ठीक आठ बजे परिजात स्टूडियो का नाइट वाचमैन चंदेल अपनी बाइसिकल चलाता स्टूडियो के फाटक पर पहुंचा । वहां पहुंचने से पहले उसने पुलिस की एक जीप को फाटक के सामने, सड़क के पार एक काली एम्बेसेडर और दो सफेद फिएट गाड़ियों के पास खड़े देखा था । लेकिन उसके करीब पहुंचने से पहले ही पुलिस की जीप एकाएक वहां से रुखसत हो गयी थी, अलबत्ता तीनों निजी गाडियां पीछे खड़ी रही थीं ।
चलती सड़क पर यूं खड़ी गाड़ियों के बारे में कतई कोई आशंका मन में लाए बिना चंदेल साइकल से उतरा । उसने जेब से चाबी निकाली, स्टूडियो के विशाल फाटक का ताला खोला और फाटक का एक पल्ला धकेलकर केवल इतना खोला कि साइकल के भीतर प्रवेश के लिए जगह बन सकती । फिर ताला और साइकल संभाले वह भीतर दाखिल हुआ ।
वस्तुत: उसकी वहां चौकीदारी महज एक औपचारिकता थी । आठ बजे वह वहां पहुंचता था, आते ही स्टूडियो का एक चक्कर लगाता था और फिर फाटक की बगल में बने आफिसनुमा कमरे पहुंच जाता था । वहां वह कोई घंटा डेढ़ घंटा ट्रांजिस्टर पर फिल्मी गाने सुनता था और फिर वहीं पड़ी चारपाई पर ढेर हो जाता था । दिन चढ़ने पर वह सोकर उठता था, स्टूडियो का एक चक्कर भी लगाता था और फिर फाटक को ताला लगाकर अपने घर लौट जाता था ।
चंदेल साठ साल का फौज से रिटायर हुआ नायब सूबेदार था और बुढौती में हजार रुपल्ली की उस दर्शनी चौकीदारी को अपने लिए वरदान मानता था । उसे अफसोस था तो सिर्फ इस बात का कि स्टूडियो में भयंकर आगजनी की वारदात के बाद से ही वहां की बिजली कटी हुई थी जिसकी वजह से ऑफिस में उपलब्ध टेलीविजन नहीं देख सकता था ।
उसने साइकल को ऑफिस के करीब स्टैंड पर खड़ा किया और फाटक को भीतर से ताला लगाने की नीयत से वापिस लौटा ।
तभी चार जोड़ी हाथों ने उसे दबोच लिया ।
वे चार जने यूं प्रेत की तरह वहां पहुंचे थे कि चंदेल को अपने पीछे उनकी उपस्थिति का आभास तक नहीं मिला था । उसके कुछ बोलने का उपक्रम करने से पहले ही एक मजबूत हाथ उसके मुंह पर पड़ा, फिर उसके पैरों ने धरती का साथ छोड़ दिया और फिर पलक झपकते वह ऑफिस के अंधेरे कमरे में था ।
“हौंसला रख बुड्ढे ।” - कोई उसके कान में बोला - “तुझे कुछ नहीं होने वाला ।”
फिर उसे चारपाई पर डाल दिया गया और वहीं पड़ा एक कम्बल उसे ओढा दिया गया ।
तब तक डोंगरे के सारे प्यादे भीतर आ चुके थे और फाटक को भीतर की तरफ से ताला लगा दिया गया था ।
चौकीदार से निश्चिन्त होकर डोंगरे बाहर निकला । सबसे पहले उसकी निगाह बाहर सड़क पर पड़ीं जहां पुलिस की जीप फिर आ खड़ी हुई थी । चौकीदार पर आक्रमण का आठवले चश्मदीद गवाह नहीं बनना चाहता था इसलिए वह थोड़ी देर के लिए जीप को वहां से हटा ले गया था ।
डोंगरे कई क्षण बाहर ठिठका खड़ा अपना अगला क्षण निर्धारित करने की कोशिश करता रहा, फिर उसने प्यादों में मौजूद बाबू कामले इंदौरी और भौमिक को आवाज देकर बाहर बुलाया ।
अगले पांच मिनट में चारों ने चुपचाप स्टूडियो का चक्कर लगाया ।
वे वापिस फाटक के करीब वाले कमरे में लौटे ।
“कोई मुश्किल काम नहीं ।” - डोंगरे बोला - “दस इमारतें हैं यहां जिसमें से एक को बाहर से ताला लगा है । बाकी नौ में से ही किसी में छुपा होगा वो । मैं भौमिक और बाबू कामले के साथ तीन-तीन आदमी चलो, दो आदमी इस गेट पर ही ठहरो । भीतर एक जेल का सैट है जिसमें जेलों जैसा एक वाच टावर बना हुआ है । एक आदमी उस पर चढ़ जाओ । वो टावर इतना ऊंचा है कि वहां से बाहर सड़क पर और भीतर सारे स्टूडियो पर निगाह डाली जा सकती है । सोहल अगर एक इमारत से निकलकर दूसरी इमारत में जाने की कोशिश करेगा तो वाच टावर से साफ दिखाई दे जाएगा । किसी एक ही इमारत में दुबका बैठा रहेगा तो चार-चार आदमियों की तीन टीमों में से किसी एक की पकड़ाई में जरूर आ जाएगा । साले को चूहे की तरह से बिल में से बरामद करना है । सब कोई समझ गया ?”
तमाम सिर सहमति में हिले ।
“एक बात याद रखने का है ।” - डोंगरे चेतावनी-भरे स्वर में बोला - “टोर्च सिर्फ इमारत के भीतर जलाने का है । जब तक बहुत सख्त जरुरत न हो, टोर्च की रोशनी खुले में पड़ना नेई मांगता । बरोबर ?”
सबने सहमति जताई ।
“चलो ।”
उसके तीनों लेफ्टिनेंट तीन-तीन आदमी लेकर वहां से विदा हो गए ।
एक आदमी जेल के सैट की तरफ बढ़ चला ।
बाकी दो आदमियों को कमरे में छोड़कर डोंगरे बाहर की ओर बढ जहां खड़ी काली एम्बेसेडर में लगे कार टेलीफोन से उसने इकबालसिह को यह शुभ समाचार देना था कि सोहल चूहे की तरह यहां फंस गया था और अब उसका पकड़ा जाना महज वक्त की बात थी ।
***
जेल के सैट के वाच टॉवर से विमल ने चौकीदार की गिरफ्तारी और ‘कंपनी’ के सोलह आदमियों के स्टूडियो में खामोश दाखिले का नजारा किया । उसने पुलिस की जीप को वहां से कूच करते और फिर थोड़ी देर बाद वापिस लौटते भी देखा । फिर उसने चार-चार आदमियों के तीन ग्रुपों को स्टूडियो में फैलते देखा । वह तत्काल समझ गया कि उसकी तलाश को कैसे अंजाम दिया जाने वाला था ।
फिर तत्काल ही उसने अपना अगला कदम भी निर्धारित कर लिया ।
प्यादों की तीन टीमों ने रेलवे स्टेशन, कोर्ट रूम और मंदिर वाली इमारतों का रुख किया था । जल्दी ही उन्हें पता लग जाना था कि वह उन तीनों में से किसी जगह में नहीं था । फिर वह वाच टॉवर से निकलकर यूं खाली करार दी गई किसी एक जगह में शरण ले सकता था ।
लेकिन तभी उस योजना में व्यवधान आ गया ।
उसे वाच टॉवर की सीढियों पर किसी के धप्प-धप्प कदमों की आवाज सुनाई दी ।
प्रत्यक्ष था कि आंगतुक को विमल के वाच टॉवर में होने का कतई अंदेशा नहीं था अन्यथा वो दबे पांव वहां पहुंचने की कोशिश करता ।
विमल ने कान लगाकर सुना तो अनुभव किया कि केवल एक ही जोड़ी पांव सीढ़ियों पर पड़ रहे थे ।
उसने जेब से साइलेंसर लगी रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली और सीढियों के पहलू में दीवार के साथ सटकर प्रतीक्षा करने लगा ।
कुछ क्षण बाद पहले सीढियों के ऊपर एक सिर प्रकट हुआ, फिर एक व्यक्ति ने वाच टॉवर में कदम रखा ।
विमल ने रिवॉल्वर को नाल की तरफ से पकड़ा और उसकी खोपड़ी के पृष्ठ भाग पर रिवॉल्वर के भारी दस्ते का भरपूर प्रहार किया ।
वो आदमी निशब्द धराशायी हो गया ।
विमल दबे पांव नीचे भागा ।
वाच टॉवर से निकलकर वह जेल की चारदीवारी के साथ-साथ चलता हुआ आगे उधर बढा जिधर जेल का विशाल फाटक था । वह वहां तक निर्विघ्न पहुंचा, उसने फाटक से बाहर कदम रखा ।
तभी टॉर्च की रोशनी उस पर पड़ी ।
विमल बौखला गया । उसने तत्काल फाटक की ओट ली और सिर उठाया ।
रोशनी वाच टॉवर की तरफ से आई थी ।
उसने उधर फायर झोंका ।
टॉर्च फौरन बुझ गई लेकिन साथ ही ऊपर से कोई चिल्लाया - “वो फाटक के पास है । वो जेल के फाटक के पास है ।”
जिस प्यादे की खोपड़ी पर उसने रिवॉल्वर की मूठ का प्रहार किया था, या तो वो बहुत सख्तजान था, या फिर प्रहार वांछित शक्ति के साथ नहीं पड़ा था क्योंकि उसको तो धराशायी होते ही होश आ गया मालूम होता था ।
विमल उकडूं हुआ सामने को भागा ।
“वो दाएं भाग रहा है ! वो दांए भाग रहा है !”
साथ ही उसके दाएं-बांए गोलियां बरसने लगीं ।
विमल जेल के सैट के पहलू में बने अंधेरे गोदाम के दरवाजे पर पहुंचा । अपनी ही बांधी तारों से बचता हुआ वह भीतर दाखिल हुआ और गोदान के पृष्ट भाग में पहुंचा । वह दफ्ती के पेड़ों और प्लॉस्टर ऑफ पेरिस के पुतलों के बीच जा खड़ा हुआ और प्रतीक्षा करने लगा ।
वाच टॉवर वाले उसे गोदाम में घुसते हुए न देखा होता, तो भी उसकी तलाश में लगी किसी टीम का वहां कदम पड़ना लाजमी था ।
धीरे-धीरे उसकी सांस व्यवस्थित होने लगी ।
प्यादे उसकी अपेक्षा से पहले वहां पहुंचे ।
वे पांच थे जो लगभग दौड़ते हुए भीतर दाखिल हुए । उनमें से जो सबसे आगे था, उसका गला विमल द्वारा बांधी तार से पूरे वेग के साथ यूं उलझा कि उसका सिर तो एकाएक स्थिर हो गया लेकिन टांगें भागती रहीं । फिर भागती टांगें जमीन छोड़ गई और प्यादा पीछे को उलटा । वह धड़ाम से नीचे गिरा, गिरते ही उठ बैठा, और फिर अपने दोनों हाथों से अपना गला थामे जोर-जोर से चिल्लाने लगा ।
एक दूसरे प्यादे के पांव नीचे बंधी तार से उलझे और वह मुंह के बल धड़ाम से नीचे गिरा ।
“रुक जाओ ।” - उनके साथ वहां पहुंचा इंदौरी चिल्लाया - “साले ने जगह-जगह फंदे लगाए हुए हैं ।”
वो और उसके साथ आए दो प्यादे दरवाजे के पास आकर ठिठक गए ।
“वो यहीं है ।” - इंदौरी बोला - “ओट ले लो और रोशनी करो ।”
“दो टॉर्चे जलीं और उनके प्रकाश का दायरा गोदाम में फिरने लगा ।
मुंह के बल गिरा हुआ प्यादा उठ खड़ा हुआ और फुर्ती से ओट में हो गया ।
दूसरे प्यादे का गला तार से बुरी तरह से कट गया था । वह अभी भी फर्श पर दोहरा हुआ कराह रहा था और अपने ही हाथों में गले से बहता अपना खून बटोर रहा था ।
एक टॉर्च की रोशनी पहले नकली खंभों, पेड़ों पर और फिर पुतलों पर पड़ी ।
विमल ने सांस रोक ली और आंखे स्थिर कर लीं ।
रोशनी उस पर से गुजर गई तो उसने हौले से सांस छोड़ी ।
“वो उधर कबाड़ में कहीं छुपा होगा ।” - इंदौरी बोला - “सावधानी से ओट लेते हुए आगे बढो ।”
“जीवाने जख्मी हो गया है ।” - एक प्यादा धीरे से बोला ।
“अरे, भाड़ में गया जीवाने !” - इंदौरी झल्लाया - “ये जीवाने की फिक्र करने का वक्त नहीं है ।”
“लेकिन...”
“साले, जख्मी ही हुआ है न ! मर तो नहीं गया !”
फिर खामोशी छा गई ।
चार साए ओट लेते हुए आगे बढने लगे ।
विमल दबे पांव, सांस रोके, पीछे सरकने लगा । वह यूं एक पहलू से घेरा काटकर इंच-इंच सरकने लगा कि वो लोग आगे निकल जाते तो वह उनके पीछे पहुंच जाता ।
अगले कुछ क्षणों में वह अपने मकसद में सफल भी हो गया लेकिन तभी एक अप्रत्याशित व्यवधान आ गया ।
अपनी ही लगाई एक तार से उसका पांव उलझा और वह धड़ाम से फर्श पर गिरा । खाली गोदाम में उसके गिरने की आवाज बड़े जोर से गूंजी । रिवॉल्वर उसके हाथ से निकल गई ।
“पीछे है !” - इंदौरी चिल्लाया - “रोशनी !”
तत्काल उसकी दिशा में टॉर्च की रोशनी पड़ी और कई फायर हुए । विमल ने दूसरी रिवॉल्वर के लिए जेब टटोली तो पाया कि यूं धड़ाम से गिरने में वो भी जेब से निकल गई थी ।
अब वो निहत्था था । फिर उसे लाल बम का ख्याल आया । उसने कोट की जेब टटोली तो उसे जेब में मौजूद पाया । उसने बम निकालकर हाथ में ले लिया और दरवाजे की तरफ छलांग लगाई ।
फिर कई फायर हुए जिनसे वह बाल-बाल बचा ।
शायद उन लोगों को जवाबी फायर होने का अंदेशा था । जिसकी वजह से कोई उसके पीछे नहीं भाग रहा था ।
उसने घूमकर बम को भीतर गोदाम में फेंका ।
बम तत्काल फटा ।
क्षण-भर को टॉर्च की रोशनियां और फायरिंग दोनों बंद हो गई ।
विमल बाहर निकला, उसने बड़ी फुर्ती से अपने पीछे गोदाम का दरवाजा बंद कर दिया और चिटकनी लगा दी ।
बेहोशी की गैस वाला वो बम कम-से-कम पांच प्यादों से तो निश्चित रूप से उसे निजात दिला देने वाला था ।
तभी उसे कई दौड़ते कदमों की आहट सुनाई दी ।
अब बाकी तमाम प्यादे टीमों में बंटे रहने की जगह निश्चित रूप से इकट्ठे होकर उसके पीछे पड़ने वाले थे ।
विमल एक ओर भागा ।
बहुत दबे पांव भागने के बावजूद स्टूडियो के स्तब्ध वातावरण में उसके कदमों की आवाज हुए बिना नहीं रह रही थी ।
“उधर है ! उधर है !”
सामने साउंड स्टेज नंबर चार की इमारत थी ।
अब उसे ऐसा लग रहा था कि प्यादे उसके पीछे से ही नहीं उसके दांए-बांए से भी उसकी तरफ दौड़ रहे थे ।
वह सामनी इमारत में दाखिल हो गया ।
रास्ते में बंधी तारों के पहलू से गुजरकर अंधेरे में अंदाजन चलता हुआ वह कैट वॉक तक जाने वाली लोहे की सीढियों तक पहुंचा । फिर वह दबे पांव सीढियों चढने लगा ।
तभी कई लोग साउंड स्टेज नंबर चार के प्रवेश द्वार पर जमा होने लगे ।
तीन-चार टॉर्चों की रोशनियां दाएं-बाएं फिरने लगीं ।
उन लोगों में सबसे आगे बाबू कामले था जो निश्यच ही इंदौरी से ज्यादा सतर्क और सयाना था ।
“तारे बंधी हैं ।” - वह चेतावनी-भरे स्वर में बोला ।
तत्काल फंदे के तौर पर विमल द्वारा वहां बांधी गई तमाम तारें तोड़ दी गई ।
विमल कैट वॉक पर पहुंच गया और उकडू होकर वहां बैठ गया । उसकी सतर्क निगाह नीचे फिरने लगीं । सात-आठ आदमियों की नीचे मौजूदगी का उसे आभास हुआ ।
“यहां से निकलने के और कितने रास्ते हैं ?” - बाबू कामले ने पूछा ।
“दो ।” - कोई बोला ।
“एक सामने है । तीनों दरवाजों पर निगाह रखो । तीनों पर एक-एक टॉर्च की रोशनी फोकस करके रखो और निशाना साध के रखो । वो दरवाजे के करीब भी दिखाई दे तो शूट कर दो ।”
“लेकिन वो है कहां ?” - भौमिक बोला - “स्टेज तो खाली है ।”
“है वो यहीं । मैंने खुद उसे भीतर दाखिल होते देखा था ।”
“वो किसी और दरवाजे से न निकल गया हो !”
“और दोनों दरवाजे बंद हैं । अभी भी बन्द हैं । वो भीतर ही कहीं है ।”
“कहां ?”
