पुलिस कन्ट्रोल रूम में ‘100’ डायल किये जाने पर जवाब में बजने वाले कई टेलीफोन थे। उन में आटोमैटिक स्विचओवर की ऐसी व्यवस्था थी कि एक फोन बिजी होने पर इनकमिंग काल दूसरे पर ट्रांसफर हो जाती थी, दूसरा बिजी होने पर तीसरा बजने लगता था, फिर चौथा, पांचवां, छटा कोई भी फोन अपनी तरतीब के हिसाब से बजने लगता था। यूं ‘100’ नम्बर के जरिये पुलिस तक पहुंचने के इच्छुक लोगों को अमूमन कभी बिजी टोन नहीं मिलती थी।
‘100’ नम्बर बजा तो ड्यूटी पर तैनात एक हवलदार ने बजता फोन उठाया।
“हल्लो।” — वो बोला।
“पुलिस कन्ट्रोल रूम?” — दूसरी ओर से पूछा गया।
“हां। बोलिये।”
“मैं आपको एक गम्भीर वारदात की खबर देना चाहता हूं। जो मैं कहूं, उसे गौर से सुनियेगा। मैं कोई बात दोहराऊंगा नहीं।”
“पहले अपना नाम बोलो। और ये बताओ कि फोन कहां से कर रहे हो?”
“रानी झांसी रोड के करीब मोतियाखान डम्प स्कीम में इरोज अपार्टमेंट्स नाम की एक मल्टीस्टोरी बिल्डिंग बन रही है। उसकी तेरहवीं मंजिल पर हरिदत्त पंत नाम के एक आदमी की लाश पड़ी है।”
“लाश पड़ी है! क्या हुआ उसे?”
“सुनते रहिये। बीच में मत टोकिये।”
“लेकिन तुम ...”
“मरने वाला एक जरायमपेशा आदमी है जिसके पिछले जुर्मों का लेखा जोखा आपके रिकार्ड में जरूर होगा। कश्मीरी गेट की हसन मंजिल नाम की एक चाल जैसी इमारत के एक पोर्शन में वो रहता है। उसी चाल के सात नम्बर पोर्शन में काशीनाथ नाम का एक शख्स रहता है जो कि मरने वाले की जिन्दगी में उसका जिगरी था। वो भी नोन हिस्ट्रीशीटर है इसलिये मरने वाले से उसकी चोर चोर मौसेरे भाई जैसी सांठ गांठ थी। कत्ल की बाबत आपका काशीनाथ से सवाल करना काफी कारआमद हो सकता है।”
“कत्ल इस ...इस काशीनाथ ने किया है?”
“जा के दरयाफ्त कीजिये।”
“कत्ल की नौबत क्यों आयी?”
“अच्छा सवाल है। जा के काशीनाथ के दर्शन कीजिये, शायद वो इसका बेहतर जवाब दे सके।”
“लेकिन...”
“नमस्ते।”
लाइन कट गयी।
नीलम की एम्बैसेडर कार चलाता प्रदीप रानी झांसी रोड पहुंचा। उसने कार सड़क पर ही खड़ी कर दी और एक खोजपूर्ण निगाह इरोज अपार्टमेंट्स की बनती इमारत पर दौड़ाई।
कहीं कोई नहीं था। उधर मुकम्मल सन्नाटा था।
गुड।
सड़क छोड़ कर उसने मैदान में कदम रखा और खामोशी से इमारत की तरफ बढ़ा।
ट्रंक मिल गया — वो मन ही मन बोला — तो लाश ही गायब कर दूंगा। फिर कोई सात जन्म ये स्थापित नहीं कर पायेगा कि वहां कोई कत्ल की वारदात हुई थी। अच्छा था कि वो बड़ी गाड़ी ले कर आया था। लाश को एम्बैसेडर में ढोना आसान था। वो उसे जमना के किसी उजाड़ पुल पर — जैसे शान्तिवन के पीछे बने पोन्टून के पुल पर — ले जा सकता था और लाश को जमना में फेंक सकता था। नदी की बहती धारा के साथ लाश कहीं की कहीं पहुंच जाती। लाश जब तक पकड़ में आती, तब तक हुलिया शिनाख्त के काबिल न बचता।
सामने की सीढ़ियों से वो इमारत में दाखिल हुआ। खामोशी से सीढ़ियों पर कदम रखता आखिरकार वो तेरहवीं मंजिल पर पहुंचा। उसने जेब से टार्च निकाल कर जलाई और उसकी रोशनी को सावधानी से फर्श पर इधर उधर घुमाया।
एक स्थान पर पहुंच कर रोशनी का दायरा ठिठका।
वो शख्स वहां मौजूद था।
रोशनी के दायरे को उस पर केन्द्रित किये प्रदीप उसके करीब पहुंचा। उसने झुक कर उसका मुआयना किया।
सुमन के कथनानुसार वो गोली खा कर मुंह के बल गिरा था लेकिन लाश तब अपने एक पहलू के बल पड़ी थी। गोली उसकी छाती में ऐन दिल के ऊपर लगी थी। वो खुद डाक्टर था इसलिये जानता था कि यूं गोली लगने पर तत्काल मृत्यु निश्चित होती थी।
यानी कि अब निश्चित रूप से वो कत्ल का मामला था।
अब उसके सामने पहाड़ जैसा काम ये था कि उसने लाश को तेरह मंजिल नीचे ग्राउण्ड फ्लोर तक ढोना था।
जबड़े भींचे दृढ़ता से उसने लाश की तरफ हाथ बढ़ाया।
तभी सड़क की दिशा में कहीं किसी वाहन के हैडलाइट्स की तीखी कौंध हुई।
उसने तत्काल टार्च का स्विच ऑफ कर दिया और आंखें फाड़ फाड़ कर उधर देखा।
पुलिस की एक जीप इमारत की तरफ बढ़ रही थी।
वो घबरा गया। एकाएक पुलिस कैसे पहुंच गयी वहां!
कैसे भी पहुंची, बहरहाल उसका वहां लाश के साथ पकड़ा जाना उसके लिये भारी दुश्वारी का बायस बन सकता था।
जीप इमारत के ऐन सामने आकर रुकी।
वो लाश के करीब से हटा और पिछवाड़े की सीढ़ियों की तरफ लपका।
पुलिस और पांच मिनट बाद आती तो वो लाश समेत पुलिस की गिरफ्त में होता।
बच गये — सीढ़ियां उतरता वो मन ही मन बोला।
एक टैक्सी कश्मीरी गेट हसन मंजिल के सामने जाकर रुकी।
टैक्सी में मायाराम था। वो टैक्सी की पिछली सीट पर अधलेटा सा पड़ा था और काफी हद तक नशे के हवाले था। उसकी आंखों में गुलाबी डोरे तैर रहे थे और होंठों पर मुस्कराहट थी। रह रह कर उसे सीमा नाम की उस नयी कालगर्ल की याद आ रही थी जो मुश्किल से बीस साल की थी और बहुत ही हसीन थी। निजामुद्दीन वाले फ्लैट पर उसे ये कहा गया था कि उस रोज सारी लड़कियां बुक थीं लेकिन एक नयी लड़की के साथ उसे फिट किया जा सकता था, जो कि शार्ट डयूरेशन के पन्द्रह हजार लेती थी। मायाराम ने मजबूरन नयी लड़की कबूल की थी लेकिन बाद में उसकी ऐसी सन्तुष्टि हुई थी कि मन ही मन वो यह निश्चय कर भी चुका था कि आइन्दा दिनों में जब भी उसका मूड होगा, वो सीमा की सोहबत की ही मांग करेगा।
वाह! क्या लड़की थी! कैसे कैसे करतब जानती थी! मुर्दे में जान फूंक सकती थी कम्बख्त!
“आ गये, बाप।”
उसने हड़बड़ा कर सिर उठाया तो पाया कि टैक्सी ड्राइवर ड्राइविंग सीट पर मौजूद होने की जगह पिछली सीट का दरवाजा खोलता उसके सामने खड़ा था।
“आ गये?” — मायाराम उचक कर बाहर झांकता बोला।
“हां।”
बड़े यत्न से मायाराम टैक्सी से बाहर निकला। वो इतना नशे में था कि ड्राइवर ने उसे सहारा न दिया होता तो वो जरूर धराशायी हो जाता।
“मैं छोड़ के आता है, बाप। किधर जाने का है?”
“सामने ही। हसन मंजिल में। सात नम्बर पोर्शन में।”
“मैं छोड़ के आता है।”
“बैसाखियां ...”
“पीछू पहुंचा देगा। आओ।”
उसने मायाराम को सहारा दिया, सहारा क्या दिया दाईं बांह उसके गिर्द लपेट कर उसे एक तरह से गोद में ही उठा लिया। वो उसे चाल के भीतर की तरफ ले चला।
चाल के आफिस की वाल क्लॉक उस घड़ी ठीक पौने ग्यारह बजा रही थी।
“बहुत बढ़िया आदमी हो तुम।” — मायाराम झूमता-सा बोला — “क्या नाम है तुम्हारा?”
“मुबारक अली।”
“मुसलमान हो?”
“अंग्रेज तो नहीं है, बाप!”
मायाराम हा हा करके हंसा।
“बढ़िया आदमी हो।”
मुबारक अली खामोश रहा।
मुबारक अली के साथ ग्राउण्ड फ्लोर की लम्बी राहदारी में चलता जब वो पंत के दरवाजे पर से गुजरा तो यह देख कर उसके नेत्र सिकुड़े कि दरवाजा बन्द था और उसे बाहर से ताला लगा हुआ था।
“कहां चला गया!” — उसके मुंह से निकला — “ये तो खाना खाते ही सो जाने वाला था!”
“क्या बोला, बाप?” — मुबारक अली बोला।
“कुछ नहीं। तुम्हारे से नहीं बोला।”
मुबारक अली ने उसे सात नम्बर पोर्शन के दरवाजे पर पहुंचाया।
मायाराम ने दरवाजे का ताला खोल कर उसे धक्का दिया और भीतर जा कर रोशनी की।
“मैं बैसाखियां लाता है।” — मुबारक अली बोला।
मायाराम ने सहमति में सिर हिला दिया।
मुबारक अली टैक्सी पर वापिस लौटा। उसने उसकी डिकी खोल कर भीतर से कैनवस का बड़ा-सा थैला बरामद किया, उसमें से अखबार में लिपटा एक पुड़ा बरामद किया और फिर अखबार को खोल कर टैक्सी के करीब फर्श पर रखा।
अखबार में सीमेंट था।
वो बड़ा-सा थैला उसे विमल से प्राप्त हुआ था। विमल ने उसे अच्छी तरह से समझा दिया था कि भीतर क्या कुछ था और उसने क्या कुछ करना था!
