राठी एक कमरे में बैठा, स्क्रीन पर नजरें टिकाए हुए था।
स्क्रीन पर बैड कर लेटा जगमोहन नजर आ रहा था। इस ठिकाने पर जरूरत की हर जगह पर सी•सी•टी•वी• कैमरे लगे हुए थे परंतु जगमोहन को चेक करने की खातिर उसकी याददाश्त में गई है या वह ड्रामा कर रहा है जगमोहन को पूरी तरह होश आने से पहले ही और मुनासिब जगह पर कैमरे लगा दिए थे घाटी के पास कीबोर्ड रखा था बटन दबाते जाने पर उसे स्क्रीन पर हर कैमरे के एंगिल का दृश्य नजर आता था।
इसके अलावा हरी और बंटी भी सतर्क थे। राठी ने दोनों को सब समझा दिया था।
राठी बहुत गंभीर नजर आ रहा था।
तारा और जैकब की हत्या हो जाने की वजह से वो खुद को अकेला महसूस कर रहा था। वरना उसे तो आदत सी हो गई थी उन दोनों के साथ काम करने की। रह-रहकर राठी उन दोनों के बारे में सोचने लगता था। कभी-कभी तो उसका यकीन हिल जाता कि तारा और जैकब वास्तव में मर चुके हैं।
तभी राठी की आंखें सिकुड़ी।
जगमोहन को उसने बैड पर उठकर बैठते देखा था।
■■■
देर से बैड पर लेटा जगमोहन एकाएक उठकर बैठ गया था।
सिर से पर अभी भी पट्टी बंधी हुई थी। डॉक्टर ने आज सुबह ही उसके सिर की पट्टी बदली थी। शरीर पर जगह-जगह टांके लगे दिख रहे थे। डॉक्टर के कहने पर हरी उसे उसी वक्त पर दवा दे रहा था। खास बेहतर नहीं थी उसकी हालत। अभी तक उसके बदन पर हॉस्पिटल वाला नीला गाउन ही था।
बैड पर उठकर बैठने के पश्चात, उसने टांगें नीचे लटका लीं। शरीर पर कई जगह टांके लगे होने के अहसास, खिंचाव होने पर होने लगता था।
जगमोहन ले दाएं-बाएं देखा। कमरे में नजरें दौडाई। हाथ से सिर पर बंधी पट्टी को टटोला। फिर उठ खड़ा हुआ। उठते हुए शरीर पर कई जगह दर्द का एहसास हुआ।
उसके बाद धीरे-धीरे चलता हुआ दरवाजे तक आ पहुंचा।
चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं कोई आवाज नहीं उठ रही थी।
दरवाजे पर खड़े होकर उसने दाएं-बाएं झांका। कोई नहीं दिखा।
फिर वो एक तरफ चल पड़ा। चलते समय शरीर पर जगह-जगह खिंचाव महसूस हो रहा था। इत्तेफाक से वो उस तरफ बढ़ा आया था, जहां बाहर जाने का रास्ता था। रास्ते में पर्याप्त रोशनी थी। बीच में पड़ने वाले कमरों के दरवाजे खुले हुए थे। परंतु कमरे खाली थे। आगे बढ़ता गया जगमोहन।
आखिरकार एक बंद दरवाजे के पास जा ठिठका। दो पलों तक उसने दरवाजे को देखा, फिर पलट कर पीछे देखा। परंतु उसे कोई ना दिखा। फिर दरवाजे पर लगे सिटकनी को नीचे किया और हैंडल दबाकर दरवाजा खोला।
दरवाजा खुलता चला गया।
ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे से टकराया।
सामने गली थी। रात के ग्यारह के ऊपर का वक्त था। अंधेरा था हर तरफ।
जगमोहन जरा सा आगे हुआ और गली में दोनों तरफ झांका। गली में कारें खड़ी थी। एक स्ट्रीट लाइट लगी थी वहां, जिसका थोड़ा सा प्रकाश फैला हुआ था।
तीन-चार मिनट जगमोहन वहीं खड़ा गली में देखता रहा।
उसके बाद पीछे हटा और दरवाजा बंद करके वापस चल पड़ा।
कुछ मिनटों बाद वो उसी कमरे में बैड पर लेटा गहरी-गहरी सांसे ले रहा था। इतना सा चलने में ही उसकी सांसें उखड़ गई थी। वो थकान सी महसूस करने लगा था।
■■■
राठी की आंखें और होंठ सिकुड़े हुए थे।
स्क्रीन पर जगमोहन की सारी हरकतें देखी थी। पहले तो उसे लगा कि जगमोहन दरवाजा खोल कर भाग जाएगा। परंतु जब दरवाजा बंद करके वापस आया तो उसे सोचने पर मजबूर होने लगा कि वो भागा क्यों नहीं? उसे भागने का एक बढ़िया मौका दिया गया था।
जब जगमोहन को उसने वापस कमरे में, बैड पर लेटते देखा तो राठी ने मोबाइल निकाला और हरी को फोन किया। चेहरे पर सोचें दौड़ रही थीं।
"हरि।" बात होते ही राठी खुशी से उठते हुए बोला--- "वो वापस अपने बैड पर आ लेटा है।"
"हमारी पूरी नजर थी उस पर। वो भागता तो हमने उसे पकड़ लेना था।"
"वापस आ जाओ।"
"क्या सच में उसे कुछ भी याद नहीं रहा?"
"पता नहीं। अभी मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा।" राठी ने कहकर फोन जेब में रखा और कमरे से निकलता चला गया।
राठी जगमोहन के कमरे में पहुंचा।
बैड पर लेटे जगमोहन ने आंखें बंद कर रखी थीं।
राठी बैड के पास जा पहुंचा।
आहट पाकर जगमोहन ने आंखें खोली। राठी को देखा।
राठी मुस्कुराया।
"प...पानी...।" जगमोहन मध्यम से स्वर में कह उठा।
राठी ने फौरन वहां रखे जग से गिलास में पानी में डाला और उसकी गर्दन को सहारा देकर कुछ पानी पिलाया।
"तुम कुछ थके से लग रहे हो।" राठी गिलास वापस रखता कह उठा।
"मैं...मैं उठा था। मुझे कोई दिखा नहीं तो मैं बाहर गली के दरवाजे तक चला गया था।" जगमोहन ने धीमे स्वर में कहा।
"और कुछ चाहिए था क्या?"
"न...हीं...। तुम बैठो...।" जगमोहन ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
राठी ने कुर्सी घसीटी और बैठ गया।
जगमोहन ने दो पल के लिए आंखें बंद कीं और पुनः आंखों को खोलकर उसे देखा।
"मुझे बताओ, मैं कौन हूं?" जगमोहन ने थके से स्वर में पूछा।
"इस बात का जवाब तो तुम्हारे पास होगा, तुम्हें पता होगा कि तुम कौन हो?" राठी ने मुस्कुरा कर कहा।
"मैं... मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा।" जगमोहन की आवाज में बेचैनी आ गई थी।
"याद करो। याद आ जाएगा।"
"नहीं। बहुत याद किया, परंतु कुछ भी याद नहीं आ रहा कि मैं कौन हूं...।"
"तुम्हें अपना नाम तो याद होगा?"
"वो भी याद नहीं...।"
"घर का पता, घर का कोई सदस्य?"
"नहीं...नहीं। कुछ भी याद नहीं आ रहा।" जगमोहन के चेहरे पर परेशानी दिखी।
"आराम करो। दिमाग पर ज्यादा जोर मत दो।" राठी कह उठा।
जगमोहन ने आंखें बंद कर ली।
राठी बैठा, सोच भरी निगाहों से उसे देखता रहा।
जगमोहन ने आंखें खोली और गर्दन घुमाकर राठी को देखा।
"मुझे क्या हुआ था?"
"तुम्हारा एक्सीडेंट हो गया था। बस ने तुम्हें टक्कर मार दी थी।"
"मुझे ज्यादा चोटें लगीं क्या?" जगमोहन उसे ही देख रहा था।
"हां। बहुत ज्यादा चोटें लगीं। अब तुम ठीक हो रहे हो।" राठी पुनः मुस्कुराया।
जगमोहन ने गहरी सांस ली, फिर बोला---
"तुम कौन हो?"
"मुझे राठी कहते हैं। मैंने तुम्हें सड़क के किनारे घायल पड़े देखा तो, तुम्हें उठा लाया। डॉक्टर से तुम्हारा इलाज करवाया।"
"ओह, तुम कितने अच्छे इंसान हो।"
"इंसान ही इंसान के काम आता है। तुम्हें अब आराम करना चाहिए।" राठी ने उसका हाथ थपथपाया।
"पर मुझे कुछ याद क्यों नहीं आ रहा?"
"शायद तुम्हारी याददाश्त चली गई है। तुम भूल गए हो सब कुछ।"
"ऐसा होता है क्या?"
"हो जाता है कभी-कभी। कुछ वक्त बीतेगा तो तुम्हें सब कुछ याद आ जाएगा।" राठी ने कहा और उठ खड़ा हुआ।
जगमोहन दो पल राठी को देखता रहा, फिर बोला---
"मुझे भूख लग रही है।"
"हरि से कहता हूं, वो तुम्हें खाने को कुछ दे देगा।" कहकर राठी पलटा और बाहर निकल गया।
जगमोहन आंखें खोले छत को देखने लगा। फिर बड़बड़ा उठा---
"मुझे कुछ याद क्यों नहीं आ रहा? मैं क्यों सब कुछ भूल गया हूं...।"
राठी कमरे से बाहर निकला तो चंद कदमों पर खड़े हरि को देखा।
"हरि।" राठी उसके पास पहुंचकर बोला--- "वो खाने को कुछ मांग रहा है।"
"अभी देता हूं...।"
"उस पर कड़ी नजर रखना। हो सकता है वो याददाश्त चली जाने का ड्रामा करके हमसे खेल, खेल रहा हो। अभी तक मैं नहीं समझ गया कि सच में उसकी याददाश्त गई है या कोई हरामीपन दिखा रहा है।"
"मैं सतर्क रहूंगा राठी साहब...।" हरि ने कहा।
■■■
52 दिन के बाद।
नानावटी हॉस्पिटल का फोर्थ फ्लोर। दिन के बारह बजे।
कमरा नम्बर तीन।
देवराज चौहान बैड पर शांत मुद्रा में लेटा था। सांस चल रही थी। सीना उठ-बैठ रहा था। चेहरा शांत और सोई अवस्था में था। कमरे में भरपूर शांति छाई हुई थी। दूसरी दीवार के साथ बैड पर एक और आदमी कोमा की हालत में था। वो देवराज चौहान को इस कमरे में लाए जाने से पहले से ही था।
नर्स कुर्सी पर बैठी उपन्यास पढ़ रही थी।
सब-इंस्पेक्टर कामटे फर्श पर गद्दा बिछाए बैठा अखबार पढ़ रहा था। पन्द्रह दिन पहले उसकी पत्नी, सुनीता उससे नाराज होकर अपने बाप के घर चली गई थी कि वो लंबे समय से घर नहीं आ रहा। कामटे के पास अब वैसे शब्द नहीं थे, जिससे कि वो सुनीता को हालातों के बारे में समझा पाता।
कमरे का दरवाजा बंद था और बाहर सब-इंस्पेक्टर गोरे, हवलदार और दो कांस्टेबलों के साथ मौजूद था। 52वाँ दिन था इस ड्यूटी का। एक जैसी ड्यूटी करके गोरे तंग सा हो गया था। परंतु किसी से इस बारे में कुछ कह भी नहीं सकता था। ड्यूटी तो आखिर ड्यूटी ही थी।
जो छः पुलिस वाले कमरे के सामने वाली गैलरी में तैनात किए थे, उन्हें महीना भर बाद हटा दिया गया था, क्योंकि सब ठीक रहा था। दोबारा कोई गड़बड़ ना हुई थी।
देवराज चौहान की हालत बावन दिन से स्थिर चल रही थी। नर्स की ड्यूटी बदलती रहती थी। परंतु सब-इंस्पेक्टर कामटे को तो कमरे में बैठे रहने की आदत पड़ गई थी जैसे। इस बीच कमिश्नर बाजरे दो बार आया था देवराज चौहान को देखने। यूँ वो फोन पर कामटे से बात करके हाल जान लेता था।
वानखेड़े भी तीन-चार बार आ चुका था।
रोजमर्रा की तरह सब कुछ सामान्य चल रहा था। इस वक्त साउथ इंडियन नर्स ड्यूटी पर थी।
तभी बैड पर लेटे देवराज चौहान के पांव का अंगूठा जरा सा हिला, अंगूठे की हरकत किसी ने नहीं देखी।
पांच मिनट बीते कि अंगूठा पुनः हिला, कम्पन की तरह हिला था।
तभी सब-इंस्पेक्टर कामटे अखबार बंद करके उठा और जूते पहने।
"सिस्टर!" कामटे बोला--- "मैं खाना खाने बाहर जा रहा हूं...।"
"ठीक है।" नर्स ने उपन्यास पर से नजरें ना हटाईं।
"उसके बाद चाय भी पिऊंगा।"
"आराम से आना इंस्पेक्टर।" उपन्यास पढ़ती नर्स बोली--- "यहां कोई काम नहीं है तुम्हारा। फिर बाहर पुलिस वाले तो हैं ही।"
"तुम्हारे खाने को कुछ लेता आऊं?" कामटे ने पूछा।
नर्स ने उपन्यास पर से नजरें हटाकर कामटे को देखा।
"मुझे लाईन मार रहे हो?"
