“मुझे फिक्र हो रही है ।” - बाबू कामले बोला ।
वह डिब्बे के पीजा पार्लर के करीब खड़ी एक काली एम्बेसेडर में अपने चार प्यादों के साथ बैठा हुआ था ।
“कैसी फिक्र ?” - एक प्यादा, बोला ।
“ट्रांसमीटर का सिग्नल लगातार एक ही जगह से आ रहा है । सुबह से शाम हो गई । अभी तक सोएला है साला हलकट !”
कोई कुछ न बोला ।
“साली, मेरे कू गारंटी होना मांगता है कि वो भीतर है ।”
“बाप, जब सिग्नल आएला है तो...”
“फिर भी गारंटी होना मांगता है ।”
“हम पालर के पीछू डिब्बे के घर में जाएंगे तो वागले कू शक नेई हो जाएगा ।” 
बाबू कामले खामोश रहा । उसके चेहरे पर चिंता और सोच के भाव गहन हो गए ।
“घड़ियां उतारो ।” - फिर वह एकाएक गुर्राया ।
“क... क्या ?”
“अंगूठियां भी । किसी के गले में चेन हो तो वो भी ।”
एक मिनट में पांच घड़ियां, चार अंगूठियां और दो चेनों की एक रूमाल में एक पोटली बन गई ।
“फ्रेडो !” - बाबू कामले बोला - “पोटली संभाल और डिब्बे के पास पहुंच । माल खरीदने का वास्ते वो तेरे कू पीछे के कमरे में ले के जाएंगा । तब तेरे कू ये बात पक्की करना मांगता है कि वागले भीतर है ।”
“बाप” - फ्रेडो बोला - “जब सिग्नल...”
“चोप !”
“मेरे कू डिब्बे कू ये सब चोरी का माल बताने का है ?”
“हां ।”
“और बेच के आने का है ?”
“बेच के नेई आने का, साले । सिर्फ पेश करने का है । बिना बेचे ये कहके वापिस आना है कि तेरे कू भाव नेई जंचा, तू दूसरे फेंस के पास जाएंगा । क्या ?”
“मैं समझ गया ।”
“फूट ।”
फ्रेडो कार में से निकलकर पीजा पार्लर में घुसा लेकिन पांव ही वापिस लौट आया ।
“क्या हुआ ?” - बाबू कामले भुनभुनाया ।
“डिब्बा ग्यारह बजे आने कू बोला ।” - फ्रेडो बोला ।
“क्यूं ?”
“येई टेम है उसका ऐसीच काम करने का ।”
“ओह ! ठीक है ग्यारह बजे । चलो, फिर चारों बाजू संभालो ।”
चारों प्यादे कार से निकसकर पीजा पार्लर के इर्द-गिर्द फैल गए ।
***
“ये इमारत है ।” - इरफान बोला ।
विमल ने उस खस्ताहाल तीन मंजिली इमारत पर निगाह डाली । वो इमारत कमाठीपुरे के बदनाम इलाके में थी । उस वक्त शाम के साढे सात बजे थे और बकौल इरफान तब मधुकर झेंडे की उस इमारत की तीसरी मंजिल के एक फ्लैट में होने की उम्मीद थी ।
फिर वह‍, इरफान और वागले आगे-पीछे सीढियां चढते तीसरी मंजिल पर पहुंचे ।
वहां इरफान ने एक बंद दरवाजे की तरफ संकेत किया । 
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । उसने चारों तरफ निगाह डाली । सीढियों के पास उसे एक ड्रम पड़ा दिखाई दिया जिसमें ढेर सारे कागज और कूड़ा-कचरा भरा पड़ा था । उसके इशारे पर इरफान ड्रम को बंद दरवाने के पहलू तक घसीट लाया । विमल ने अपनी जेब से अपना सिगरेट लाइटर निकालकर उसकी लीक्विड गैस थोड़ी-सी ड्रम पर छिड़क दी और लाइटर इरफान को थमा दिया ।
फिर उसने दरवाजे पर दस्तक दी ।
“कौन ?” - भीतर से एक जनाना आवाज ने पूछा ।
“दरवाजा खोलो ।” - विमल जोर से दरवाजा भड़भड़ाता हुआ बोला साथ ही उसने इरफान को संकेत किया ।
“अरे हो कौन तुम ?”
इरफान ने ड्रम को लाइटर की लपट दिखा दी, ड्रम में आग्र का शोला-सा लपका ।
“बाई” - विमल बोला - “इमारत में आग लग गई है । भीतर ही जल मरने का है तो बेशक मत खोलो दरवाजा ।”
तत्काल दरवाजा खुला । एक सांवल-सी लड़की ने चौखट और पल्ले के बीच में से बाहर झांका ।
वागले ने अपने मजबूत कंधे का एक जोरदार धक्का दरवाजे को दिया, पल्ला लड़की के हाथ से छूट गया, वह लड़खड़ाकर पीछे को हटी तो विमल और वागले भीतर दाखिल हो गए । विमल ने हाथ में थमी रिवॉल्वर लड़की की ओर तान दी । लड़की के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी । उसका शरीर पत्ते की तरह कांपा ।
इरफान ने ड्रम उठाकर उलटा कर दिया । यूं भीतर की आग ड्रम के भीतर ही दफन हो गई । फिर वह भी चौखट लांघकर भीतर दाखिल हो गया । उसने अपने पीछे दरवाजा बंद करके उसकी चिटकनी चढा दी ।
विमल ने देखा, लड़की एक झीनी-सी नाइटी पहने थी और वह भी उसने आग की दुहाई सुनने के बाद ही पहनी मालूम होती थी । परे एक पलग था जिस पर से एक युवक उठकर अपनी पतलूत की बैल्ट बांधने की कोशिश कर रहा था । कमर से ऊपर उसका जिस्म एकदम नंगा था । विमल के हाथ में रिवॉल्वर उसे दिखाई दे गई थी और वह भी थर-थर कांप रहा था ।
“इधर आ !” - विमल निगाहों से उसकी तरफ शोले बरसाता हआ बोला ।
युवक झिझकता हुआ करीब पहुंचा ।
“तेर नाम झेंडे है ?” - विमल बोला - “मधुकर झेंडे ?”
युवक ने जल्दी से सहमति में सिर हिलाया ।
“ये कौन है ?” - विमल ने लड़की की तरफ इशारा किया ।
“क... कोई नहीं ।” 
“तेरी क्या लगती है ?”
“कुछ नहीं ।”
“फिर यहां क्या कर रहा है ?”
युवक ने जवाब नहीं दिया ।
“बीवी से क्या शिकायत हुई ?”
“बीवी !”
“काशीबाई । जिससे शादी किए तुझे सिर्फ छ: महीने हुए हैं ।”
“ओह !” - इस बार युवक के स्वर में दिलेरी आ गई - “तो तुम काशीबाई के सगे वाले हो ।”
“हां । और तेरे भी ।”
“मैं समझ गया । सालो, काशीबाई की खैरियत चाहते हो तो ठंडे-ठंडे यहां से चले जाओ ।”
“चाहते तो हैं काशीबाई की खैरियत । और अभी तो आए हैं, तेरा हालचाल जान लें, फिर चलें भी जाएंगे ।”
“देखो, जो कोई भी हो तुम लोग, फौरन यहां से दफा हो जाओ वरना...”
“वरना क्या ?”
“वरना” - वह दांत पीसता हुआ बोला - “मैं जाके काशीबाई से पूछूंगा कि अब तक उसने इतने यार कहां छुपाए हुए थे । ”
“तू ऐसा अपनी बीवी से कहेगा ?”