“पता लग जाएगा ।” - उसने प्यादों को आदेश दिया - “ढूंढो ।”
दाएं-बाएं ऊपर-नीचे टॉर्चों की रोशनियां चमकने लगीं ।
लेकिन कोई भी टॉर्च इतनी शक्तिशाली नहीं थी कि साउंड स्टेड से चालीस फुट उंची बनी कैट वॉक को पूरी तरह प्रकाशित कर पाती ।
विमल बंदर की-सी फुर्ती के साथ उकडूं-उकडूं ही साउंड के चारों कोनों को नापती कैट वॉक पर फिरने लगा और उन रस्सियों को खोलने लगा जिनके साथ मन-मन वजन के आर्क लैंप और विभिन्न प्रकार की और भारी चीजें बंधी हुई थीं ।
नतीजतन नीचे साउंड स्टेज पर मौजूद लोगों के सिरों पर भारी चीजों की बरसात होने लगी ।
तत्काल नीचे चिल्ल-पों मच गई ।
तभी श्याम डोंगरे वहां पहुंचा ।
“क्या हुआ ?” - वह चिल्लाया ।
“वो ऊपर कहीं है ।” - बाबू कामले बोला - “और हमारे आदमियों पर भारी-भारी चीजें गिरा रहा है ।”
“आदमियों को ऊपर भेजो ।”
विमल ने एक रस्सी पकड़ी और उसके सहारे कैट वॉक से नीचे लटक गया । यूं वह उस रस्सी तक पहुंचा जिसके दूसरे सिरे पर ढाई मन वजन का रेल की पटड़ी का टुकड़ा बंधा हुआ था । उसने वो रस्सी खोली और उसको मजबूती से जकड़ लिया, रस्सी के खुलते ही ऊपर छत के करीब लंबवत लटका पटड़ी को टुकड़ा तेजी से नीचे को गिरने लगा और पुल्ली पर से गुजरती रस्सी के दूसरे सिरे पर मौजूद विमल एक राकेट की तरह असाधारण गति से ऊपर छत की ओर उठने लगा । पटड़ी का टुकड़ा नीचे फर्श पर पहुंचा तो विमल का सिर ऊपर छत के साथ जा लगा । उसने रस्सी छोड़ दी और एक बीम के साथ लिपट गया ।
तीन चार जने कैट वॉक पर पहुंचे । वे कैट वॉक पर चारों तरफ फिर गए ।
“ऊपर तो कोई नहीं है ।” - प्यादों के साथ आया भौमिक चिल्लाकर बोला ।
“कैसे नहीं है ?” - बाबू कामले भुनभुनाया - “इतना लोहा क्या ऊपर से नीचे जादू के जोर से गिर रहा था ?”
“पहले होगा । अब नहीं है ।”
“अब कहां गया ?”
“क्या पता कहां गया ?” - भौमिक तीखे स्वर में बोला - “यहां ऊपर कैट वॉक पर नहीं है वो ।”
“उधर से” - डोंगरे बोला - “बाहर निकलने का कोई रास्ता है ?”
“बाहर कहां ?” - भौमिक ने पूछा ।
“छत पर ?”
“बाप, इधर से तो छत पर पहुंचने को कोई रास्ता नहीं है ।”
“मतलब ? कैट वॉक से कोई सीढियां छत तक नहीं जाती ?”
“नक्को ।”
“ऊपर तो वो शर्तिया था ।” - बाबू कामले बोला - “आखिर इतना लोहा...”
“वो सीढियों से ही नीचे उतरा होगा ।” - डोंगरे चिंतित भाव से बोला - “और भारी चीजें नीचे हमारे आदमियों के सिरों पर गिरने से मची चिल्ल-पों के दौरान यहां से खिसक गया होगा ।”
“ये नहीं हो सकता ।” - बाबू कामले पूरे विश्वास के साथ बोला ।
स्टील स्ट्रकचर की परछाईयों में परछाई बना बीम से लिपटा विमल वार्तालाप सुनता रहा और वाहे गुरु को याद करता रहा ।
“क्यों नहीं हो सकता ?” - ऊपर से भौमिक बोला - “नीचे तो हाहाकार मच रहा था । हर कोई इधर-उधर भाग रहा था । सब एक-दूसरे से टकरा रहे थे । उस वक्त की अफरातफरी में क्या पता लगा होगा कि वो वो था या अपना ही कोई आदमी था ।”
कुछ क्षण कोई कुछ नहीं बोला ।
“ठीक है फिर ।” - आखिरकार बाबू कामले पराजित भाव से बोला - “नीचे आ जाओ सब जने ।”
विमल की जान में जान आई । बीम पकड़कर लटके-लटके उसकी बांह और टांगे फोड़े की तरह दुखने लगी थीं ।
“ठहरो । ” - एकाएक डोंगरे बोला - “छत में कोई रास्ता जरूर होगा वरना छत के साथ इतनी गरारियां चक्के, इतनी रस्सियां कैसे लटकाई गई !”
क्षण-भर को सन्नाटा छा गया । 
“एकदम फिट बोला, बाप ।” - फिर बाबू कामले बोला ।
“बाहर से देखो ।”
“मैं खुद देखता हूं ।”
बाबू कामले दौड़ता हुआ बाहर निकल गया ।
पांच मिनट बाद टीन की ढलवां छत में बाहर की तरफ से दो गुणा दो फीट की एक खिड़की-सी खुली और उसमें सिर डालकर बाबू कामले ने नीचे साउंड स्टेज की ओर झांका ।
विमल ने सांस रोक ली ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह ! - वह मन -ही- मन बोला - तू मेरा राखा सबनी थांही ।
छत में वो खिड़की उससे मुश्किल से चार फुट दूर खुली थी । बाबू कामले जरा गर्दन घुमाता तो उसे देख सकता था ।
“इधर रास्ता तो है ।” - बाबू कामले जैसे उसके कान में बोला - “पण ये इदर से बंद था । छत पर इतनी धूल है कि कोई इदर से निकल के बाहर गया होता तो उसके पैरों की छाप धूल में जरूर बनती । पण इदर ऐसी कोई छाप नहीं ।
“ओह !” - डोंगरे निराश स्वर में बोला - “फिर तो भौमिक की ही बात ठीक है । वो तुम लोगों के बीच से होकर गुजर गया और तुम सालों अंधों को खबर न लगी ।”
कोई कुछ न बोला ।
“वापिस आ जा ।” - डोंगरे बाबू कामले से बोला ।
“आया, बाप ।”
छत में खुली खिड़की बंद हो गई ।
“और तुम लोग भी नीचे आ के मरो ।”
भौमिक समेत कैट वॉक पर मौजूद तमाम लोग नीचे को लपके ।
तब कहीं जा के विमल ने सांस छोड़ी ।
सब लोग फिर नीचे सांउड स्टेज पर इकट्ठे हो गए ।
टॉर्चों की रोशनियां जो अब तक चारों तरफ घूमती फिर रही थीं, फर्श पर स्थिर हुई ।
तब डोंगरे को फर्श पर निश्चेष्ट पड़े अपने दो प्यादे दिखाई दिए ।
“इन्हें क्या हुआ ?” - वह बोला ।
“मर गए ।” - बाबू कामले बोला - “ऊपर से लोहा ऐन इनके सिरों पर गिरा । भेजा बाहर ।”
“ओह ! बाकी लोग कहां हैं ?”
“बाकी लोग ?”
“इंदौरी और उसके प्यादे ?”
“मालूम नेई ।”
“टॉर्च टावर से जीवाने की पुकार पर वो लोग गोदाम की तरफ गए थे ।”
“तो उदर हो होएंगे ?”
“अभी तक ?”
बाबू कामले खामोश रहा ।
“भौमिक, जाके पता कर अपने जोड़ीदार का ।”
भौमिक बाहर को भागा ।
“इन लाशों को” - बाबू कामले दबे स्वर में बोला - “ठिकाने लगाना होगा ।”
“बाद में” - डोंगरे बेसब्रेपन से बोला - “बाद में देखेंगे । पहले इस इमारत को सील कर दो ।”
“क्या ?”
“यहां से निकलने के जितने रास्ते हैं, सब बाहर से बंद कर दो । वो सोहल का बच्चा यहां नहीं तो कोई वांदा नहीं, है तो फंसा रहने दो साले की चूहे की तरह यहीं । बाकी जगहों की तलाश के बाद यहां फिर लौट आएंगे ।”
बाबू कामले ने सहमति में सिर हिलाया ।
तभी गेट पर तैनात दो प्यादों में से एक दौड़ता हुआ वहां पहुंचा ।
“बड़ा साहब आएला है ।” - वह डोंगरे से बोला ।
डोंगरे तत्काल बाहर को लपका ।
बाकी सब लोग उसके पीछे दौड़ चले ।
साउंड स्टेज नंबर चार के मुकम्मल तौर पर खाली हो चुकने के भी पांच मिनट बाद विमल ने उस बीम का पीछा छोड़ा जिसके साथ वह छिपकली की तरह चिपका हुआ था ।
अब इमारत के तमाम दरवाजे बंद थे और भीतर मुकम्मल सन्नाटा था और घुप्प अंधेरा था ।
एक रस्सी के सहारे लटककर वह कैट वॉक पर पहुंचा । फिर सीढियां उतरकर वह नीचे फ्लोर पर पहुंचा ।
उस घड़ी उसे तलाश थी एक हथियार की और वहां जो दो प्यादे मरे पड़े थे, उनके पास से कोई हथियार बरामद होने की उसे उम्मीद थी क्योंकि उन हालात में हर प्यादे का हथियारबंद होना तो अपेक्षित ही था ।
उसने दोनों मरे पड़े प्यादों की जेबें टटोलीं ।
किसी के पास से रिवॉल्वर बरामद न हुई ।
पता नहीं धराशायी होने से पहले रिवॉल्वरें उनके हाथों से निकलकर दूर कही जा गिरी थीं या वहां से रुख्सत होते वक्त उनके जोड़ीदार उनकी रिवॉल्वरें अपने साथ ले गए थे ।
अलबत्ता एक प्यादे की जेब में से एक चाकू जरूर बरामद हुआ ।
अब उसने वहां से बाहर निकलना था ।
निकासी किसी दरवाजे के रास्ते तो संभव नहीं थी क्योंकि उसने डोंगरे को इमारत को पूरी तरह से सील कर देने का आदेश देते साफ सुना था ।
तो फिर ।
उसने छत में बनी उस खिड़की का मुआयना करने का फैसला किया । जिसमें से कि एक मवाली ने सिर निकालकर नीचे झांका था । जो रास्ता उस मवाली ने छत पर पहुंचने के लिए इस्तेमाल किया था, वही रास्ता वो वहां से निकलने के लिए इस्तेमाल कर सकता था ।
सीढियों के रास्ते वह कैट वॉक पर वापिस पहुंचा । फिर छत से लटकती रस्सियों के सहारे वह उस स्थान पर पहुंचा जहां खिड़की होने का उसका अंदाजा था । अंधेरे में टटोल-टटोलकर उसने खिड़की वाली जगह तलाश की और खिड़की के ढक्कननुमा पल्ले को बाहर को धक्का दिया । पल्ला कहीं अटका हुआ था लेकिन तीन-चार धक्के देने पर ही वो रुकावट हट गई । उसने पल्ले को उठाकर पीछे की तरफ पलट दिया और फिर चौखट पकड़कर ऊपर को उचका । मामूली-सी-कोशिश से वह इमारत की टीन की ढलवां छत पर पहुंच गया । उसने अपने पीछे खिड़की का पल्ला पूर्ववत गिरा दिया और लगभग दोहरा हुआ छत की मुंडेर पर पहुंचा ।
कहीं तो निकासी का रास्ता होना ही था ।
अंधेरे की वजह से बड़ी कठिनाई से वह उस रास्ते को तलाश कर पाया ।
वो रास्ता फुट-फुट के फासले पर दीवार में ऊपर से नीचे को पैवस्त लोहे की मजबूत आयाताकार ब्रैकटों की सूरत में था ।
मुंडेर के करीब लेटकर उसने नीचे झांका ।
पहले तो उसने नीचे कुछ भी दिखाई न दिया लेकिन फिर आंखे फाड़-फाड़कर देखने पर उसने महसूस किया कि नीचे एक प्यादा परहेदारी पर तैनात था । वह इमारात के उस ओर वाले कोने तक आता था और टहलता हुआ परली तरफ लौट जाता था ।
उसके ऐसे दो फेरों का विमल ने अवलोकन किया ।
तीसरी बार जब वह उधर प्रकट हुआ और कुछ क्षण ठिठकने के बाद वापिस लौट पड़ा तो विमल ने मुंडेर लांघी और फुर्ती से ब्रैकेटनुमा सीढियां उतरने लगा ।
पहरेदारी करते प्यादे के वापिस लौटने से पहले उसके पांव-जमीन पर पड़ चुके थे । उसने चाकू निकालकर खोला, उसको फल की तरह से पकड़ा और दीवार के साथ चिपका पहरेदार के लौटने के प्रतीक्षा करने लगा ।
कुछ क्षण बाद ज्यों ही वह मोड़ पर प्रकट हुआ, विमल ने पूरी शक्ति से चाकू फेंककर मारा ।
पहरेदार प्यादे के मुंह से चीख तक न निकली । उसके दोनों हाथ उसके गले पर पड़े और उसकी पीठ दीवार के साथ जा लगी, फिर वह दीवार के सहारे-सहारे ही फिसलता हुआ नीचे जमीन पर ढेर हो गया । विमल लपककर उसके करीब पहुंचा । उसने पाया कि चाकू प्यादे के गले में लगा था और उसके करीब पहुंचने तक वह बेहोश हो चुका था ।
विमल ने दीवार की ओट से सिर निकालकर परे झांका तो वैसे ही एक प्यादे को परली तरफ गश्त करते पाया । प्रत्यक्षत: दोनों प्यादे इमारत के दोनों पहलुओं की निगरानी करते फिरते इमारत के प्रवेशद्वार पर मिलते थे और वापिस दोनों पहलुओं के कोनों तक पहुंचते थे । पिछवाड़े में, जिधर कि ब्रैकटनुमा सीढिया थीं, उनके कदम इसलिए नहीं पड़ते थे क्योंकि उधर कोई निकास-द्वार नहीं था ।
विमल ने अचेत प्यादे की जेबे टटोलीं तो एक रिवॉल्वर उसके हाथ में आ गई । उसने उसे खोलकर उसका चैंबर टटोला तो उसे पूरी तरह से भरा हुआ पाया । विमल ने संतुष्टिपूर्ण भाव से सिर हिलाया और रिवॉल्वर की मजबूती से, चौकसी से अपनी पतलून की बैल्ट में खोंस लिया । फिर उसने अचेत प्यादे की बगलों में हाथ डाले और उसे घसीटकर करीब ही उगी झाड़ियों के पीछे ले आया । वहां उसने उसके गले में से चाकू निकाल लिया और फिर उसी के कपड़ों पर उसे रगड़कर उस पर लगा खून साफ किया ।
दूसरा प्यादा अपने जोड़ीदार की तलाश में किसी भी क्षण उधर प्रकट हो सकता था ।
विमल ने चाकू बंद करके जेब के हवाले किया ।
फिर वह दबे पांव झाड़ियों से आगे को लॉन को पार करने लगा जहां आगे फिर झाड़ियां थीं और उनसे पार उसके और साउंड स्टेज नंबर तीन के बीच में बनी कैंटीन की विशाल एक मंजिली इमारत थी ।
उसे तसल्ली थी कि अब वह फिर हथियारबंद था, शिकार बना रहने की जगह अब वो शिकारी बन सकता था ।
***
इकबालसिंह की बुलेटप्रूफ काली एम्बेसेडर कार स्टूडियो के भीतर ऐसे स्थान पर खड़ी थी जहां से बाहर सड़क पर से उस पर निगाह नहीं डाली जा सकती थी । उनके आजू-बाजू डेविड समेत उसके चार बॉडीगार्ड खड़े थे और सामने ‘कंपनी’ का सिपहसालार श्याम डोंगरे, उसके लेफ्टीनेंट बाबू कामले और भौमिक और दो प्यादे खड़े थे ।
“बढिया ।” - इकबालसिंह अपने सिपहसालार से रिपोर्ट पा चुकने के बाद जब बोला तो उसके स्वर में कहर का पुट था - “सोलह आदमी एक आदमी को काबू में नहीं कर सकते । उलटे उसी ने तुम्हारी आंख में डंडा किया हुआ है । वाह ! क्या खूब रिपोर्ट है ! एक आदमी का गला काट दिया, चार को बेहोशी की नींद सुला दिया, दो को जान से मार डाला ! अभी क्या है ! अभी तो सारी रात पड़ी है, सवेरा होने से पहले वो बाकी सबको भी जहन्नुम रसीद कर देगा और सीटी बजाता हुआ यहां से निकल जाएगा ।”
“लेकिन” - डोंगरे ने कहना चाहा - “लेकिन बाप...”
“क्या लेकिन ?” - इकबालसिंह सांप की तरह फुंफकारा - “क्या बाप ? क्या गलत बोला मैं ? तुम सोलह आदमी उसको इधर कहीं घेर तक नहीं सके । तेरे को ये तक नहीं मालूम कि वो यहां है कहां !”
“वो है भीतर ही ।” - डोंगरे मरे स्वर में बोला ।
“बढिया । अब जा उसे पकड़ के ला ।”
डोंगरे खामोश रहा ।
“अब बोलता क्यों नहीं ! बोल नहीं सकता तो मुंडी ही हिला । अब तो तेरी मुंडी भी नहीं हिल रही ।”
अपमान से तिलमिलाते डोंगरे ने जोर से थूक निगली और बेचैनी से पहलू बदला ।
“तूने शुरू से गलती की ।” - इकबालसिंह फिर फुंफकारा ।
“श... शुरू से ?” - डोंगरे कठिनाई से बोल पाया ।
“तेरा पहला कदम ही गलत था ।”
“क... क्या ?”
