थाने में परमिंदर और दुलारे को पीछे वाले ऐसे कमरे में ले जाया गया, जहाँ अपराधियों की मरम्मत का काम होता था । अंधेरा भरा कमरा, छत पर लटकता चालीस वॉट का पुराना सा बल्ब रोशन था । उस कमरे में पहुँचकर ही दोनों की हालत पतली होने लगी थी । उन्हें फर्श पर बिठा दिया गया ।
इंस्पेक्टर दलीप सिंह उनके सामने कुर्सी पर बैठा और सिगरेट सुलगा ली ।
“अब बोलो । तुम दोनों के वो दोनों साथी कहाँ गए जो डेढ़ सौ करोड़ के नोटों से भरी बैंक वैन ले गए हैं । कहाँ है वो वैन ?”
“हमारे साथी ?”
“क्या कह रहे हैं माई-बाप । हम तो दुकानदार हैं । चोर-लुटेरे तो हैं नहीं जो... ।”
“खामोश ।” इंस्पेक्टर दलीप सिंह चीखा – “झूठ बोले तो जुबान खींच लूँगा ।”
“हम तो सच कह रहे... ।”
“जुबान लड़ाता है । अभी तेरा डण्डा बनाता हूँ ।”
“नहीं । हमें मत मारना । हम... ।”
तभी सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह रजिस्टर और पैन थामे भीतर आया ।
“आठ लोगों को वैन ढूँढ़ने पर लगा दिया है । भेज दिया उन्हें ।”
“समझा दिया उन्हें ?”
“अच्छी तरह ।”
“ठीक है । तू दरवाजे के बाहर तेज रोशनी में बैठ जा । जो मैं पूछूँ, ये बोले, नोट करता रह । मुझे पूरा विश्वास है कि ये दोनों लुटेरों के ही साथी हैं । बातचीत के बाद सालों की तगड़ी मरम्मत करनी है ।”
“लल्लन को इस काम में लगा दूँगा । वो ठोक-बजाई का मास्टर है ।” सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह कह उठा ।
“लल्लन की क्या जरूरत है ।” परमिंदर रूआँसे स्वर में कह उठा – “हम तो पहले ही मरे पड़े हैं ।”
“आधी जान तो निकल गई ।”
“चुप ।” इंस्पेक्टर दलीप सिंह गुर्राया – “बोला तो जुबान खींच लूँगा ।”
दोनों के मुँह बंद हो गये ।
“मिलापे ।” इंस्पेक्टर दलीप सिंह बोला – “सूरत सिंह को बुला । जब ये उन दोनों का हुलिया बताएँगे तो वो उनका स्कैच तैयार करेगा । पुलिस आर्टिस्ट है वो । हराम की खाता है । काम करवा उससे ।”
“अभी लाया उसे ।” मिलाप सिंह उठा और चला गया ।
तीसरे मिनट मिलाप सिंह, सूरत सिंह के साथ लौटा । तीस बरस का नौजवान था सूरत सिंह । दरवाजे पर ही कागज पैन लेकर बैठ गया । उसके बाद शुरू हुआ पूछताछ का सिलसिला परमिंदर और दुलारे से ।
☐☐☐
इंस्पेक्टर दलीप सिंह और सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह घंटे भर बाद पुलिस स्टेशन के एक कमरे में मिले । दलीप सिंह का चेहरा सोचों में डूबा दिखाई दे रहा था । उधर उस कमरे में पुलिस आर्टिस्ट सूरत सिंह, परमिंदर और दुलारा से पूछ-पूछ कर देवराज चौहान और जगमोहन का चेहरा कागजों पर उतारने में व्यस्त था ।
“सर !” सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह बोला – “इन दोनों के बारे में आप क्या कहते हैं ?”
“इनका डकैती से कोई मतलब नहीं ।” दलीप सिंह गंभीर स्वर में बोला – “ये सच कहते हैं कि राह चलते-चलते दोनों वहाँ रुक गए । आँखों देखी कई बातें हमें इनसे ही पता चली । वरना हम अनजान रहते ।”
“बैंक वैन ले जाने वाले वे कौन हो सकते हैं ?” मिलाप सिंह ने पूछा ।
“क्या मालूम । लेकिन जो हमें पता चला, उस बारे में सोचें तो यही लगता है कि बैंक वैन ले जाने वाले नए लोग नहीं हैं । पुराने शिकारी हैं । बहुत हिम्मत दिखाकर उन्होंने वैन पर हाथ डाला है ।”
“सर जी । डेढ़ सौ करोड़ की दौलत है वैन में ।”
दोनों की नजरें मिलीं ।
“वो सरकारी नोट हैं ।”
“जी । मैं तो ये कह रहा था कि उन दोनों ने बहुत बड़ी दौलत पर हाथ मारा है ।”
“वो बच नहीं सकेंगे । उनकी तलाश में यहाँ से गए पुलिस वालों ने कोई खबर भेजी ?”
“फोन आया था । वे कह रहे थे कि बैंक वैन लुटेरों को तलाश कर रहे हैं ।”
तभी फोन की घंटी बजी ।
इंस्पेक्टर दलीप सिंह ने रिसीवर उठाया ।
“हैलो !”
“बैंक वैन लुटेरों का पता चला ?” दूसरी तरफ कमिश्नर साहब थे ।
“तफ्तीश जारी है । जल्दी ही पता चल जाएगा सर ।”
“क्या थाने में बैठकर बैंक वैन तलाश कर रहे हो ?” कमिश्नर साहब का चुभता स्वर कानों में पड़ा ।
“चश्मदीद गवाहों के बयान ले रहा था सर । लुटेरों के बारे में पुछताछ कर रहा था । सूरत सिंह उन दोनों लुटेरों के स्कैच तैयार करने में व्यस्त है । उधर पूरा पुलिस थाना भेजा हुआ है कि वे कहीं से बैन का सुराग पा लें ।”
“जल्दी काम करो । मेरे पास बार-बार ऊपर से फोन आ रहे हैं । कोई ठोस नतीजा मुझे बताओ ।”
“जी । उन लुटेरों ने हाथों हाथ वैन से नोट नहीं निकाले । बल्कि वे वैन को ही साथ ले गए । पक्का वे सब कुछ मालूम कर चुके होंगे कि उस बैंक वैन के पीछे नोटों के पास गनमैन रहता है । उन्हें पता होगा कि इस खुली सड़क पर वे अपनी मनमानी जयादा देर नहीं कर सकते । पकड़े जाएँगे । इसलिए वे वैन ही साथ ले गए कि आराम से नोट निकालेंगे । वैन रखने के लिए उन्होंने पहले ही किसी जगह का इंतजाम कर लिया होगा ।”
“पता करो वे वैन कहाँ ले गए हैं और लुटेरा कौन है ?”
“जी ।”
“उनकी संख्या दो से ज्यादा भी हो सकती है ।” कमिश्नर साहब ही आवाज आई ।
“मैं भी इसी बारे में विचार कर रहा हूँ सर कि ये बड़ा काम है । मात्र दो आदमी ही ये सारा काम नहीं कर सकते । हो सकता है तब उनके आस-पास और भी आदमी हों, परंतु वे छिपे ही रहे हों । सामने आने की उन्हें जरूरत ही न पड़ी हो ।” इंस्पेक्टर दलीप सिंह अपने शब्दों पर जोर देता कह उठा – “मैं बहुत जल्दी अच्छे नतीजे वाली खबर आपको सुनाऊँगा ।”
“जो भी करना है, जल्दी करो । मुझे नतीजा चाहिए ।” कमिश्नर साहब ने कहा और लाइन कट गई ।
दलीप सिंह ने रिसीवर रखा ।
“सर, आपको लगता है कि लुटेरों की संख्या दो से ज्यादा है ?” सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह ने पूछा ।
“पक्का । ये काम सिर्फ दो आदमियों का नहीं है । देख तो – सूरत सिंह ने अब तक क्या किया है ?”
मिलाप सिंह बाहर निकल गया ।
दलीप सिंह ने सिगरेट सुलगाई और कश लेने लगा । चेहरे पर सोच के भाव थे । पाँच मिनट बाद ही मिलाप सिंह ने भीतर प्रवेश किया । हाथ में आधा सफेद चार्ट था । जिस पर पैंसिल से जगमोहन के चेहरे का स्पष्ट स्कैच बना हुआ था । वो चार्ट दलीप सिंह के सामने रखता मिलाप सिंह कह उठा –
“देखिए सर, उन दोनों की सहायता से सूरत सिंह ने एक लुटेरे का स्कैच बनाया है ।”
दलीप सिंह ने स्कैच देखा । तबीयत भर के देखा ।
“सर, परमिंदर और दुलारा कहते हैं कि चार्ट पर बना चेहरा हू-ब-हू वैसा ही है जैसा कि उसकी फोटो खींचने पर चेहरा आएगा । जरा भी फर्क नहीं है ।” मिलाप सिंह ने कहा ।
“हूँ । इसका मतलब सूरत सिंह अच्छा काम करता है । दूसरे का चेहरा नहीं बनाया ?”