उसने टैक्सी की पिछली सीट पर से मायाराम की दोनों बैसाखियां उठाईं और उनके निचले डण्डों को अखबार में पड़े सीमेन्ट पर रगड़ा।
कुछ क्षण बाद उसने निचले डण्डों को अपनी आंखों के करीब लाकर देखा तो पाया कि उनके बेस पर कोई तीन इंच ऊपर तक दोनों बैसाखियों पर सीमेंट की बारीक परत चढ़ी हुई थी।
बढ़िया।
उसने खुले अखबार को वापिस पुड़े में तब्दील किया और उसे टैक्सी में पीछे दोनों सीटों के बीच में रख दिया। फिर उसने बैसाखियां और भारी थैला सम्भाला और तेजी से चलता मायाराम के पोर्शन के सामने पहुंचा। वहां उसने थैला दरवाजे के पहलू की दीवार के साथ टिका कर बाहर गलियारे में रख दिया और फिर बैसाखियां सम्भाले भीतर दाखिल हुआ।
उसने मायाराम को एक कुर्सी पर बैठ कर अपने जूते उतारते पाया।
“तुम्हारी बैसाखियां, बाप।” — मुबारक अली बोला।
“शुक्रिया।” — मायाराम बोला — “उधर दीवार के साथ लगा के रख दो।”
मुबारक अली ने वैसा ही किया।
“बढ़िया आदमी हो। मुबारक अली बताया था न अपना नाम?”
“हां, बाप।”
“कश्मीरी गेट तुम्हारा अड्डा होता तो मैं जहां भी जाता, तुम्हारे साथ जाता।”
“अभी भी क्या वान्दा है, बाप। तुम जब बुलायेगा, मैं इधर आयेगा।”
“शुक्रिया। शुक्रिया। वैसे तुम्हारा पक्का अड्डा किधर है?”
“सुजान सिंह पार्क। एम्बैसेडर होटल के बाजू में।”
“मैं याद रखूंगा। भाड़ा कितना हुआ?”
“एक सौ दस रुपये।”
मायाराम ने उसे एक सौ का नोट और एक पचास का नोट पकड़ाया और बड़ी दयानतदारी से बोला — “बाकी रखो।”
“मालेमुफ्त दिलेबेरहम।”
“क्या! क्या बोला?”
“शुक्रिया बोला, बाप।”
“मुम्बई से हो।”
“कैसे जाना, बाप?”
“बाप बाप तो उधर ही बोलते हैं।”
“ओह! हां, मैं मुम्बई से है पण अब इधर ही रहने का है। मेरे को दिल्ली पसन्द।”
“हूं।”
“बाप?”
“अब क्या है?”
“एक गिलास पानी मिलेगा?”
“हां, हां। क्यों नहीं?”
मायाराम कुर्सी पर से उठा और नंगे पांव पिछले कमरे की ओर बढ़ा। जब वो मुबारक अली की निगाहों से ओझल हो गया तो मुबारक अली झपट कर बाहर पहुंचा, उसने वहां से थैला उठाया और उसमें से एक जोड़ी जूते निकाले। उसने उन जूतों को कुर्सी के करीब फेंक दिया और मायाराम के उतारे जूते उठा कर अपनी पतलून की दायीं बायीं जेबों में खोंस लिये। फिर उसने कमरे में बिछे दीवान का ढक्कन उठाया और कैनवस का थैला उसके भीतर डाल दिया। उसने ढक्कन बन्द करके उसकी मैट्रेस और मैट्रेस पर बिछी चादर को पूर्ववत् व्यवस्थित कर दिया।
पानी का गिलास थामे मायाराम वापिस लौटा। उसने गिलास मुबारक अली को थमाया।
प्यास न होते हुए भी मुबारक अली एक सांस में पानी पी गया।
“शुक्रिया, बाप।” — वो गिलास सैंटर टेबल पर रखता हुआ बोला — “मैं जाता है।”
मायाराम ने सहमति में सिर हिलाया।
दरवाजे पर निरन्तर पड़ती दस्तक से मायाराम की नींद खुली। उसने हाथ बढ़ाकर बिजली का स्विच आन किया और वाल क्लॉक पर निगाह डाली।
बारह से ऊपर का वक्त हो चुका था।
“कौन?” — वो उच्च स्वर में बोला।
“पुलिस!” — जवाब मिला — “दरवाजा खोलिये।”
पुलिस! — मायाराम हड़बड़ा कर उठा — पुलिस का वहां क्या काम? क्या नीलम अपनी जुबान बन्द नहीं रख सकी थी और उसने पुलिस के आगे सब कुछ उगल दिया था!
नहीं। ऐसा करने की उसकी मजाल नहीं हो सकती थी।
दरवाजे पर फिर दस्तक पड़ी।
मायाराम लड़खड़ाता-सा दरवाजे तक पहुंचा और उसने दरवाजे को भीतर से खोला।
उसे अपने सामने एक युवा, बावर्दी सब-इन्स्पेक्टर खड़ा दिखाई दिया। उसके पीछे एक हवलदार खड़ा था।
मायाराम एक तरफ हुआ तो दोनों भीतर घुस आये।
“बैठिये।” — मायाराम अदब से बोला।
“ऐसे ही ठीक है।” — सब-इन्स्पेक्टर रूखे स्वर में बोला — “मेरा नाम जनकराज है। मैं पहाड़गंज थाने से आया हूं। मेरे थाने के इलाके में एक वारदात हो गयी है जिसकी बाबत आपसे पूछताछ करनी है।”
“वारदात! कैसी वारदात?”
“एक आदमी का कत्ल हो गया है।”
“हे भगवान! किसका?”
“अभी बताते हैं। पहले जो मैं पूछूं, उसका जवाब दीजिये।”
“ये पूछताछ उस कत्ल के सिलसिले में ही है?”
“यही समझ लीजिये।”
“मेरा कत्ल से क्या वास्ता?”
“शायद न हो। चन्द सवालात पूछना फिर भी जरूरी है।”
“ओह!”
“आपका नाम?”
“काशीनाथ।”
“कहां के रहने वाले हैं?”
“हिमाचल का।”
“दिल्ली में कब से हैं?”
“यही कोई दो महीने से।”
“उससे पहले कहां थे?”
“मुम्बई में।”
“काम क्या करते हैं?”
“कुछ नहीं। अपाहिज आदमी हूं। ऊपर से बूढ़ा हो चुका हूं। अब क्या काम करूंगा?”
“खर्चा पानी कैसे चलता है?”
“पुराना कमाया कुछ रुपया है मेरे पास। उसी से चलता है।”
“यहां घर पर कब से हैं?”
“यही कोई पौने ग्यारह बजे से।”
“उससे पहले कहां थे?”
“पहले कहीं गया था।”
“कहां?”
“बताना जरूरी है?”
“हां।”
“पहले निजामुद्दीन गया था। एक फ्रेंड से मिलने। दो घन्टे वहां ठहरा था।”
“वहां से सीधे यहां आये थे?”
“हां।”
“दो घन्टे आप फ्रेंड के साथ थे?”
“हां।”
“कब से कब तक?”
“आठ से दस तक।”
“बीच में कहीं गये?”
“नहीं।”
“वो फ्रेंड इस बात की तसदीक करेगा कि शाम आठ से दस तक आप उसके साथ थे?”
“क्यों नहीं करेगा?”
“यानी कि करेगा?”
“हां। जो बात सच है, उसे दोहराने में किसी को भला क्या गुरेज होगा!”
“फ्रेंड का नाम पता बोलिये।”
मायाराम हिचकिचाया।
“बोलिये।” — सब इन्स्पेक्टर जिदभरे स्वर में बोला।
“क्या ये जरूरी है?”
“जी हां। जरूरी है।”
“क्यों जरूरी है?”
“क्योंकि वारदात कत्ल की है।”
“मेरा ऐसी किसी वारदात से क्या लेना देना?”
“शायद हो लेना देना। शायद न हो। यही तो तफ्तीश का मुद्दा है।”
“आपको मेरे पास आना सूझा क्योंकर?”
“हमें एक टिप मिली थी।”
“टिप! कैसी टिप?”
“यही कि कत्ल की बाबत आपसे सवाल करना हमारे काम आ सकता था।”
“मेरे से? काशीनाथ से?”
“जी हां।”
“यहां का पता कैसे जाना?”
“टिप देने वाले ने ही बताया।”
“कमाल है! ऐसा कौन मेहरबान निकल आया मेरा जो ...कत्ल किसका हुआ है? मरा कौन है?”
“आपको नहीं मालूम?”
“नहीं मालूम। कैसे मालूम होगा?”
“आप कोई हथियार रखते हैं?”
“हथियार!”
“मसलन रिवाल्वर! अड़तीस कैलीबर की!”
“तौबा! मेरे पास रिवाल्वर का क्या काम?”
“अगर हम यहां की तलाशी लें तो आपको कोई एतराज?”
“रिवाल्वर के लिये?”
“किसी भी चीज के लिये। एक चीज की तलाश में हमें दूसरी भी मिल जाये, तीसरी भी मिल जाये तो क्या हर्ज है!”
मायाराम खामोश रहा।
“आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। आपको तलाशी से कोई एतराज है?”
“मुझे सख्त एतराज है। क्यों भला बेवजह मैं आपको यहां की तलाशी की इजाजत दूं?”
“कोई काम बेवजह नहीं होता।”
“तो तलाशी की कोई वजह बताइये। साफ बोलिये कि आप यहां कोई रिवाल्वर तलाश करना चाहते हैं।”
“साफ बोलूंगा तो आप तलाशी लेने देंगे?”
“नहीं। फिर भी नहीं।”
“ये आपका आखिरी फैसला है?”
“हां। यहां की तलाशी लेनी है तो सर्च वारन्ट लेकर आइये।”
“ठीक है। उठ के हमारे साथ चलिये।”
“कहां!”
“मोर्ग में। जो कि इर्विन हस्पताल में है। जहां कि मकतूल की लाश पड़ी है जिसकी कि आपने शिनाख्त करनी है।”
“आपने कैसे सोच लिया कि मैं लाश की शिनाख्त कर सकता हूं?”
“हमें ये भी टिप मिली है कि मकतूल आपके लिये अजनबी नहीं है। वो आपका खास है, जिगरी है, पक्का दोस्त है।”
“लेकिन वो है कौन?”
“ये तो आप हमें बतायेंगे।”
“मैं जाने से इनकार कर दूं तो?”
“तो शक की बिना पर मुझे आपको गिरफ्तार करना पड़ेगा।”
“अजीब धांधली है आपकी! बताते कुछ भी नहीं लेकिन जानना सब कुछ चाहते हैं।”
“मैंने बोला न, कोई बात बेबुनियाद नहीं होती। अब साफ बोलिये, आप चल रहे हैं या नहीं?”
“चलता हूं, भाई, चलता हूं।”
“शुक्रिया।”
“मैं कपड़े तब्दील कर लूं?”
“ऐसे ही चलिये। करीब ही तो जाना है!”
“लेकिन ...”