“तूने चौकीदार के इंतजार में एक घंटे से भी ज्यादा उसे स्टूडियो में छुट्टा घूमने दिया । उस एक घंटे में उस सरदार के बच्चे ने यहां इतनी तैयारियां कर लीं, तेरे आदमियों के लिए इतने फंदे यहां लगा दिए कि तेरे सात आदमी उन फंदों में फंसकर निकम्मे हो गए । अभी और पता नहीं उसने कहां-कहां क्या-क्या फंदे लगाए होंगे । डोंगरे, तुझे फौरन उसके पीछे भीतर घुसना चाहिए था ।”
“लेकिन, बाप, फाटक पर ताला...”
“एक ताला तोड़ लेना बहुत मुश्किल काम था तेरे वास्ते ?”
“पण बाप, बाहर चलता रास्ता...”
“रास्ते और फाटक में एकाध गाड़ी की ओट लग सकती थी ।”
डोंगरे खामोश रहा । उसने बॉस से वो कतई सहमत नहीं था लेकिन उस घड़ी बहस करने का माहौल नहीं था ।
“अब क्या इरादा है तेरा ?” - इकबालसिंह डपटकर बोला ।
“उसे ढूंढने का ही इरादा है, बाप” - डोंगरे मरे स्वर में बोला - “और क्या इरादा होएंगा !”
“वो यूं नहीं मिलने का ।”
“क... क्यों ?”
“क्योंकि अंधेरा उसके हक में है । डोंगरे, या तो अपने आदमियों को लेकर फाटक पर बैठ जा और सुबह होने का इंतजार कर या फिर यहां रोशनी का इंतजाम कर ।”
“र... रोशनी का इंतजाम करूं ?”
“क्या मुश्किल है ?”
“लेकिन बाप, इदर की बिजली कटी हुई है । वो आग लगने के बाद से ही इदर से बिजली का कनैक्शन...”
“काटा गया कनैक्शन दोबारा नहीं जोड़ा जा सकता ?”
“क... क्या ?”
“इधर की बिजली ही तो कटी हुई है । तारें तो नहीं उखड़ गईं भीतर की ! पोल से स्विचबोर्ड पर कनैक्शन आते ही कटी हुई बिजली चालू हो सकती है । पोल तो फाटक के सामने ही है । मेन स्विचबोर्ड भी भीतर फाटक के करीब ही कहीं होगा । करना क्या है ! पोल से मेन स्विचबोर्ड पर लाइन खींचनी है ।”
“वो भी होगी ।” - डेविड बोला ।
“क्या ?” - इकबालसिंह उसकी तरफ घूमा ।
“मेरे को बिजली के काम की बाबत मालूम ।” - डेविड सगर्व बोला - “किदर का बिजली काटना होता है तो पोल से उदर जाती तार का जंपर निकाल देते हैं बिजली वाले । बाप, बिजली चालू करने के वास्ते सिर्फ वो जंपर जोड़ना मांगता है ।”
“तो जा के जोड़ ।”
“मैं ! - डेविड हड़बड़ाया ।”
“हां ।”
“बाप, इस काम के वास्ते बिजली के औजार और रबड़ के दस्ताने होना मांगता है । सीढी भी होना मांगता है । ये काम तो कोई बिजली वाला ही....”
“ठीक है । ठीक है । डोंगरे !”
“बोलो, बाप ।” - डोंगरे तत्काल बोला ।
“किसी को कोई बिजली वाला पकड़ के लाने को भेज ।”
“अभी लो, बाप ।”
“और मेरे को यहां का एक राउंड लगवा ।”
“ठीक है, बाप ।”
डोंगरे कार की ड्राइविंग सीट पर सवार हुआ । डेविड और एक बॉडीगार्ड आगे उसके साथ बैठ गए । पीछे दो बाडीगार्डों के बीच सैंडविच बना इकबालसिंह बैठ गया ।
डोंगरे ने कार आगे स्टूडियो के भीतर की ओर बढाई ।
जिस मैदान में इकबालसिंह की कार आकर रुकी थी, वो कैंटीन के ऐन सामने था । कैंटीन में मौजूद विमल ने इकबालसिंह और उसके गिर्द लगे जमघट का नजारा ही किया, उनका वार्तालाप सुन पाना उसके लिए संभव न था । अलबत्ता इतना उसने जरूर महसूस किया है कि इकबालसिंह के आगमन के फलस्वरूप वहां कुछ नए इंतजाम किए जाने वाले थे । प्यादों की नई, पहले से कहीं बड़ी, कुमुक भी यहां बुलवाई जा सकती थी ।
फिर विमल ने इकबालसिंह को डोंगरे और अपने चार बाडीगार्डों के साथ अपनी गाड़ी में सवार होते देखा लेकिन गाड़ी बाहर फाटक की दिशा में बढने के स्थान पर स्टूडियो के भीतर को जाती सड़क पर बढी और कुछ क्षण बाद उसे दिखाई देनी बंद हो गई । तत्काल मैदान में मौजूद बाकी लोग भी इधर-उधर बिखर गए । कैंटीन का रुख किसी ने न किया । मैदान खाली हो गया ।
कैंटीन के पहलू में किचन थी, जिसके पिछवाड़े के दरवाजे से विमल बाहर निकला । उसने एक लान को पार किया और मंदिर के सैट के पिछवाड़े की दीवार की ओट में चलता-चलता वह अगले मैदान में पहुंचा जिसके आगे फाटक के बगल में बनी ऑफिसनुमा इमारत का पृष्ठभाग था । उधर एक खिड़की थी जिसमें से भीतर रोशनी का आभास मिल रहा था ।
रिवॉल्वर हाथ में थामे सावधानी की प्रतिमूर्ति बना विमल उस खिड़की के करीब पहुंचा । बहुत ही सावधानी से उसने भीतर झांका ।
भीतर चारपाई पर चौकीदार बंधा पड़ा था और दो बेहद चौकन्ने सशस्त्र प्यादे परे दरवाजे के करीब खड़े थे । दोनों बाहर झांक रहे थे इसलिए दोनों की विमल की तरफ पीठ थी ।
भीतर रोशनी का साधन एक टॉर्च थी जो जलाकर मेज पर रख दी गई थी ।
विमल बड़ी आसानी से उन दोनों को शूट कर सकता था लेकिन यूं वह दो जानें लेने में ही कामयाब हो पाता, उसका वहां से निकल भागना फिर भी मुमकिन न हो पाता । फाटक में ताला लगा था, वह पहले की ही तरह फाटक को फांदकर पार करने की कोशिश करता तो निश्चय ही बाहर जीप में मौजूद पुलिसियों द्वारा शूट कर दिया जाता ।
गोली की आवाज सुनकर भीतर मौजूद मवाली भी उधर दौड़े चले आते और वह दोतरफा घिर जाता ।
यानी कि फिलहाल जिंदा फाटक के बारह कदम रख पाना नामुमकिन था ।
एकाएक स्तब्ध वातावरण में फाटक खड़काए जाने की आहट हुई ।
“फाटक खोलो !” - कोई अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “डी.सी.पी. साहब आए हैं ।”
दरवाजे पर खड़े दो प्यादों में से एक तत्काल बाहर को लपका ।
विमल खिड़की के पास से हट गया ।
उकडूं-उकडूं वह फाटक से विपरीत दिशा में दौड़ चला ।
इस बार उसका निशाना कोर्टरूम का सैट था ।
***
पुलिस की सफेद एम्बेसेडर कार को पूर्ववत् खुद चलाता डी.सी.पी. डिडोलकर स्टूडियो के फाटक के सामने पहुंचा । उसने कार रोकी और बाहर निकला ।
अपने हवलदार को पीछे जीप में बैठा छोड़कर सब-इंस्पेक्टर अठवले दौड़कर अपने बॉस के पास पहुंचा ।
“क्या चल रहा है ?” - डिडोलकर ने पूछा ।
“वो अभी अंदर ही है ।” - अठवले धीरे से बोला ।
“पकड़ा नहीं गया अभी तक ?”
“नहीं । लेकिन पकड़ा तो जाएगा ही । सोलह आदमियों से एक आदमी कब तक बचेगा ?”
“अभी-अभी इकबालसिंह यहां पहुंचा था ।”
“और ?”
“अच्छा ! अब कहां है वो ?”
“भीतर ही है ।”
“फाटक खुलवाओ । हम भी भीतर चलते हैं ?”
अठवले ने फाटक खुलवाने के लिए आवाज लगाई और अपने हवलदार को चौकन्ना रहने की फिर से हिदायत की ।
एक प्यादे ने भीतर से फाटक खोला तो दोनों पुलिस अधिकारी भीतर दाखिल हुए ।
प्यादे ने पीछे फिर फाटक में ताला भर दिया ।
“इकबालसिंह किधर है ?” - डिडोलकर ने अधिकारपूर्ण स्वर में पूछा ।
प्यादे ने भीतर की तरफ इशारा कर दिया ।
दोनों पुलिस अधिकारी आगे बढे ।
वे उस मैदान के सिरे पर पहुंचे जिसकी बाईं ओर जले हुए दो नंबर साउंड स्टेज की ओर जाने का रास्ता था और दाईं ओर कोर्टरूम का सैट था ।
“कहां गए सब लोग ?” - डिडोलकर बोला - “यहां तो कोई भी नहीं दिखाई दे रहा !”
“यहीं कहीं होंगे, सर ।” - अठवले अनिश्चित भाव से बोला ।
“आवाज लगाओ ।”
“वो उधर कोई है, सर ।”
डिडोलकर ने कोर्टरूम के सैट वाली इमारत की ओर निगाह उठाई जिधर कि अठवले इशारा कर रहा था ।
उधर का एक दरवाजा खोलकर एक आदमी ने तभी बाहर कदम रखा था । इससे पहले कि उन दोनों में से कोई उस आदमी से कोई सवाल कर पाता, वो बोला - “इधर आ जाइए, साहब । साहब इधर हैं ।”
इतना कहकर वह फिर खुले दरवाजे से भीतर दाखिल हो गया । दरवाजा खुला रहा । दोनों पुलिस अधिकारी निसंकोच खुले दरवाजे की तरफ बढे ।
संदेह या संकोच वाली कोई बात ही नहीं थी । इकबालसिंह ने कहीं तो होना ही था, वो उस इमारत में हो सकता था ।
दोनों ने खुले दरवाजे से भीतर कदम रखा ।
दरवाजे के करीब ही वो आदमी खड़ा था जिसने उन्हें आवाज लगाई थी ।
“कहां है भई, इकबालसिंह ?” - डिडोलकर बोला ।
“वो उधर कमरे में हैं ?” - उस आदमी ने भीतर की तरफ एक ओर हाथ उठा दिया ।
“यहां तो इतना अंधेरा है ।”
“कमरे में रोशनी है, साहब ।”
“लेकिन यहां...”
“आप आगे बढिए । मैं दरवाजा बंद करके टॉर्च जलाता हूं । साहब ने कहा है कि टॉर्च की रोशनी बाहर न जाए ताकि आदमी को खबर न लगे कि साहब यहां हैं ।”
“वो आदमी पकड़ा नहीं गया अभी तक ?” - डिडोलकर अठवले के साथ दरवाजे से आगे बढता हुआ बोला ।
“अभी नहीं, साहब ।” - उत्तर देने वाला दरवाजे के करीब पहुंचा । उसने दरवाजे को बंद करके भीतर से चिटकनी चढा दी । फिर वह वापिस घूमा और शांत स्वर में बोला - “आप लोगों के पास टॉर्च है, साहब ?”
“मेरे पास है ।” - अठवले बोला - “क्यों ?”
“जला लीजिए ।”
“क्यों ?”
“ताकि आप उस आदमी के दर्शन कर सकें ।”
“किस आदमी के ?”
“जो अभी तक पकड़ा नहीं गया ।”
“क्या !”
“खबरदार !” - वो आदमी, जो कि विमल था, कहर-भरे स्वर में बोला - “आप दोनों मेरी रिवॉल्वर के निशाने पर हैं । कोई बेजा हरकत की तो एक सैकेंड में दोनों को ढेर कर दूंगा ।”
दोनों पुलिस अधिकारियों को जैसे सांप सूंघ गया ।
“मेरी आंखें अंधेरे की आदी हो चुकी हैं ।” - विमल बोला - “मैं आप दोनों को बखूबी देख सकता हूं । किसी के हाथों में जरा भी हरकत हुई तो मैं गोली चला दूंगा ।”
“गोली की आवाज” - डिडोलकर बोला - “बाहर तक सुनाई देगी ।”
“तो क्या होगा ?”
“लोग दौड़े चले आएंगे ।”
“जाहिर है ।”
“फिर तुम्हारा क्या होगा ?”
“वही होगा जो इस वक्त आपके जेहन में है लेकिन इस वक्त अहम सवाल ये नहीं है कि मेरा क्या होगा ! इस वक्त अहम सवाल ये है कि किसी के यहां पहुंचने से पहले आपका क्या हो चुका होगा !”
“तुम हमारे पर गोली नहीं चला सकते ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मैं डी.सी.पी. डिडोलकर हूं और ये मेरा सब-इंस्पेक्टर अठवले है ।”
“गुड । अब मुझे मालूम है कि ‘कंपनी’ के हाथों बिके हुए जिन पुलिसियों को मैंने शूट किया उनके नाम क्या थे, उनके रैंक क्या थे !”
“तुम बच नहीं सकते ।”
“अच्छा !”
“हां । देखो, तुम्हारे लिए अच्छा यही होगा कि तुम अपने आपको पुलिस के हवाले कर दो ।”
“ये मेरे लिए अच्छा होगा ?”
“हां । मैं तुमसे वादा करता हूं कि तुम्हारे साथ कोई ज्यादती नहीं होगी । और मेरी ये भी कोशिश होगी कि अदालत में तुम्हें कम-से-कम सजा मिले ।”
“क्यों बच्चे पढा रहे हो, डी.सी.पी. साहब । मेरी कम-से-कम सजा भी मौत है । मैं क्या जानता नहीं ?”
“तुम अकेले, सिर्फ एक रिवॉल्वर के दम पर, हर किसी को काबू में नहीं कर सकते ।”
“हर किसी को काबू में कौन करना चाहता है ? फिलहाल तो जो कुछ मेरे काबू में है, मैं उसी से खुश हूं । मेरा मतलब आप दोनों से ही हल हो जाएगा ।”
“तुम क्या करोगे ?”
“अभी मालूम हुआ जाता है ।”
विमल सावधानी से उनके करीब पहुंचा । बड़ी सफाई से उन दोनों की वर्दियों में से उसने उनकी रिवॉल्वरें निकाल लीं । ऐसा करते ही वह फिर उनसे परे हट गया ।
उसने फिर से दोनों का मुआयना किया । डी.सी.पी. उसे अपने कद-काठ से ज्यादा मेल खाता लगा ।
“डी.सी.पी. साहब” - वह बोला - “अपनी वर्दी उतारिए ।”
“क्या !”
“मैंने कहा बरायमेहरबानी अपनी वर्दी उतारिए ।”
“क्या बकते हो ?”
“वही जो कहता हूं । आप वर्दी नहीं उतारेंगे तो मुझे आपको शूट करना पड़ेगा । मैं ऐसा नहीं करना चाहता ।”
“एग्जेक्टली ।” - डिडोलकर एक विजेता के-से स्वर में बोला - “तुम एक सीनियर पुलिस ऑफिसर की जान लेने की हिम्मत नहीं कर सकते ।”
“नानसेंस ! मैं आपको इसलिए शूट नहीं करना चाहता क्योंकि मैं नहीं चाहता कि आपकी वर्दी खून में रंग जाए । आपकी वर्दी खून में रंग गई तो ये मेरे किसी काम की नहीं रहेगी । यू अंडरस्टैंड माई प्वाइंट ?”
“साले ! अंग्रेजी बोलता है !”
“हां । साला अंग्रेजी बोलता है । मुराद ये है कि बात आपकी समझ में आए । किसी और जुबान में समझाना चाहें तो वो भी कोशिश करने को तैयार हूं ।”
“मैं वर्दी नहीं उतारूंगा ।”
“बड़े ढीठ हैं आप ।”
“साले, मैं वर्दी नहीं...”
“ओके । ओके । तो कम-से-कम अपनी पीककैप ही उतार लीजिए ।”
“वो किसलिए ?”
“ताकि मैं आपका भेजा उड़ा सकूं । यूं जब आप मरकर गिरेंगे तो आपकी वर्दी आपके खून से रंगने से बच जाएगी । आपके गिरते ही मेरे कहने पर आपका सब-इंस्पेक्टर आपकी लाश औंधी कर देगा । यूं खोपड़ी से बहता सारा खून जमीन पर गिरेगा ।”
“ये... ये ऐसा करेगा ?”
“जिंदा रहने का ख्वाहिशमंद होगा तो जरूर करेगा ।”
“ग... गोली की आवाज का क्या होगा ?”
“आपका सब-इंस्पेक्टर कह देगा कि गोली उसने चलाई थी । उसे लगा था कि यहां अंधेरे में कोई था । लेकिन असल में वो उसका वहम था ।”
डी.सी.पी. के मुंह से बोल न फूटा । उसने व्याकुल भाव से अपने मातहत की ओर देखा ।
विमल ने अपना रिवॉल्वर वाला हाथ ऊंचा किया । बड़े अर्थपूर्ण ढंग से अपने रिवॉल्वर का कुत्ता खींचा । यूं पैदा हुई मामूली-सी खट की आवाज भी उस नकली कोर्टरूम में बड़े जोर से गूंजी ।
“सर ।” - अठवले घुटे स्वर में बोला - “मान जाइए ।”
डिडोलकर ने जोर से थूक निगली । उसने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला ।
“सर” - अठवले ने फिर याचना की - “प्लीज !”
“ओके, ओके ।” - अपने मातहत की फरियाद में पनाह लेता डिडोलकर बोला - “अगर तुम कहते हो तो...”
“सर, वक्त की जरूरत ये ही है । इस वक्त बाजी इसके हाथ में है ।”
“सिर्फ इस वक्त !” - डिडोलकर ने दांत पीसे - “सुन रहा है, साले । सिर्फ इस वक्त ।”
“साला सुन रहा है” - विमल सर्द स्वर में बोला - “और देख भी रहा है ।”
“क्या देख रहा है ?”