“आधा बन चुका है । आधे घंटे का काम बाकी है ।”
दलीप सिंह की निगाह चार्ट पर बने, जगमोहन के चेहरे पर थी ।
“देखा है इसे कहीं ?” स्कैच पर ही नजरें टिकाए पूछा दलीप सिंह ने ।
“नहीं सर ।”
“मैंने भी नहीं देखा ।”
पंद्रह मिनट में सूरत सिंह देवराज चौहान का भी स्कैच बना लाया । बढ़िया आर्टिस्ट था वो । ऐसा चेहरा बनाया था जैसे की तस्वीर ली गई हो ।
दलीप सिंह – मिलाप सिंह ने देवराज चौहान के चेहरे को भी देखा ।
“इसे भी नहीं देखा ।” दलीप सिंह बड़बड़ा उठा ।
“हो सकता है, दूसरे शहर से आए हों ।” मिलाप सिंह बोला ।
“सूरते ।” बोला दलीप सिंह – “इन दोनों चेहरों के तीस-तीस फोटो कापियाँ कराके फटाफट ला ।”
सूरत सिंह दोनों स्कैच लिए बाहर निकल गया ।
“तैयार हो जा मिलापे ।” दलीप सिंह बोला – “हम भी बैंक-वैन लुटेरों को ढूँढ़ने के लिए निकल रहे हैं । हर जगह पूछताछ करनी पड़ेगी । बैंक वैन की बरामद करना बहुत जरूरी है नहीं तो कमिश्नर साहब हमारी रेल बना देंगे ।”
दस मिनट बाद सूरत सिंह फोटो कापियाँ करा कर आ गया ।
“चार-चार कापियाँ हैडक्वार्टर भिजवा देना कमिश्नर साहब के पास ।” दलीप सिंह ने सूरत सिंह से कहा – “उन्हें बोल देना कि ये दोनों बैंक वैन लूटने के मुख्य अभियुक्त हैं ।”
“जी ।”
“और वो दोनों जो पीछे वाले कमरे में हैं – परमिंदर और दुलारा । बिठा के रख उन्हें । चाय के साथ ब्रेड पकौड़ा खिला देना । पैसे वे ही देंगे । रात को दस बजे छोड़ना और सुबह पाँच बजे फिर हाजिर होने को बोला देना ।”
“ठीक है जी ।”
दलीप सिंह दोनों चेहरों की बीस-बीस फोटोकापियाँ थामे उठ खड़ा हुआ ।
“चल मिलापे ।”
दलीप सिंह और मिलाप सिंह बाहर निकल गए ।
थाने में करीब पंद्रह पुलिस वाले अपने-अपने कामों में लगे हुए थे । अहाते में खड़ी पुरानी पुलिस जीप के पास पहुँचे तो तेरह साल का लड़का दौड़ा-दौड़ा पास आया ।
“पापा-पापा ।” उसने दलीप सिंह से कहा ।
वो स्कूल की वर्दी में था ।
“तू घर नेई गया सतीशे । इधर कहाँ घूम रहा... ।”
“स्कूल से छुट्टी हुई है । माँ ने कहा था कि आपको बोल दूँ, घर में गेहूँ खत्म हो रही है ।”
“खत्म हो रही है ।” दलीप सिंह स्टेयरिंग के साथ वाली सीट पर बैठता बोला – “इतनी जल्दी कैसे खत्म हो गया । मैं तो हफ्ते में एक बार ही रोटी घर पे खाता हूँ । लगता है तेरी माँ ज्यादा खाने लगी है । घर जा तू । चल मिलापे ।”
सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह स्टेयरिंग सीट पर बैठ चुका था । उसने जीप आगे बढ़ा ली ।
☐☐☐
सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह ने सड़क के किनारे जीप रोक दी ।
देवराज चौहान की एक्सीडेंट हुई कार अब वहाँ नहीं थी ।
“लगता है, हैडक्वार्टर से पुलिस टीम ने यहाँ का सारा काम निपटा दिया है ।” दलीप सिंह जीप से उतरते हुए बोला ।
“हाँ, सर । मैंने वायरलैस पर कह दिया था कि घटनास्थल पर टीम भेजें ।” वो भी नीचे उतरा ।
सड़क पर काँच के नन्हें टुकड़े ज्यादा मात्रा में बिखरे नजर आ रहे थे ।
शाम के साढ़े चार बज रहे थे । सूर्य धीरे-धीरे पश्चिम की तरफ सरक रहा था ।
“यहाँ क्या देखना है सर ?”
“पता नहीं ।” दलीप सिंह हर तरफ नजरें घुमाता कह उठा – “शायद वैन ले जाने वालों के बारे में कुछ पता चल सके ।”
“परमिंदर, दुलारा बता रहे थे कि इधर ढलान पर वैन उतरी थी ।” मिलाप सिंह आगे बढ़ा ।
दोनों करीब आधा-घंटा वहाँ रहे । लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ ।
“मिलापे ।” जीप में बैठा दलीप सिंह कह उठा – “हैडक्वार्टर से पता तो कर कि लुटेरों की कार किसके नाम दर्ज है । वैसे तो मुझे पता ही है कि चोरी की होगी । ऐसी वारदात में कोई अपनी कार क्यों इस्तेमाल करेगा ।”
सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह ने मोबाइल फोन निकाला और हैडक्वार्टर के नंबर मिलाने लगा ।
मिलाप सिंह बात करता रहा । दलीप सिंह उसकी बात सुनते हुए इधर-उधर नजरें दौड़ाता रहा । मिलाप सिंह फोन बंद करते हुए कह उठा –
“सर जी । पहली बात तो ये है कि वो कार चोरी की थी ।”
“मेरा तो पहले ही ये खयाल था । दूसरी बात ?”
“दूसरी बात ये कि वो वैन पंचम लाल के गैराज पर ठीक होने जाती थी । मैं भी दो-चार बार थाने की गाड़ियाँ आते-जाते उससे ठीक करा चुका हूँ । मुझे मालूम है वो गैराज कहाँ पर है ।” मिलाप सिंह बोला ।
“जिन लोगों ने बैंक वैन पर हाथ डाला है, उन्होंने पहले अवश्य वैन को देखा होगा । वैन देखने की जगह बैंक का परिसर और फिर वो गैराज ही हो सकता है, जहाँ वैन ठीक होने जाती है । पंचम लाल कैसा आदमी है ?”
“पता नहीं । एक-दो बार देखने से क्या पता चलता है ।” मिलाप सिंह ने जीप आगे बढ़ाई ।
“धीरे चला, आस-पास भी तो नजर रखनी है ।”
मिलाप सिंह ने जीप की गति धीमी रखी थी ।
“पंचम लाल के गैराज पर भी चलेंगे । शायद वो ऐसे लोगों के बारे में जानता हो, जो वैन में दिलचस्पी लेते उसे दिखे हों ।”
कुछ आगे इक्का-दुक्का मकान और दुकान शुरू हो गए थे । वे जगह-जगह जीप रोकते, लोगों को देवराज चौहान और जगमोहन के चेहरों के स्कैच की फोटोकॉपी दिखाते पूछताछ करते रहे । जहाँ जरूरत पड़ती वो फोटोकॉपी के अलावा अपना फोन नंबर भी छोड़ देते । कुछ देर बाद जीप वहाँ से निकली, जिधर जमींदार राजेंद्र सिंह का गाँव था । दलीप सिंह कह उठा –
“राजेंद्र सिंह से गेहूँ की बोरियों के लिए कहना था । अभी वक्त नहीं है । फिर कह दूँगा ।”
“पंचम लाल के गैराज पर भी चलें ?”
“कितनी दूर है गैराज ?”
“पंद्रह मिनट का रास्ता तो है ही ।”
“चल । बात कर लेते हैं पंचम लाल से ।”
हरी झंडी मिलते ही सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह ने जीप तेजी से आगे बढ़ा दी ।
“सर जी, एक बात मेरे दिमाग मे आई है ।”
“बोला कर ।”
“हम यहाँ वैन को ढूँढ़ रहे हैं । क्या पता वो लोग वैन को यहाँ से कितनी दूर ले गए हैं ।”
“वो तो ठीक है लेकिन हम क्या कर सकते हैं । सारे शहर में बैंक वैन की तलाश हो रही है । पुलिस मुस्तैद हो चुकी होगी । अन्य वाहनों की तलाशियाँ भी हो रही होगी । देर-सवेर में तो वे पकड़े ही जाएँगे ।” दलीप सिंह सोच भरे स्वर में कह उठा ।
“कहीं वे नाकेबँदी से पहले ही शहर से बाहर न निकल गए हों ।”
दलीप सिंह ने मिलाप सिंह को देखा ।
“बुरी बातें मत किया कर ।”
बीस-पच्चीस मिनट के बाद उनकी जीप पंचम लाल के गैराज पर जा रुकी ।
वहाँ दो छोकरे ही थे और गैराज बंद करने की तैयारी में थे । पुलिस को देखकर ठिठके ।
“पंचम लाल कहाँ है ?” इंस्पेक्टर दलीप सिंह ने ऊँचे स्वर में पूछा ।
दोनों छोकरे फौरन उनके पास आ पहुँचे ।
“उस्ताद तो है नहीं । सुबह से ही कहीं गए हैं ।” वो मुन्ना था ।
“क्या हो गया इंस्पेक्टर साहब ?”
“पंचम लाल कब आएगा ?”
“उस्ताद तो कभी भी आ सकते हैं । हम आपके पास भेज देंगे । अपना पता-ठिकाना बता दीजिए इंस्पेक्टर साहब ।”
“हम मिल लेंगे ।” दलीप सिंह ने जेब से चेहरों के स्कैचों के दोनो फोटोस्टेट कागज निकालकर उनकी तरफ बढ़ाए – “इन्हें देखकर बताओ कि कभी देखा है इन्हें ?”
दोनों ने स्कैच देखे तो चौंक पड़े ।
“ओए, ये तो वो ही हैं । वो दोनों ।” मुन्ना के होंठों से निकला ।
“हाँ ।” दूसरे ने फौरन सिर हिलाया ।
दलीप सिंह और मिलाप सिंह की नजरें मिलीं ।
“कहाँ देखा है इन्हें ?”
“इसी गैराज पर इंस्पेक्टर साहब । यहीं पर । ये दोनों दो-तीन दिन पहले यहाँ आए थे । उस्ताद के साथ ही रहे । पता नहीं क्या बातें करते रहे । उस्ताद ने इन्हें चाय भी पिलाई थी । मैं ही तो चाय लाया था छक्के में ।”
दलीप सिंह की आँखों में तीव्र चमक उठी ।
मिलाप सिंह ने किसी तरह अपनी उत्तेजना को दबाकर कहा ।
“ठीक तरह देख भूतनी के – ये दोनों यहाँ नहीं आए होंगे । वो दूसरे होंगे ।”
“ये ही थे साब जी ।”
“ये ही हैं । तू बार-बार क्यों पूछता है ?” दलीप सिंह ने मिलाप सिंह से कहा फिर लड़कों से पूछा – “और बता इनके बारे में ?”
“बताना क्या है इंस्पेक्टर साहब, ये तो इस तरह गेराज को आगे-पीछे से देख रहे थे कि जैसे खरीदना हो गैराज ।” मुन्ना बोला – “तब मुझे तो ये ही लगा था । अब क्या पता बीच की क्या बात है ।”
दलीप सिंह और मिलाप सिंह कुरेद-कुरेद कर उनसे बातें पूछते रहे ।
शाम ढल रही थी ।
“मेरा फोन नंबर तुम दोनों रख लो ।” दलीप सिंह कह उठा – “तुम्हारा उस्ताद पंचम लाल जब आए तो उसे मत बताना कि हम उसके बारे में पूछताछ करने आए थे । चुपचाप हमें फोन कर देना ।”
“जी ।” दोनों ने फौरन सिर हिलाया ।
“होशियारी से ये काम करना, नहीं तो अंदर कर दूँगा ।”
“हम चुपचाप आपको फोन कर देंगे कि उस्ताद आ गया है ।”
“शाबाश ! समझदारी दिखाओगे तो बड़े होकर पुलिस वाले ही बनोगे । तरक्की करोगे । इनके बारे में कोई और बात याद आ रही हो तो बता दो । ये पकड़े गए तो तुम दोनों को इनाम मिलेगा ।”
“अभी तो याद नहीं । याद आएगी बात तो आपको फोन कर देंगे ।”
“बच्चे समझदार हैं ।” मिलाप सिंह दोनों के कंधे थपथपाकर बोला – “दोनों बढ़िया काम करेंगे ।”
उसके बाद मिलाप सिंह और दलीप सिंह जीप के पास जा पहुँचे ।
“ये तो हमारे हाथ बहुत बड़ी सफलता लग गई ।” मिलाप सिंह की खुशी फूटी ।
“जानकारी मिली है । सफलता हाथ नहीं लगी अभी । जब बैंक वैन और लूटने वाले सब पकड़े जाएँगे तो सफलता का नाम लेना मिलापे ।” दलीप सिंह गंभीर स्वर में कह उठा – “अब ये तो स्पष्ट हो गया कि उन दोनों लुटेरों के साथ पंचम लाल भी मिला हुआ था । वो दोनों वैन लूटने के दो-तीन दिन पहले गैराज पर पंचम लाल के पास आए थे । मुझे तो पहले ही शक था कि सिर्फ दो लोग बैंक वैन पर हाथ डालने का काम नहीं कर सकते । उनका तीसरा साथी पंचम लाल है ।”
“वो दोनों गैराज पर क्यों आए थे ?”