“आप पुलिस की जीप में जायेंगे और वही जीप आपको वापिस भी छोड़ कर जायेगी। कोई प्राब्लम नहीं होगी आपको।”
“ठण्ड का मौसम है। कम से कम एक शाल तो ले लूं।”
“ले लीजिये।”
मायाराम उठ कर पिछले कमरे में चला गया।
तब हवलदार ने कुर्सी के करीब उलटे पड़े जूते के एक पांव की तरफ संकेत किया।
“क्या है?” — सब-इन्स्पेक्टर उलझनपूर्ण स्वर में बोला।
“साहब जी” — हवलदार दबे स्वर में बोला — “सोल और हील पर सीमेंट की महीन परत चढ़ी मालूम होती है।”
सब-इन्स्पेक्टर सकपकाया, उसने आगे बढ़ कर जूते का मुआयना किया तो पाया कि बात सच थी। उसने दूसरे जूते को देखा तो पाया कि उसके सोल और हील पर भी सीमेंट की वैसी ही महीन परत थी।
“बैसाखियां भी देखिये।” — हवलदार फुसफुसाया।
सब-इन्स्पेक्टर ने दोनों बैसाखियों का मुआयना किया तो पाया कि उसके भी जमीन पर टिकने वाले डंडे के तले पर और तले से कोई तीन इंच ऊपर तक सीमेंट की महीन परत चढ़ी हुई थी।
तभी शाल लपेटता मायाराम वापिस लौटा।
“आप कहते हैं कि आप निजामुद्दीन गये थे।” — सब-इन्स्पेक्टर बोला — “यहां से वहां पहुंचते वक्त या वहां से यहां लौटते वक्त आप किसी कंस्ट्रक्शन साइट से गुजरे थे?”
“नहीं।” — मायाराम बोला।
“जहां कि आपको बैसाखियों के सहारे पैदल चलना पड़ा हो?”
“नहीं।”
“ये बैसाखियां आपकी हैं?”
“और किसकी होंगी?”
“और ये जूते?”
“मेरे घर में किसी और के जूतों का भला क्या काम!”
“यानी कि आपके हैं?”
“हां।”
“चलिये।”
सहमति में सिर हिलाता मायाराम बैसाखियों की तरफ बढ़ा।
“इनकी जरूरत नहीं पड़ेगी आपको।” — सब-इन्स्पेक्टर बोला।
“मैं इनके बिना नहीं चल सकता।”
“चल सकते हैं। अभी आप मेरे सामने चल कर पिछले कमरे में गये और वहां से लौटे। बैसाखियों के बिना।”
“ये तो कुछ कदमों की बात थी!”
“मोर्ग भी कुछ कदमों की बात ही होगी।”
“लेकिन ...”
“और फिर हम हैं न आपके साथ! हम आपको सिर माथे बिठा कर ले जायेंगे और ऐसे ही छोड़ के जायेंगे।”
“ठीक है फिर।”
तीनों वहां से बाहर निकले।
मायाराम ने पीछे मुख्य द्वार को ताला लगा दिया।
फिर आजू बाजू चलते सब-इन्स्पेक्टर और हवलदार के बीच चलता, उनके सहारे कदम उठाता वो गलियारे में आगे बढ़ा।
पंत के पोर्शन के सामने से गुजरते वक्त उसने पाया कि उसका दरवाजा तब भी बदस्तूर बन्द था।
कहां चला गया था कमबख्त! — मायाराम ने मन ही मन सोचा — कहीं मुर्दाघर में वो ही तो नहीं लेटा पड़ा था?
वो जबरन मोर्ग ले जाया जा रहा था लेकिन अब खुद उसके मन में भी लाश देखने की इच्छा बलवती होने लगी थी।
बाहर आकर वो तीनों जीप में सवार हो गये। जीप के स्टियरिंग के पीछे एक वर्दीधारी सिपाही मैाजूद था, सब-इन्स्पेक्टर के संकेत पर जिसने जीप तत्काल आगे बढ़ायी।
रात की उस घड़ी सुनसान सड़कों पर चलती जीप दिल्ली गेट की दिशा में दौड़ने लगी।
“इस वक्त आप चप्पल पहने हैं।” — एकाएक सब-इन्स्पेक्टर बोला — “लेकिन जब शाम को तफरीहन निकले थे, तब तो आप सूट बूट डाटे होंगे?”
“हां।” — मायाराम अनमने भाव से बोला।
“पीछे वो जूते जो कुर्सी के करीब लुढ़के पड़े थे, आपकी शाम की पोशाक का हिस्सा थे?”
“जाहिर है।”
“कैसे जाहिर है?”
“भई, मेरे पास एक ही जोड़ी जूते हैं।”
“आप किसी ऐसी जगह गये थे जहां कि कंस्ट्रक्शन वर्क चल रहा हो? मसलन किसी इमारत की तामीर हो रही हो? किसी जगह की मरम्मत हो रही हो?”
“ये सवाल आप पहले भी पूछ चुके हैं।”
“जवाब दीजिये।”
“नहीं। मैं ऐसी किसी जगह नहीं गया था। मैं सिर्फ एक जगह गया था जो कि निजामुद्दीन में है लेकिन वहां ऐसा कोई काम नहीं हो रहा था।”
“निजामुद्दीन आप कहां गये थे? किसके पास गये थे?”
जवाब देने की जगह मायाराम परे देखने लगा।
“ये कोई छुपाने लायक बात है?” — सब-इन्स्पेक्टर अप्रसन्न भाव से बोला।
“बताने लायक भी नहीं है।” — मायाराम बोला — “मैं नहीं मानता कि मेरी उस विजिट का आपके कत्ल के केस से कोई रिश्ता हो सकता है।”
“अगर रिश्ता निकल आया तो?”
“तो आप जो पूछेंगे, मैं बताऊंगा। लेकिन पहले नहीं।”
“क्यों नहीं?”
“क्योंकि वो मेरा जाती मामला है जिसकी कि मैं खामखाह की पब्लिसिटी नहीं चाहता।”
“हूं।”
जीप मोर्ग के सामने पहुंच कर रुकी।
सब-इंस्पेक्टर और हवलदार मायाराम को सहारा देकर अपने बीच चलाते मोर्ग के एक कमरे में पहुंचे जहां कि एक पहियों वाले स्ट्रेचर पर चादर से ढंकी एक लाश पड़ी थी।
सब इंस्पेक्टर के इशारे पर हवलदार ने चादर खींच ली। फिर सब इंस्पेक्टर ने मायाराम की बांह पकड़ कर उसे आगे कर दिया।
मायाराम विस्फारित नेत्रों से सामने देखने लगा।
सब-इन्स्पेक्टर लाश की तरफ निगाह उठाने की जगह गौर से मायाराम की सूरत देख रहा था।
“लगता है” — वो धीरे से बोला — “लाश आपकी पहचान में आ गयी है।”
“हां।” — मायाराम फंसे कण्ठ से बोला।
“किसकी है?”
“हरिदत्त पंत की।”
“जो कि आपका दोस्त है? जो कि हसन मंजिल में आपका पड़ोसी है?”
“हां। कैसे मर गया?”
“शूट कर दिया किसी ने। गोली ऐन दिल में से गुजरी। बेचारे को अगला सांस तक नहीं आया होगा। धराशायी होने से पहले ही मर चुका होगा।”
“कहां? कहां हुआ ये वाकया?”
“झण्डेवालान के इलाके में। वहां बनती एक मल्टीस्टोरी बिल्डिंग की तेरहवीं मंजिल पर।”
“ये वहां क्या करने गया?”
“आप बताइये।”
“मुझे कुछ नहीं मालूम।”
“आखिरी बार आप कब मिले थे इस ...इस हरिदत्त पंत से?”
“शाम साढ़े सात बजे के करीब।”
“कहां?”
“हसन मंजिल में स्थित इसके पोर्शन में जो कि मेरे पोर्शन से चार घर दूर है।”
“तब ये हरिदत्त पंत क्या कर रहा था?”
“होटल से खाना आने का इन्तजार कर रहा था जिसके बाद कहता था कि सो जाने वाला था।”
“सोया तो न होगा वरना कत्ल होने के लिये झण्डेवालान कैसे पहुंच गया होता?”
मायाराम ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया।
“कौन से होटल से खाना मंगाया था इसने?”
“युवराज होटल से। जो कि वहीं कश्मीरी गेट के इलाके में ही रिट्ज सिनेमा के करीब है।”
“ऐसे खाना वो अक्सर मंगाता था?”
“हां।”
“खाना उसने आपके सामने खाया था?”
“सामने तो नहीं खाया लेकिन मेरे जाते ही खा लिया होगा। आखिर मंगाया किसलिये था!”
“क्या था खाना?”
“एक पूरा तन्दूरी चिकन, मटर पनीर और नान।”
“ये अच्छी जानकारी दी आपने क्योकि ये बात पोस्टमार्टम के दौरान कत्ल का सही वक्त निर्धारित करने में मददगार हो सकती है।”
“वो कैसे?”
“पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टरों को मालूम होता है कि पेट में पहुंचने के बाद कौन सी खाद्य सामग्री कितने टाइम में पचती है। आदमी की जान निकलते ही उसकी पाचन क्रिया बन्द हो जाती है। डाक्टर लोग पेट खोल कर इस बात का मुआयना करते हैं कि कौन सी चीज किस हद तक हज्म हो चुकी थी। फिर उसी से मौत का ऐन सही वक्त निर्धारित किया जा सकता है।”
“ओह!”
“पोस्टमार्टम सुबह होगा। मुझे डाक्टर को बताना होगा कि हत्प्राण ने अपनी मौत से पहले, कोई साढ़े सात बजे के करीब, तन्दूरी चिकन, मटर पनीर और नान खाया था।”
“हूं।”
“आप कोई वजह बता सकते हैं कि जो आदमी खा पी कर सोने की तैयारी कर रहा था, वो क्यों एकाएक उठा और कत्ल होने के लिये झण्डेवालान पहुंच गया?”
“मैं इस बारे में क्या कह सकता हूं!”
“आप उसके दोस्त थे। दोस्ती में बहुत बातें सांझी होती हैं। दोस्त दोस्त की थॉट ट्रेन को समझने लगता है। सोचिये कोई ऐसा कुछ जो इस बात पर रोशनी डाल सके कि वो क्यों मौकायवारदात पर गया जहां कि कातिल उसका पहले से इन्तजार कर रहा था या उसके सामने आया था?”
“मुझे कुछ नहीं सूझ रहा।”
“दैट्स टू बैड।”
“मर्डर वैपन से भी तो कातिल का पता लगाया जा सकता है।”
“बराबर लगाया जा सकता है लेकिन इस केस में मर्डर वैपन बरामद नहीं हुआ। बहरहाल इतना हमें फिर भी मालूम है कि उस पर घातक गोली किसी अड़तीस कैलीबर की गन से चलाई गई थी।”
“ओह!”
“आपके पास ऐसी कोई गन नहीं है?”