“यही कि वर्दी उतारने की दिशा में आपका उपक्रम अभी तक सिफर है ।”
“तू समझता है कि तू...”
“दैट्स एनफ ।” - विमल का स्वर एकाएक बेहद हिंसक हो उठा - “शटअप नाओ । एंड गैट रेडी टू डाई ।”
इस बार विमल के हिंसक स्वर ने जैसे डिडोलकर के भीतर छुपे भय का कोई स्विच ऑन कर दिया ।
वह तत्काल वर्दी उतारने लगा ।
कुछ ही क्षण बाद वह केवल अंडरवियर-बनियान में विमल के सामने खड़ा था और निगाहों से भाले बर्छियां बरसाता मन-ही-मन उसकी मौत की कामना कर रहा था ।
“थैंक्यू । अब आप” - वह अठवले से बोला - “उस पर्दे की डोरी निकालकर लाइए जो जज की कुर्सी के पीछे लगा हुआ है ।”
अठवले तत्काल उस तरफ बढा ।
“लेकिन एक बात याद रहे ।” - विमल चेतावनी-भरे स्वर में बोला ।
अठवले ठिठका ।
“और कुछ कदम आगे बढते ही आप अंधेरे की वजह से मुझे दिखाई देने बंद हो जाएंगे । पर्दे के करीब तो आप जैसे गायब ही हो जाएंगे । ये बात आपको जरूर सूझेगी और यहां से भाग निकलने के लिएं जरूर प्रेरित करेगी लेकिन याद रखना सब-इंस्पेक्टर अठवले साहब, रस्सी के साथ फौरन लौटकर न आने की सूरत में आपके डी.सी.पी. साहब जिंदा नहीं बचेंगे । अंडरस्टेंड !”
“यस ।” - अठवले खोखले स्वर में बोला ।
वो विमल की अपेक्षा से कहीं जल्दी रस्सी लेकर लौटा ।
विमल के आदेश पर उसने अपने आला अफसर को मुश्कें कस दीं और उसी का रूमाल उसके मुंह में ठूंस दिया ।
वो परे हटा तो विमल ने खुद उसके किए काम का मुआयना किया और संतुष्टि पूर्ण भाव से गर्दन हिलाई ।
“अब” - उसने अठवले को आदेश दिया - “पीठ मेरी तरफ । हाथ सिर पर ।”
अठवले ने तत्काल आदेश का पालन किया ।
विमल ने अपने कपड़े उतारकर डी.सी.पी. की वर्दी पहन ली । अपने कपड़ों का सामान उसने वर्दी में स्थानांतरित किया और अपना चश्मा और नकली दाढी भी उतारकर वर्दी की एक जेब में रख ली । अब समस्या मूंछों की थी ।
डी.सी.पी. के मूंछें जो नहीं थीं ।
तब विमल को तीखे कमानीदार चाकू का ख्याल आया । उसने अपने कपड़ों में से चाकू बरामद किया और उसके तीखे फल से खुरच-खुरचकर अपनी मूंछें साफ कर दीं । काम धीमा और तकलीफदेह था लेकिन नतीजा संतोषजनक निकला ।
फिर उसने चाकू की ही सहायता से अपनी सफेद कमीज फाड़कर उसकी लंबी-लंबी पट्टियां बनाईं । उसने एक पट्टी अपने सिर पर बांधी और दूसरी अपनी वर्दी की पतलून के ऊपर ही अपने दाएं घुटने पर बांधी । चाकू की नोक को अपने बाएं हाथ के अंगूठे में चुभोकर उसने दोनों पट्टियों को खून से दागदार किया । फिर सिर पर बंधी पट्टी के ऊपर उसने डी.सी.पी. की वर्दी की पीक कैप पहन ली । फिर उसने चाकू बंद करके उसे भी वर्दी की जेब में रख लिया । डी.सी.पी. की सर्विस रिवॉल्वर उसने पेटी के साथ लगे होल्स्टर में रखी ।
“नाओ टर्न अराउंड” - वह अठवले से बोला - “प्लीज ।”
अठवले घूमा ।
“हाथ गिरा लो ।”
अठवले ने सिर पर बंधे हाथ हटा लिए ।
“मुझे देख सकते हो ?”
अठवले ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब कहानी यूं है अठवले साहब, कि मैं आपका आला अफसर, डी.एस.पी. घायल हो गया हूं ।”
“क... कैसे ?”
“गुड क्वेश्चन । यहां दरवाजे के आर-पार जमीन से कोई एक फुट ऊंची एक नामुराद तार बंधी हुई थी जिसमें टांग उलझने की वजह से मेरी टांग कट गई और सिर जाकर फर्श से टकराने की वजह से माथा फूट गया ।”
“तार क्यों बंधी हुई थी ?”
“उसकी चिंता मत करो । यूं बंधी तारों की दास्तान यहां पहले से स्थापित है ।”
“ओह !”
“तो मैं कह रहा था कि मैं आपका आला अफसर हूं, जो कि सोहल के लगाए एक फंदे में फंसकर बुरी तरह से घायल हो गया है । आप मुझे सहारा देकर बाहर ले जाएंगे, फाटक खुलवाएंगे और फिर साहब की गाड़ी में मुझे सवार कराके ‘हस्पताल’ ले के जाएंगे । आप मुझे इलाके से दूर कहीं ड्राप कर देंगे और खुद डी.सी.पी. साहब को रिहा करने के लिए वापिस लौट आएंगे । ऐनी प्रॉब्लम ?”
वो खामोश रहा ।
“यहां से बाहर निकलने के बाद हम ‘कंपनी’ के प्यादों के बीच पहुंचेंगे तो तब आपको होशियारी आ सकती है । उस होशियारी पर कोई अमल करने से आपको रोकने के लिए आपकी गर्दन के साथ मेरे उस हाथ में थमी रिवॉल्वर की नाट सटी होगी जिसकी बांह सहारे के लिए आपके कंधों के गिर्द लिपटी होगी । अठवले साहब, बाहर आपके होशियारी दिखाने की वजह से जो पहली लाश गिरेगी, वो आपकी होगी । दूसरी लाश हो सकता है मेरी गिरे लेकिन मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि परलोक पहुंचने की आप द्वारा शुरू की जाने की दौड़ में अव्वल आप ही आएंगे । आप अव्वल आना चाहते हैं ?”
उसने तत्काल इनकार में सिर हिलाया ।
“गुड । आप समझते हैं न कि यहां से मुझे सुरक्षित बाहर निकालना अब आपका काम है । किसी ने मेरी घायलावस्था पर या मेरे आपके आला अफसर होने पर शक करने की सूरत में आप ही ने मैदान संभालना है और सबकी तसल्ली करानी है । ओके ?”
उसने हामी भरी ।
“आप कर लेंगे ये काम ?”
उसने फिर हामी भरी ।
“गुड ।”
विमल ने उसकी रिवॉल्वर में से गोलियां निकालकर खाली रिवॉल्वर उसे सौंप दी जो कि उसने चुपचाप अपने होल्स्तर में रख ली । तीसरी रिवॉल्वर को उसने अपने हाथ में थाम लिया । फिर उसने अपनी पीक कैप को अपने माथे पर आंखों तक झुका लिया और आगे बढकर बंद दरवाजे की चिटकनी सरकाकर उसे खोला ।
बाहर सत्राटा था ।
“चलो ।” - वह बोला ।
अठवले ने तत्काल आदेश का पालन किया ।
दोनों बाहर निकले ।
विमल ने रिवॉल्वर वाले हाथ वाली अपनी बांह अठवले के कंधे के गिर्द यूं लपेट दी कि रिवॉल्वर की नाल अठवले के दाएं कान के पीछे जा लगी । उसके कहने पर अठवले ने अपनी बाई बांह उसकी कमर में डाल दी । फिर दोनों यूं आगे बढे जैसे बिना सहारे से चल पाने में असमर्थ एक पुलिसिए को दूसरा पुलिसिया सहारा देकर चला रहा हो ।
यूं ही दोनो आगे बढते हुंए उस रास्ते पर पहुंचे जो आगे सीधी फाटक तक जा रहा था । यूं वहां से निकलने का सामान करने में नोटों से भरा सूटकेस पीछे कूड़े के ड्रम में ही छूटा जा रहा था लेकिन उस घड़ी विमल को सूटकेस का ख्याल तक नहीं आ रहा था । उस घड़ी तो एक ही बात अहम थी ।
उसने वो मौका चूके बिना सुरक्षित बाहर निकलना था ।
वे आगे बढते रहे ।
तभी पीछे से कार की आवाज हुई । विमल ने बौखलाकर पीछे देखा । एक काली एम्बेसेडर पीछे आ रही थी ।
“चलते रहो ।” - वह अठवले के कान में फुसफुसाया ।
लेकिन तभी कार उनके पहलू में पंहुच गई और चींटी की रफ्तार से उनके साथ चलने लगी ! कार की पिछली सीट का उनकी ओर वाला शीशा नीचे सरकाया गया और फिर विमल को इकबालसिंह की आवाज सुनाई दी ।
“क्या हुआ ?”
“कहानी याद है ?” - विमल दांत भींचकर अठवले के कान में बोला ।
“याद है ।” - अठवले बोला । दूसरे कान के साथ सटी रिवॉल्वर की नाल भला कैसे उसे कहानी भूलने दे सकती थी !
“ठीक जवाब मुंह से निकले ।”
अठवले ने सहमति में सिर हिलाया और फिर कार की ओर मुंह करके बोला - “डी.सी.पी. साहब जख्मी हो गए हैं ।”
“अरे !” - इकबालसिंह बोला - “कैसे ?”
“अंधेरे में दरवाजे के आजू-बाजू बंधी एक तार में पांव उलझ गया ।”
“उसी हरामजादे की करतूत है ।” - कार में मौजूद डोंगरे बोला - “साले ने जगह-जगह ऐसे फंदे लगाए हुए हैं ।”
“डी.सी.पी. साहब आए कब ?” - हकबालसिंह बोला ।
“थोड़ी ही देर पहले आए थे ।” - अठवले बोला - “फाटक पर पता लगा आप भीतर हैं । हम आपकी तलाश में निकले थे कि डी.सी.पी. साहब चोट खा गए ।”
“क्या बहुत ज्यादा चोट लगी है ?”
“टांग की चोट तो फिक्र के काबिल नहीं है लेकिन सिर बुरी तरह से फटा है ।”
“जा कहां रहे हो ?”
“बाहर ! साहब की कार बाहर फाटक पर खड़ी है ।”
“ओह ! ठहरो, मैं पहुंचाता हूं तुम्हें बाहर तक । तुम दोनों” - वह अपने दाएं-बाएं बैठे बाडीगार्डो से बोला - “बाहर निकलो ।”
दोनों बाडीगार्ड अपनी-अपनी तरफ का दरवाजा खोलकर तत्काल बाहर निकल गए ।
“पैदल बाहर तक पहुंचो ।” - इकबालसिंह ने आदेश दिया ।
दोनों सहमति में सिर हिलाते हुए तत्काल फाटक की ओर बढे ।
गाड़ी में आगे ड्राइविंग सीट पर अभी भी डेविड और एक और बॉडीगार्ड उसकी बगल में बैठे थे ।
“डी.सी.पी. साहब को गाड़ी में बिठाओ ।” - इकबालसिंह ने आदेश दिया ।
अठवले हिचकिचाया । उसने विमल की ओर देखा ।
विमल ने हौले से सहमति में सिर हिलाया ।
अठवले ने पहले विमल को अपने से आगे कार में धकेला और फिर स्वयं भी भीतर दाखिल हो गया ।
विमल अठवले और इकबालसिंह के बीच सैंडविच बना बैठ गया । उसने अपना सिर अपनी छाती पर डाला हुआ था और वह बड़े दयनीय भाव से हौले-हौले कराह रहा था ।
कार आगे बढी । फाटक पर पहुंचने से पहले ही डोंगरे ने कार का हॉर्न बजाना आरंभ कर दिया ।
एक प्यादा दौड़ता हुआ फाटक पर पहुंचा । उसने ताला खोला और फाटक के पल्ले एक-दूसरे से परे ठेल दिए ।
कार फाटक से बाहर निकली । पीछे फाटक बंद हो गया ।
तब सड़क पर लगी ट्यूब लाइट की रोशनी सीधी कार के भीतर पड़ी । इकबालसिंह ने विमल की तरफ आंख उठाई तो उसके नेत्र फट पड़े । लेकिन उसके मुंह से एक भी लफ्ज निकलने से पहले विमान ने रिवॉल्वर की बाल इकबालसिंह की कनपटी से सटा दी ।
“गाड़ी रुकने न पाए ।” - वह क्रूर स्वर में बोला - “गाड़ी रुकी तो तेरी सांस भी रुक जाएगी ।”
तब तक आगे बैठे तीनों जने पीछे की हौलनाक हालत से वाकिफ हो चुके थे ।
“चलते रहो ।” - इकबालसिंह भयभीत भाव से बोला - “रोको नहीं ।”
कार रोकने को तत्पर डोंगरे ने हिचकिचाते हुए फिर रफ्तार बढा दी ।
“चलूं किधर ?” - वो बोला ।
“किधर भी चल ।” - जवाब विमल ने दिया - “ठीक है न, इकबालसिंह ?”
“किधर भी चल ।” - इकबालसिंह बोला ।
अगले पांच मिनट कार अपरिचित सड़कों पर दौड़ती रही है ।
“रोको !” - एकाएक विमल बोला ।
तत्काल कार रुकी ।
“ड्राइवर के अलावा” - विमल बोला - “सब जने कार से उतर जाएं ।”
“ड्राइवर के अलावा” - इकबालसिंह ने तोते की तरह रटा - “सब जने कार से उतर जाओ ।”
पिछली सीट से अठवले और अगली सीट से डेविड और उसका जोड़ीदार बॉडीगार्ड कार से निकलकर फुटपाथ पर जा खड़े हुए ।
“कोई पीछे आने की कोशिश न करे ।” - विमल बोला ।
“कोई पीछे आने की कोशिश न करे ।” - इकबालसिंह बोला ।
“ड्राइवर को अपना हथियार कार से बाहर फेंकने को बोल ।”
“डोंगरे ! अपनी रिवॉल्वर कार के बाहर फेंक ।”
आतंकित डोंगरे ने आदेश का पालन किया ।
“कार चलवा ।” - विमल बोला ।
“कार चला ।” - इकबालसिंह बोला ।
“किधर ?” - डोंगरे सस्पैंस-भरे स्वर में बोला ।
“सीधे !” - विमल बोला - “सामने ।”
कार फिर सड़क पर दौड़ चली ।
विमल ने इकबालसिंह का बदन टटोला और फिर उसके शोल्डर होल्स्टर से उसकी भी रिवॉल्वर बरामद की । उसने वह रिवॉल्वर चलती कार से बाहर फेंक दी ।
तब पहली बार विमल ने अपने शरीर को ढीला छोड़ा और चैन की सांस ली ।
उसकी दुश्वारी के आखिरी क्षणों में तकदीर ने उसका ऐसा साथ दिया था कि सब वारे-न्यारे हो गए थे ।
वो न केवल उस चूहेदान से सुरक्षित बाहर निकल आया था बल्कि इकबालसिंह भी उसके कब्जे में था ।
तेरा अंत न जाणा मेरे साहिब - वह मन-ही-मन बोला - मैं अंधुले क्या चतुराई ।
फिर उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट आई । वह इकबालसिंह की तरफ घूमा ।
“कैसा है इकबालसिंह ?” - वह बोला ।
इकबालसिंह से जवाब देते न बना ।
“बड़ी दिलेरी दिखाई जो मेरे पीछे चला आया । सोचा होगा उस चूहेदान में फंसा सोहल अब किस काम का रह गया होगा ! मेरी मौत का नजारा अपनी आंखों से देखने का लालच न छोड़ सका । यही बात थी न ?”
इकबालसिंह खामोश बैठा रहा ।
“मेरी खिल्ली उड़ाना चाहता था न मेरे सामने खड़ा होकर ! मेरे मुंह पर कहना चाहता था आया बड़ी धमकी देने वाला ! कहता था जान से मार दूंगा । जिंदा नहीं छोडूंगा । अब अपनी जान के लाले पड़े हैं । अपने प्यादों के सामने अपनी हेकड़ी कायम करके अपनी नाक ऊंची रखना चाहता था न ! तभी दौड़ा चला आया ! मैं पहले मर जाता तो मौका हाथ से निकल जाता, तेरी तसल्ली होने से रह जाती ! यही बात थी न ?”
इकबालसिंह ने जोर से थूक निगली । हकीकतन बात तो वहीं थी लेकिन वो अपनी जुबान से कैसे कबूल करता !
“इकबालसिंह, बाबे के घर देर है, अंधेर नहीं । तेरे जैसे आर्गेनाइज्ड क्राइम के बड़े महंत का संहार करने के लिए अगर उसने मुझे बनाया है तो तू मेरे ही हाथों मरेगा ।”
“तू... तू मुझे... क... क्यों मारना चाहता है ?”
“तुझे नहीं मालूम ? भूल गया मैंने तुझे क्या वार्निंग देकर तेरी जानबख्शी की थी ? बाज आया तू बखिया की जगह बखिया बनने से ?”
“बखिया की कुर्सी खाली थी । उसे मैं ने कब्जाता तो कोई दूसरा कब्जा लेता । बात तो वहीं-की-वहीं रहती ।”
“नहीं रहती । फिर उस दूसरे का भी वही हश्र होता जो तेरा होने वाला है ।”
इकबालसिंह ने फिर थूक निगली ।
“तू बखिया इसलिए बना क्योंकि तू समझता था कि तेरे एक बार बखिया के निजाम पर काबिज हो जाने के बाद मैं तेरे करीब भी नहीं फटक सकता था । मेरे जैसा एक अदना इंसान फटक भी कैसे सकता था एक ऐसे आदमी के करीब जो बेशुमार प्यादों से घिरा किले जैसे होटल में रहता हो, बुलेटप्रूफ गाड़ी में चलता हो और हर वक्त बॉडीगार्डों से घिरा रहता हो ! लेकिन जब देवता दांए न हों, जब मुकद्दर दगा दे जाए तो सब इंतजाम धरे रह जाते हैं । अब बोल, तैयार है मरने के लिए ?”
