डायरी

“अब, तुम जाकर सो जाओ, कार्तिक।” कार्तिक को अपने लैपटॉप के सामने बैठे-बैठे ऊँघते हुए देखकर ऋचा ने मुस्कुराते हुए कहा।

“हाँ?” कार्तिक ने आँखें मलते हुए ऋचा को देखा और कहा, “थोड़ा और वर्क बाकी है। मैंने सोचा, वो भी फिनिश कर लेता हूँ।”

“कल कर लेना,” ऋचा ने उसे चादर और कम्बल उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा, “रात बहुत हो चुकी है और, तुम्हें नींद भी आ रही है।”

“तुम ठीक कहती हो,” कार्तिक ने अंगड़ाई ली और अपना लैपटॉप बंद कर दिया। फिर उसने ऋचा से अपनी चादर और कम्बल ले लिए, “गुड़ नाईट, स्वीटहार्ट।”

“गुड़ नाईट, कार्तिक।” ऋचा चौखट पर खड़ी होकर, कार्तिक को प्यार भरी नज़रों से देखती रही।

“अब, तुम भी सो जाओ।” कार्तिक ने बरामदे में पड़ी चारपाई पर चादर बिछाते हुए ऋचा से कहा, “और सुनो, दरवाज़ा ठीक से बंद कर लेना।”

ऋचा ने सर हिला दिया और दरवाज़ा बंद कर लिया।

वो थोड़ी देर तक उस बंद दरवाज़े से सट कर खड़ी रही जो उसके और कार्तिक के दरमियान दीवार बनकर खड़ा था। माँ की तबीयत खराब होने की वजह से राधा, दिन में ऋचा के घर काम करती और शाम होते ही वापस चली जाती थी। ऋचा जानती थी कि कार्तिक के यूँ हर रात को उसके घर आने से, मंजू दीदी के मन में कितनी उथल-पुथल मची हुई है। मंजू के खुराफाती दिमाग में कार्तिक और ऋचा के रिश्ते को लेकर शक के बीज तो उसी दिन बोये जा चुके थे, जब वो दोनों पहली बार मंजू के घर मिले थे। ऋचा को ये भी पता चला है कि उस दिन के बाद से, मंजू उन दोनों पर कड़ी नज़र रखे हुए है। जब भी राधा, ऋचा के घर से शाम को वापस जाती, मंजू उसको रोक लेती और काफी देर तक पूछ ताछ करती। मंजू को ये जानने में बड़ी दिलचस्पी थी कि आखिर ऋचा और कार्तिक के बीच, चल क्या रहा था?

ऋचा ने अपने कमरे की खिड़की से मंजू के घर की तरफ देखा। रात के साढ़े बारह बज चुके थे और मंजू का घर अँधेरे में डूबा हुआ था। लेकिन ऋचा को पूरा यकीन था की मंजू सोई नहीं होगी। घर की सारी बत्तियां बुझाकर मंजू, अँधेरे में ऋचा के यहाँ हो रही गतिविधियों पर नज़र रख रही होगी। जब तक ऋचा के घर की सारी बत्तियां बुझ न जाएं, मंजू को चैन की नींद भला कैसे आ सकती है?

“ठीक है, मंजू दीदी,” ऋचा अपने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद करते हुए कहा, “आज तो तुम्हें पूरी रात जागना ही होगा। क्योंकि, मैं आज सारी रात बैठकर अनाया की डायरी पढ़ने वाली हूँ।”

ऋचा ने अपने बैग से डायरी निकाली और पलंग पर जाकर बैठ गयी। उसने डायरी का पहला पन्ना खोला तो देखा, उस पर लिखी तारीख आज से तीन साल पहले की थी। अनाया ने डायरी के सफ़ेद कागज़ पर काली स्याही से अपनी कहानी लिखी थी। उसकी लिखावट काफ़ी साफ-सुथरी और सुन्दर थी। ऋचा के कमरे की खिड़की, मंजू के घर की तरफ खुलती थी। उसने एक नज़र मंजू के घर की तरफ देखा और फिर बिस्तर पर लेट गयी।

“देखते हैं, मेरी तहकीकात में ये डायरी कितना काम आती है।” ऋचा ने बड़े चाव से अनाया की डायरी को पढ़ना शुरू किया। डायरी के पहले पन्ने पर कुछ यूँ लिखा था-

“शादी और आने वाले भविष्य का सपना कौन नहीं देखता? हम कुँवारी लड़कियों का तो ये सबसे पसंदीदा सपना होता है। लेकिन बात सिर्फ सपनों तक सीमित नहीं है। विवाह वो यथार्थ है, जिस पर एक स्त्री का भविष्य निर्भर है। एक लड़की जिस घर में दुल्हन बनकर जाती है, उसका आने वाला जीवन भी उन लोगों के रंग में रंग जाता है। जाने कैसे घर में शादी होगी? जाने, वहाँ के लोग कैसे होंगे? वे लोग मुझे पूरे मन से स्वीकार करेंगे या नहीं? आगे आने वाला वैवाहिक जीवन कैसा होगा? जीवन पथ पर सुख के फूल खिलेंगे या मन में दुःख के कांटे चुभेंगे? ये सारे सवाल, हर कुँवारी लड़की के मन में आते हैं।

