हर तरफ जश्न का माहौल था।

जिधर देखो, वहाँ रोशनियाँ चमकती नज़र आ रही थीं। मेले जैसा आलम था। राजा का महल अन्दर-बाहर से तेज रोशनियों से चमक रहा था।

नये राजा सुनार सिंह को तख्त पर बिठाया गया था। राजा के रूप में हर किसी ने उसे खुशी से कबूल किया था। एक बात तो ये थी कि राजा केशोराम से पीछा छुड़ाकर हर कोई खुश था। उस जैसे जुल्मी राजा को भला कौन पसन्द करता। सुनार सिंह ने मोना चौधरी के आदेश पर राजा बनने के साथ-साथ ही ढोल पिटवा दिया था कि राजा सुनार सिंह हर सुबह सड़कों-रास्तों पर घूमने निकला करेगा। जिसे भी किसी तरह की परेशानी हो, वो महल में आकर कहे अथवा रास्ते में भी कह सकता है। दूसरी खास ये बात ढोल पर पिटवाई गई कि हर घर से, बारी-बारी राजा का खाना महल में आयेगा। सादा खाना। राजा सुनार सिंह रात को प्रजा के किसी घर से आया सादा भोजन ही किया करेंगे।

ये सब मोना चौधरी के कहने पर सुनार सिंह ने प्रजा का विश्वास जीतने के लिये किया था।

सुनार सिंह की माँ सुन्दरी के पाँव तो खुशी से जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

महल के एक कमरे में मोना चौधरी और सुनार सिंह मौजूद थे।

“कहो सुनार सिंह।” मोना चौधरी मुस्कराकर बोली-“अब तुम्हें यहाँ से भागना नहीं पड़ेगा।”

“ये सब तुम्हारी मेहरबानी से हुआ है।” सुनार सिंह का चेहरा खिला हुआ था।

“मैंने तुम्हारे लिये कुछ नहीं किया। राजा केशोराम को तो मैंने अपने बचाने की खातिर मारा है। उसके बाद किसी को यहाँ का राजा भी बनाना था। मैं तो राजकुमारी बन नहीं सकती। ऐसे में तुम्हें राजा बना दिया।”

“मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि तुमने मुझे जमीन से उठाकर आसमान पर बिठा दिया।”

“अब तुम्हें ये सोचना है कि तुम कैसे राजा बनना चाहते हो।” मोना चौधरी ने गम्भीर स्वर में कहा।

“मैं समझा नहीं।”

“राजा केशोराम की तरह बुरा राजा बनना चाहते हो या अच्छा राजा?”

“मैं अच्छा राजा बनूंगा।”

“अच्छा राजा तुम्हें बनना ही पड़ेगा सुनार सिंह।” मोना चौधरी अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठी-“अब तुम्हारे कर्म ही तुम्हें बचाएँगे। अच्छे काम करोगे तो बचे रहोगे। बुरा करोगे तो कोई भी तुम्हारी जान ले लेगा।”

“मैं बुरा काम नहीं करूँगा।”

“सुन लो सुनार सिंह। तुम्हें समझाना जरूरी है।” मोना चौधरी कह उठी-“केशोराम बुरे कर्म करके भी इसलिये बचा रहा कि उसके पास सौदागर की शक्ति थी-अंगूठी के रूप में। उस पर किसी तरह की शक्ति का असर नहीं हो सकता था। सौदागर सिंह की शक्ति उसे बचा लेती थी। परन्तु तुम्हारे पास बचने की कोई शक्ति नहीं। तुम्हारे कर्म ही तुम्हें बचाये रखेंगे। किसी का बुरा मत करना। किसी को दुःख मत देना।”

सुनार सिंह ने मोना चौधरी को देखते हुए हौले से सिर हिलाया।

“सबका भला करो। यही जीवन है। बहुत आनन्द मिलेगा।”

“मैं ऐसा ही करूँगा। मगर तुम अंगूठी मुझे दे दो, जिसे केशोराम ने पहन रखा था तो...।”

“सौदागर सिंह की वो अंगूठी नहीं दे पाऊँगी सुनार सिंह।”

मोना चौधरी ने इन्कार में सिर हिलाया।

“क्यों?”

मोना चौधरी के चेहरे पर गम्भीरता के भाव छा गये थे।

“इसीलिये कि मैं इस वक्त सौदागर सिंह के चक्रव्यूह में फंसी पड़ी हूँ। चक्रव्यूह के धोखे मुझे बाहर नहीं निकलने देंगे। अगर ये अंगूठी मेरे पास रहेगी तो सौदागर सिंह की चक्रव्यूह में फैली कोई भी शक्ति मेरा अहित नहीं कर सकेगी। चक्रव्यूह के रास्ते खुलते चले जायेंगे मेरे लिये। चक्रव्यूह का हर ताला टूट जायेगा, जहाँ मैं पांव रखूँगी।”

“ऐसा कैसे हो सकता है।” सुनार सिंह के होंठों से निकला।

“साधारण सी बात है सुनार सिंह। इस अंगूठी में सौदागर सिंह ने अपनी शक्तियाँ डाल रखी हैं कि जो इस अंगूठी को पहने रहेगा, उसकी रक्षा करेंगी शक्तियाँ। ऐसे में चक्रव्यूह में फैली सौदागर सिंह की शक्तियाँ, अंगूठी पहनने वाले का बुरा नहीं कर सकेंगी। मैंने अभी चक्रव्यूह में आगे तक जाना है। शक्तियों से भरी इस अंगूठी की जरूरत है मुझे।”

सुनार सिंह सिर हिलाकर रह गया।

“मैं चलूंगी अब सुनार सिंह।”

सुनार सिंह ने मोना चौधरी को देखा। आँखों में आंसू चमक उठे।

“ये दुःख मुझे हमेशा रहेगा कि मैं तुमसे ब्याह न कर सका।” सुनार सिंह ने भारी स्वर में कहा।

“हम एक-दूसरे के लिये हैं ही नहीं। तुम सौदागर सिंह की शक्ति की रचना हो। वो जब चाहेगा, तुम्हें खत्म कर देगा। मैं भगवान की बनाई रचना हूँ। हमारी दुनिया अलग-अलग हैं।” मोना चौधरी मुस्करा कर कह उठी-“ऐसे में दुःख को पास आने देना गलत बात है। सच को ग्रहण करना चाहिये।”

सुनार सिंह कुछ न कह सका। गीली आँखों से मोना चौधरी को देखता रहा।

“ये बताओ कि बहता पानी किस दिशा में मिलेगा?”

“बहता पानी?”

“हां। मुझे बहते पानी की तरफ जाना है। वो किस दिशा में है?”

“मैं तुम्हें वहां छोड़ देता हूँ। आओ...।”

“तुम्हारे साथ जाने की जरूरत नहीं सुनार सिंह। मुझे सिर्फ रास्ता बता दो। तुम अपनी दुनिया में व्यस्त हो जाओ। मैंने अपने रास्ते पर, अकेले ही आगे बढ़ना है। सिर्फ मेरे कर्म मेरे साथ होंगे।”

मोना चौधरी के धीमे स्वर में दृढ़ता भरी हुई थी।

“ठीक है। चले जाना। परन्तु कुछ दिन ठहर जाओ। मैं तो...।”

“नहीं सुनार सिंह।” मोना चौधरी ने इन्कार में सिर हिलाया-“अभी मुझे बहुत काम करने हैं। वक्त नहीं है मेरे पास। क्या तुम बता सकते हो कि चक्रव्यूह में आत्माओं को कैद रखने की जगह कहाँ है?”

“नहीं। इस बात की मुझे कोई खबर नहीं।”

“अच्छी बात है। तुम मुझे रास्ता बताओ कि किस दिशा में बहता पानी है। मैं यहां से चल देना चाहती हूँ।”

☐☐☐

भोर का उजाला फैलते ही मोना चौधरी को पानी बहने की आवाज सुनाई देने लगी। सामने की तरफ से ही आवाज आ रही थी। उधर मैदानी इलाका था। जिस जंगल में वो चल रही थी, वो पीछे छूटने लगा था।

जंगल समाप्त होते ही आगे मैदानी जगह दिखाई देने लगी। वहीं से गहरी खाई नज़र आई उसे। वहीं से पानी के बहने-टकराने की तेज आवाजें कानों में पड़ रही थीं। पास जा पहुँची वो।

सौ फीट चौड़ाई के करीब वो बहती नदी थी। स्वच्छ-निर्मल जल रफ्तार के साथ बहता नजर आ रहा था। पानी इतना साफ था कि उसका तल तक शीशे की तरह चमकता महसूस हो रहा था बीच में और किनारे पर पड़े बड़े-बड़े पत्थरों से, बहते पानी के टकराने का शोर उठ रहा था। इधर से आकर उधर जा रही थी वो नदी। न उसके आने की जगह मालूम थी और न उसके पहुँचने का ठिकाना पता था।

मोना चौधरी ने दूर-दूर तक निगाह मारी।

हर तरफ सुनसानी और चुप्पी थी। कोई न दिखाई दिया। नदी के पानी का शोर ही वहाँ था।

सुनार सिंह के महल से मोना चौधरी अंधेरा होने के तीन घंटे पश्चात, निकल आई थी। सुनार सिंह ने एक दिशा बता कर कहा था कि इधर तब तक चलना है, जब तक कि बहती नदी न दिखाई दे जाये। उसने बताया था कि नदी तक पहुँचने में कई घंटे लग सकते हैं और यही हुआ। सुबह की रोशनी फैलने पर वो नदी तक आ पहुंची थी।

कुछ पल रूकने के पश्चात मोना चौधरी आगे बढ़ी और नदी में उतरती चली गई, जिसने इस जगह पर नाले का रूप ले रखा था। किनारे से कुछ भीतर पहुँचकर मोना चौधरी रुकी। पिंडलियां पानी में डूबती-सी नज़र आ रही थीं। पानी के तेज थपेड़े, पिंडलियों से टकरा रहे थे। ठण्डक थी पानी में।

मोना चौधरी ने दोनों हाथ जोड़े और आँखें बंद करके बुदबुदा उठी।

“पानी के देवता को मेरा प्रणाम।” उसके साथ ही मोना चौधरी ने आँखें खोलीं।

मिनट भर बीत गया। कुछ नहीं हुआ। जबकि पानी के देवता ने कहा था कि वो जब उसे याद करेगी, हाजिर हो जायेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। सोचो और उलझन में फंसी मोना चौधरी पानी से बाहर निकलने की सोच रही थी कि पानी के देवता की आवाज उसके कानों में पड़ी तो इधर-उधर नज़रें घुमाने लगी।

“मुझे याद किया मिन्नो।”

“हां।” मोना चौधरी कह उठी-“तुम मुझे चक्रव्यूह के ऊपरी तल में पहुँचाने को कह रहे थे।”

“कहा था।”

“मुझे ऊपरी तल में पहुँचाओ।”

“अब क्यों तैयार हो गईं। पहले मेरी बात क्यों नहीं मानी?” पानी के देवता की आवाज सुनाई दी।

“तब वक्त नहीं था तुम्हारी बात मानने का।”

“मैं सब जानता हूँ।” पानी के देवता की आवाज में हंसी शामिल हो गई थी।

“क्या कहना चाहते हो?

“तुम मुझ पर शक कर रही थीं कि कहीं मैं तुम्हें गहरे चक्रव्यूह में न फंसा दूं।”

“ऐसा ही समझ लो।” मोना चौधरी शांत थी।

“अब तेरा शक इसलिये समाप्त हो गया कि तेरे पास राजा केशोराम की उंगली में पड़ी अंगूठी आ गई। सौदागर सिंह की शक्ति से भरी अंगूठी। जब तक वो अंगूठी तेरे पास रहेगी, चक्रव्यूह में तेरे को नुकसान नहीं हो सकता। इसलिये तूने मेरी बात मानने में अब कोई हर्ज़ नहीं समझा।” पानी के देवता का शांत स्वर सुनाई दे रहा था।

“ठीक समझे तुम।” मोना चौधरी बोली-“क्या तुम मुझे चक्रव्यूह की ऊपरी सतह पर पहुँचा सकते हो?”

“हां। मैंने पहले भी सच कहा था और अब भी सच कहता हूँ कि मैं तुम्हें कोई धोखा नहीं दे रहा था।”

“धोखा देना चाहो तो अब दे नहीं सकोगे।” मोना चौधरी बोली-“अंगूठी मेरी उंगली में है। तुम मेरा बुरा नहीं कर सकोगे।”

“तुम्हें चक्रव्यूह की ऊपर सतह में पहुँचा दूं।”

“अवश्य।” मोना चौधरी ने कहा-“क्या तुम जानते हो कि चक्रव्यूह में शैतान ने आत्माओं को कहाँ कैद कर रखा है?”

“जानता हूँ।”

“मुझे वहाँ पहुँचा सकते हो?”

“नहीं।”

“क्यों?”

