लगभग एक घंटे बाद प्रमोद के फोन की घंटी बज उठी, प्रमोद ने फोन उठा लिया और बोला- "हल्लो । "


"प्रमोद साहब, मैं हैडक्वार्टर से आत्माराम बोल रहा ।" - उसे फोन पर आत्माराम का उत्तेजित स्वर सुनाई दिया ।


"बोलिए ?"


"मैं आपको कष्ट देने के लिए फिर माफी चाहता हूं । कृपा करके आप फौरन यहां चले आइए ।"


"लेकिन क्यों ?" - प्रमोद नाराज होकर बोला- "अभी तो आप यहां से होकर गए हैं। एक घंटे में ऐसा क्या हो गया जो आप फिर मुझे हैडक्वार्टर बुला रहे हैं।"


"मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, प्रमोद साहब अगर बात एकदम महत्वपूर्ण न होती तो मैं कभी आपको कष्ट नहीं देता ।”


"मैं आता हूं।" - प्रमोद अनिच्छापूर्ण स्वर में बोला ।


"फौरन ?"


"जी हां । "


प्रमोद फ्लैट को ताला लगाकर नीचे आ गया । उसने पिछली गली में खड़ी अपनी कार की ओर जाने का उपक्रम नहीं किया । उसने इमारत के मुख्य द्वार से बाहर निकलकर एक टैक्सी बुलाई और उसमें बैठ गया ।


इस बार ट्रक में से कोई आदमी नहीं निकला ।


दस मिनट में प्रमोद पुलिस हैडक्वार्टर पहुंच गया। उसे फौरन ही आत्माराम के कमरे में पहुंचा दिया गया ।


"बैठिए, प्रमोद साहब ।" - आत्माराम चिकने चुपड़े स्वर से बोला - "आपको एक ही दिन में दो बार पुलिस हैड क्वार्टर आना पड़ा । असुविधा के लिए मैं माफी चाहता नहीं, नहीं, इस कुर्सी पर नहीं यहां मेरे समीप की कुर्सी पर बैठिए ।"


प्रमोद निर्देशित कुर्सी पर बैठ गया ।


आपको यहां फिर बुलाते समय जो पहला खयाल मेरे दिमाग में आया था, वह यह था कि एक पुलिस अफसर की ड्यूटी भी कितनी अप्रिय होती है। कितने अप्रिय काम करने पड़ते हैं उसे । लेकिन क्या करें साहब, नौकरी तो करनी ही है ।"


"मैं समझता हूं।" - प्रमोद व्यग्र स्वर में बोला- "इस बार क्यों बुलाया है आपने मुझे ?"


आत्माराम शायद समझ गया कि प्रमोद फालतू बातें करने के मूड में नहीं है। उसने अपनी मेज का एक दराज खोला और फिर बड़े ड्रामेटिक अन्दाज में उसने एक स्लीवगन निकालकर प्रमोद के सामने रख दी और साथ ही बड़े प्रभावशाली स्वर में प्रश्न किया- "यह स्लीव गन आपकी है ?"


और उसके नेत्र प्रमोद के चेहरे पर टिक गये । आत्माराम उसके चेहरे पर आने वाला एक-एक भाव किताब की तरह पढ सकता था ।


लेकिन उसे यह देखकर भारी निराशा हुई कि प्रमोद के चेहरे पर हैरानी का हल्का सा भाव भी नहीं उभरा ।


प्रमोद ने शान्ति से स्लीवगन अपने हाथ में ले ली । इस बात में कोई संदेह नहीं था कि स्लीवगन उसी की थी । यह बात निश्चित थी कि कुछ ही देर पहले स्लीवगन पुलिस के हाथ में आई थी । अगर स्लीवगन जगन्नाथ के फ्लैट में बरामद हुई होती, तो आत्माराम ने स्लीवगन के बारे में पहली बार ही उससे पूछ लिया होता ।


प्रमोद कुछ क्षण हाथों में स्लीवगन को उलटता हुआ और फिर उसे लापरवाही से मेज पर रखता हुआ बोला - "हो सकता है, मेरी हो ।”


“हो सकता है !" - आत्माराम हैरानी से बोला 'आपको विश्वास नहीं है क्या कि यह स्लीवगन आपकी है ।"


"लगती तो वैसी ही है इन्स्पेक्टर साहब, लेकिन मैं दावे से कुछ नहीं कर सकता ।"


"बड़ी बुरी बात है। मैंने सोचा था कि अगर आप इसकी शिनाख्त कर लें तो मैं अभी आपको आपका माल लौटा दूं।"


"नहीं साहब, मैं दावा नहीं कर सकता कि यह मेरा ही माल है । "


"जिस अलमारी में आप अपनी स्लीवगन रखा करते थे, क्या आप उसमें हमेशा ताला लगाकर रखते थे ?"