शादी से पहले हर लड़की किसी हसीं राजकुमार की दुल्हन बनने का सपना देखती है। लेकिन एक बार जो शादी हो जाये तो पति को ही परमेश्वर मान लेती है। अपनी सारी इच्छाएं, आकांक्षाएं, यहाँ तक कि अपने आप को भी पति के चरणों में अर्पित कर, अपनी नियति से समझौता कर लेती है। आजकल, बाबा भी मुझसे यही सब कह रहे हैं। मैं उनका मन पढ़ सकती हूँ। बाबा मेरी शादी को लेकर परेशान हैं। उनका बिज़नेस घाटे में चल रहा है। हमारे पास सम्पत्ति के नाम पर और कुछ नहीं है। अपनी झूठी शान-ओ-शौकत का दिखावा करने के लिए बाबा के पास, बस ये बंगला ही बचा है। उनका पैसा भले ही डूब गया हो लेकिन अब भी उनकी गिनती सुसनेज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में ही होती है। इसी वजह से वो अपनी इकलौती बेटी की शादी किसी ऐरे-गैरे से कैसे कर सकते थे। उन्हें अपनी ही बिरादरी में कोई ऐसा खानदान चाहिए, जो उनके बराबर का हो। लेकिन, ऐसे परिवार की मांग भी बड़ी होती है। उनकी चिंता अब ये है कि वो मेरे लिए दहेज़ का जुगाड़ कैसे करेंगे?

बेटी हूँ, तो क्या ये ज़रूरी है कि वो मुझे बोझ ही माने? क्या आजीविका जुटाने में, मैं उनकी मदद नहीं कर सकती? लेकिन उनका दुराभिमान नहीं मानेगा। भला, वे बेटी की कमाई हुई रोटी कैसे खा सकते हैं? ये समाज क्या उनके मुँह पर थूकेगा नहीं? लेकिन, अगर मैं लड़की हूँ तो इसमें मेरी क्या गलती है? मेरे भी तो कुछ सपने हैं। मैं इस वक़्त शादी नहीं करना चाहती। मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ। मुझे पता है, बाबा के पास मुझे पढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं। तो क्या हुआ? मैं कोई पार्ट-टाइम नौकरी कर के अपनी पढ़ाई का खर्चा खुद उठा सकती हूँ। लेकिन, बाबा पर तो मेरी शादी का भूत सवार है। वो कोई ऐसा लड़का ढूंढ रहें है जिसका खानदान तो अच्छा हो ही, उसके साथ ही वो दहेज़ की मांग भी न करे। क्या ऐसा कोई लड़का सामने आकर मुझे अपनाएगा, जो दहेज का भूखा न हो?

कल मुझे देखने के लिए लड़केवाले आ रहे हैं। पिछले कुछ महीनों से यही सिलसिला चल रहा है। मुझे एक बेजान गुड़िया की तरह सजा-सँवार कर, लड़केवालों के सामने नुमाइश के लिए रख दिया जाता है। फिर, बड़े-बुज़ुर्गों में लेन-देन की बातें होती है। लेकिन, आज तक कभी सौदा तय नहीं हो पाया। बाबा की जेब जो छोटी है। शादी को लेकर सपने तो मैंने भी कई देखे हैं। क्या वो कभी पूरे हो पाएंगे?”

“ये डायरी एंट्री अनाया ने अपनी शादी से पहले लिखी होगी,” ऋचा ने अगला पन्ना पलटते हुए कहा। अगले पन्ने पर तारीख एक दिन बाद की थी और कुछ ऐसा लिखा हुआ था –

“पुनर्विवाह? मैंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि मेरे साथ ऐसा होगा। आज, विवेक शास्त्री और उनका परिवार मेरे लिए रिश्ता लेकर आये थे। विवेक की पहली पत्नी का देहांत हो चुका है और उनका एक तीन साल का बेटा भी है। आज तक जितने भी लोग मुझे देखने आये, उनकी आँखों में मैंने अपने लिए अलग-अलग तरह के भाव देखे हैं। मेरी खूबसूरती की तारीफ़ से लेकर मेरे शरीर के लिए वासना तक, मुझे उनकी आँखों में दिखाई दी थी। पर, विवेक की आँखें बिलकुल शांत थी। उन आँखों में कोई भाव न था जैसे उनकी पत्नी के साथ ही उनकी सारी संवेदनाएं भी मर चुकी हों। मैंने उन्हें चाय की प्याली थमाई तो शायद सिर्फ रस्म निभाने भर के लिए उन्होंने नज़रें उठाकर मुझे देखा। पर, उन आँखों में मेरे लिए न प्यार था, न काम वासना ही थी। बस था तो बहुत सारा दर्द, जिसको किसी भी पैमाने पर मापना मेरे लिए असंभव था। विवेक, मुझसे कुछ न बोले। न ही मेरे पास उनसे कहने के लिए कुछ था।