“सोहल, मुझे मत मार ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि इसमें तेरी एक भलाई है ।”
“मेरी क्या भलाई है इसमें ?”
“मेरे पास तेरे लिए एक ऐसी खबर है जिसे सुनकर तू मेरे सौ खून माफ कर सकता है ।”
“क्या बकता है !”
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“ऐसी क्या खबर है तेरे पास ?”
“बताता हूं । पहले मेरी जानबख्शी का वादा कर ।”
“पागल हुआ है ! तेरी जान तो इस वक्त मेरी जिंदगी का वाहिद मकसद है ।”
“जो खबर तुझे मैं सुना सकता हूं, वो तेरी जिंदगी का मकसद बदल देगी ।”
“इकबालसिंह, अगर तू समझता है कि अपनी लच्छेदार बातों से तू मुझे बरगला सकता है तो गलत समझता है ।”
“मैं तुझे बरगलाना नहीं चाहता, सरदार । मैं तो ये चाहता हूं कि जो शुभ समाचार तुझे मैं सुनाने जा रहा हूं, उससे खुश होकर तू मेरी जानबख्शी कर दे । इस वक्त तू वक्त का हाकिम है, बादशाह है । बादशाहों को जब खुशी होती है तो वो अपनी रिआया को बेशुमार रियायतों से नवाजते हैं, लोगों को इनाम-इकराम से मालामाल कर देते हैं, जेलों के दरवाजे खोल देते हैं, सूली पर टांगे जाने के लिए तैयार कैदियों को माफी अता फरमाते हैं । क्या तू ऐसा कुछ नहीं करेगा...”
“इकबालसिंह” - विमल संदिग्ध भाव से उसे घूरता हुआ बोला - “मौत को सिर पर खड़ी देखकर तेरा दिमाग तो नहीं हिल गया ? अपनी जिंदगी की आखिरी घड़ियों में तू पागल तो नहीं हो गया ?”
“नहीं । मैं पागल नहीं हो गया । मैं जो कह रहा हूं, सोच-समझ के कह रहा हूं ।”
“लेकिन तेरा सोच-समझ के कहा मेरी समझ में भी तो आए !”
“समझने की कोशिश कर, सरदार । सोच । दिमाग पर जोर दे । अपनी गुजश्ता जिंदगी को याद कर और फिर फैसला कर कि तेरे लिए ऐसा शुभ समाचार क्या हो सकता है जिससे खुश होकर तू मेरी ही क्या, मेरे जैसे अपने सौ गुनहगारों की जानबख्शी कर सकता है !”
विमल सोच में पड़ गया ।
“सरदार, बखिया की लाश के सिरहाने खड़े होकर अपनी जुबान से निकाली एक बात को याद कर । तूने कहा था जिस्म से रूह अलग कर दी जाए तो जिस्म जिंदा नहीं रह सकता था । लेकिन रूह अगर जिस्म से आने मिले तो ? तो ? तो क्या होगा, सरदार ?”
“तू” - विमल उसे घूरता हुआ बोला - “नीलम की बात कर रहा है ?”
“तेरे जिस्म के लिए रूह का दर्जा रखने वाली और कौन हो सकती है ?”
“लेकिन वो तो मर गई । तुम हरामजादों के बेपनाह जुल्मो-सितम की शिकार होकर मर गई । तूने खुद नीलम की मौत की तसदीक की थी । तूने खुद कहा था कि ‘कंपनी’ का तब का सिपहसालार घोरपड़े नीलम की लाश को समुद्र में डुबोकर आया था ?”
“मैंने झूठ कहा था ।”
“सच कह रहा है ?”
“अब सच कह रहा हूं । तब झूठ कहा था ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि उस वक्त मैं नीलम को मरा न बताता तो तू उसकी बरामदी की जिद करता । उस वक्त तू ताजा-ताजा बखिया को मार के हटा था और बाजी तेरे हाथ में थी । उस वक्त मैं तेरी जिद पूरी करके न दिखाता तो तू मुझे भी मार डालता । लेकिन मैं तेरी वो जिद किसी सूरत में पूरी करके नहीं दिखा सकता था । मैं नीलम को तेरे सामने हाजिर नहीं कर सकता था ।”
“हाजिर कर नहीं सकता था या हाजिर करना नहीं चाहता था ?”
“हाजिर कर नहीं सकता था । मेरा यकीन कर, सरदार । उस घड़ी मैं नीलम को हाजिर कर नहीं सकता था । इसीलिए तब मैंने कह दिया कि वो मर चुकी थी । मैंने कह दिया कि घोरपड़े उसकी लाश को समुद्र में डुबोने गया था ।”
“अगर नीलम तब जिंदा थी तो कहां थी ! अब कहां हैं वो ?”
“बताऊंगा । सब बताऊंगा । लेकिन पहले मेरी जानबख्शी का वादा कर ।”
“मेरे वादे पर एतबार कर लेगा ?”
“हां ।”
“वादाखिलाफी क्या बड़ी बात है ?”
“औरों के लिए कोई बड़ी बात नहीं । लेकिन तेरे लिए बहुत बड़ी बात है । सरदार सुरेंद्रसिंह सोहल अगर अपनी जुबान से फिर जाएगा तो मुझे उसके हाथों खुशी-खुशी मर जाना मंजूर होगा ।”
विमल ने अपलक उसे देखा ।
“अंडरवर्ल्ड में” - इकबालसिंह धीरे से बोला - “तेरी जुबान टकसाली सिक्के की हैसियत रखती है ।”
“इकबालसिंह, कहीं तू ये इशारा तो नहीं कर रहा कि नीलम को तूने गिरफ्तार किया हुआ है और अब अपनी जान का बदला उसकी जान से करना चाहता है !”
“ऐसा होता तो फिर बात ही क्या थी !” - इकबालसिंह के होंठों पर एक फीकी हंसी आई - “ऐसा होता तो फिर क्या मुझे आज का दिन देखना पड़ता ! फिर मैं नीलम की जान के बदले में तेरी जान की मांग न करता ! जो शख्स अपने दोस्त की जान के बदले में अपनी जान पर खेल जाने को तैयार हो सकता हो, वो अपनी ‘जान’ की जान के बदले में क्या कुछ न करता ! तू तुकाराम के लिए दौड़ा होटल सी-व्यू पहुंचा, नीलम के लिए तो उड़ के आता । पहले भी तो आया था ।”
विमल कई क्षण खामोश रहा ।
“जब” - अंत में वह बोला - “नीलम मरी नहीं थी तो तू क्यों उसे हाजिर नहीं कर सकता था ? वो तुम लोगों के कब्जे में थी, कितनी भी बद हालत में थी लेकिन तुम लोगों के कब्जे में थी । फिर क्यों तू...”
“वो हमारे कब्जे में नहीं थी ।”
“क्या !”
“वो कभी हमारे कब्जें में नहीं थी ।”
“झूठ !”
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“तू न सिर्फ झूठ बोल रहा है बल्कि ऐसा झूठ बोल रहा है जो सात जन्म नहीं चल सकता ।”
“सरदार, मैं...”
“होटल सी-व्यू में नीलम जब बखिया के जुल्मों का शिकार हो रही थी उस वक्त मैं अपनी बेबसी के आलम में पगला जरूर गया था लेकिन अंधा नहीं हो गया था । क्या मैंने अपनी आंखों से नीलम को बखिया के बलात्कारियों के जुनून का शिकार होते नहीं देखा था ! बखिया के हुक्म की तामील करते हुए होटल के अदना स्टाफ ने नीलम के साथ बलात्कार किया । जो नजारा मैं देखना नहीं चाहता था, वो बखिया ने मुझे जबरन दिखाया । मेरी आंखों के सामने पता नहीं कितने जनों ने बारी-बारी नीलम की अस्मत लूटी और तू कहता है कि नीलम तुम लोगों के कब्जे में नहीं थी ।”
“मैं ठीक कहता हूं ।”
“तू बकता है । ये कैसे मुमकिन है कि...”
“सरदार, वो नीलम नहीं थी ।”
“कौन नीलम नहीं थी ?”
“वो... वो औरत जो तेरी आंखों के सामने बखिया की वहशी फरमाइशों की बलि चढी थी ।”
“मैं क्या नीलम को नहीं पहचानता !”
“जरूर पहचानता है, यकीनन पहचानता है लेकिन वो नीलम नहीं थी । जो तूने देखा, वो निगाह का धोखा था । तू उस औरत से बहुत दूर था । बीच मे वन-वे मिरर था । ऊपर से उस औरत की शक्ल नीलम से मिलती-जुलती थी इसलिए तू धोखा खा गया ।”
“मैं धोखा खा गया तो क्या बखिया भी धोखा खा गया ?”
“हां, सरदार, बखिया का उस मामले में धोखा खाना तो इंतहाई जरूरी था । हकीकत तो ये है कि बखिया को ही धोखा देने के लिए उस औरत का इंतजाम किया गया था । बखिया की नीलम से कोई अदावत नहीं थी लेकिन उस पर जुल्म तेरी सजा थी जो कि बखिया ने मुकर्रर की थी । बखिया नीलम पर जुल्म ढाकर तुझे तड़पाना चाहता था । अगर उसे खबर लग जाती कि वो औरत नीलम नहीं थी तो उसका मकसद कैसे पूरा होता !”
“वो औरत नीलम नहीं थी !” - विमल होंठों से बुदबुदाया ।  
“सरदार, मेरा यकीन कर ।”
“तो फिर नीलम कहां है ?”
“वो भी मालूम पड़ जाएगा लेकिन पहले मैं अपनी जान की अमान तो पाऊं ! पहले मैं तेरी जुबानी ये तो सुन लूं कि तूने मेरी जानबख्शी की !”
“अगर नीलम जिंदा है तो...”
“वो अब किसी दुर्घटना का शिकार होकर मर गई हो या मलेरिया या टायफाइड ने उसकी जान ले ली हो तो मैं कह नहीं सकता लेकिन इतनी मैं गारंटी करता हूं कि ‘कंपनी’ के हाथों उसका बाल भी बांका नहीं हुआ था, वो बखिया के कहर का शिकार कभी नहीं हुई थी ।”
“कमाल है !”
इकबालसिंह बड़े आश्वासनपूर्ण भाव से मुस्कराया ।
“क्या किस्सा है ?”
“तो तूने मेरी जानबख्शी की ?”
“की ।”
“वादा ?”
“पक्का । अगर मैं अपने वादे से फिरूं तो मुझे जिंदगी में दोबारा कभी हरमिंदर साहब की देहरी पर मत्था टेकना नसीब न हो ।”
इकबालसिंह ने चैन की एक लंबी सांस ली ।
विमल ने कार की खिड़की से बाहर झांका ।
“हम कहां हैं ?” - वह बोला ।
“धारावी बांद्रा लिंक रोड पर ।” - डोंगरे बोला ।
“इतनी दूर आ गए !” - विमल के मुंह से निकला ।
डोंगरे खामोश रहा ।
“गाड़ी को बांद्रा स्टेशन ले के चल ।”
इकबालसिंह के अनुमोदन के बिना डोंगरे ने आदेश का पालन किया । वो क्या जानता नहीं था कि जो आदमी आदेश दे रहा था, उस घड़ी उसका बॉस उसके सामने मिमिया रहा था !
“पार्किंग में रोक ।” - स्टेशन आ गया तो विमल ने अगला आदेश दिया ।
डोंगरे ने गाड़ी पार्किंग में लगाकर रोकी ।
“जा सैर करके आ ।” - विमल बोला - “चाबी इग्नीशन में छोड़ के जा ।”
डोंगरे तत्काल गाड़ी से बाहर निकला ।
“दस मिनट में लौटना ।” - विमल बोला ।
डोंगरे ने सहमति में सिर हिलाया ।
“इकबालसिंह, अपने सिपहसालार को समझा कि ये सिपहसालारी के कोई जौहर दिखलाने का वक्त नहीं ।”
“डोंगरे” - इकबालसिंह बोला - “कुछ नहीं करने का है । सिर्फ दस मिनट इधर-उधर घूम के वापिस लौट आने का है । समझा ?”
डोंगरे ने फिर सहमति में सिर हिलाया और आगे बढ गया ।
उसके दृष्टि से ओझल हो जाने तक विमल खामोश रहा । फिर सबसे पहले उसने अपनी टांग और सिर पर बांधी पट्टियों को तिलांजलि दी और अपना पाइप सुलगाया ।
“पीछे” - इकबालसिंह बड़ी आत्मीयता-भरे स्वर में बोला - “स्टूडियो में होशियारी खूब दिखाई तूने । मेरे को तो सपने में भी...”
“शटअप !” - विमल सांप की तरह फुफकारा ।
इकबालसिंह हड़बड़ाकर चुप हो गया ।
“इकबालसिंह, तेरे-मेरे में जो समझौता हुआ है, वो कारोबारी है । वो समझौता ये है कि मैं तेरी जानबख्शी करूंगा और तू मुझे नीलम से मिलवाएगा । इस समझौते की रू में अब तू मेरा यार नहीं हो गया है । समझा !”
इकबालसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।
“आर्गेनाइज्ड क्राइम के और उसके बड़े महंतों के मैं आज भी उतना ही खिलाफ हूं जितना पहले था । और आगे भी रहूंगा । अपनी आइंदा जिंदगी का कोई लक्ष्य निर्धारित करते समय ये बात भूल न जाना । याद रखना ये बात ।”
वो खामोश रहा ।
“अब बोल क्या किस्सा है नीलम का ? कहां हो वो ?”
“पता नहीं ।”
“क्या मतलब ?” - विमल कहर-भरे स्वर में बोला ।
“मेरा मतलब है” - इकबालसिंह तनिक हड़बड़ाकर बोला - “वो वहीं होगी जहां तूने उसे ट्रेन से भेजा था ।”
“चंडीगढ ?”
“जहां भी तूने उसे भेजा था ।”
“बखिया ने चंडीगढ का नाम लिया था ?”
“अंदाजन लिया था । तू होटल सी-व्यू में नीलम के साथ चंडीगढ से आए हनीमूनिंग कपल के तौर पर जो ठहरा था ।”
“नीलम को तुम लोगों ने ट्रेन से नहीं उतारा था ?”
“हमें उसके ट्रेन पर सवार होने की खबर होती तो उतारते न ?”
“लेकिन बखिया ने मुझे नीलम का सूटकेस दिखाया था, उसकी टांग से उतरा प्लास्टर का खोल दिखाया था, उसके सिर से उतरा अधपके बालों वाला विग दिखाया था, उसका सैकेंड क्लास एयरकंडीशंड स्लीपर का दिल्ली का टिकट दिखाया था !”
“वो सब फर्जी, बाद में गढकर तैयार किया गया, माल था ।”
“वो सब माल नीलम से नहीं लिया गया था ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । नीलम तो कभी हमारे हाथ लगी ही नहीं ।”
“तुम्हें उसके ट्रेन के सफर की खबर नहीं ?”  
“खबर लगी थी लेकिन बाद में, बहुत बाद में । वो भी अंदाजन ।”
“अंदाजन क्यों ? मैंने तो ‘कंपनी’ के दो आदमी रेलवे स्टेशन की निगरानी करते देखे थे ।”
“हां । उस्ताद और दामू नाम के हमारे दो आदमी स्टेशन के मेन गेट पर तैनात थे । उन्हीं की रिपोर्ट से बाद में मैंने ये अंदाजा लगाया था कि असल में क्या हुआ होगा । स्टेशन पर दामू नाम का जो प्यादा तैनात था उसके बात की बारीकी नोट करने की कोई खुदाई कूवत हासिल थी लेकिन उसका उस्ताद कदरन मंदबुद्धि आदमी था । जब तू नीलम को गाड़ी में चढाकर गाड़ी के चल देने के बाद कुली के बहुरूम में व्हील चेयर के साथ बाहर निकला था तो दामू ने उस्ताद को बताया था कि किसी कुली का खाली व्हील चेयर के साथ पार्किंग की ओर जाना ठीक नहीं लगता था । उसने उस्ताद को यह भी याद दिलाया था कि पहले बोरीवली स्टेशन पर भी तू कुली के बहुरूप में ही दिखाई दिया था । तब कहीं जाकर उस्ताद को सूझा था कि व्हीलचेयर वाला कुली सोहल हो सकता था । तब उसने स्टेशन पर मौजूद बाकी प्यादों को भी खबरदार करवाया था कि व्हील चेयर वाला कुली स्टेशन से निकलकर न जाने पाए लेकिन भगवान जाने कैसे से वहां से ‘कंपनी’ के बेशुमार प्यादों और पुलिसवालों का घेरा तोड़कर निकल भागा था । कैसे निकल भाग था ?”
