ न बन सका!”
“जो प्रारब्ध में लिखा है, वही तो होना है! मेरा क्या जोर है! लेकिन मैं गृहस्थ न बन सका, ये मेरे लिये, नीलम के लिये उतनी बुरी ख़बर नहीं जितनी दुश्मनों के लिये है जो अभी इस बात से वाकिफ भी नहीं।”
“फतह तेरी होगी।”
“न हो। न होने के अन्देशे से कोई कोशिश तो नहीं छोड़ सकता!”
“दुरुस्त कहा।”
“सूरा सो सहराइये, अंग न पहरे लोह; जूझै सब बन्द खोलि के, छाड़े तन का मोह!”
“बात समझ में तो नहीं आयी लेकिन तूने कही है इसलिए उम्दा ही होगी!”
“चलता हूँ।”
मुबारक अली ने सहमति में सिर हिलाया।
“कहाँ उतरेगा?”
विमल नॉर्मल रफ्तार से कार चला रहा था और कार अब आईटीओ के चौराहे पर पहुँचने वाली थी जब उसने पैसेंजर सीट पर बैठे अल्तमश से सवाल किया था।
“इससे अगले क्रॉसिंग पर।” — अल्तमश के स्वर में संकोच का पुट आया — “आपने अपनी मंजिल की बाबत नहीं बताया। यहाँ से आगे अगर सिकन्दरा रोड़ पकड़ेंगे तो . . .”
“वही पकड़ूँगा। कनॉट प्लेस जाना है।”
“तो मैं मंडी हाउस उतर जाऊँगा।”
“ठीक है।”
उनके ऐन पीछे एक ‘ऑल्टो’ थी, जिसकी फ्रंट सीट पर दो नौजवान लड़के बैठे उसे रियरव्यू मिरर में दिखाई दिये थे। पिछली सीट पर भी एक लड़के की मौजूदगी का उसे आभास मिला था। दिल्ली गेट के बाद से ही वो ‘ऑल्टो’ उसे अपने पीछे दिखाई दे रही थी। क्रॉसिंग अभी आया नहीं होता था, आगे बत्ती हरी हो या लाल हो, ‘ऑल्टो’ का अतिउतावला ड्राइवर हॉर्न बजाने लगता था। आईटीओ के क्रासिंग पर पहुँचते ही बत्ती हरी हो गयी थी, वो फिर भी पीछे से हॉर्न बजा रहा था।
अगले चौराहे पर उन्हें बत्ती लाल मिली।
विमल ने कार रोक दी।
‘ऑल्टो’ ऐन उसके पीछे आ के खड़ी हुई।
हॉर्न बजने लगा।
विमल ने अपनी तरफ का शीशा गिराया और सिर निकाल कर पीछे देखा।
‘ऑल्टो’ का ड्राइवर उसे कार आगे बढ़ाने का गुस्ताख़ इशारा करने लगा।
विमल ने हाथ के इशारे से आगे रैड सिग्नल की तरफ उसका ध्यान आकर्षित किया।
‘ऑल्टो’ के ड्राइवर के होंठ यूँ साफ हिले जैसे गाली दे रहा हो।
“अबे, आगे ले न!” — फिर चिल्लाकर बोला।
विमल ने फिर रैड सिग्नल की तरफ इशारा किया।
आल्टो का ड्राइविंग साइड का दरवाजा एक झटके से खुला, छलांग मार कर एक जींस-टीशर्टधारी युवक बाहर निकला और सड़क को रौंदता उसके करीब पहुँचा।
“अबे, आगे क्यों नहीं लेता?” — वो कलपता-सा बोला।
“लाल बत्ती है।” — विमल शांति से बोला।
“साले, इतवार का दिन है। तेरे आगे सड़क खाली थी तब, जब मैंने तेरे को आगे लेने को बोला था।”
“मेरे को सुनाई नहीं दिया था।”
“बहन के दीने, हॉर्न तो सुनाई दिया था, या वो भी नहीं दिया था?”
“दिया था। पर आगे लाल बत्ती है।”
“मादर . . .! अपने बाप को तो जाने दे!”
“बाप के लिये भी लाल बत्ती है।”
“देखो तो साले को! बातें चो . . . रहा है। बहन . . . मुझे तो जाने दे!”
“बत्ती हरी होने पर जाना।” — विमल एक क्षण ठिठका फिर बोला — “बाप जी।”
“ठहर जा, साले . . .”