“हां, मैं घर जाके उससे पूछूंगा कि...”
“हमीं से क्यों नहीं पूछता ? यहीं ? इसी वक्त ?”
“देखो तुम लोग...”
“क्या नाम है तेरा ?” - विमल उसकी बात नहीं सुन रहा था । वह लड़की से मुखातिब था ।
“ज... जमुना ।” - लड़की बोली ।
“उधर कोने में जाके बैठ जा । और इधर से मुंह फेर ले ।”
लड़की ने जरा भी हुज्जत न की । उसने तत्काल आज्ञा का पालन किया ।
फिर विमल के इशारे पर इरफान ने झेंडे के दोनों हाथ मरोड़कर उसकी पीठ पीछे किए और वागले ने उसके मुंह में कपड़ा ठूसकर ऊपर से पट्टी बांध दी ।
उसके बाद बड़े व्यवस्थित तरीके से दोनों ने झेंडे की धुनाई करनी शुरू की । युवक के शरीर के हर अंग पर लात-घूंसों, थप्पड़ों की बरसात-सी होने लगी । वह अपने हाथों को अपने मुंह पर बंधी पट्टी की ओर बढाता था तो उन्हें बड़ी बेरहमी से नोचकर परे कर दिया जाता था । अपने शरीर के जिस अंग को वह अपने हाथों की ओट से बचाने की कोशिश करता था, उसी की सबसे ज्यादा धुनाई होती थी ।
दस मिनट वही सिलसिला निहायत मशीनी अंदांज से चला ।
अंत में जब वागले और इरफान ने अपने हाथ रोके तो झेंडे का सारा शरीर लहूलुहान था, दोनों आंखें सूजकर बंद हो गई थीं और उसके होंठ फैलकर सूअर की थूंथ की तरह लगने लगे थे लेकिन धुनाई इतनी सावधानी से की गई थी जिस्म की कोई हड्डी नहीं टूटी थी और कोई भी जख्म इतना गहरा नहीं था कि उसके सीने की जरूरत होती ।
इरफान ने पट्टी खोल दी और मुंह से कपड़ा निकाल दिया ।
“उठकर खड़ा हो ।” - विमल कर्कश स्वर में बोला ।
झेंडे ने कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सका ।
विमल ने उसको जबरन सीधा किया और एक कुर्सी पर धकेल दिया । उसने उसके बाल पकड़कर उसका सिर ऊंचा किया और बोला - “मेरी तरफ देख ।”
बड़ी कठिनाई से झेंडे आदेश का पालन कर सका ।
“तू जिंदा है ।” - वितल बोला - “मौजूदा हालात में अपने आपको खुशकिस्मत नहीं मानता कि तू जिंदा है !”
झेंडे ने बड़ी कठिनाई से हामी भरी ।
“क्यों जिंदा है ? कैसे बच गया ?”
झेंडे ने उत्तर न दिया ।
“तू इसलिए जिंदा है क्योंकि तू काशीबाई का पति है । आगे भी जिंदा रहना चाहता है ?”
“ह... ह... हां ।”
“ऐसा कैसे होगा, जानता है ?”
“ह... हां ।”
“नहीं जानता । शायद फिर बताने आना पड़ेगा । शायद एक सबक से सीखने वाला तू नहीं ।”
“जा... जा... जानता हूं ।”
“रुपए का क्या किया ? उड़ा दिया?”
“नहीं ।”
“जमनाबाई वालंटियर है ?”
“इसने मुझे” - तत्काल युवती व्याकुल भाव से बोली - “पांच हजार रुपए दिए हैं । मैं अभी लौटाती हूं ।”
वह लपककर एक अलमारी के करीब पहुंची, वहां से उसने नोटों का एक पुलिंदा निकाला और झेंडे की कुर्सी के करीब पड़े स्टूल पर रख दिया ।
“तीन सौ कम हैं” - वह कंपित स्वर में बोली - “खर्च हो गए लेकिन मैं...”
“कोई वांदा नहीं ।” - विमल बोला - “ये लगता खस्ताहाल है लेकिन बड़ी हद एक हफ्ते में ठीक हो जाएगा । आठवें दिन ये फिर यहां होगा !”
“नहीं होगा । हरगिज नहीं होगा ।” - युवती दृढ स्वर में बोली - “मैं नहीं जानती ये कौन है ।”
“सुना !” - विमल युवक से बोला - “ये नहीं जानती तू कौन है । लेकिन काशीबाई जानती है तू कौन है । जब तक जिंदा रहेगी, जानती रहेगी कि तू कौन है । तू कितने दिन याद रख पाएगा सब कुछ ?”
“ह... हमे... हमेशा ।”
“हम याद दिलाने फिर आएं ?”
“न... नहीं ।”
“शाबाश !”
तीनों वहां से विदा हो गए ।
***
फ्रेडो दौड़ता हुआ शेख मुनीर के पीजा पार्लर से बाहर निकला ।
बाबू कामले ने उसके चेहरे पर ऐसी बदहवासी देखी कि वह घबराकर कार से बाहर निकल आया ।
“क्या हुआ ?” - वह हड़बड़ाया-सा बोला ।
“वो भीतर नहीं है ।” - फ्रेडो बोला ।
“कौन भीतर नहीं है ? डिब्बा ?”
“वागले ।”
“क्या बकता है ? सिग्नल तो अभी भी मिल रहा है ।”
“लेकिन वो भीतर नहीं है ।”
“कोई टायलेट-वायलेट में...”
“वो भीतर कहीं नहीं है ।”
“किधर चला गया ?”
“वो इधर आया ही नहीं । ”
“क्या बकता है ?”
“मैं पूछा डिब्बे से । वो यही बोला ।”
“चलो ।”
अपने चारों प्यादों के साथ बाबू कामले पीजा पार्लर में दाखिल हुआ । उसने बिना किसी तकल्लुफ के डिब्बे को दबोच लिया और उसे पिछवाड़े में इमारत के रिहायशी हिस्से में ले आया ।
इमारत की फिर तलाशी ली गई ।
वागले कहीं नहीं था।
शक्तिशाली सिग्नल अभी भी वायरलेस रिसीवर रिसीव कर रहा था । उसके लिए वहां की तलाशी ली गई तो एक संदूक में से ट्रांसमीटर वाली वो रिवॉल्वर बरामद हुई जो कि वागले के पास होनी चाहिए थी ।
“कहां से आई ?” - बाबू कामले दहाड़कर बोला - “एक सेकेंड में बोल ।”
“खरीदी ।” - डिब्बा भयभीत भाव से बोला । वो जानता था कि जो लोग उसे घेरे हुए थे, वे ‘कंपनी’ के आदमी थे ।
“खरीदी ! कब ? किससे ?”
“कल रात । एक मवाली से ।”
“कौन मावली ?”
“उसका नाम भंवरलाल है ।”
“कहां पाया जाता है ?”
“चैम्बूर में ।”
“उसने बोला ये रिवॉल्वर उसके पास किधर से आई ?”