उनसे पहले जो लोग मुझे देखने आये, उन्होंने मुझसे कितनी मीठी-मीठी बातें की थीं। किसी ने शादी तय होने से पहले ही मुझे जीवन भर के साथ का वादा दे डाला, तो किसी ने पहली ही नज़र में मुझसे प्यार होने का दावा किया। पर, जब उन्होंने देखा कि मेरे बाबा उनके घर की तिजोरियाँ दहेज़ से नहीं भर पाएंगे तो वो लोग और उनके किए वादे, सब हवा हो गए। आज जब दहेज़ की बात चली, तो विवेक खामोश ही रहे। जैसे उनकी सूनी आँखों में कोई लालसा नहीं दिखाई देती थी, वैसे ही उनके मन में दहेज़ की भूख भी नहीं थी। बाबा को और क्या चाहिए? जैसा घर और जैसा वर वो मेरे लिए चाहते थे, उन्हें बिलकुल वैसा ही दामाद मिल गया था। अच्छे परिवार का लड़का जो दहेज़ की मांग नहीं करता, ऐसा दामाद तो हर लड़की के पिता का सपना होता है। मेरे पिता का वो सपना पूरा हो चुका था, इसलिए उन्होंने फौरन अपनी रज़ामंदी दे दी। मेरी मर्ज़ी पूछने की ज़रूरत भी उन्होंने ना समझी। अगर, पूछते भी तो मैं क्या कहती? क्या मैं उनकी हालत जानती नहीं थी? इस शादी के लिए हामी भरने के अलावा मेरे पास और रास्ता ही क्या था? मैं नहीं जानती, इस शादी के लिए मैं तैयार भी हूँ या नहीं। लेकिन, सच ये है कि मेरी शादी तय हो चुकी है। और, मुझे इसे अपनी तक़दीर समझकर स्वीकार करना ही होगा। उनके जाने के बाद मुझे लगा, मेरे अंदर भी कुछ मर गया है। मेरी इच्छाएं, मेरे सपने भी कहीं खो गये हैं। अब मेरे मन में केवल शून्यता है, विवेक की उन दो सूनी, बेनूर आँखों की तरह।

पुनर्विवाह की प्रथा भी कितनी निराली है न, हमारे यहाँ। अगर पत्नी मर जाए तो पति फौरन दोबारा शादी कर सकता है। लेकिन अगर किसी औरत के पति का देहांत हो जाये, तो उसका हाथ थामने कोई आगे नहीं आता। समाज उसे किसी की जूठन मानता है जो किसी अन्य पुरुष की अर्धांगिनी बनने के लायक नहीं होती। और दूसरी औरतें, उसे पापिन या कुलटा का नाम देकर उसे दुत्कारती है। पुरुष दोबारा शादी कर के स्त्री सुख भोग सकता है। लेकिन, स्त्री के लिए ऐसी बात सोचना भी पाप है। उसे अपनी सारी इच्छाओं का त्याग कर, या तो किसी तीर्थ पर भगवान का नाम जपना चाहिये या फिर अपने पति की चिता पर सती हो जाना चाहिए। यही उसकी पवित्रता और अच्छे चरित्र का प्रमाण है। लेकिन, क्या ये अन्याय नहीं है?

खैर, इस सवाल के साथ-साथ मेरे जीवन में आज कई और सवाल भी खड़े हो गये है। क्या मैं पूरे मन से विवेक को स्वीकार कर पाऊँगी? क्या उनके साथ रिश्ता मुझे सच-मुच पसंद भी है या सिर्फ बाबा की ख़ुशी के लिए मैंने हामी भर दी है। हर औरत को शादी के बाद नौ महीने का वक़्त तो मिलता ही है, माँ बनने के लिए। लेकिन, मुझे तो विवेक साथ शादी करते ही उनके बेटे को भी अपनाना है। क्या चिराग, मुझे अपनी माँ का दर्जा दे पायेगा? इन नए रिश्तों के धागों से मैं खुद को बाँध पाऊँगी या ये कड़ियाँ यूँ ही अधूरी रह जाएँगी? मेरा मन आज अशांत है। लेकिन, बाबा आज बहुत दिनों बाद चैन की नींद सो रहें है। पता नहीं, मुझे उनकी ख़ुशी में खुश होना चाहिए या ये सोचकर दुखी होना चाहिए कि मैं उन पर सिर्फ एक बोझ थी जिससे छुटकारा पाकर वो आज बहुत खुश हैं।”

* * *

अनाया की लिखी बातें पढ़कर ऋचा का दिल भर आया। वो अनाया का दर्द समझ सकती थी। ऋचा भी तो बचपन से अपने पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपनी इच्छाओं का गला घोंटती आयी है। अनाया का लिखा हर शब्द, ऋचा की आँखों के आगे नाचने लगा। उसके द्वारा उठाया हर सवाल, तेज़ धार वाली कटार की तरह ऋचा के मन पर वार करने लगा। ऐसे में उसे कब नींद आ गयी, पता ही न चला।

एकाएक, ऋचा को अपनी आँखों के सामने अनाया के घर की वह बैठक नज़र आई, जहाँ वो आज दोपहर को गई थी। लेकिन जिस कुर्सी पर अनाया के पिता बैठे थे, वहाँ उसे अपने पिता बैठे हुए नजर आए। उसके पिता ठहाके लगाकर हँस रहे थे। उनके सामने के सोफे पर एक परिवार के कुछ सदस्य बैठे हुए थे, जिनके साथ वे हँस-हँस के बातें कर रहे थे। उस परिवार के सदस्यों में एक आदमी था, जिसकी गोद में एक तीन साल का बच्चा बैठा हुआ था। दो चूड़ियों भरे हाथ, उस आदमी की तरफ बढ़े और चाय की प्याली आगे कर दी। उस आदमी ने नजरें उठाकर उस औरत को देखा, जो उसके सामने चाय की प्याली लिए खड़ी थी। तभी ऋचा ने देखा कि जो औरत हाथों में चाय की प्याली लिए हुए है, कोई और नहीं बल्कि वह ख़ुद ही थी।

“तो, ये रिश्ता पक्का समझिये।” ऋचा ने अपने पिता को कहते हुए सुना।

ऋचा चौक गई और हड़बड़ा कर उठी। उसने आँखें खोलकर अपने चारों तरफ देखा।

तब उसे एहसास हुआ कि वो तो सपना देख रही थी, “ओह!” अपने चेहरे को हाथों में छिपाते हुए ऋचा ने आह भरी।