तभी बत्ती हरी हो गयी।
“साले, कंजर के बीज, अगर अपने बाप की औलाद है तो क्रांसिग पार करके रुकना।”
विमल ने कार आगे बढ़ा दी।
वो युवक भी लपक कर वापिस ‘ऑल्टो’ में जा बैठा।
विमल ने क्रासिंग पार किया और कार को सिकंदरा रोड पर थोड़ा आगे ले जाकर रोका।
‘ऑल्टो’ पीछे से आयी और बड़े फिल्मी अन्दाज से ब्रेकों की चरचराहट के साथ विमल की कार के आगे यूँ रुकी जैसे उसे जबरन रोका गया हो।
जींस-टीशर्ट वाला ‘ऑल्टो’ का ड्राइवर बाहर निकला और ‘रिट्ज’ की ओर बढ़ा। उसके साथ उस जैसे ही दो और युवक थे।
“बाहर निकल, बहन . . .!” — जींस-टीशर्ट वाला कड़क के बोला।
विमल बाहर निकला।
अल्तमश ने भी बाहर निकलने की कोशिश की लेकिन विमल का सख़्त इशारा पाकर उसने कोशिश छोड़ दी।
“साले! अपने बाप से पंगे! जानता नहीं मैं कौन हूँ?”
“नहीं।” — विमल शांति से बोला — “नहीं जानता। तू जानता है मैं कौन हूँ?”
“कौन है? क्या बला है तू?”
“सुनेगा तो गश खा जायेगा।”
“साले, क्यों माशूक के सामने बेइज्जत होने को डोल रहा है?”
“कर बेइज्जत।”
“ठहर जा, साले। पहले तेरी लम्बी जुबान ही हलक से खींचता हूँ।”
उसका हाथ चला।
विमल ने हाथ को रास्ते में थाम लिया। अगले ही क्षण वो सड़क पर चार फुट परे लुढ़का पड़ा था।
उसके साथियों ने हैरानी से अपने धराशायी साथी को देखा, फिर नथुने फुलाते इकट्ठे उस पर झपटे।
उनका भी वही हाल हुआ।
फिर तीनों में से सबसे पहले जींस-टीशर्ट वाला उठ कर खड़ा हुआ। अब उसके हाथ में गन दिखाई दे रही थी।
गन से आश्वस्त दोनों साथी भी उछल कर अपने पैरों पर खड़े हुए।
जींस-टीशर्ट वाले ने करीब आ कर गन विमल की तरफ तानी और फुंफकारता-सा बोला — “अब बोल, माँ के . . .! गाड़ दूँ बुलेट?”
“पहले गन हैंडल करना सीख तो ले, भड़वे! सेफ़्टी लैच ऑन है।”
उसकी निगाह स्वयंमेव ही नीचे झुक गयी।
विमल की लात चली।
गन उसके हाथ से निकल कर हवा में ऊपर उछल गयी।
उसकी दोलत्ती चली।
वो भरभरा कर अपने साथियों पर गिरा, तीनों धराशायी हो गये।
विमल ने गन हवा में लपक ली। उसने गन उसकी तरफ तान दी।
तीनों भयभीत दिखाई देने लगे।
“उठो!” — विमल ने आदेश दिया।
तीनों सप्रयास उठ कर खड़े हुए।
“अब बोल! क्या नहीं जानता मैं? कौन है तू?”
उसने जवाब न दिया, उसके गले की घन्टी जोर से उछली।
वो रविवार का दिन था लेकिन सड़क पर मोटर ट्रैफ़िक की कोई कमी नहीं थी — अलबत्ता पैदल यात्री वहाँ कोई नहीं था — कई कार वालों ने वो नजारा देखा लेकिन किसी ने रुकने की कोशिश न की।
ऐसा ही स्थापित मिजाज था दिल्ली वालों का।
इन्वाल्वमेंट से हर कोई बचता था।
“बोल, भई!” — विमल गन वाले को घूरता पुरइसरार लहजे से बोला।
उसने मुँह खोला, बन्द किया, जोर से थूक निगली।
विमल ने उसके साथियों की तरफ देखा।
“एसीपी है।” — एक दबे स्वर में बोला।
“ये?” — विमल हैरानी से बोला।
“इसका डैड। नार्थ वैस्ट डिस्ट्रिक्ट का।”
“ओह! तो उसके दम पर उछलता है! खुद को एसीपी समझता है!”