“नहीं है। पहले भी बताया था मैंने।”
“हां, बताया था शायद। आपके दोस्त की, मकतूल की, इस हरिदत्त पंत की आमदनी का क्या जरिया था?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“कैसे दोस्त हैं आप उसके जो उसकी बाबत इतना भी नहीं जानते!”
“उसकी जाती जिन्दगी में मेरा कोई दखल नहीं था।”
“अमूमन रोजी रोटी का जरिया जाती जिन्दगी में शुमार नहीं होता। कोई चोर हो, उठाईगिरा हो, स्मगलर हो, कॉनमैन हो, ब्लैकमेलर हो तो बात दूसरी होती है। क्या वो ऐसे किसी काले धन्धे में था?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“वो चाल में रहता था, इस लिहाज से कोई आसमान छूने वाली माली हालत का मालिक तो वो नहीं होगा!”
“आप ठीक कह रहे हैं।”
“मैं तो ठीक कह रहा हूं। आप क्या कह रहे हैं? क्या था उस शख्स की आमदनी का जरिया?”
“बोला न, मुझे नहीं मालूम।”
“या कोई जरिया था ही नहीं! या उसका भी गुजारा आपकी तरह पुराने कमाये रुपये पैसे से ही चल रहा था!”
“मैं इस बाबत कुछ नहीं जानता।”
“वो कोई जरायमपेशा व्यक्ति था?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“हो सकता था?”
“होने को क्या नहीं हो सकता!”
“यानी कि हो सकता था?”
“हां।”
“कभी जेल की हवा खाई?”
“किसने?” — मायाराम हड़बड़ा कर बोला।
“उसने?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“आपने?”
“मैं इस सवाल का जवाब देना जरूरी नहीं समझता।”
“जेल गये आदमी का सरकार के पास पुख्ता रिकार्ड होता है। देर सबेर हर बात रिकार्ड में से निकलवायी जा सकती है।
“मुझे और कब तक यहां ठहरना होगा?”
“कभी तक भी नहीं। शिनाख्त के लिये आपको यहां लाया गया था, शिनाख्त हो चुकी।”
“यानी कि अब मैं घर जा सकता हूं।”
“जा सकते हैं लेकिन घर नहीं।”
“क्या मतलब?”
“आपको अपने घर की तलाशी से एतराज था। आपका हुक्म था कि अगर हमने तलाशी लेनी थी तो हम सर्च वारन्ट लेकर आयें। सर्च वारन्ट रात के एक बजे जारी नहीं हो सकता। उसके लिये सुबह तक इन्तजार करना पड़ेगा। तब तक आप हमारे मेहमान रहेंगे।”
“लेकिन ....”
“आपको कोई तकलीफ नहीं होगी। थाने में आपको पूरे आराम से रखा जायेगा।”
“थ ....थाने में!”
“जाहिर है। कोई होटल तो चलाया नहीं हुआ दिल्ली पुलिस ने।”
“आप तलाशी से बरामद क्या करना चाहते हैं?”
“अभी मालूम नहीं।”
“मेरे ही पीछे क्यों पड़े हैं आप? महज इसलिये क्योंकि किसी सिरफरे ने टेलीफोन पर आपको मेरी बाबत कोई टिप दी है?”
“हां।”
“ये तो धांधली है! ऐसे कोई कुछ भी बक दे ...”
“तो भी तफ्तीश करनी पड़ती है। ये कत्ल का केस है इसलिये हम किसी बात को भी नजरअन्दाज नहीं कर सकते।”
“मेरा कत्ल से कोई लेना देना नहीं है। कत्ल के वक्त मैं किसी के साथ था।”
“आपको क्या पता कि कत्ल किस वक्त हुआ था! ये तो अभी खुद हमें ही नहीं मालूम!”
“मेरा मतलब यह है कि मैं शाम के अपने एक एक मिनट का हिसाब दे सकता हूं।”
“फिर डर कैसा?”
“लेकिन मेरे घर की तलाशी ...”
“मामूली जहमत है जो आपको झेलनी पड़ेगी। जब वहां आपके खिलाफ कुछ बरामद ही नहीं होने वाला तो डर कैसा?”
“फिर भी ...”
“क्या फिर भी?”
मायाराम खामोश रहा।
“पीछे कानून तो आप ही छांट रहे थे। तलाशी लेने पर एतराज न करते, सर्च वारन्ट की दुहाई न देने लगते तो आपके लिये बाकी रात की हमारी मेहमाननवाजी की नौबत न आती। अब जो होना है, वो तो होगा ही, उसकी वजह से जो तकलीफ होगी, वो आपको भुगतनी ही पड़ेगी।”
“आप खामखाह मेरे पीछे पड़े हैं।”
“हो सकता है। लेकिन क्या करें? मजबूरी है। तफ्तीश ऐसे ही होती है। नौकरी ऐसे ही बजाई जाती है। आप तो रिजक कमाने की जिम्मेदारी से आजाद हैं, क्योंकि आपके पल्ले पुराना कमाया हुआ पैसा है, इधर तो ऐसा कुछ नहीं है! इधर तो तनख्वाह से ही गुजारा है! और तनख्वाह कमाने के लिये काम करना पड़ता है जो कि हम कर रहे हैं, ड्यूटी देनी पड़ती है जो कि हम दे रहे हैं।”
“तलाशी में आपको कुछ नहीं मिलने वाला।” — बेचैनी से पहलू बदलता मायाराम बोला।
“कोई बड़ी बात नहीं। हर कोशिश का माकूल नतीजा तो नहीं निकलता! लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि कोशिश की हो न जाये!”
मायाराम फिर न बोला। लेकिन अब उसका मन पुकार पुकार कर कह रहा था कि उसके साथ कोई अनहोनी होने वाली थी। पंत की मौत उसके लिये कोई भारी मुसीबत का सामान करने वाली थी।
“चाय पीजिये, जनाब।”
मायाराम कसमसाता-सा उठा। उसने आंखें मलते हुए अपने सामने खड़े उस हवलदार को देखा जो उसके लिये चाय और उस रोज का अखबार लाया था।
थाने के ही परिसर में बने क्वार्टरों में से एक के बैडरूम में उसकी पिछली रात गुजरी थी। गोया सब-इन्स्पेक्टर ने उसे मुजरिम की तरह नहीं, मेहमान की तरह ट्रीट किया था।
उसने चाय का गिलास और अखबार थाम लिया।
“कितने बज गये?” — फिर उसने पुछा।
“साढ़े सात।”
“वो सब-इन्स्पेक्टर साहब कहां है जो ...”
“वो अभी आये नहीं।”
“कब आयेंगे?”
“बस आते ही होंगे।”
“मुझे कब तक यहां ठहरना पड़ेगा?”
“वही आ के बतायेंगे।”
“अच्छी बात है।”
हवलदार वहां से रुखसत हो गया।
मायाराम ने चाय का एक घूंट भरा और अखबार खोला।
मुखपृष्ठ पर ही उसे पंत के कत्ल की खबर छपी दिखाई दी। खबर में जो विशेष बात थी वो यह थी कि पुलिस को किसी ने एक गुमनाम टेलीफोन काल करके मौकायवारदात पर पड़ी लाश की बाबत बताया था। वो काल न आती तो कत्ल की खबर तभी आम होती जबकि इमारत बनाने का काम करते राज मजदूर सुबह इरोज अपार्टमेंट्स के साईट पर पहुंचते। तब यूं पुलिस को खबर लगने में जरूर दोपहर हो जाती।
मायाराम को कलपाने के लिये अब वो एक नयी घुंडी सामने थी।
कौन था वो शख्स जिसने पुलिस को कत्ल की बाबत फोन किया था? कैसे वो कत्ल की ऐसी फौरी जानकारी रखता था जैसे वो उसकी आंखों के सामने हुआ हो!
क्या पता कातिल ही गुमनाम फोन करने वाला शख्स हो! लेकिन कातिल भला ऐसा, ‘आ बैल मुझे मार’ जैसा, काम क्यों करेगा?
तो कोई चश्मदीद गवाह!
कौन?
और फिर लाख रुपये का सवाल ये था कि कातिल था कौन?
उस सवाल का कोई जवाब उसे न सूझा।
उसे नीलम का खयाल आया।
नहीं, नहीं। वो कैसे कातिल हो सकती थी? उसमें कत्ल का हौसला होता तो वो उसका कत्ल करती जो कि उसकी मौजूदा दुश्वारी की वजह था।
तो उसका कोई हिमायती?
हिमायती पर भी ये ही एतराज लागू होता था।
फिर भी कोई हिमायती था तो वो कौन हो सकता था?
वो लड़की? सुमन?
क्या वो नीलम की हिमायत में कत्ल जैसा जघन्य अपराध कर सकती थी?
उसकी अक्ल ने गवाही न दी।
तो फिर कौन?
उसके जेहन पर विमल का अक्स उभरा।
लेकिन वो तो कब का मुम्बई वापिस चला गया हुआ था।
उसे कैसे मालूम था?
क्योंकि वो ऐसा कहता था।
क्या सबूत था कि जैसा वो कहता था, वैसा उसने किया भी था?
कोई सबूत नहीं था।
लेकिन पंत के कत्ल से उसे क्या हासिल था? पंत के कत्ल से नीलम ब्लैकमेल से निजात कैसे पा सकती थी?
उसे कोई जवाब न सूझा।
उसी उधेड़बुन में उसने चाय खत्म की।
वो करीबी साइड टेबल पर खाली गिलास रखने लगा तो उसने देखा कि वहां एक टेलीफोन पड़ा था। हिचकिचाते हुए उसने फोन का रिसीवर उठा कर कान से लगाया तो उसे डायल टोन सुनाई दी।
लाइन चालू थी।
उसने नीलम का नम्बर डायल किया।
“हल्लो।” — दूसरी तरफ से फोन उठाया गया तो वो बोला — “नीलम?”
“मैं सुमन बोल रही हूं।”
“नीलम को फोन दे।”
“वो सो रही है।”
“उठा।”
“नहीं उठती।”
“अरे, क्यों नहीं उठती?”
“उसकी तबीयत खराब है।”
“जबरन उठा।”
“आप कौन बोल रहे हैं?”
“अब सवाल ही किये जायेगी कि कुछ करेगी भी?”
“होल्ड कीजिये।”
रिसीवर कान से लगाये भुनभुनाता-सा वो खामोश बैठा रहा।
“हल्लो।” — कुछ क्षण बाद उसे नीलम का उनींदा स्वर सुनायी दिया।
“मैं बोल रहा हूं।” — वो बोला।
“क्या है?”
“होश में आ जा और जो मैं पूछूं, उसका साफ साफ जवाब दे।”
“क्या जवाब दूं?”
“कल तेरे से पंत मिला था?”
“नहीं।”
“फोन किया हो उसने?”
“किसलिये?”
“तू बता।”
“कोई फोन नहीं किया था उसने।”
“तेरा उससे कैसा भी कोई सम्पर्क नहीं?”