"लाईन!" कामटे ने बुरा सा मुंह बनाया--- "मैं ऐसा क्यों करूंगा?"
"क्योंकि तुम्हारी पत्नी मायके चली गई है...।"
"उसकी फिक्र मत करो। अकेली घर रहकर क्या करेगी? मैं यहां व्यस्त हूं तो वो चली गई। बाद में आ जाएगी।" कहने के साथ ही कामटे आगे बढ़ा और दरवाजा खोलकर बाहर निकला, फिर दरवाजा बंद कर दिया।
सामने ही सब-इंस्पेक्टर गोरे कुर्सी पर बैठा था।
दोनों कांस्टेबल दीवार से सटे, फर्श पर बैठे थे।
हवलदार शायद देर तक बैठा रहा होगा। तभी वो खड़ा हुआ टांगों को हिला रहा था।
"ये मामला तो लम्बा हो गया कामटे...।" गोरे मुस्कुराकर कह उठा।
"तेरे को तो रात घर जाने की छुट्टी मिल जाती है। मुझे तो 24 घंटे यहां रहना पड़ता है।" कामटे ने गहरी सांस ली।
"तू खास जो बना हुआ है कमिश्नर साहब का...।"
कामटे मुस्कुराया। बोला कुछ नहीं।
"कोमा में है देवराज चौहान। अभी पता नहीं ये सब कब तक चले।" गोरे ने कहा।
"मैं कुछ खाने-पीने जा रहा हूं।" कामटे ने कहा और गैलरी में आगे बढ़ गया।
गोरे उसे जाता देखता रहा, फिर कुर्सी पर पसर गया।
"सर।" हवलदार बोला--- "आज नाश्ता करके नहीं आया मैं। मैं भी कुछ खा-पी आऊं...।"
"ड्यूटी से हिलने की कोशिश मत करो। जब बहुत ज्यादा भूख लगे तो कह देना। मैं ले आऊंगा।" गोरे बोला।
■■■
कामटे के बाहर जाने के पश्चात नर्स पुनः उपन्यास पढ़ने में व्यस्त हो गई थी। देवराज चौहान पर नजर मारने की उसने एक बार भी जरूरत नहीं समझी थी। देवराज चौहान की तरफ उसकी आधी पीठ हुई पड़ी थी।
तभी देवराज चौहान के हाथ की उंगलियों में कम्पन हुआ और उंगलियां स्थिर हो गई। फिर फौरन ही दूसरा हाथ कांपा। पैर भी जरा सा हिला। स्पष्ट था कि देवराज चौहान 'कोमा' की स्थिति से बाहर निकल रहा था। उसका शरीर हौले-हौले हरकत में आ रहा था। जैसे जिस्म में जान पड़ने लगी हो।
नर्स उपन्यास पढ़ने में व्यस्त थी।
तभी मोबाइल की बेल बज उठी। ये नर्स का मोबाइल फोन था।
तेज बेल के बजते ही देवराज चौहान के माथे पर हल्के बल उभरे और लुप्त गए।
नर्स ने फोन निकाला और बात की।
"हैलो...।"
"कैसी हो तुम?" उधर से महिला की आवाज आई।
"ओह मम्मा तुम...।" नर्स का ध्यान उपन्यास से हट गया, वो खुशी से बोली--- "तुमसे मिलने का बहुत मन करता है।"
"मैं आ गई हूं। हॉस्पिटल से बोल रही हूं। नीचे रिसेप्शन से।"
"सच मम्मा?" नर्स खुशी से चीख उठी।
"तू कहां है?"
"मैं अभी आई...।" नर्स फोन बंद करके उठी। उपन्यास कुर्सी पर रखा और दरवाजे की तरफ बढ़ गई।
एक बार भी देवराज चौहान की तरफ नहीं देखा।
देख लेती तो, उसकी खुली हुई आंखें भी देख लेती।
फिर देवराज चौहान ने आंखें बंद कर ली थी।
नर्स ने दरवाजा खोला और बाहर निकलकर गोरे से बोली---
"मैं अभी आई...।"
"क्या तुम भी खाने जा रही हो?" गोरे मुंह बनाकर बोला।
"नहीं। मेरी मां आई है। रिसेप्शन पर खड़ी है। आधे घंटे में उसे कमरे में छोड़कर आ पाऊंगी।" कहकर नर्स तेजी से आगे बढ़ती चली गई। गोरे मुंह बनाकर नर्स को जाते देखता रहा। यूँ उसकी नजर उसके कूल्हों पर थी।
हवलदार आगे बढ़ा और खुले दरवाजे पर खड़े होकर, बैड पर लेटे देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान उसी मुद्रा में शांत लेटा था।
हवलदार ने खुले पल्लों को बंद किया और पलटकर गोरे से बोला---
"सर मुझे नहीं लगता कि देवराज चौहान को होश आएगा।"
गोरे ने जाती नर्स से नजरें हटाईं और हवलदार को देखते कह उठा---
"क्यों, तू डॉक्टर है, जो तुझे सब कुछ पता है?"
हवलदार सकपका कर रह गया।
"लगता है तू इस ड्यूटी से तंग आ गया है।"
"आपको ठीक लग रहा है।" हवलदार ने मुंह बनाकर कहा।
"कमिश्नर साहब ने हमारी ड्यूटी लगाई है यहां। अपने हाव-भाव ठीक रख। उन्हें पता चल गया तो तुझे ऐसे इलाके में भेज देंगे, जहां खाने को भी कुछ नहीं मिलेगा।" गोरे ने तीखे स्वर में कहा।
"सर।" हवलदार दांत फाड़कर कह उठा--- "मैं तो मजाक कर रहा था।"
गोरे ने भी दांत दिखाए और बोला---
"मैं भी तो मजाक कर रहा था। पर ये सोचें कि अगर ऐसा ही मजाक कमिश्नर साहब आकर करने लगे तो तब क्या होगा?"
"ये ड्यूटी मुझे बहुत पसंद है सर...।"
"सच कह रहा है?" गोरे ने चुभती नजरों से देखा।
"एकदम सच।" हवलदार गर्दन हिलाकर दृढ़ स्वर में बोला।
"लानत है जो तेरे को ऐसी घटिया ड्यूटी पसंद है।" गोरे मुंह बना कर कह उठा।
■■■
देवराज चौहान का मस्तिष्क पूरी तरह होश में आ चुका था।
आंधी-तूफान चल रहा था उसके मस्तिष्क में। गहरी काली सुरंग ही नजर आ रही थी। उसके हाथ-पांवों में तेज-तेज कम्पन उठने लगता था। चेहरे पर पसीना चमकने लगता था।
एकाएक उस गहरी काली सुरंग में सर्दूल का चेहरा चमका। खतरनाक, दरिंदगी से भरा चेहरा। फिर उसने अपनी दाईं बांह आगे की। रिवाल्वर थी हाथ में। उसी पल तेज धमाका हुआ और गोली अपने सिर में लगती महसूस की।
इसी क्षण देवराज चौहान की आंखें खुल गईं।
वो गर्दन हिलाकर दाएं-बाएं देखने लगा।
उसकी नजरें सामने की दीवार के साथ लगे बैड पर लेटे आदमी पर गई। चंद पल उसे देखता रहा, फिर अपनी बांह उठाई। अकड़न सी आ गई थी बांहों में। हाथ की उंगलियां भी तेजी से नहीं हिल रही थी। देवराज चौहान ने पैर को हिलाना चाहा तो वो थोड़ा सा हिला। फिर टांग मोड़ी। थोड़ी कोशिश के बाद टांग मुड़ गई।
देवराज चौहान ने अपने ऊपर से चादर हटाई। शरीर पर हॉस्पिटल वाला नीला गाउन था। परंतु गाउन से उसका शरीर चमक रहा था। शरीर पर कई जगह चाकू लगने के ताजे निशान दिखे उसे। जो कि अब ठीक हो चुके थे। परंतु निशान ताजे की तरह लग रहे थे।
देवराज चौहान ने आंखें बंद कर लीं।
बंद आंखों के पीछे कई चेहरे चमकने लगे।
देवराज चौहान की सांसें तेज चलने लगीं।
सुधीर दावरे का चेहरा। ब्रांडी और प्यारे का चेहरा। अकबर खान, रकीब, जैकब, राठी, तारा का चेहरा। वंशू करकरे का चेहरा। भोला, आप्टे, देसाई का चेहरा।
दीपक चौला का चेहरा। परमजीत, सावरकर, झंडू का चेहरा। और भी जाने कितने चेहरे थे वहां!
इन चेहरों के बीच जाने कितने हाथों में खुले चाकू थे और चाकुओं के वार उस पर कर रहे थे।
जगमोहन पर कर रहे थे।
जगमोहन?
देवराज चौहान की आंखें फौरन खुल गईं। चेहरे पर वहशी भाव नाच उठे।
कहां है जगमोहन?
देवराज चौहान ने पुनः दूसरे बैड पर लेटे व्यक्ति को देखा।
नहीं, वो जगमोहन नहीं है। जगमोहन को... जगमोहन को तो सर्दूल ने शूट कर दिया था।
ओह!
देवराज चौहान ने आंखें बंद कर लीं।
फिर तूफान सा उठने लगा देवराज चौहान के मस्तिष्क में।
मधुमक्खियों के झुंड की भांति एकाएक वे सब उस पर और जगमोहन पर झपट पड़े थे। कुछ ने जगमोहन को घेर लिया था और कुछ ने उसे। वे सब दोनों को मारने लगे थे। बे-हिसाब मार रहे थे। लात-घूंसे-ठोकरें। जहां भी पड़ जाए। कोई बाल खींचता तो कोई चेहरे पर अपना सिर दे मारता। ठुकाई करने का उनके पास कोई नियम नहीं था।
मारते जाओ। बस मारते जाओ। लगना चाहिए।
इस बीच सर्दूल, अकबर खान, वंशू करकरे, दीपक चौला और सुधीर दावरे के ठहाके गूंज रहे थे वहां।
देवराज चौहान के चेहरे पर सोचों के दौरान, पीड़ा के भाव दिखाई देने लगे थे।
अगले ही पल देवराज चौहान ने आंखें खोल लीं।
चेहरे पर और भी पसीना भर आया था। माथे पर भी पसीने की बूंदें चमक रही थीं। वो गहरी-गहरी सांसें लेने लगा। सीना तेजी से उठने-बैठने लगा। अपने आप पर नियंत्रण जाता रहा। नजरें कमरे में घूमती रहीं। इस दौरान देवराज चौहान अपनी बांहें और पैर हिलाकर उन्हें सामान्य बनाने की चेष्टा करता रहा। तभी दांत भिंच गए।
चेहरा कठोर हो उठा।
तड़पने वाले अंदाज में आंखें बंद कर लीं।
घनी-गहरी काली सुरंग में उसे पुनः सर्दूल का चेहरा दिखा।
सर्दूल हंस रहा था। ठहाके लगा रहा था। वो फर्श पर पड़ा था। ठुकाई से उसका अंग-अंग टूट गया था। उस पर चाकुओं से भी ढेरों वार किए गए थे। वो हिलने काबिल जरा भी नहीं था। मौत उसे सामने दिखाई दे रही थी। पहली बार देवराज चौहान ने मौत को इतने करीब से देखा था। परंतु मौत का डर उसे जरा भी नहीं लगा था। उस वक्त देवराज चौहान की आंखें खौफ से फैल गई थी, जब सर्दूल ने जगमोहन की तरफ रिवाल्वर करके गोली चला दी थी।
फटी-फटी आंखों से देवराज चौहान ने जगमोहन के सिर में गोली लगती देखी।
जगमोहन की गर्दन घूमकर, चेहरा दूसरी तरफ हो गया था।
फिर नहीं हिला था जगमोहन।
फटी-फटी आंखों से देवराज चौहान नीचे पड़ा जगमोहन को देखता रहा था। उसमें इतनी भी हिम्मत नहीं बची थी कि होंठों से आवाज निकाल पाता। सारा चेहरा, मुंह दर्द, खून और घावों से भरा पड़ा था। चाकुओं के वारों से और वहशी पिटाई से वो इस कदर घायल हो चुका था कि करवट लेना तो दूर, हिलने के काबिल भी नहीं रहा था।
देवराज चौहान समझ चुका था कि जगमोहन जिंदा नहीं रहा। गोली लगते ही वो मर गया है। थकी और फीकी नजरों से वो जगमोहन को मरे अंदाज में पड़े देखता रहा। जगमोहन के शरीर के आसपास खून ही खून था। जगह-जगह से कपड़े कटे-फटे पड़े थे, चाकुओं के वारों से असहाय सा, बुझी निगाहों से जगमोहन को ही दूर तक देखता रहा था। परंतु वो वक्त भी ज्यादा ना चल सका और सर्दूल उसके पास पहुंचा। रिवाल्वर वाला हाथ उसकी तरफ किया और ट्रिगर दबा दिया।
और वो गोली खुद उसके सिर में भी आ लगी थी।
उसके बाद उसे होश नहीं रहा और अब होश आया था।
देवराज चौहान की आंखें पुनः खुल गईं।
उसे लगा जैसे वो गहरी काली अंधेरी सुरंग से निकला है अभी-अभी।
भिंचे होंठ। वहशी चेहरा। आंखों में अंगारे। गुस्से से कांपता जिस्म। तभी जगमोहन को याद करके आंखों में पानी चमक उठा। हाथ से उसने गीली आंखों को साफ किया और बड़बड़ा उठा।
"मर गया कमीना!"