"नहीं।"


"लेकिन पिछली बार तो ताला लगा हुआ था ?"


"शायद याट-टो ने लगाया हो ।”


"उसके पास भी अलमारी की चाबी है ।”


"क्या याट-टो जगन्नाथ को जानता था ?"


"मेरे खयाल से नहीं । "


"जब आप जगन्नाथ से मिलने गये थे तब आप याट-टो को भी साथ लेकर गए थे क्या ?"


"नहीं । मैं अपने नौकर को साथ क्यों ले जाता भला?"


"लेकिन याट-टो नाम को ही आपका नौकर है। वास्तव में वह आपका पक्का मित्र है । "


"हां ।" - प्रमोद तनिक हिचकिचाकर बोला ।


"आपने हमसे यह नहीं पूछा कि स्लीवगन हमें कहां मिली है ?" 


“अब पूछ लेता हूं।"


आत्माराम अपनी कुर्सी से उठा और मेज की साइड से होता हुआ उस कुर्सी के समीप पहुंचा जिस पर प्रमोद को सुबह बैठाया गया था । और कुर्सियों की तरह वह भी एक गद्देदार कुर्सी थी, लेकिन कोने से उसका थोड़ा सा चमड़ा उखड़ा हुआ था ।


"मिस्टर प्रमोद ।” - आत्माराम कुर्सी की ओर संकेत करता हुआ बर्फ जैसे ठण्डे स्वर में बोला- “लगभग आधा घण्टा पहले यह स्लीव गन हमें उस कुर्सी में से प्राप्त हुई है । किसी ने गद्दे के ऊपर चढे चमड़े के फटे हुए भाग में से इसे कुर्सी में धकेल दिया था । हत्या के बाद से हत्या से सम्बन्धित बहुत से लोग इस कुर्सी पर बैठ चुके हैं। ट्रेजेडी यह है कि हमारे पास यह जानने का कोई भी साधन नहीं है कि स्लीवगन यहां कब रखी गई थी । आप भी तो सुबह इसी कुर्सी पर बैठे थे ?"


"कहीं आप यह तो नहीं कहना चाहते हैं कि सुबह यह स्लीवगन मैं अपने साथ लाया था और मैं ही इसे इस कुर्सी में धकेल गया था ।”


“सम्भावना तो है ही । "


"मैंने ऐसा नहीं किया है । "


"तो फिर किसने किया है ?"


"मुझे क्या मालूम ।"


"लेकिन हम मालूम कर लेंगे।" - आत्माराम निश्चयपूर्ण स्वर में बोला ।


“बड़ी खुशी की बात है।"


"थैंक्यू मिस्टर प्रमोद । फार कोआपरेशन ।” आत्माराम उसकी ओर हाथ बढाता हुआ बोला- "फिलहाल इतना ही काफी है । लेकिन आप मुझे सूचित किये बिना राजनगर छोड़कर मत जाइयेगा ।"


"क्या मैं अपने आपको नजरबन्द समझू ?"


“राम, राम, राम । कैसी बातें करते हैं आप | मैंने तो आपसे यह बात केवल इसलिये कही है कि हमें आपका सहयोग मिलता रहे।"


"आल राइट।" - प्रमोद बोला और क्षण भर के लिये उसने आत्माराम का बढा हुआ हाथ लिया ।


सोहा माशल हाउस की लाबी में खड़ी थी ।


"हल्लो प्रमोद ।” - प्रमोद को देखकर वह सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोली ।


"हल्लो ।" - प्रमोद बोला- "कब से खड़ी हो यहां ?"


" ज्यादा देर नहीं हुई है मुझे। मैं ऊपर गई थी लेकिन तुम्हारे फ्लैट में ताला लगा हुआ था । इसलिए वापिस नीचे आ गई और यहां खड़ी होकर तुम्हारी प्रतीक्षा करने लगी ।"


प्रमोद ने देखा, सामने के फुटपाथ से आटो सप्लाई कम्पनी का ट्रक गायब था । उसने एक छुटकारे की सांस ली और फिर सोहा की बांह पकड़कर बोला- "चलो ऊपर चलें ।”


प्रमोद सोहा के साथ लिफ्ट के सहारे ऊपर पहुंच गया । उसने फ्लैट का द्वार खोला और भीतर सोहा के लिये रास्ता छोड़कर एक ओर खड़ा हो गया ।


सोहा फ्लैट में घुस गई ।


“याट-टो कहां गया है ?" - सोहा ने पूछा ।


"उसे पुलिस का एक आदमी अपने साथ ले गया है ।"


"सीरियस ?"