“क्यों होगा भला? मैं तो ठीक से जानती भी नहीं कि वो कौन है!”
“उसके कहे पर कल रात तू झण्डेवालान गयी थी जहां...”
“कल रात मैं कहीं नहीं गयी थी। हर घड़ी यहीं थी।”
“और वो लड़की सुमन?”
“वो भी यहीं थी।”
“मेरे से झूठ बोलने का अंजाम जानती है?”
“जानती हूं।”
“तो तेरा यही जवाब है?”
“हां।”
“सोहल का क्या हाल है?”
“ठीक ही होगा।”
“कहां है वो?”
“मुम्बई में।”
“पिछले दिनों वो दिल्ली में था।”
“नहीं हो सकता। वो दिल्ली में हो और घर न आये, मेरी खातिर नहीं तो अपने बच्चे की खातिर घर न आये, ये नहीं हो सकता।”
“वो दिल्ली में था।”
“बोला न, नहीं हो सकता।”
“तू इस बात की तसदीक कर सकती है कि वो मुम्बई में है?”
“हां।”
“कर। मैं फिर फोन करूंगा।”
“ठीक है।”
मायाराम ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया।
नौ बजे रमेश लूथरा, भूतपूर्व सब-इन्स्पेक्टर दिल्ली पुलिस, लोटस क्लब पहुंचा जहां कि विमल पहले से मौजूद था। उसने विमल का अभिवादन किया और फिर उसके करीब एक कुर्सी पर बैठ गया।
विमल ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“वो हरिदत्त पंत हिस्ट्रीशीटर निकला है।” — लूथरा अदब से बोला — “ठगी और धोखाधड़ी उसके पसन्दीदा शगल थे उसकी जिन्दगी में। कार चोर भी काफी पहुंचा हुआ बताया जाता है। दो बार गिरफ्तार हो चुका है, दोनों बार केस गवाहों के मुकर जाने की वजह से अदालत में टिक न सका, इसलिये बरी हो गया। पिछले दो साल से दिल्ली पुलिस को उसकी कोई खोज खबर नहीं थी इसलिये सोचा जा रहा था कि वो यहां से कहीं और शिफ्ट कर गया था। ये अभी भी कहना मुहाल है कि वो शुरू से ही यहीं था या जा के वापिस लौट आया था।”
“क्या फर्क पड़ता है!” — विमल बोला।
“ये बात अखबार में नहीं जा सकी है लेकिन पुलिस उसके घर की तलाशी ले चुकी है। लाश की जेब से ही चाबियों का एक गुच्छा बरामद हुआ था जिसमें एक चाबी उसके कश्मीरी गेट वाली चाल वाले पोर्शन के प्रवेशद्वार के ताले की भी थी। पुलिस को वहां से भी कुछ ऐसे सूत्र मिले हैं जो कि उसके जरायमपेशा व्यक्ति होने की तसदीक करते हैं।”
“कोई रुपया पैसा न मिला?”
“वो भी मिला। बड़े दिलचस्प ढंग से मिला।”
“मतलब?”
“पुलिस ने उसके घर से दो अलग अलग जगहों पर रखी दो रकमें बरामद की हैं। एक रकम दो लाख रुपये की थी जो पैकिंग में काम आने वाले खाकी कागज में लपेट कर एक पैकट बना कर एक सूटकेस में रखी हुई थी। दूसरी रकम कोई बत्तीस हजार रुपये के करीब की थी जो कि स्टील की अलमारी में एक लॉकर में बन्द थी।”
“पैकेट बना कर?”
“नहीं। सुना है लॉकर वाले नोट यूं ही खुले पड़े थे। उन पर कोई रबड़ बैंड तक नहीं था।”
“वो उसके रोजमर्रा के इस्तेमाल की रकम होगी न! दूसरी, पैकेट वाली, रकम किसी खास प्राप्ति से ताल्लुक रखती होगी।”
“खास प्राप्ति?”
“जैसे ब्लैकमेल में हिस्सा।”
“ब्लैकमेल?”
“आगे बढ़ो।”
“पुलिस इस बाबत अभी कोई सुराग नहीं पा सकी है कि वो उस बनती इमारत की तेरहवीं मंजिल पर क्या कर रहा था! कातिल उसके साथ ही वहां पहुंचा कोई शख्स था या बाद में आया था! कत्ल की कोई वजह भी अभी तक वो नहीं सोच पाये हैं।”
“आगे?”
“कल पुलिस को गुमनाम टिप मिली थी कि कश्मीरी गेट हसन मंजिल के पोर्शन नम्बर सात में रहता काशीनाथ नाम का कोई शख्स, जो कि मकतूल का दोस्त था, कत्ल के केस पर काफी रोशनी डाल सकता था। पुलिस शाम को ही उस पर चढ़ दौड़ी थी। पहाड़गंज थाने का सब-इन्स्पेक्टर जनकराज, जो कि मेरा दोस्त है — वो मेरे ही बैच का था, हम दोनों पुलिस में इकट्ठे भरती हुए थे — कल आधी रात के बाद काशीनाथ के यहां पहुंचा था। बाजरिया काशीनाथ, लाश की शिनाख्त हो चुकी है और काशीनाथ फोकस में आ चुका है।”
“वो कैसे?”
“उसके घर में जनकराज को कोई क्लू मिला था जो कि काशीनाथ की तरफ उंगली उठाता था। वो क्लू क्या है, वो मैं अभी नहीं जान पाया क्योंकि आज सुबह जनकराज से मेरी बात नहीं हो सकी। सुबह सवेरे ही वो न अपने घर पर था और न थाने में। वैसे थाने से मुझे ये खबर लगी है कि काशीनाथ की बाकी की पिछली रात थाने में गुजरी थी।”
“क्यों?”
“जनकराज उसके घर की तलाशी लेना चाहता था जो कि काशीनाथ को सर्च वारन्ट के बिना मंजूर नहीं थी। सर्चवारन्ट जारी कराने की कोशिश हो रही है। उस दौरान काशीनाथ अपने घर में भांजी न मार सके, कोई चीज इधर से उधर न कर सके, इसलिये उसे जबरन थाने बिठाया गया था।”
“और?”
“लाश का पोस्टमार्टम हो गया है। अड़तीस कैलीबर की एक गोली सीधी उसके दिल से गुजरी बताई जाती है जो कि उसकी तत्काल मृत्यु की वजह बनी थी। इतनी तत्काल मृत्यु की वजह बनी थी कि पोस्टमार्टम वाला डाक्टर कहता है कि वो धराशायी होने से पहले ही मर चुका होगा।”
“यानी कि वो फर्श पर जैसा गिरा होगा, वैसा ही पड़ा रहा होगा, गिरने के बाद कोई हिलडुल सम्भव नहीं रही होगी?”
“जी हां।”
“और?”
“पोस्टमार्टम के जरिये कत्ल का जो वक्त निर्धारित हुआ है, वो साढ़े आठ से साढ़े दस के बीच का है। लेकिन एक खास जानकारी के आधार पर डाक्टर ने कत्ल के वक्त को साढ़े नौ बजे पर पिनप्वायन्ट किया है।”
“यानी कि कत्ल ठीक साढ़े नौ बजे हुआ था?”
“पांच मिनट इधर या उधर। इससे ज्यादा नहीं।”
“ऐसा कैसे हुआ?”
“ये पक्की जानकारी हासिल हुई होने की वजह से हुआ कि मरने से पहले मरने वाले ने अपना आखिरी भोजन शाम साढ़े सात बजे के करीब खाया था। इस बात का चश्मदीद गवाह पुलिस को उपलब्ध है।”
“वो कौन हुआ?”
“खुद काशीनाथ। उसने इस बात की तसदीक की है कि लगभग साढ़े सात बजे युवराज होटल का एक वेटर उसके सामने पंत के लिये खाना — तन्दूरी चिकन, मटर पनीर, नान — लाया था जिसमें से चिकन की एक बोटी उसने भी खायी थी। पोस्टमार्टम के दौरान मकतूल के पेट में चिकन और मटर के जो अवशेष पाये गये थे, उनसे ही यह नतीजा निकाला गया है कि वो सब खाने के दो घन्टे बाद पंत की मौत हुई थी।”
“काशीनाथ अपने बारे में क्या कहता है?”
“वो कहता है कि कत्ल से उसका कोई लेना देना नहीं। उसके बयान के मुताबिक वो सात पैंतीस पर पन्त से अलग हुआ था। जबकि वो खाना खा कर सो जाने की तैयारी में था। सोना कैंसल करके वो शख्स कत्ल होने के लिये झण्डेवालान कैसे पहुंच गया, इस बाबत उसे न कोई जानकारी है और न वो कोई अन्दाजा पेश कर सकता है।”
“हूं।”
“बकौल काशीनाथ, कश्मीरी गेट से एक टैक्सी पर सवार हो कर वो निजामुद्दीन पहुंचा था जहां कि आठ से ले कर दस बजे तक वो अपने एक फ्रेंड के साथ था। ठीक पौने ग्यारह बजे वो वापिस अपनी चाल में लौट आया था जहां कि वो तत्काल बिस्तर के हवाले हो गया था और आधी रात के बाद किसी वक्त पुलिस के जगाये ही उठा था।”
“इस लिहाज से वो तो कातिल नहीं हो सकता!”
“अभी आठ से दस वाली उसकी एलीबाई की पड़ताल नहीं हुई है। इसलिये नहीं हुई है क्योंकि वो अपने फ्रेंड का नाम पता नहीं बताता। लेकिन अन्तत: तो उसे फ्रेंड का नाम बीच में लाना ही पड़ेगा वरना वो अपने आपको कभी बेगुनाह साबित नहीं कर पायेगा।”
“मुझे उससे हमदर्दी है, क्योंकि बेगुनाह तो वो अपने आपको कैसे भी साबित नहीं कर पायेगा।”
“जी!”
“मर्डर वैपन बरामद हुआ?”
“नहीं। सूरज निकलने के बाद पुलिस ने मौकायवारदात को फिर टटोला था लेकिन वहां से अड़तीस कैलीबर की गोली चलाने वाली कोई गन बरामद नहीं हुई थी।”
“वो तो जरूर बरामद होनी चाहिये!”
“पुलिस का खयाल है कि कत्ल के बाद कातिल आलायकत्ल अपने साथ ले गया था। हो सकता है वो काशीनाथ के घर से बरामद हो।”
“नहीं हो सकता।”
“वजह?”
“कत्ल में इस्तेमाल हुई वो रिवाल्वर मौकायवारदात पर ही है।”
“आपको कैसे मालूम?”
“मेरा मतलब है, वहीं होनी चाहिये।”
“लेकिन पुलिस ने वहां की तलाशी ...”
“ठीक से नहीं ली। एक खास जगह को नजरअन्दाज कर दिया।”
“कौन सी जगह?”