“मैंने पूछा नहीं । बाप, चोर के पास चोरी का माल चोरी से ही आता है ।”
“बक मत ।”
फिर पांचों बगूले की तरह चैम्बूर की तरफ दौड़ चले ।
पीछे डिब्बा दुहाई देता रहा कि उसने उस रिवॉल्वर के लिए चार हजार रुपए अदा किए थे ।
***
कॉलबेल के जवाब में मलाड वाले फ्लैट का दरवाजा वैभवी ने खोला ।
वागले और इरफान अली के साथ विमल ने भीतर कदम रखा तो उसने ड्राइंगरूम में एक अपरिचित व्यक्ति को बैठा पाया । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से वैभवी की तरफ देखा ।
“बोटमैन ।” - वैभवी धीरे से बोली - “भट्टी छोड़ के गया है ।”
“गया कहां ?” - विमल ने पूछा ।
“कहीं काम से गया है । लौट के आएगा ।”
“हूं ।”
वह उस आदमी के करीब पहूंचा । वह आदमी दांत निकालकर हंसा ।
विमल ने गौर से उसका मुआयना किया । वह लगभग पचास साल का सिर से गंजा, दाढी-मूंछ विहीन, पीली चमड़ी वाला व्यक्ति था ।
“क्या नाम है ?” - विमल ने पूछा ।
“ढोलकिया ।” - वह आदमी पूर्ववत् दांत निकालता हुआा बोला ।
“गुजराती है ?”
“हां ।”
“हंस क्यों रहा है ? हंसने वाली कौन-सी बात हो रही है यहां ?”
तत्काल उसकी हंसी को ब्रेक लगी ।
“तो तू बोटमैन है ?”
“पक्का । बस यूं समझ लो कि पैदा ही नाव में हुआ ।”
“मोटरबोट चला लैता है ?” 
“हर तरह की बोट चला लेता हूं । बोट चलाना मेरे लिए सांस लेने जैसा काम है ।”
“जेल कैसे पहुंच गया था ?”
“क... क्या ?” - ढोलकिया हकबकाया ।
“छूटा कब ? आज ही?या एकाध दिन हो गया ?”
ढोलकिया के चेहरे ने कई रंग बदले ।
विमल अपलक उसे घूरता रहा ।
“कैसे जाना ?” - फिर वह धीरे से बोला ।
“तेरी पीली चमड़ी से जाना । मल्लाहों की चमड़ी धूप से झुलसी हुई होती है, खोपड़ी अगर गंजी हो तो वो तो काली ही हो जाती है । तेरी खोपड़ी तो मेढक के पेट जैसी लग रही है और चमड़ी भी यूं है जैसे धूप या समुद्री हवा से कभी वास्ता ही न पड़ा हो । कोई मल्लाह तो समुद्री हवा और धूप से महरूम जेल में ही हो सकता है ।”
“ओह !”
“क्या किया था ?”
“क्या किया था !” - उसने दोहराया ।
“जिसकी वजह से जेल हुई । ऊंचा सुनता है ?”
“नहीं ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “यूं ही कुछ कर बैठा था ।”
“यूं ही और सिर्फ ‘कुछ’ कर बैठने से जेल नहीं होती ।”
“बाप, जो काम मैंने करना है उसका इस बात से क्या वास्ता कि मुझे जेल क्यों हुई ?”
“वास्ता हो सकता है ।”
“क्या वास्ता हो सकता है ?”
“बताएगा तो पता लगेगा न ?”
“लेकिन...”
“अबे” - वागले भन्नाया - “तेरा काम जवाब देना है, सवाल करना नहीं ।”
ढोलकिया ने बेचैनी से पहलू बदला । उसने बड़े नर्वस भाव से अपने होंठों पर जुबान फेरी और फिर बोला - “छोकरी का मामला था ।”
“क्या मामला था छोकरी का ?” - विमल बोला - “एक ही बार में बता । किश्तों में न बोल ।”
“वो... वो नाबलिग थी ?”
“कितने साल की थी ?”
“बताया न छोटी थी ?”
“कितनी छोटी थी ।”
“ग... ग्यारह साल की थी ।”
विमल के चेहरे पर अरुचि के तीव्र भाव आए ।
“कितनी सजा हुई ?” - उसने पूछा ।
“सा... सात साल ।”
“काटी कितनी ?”
“चार ।”
“ताजा ही छूटा है न ?”
“हां । आज ही ।”
“और आज ही हमारे पल्ले पड़ गया ।”
“वो... वो क्या है कि...”
“अभी तो थाने हाजिरी भी देनी पड़ती होगी ।”
“वो तो है लेकिन म... मैं मल्लाह बहुत कांटे का हूं ।”
“जरूर होगा । बाकी काम भी कांटे के ही करता है । ग्यारह साल की अबोध बच्ची से मुंह काला करता है ।”
“वो तो कहते हैं कि कोई बीमारी होती है । मुझे जेल का डॉक्टर कहता था कि अब मैं ठीक हो गया हूं ।”
“एक मिनट बाहर जाकर खड़ा हो, मैं तेरे से अभी बात करता हूं ।”
“लेकिन...”
“अरे, मुझे अपने साथियों से सलाह करने देगा या नहीं ?”
“अच्छा, अच्छा । ठीक है । मैं बाहर खड़ा होता हूं ।”
वो यूं उठा जैसे वहां से हिलना न चाहता हो और फिर भारी कदमों से चलता हुआ फ्लैट से बाहर निकल गया ।
उसके पीछे वागले ने दरवाजा बंद किया ही था कि कॉलबेल बजी । उसने दरवाजा खोला तो भट्टी भीतर दाखिल हुआ । वागले ने उसके पीछे फिर दरवाजा बंद कर दिया ।
“क्या हुआ ?” - भट्टी अचरज-भरे स्वर में बोला - “ढोलकिया बाहर क्यों खड़ा है ?”
“बड़ा अच्छा बोटमैन ढूंढ के दिया हमें !” - विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“अच्छा तो है ही । मैंने कई लोगों से पूछा । सबसे तसदीक की ।”
“लेकिन यह किसी ने नहीं बताया कि वो जेलबर्ड है, सजायाफ्ता मुजरिम है ।”
“तो क्या हुआ ? आजाद तो है ! उसके बोट चलाने में तो कोई वांदा नहीं ।”
“यानी कि तुम्हें खबर है कि जेलबर्ड है ?”
“है तो सही । किसी जयरामपेशा आदमी की कोई जेलयात्रा क्या बड़ी बात है !”
“वो आज ही छूटा है । पैरोल पर । पुलिस को हाजिरी देनी पड़ती होगी उसे ।”
“ओह ! यह नहीं मालूम था मुझे ।”
“ऐसा हर वक्त पुलिस को निगाहों में रहने वाला आदमी हम सबको मरवा सकता है ।”
“अब बिगड़ क्या गया है ? वो आदमी हमारे मतलब का नहीं निकला, हम उसे चलता कर देते हैं । वो कुछ जानता थोड़े ही है !”
“क्यों नहीं जानता कुछ ?”
“मेरा मलतब है अगर तुमने नहीं बताया तो ।”
“हमने कुछ नहीं बताया लेकिन वह बिना किसी के कुछ बताए भी समझता होगा कि हम जो कुछ करने जा रहे हैं, उसके लिए एक मोटरबोट की जरूरत पड़ने वाली है ।”
“इतने से ही वो नहीं समझ सकता कि हमारा निशाना स्वैन नैक प्वाइंट का कैसीनो है ।”
“तुम गारंटी करते हो कि तुमने जाने या अनजाने में उसे और कुछ नहीं बताया ?”
“मैं गारंटी करता हूं । बाप, मैं क्या तुम लोगों से बाहर हूं ? तुम्हारा नफा-नुकसान क्या हमारा नफा-नुकसान नहीं ?”
“फिर ठीक है । फिर तुम्हीं जाके उसे चलता करके आओ ।”
“अभी लो ।”
भट्टी फ्लैट से बाहर चला गया ।
“अगर” - वागले बोला - “मुबारक अली से बोटमैन का काम कराया जाए ?”
“मुबारक अली !” - विमल बोला - “बोटमैन !”