"मालूम नहीं।"


“याट-टो जल्दी ही वापिस लौट आयेगा।" - सोहा विश्वासपूर्ण स्वर में बोली ।


"तुम्हें कैसे मालूम ?”


"याट-टो से जानकारी हासिल कर पाना दुनिया का आठवां आश्चर्य होगा ।"


"तुम बैठो, मैं तुम्हारे लिय चाय बनाकर लाता [" प्रमोद बोला ।


"नहीं । तुम बैठो।" - सोहा बोली- "चाय मैं बनाती हूं


"क्या फर्क पड़ता है ?"


“स्त्रियों की मौजूदगी में पुरुष काम करते शोभा नहीं देते।”


"लेकिन तुम मेहमान हो ।" - प्रमोद विरोधपूर्ण स्वर में बोला ।


"मैं वैसी मेहमान नहीं हूं।"


“आल राइट, दैन । प्लीज गो अहेड ।" - प्रमोद हथियार डालता हुआ बोला ।


सोहा छोटे-छोटे डग भरती हुई किचन में चली गई ।


प्रमोद ने फ्लैट में आसपास दृष्टि दौड़ाई । फ्लैट की खूब अच्छी तरह से बड़ी सावधानी से तलाशी ली गई थी । यह बात प्रमोद ने आते ही नोट कर ली थी। कई बहुत छोटी-छोटी बातें थीं। जिससे यह प्रकट होता था कि किसी ने बेहद सावधानी बरतते हुए एक-एक चीज की तलाशी ली है । जैसे मैन्टल पर रखी बुद्ध की प्रतिमा का कोग बदला हुआ था । किताबों के रैक में एक किताब कतार में से थोड़े आगे निकली हुई थी । ऐसी सफाई से तो पुलिस ही तलाशी ले सकती है - प्रमोद ने सोचा ।


लगभग पांच मिनट बाद सोहा चाय बनाकर ले आई । उसने बिना दूध की चाय दो कप बनाई और एक कप प्रमोद के सामने रख दिया ।


दोनों चुपचाप चाय की चुस्कियां लेने लगे ।


"तुमने मुझसे मेरे यहां आने का कारण नहीं पूछा।" अन्त में सोहा ने ही चुप्पी तोड़ी ।


उत्तर प्रमोद ने चीनी में दिया - "कोई उगते हुए सूरज से उसके उगने का कारण नहीं पूछता है लेकिन उसकी किरणों की उष्मता से आनन्दित होकर अपूर्व सन्तुष्टि का अनुभव करता है ।"


“प्लीज ।” - सोहा बोली- "स्पयेर दि काम्प्लीमैंन्ट्स|"


"आल राइट।"


"तुम सुबह हमारे यहां क्यों आये थे ?"


"मुझे पुलिस इन्स्पेक्टर आत्माराम ने बताया था कि एक ऊंचे तबके की चीनी लड़की जगन्नाथ की हत्या के समय के थोड़ी देर पहले उसके फ्लैट में जाती देखी गई थी । "


“और तुम समझते हो कि वह लड़की मैं हूं ?"


"मैंने तो यह नहीं कहा । मैं तो केवल यह तानने के लिए तुम लोगों के पास आया था कि शायद तुम्हें इस विषय में कोई जानकारी हो । और बाई दिवे, सोहा, जगन्नाथ की हत्या के बाद से तुम उर्मिला से मिली हो ?”


“नहीं । लेकिन मैंने कोशिश बहुत..." - सोहा एकदम चुप हो गई, उसके नेत्रों से गहरी बेचैनी झलकने लगी । अनजाने में उसके मुख से एक अनचाही स्वीकारोक्ति निकल गई थी ।


"चुप क्यों हो गई ? बताओ न उर्मिला के बारे में ?"