तभी किसी ने जोर से उसके कमरे का दरवाजा खटखटाया। ऋचा चौक गई और उसने दरवाजे की तरफ देखा। फिर उसने एक गहरी सांस ली और पलंग से उतर कर दरवाज़ा खोल दिया।

“क्या हुआ, ऋचा?” दरवाज़ा खुलते ही कार्तिक ने सवालों की बौछार शुरू कर दी। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और वह बहुत परेशान लग रहा था, “नौ बज गए और तुम अब तक अपने कमरे से बाहर नहीं आयी। राधा, सुबह से कम से कम चार बार तुम्हारे लिए चाय लेकर आयी थी, पर तुमने दरवाज़ा ही नहीं खोला। पता है, मैं कितना वरीड हो गया था? मुझे लगा, शायद तुम्हारी तबीयत खराब हो गयी है।”

“नहीं, मैं ठीक हूँ।” ऋचा ने अपने बिखरे बालों को सँवारते हुए कहा, “कल बहुत देर से सोई थी न, इसलिए वक़्त का पता ही न चला।”

“अच्छा चलो, हाथ-मुँह धो लो और नाश्ता कर लो।” ऋचा ठीक है, ये जानकर कार्तिक को ज़रा तसल्ली हुई, “मुझे ज़रा बाहर जाना है। मैं कार ले जा रहा हूँ। तुम्हें कहीं जाना हो और कार की ज़रूरत पड़े तो फ़ोन कर देना। ये ड्राइवर अपनी कार लेकर आपकी सेवा में हाज़िर हो जायेगा।”

“तुम कहाँ जा रहे हो, कार्तिक?”

“बस यूँ ही घर बैठे-बैठे बोर हो गया था और विराट भी तो दिन में अपने ऑफिस चला जाता है। इसलिए, सोचा बिलासपुरा की सैर कर आऊं। तुम चलोगी मेरे साथ?”

“हाँ, ये ठीक रहेगा।” ऋचा के चेहरे पर फौरन एक प्यारी-सी मुस्कान खिल उठी। कार्तिक के साथ वक़्त बिताने का कोई भी मौका वो छोड़ना नहीं चाहती थी, “कहने को तो, दो हफ्ते हो गए मुझे यहाँ आये, लेकिन अब तक मैंने बिलासपुरा को ठीक से देखा ही नहीं। मुझे तैयार होने के लिए थोड़ा-सा वक़्त दे दो। बस, मैं अभी आयी।”

“कहते हैं, हसीनाओं को तैयार होने में बड़ा वक़्त लगता है।” कार्तिक ने हसरत भरी नज़रों से ऋचा को देखा और कहा, “कहीं ऐसा न हो की इंतज़ार करते-करते, हमारी उम्र ही ढल जाए।”

“अरे! सब्र करो यार, इतना भी वक़्त नहीं लूँगी।” ऋचा समझ गयी थी कि कार्तिक का इशारा किस ओर है। वो उनके रिश्ते को शादी के बंधन में बांधना चाहता था। वैसे, चाहती तो ऋचा भी थी कि उनकी शादी जल्द-से-जल्द हो जाये। पर उसे अपने पिता के सामने ये बात कहने से डर लगता था। इसलिए, जब भी कार्तिक शादी की बात करता, ऋचा कोई बहाना बनाकर टाल देती थी। आज भी ऋचा ने कुछ ऐसा ही किया और बात बदल दी, “अच्छा,ये बताओ हम कहाँ जा रहे हैं?”

“कहीं भी, जहाँ ये रास्ते हमें ले चलें।” कार्तिक को समझ आ गया था कि ऋचा उसकी बातों में छुपी बात को समझकर भी अनजान बने रहने की कोशिश कर रही है। और केवल इतना ही नहीं, कार्तिक ये भी जानता था कि उसकी वजह ऋचा के पिता की नामंजूरी है। इसलिए, उसने फिलहाल के लिए इस मुद्दे पर बात न करना ही ठीक समझा और कहा, “अनजान रास्तों पर सफर करने का थ्रिल कुछ और ही है।”

“ठीक है, तो फिर मैं जल्दी से तैयार होकर आती हूँ।” शादी की बात टालकर ऋचा ने चैन की साँस ली और तैयार होने अपने कमरे की तरफ चल दी।

* * *

शाम की लालिमा धीरे-धीरे, रात के काले रंग में तब्दील हो रही थी। कार्तिक के साथ फिल्म देखकर, ऋचा दोपहर को लौट आयी थी। थोड़ी देर सुस्ता कर उठी तो देखा शाम हो गयी। राधा, काम खत्म कर अपने घर वापस जा चुकी थी। कार्तिक, विराट के साथ उसके घर पर था। कार्तिक दिन में घर पर बैठकर ऑफिस का काम करता और शाम को विराट के ऑफिस से वापस आने के बाद, दोनों दोस्त कहीं बाहर निकल जाते थे। कार्तिक के जाने के बाद, शाम का वक़्त, ऋचा अक्सर मंजू के साथ ही बिताती थी। शाम की चाय के साथ गप-शप करने के लिए मंजू को हमेशा ऋचा का इंतज़ार रहता था।

पर आज उसका मन नहीं था मंजू के पास जाने का। उसका पूरा ध्यान तो अनाया की डायरी पर लगा हुआ था। वो जानती थी कि मंजू चाय पर उसकी राह देख रही होगी इसलिए उसने फ़ोन कर के कह दिया कि वो आज नहीं आएगी।