कोई कुछ न बोला।
“ख़ैर! अच्छा है पुलिस वाला है। पुलिस वालों को ट्रेनिंग होती है फर्स्ट एड की।” — उसने गन वाले की तरफ देखा — “आके देगा तुझे।”
“क-क्या!” — इस बार बड़ी मुश्किल से वो बोल पाया।
“हड्डी जोड़ लेगा न तब तक के लिये जब तक कि तू हस्पताल नहीं पहुँचाया जाता!”
“ह-हड्डी!”
“अभी तोड़ूँगा न तेरी! बुलेट गाड़ के, तेरी जुबान में।”
उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगीं।
“तू भी तो यही करने वाला था। मैं तो हड्डी ही तोड़ के सब्र कर लूँगा, तू तो शायद मुझे मार ही डालता। किसलिये? क्योंकि तेरे हुक्म पर मैंने लाल बत्ती जम्प करना मंजूर न किया। क्योंकि तेरा किसी कायदे कानून पर कोई एहतराम नहीं। क्योंकि तेरा डैड खुद कायदे कानून का रखवाला है। ठीक?”
उसके मुँह से बोल न फूटा।
“अभी डैड यहाँ प्रकट भयेगा और तुझे डैड होने से बचा लेगा। ठीक!”
ख़ामोशी।
“ये गन . . . लाइसेंस है?”
उसने जवाब न दिया।
विमल ने गन की नाल से उसकी नाक की हड्डी पर दस्तक दी।
वो पीड़ा से बिलबिला गया।
“जवाब दे!” — विमल का स्वर हिंसक हुआ।
“न-नहीं!”
“एसीपी का बेटा! नहीं जानता कि अनलाइसेंस्ड फायरआर्म्स का पोजेशन गम्भीर अपराध है! या जानता है लेकिन परवाह नहीं करता क्योंकि सैंया भये कोतवाल। नो?”
उसने जवाब न दिया।
“मैं” — विमल उसके साथियों से बोला — “इसकी टाँग तोड़ने लगा हूँ। हस्पताल यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है। ले के जाना।”
दोनों बद्हवास दिखाई देने लगे।
“तूने मेरी उँगली के नाख़ून को भी छुआ” — एकाएक फरजन्द-ए-एसीपी में पता नहीं कहाँ दिलेरी आ गयी — “तो मेरा बाप तुझे जिन्दा नहीं छोड़ेगा।”
“अच्छा करेगा।” — विमल उदासीन भाव से बोला — “मैं खुद इस वाहियात, नामुराद जिन्दगी से बेजार हूँ जिसमें मेरी औकात तुम्हारे जैसे मोरी के कीड़ों जितनी भी नहीं है।”
किसी के मुँह से बोल न फूटा।
“तू कहता है तेरा बाप मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेगा। मैं कहता हूँ कि जिम्मेदार, गैरतमन्द, इंसाफपसंद बाप होगा तो तेरे जैसी औलाद को जिन्दा नहीं छोड़ेगा जो आये दिन अपनी ऐसी ही हरकतों से उसकी वर्दी को दाग़दार करती है। या पेड़ और बीज दोनों एक ही जैसे हैं?”
“तू नहीं बच सकेगा। मैंने तेरी कार का नम्बर याद कर लिया है . . .”
विमल ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई।
“रस्सी जल गयी” — वो बोला — “बल नहीं गया। कोई सबक देना पड़ेगा तुझे।”
विमल ने घूमकर अल्तमश को इशारा किया, वो कार से निकल कर विमल के करीब पहुँचा तो विमल ने उसके कान में कुछ कहा।
अल्तमश ने सहमति में सिर हिलाया, वो वापिस जाकर बैग में से उस्तरा निकाल लाया। वो उन तीनों के सामने जा खड़ा हुआ और उस्तरा खोल कर उसकी धार परखने लगा।
तीनों अपने एकाएक सूख आये होंठों पर जुबान फेरने लगे।
“गैरतमन्द मर्द की नाक की बहुत महिमा होती है।” — विमल बोला — “किसी को गंवारा नहीं होता कि उसकी नाक नीची हो जाये। नाक इतनी नीची हो जाये कि पाँव का अँगूठा छूने लगे तो कहर है। तुम खड़े हो, कैसे तुम्हारी नाक पाँव का अँगूठा छूने लगेगी, समझ में आया?”