“एक्स्ट्रा सप्लायर का एजेंट बनने और स्मगलिंग में पड़ने से पहले वो एक घड़ियों के स्मगलर के लिए मल्लाहगिरी ही करता था ।”
“ऐसा है तो सारा काम ही बन जाए उसके मिलने से । लेकिन वो मिले तो सही ।”
“मिलने में क्या वांदा है ?”
“मिलने में क्या वांदा है ! लो, पूछता है मिलने में क्या वांदा है ! अरे, मैंने जब से बंबई में वापिस कदम रखा है, मैं उसकी तलाश में हूं । पूछो इरफान अली से ।”
वागले ने इरफान की तरफ देखा ।
“मैंने बहुत जगह उसे तलाश किया है” - इरफान बोला - “बहुत जगह उसके लिए संदेशा छोड़ा है लेकिन वो मिल नहीं रहा । पता नहीं कहां है ।”
“मुझे पता है वो कहां है ।” - वागले बोला - “कल नहीं तो परसों वो हमारे सामने होगा ।” 
“हमारे यहां इसे कहते हैं कुच्छड़ कुड़ी ने शहर ढिंढोरा ।”
तभी भट्टी वापिस लौटा ।
“मैंने उसे चलता कर दिया है ।” - वह बोला - “चार पैसे भी दे दिए हैं । वो कोई पंगा नहीं करेगा ।”
“विमल के चेहरे पर आश्वासन के भाव न आए ।”
“अरे, बिल्कुल ही तसल्ली चाहिए तो” - भट्टी तनिक झल्लाए स्वर में बोला - “खल्लास करवा दूं उसे ?”
“मैं कोई लफड़ा नहीं मांगता ।”
“नहीं होगा कोई लफड़ा । उसे मच्छर की क्या औकात है जो ख्याल भी कर सके कोई लफड़ा करने का ।”
“फिर भी...”
“बाप, मेरी गारंटी ।”
“ठीक है फिर ।”
“अब इन दोनों के” - भट्टी ने वागले और इरफान की ओर संकेत किया - “यहां रहने के बाबत सुनो ।”
“बोलो !”
“बाप, मैं जो कहने जा रहा हूं, उसका कोई गलत मतलब न लगाना ।”
“अब कुछ कहो भी तो ।”
“वे दोनों तुकाराम के आदमी हैं और तुकाराम को, मैंने मालूम किया है, ‘कंपनी’ ने उसके चैम्बूर वाले मकान में नजरबंद करके रखा हुआ है ।”
“तो क्या हुआ ?”
“बाप, ऐसे आदमियों के हमारे किसी ठीये पर होने की खबर ‘कंपनी’ को लग गई तो हमारा बहुत नुकसान हो जाएगा । और मैं पहले ही बोला कि ये हमारा बहुत सेफ ठीया है, कालिया को इसका नुकसान मंजूर नहीं होगा ।”
“तो ?”
“तो यह कि इनके यहां रहने की जिंद तुम छोड़ो तो मैं इनका कहीं और इंतजाम कर सकता हूं ।”
“और कहां ?”
“खार में हमारा एक फ्लैट है । मुद्दत से बंद पड़ा है । इनके लिए खुल जाएगा ।”
“सेफ है ?”
“खुद चल के देख लो ।”
“ठीक है ।”
“वहीं इरफान अली का हुलिया सुधारने का भी इंतजाम है । वैभवी को भी साथ ले चलते हैं । फिर वहां इसे शहजादा गुलफाम बनाकर वहीं से वैभवी के साथ तफरीह के लिए रवाना कर देंगे ।” 
विमल ने इरफान पर निगाह डाली तो पाया कि उसका चेहरा एकाएक हजार वाट के बल्ब की तरह दमकने लगा था ।
“बढिया ।” - वह बोला ।
***
उल्हास सितोले ने जैकपॉट में चारों ओर निगाह डाली ।
उस वक्त रात के नौ बजे थे और अभी-अभी स्टेज पर एक कैब्रे डांसर की परफारमेंस होकर हटी थी । उस घड़ी हॉल लगभग आधा खाली था जो कि सितोले के लिए हैरानी की ही नहीं, फिक्र की भी बात थी ।
ग्राहकों की उस पतली हाजिरी की वजह क्या चांदनी की गैरहाजिरी थी ? अगर ऐसा था तो करिश्मा था । केवल एक दिन चांदनी स्टेज पर अवतरित नहीं हुई थी और अब हालत यह थी कि हॉल आधा खाली पड़ा था । और दो घंटे बाद वो वक्त हो जाने वाला था जबकि वहां बेतहाशा भीड़ जमा होने से बचाने के लिए वहां के दरवाजे को ताला लगाकर बंद करना पड़ता था लेकिन साफ लग रहा था कि आज वैसी नौबत नहीं आने वाली थी ।
चांदनी की मौत की खबर अखबार में छप चुकी थी इसलिए ये कहना भी मुमकिन नहीं था कि जैकपॉट की स्टार कैब्रे डांसर सिर्फ वक्ती तौर पर वहां से गैरहाजिर थी ।
वहां की भरी हुई मेजों पर से फिसलती उसकी निगाह फिर एक कोने की उस मेज पर टिकी जहां कि एक खूबसूरत जोड़ा मौजूद था । उस मेज के इर्द-गिर्द मंडराते सितोले ने उस जोड़े का वार्तालाप सुना था और इसी नतीजे पर पहुंचा था कि वे दोनों पति-पत्नी थे और जब से वहां आए थे, रह-रहकर झगड़ रहे थे । उनके अत्याधुनिक होने का सबूत उनकी उम्दा पोशाकें ही नहीं, यह हकीकत भी थी कि वे उस घड़ी ऐसे कैब्रे जायंट में मौजूद थे जहां पूर्णतया नंगा नाच होता था । ऊपर से दोनों ही निसंकोच ड्रिंक कर रहे थे । युवक का विस्की का पांचवा पैग उसके सामने था जबकि युवती का उसी विस्की का पैग तीसरा था ।
सितोले नहीं जानता था कि युवती वैभवी थी और युवक इरफान अली था जिसने जिंदगी में पहली बार सूट पहना था और जो अपनी मौजूदा सजधज में निहायत खूबसूरत लग रहा था ।
सितोले यह भी नहीं जानता था कि विस्की सिर्फ इरफान पी रहा था, वैभवी पीती होने का केवल दिखावा कर रही थी ।
सितोले युवती को देखते ही उस पर मर मिटा था और अब उस पर हाथ रखने की कोई तरकीब सोच रहा था ।
सिगरेट के कश लगाता और लापरवाही से टहलता वह उसे जोड़े की मेज के करीब सरक आया ।
“मिस्टर सुशील सोनी” - युवती तमतमाए स्वर में कह रही थी - “लानत है तुम पर ।”
“अनिता” - युवक कह रहा था - “ये कोई तरीका है अपने हसबैंड से बात करने का !”
“लानत है तुम्हारे हसबैंड होने पर ।”
“अनिता, समझने की कोशिश करो । मेरी मजबूरी है ।”
“लानत है तुम्हारी मजबूरी पर ।”
“तुम्हें नशा हो गया है ।”
“तो क्या हुआ ? मैं अभी और पिऊंगी ।”
“हरगिज नहीं ।”
“अच्छा ! क्यों हरगिज नहीं ? मैं अपनी मर्जी की मालिक हूं । तुम अपनी मनमानी कर सकते हो तो मैं नहीं कर सकती ?”
“मैं कौन-सी मनमानी करता हूं ?”
“मेरे से पूछ रहे हो ? ये जो हर दूसरे-तीसरे हफ्ते गुलछर्रे उड़ाने कभी गोवा, कभी अहमदाबाद, कभी बंगलौर चल देते हो, वो क्या...”