“चाहे जो भी हो, मैं आज कहीं नहीं जाऊँगी,” ऋचा ने फ़ोन काटने के बाद खुद से कहा, “मुझे तो बस डायरी ही पढ़नी है।”

अँधेरा हो चल था इसलिए ऋचा ने घर के सारे खिड़की-दरवाज़े बंद किए और अपने कमरे में जाकर बैठ गयी। उसे ये जानने की बड़ी उत्सुकता थी कि अनाया की कहानी आगे क्या मोड़ लेती है। उसने डायरी का वो पन्ना खोला जिसका किनारा उसने मोड़कर रखा था, ताकि उसे याद रहे कि उसने कल रात कहाँ तक पढ़ा था। ऋचा ने अपनी उँगलियों से उस मुड़े हुए किनारे को सीधा किया और पढ़ने लगी। डायरी में लिखी अगली एंट्री की तारीख, एक हफ्ते बाद की थी।

“लगता है, ये अनाया ने अपनी शादी के बाद के लिखा है।” ऋचा अपने आप से बोली और डायरी पढ़ने लगी–

* * *

“टूटे दिल और अधूरे रिश्तों को जोड़ना कितना मुश्किल होता है, इसका एहसास तो विवेक ने मुझे शादी की पहली रात को ही करा दिया था। सुहाग की सेज पर मैं डरी-सहमी बैठी थी। मैंने विवेक के साथ शादी की रस्म तो पूरी कर ली थी, पर अब भी हम थे तो एक दूसरे के लिए अजनबी ही, न। मुझे ये सोचकर डर लग रहा था कि मैं कैसे पत्नी होने का धर्म निभाऊंगी? क्या मैं, विवेक को खुश रख पाऊँगी? तभी दरवाज़ा खुला और विवेक अंदर आ गए। उन्हें आते देखा तो मेरे मन में सिहरन हुई और मैंने अपने आप को अपनी बाँहों में कस लिया। वो धीमी चाल से कमरे के अंदर आये और पलंग पर मुझसे थोड़ी दूरी बनाकर बैठ गए। मुझे मेरा पत्नीधर्म याद आया और मैंने फौरन उठकर मेज़ पर रखा दूध का गिलास, उनकी ओर बढ़ा दिया।

“रहने दो,” विवेक ने हाथ से इशारा कर मुझे बैठने के लिए कहा।

मेरे मन में हज़ार सवाल तो उठ रहे थे, पर मैंने चुपचाप उनकी बात मान ली और वहीं बैठ गयी।

“मैं जो कहने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनो। ये मेरी इच्छाएं भी हैं और मेरी शर्तें भी। आगे आने वाला हमारा जीवन इनके हिसाब से ही चलेगा।”

इतना कह कर विवेक की निगाहें मेरी ओर मुड़ गयी, जैसे वो मेरी रज़ामंदी माँग रहे हो।

“जी, कहिये।” मैंने सर झुका लिया जैसे बिना सुने ही मैंने उनकी सारी शर्तें मंज़ूर कर ली हो। और मेरे पास चारा ही क्या था?

“ये मेरी पत्नी माया है।” विवेक ने अपने कुर्ते की जेब से एक खूबसूरत औरत की तस्वीर निकाली और उसे प्यार से देखते हुए कहा।

“बड़ी प्यारी मुस्कुराहट है।” मैं उस तस्वीर में, माया की मुस्कराहट को देखती ही रह गयी। मुझे तो याद ही नहीं कि मैं पिछली बार यूँ खुलकर कब मुस्कुरायी थी।

“हाँ, इस मुस्कराहट को देखकर ही तो मैं, माया से प्यार करने लगा था।” विवेक कुछ देर चुप रहे, फिर एक लम्बी साँस लेकर बोले, “आज भी मैं माया से ही प्यार करता हूँ और जीवन भर उसके अलावा और किसी से प्यार कर भी नहीं पाऊंगा।”

मेरी नज़रें विवेक पर जा रुकी। उनमें कई सवाल थे जो विवेक से जवाब मांग रहे थे। लेकिन, वो मेरी तरफ पीठ करके बैठे थे। मैं समझ गयी कि मेरे सवालों का जवाब देना विवेक के लिए बहुत मुश्किल होगा इसीलिए वो मुझसे नज़रें चुरा रहे हैं। मुझे एहसास हो गया कि अब सवाल पूछने का कोई मतलब नहीं बनता, इसलिए मैं चुप ही रही।

“मैं जानता हूँ तुम क्या सोच रही हो।” थोड़ी देर चुप रहने के बाद विवेक ने ही बात शुरू की, “यही न, कि अगर मुझे तुमसे प्यार नहीं तो मैंने तुमसे शादी क्यों की?”