अब तीनों की सूरतें कागज की तरह सफेद निकल आयीं।
“यानी कि आया। लेकिन तुम्हें क्या परवाह होगी! तुम कोई गैरतमन्द मर्द थोड़े ही हो! या हो?”
किसी के मुँह से बोल न फूटा।
“चल, भई” — गहरी साँस लेता विमल बोला — “शुरू कर अपना सर्जीकल स्ट्राइक।”
अल्तमश ने सहमति में सिर हिलाया, उसका उस्तरे वाला हाथ सीधा हुआ।
“रहम!” — एकाएक गन वाले के दोनों साथी बिलखते से बोले — “रहम!”
“क्यों?” — विमल के माथे पर बल पड़े।
“हमने कुछ नहीं किया।” — एक बोला।
“आप जानते हैं हमने कुछ नहीं किया।” — दूसरा बोला।
“करने को आमादा बराबर थे।”
“नहीं।”
“तभी जब वो आगबगूला मेरे सामने आकर खड़ा हुआ था तो तुम उसके दायें बायें मौजूद थे।”
“महज साथी का साथ देने के लिये। हमें नहीं मालूम था ये क्या करने जा रहा था।”
“गन की तो” — दूसरा दयनीय स्वर में बोला — “हमें कतई कोई ख़बर नहीं थी।”
“ये गन इस्तेमाल करता तो इसके गुनाह में तुम बराबर के शरीक माने जाते। टु एड एण्ड अबैट ए क्राइम इज ऑलसो ए क्राइम।”
“हम शर्मिन्दा हैं। हमें इस बार माफ कर दीजिये, आइन्दा हम ऐसी सोहबत ही छोड़ देंगे।”
“सुन लिया?” — विमल गन वाले से बोला — “अब तू उनके लिये छूत की बीमारी है, जो अभी थोड़ी देर पहले तेरे जिगरी थे।”
गन वाले की सूरत ने कई रंग बदले।
“अब इनको बोल — ‘सालो, जानते नहीं हो मेरा बाप कौन है’। ये डरकर फिर तेरे सगे बन जायेंगे।”
उसने मुँह न खोला।
“तेरा बाप एसीपी है तो उसमें तेरा कोई कमाल नहीं है। अपने में कोई कमाल पैदा कर। फिर अकड़ना।”
उसका सिर झुक गया।
“सिर क्यों झुकाता है? तेरे हाथ में तो ताकत है! तुझे मेरी कार का नम्बर याद है . . .”
“नहीं याद!” — वो होंठों में बुदबुदाया।
“. . . जिसके जरिये एसीपी साहब चुटकियों में मुझे खोज निकालेंगे और औलाद की आन बान शान बरकरार रखने के लिये मुझे सूली पर टाँग देंगे। है न!
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“नहीं! जाके आपबीती नहीं सुनायेगा अपने डैड को। अपनी करतूत पर पर्दा डाल कर एक की आठ लगा कर भड़कायेगा नहीं बाप को तेरी हत्तक का बदला लेने के लिये कुछ कर गुजरने के लिये?”
उसने फिर इंकार में सिर हिलाया।
“मुँह से बोल।”
“न-नहीं।”
“अपनी करतूत पर शर्मिन्दा है!”
“ह-हाँ।”
“सॉरी बोल।”
“सॉरी!”
विमल ने उसके साथियों की तरफ देखा तो दोनों सम्वेत स्वर में सॉरी बोले।
विमल ने अनुमोदन में सिर हिलाया। उसने गन में से गोलियाँ निकाल कर एक-एक करके जितनी दूर फेंकी जा सकती थीं, फेंक दीं और गन गन के मालिक को लौटा दी।
उसके चेहरे पर सख़्त हैरानी के भाव आये, झिझकते हुए उसने गन थामी।
“बच्चे इन चीजों से नहीं खेला करते” — अल्तमश अपनी महीन आवाज को थोड़ा भारी कर के ड्रामेटिक अन्दाज से बोला — “चल जाये तो ख़ून निकल आता है।”
कोई कुछ न बोला।
“जाओ।” — विमल बोला।
कोई न हिला — जैसे यक़ीन न आ रहा हो कि उन्हें जाने दिया जा रहा था।
“अरे, जाओ, भई। जहाँ पहुँचना था, पहुँचो। देर हो रही होगी।”
तीनों झिझकते हुए घूमे और भारी कदमों से चलते ‘ऑल्टो’ की तरफ बढ़े।
‘ऑल्टो’ के रवाना होते तक विमल और अल्तमश सड़क पर ही खड़े रहे।
फिर दोनों कार में सवार हुए।
“एक मिनट।” — अल्तमश अपनी मर्दाना आवाज में बोला — “एक मिनट रुकिये।”
इग्नीशन ऑन करने को आमादा विमल ने हाथ रोक दिया, उसने गर्दन घुमाकर सवालिया निगाह अल्तमश पर डाली।
“अकेले!” — अल्तमश मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला — “तीन से भिड़ गये! पलक झपकते तीनों को धूल चटा दी!”