“गुलछर्रे उड़ाने नहीं, धंधा करने । बिजनेस के लिए । तुम जानती हो कि...”
“लानत है तुम्हारे बिजनेस पर ।”
“सच में लानत हो गई बिजनेस पर तो हम दोनों हाथ में कटोरा ले के गली-गली भीख मांगते दिखाई देंगे ।”
“लानत...”
“ठीक है ।” - युवक एक झटके से उठ खड़ा हुआ - “लानत है तो लानत ही सही ।”
युवक लंबे डग भरता हुआ वहां से विदा हो गया ।
सितोले ने यही सोचा कि टायलेट जा रहा होगा लेकिन जब युवक इमारत से बाहर निकल गया तो उसे हैरानी हुई ।
उसे और भी हैरानी हुई जबकि वो पंद्रह मिनट तक लौटकर न आया ।
युवती बड़े व्याकुल भाव से रह-रहकर कभी अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को तो कभी दरवाजे को देख रही थी ।
फिर एकाएक वह उठी और दरवाजे की तरफ बढी ।
सितोले ने जल्दी से उनके वेटर को बुलाया ।
“बिल दे गई ?” - बाहर जाती वैभवी की ओर इशारा करके उसने पूछा ।
“नहीं, साब ।” - वेटर बोला ।
“उसके पीछे जा । कहीं वो खिसक न रही हो ।”
वेटर सहमति में सिर हिलाता वैभवी के पीछे हो लिया ।
लेकिन वैभवी खिसक नहीं रही थी । दो मिनट बाद वह अपनी टेबल पर वापिस लौट आई । 
सितोले ने नोट किया कि युवती एकाएक बहुत बद्हवास लगने लगी थी । उसी घड़ी शुरू हुई कैब्रे की नई परफारमेंस में अब वो रत्ती-भर की दिलचस्पी नहीं ले रही थी ।
फिर युवती ने वेटर को इशारा किया ।
वेटर कुछ क्षण बड़े अदब से युवती के सामने ठिठका खड़ा रहा, फिर लंबे डग भरता हुआ सितोले के करीब पहुंचा ।
“आपको बुला रही है ।” - वह बोला ।
“मुझे ?” - सितोले सकपकाया ।
“किसी जिम्मेदार आदमी को । मैनेजर को या मालिक को ।”
“ओह !”
सितोले ने हाथ के इशारे से वेटर को रुख्सत किया और चेहरे पर एक गोल्डर जुबली मुस्कराहट लिए युवती के करीब पहुंचा ।
“मुझे उल्हास सितोले कहते हैं ।” - वो तनिक सिर नवाकर शहद से लिपटे स्वर में बोला - “फरमाइए, मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूं ?”
“मिस्टर सितोले” - वैभवी संजीदगी से बोली - “एक मिनट बैठिये जरा । प्लीज ।”
सितोले युवक द्वारा खाली की गई कुर्सी पर बैठ गया ।
“फरमाइए ।” - वह बोला ।
“मेरे साथ एक प्रॉब्लम हो गई है ।” - वह बोली ।
“क्या ?”
“मेरा हसबैंड मेरे साथ था । वो मुझे छोड़कर चला गया है । मेरे पास बिल चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं ।”
सितोले ने मेज पर निगाह डाली, वहां एक प्लेट में बिल पड़ा था जो कि पांच सौ साठ रुपए का था ।
“बिल तो मामूली है ।” - वो बोला ।
“मेरे पास एक काला पैसा नहीं है ।” - वैभवी रुआंसे स्वर में बोली - “अपना पर्स में कार में छोड़ आई थी और कार मेरा हसबैंड ले गया ।”
“तो क्या हुआ ? लौट आएगा ।”
“नहीं आएगा ।”
“क्या ? आपको लेने नहीं आएगा ?”
“नहीं । उसने बंगलौर का प्लेन पकड़ना है । यहां से हम दोनों ने एयरपोर्ट जाना था जहां उसे छोड़कर कार मैंने वापिस ले जानी थी । अब कार एयरपोर्ट की पार्किंग में छोड़कर वह प्लेन पर चढ गया होगा ।”
“कार की चाबी साथ ले के ?”
“जाहिर है ।”
“कमाल है । ये तो बड़ी ज्यादती की आपके साथ आपके हसबैंड ने ।”
“वो गुस्से में था ।”
“फिर भी...”
“उसे सूझा ही नहीं होगा कि मेरा पर्स मेरे पास नहीं था ।”
“ओह !”
“अब मेरी आपसे ये प्रार्थना है कि आप मुझे एक एक टैक्सी बुला दीजिए और अपना कोई वेटर मेरे साथ भेज दीजिए । मैं घर पहुंचकर उसे बिल की रकम और टैक्सी का आने-जाने का भाड़ा अदा कर दूंगी ।”
“आप थोड़ी देर और इंतजार क्यों नहीं कर लेती ? हैव ए ड्रिंक ऑन दि हाउस । तब तक शायद आपके हसबैंड लौट आएं ?”
“वो नहीं लौटैगा । उसके लिए वो फ्लाइट पकड़ना जरूरी है ।”
“फ्लाइट लेट भी हो जाती है ।”
“और भी वजह है मेरे यहां और न रुक पाने की ।”
“और क्या वजह है ?”
“मै अपना बेबी आया के पास छोड़कर आई हूं ।”
“बेबी !” - सितोले उसके पुष्ट वक्ष और धनुष की तरह तने हुए जिस्म पर निगाह डालता हुआ हैरानी से बोला - “आपका ?”
“हां । एक साल का है ।”
“कमाल है ! आप तो शादीशुदा भी नहीं लगतीं ।”
“साढे नौ बजे मैंने आया को फारिग करना है” - सितोले की बात की ओर ध्यान दिए बिना वह घड़ी देखती हुई बोली - “और सवा नौ बज भी गए हैं ।”
“रहती कहां हैं आप ?”
“वरली ।”
“वरली !”
“हां ।”
“फिर तो समझिए बड़ा अनोखा इत्तफाक हो गया ।”
“जी !”
“मैं अभी वहीं जा रहा था । रवाना होने ही लगा था कि वेटर बुलाने आ गया था ।”
“नहीं, नहीं । आप क्यों तकलीफ फरमाएंगे !”
“अरे, तकलीफ कैसी ? जब मैंने जाना ही वहीं है ।”
“लेकिन...”
“और फिर” - सितोले मुस्कराया - “बिल की इतनी बड़ी रकम का एतबार मैं अपने किसी आदमी पर कैसे कर सकता हूं ? वो रकम ले के भाग गया तो ?”
“आप मजाक कर रहे हैं ।”
“आप मजाक पसंद नहीं करतीं ?”
“वो बात नहीं है लेकिन...”
“मैं गाड़ी निकालता हूं, आप बाहर आइए ।”
“लेकिन...”
“अब छोड़िए भी तकल्लुफ ।”
सितोले उठ खड़ा हुआ ।
युवकी के निहायत रंगीन सपने देखते हुए सितोले ने पार्किंग से अपनी बुलेटप्रुफ गाड़ी निकाली ।
और दो मिनट बाद युवती उसके पहलू में बैठी हुई थी और गाड़ी सड़क पर दौड़ी जा रही थी ।
सितोले ने एक हसरत-भरी निगाह उसके पुष्ट, छरहरे जिस्म पर डाली ।
कैसी कसी हुई थी साली ! लंबी सुराहीदार गर्दन । भरी-भरी छातियां लेकिन कमर पतली । भारी कूल्हे, उभरी हुई जांघें । एक-एक नट-बोल्ट ऐसी नफासत से कसा हुआ था कि यही कल्पना करना मुहाल था कि किसी ने राइड भी मारी होगी, ऊपर से वो तो एक बच्चा भी बता रही थी ।
“आपने नाहक तकलीफ की ।” - वो बोली ।
“अब तो हो गई तकलीफ । नाम नहीं बताया तुमने अपना ।”
“अनिता । अनिता सोनी ।”
“सोनी साहब करते क्या हैं ?”