“ये भी पता लग जाएगा । तू सबसे पहले मुखबिरों से बात कर, पंचम लाल के बारे में । उन दोनों लुटेरों के बारे में शायद कोई खबर मिले । साथ ही पंचम लाल की तस्वीर हासिल कर । अब हमें रास्ता मिल गया है आगे बढ़ने का । मैं तेरे को थाने छोड़कर कमिश्नर साहब से बात करके आता हूँ । उनके पास न गया तो वे फोन पे फोन करते रहेंगे ।”
दोनों जीप में बैठे । मिलाप सिंह ने जल्दी से जीप आगे बढ़ा दी ।
“और लोग भी बैंक वैन लूट में होंगे । डेढ़ सौ करोड़ की दौलत सिर्फ तीन लोग नहीं खा सकते ।” मिलाप सिंह बोला ।
“सब पता चल जाएगा । कानून के लंबे हाथों से कोई नहीं बच सका । बेशक देर हो जाए, कानून के लंबे हाथ अपराधी की गरदन तक पहुँच ही जाते हैं ।” दलीप सिंह शब्दों पर जोर देते कह उठा ।
☐☐☐
शाम ढलनी आरंभ हो चुकी थी ।
जमींदार राजेंद्र सिंह के खेतों में बने कमरे में चुप्पी थी ।
एक तरफ खड़ी बैंक वैन में मदनलाल सोढ़ी भीतर ही था । वो बाहर नहीं निकला था । उसके बाद उससे किसी ने बात नहीं की थी । बलवान सिंह एक तरफ बँधा पड़ा था । उसके चेहरे पर डर था । रह-रहकर वो देवराज चौहान को देखने लगता था । बीच में थोड़ी-थोड़ी देर के लिए नींद की झपकी भी ले ली थी उसने ।
पंचम लाल और लानती एक तरफ नीचे ही अधलेटे बेचैनी से वक्त बिता रहे थे । बार-बार उनकी निगाह वैन की तरफ उठा जाती, जिसमें डेढ़ सौ करोड़ के नोट भरे पड़े थे ।
देवराज चौहान और जगमोहन एक तरफ पड़ी चारपाई पर बैठे थे । इस वक्त देवराज चौहान चारपाई पर लेटा हुआ था और जगमोहन कमर पर हाथ बाँधे टहल रहा था कि दरवाजे पर थपथपाहट हुई ।
जगमोहन ठिठका । निगाह दरवाजे पर जा टिकी । पंचम लाल और लानती फौरन उठ बैठे ।
“पंचम, बाहर पक्का कोई गड़बड़ है ।” लानती बोला – “पाँच मिनट से मेरी आँख फड़फड़ा रही थी ।”
“चुप कर । जब भी बोलेगा, कौड़ा ही बोलेगा ।” पंचम लाल भुनभुनाया ।
“मैंने क्या गलत कह दिया जो तू कुड़-कुड़ करने लगा ।” लानती ने मुँह बनाया – “बाहर पुलिस हुई तो ?”
“फिर, फिर कौड़ा बोला तू ।”
जगमोहन ने जेब से रिवॉल्वर निकाली और दबे पाँव दरवाजे की तरफ बढ़ा ।
“भागने की तैयारी कर ।” लानती फुसफुसाया – “अब गोलियाँ चलेंगी ।”
देवराज चौहान चारपाई पर ही लेटा था । परंतु उसकी निगाह दरवाजे पर थी ।
जगमोहन दरवाजे के पास पहुँचा कि तभी बाहर से दरवाजा पुन: खटखटाया और राजेंद्र सिंह की आवाज आई ।
“अरे, भीतर कोई है कि नहीं ?”
राजेंद्र सिंह की आवाज सुनकर जगमोहन ने चैन की साँस ली । रिवॉल्वर जेब में रखी फिर निगाह पीछे सब पर मारते हुए, दरवाजे को देखा फिर लगी कुंडी खोलने लगा ।
“ये कौन है ?” पंचम लाल ने लानती को देखा ।
“कोई पहचान वाला ही होगा देवराज चौहान का, जो उसकी आवाज सुनकर बिदका नहीं । तू चिंता क्यों करता है ?”
“चिंता वाली बात तो है ही लानती ।”
“क्या ?”
“ये सारे नोटों के हिस्सेदार हुए तो फिर हमारे हाथ क्या लगेगा ?”
“हम बचा-खुचा ही समेट लेंगे । हमारे लिए वो ही बहुत है ।” लानती ने कहा ।
पंचम लाल ले उसे घूरा ।
“घूर मत । मैं तो उस गनमैन मदनलाल सोढ़ी के बारे में सोच रहा हूँ कि बिना रोटी-पानी के भीतर उसका क्या हाल हो रहा होगा । अब तक तो देवराज चौहान को चाहिए था कि उसका निपटारा कर देता ।”
“निपटारा भी हो जाएगा । मौका दिया जा रहा है उसे ।” पंचम लाल कह उठा – “रात उसकी आसानी से नहीं बीतेगी ।”
“वो देख कुंडा खुलने जा रहा है ।”
जगमोहन ने कुंडी खोली और जरा सी दरवाजे की झिरी से बाहर झाँका ।
तीन कदम दूर डण्डा थामे जमींदार राजेंद्र सिंह खड़ा था । बाहर सूर्य डूब चुका था । दिन भी अब ढलना शुरू हो गया था । अंधेरा करीब आने में ज्यादा वक्त बाकी नहीं था ।
जगमोहन के चेहरे पर सोच के भाव उभरे । वो जानता था कि ये आसानी से टलेगा नहीं । वो भी नहीं चाहता था कि ऐसा कोई काम हो और राजेंद्र सिंह खामख्वाह किसी तरह का शक करे । इसे भीतर लाने का तो मतलब ही नहीं था । बाहर-बाहर से ही इसे चलता करना था, वो भी तसल्ली के साथ ।
जगमोहन ने देखा कि राजेंद्र सिंह का ध्यान इस तरफ नहीं है तो फुर्ती से एक पल्ला सरकाया । बाहर निकला और तेजी से पल्ला भिड़ा दिया कि राजेंद्र सिंह भीतर न देख सके ।
“का हाल है बाऊजी ?” राजेंद्र सिंह उसे देखते ही मुस्करा पड़ा ।
“बढ़िया जमींदार साहब ।” जगमोहन भी खुलकर मुस्कराया ।
“इधर से निकल रहा था कि सोचा देखता जाऊँ, मेहमान आ गए हैं कि नहीं ।” जमींदार राजेंद्र सिंह ने लाठी को नीचे मारा और बोला – “भीतर सफाई है ना – कोई दिक्कत तो नहीं ?”
“कोई दिक्कत नहीं ।”
“ला, सिगरेट तो पिला । मैं... ।”
“सिगरेट नहीं है । मैं नहीं पीता ।” जगमोहन ने कहा – “आओ जमींदार साहब उधर बैठते हैं ।”
राजेंद्र सिंह वहीं का वहीं खड़ा रहा ।
“सिगरेट नहीं है । तेरा दूसरा साथी कहाँ है ?”
“भीतर, नींद में है ।”
“ये भला वक्त है कोई नींद मारने का । आ, उसे उठाकर सिगरेट... ।” राजेंद्र सिंह कहते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ा ।
जगमोहन उड़ने वाले अंदाज में जैसे उसके सामने आ खड़ा हुआ । राजेंद्र सिंह ने अचकचा कर उसे देखा ।
“क्या हुआ ?” उसके होंठों से निकला – “मुझे भीतर जाने दे ।”
“क्या करेगा ?”
“करना क्या है, तेरे साथी से मिलूँगा । सिगरेट लूँगा । गप्पे मारूँगा और चला जाऊँगा ।”
“दस हजार का क्या किया ?” जगमोहन ने होंठ सिकोड़ कर पूछा ।
“रखा है ।”
“हमें वापस दे दे वो ।”
“क्यों ?”
“वो दस हजार लेकर हम ये कमरा छोड़कर चले जाते हैं । फिर तू यहाँ ही बैठे रहना ।”
“वाह !” राजेंद्र सिंह दाँत दिखा कह उठा – “पैसा लेकर वापस तो दिया नहीं जाता ।”
“तो जमींदार साहब । जो जगह किराये पर दे देते हैं, वहाँ आकर इस तरह डण्डा नहीं बजाते । दूसरे की नींद खराब होती है ।”
राजेंद्र सिंह की आँखें सिकुड़ीं । दो पल चुप्पी रही । फिर जगमोहन की बाँह पकड़े, दरवाजे से कई कदम दूर पहुँचा । एक निगाह दरवाजे पर मारी और जगमोहन से कह उठा –
“भीतर छोकरी है क्या ?”
“क्या ?” पल भर के लिए जगमोहन सकपकाया ।
“तभी तो तू मुझे भीतर नहीं जाने दे रहा । सच बता ये ही बात है ना ?” राजेंद्र सिंह ने दाँत दिखाए ।
जगमोहन ने गहरी साँस ली ।
“मेरे से क्या छिपाना । मैं किसी से कहूँगा थोड़े ना ।”
“पक्का – नहीं कहेगा ?” जगमोहन को सस्ते में जान बचती नजर आई । ये टल रहा था ।
“मैं क्यों कहूँगा किसी से ? मेरे इस बेकार कमरे का तुम लोगों ने यूँ ही तो किराया दस हजार दिया नहीं । कोई बात तो हेराफेरी वाली होगी ही जो यहाँ आकर तुम दोनों टिक गए । बता – छोकरी है भीतर ।”
जगमोहन ने सहमति में सिर हिला दिया । राजेंद्र सिंह की पूरी बत्तीसी नजर आने लगी ।
जगमोहन शांत सा खड़ा उसे देखता रहा ।
“ठीक है । ठीक है । चिंता की कोई बात नहीं ।” जमींदार राजेंद्र सिंह सिर हिलाकर बोला – “दिखने में कैसे है वो ?”
“अच्छी ।”
“पूरी तरह बता कि वो कैसी है ? अच्छी-बुरी क्या होती है ? मेरे से पूछ, सब बढ़िया होती है । कितनी उम्र है उसकी ?”