"अगर मैं यह कहूं कि मैं किसी उर्मिला को नहीं जानती तो तुम मान लोगे । "


“अब नहीं । पहले मान लेता ।”


“अनजाने में तुम्हारे वाग्जाल में फंसकर उर्मिला से अपनी जानकारी स्वीकार कर लेने के बाद मुझे और भी बहुत कुछ स्वीकार करना पड़ेगा।"


"तो क्या हर्ज हो जायेगा । मैं तुम्हारा मित्र हूं।"


"बस मित्र ही ?" - सोहा ने पूछा ।


प्रमोद चुप रहा ।


"प्रमोद ।" - वह एकदम स्थिर स्वर में बोली- “जो चीनी लड़की जगन्नाथ के फ्लैट में आती देखी गई थी, ही थी ।" वह मैं


"तुम क्यों गई वहां ?"


“मैं उसे ब्लैकमेलिंग की रकम चुकाने गई थी ।"


“पच्चीस हजार रुपये ?"


"हां । " 


“आधी रात के बाद ?"


“हां ।”


"क्यों । ऐसा समय क्यों चुना तुमने ?"


"मैं फादर को बताये बिना जगन्नाथ को पैसा दे रही थी । इसलिए मैंने तभी घर से निकलना उचित समझा था जब फादर को कतई सन्देह न हो । "


"तुमने ऐसा क्यों किया ?"


"फादर ब्लैकमेलिंग का रुपया चुकाने को तैयार नहीं थे । उन्हें उस नीच आदमी के सामने झुकना पसन्द नहीं था और वह अपने अखबार में हर रोज पहले से ज्यादा जहर उगल रहा था। इसका परिणाम बड़ा भयंकर सिद्ध हो सकता था । मुझे भय था कि हमारा कोई आदमी उसकी हत्या न कर दे और इससे भी अधिक भय इस बात का था कि राजनगर के लोग भड़ककर हमारे खिलाफ कोई भयंकर कार्यवाई न शुरू कर दें। ऐसा हो जाने पर एक बार तो पुलिस भी हमारी रक्षा नहीं कर पाती । पब्लिक सैन्टीमैन्ट्स चीनियों के बहुत खिलाफ हैं। लोगों को यह समझाना आसान काम नहीं है कि पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं। हम चीनी भारत के ही नागरिक हैं । हम भारत का अहित नहीं सोच सकते । मैंने अनुभव किया था कि जगन्नाथ का फौरन मुंह बन्द करना बहुत जरूरी था । मेरा काफी तगड़ा निजी बैंक बैलेंस है । मैं उसमें से पच्चीस हजार रुपये निकलवाकर जगन्नाथ के फ्लैट पर ले गई थी । लेकिन जगन्नाथ का बाडीगार्ड इतनी रात गये मुझे भीतर नहीं जाने देना चाहता था इसलिए मुझे उर्मिला का हवाला देना पड़ा था ।"


“उर्मिला कौन है ?"


“उर्मिला एक नाइट क्लब डान्सर है। मेरी जानकार है । जगन्नाथ उसे बहुत प्यार करता है । "


"तुम किस समय वहां पहुंची थीं ?"


"ढाई बजे ।"


"और वापिस कब आई ?"


" पन्द्रह मिनट बाद ।”


"फिर क्या हुआ था ?”


“उर्मिला का हवाला देने पर जगन्नाथ ने मुझे भीतर बुला लिया था । वह मेरे साथ बड़ी शरारत से पेश आया था । उसने पच्चीस हजार रुपये ले लिये थे और वादा किया था कि वह दुबारा न तो हम लोगों के बारे में कोई उल्टी सीधी खबर छापेगा और नहीं और रकम की मांग करेगा ।"


"फिर ?"


“मेरे से बात कर चुकने के बाद जगन्नाथ ने मुझे एक स्लीव गन दिखाई थी । उसने मुझसे पूछा था कि क्या मैं किसी ऐसे चीनी कारीगर को जानती हूं जो उस स्लीव गन की हूबहू नकल कर दे । नकल इतनी शानदार हो कि असली और नकली स्लीवगन में फर्क महसूस न हो ।"


"तुमने वह स्लीवगन अपने हाथ में लेकर देखी थी ?" . प्रमोद ने व्यग्र स्वर में पूछा ।


- "हां ।" - सोहा शान्ति से बोली- "जिस समय मैं स्लीवगन को अपने हाथ में लेकर देख रही थी उसी समय हवा के एक झोंके से बगल के कमरे का द्वार खुल गया था । जगन्नाथ जल्दी से उठकर द्वार बन्द कर आया था लेकिन द्वार बन्द होने से पहले मैं भीतर झांक चुकी थी ।”


“भीतर क्या था ?" - प्रमोद ने उत्सुकतापूर्ण स्वर में पूछा । 


“भीतर एक सोफे पर पेन्टर महिला सोई पड़ी थी ।"