“तो?”
“एक ने गन तानी तो वैसे ही चुटकियों में गन खुद कब्जा ली!”
“अरे, तो?”
“कैसे किया?”
“बस, हो गया।”
“कैसे किया?”
“अरे, सब देख तो रहा था तू!”
“हाँ, देख रहा था। वो तीन, आप एक। वो हथियारबन्द, आप निहत्थे; फिर भी ख़ौफ न खाया!”
“मेरे मजहब में ख़ौफ खाना बुजदिली का ही दूसरा नाम है।”
“आप कोई मामूली आदमी नहीं हैं। मेरा दिल गवाही देता है आप कोई मामूली आदमी नहीं हैं। कौन हैं आप?”
“मैं हूँ खुदा का एक गुनहगार बन्दा जो अपने बनाने वाले से अपने गुनाह बख़्शवाने का तमन्नाई है।”
“आप कमाल के हैं। मैंने कभी आप जैसा आदमी नहीं देखा। बेख़ौफ! बेखतर! बेधड़क! बेरिया! जब आप इन तीनों से रूबरू थे तो आपकी सूरत पर ऐसा जलाल था कि देखते ही बनता था। जब उस छोकरे ने आप पर गन तानी थी, तो आपकी आँखों से मुझे कहर बरसता लगा था। मेरा दिल गवाही देने लगा था कि उस नादान ने आप पर गन तान कर अपनी मौत का सामान किया था। फिर कितना रहमदिल बनकर दिखाया कि उन बद्तमीज, बद्अखलाक, बद्जात छोकरों को सस्ते में छोड़ दिया। सच बताइये, कौन हैं आप?”
“इक लपकता हुआ शोला हूँ मैं। इक चमकती हुई तलवार हूँ मैं।”
“बेशक आप हैं लेकिन . . .”
“अरे, मजाक किया मैंने।”
“लेकिन . . .’
“छोड़ लेकिन। तू ये बता, अपनी राय दे, लड़का कहता था उसने मेरी कार का नम्बर याद कर लिया था। क्या उसके आसरे वो कोई पंगा करने की कोशिश करेगा?”
“मुझे उम्मीद नहीं।”
“क्यों?”
“बहुत डरा हुआ था। जो फर्जी दिलेरी दिखा रहा था, उसकी नुमायश आपके लिये नहीं, उसके साथियों के लिये थी जिनके सामने उसकी किरकिरी हो रही थी।”
“ठीक।”
“फिर भी दिखायेगा तो पछतायेगा।”
“क्यों भला?”
“मैंने अपने मोबाइल कैमरे पर उसकी करतूत रिकॉर्ड कर ली है।”
“करतूत!”
“जब उसने गन निकाल कर आप पर तानी थी।”
“तूने वो सब रिकॉर्ड कर लिया!”
“हाँ।”
“बड़ी दूरन्देशी दिखाई!”
“अब वो कोई पंगा करेगा तो पहले उसे इस बात की सफाई देनी होगी कि क्यों सरेराह वो किसी पर गन तान रहा था और उसे जान से मार देने की धमकी दे रहा था! क्यों उसके पास गैरलाइसेंसी गन थी!”