“देखेगा ?” जगमोहन शर्माता सा कह उठा ।
“छोकरी ?”
“हाँ ।”
“ठीक है, दिखा दे ।”
“कल आना । दिन के बारह बजे । दिखा दूँगा ।”
“अब क्या है । अभी दिखा दे ।”
“अभी नहीं कल – समझा करो जमींदार साहब ।”
राजेंद्र सिंह ने दो पल उसे देखा फिर सिर हिलाकर कह उठा ।
“समझ गया । तो कल आऊँ ?”
“हाँ, बारह बजे ।”
“बारह बजे आऊँगा । तू यहीं रहना कमरे पर । एक बार मैं उसे जी भर कर देखूँगा ।” वो मुस्कराया ।
जगमोहन भी मुस्कराया ।
“जमींदार ।” एकाएक जगमोहन बोला – “किसी से भी नहीं कहना कि यहाँ कोई रहता है ।”
“मैं कोई बच्चा हूँ जो कहूँगा । किसी से भी नहीं कहूँगा ।”
“अंधेरा हो रहा है । भीतर हम बल्ब जलाएँगे । बाहर वालों को पता तो लगेगा ही कि यहाँ रोशनी हो रही है ।”
“हाँ, ये बात... कोई चिंता नहीं । कह दूँगा, मेरे से बल्ब जलता छूट गया ।”
“ये ठीक रहेगा । अब तू जा । आराम करने दे ।”
“हाँ-हाँ करो । कल आऊँगा बारह बजे ।” जमींदार राजेंद्र सिंह ने कहा और डण्डा थामे खेतों में वापस चल पड़ा, दूर नजर आ रहे गाँव की तरफ ।
जगमोहन कुछ पल तो उसे जाता देखता रहा फिर कमरे के दरवाजे की तरफ बढ़ आया । अंधेरा सरकता आ रहा था । पास पहुँचकर जगमोहन जरा सा पल्ला सरकाकर भीतर आया और दरवाजे पर कुंडी चढ़ा दी ।
☐☐☐
“गया वो ।” पास बैठता जगमोहन बोला ।
“उसका इस तरह बार-बार आना ठीक नहीं ।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा ।
“एक आध चक्कर लगाकर, फिर उसका ध्यान इस तरफ से हट जाएगा ।” कहते हुए जगमोहन ने वैन पर निगाह मारी – “मेरे खयाल में गनमैन को बहुत वक्त दे दिया । अब उससे बात करनी चाहिए ।”
देवराज चौहान की सोच भरी निगाह बैंक वैन पर जा टिकी ।
कमरे के भीतर अब अंधकार होना शुरू हो गया था । जगमोहन उठा और एक तरफ दीवार पर लटकते एक स्विच वाले स्विच बोर्ड का बटन दबा दिया ।
उसी पल कमरे में पीला सा, मध्यम सा प्रकाश फैल गया । बेहद मध्यम प्रकाश कि सामने वाले का चेहरा स्पष्ट देख पाना भी कठिन ही था । हॉलनुमा कमरे में वो चालीस वॉट का बल्ब रोशन हुआ था । यानी की रोशनी उतनी ही थी कि वहाँ का माहौल स्पष्ट देखा जा सके ।
तभी पंचम लाल कह उठा –
“कौन आया था ?”
देवराज चौहान और जगमोहन की निगाह उसकी तरफ गई ।
“अपना ही बंदा होगा ।” लानती कह उठा – “बाहर पहरेदारी कर रहा होगा । इनके सारे बंदों को हम जानते ही कहाँ हैं ?”
“ठीक कहता है तू ।” पंचम लाल शांत स्वर में बोला – “इन कामों में देवराज चौहान को बहुत मेहनत करनी पड़ती है ।”
“बोलने को बात न हो तो जुबान बंद रखो ।” जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा ।
“वो तो ठीक है ।” पंचम लाल कह उठा – “अब भीतर बैठे गनमैन से बात तो करो । पूरा दिन बीत गया । रात की लाइट भी जल गई है और कब तक यहाँ बैठे रहेंगे ?”
“कर रहे हैं बात । तुम लोग उतावलापन मत दिखाओ ।” जगमोहन ने पुन: तीखे स्वर में कहा ।
“चुप कर जा पंचम । वो हमसे ज्यादा सयाने हैं ।” लानती जल्दी से कह उठा ।
देवराज चौहान चारपाई से उठा और वैन की तरफ बढ़ने लगा ।
पंचम लाल और लानती का दिल धड़का ।
दूर बँधे पड़े बलवान सिंह ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
“लानती, देखना अब वो वैन का दरवाजा खोल कर बाहर आ जाएगा । आधे घंटे में ही हम कार में नोटों की गड्डियाँ भरकर बाहर निकलेंगे ।”
“मेरे को तो आने वाला वक्त शुभ नहीं लग रहा ।”
“तू सड़ी हुई बात ही बोलेगा । कब पैदा हुआ था ?”
“पता नहीं... पर बुधवार का दिन था वो । पूछने पर मेरी माँ ने यही बताया था मुझे ।”
“मतलब कि तेरी जन्मपत्री नहीं बनी ?”
“जन्मपत्री की क्या जरूरत है मुझे ? अब तो तेरी जन्मपत्री ही मेरी जन्मपत्री है । वो देख – देवराज चौहान को ।”
देवराज चौहान ने बैंक वैन को थपथपाकर शांत स्वर में कहा –
“मेरी आवाज सुन रहे हो मदनलाल सोढ़ी ?”
“हाँ ।” मध्यम सा सोढ़ी का स्वर बाहर आया ।
“मैं तुम्हारे बाहर निकले का इंतजार कर रहा हूँ ।” देवराज चौहान ने का ।
“मैं पहले ही जवाब दे चुका हूँ कि मैं बाहर नहीं निकलूँगा ।”
सबके कान उनकी बातों पर ही थे ।
जगमोहन ने ये सुना तो उसके दाँत भिंच गए । वो उठा और देवराज चौहान के पास आ खड़ा हुआ ।
“वो तो बाहर निकलने से इनकार कर रहा है ।” लानती धीमे स्वर मे बोला ।
“देखता रह । ड्रामा कर रहा है । अभी छित्तर पड़ेंगे तो गोली की तरह बाहर आएगा ।” पंचम लाल कह उठा ।
देवराज चौहान बोला –
“मुझे लगता है कि मैं तुम्हारे साथ जरूरत से ज्यादा आराम से पेश आ रहा हूँ ।”
जवाब में मदनलाल सोढ़ी की आवाज नहीं आई ।
“मैं वैन के नीचे गन लगाकर चला दूँगा । गोलियाँ फर्श में रास्ता बनाती तेरे को आ लगेगी ।”
“सब नोट खराब हो जाएँगे । तुम ऐसा नहीं कर सकते ।” सोढ़ी की आवाज भीतर से आई ।
“डेढ़ सौ करोड़ रूपया है । दस-बीस पच्चीस करोड़ खराब भी हो गया तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।” देवराज चौहान की आवाज में कुछ सख्ती आ गई थी – “लेकिन तेरे को जयादा देर भीतर नहीं छोड़ा जा सकता । मेरे पास इतना भी वक्त नहीं कि तुम दो दिन भीतर ही बैठे रहो । मैं... ।”
“सरकारी दौलत की हिफाजत करना मेरा फर्ज है । उसे मैं तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता ।”
“तुम क्या मेरे हवाले करोगे । सब कुछ मेरे ही पास है । तुम भी तो इस वक्त मेरे हवाले हो ।”
“भूल है ये तुम्हारी ?”
तभी जगमोहन गुर्राकर कह उठा –
“वैन के नीचे गन लगाकर साले को उड़ा दो ।”
दो पलों के लिए वहाँ चुप्पी सी आ ठहरी ।
“मदनलाल सोढ़ी ।” देवराज चौहान ने कहा – “मेरे साथी अब ज्यादा इंतजार नहीं कर पा रहे । यही हाल रहा तो मेरी ज्यादा नहीं चलेगी । वो तुम्हें खत्म कर देंगे । अपना अच्छा-बुरा सोच सकते हो तुम... ।”
आवाज नहीं आई ।
“मैं तुम्हें वैन में पड़ी दौलत से मुँहमाँगी जायज रकम दे सकता हूँ । मेरी ये बात मान लेने के अलावा तुम्हारे पास दूसरा रास्ता नहीं है । नहीं मानोगे तो मरोगे ।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा ।
“तुम क्या समझते हो कि मैं तुम्हारी धोखे से भरी बातों में फँस जाऊँगा ।” बैंक वैन के भीतर से सोढ़ी का तेज स्वर सुनाई दिया ।
देवराज चौहान की निगाह वैन के दरवाजे पर जा टिकी ।
“क्या कहना चाहते हो ?” देवराज चौहान का स्वर एकाएक बेहद शांत हो गया था ।
“ऐसा नहीं होगा ।”
“मैं बेवकूफ बनने वाला नहीं ।”
“अगर हमारा इरादा ऐसा कुछ करने का होता तो अब तक तुमसे आराम से बात न करते ।”
“मतलब कि तुम बहुत शरीफ हो ।” मदनलाल सोढ़ी का व्यंग भरा स्वर कानों में पड़ा ।
“ये मैं नहीं जानता । परंतु मेरी इस बात का विश्वास करो कि तुम्हारी जान लेने का मेरा इरादा नहीं... ।”
“कम से कम मैं इस वक्त तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं कर सकता । तुम खतरनाक आदमी हो । बलवान सिंह के हाथों ये बुलेट प्रूफ बैंक वैन छीन लेना आसान काम नहीं । ये काम खतरनाक आदमी ही कर सकता है ।”
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई । कश लिया । चेहरे पर सख्ती थी ।
तभी जगमोहन उखड़े अंदाज में आगे बढ़ा और वैन का दरवाजा थपथपाकर तेज स्वर में कह उठा –
“अगर तुम इसी तरह अपनी जिद्द पर अड़े रहे तो हमें वैन के फर्श के नीचे से गोली चलाकर तुम्हें खत्म करना पड़ेगा । सच बात तो ये है कि ये काम बहुत आसान है हमारे लिए । तुम्हें समझाने में कम से कम मेरी तो दिलचस्पी जरा भी नहीं है ।”
“तुम कौन हो ?” सोढ़ी की आवाज आई ।
“जगमोहन ! देवराज चौहान का खास साथी हूँ ।”
जगमोहन पहले वाले स्वर में कह उठा – “देवराज चौहान नहीं चाहता कि डेढ़ सौ करोड़ की दौलत पास में हो तो खून-खराबा हो । इसी कारण तुमसे प्यार से बात कर रहा है ।”
मदनलाल सोढ़ी की आवाज नहीं आई ।
“मदनलाला सोढ़ी ।” देवराज चौहान कह उठा – “अगर तुम हमारा साथ देते हो तो दो-चार करोड़ की दौलत तुम्हें मिल जाएगी ।”
सोढ़ी की आवाज नहीं आई ।
“तुम फँसे पड़े हो । आजाद नहीं हो सकते । यहाँ से जा नहीं सकते । हमारी बात मानने में ही... ।”
“मुझे पैसा नहीं चाहिए ।” सोढ़ी का तेज स्वर भीतर से आता देवराज चौहान के कानों में पड़ा ।
“तो ?”