“तुम पानी की जिस सतह पर हो, इससे ऊपरी सतह पर ही तुम्हें पहुँचा सकता हूँ। कहीं और नहीं पहुंचा सकता। वो मेरे कार्य की हद में नहीं है।” पानी के देवता का शांत स्वर उसके कानों में पड़ा।

“अच्छी बात है। तुम मुझे वहाँ तक का रास्ता तो बता सकते हो, जहाँ आत्मा कैद करके रखी गई है।”

“ये बताना भी मेरे कार्य क्षेत्र से बाहर है। मैं सिर्फ पानी से वास्ता रखती बातें ही बता सकता हूँ।”

“ठीक है, तुम मुझे चक्रव्यूह की ऊपर सतह में पहुंचा दो।”

“खुद को पानी में छिपा लो। तब मैं तुम्हें चक्रव्यूह की ऊपरी सतह में पहुंचा देता हूँ, जहाँ से तुम आई हो।”

मोना चौधरी नीचे झुकी और खुद को पानी में भिगो लिया।

उसी पल मोना चौधरी को ऐसा लगा जैसे किसी ने बाँह पकड़ कर उसे खींचा हो। वो तेजी से भीतर समाती चली गई। पानी में ऐसा अंधेरा था कि उसे कुछ भी कर न आया। खुद को अन्जानी पकड़ से आजाद करवाना चाहा, परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। तभी उसे ऐसा लगा जैसे पानी से भरे किसी तंग रास्ते से गुजर रही हो। अपने शरीर पर मोना चौधरी का जब बस नहीं चला तो उसने खुद को ढीला छोड़ दिया। मन में ये विचार भी उठा कि कहीं वो चक्रव्यूह के किसी जाल में तो नहीं फंस गई। सौदागर सिंह की शक्तियों से भरी अंगूठी झूठी तो नहीं? जो भी हो, अब कुछ भी नहीं हो सकता था।

तभी मोना चौधरी की आँखें तीव्र रोशनी में चौंधिया गईं।

पानी के अंधेरे से भरे रास्ते से वो बाहर आ गई थी। कुछ पलों तक आँखें बंद होने के बाद उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। तीव्र धूप फैली हुई थी। दोपहर का वक्त जैसा मौसम था। सूर्य सिर पर था। सामने बहुत ही बड़ा विशाल महल था। महल के तक बाहरी हिस्से से बड़े से नाले के रूप में स्वच्छ पानी बह रहा था। उसी में से मोना चौधरी बाहर निकली थी। अभी भी वो कमर एक पानी में डूबी थी। अन्जानी पकड़ से खुद को आजाद महसूस कर रही थी। मोना चौधरी खुद को इस माहौल से वाकिफ कराने का प्रयत्न करने लगी।

“पहुँच गई मिन्नो।”

“ये चक्रव्यूह की ऊपरी सतह है?”

“हाँ। जिस सतह से तुम कुर्सी पर बैठकर नीचे गई थीं, अब तुम उसी सतह पर हो।” पानी के देवता की आवाज सुनाई दी।

“ओह। मैं पानी से बाहर निकल सकती हूँ?”

“अवश्य। तुम्हें जब भी मेरी आवश्यकता पड़े, बहते पानी के पास पहुँच कर मुझे याद कर लेना।”

मोना चौधरी ने सिर हिलाया और पानी से बाहर आकर, गीले हो चुके कपड़ों को झाड़ने लगी। साथ ही वो इधर-उधर देखती जा रही थी। फिर उसने भरपूर निगाहों से महल को देखा। महल बहुत ही विशाल था। उसकी चारदीवारी बीस-पच्चीस फीट ऊँची थी। बाहर और भीतर की दीवारों का रंग गुलाबी था। दो मंजिला महल था। तीखी धूप में तपता-सा लग रहा था वो। जिन खिड़कियों के शीशे पर धूप पड़ रही थी। वहाँ से तीव्र चमक उभर रही थी। आँखें चौंधिया रही थीं।

मोना चौधरी समझ नहीं पाई कि इस महल में कौन रहता होगा?

सौदागर सिंह के चक्रव्यूह का हिस्सा है ये महल।

यकीनन इस महल में कोई नई मुसीबत खड़ी होगी। जो भी भीतर जायेगा, वो फंसेगा। परन्तु भीतर जाये बिना रहा भी नहीं जाता। मन में ये रहेगा कि महल के भीतर है क्या?

मोना चौधरी ने पैंट की कमर में फंसे खंजर को छू कर देखा। वो अपनी जगह सही-सलामत था। उसने गीले कपड़ों को एक बार फिर झाड़ा और ये बात तय करने की चेष्टा करने लगी कि भीतर जाये कि नहीं? तभी वो चौंकी। उसकी आँखें सिकुड़ती चली गईं। नज़रें आसमान में नज़र आ रही, किसी हिलती चीज पर थीं।

मोना चौधरी देखती रही, आसमान की तरफ।

आसमान में हिलती चीज नीचे आ रही थी। उसका आकार बड़ा होता जा रहा था।

दूसरे ही पल मोना चौधरी की सिकुड़ी आँखें फैलती चली गईं। उसकी आँखें, उसका मस्तिष्क धोखा नहीं खा सकती थीं। वो-वो भामा परी ही लगी थी मोना चौधरी को।

भामा परी और यहाँ?

चेहरे पर अजीब से भाव समेटे भामा परी को देखे जा रही थी। जो कि पहले महले के भीतर की तरफ जा रही थी कि एकाएक दिशा बदली और उसकी तरफ आने लगी थी। देखते ही देखते भामा परी पंख फैलाते उसके करीब आ पहुँची और धीरे-धीरे उसके सामने उतरकर, जमीन पर खड़ी हो गई। फिर उसने अपने पंख समेट लिए। चेहरे पर हल्की मुस्कान नज़र आ रही थी।

मोना चौधरी अभी तक हैरानी भरी हालत में थी। खुद पर काबू पाने की चेष्टा करने लगी। वो सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि यहाँ भामा परी से उसकी मुलाकात हो सकती है। इसे तो काला महल के भीतर छोड़कर आई थी। ऐसे में इसका यहाँ मिलना, सच में आश्चर्य में डाल देने वाली बात थी।

“मोना चौधरी।” भामा परी का शांत-मधुर स्वर उसके कानों में पड़ा।

मोना चौधरी ने गहरी सांस ली।

“तुम्हें यहाँ देखकर मुझे हैरानी हो रही है भामा परी।” चाहते हुए मोना चौधरी ने हौले से सिर हिलाया।

“हैरान तो मैं भी हूँ।” भामा परी ने कहा-“मुझे तो मालूम हुआ था कि तुम देवराज चौहान की आत्मा लेने गई हो, पेशीराम की आत्मा के साथ। ऐसे में तुम यहाँ कैसे?”

“तुमने ठीक कहा कि मैं देवराज चौहान की आत्मा लेने गई थी। अब भी उसी प्रयास में हूँ।”

“कुछ देर पहले तो तुम यहाँ नहीं थीं।”

“मैं अभी यहाँ पहुँची हूँ भामा परी-। इस बहते पानी से निकली हूँ।” मोना चौधरी ने कहा।

“बहते पानी से?”

“हाँ। मैं चक्रव्यूह के भीतर हिस्से में पहुँच गई थी। परन्तु किसी तरह वापस इस हिस्से में आ गई।”

“मुझे बताओ मोना चौधरी-क्या हुआ तुम्हारे साथ?”

मोना चौधरी ने भामा परी को सब कुछ बताया।

सुनकर भामा परी गम्भीर स्वर में कह उठी।

“पेशीराम की आत्मा वापस आकर परेशान हो गई होगी कि तुम वहाँ नहीं हो।”

“मेरे बस में कुछ नहीं। चाँदी की उस कुर्सी ने धोखे में मुझे चक्रव्यूह के भीतरी तल में पहुंचा दिया था और अब पानी के देवता ने मुझे यहाँ से, इस बहते पानी से यहाँ पहुँचा दिया। मुझे वहाँ न पाकर पेशीराम की आत्मा अवश्य परेशान हो रही होगी।” मोना चौधरी ने गम्भीर स्वर में कहा-“लेकिन तुम यहाँ कैसे आ गईं भामा परी?”

भामा परी ने बताया कि वो और अन्य यहीं पर हैं।

“मुझे तो लगता है चक्रव्यूह में शायद कोई न बचे।” भामा परी व्याकुल हो उठी थी।

“क्या मतलब?”

भामा परी ने पार्वती और जानकीदास के बारे में सब बातें बताकर कहा।

“मुझे समझ नहीं आता कि प्रेमा ने सरजू, दया और पार्वती को क्यों मार दिया और खुद कहाँ चली गई।”

चेहरे पर अजीब से भाव समेटे मोना चौधरी की आँखें सिकुड़ गईं।

“क्या नाम लिया तुमने। पार्वती-जानकीदास।”

“हाँ।” भामा परी ने सिर हिलाया।

मोना चौधरी मस्तिष्क में पेशीराम की आत्मा की बताई बातें घूम रही थी कि नगीना को पार्वती नाम की औरत और जानकीदास ने ही फंसा कर, चक्रव्यूह के भीतरी हिस्से में धकेल दिया था। दोनों सौदागर सिंह के सेवक हैं, जो चक्रव्यूह में प्रवेश करने वाले को और भी बुरी तरह फंसा देते हैं।

“तुम किन सोचों में डूब गईं मोना चौधरी?”

भामा परी की आवाज सुनकर मोना चौधरी सोचों से बाहर निकली।

“कुछ नहीं।” मोना चौधरी गम्भीर थी-“जानकीदास महल के भीतर है।”

“हाँ। सब महल के आंगन में हैं। जानकीदास भी उनके साथ ही है। लेकिन तुम ये क्यों पूछ रही हो?”

“यूँ ही।” मोना चौधरी ने बात टाल दी-“आओ भीतर चलें। मैं सबसे मिलना चाहती हूँ।”

☐☐☐

प्रेमा के होंठों से हल्की-सी कराह निकली। फिर धीरे-धीरे उसकी आँखें खुलीं। इसी के साथ ही उसने आँखें बंद कर ली। वहाँ इतनी तीव्र रोशनी थी कि उसकी आँखें चौंधिया गई थीं। कुछ पल ठहरकर, उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। रोशनी की चमक से अभी भी उसकी आँखें चौंधिया रही थीं। फिर भी आँखों पर हाथ रखकर, थोड़ा, बहुत देखने के काबिल हुई तो प्रेमा ने खुद को छोटे से खूबसूरत बेड पर पाया।

धीरे-धीरे प्रेमा वहाँ की चीजों को देखने के काबिल हुई।

ये छोटा कमरा था। कमरे की सबसे पहली खासियत तो ये थी कि छत और दीवारों पर आधे-आधे इंच व्यास के शीशे लगे हुये थे। वहाँ फैली रोशनी शीशे की वजह से सैकड़ों गुणा ज्यादा हो रही थी। इसी कारण रोशनी से उसकी आँखें चौंधिया रही थीं। परन्तु अब सब कुछ दिखने लगा था प्रेमा को।

कमरे के फर्श पर जगह-जगह शीशे लगे हुए थे।

एक तरफ छोटा-सा गोल टेबल और दो कुर्सियां पड़ी थीं। दूसरी तरफ सोफा सेट जैसी तीन कुर्सियां पड़ी थीं। इसके अलावा और कुछ भी कमरे में नहीं था। नज़रें दौड़ाने पर प्रेमा ने पाया कि वहाँ दरवाजा भी नहीं है, जिससे आया-जाया जा सके। हर तरफ दीवारें ही दीवारें थीं।

प्रेमा को बीती सारी बातें याद आईं।

पार्वती को उसने मार दिया था-क्योंकि उसने सरजू और दया की जान ले ली थी। उसके ख्याल बुरे थे। वो और भी नुकसान पहुँचाना चाहती थी दूसरों को। लेकिन सौदागर सिंह उसे क्यों यहाँ ले आया? अगर उसने उसकी खास पार्वती को मारा था तो सौदागर सिंह बदले में उसकी जान ले लेता।

परन्तु उसकी जान लेने की अपेक्षा उसे साथ ले आया।

क्यों? ये बात उसकी समझ से बाहर थी।

प्रेमा आस-पास देखती बेड से नीचे उतरी। पाँव नीचे रखा। फर्श में नज़र आ रहे ये शीशे पर उसका पांव पड़ा तो उसके चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। वो सफेद शीशा एकाएक पीली रोशनी छोड़ने लगा था। वो रोशनी जल-बुझ रही थी। प्रेमा कुछ पलों तक तो उस रोशनी को देखती रही फिर उस पर से पाँव उठा लिया।

परन्तु वो रोशनी जलती-बुझती रही।

तभी कमरे में एक प्रकाश बिन्दु चमकता नजर आया। प्रेमा को पहचानते देर न लगी कि वैसा ही प्रकाश बिन्दु उसने तब देखा था, जब पार्वती को मारकर हटी थी और सौदागर सिंह आया था तो क्या सौदागर आने वाला है उसके सामने? प्रकाश बिन्दु की रोशनी इतनी तीव्र थी कि प्रेमा को रह-रह कर आँखें बंद करनी पड़ रही थीं। तभी वो प्रकाश बिन्दु बड़ा होने लगा। देखते ही देखते उसका आकार कई गुणा बड़ा हो गया। फिर वो प्रकाश बिन्दु आकृति में बदला और आकृति धीरे-धीरे सौदागर सिंह के जिस्म में बदल गई।

वो सौदागर सिंह ही था।

“सौदागर सिंह।” प्रेमा के होंठों से निकला।

“हाँ मैं।” सौदागर सिंह के शांत स्वर में कहा-“यहाँ तुम्हें तकलीफ तो नहीं?”