फिर उठकर बैठ गया।
चेहरे पर बराबर वहशीपन और कठोरता थी। अपने हाथ, बांहों को हिलाने लगा। टांगों पर छा चुकी अकड़न को हटाने के लिए उन्हें हिलाने लगा। उसके बाद एकाएक उसने टांगों को बैड के नीचे लटकाया और धीरे-धीरे सरकता हुआ नीचे होता चला गया। दोनों पैर फर्श पर जा लगे।
पैरों में जैसे जान ही नहीं थी।
घुटने मुड़ते चले गए। दोनों हाथ आगे किए, परंतु एक ही हाथ फर्श पर टिक सका और वो नीचे लुढ़कता चला गया। देवराज चौहान गहरी-गहरी सांसें लेने लगा। करीब दो महीने बैड पर पड़े रहने की वजह से टांगों में जैसे जान ही नहीं रही थी। देवराज चौहान ने खुद को संभाला और फर्श पर लेटे-ही-लेटे टांगों को हिलाने लगा। एक्सरसाइज करने लगा। इसी तरह बांहों के साथ कर रहा था वो।
पन्द्रह-बीस मिनट वो इसी तरह व्यस्त रहा।
इतने में ही उसे थकान होने लगी थी। अपने शरीर में कमजोरी महसूस कर रहा था वो। उसके बाद देवराज चौहान ने पास पड़ी कुर्सी का सहारा लिया और धीरे-धीरे उठ खड़ा हुआ।
खड़ा हो गया। कुर्सी को थामे रहा।
रह-रहकर टांगों में कम्पन हो रहा था।
कुर्सी को थामें वो टांगों को बारी-बारी हवा में लहराने लगा और पांव को फर्श पर टिकाकर पंजे पर जोर लगाने लगा। जाम हो चुकी पैरों की उंगलियों को चालू हालत में लाने की चेष्टा कर रहा था। वो नहीं जानता था कि वो कितनी देर बेहोश रहा। परंतु जिस्म पर लगे चाकू के घावों के भर जाने को देखकर वो सहज ही इस बात का अंदाजा लगा सकता था कि पन्द्रह-बीस दिन तो हो ही चुके होंगे।
सिर में गोली?
एकाएक जैसे देवराज चौहान को होश आया। हाथ फौरन सिर पर पहुंचा?
सिर के बाल छोटे-छोटे थे। हाथ पूरे सिर पर फिर गया। सिर के ऊपरी हिस्से पर घाव सा महसूस हुआ, जो कि अब भर चुका था और ठीक था। बढ़ते बालों के पीछे निशान छिप रहा था। रिवाल्वर की गोली से वो जिंदा बच गया था? अगले ही पल चेहरे पर दर्द के भाव आ गए।
जगमोहन जिंदा नहीं बच सका था।
उसने खुद गोली लगने के बाद जगमोहन की मौत अपनी आंखों से देखी थी।
गहरी सांस लेकर रह गया देवराज चौहान।
अब वो टांगों में थोड़ी-बहुत जान महसूस कर रहा था। परंतु कमजोरी कायम थी।
उसने कुर्सी छोड़ी और बेहद धीरे-धीरे कमरे में चहलकदमी करने लगा। उसकी निगाह कुर्सी पर रखे उपन्यास पर पड़ी। फर्श पर बिछे गद्दे और उस पर पड़े अखबार पर पड़ी। देवराज चौहान समझ गया कि उसकी रखवाली के लिए यहां पर कोई मौजूद है, परंतु इस वक्त कमरे में कोई नहीं था। ये उसके लिए अच्छी बात थी।
परंतु खतरा ये था कि कभी भी कोई कमरे में आ सकता था।
टांगें इस काबिल होने लगी थीं कि थोड़ा चल-फिर सके।
मस्तिष्क में यही बात बार-बार आ रही थी कि क्या कोई जानता है कि वो देवराज चौहान है? अगर कोई जानता है तो यकीनन पास में कहीं पुलिस भी होनी चाहिए। उसे अस्पताल में इस तरह नहीं छोड़ा जाएगा।
तभी आंखों के सामने सर्दूल का चेहरा चमका।
देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली। दरिंदा सा नजर आने लगा वो।
"सर्दूल...।" गुर्रा उठा देवराज चौहान। गालों की हड्डियां स्पष्ट झलक उठीं। वो क्रूर दिखने लगा।
कमजोर थकान से भरी टांगों से चलता हुआ देवराज चौहान बंद दरवाजे के पास पहुंचा और दरवाजे पर कान लगाकर बाहर की आहट सुनने का प्रयास करने लगा।
कई क्षणों तक देवराज चौहान दरवाजे से कान सटाये रहा।
बाहर से मध्यम सी आहटें मिलीं। देवराज चौहान के दांत जम गए। दरवाजे के बाहर कोई अवश्य था।
पुलिस या कोई और? देवराज चौहान वहां से हटने की सोच ही रहा था कि बाहर से बातें करने की आवाज कानों में पड़ी।
देवराज चौहान सावधानी से दरवाजे के पास हटता चला गया था।
बाहर कोई था। शायद पुलिस ही होगी?
तो क्या पुलिस जानती है कि वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है?
अब क्या करे?
उसे यहां से हर हाल में बाहर निकलना है।
देवराज चौहान ने कमरे में नजरें दौड़ाईं। फिर वो खिड़की की तरफ बढ़ गया। लकड़ी की खिड़की थी बीच में, ग्रिल लगी थी। खिड़की खोल कर बाहर देखा। सामने ही चलती सड़क दिखी। दोपहर का वक्त हो रहा था। तेज धूप पड़ रही थी। सड़क पर से वाहन और लोग आ-जा रहे थे।
देवराज चौहान कई पलों तक बाहर ही देखता रहा। इस बीच उसका चेहरा गुस्से में, क्रोध में डूबा रहा। हर पल सर्दूल, अकबर खान, वंशू करकरे, दीपक चौला और सुधीर दावरे के चेहरे आंखों के सामने नाचते रहे थे। ठहाके लगाते, हंसते दरिंदगी भरे चेहरे। बार-बार उसकी आंखों के सामने वही दृश्य नाच रहे थे। फिर वो खिड़की से पीछे हटा, पल्ले बंद किये और व्याकुलता भरी नजरों से कमरे में नजरें दौड़ाने लगा।
टांगों में कमजोरी थी, परंतु अब चलने-फिरने में ज्यादा तकलीफ नहीं हो रही थी।
वो यहां से निकल जाना चाहता था, दरवाजे के बाहर पुलिस थी। बातों की आवाज आ रही थी। उनकी संख्या एक से ज्यादा थी और वो पुलिस वालों से उलझना नहीं चाहता था। परंतु यहां से निकलना भी था। ऐसे में उलझना जरूरी हो गया था। जबकि अभी वो शरीर में खासी कमजोरी महसूस कर रहा था। देवराज चौहान दूसरे बैड पर पड़े व्यक्ति के पास पहुंचा, जो कि 'कोमा' की स्थिति में था।
देवराज चौहान ने उसे हिलाया।
परंतु वो तो वैसे ही रहा।
देवराज चौहान नहीं जानता था कि वो 'कोमा' की हालत में था।
तभी दरवाजे पर आहट हुई।
देवराज चौहान चौंका। कोई आया है। चेहरे पर कठोरता नाच रही थी।
देवराज चौहान की निगाह दरवाजे की तरफ उठी। अगले ही पल तेजी से बैड की तरफ बढ़ा और फुर्ती से बैड पर जा लेटा। चेहरा शांत और सामान्य बना लिया था उसने। इससे पहले कि अपने ऊपर चादर ले पाता, दरवाजा खुला। कामटे के चेहरे पर गंभीरता नाच रही थी। बैड के पास खड़ा वो एकाएक देवराज चौहान के चेहरे को देखने लगा था।
कई पल गहरी खामोशी में बीत गए।
कामटे देवराज चौहान के चेहरे को देखे जा रहा था।
"हैलो...।" कामटे धीमे स्वर में कह उठा।
देवराज चौहान वैसे ही पड़ा रहा।
"मैं जानता हूं कि तुम्हें होश आ गया है देवराज चौहान।" कामटे ने पुनः धीमे स्वर में कहा।
देवराज चौहान की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया।
"ये सब बातें कहकर मैं कोई तुक्का नहीं मार रहा। मैंने तुम्हें खिड़की पर खड़ा देखा था। तब मैं सामने की सड़क पार कर रहा था।
देवराज चौहान ने आंखें खोल दीं।
कामटे दो कदम पीछे हट गया।
कई पलों तक वे एक-दूसरे को देखते रहे।
फिर देवराज चौहान उठा और बैड पर ही टांग लटकाकर बैठ गया।
सब-इंस्पेक्टर कामटे होंठ सिकोड़े देवराज चौहान को देखे जा रहा था। फिर बोला---
"तुम 'कोमा' से बाहर ही नहीं निकले, बल्कि बेहतर लग रहे हो।"
"मैं 'कोमा' में था?" देवराज चौहान बैड से नीचे उतर आया।
"हां, तुम कोमा में थे...।" साथ ही कामटे की निगाहें कमरे में घूमी--- "नर्स कहां है?"
"नर्स?"
"वो इसी कुर्सी पर बैठी...।"
"जब मुझे होश आया तो यहां कोई नहीं था।"
कामटे ने कुर्सी पर पड़े उपन्यास को देखा।
देवराज चौहान के मस्तिष्क में सर्दूल और बाकी सबके चेहरे घूमने लगे।
चेहरा पुनः दरिंदगी से भरने लगा।
उसके चेहरे के भाव देखकर कामटे जल्दी से बोला---
"कोई शरारत मत करना। बाहर चार पुलिसवाले हैं।"
"चार?" देवराज चौहान की आंखों में वहशीपन के भाव थे।
"मैं।" कामटे जेब से फोन निकालता कह उठा--- "कमिश्नर साहब को फोन...।"
"फोन वापस जेब में रखो।" देवराज चौहान धीमे स्वर में गुर्राया।
"लेकिन...।"
"जो मैं कहता हूं वो करो...।" देवराज चौहान की आवाज में भयानकता के भाव आ गए।
कामटे मोबाइल जेब में रखता कह उठा---
"क्या तुम पुलिस से झगड़ा करोगे?"
"मैं कुछ नहीं कर रहा।" देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर खतरनाक स्वर में बोला--- "बताओ, मैं यहां कैसे पहुंचा?"
कामटे, चंद पलों तक देवराज चौहान को देखता रहा, फिर शांत स्वर में बोला---
"आर्य निवास होटल में क्या हुआ था देवराज चौहान?"
देवराज चौहान दांत किटकिटा उठा। चेहरा धधक उठा। जगमोहन का चेहरा आंखों के सामने नाचा।
"होटल के उस हॉल से तुम्हें लाशें मिलीं?" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में पूछा।
"हां...।"
"कितनी?"
"बीस के करीब...।"
"क्या किया उन लाशों का? उनमें से एक लाश मेरे साथी की थी।" देवराज चौहान की कठोर आवाज में कम्पन उभरा।
"जगमोहन की बात कर रहे हो?" कामटे गंभीर था।
"हां। तुम जानते हो उसे? लाश पहचानी उसकी?"
"वो जिंदा हॉस्पिटल लाया गया था।"
"जिंदा?" देवराज चौहान के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा--- "व...वो जिंदा है?"
"पता नहीं।" कामटे गम्भीर था--- "वो बहुत घायल और मरने की हालत में था। तुम भी ऐसे ही थे। परंतु तुम बच गए।"
"जगमोहन का क्या हुआ?" देवराज चौहान ने भिंचे स्वर में कहा।
"किसी ने उसे उसी हाल में हॉस्पिटल से उठा लिया।"
"क्या?" देवराज चौहान का चेहरा क्रोध से काला पड़ने लगा।
"पुलिस का अनुमान है कि जगमोहन को उन लोगों ने खत्म कर दिया होगा।"
"किन लोगों ने?"
कामटे ने देवराज चौहान की सुलगती आंखों में देखा, फिर शांत स्वर में कहा---
"होटल में क्या हुआ था? वहां पर कौन-कौन था?"
"तुम मुझे जगमोहन के बारे में बताओ। तुम किन लोगों की बात कर रहे हो कि उन्होंने जगमोहन को...।"
"वो ही लोग... जो तब होटल में मौजूद थे। सर्दूल, दीपक चौला, वंशू करकरे, अकबर खान और सुधीर दावरे। साथ में इनके काफी सारे चेले-चपाटे भी थे। जिनकी लाशें वहां पड़ी मिलीं। उन सबको तो तुमने और जगमोहन ने मारा होगा।"
दरिंदा जैसा लगने लगा था देवराज चौहान।
"और क्या जानती है पुलिस?"