विवेक उठे और खिड़की के पास जाकर खड़े हो गए जैसे कमरे में उनका दम घुटने लगा हो।

“कुछ मजबूरी थी और कुछ हालत ऐसे हो गए थे।” विवेक ने अपनी जेब से सिगरेट निकाली, उसे जलाया और एक कश लेकर बोले, “मेरे परिवार ने मुझे मजबूर कर दिया था और न चाहते हुए भी मुझे दूसरी शादी के लिए राज़ी होना पड़ा। मेरे लिए अपना बिज़नेस और चिराग, दोनों को एक साथ संभालना बहुत मुश्किल था। मुझे ऑफिस जाने से पहले, चिराग को कभी अपनी बहन के यहाँ, तो कभी भाभी के घर छोड़ना पड़ता था। लेकिन, ये सिलसिला जीवन भर तो नहीं चल सकता था। उनकी अपनी ज़िन्दगी है, अपना परिवार है। वो कब तक मेरी मदद करते। मुझसे और मेरे बेटे से पिंड छुड़ाने के लिए उन्होंने मुझ पर शादी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। लेकिन, सच तो ये है कि मैं आज भी माया को खोने के सदमे से पूरी तरह उभर नहीं पाया हूँ। शायद, माया के साथ-साथ, मैं भी जीते जी मर चुका हूँ। अपना सारा प्यार उस पर लुटा चुका हूँ। अब मेरे पास कुछ नहीं बचा जो मैं तुम्हेँ दे सकूँ। हमें जीवन-भर रेल की दो पटरियों की तरह रहना होगा, जो हमेशा साथ तो रहते हैं पर कभी एक-दूसरे से मिलते नहीं। न मैं कभी तुम्हारे करीब आऊंगा, न तुम कभी ऐसी कोशिश करना।”

उस वक़्त मैं जो कुछ भी सुन रही थी उसका मतलब मेरा दिमाग तो समझ रहा था, पर मेरे मन मैं अजीब-सी उथल-पुथल थी। मेरा मन मुझसे बार-बार एक ही सवाल पूछ रहा था, “आखिर ये कैसी शादी है?”

“चिराग, मेरी माया की आखिरी निशानी है।” अपनी सिगरेट ख़त्म कर, उसे पैरों तले कुचलकर विवेक बोले, “मैं नहीं चाहता कि चिराग के अलावा मेरी कोई और संतान हो। ज़्यादा औलादें होती हैं तो प्यार बँट जाता है। मैं, ऐसा होने नहीं देना चाहता। मेरे प्यार पर सिर्फ चिराग का अधिकार है। अब, चिराग ही मेरा जीवन है।”

वो वापस आये और पलंग से एक तकिया और चादर उठा ली। कमरे से बाहर जाने के लिए उन्होंने कुछ कदम आगे बढ़ाये, पर फिर वहीं रुक गए।

“मैं जानता हूँ, तुम्हारे साथ जो हुआ है, वो गलत है।” वो मेरी तरफ पीठ कर के बोले, “लेकिन, मैंने ये सब जानबूझकर नहीं किया। मुझे उम्मीद है कि तुम मुझे समझ सकोगी। अगर, हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।”

इतना कह कर, विवेक चले गए। उनके जाने के बाद मैं वहीं पलंग पर लेट गयी। मेरा मन एकदम सुन्न था, मगर दिमाग में एक ख्याल उठ रहा था। कहते हैं, शादी की पहली रात को दो अजनबी, ज़िन्दगी भर के लिए एक-दूसरे के हमसफ़र बन जाते हैं। पर विवेक की शर्तों ने तो मुझे ज़िन्दगी भर के लिए अजनबी बने रहने पर मजबूर कर दिया।”

* * *

“अच्छा हुआ पापा, आपने दूसरी शादी नहीं की।” डायरी को बंद करते हुए ऋचा बोली।

अनाया की डायरी पढ़कर ऋचा को अपने पिता की याद आ गयी। वो जानती थी कि उसके पिता भी अपनी स्वर्गवासी पत्नी के अलावा कभी किसी से प्यार नहीं कर पाये। अनाया की आप-बीती पढ़कर ऋचा का मन भर आया था। उसने घड़ी देखी, शाम के साढ़े सात बजे थे। कार्तिक के आने में अभी थोड़ा वक़्त था। ऋचा ने डायरी को अपने सीने से लगाया और बिस्तर पर लेट गयी। उसे बहुत थकान महसूस हो रही थी। उसने आँखें बंद कर ली और उसकी बंद पलकों के नीचे से दो खामोश आंसू छलक गए।

* * *

रात के खाने के बाद, कार्तिक शतरंज खेल रहा था। वो अकेले ही दो खिलाडियों का खेल, खेल रहा था। बहुत देर सोचकर कार्तिक कोई चाल चलता फिर उससे भी ज़्यादा वक़्त लेकर सोच-विचारकर, अपनी ही चाल का कोई तोड़ ढूँढ निकालता। ऋचा उसके पास ही गम-सुम-सी बैठी हुई थी। पांच मिनट बाद, अपने आप को ही शतरंज में मात देकर, विजयी भाव से मुस्कुराते हुए कार्तिक ने ऋचा को देखा। पर, ऋचा ने उस पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया। वो तो अपनी ही दुनिया में खोयी हुई थी।

“क्या बात है, ऋचा?” कार्तिक के चेहरे पर खिली जीत की ख़ुशी फीकी पड़ गयी।”मैं काफी देर से देख रहा हूँ, तुम बहुत उदास लग रही हो। डिनर करते वक़्त भी तुम खोयी, खोयी-सी लग रही थी। कोई प्रॉब्लम है क्या?”

“नहीं, कुछ नहीं। बस, यूँ ही।” ऋचा ने कार्तिक को देखा और मुस्कुराने की कोशिश की, “वो क्या है न कि मैं अनाया की डायरी पढ़कर थोड़ी भावुक हो गयी थी।”

“अरे! हाँ,” कार्तिक ने झट-से अपने सर पर हाथ रखा जैसे उसे अचानक कुछ याद आ गया हो, “वो तो मैं पूछना ही भूल गया। तुम्हें, उस डायरी से कोई इन्फोर्मेशन मिली, जो इस केस को सुलझाने में हमारे काम आ सके?”