"कौन । कविता या सुषमा ?" - प्रमोद ने व्यग्र स्वर में पूछा। 


“सुषमा ।”


“ओह।"


सोहा बोली नहीं । वह अपने नेत्रों में विचित्र भाव लिये प्रमोद के चेहरे को निहार रही थी ।


प्रमोद को सुषमा की बात याद आ रही थी । वह तो कहती थी कि वह दो बजे दगन्नाथ के फ्लैट से वापिस लौट आई थी ।


"तुम्हें पूरा विश्वास है कि भीतर के कमरे में सोई हुई लड़की सुषमा थी ? "


"सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है ।" - सोहा निश्चयपूर्ण स्वर में बोली ।


प्रमोद अपने चेहरे पर उभर आने वाले निराशा के भाव छुपा नहीं सका ।


"पेन्टर महिला के लिए बहुत चिन्तित हो ?" - सोहा ने पूछा । 


प्रमोद चुप रहा ।


“अगर उसकी जगह में होती तो तुम मेरी भी इतनी ही चिन्ता करते ?” - उसने फिर पूछा । उसके नेत्रों में एक गहरे दर्द की झलक थी ।


"मैं इस समय सुषमा की और तुम्हारी एक जितनी चिन्ता कर रहा हूं।" - प्रमोद बोला - "सोहा इन्स्पैक्टर आत्माराम जानता है कि जगन्नाथ आखिरी बार केवल एक चीनी और एक भारतीय लड़की द्वारा जिन्दा देखा गया था और हत्या एक चीनी हथियार से हुई थी ।"


"तुम्हारा मतलब है कि जगन्नाथ को या चित्रकार महिला ने मारा है या मैंने ?"


" मैं तुम्हें अपना नहीं, आत्माराम का खयाल बता रहा हूं।"


 सोहा कुछ क्षण चुप रही और फिर एकदम भावहीन स्वर में बोली- "तुम चित्रकार महिला के लिए बहुत चिन्तित हो । क्या तुम यह चाहोगे कि उसे बचाने के लिए मैं यह स्वीकार कर लूं कि मैंने जगन्नाथ की हत्या की है ?"


"तुम मुझसे यह सवाल क्यों पूछ रही हो ?" - प्रमोद ने पूछा ।


"एक मां अपने बच्चे की गुड़िया की रक्षा के लिए स्वयं अपना कलेजा छलनी कर लेती है क्योंकि वह खिलौना उसके बच्चे को प्यारा है । "


"सोहा ।" - प्रमोद खोखली हंसी हंसता हुआ बोला - " मैं बच्चा नहीं हूं, तुम भी मां नहीं हो और न ही सुषमा खिलौना है।"


सोहा चुप रही ।


"तुम मुझे उर्मिला से मिला सकती हो ।" - प्रमोद ने पूछा ।


सोहा ने स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।


"अभी ?"


"हां ।"


"तो चलें ?"


प्रमोद उठ खड़ा हुआ ।


वो इमारत से बाहर आ गए और प्रमोद की कार में आ बैठे।


सोहा उसे महात्मा गांधी रोड पर स्थित एक चार मन्जली इमारत के सामने ले आई।


दोनों कार से बाहर निकल आए और इमारत के मुख्य द्वार की ओर बढे ।


प्रमोद ने देखा, मुख्य द्वार की बगल में एक बोर्ड लगा हुआ था- फ्लैट किराए के लिए खाली है, जानकारी के लिए ग्राउन्ड फ्लोर के दूसरे फ्लैट में वर्मा से मिलिए ।


दोनों सीढियों के रास्ते तीसरी मन्जिल के एक फ्लैट के सामने पहुंच गये । सोहा ने घन्टी बजाई ।


द्वार लगभग तीस वर्ष की एक आकर्षक महिला ने खोला।


"हल्लो, माई चाईनीज डार्लिंग।" - वह महिला सोहा को देखकर बोली । उसके स्वर में उदासी झलक रही थी ।


- “हल्लो उर्मिला ।" - सोहा बोली- "यह मेरा मित्र प्रमोद है । और प्रमोद यह उर्मिला है ।"