"इतना ही जानती है कि वहां कौन-कौन था।" कामटे गंभीर स्वर में कह रहा था--- "परंतु वहां तुम सब लोग क्या कर रहे थे, पुलिस नहीं जानती। वहां गोलाबारी क्यों हुई, पुलिस नहीं जानती। परंतु अब जान जाएंगे। तुम पुलिस को बताओगे। उस दिन होटल में जो-जो लोग गए थे, उन सबके चेहरे एक C.C.T.V. कैमरे में कैद हो गए थे। परंतु तुम्हारा या जगमोहन का चेहरा उस कैमरे में नहीं आया। मेरे ख्याल से तुम किसी चोर रास्ते से होटल में गए थे।"
वहशी सा देवराज चौहान कामटे को देखे जा रहा था।
"जगमोहन के बारे में बताओ।"
"कोई खबर नहीं है। जाने कौन लोग उसे हॉस्पिटल से उठाकर ले गए। वो डॉक्टरों के वेश में थे। पूरे पुलिस डिपार्टमेंट ने जमीन-आसमान एक कर दिया। परंतु उसकी कोई खबर नहीं मिली।"
"उसकी लाश मिली?"
"नहीं। शायद किसी थाने को मिली भी हो, परंतु पहचानी ना जा सकी हो। कुछ भी स्पष्ट नहीं है।" सब-इंस्पेक्टर कामटे सिर हिलाकर बोला--- "वैसे भी जगमोहन की हालत बेहतर नहीं थी। कहीं वो खुद ही ना मर गया हो।"
देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली। बोला---
"सर्दूल, अकबर खान, सुधीर दावरे, दीपक चौला और वंशु करकरे कहां हैं?"
"मालूम नहीं। पूरा पुलिस डिपार्टमेंट उनकी तलाश में लगा है। सब-इंस्पेक्टर कामटे ने सतर्क स्वर में कहा--- "सर्दूल ने हमारे एक ऑफिसर की जान ले ली है।" इसके साथ ही कामटे ने होलेस्टर से रिवाल्वर निकाल ली--- "कोई शरारत मत करना देवराज चौहान। इस वक्त तुम पुलिस की हिरासत में हो। इंस्पेक्टर वानखेडे साहब तुम्हारे लिए यहां कई चक्कर लगा चुके हैं। मैं बाहर खड़े पुलिस वालों को बुलाने जा रहा हूं। अगर तुमने जरा सी गड़बड़ की तो हम तुम्हें गोली मार देंगे।" अपनी बात पूरी करके देवराज चौहान पर रिवाल्वर ताने कामटे दरवाजे की तरफ बढ़ा।
देवराज चौहान के चेहरे पर दरिंदगी नाच रही थी।
"वहीं रुक जाओ।" देवराज चौहान ने दांत किटकिटाकर कहा--- "मैं तुमसे बात करना चाहता हूं।"
कामटे उसी पल ठिठका और कह उठा---
"मैं तुम्हारे हाथों में हथकड़ी डालकर बात...।"
"मेरी बात सुनकर शायद तुम्हारा इरादा बदल जाए...।"
"मुझे बातों में मत फंसाओ देवराज चौहान। जब तक वर्दी मेरे शरीर पर है, मेरा इरादा नहीं बदलेगा...। तुम...।"
"वो आदमी कौन है जो उधर बैड पर लेटा है?" एकाएक देवराज चौहान बोला।
"वो भी 'कोमा' में है।"
"उसे होश आ गया लगता है।"
कामटे की गर्दन फौरन उस तरफ पड़े बैड की तरफ घूमी।
देवराज चौहान ने उसी पल चीते की तरह उस पर छलांग लगा दी।
कामटे को संभलने का भी मौका ना मिला।
देवराज चौहान ने एक हाथ उसके होंठों पर टिका दिया। दूसरे से रिवॉल्वर वाले हाथ पर झपट्टा मारा। रिवाल्वर हाथ से छूटकर फर्श पर पड़े गद्दे पर जा गिरी। कामटे ने देवराज चौहान का मुकाबला करना चाहा, परंतु देवराज चौहान ने दूसरी बांह सांप की तरह उसके गिर्द लपेट दी।
कामटे छटपटाया, खुद को आजाद करवाने के लिए।
परंतु सफल नहीं हो सका।
देवराज चौहान ने उस पर काबू पाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रखी थी।
खामोशी में डूबी दो-तीन मिनट तक उनके बीच जोर आजमाइश चलती रही।
फिर कामटे ने खुद को ढीला छोड़ दिया।
"तुम मेरा मुकाबला नहीं कर सकते।" देवराज चौहान उसके होंठों पर हथेली टिकाए गुर्रा उठा।
कामटे छटपटाया।
"मैं तुम्हारे होंठों से हाथ हटा रहा हूं। अगर तुमने बाहर खड़े पुलिस वालों को किसी प्रकार सतर्क कराने की कोशिश की तो तुम्हें नहीं छोडूंगा।"
कामटे ने आंखों के इशारे से कहा कि वो कोई गड़बड़ नहीं करेगा।
देवराज चौहान ने उसके होंठों से हथेली हटाई।
लेकिन दूसरी बांह से उसके शरीर को जकड़े रखा।
कामटे गहरी-गहरी सांस लेने लगा।
देवराज चौहान ने गर्दन घुमाकर गद्दे पर पड़ी रिवाल्वर को देखा, फिर कामटे से बोला---
"मैं कितनी देर 'कोमा' में रहा?"
"दो...दो महीने। पांच-सात दिन कम, या दस दिन कम।" कामटे गुस्से से भरे कह उठा--- "मुझे छोड़ दो। तुम पुलिस से टकराकर जीत नहीं सकते। तुम...।"
"खामोश रहो।" देवराज चौहान गुर्राया।
कामटे होंठ भींचकर रह गया।
"सर्दूल, सुधीर दावरे, अकबर खान, वंशू करकरे और दीपक चौला मेरे शिकार हैं, उन्हें मैं...।"
"तुम आर्य निवास होटल में पहले भी बहुत खून बहा...।"
"मेरी हालत देखी थी तुमने?" देवराज चौहान दांत भींचे धीमे स्वर में गुर्राया--- "उन्होंने मुझे मार दिया था। मेरे सिर में गोली मारी थी... और जगमोहन, उसके सिर में तो मैंने खुद गोली लगते देखा था। उन्होंने मेरा और जगमोहन का जो हाल किया, वो तो पुलिस समझ गई होगी। जगमोहन को उन्होंने उस बुरे हाल में हॉस्पिटल से उठा लिया। तुम ठीक कहते हो कि अगर वो खुद ना मर गया तो उन कुत्तों ने जगमोहन को मार दिया होगा। ये मेरा मामला है, सिर्फ मेरा मामला!" इसके साथ ही देवराज चौहान ने अपना दांया हाथ उसकी कनपटी पर पूरी ताकत से मारा।
सब-इंस्पेक्टर कामटे की आंखों के सामने लाल-पीले तारे नाचे और वो बेहोश होता चला गया।
■■■
कमरे के बंद दरवाजे के बाहर सब-इंस्पेक्टर गोरे, हवलदार और दो गन थामें कॉन्स्टेबल मौजूद थे।
गोरे, हवलदार से बोला---
"उस नर्स को गए एक घंटे से ऊपर हो चुका है, अभी तक वापस नहीं लौटी?"
"सर, उसने आकर करना भी क्या है? वैसे उसे गए डेढ़ घंटे से ज्यादा हो गया है।"
गोरे ने हवलदार को घूरा।
हवलदार तुरंत दूसरी तरफ देखने लगा।
"तुम अब समझदार हो गए हो। बड़ी बातें करने लगे हो। ये जवानी की निशानी है।"
"तूने जवान बने रहकर करना भी क्या है।" सब-इंस्पेक्टर गोरे ने मुंह बनाया।
"सर, मुझे भूख लग रही है। मैं खाना खा आऊं?"
"मैंने तेरे से कहा था कि तूने यहां से हिलना नहीं है। खाना चाहिए तो मैं यहीं ला देता हूं।"
"मैं गर्म खा आता...।" हवलदार ने गहरी सांस ली।
"मैं तेरे को गर्म ही ला के दूंगा। लाऊं क्या? मेरा भी टहलना हो जाएगा।"
"मैं भी तो खाने के साथ दहल लेना चाहता था।"
"तेरे को टहलने की कोई जरूरत नहीं है। यहीं रहकर ड्यूटी दे। ला सौ का नोट दे।"
"सौ...? वो क्यों सर?"
"खाने के पैसे नहीं देगा क्या?"
"वो तो तीस-चालीस में आ...।"
"मैंने भी तो खाना है। ये दो भी तो हैं।" गोरे ने कॉन्स्टेबलों की तरफ इशारा किया--- "हम ओहदे में बड़े हैं। खाने का खर्चा हमें करना चाहिए। सौ के ऊपर जो लगेगा, वो मैं डाल दूंगा।"
हवलदार ने चुपचाप सौ का नोट दे दिया।
"अपना मैं खा आऊंगा और तुम तीनों का लेता आऊंगा।" गोरे नोट जेब में डालते कह उठा।
हवलदार कुछ कहने लगा कि चुप हो गया।
"कह...कह...।" गोरे बोला।
"मैं तो कुछ नहीं कहने वाला था।" हवलदार कह उठा--- "मैं तो उबासी रहा था।"
"आगे से इस तरफ उबासी मत लेना। इंसानों की तरह लेना।" कहकर गोरे गैलरी में आगे बढ़ गया।
हवलदार उसे जाता देखता रहा, फिर दोनों कांस्टेबलों को देखकर बोला---
"देखा... कैसे वर्दी का रौब झाड़ता है।"
कॉन्स्टेबल मुस्कुरा कर रह गए।
"सौ का नोट मेरे से ले गया। खुद तो भरे-भरे नान खाएगा। हमारे लिए दाल-रोटी ले आएगा।"
"हमारा काम तो दाल रोटी से चल जाएगा साहब जी...।"
"मेरा तो सौ का पत्ता गया।" हवलदार ने उखड़े स्वर में कहा।
तभी कमरे का दरवाजा खुला और देवराज चौहान बाहर निकला। उसने सब-इंस्पेक्टर कामटे की, पुलिस की वर्दी पहन रखी थी। वर्दी टाईट थी, परंतु काम तो चलाना ही था। सिर पर मौजूद कैप को लगभग पूरे माथे पर झुका रखा था। बाहर निकलते ही पलट कर दरवाजा बंद किया और पलट कर आगे बढ़ते हुए दोनों हाथों से सिर की कैप को ठीक करता आगे बढ़ गया। ऐसा उसने इसलिए किया कि उनके पास से निकलते, चेहरे पर बांहें आ जाने से उसका चेहरा ठीक से ना देख सकें।
ऐसा ही हुआ।
तीन-चार सेकेंड का वक्त था, जब उनके पास से निकल कर वो आगे गया।
फिर गैलरी में आगे बढ़ता चला गया।
"कोमा पेशेंट के पास तो कोई टिककर बैठता ही नहीं है। सबको इधर-उधर घूमने की लगी है।" हवलदार बड़बड़ाया।
"मुझे लग रहा है, जैसे इंस्पेक्टर साहब कुछ लम्बे हो गए हों।" एक कॉन्स्टेबल दूर जाते देवराज चौहान को देखते कह उठा--- "कपड़े भी टाईट से लग रहे हैं।" उसने दूसरे से पूछा--- "तुझे भी ऐसा लगा क्या?"
"पता नहीं। मैंने ध्यान नहीं दिया।" दूसरा लापरवाही से कह उठा।
देवराज चौहान, कामटे की वर्दी में आधी गैलरी पार कर चुका था। गैलरी में और भी लोग आ-जा रहे थे। सामने से वही नर्स आ रही थी। देवराज चौहान उसे नहीं पहचानता था। परंतु वो तुरंत देवराज चौहान को पहचान गई।
"ऐ!" नर्स उसके सामने ठिठकती सी कह उठी--- "तुम कहां जा रहे हो?"
"मैं?" देवराज चौहान ठिठका।
नर्स के चेहरे पर अजीब से भाव थे।
"तुम तो कोमा में थे, तीन नम्बर में...।"
"तो ये बात है।" देवराज चौहान मुस्कुराया--- "वो मेरा भाई है और वो अभी भी कोमा में है। मैं उसे ही देखने आया था।" कहकर देवराज चौहान शांत भाव से आगे बढ़ता चला गया।
नर्स के चेहरे पर अजीब सी उलझन दिखाई दे रही थी।
"ऊपर वाला भी एक जैसे चेहरे क्यों बना देता है!" बड़बड़ा कर वो पुनः आगे बढ़ गई।
नर्स कमरे के दरवाजे पर पहुंची और हवलदार, दोनों कांस्टेबलों पर उड़ती सी नजर मारकर दरवाजा खोला और भीतर प्रवेश करते हुए दरवाजा बंद किया और फर्श पर बिछे गद्दे को देखकर बड़बड़ाई---
"वो पुलिस वाला अभी तक नहीं आया। सब कामचोर हैं!" अपनी कुर्सी की तरफ बढ़ी कि तभी उसकी निगाह फर्श पर पड़े नीले गाउन की तरफ गई। वो गाउन हॉस्पिटल के मरीजों को पहनाया जाता है।
आगे बढ़कर उसने गाउन उठाया।
"ये यहां कैसे आ गया? पहले तो नहीं था।" नजर कोमा में पड़े उस व्यक्ति पर गई।
उसका पहना नीला गाउन उसे वहीं से नजर आ गया।
फिर नजरें देवराज चौहान के बैड पर गईं।
अगले ही पल उसकी आंखें सिकुड़ी।
देवराज चौहान ने सिर पर चादर ओढ़ रखी थी, उसने यही सोचा।
नर्स आगे बढ़ी और देवराज चौहान के सिर से चादर हटाकर छाती, तक कर दी। अगले ही पल उसकी आंखें फैलती चली गईं। वो देवराज चौहान का नही, सब-इंस्पेक्टर कामटे का चेहरा था।
नर्स कई पलों तक तो पलकें झपकानी भूल गई। जैसे वो मामला समझ रही हो।
फिर एकाएक ही वो चीखी और पलटकर दरवाजे की तरफ दौड़ी। दरवाजा खोला।
हवलदार और दोनों कांस्टेबलों की नजरें इसी तरफ थीं।
"वो... वो भाग गया।" नर्स चीखी--- "उसे शायद होश आ गया था।"
"क्या?"