“वहां इमारत के पहलू में खोद कर बनाया गया एक टैम्परेरी लेकिन बहुत बड़ा, बहुत गहरा चौबच्चा है जो कि पानी स्टोर करने के काम आता है। बड़ी इमारतों के साइट पर पानी की किल्लत ऐसे ही दूर की जाती है कि एक चौबच्चा खोद लिया जाता है जिसमें मोटर द्वारा जमीन से निकाला गया पानी हर वक्त भरा रहता है। बाद में तामीर मुकम्मल हो जाने के बाद उस चौबच्चे को भर दिया जाता है।”
“ऐसा चौबच्चा वहां इरोज अपार्टमेंट वाले साइट पर भी है?”
“हां। पानी से पूरा भरा हुआ। निरन्तर सीमेंट और मिट्टी घुलती रहने से जिसका पानी गंदला हुआ हुआ है। पानी साफ न होने की वजह से उस गहरे चौबच्चे की तलहटी में नहीं झांका जा सकता। तुम अपने उस दोस्त सब-इन्स्पेक्टर को ये टिप दो कि शायद मर्डर वैपन उस चौबच्चे की तलहटी पर पड़ा हो।”
“पड़ा है?”
“मैंने कहा है शायद ... शायद पड़ा हो।”
“मुझे लगा कि आप निश्चित रूप से कह रहे हैं कि रिवाल्वर वहीं है।”
विमल ने घूर कर उसे देखा।
लूथरा तत्काल बौखला कर परे देखने लगा।
“मैं जनकराज को टिप कैसे दूंगा?” — फिर वो धीरे से बोला — “मेरे से सवाल नहीं होगा कि मुझे ये बात कैसे सूझी थी? मुझे ये ही कैसे सूझा था कि मौकायवारदात पर गंदले पानी का कोई चौबच्चा था?”
“सोचो कोई तरकीब। इतने गुरु आदमी हो। इतने पहुंचे हुए सब-इन्स्पेक्टर रह चुके हो कि सोहल पर हाथ डालने में कामयाब हो गये थे। अब ये नन्हीं-सी तरकीब मुझे सिखानी पड़ेगी!”
“मैं ...मैं कुछ करूंगा।”
“शाबाश!”
दस बजे पुलिस के लावलश्कर के साथ और मायाराम के साथ जनकराज जब कश्मीरी गेट पहुंचा तो लूथरा वहां पहले से मौजूद था।
“तुम!” — जनकराज उसे देख कर हैरानी से बोला — “तुम यहां क्या कर रहे हो?”
“जो काम करने आये हो” — लूथरा मीठे स्वर में बोला — “उससे निपट लो, फिर बताता हूं।”
“तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे तुम्हें मालूम था कि मैं यहां आने वाला हूं!”
“है तो यही बात!”
“क्या किस्सा है?”
“बोला न, फारिग हो लो, फिर बताता हूं।”
जनकराज ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया। फिर वो मायाराम की तरफ घूमा — “खोलो।”
मायाराम ने अपने पोर्शन के दरवाजे पर लगा ताला खोला।
उसके साथ पुलिसिये भीतर दाखिल हो गये।
लूथरा दरवाजे पर ही ठिठका खड़ा रहा।
सबसे पहले जनकराज जूतों की तरफ आकर्षित हुआ।
“ये जूते आपके हैं?” — वो बोला।
“जनाब” — मायाराम भुनभुनाया — “मैंने कल रात ही आपको बताया था कि ...”
“जवाब दीजिये।”
“हां, मेरे हैं।”
“कल आप इन्हें पहने हुए थे?”
“इसका भी जवाब मैं पहले आपको दे चुका हूं। मेरे पास एक ही जोड़ी जूते हैं।”
“यानी कि कल रात जब आप यहां से निकले थे तो आप ये जूते पहने हुये थे?”
“जाहिर है।”
“और आपका कहना है कि कहीं जाने या वहां से लौटते वक्त आप किसी कन्स्ट्रक्शन साइट से नहीं गुजरे थे?”
“हां।”
जनकराज ने सावधानी से दोनों जूते उठाये और उन्हें उलटा करके मायाराम के सामने किया।
“जरा जूते के तले पर गौर कीजिये।” — वो बोला — “सोल पर भी और हील पर भी।”
“क्या गौर करूं?”
“इन पर सीमेंट की बारीक परत चढ़ी मालूम हो रही है।”
“कुछ सुर्मई सा लगा तो हुआ है लेकिन ये सीमेंट है, मैं नहीं जानता।”
“हम जानते हैं। ये सीमेंट है।”
“तो क्या हुआ?”
“जूतों पर चढ़ी सीमेंट की परत इस बात की चुगली करती है कि कल रात इन्हें पहने आप किसी कन्स्ट्रक्शन साइट से गुजरे थे।”
“बिल्कुल नहीं। मैं तो ...”
“आप झण्डेवालान की उस बनती इमारत पर गये थे जहां कि लाश पायी गयी थी। आप मौकायवारदात पर गये थे।”
“क्या कह रहे हैं आप?” — मायाराम घबरा कर बोला।
“वरना आप बताइये कि ये सीमेंट की परत आपके जूतों पर कैसे चढ़ी, कहां से चढ़ी?”
“वो तो किसी और जगह से ....”
मायाराम एकाएक बोलता बोलता ठिठक गया।
“कहां से?”
“जरा इन्हें सीधा कीजिये।”
“क्या चाहते हैं?”
बड़े व्यग्र भाव से मायाराम ने खुद सब-इन्स्पेक्टर के जूते थामे हाथ की कलाई को घुमाया।
“ये जूते मेरे नहीं हैं।” — तत्काल वो बोला।
“क्या!” — जनकराज अचकचा कर बोला।
“ये जूते मेरे नहीं हैं।”
“तो ये पैंतरा सोचा है आपने इस ....इस फन्दे से बच निकलने का?”
“ये कोई पैंतरा नहीं है। ये हकीकत है कि ये जूते मेरे नहीं हैं।”
“कल तो आपने पूरे विश्वास के साथ इन्हें अपने जूते बताया था? ये तक कहा था कि किसी और के जूतों का आपके घर में भला क्या काम?”
“इन्स्पेक्टर साहब, जूते क्योंकि मेरे घर में पड़े थे, मेरे जूतों जैसे थे, मेरे नाप के थे इसलिये मैंने सहज ही सोच लिया था कि वो मेरे ही जूते थे। तब मैंने उन्हें इतने गौर से नहीं देखा था जितने से कि अब देख रहा हूं। तब कोई वजह भी नहीं थी गौर से देखने की। इन्हें गौर से मैंने अभी देखा है तो मुझे पता चला है कि ये मेरे जूतों जैसे हैं लेकिन मेरे जूते नहीं हैं।”
“अभी क्यों गौर से देखा है?”
“क्योंकि अब आप इन जूतों को मेरे खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल करने पर अमादा हैं।”
“इसीलिये अब आपको ये झूठ बोलना सूझा है कि ये जूते आपके नहीं हैं!”
“मैं ईश्वर की कसम खा कर कहता हूं, ये जूते मेरे नहीं हैं।”
“तो आपके जूते कहां हैं?”
“यहीं कहीं होंगे।”
खास जूतों की तलाश में दोनों कमरों की तलाशी ली गयी। जूतों का कोई दूसरा जोड़ा कहीं से बरामद न हुआ।
“अब क्या कहते हैं आप?” — जनकराज उसे घूरता हुआ बोला।
“जरूर मेरे जूते वही शख्स ले गया था जिसने कि ये जूते यहां रखे थे।”
“कौन शख्स?”
“क्या पता कौन शख्स!”
“कब किया होगा उसने ऐसा?”
“क्या मतलब?”
“आप कहते हैं कि आपके पास एक ही जोड़ी जूते हैं जो कि जाहिर है कि पिछली रात यहां से निकलते वक्त आप पहने हुए होंगे!”
“वो तो है।”
“आपके पहने पहने तो कोई जूते तब्दील कर नहीं सकता!”
“कैसे कर सकता है?”
“वही तो मैं कह रहा हूं। अब बताइये, यहां से निकलने और वापिस लौटने के बीच आपने कहीं और जूते उतारे थे?”
मायाराम ने तत्काल जवाब न दिया। जूते क्या, निजामुद्दीन में उस सीमा नाम की कालगर्ल के साथ उसने तो तन के सारे कपड़े भी उतारे थे। अब क्या ये बात उसे पुलिस को बतानी चाहिये थी!
नहीं। अभी नहीं।
“मैंने जूते कहीं उतारे थे।” — वो बोला — “लेकिन वहां ये नहीं बदले जा सकते थे।”
“क्यों?”
“क्योंकि वापिस पहनने के लिये जब जूते मेरे हाथ में आते तो मुझे जरूर अहसास होता कि वो मेरे जूते नहीं थे। ऐसा कोई अहसास मुझे नहीं हुआ था। इससे साबित होता है कि वहां मैंने उतारने के बाद अपने ही जूते वापिस पहने थे।”
“तो फिर जूतों की अदला बदली कब हुई? कहां हुई?”
“जाहिर है कि यहां हुई।”
“कब?”
“मेरे सो जाने के बाद।”
“आपके सो जाने के बाद कोई यहां घुसा और जूते तब्दील कर गया?”
“हां।”
“आप दरवाजे को भीतर से बन्द करके नहीं सोते?”
“बन्द करके सोता हूं लेकिन हो सकता है कि पिछली रात मैं दरवाजा बन्द करना भूल गया होऊं।”
“ऐसा हुआ होता तो आधी रात के बाद जब हम यहां आये थे तो हमें दरवाजा खुला मिलता। ऐसा नहीं था। दरवाजा खटखटाने से पहले हमने उसे धकेल कर देखा था तो पाया था कि दरवाजा मजबूती से भीतर से बन्द था। आपने भीतर से चिटकनी खोल कर दरवाजा खोला था और हमें भीतर दाखिल होने दिया था। चिटकनी सरकाई जाने की आवाज तक हमने बन्द दरवाजे के पार खड़े खड़े सुनी थी। याद आया?”
मायाराम का सिर स्वयमेव सहमति में हिला।
“अब क्या कहते हैं आप?”
“मैं क्या कहूं!” — मायाराम असहाय भाव से बोला — “जूते कब तब्दील हुए, कैसे तब्दील हुए, ये मैं नहीं जानता लेकिन ये हकीकत है और इसे मेरे से बेहतर कोई नहीं जान सकता कि ये जूते मेरे नहीं हैं। ये मेरे जूतों जैसे हैं, उसी नाप के हैं, लेकिन मेरे नहीं हैं।”
“बैसाखियों के बारे में क्या खयाल है? ये तो आपकी हैं या इन्हें भी कोई तब्दील कर गया?”
“बैसाखियां तो मेरी हैं!”