“तकलीफ के बारे में मैं कुछ नहीं जानती।” प्रेमा ने सौदागर सिंह को घूरा-“मुझे अभी होश आया है। यहाँ की चीजों से मैं वाकिफ नहीं हो सकी। लेकिन तुम मुझे यहाँ क्यों ले आये हो सौदागर सिंह।”

“तुमने मेरी सेविका पार्वती की जान ली है।”

“हां। उसने सरजू और दया को मारा था। ये सब करके उसने क्रूरता दिखाई।” प्रेमा ने गुस्से से कहा।

“लेकिन मुझे अपने सेवकों का मारा जाना पसन्द नहीं।” सौदागर सिंह शांत था।

“तो क्या चाहते हो। मेरी जान लेना चाहते हो तो बेशक ले लो। मैं उफ नहीं करूँगी।”

सौदागर सिंह के होंठों पर मुस्कान उभर आई।

“तेरी जान लेकर मुझे क्या मिलेगा?”

“तो क्या चाहते हो मुझसे?”

“तुम सामान्य जीव नहीं हो। मिट्टी के बुत से, पवित्र शक्तियों से मनुष्य रूप में आ गई हो। तुममें शक्ति है। सेविका बनने के गुण हैं तुममें। जो पार्वती को मार सकता है, मैं उसकी कद्र करता हूँ।”

“क्या कहना चाहते हो सौदागर सिंह?”

“मैं तुम्हें अपनी सेविका बनाना चाहता हूँ प्रेमा।”

“असम्भव है ये। इसके लिये तुम्हें पहले भी इन्कार कर चुकी हूँ।” प्रेमा ने दृढ़ स्वर में कहा-“मैं सिर्फ देवराज चौहान की गुलाम हूँ। सिर्फ उनका हुक्म मानूंगी। उसकी ही सेवा करूँगी। तुम्हारा कहना नहीं मान सकती।”

“देवा!” हंस पड़ा सौदागर सिंह-“देवा अब अपनी सेवा कराने के काबिल कहाँ रहा। वो तो जान गवां बैठा है।”

प्रेमा दाँत भींचकर रह गई।

“अब तुम्हें हुक्म देने वाला कोई नहीं रहा। तुम व्यर्थ हो गई हो। ऐसे में अब तुम्हें मेरी सेवा में आ जाना चाहिये। तभी दूसरे तुम्हारी इज्जत करेंगे।”

“देवराज चौहान जिन्दा हो सकता है। वो सब उसकी आत्मा लेने गये हैं। तब।”

“वहम है तुम्हारा। उनमें से कोई भी चक्रव्यूह तक नहीं पहुँच सकता। ये मेरा बनाया चक्रव्यूह है और उस पर ताला लगाया है शैतान है। ऐसे में कोई इन्सान आत्माओं के कैदखाने में नहीं पहुँच सकता। जो भी उधर जाने की चेष्टा करेगा, किसी न किसी हादसे का शिकार होकर मर जायेगा।” सौदागर सिंह ने समझाने वाले स्वर में कहा।

“तुम अपने लिये सैंकड़ों सेवक पैदा कर सकते हो।” प्रेमा ने सख्त स्वर में कहा-“फिर मेरे पीछे क्यों पड़े हो।”

“क्योंकि तुममें अद्भुत शक्तियों का वास है। जिसका तुम्हें भी ज्ञान नहीं। मैं तुम्हें अपनी सेविका ही नहीं, बल्कि अपनी खास बनाना चाहता हूँ। खास मतलब कि अपने बेहद खास कार्यों की कर्ता-धर्ता तुम्हें बनाऊँगा। तुममें और भी शक्तियाँ डालूंगा। शक्तिशाली बन जाओगी तुम मेरी सेवा में रहकर, हर आराम तुम्हें हासिल होगा।”

“मुझे लालच मत दो सौदागर सिंह।”

“लालच नहीं-सच्चाई से वाकिफ करा रहा हूँ तुम्हें मैं अपनी सेवा में लेना चाहता हूँ। क्योंकि अब तुम्हें हुक्म देने वाला जिन्दा नहीं रहा। बिना किसी के हुक्म के, तुम्हारा ये मनुष्य का रूप बेकार है।”

“एक ही बात को बार-बार कहकर, मेरी निगाहों में नीचा मत बनो सौदागर सिंह। अपने मालिक देवराज चौहान की ही बात मानूंगी। उसी के भले के लिये कार्य करूँगी। दूसरे के हुक्म पर एक कदम भी नहीं उठाऊँगी।” प्रेमा के एक-एक शब्द में दृढ़ता भरी हुई थी-“यही मेरा धर्म है कि जो भी करूँ, अपने मालिक के लिये करूँ।”

सौदागर सिंह के चेहरे पर मुस्कान उभरी। प्रेमा को गहरी

निगाहों से देखने के पश्चात सौदागर सिंह कमर पर हाथ बांधे और चहल कदमी करने लगा।

पाँव रखने पर जो शीशा रोशनी से जगमगा उठा था, सौदागर सिंह के आते ही वो रोशनी बंद हो गई थी।

प्रेमा शीत भाव से बेड पर बैठी सौदागर सिंह को देखती रही।

“तुम जानती हो, मेरी शक्ति के बारे में?” सौदागर सिंह ने ठिठककर कहा।

“जानती हूँ।”

“फिर भी मुझसे प्रभावित नहीं?”

“अवश्य प्रभावित होती-अगर मैं भी सामान्य मनुष्य होती। परन्तु मैं तो मिट्टी का बुत हूँ।”

“सौदागर सिंह को सौदा करने में बहुत मजा आता है।”

सौदागर सिंह पुनः मुस्कराया-“तुमसे भी सौदा कर लेता हूँ प्रेमा।”

“मिट्टी के बुत को हीरे-जवाहरातों का लालच दोगे सौदागर सिंह।”

“मैं जानता हूँ तुम्हें हीरे-जवाहरातों में कोई दिलचस्पी नहीं। सौदागर सिंह को सौदा करना आता है कि सामने वाले को क्या पसन्द आयेगा। मेरी सेवा में आने के लिये ये सौदा सबसे बढ़िया रहेगा।”

“कैसा सौदा?”

“तुम जो भी करना चाहती हो, अपने मालिक देवा के लिये करना चाहती हो।”

“हाँ।”

“तो मुझे कहो। देवा की आत्मा को आजाद करके मैं उसे जिन्दा कर देता हूँ।”

प्रेमा की आँखें सिकुड़ीं। चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।

“देवराज चौहान को जिन्दा करोगे तुम?” प्रेमा के होंठों से निकला।

“हाँ। कहो तो अभी कर देता हूँ।”

“बदले में चाहोगे कि मैं हमेशा के लिये तुम्हारी सेवा में आ जाऊँ।”

“अवश्य। ये चाहना तो मेरा हक होगा। कहो जिन्दा करूँ, देवा को।” सौदागर सिंह मुस्कराया।

“नहीं।” प्रेमा के होंठों से निकला।

“क्यों-क्या अपने मालिक को पुनः जीवित देखना तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा?”

“तुमने देवराज चौहान को पुनः जीवित कर दिया तो वो मेरा मालिक ही कहाँ रहा? तब तो तुम मेरे मालिक हो जाओगे।”

“ऐसा ही होगा। लेकिन तुम्हारा पुराना मालिक तो जिन्दा हो जायेगा।”

“मोना चौधरी और सब, देवराज चौहान की आत्मा को लाने की चेष्टा में हैं। वो भी देवराज चौहान को जिन्दा कर सकते हैं। ऐसे में मैं तुम्हारी बात मानकर, हमेशा के लिये तुम्हारी सेवा में क्यों आ जाऊँ?”

“मतलब कि तुम देख लेना चाहती हो कि वो सब देवा की आत्मा को लाकर, उसे जिन्दा कर पाते हैं या नहीं?”

प्रेमा, सौदागर सिंह को गम्भीर निगाहों से देखती रही।

तभी कमरे में अजीब-सी आवाज गूंजने लगी।

“मुझे अभी जाना होगा।” जल्दी से कह उठा सौदागर सिंह-“बेशक तुम इन्तजार करके देख लो कि मोना चौधरी और अन्य लोग क्या देवा की आत्मा को लाकर, देवा को जिन्दा कर पाते हैं। अगर वो सफल न हो सके तो मुझे कह देना। देवा को मैं जिन्दा कर दूंगा। परन्तु तुम्हें फिर हमेशा के लिये मेरी सेवा में आना होगा।” इसके साथ ही सौदागर सिंह का शरीर चमकदार रोशनी में बदला, फिर प्रकाश बिन्दु में नज़र आने लगा। उसके बाद प्रकाश बिन्दु लुप्त हो गया।

गम्भीरता में डूबी, बेड पर बैठी प्रेमा, सोचो में पड़ी नज़र आ रही थी।

☐☐☐

उस बड़े हॉल में प्रवेश करते ही सौदागर सिंह ठिठका। पहले तो उसकी आँखें सिकुड़ी, फिर चेहरे पर जहर से भरे भाव आ ठहरे। होंठों के बीच-पतली सी मुस्कान आ ठहरी।

बैठक के रूप में सजा हुआ ये हाल कमरा था। सजावट के नाम पर कुछ नहीं था। दीवारें खाली थीं। चमकते फर्श पर सोफा रखा था। वहाँ कोई नौकर वगैरह नहीं था। छत पर एक बड़ा-सा फानूस लटक रहा था। जो वहाँ की सजावट का एक मात्र हिस्सा था।

वहाँ पर एक ही शख्स मौजूद था। जिसे देखकर सौदागर सिंह ने कठिनता से खुद पर काबू पाया। वो था शैतान।

उसे देखते ही सौदागर सिंह ठिठका, फिर धीरे से आगे बढ़ने लगा।

“तुम?” सौदागर सिंह शब्दों को चबाकर कह उठा-“मैं जानता था कि तुम्हारी मेरी मुलाकात होगी। परन्तु इतनी जल्दी होगी, इस बात का एहसास नहीं था मुझे।”

शैतान मुस्कराया और शांत-सा कह उठा।

“आजादी मुबारक हो सौदागर सिंह।”

“तुम्हें मेरी आजादी से खुशी नहीं हो सकती।”

“बस में कुछ न हो तो, खुशी जाहिर करनी ही पड़ती है।”

शैतान ने पहले जैसे स्वर में कहा-“तुम्हारे आजाद होने के कुछ देर बाद ही खबर मिली कि तुम मेरे कैदी नहीं रहे।”

“तुम्हें मुझ पर नज़र रखनी चाहिये थी।” सौदागर सिंह का स्वर कड़वा हो गया-“वैसे तुमने यहाँ आकर बहुत बड़ी गलती कर दी है शैतान। मैं खुद तुम्हारी तलाश शुरू करने ही वाला था।”

“क्यों?”

“जिसने मुझे ढाई सौ बरस कैद में रखा हो। आजाद होने के बाद उससे मिलने का मन तो करता ही है।” चेहरे पर मुस्कराहट थी शैतान के। परन्तु शब्दों को चबा रहा था-“कैद में रहते हुए तुमसे इतनी मुलाकातें हुई कि अब तुमसे मिले बिना चैन नहीं मिलता। इसलिये तुम्हें तलाश करने की सोच रहा था।”

शैतान का चेहरा गम्भीर नज़र आने लगा।

“मेरे पास कैसे आये शैतान?”