“आगे बढ ।” - विमल बेसब्रेएन से बोला ।
“तू तो हाथ नहीं आया लेकिन व्हील चेयर और कुली की कहानी घोरपड़े ने खुद स्टेशन जाकर तफ्तीश करके सुलझाने की कोशिश की । तब वहां से पूछताछ का नतीजा ये निकला कि उस रोज दिल्ली की ट्रेन की रवानगी के वक्त तक असिस्टेंट स्टेशन मास्टर के ऑफिस से किसी कुली ने कोई व्हील चेयर इशू नहीं कराई थी । लेकिन एक व्हील चेयर एक अपाहिज जनाना मुसाफिर के साथ स्टेशन में दाखिल होती देखी गई थी । इससे ये नतीजा निकाला कि व्हील चेयर और जनाना मुसाफिर का तू एडवांस में इंतजाम करके वहां पहुंचा था और वो जनाना मुसाफिर जाहिर था कि नीलम के अलावा कोई हो ही नहीं सकता था । स्टेशन पर मुसाफिरों की तहकीकात के लिए तैनात एक लेडी सब-इंस्पेक्टर और खुद उस्ताद और दामू के बयानात से व्हील चेयर के जनाना मुसाफिर का हुलिया सामने आया । अधपके बाल और टांग पर चढे प्लास्टर का हर किसी ने जिक्र किया । सरदार, तमाम बातों को जमा करके उनसे कोई नतीजा निकालने में इतना वक्त लग गया कि नीलम की ट्रेन दिल्ली पहुंच गई । यानी कि अब ये समझ में आ जाने के बादवजूद भी कि नीलम किस बहुरूप में ट्रेन में सवार थी, हम उस पर हाथ नहीं डाल सकते थे । उधर बखिया की हालत दीवानगी की हद को भी पार करती जा रही थी । अपनी लिटल ब्लैक बुक के लिए, जो कि तेरे कब्जे में थी, वो यूं तड़प रहा था जैसे पानी बिना मछली तड़पती है । तब बखिया की हालत ऐसी थी कि हमें तो यही दहशत लगी रहती थी कि उसे ब्रेन हैमरेज न हो जाए या उसे दिल का दौरा न पड़ जाए । तुकाराम के छोटे भाई की बेमिसाल बहादुरी की वजह से नीलम तो बखिया के हाथ से निकल गई थी लेकिन डायरी वापिस लौटकर नहीं आई थी । वो जानता था कि तेरे पर अगर कोई चीज दबाव डाल सकती थी तो वो नीलम की सलामती ही थी । इस लिए ज्वालामुखी की तरह भभकता वो क्या मुझे और क्या अपने सिपहसालार घोरपड़े को बार-बार एक ही बात कह रहा था कि नीलम लाओ, नीलम लाओ नीलम लाओ । उस घड़ी उसकी ये हालत थी कि या तो वो खुद मर जाता या हममें से किसी को मार गिराता । उसकी उस दीवानगी का इलाज नीलम थी इसलिए हमने उसके लिए नीलम पैदा की ।”
“कैसे ?”
“डोंगरे, जो इस वक्त कंपनी का सिपहसालार है, तब घोरपड़े का जोड़ीदार हुआ करता था और दोनों दंडवते के मामूली प्यादों से जरा बेहतर हैसियत के शख्स थे । घोरपड़े पर कंपनी के ओहदेदार ज्ञान प्रकाश डोगरा की कृपादृष्टि रहती थी इसलिए उसकी और उसके तब के जोड़ीदार डोंगरे की अकड-फूं बाकी प्यादों से ज्यादा थी । दोनों कमाठीपुरे में रहते थे और दोनों का ही करीबी फारस रोड के रंडी बाजार में आना-जाना मुतवातर बना रहता था । बखिया के उस दीवानगी के दौर में एकाएक ही डोंगरे ने जिक्र किया कि फारस रोड पर उसने एक बाई देखी थी जिसकी शक्ल-सूरत और कद-काठ मोटे तौर पर तुम्हारी नीलम से मिलता-जुलता था । मैंने फौरन कांता नाम की उस बाई को बुलवाया तो पाया कि डोंगरे ठीक कहता था । तब बखिया के धधकते ज्वालामुखी को शांत करने की तरकीब मुझे सूझी । मुझे लगा कि कुछ चतुराई से किए गए मेकअप की मदद से और कुछ असली नीलम की जानकारी में आई बैकग्राउंड से मदद लेकर कांता को बखिया की निगाहों में नीलम कहकर चढाया जा सकता था ।”
“वो लड़की - कांता - मान गई नीलम बनने के लिए ?”
“एक मोटी फीस की एवज में नीलम बनने से तो उसे कोई एतराज नहीं था लेकिन जब उसे बताया गया कि उसके नीलम पास हो जाने के बाद बखिया के हाथों उसकी क्या दुर्गत होने वाली थी तो उसके प्राण कांप गए । बड़ी मुश्किल से मैं उसे यह तसल्ली दे पाया कि उसकी दुर्गत तो यकीनन बहुत होगी लेकिन वो मरेगी नहीं । आखिर वो एक पेशेवर वेश्या थी । एक रात में डेढ-दो दर्जन आदमी अपने पर से उतार लेना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, बाकी रह गई नोच-खसोट की, जुल्मोसितम की बात तो उसको सहने के लिए वो पांच लाख रुपए की मोटी फीस के बदले तैयार हो गई ।”
“फिर ?” - विमल मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“फिर हमने एक प्लास्टर ऑफ पेरिस का टांग का खोल तैयार करवाया, एक अधपके बालों वाला जनाना विग मुहैया किया, जनाना कपड़ों से भरा एक सूटकेस पैदा किया, दिल्ली का एक टिकट मंगवाया जिस पर से तारीख पढने की बखिया ने तकलीफ तक न की और उस साजोसामान के साथ कांता को नीलम बनाकर बखिया के सामने ये कहकर पेश कर दिया गया कि उसे दिल्ली जाती ट्रेन पर से रास्ते में ही उतार लिया गया था । बखिया की बांछें खिल गईं । यहां गौरतलब बात ये है कि कथित नीलम की बखिया ने भी तेरी तरह फासले से ही देखा था, वन-वे मिरर के रास्ते ही देखा था । उस नकली नीलम से जैसे बखिया धोखा खा गया, वैसे ही तू भी धोखा खा गया ।”
“ओह !”
“फिर तेरी निगाहों के सामने बखिया के प्रतिशोध का ड्रामा उस कांता नाम की नीलम बनी बाई पर हौलनाक जुल्मोसितम की सूरत में पेश हुआ । तू बखिया के कोड़े खाता रहा और नीलम बनी वो औरत बलात्कार सहती रही । यूं ही ये ड्रामा तब तक चला जब तक तुम दोनों बेहोश न हो गए ।”
“फिर ?”
“फिर मैंने बखिया को बताया कि तू तो होश खोकर उसके कहर से वक्ती तौर से निजात पा गया था लेकिन लड़की पर बलात्कार करते ‘कंपनी’ के स्टाफ के आदमियों का जोशोखरोश अपना आपा खो बैठा था । जुनून के आलम में उन्होंने चम्मच, कांटे, छुरियां, बियर की बोतलों, टेनिस के रैकेट के हत्थों, कुर्सी के पायों, और टॉर्चों से लड़की की दुर्गत करनी आरंभ कर दी थी । नतीजा ये हुआ कि लड़की मर गई थी । बाद में जब तू आजाद होकर बखिया के पास पहुंचा था तो उसने यही कहानी और नमक-मिर्च लगाकर तुझे सुना दी थी जिसकी वजह से आपे से बाहर होकर तूने उसे शूट कर दिया था ।”
इकबालसिंह चुप हो गया ।
“तो” - विमल भी कई क्षण की खामोशी के बाद मंत्रमुग्ध स्वर में बोला - “नीलम जिंदा है ?”
“अगर कोई अनहोनी नहीं हुई तो ।” - इकबालसिंह बोला - “मेरा मतलब है कम-से-कम ‘कंपनी’ के लिए उसका बाल भी बांका नहीं हुआ है । जहां कहीं भी तूने उसे भेजा था जरूर वो आज भी वहां बैठी तेरा इंतजार कर रही होगी ।”
“यकीन नहीं आता ।”
“आ जाएगा । आ जाएगा ।”
“तूने मेरे साथ बहुत जुल्म किया, इकबालसिंह । चार महीने, चार महीने नीलम की याद में, जहन्नुम की आग में झुलसता रहा मैं । उसकी फिराक में मैं खुद भी मर गया होता तो कोई बड़ी बात न होती ।”
“जो बीत गई सो बीत गई ।”
“मुझे अभी भी एतबार नहीं आ रहा कि वो जिंदा है ।”
“जब आंखों से उसे जिंदा देख लेगा तब तो एतबार करेगा ?”
“हां । तब तो एतबार करूंगा लेकिन पहले मैं कुछ और देखना चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“मुझे वो लड़की दिखा जिसे तूने नीलम बनाया था ।”
“वो लड़की...”
“तू अभी खुद बोला कि तूने महज कहा था बखिया को कि वो लड़की मर गई थी लेकिन असल में वो नहीं मरी थी । अगर वो लड़की जिंदा है तो मुझे दिखा ।”
“तू उससे मेरी बात की तसदीक करेगा ?”
“हां ।”
“ठीक है ! डोंगरे को लौटने दे ।”
“वो कहां पाई जाती है ?”
“शायद वहीं फारस रोड पर ही ।”
“शायद !”
“हां । पक्के तौर से तो डोंगरे ही बताएगा ।”
तभी खंखारकर अपनी उपस्थिति का आभास कराता डोंगरे वापिस लौटा ।
इकबालसिंह के इशारे पर वो फिर कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया ।
“वो लड़की” - इकबालसिंह बोला - “कांता, जिसे हम ने नीलम बनाया था, अभी भी फारस रोड पर ही होती है ?”
“हां ।” - डोंगरे बोला ।
“अभी भी धंधा करती है ?”
“हां लेकिन अब स्टाइल से धंधा करती है । अपना फ्लैट बना लिया है । और भी बड़े ठाट हैं आजकल उसके । माल वही है लेकिन ठाट-बाट की वजह से पहले से दस गुना पैसे लेने लगी है और ग्राहक तो...”
“बस, बस ।” - विमल मुंह बिगाड़कर बोला ।
“फारस रोड चल ।” - इकबालसिंह बोला - “सरदार कांता से मिलना चाहता है ।”
डोंगरे ने सहमति में सिर हिलाया और कार का इंजन ऑन किया ।
***
विमल ने अवाक कांता का मुआयना किया ।
वह और इकबालसिंह कार में ही बैठे रहे थे जबकि डोंगरे कांता को वहां बुला लाया था । कृत्रिम प्रकाश में दूर से चली आती कांता को विमल ने देखा तो उसके मुंह से सिसकारी निकल गई । फासले से तो वह एकदम नीलम लगती थी लेकिन ज्यों-ज्यों वह करीब आती गई, उसका भ्रम टूटता गया । विमल ने उसे आमने-सामने देखा तो उसकी और नीलम की सूरत में कई फर्क दिखाई दिए । एक तो वो उम्र में ही नीलम से बड़ी थी । दूसरे उसके चेहरे पर एक व्यवसायसुलभ कठोरता थी जो नीलम के चेहरे पर सदा खेलती मोहक मुस्कान से कतई मेल नहीं खाती थी । उसके पूरे व्यक्तित्व में एक बेबाकी और दुनियादारी की झलक थी जिसकी परछाईं भी नीलम में नहीं थी जबकि कभी खुद नीलम भी कॉलगर्ल ही होती थी, जबकि नीलम से उसकी पहली मुलाकात उसका कथित ग्राहक बनकर ही हुई थी ।
फिर भी विमल को ये कबूल करना पड़ा कि फासले से उसे देखकर नीलम का धोखा बखूबी खाया जा सकता था ।
इकबालसिंह की कहानी की तसदीक की खातिर उसने कांता से कई सवाल किए जिसका एकदम सही और सटीक जवाब उसे मिला ।
तब पहली बार उसे एतबार आया कि नीलम जिंदा हो सकती थी । उसने कांता का धन्यवाद किया और उसे विदा कर दिया । डोंगरे इमारत के दरवाजे तक कांता को छोड़ने गया । एकाएक भयभीत दिखाई देने वाली कांता को वह बड़ी मेहनत से समझाने की कोशिश कर रहा था कि डर वाली कोई बात नहीं थी ।
“अब” - इकबालसिंह धीरे से बोला - “तेरा क्या इरादा है ?”
“मेरा इरादा तो साफ है ।” - विमल बड़ी संजीदगी से बोला - “मैं तो नीलम की तलाश में जाऊंगा । सवाल ये अहम है कि अब तेरा क्या इरादा है ?”
“मेरा इरादा !”
“हां । अब जबकि तेरी जानबख्शी हो चुकी है तो तू वापिस होटल सी-व्यू पहुंचेगा और जाकर बखिया के तख्त पर बैठ जाएगा ?”
इकबालसिंह ने इनकार में सिर हिलाया ।
“नहीं ?” - विमल ने नकली हैरानी जताई ।
“नहीं ।” - इकबालसिंह बड़े निर्णायक स्वर में बोला - “मैंने ‘कंपनी’ और उसके निजाम से किनारा करने का फैसला कर लिया है ।”
“अच्छा ! कब किया ये फैसला ?”
“अभी । अपने सामने खड़ी अपनी निश्चित मौत को टलते देखकर । एक बार ऐसा हो गया, दोबारा शायद न हो पाए ।”
“एकाएक बहुत ज्ञानियों-ध्यानियों जैसी बातें करने लगा है, इकबालसिंह ।”
तभी विमल ने डोंगरे को कांता से विदा लेकर इमारत के दरवाजे से लौटने को तत्पर देखा । उसने हाथ हिलाकर उसे वहीं रुके रहने का इशारा किया ।
“बात ज्ञान-ध्यान की नहीं” - इकबालसिंह बोला - “बल्कि व्यवहारिक सोच की है । सरदार, तेरी शक्ति और सामर्थ्य को कम करके तो बखिया ने भी कभी नहीं आंका था लेकिन तू पीर-पैगंबरों जैसी सलाहियात वाला, काल पर फतह पाया हुआ आदमी निकलेगा, ऐसा भी मैंने कभी नहीं सोचा था । मुझे तो लगता है कि कोई सांसारिक शक्ति तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती...”
“नानसेंस ।”
“...और लगता है कि तेरे होते मुंबई शहर में आर्गेनाइज्ड क्राइम का कोई महंत जिंदा नहीं बचने वाला ।”
विमल एक बनावटी हंसी हंसा ।
“मैं एक जुआरी हूं ।” - इकबालसिंह बोला - “मेरे उस्ताद ने मुझे यही सिखाया है कि जब गेम में आगे होवो तो उठ जाना चाहिए ।”
“अभी तू गेम में आगे है ?”
“हां । तभी तो जिंदा हूं ।”
“आगे क्या करेगा ?”
“मुंबई से कहीं दूर जाकर बीवी के साथ चैन की जिंदगी गुजारूंगा ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बड़े रहस्यपूर्ण स्वर में बोला - “पूना वाला माल वापिस मेरे कब्जे में आ गया है ।”
“फिर क्या बात है ! फिर तो मैं यही कहूंगा, इकबालसिंह, कि तूने सही फैसला किया है । बधाई ।”
“शुक्रिया ।”
“हमारे धर्मग्रंथ में लिखा है, मंदे कम्मी नानका, जद कद मंदा होए । बुरे काम का नतीजा तो बुरा ही होता है और उसने देर-सवेर सामने आना ही होता है ।”
“इससे तू भी सबक क्यों नहीं लेता ?”
“लूंगा । नीलम मिल गई तो लूंगा ।”
“वो जरूर मिलेगी ।”
“तेरे मुंह में घी-शक्कर ।”
“तो अब मैं...”
“नहीं ।” - विमल तत्काल तनिक हड़बड़ाकर बोला - “तू अभी नहीं जा सकता ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि तेरी मेरे साथ मौजूदगी ही ‘कंपनी’ को इस वक्त मेरे पीछे पड़ने से रोक के रखेगी ।”
“मैं ऐसा नहीं होने दूंगा ।”
“तेरे साथ डोंगरे भी तो है ।”
“वो मेरे से बाहर नहीं जा सकता ।”
“कंपनी’ का सिपहसालार ‘कंपनी’ के बादशाह से यकीनन बाहर नहीं जा सकता लेकिन तू तो बादशाह रहेगा नहीं ।”
“ओह !”
“जबकि डोंगरे तेरे बाद भी ‘कंपनी’ का सिपहसालार रहेगा और उसका अहम काम तब भी ‘कंपनी’ के दुश्मनों का नाश करना होगा और मैं ‘कंपनी’ का दुश्मन नंबर वन हूं ।”
“ओह ! ओह !”
“तेरे लिए दो रास्ते हैं । या तो दिल्ली तक मेरे साथ चल । या फिर यहां तब तक मेरे मेहमानों के पास नजरबंद रह जब तक कि मैं सुरक्षित मुंबई से निकल न जाऊं ।”
“मैं दिल्ली तक तेरे साथ चलता हूं ।”
“तो फिर डोंगरे को रुख्सत कर ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अब जहां मैं तुझे ले जाना चाहता हूं, वहां मैं डोंगरे को नहीं ले जा सकता ।”
“ओह !”
इकबालसिंह ने हाथ के इशारे से डोंगरे को पास बुलाया ।
“तू टैक्सी लेकर वापिस सिवरी जा ।” - इकबालसिंह ने उसे आदेश दिया - “और परिजात स्टूडियो से अपने आदमी बटोरकर होटल पहुंच ।”
“और आप...”
“मैं अभी इसके साथ हूं । कल शाम तक छूट पाऊंगा ।”
“लेकिन...”
“डोंगरे” - इकबालसिंह सख्ती से बोला - “तू खुद अपने कानों से नहीं सुना कि सरदार मेरी जानबख्शी किया ?”
“तो फिर ये आपको...”
“हर बात तेरे समझने की नहीं होती । तू जा ।”
वह हिचकिचाया ।
“अरे, बोल न ।”
“ठीक है, बाप ।”
“और जब तक मैं लौट के न आऊं किसी को कुछ बोलने का नहीं है । खासतौर से गजरे को । क्या ?”
“किसी को कुछ बोलने का नेईं है ।”
“हां । अब जा ।”
डोंगरे वहां से रुख्सत हो गया ।
“ये टेलीफोन” - विमल ने आगे कार के डैशबोर्ड पर टंगे कार फोन की ओर इशारा किया - “चलता है ?”
“कहां फोन करेगा ?”