“अभी, मैंने वो डायरी पूरी नहीं पढ़ी है।” ऋचा का मन दोबारा उस डायरी की ओर लौट गया, “जितनी पढ़ी है, उसमें कहीं भी ऐसी किसी बात का ज़िक्र नहीं है।”

“अच्छा चलो, अब अपना मूड ठीक कर लो।” कार्तिक की नज़र फिर शतरंज की तरफ लौट गयी, “मेरे साथ चैस की एक बाज़ी खेलोगी? अगर, तुमने मुझे हरा दिया तो पूरे एक साल तक तुम्हारी शॉपिंग का बिल मैं भरूंगा। है हिम्मत, तो आओ मैदान में।”

“आज नहीं, कार्तिक,” ऋचा ने कार्तिक की चुनौती को मुस्कुराकर टाल दिया, “फिर कभी किसी दिन, तुमसे मुक़ाबला भी करूँगी और तुमसे अपनी शॉपिंग के बिल भी भरवाउंगी। आज मेरा मन, अनाया की डायरी के अलावा किसी और चीज़ में लग ही नहीं रहा। मैं, अपने कमरे में जा रही हूँ। तुम्हारी चादर मैंने यहाँ रख दी है। तुम दरवाज़ा बाहर से बंद करके सो जाना।”

“मैं तो आज रात भर चैस खेलने वाला हूँ।”

“और, मैं आज रात भर अनाया की डायरी पढ़ने वाली हूँ।” ऋचा उठी और अपने कमरे की तरफ चल पड़ी। कमरे का दरवाज़ा बंद करने से पहले उसने हॉल में बैठे कार्तिक को देखा और कहा, “गुड़ नाईट, कार्तिक।”

“हाँ, गुड़ नाईट।” कार्तिक, शतरंज के मोहरों से नज़र उठाये बिना बोला।

“ये शतरंज तो मेरी सौतन है।” ऋचा ने शतरंज के प्रति कार्तिक के अगाध प्रेम का मज़ाक उड़ाते हुए कहा।

“हाँ, वो तो है,” कहते हुए, कार्तिक ने अपनी पहली चाल चली।

“शतरंज के आशिक़ से तो बात करना ही बेकार है।” ऋचा मुस्कुरायी।

कार्तिक ने इसका कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि अब उसके कानों में ऋचा की कोई भी बात नहीं पड़ रही थी। वो तो अपनी अगली चाल सोचने में मसरूफ था। ये देखकर ऋचा ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और अपनी मेज़ की दराज़ से अनाया की डायरी निकाल ली। वो पलंग पर लेट गयी और उसने वो पन्ना खोला जहाँ से उसे आगे की कहानी पढ़नी थी। ऋचा ये जानने को बेताब थी कि विवेक और अनाया का रिश्ता आगे क्या मोड़ लेता है? डायरी के अगले कुछ पन्ने खाली थे। अनाया की शादी के एक महीने बाद की तारीख़ पर अगली एंट्री लिखी हुई थी। रिचा बड़ी कौतुकता से पढ़ने लगी।

“पिछले एक महीने से विवेक और मैं एक ही छत के नीचे दो अजनबियों की तरह रह रहें हैं। हाँ, इतना ज़रूर कह सकते है कि अब हम दोनों दोस्त बन गये हैं। घर और परिवार से जुड़े सारे फैसले हम दोनों मिलकर ही लेते हैं। सुबह, विवेक के ऑफिस चले जाने के बाद मैं घर के कामों में खुद को व्यस्त रखती थी। चाहे विवेक अपने काम में कितना भी मसरूफ क्यों न हो, वो यही कोशिश करते थे कि ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त अपने परिवार के साथ बिताएं। नहीं... शायद, परिवार कहना गलत होगा। क्योंकि, हर रात खाने की मेज़ पर उनके साथ होकर भी, मैंने ये कई बार महसूस किया है कि मैं तो इस परिवार का हिस्सा हूँ ही नहीं। वो प्यार तो सिर्फ अपने बेटे से ही करते हैं। मैं तो उनके जीवन की सिर्फ वो कड़ी हूँ, जिसका अस्तित्व केवल एक दिखावा है। वो कड़ी कल न भी रहे तो भी उनके जीवन मैं कोई ख़ास अंतर नहीं आएगा। विवेक और चिराग मिलकर, एक-दूसरे के जीवन को पूरा कर लेंगे। बस, मैं ही हूँ जो हमेशा अधूरी रह जाती हूँ।