“कठिनता से तुम्हें ढूंढा है सौदागर सिंह। तुम तक पहुँचने में मेरी कई शक्तियाँ खर्च हो गयीं।” गम्भीर स्वर में बोला शैतान-“मैं तुमसे बराबर की बात करना चाहता हूँ। बात करने में तो तुम्हें कोई एतराज नहीं।”

“बराबर की बात।”

“हाँ। पहले तुम कैद में थे तो बराबर की बात नहीं हो सकती थी। तुम पर कैद होने का दबाव था तो मुझे इस बात का एहसास था कि तुम मेरे कैदी हो। परन्तु अब तो हम दोनों आमने-सामने है।” शैतान ने शांत स्वर में कहा।

सौदागर सिंह ने हौले से सिर हिलाया और टहलने लगा।

“कहूँ सौदागर सिंह।”

“अवश्य कहो, परन्तु मैं सोच रहा हूँ कि तुम इस तरह मेरे पास आकर भारी गलती कर चुके हो।” सौदागर सिंह एक-एक शब्द चबाकर कह उठा-“हैरानी है कि तुमने कैसे सोच लिया कि मेरे पास आकर सुरक्षित निकल जाओगे। ढाई सौ बरस तक तुमने मुझे कैद रखा। मैं तुम्हें किसी भी हाल में जिन्दा नहीं छोड़ सकता।”

“मेरी बात सुन लो। शायद तुम्हारा विचार बदल जाये।” शैतान ने गम्भीर स्वर में कहा।

“कहो।” सौदागर ठिठका और कड़ी निगाहों से शैतान को देखने लगा।

“तुम्हारी शक्तियों के हम कायल हैं, सौदागर सिंह । हम...।”

“हम?” सौदागर सिंह ने टोका-“हम में कौन आता है शैतान।”

“मैं और महामाया।”

“ओह-खैर-कहो।” सौदागर ने व्यंग्य भरे ढंग में सिर हिलाया।

“वही बात जो हमेशा कहता आया हूँ, अब भी कहता हूँ।” शैतान होंठो पर शांत-सी मुस्कान आ गई-“तुम अपनी शक्तियाँ हमारे कामों में लगा दो। पूरी शैतानियत तुम्हारी सेवा में आ जायेगी। तुम-।”

“यही कहना है तो खामोश हो जाओ।” सौदागर सिंह ने तीखे स्वर में कहा।

शैतान ने सौदागर सिंह को देखा फिर सिर हिलाकर कह उठा।

“तुम्हें मेरी बात पसन्द नहीं आई।”

“बेवकूफ हो तुम जो ढाई सौ बरस से एक ही बात मुझे कह रहे हो। मैं...।”

“कोई बात नहीं।” शैतान ने गम्भीर स्वर में कहा-“अब नई बात सुनो।”

सौदागर सिंह के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान बिखर गई।

“हम तेरे को शैतान की कुर्सी पर बिठा सकते हैं। तू शैतान बन जायेगा सौदागर सिंह।”

सौदागर सिंह हंस पड़ा।

शैतान के माथे पर बल उभरे।

“इसमें हंसने की क्या बात है?”

“तू और महामाया, मेरा नाम मिटा देना चाहते हो।” सौदागर सिंह की हंसी में कड़वापन आ गया।

“नहीं सौदागर सिंह-मैं।”

“मैं शैतान बन गया तो कोई भी मुझे सौदागर सिंह नहीं कहेगा। शैतान ही कहेगा। मेरा नाम मिट जायेगा। मेरा वजूद शैतान के वजूद में गुम हो जायेगा। मैं ऐसा कोई काम नहीं करूँगा कि जिससे मेरा नाम मिट जाये।”

“सौदागर सिंह, मत भूल कि शैतान का वजूद पाना कितनी बड़ी बात है। शैतान का वजूद पाने के लिये तो कोई भी दस जन्म तक अपने वजूद को भूल सकता है। शैतान के वजूद में आते ही पूरी सृष्टि तुमसे वाकिफ हो जायेगी। हर कोई तुम्हारे सामने झुकेगा। हर कोई-।”

“शैतान।” सौदागर सिंह की आवाज में सख्ती थी।

शैतान ठिठका।

“सृष्टि में अपना वजूद कायम करने के लिये मुझे शैतान के नाम का सहारा नहीं लेना है। मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं अपने वजूद को सबके सामने स्थापित कर सकूँ।” सौदागर सिंह ने शब्दों को चबाकर कहा-“तूने ढाई सौ बरस से ऐसी कोई भी बात मेरे सामने नहीं रखी कि मुझे पसन्द आ सके।”

“तुम कहना क्या चाहते हो सौदागर सिंह।”

“यही कि अब मुझे किसी भी तरह का लालच देने की चेष्टा मत करना। मेरी शक्ति तुममें से किसी के काम नहीं आयेगी। तुम सफल नहीं हो सके।” सौदागर सिंह की आँखों में कठोरता उभर आई-“जो मुझे ढाई सौ बरस की लम्बी कैद में रखे। लाख कहने पर भी मुझे आजाद न करे। वो कैसे सोच सकता है कि मैं उसकी बात मान जाऊँगा। सच बात तो ये है कि तुम्हें मेरे सामने आने के पहले सौ बार सोचना चाहिये था कि मैं तुम्हारे साथ कैसा बर्ताव करूँगा।”

शैतान के होंठ भिंच गये।

“मुझे कुछ कहकर। महामाया को तुम अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहोगे सौदागर सिंह।” शैतान ने शब्दों को चबाकर कहा-“मेरे ख्याल में तो समझदारी यही है कि बीती बातें भूलकर, नये सिरे से हमसे दोस्ती करो और-।”

“बहुत हो गया। अभी तक मैं तुम्हें बर्दाश्त कर रहा था। अब और नहीं।” सख्त आवाज में कहते हुए सौदागर सिंह ने आँखें बंद करके बुदबुदाहट शुरू की।

शैतान का चेहरा खतरनाक भावों से भर उठा।

तभी न जाने कहां से निकलकर लाल रंग का बिन्दु आया और शैतान के शरीर से टकराया। टकराते ही तेज रोशनी उभरी और वो बिन्दु लुप्त हो गया। शैतान अपनी जगह खड़ा था।

सौदागर सिंह ने आँखें खोलीं।

शैतान को ठीक-ठाक सामने खड़ा पाकर, सौदागर सिंह क्रूरता भरे ढंग से मुस्करा पड़ा।

“खास ही ताकत लेकर आया है तू मेरे पास।”

“महामाया ने भेजा है।” शैतान ने सौदागर सिंह को घूरा-“तुम भूल में हो कि मेरी जान ले सकोगे।”

“महामाया ने भेजा है।” सौदागर सिंह के चेहरे पर कड़वे भाव फैल गये-“महामाया का डर देता है मुझे। क्या सोचता है कि मैं भय खा जाऊँगा, महामाया के नाम से? सौदागर सिंह को धोखे से तूने कैद कर लिया था, वो जुदा बात थी। अब मेरी रक्षक वो शक्ति है जो दुश्मन को और उसके वार को मुझ तक नहीं पहुँचने देगी।”

“महामाया से डर सौदागर...।” कहना चाहा शैतान ने परन्तु कह उठा सौदागर सिंह।

“शैतान होकर भी तू गलती कर गया।” सौदागर सिंह हंस पड़ा-“बेवकूफ! सृष्टि ने हर किसी को मतलबी बनाया है। सृष्टि सिर्फ अपना फायदा देखती है। उसी को देखते हुए, इन्सानों में भी मतलबी हिस्सा भर दिया। मेरे को देखा। जानता ही है तू कि गुरुवर बरसी परिश्रम से मुझे शिक्षा दी कि मैं लोगों का, दुनिया का भला करूँगा। मैंने क्या किया? सबसे पहले गुरुवर को धोखा दिया। फिर लोगों का भला करने की अपेक्षा अपना भला करने लगा। इसी खातिर तेरे साथ आ मिला। वो जुदा बात रही कि तेरी-मेरी हिस्सेदारी नहीं चल सकी। इससे पहले कि मैं तेरे को खत्म करता, तूने मुझे कैद कर लिया। हर कोई अपने मतलब की खातिर चलता है-ये तू अभी भी नहीं समझा।”

“तू बे-सिर-पैर की बातें कर।”

“नहीं शैतान नहीं। ये बे-सिर-पैर की बातें नहीं हैं। बल्कि मैं तो तेरे को समझा रहा हूँ।”

“समझा रहा है। क्या समझा रहा है?”

“यही कि तुझे मेरे पास भेज कर, महामाया ने तुझे इससे मना किया है। जिसका डर तू मुझे दिखा रहा है। तू कहता है कि मैं महामाया से डरूं। तू कहता है कि महामाया के डर की वजह से मैं तेरी जान नहीं ले सकूँगा। शायद इसलिये कि महामाया ने तेरे साथ अपनी कोई शक्ति भी लगा दी हो। तू कहता है कि मैं तेरा साथ देना शुरू कर दूं। तू कहता है कि मैं शैतान बन जाऊँ। तेरे कहने का मतलब है कि अगर मैंने तेरा बाल भी बांका किया तो महामाया मुझे नहीं छोड़ेगी।

“तो क्या गलत कहा मैंने?”

“हाँ। मैं साबित करता हूँ कि तू धोखे में है और तू मानेगा भी कि तू धोखे में है। सौदागर सिंह जहर भरे स्वर में कह उठा-“अब मैं तेरे को खत्म कर देता हूँ तो महामाया मेरे को क्या कहेगी?”

“महामाया तेरे को जिन्दा नहीं छोड़ेगी।”

“पहली बात तो ये है कि मेरी शक्तियों का मुकाबला नहीं कर सकती महामाया सौदागर सिंह के चेहरे पर मुस्कान फैली थी-“दूसरी बात ये है कि अगर मैं तेरे को खत्म करके, शैतान बनने को तैयार हो जाता हूँ तो महामाया उसी पल तेरी मौत को भूलकर, मेरी आवभगत में लग जायेगी। मैं उसका चहेता बन जाऊँगा।”

शैतान ने होंठ भींच लिए।

“चुप क्यों कर गया शैतान? जवाब दे क्या मैंने गलत कहा?”

“तूने ठीक कहा है। तू अगर शैतान का काम संभाल लेता है तो महामाया को बेहद प्रसन्नता होगी। मेरी मौत को तो वो उसी पल भूल जायेगी।” एक-एक शब्द चबाकर शैतान ने कहा।

“मतलब कि तू मेरे पास आकर भूल कर बैठा।”

शैतान कठोर निगाहों से सौदागर सिंह को देखता रहा।

“मेरे को ढाई सौ बरस तूने कैद रखा। उसकी सजा तो तेरे को मिल कर ही रहेगी। तू जिन्दा रहने का हक खो चुका है। मुझ पर तेरी कोई शक्ति अब असर नहीं करेगी।” कहने के साथ ही सौदागर सिंह ने बाँह सीधी की। फिर तर्जनी उंगली शैतान की तरफ करके होंठों ही होंठों में बुदबुदाने लगा।

शैतान के चेहरे पर आतंक नाच उठा।

“नहीं सौदागर सिंह। मेरे प्राण मत लो। मैं-।”

तभी सौदागर सिंह की सीधी हुई उठी तर्जनी उंगली से सफेद रंग की किरण निकलकर, शैतान के शरीर से टकराई और उसी पल शैतान का शरीर जल उठा। उसके होंठों से चीखें निकलने लगीं।

वो तड़पकर इधर-उधर भागने लगा। सौदागर सिंह चेहरे पर मुस्कान समेटे उसे देखता रहा।

कुछ पलों तक यही नजारा रहा फिर एकाएक ही शैतान जलते शरीर के साथ गायब हो गया। धुएँ की और जलने की बदबू तो वहाँ थी। परन्तु इसके अलावा ऐसा कुछ नहीं था कि लगता, कोई यहाँ मौजूद रहा हो।

सौदागर सिंह ठठाकर हंस पड़ा।

“शैतान तो मिट गया महामाया। मर गया वो। तू मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। सौदागर सिंह का मालिक कोई नहीं। मैं सिर्फ अपने लिये हूँ। मैं किसी के लिये नहीं बना।”

☐☐☐

“का-को-द-र-ऽ-ऽ-ऽ-ऽ।”

उस महल के खूबसूरत कमरे में महामाया की कंपा देने वाली आवाज गूंजती चली गई।

महामाया का चेहरा गुस्से से दहक रहा था। फटी आँखें। दहकता चेहरा। भिंचे दाँत। खुले बाल। शरीर पर मात्र एक महीन-सी लिपटी साड़ी जैसे कपड़े के अलावा कुछ भी नहीं था। जिससे उसके बदन के उभार स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। वो कपड़ा मात्र घुटनों तक था। उसका खूबसूरत चेहरा, बुरा-सा लगने लगा था। वक्षों पर पड़ा कपड़ा नीचे सरकने की वजह से, उसके आधे वक्ष उजागर होने लगे थे।

आराम के अंदाज में वो बेड पर पस्त-सी लेटी हुई थी। दूर पत्थर के खूबसूरत टेबल पर स्याह रंग की मोमबत्ती खड़ी थी। कुछ पल पूर्व ही एकाएक वो मोमबत्ती जल उठी थी और अजीब-सी स्वर लहरियां गूंजने लगी थीं। चौंककर उठ बैठी महामाया और जब सुलगती मोमबत्ती पर निगाह पड़ी तो आँखें फैल-फटकर चौड़ी होती चली गई और होंठों से काकोदर के लिये तीखी पुकार निकली थी। इस दौरान नज़रें जल रही काली मोमबत्ती पर ही थी। हद से ज्यादा परेशान हो उठी थी महामाया।

“महामाया।”

तभी वहाँ महामाया का स्वर गूंजा।

महामाया ने फौरन सिर घुमाया।

कुछ कदमों के फासले पर काकोदर खड़ा था।

महामाया उछल कर बेड से नीचे आ गई।

“काकोदर।” महामाया के होंठों से चीख जैसी आवाज निकली-“गजब हो गया काकोदर। गजब हो गया।”

“क्या हुआ महामाया।” काकोदर का स्वर शांत था-“तुम घबरा क्यों रही हो?”