“मैं जिंदा रहना चाहता हूँ । यहाँ से निकल जाना चाहता हूँ । तुम लोग मुझे मार दोगे ।”
“तुम्हारी जान लेने का मेरा जरा भी इरादा नहीं है ।” देवराज चौरहान ने कठोर स्वर में कहा – “लेकिन इसी तरह तुम मेरा वक्त खराब करते रहे तो तुम्हें मार देना, हमारी मजबूरी बन जाएगी ।”
सोढ़ी की आवाज नहीं आई ।
“हमारा साथ देने में ही तुम्हारा फायदा है ।”
“मुझे सोचने दो ।”
“अंधेरा हो चुका है । तुम्हें कब तक का वक्त चाहिए सोचने के लिए ?”
“कह नहीं सकता । सुबह इस बारे में बात करना ।”
देवराज चौहान ने कश लिया ।
“ये हमारा वक्त खराब कर रहा है ।” जगमोहन झल्ला कर कह उठा ।
“मैं भी यही कहने वाला था ।” चंद कदमों के फासले पर मौजूद लानती कह उठा ।
“तू चुप कर ।” पंचम लाल ने लानती को घूरा ।
“क्यों चुप करूँ ।” लानती भड़का – “क्या गलत कहा है मैंने ? ये गनमैन हमारा वक्त खराब कर रहा है ।”
“उससे देवराज चौहान निपट लेगा ।”
“हमारा भी तो वक्त खराब हो रहा है ।”
बलवान सिंह बँधा हुआ मरे चूहे की भांति पड़ा था । उसकी डर भरी आँखें इधर ही टिकी हुई थीं ।
“मदनलाल सोढ़ी ।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा – “तुम सुन रहे हो इन लोगों की बातें । तुम्हारा टालना अब ज्यादा देर नहीं चलेगा । अगर ये उखड़ गए तो मैं इन्हें ज्यादा देर रोक नहीं पाऊँगा ।”
“मैं तो कहता हूँ अभी इसे खत्म किया जाए ।” जगमोहन कठोर स्वर में कह उठा ।
“क्यों उसकी जान लेने की बात करते हो ?” पंचम लाल कह उठा – “थोड़ा सब्र करो । सोढ़ी शरीफ बंदा है । हालातों से थोड़ा डर रहा है, परंतु जल्द ही मान जाएगा ।”
“खाक शरीफ बंदा है । स्कूटर लेने की खातिर नई ब्याहता बीवी को घर से बाहर निकाल दिया कि अपने बाप से स्कूटर लेकर आए ।” लानती व्यंग से कह उठा – “वो स्कूटर लेकर आई तो उसे घर में घुसने दिया ।”
“ये सोढ़ी का व्यक्तिगत मामला है । तेरे को क्या ?’
तभी बैंक वैन के भीतर से आवाज आई ।
“मुझे भूख लग रही है ।”’
“बाहर आ जा ।” जगमोहन कह उठा ।
कई पल चुप्पी में निकल गए ।
“हमारे पास खाने को कुछ नहीं है । अभी खाना लेकर आएँगे तो तुम्हें मिलेगा ।”
“पानी भी ?”
“सब कुछ मिलेगा ।” देवराज चौहान का स्वर सख्त था – “लेकिन ये बात याद रखना कि तुम्हारे पास सुबह तक का वक्त है । अगर सुबह तुम वैन से बाहर न निकले तो तुम्हें रास्ते से हटा दिया जाएगा ।”
“मैं तो कहता हूँ अभी मारो साले को ।” लानती कह उठा ।
पंचम लाल ने लानती को घूरा ।
“खून बहुत उछल रहा है तेरा ।”
लानती उठा ।
“बैठ जा नीचे । आग में घी मत डाल ।”
“मैं बिल्लो बहन के बनाए परांठे खाने जा रहा हूँ ।”
“कहाँ है ?” पंचम लाल की आँखें सिकुड़ी ।
“कार में । देवराज चौहान की कार में बँधे पड़े थे । मैंने उठाकर अपनी कार में रख लिए । बिल्लो ने देवराज चौहान के साथ सफर के लिए बाँधकर दिए होंगे । देवराज चौहान ने कहा होगा कि वो कहीं दूर जा रहा है ।”
पंचम लाल ने सिर हिला दिया ।
लानती सामने खड़ी कार की तरफ बढ़ गया ।
“खाना लाना है ।” देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा – “पंचम लाल को भेज... ।”
“इन हालातों में किसी को यहाँ से बाहर नहीं जाने देना चाहिए ।” जगमोहन धीमे स्वर में बोला – “खाना मैं ही बाहर से लेकर आऊँगा । उधर सामने की सड़क पर दाईं तरफ जाकर, कुछ आगे एक होटल (ढाबा) है । वहाँ से ले आता हूँ ।”
जगमोहन खाना लाने के लिए वहाँ से चला गया । देवराज चौहान ने दरवाजा बंद कर लिया ।
जगमोहन को नहीं पता था कि नई मुसीबत उसके गले पड़ने वाली है ।
☐☐☐
इंस्पेक्टर दलीप सिंह ने खुद हैडक्वार्टर जाकर कमिश्नर साहब को बैंक वैन के मामले की रिपोर्ट दी और पंचम लाल के बारे में भी बता दिया था । बाकी बातें भी बताई ।
“बैंक वैन ठीक होने पंचम लाल के गैराज पर जाती थी ।” कमिश्नर साहब ने सोच भरे स्वर में कहा – “ऐसे में वो दोनों लुटेरे पंचम लाल से मिले होंगे और उसे इस काम में लालच देकर साथ मिला लिया होगा ।”
“यही हुआ होगा सर ।”
“इसका मतलब कि पंचमलाल लुटेरों के साथ इस वक्त बैंक वैन के पास ही होगा ।” कमिश्नर साहब ने कहा – “ये अच्छी बात पता चली । बैंक वैन ले जाने वालों में से किसी का तो पता चला ।”
दलीप सिंह सतर्क निगाहों से कमिश्नर साहब को देख रहा था ।
“पंचम लाल के बारे में पता किया ?”
“नहीं सर । मैं तो सीधा आपके पास चला आया... ।”
“पंचम लाल के बारे में पता करो । उसके आगे-पीछे कौन है, मालूम करो ।” कमिश्नर साहब ने कहा – “मुझे नतीजा चाहिए । जरा-जरा सी बात के लिए मेरे पास आने की जरूरत नहीं है । फोन कर लिया करो ।”
“वो तो सर मुझे इस तरफ आना था, इसलिए आपसे मिलने... ।”
“बैंक वैन की कोई खबर नहीं मिली कि वे लोग उसे कहाँ, किस तरफ ले गए ?”
“अभी कोई खबर नहीं मिली । सारा दिन पुलिस वाले बैक वैन की खबर पाने की चेष्टा करते रहे ।”
“हैरानी है कि इतनी बड़ी वैन की कोई खबर नहीं मिली ।” कमिश्नर साहब ने दलीप सिंह को देखा – “इसका मतलब पुलिस अपना काम ठीक तरह नहीं कर रही । ठीक तरह काम हो रहा होता तो वैन को किसी ने तो देखा होता ।”
“सर, पूरा दिन हम वैन के बारे में ही खबर पाने की चेष्टा करते... ।”
“इसका एक ही मतलब हो सकता है ।” कमिश्नर साहब ने सोच भरे स्वर में कहा – “कि वो वैन ज्यादा दूर न गई हो । पास ही कहीं उन लोगों ने वैन छिपा दी हो और डेढ़ सौ करोड़ जैसी दौलत को वहाँ से बाहर... ।”
“सर... दौलत के साथ बैंक का गनमैन मदनलाल सोढ़ी भी है । वो उन लोगों को पैसे तक नहीं पहुँचने देगा ।”
“क्या पता कि वहाँ के हालात क्या हैं । जल्दी करो – बैंक वैन को नोटों के साथ तलाश करो । ऐसा न हो कि वो लोग वैन से डेढ़ सौ करोड़ लेकर चलते बनें और... ।”
“शहर में जगह-जगह नाकाबंदी कर... ।”
“नाकाबंदी इस बात की गारंटी नहीं है कि वे लोग बाहर नहीं निकल पाएँगे शहर से । फिर जरूरी भी नहीं कि वे लोग शहर से बाहर निकल जाने का प्रयत्न करें । हो सकता है कि दौलत के साथ वे किसी सुरक्षित जगह बैठ जाएँ और मामले का शांत होने का इंतजार करें । इतनी बड़ी दौलत के लिए वे लोग महीनों तक भी खामोशी से बैठ सकते हैं ।”
“ऐसा नहीं होगा सर ।” इंस्पेक्टर दलीप सिंह अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठा – “मैं उन्हें ढूँढ़ ही निकालूँगा ।”
“वैन ड्राइवर बलवान सिंह भी लापता है । उसकी न तो अभी तक लाश मिली और ना ही वो जिंदा मिला । ऐसे में यही सोचा जा सकता है कि वैन ले जाने वालों ने उसे बंदी बना रखा है । यकीनन वो मुसीबत वाले वक्त से निकल रहा होगा । तुम अपनी कोशिशें तेज कर दो । ऐसा न हो कि किसी गाँव में मुझे तुम्हारी ट्रांसफर करनी पड़े ।”
दलीप सिंह तुरंत उठ खड़ा हुआ ।
“मैं कोशिश करूँगा कि सुबह तक उन लोगों को गिरफ्तार कर लूँ । तलाश कर लूँ ।” दलीप सिंह जैसे पक्के स्वर में कह उठा ।
कमिश्नर साहब कुछ पल दलीप सिंह को देखते रहे फिर गंभीर स्वर में बोले –
“मैंने शहर की आधी पुलिस को उस बैंक वैन को ढूँढ़ निकालने पर लगा दिया है । लेकिन वैन की कोई खबर नहीं मिल रही । किसी ने भी तब से बैंक वैन को सड़क पर जाते नहीं देखा, जब से लुटेरों ने उस पर कब्जा किया है । मेरा खयाल है कि बैंक वैन वहाँ से ज्यादा दूर नहीं गई, जहाँ से उन्होंने वैन पर कब्जा किया है ।”
“मैं उस जगह के दो-तीन किलोमीटर आस-पास की जगह को अच्छी तरह छानता हूँ सर ।”
इंस्पेक्टर दलीप सिंह, कमिश्नर साहब के ऑफिस से निकला और सब-इंस्पेक्टर मिलाप सिंह को थाने में फोन किया । फोन पर आने में उसे दो मिनट लगे । उनकी बात हो गई ।
“पंचम लाल के बारे में जानकारी इकट्ठी की ?” दलीप सिंह ने पूछा ।
“अभी नहीं, अभी तो... ।”
“इस तरह ढीला मत चल मिलापे । कमिश्नर साहब से कह दिया है कि वो हमारी ट्रांसफर किसी गाँव की चौकी में कर देंगे । जहाँ भैंसों के पास कुर्सी रखकर बैठना पड़ेगा । इज्जत बचा ले । जल्दी से पंचम लाल के बारे में पता कर । उसके घर-परिवार के बारे में पता कर कि वो किस-किस से मिलता है । लुटेरों के बारे में जानकारी पानी है । वैन की खबर मिली ?”