“पास ही कहीं । फोर्ट के इलाके में ।”
“चलेगा ।”
विमल ने हाथ बढाकर टेलीफोन अपने अधिकार में किया और डायरेक्ट्री इन्क्वायरी का नंबर डायल किया । उत्तर मिला तो उसने बॉम्बे कस्टम, डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस, बॉम्बे पुलिस और नारकाटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के उच्चाधिकारियों के नंबर दरयाफ्त किए जो कि उसने नोट कर लिए । फिर सबके पहले उसने पुलिस कमिश्नर जुआरी को फोन लगाया ।
“आप इब्राहीम कालिया को गिरफ्तार करने के ख्वाहिशमंद हैं ?” - कमिश्नर लाइन पर आया तो वह बोला ।
“कौन बोल रहे हो ?” - पूछा गया ।
“मेरा नाम काला चोर है । अगर आप कालिया को गिरफ्तार करना चाहते हैं तो उसका पता नोट कर लीजिए ।”
“ऐसा करना बेकार होगा । हम उसे दुबई में गिरफ्तार नहीं कर सकते । उस कंट्री के साथ हमारी एक्स्ट्राडिशन ट्रीटी नहीं है । हम...”
“जुआरी साहब, आप मूर्ख हैं ।”
“क्या !”
“मैं आपको कालिया का मुंबई का पता बता रहा हूं ?”
“वो मुंबई में है ?”
“हां ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“आप पता नोट करना चाहते हैं या...”
“बोलो, बोलो !”
“मैरिन ड्राइव । झावेरी टावर । फ्लैट नंबर पांच सौ दो ।”
“वो वहां है ?”
“जाके मालूम कीजिए ।”
विमल ने लाइन काटी और फिर वही संदेश हासिल हुए बाकी तीन टेलीफोनों पर भी दोहराया ।
अंत में उसने फोन वापिस हुक पर टांग दिया ।
“वो” - इकबालसिंह धीरे से बोला - “वाकई वहां है ?”
“उम्मीद तो है ।” - विमल बोला ।
“सिर्फ उम्मीद ?”
“कहीं तो उसने होना ही है । इतनी जल्दी मुबई से रुख्सत तो वो हो नहीं गया होगा । अभी शाम को वो तेरे साथ ग्रांट रोड वाले फ्लैट में था लेकिन उसका वो निहायत खुफिया अड्डा एक्सपोज हो गया है । उसके बाकी अड्डों की भी मुझे खबर है । यही एक अड्डा है जिसकी वो समझता है कि मुझे खबर नहीं हो सकती । इसलिए इस वक्त उसके वहां होने की पूरी-पूरी संभावना है ।”
“नारकाटिक्स स्मगलर तो वो है ही, उस पर कई कत्लों का भी इलजाम है । पकड़ा गया तो फांसी से कम सजा नहीं पाने का ।”
“अच्छा होगा । यूं एक दगाबाज और यारमार शख्स को यही सजा मैं अपने हाथों से देने से बच जाऊंगा ।”
“हूं ।”
“इकबालसिंह, तू वाकई अपनी मौजूदा जिंदगी से किनारा कर रहा है ?”
“अब” - इकबालसिंह एक फीकी हंसी हंसा - “इस बाबत झूठ बोलने से मुझे क्या हासिल होगा ?”
“तो फिर मेरे पर एक एहसान कर ।”
“क्या ?”
“तेरे पास डॉक्टर स्लेटर की हाउस कीपर द्वारा तुझे भेजी गई मेरी, बमय नयी-पुरानी तस्वीरें, की वो मुकम्मल फाइल है जो प्लास्टिक सर्जरी से मुझे हासिल हुए मेरे नए चेहरे का पर्दाफाश करती है । अब जब तू अपना मौजूदा धंधा ही छोड़ रहा है तो वो फाइल...”
“मैं समझ गया तेरी बात । तू चाहता है उस फाइल का वजूद खत्म हो जाए !”
“चाहता तो हूं । अगर ऐसा हो जाए तो मेरी आइंदा जिंदगी आसान हो जाएगी ।”
“जो तू नीलम के साथ शराफत से गुजारना चाहता है !”
“अगर वो मिल गई तो ।”
“वो जरूर मिलेगी ।”
“देखेंगे । बात उस फाइल की हो रही थी जो...”
“सरदार” - इकबालसिंह तनिक हंसा - “वो फाइल ‘कंपनी’ को दस लाख रुपए की कीमत पर हासिल हुई थी ।”
“मैं उसकी पांच गुना कीमत देता हूं ।”
“कैसे देगा ? मुझे उस सफेद सूटकेस की खबर है जो कि तुझे कालिया ने दिया था लेकिन वो तो मुझे तेरे पास दिखाई नहीं दे रहा ।”
“वो सूटकेस पीछे परिजात स्टूडियो में है । उसे मेरे अलावा वहां से कोई नहीं ढूंढ सकता । मैं तुझे उसका पता बताता हूं । दिल्ली से लौटकर उसे कब्जा लेना ।”
“तू क्यों नही कब्जाता ?”
“क्योंकि मेरा मौजूदा हालात में वहां वापिस लौटना अपनी मौत को दावत देना होगा । क्या तेरे प्यादे और क्या वो करप्ट पुलिसिए, सब जानते हैं कि जब मैं वहां से रुख्सत हुआ था तब वो सूटकेस मेरे साथ नहीं था । वो लोग या तो सूटकेस वहां तलाश कर रहे होंगे या सूटकेस की खातिर मेरे वहां लौटने की उम्मीद में घात लगाए बैठे होंगे ।”
“जब उसे तेरे अलावा कोई ढूंढ नहीं सकता तो कुछ दिन बाद उसे हथिया लेना ।”
“कुछ दिन बाद ।” - विमल गहरी सांस लेकर बोला - “अगर नीलम मुझे मिल गई तो दोबारा तो मैं इस पाप की नगरी की शक्ल नहीं देखने वाला ।”
“अगर ऐसा है तो वो रकम मुझे मंजूर है । मेरी आइंदा जिंदगी में मेरे काम आएगी । कहां है वो स्टूडियो में ?”
विमल ने सविस्तार बताया ।
“अब फाइल का कैसे करें ?” - इकबालसिंह बोला - “फाइल लेने अकेला तो तू मुझे होटल में जाने नहीं देगा !”
विमल ने जवाब न दिया ।
“ठीक है ।” - इकबालसिंह निर्णांयक स्वर में बोला - “मैं फाइल को होटल से बाहर मंगाता हूं ।”
“किसके हाथ ?” - विमल संदिग्ध भाव से बोला ।
“अपनी बीवी के हाथ । मैं लवलीन को फोन करता हूं ।”
तत्काल विमल का सिर सहमति में हिला ।
इकबालसिंह ने फोन की ओर हाथ बढाया ।
***
अगले रोज रविवार शाम चार बजे विमल, तुकाराम और वागले चंडीगढ में थे ।
खड़े पैर प्लेन टिकट हासिल करने में ‘कंपनी’ का रसूख बहुत काम आया था । इकबालसिंह की एक टेलीफोन कॉल से ही उन्हें दिल्ली, चंडीगढ होकर श्रीनगर जाते प्लेन में चार सीटें मिल गई थीं ।
विमल ने प्लेन में उस रोज का अखबार पढा था और उसके मुखपृष्ठ पर बैनर हैडलाइंस में ये संतोषजनक खबर छपी पाई थी कि कुख्यात तस्कर और हत्यारा इब्राहीम कालिया बंबई में मैरिन ड्राइव स्थित एक फ्लैट में से गिरफ्तार कर लिया गया था । खबर के साथ हथकडि़यों से जकड़े कालिया की तस्वीर भी छपी थी । खबर में उस सनसनीखेज गिरफ्तारी को बॉम्बे कस्टम, डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस, नारकाटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और बॉम्बे पुलिस के उच्चाधिकारियों के सामूहिक प्रयासों का नतीजा बताया गया था । खबर में विमल की टेलीफोन कॉल का कहीं जिक्र न था । खबर के मुताबिक कालिया के साथ शमशेर भट्टी नाम का एक शख्स भी गिरफ्तार हुआ था लेकिन उसके व्यक्तिगत अपराधों का कोई विवरण प्रकाशित नहीं हुआ था ।
पिछली रात इकबालसिंह ने फाइल लेकर आई लवलीन को वापिस होटल भेजने के स्थान पर अपने खार वाले बंगले में भेज दिया था और स्वयं वो रात विमल, तुकाराम और वागले के साथ तुकाराम के चैम्बूर वाले मकान में गुजारी थी जहां विमल के नए चेहरे की केस हिस्ट्री वाली फाइल उसने सबके सामने नष्ट कर दी थी । उसके उस एक एक्शन ने वहां सौहार्द और आपसी भाईचारे का बड़ा सुंदर माहौल बना दिया था ।
परिजात स्टूडियो का रुख करने की कोशिश इकबालसिंह ने भी नहीं की थी । उसके कथनानुसार जब सफेद सूटकेस वहां पूरी तरह से सुरक्षित था तो उसे वहां से निकालने की फिलहाल कोई जल्दी नहीं थी ।
इकबालसिंह से उन्होंने दिल्ली एयरपोर्ट पर ही विदा ले ली थी । इकबालसिंह वहां बिछुड़ते भाइयों की तरह तीनों से गले लग-लग के मिला था । उस घड़ी कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि वो शख्स एक दुर्दान्त हत्यारा हो सकता था, मुंबई के अंडरवर्ल्ड का बादशाह हो सकता था, कभी उन तीनों के खून का प्यासा रहा हो सकता था ।
चंडीगढ में एयरपोर्ट से उन्होंने एक टैक्सी पकड़ी थी और सीधे सत्तरह सैक्टर पहुंचे थे जहां कि एक इमारत की पहली मंजिल पर नीलम का चंडीगढ का आवास था और जो वो जगह थी जहां से विमल ने अपनी बेवफा बीवी सुरजीत कौर की तलाश का अभियान शुरू किया था और जिस प्रत्यक्षत: मामूली-से लगने वाले काम ने विमल और नीलम की जिंदगियों में इंकलाब ला खड़ा किया था ।
क्या कुछ नहीं हो गया था चंद महीनों में ।
कितनी धुआंधार और इंकलाबी करवटें बदली थीं विमल की गुनाहों से पिरोई जिंदगी ने । कितने जुर्म और जुड़ गए थे उसकी पहले से ही जुर्मों से लबरेज जिंदगी के साथ । अपराध की नई दुनिया की कितनी नई मंजिलें तय कर ली थीं उसने ! कितनी बार मौत के मुंह का निवाला बनने से बचा था ! कैसे नया चेहरा हासिल होने की सूरत में उसकी जिंदगी की अहम मुराद पूरी हुई थी और कैसे वो नया चेहरा भी उससे छिनते-छिनते बचा था । कैसे नीलम की कथित मौत के साथ खत्म हो चुकी उसकी राम कहानी में एकाएक इकबालसिंह ने एक नया अध्याय जोड़ दिया था । कैसे योगेश पांडेय की सूरत में उसे एक दुर्लभ दोस्त हासिल हुआ था !
और वो इब्राहीम कालिया जैसा यारमार !
दाता ! तेरी कुदरति तू है जाणहि, अऊर न दूजा जाणे ।
अब वो उस इमारत के सामने खड़ा था जिसकी पहली मंजिल से अपनी गुजश्ता तूफानी, हाहाकारी जिंदगी के रास्ते पर, अनजाने में ही सही, उसने पहला कदम रखा था । नीलम से मिलने की अपेक्षा में अपने धाड़-धाड़ बजते दिल को काबू में करने की कोशिश करता तुकाराम और वागले के साथ वह पहली मंजिल पर पहुंचा ।
नीलम के फ्लैट पर ताला झूल रहा था ।
विमल के चेहरे पर मुर्दनी छा गई ।
उसने एक पड़ोसी की कॉलबेल बजाई ।
सफेद दाढी वाले एक सरदार जी चौखट पर प्रकट हुए ।
“सत श्री अकाल, जी ।” - विमल दोनों हाथ जोड़कर विनीत भाव से बोला ।
“सत श्री अकाल, पुत्तरा ।” - वृद्ध बोला ।
“यहां बगल के फ्लैट में” - विमल ने बंद फ्लैट की ओर इशारा किया - “नीलम जी रहती थीं ?”
“आहो !”
“वो अभी भी रहती है यहां ?”
“आहो ।”
विमल की जान में जान आई ।
“अब कहां गई ? फ्लैट को तो ताला लगा हुआ है ।”
“यात्रा पर गई है ।”
“यात्रा पर ! कहां ?”
“वैष्णो देवी ।”
“ओह !”
“चार महीने से फ्लैट छड़ के किथे नहीं गई थी । कहती थी किसी का इंतजार है । कोई दूर से आने वाला था । उसे वहां न पाकर कहीं वो लौट न जाए । दूर से आया यूं कहीं लौट जाता है ?”
“नहीं ।” - विमल का गला भर आया, वह रुंधे कंठ से बोला ।
“मैंने ये ही समझाया । मेरी सरदारनी ने वी समझाया । बच्चियों ने वी समझाया लेकिन वो यही कहती थी कि वो नहीं चाहती थी कि जिसका उसे इंतजार था, जद वो आए तां ओ घर पर न होवे । फिर कल एकाएक यात्रा की तैयारी कर बैठी ।”
“कल ?”
“हां । बोली दिल घबरा रहा है । बुरे-बुरे ख्याल आ रहे हैं । कोई अनिष्ट होता लग रहा है । वो माता के दरबार में मत्थां टेकने जाएगी । फिर सुबह मुंह अंधेरे निकल गई यात्रा पर ।”
“अकेले ?”
“हां । रुकती तो कोई साथ बन जाता । लेकिन उसको तो जैसे एकाएक कोई धुन सवार हो गई थी । यही बड़ी बात थी कि रात को ही रवाना न हो गई । कहती थी किसे दी सलामती दी मन्नत मांगने जा रही थी ।”
बहुत जब्त के बावजूद विमल की आंखों से आंसू छलक पड़े ।
“गई कैसे ?” - वह बोला ।
“पता नहीं ।” - उत्तर मिला - “बस से ही गई होगी ।”
विमल ने जोर से थूक निगली ।
“तू कौन एं, पुत्तरा ?” - वृद्ध ने पूछा ।
“मैं वो अभागा शख्स हूं, सरदार जी, जिसकी सलामती की मन्नत मांगने वो माता के दरबार में गई है ।”
“फिर तू अभागा कैसे हुआ, काका ! फिर तो तू बहुत भाग वाला है ।” - वृद्ध एक क्षण ठिठके और‍ फिर बोले - “तेरी क्या लगती है नीलम ?”
“मेरी धर्मपत्नी है, जी । धर्मपत्नी है मेरी ।”
“वो दो-तीन दिन में लौट आएगी । तब तक चाहे तो हमारे घर में ठहर जा ।”
“नहीं । मैं उसके पीछे जाता हूं । मैं भी माता के दरबार में मत्था टेकना चाहता हूं । वो मुझे वहां न मिले और मेरे पीछे से यहां लौट आए तो मेहरबानी करके उसे कह दीजिएगा मुंबई से सोहल आया था, उसी के पीछे वैष्णो देवी गया है, लौट के यहीं आएगा ।”
“सोहल !”
“हां ।”
“तू सरदार है ?”
“हां, जी ।”
“सोहल गांव का ?”
“हां जी ।”
“फिर तो तू हमारे जिले का हुआ । हम धारीवाल के हैं ।”
“करीब ही है जी सोहल के ।”
“हां ।”
“मैं चलता हूं सरदार जी । सत श्री अकाल !”
“इक मिंट ठहर पुत्तरा ।”
वृद्ध भीतर गए और कुछ क्षण बाद लौटे ।
“नीलम ते आनन-फानन चली गई ।” - वे विमल की मुट्ठी में कुछ नोट ठूंसते हुए बोले - “अरदास वी नहीं लै गई । तू ये मेरे वल्लों - कीरत सिंग बल्लों, दरबार विच अरदास करा देवीं ।”
“जरूर सरदार जी । मैं खुद प्रसाद ले के आऊंगा ।”
“शावाशे । ज्यूंदा रह । जवानियां माने ।”
आंसुओं से धुंधलाई आंखों के साथ विमल वहां से विदा हुआ ।
तीनों सड़क पर पहुंचे ।
“रोता क्यों है, पागल !” - तुकाराम प्यार से उसकी पीठ सहलाता हुआ बोला - “अब तो तसदीक हो गई कि वो सही-सलामत है ।”
“वो” - विमल आंसू पोंछता हुआ बड़ी कठिनाई से बोल पाया - “मेरी सलामती के लिए मन्नत मांगने गई है ।”
“अच्छा है न ! अपने ही अपनों के लिए ऐसी मन्नतें मांगते हैं ।”
“कहती थी अपने साथ वैष्णो देवी की यात्रा पर लेकर जाएगी और माता भगवती भवानी के दरबार में मेरी सारी खताएं माफ करवाएगी ।”
“तू उसके साथ ही वहां पहुंच समझ । हम अभी रवाना हो जाते हैं । जानता तो है न कि कहां जाना है ?”
“हां । यहां से जम्मू, जम्मू से कटड़े, फिर कटड़े से वैष्णो देवी ।”
“हम टैक्सी करते हैं और हवा से बातें करते वहां पहुंचते हैं ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
ग्यारह बजे वे कटड़े में थे ।
पहले विमल ने कटड़े में ही वहां के तमाम होटलों, धर्मस्थलों और अतिथिगृहों में नीलम की तलाश की ।
नीलम वहां कहीं न थी ।
कटड़े में यात्रा की स्थापित औपचारिकताएं पूरी करके वे पैदल वैष्णो देवी के भवन तक की चौदह किलोमीटर की यात्रा पर अग्रसर हुए ।
“यहां से दो रास्ते हैं ।” - बाणगंगा पार करने के बाद विमल बोला - “एक वो सामने बेशुमार सीढियों वाला रास्ता है, दूसरा वो उधर से सड़क का रास्ता है जिधर से खच्चर वाले जा रहे हैं । सीढियों का रास्ता फासले में चार-पांच किलोमीटर कम है लेकिन सीधी चढाई होने के कारण थका देने वाला है । सड़क का रास्ता लंबा जरूर है लेकिन मंजिल पहुंचने में वक्त दोनों रास्तों से एक जितना ही लगता है ।”
“तू यहां पहले आया हुआ है ?” - तुकाराम बोला ।
“नहीं ।”
“तो फिर यहां की बाबत इतना कुछ कैसे जानता है ?”