“यूं आनन-फानन जवाब न दीजिये वरना आप फिर कहेंगे कि उन्हें आपने पहले ठीक से नहीं देखा था।”
“बैसाखियां मेरी हैं।”
“पास जाके अच्छी तरह से ठोक बजा के देखिये और फिर जवाब दीजिये।”
मायाराम ने करीब जाकर बैसाखियों का मुआयना किया और फिर बोला — “मेरी हैं।”
“कल रात यहां से आपकी गैरहाजिरी के वक्फे में ये आपके साथ थीं?”
“जाहिर है। मैं इनका मोहताज हूं। इनके बिना घर से नहीं निकल सकता।”
“जहां आप गये थे, जहां आपके पैरों में मौजूद आपके जूते गये थे, वहां ये भी गयी होंगी?”
“जाहिर है।
“आपकी जानकारी के लिये इनके तले की तरफ भी उसी सीमेंट की परत मौजूद है जो कि आपके जूतों पर चढ़ी हुई है।”
“नहीं।” — मायाराम घबरा कर बोला।
“ये हकीकत है।”
“आप कहना क्या चाहते हैं?”
“कहना नहीं चाहता, पूछना चाहता हूं। आप अब भी इस बात से इनकार करते हैं कि कल रात आपके पांव झण्डेवालान के उस कन्स्ट्रक्शन साइट पर पड़े थे जो कि मौकायवारदात है, जहां कि आपके दोस्त हरिदत्त पंत की लाश पायी गयी थी?”
“हां, करता हूं। सौ बार इनकार करता हूं। हजार बार इनकार करता हूं।”
“आप एक आजाद मुल्क के आजाद शहरी हैं, आपके कहीं आने जाने पर कोई पाबन्दी आयद नहीं होती। लिहाजा ये कबूल कर लेने में क्या हर्ज है कि आप झण्डेवालान गये थे?”
“कोई हर्ज नहीं है।”
“तो फिर ...”
“मैं गया होता तो जरूर कबूल कर लेता। जब मैं गया ही नहीं तो कैसे कबूल कर लूं?”
“फिर लगे पुराना राग अलापने!” — जनकराज चिढ़ कर बोला।
मायाराम खामोश रहा।
“आप बात को समझने की कोशिश कीजिये।” — जनकराज फिर नर्म पड़ा और उसे समझाता हुआ बोला — “कत्ल करने वाला एक ही होता है लेकिन शक के दायरे में एक से ज्यादा लोग भी आ जाते हैं। जो लोग शक के दायरे में आते हैं, उनका फर्ज बनता है कि वो अपनी पोजीशन साफ करें। जो ऐसा कर पाते हैं, उनकी तरफ से पुलिस की तवज्जो हट जाती है, जो नहीं कर पाते उनके लिये प्राब्लम बन जाती है। मौजूदा केस में आप दूसरी किस्म के लोगों में आते हैं। आप अपनी पोजीशन साफ नहीं कर पा रहे हैं इसलिये आपकी तरफ से हमारी तवज्जो नहीं हट सकती।”
“आप ....आप मुझ पर कत्ल का इलजाम लगा रहे हैं?”
“अभी नहीं।”
“अभी नहीं?”
“सिर्फ इतने से ही आपको कातिल करार नहीं दिया जा सकता कि आप मौकायवारदात पर मौजूद थे।”
“मैं नहीं मौजूद था ...”
“सुनते रहिये। बीच में मत टोकिये। मैं आपके फायदे की बात कहने की कोशिश कर रहा हूं।”
“कहिये।”
“मौकायवारदात पर आपकी मौजूदगी कत्ल से पहले हो सकती है, कत्ल के दौरान हो सकती है, कत्ल के बाद हो सकती है। अगर आप कत्ल से पहले या कत्ल के बाद वहां गये थे तो आपकी कोई छोटी मोटी सफाई ही आपको शक से बरी करा सकती है। आप वहां कत्ल के दौरान मौजूद थे तो मामला गम्भीर है। फिर तो हमें ये मान कर चलना होगा कि या तो आप ही कातिल हैं या फिर आप कत्ल के गवाह हैं। अब बताइये कि आप कब वहां गये थे?”
“कभी भी नहीं। मैं फिर, फिर और फिर कहता हूं कि मैं यहां से निकल कर निजामुदीन जाने के अलावा और कहीं नहीं गया था।”
“आप अपनी ये जिद नहीं छोड़ेंगे?” — जनकराज उखड़ कर बोला।
“ये जिद नहीं, हकीकत है।”
“आप झण्डेवालान नहीं गये थे तो इस बात का कोई माकूल जवाब दीजिये कि आपके जूतों को, आपकी बैसाखियों को, सीमेंट की धूल कहां से लगी?”
“कहीं से नहीं लगी। ये मुझे फंसाने के लिये मेरे साथ चली गयी किसी की घिनौनी चाल है।”
“किस की? नाम लीजिये किसी ऐसे शख्स का?”
मायाराम खामोश हो गया। वो सोहल का नाम नहीं ले सकता था। सोहल का नाम लेने का मतलब ब्लैकमेल की कहानी को उजागर करना होता। फिर वो कत्ल के इलजाम में तो फंसता फंसता फंसता, ब्लैकमेल के इलजाम में हाथ के हाथ फंस जाता।
“किसी की चाल है” — जनकराज गुर्राया — “तो ये चाल उसने कैसे चली?”
“मैं नहीं जानता।”
“जान जायेंगे। जल्दी ही जान जायेंगे। अभी तो शुरुआत है। अभी आगे आगे देखिये क्या होता है!”
जनकराज ने आखिरी फिकरा ऐसे ढंग से बोला था कि मायाराम का कलेजा लरज गया।
फिर तलाशी का सिलसिला शुरू हुआ।
दीवान के बक्से में से कैनवस का थैला बरामद हुआ।
थैले में से ब्रीफकेस जैसा ट्रंक बरामद हुआ।
ट्रंक में से नोट बरामद हुए जो कि गिने जाने पर सात लाख के पाये गये।
मायाराम के छक्के छूट गये। उसका दिल तो नोटों की झलक मिलने से पहले ट्रंक देख कर ही अपनी जगह से उखड़ने लगा था।
“ये ट्रंक आपका है?” — जनकराज उसे घूरता हुआ बोला — “इसमें मौजूद रकम आपकी है?”
“नहीं।” — मायाराम बद्हवास भाव से बोला।
“आप किसी की अमानत के तौर पर ये ट्रंक यहां रखे हुए हैं?”
“नहीं।”
“तो फिर ये यहां क्या कर रहा है?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“अब आप कहेंगे कि ये भी आपको फंसाने के लिये आपके साथ चली गयी किसी की घिनौनी चाल है!”
“मेरा इस ट्रंक से कोई वास्ता नहीं। मैं नहीं जानता कि ये यहां कैसे पहुंचा!”
“आप नहीं जानते तो कौन जानता है?”
मायाराम से जवाब देते न बना।
“जनक।” — एकाएक लूथरा दबे स्वर में बोला।
जनकराज ने उसकी तरफ निगाह उठाई।
“क्या है?” — वो उखड़े स्वर में बोला।
“इधर आओ।”
“क्यों?”
“आओ तो।”
चेहरे पर अनिच्छा के भाव लिये जनकराज लूथरा के करीब पहुंचा।
“तुमने इस ट्रंक को नहीं पहचाना?” — लूथरा फुसफुसाया।
“नहीं तो!” — जनकराज बोला — “कोई खासियत है इसमें?”
“बहुत बड़ी खासियत है।”
“क्या?”
“ये वही ट्रंक है जो कि सुमन वर्मा नाम की एक लड़की अशरफ नाम के एक टैक्सी ड्राइवर की टैक्सी से भूल गयी थी, जिसे की ड्राइवर ने पूरी ईमानदारी से थाने में जमा करा दिया था। ट्रंक की सुपुर्दगी की खबर भी अखबारों में छपी थी और तब खबर के साथ इस ट्रंक की फोटो भी छपी थी।”
“अच्छा!”
“हां।”
“शायद ये कोई मिलता जुलता ट्रंक हो!”
“हो सकता है लेकिन इतना बड़ा संयोग नहीं हो सकता कि दोनों ट्रंकों में ऐन सात लाख रुपये की ही रकम हो।”
“हूं।”
“ये आदमी नहीं बतायेगा कि ये ट्रंक इसके पास कैसे पहुंच गया लेकिन इस बात को दूसरे सिरे से भी पकड़ा जा सकता है।”
“दूसरा सिरा?”
“सुमन वर्मा। जो कि गुमशुदा ट्रंक को अपना बता कर कनॉट प्लेस थाने से ले गयी थी। सुपुर्दगी की रपट में उसका नाम पता सब दर्ज होगा। तुम्हें सुमन वर्मा से पूछना चाहिये कि जो ट्रंक उसने थाने से क्लेम किया था, वो अब कहां था!”
जनकराज का सिर सहमति में हिला।
“एक बात और।” — लूथरा पूर्ववत् दबे स्वर में बोला।
“वो भी बोलो।”
“अखबार में छपा है कि कत्ल के वक्त को साढ़े नौ पर इसी शख्स की गवाही के आधार पर पिनप्वायन्ट किया गया है। इस आदमी के पास शाम आठ से दस बजे के टाइम की बड़ी पुख्ता एलीबाई मौजूद मालूम होती है। अगर ये आठ से दस तक निजामुद्दीन में अपनी उपस्थिति स्थापित कर सकता है तो फिर साढ़े नौ बजे झण्डेवालान में इसने कत्ल किया नहीं हो सकता।”
“तुम कहना क्या चाहते हो?”
“ये कहता है कि मरने वाले ने, हरिदत्त पंत ने, अपना शाम का खाना साढ़े सात बजे खाया था। जनक, क्या सबूत है इस बात का? खाने वाला तो मर गया! अब इस बाबत ये जो कुछ भी कहे, तुम आंख बन्द करके मान लोगे?”
जनकराज मुंह से कुछ न बोला लेकिन उसका चेहरा और गम्भीर हो गया।
“तुम्हें उस होटल से इस बाबत पूछताछ करनी चाहिये जहां से मकतूल ने खाना मंगवाया था।”
“युवराज होटल से मंगवाया था।”
जनकराज ने तत्काल एक हवलदार को अपने करीब बुलाया और उसे आवश्यक निर्देश देकर युवराज होटल दौड़ाया।
“अब” — फिर वो फिर लूथरा की तरफ आकर्षित हुआ — “तुम बोलो कि तुम यहां क्या कर रहे हो?”
“रिजक कमाने की कोशिश कर रहा हूं।”
“क्या!”
“नौकरी तो मेरी छूट गयी! अब कुछ तो मैंने करना था इसलिये मैंने वो काम पकड़ा जिसमें मेरा पुलिस की नौकरी का तजुर्बा काम आ सकता था।”
“क्या काम पकड़ा?”