तीनों भागकर कमरे के भीतर पहुंचे।
बैड पर कामटे को बेहोश पड़े देखकर सारा मामला उनकी समझ में आ गया।
"इसका मतलब हम जिसे कामटे साहब समझ रहे थे, वो देवराज चौहान ही था।" हवलदार के होंठों से निकला।
"मैंने तो पहले ही कहा था कि वो लम्बा लग रहा...।"
"वो बाहर ही कहीं होगा। शायद हम उसे पकड़ लें।" हवलदार चीखकर बाहर की तरफ दौड़ा।
दोनों कांस्टेबल भी उसके पीछे भागे।
■■■
शाम के पांच बज रहे थे।
पुलिस हैडक्वार्टर में, कमिश्नर बाजरे के ऑफिस में वानखेड़े और सब-इंस्पेक्टर कामटे मौजूद थे। बाजरे खा जाने वाली निगाहों से कामटे को घूर रहा था। जबकि कामटे का सिर शर्म के मारे झुका हुआ था।
अभी-अभी कामटे बाजरे को सब कुछ बताकर हटा था।
"तुम्हें शर्म आनी चाहिए कामटे कि देवराज चौहान तुम्हें बेहोश करके तुम्हारी वर्दी पहनकर हस्पताल से साफ निकल गया।"
"सर वो... वो...।"
"शटअप!"
कामटे सिर झुकाए खड़ा रहा।
"क्या उसने कुछ बताया कि क्या हुआ था आर्य निवास होटल में?"
"मैंने जानने की पूरी चेष्टा की, परंतु जब भी बात यहां तक पहुंचती तो देवराज चौहान पागल हो उठता था। वो सर्दूल, वंशू करकरे, दीपक चौला, सुधीर दावरे और अकबर खान को याद करके गुर्राने लगता था। उसने कहा कि वो इन सबको मार देना। जगमोहन के बारे में मैंने उसे अवश्य बताया कि वो मरने की हालत में था कि कुछ लोग उसे हॉस्पिटल से उठा ले गए। उसे इस बात का पूरा यकीन था कि जगमोहन अब तक जिंदा नहीं होगा। वो कह रहा था कि उसने खुद जगमोहन के सिर गोली लगते देखी।"
बाजरे होंठ भींचकर रह गया।
वानखेड़े ने आंखें बंद कर रखी थीं।
"देवराज चौहान की हालत पागलों जैसी हो रही थी। वो... वो मेरा सर्विस रिवाल्वर भी साथ ले गया है।"
"और तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आ रही कि...।"
"कमिश्नर!" वानखेड़े ने आंखें खोलीं--- "मुझे भी कुछ कहने दो।"
"क्या?" बाजरे ने उसे देखा।
"जो हुआ, उसमें कामटे की गलती नहीं है। देवराज चौहान का मुकाबला कामटे जैसा इंसान नहीं कर सकता। वो नम्बर वन डकैती मास्टर है। अंडरवर्ल्ड में उसका नाम है। लोग उसका नाम सुनकर सीधे हो जाते हैं। उस वक्त कामटे के साथ दो-चार लोग होते तो शायद देवराज चौहान काबू में आ जाता। क्योंकि वो पुलिस वालों से मुकाबला नहीं करता है।"
"तुम कामटे की साईड ले रहे हो वानखेड़े...।"
"नहीं। मैं साईड नहीं ले रहा। हकीकत बयान कर रहा हूं। मैं खुद दो-तीन बार उससे हार चुका हूं।"
"इस वक्त देवराज चौहान हमारे लिए कीमती था। वो हमें बता सकता था कि उस दिन होटल में क्या हुआ था।"
"वो तो हाथ से निकल गया।" वानखेड़े ने शांत स्वर में कहा--- "जगमोहन, उसके बेटे, भाई की तरह था। सब कुछ है उसका। जगमोहन का कुछ भी बुरा हो, वो सह नहीं सकता और ताजा स्थिति ये है कि उसे स्पष्ट तौर पर लग रहा है कि जगमोहन का घायल स्थिति में सर्दूल या उसके दोस्तों ने अपहरण किया और उसे मार दिया होगा। वो सच में पूरी तरह पागल हो गया होगा और मैं तुम्हें बता दूं कि आज से पहले देवराज चौहान ऐसी स्थिति में नहीं पहुंचा। वो हर स्थिति में, हर हालातों में शांत रहने वाला इंसान है। परंतु इन हालातों ने उसे पागल बना दिया होगा।"
"तुम कहना क्या चाहते...।"
"यही कि देवराज चौहान का निकल जाना पुलिस के हक में बुरा नहीं है।"
"क्या मतलब?"
"पुलिस सर्दूल, वंशू करकरे, दीपक चौला, अकबर खान और सुधीर दावरे को तलाश कर रही है। परंतु पुलिस को अभी तक उनकी हवा भी नहीं मिली। मिलने वाली भी नहीं। ये सब पुलिस के लिए सिरदर्द हैं और अब देवराज चौहान इनका दुश्मन बन चुका है। उसने कामटे से कहा भी है कि वो सबको मार देगा।"
कमिश्नर बाजरे ने वानखेड़े की आंखों में देखा।
"सर्दूल को तो तुम जानते ही हो कि उसकी क्या हस्ती है?" बाजरे बोला।
"जानता हूं।"
"बाकी सब भी नामी खतरनाक लोग हैं।"
वानखेड़े ने मुस्कुराकर सिर हिलाया।
"देवराज चौहान इनका क्या बिगाड़ लेगा, जबकि वो अकेला है?"
"तुम देवराज चौहान को जानते हो?"
"ज्यादा नहीं।"
"जबकि मैं उसकी नस-नस से वाकिफ हूं।" वानखेड़े उठता हुआ बोला--- "मेरा दावा है कि वो लोग देवराज चौहान का कुछ नहीं बिगाड़ सकते और देवराज चौहान उन सबको बुरी मौत मार देगा।"
"तुम देवराज चौहान की तारीफ कर रहे...।"
"गलत मत कहो कमिश्नर। मैं तुम्हें देवराज चौहान की हकीकत बता रहा हूं। यकीनन वो इस वक्त पागल हुआ होगा, परंतु उस जैसा पागल कभी भी अपने होश नहीं होता। वो खतरनाक शिकारी बनकर सामने आएगा और तुम...।"
"मैं...मैं अब क्या करूं?" परेशान सा बाजरे कह उठा।
"तुम कुछ भी नहीं कर सकते। खामोश बैठो और तमाशा देखो।" वानखेड़े ने गंभीर स्वर में कहा और बाहर निकल गया।
कमिश्नर बाजरे दरवाजे के खुले पल्लों को देखता रहा। सोचता रहा।
कामटे चुप सा खड़ा रहा।
धीरे-धीरे खामोशी लंबी होने लगी तो सब-इंस्पेक्टर कामटे दबे स्वर में बोला---
"सर...।"
बाजरे सोचों से बाहर निकला। कामटे को देखा।
"सर, मेरे को देवराज चौहान को ढूंढने का काम दे दीजिए।"
बाजरे के माथे पर बल पड़े।
कामटे सकपकाया-सा बाजरे को देखता रहा।
"तू देवराज चौहान को ढूंढेगा?" बाजरे ने तीखे स्वर में कहा।
"ह...हां सर।"
"ढूंढ कर क्या करेगा?" बाजरे का स्वर पहले जैसा ही था।
"पकड़ूंगा उसे। आपके पास लेकर आऊंगा हथकड़ी लगाकर।" कामटे हड़बड़ाये स्वर में कह उठा।
"वानखेड़े तो ये काम नहीं कर सका। देवराज चौहान के पीछे उसे कई साल हो गए--- और तू कर लेगा कामटे...।"
"ह...हां सर, मैं करूंगा। देवराज चौहान को पकड़कर मैं आपके सामने पेश करूंगा।"
"पेश करेगा?" बाजरे के माथे पर अभी तक बल पड़े हुए थे।"
"हां सर।"
"तीसमार खां है तू?"
"सर, एक बार मुझे मौका दीजिए। मैं देवराज चौहान को जरूर पकड़ लूंगा।" कामटे के स्वर में आग्रह था।
"देवराज चौहान ने तेरी लाश मेरे सामने कर दी, तो?"
"ऐसा नहीं होगा सर...मैं...।"
"वो खतरनाक डकैती मास्टर है। गली-मोहल्ले का गुंडा नहीं जो तू उसे...।"
"मैं भी सब-इंस्पेक्टर कामटे हूं।" कामटे दृढ़ स्वर में कह उठा--- "उसे पकड़ कर ही रहूंगा।"
बाजरे घूरने लगा कामटे को।
कामटे हिम्मत बांध कर खड़ा रहा।
"ठीक है।" बाजरे ने गंभीरता से सिर हिलाया--- "जो तेरे मन में है, कोशिश कर ले।"
"थैंक्यू सर।"
"ये ना हो कि तू भी सावटे की तरह मारा जाए।"
"ऐसा नहीं होगा सर।"
"जैसे तेरे को सब पता है कि ऐसा नहीं होगा।" बाजरे ने कहा।
"सर मुझे रिवाल्वर चाहिए...।"
"मालखाने से रिवाल्वर अपने नाम चढ़वा ले। मैं फोन कर देता हूं।"
"ठीक है सर...।"
"और पहले वाले रिवाल्वर की कम्प्लेंट लिखकर दे कि वो रिवाल्वर डकैती मास्टर देवराज चौहान छीन कर ले गया है। उसके बाद ही नई रिवाल्वर अपने नाम चढ़वाना।" बाजरे ने शांत स्वर में कहा।
कामटे ने सिर हिला दिया।
"साथ में पुलिस वालों की जरूरत हो तो ले लेना...।"
"अभी तो जरूरत नहीं। मैं जाऊं सर?"
बाजरे के सिर हिलाने पर कामटे बाहर निकल गया।
एक जगह ठिठककर कामटे ने गहरी सांस ली। वो जानता था कि देवराज चौहान को पकड़कर लाने जैसी बड़ी बात उसने कह दी है। पता नहीं उसे पकड़ भी पाएगा या नहीं?
डेढ़ महीने से ऊपर अस्पताल में रहकर वो थक सा गया था। घर की याद आई उसे। परंतु घर जाने का कोई फायदा नहीं था। सुनीता उससे नाराज होकर अपने बाप के घर चली गई थी। कामटे वहां से हटा और आगे बढ़ गया। पहले वो रिवाल्वर ले लेना चाहता था मालखाने से।
अब फिर वापस उन्ही हालातों पर आते हैं।
देवराज चौहान और कामटे ने चाय पी, साथ बैठकर। कामटे ही चाय बनाकर लाया था। चाय पीने के दौरान उनमें आपस में कोई खास बात नहीं हुई। देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली। कामटे चाय के खाली कप किचन में रख आया और आगे बढ़कर वो लिफाफा उठाया, जिसमें दीपक चौला के भेजे बीस लाख रुपए थे।
कई पलों तक कामटे लिफाफे में पड़े नोटों की गड्डियों को देखता रहा, फिर बड़बड़ा उठा---
"खाकी वर्दी भी बहुत रंग दिखाती है...।" इसके साथ ही पांच सौ की एक गड्डी निकाल कर जेब में डाली, फिर लिफाफा लिए भीतर के कमरे में चला गया। पांच मिनट बाद खाली हाथ वापस लौटा और देवराज चौहान से बोला--- "मैं तुम्हारे लिए कपड़े लेने जा रहा हूं, ताकि तुम मेरे कपड़े पहनकर बाहर ना जाओ। तुम्हारे शरीर पर मेरे कपड़े होंगे तो मेरे लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी।"
देवराज चौहान ने कश लेकर सिगरेट पानी के गिलास में डालकर उसे देखा।
"दीपक चौला के उस गैराज रूपी ठिकाने पर कितने लोग हैं?" देवराज चौहान ने पूछा।
"वहां?" कामटे के चेहरे पर सोच के भाव उभरे--- "जब मैं गया था तो चार बाहर थे और दो भीतर उसके पास। उनके अलावा मुझे कोई और नहीं दिखा। इतने ही थे छः...।"
देवराज चौहान चुप रहा। कामटे उसे देखता रहा।
"मेरे ख्याल में तुम उन्हें संभाल लोगे।" कामटे बोला।
"आसानी से...।" देवराज चौहान के दांत भिंच गए।
"जरूरत हो तो, मैं भी तुम्हारे साथ चल सकता हूं...।"
"तुम?" देवराज चौहान ने उसे देखा।
"हां। दूर रहकर जितनी तुम्हारी सहायता कर सका, कर दूंगा।"
"जरूरत नहीं।" देवराज चौहान कठोर स्वर में बोला--- "मैं निपट लूंगा सब...।"
"जैसी तुम्हारी मर्जी। वैसे तुम्हारे साथ मेरा ना जाना ही ठीक है।" कामटे ने कहा और जेब से मोबाइल निकाल कर कुर्सी पर जा बैठा और नम्बर मिलाने लगा।
"किसे फोन कर रहे हो?" देवराज चौहान ने पूछा।
"अपनी पत्नी को।" कामटे ने गहरी सांस ली--- "मेरे व्यस्त रहने की वजह से वो रूठ कर अपने बाप के घर चली गई है। मुझे इतना भी वक्त नहीं मिला कि उसे एक फोन कर सकूं।" कामटे ने फोन कान से लगा लिया।
"हैलो...।" तभी सुनीता की आवाज आई।
"सुनीता, मैं... कामटे, तुम्हारा पति...।"
"तुम?" सुनीता का गुस्से से भरा स्वर कानों में पड़ा--- "याद आ गई मेरी? क्या जरूरत थी फोन करने की? अब भी फोन ना करते। तुम्हारा काम तो चल ही रहा है।"
"काम...कैसा काम?"