और माया, उसका वजूद तो आज भी कायम है उन दोनों की ज़िन्दगी में। विवेक ने माया की यादों को आज भी बड़े प्यार से संजो कर रखा है। रोज़ सुबह विवेक, माया की तस्वीर दिखाकर, चिराग से अपनी माँ का आशीर्वाद लेने को कहते हैं। शाम को जब मैं विवेक को चाय देने जाती हूँ, तो मैंने अक्सर उन्हें माया की तस्वीर से बातें करते सुना है। वो माया को बता रहे होते है कि ऑफिस में उनका दिन कैसा गया और वहाँ क्या-क्या हुआ। शायद, जब माया ज़िंदा थी तो वो रोज़ इसी तरह ऑफिस से वापस आकर, उसे पूरे दिन का हाल सुनाते होंगें। उन्हें कोई दुःख, कोई चिंता होती है, तो वो भी माया की तस्वीर को ही बताते हैं। मुझे ऐसा लगता जैसे मैं ही, दो प्यार करने वालों के बीच आ गयी हूँ। कभी तो लगता है कि मुझे इनके बीच से हट जाना चाहिए। लेकिन मैं इस समाज से क्या कहती, कि मैं अपने पति के साथ इसलिए नहीं रहना चाहती क्योंकि मुझे माया की तस्वीर से जलन मचती है। कैसे लोगों को समझाती कि माया को, उसकी मौत के बाद भी, विवेक की पत्नी का दर्जा मिलता है और मैं तो जीते-जी उनकी रखैल भी नहीं बन पाई। एक पुरुष को अपनी रखैल मैं दिलचस्पी तो होती हैं, न। पर विवेक के मन में तो मेरे लिए कोई जज़्बात नहीं है, न प्रेम, न वासना। चिराग को अकेले सोने की आदत नहीं थी, इसलिए विवेक रात को उसके कमरे में सोते थे। शायद, ये भी सिर्फ एक बहाना था। ऐसा कर के विवेक, मुझे ये बताना चाहते थे कि उनकी ज़िन्दगी में मेरा कोई वजूद नहीं।

शुरू-शुरू में तो बहुत मन होता था कि मैं बाबा के घर, अपनी पुरानी ज़िन्दगी में वापस लौट जाऊँ। पर, मुझे मालूम है, वो मुझे समझा-बुझाकर वापस यहीं भेज देंगे। इसलिए, मैंने अपनी किस्मत के साथ समझौता कर लिया और घर की चार दीवारों को ही अपना जीवन बना लिया। घर के काम से जब वक़्त मिलता तो बगीचे में फूलों के पौधे लगाती, फल-सब्ज़ियां उगाती और घर के इंटीरियर्स भी खुद ही डिज़ाइन करती। घर और आँगन को सजाने-सँवारने में अब मुझे ख़ुशी मिलने लगी थी। मैंने सारे कमरों के लिए नए परदे, नयी चादरें और साज-सजावट का सामान जैसे फूलदान वगैरह खरीद लिए थे। अब मुझे उनके रंगों से मेल खाते रंगों से, दीवारों को पेंट करवाना था। मैंने ये बात विवेक से कही तो वो फौरन मान गए। उन्होंने तो ये भी कहा कि उनकी बहुत दिनों से ये इच्छा थी कि घर के ऊपर की मंज़िल पर दो नए कमरे भी बनवाये जाएं। पर, अपने कारोबार में उलझे रहने की वजह से उन्हें घर के लिए कुछ करने का समय ही नहीं मिल पाता था। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि वो घर की देख रेख की ज़िम्मेदारी मुझ पर छोड़कर, निश्चिंत होकर अपना काम कर सकते हैं। ये सुनकर वो मुस्कुराये और उन्हें यूँ मुस्कुराते हुए देखकर, मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई।

उस रात मैं बहुत खुश थी, मुझे कुछ नया करने को जो मिल रहा था। उस रात मैं चैन से सो गयी। लेकिन, मुझे क्या पता था कि अगले दिन का सूरज, एक ऐसे तूफान का आगाज़ लेकर आएगा, जो मेरी ज़िन्दगी से सुकून को हमेशा के लिए मिटा देगा।”

* * *

“क्यों, ऐसा क्या हो गया?” डायरी में लिखे आखिरी शब्दों को पढ़कर ऋचा खुद से बोली।

ऋचा वो पन्ना पलटने ही वाली थी कि उसने अपने कमरे के दरवाज़े पर दस्तक सुनी। उसने डायरी बंद कर के पलंग पर रख दी और जल्दी से उठकर दरवाज़ा खोला।

“मैं सोने जा रहा हूँ,” दरवाज़े पर ख़ड़े कार्तिक ने कहा, “अब, तुम भी सो जाओ। देर रात डायरी पढ़ती मत रहना। यूँ रात-रात भर जागना तुम्हारी सेहत के लिए अच्छा नहीं है।

“तुम तो रात भर शतरंज खेलने वाले थे।” ऋचा ने बड़े अचरज से कार्तिक को देखा और कहा, “फिर क्या हुआ, खुद से ही मात खा गए क्या?”

“अब खेल-वेल सब बाद में।” नींद से बोझिल पलकें मलते हुए कार्तिक बोला, “मुझे बहुत नींद आ रही है। मैं बाहर बरामदे में सोने जा रहा हूँ। आकर दरवाज़ा बंद कर लो।”

“चलो,” ऋचा, कार्तिक से साथ दरवाज़े तक आयी और कहा, “गुड़ नाईट।”

“अब अच्छे बच्चों की तरह जाकर सो जाओ, गुड़ नाईट।” कहते ही कार्तिक चारपाई पर लेट गया और सर तक खुद को कम्बल से ढँक लिया।

ऋचा ने बाहर का दरवाज़ा बंद किया और अपने कमरे में आ गयी। डायरी पलंग पर ही पड़ी हुई थी। ऋचा ने एक बार पलटकर बरामदे की तरफ देखा। कार्तिक आराम से सोया हुआ था। उसने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और डायरी को हाथ में लिए पलंग पर लेट गयी।

“सॉरी कार्तिक,” ऋचा ने डायरी खोली, “अनाया की ज़िन्दगी में कौन सा तूफ़ान आया, ये जाने बिना मुझे आज नींद नहीं आने वाली।”

ऋचा ने अपने कमरे की लाइट बंद कर दी और टेबल लेम्प की रोशनी में डायरी पढ़ने लगी।