“शै-शैतान मारा जा चुका है।” महामाया के होंठों से निकला।

“ये क्या कह रही हो?” काकोदर के होंठों से निकला।

“सच कह रही हूँ मैं। वो देख टेबल पर पड़ी काली मोमबत्ती।” महामाया गहरी-गहरी सांस ले रही थीं-“अब उसमें लौ आ चुकी है। इस मोमबत्ती की लौ शैतान की आत्मा से जुड़ी थी। शैतान-जब तक जिन्दा है, तब तक उस मोमबत्ती की लौ नहीं जल पायेगी। शैतान के मृत्यु को प्राप्त होते ही, उसकी आत्मा इस मोमबत्ती में आ जायेगी और ये जल उठेगी। अभी ये मोमबत्ती जल उठी और मोमबत्ती से वास्ता रखती स्वर लहरियाँ बजने लगीं।”

काकोदर का चेहरा गम्भीर हो उठा।

“बुरी खबर सुनाई तुमने।” काकोदर के होंठों से निकला-“शैतान को कौन मार सकता है?”

“सौदागर सिंह...।”

“ये क्या कह रही हो?”

“मैं सही कह रही हूँ। शैतान, सौदागर सिंह से बात करने गया था। परन्तु लगता है सौदागर सिंह ने उसकी कैद में रहने का अपना बदला ले लिया। शैतान को मिटा दिया।” महामाया के चेहरे पर खुशी दिखाई दे रही थी।

“शैतान को सौदागर सिंह तो क्या, कोई भी नहीं मिटा सकता महामाया।” काकोदर टहलने लगा-“लेकिन शैतान को मारा जाना गलत हुआ। तुम्हारे साथ ऐसा कोई नहीं, जिसे कि शैतान की जगह पर फौरन बिठा सको।”

“ये बात मैं पहले ही कह चुकी हूँ।” महामाया ने दाँत भींच कर कहा।

“तो शैतान की जगह तब तक के लिये तुम्हें लेनी होगी, जब तक कि कोई उचित आत्मा शैतान के कार्यों को नहीं संभाल लेती। शैतान की महत्वपूर्ण कुर्सी को खाली नहीं छोड़ा जा सकता।” काकोदर ने गम्भीर स्वर में कहा।

“हाँ। मुझे ऐसा ही करना होगा...।” महामाया परेशान थी-“लेकिन तुम्हें इस काम में मेरी सहायता करनी होगी। इस बात की इजाजत तुम्हें दी जा चुकी है कि तुम मेरी सहायता कर सकते हो। मैं अकेली किस-किस काम को संभालूंगी। शैतान के लाखों कार्य बिखरे पड़े हैं। अभी उन कार्यों को संभालना होगा कि शैतान कौन-सा कार्य कर रहा था। पृथ्वी ग्रह के मनुष्यों को भी संभालना है। वो सौदागर सिंह के चक्रव्यूह में प्रवेश करके, आत्माओं के कैदखाने तक पहुँचने की चेष्टा कर रहे हैं। उधर चक्रव्यूह में सौदागर सिंह ने पुनः अपना कब्जा कर लिया है। शैतान को मौत देने से ये स्पष्ट हो जाता है कि सौदागर सिंह क्रोध में है। वो भविष्य में भी हमारे खिलाफ कोई भी कार्य कर सकता है। ऐसे में मुझे तुम्हारी जरूरत है काकोदर। तुम अपनी शक्तियों से सौदागर सिंह का सामना कर सकते हो। मैं भी तुम्हारे साथ रहूँगी। सौदागर सिंह बच नहीं सकेगा।”

काकोदर मुस्करा पड़ा, महामाया को देखते हुए।

“क्यों मुस्कराए काकोदर?”

“तुम्हारी बातों पर। तुम होश क्यों गंवाने जा रही हो महामाया?”

“मैं समझी नहीं।”

“तुम स्वयं बेपनाह ताकत की मालकिन हो।” काकोदर कह उठा-“मैं तुम्हारी सहायता अवश्य करूँगा। लेकिन खुद को कमजोर क्यों समझती हो। तुम्हारे पास बेपनाह शक्तियाँ हैं। सौदागर सिंह से तुम्हें घबराना नहीं चाहिये।”

महामाया ने दाँत भींच लिए।

काकोदर के चेहरे पर पुनः गम्भीरता सिमट आई थी।

“तुम्हें सब्र के साथ काम लेना चाहिये महामाया। इस बात को भी हमेशा ध्यान में रखना चाहिये कि सौदागर सिंह हमारे आसमान पर है। यहाँ पर वो एक हद तक ही अपनी ताकत का इस्तेमाल कर सकता है। वक्त आने पर हमारे सामने वो कमजोर साबित हो जायेगा। स्पष्ट है कि अंत में जीत हमारी ही होगी।”

महामाया ने गहरी सांस ली।

“मेरी शक्तियों को, सौदागर सिंह के खिलाफ न ही इस्तेमाल करो तो बेहतर है। जरूरत पड़ी तो मैं तुम्हारे साथ हूं। परन्तु पहले तुम ही सौदागर सिंह के मुकाबले पर उतरो।” काकोदर ने सिर हिलाकर कहा-“तब तक मैं शैतान के सारे कार्य संभाल कर, किसी को भी शैतान की कमी महसूस नहीं होने दूंगा।”

महामाया व्याकुल सी तिपाई पर पड़े जग के पास पहुँची। जग में हरे रंग का पेय-पदार्थ था। उसे दो गिलासों में डाला। एक स्वयं लिया और दूसरा काकोदर को थमाकर घूंट भरा।

“अब क्या चिन्ता महामाया?” काकोदर ने भी घूंट भरा।

“मैं सौदागर सिंह के मामले को ज्यादा लम्बा नहीं चलने देना चाहती।” महामाया शब्दों को चबाकर बोली थी। काकोदर सवालिया निगाहों से महामाया को देखता रहा।

“शैतान लोक से तुम ऐसी कोई कार्यवाही नहीं करा सकते कि सौदागर सिंह मिट जाये।”

“शैतान लोक से इस मामले में दखल नहीं दिया जा सकता।” काकोदर ने स्पष्ट कहा-“ये मामला शैतान लोक का नहीं है। तुम्हारा है। मैं तुम्हारी सहायता के लिये मौजूद हूँ। तुमसे बाद मालिक का है ये मामला। और फिर इस मामले की देख-रेख सर्वशक्तिमान के हवाले होगी।”

“ओह।” दांत भींचे महामाया चहलकदमी करने लगी।

“तुम बिना वजह परेशान हो रही हो महामाया।”

“मेरे परेशान होने के पीछे वजह है काकोदर? सौदागर सिंह वजह है।”

“तुम शैतान से कहीं ज्यादा ताकत रखती हो।”

“मुझे और मेरी परेशानी को समझने की चेष्टा करो काकोदर।” महामाया ने ठिठक कर काकोदर को देखा-“सौदागर सिंह के पास शैतान और पवित्र, दोनों तरह की शक्तियाँ हैं। वो शैतानी या पवित्र शक्ति का वार करता है तो, उस वार को संभाला जा सकता है। अगर वो पवित्र और शैतानी शक्ति को मिलाकर, कोई वार करता है तो उस वार को रोक पाना या उससे बच पाना कठिन हो जायेगा।”

“लड़ाई शुरू होने से पहले अंजाम को लेकर चिन्ता नहीं करते। सौदागर सिंह को खत्म करो महामाया। जब भी मेरी जरूरत पड़े, मुझे आवाज दे देना। तब तक मैं शैतान के सारे कार्य संभाल लेता हूँ।”

“अच्छी बात है काकोदर।” महामाया शब्दों को चबाकर कह उठी-“मेरी पूरी कोशिश होगी कि सौदागर सिंह को मैं अकेले ही खत्म कर दूं। सहायता के लिये तुम्हारी जरूरत न पड़े मुझे-।”

“ऐसा हुआ तो सर्वशक्तिमान तुमसे बेहद प्रसन्न हो जायेंगे।” काकोदर ने कहा-“सबको अपने काम, खुद ही पूरे करने चाहिये। तुम्हें भी इसी तरह अपने फर्ज को पूरा करना चाहिये।”

महामाया अपना कठोर चेहरा हिलाकर रह गई।

“इस बीच शैतान का अस्तित्व तैयार करने के लिए आदेश दे जाओ महामाया। तुम्हारे पीछे वे शैतान को तैयार करते रहेंगे। शैतान के क्या-क्या गुण डालने हैं, अपने सेवकों को बता जाना।”

“हां। ये सब इन्तजाम तो करके ही जाना है मुझे।” महामाया ने कहा-“तुम जाकर शैतान के कामों को सम्भाल लो काकोदर। मैं सौदागर सिंह को मार कर आती हूं...।”

“सर्वशक्तिमान का आशीर्वाद हमेशा हम पर है। हम सफल होंगे।” काकोदर के स्वर में श्रद्धा के भाव आ गये थे।

महामाया ने भी श्रद्धा से सिर सिर झुका लिया।

“इससे पहले कि मैं जाऊं, मेरी बांहों में आ जाओ महामाया।” काकोदर बांहें फैलाकर एकाएक कह उठा-“तुम्हारे पास आऊं और यूं ही चला जाऊं...तो इसे शुभ लक्षण नहीं कहा जायेगा।”

महामाया मुस्कराई और शरीर पर लिपटी धोती को उतार फेंकने के बाद काकोदर की फैली बांहों की तरफ बढ़ गई। पास पहुंचते ही बांहों ने उसे अपने घेरे में ले लिया।

☐☐☐

नगीना उसी तरह पिंजरे में कैद थी।

बंगा दिन में आता। उसे खाना दे जाता। जब जरूरत पड़ती किसी चीज की तो बंगा उसकी सोच पर ही हाजिर हो जाता। जब उसके पास फुर्सत होती तो इधर-उधर की बातचीत भी कर लेता।

एहसास हो चुका था नगीना को कि यहां से निकल पाना सम्भव नहीं। बंगा बेहद सावधान रहता है। तुझे मौका नहीं देगा भागने का। वो पिंजरे से बाहर निकलती टहलने के लिये, तो बंगा साये की तरह उसके साथ रहता। नगीना को सपना-सा लगने लगा यहां से निकलना।

दोपहर का खाने का समय होते ही बंगा वहां हाजिर हो गया। पिंजरे में कैद नगीना को उसने कुछ खाना दिया। जब तक नगीना खाना खाती रही, बंगा एक तरफ बैठा, गहरी सोचों में डूबा रहा।

नगीना ने खाना समाप्त किया तो बर्तन हवा में घुलने के ढंग से ही गायब हो गये।

“आज तुम गम्भीर हो बंगा।” नगीना कह उठी।

बंगा ने नगीना को देखा फिर कह उठा।

“हां।”

“इतने चिन्तित तुम पहले कभी नहीं दिखे।”

“पहले ऐसी बात भी नहीं हुई।” बंगा बोला।

“अब क्या हुआ ऐसा?”

“सौदागर सिंह, शैतान की कैद से आजाद हो चुका है।” बंगा ने गम्भीर स्वर में कहा।

“ये तो तुम्हारे लिये खुशी की बात होनी चाहिये।”

“इधर सौदागर सिंह आजाद हुआ, उधर सौदागर सिंह के पहरेदार पार्वती की किसी ने हत्या कर दी। पहली बार ऐसा हुआ है कि चक्रव्यूह में किसी पहरेदार की जान ली गई हो। जाने वो कौन है जिसने पार्वती को...।”

“शैतान ने मारा होगा उसे।”

“नहीं। शैतानी शक्ति सौदागर सिंह के पहरेदारों की जान लेने में सफल नहीं हो सकती।” बंगा ने इन्कार में सिर हिलाते हुए कहा-“कुछ लोग चक्रव्यूह में आ पहुंचे हैं। उन्होंने ही पार्वती की जान ली है।”

“कौन लोग हैं वो?”

“मुझे खबर नहीं।”

“सौदागर सिंह को पता होगा।”

“सौदागर सिंह अभी मुझसे मिलने नहीं आया।” बंगा के दांत भिंच गये-“जाने अब क्या होगा?”

“क्या कहना चाहते हो?”