"वो ही काम, तुम अच्छी तरह समझ रहे हो।"
"तुम्हारे बिना मेरा कोई काम नहीं चल रहा। वर्दी तक धोने वाला कोई नहीं है।"
"मैं धोबन हूं...।"
"तू तो मेरे दिल की रानी है मेरी महारानी है। तेरे बिना मैं नहीं रह...।"
"तुमने तो घर आना ही छोड़ दिया था। दिन-रात अस्पताल में उस देवराज चौहान के साथ रहने लगे... जैसे मैं तो हूं ही नहीं...।"
"वो मेरी ड्यूटी थी। पुलिस वालों ने ये सब करना पड़ता...।"
"तुमने ड्यूटी के साथ ब्याह किया था तो फिर मेरे साथ क्यों दोबारा ब्याह कर लिया...।"
"बेकार की बातें छोड़। घर आ जा अब...।"
"तेरे साथ रहकर मेरा दिमाग खराब होता है। मैंने बापू की खूब खबर ली जिसने मेरा ब्याह तुम्हारे साथ कर दिया था। वो तो...।"
"तेरे बापू ने कोई गलती नहीं की। आज मैं बीस लाख रुपया लाया हूं...।"
"बीस लाख?"
"आ के देख ले...।"
"चोरी भी करनी शुरू कर दी।"
"पागल है क्या?" कामटे ने मुंह बनाया--- "ये उसी खाकी वर्दी का कमाल है, जिसे तू धोया करती थी।"
"मुझे विश्वास नहीं आता।"
"तेरी कसम।"
"मेरी कसम झूठ मत खाना।"
"कैसी बातें करने लगी है तू। आकर संभाल ले बीस लाख को।"
"संभाल लूं...?"
"हां। वो तेरा ही तो है।"
"तेरे को खबर बतानी है। छोटी का ब्याह तय हो गया है।"
"पिंकी का?"
"हां, तुम्हारी साली का ब्याह तय हो गया है। बापू सिर पकड़कर बैठा है कि शादी के लिए पैसा कहां से लाएगा। लड़के वाले जल्दी शादी करने को कह रहे हैं। ये तूने बीस लाख वाली अच्छी खबर सुनाई।"
कामटे सकपका उठा।
"तो क्या इन पैसों से तू पिंकी की शादी करेगी?"
"पांच-सात ही तो लगना है। मर क्यों रहे हो? तुम्हें ही तो कहा है कि वो बीस लाख मेरा है।"
"लेकिन मेरा ये मतलब तो नहीं था।"
"तेरा मतलब जो भी हो, मेरा मतलब तूने सुन-समझ लिया ना, हां बोल।"
क्या करता कामटे! बे-मन से हां करनी पड़ी।
"एक और खबर सुन ले।"
"वो भी बता दे।" कामटे ने तीखे स्वर में कहा।
"मरा क्यों जा रहा है। तू खुश हो जाएगा सुनकर...।"
"मेरे लिए दो-चार वर्दियां सिलवा ली क्या?"
"तू बाप बनने वाला है।"
"ब... बाप...?" कामटे हड़बड़ा उठा
"मेरे साथ तू ही सोया था तो बाप भी तो तू ही बनेगा। तू ही मेरा आदमी है।" उधर से सुनीता ने तीखे स्वर में कहा।
"वो... वो बात नहीं। तू तो कब से अपने बाप के घर में है। कोई गड़बड़ तो नहीं, वो मेरा ही है ना?"
"तेरा सिर गंजा कर दूंगी, दोबारा तूने ऐसी बात कही तो... तेरी तो...।"
"बस...बस, मैं समझ गया, वो मेरा ही है।" कामटे सकपकाकर कह उठा।
"ये बता मेरे पीछे से तूने क्या किया?"
"पीछे से?"
"दो महीने हो गए मुझे बाप के यहां आए, कुछ तो गड़बड़ की होगी?"
"कैसी गड़बड़?"
"किसी औरत के साथ...।"
"पागल हो गई है तू। यहां सांस लेने की फुर्सत नहीं और तू कहती है कि...।"
"ठीक है, ठीक है। हाथ का इस्तेमाल तो किया ही होगा।"
"तौबा! तेरे बाप की तौबा जिसने तेरे को पैदा किया।"
"मां ने पैदा किया, बाप ने नहीं।" सुनीता के हंसने की आवाज आई--- "मैं आ रही हूं। रात को तुझे बताऊंगी।"
"जल्दी आ। खाना-पीना बना। बाहर का खा-खा के तंग आ गया हूं।"
"दो घंटे में आ जाऊंगी। बीस लाख संभाल के रखा है ना?"
"तू बीस लाख के लिए आ रही है या मेरे लिए?"
"दोनों के लिए। पिंकी की शादी भी तो करनी है।"
"तू आ। जैसे भी आ।" कहने के साथ ही कामटे ने फोन बंद करके जेब में रखा।
देवराज चौहान आंखें बंद किए बैठा था। उसने आंखें खोलकर उसे देखा।
"सुनीता आ रही है...।" कामटे मुस्कुराकर बोला--- "बीस लाख के बारे में सुनकर सीधे हो गई है।"
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।
कामटे कुर्सी से उठता हुआ बोला---
"वैसे तो सुनीता के आने से पहले ही मैं आ जाऊंगा। अगर वो पहले आ जाए तो तुम यही कहना कि मेरे दोस्त हो।"
"तुम मेरे कपड़े लेने जा रहे हो ना। कोई चालाकी तो नहीं है तुम्हारे दिमाग में...।"
"मुझ पर भरोसा करो देवराज चौहान।" कामटे गंभीर स्वर में कह उठा--- "तुम उन लोगों से कहीं बेहतर लगे हो मुझे। सर्दूल एंड कम्पनी में सब दरिंदे हैं। परंतु तुम ऐसे नहीं लगे। तुम्हारी कमर का क्या साइज है?"
"अड़तीस।"
"मैं एक घंटे में वापस आता हूं।" कहकर कामटे बाहर निकलता चला गया।
■■■
कामटे के गए एक घंटा हुआ था कि सुनीता आ गई। दरवाजा खुला ही था। भीतर प्रवेश करते ही उसने बैग नीचे रखा। यही सोचा था कि उसके इंतजार में कामटे ने दरवाजा खोल रखा है, पर देवराज चौहान को देखकर वो चौंकी।
देवराज चौहान ने उसे देखा तो शांत भाव में मुस्कुरा पड़ा।
"कौन हो तुम?" सुनीता के होंठों से निकला।
"कामटे की पहचान वाला हूं। वो बाजार गया है।"
सुनीता ने फिर कुछ नहीं कहा और बैग को भीतर वाले कमरे में लेती चली गई। फिर वो बीस लाख के लिए सारे घर की तलाशी लेने लगी। परंतु बीस लाख उसे कहीं नहीं मिला। सुनीता के माथे पर बाल आ गए। उसे लगा कि कामटे ने उससे झूठ बोला है कि उसके पास बीस लाख है।
तभी कामटे आ गया।
देवराज चौहान को लिफाफा देते हुए कहा---
"इसमें तुम्हारे कपड़े हैं। अब मेहरबानी करके मेरे कपड़े उतार दो।"
"तुम्हारी पत्नी आ गई है।"
"अच्छा... कहां है?" कामटे की निगाह छोटे से ड्राइंग रूम में घूमी कि सुनीता पर नजर पड़ी। वो कमरे के दरवाजे पर खड़ी उसे खा जाने वाली निगाहों से घूर रही थी।
कामटे तेजी से उसकी तरफ बढ़ गया। बाँह पकड़कर उसे कमरे में लेता चला गया।
पांच मिनट बाद कामटे देवराज चौहान के सामने आ बैठा।
शाम के छः बज रहे थे।
"मैं अंधेरा होने के बाद जाऊंगा।" देवराज चौहान ने कहा।
कामटे ने सिर हिला दिया। फिर बोला---
"रिवाल्वर की गोलियां तुम्हारे पास हैं या बता दूं कि कहां से मिलेंगी।"
"हैं मेरे पास।"
"रात तुम्हें खतरा हो सकता है।" कामटे ने कहा--- "तुम खुद ही शिकार हो सकते हो।"
"अभी मुझे कुछ नहीं होगा।" देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा--- "अपना बदला पूरा करने से पहले मैं मरने वाला नहीं।"
"वहम में मत रहो। गोली किसी की सगी नहीं होती। वो सिर्फ अपना काम करती है। जब मैं वहां गया तो उनकी संख्या छः थी। अब रात को उनकी संख्या ज्यादा भी हो सकती है। और तुम अकेले हो।"
देवराज चौहान के दांत भिंचे रहे।
तभी सुनीता वहां आई। वो खुश नजर आ रही थी। जाहिर था कि बीस लाख उसे मिल गए थे।
"चाय बनाऊं जी क्या?" उसने पूछा।
"बना दो।"
"समोसे भी ले आऊं, बाजार से?"
"ले आ...।"
सुनीता वहां से चली गई।
"खुश है।" कामटे गहरी सांस लेकर कह उठा--- "इसलिए नहीं कि अपने घर वापस आ गई है। इसलिए कि बीस लाख मिल गए हैं।"
तभी कामटे का मोबाइल बजने लगा
कामटे ने बात की। दूसरी तरफ कमिश्नर बाजरे था।
"कहां हो कामटे...?" बाजरे की आवाज कानों में पड़ी।
"सर! मैं उन्हीं लोगों की तलाश में लगा हूं। बहुत जल्दी ही मुझे सफलता मिलने वाली है। हम सब को पकड़ लेंगे।"
"मैंने तुम्हें ये बताने के लिए फोन किया है कि ये केस बंद कर रहा हूं...।"
कामटे के मस्तिष्क को झटका लगा।
एकाएक उसके होंठों पर मुस्कान फैल गई।
वो समझ गया कि दीपक चौला ने भारी नोट देकर बाजरे से सौदा पटा लिया है।
देवराज चौहान की निगाह कामटे पर थी।
"सर, मैं उन सबके करीब पहुंच चुका हूं। उनकी खबर मुझे मिलने वाली है...कि वो कहां पर छिपे हुए हैं।" कामटे ने कहा।
"तुमने मेरा आर्डर नहीं सुना।" बाजरे का कानों में पड़ने वाला स्वर कुछ कठोर हुआ।
"जी-जी...।"
"आर्य निवास होटल में जो कुछ भी हुआ, वो केस बंद किया जा रहा है। उस मामले के मुजरिम सुधीर दावरे, अकबर खान, वंशू करकरे और दीपक चौला नहीं हैं। कुछ और लोगों ने इस काम को अंजाम दिया है। मैं रिपोर्ट तैयार कर रहा हूं। हम यूँ ही उनके पीछे पड़े अपना वक्त खराब करते रहे।"
कामटे समझ गया कि बाजरे को बहुत मोटी रकम चढ़ा दी गई है।
"लेकिन सर, वो परमजीत...।"
"परमजीत अब कुछ नहीं कह रहा। वो खुद को बेगुनाह बताता है। पुलिस को भी लग रहा है कि वो बे-गुनाह है। उस दिन आर्य निवास होटल में जो कुछ हुआ, वो सब किन्हीं और लोगों ने किया।"
"सर।" कामटे बोला--- "मैंने इस केस पर बहुत मेहनत की है। अगर केस बंद हो गया तो मेरी तरक्की कैसे होगी?"