“भाड़ झोंकते हैं । बीवी को सताते हैं ।”
“उसके अलावा क्या करते हैं ?”
“कपड़े का व्यापार करते हैं । बहाना बिजनेस का होता है लेकिन मर्जी मौज-मेले की होती है ।”
“आप टिट फार टैट क्यों नहीं करतीं ?”
“जी !”
“मेरा मतलब है जैसे को तैसा । आपका पति आपको सताता है तो आप भी उसे सता सकती हैं ।”
“कैसे ?”
“वैसे ही जैसे वो आपको सताता है ।”
“मैं समझी नहीं ।”
“वो क्या करता है ?”
“वो तो नौजवान छोकरियों के साथ ऐश करता है ।”
“आपको कमी है नौजवान छोकरों की ?”
वैभवी ने घूमकर उसकी तरफ देखा ।
“मैं अपनी बात नहीं कर रहा ।” - सितोले तनिक हड़बड़ाकर बोला - “मैं तो न नौजवान हूं, न छोकरा हूं ।”
“ये आपकी खामी नहीं, खूबी है ।”
“जी !”
वैभवी ने अर्धनिमीलित नेत्रों से यूं उसकी तरफ देखा कि सितोले निहाल हो गया ।
“छोकरे नातजुर्बेकार होते हैं । उतावले होते हैं । नाशुक्रे होते हैं ।”
जीती रह पट्ठी - सितोले मन-ही-मन बोला - अब आ गई लाइन पर ।
फिर उसने अपना बायां हाथ स्टियरिंग से हटाया और उसे वैभवी की सिल्क की साड़ी से ढकी जांघ पर रख दिया ।
“कर दी न छोकरों वाली बात ।” - वह इठलाकर बोली । उसने जबरन उसका हाथ अपनी जांघ पर रख दिया ।
सितोले बड़े दर्शनी अंदाज से हंसा ।
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“हमारी सोसाइटी में” - फिर सितोले एकाएक बोला - “बीवियां अपने खाविंदों का लिहाज करती हैं । इसलिए वो गरजती-बरसती तो खूब हैं लेकिन मौका आने पर घर वाले से बदला लेने से, उसको उसकी करतूत की सजा देने से कतरा जाती हैं । इसी बात से मर्द लोग शेर हो जाते हैं ।”
वैभवी ने बड़े अनिश्चित भाव से सहमति में गर्दन हिलाई ।
“दूसरे बीवियां ये भूल जाती हैं कि रूप और जवानी वो दौलत है जो जितनी लुटाओ, उतनी बढती है ।”
“क्या बात है, मिस्टर सितोले ! लाइन मार रहे हो ?”
“मैं अपनी बात नहीं कर रहा । मैं जनरल बात कर रहा हूं । मैं तो सिर्फ ये कह रहा हूं कि मिस्टर सोनी जैसे मर्द के लिए मिसेज सोनी जैसी बीवी का क्या रवैया होना चाहिए ।”
“हूं ।”
“अपना क्या है ? हम तो रखते साधू हैं । अपनी तो यही गुहार है कि जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला ।”
वैभवी हंसी ।
“और” - सितोले ने सच में ही साधुओं जैसी पुकार लगाई - “चिड़ी चोंच भर ले गई नदी न घटियो नीर ।”
वैभवी फिर हंसी ।
“अब बोलो” - सितोले का हाथ फिर उसकी जांघ पर पड़ा - “चिंड़ी को चोंच भरने का मौका मिलेगा या नहीं ?”
“हरगिज नहीं ।”
“तुम तो मुझे मायूस कर रही हो ।”
“मिस्टर सितोले, मेरे हसबैंड ने मेरे साथ ज्यादती की । वो मुझे छोड़ के भाग गया । मैं उससे बहुत खफा हूं । लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि...”
वैभवी ने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
सितोले नाउम्मीद न हुआ, इसलिए न हुआ क्योंकि ऐसा नाउम्मीदी जमाने वाला जवाब देने वाली औरत ने उस बार अभी तक उसका हाथ अपनी जांघ पर से नहीं हटाया था ।
“आपकी मदद के लिए” - वह बोली - “मैं तहेदिल से आपकी शुक्रगुजार हूं । लेकिन शुक्रिया ही हासिल होगा आपको मेरे से ।”
“यानी कि घर पहुंचते ही दरवाजे से ही टरका दोगी ? भाड़े के टैक्सी वाले की तरह ?”
“नहीं, यू तो नहीं ।”
“बातचीत में तो कोई हर्ज नहीं होता न ?”
“नहीं, बातचीत में तो कोई हर्ज नहीं होता ।”
“तुम्हारे जैसी खूबसूरत औरत के साथ बातचीत भी जन्नत का नजारा है ।”
“तो अभी कर लो ।”
“अब तो वरली पहुंच गए ।”
“ओह !” - वैभवी कार से बाहर निगाह डालती हुई बोली ।
“आगे किधर चलूं ?”
“अभी सीधे । जब क्रासिंग आए तो बाएं ।”
“ठीक है ।”
“मिस्टर सितोले” - वो संजीदगी से बोली - “इतनी रात गए आपको किसी ने मेरे घर में आते तो पड़ोसी बातें बनाएंगे ।”
“तो कोई ऐसी तरकीब सोचो कि मुझे पड़ोसी न देखें ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
“होने को क्या नहीं हो सकता ! मर्जी होनी चाहिए ।”
“कैसे हो सकता है ?”
“तुम्हारे यहां गैराज है ?”
“हां, है ।”
“उसके भीतर से इमारत में रास्ता है ?”