“सौदागर सिंह ने शैतान के वजूद को वक्ती तौर पर समाप्त कर दिया है।” बंगा कह उठा-“शैतान को मार दिया है सौदागर सिंह ने। शैतान के लोग खामोश नहीं बैठेंगे। जाने अब क्या होगा।”

“तुम तो कहते थे सौदागर सिंह बहुत शक्तिशाली है।”

“हां। ये उसकी ताकत का ही नमूना है कि शैतान को मार दिया उसने। परन्तु शैतान के बड़े भी तो बैठे हैं अभी।”

“बड़े?” नगीना की आंखें सिकुड़ी-“क्या मतलब?”

बंगा ने नगीना को देखा फिर दूसरी तरफ देखने लगा।

“जवाब दिया नहीं बंगा तुमने कि किन बड़ों की बात कर रहे हो?”

“मैं तुम्हें इस बारे में कुछ नहीं बता सकता।” बंगा ने उसे देखा।

“क्यों?”

“तुम पृथ्वी ग्रह से आई मनुष्य हो-और किसी मनुष्य से इस बारे में बात करने की इजाजत नहीं है मुझे।”

“अजीब हो तुम। जब भी कोई खास बात होती है तो तुम यही कहकर मुझे खामोश कर देते हो।”

“कुछ भी कह लो।”

नगीना कई पलों तक बंगा को देखती रही, फिर बोली।

“आज तुमने मुझे पिंजरे से बाहर नहीं निकाला कि मैं घूम सकूं-।”

“मन नहीं है-मुझे जरूरी काम के लिये जाना है।”

“मुझो तो तुम्हारा मन बुझा हुआ लग रहा है।”

बंगा ने कुछ नहीं कहा।

“मुझे आजाद नहीं करोगे?” एकाएक नगीना बोली-“मेरे बारे में तुमने क्या सोचा?”

“मैंने पहले ही कहा है कि सौदागर सिंह ही तुम्हारे बारे में हुक्म देगा कि तुम्हें जिन्दा छोड़ना है या आजाद करना है। या फिर कैद में ही रखना है। मेरा काम तो तुम्हें कैद में रखकर, तुम्हारी देखभाल करना है।”

“सौदागर सिंह से पूछे बिना कोई काम नहीं कर सकते?”

“कुछ काम ऐसे हैं जो सौदागर सिंह के इशारे पर ही होंगे। मैं अपना आने वाला वक्त अच्छा करना चाहता हूं। उसके लिये जरूरी है कि सौदागर सिंह की इच्छा के मुताबिक काम करूं।”

“...आने वाला वक्त अच्छा करने के लिये तो भगवान के नाम पर अच्छे काम करने होते हैं।”

“भगवान?” बंगा ने नगीना को देखा-“कौन है भगवान-जानती हो तुम?”

“भगवान भगवान है।”

“कोई भगवान नहीं है।” बंगा कह उठा-“तुम इन्सानों ने जन्म लेकर, अपने-अपने मतलब की खातिर यूं ही शक्ति को नाम दे रखे हैं। वो एक ही है, सिर्फ एक। इन्सान हो या शैतान, हर कोई उसके आगे ही सिर झुकाता है। वो है सर्वशक्तिमान।”

“सर्वशक्तिमान?” नगीना के होंठों से निकला।

“हां। वो एक ही है। सबकी डोर उसी पर जाकर समाप्त होती है।”

“और हम जिन भगवानों की पूजा करते हैं, वो क्या सब यूं ही हैं?” नगीना कह उठी।

“आज वो सब सर्वशक्तिमान के हिस्से बन चुके हैं। तुम इन्सानों ने जब अपनी-अपनी पसन्द की चीजों को पूजना शुरू किया तो सर्वशक्तिमान ने किसी इन्सान को निराश नहीं किया। जिसने जिसके आगे सिर झुकाया, जिसे भगवान माना, सर्वशक्तिमान ने अपना अंश उस चीज में डाल दिया। बेशक वो किसी भी रूप में, किसी भी रंग आकार में हो। सर्वशक्तिमान ने तो एक ही धर्म बनाया था। भाई-चारे का धर्म। परन्तु इन्सान ने होश संभालते ही अपने मतलब की खातिर अपने कर्म-धर्म का निर्माण कर लिया। मजबूरी हो गई सर्वशक्तिमान के सामने कि मनुष्य के कर्मों को वो माने। भला वो अपने बनाये इन्सानों में खोट कैसे निकला सकता था। ऐसा होता तो सर्वशक्तिमान को ही अपूर्ण कहा जाता। सच तो ये है कि उसने मनुष्यों का निर्माण किया। शरीर दिया। इच्छाएं दीं। मस्तिष्क दिया। चलने-फिरने की शक्ति दी। हर वो चीज दी, जिसकी मनुष्य को जरूरत पड़ सकती थी। परन्तु सर्वशक्तिमान खुद ही अपने बनाये मनुष्यों के हाथों फंस गया। मनुष्यों ने सर्वशक्तिमान को ऐसे पकड़ लिया कि वो अपने बनाये पुतलों को मिट्टी में भी नहीं मिला सकता। अपनी गलती को सुधार भी नहीं सकता।”

“बहुत अजीब बात कर रहे हो तुम-।” नगीना उलझनभरे स्वर में बोली।

“ठीक कहा है मैंने।” बंगा गम्भीर और बे-मन सा हो रहा था-“धरती पर पहले जानवर ही होते थे। रात होती तो नींद ले लेते। दिन होता तो चहल-कदमी करने लगते। अपनी ही बनाई कृति से सर्वशक्तिमान को चैन नहीं मिला तो उसने सर्वश्रेष्ठ कृति बनाने की सोची और अपार मेहनत के पश्चात मनुष्य का निर्माण किया। परन्तु शीघ्र ही सर्वशक्तिमान को इस बात का एहसास हो गया कि सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में उसकी सबसे बड़ी भूल है-जिसे कि मनुष्य कहा जाता है। अपने निर्माणकर्ता को भूलकर मनुष्य एक के बाद एक भूल करता जा रहा है और सर्वशक्तिमान उनके कदमों को नहीं रोक सकता।”

“क्यों?”

“अपनी ही बनाई कृतियों के पांव काटने की शक्ति उसमें नहीं है। कई जगहों पर वो भी मजबूर हो जाता है।”

नगीना देर तक बंगा को देखती रही फिर कह उठी।

“तुम्हारी बातें मेरी समझ से बाहर हैं। तुम कहते हो कि इन्सान हो या शैतान। सबकी डोर सर्वशक्तिमान पर जाकर ही समाप्त होती है। सिर्फ एक ही शक्ति है जिसे कि सर्वशक्तिमान कहते हैं।”

“हां।” बंगा ने सिर हिलाया।

“इन्सान और शैतान सर्वशक्तिमान के ही दो पहलू हुए, तुम्हारे कहने के मुताबिक।”

बंगा ने पुनः सहमति से सिर हिलाया।

“तुम ये कहना चाहते हो कि इन्सान और शैतान जिसे पूजते हैं, वो सर्वशक्तिमान ही है।”

“ठीक समझी तुम-।”

“असम्भव। तुम गलत, झूठ कह रहे हो। ये कभी हो ही नहीं सकता।” नगीना के होंठों से तेज स्वर निकला।

“क्यों नहीं हो सकता?” बंगा की निगाह, नगीना पर जा टिकी।

नगीना के चेहरे पर उखड़ेपन से भरे तीखे भाव आ गये थे।

“तुम कहते हो कि इन्सान और शैतान का जन्मदाता एक ही है। वो है सर्वशक्तिमान-।”

“हां।”

“तो अपने ही बनाने वालों के बीच सर्वशक्तिमान झगड़ा क्यों करवायेगा?”

“सर्वशक्तिमान की मजबूरी है।”

“कैसी मजबूरी?”

“अगर इन्सान अकेला रहे तो उसे अपना वजूद सुरक्षित लगेगा। हर इन्सान उस स्थिति में आलस्य से भरा पड़ा रहेगा। मेहनत के कार्य करना बन्द कर देगा। मनुष्य का जीवन नीरस हो जायेगा। सर्वशक्तिमान को लगता है कि उसने इन्सान बनाकर क्या बना डाला। ऐसा हुआ भी था। जब सर्वशक्तिमान ने मनुष्य बनाकर पृथ्वी पर भेजा तो वो भोग-विलास में ही रमा रहने लगा। पुरुष, औरत को मात्र खिलौना मानकर खेलने लगा, जबकि सर्वशक्तिमान ने औरत का रूप बनाया था कि मनुष्य उसकी पूजा करे और उससे अपनी जरूरत पूरी करे। परन्तु मनुष्य ने तो औरत की इज्जत करना बंद कर दिया। कभी की ही नहीं। औरतें उसके संसार की संख्या को बढ़ा रहीं थीं, परन्तु उसे इज्जत की अपेक्षा तिरस्कार मिलता पाकर, इन्सान पुरुषों को सबक सिखाने और व्यस्त करने के लिये, सर्वशक्तिमान ने शैतान का निर्माण किया। शैतान को बनाते समय उसके मस्तिष्क में ये बात रख दी कि इन्सान उसके दुश्मन हैं। उनकी तरक्की में बाधा है। इधर इन्सान के मस्तिष्क में भी ये बात रख दी कि शैतान बुरे हैं। उनका सलामत रहना मानव जाति के लिये खतरनाक है। सर्वशक्तिमान ने दोनों को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया।”

“इससे क्या हुआ?”

“बहुत फायदा हुआ। सर्वशक्तिमान की परेशानी कम हो गई। इन्सान इतना व्यस्त हो गया शैतान का मुकाबला करने के लिये कि सारा आलस्य भूल गया। औरत को खिलौना समझने वाला इन्सान, देवियों के रूप में उसे पूजने लगा। औरत की इज्जत करते हुए उसका अस्तित्व स्वीकारने लगा। औरत और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर, शैतान के खिलाफ एक हो गये। इसी तरह शैतान, इन्सानों के खिलाफ एकजुट हो गया। एक को दूसरे की तबाही, अपनी जिन्दगी लगने लगी। शैतान का निर्माण करने के बाद दोनों तरफ के पलड़े बराबर हो गये। दोनों ने अपने-अपने भगवान बना लिए और उन्हें पूजने लगे। इस बात से बेखबर कि जिसे वे पूज रहे हैं, वो एक ही है। सर्वशक्तिमान है। जिसने इन्सानों और शैतानों को बनाया। शैतान इन्सानों पर कभी भी विजय नहीं कर पाया। इन्सान शैतान को नहीं जीत सके। दोनों में लड़ाई जारी है। चूंकि शैतान अपने असली रूप में इन्सान के सामने नहीं आ सकता, इसलिये शैतान ने अपने अंश इन्सानों के भीतर प्रवेश करने आरम्भ कर दिया। इन्सानों में शैतान बसने लगा और लड़ाई ने और भी नाजुक मोड़ ले लिया कि जाने किस इन्सान में शैतान का रूप है। ऐसे में इन्सान, इन्सान से कटने लगा। उसका आलस्यपन दूर हो गया। सतर्क रहकर अपना जीवन व्यतीत करने लगा। बेशक मजबूरी में ही सही। अपनी जननी औरत को-स्त्री को इज्जत देने लगा। सर्वशक्तिमान ने इन्सान और शैतान दोनों को अति व्यस्त रखा हुआ है। अगर ऐसा न करता तो सर्वशक्तिमान का वजूद शायद अपनी जगह कायम न रह पाता।”

“वो कैसे?”

“मनुष्य में सोचने की क्षमता बहुत है और शैतान में भी।” बंगा गम्भीर था-“ऐसे में दोनों ही अपनी-अपनी जगह रहकर अवश्य ये सोचते कि वो कैसे बना? उसका निर्माण किसने किया? इस तरह वे सर्वशक्तिमान तक पहुंच कर उसे ही गिरेहबान से पकड़ लेते।”

“तो ऐसा हुआ क्यों नहीं?”

“इसलिए कि सर्वशक्तिमान ने इन्सान और शैतान के शरीर में एक खाली जगह बना दी-जिसे कि पेट कहा जाता है। ऐसा बना दिया उस खाली जगह को कि कुछ वक्त के बाद उसमें कुछ डालना पड़ता है। वरना इन्सान या शैतान से कोई काम नहीं हो पाता। ऐसे में कोई भी सर्वशक्तिमान की खोज में नहीं निकल सकता। क्योंकि कहां तक खाने का सामान अपने साथ ले जायेंगे। रास्ते में पेट खाली होगा तो क्या पेट में डाल कर चैन से रह पायेंगे? सर्वशक्तिमान की इस चाल में इन्सान और शैतान दोनों फंस गये।”

नगीना, उलझन भरी निगाहों से बंगा को देखती रही।

“क्या सोच रही हो नगीना?”

“तुम्हारी बातें समझ कर भी मेरी समझ से बाहर हैं।” नगीना ने गम्भीर स्वर में कहा-“क्या ये बात और लोग भी जानते हैं?”