“मैंने प्राइवेट इनवैस्टिगेशन का काम पकड़ा है। दिल्ली शहर में आये दिन कत्ल होते हैं। उनमें से कई ऐसे होते हैं जिन पर पड़ा रहस्य का पर्दा आसानी से नहीं उठता, या फिर उठता ही नहीं। ऐसे केसों की मैं अपनी प्राइवेट तफ्तीश करता हूं और फिर तफ्तीश का नतीजा अखबार वालों को बेचता हूं। ऐसी एक्सक्लूसिव इनवैस्टिगेशन की अखबार वाले बड़ी अच्छी पेमेंट करते हैं।”
“कमाल है! ये तो बड़ा अनोखा धन्धा पकड़ा तुमने!”
“पापी पेट की खातिर। पेट की खातिर कुछ भी करना पड़ता है।”
“मुझे नहीं मालूम था कि ...तो तुम इस मर्डर केस में भी दिलचस्पी ले रहे हो?”
“खामोशी से। बिना पुलिस की कोई लाइन क्रास किये।”
“अब तक कोई खास बात जानी?”
“जानी तो सही एक खास बात!”
“क्या?”
“मौकायवारदात से मर्डर वैपन बरामद नहीं हुआ है। वो रिवाल्वर बरामद नहीं हुई है जिससे कि कत्ल हुआ था।”
“मैंने खुद उसकी तलाश में तेरहवीं मंजिल के सारे फ्लोर को खंगाला था। वो वहां नहीं थी।”
“वो वहां से नीचे जा गिरी हो सकती है। किसी फ्लोर पर अभी दीवारें वगैरह तो बनी नहीं हैं इसलिये ...”
“इतनी अक्ल मेरे में है। ये बात मुझे सूझी थी कि रिवाल्वर कातिल के हाथ से निकल कर फर्श पर से छिटक कर तेरह मंजिल नीचे कहीं जा गिरी हो सकती थी। मैंने नीचे मैदान में चारों तरफ उसकी तलाश करवाई थी। रिवाल्वर कहीं नहीं थी। मेरा तो खयाल है कि कत्ल के बाद रिवाल्वर को कातिल अपने साथ ले गया था।”
“इमारत के एक पहलू में एक बहुत बड़ा पानी का चौबच्चा है।”
“मुझे खबर है उसकी लेकिन वो इमारत की बुनियाद के बहुत परे है। तेरहवीं मंजिल के फर्श से छिटक कर रिवाल्वर उस चौबच्चे में जाकर नहीं गिर सकती।”
“अपने आप नहीं गिर सकती लेकिन उस में फेंकी तो जा सकती है!”
“तेरहवीं मंजिल से?”
“या नीचे आकर! चौबच्चे के पास से गुजरते वक्त!”
जनकराज सोचने लगा।
“कंस्ट्रक्शन का काम खत्म हो जाने पर वैसे चौबच्चे भर दिये जाते हैं, जमीन के हमवार कर दिये जाते हैं। कातिल ने ये सोच कर रिवाल्वर उसमें फेंकी हो सकती है कि वो हमेशा उसी में दफन पड़ी रह सकती थी।”
“हूं।”
तभी युवराज होटल रवाना हुआ हवलदार वापिस लौटा। उसके साथ एक कोई बीस साल का लड़का था।
“ये वो वेटर है” — हवलदार बोला — “जो कल शाम हरिदत्त पंत के लिये खाना लाया था।”
“हूं।” — जनकराज ने एक क्षण घूर कर लड़के को देखा और फिर सख्ती से बोला — “क्या नाम तेरा?”
“नन्दू।” — लड़का दबे स्वर में बोला।
“कल शाम तूने होटल से हरिदत्त पंत के कमरे में खाना पहुंचाया था?”
“हां, साहब।”
“कितने बजे?”
“यही कोई साढ़े सात बजे।”
“क्या मंगाया था पंत ने?”
“तन्दूरी चिकन, मटर पनीर, नान।”
“उस वक्त पंत के पास कोई और भी मौजूद था?”
“हां, साहब, था।”
“कौन?”
उसने मायाराम की तरफ इशारा कर दिया।
“पंत ने तेरे सामने खाना खाया था?”
“नहीं साहब।”
“तू खाना छोड़ के चला गया था?”
“हां, साहब।”
“बाद में जब तू बर्तन उठाने आया था, उस वक्त पंत क्या कर रहा था?”
“मैं बाद में आया ही नहीं था।”
“बर्तन उठाने कोई और वेटर आया था?”
“नहीं, साहब।”
“यानी कि बर्तन अभी भी वहीं पड़े हैं?”
“नहीं, साहब।”
“क्या बकता है? बर्तन वहां से उठाये भी नहीं, वो वहां पड़े भी नहीं, ये कैसे हो सकता है?”
“साहब, बर्तन थे ही नहीं।”
“क्या!”
“पंत साहब के हुक्म पर मैं खाना कार्डबोर्ड के डिब्बे में पैक करा के लाया था।”
“पैक करा के?”
“हां, साहब। वो क्या है कि पहले उन्होंने खाने का आर्डर दिया, फिर शायद उनका खाना खाने से मन हट गया इसलिये उन्होंने होटल में कहलवा भेजा कि खाना पैक करा के लाया जाये। तब मैंने खुद चिकन, मटर पनीर और नान को अलग अलग थैलियों में बन्द किया था, उन थैलियों को होटल के छपे हुए एक कार्डबोर्ड के डिब्बे में रखा था और डिब्बा पंत साहब के कमरे में पहुंचाया था।”
“ये झूठ बोलता है।” — मायाराम एकाएक चिल्ला कर बोला — “ये खाना ट्रे में लाया था। ये मेरे सामने खाना ट्रे में लाया था।”
“इतनी सी बात पर मैं झूठ क्यों बोलूंगा, साहब?” — नन्दू बड़ी मासूमियत से बोला।
“ये खाना ट्रे में लाया था। मैंने खुद ट्रे में से उठा कर चिकन की एक बोटी खाई थी। अगर खाना डिब्बे में बन्द होता तो मुझे क्योंकर मालूम होता कि भीतर क्या था?”
“पंत साहब ने मेरे सामने आपके लिये डिब्बा खोला था और उसमें मौजूद चिकन आपको पेश किया था। तब थैली में हाथ डाल कर आपने चिकन की एक बोटी निकाली थी। तब पंत साहब ने डिब्बा वापिस बन्द कर लिया था।”
“झूठ। बिल्कुल झूठ। मैंने ट्रे में से बोटी उठाई थी। खाना ट्रे में आया था।”
“खाना डिब्बे में बन्द था।” — नन्दू जिदभरे स्वर में बोला।
“अरे, कमीने! क्यों इतनी सी बात के लिये झूठ बोलता है?”
“साहब, देखिये, ये मुझे गाली दे रहे हैं।”
“भाग जा।” — जनकराज बोला।
नन्दू सरपट वहां से भगा।
“खाना पैक कराने का मकसद ये भी हो सकता है” — लूथरा धीरे से बोला — “कि उसका कहीं और जाकर उसे खाने का इरादा था। खाना उसने बाद में कभी अपने कमरे में ही खाना था तो वो बाद में मंगा सकता था, पैक करा के ठण्डा होने के लिये उसे अपने पास रखे रहना क्या जरूरी था!”
जनकराज ने सहमति में सर हिलाया।
“अब फर्ज करो कि खाना उसने कहीं और — मसलन कंस्ट्रक्शन साईट पर ही — साढ़े आठ बजे खाया तो इसका मतलब है कि कत्ल साढ़े दस बजे के आसपास हुआ!”
“ये टाइम भी कत्ल के वक्त के रेंज में आता है।” — जनकराज बोला — “क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट द्वारा खाने को और उसको खाने के टाइम को नजर में रखे बिना जो टाइम निर्धारित किया गया था वो साढ़े आठ से साढ़े दस के बीच का है।”
“मुमकिन है इस शख्स के पास साढ़े दस की कोई एलीबाई न हो!”
“साढे दस बजे आप कहां थे?” — जनकराज ने मायाराम से पूछा।
“टैक्सी में था।” — मायाराम व्याकुल भाव से बोला।
“जिस पर कि आप निजामुद्दीन से यहां आ रहे थे?”
“हां।”
“कब रवाना हुए थे? कब पहुंचे थे?”
“दस बजे रवाना हुआ था। पौने ग्यारह बजे पहुंचा था।”
“इतनी रात गए निजामुद्दीन से कश्मीरी गेट पहुंचने में पौना घन्टा तो नहीं लगता!”
“मुझे इतना ही टाइम लगा था। मैंने रवाना होते वक्त भी घड़ी देखी थी और पहुंचने पर भी घड़ी देखी थी।”
“बीच में कहीं ट्रैफिक जाम मिला था?”
“ध्यान नहीं।”
“क्यों ध्यान नहीं?”
“वो …वो क्या है कि मैं नशे में था। टैक्सी में ऊंघ गया था।”
“नशे में थे तो आपसे घड़ी में टाइम देखने में भी गलती हुई हो सकती है!”
“नहीं। इतना नशे में नहीं था मैं।”
“रात के वक्त सड़कें खाली होती हैं। मेरा अन्दाजा ये कहता है कि रात के वक्त टैक्सी पर सवार होकर निजामुद्दीन से कश्मीरी गेट पहुंचने में आपको आधे घन्टे से ज्यादा वक्त नहीं लगना चाहिये था। पौना घन्टा आपको इसलिये लगा क्योंकि आप सीधे कश्मीरी गेट न पहुंचे। रास्ते में आप पहले झण्डेवालान गये जहां कि...”
“मैं झण्डेवालान नहीं गया, नहीं गया, नहीं गया।” — मायाराम तड़प कर बोला — “हे भगवान्! ये कैसी साजिश रची जा रही है मेरे खिलाफ!”
“ड्रामेबाजी छोड़िये।” — जनकराज डपट कर बोला — “चीखने चिल्लाने से आप अपने आपको बेगुनाह साबित नहीं कर पायेंगे।”
“वो टैक्सी ड्राईवर” — एकाएक मायाराम यूं बोला जैसे कोई भूली बात याद आ गयी हो — “वो टैक्सी ड्राईवर मेरा गवाह है कि मैं निजाम्मुद्दीन से सीधा यहां आया था।”
“कौन टैक्सी ड्राईवर? आप जानते हैं उसे?”
“जानता नहीं हूं। लेकिन उसने मुझे अपना नाम बताया था, अपने पक्के टैक्सी स्टैंड का पता बताया था, मुझे उसकी टैक्सी का नम्बर तक याद है।”
“नाम बोलिये, पता बोलिये, नम्बर बोलिये।”
मायाराम ने बोला।
जनकराज ने एक हवलदार को करीब बुलाया और उसे आदेश दिया — “इन्क्वायरी से सुजान सिंह पार्क के टैक्सी स्टैण्ड का टेलीफोन नम्बर पता कर, वहां मुबारक अली नाम के टैक्सी ड्राइवर का पता कर, मिले तो उसे इधर आने को बोल, तब तक मैं झण्डेवालान का चक्कर लगा कर आता हूं।”
“जी जनाब।”
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