“वो भी है ।”
“फिर क्या मुश्किल है ? गाड़ी तुम संभाल लो । मैं पीछे चला जाता हूं । गाड़ी को सीधे गैराज में ले जाके खड़ी करना । किसी को कुछ भी खबर नहीं लगेगी ।”
वैभवी खामोशी रही ।
“ओके ?” - सितोले हौले से उसकी जांघ दबाता हुआ बोला ।
वैभवी ने कुछ क्षण हिचकिचाने का अभिनय करते हुए सहमति में सिर हिला दिया ।
सितोले ने कार रोकी । अपनी ओर का दरवाजा खोलकर वह बाहर निकल आया । वैभवी उसके स्थान पर स्टियरिंग व्हील के पीछे पहुंच गई । खुद सितोले कार में पीछे सवार हो गया ।
वैभवी ने कार आगे बढाई ।
कुछ क्षण बाद उसने कार को एकमंजिली कोठी के सामने ले जाकर रोका ।
कोठी में केवल पोर्च में मद्धिम-सी रोशनी थी । भीतर कहीं रोशनी थी तो खिड़कियों पर मोटे पर्दे पड़े होने की वजह से बाहर सड़क पर उसका आभास नहीं मिल रहा था ।
वैभवी ने कार से निकलकर पहले कोठी का फाटक खोला और फिर उसके सामने ही मौजूद गैरेज का दरवाजा खोला । फिर वह वापिस कार में सवार हुई और फिर उसने कार को गैरेज में ले जा खड़ा किया ।
सितोले ने पीछे से उसके गले में अपने बांहे डाल दीं । उसके दोनों हाथ उसके उन्नत वक्ष पर पड़े ।
वैभवी कुछ क्षण स्तब्ध बैठी रही फिर वह सितोले की गिरफ्त से निकलती हुई धीरे से बोली - “मैं जा के आया को चलता करती हूं । तुम पांच मिनट यहीं रहना । कार में ही । पांच मिनट बाद भीतर आ जाना । घड़ी देख लो ।”
सितोले ने कार के डैशबोर्ड में लगी घड़ी पर निगाह डाली और सहमति में सिर हिलाया ।
वैभवी कार से निकली और गैरेज की पिछली दीवार में मौजूद एक दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हो गई ।
अभिसार के सपने देखते सितोले को इस बात की ओर ध्यान देने की फुरसत नहीं थी कि बाहरला फाटक, गैरेज का दरवाजा और भीतरी दरवाजा सब खुले पड़े मिले थे ।
एक-एक सैकेंड को टिक करता हुआ वह पांच मिनट होने की प्रतिक्षा करता रहा ।
पांच मिनट पूरे हुए तो वह कार से निकलकर उस दरवाजे में दाखिल हुआ जिससे वो भीतर कोठी में गई थी ।
उसने स्वंय को एक प्रकाशित किचन में पाया ।
उसने अपने पीछे दरवाजा बंद किया और आगे बढा । उसने किचन का परला दरवाजा खोला तो स्वंय को डायनिंग रूम की तरह सुसज्जित एक कमरे में पाया । कमरे में अभी उसने एक ही कदम रखा था कि एकाएक जैसे उसे लकवा मार गया ।
वहां युवती का पति मौजूद था ।
वो शख्स मौलूद था प्लेन अब तक बंगलौर पहुंच चुका होना चाहिए था ।
उसके हाथ में एक साइलेंसर लगी रिवॉल्वर थी जिसका रुख सितोले के पेट की तरफ था ।
“मैं-मैंने” - वह आतंकित भाव से बोला - “मैंने क्या किया है ?”
“तुझे मालूम हो ।” - इरफान मुस्कराता हुआ बोला ।
“म-मेरा मतलब है - मैंने कुछ नहीं किया ।”
“फिर तो घाटे में रहा ।”
“क-क्या ?”
“क्योंकि अब कर भी नहीं सकेगा ।”
“सु-सुनो... सुनो... मैं तो यहां...”
खामोश रिवॉल्वर ने तीन बार आग उगली ।
चोंच भरने की ख्वाहिशमंद चिड़ी के प्राण-पखेरू उड़ गए ।
***
मंगलवार सुबह जब विमल केशवराव भौंसले के यहां पहुंचा तो उसकी बीवी अनुसूया ने उसे बताया कि वो पहले ही ऑफिस जा चुका था । न चाहते हुए भी वह यह सोचे बिना नहीं रह सका कि उससे मुलाकात से बचने के लिए केशवराव उस रोज जल्दी घर से चला गया था । इसका मतलब साफ था कि उसका काम सोमवार को भी नहीं हुआ था ।
वह जाने को मुड़ा ।
“सुनो ।” - अनुसूया बोली ।
विमल ठिठका, घूमा, उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से अनुसूया की तरफ देखा ।
“कल रात” - अनुसूया बोली - “काशी का ससुरा यहां आया था ।”
“अच्छा !” - विमल सशंक स्वर में बोला - “फिर कोई नई मांग...”
“नहीं, नहीं ।”
“तो ?”
“जो पचास हजार रुपया काशीबाई अपने साथ लेकर गई थी, उसका ससुरा वो रुपया वापिस लौटाने आया था ।”
“अच्छा !”
“हां । बोलता था लड़के ने बिजनेस का ख्याल छोड़ दिया है इसलिए उन्हें इस रुपए की जरूरत नहीं ।”
“वाह ! बहुत भलेमानस निकले तुम्हारी बेटी के ससुराल वाले ।”
“रातोंरात पता नहीं कैसे भलेमानस बन गए !”
“चलो अच्छा हुआ । लड़की सुख से रहेगी ।”
विमल ने जाने का उपक्रम किया ।
“जरा ठहरिए ।” - अनुसूया व्यग्र भाव से बोली ।
“अब क्या है ?”
“आप वो रुपया ले के जाओ । काशी का बाप ऐसा बोला । मैं लाती ।”
“नहीं, नहीं ।” - विमल जल्दी से बोला - “तुम अभी रुपया पास रखो । शायद लड़की के ससुराल वालों का ख्याल बदल जाए और रुपए की फिर जरूरत पड़ जाए ।”
“नहीं पड़ेगी ।”
“फिर भी अभी पास रखो ।”
“लेकिन...”
“मैं इस बाबत केशवराव से बात करूंगा । नमस्ते ।”
विमल जल्दी से चाल की सीढियां उतर गया ।
दाता ! - रास्ते में स्वयमेव उसके मुंह से निकल गया - जिसके सिर ऊपर तू स्वामी, वो दुख कैसे पावे !
एक टैक्सी पर सवार होकर वह मलाड पहुंचा ।
“मेरा कोई साथी आया ?” - उसने वैभवी से पूछा ।
“अभी नहीं ।” - वैभवी बोली - “तुम अच्छे वक्त पर आ गए । तुम यहां बैठो, मैं थोड़ी शापिंग करके आती हूं ।”
“ठीक है ।”
“तुम्हारे लिए कोई काफी वाफी बना जाऊं ?”
“नहीं, मैं खुद बना लूंगा ।”
“ठीक है फिर ।”
वह वहां से विदा हो गई ।
विमल बाथरूम में पहुंचा जहां उसने अपनी नकली दाढी-मूंछ उतारकर सिंक पर रख दी । जब वह फ्लैट के भीतर होता था तो ऐसा ही करता था । उसने शीशे में अपनी सूरत का मुआयना किया । शेव करते वक्त वह अपनी मूंछ वाला हिस्सा छोड़ देता था इसलिए उसकी असली मूंछ भी दिन-ब-दिन गहरी होती जा रही थी । अलवत्ता दाढी भी असली बढाने की बाबत उसने अभी कोई फैसला नहीं किया था ।
वह वापिस ड्राइंगरूम में आया । वहां डायरेक्ट्री में उसने पुलिस हैडक्वार्टर का टेलीफोन नंबर देखा और फिर उस पर फोन किया । उत्तर मिलने पर उसने हवलदार केशवराव भौंसले से बात करने की इच्छा व्यक्त की ।
“कौन से महकमे में हैं ?” - पूछा गया ।
“फिंगर प्रिंट्स के महकमे में ।” - विमल बोला ।
“होल्ड कीजिए ।”
विमल रिसीवर कान से लगाए रहा । कुछ क्षण बाद एक अपरिचित आवाज ने उसे हल्लो कहा ।
“केशवराव भौंसले से बात करना है ।” - वह बोला ।
“वो सीट पर नहीं हैं ।
“किधर गया ?”
“मालूम नहीं । कोई मैसेज हो तो बोलो ।”
“आने पर उसको बोलना, फोन नंबर 327913 पर घड़ीवाला को फोन करे ।”
“बोलेगा ।”
विमल ने रिसीवर क्रेडल पर रख‍ दिया । फिर वह किचन में पहुंचा और काफी बनाने की तैयारी करने लगा ।
***
इकबालसिंह का उस रोज का ब्रेकफास्ट ‘कंपनी’ के निजाम के उसके बाद दूसरे नंबर पर आने वाले ओहदेदार व्यास शंकर गजरे के साथ हुआ । ब्रेकफास्ट के दौरान इकबालसिंह को ‘कंपनी’ के सिपहसालार की परसों रात की बेमिसाल होशियारी का जिक्र गजरे से करना सूझा ।
“क्या बात है ?” - गजरे उसके चेहरे को घूरता हुआ बोला - “एकाएक खुश क्यों दिखाई देने लगा ? कल रात कोई खास बढिया छोकरी भेज दी थी मिसेज पिंटो ने ?”