प्रमोद ने अभिवादन किया । उर्मिला ने हल्की-सी मुस्कराहट से उसका उत्तर दिया ।


"आइये ।" - उर्मिला एक ओर उठती हुई बोली ।


दोनों भीतर घुस गये ।


"प्लीज सिट डाउन ।" - उर्मिला कुर्सियों की ओर संकेत करती हुई बोली ।


प्रमोद एक कुर्सी पर बैठने ही वाला था कि सोहा उससे पहले ही उस कुर्सी पर बैठ गई । प्रमोद चुपचाप एक दूसरी कुर्सी पर जा बैठा । उसी क्षण उसकी दृष्टि कमरे के कोने में रखी एक मेज पर पड़ी और उसका मुंह खुला का खुला रह गया ।


उसकी आंखों के एकदम सामने तीन गुणा ढाई फुट के कैनवस पर अंकित जगन्नाथ की पेन्टिंग पड़ी थी । जगन्नाथ की क्रूर आंखें एकदम उसे घूरती मालूम हो रही थीं ।


यह तस्वीर कविता के पास से यहां कैसे पहुंच गई, प्रमोद मन ही मन बुदबुदाया ।


उस तस्वीर के कारण ही सोहा ने उसे उस कुर्सी पर बैठने को प्रेरित किया था ।


“जगन्नाथ की हत्या के विषय में तो तुमने सुना ही होगा ।" - सोहा बोली ।


शून्य उर्मिला कुछ नहीं बोली । वह खाली-खाली नेत्रों से में देख रही थी ।


"तुम्हें बहुत दुख हुआ न उसकी मृत्यु का ?" - सोहा सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोली ।


"अपने पति की मृत्यु का दुख किसे नहीं होगा ?" . उर्मिला उदास स्वर में बोली ।


“पति !" - सोहा हक्के-बक्के स्वर में बोली ।


“जगन्नाथ की मौत के बाद अब कुछ छुपाने से क्या फायदा ? वह मेरा पति था । हम दोनों ने गुप्त रूप से शादी की थी । किन्हीं कारणवश जगन्नाथ अभी शादी की घोषणा नहीं करना चाहता था ।”


"लेकिन तुमने पहले तो कभी उस बात का आभास भी नहीं दिया कि तुमने जगन्नाथ से शादी कर ली है ?" - सोहा ने पूछा ।


“जगन्नाथ चाहता था कि अभी मैं यह बात किसी को न बताऊं । लेकिन अब... अब... उसकी मौत के बाद मैं दुनियां की नजरों में उसकी पत्नी के रूप में नहीं, उसकी विधवा के रूप में आऊंगी।" - और उसके नेत्रों से दो आंसू ढुलक पड़े ।


"तुम उसकी जायदाद भी क्लेम करोगी ?"


"करनी ही पड़ेगी। मैं उसकी पत्नी हूं।"


"उसके रिश्तेदार तुम्हारे रास्त में रोड़े अटकाने की कोशिश करेंगे ।"


- “उसका कोई रिश्तेदार नहीं है । उसकी अकेली रिश्तेदार मैं हूं, उसकी बीवी । जगन्नाथ की रखैलें बीसियों थीं लेकिन बीवी एक थी, केवल एक और वह थी उर्मिला । मैं।”


"तुम्हारे खयाल से उसकी हत्या किसने की होगी ?"


"तुम नहीं जानतीं ।" - उर्मिला हैरान होकर बोली. “जगन्नाथ की हत्या उसकी उस रखैल ने की होगी जो आधी-आधी रात को उसकी तस्वीर बनाने के बहाने उससे मिलने आया करती थी ।"


सोहा ने प्रश्नसूचक दृष्टि से प्रमोद की ओर देखा । प्रमोद ने नेत्रों से ही उसे उठने का संकेत किया ।


सोहा उठ खड़ी हुई ।


"मैं बड़े गलत मौके पर आई, उर्मिला ।" - वह बोली"मुझे जगन्नाथ की मौत का दुख है ।"


उर्मिला चुप रही ।


“अच्छा !" - सोहा बोली ।


"ओके ।" - उर्मिला ने उत्तर दिया ।


दोनों अभिवादन करके विदा हुए ।


"मुझे यह औरत कुछ ड्रामा-सा करती हुई मालूम हुई ।" - बाहर आकर प्रमोद बोला- "वह इतनी दुखी मालूम नहीं होती थी, जितनी वह अपने आपको जाहिर करने की कोशिश कर रही थी ।"


“सम्भव है ।"


"वह कहती है कि वह जगन्नाथ की बीवी है ?"


"हो सकता है झूठ बोल रही हो ।”


"क्यों ?"


“भगवान जाने !"


"प्रमोद ने फिर प्रश्न नहीं किया । "


***