“कमाल किया, यार, तूने! दिखा।”
अल्तमश ने अपने मोबाइल पर की रिकार्डिंग उसे दिखाई।
“गुड!” — विमल बोला — “इसे मेरे को फारवर्ड कर और खुद भी इसे महफूज रखना।”
अल्तमश ने सहमति में सिर हिलाया।
विमल ने इग्नीशन ऑन किया और कार आगे बढ़ाई।
“इस मुल्क में बद्अमनी बढ़ती जा रही है।” — रास्ते में विमल संजीदगी से बोला — “होस्टिलिटी, असहिष्णुता बढ़ती जा रही है और टॉलरेंस, बर्दाश्त, घटती जा रही है। जाबर का जोर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। जिसके हाथ में ताकत आ जाती है, वो उसे वाजिब-गैरवाजिब तरीकों से आजमाने से बाज नहीं आता। ऐसे माहौल में कमजोर क्या करे?”
“क्या करे?” — अल्तमश ने संजीदगी से पूछा।
“दो ही रास्ते हैं उसके सामने। या तो वो ताकतवर से बच के रहे या उससे ज्यादा ताकतवर बन कर दिखाये।”
“आप कौन हैं? सच बताइयेगा। कमजोर या ताकतवर!”
“कमजोर।”
“तो आप कौन-सा रास्ता अखि़्तयार करते हैं?”
“दोनों। मेरी कोशिश ताक़तवर से बच के रहने की होती है। लेकिन कभी-कभी हालात ऐसे बन जाते हैं कि ताकतवर से ज्यादा ताकतवर बनकर दिखाना पड़ता है।”
“जैसे अभी पीछे बने! गन की ताकत को ख़ातिर में न लाये!”
“यही समझ लो।”
“यहाँ रोक दीजिये।”
उसके निर्देशानुसार विमल ने मंडी हाउस के सामने फुटपाथ से लगा कर कार रोकी।
“लिफ्ट का शुक्रिया।” — अल्तमश बोला।
विमल ने मुस्करा कर शुक्रिया कुबूल किया।
अल्तमश ने अपने बैग का मुँह खोलकर उसमें हाथ डुबोया और बाहर निकाला।
“ये . . .” — वो बोला।
विमल ने देखा अल्तमश उसकी तरफ पाँच-पाँच सौ के दो नोट बढ़ा रहा था।
वही नोट जो उसे मुबारक अली से हासिल हुए थे।
“ये क्या?” — विमल बोला।
“जनाब” — उसकी आवाज भर्रा गयी — “मैं आपकी हर खि़दमत करूँगा लेकिन उजरत हासिल करके नहीं।”
“अरे, ये उजरत नहीं है, सहयोग का शुक्रिया है।”
“मुझे शुक्रिया कुबूल है — दरकार उसकी भी नहीं है, जरूरी वो भी नहीं है, लेकिन कुबूल है। मैं आपसे बहुत मुतास्सिर हुआ। अगर आप मेरा, मेरे जज्बात का मान रखना चाहते हैं, तो ये वापिस कुबूल फरमाइये।”
“अरे, तुम्हें इसकी जरूरत है। हमारे लिये अपना वक्त ज़ाया किया तुमने। इसकी कोई कम्पेंसेशन होनी चाहिये या नहीं?”
“वो कम्पेंसेशन ये है कि मुझे आपके इतनी करीब बैठने की इज्जत हासिल हुई।”
“अरे, ये हजार हैं, तुम्हें तो अभी हजारों . . . हजारों मिलने हैं।”
“मैं माँग के लूँगा। मुझे दाता को पहचानना आता है। मुझे मालूम है नौबत आयेगी तो सवाली को नाउम्मीद नहीं होना पड़ेगा। जनाब, करम कीजिये, कबूल फरमाइये।”
मशीनी अन्दाज से विमल ने नोट थामे।
एक हिजड़ा — बेतहाशा जरूरतमन्द हिजड़ा — उससे इस कदर मुतास्सिर हुआ था।
ऐसा ही जहूरा था विमल का, जिससे वो खुद पूरी तरह से वाकिफ नहीं था।
आईन्दा तीन दिन विमल ने मुतवातर अमित गोयल पर निगाह रखी।
तीनों ही दिन उसकी शाम किसी बार में या किसी डिस्को में दोस्तों के साथ गुजरी। तब सिर्फ एक बार वो अपने सहआरोपी विकास जिंदल के साथ, और अरमान त्रिपाठी के साथ दिखाई दिया वर्ना हर बार उसके तफरीहबाज ग्रुप में उसे नयी सूरतें दिखाई दीं और हर बार आधी रात के कहीं बाद महफिल बखऱ्ास्त हुई।
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