“कहां जानता हूं ! रास्ते के बारे में और रास्ते में आने वाली जगहों की बाबत कुछ छोटी-मोटी बातें मैंने कटड़े के रजिस्ट्रेशन ऑफिस से मालूम की थीं ।”
“ओह !”
“हम तीनों एक ही रास्ते से गए तो मुमकिन है नीलम दूसरे रास्ते से वापिस लौट रही हो और हमें खबर ही न लगे । इसलिए मैं सीढियों के रास्ते जाता हूं, तुम दोनों सड़क के रास्ते जाओ ।”
“भटक तो नहीं जाएंगे हम ?”
“नहीं । एक ही तो रास्ता है । इसी पर, जिधर और यात्री चलें, चलते रहना ।”
“ठीक है ।”
“यात्रा में मध्य में आदि कुमारी नाम की एक जगह बताते हैं जहां दोनों रास्ते एक हो जाते हैं । वहां मुलाकात होगी ।”
“ठीक है ।”
“बोलो, जय माता दी ।”
“जय माता दी !” - तुकाराम और वागले समवेत स्वर में बोले ।
सुबह चार बजे वे वैष्णो देवी के भवन में पहुंच गए ।
वहां दर्शनार्थी यात्रियों का मेला लगा हुआ था ।
तब तक भोर होने लगी थी और वहां खूब हलचल थी ।
तीनों ने वहां की एक-एक जगह को खंगाला ।
नीलम कहीं न थी ।
“वो अंदर हो सकती है ।” - विमल बोला ।
“अंदर !” - तुकाराम बोला ।
“गुफा में, जो कि वैष्णो देवी का प्रतिष्ठास्थान है या उसके सामने या रास्ते में बारी का इंतजार करते दर्शनार्थियों की कतार में ।”
“लेकिन अगर यहां बारी से जाने दिया जाता है तो हम उसकी तलाश में अभी भीतर कैसे जा सकते हैं ?”
“यह भी एक समस्या है । तुम यहीं ठहरो, मैं एक मिनट में आता हूं ।”
विमल उस स्थान पर पहुंचा जहां भीतर जाने के लिए पेश होना पड़ता था और अपना नंबर दिखाना पड़ता था ।
“भाई साहब” - विमल बड़े याचनापूर्ण स्वर में इंतजाम के लिए वहां तैनात फौज के जवान से संबोधित हुआ - “मेरी धर्मपत्नी मेरे से बिछुड़ गई है । मैं सिर्फ ये देखने के लिए भीतर जाना चाहता हूं कि वो भीतर तो नहीं पहुंच गई । जनाब, मैं आपसे वादा करता हूं कि दर्शन अपनी बारी से करूंगा लेकिन...”
“स्नान कर लिया ?” - फौजी ने उसे बीच में टोका ।
“स्नान !”
“पहली बार आया है ?”
“हां ।”
“माता के दरबार में स्नान करके जाते हैं । उधर स्नानघर है, स्नान करके वापिस आ ।”
“मैं अभी आया ।”
विमल तुकाराम और वागले के पास पहुंचा, उसने उन्हें वहीं डटे रहने को कहा और स्नानघरों की ओर दौड़ा । उसने आनन-फानन बर्फ जैसे ठंडे पानी से स्नान किया और फिर फौजी के पास वापिस लौटा ।
“जनाब, मैं...”
फौजी पहले ही सहमति में सिर हिलाने लगा । उसने अपने स्थान पर एक अन्य फौजी को खड़ा किया और उसे साथ लेकर आगे को चल दिया ।
“ये रास्ता सिर्फ फौजियों के लिए है ।” - एक स्थान पर पहुंचकर वह बोला - “सीधा दरबार में पहुंचता है । जा ।”
“कोई रोकेगा तो नहीं ?” - विमल संकोचपूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं अभी यहां खड़ा हूं । कोई रोकेगा तो मैं आवाज लगा दूंगा ।”
“भाई साहब, आप बहुत दयावान हैं, मैं आपका ये उपकार...”
“और सुन । दर्शन करके आना ।”
“जी, वो मैं बारी से...”
“सुना नहीं !”
“अच्छा जी ।”
फौजी के इतने सौहार्दतापूर्ण व्यवहार पर मन-ही-मन हैरान होता विमल आगे बढा । वहां खड़े फौजियों ने उसे टोका तो उसने पीछे इशारा कर दिया । तत्काल फौजियों ने रास्ता छोड़ दिया । विमल गुफा के प्रांगण में पहुंचा ।
प्रांगण दर्शनार्थियों से भरा पड़ा था । वहां गुफा के दहाने की ओर मुंह लिए दस-बारह लंबी कतारों में भक्तजन बैठे थे, माता का नाम भज रहे थे, जयकारे बुला रहे थे और भावविह्वल स्वर में कीर्तन कर रहे थे:
“आए नी मांए तेरे बाल खोल बुए मंदरां दे ।”
विमल ने एक कोने में खड़े होकर एक-एक दर्शनार्थी पर निगाह दौड़ानी आरंभ की ।
वहां कृत्रिम प्रकाश की खूब रोशनी थी और अब भोर का उजाला भी वातावरण में फैलने लगा था । उस घड़ी वातावरण में एक स्वाभाविक पवित्रता व्याप्त थी ।
गुफा के भीतर से रह-रहकर भक्तों के समवेत् स्वर में जयकारों की आवाज आ रही थी ।
“जयकारा शेरांवाली दा !”
“बोल सांचे दरबार की जय !”
विमल की आशापूर्ण निगाह एक-एक कतार के एक-एक चेहरे पर फिर रही थी ।
हे माता भगवती भवानी ! बिछुड़े मिला दे ।
एकाएक उसका दिल जोर से उछला ।
चौथी लाइन में सबसे पीछे नीलम बैठी थी । उसके दोनों हाथों में माता की भेंट थी, नेत्र बंद थे, चेहरे पर श्रद्धा के अपूर्व भाव थे और होंठ हौले-हौले हिल रहे थे ।
विमल उसकी ओर लपका ।
“लाइन न तोड़ो, भाई” - किसी ने उसे टोका - “लाइन न तोड़ो । अपनी लाइन में अपनी बारी का इंतजार करो ।”
“भाई साहब” - विमल ने याचना की - “वो उधर मेरी बीवी बैठी है । या तो मुझे वहां जा लेने दो या मैं उसे यहां बुला लाता हूं ।”
“ऐसी बात है तो तू ही जा, भक्त ।”
विमल दौड़कर नीलम के करीब पहुंचा । वह घुटनों के बल उसके करीब बैठ गया ।
“नीलम !” - वो रुंधे कंठ से बोला ।
नीलम ने आंखें खोलीं, उसने अपने दाएं-बाएं देखा और फिर आंखें बंद कर लीं ।
“नीलम !” - विमल ने उसका कंधा छूकर उसे पुकारा ।
इस बार नीलम ने उसकी तरफ देखा । विमल मुस्कराया । नीलम के चेहरे पर असमंजस के भाव आए ।
“नीलम ! मैं विमल...”
“क्या !” - नीलम अचकचाकर बोली ।
तब विमल को ध्यान आया कि नीलम उसके नए चेहरे को नहीं पहचानती थी, उसे तो विमल को नया चेहरा हासिल हो चुका होने की खबर भी नहीं थी ।
“प्लास्टिक सर्जरी ने सूरत बदल दी है ।” - वह बोला ।
अचरज और संदेहमिश्रित नेत्रों से नीलम ने फिर उसकी तरफ देखा ।
“मैं चंडीगढ गया था । तुम्हारे पड़ोसी कीरतसिंह जी ने बताया कि तुम यहां आई हो । पीछे-पीछे दौड़ा चला आया ।”
“तुम विमल हो ?”
“हां । सिर्फ चेहरा नया है ।”
“आवाज भी नहीं मिलती ।”
“चेहरे के साथ वो भी बदल गई ।”
“नहीं । तुम विमल नहीं हो सकते ।”
“नीलम, मैं विमल हूं । मैंने खुद कुली बनकर और तुझे अधेड़ उम्र की प्लास्टर चढी टांग वाली औरत बनाकर बॉम्बे सैंट्रल स्टेशन से दिल्ली की गाड़ी पर बिठाया था । मैं वो शख्स हूं जिसके चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी के लिए तूने अपना घर-बार और जेवर बेचकर पांच लाख रुपया मुहैया किया था । मैं वो शख्स हूं जिसकी बीवी सुरजीत कौर ने बांद्रा के फ्लैट में हम दोनों की मौजूदगी में पंखे से लटककर खुदखुशी कर ली थी । मैं वो शख्स हूं जिसके साथ मर्द बनकर तूने क्लब-29 में डाका डाला था, जिसके साथ तू रोजी बनकर ज्ञानप्रकाश डोगरा की तलाश में मिसेज पिंटों के बंगले पर गई थी । मैं वो शख्स हूं जिसने तेरे कहने पर मायाराम बावा की जानबख्शी की थी लेकिन जिसने तेरे सामने तेरी रजामंदगी से बरसोवा बीच पर पीटर नाम के उस आदमी को शूट किया था जिसने नूरपुर के समुद्र-तट पर मेरी छाती में बर्फ काटने वाला छुरा घोंपा था और जिसे तू बाद में अपने साथ चंडीगढ लेकर आई थी । और कितने सबूत पेश करूं अपने विमल होने के !”
“विमल !” - वह होंठों में बुदबुदाई ।
“देवाराम को याद कर । बीस साल के उस जवान लड़के को याद कर जिसने अपनी जान पर खेलकर तेरा-मेरा मिलन करवाया था । उसका बड़ा भाई तुकाराम और उसका लेफ्टीनेंट वागले तेरी तलाश में मेरे साथ आए हैं । दोनों बाहर बैठे हैं । उनसे पूछ मैं विमल हूं या नहीं ।”
“विमल ! विमल !”
“वो विमल जिसके लिए तूने मन्नत मांगी थी कि तू उसे अपने साथ वैष्णो देवी की यात्रा पर लेकर जाएगी और माता भगवती भवानी के दरबार में उसकी सारी खताएं माफ कराएगी । देख ले दाता की दया । हम बैठे हैं इकट्ठे भगवती के दरबार में ।”
“विमल !”
“साली, मिडल फेल बेवकूफ !” - विमल भर्राए कंठ से बोला - “और कितने सबूत चाहती है !”
“अब एक भी नहीं ।”
वो एकाएक जार-जार रोने लगी । विमल ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया, जो काली कमली वह अपने गिर्द लपेटे था, उसे उसने नीलम को भी ओढा दिया ।
“कहां गायब हो गए थे ?” - वह रुंधे कंठ से बोली - “क्यों इतनी देर की लौटने में ? हफ्ते में आने को कहा, चार महीने लगा दिए । एक-एक रात मैंने आंखों में काटी तुम्हारे इंतजार में । हर घड़ी तुम्हारे अनिष्ट की आशंका सताती थी । जी चाहता था उड़कर तुम्हारे पास पहुंच जाऊं । कई बार मुंबई रवाना होने की तैयारी की लेकिन इस डर से नहीं गई कि कहीं ऐसा न हो कि मैं मुंबई जाऊं और तुम चंडीगढ पहुंच जाओ ।”
“यह भी हो सकता था लेकिन अगर मुंबई जाती भी तो मुझे कहां तलाश करती ?”
“कहीं भी तलाश करती । घर-घर गली-गली भटकती ।”
“मैं फिर भी न मिलता तो ?”
“तो वहीं जान दे देती ।”
“खबरदार ! शुभ-शुभ बोल ।”
“क्यों सताया मुझे इतना ? क्यों लगाई इतनी देर ?”
“ये एक लंबी कहानी है । बहुत लंबी ।”
“मेरी खातिर लौटकर नहीं आ सकते थे । एक बार मिलकर चले जाते ।”
“तेरी खातिर तो मैं सात समुद्र पार से उड़कर आ सकता था ।”
“तो आए क्यों नहीं ?”
“क्योंकि... क्योंकि...”
“बोलो !”
“मैं समझता था तू मर चुकी थी ।”
“क्या !”
“हालात ऐसे बन गए थे । उन हालात में तेरी मौत की खबर करिश्मा नहीं थी, तेरे जिंदा होने की खबर करिश्मा थी ।”
“कमाल है !”
“मैं तो मर ही गया था तेरे गम में । पता नहीं कैसे बच गया !”
“मर जाते तो जानते हो क्या होता !”
“क्या होता ?”
“फिर मैं भी मर जाती ।” - तब पहली बार उसके होंठों पर एक क्षीण-सी मुस्कान आई - “फिर हम भी शीरीं-फरहाद बन जाते ।”
“क्या ?”
“मैं शीरीं, तुम फरहाद । फरहाद भी तो शीरीं की मौत की झूठी खबर सुनकर अपनी जान ले बैठा था । फिर उसकी मौत की खबर सुनकर शीरीं मर गई थी । शीरीं-फरहाद की तरह हम भी मशहूर हो जाते । नीलम-विमल ।”
“अरी, गधी । भगवती के दरबार में ऐसी बातें करते है !”
“अब मुझे पूरा यकीन है तुम मेरे विमल हो ।”
“अच्छा !”
“हां । विमल के अलावा किसी ने मुझे गधी नहीं कहा, साली नहीं कहा, मिडिल पास नहीं कहा ।”
“फेल ।”
“अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगी । एक क्षण के लिए भी मैं तुम्हें अपनी निगाह से ओझल नहीं होने दूंगी ।”
“ऐसा कैसे करोगी ?”
“करूंगी ।” - वह दृढता से बोली - “कैसे भी करूंगी । तुम्हें कजरा बना के आंखों में लगा लूंगी, गजरा बना के जूड़े में गूंध लूंगी, नगीना बना के अंगूठी में जड़ लूंगी, मेहंदी बना के हाथों में रचा लूंगी लेकिन जाने नहीं दूंगी । कहीं जाने नहीं दूंगी ।”
वो फिर रोने लगी ।
“रोती है पगली ! चुप हो जा !”
चुप होने की जगह वो हिचकियां ले-लेकर रोने लगी ।
“चुप हो जा ! चुप हो जा ! तुझे मेरी कसम ! चुप हो जा वर्ना मैं भी तेरे साथ रोने लगूंगा ।”
बड़े यत्न से नीलम ने अपने रुदन पर काबू किया ।
“मैं यहां क्यों आयी थी ?” - फिर वह यू बोली जैसे स्वत: भाषण कर रही हो ।
“क्यों आयी थी ?”
“मैं यहां ये मन्नत मांगने आयी थी कि हे माता भगवती भवानी मुझे विमल की सूरत दिखा । हे दाती ! मेरा बिछुड़ा यार मिला ! देखो, दाती के दर्शन भी नहीं हुए मुराद पूरी हो गयी ।”
“हां । और...”
“अरे, भई हिलो अपनी जगह से !” - कोई उच्च स्वर में बोला - “दर्शन करने नहीं जाना !”
विमल ने सिर उठाया तो पाया कि उनसे आगे लाइन में एक भी जना मौजूद नहीं था ।
दोनों हड़बड़ा कर उठे और उस गुफा द्वार की ओर बढे जिसके भीतर भगवती का वास था ।
***
“मैं नीलम से शादी करना चाहता हूं ।” - विमल बोला ।
दर्शन करने के बाद विमल नीलम को सीधे वहां लेकर आया था जहां तुकाराम और वागले खड़े थे । आते ही जो पहली बात उसने कही थी वो यही थी । बाकी सब कुछ तो नीलम के साथ उसकी मौजूदगी खुद ही कह रही थी ।
“क्या ?” - नीलम हिचकिचाकर बोली ।
“मैं तेरे से अभी, यहीं शादी करना चाहता हूं ।”
“लेकिन ?”
“झूठमूठ की दुल्हन बहुत बार बनाया मैंने तुझे । अब मैं सच में तुझे अपनी दुल्हन बनाना चाहता हूं ।”
वो रोने लगी ।
“कान खोल के सुन ले । रोती-धोती दुल्हन मुझे मंजूर नहीं ।”
वो रोते-रोते मुस्कराई ।
“ये तो धर्म स्थान है ।” - तुकाराम बोला - “यहां शादी करने के लिये पंडित ढूंढना क्या बड़ा काम है ! लेकिन तू तो सरदार है, तू तो शादी गुरुद्वारे में...”
“तुका ।” - विमल सख्ती से बोला - “उपलब्ध साधनों से इनसान के बच्चे की इनसान के बच्चे से शादी का प्रबन्ध कर ।”
“वो तो हो गया समझ । वागले, पंडित को पकड़ के ला ।”
दो मिनट में वागले एक पंडित पकड़ लाया ।
“जजमान ।” - पंडित बोला - “विवाह के अटूट बन्धन में बंधने के लिये यहां से ज्यादा पवित्र स्थान और कौन-सा हो सकता है !”
“कोई नहीं ।” - विमल बोला ।
“वर कौन है ? कन्या कौन है ?”
“वर मैं हूं । कन्या ये है ।”
“कन्यादान कौन करेगा ?”
“मैं ।” - तुकाराम तत्काल बोला - “कन्या का पिता । मैं कन्यादान करूंगा ।”
“और मैं वर की बारात ।” - वागले हंसता हुआ बोला ।
“बारात या बाराती ?” - विमल बोला ।
“बारात । सवा लाख बरातियों की ।”
सब हंसे ।
“चलो जजमान ।” - पंडिल बोला ।
सब पंडित के साथ हो लिये ।
समाप्त