“नहीं ।”
“तू मुझे गाँव की चौकी में भेजकर ही रहेगा । जल्दी कर मैं थाने ही आ रहा हूँ । शायद पंचम लाल के घर-परिवार के लोग बता सकें कि गैराज पर आने वाले वे दोनों लोग कौन हैं । समझा कि नहीं मिलापे ?”
“समझ गया । मैं अभी पंचम लाल के बारे में सब पता लगाता हूँ । आप तब तक थाने पहुँचो ।”
दलीप सिंह ने फोन बंद कर दिया ।
वो जल्द से जल्द बैंक वैन, नोटों सहित बरामद करके डिपार्टमेंट की शाबाशी ले लेना चाहता था ।
☐☐☐
अंधेरा होने वाला था जब इंस्पेक्टर दलीप सिंह, उसी सड़क पर पहुँचा, जहाँ से बैंक वैन को हथियाया गया था । यही रास्ता थाने तक जाता था उसके । पुलिस जीप वहाँ रोके वह कुछ देर इधर-उधर देखता रहा । कमिश्नर साहब की ये बात उसे ठीक लगी थी कि अगर बैंक वैन को उसके बाद किसी ने जाते नहीं देखा तो, स्पष्ट है कि बैंक वैन वहाँ से ज्यादा दूर नहीं गई । आस-पास ही कहीं छिपा दी गई होगी ।
वो जानता था कि आस-पास की जगहों को वो अकेले नहीं देख सकता था । फिर भी उसने जीप को मोड़ा और आस-पास नजरें घुमाता सड़क पर जीप आगे बढ़ाता चला गया । मन में था कि एक-दो किलोमीटर का चक्कर यूँ ही मार कर, ऐसी जगहें देख ले कि जहाँ उस बैंक वैन को छिपाया जा सकता हो । उसके बाद थाने के पुलिस वालों को लेकर आएगा और हर जगह खुलवा-खुलवा कर देख लेगा ।
एक-डेढ़ किलोमीटर वो आगे पहुँचा तो बाईं तरफ दस-बारह दुकानें बनी दिखीं । इन दुकानों पर दोपहर में भी आया था और देवराज चौहान, जगमोहन के स्कैच दिखाकर उनके बारे में पूछा भी था । उस खाने के होटल में तो वो दोनों के स्कैच वाले कागज छोड़ भी गया था । तीन-चार दुकानें ट्रैक्टर्स ठीक करने वाली थीं । एक स्कूटर मैकेनिक की दुकान थी और दो दुकानें खाद-बीज वगैरह की थीं । आस-पास के गाँवों के लोग यहाँ अपने काम के लिए आते थे ।
इंस्पेक्टर दलीप सिंह ने दुकान जैसे होटल के सामने जीप ले जा रोकी ।
अंधेरा आना शुरू हो गया था । जीप रुकते ही होटल के बाहर बैंच पर बैठा दस बरस का छोकरा दौड़ा-दौड़ा पास आया ।
“थानेदार जी नमस्कार ।” वो दाँत दिखाकर बोला ।
“नमस्कार, वो दिखा कोई ?”
“फोटू वाले ?”
“हाँ, वही ।”
“नहीं साहब जी ।” उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“वो बड़ी सी बैंक की वैन भी नहीं देखी ।”
“नहीं ।”
“सुन ।”
“जी ।” उसने सिर को थोड़ा सा आगे किया ।
“मुझे पता लगा है कि वो बैंक वैन और वो लुटेरे आस-पास ही कहीं छिपे हैं ।” दलीप सिंह धीमे स्वर मे बोला ।
“अच्छा जी ।” लड़के की आँखें फैली ।
“नजर रखियो । उनके बारे मे कोई खबर देगा तो तेरे को हजार रूपये का इनाम दूँगा ।”
“हजार रूपये ।”
“उनके बारे में कुछ बताएगा तो दूँगा । मेरा फोन नंबर संभाल के रखा है ना ?”
“यहाँ रखा है ।” लड़के ने जेब थपथपा कर कहा ।
“बढ़िया जगह रखा है । चल, पानी पीला ।”
लड़का भागा गया और पानी का गिलास लेकर वापस आया ।
दलीप सिंह ने पानी पिया ।
“तू अकेला है, दूसरा नहीं दिख रहा ।”
“चाचे का लड़का आज पड़ोस की शादी में गया है । दाल-सब्जी सब तैयार है । कोई खाने आएगा तो मैं रोटियाँ उतार दूँगा । तंदूर तो तप रहा है । मैं बोत बढ़िया रोटियाँ उतारता हूँ ।” वो मुस्कराया ।
“खाऊँगा कभी तेरे हाथ की ।” कहते हुए दलीप सिंह ने जीप आगे बढ़ाई और वापसी के लिए मोड़ ली । वो थाने पहुँचकर मिलाप सिंह से बात करना चाहता था । अब तक उसने पंचम लाल के परिवार के बारे में पता कर लिया होगा ।
तभी उसकी निगाह सड़क से उतरकर, कुछ दूर खेतों में बने कमरे पर पड़ी । वो कमरा जमींदार राजेन्द्र सिंह का था । आस-पास उसी के खेत थे ।
“पहली बार लाइट जलती देखी है । राजेन्द्र सिंह के खेतों वाले कमरे में ।” दलीप सिंह बड़बड़ा उठा – “आज ही लाइट लगवाई होगी और जलती छोड़ दी ।” साथ ही उसे याद आ गया कि घर में गेहूँ खत्म है । राजेन्द्र सिंह से कहना है । ये सोचकर कि दो मिनट तो लगने हैं, जीप को उसने कच्चे रास्ते पर उतार दिया । दूर गाँव की एक-दो रोशनियाँ नजर आ रही थी । हैडलाइट का तीव्र प्रकाश रास्ते पर पड़ रहा था । वो मध्यम सी गति से जीप आगे बढ़ाता गया ।
बाईं तरफ खेतों के बीच बने कमरे पर उसने फिर नजर मारी ।
इस तरफ कमरे की साइड की दीवार नजर आ रही थी और छत के पास लगे नन्हें से रोशनदान के भीतर पीली सी बल्ब की रोशनी जलती महसूस हो रही थी । छत के पास लगे नन्हें से रोशनदान के भीतर पीली सी बल्ब की रोशनी जलती महसूस हो रही थी ।
पाँच मिनट उस कच्चे रास्ते पर बढ़ने के पश्चात जीप कच्चे से गाँव में पहुँच गई । कहीं पर पक्का कमरा था तो कहीं पर झोपड़ा । मिला-जुला ऐसा ही गाँव था । रोशनी के बल्ब हर घर पर जल रहे थे । एक चौड़ी सी कच्ची गली में तीन कमरों के पक्के से मकान के सामने दलीप सिंह ने जीप रोकी । नीचे उतरा ।
तभी सामने बने अन्य पक्के मकान से एक कुत्ता भौंकने लगा ।
“हरामजादा ।” दलीप सिंह मुँह बनाकर बड़बड़ा उठा – “जब भी आऊँगा, ये जरूर भौंकेगा । जब तक इसे किसी केस में बंद नहीं करूँगा, तब तक मानेगा नहीं । भौंकने वाले कुत्तों के लिए भी कोई सख्त कानून बनना चाहिए ।” बड़बड़ाता हुआ मकान के गेट के पास पहुँचा और ऊँचे स्वर में पुकारा – “जमींदार, ओ जमींदार किधर है तू ?”
तुरंत ही राजेन्द्र सिंह गेट पर आ पहुँचा । वो अभी-अभी जगमोहन से मिलकर अपने मकान पर पहुँचा था । पानी ही पिया था कि दलीप सिंह की आवाज उसे सुनाई दी ।
“आ भई थानेदार । आज बाहर से क्या आवाजें मार रहा है, भीतर आ ।”
“जल्दी है मुझे ।”
“ऊपर वाले कमरे में बैठते हैं । नई बोतल लाया हूँ । खाना-पीना भी हो जाएगा ।”
“आज नहीं । आज तो सारी रात भागदौड़ में बीतेगी । कुछ लोगों ने बाहर सड़क पर से बैंक की गाड़ी पर हाथ मार दिया आज दिन में । पूरा डेढ़ सौ करोड़ रुपया था उसमें ।”
“बल्ले-बल्ले, उनकी तो मौज हो गई ।”
“पर हमारी तो जान पे बन आई । बैंक-वैन ले जाने वालों को ढूँढ़ने में लगे हैं । ऊपर से हमें डंडा दिया जा रहा है ।”
“नौकरी में तो ऐसा ही होता है ।”
“पुलिस का खयाल है कि बैंक वैन लेकर लुटेरे आस-पास ही कहीं छिपे हुए हैं ।”
“आस-पास ?” राजेन्द्र सिंह के होंठों से निकला । जाने क्यों उसकी आँखों के सामने देवराज चौहान और जगमोहन के चेहरे उभरे – “क्या बात करता है थानेदार ? यहाँ कहीं तो जगह ही नहीं है छिपने की ।”
“बहुत है । कहीं भी कच्चे कमरे में छिप सकते हैं । भूसा रखने के लिए बहुतों ने खेतों में कमरे बना रखे हैं । जैसे कि तूने । अब तो वहाँ रोशनी भी लगवा ली । बंद करनी भूल गया क्या ?”
“कल कर दूँगा ।”
“उसी कमरे में बैठकर बोतल खोलेंगे । हाँ, मैं तो तेरे पास आया था कि घर पर दो बोरे गेहूँ भिजवा दे । तेरे को पहले भी कहा था ।”
“याद है । कल सुबह भिजवा दूँगा, ट्रैक्टर पर रखवा कर ।”
“भूलना नहीं ।”
“क्या बात करते हो थानेदार । भूलने वाली बात कहाँ से आ गई । तेरा काम, मेरा काम । कल आएगा ?”