“कुछ बड़े लोग जानते हैं। जो बड़ी विद्याओं से वाकिफ हैं, इसी तरह शैतान के बड़े लोग जानते हैं, जो शैतान के बड़े हैं। परन्तु कुछ कर नहीं सकते। सर्वशक्तिमान तक पहुंच पाना, उनके लिये असम्भव हो चुका है।” बंगा ने कहा-“इन्सानों और शैतानों का मस्तिष्क घुमा दिया है कि कोई उस तक न पहुंच सके। जो भी उस तक पहुंचने के बारे में सोचता है, वो अचानक ही अपनी परेशानियों में घिरकर, उस तक पहुंचने की सोच को छोड़ देता है।”

“सच बात तो ये है बंगा कि तुम्हारी बातों को मैं स्वीकार नहीं कर पा रही हूं। तुम...।”

एकाएक बंगा उठा और कह उठा।

“मैं जा रहा हूं। जाना है मुझे। काम है। शीघ्र पहुंचना है कहीं-।” इन शब्दों के साथ ही बंगा हवा में घुलता हुआ, एकाएक गायब हो गया।

नगीना की गम्भीर निगाह वहीं टिकी रहीं, जहां बंगा कुछ पल पूर्व मौजूद था।

उसी पल नगीना को अपने मस्तिष्क में हल्का-सा झटका महसूस हुआ, फिर सब कुछ सामान्य-सा महसूस होने लगा। परन्तु उसके हाथ-पांव नियंत्रण से बाहर हो चुके थे। उसके हाथ-पांव उसकी सोचों के मुताबिक नहीं चल रहे थे। मस्तिष्क उसकी सोचों के मुताबिक नहीं चल रहा था।

तभी नगीना समझ गई, पेशीराम की आत्मा उस पर अधिकार पा चुकी है।

“नगीना बेटी-।”

“आ गये बाबा।” नगीना के होंठ हिले।

“तुम कैसी हो? कोई तकलीफ तो नहीं तुम्हें?” पेशीराम के शब्द मस्तिष्क से टकराये।

“बहुत तकलीफ है मुझे यहां।” नगीना ने थके स्वर में कहा-“देवराज चौहान की आत्मा को मैं नहीं ला सकी। कुछ दिनों में महामाया की शक्ति ने काला महल को जलाकर राख कर देना है। मैं कब तक कैद रहूंगी यहां? सौदागर सिंह तो शैतान की कैद से आजाद हो चुका है। मुझे जाने वो आजाद करता है या...।”

“नगीना बेटी।”

“बाबा।” एकाएक नगीना पुनः बोली-“तुम तो देवराज चौहान की आत्मा को कैद से छुड़ाने के लिये कोई नया रास्ता तलाश करने गये थे। मोना चौधरी को चक्रव्यूह में लाने के लिये कह गये थे।”

“हां। लेकिन बहुत गलत हो रहा है।” पेशीराम की आवाज का एहसास मस्तिष्क को हुआ-“मिन्नो को मैं लाया था सौदागर सिंह के चक्रव्यूह में। परन्तु वह न जाने कहां खो गई। ढूंढे भी नहीं मिली। विश्वास के साथ कह सकता हूं कि मिन्नो के साथ कोई बुरा हादसा पेश आया है। वो चक्रव्यूह में कहीं फंस गई है।”

“तुमने उसे ढूंढा क्यों नहीं बाबा?”

“ढूंढा था।” पेशीराम के शब्दों में अफसोस के भाव थे-“वो नहीं मिल पाई।”

“ये क्या कह रहे हो बाबा। मोना चौधरी न मिली तो सारा काम अधूरा रह-।”

“अब मेरे बस में कुछ नहीं रहा।” पेशीराम के आने वाले स्वर में थकान का एहसास था-“देवा की मौत हो चुकी है। तुम कैद में फंसी हो। निकलने का कोई रास्ता नहीं। मिन्नो चक्रव्यूह में खो चुकी है। शैतान के आसमान पर सब फंसे पड़े हैं। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा कि क्या करना है-कैसे बचना है।”

“बाबा।”

“हां बेटी-।”

“बिल्ली इस बारे में हमारी सहायता कर सकती है। उसके पास गुरुवर की शक्तियां हैं।” नगीना बुदबुदाई। पेशीराम की आवाज नहीं आई।

“तुमने कुछ कहा नहीं बाबा।” नगीना होंठों में बुदबुदाई।

“काली बिल्ली कोई सहायता नहीं करेगी मेरी।” पेशीराम के शब्द मस्तिष्क को छूते से लगे।

“क्यों?”

“पहली बात तो ये है कि गुरुवर की शक्तियों को ज्यादा इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं है, गुरुवर की तरफ से।” पेशीराम की आवाज का एहसास हो रहा था नगीना को-“अब तक उसे मालूम भी हो चुका है कि मेरी ही आत्मा तुम लोगों की सहायता कर रही है। ये बात उसे कभी भी पसन्द नहीं आयेगी कि गुरुवर की इजाजत के बिना मैं इन कामों में दखल दे रहा हूं।”

“तो बिल्ली हमारी कोई सहायता नहीं करेगी?”

“नहीं, वो सिर्फ वो ही काम कर रही है, जिसके दम पर मनुष्य का रूप पा सके। युवती बन सके।” पेशीराम के गम्भीर शब्द नगीना को छू रहे थे-“इसके अलावा वो कोई दूसरा काम नहीं करेगी।”

“बेशक सबकी जान चली जाये।”

“हां।”

“ऐसे में गुरुवर उसे नहीं कहेंगे कि उसने सबको बचाया क्यों नहीं?” नगीना के होंठ हिले।

“गुरुवर कुछ नहीं कहेंगे। क्योंकि गुरुवर ने एक हद से ज्यादा, बिल्ली को इजाजत नहीं दी थी कि वो उनकी शक्तियां इस्तेमाल कर सके।” पेशीराम के स्वर में चिन्ता थी-“गुरुवर अभी तक यज्ञ में व्यस्त हैं। ऐसे में वो बिल्ली को इजाजत देने के लिये यज्ञ से पल भर के लिये भी अपना ध्यान नहीं हटा सकते। वरना उनकी सारी मेहनत बेकार हो जायेगी और अब तक हासिल की उनकी सारी शक्तियां लुप्त हो जायेंगी।”

लम्बी खामोशी के बाद नगीना ने गम्भीर स्वर में कहा।

“तो अब हम क्या करें कि...।”

“हम कुछ नहीं कर सकते।” पेशीराम की आवाज का एहसास हुआ उसे-“मैं अब तुम्हारे पास ही रहूंगा।”

“क्यों?”

“मेरे पास करने को कुछ नहीं है। तुम कैद में हो और मिन्नो चक्रव्यूह में जाने कहां गुम हो गई है।”

“इस वक्त तुम आत्मा हो पेशीराम। मोना चौधरी को तलाश कर सकते हो।”

“आत्मा को भी आगे जाने के लिये दिशा-निर्देश की, रास्ते की जरूरत होती है। मिन्नो पास होती तो आगे जाने का रास्ता तलाश लेता। परन्तु अब कुछ नहीं कर सकता। मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता। काला महल में होकर आया हूं। वहां बिल्ली के अलावा कोई भी नहीं है।”

“ये कैसे हो सकता है-कुछ महल में और कुछ महल के बाहर के। बाहर-।”

“बाहर भी कोई नहीं मिला और महल में भी कोई नहीं। जाने कहां चले गये सब-।”

“कहीं-कहीं वो सब खतरे में तो नहीं जा फंसे? शैतान ने उनका बुरा तो नहीं कर दिया।” नगीना के होंठ हिले और वो व्याकुलता के सागर में डूबी दिखने लगी।

“मुझे कुछ नहीं मालूम कि क्या-क्या हो गया है। मैं तुमसे ज्यादा परेशान हूं। अब मैं तुम्हारे साथ हूं। मेरे सामने तुम्हीं हो, कोशिश करूंगा कि तुम्हें कोई नुकसान न हो सके।”

☐☐☐

जगमोहन, बांकेलाल राठौर, रुस्तम राव, राधा, महाजन, सोहनलाल, पारसनाथ और जानकीदास उस महल के प्रांगण में ही मिले। जहां मोना चौधरी को भामा परी ले आई थी।

मोना चौधरी उनसे मिल कर सब बेहद प्रसन्न हुए।

वे भी मोना चौधरी को सामने पाकर खुश हो उठे। उनके पूछने पर मोना चौधरी नहीं बता सकी कि पेशीराम की आत्मा कहां पर है। जानकीदास की मौजूदगी की वजह से उसने नहीं बताया कि वो चक्रव्यूह की गहरी परत में जा पहुंची और कैसे बाहर आई।

मोना चौधरी शालीनता से जानकीदास से मिली।

उसके बाद सब महल में पहुंचे। दो घंटे वे महल के भीतरी रास्तों पर घूमते हुए, वहां का हाल जानते रहे। महल पूरी तरह खाली था। उनके अलावा वहां कोई भी नहीं था। अलबत्ता किचन उन्हें पूरी तरह तैयार मिला। जरूरत की हर चीज वहां थी। सिर्फ तैयार करने की देर थी।

“तुम-।” मोना चौधरी ने जानकीदास से पूछा-“अपने बेटे की आत्मा पाना चाहते हो?”

“हां।” जानकीदास का स्वर दुःख से भर गया-“मैं और मेरी पत्नी पार्वती अपने प्रिय पुत्र की आत्मा को पाकर उसे फिर से जीवित कर देना चाहते हैं। वो ही तो हमारे जीवन का सहारा है।”

“हूं।” मोना चौधरी ने शांत भाव से सिर हिलाया-“हम अपने साथी की आत्मा लेने निकले हैं। शायद वहां तक पहुंच सकें, जहां आत्माओं को बन्दी बना रखा है। ऐसा हुआ तो तुम्हें भी तुम्हारे पुत्र की आत्मा मिल जायेगी।”

“वो क्षण मेरे लिये कितना सुखद होगा।” जानकीदास गम्भीर-सा कह उठा।

“मेरे को भूख लग रही है।” राधा कह उठी-“जीतू! तेरे को भूख नहीं लगी क्या?”

“खास नहीं। खाना बनेगा तो खा लूंगा।”

“बना रखा तो सब ही खा लेते हैं। लेकिन बनायेगा कौन?”

“मैं अच्छा खाना बना लेता हूं-।” जानकीदास बोला-“मैं जल्दी ही खाना तैयार कर लूंगा।”

“तुम-।” राधा ने सिर हिलाया-“ठीक है। मैं भी तुम्हारे पास रहकर खाना तैयार करूंगी।”

☐☐☐

मोना चौधरी और भामा परी अलग हटकर मिले।

“तुमने न तो जानकीदास को बताया कि पार्वती के साथ क्या हुआ-न ही मुझे बताने दिया।” भामा परी बोली।

“हां।” मोना चौधरी गम्भीर हो गई-“मैंने ऐसा क्यों किया, बहुत जल्दी तुम्हें मालूम हो जायेगा।”

“तुम कुछ छिपा रही हो मोना चौधरी-।”

“हां। छिपा रही हूं। सत्य अभी तुम सबके सामने आ जायेगा।” मोना चौधरी ने भामा परी को देखा-“सरजू और दया का मरना तो समझ में आता है, परन्तु पार्वती की मौत और प्रेमा का गायब हो जाना समझ में नहीं आ रहा।”

“मेरे ख्याल में प्रेमा ने ही सबको मारा है और वो कहीं चली...।”

“नहीं। प्रेमा सरजू-दया को नहीं मार सकती।” मोना चौधरी पक्के स्वरों में कह उठी-“वो क्यों मारेगी? मुझे पूरा विश्वास है कि बात कुछ और है। अभी इस बारे में किसी को कुछ मत बताओ। पूछे तो बात टाल देना।”

“ऐसा क्यों?”

“जानकीदास पर मुझे शक है।”

“कैसा शक?”

“वक्त आने दो-जो भी बात है, सामने आ ही जायेगी।” मोना चौधरी ने होंठ भींच कर कहा।

मोना चौधरी और भामा परी उस कमरे में पहुंचे, जहां सब थे।

राधा, जानकीदास के साथ किचन में खाना बना रही थी।

“भामा परी।” पारसनाथ ने कहा-“तुम तो सरजू-दया और पार्वती को लेने गई थीं। उन्हें लाईं नहीं?”