"तरक्की हो जाएगी।"
"ओह थैंक्यू सर।" कामटे ने मन ही मन गहरी सांस ली।
"अब समझ गए कि ये केस बंद हो गया है।"
"यस सर।"
"तुम कल से थाने में पहुंचो और पहले की तरह अपनी ड्यूटी दो।"
"यस सर। और देवराज चौहान का क्या करें?" कामटे ने देवराज चौहान को देखा--- "उसे भी तो पकड़ना है।"
"अब इस मामले में कुछ नहीं करना है। देवराज चौहान की भी जरूरत नहीं है। मामला खत्म हो गया।"
"ठीक है सर।"
"मैं कोशिश करूंगा कि एक-दो महीनों में तुम्हें तरक्की मिल जाए।"
"थैंक्यू सर।"
"कल से पुलिस स्टेशन पहुंचकर, अपनी ड्यूटी...।"
"सर, एक सप्ताह की छुट्टी मिल जाएगी? मैं कुछ आराम करना चाहता हूं।"
"ठीक है। छुट्टी की एप्लीकेशन थाने में दे देना।"
"जी।"
"तुमसे कोई इस मामले में पूछे तो तुमने कुछ नहीं कहना। ज्यादा बात हो तो यही कहना कि पुलिस लाईन पर चल रही थी। होटल कांड किन लोगों ने किया, ये मैं तुम्हें कल बता दूंगा।"
"समझ गया सर। ठीक है।"
बातचीत समाप्त हो गई।
कामटे ने फोन बंद करके जेब में रखा और देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान उसे ही देख रहा था।
"बाजरे को नोट चढ़ गए हैं।" कामटे मुस्कुरा पड़ा।
"तो?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"वो दावरे, करकरे, अकबर खान, दीपक चौला... सबको इस मामले से बाहर कर रहा है कि इस मामले से उनका कोई मतलब नहीं था। ये कांड दूसरे लोगों ने किया है। मेरे को भी ये बात समझा दी है उसने। दीपक चौला मुझसे पूछ रहा था कि इस मामले को कैसे खत्म किया जाए... तो मैंने ही उसे ये रास्ता बताया था।"
देवराज चौहान के दांत भिंच गए।
"कमिश्नर कहता है कि तुम भी इस मामले से बाहर हो वो पूरी तरह इस मामले से हट जाना चाहता है।"
"सब हरामी हैं।"
"जिसे मौका मिलता है, वो ही हरामी बन जाता है।" कामटे गंभीर स्वर में बोला--- "बाजरे भी आखिर क्या करता। कब तक इस मामले को लटकाए रहता। उसकी मजबूरी थी नोट लेना। नहीं तो ये लोग बाजरे को मार देते।"
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।
"अब ये मामला सिर्फ तुम्हारा और इन लोगों का रह गया है।" कामटे ने कहा।
"ये मामला शुरू से ही मेरा और इन लोगों का था।" देवराज चौहान ने कहा--- "पुलिस तो यूं ही बीच में आ गई थी।"
"परमजीत को शायद एक-दो घंटों में छोड़ दिया जाएगा।" कामटे बोला--- "वो सीधा दीपक चौला के पास जा सकता है।"
"ये सब मरेंगे। मैं एक-एक को चुनकर मारूंगा।"
कामटे कुछ बेचैन हुआ।
"तुम्हारा इस तरह मेरे घर पर मौजूद होना ठीक नहीं। पुलिस या किसी अन्य को ये बात पता चल गई तो मैं मारा जाऊंगा।"
"अंधेरा होते ही चला जाऊंगा।" देवराज चौहान ने भिंचे स्वर में कहा।
"खाना खाकर जाना। सुनीता अच्छा खाना बनाती है।" कामटे ने कहा।
देवराज चौहान ने कामटे को देखा और शांत स्वर में बोला---
"खाने की जरूरत नहीं। मैं जल्द से जल्द यहां से निकल जाना चाहता हूं।"
■■■
रात का अंधेरा फैल चुका था।
वो गैराज अंधेरे में डूबा नजर आ रहा था, जहां दीपक चौला छुपा था। देवराज चौहान पिछले पैंतालीस मिनट से अंधेरे का हिस्सा बना गैराज के बाहर मौजूद, शिकार करने का रास्ता तलाश कर रहा था। उसने समझ लिया था कि दो आदमी गैराज के बंद गेट की तरफ मौजूद हैं। बाकी के दो पास ही नजर रखने वाले ढंग से टहल रहे हैं। इनके अलावा और कोई आता-जाता नहीं दिखा था। अब रात के साढ़े नौ बज रहे थे।
देवराज चौहान गैराज के साईड वाली दीवार की तरफ बढ़ गया। जो ज्यादा ऊंची नहीं थी। उसने रिवाल्वर को पैंट में फंसाया और उछाल भरकर दीवार पर जा पहुंचा, फिर आहिस्ता से भीतर की तरफ उतर गया। रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली। पैनी, खूँखारता भरी निगाह हर तरफ जा रही थी।
हर तरफ अंधेरा पसरा था।
मिनट भर देवराज चौहान वहीं खड़ा नजरें दौड़ाता रहा।
उसे टहलने वाले दो आदमी नजर आ गए थे। इस वक्त देवराज चौहान के आसपास टूटी-फूटी कारों के ढांचे पड़े थे। अंधेरे की वजह से रास्ता भी समझ नहीं आ रहा था। जरा सा भी शोर उठने से, उसका खेल बिगड़ सकता था। रिवाल्वर थामें देवराज चौहान कारों के ढांचों में से रास्ता तलाश करता धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। रिवाल्वर हाथ में दबी थी। नजरें बार बार उन दोनों आदमियों की तरफ उठ रही थीं, जो कि कभी नजर आते तो कभी लुप्त हो जाते।
देवराज चौहान के चेहरे पर इस वक्त दरिंदगी नाच रही थी। आंखें किसी चीते की तरह खूंखारता से चमक रही थीं। वो शिकारी बना धीमे-धीमे आगे बढ़ता रहा। आखिरकार वो एक कार के ढांचे के पीछे जा पहुंचा। यहां से वो दोनों आदमी ज्यादा दूर नहीं थे। वो कभी टहलते इस तरफ आते तो कभी उधर निकल जाते।
कभी-कभार उनकी बातों की मध्यम सी आवाजें कानों में पड़ जातीं। अब वे दोनों दूसरी तरफ होकर इधर आ रहे थे।
दांत भींचे देवराज चौहान ने रिवाल्वर वाला हाथ उठाया और कार के ढांचे के ऊपर रख लिया। इस गहरे अंधेरे में निशाना लेना आसान नहीं था। जरा सी चूक शोर डलवा सकती थी और उसका खेल बिगाड़ सकती थी। देवराज चौहान ने एक निगाह गैराज की छोटी सी इमारत पर मारी, जहां दीपक चौला के मौजूद होने का अंदेशा था। उसके बाद नजरें फिर उन दोनों पर जा टिकीं वो इधर ही आते जा रहे थे।
देवराज चौहान ने उन पर नजर रखनी शुरू कर दी।
वो अब बारह-तेरह कदम दूर थे।
हर बार की तरह वो यहीं कहीं आस-पास से ही पलटते थे। परंतु इस बार देवराज चौहान ने उन्हें पलट जाने का मौका नहीं दिया। कार के ढांचे पर रिवाल्वर वाला हाथ टिका रखा था। नाल पर साइलेंसर चढ़ा था। इसलिए गोली की आवाज गूंजने का तो कोई खतरा नहीं था। एकाएक उन दोनों को ठिठकते देखा।
वो पलटने वाले थे।
और देवराज चौहान दांत भींचे एक के बाद एक ट्रिगर दबाता चला गया।
साइलेंसर लगी नाल से बारी-बारी तीन गोलियां निकलीं। दो गोलियां एक को लगीं और एक गोली दूसरे को लगी। परंतु देवराज चौहान समझ गया कि दोनों का काम हो गया है।
देखते ही देखते दोनों नीचे जा गिरे। फिर हिले नहीं। निशाना पूरी तरह काम कर गया था।
देवराज चौहान उसी प्रकार रिवाल्वर थामें बाकी दो के सामने आने का इंतजार करता रहा।
वो सामने आए। दिखे। दोनों, नीचे गिरे उन दो की तरफ बढ़ रहे थे।
"क्या हुआ इन दोनों को? दोनों ही नीचे गिर गए।" एक पास आता कह उठा--- "ऐसा कैसे हो सकता है...।"
"नशा तो नहीं कर लिया सालो ने?" दूसरा बोला।
देवराज चौहान ने उन दोनों को भी निशाने पर रखना शुरू कर दिया।
नीचे गिरे उन दोनों के पास आकर ठिठके वो।
तभी देवराज चौहान ने एक के सिर का निशाना लेकर ट्रिगर दबा दिया।
देखते ही देखते वो धड़ाम से नीचे जा गिरा।
ये देखकर चौथा चौंका। उसने फुर्ती से रिवाल्वर निकाल ली। घुप्प अंधेरा होने के बावजूद भी देवराज चौहान ने उसकी रिवाल्वर निकालने की हरकत कुछ साफ महसूस कर लिया था। वो इस वक्त आसपास देख रहा था।
"हिलना मत।" देवराज चौहान ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा--- "रिवॉल्वर गिरा दो।"
उस व्यक्ति की निगाह इस तरफ उठी।
देवराज चौहान जानता था कि वो, उसे नहीं देख पाएगा। सिर्फ एक ही डर था देवराज चौहान को कि कहीं वो गोली ना चला दे। गोली की आवाज से भीतर मौजूद दीपक चौला सतर्क हो सकता था। यहां से भाग सकता था।
"रिवाल्वर फेंको, वरना मैं तुम पर गोली चलाने जा रहा हूं।" देवराज चौहान गुर्राया।
अगले ही पल उसे रिवाल्वर गिराते देखा।
"हाथ ऊपर कर लो।"
उसने हाथ ऊपर कर लिए।
देवराज चौहान ने इधर-उधर नजर मारी। सब ठीक देखकर वो बाहर निकला और उस आदमी की तरफ बढ़ गया। इस बात के प्रति सतर्क था कि वो कोई चालाकी ना करे।
सब ठीक रहा। देवराज चौहान उसके करीब पहुंच गया। रिवाल्वर उसके पेट से लगा दी।
"मुझे मत मारना।" वो कांप उठा।
"चौला कहां है?" देवराज चौहान गुर्राया।
"अ... अंदर...।"
"अंदर कहां?"
"गैराज के भीतर तीन कमरे बने हैं।" वो डरा सा कह उठा--- "उन्हीं में से एक कमरे में चौला साहब हैं।"
"और कितने लोग हैं यहां?"
"भी...भीतर चौला साहब हैं। तीन और हैं।"
"तीन और कि दो?" देवराज चौहान ने मौत भरे स्वर में पूछा।
"त...तीन। पहले दो थे। शाम को परमजीत भी आ गया।" वो जल्दी से बोला।
उसी पल देवराज चौहान ने दो बार ट्रेगर दबाया।
दो गोलियां उसके पेट में गईं और पीठ की तरफ से हड्डी तोड़ती बाहर आ गईं।
वो 'धड़ाम' से अपने ही साथी की लाश के ऊपर जा गिरा। परंतु सांसें बाकी रहीं उसमें। उसमें देवराज चौहान नीचे झुका। रिवाल्वर उसके सिर पर लगाई और ट्रिगर दबा दिया। वो शांत पड़ गया।
दरिन्दा लग रहा था देवराज चौहान। रिवाल्वर थामें वो वापस कार के खोखे की ओट में हो आया और चैम्बर को पुनः भरा। उसके बाद बीस कदम दूरी पर नजर आ रहे गैराज के शेड की तरफ बढ़ गया। बे-आवाज। चाल में चीते की तरह फुर्ती थी। नजरें हर तरफ जा रही थीं। अभी उसने गेट में प्रवेश किया कि ठिठक गया।
उसके कानों में मध्यम सी आहटें पड़ी।
कोई इस तरफ आ रहा था।
देवराज चौहान वहीं अंधेरे में स्थिर खड़ा हो गया।
आहटें अब करीब आ गई थीं।
दो पलों बाद ही चार कदमों की दूरी पर से कोई बाहर की तरफ जाता दिखा।
देवराज चौहान ने रिवाल्वर सीधी की और ट्रिगर दबा दिया। सिर का निशाना लिया था।
बेहद हल्की सी आवाज उभरी और अगले ही पल उसे लहरा कर नीचे गिरते देखा।
देवराज चौहान फुर्ती से आगे बढ़ा और उसे थाम लिया, ताकि गिरने की आवाज ना हो। फिर उसे आहिस्ता से नीचे लिटाया और सावधानी से हर तरफ देखा और उस तरफ बढ़ गया, जिधर से वो आया था। गैराज में हर तरफ घुप्प अंधेरा था। सावधानी के तौर पर इन लोगों ने लाईटें नहीं जलाईं थी कि गैराज पूरी तरह बंद रहने का भ्रम सलामत रहे।
गैराज में जगह-जगह सामान बिखरा हुआ था। देवराज चौहान को बहुत सावधानी से आगे बढ़ना पड़ रहा था। गैराज के कोने में हल्की सी रोशनी की झलक मिल रही थी। देवराज चौहान संभल कर उसी तरफ बढ़ता रहा।
वो कमरा ही था, जहां से रोशनी की झलक मिल रही थी।
बे-आवाज सा उसके पास पहुंचकर देवराज चौहान ठिठका। रिवाल्वर हाथ में दबी थी। कमरे में आती रोशनी मध्यम सी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। देवराज चौहान के चेहरे पर छाये वहशी भाव अब स्पष्ट तौर पर चमकते नजर आ रहे थे। आंखों में दिल दहला देने वाली चमक उभरी पड़ी थी। भिंचे दांत। गालों की चमकती हड्डियां।
देवराज चौहान की आंखों में खूंखारता लहरा रही थी। वो हर तरफ देख रहा था। परंतु सब तरफ शांति थी। अलबत्ता कमरे से अवश्य कभी-कभार मध्यम सी आवाजें आती सुनाई दे जाती थीं।
देवराज चौहान की वहशी निगाहें अब कमरे के दरवाजे पर जा टिकी थीं। दरवाजा बंद था। एक खिड़की थी, वो भी बंद थी। यानी कि बाहर से भीतर नहीं झांका जा सकता था।
देवराज चौहान दबे पांव दरवाजे के पास जा पहुंचा।
भीतर से आती जो आवाज उसे सुनाई दी, उसे सुनकर उसका खून खौल उठा था।
वो दीपक चौला की आवाज थी।
देवराज चौहान ने दरवाजे पर उंगली रखी और पल्ले को जरा सा भीतर धकेला। पल्ला थोड़ा सा खुला और थम गया। दरवाजा खुला था। दांत भींचे देवराज चौहान ने दोनों पल्लों को धक्का दिया।
वो खुलता चला गया।
रिवाल्वर थामें देवराज चौहान भीतर प्रवेश कर गया।
भीतर दीपक चौला, परमजीत और एक अन्य आदमी था। उन्होंने इस तरफ देखा।
'पिट-पिट...।'
देवराज चौहान ने दो बार ट्रेगर दबाया।
परमजीत और एक अन्य आदमी की छातियों में गोलियां लगी। उनके हाथ में थमे गिलास नीचे गिरकर टूट गए। वे कुर्सियों पर बैठे थे और गोली लगते ही नीचे जा गिरे।
दरवाजे पर देवराज चौहान को देखकर दीपक चौला चौंका और सामने रखी रिवाल्वर की तरफ दौड़ा।
"रुक जा!" देवराज चौहान गुर्राया--- "वरना गोली मार दूंगा।"
दीपक चौला वहीं का वहीं अटक गया खौफ भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।
"पीछे हो जा रिवाल्वर से।" देवराज चौहान गुर्राया।
दीपक चौला दो कदम पीछे हट गया।
परमजीत फर्श पर पड़ा हिल रहा था। देवराज चौहान एक गोली उसके सिर में मारी तो वो शांत पड़ गया। दीपक चौला के चेहरे पर डर के साए लहरा रहे थे। वो बार-बार अपने सूख रहे होंठों पर जीभ फेर रहा था। नजरें देवराज चौहान पर थीं। देवराज चौहान मौत से भरी निगाहों से उसे ही देख रहा था।
"करकरे को कल रात मैंने बोट पर मार दिया।" देवराज चौहान सर्द स्वर में बोला।
"सर्दूल ने फोन पर बताया था।" चौला के होंठों से खरखराता स्वर निकला।
"कहां है सर्दूल?"