“कल का कुछ पता नहीं । देखूँगा । बैंक वैन ले जाने वालों ने नाक में दम कर रखा है ।” इंस्पेक्टर दलीप सिंह पलटकर वापस जीप मे बैठता बोला – “आ सका तो कल जरूर आऊँगा । बोतल भी लेता आऊँगा ।”
राजेन्द्र सिंह ने सिर हिलाया ।
दलीप सिंह ने जीप स्टार्ट की । फिर पास ही दूसरी सीट पर रखे दो कागज उठाकर उसे देता बोला –
“ये रख ले जमींदार । इन कागजों पर उन्हीं दो बैंक वैन ले जाने वालों के चेहरों की तस्वीरें हैं । गाँव के लोगों को दिखाकर पूछना कि इन्हें कहीं देखा तो नहीं । देखा हो तो उसी वक्त आकर मुझे बताना ।”
“खबर मिली तो बताऊँगा ।” राजेन्द्र सिंह ने दोनों कागज थाम लिए ।
दलीप सिंह ने जीप आगे बढ़ा दी ।
☐☐☐
जमींदार राजेन्द्र सिंह को काटो तो खून नहीं, ऐसा ही हाल हो रहा था उसका । सकते की सी हालत में, बुत की तरह हो रहा था । आँखें फैल गई थीं । चेहरा अजीब सा होकर निचुड़ गया था । ये हालत उसकी तब से हुई थी, जब से दलीप सिंह के जाने के पश्चात, भीतर कमरे में आ बैठा और उसके दिए कागजों पर बने चेहरों पर उसकी नजर पड़ी थी ।
वो पागलों की तरह बैठा देवराज चौहान और जगमोहन के चेहरे देखे जा रहा था । तो ये थे जिन्होंने बैक वैन लूटी । उसमें डेढ़ सौ करोड़ रुपये थे । उसे सिर्फ दस हजार दिए । ये दोनों तो उसके खेत पर बने कमरे में थे । बैंक की गाड़ी भी इन्होंने भीतर ही छिपा रखी होगी । गाड़ी भीतर ले जानी थी, तभी तो अपने पल्ले से, कमरे में चौड़ा दरवाजा लगा लिया । वो जब कमरे में गया तो उसे बाहर से ही टरका दिया कि कमरे में लड़की है ।
डेढ़ सौ करोड़ ?
पुलिस को बताए या नहीं ?
या इन दोनों से सीधा ही बात करे ?
पुलिस ज्यादा से ज्यादा उसे पचास हजार इनाम के दे देगी ।
इनसे एक-दो करोड़ तो झाड़ ही सकता है ।
जमींदार राजेन्द्र सिंह के शरीर में एकाएक ठण्डी सिहरन दौड़ी । लगा जैसे सामने से शेर निकला हो । दोनों कागजों को एक तरफ रखकर आराम से कुर्सी पर बैठ गया । उसे लगा कि इस मामले में अभी सोचने की जरूरत है ।
“मंगल ।” कुछ देर बाद उसने पुकारा ।
“जी जमींदार साहब ?” पच्चीस बरस का गाँव का लड़का भीतर आया ।
“रोटी तैयार कर दी ?”
“दाल बन गई है । जब बोलो, रोटी बना देता हूँ ।”
“रोज दाल ही खिलाएगा क्या ?” जमींदार राजेन्द्र सिंह ने मुँह बनाया ।
“मालिक हो । जो ला के दोगे, वो ही तो बनाऊँगा ।”
“पंद्रह दिन पहले तेरे को मुर्गा लाकर दिया था और तूने उसे जला दिया ।”
“मरा हुआ था । जल गया । अच्छा ही हुआ, काम निपट गया ।”
“बोलता बहुत है तू ।”
“मुफ्त का नौकर हूँ । दूसरा नहीं मिलेगा । काम के बदले छत के नीचे सिर्फ नींद ही तो लेता हूँ ।”
“रोटी बना दे । खा के खेतों में जाऊँगा ।”
“खेतों में ?”
“घूमने ।”
“रात को जमींदार जी । खैर तो है । आज पी भी नहीं रहे । रोटी भी जल्दी खा रहे हो और घूमने को बोल रहे... ।”
“जान छोड़ेगा क्या ?”
और मंगल जान छोड़कर कमरे से बाहर निकल गया ।
राजेन्द्र सिंह की सोचें डेढ़ सौ करोड़ के गिर्द घूमने लगीं । आँखों के सामने देवराज चौहान और जगमोहन के चेहरे दिखाई देने लगे ।
☐☐☐
जगमोहन उस कमरे से निकलकर खेतों ही खेतों में होता हुआ, सड़क पर आ पहुँचा और सड़क के किनारे-किनारे पैदल ही आगे बढ़ने लगा । उसे मालूम था कि कुछ आगे जाकर दुकाने हैं और एक छोटा सा होटल भी है ।
बीस-पच्चीस मिनट पैदल चलने के पश्चात वो उन चंद दुकानों की मार्किट में जा पहुँचा । गहरा अंधेरा छा चुका था । सड़क पर से तेज रफ्तार से कोई वाहन निकलता तो हवा का झोंका उसके शरीर से टकराता । दुकानें खुली हुई थीं और हर दुकान के बाहर एक बल्ब जलता हुआ लटक रहा था ।
जगमोहन होटल वाली दुकान पर पहुँचा ।
“आओ बाऊजी, बैठो ।” दस बरस वाला वो ही लड़का बोला – “आज सोनू के हाथ की रोटियाँ खाओ ।”
“तू सोनू है ?” जगमोहन ने उसे देखा ।
“हाँ, क्या खाओगे ? राजमा, मटर पनीर और दाल है । मेरी मानो तो राजमा खाओ ।”
“क्यों ?”
“बोत स्वादी है, मजेदार । मेरे को तो बड़े अच्छे लगते हैं । लो स्वाद दिखाता हूँ ।” कहकर वो पलटा और कटोरी उठाकर पतीले में से उसने राजमा डाले और ले आया – “लो जी स्वाद देखो ।”
“कटोरी भर के ?” जगमोहन मुस्कराया ।
“क्या फर्क पड़ता है, आज सोनू मालिक है यहाँ का ?”
“तो मालिक कहाँ गया ?”
“वो पड़ोस की शादी में गया । मोहल्ले में । रोटी उतारूँ ?”
“उतार ।”
“राजमा तो खाए नहीं ।”
“खा लेता हूँ । खुशबू अच्छी है ।”
“अच्छी क्यों नहीं होगी । मसाला तो मैंने ही डाला था ।” कहने के साथ ही सोनू तंदूर पर जा खड़ा हुआ ।
जगमोहन कुर्सी पर बैठा और वक्त बिताने के लिए राजमा का स्वाद देखने लगा चम्मच से ।
“कितने उतारूँ बाऊ जी । दो या तीन ?”
“पच्चीस-तीस उतार दे ।”
“पच्चीस-तीस ?” सोनू हड़बड़ाकर जगमोहन को देखने लगा – “इतनी खाकर क्या करोगे । पास में डॉक्टर भी नहीं है ।”
“पैक करनी है । ले जानी है ।”
“समझा, बड़ा ऑर्डर है । लो जी अभी उतार देता हूँ ।”
सोनू तंदूर पर व्यस्त होता बोला – “राजमा कैसे लगे ?”
“बहुत बढ़िया ।”
“ये तो कुछ भी नहीं । मेरी माँ बनाती है राजमा । क्या स्वाद आता है वाह ।”
सोनू बोलता रहा । तंदूर में रोटियाँ लगाता रहा ।
जगमोहन उसकी बातें सुनता इधर-उधर देखता वक्त बिताता रहा ।
बाद में उसके कहे अनुसार सोनू ने सब्जियाँ वगैरह पैक कर दीं । लेकिन जुबान चलती रही सोनू की । कभी इधर के किस्से सुनाता तो कभी उधर के । आधा घण्टा लग गया सबकुछ पैक होने में ।
“बाऊजी ! प्याज-मूली, चटनी सब डाल दी । हरी मिर्च भी डाल दूँ पंद्रह-बीस ?”
“डाल दे ।”
“अभी लो ।” कहने के साथ ही सोनू होटल के अंदर गया । एक तरफ थाल में रखी मिर्ची मुट्ठी में उठाकर पतीले के पीछे आया और अखबार के कागज की तलाश में नजरें घुमाई ।
अखबार तो न दिखा, लेकिन इंस्पेक्टर दलिप सिंह के दिए वो दोनों कागज नजर आ गए जिन पर देवराज चौहान और जगमोहन के चेहरे बने हुए थे और ऊपरी कागज जगमोहन के चेहरे वाला ही था ।
उस पर निगाह पड़ते ही उसके मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी ।
पलकें झपकाना भूल गया सोनू । साँसे जहाँ की तहाँ थम गई ।
वो उसी पल समझ गया कि उसके होटल पर आया बंदा तो ये कागज पर बनी तस्वीर वाला ही है । जिसके बारे में पूछने शाम को वो इंस्पेक्टर दलिप सिंह दोबारा आया था और कह रहा था कि ये लोग कहीं आस-पास ही छिपे हैं । ठीक कहा था उसने । तभी तो ये खाना पैक कराने आया है । अपने साथियों का भी ले जा रहा है ।
सोनू को इनाम का हजार रुपया नजर आने लगा । उसने जल्दी से अखबार के कागज में मिर्चें लपेटकर रोटी वाले लिफाफे में डाली और अपनी हालत पर काबू रखे वो जगमोहन से कह उठा –
“बाऊजी । रोटी पैक कर दी । सब्जियाँ भी पैक कर दी और... ।”
“कितने हुए ?”
“अभी हिसाब नहीं लगाया । सत्तर-अस्सी हुए होंगे । आप दो मिनट रुको । मैं लल्लू की दुकान पर होकर आता हूँ । जरूरी काम याद आ गया है ।” कहकर वो भागा ।
जगमोहन को मौका ही नहीं मिला कि उसे रोक पाता ।
वो सोच भी नहीं सकता था कि सोनू उसके बारे में पुलिस को फोन करने गया है ।
खाना पैक था । बेकार में रुकना ठीक नहीं समझा जगमोहन ने । उसने खाने के लिफाफे थामे और जेब से सौ का नोट निकालकर पतीले पर गिलास के नीचे फँसाया और वापस अपने रास्ते पर बढ़ गया ।
☐☐☐
पैदल चलता जगमोहन पच्चीस मिनट बाद सड़क से उतरकर खेतों में उतर गया । कुछ आगे खेतों में ही वो कमरा बना हुआ था जहाँ उसे पहुँचना था । सड़क पर से उस कमरे में जलती लाइट नजर नहीं आ रही थी । एक हाथ में होटल से पैक कराये खाने के लिफाफे लटक रहे थे ।
वो चंद कदम ही आगे बढ़ा होगा कि एकाएक उसकी आँखें सिकुड़ गई । शरीर में तनाव सा भर आया । काफी दूर कोई था जो खेतों में बढ़ता हुआ कमरे की तरफ आ रहा था । वो बार-बार हाथ में दबी टॉर्च जलाकर रास्ता देखता और टॉर्च बुझा देता ।
कौन हो सकता है जो इतनी रात गए कमरे की तरफ आये ?
खतरा सा महसूस हुआ जगमोहन को ।
जमींदार राजेन्द्र सिंह तो नहीं ?