भामा परी ने मोना चौधरी को देखा तो, मोना चौधरी कह उठी।

“भामा परी को उधर जाने का वक्त ही नहीं मिला। यहां से निकलते ही मुझसे मुलाकात हो गयी।” इसके साथ ही मोना चौधरी ने भामा परी को देखा-“अब तुम उन सब को ले आना।”

भामा परी खामोश खड़ी रही।

“क्या सोच रही हो?” मोना चौधरी का स्वर शांत था।

“मैं सोच रही हूं, हमें जल्द से जल्द वहां पहुंचना चाहिये, जहां देवराज चौहान की आत्मा कैद है।” भामा परी कह उठी-“ज्यादा देर होना ठीक नहीं होगा। हमें जल्दी से अपना काम खत्म करना चाहिये।”

“तुम्हें क्या जल्दी है।” महाजन ने घूंट भरा।

“मुझे-।” भामा परी ने गहरी सांस ली-“अस्सी बरस से मैं परी लोक से निकली हुई हूं। अपनों से बिछुड़ी हुई हूं। मुझे उनके पास जाना है। मिलना है उनसे। अपना सारा हाल बताना है। वो मेरे अपने हैं।”

“तुम्हारी बात समझते हैं हम।” जगमोहन ने कहा-“तुम्हें कई बार कहा भी कि तुम जाओ, परन्तु तुम...।”

“इस तरह नहीं जा सकती मैं वापस परीलोक। तुम सबने मुझे कैद से निकाला है। अस्सी बरस की यातना भरी कैद से मुझे मुक्ति दिलाई। अपने देवता को बताना होगा कि मैंने तुम मनुष्यों का उपकार कैसे उतारा। जब तक तुम मनुष्य इस मुसीबत से निकल नहीं जाते, मैं परीलोक वापस नहीं जा सकती।”

पलभर के लिये वहां खामोशी रही।

“यही वजह है कि मैं तुम मनुष्यों के काम जल्दी पूरा कर देना चाहती हूं।”

“कैसे करोगी पूरा?” सोहनलाल बोला।

“इस चक्रव्यूह में जाकर देखूंगी कि आत्माओं को कहां पर कैद रखा है।” भामा परी ने गम्भीर स्वर में कहा-“देवराज चौहान की आत्मा मिल जाये। देवराज चौहान फिर जिन्दा हो जाये तो, सब अधूरे काम पूरे हो सकते हैं। अभी तक अधूरे काम पूरे हो गये होते अगर देवराज चौहान की मौत शैतान के चक्र से न हुई होती।” (इस बारे में जानने के लिये पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”)

“आओ परी।” बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया-“तंम पता कर देवराज चौहान की आत्मो किधरो को कैद होवो। अंम सबो को वड के उसी की आत्मों को ले आन्यो-।”

“ठीक कहेला बाप।”

“तुम चक्रव्यूह में वह जगह ढूंढ लोगी जहां देवराज चौहान की आत्मा कैद है?” सोहनलाल बोला।

“कोशिश करूंगी।” भामा परी के चेहरे पर गम्भीरता थी।

“कब तक लौट आओगी?”

“शीघ्र ही लौटने का प्रयत्न करूंगी। अगली सुबह तक अवश्य लौट आऊंगी।”भामा परी ने कहा-“इस बात की पूरी चेष्टा करूंगी कि देवराज चौहान की आत्मा के कैदखाने की जानकारी प्राप्त करके लौटूं-।”

उसके बाद भामा परी देवराज चौहान की आत्मा को ढूंढने निकल गई।

☐☐☐

बहुत जल्दी टेबल पर खाना सजा पड़ा था।

जानकीदास और राधा ने खाना सजाकर ही उन सबको बुलाया था।

“बहुत भूख लग रही है मुझे।” कह उठी राधा-“लेकिन मैंने सोचा कि टेबल पर खाना रखकर ही खाऊंगी। किचन में ही नहीं खा लूंगी। नीलू न खाये और मैं खा लूं, ये कैसे हो सकता है।”

“छोरे-।” बांकेलाल राठौर कह उठा-“खानो तो बढ़ियो हलवाइयों का बनायो लागो हो।”

“खुश्बू अच्छी मारेला बाप-।”

“खाना शुरू करो। ठंडा हो रहा है।” कहते हुए जगमोहन आगे बढ़ा और कुर्सी पर बैठ गया।

बाकी सब भी कुर्सियों पर बैठने लगे।

मोना चौधरी की निगाह जानकीदास पर पड़ी तो आंखें सिकुड़ गईं।

जानकीदास के चेहरे पर नजर आने वाली जहरीली मुस्कान थी जिसे कि मोना चौधरी ने देख लिया था और उसकी आंखों में तीव्र चमक लहरा रही थी।

जानकीदास के इस बदलाव को देखकर मोना चौधरी मन-ही-मन चौंकी।

मोना चौधरी ने हाथ की उंगली में पड़ी सौदागर सिंह की शक्तियों वाली अंगूठी को देखा फिर सब पर निगाह मारी।

हर कोई खाने की तैयारी में नजर आ रहा था कि मोना चौधरी कह उठी।

“रुक जाओ-अभी खाना नहीं खाया जायेगा।”

हर किसी की निगाह मोना चौधरी के गम्भीर चेहरे पर गई।

“मुझे तो बहुत भूख लगी है। मैं तो मर जाऊंगी, अगर मैंने खाना नहीं खाया।” राधा कह उठी।

“मेरे ख्याल में तो खाना खाकर जल्दी मरोगी।”

“क्या मतलब?” महाजन के होंठों से निकला।

“यो का कहो हो मोना चौधरी। खानो खा के भी मरो का कोई?”

“तुम कहना क्या चाहती हो?”

पारसनाथ अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरने लगा।

“देखते रहो।” मोना चौधरी की तीखी निगाह जानकीदास पर थी-“खाना सबसे पहले मैं खाऊंगी।”

“देखा नीलू।” राधा कह उठी-“मोना चौधरी कहती है खाना पहले ये खायेगी।”

जानकीदास बेचैन-सा नजर आने लगा।

“एक-एक करके खाना खाओगे तो खाना ठन्डा हो जायेगा।” जानकीदास ने जल्दी से कहा।

“एक-एक करके नहीं।” मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान उभरी-“खाना मैं और जानकीदास पहले खायेंगे।”

“नहीं। ये कैसे हो सकता है? खाना बनाने वाला बाद में खाना खाता है। तुम लोग खाना खाओ। मैं खाना खिलाऊंगा। किसी चीज की जरूरत पड़ी तो किचन में से फौरन ला दूंगा।” जानकीदास ने कहा-“बैठो-सब खाना खाओ।”

मोना चौधरी आगे बढ़ी और कुर्सी पर बैठ गई।

“बैठो जानकीदास। खाना खाओ। मैं भी तुम्हारे साथ खाऊंगी।”

“नहीं-नहीं तुम लोग खाना खाओ। मैं सबको खिलाकर ही खाऊंगा।”

मोना चौधरी के चेहरे पर कहर भरी मुस्कान सिमट आई।

“बाप।” रुस्तम राव सिर खुजला कर बोला-“पक्का, कोई लफड़ा होईला।”

“मेरे को भूख लग रही है।” राधा मचलने वाले स्वर में कह उठी।

“बैठो जानकीदास।” मोना चौधरी की आवाज में सख्ती-सी आ गई-“अब तक तुम्हें मेरे साथ खाना शुरू कर देना चाहिये था।”

जानकीदास सूखे होंठों पर जीभ फेरकर रह गया।

मोना चौधरी कुर्सी से उठी और जानकीदास के पास जा पहुंची।

जानकीदास पर सब की नजरें टिक चुकी थीं। बात क्या है? किसी की समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु ये एहसास सबको होने लगा था कि कोई बात है अवश्य।

“पसन्द नहीं आई मेरी बात।” मोना चौधरी दांत भींचकर बोली-“मेरे साथ खाना खाना पसन्द नहीं।”

जानकीदास मोना चौधरी को देखता रहा।

“बात क्या है मोना चौधरी?” कह उठा पारसनाथ।

“मेरे ख्याल में इसने खाने में जहर मिलाया है।” मोना चौधरी शब्दों को चबाकर कह उठी।

“क्या?”

“खाने में जहर?”

“ऐसा क्यों करेगा ये?”

“ये सबको धोखा दे रहा है।” मोना चौधरी की निगाह जानकीदास पर थी-“ये वो नहीं जो खुद को दर्शा रहा है। सौदागर सिंह का सेवक है ये। चक्रव्यूह में आने वालों को फंसाना या उन्हें खत्म कर देना, इसका काम है। ये हम लोगों को भी खत्म कर देना चाहता है। खाने में जहर मिलाकर। इसकी साथी पार्वती भी इसके साथ रहकर यही काम करती है।”

“ये झूठ है।” जानकीदास के होंठों से निकला।

“झूठ है तो तुम खाना क्यों नहीं खा रहे मेरे साथ।” मोना चौधरी ने कड़वे स्वर में कहा-“तुम्हारा जहर मुझ पर इसलिये कोई असर नहीं करेगा कि मेरे हाथ की उंगली में सौदागर सिंह की शक्ति वाली अंगूठी है। सौदागर सिंह के किसी भी तरह के शस्त्र का असर मुझ पर नहीं होगा। मालूम है जानकीदास ये अंगूठी मुझे कहां से मिली?”

“क-हां-से?”

“राजा केशोराम से। मार दिया है मैंने उसे।”

“झूठ कहती हो तुम।” जानकीदास के होंठों से निकला-“चक्रव्यूह की उस तह में पहुंच कर तुम वापस नहीं आ सकतीं।”

“गलतफहमी तुम्हें है। चक्रव्यूह से बाहर आने का इन्तजाम, सौदागर सिंह ने ही कर रखा था। पानी का देवता मुझे बाहर लाया वहां से।” मोना चौधरी कड़वे स्वर में कह उठी।

जानकीदास के होंठों से कुछ भी नहीं निकल सका।

“ये सब क्या हो रहा है?” उलझन में फंसा कह उठा जगमोहन।

मोना चौधरी की खा जाने वाली निगाह जानकीदास पर थी।

“पार्वती का हाल नहीं पूछोगे?”

“पार्वती?” जानकीदास के होंठों से निकला-“क्या हुआ पार्वती को?”

“सरजू-दया को तो उसने मार दिया, लेकिन मिट्टी के बुत प्रेमा को नहीं मार सकी वो। चूंकि वो पवित्र शक्तियों वाली तलवार के दम पर जिन्दा हुई थी इसलिये उसमें शक्ति थी। उसने पार्वती को मार दिया जानकीदास-।”

“नहीं-।” जानकीदास का स्वर कांपा-“ये नहीं हो सकता।”

“ये हो चुका-।”

“क्या?” राधा के होंठों से निकला-“पार्वती ने सरजू-दया को मार दिया। ओफ्फ-ये-ये हमें भी मार रहा था खाने में जहर डालकर। नीलू, जान ले ले इसकी। छोड़ना नहीं-। ये-।”

तब तक जालिम छोकरे ने दांत भींचकर जानकीदास पर छलांग लगा दी थी। परन्तु वेग के साथ जानकीदास से टकराने से पहले ही, जानकीदास ने उसे हाथों से रोका और एक तरफ उछाल दिया। रुस्तम राव फर्श पर लुढ़कता चला गया। दूसरे ही पल वो उछल कर खड़ा हो गया। चेहरा धधकने लगा था उसका।

“तंम म्हारे छोकरे को फेंका हो।” बांकेलाल राठौर दरिन्दगी भरे स्वर में कह उठा-“अंम थारे को ‘वड’ दयो। तंम-।”

“रुक जाओ। सिर्फ हाथों की ताकत से इसका मुकाबला नहीं किया जा सकता। उसके पास सौदागर सिंह की ही शक्तियां हैं।”

कहने के साथ ही गोना चौधरी के हाथ में प्रेतनी चंदा का दिया खंजर नजर आने लगा था। चेहरे पर खतरनाक भाव दिखाई देने लगे थे-“इसे मैं खत्म करूंगी।”

जानकीदास ने दांत भींचकर देखा मोना चौधरी के हाथ में पकड़े खंजर को। इसके साथ ही वो पलटकर बाहर की तरफ भागा।

मोना चौधरी ने खंजर हथेली पर रखा और सख्त स्वर में बड़बड़ा उठी।

“हे प्रेतनी चंदा के खंजर! जानकीदास को खत्म कर दे। ये किसी भी सूरत में बच न सके।”

उसी पल हथेली पर रखा खंजर एकाएक तीर की भांति हवा में लहराया और वेग के साथ दरवाजे की तरफ भागते जानकीदास की तरफ बढ़ा। इससे पहले कि जानकीदास दरवाजा पार करके बाहर निकल पाता, प्रेतनी चंदा का खंजर मूठ तक उसकी पीठ में धंसता चला गया।

जानकीदास की चीख वहां गूंज उठी।

वो लड़खड़ाया। खुद को गिरने से बचाने के लिये दरवाजे का पल्ला थामा। परन्तु खंजर ने उसे इससे ज्यादा मौका नहीं दिया कि सांस ले सके। उसकी सांसों की डोर तोड़ दी। फिर वो बे-जान-सा दरवाजे के बीचों-बीच जा गिरा

गहरा सन्नाटा-सा छा गया वहां पर।

हर किसी की निगाह जानकीदास की लाश पर थी।

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