"मैं...मैं नहीं जानता।"
देवराज चौहान दरवाजे पर ही खड़ा था। हाथ में दबी रिवाल्वर का रुख उसकी तरफ था।
'अब तू भी मरेगा।"
"मुझे मत मारना।" दीपक चौला घबराकर बोला--- "मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा।"
देवराज चौहान के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान नाच उठी।
"जिंदा रहना चाहता है?"
"ह...हां...।"
"एक ही शर्त पर तुझे छोड़ सकता हूं कि-- अगर तू मुझे ये बता दे कि जगमोहन के साथ क्या हुआ। वो जिंदा है या मर गया?"
"मैं...मैं नहीं जानता। उसके बारे में यही सुना था कि उसे किसी अस्पताल से उठा लिया। फिर नहीं पता कि...।"
"उसे उठा ले जाने वाले तुम लोग ही तो हो?"
"नहीं। मैं नहीं हूं। इस बारे में मुझे कुछ नहीं पता।" दीपक चौला कांपता सा कह उठा। बार-बार उसकी नजर परमजीत और अन्य साथी पर जा रही थी--- जो अभी-अभी उसके सामने मरे थे--- "तुम तुम भीतर कैसे आ गए?"
"बाहर वालों को खत्म करके...।"
दीपक चौला को अपनी टांगें कांपती सी लग रही थीं। वो अपनी मौत को सामने देख रहा था।
"अगर तू मुझे जगमोहन के बारे में बता भी देता तो भी मैं तुझे जिंदा नहीं छोड़ता।" दरिंदगी भरे स्वर में कहा देवराज चौहान ने--- "वो दिन तुम लोगों का था। तुम लोग बहुत थे और मैं आसानी से तुम्हारे काबू में आ गया। अब तो...।"
"वो... वो सारा कसूर दावरे का था। उसने ही तुम्हें...।"
"तुमने मुझ पर और जगमोहन पर कितने चाकू के वार किए थे?" देवराज चौहान ने क्रूरता से कहा--- "तेरा उस वक्त का चेहरा आज भी मेरी आंखों के सामने नाच रहा है। तुमने मुझ पर चाकू मारे। जगमोहन पर मारे। याद है?"
"म... मुझे माफ कर...।"
"मैं तुम्हें माफ करने नहीं, तुम्हें मौत देने आया हूं।" देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली और ट्रिगर दबाता चला गया।
पिट...पिट...पिट...पिट...।
सारी गोलियां दीपक चौला की छाती में जा लगी। हर गोली के साथ दीपक चौला के शरीर को छोटे-छोटे झटके लगते रहे। कभी वो इधर लहराता तो कभी उधर। गिरने से पहले ही उसकी आंखें फट चुकी थीं। वो मर चुका था। देवराज चौहान क्रूरता भरी निगाहों से उसे देखता रहा, तब तक जब कि उसका मृत शरीर नीचे ना जा गिरा।
दीपक चौला की मौत के साथ ही एकाएक शांति छा गई थी।
लाशों के बीच रिवाल्वर थामें खड़ा रहा देवराज चौहान। वहशी नजरें हर तरफ घूमती रहीं।
वंशू करकरे और दीपक चौला आज खत्म हो गए थे उसके हाथों।
बाकी बचे तीन।
सर्दूल, सुधीर दावरे, अकबर खान।
परंतु उसे सबसे बड़ी परेशानी जगमोहन की थी।
ना जीने की खबर थी ना मरने की।
यही तड़प देवराज चौहान को खाए जा रही थी।
रिवाल्वर थामें पलटा देवराज चौहान और दरवाजे से बाहर आ गया। बाहर हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा था। वो आगे बढ़ा कि एकाएक ठिठक गया। कानों में मोबाइल बजने की बेल पड़ी।
पलटकर देवराज चौहान वापस कमरे में प्रवेश करता चला गया।
नजरें घूमने लगीं कि उसकी निगाहों से बचता मोबाइल फोन आ गया।
दांत भींचे देवराज चौहान मोबाइल को देखता रहा कि एकाएक फोन बजना बंद हो गया।
देवराज चौहान देखता रहा मोबाइल को।
वो फिर बजने लगा।
आगे बढ़कर देवराज चौहान ने फोन उठाया और कॉलिंग स्विच दबाकर फोन कान से लगाया। बोला कुछ नहीं।
कुछ पल तो दूसरी तरफ से भी आवाज नहीं आई। फिर आवाज आई---
"चौला...।"
देवराज चौहान ने पहचाना कि वो सर्दूल की आवाज है।
"वो मर गया।" देवराज चौहान ने सर्द स्वर में कहा।
उधर से कुछ खामोशी के बाद सर्दूल की आवाज आई---
"देवराज चौहान?"
देवराज चौहान ने बिना कुछ कहे फोन को वापस रखा और बाहर आ गया। अंधेरे से भरा गैराज पार करते वक्त रिवाल्वर हाथ में दबी थी। कोई भरोसा नहीं था कि कब कौन सामने आ जाए।
परंतु सब ठीक रहा। वो गैराज से बाहर निकल आया।
रिवाल्वर उसने जेब में डाली और पैदल ही एक तरफ बढ़ गया।
सतर्क था वो।
नजरें हर तरफ घूम रही थीं।
कुछ ही देर में टैक्सी मिल गई तो उसे माहिम चलने को कहा और बैठ गया।
आधे घंटे में माहिम पहुंचकर टैक्सी छोड़ी और पैदल ही आगे बढ़ गया।
रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। सड़कों पर भरपूर चहल-पहल थी। जल्दी ही वो निचले दर्जे के एक होटल में पहुंचा और कमरा लिया और बैड पर जा लेटा। ऐसे होटल में रहने का फायदा ये था कि वो किसी की नजरों में नहीं आ सकता। बंगले पर जाने का उसका मन नहीं था। जगमोहन के बिना वो बंगले पर जाना नहीं चाहता था और जगमोहन के बारे में कोई भी खबर नहीं थी उसे... कि वो जिंदा है या मर गया। इसके आगे वो जगमोहन के बारे में सोच ही नहीं पाता था। सर्दूल, दावरे और अकबर खान के चेहरे आंखों के सामने घूमने लगते। अब इन्हें तलाश करके खत्म करना बाकी रह गया था। उसके बाद जगमोहन की तलाश करनी थी। उसके बारे में कोई खबर पानी थी कि क्या हुआ उसके साथ, जब उसे हॉस्पिटल से उठा लिया गया था?
अब पाठकों को बताते हैं कि ये मामला शुरू कैसे हुआ? देवराज चौहान की जिंदगी में मौत का तूफान कैसे उठ खड़ा हुआ उस दिन...।
उस दिन, सुबह के नौ बज रहे थे।
देवराज चौहान और जगमोहन किसी जरूरी काम से मुंबई से पूना जा रहे थे। अभी उन्होंने सफर शुरू ही किया था कि देवराज चौहान का मोबाइल बज उठा। जगमोहन कार ड्राइव कर रहा था। बगल में बैठे देवराज चौहान ने फोन निकाला और स्क्रीन पर आया नंबर देखा, जिसे कि वो समझ नहीं पाया कि फोन कहां से किया जा रहा है।
"हैलो।" देवराज चौहान ने कॉलिंग स्विच दबाकर फोन कान से लगाया।
"देवराज चौहान...।"
"हां...।" देवराज चौहान बोला---"तुम कौन हो?"
"पहचाना नहीं मुझे? मैं राणे-राणे हूं। साल भर पहले हम कोरिया में मिले थे। पैराडाईज होटल में। हमने साथ में लंच भी लिया था। क्योंकि उस सुबह मैंने तुम्हें कुछ लोगों से बचाया था।"
"पहचान लिया।" देवराज चौहान मुस्कुराया--- "तुम राणे हो। तुम्हारा चेहरा याद आ गया मुझे। कहां हो तुम?"
"मुम्बई में...।"
"आज अचानक कैसे याद कर...।"
"मुझे तुम्हारी जरूरत है देवराज चौहान ल। मैं मुसीबत में हूं...।" राणे की आवाज कानों में पड़ी।
"कैसी मुसीबत?"
"फोन पर नहीं बताया जा सकता। तुम मुझसे मिलो, मैं...।"
"मैं पूना जा रहा हूं। कल या परसों वापस लौटूं...।"
"ये क्या कह रहे हो? मैं मुसीबत में पड़ा हूं। वो मुझे मार देगा। उसका दिया समय समाप्त हो चुका है। मैं छुपा पड़ा...।"
"तुम किसकी बात कर रहे हो?"
"सुधीर दावे की। वो मुंबई का ड्रग्स किंग है। खतरनाक है। कमीना मेरे पीछे पड़ गया है।"
"पूरी बात बताओ...।"
"ये बात फोन पर नहीं हो सकती। तुम्हें मुझसे मिलना होगा। प्लीज, इंकार मत करना। मैंने बहुत आशा के साथ तुम्हें फोन किया है। मुझे तुम्हारी सहायता की जरूरत है। मत भूलो कि कोरिया में मैं तुम्हारे काम आया था। तुमने खास कुछ नहीं करना है। जो मामला है मैं तुम्हें बताऊंगा, उस पर तुमने मेरी तरफ से सुधीर दावरे से बात करनी है। वो गलतफहमी में है। खामख्वाह ही मेरे पीछे पड़ गया है।" राणे का व्याकुल स्वर देवराज चौहान के कानों में पड़ा।
देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
इस बीच जगमोहन कई बार, देवराज चौहान पर निगाह मार चुका था।
"तुम कहां हो इस वक्त?" राणे की आवाज कानों में पड़ी।
"हम कालबा देवी रोड पर हैं।"
"हम, क्या तुम्हारे साथ कोई और भी है?"
"जगमोहन है।"
"समझ गया। सुनो, तुम वहीं रुक जाओ। कालबा देवी रोड पर आर्य निवास होटल है। उस होटल में कमरा ले लो। मैं कुछ देर बाद तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा। इंकार मत करना।"
"मुलाकात के लिए कमरा लेने की क्या जरूरत...।"
"मुझे जरूरत है। सुधीर दावरे के आदमी मुझे मारने के लिए ढूंढ रहे हैं। मैं खुले में नहीं रह सकता।"
देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
"हां तो कहो...।" राणे की आवाज कानों में पड़ी--- "इंकार मत करना।"
"ठीक है। मैं आर्य निवास होटल में सुरेंद्र पाल के नाम से कमरा ले रहा हूं। तुम जल्दी पहुंचना।" देवराज चौहान ने कहा।
"मैं जल्दी आऊंगा।"
फोन बंद करता देवराज चौहान, जगमोहन से कह उठा---
"पूना जाना छोड़ो अभी। यहां कहीं आर्य निवास होटल है। हम वहां राणे से मिलेंगे।"
"जरूरी है?" जगमोहन ने गहरी सांस ली।
"जरूरी ही समझो। साल भर पहले इस राणे ने कोरिया में बिना मतलब में मेरी सहायता की थी। खुद भी खतरे में पड़ गया था।"
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा और कार की रफ्तार धीमी कर ली।
"कहां है आर्य निवास होटल?" देवराज चौहान ने पूछा।
"उस तरफ। पास में ही है। मैंने देखा हुआ है।" जगमोहन बोला।
■■■
0 Comments