नहीं । वो नहीं हो सकता । वो क्यों आएगा ? शाम को ही तो यहाँ से होकर गया है । फिर कौन हो सकता है ? इन्हीं सोचों के साथ तेजी से आगे बढ़ता जगमोहन, कमरे के पास पहुँच गया । परन्तु कमरे के दरवाजे तक नहीं गया । वहीं पास ही खेतों में दुबक गया और आने वाले का इंतजार करने लगा ।
मिनट बीता । चार मिनट बीते । सातवें मिनट वो नजर आया । कमरे के पीछे की तरफ से वो प्रकट हुआ था और अब दरवाजे की तरफ आ रहा था । इस बीच एक बार उसने टॉर्च की रौशनी जलाकर रास्ता देखा था ।
एकाएक जगमोहन की ऑंखें सिकुड़ी । आने वाले के हाथ में लाठी थमी महसूस हुई थी ।
जमींदार राजेन्द्र सिंह ? उसके मस्तिष्क में कौंधा ।
आने वाला कुछ और करीब आया तो जगमोहन ने स्पष्ट पहचान लिया था उसे । वो राजेन्द्र सिंह ही था । आँखें सिकोड़े जगमोहन उसे देखने लगा । अँधेरे में वो नजरें इधर-उधर घुमाता लग रहा था । चन्द्रमा की रौशनी में वो सिर से पाँव तक स्पष्ट नजर आ रहा था । दरवाजे से बीस फीट पर खड़ा हुआ और अब रह-रहकर वो दरवाजे की तरफ देखने लगा था । गड़बड़ का स्पष्ट एहसास हुआ जगमोहन को ।
शाम को वो मिलकर गया था । दोबारा इसके आने का मतलब नहीं था । परन्तु ये रात के अँधेरे में चोरों की तरह यहाँ आ पहुँचा था । क्यों, क्या चाहता है ये ? राजेन्द्र सिंह खड़ा कभी दरवाजे की तरफ देखता तो कभी इधर-उधर । वो शायद कुछ सोच रहा था ।
जगमोहन खेतों में दुबके उसे देखता रहा ।
एकाएक राजेन्द्र सिंह अपनी जगह से हिला और दरवाजे की तरफ बढ़ा ।
अब छिपने का कोई फायदा नहीं था । जगमोहन उसी पल खेतों से उठा और पुकारा –
“जमींदार साहब ।”
जमींदार राजेन्द्र सिंह फौरन ठिठका और पलट गया ।
चंद्रमा की रौशनी में दोनों ने एक-दूसरे को देखा ।
“ओह, तुम यहाँ हो ।” राजेन्द्र सिंह मुस्कुराता सा कहकर फौरन जगमोहन के पास पहुँच गया ।
जगमोहन ने उसे घूरा ।
“लगता है बाहर रहकर नजर रख रहे हो ।” राजेन्द्र सिंह दाँत फाड़ने के अंदाज में बोला ।
“बाहर रहकर नजर ?” जगमोहन के होंठों से निकला – “क्या मतलब ?”
“मतलब ?” राजेन्द्र सिंह मुस्कुरा उठा – “मतलब तो कुछ भी नहीं ।”
“यहाँ क्या करने आये हो ?”
“मैं... मैं तो पूछने आया था कि रोटी-पानी की जरूरत हो तो मैं इंतजाम कर.... ।”
“नहीं चाहिए ।”
“लगता है ले आये । खुशबू आ रही है सब्जियों की ।”
चंद्रमा की रौशनी में राजेन्द्र सिंह ने उसके हाथों में दबे लिफाफे को देखा – “मुझे ध्यान न रहा, वरना शाम को ही पूछ लेता ।”
जगमोहन आँखें सिकोड़े राजेन्द्र सिंह को देखे जा रहा था ।
“तुम हमारे में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हो जमींदार ।”
“क्या बात करते हो । मैं क्यों दिलचस्पी लूँगा । वो क्या है कि हमारे पंजाब में मेहमानों का बहुत ख्याल रखा जाता है । वैसे भी तुम लोगों ने इस बेकार पड़ी जगह के दस हजार दे दिए मुझे । ऐसे में मेरा फर्ज और भी ज्यादा बन जाता है कि खाने-पीने का ध्यान... ।”
“हमारा ध्यान रखने की जरूरत नहीं है ।” जगमोहन ने उखड़े स्वर में कहा ।
“ऐसा न कहो । थोड़ा सा मौका तो जरूर दो सेवा का । ये बताओ कि सुबह कौन से पराठे खाओगे ?”
“पराठे ?”
“नाश्ते में ।” राजेन्द्र सिंह खुलकर मुस्कुराया – “आलू के, गोभी के, पनीर के, मिस्से पराठे, मूली के, चने की दाल के या फिर पेट ठीक न हो तो नमक-आजवाइन वाले ले आऊँगा । साथ में दही – कोई और पराठे पसंद करते हो तो वो बता दो । एकदम असली घी में बनवा के ला दूँगा । कितने चाहिए ये भी बता देना ।”
“बात क्या है ?” जगमोहन के चेहरे पर सोच के भाव थे ।
“बात ?”
“तुम हमारी सेवा करने को बहुत परेशान नजर आ रहे हो ।” जगमोहन ने चुभते स्वर में कहा ।
“क्या बात करते हो । मैं क्यों परेशान होऊँगा ?” राजेन्द्र सिंह जल्दी से कह उठा – “मैं तो पहले ही कह चुका हूँ कि हम पंजाब के हैं । वो भी लुधियाना के । मेहमानों का बहुत ख्याल रखते हैं । वो ही कर रहा हूँ ।”
“अगर मुझे कुछ न चाहिए हो तो ?”
“तो नहीं लाऊँगा ।”
“सुन लो – हमें कुछ नहीं चाहिए । तुम्हारी भी जरूरत नहीं । बार-बार इधर आओगे तो हम ये जगह खाली कर देंगे और जाते-जाते तुमको दिए दस हजार रुपये भी ले लेंगे । वो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा ?”
“जो हुक्म ।” राजेन्द्र सिंह तुरन्त सिर हिलाकर कह उठा – “एक बात तो बताना भूल ही गया ।”
“वो भी बोलो ।”
“यहाँ का दरोगा, दलिप सिंह मेरा यार है । हमारा खाना-पीना कई बार साथ ही चलता है ।”
जगमोहन की निगाह राजेन्द्र के चेहरे पर जा टिकी ।
“वो आया था एक-डेढ़ घण्टा पहले मेरे पास । यहाँ रौशनी देखी तो पूछने लगा कि रौशनी क्यों कर रखी है ? लेकिन मैंने उसे नहीं बताया कि ये कमरा दस हजार में किराये पर दे दिया है । बताता तो वो तुम लोगों से मिलने जरूर आता ।”
जगमोहन की आँखें सिकुड़ी ।
राजेन्द्र सिंह पुनः दाँत दिखाकर कह उठा –
“मैंने तो उसे कहा कि बैठ, नई बोतल खोलते हैं । नई बोतल खुलने का मौका वो कभी भी हाथ से जाने नहीं देता । लेकिन आज उसने बोतल वाली बात की तरफ ध्यान भी नहीं दिया । बहुत जल्दी में था ।”
“क्यों ?” बेहद शांत स्वर में पूछा जगमोहन ने ।
“वो बता रहा था कि आज दिन में उधर सड़क पर जाती बैंक वैन को दो लोग ले भागे । उसमें डेढ़ सौ करोड़ रुपया नकदी भरा पड़ा था । उसे तलाश करने की जल्दी थी । वो एक बात और कह रहा था ।”
“क्या ?” जगमोहन का पूछने का ढंग ऐसा था जैसे मज़बूरी में पूछ रहा हो । परन्तु मन ही मन सावधान हो चुका था कि ये जो भी बता रहा है, उसके काम की बातें बता रहा है । इस मामले में पुलिस की भागदौड़ पता चल रही थी ।
“दरोगा दलिप सिंह कह रहा था कि बैंक वैन ले जाने वाले दोनों व्यक्ति यहीं-कहीं पास में ही वैन के साथ छिपे हैं ।”
जगमोहन चिंहुका लेकिन खामोश रहा । जमींदार राजेन्द्र सिंह की शांत निगाह जगमोहन पर थी । जगमोहन इधर-उधर नजरें दौड़ाने लगा था ।
“बड़ा खराब जमाना आ गया है । डेढ़ सौ करोड़ जितना बड़ा सरकारी पैसा सिर्फ उन दो लोगों के पास पहुँच गया । इतने पैसे का वो दोनों भला क्या करेंगे । खा भी नहीं सकेंगे । पेट खराब हो जायेगा ।” राजेन्द्र सिंह ने कहकर गहरी साँस ली ।
जगमोहन ने राजेन्द्र सिंह को देखा ।
“तुम्हारी बातें खत्म हो गई तो मैं जाऊँ । खाना ठंडा हो रहा है ।”
“जाओ, जाओ । मैंने तो तुम्हें रोका नहीं । नाश्ते में पराठे तो तुम्हें चाहिए ही नहीं ?”
“नहीं ।”
“ऐसे मेहमान ऊपर वाला सबके घर भेजे जो खाने-पीने से सख्त परहेज करें । एक बात और बताऊँ ?”
“वो भी कह ले ।”
“कह देने से मन हल्का हो जाता है ।” राजेन्द्र सिंह ने पुनः दाँत फाड़े और मैले कुर्ते की जेब से तह किया कागज निकालकर जगमोहन के हाथ में दबाते बोला – “दरोगा दलिप सिंह ने मुझे ये कागज दिए । उसका कहना है कि इन दो कागजों पर उन दोनों बैंक वैन ले जाने वालों के चेहरे बने हैं । कहीं दिखें तो उसे बता दूँ । इनाम मिलेगा ।”
जगमोहन का दिल धड़का ।
“बैंक वैन ले जाने वालों के चेहरे ?”
“देख लेना – शायद दरोगा ठीक कह रहा हो । चलता हूँ मैं । किसी चीज की जरूरत हो तो मुझे बता देना । मेरा मकान तो तुमने तब ही देख लिया था, जब पहली बार मुझे ढूँढ़ते वहाँ पहुँचे थे ।” कहकर वो पलटा और जैसे आया था, वैसे ही वापस चल पड़ा । रास्ता देखने के लिए कभी-कभार टॉर्च रोशन कर लेता था ।
जगमोहन कुछ मिनट तो उसे जाते देखता रहा । हाथ में पकड़े कागज उसने जेब में डाल लिए थे । मन में एक ही विचार आ रहा था कि कुछ गड़बड़ है । राजेन्द्र सिंह की कही बातों का मतलब समझने की चेष्टा में वो आगे बढ़ा और पास पहुँचकर दरवाजा थपथपाया । साथ ही जरा सी आवाज लगाई कि भीतर वालों को पता चल जाये कि आने वाला वो है ।
फौरन ही दरवाजा खुला । जगमोहन भीतर प्रवेश कर गया । दरवाजा बन्द हो गया ।
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