“नहीं, वो बात नहीं ।” - इकबालसिंह अपने गैंडे जैसी शक्ल पर बड़ी हास्यापद मुस्कराहट लाता हुआ बोला - “तेरे को कोई और बात बताने का ख्याल आ गया था ।”
“और कौन-सी बात ?”
“अपने सिपहसालार की नई सूझ-बूझ की बात । गजरे, कमाल कर दिया इस बार उसने ।”
“क्या किया ? किसी के एक ही घूंसे में प्राण निकाल दिए ?”
“अरे नहीं । वो करतब तो सिर्फ जोजो ही कर सकता था ।” - अपनी पत्नी लवलीन के प्रेमी और ‘कंपनी’ के बखिया के समय के जल्लाद और सोहल के हाथों जहन्नुम रसीद हुए जोजो की याद आ जाने पर एक क्षण को इकबालसिंह के चेहरे पर मुस्कराहट उड़ गई - “उसने दिमाग से काम लिया ।”
“डोंगरे ने और दिमाग से काम लिया ! यार, क्यों मजाक कर रहा है !”
“तभी तो ये जिक्र के काबिल बात है ।”
“क्या किया उसने ?”
इकबालसिंह के चेहरे पर मुस्कराहट फिर आ गई । उसने मजे ले-लेकर उस इंतजाम का बखान किया जो घोरपड़े ने इलैक्ट्रानिक ट्रांसमीटर के जरिए वागले की निगरानी का किया था ।
इकबालसिंह खामोश हुआ तो गजरे ने बड़े नुमायशी अंदाज से अपना माथा पीटा ।
“क्या हुआ ?” - इकबालसिंह बौखलाया ।
“इकबालसिंह” - गजरे बोला - “तू बखिया की जगह नहीं ले सकता । हममें से कोई बखिया की जगह नहीं ले सकता ।”
“अरे, क्या हुआ ?”
“इकबालसिंह, भूल गया बखिया ‘कंपनी’ के सिपहसालार को क्या मानता था ! बखया ‘कंपनी’ के सिपहसालार को ‘कंपनी’ की हमलावार बांह मानता था, दिमाग नहीं । दिमाग के काम की उम्मीद बखिया हमेशा मुहम्मद सुलेमान से करता था, जान रोडरीगुएज से करता था, खुद तेरे से करता था लेकिन क्या कभी कंपनी के तब के सिपहसालार दंडवते से भी करता था ?”
“यार” - इकबालसिंह झुंझलाकर बोला - “तू कहना क्या चाहता है ?”
“मैं ये कहना चाहता हूं कि हमारे सिपहसालार की खोटी अक्ल की वजह से समझ ले वो शख्स वागले हमारे हाथ से निकल गया ।”
“क्या
“अरे, जैसे सिग्नल रिले करने वाला ट्रांसमीटर उस रिवॉल्वर में पैवस्त बता रहा है जो वागले के सिर थोपी गई है, वैसे ही क्या वो रिवॉल्वर भी वागले में पैवस्त है ?”
“वो कैसे हो सकता है ?”
“नहीं हो सकता । इसलिए यह दो कौड़ी की स्कीम है । सिग्नल रिसीव करके हमारा मूर्ख सिपहसालार समझ लेता जहां सिग्नल रिले करने वाली रिवॉल्वर होगी वहीं वागले होगा । यह कैसे जरूरी है ? वह रिवॉल्वर कहीं छोड़कर खुद वहां से चल दे तो सिग्नल तो वहीं से आएगा न जहां कि रिवॉल्वर पीछे छूटी पड़ी है !” 
“वो रिवॉल्वर क्यों पीछे छोड़ेगा ? उसे मालूम थोड़े ही है उसमें ट्रांसमीटर फिट है ! कोई वागले जैसा भगोड़ा हाथ आया हथिर यूं छोड़ता है ?”
“नहीं छोड़ता लेकिन ट्रांसमीटर की खबर लग जाने पर वो उसमें से ट्रांसमीटर तो निकाल फेंक सकता है ।”
“खबर लग जाने पर । डोंगरे कहता है कि रिवॉल्वर में ट्रांसमीटर बड़ी चतुराई से छुपाया गया है ।”
“यही तो मैं कह रहा हूं । अब तुझे डोंगरे की चतुराई पर एतबार आने लगा है न ? ऐसा है तो ‘कंपनी’ के सिपाहसालार के साथ उसे कंपनी का वजीरे-आजम भी बना दे ।”
“गजरे, तू मेरा मजाक उड़ा रहा है ।”
“हरगिज नहीं ।”
“तू मुझे फिक्र में डाल रहा है ।”
“यह हो सकता है ।”
इकबालसिंह चुप रहा । निहायत लजीज ब्रेकफास्ट में उसकी दिलचस्पी एकाएक खत्म हो गई थी ।
“वो आता ही होगा ।” - फिर एकाएक वह बोला - “अभी पूछते हैं कि...”
तभी डोंगरे ने वहां कदम रखा ।
डोंगरे के चेहरे पर निगाह पड़ते ही इकबालसिंह समझ गया कि गजरे का अंदेशा सही निकला था । धीरे-धीरे क्रोध से उसका चेहरा विकृत होने लगा । उसे अपने मातहत ओहदेदार गजरे की न सुननी पड़ी होती तो शायद उसे इतना क्रोध न आता ।
“हाथ से निकल गया वागले ?”
डोंगरे चाहे इकबालसिंह को वही खबर सुनाने आया था लेकिन वो बात इकबालसिंह के पहले कह देने की वजह से उसका रहा-सहा मनोबल भी टूट गया । बड़ी कठिनाई से वह सहमति में अपनी गरदन हिला पाया ।
“तेरे आदमी डिब्बे के पीजा पार्लर में रिवॉल्वर की चौकीदार करते रहे ! वह रिवॉल्वर वहां छोड़ गया और खुद खिसक गया ।”
डोंगरे की बैल जैसी गरदन बड़ी कठिनाई से हिली ।
“नहीं ?”
डोंगरे ने फिर इनकार में गरदन हिलाई ।
“मुंह से भौंक, मुंडी न‍ हिला ।”
“नहीं ।”
“नहीं ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“परसो रात... वो वहां पहुंचा ही नहीं था ।”
“क्या बकता है ? तूने खुद कहा था कि चैम्बूर में यह तसल्ली हो जाने के बाद कि कोई उसके पीछे नहीं लगा था, वह सीधा माटूंगा डिब्बे के पास पहुंचा था ।”
“मैंने कहा था लेकिन गलत कहा था ।”
“क्यों गलत कहा था ? क्या...”
“इकबालसिंह” - गजरे बीच में बोला - “पहले इसे अपनी कहने दे ।”
इकबालसिंह ने जोर की थूक निगली और फिर जब्त करके बोला - “बोल, क्या कहता है ?”
“बाप” - डोंगरे बड़े दयनीय स्वर में बोला - “वागले ने कोई होशियारी नहीं दिखाई थी, तकदीर ही दगा दे गई थी । परसों रात चैम्बूर में उसे कुछ मवालियों ने घेर लिया था और वो रिवॉल्वर उससे छीन ली थी । वो रिवॉल्वर उन मवालियों का सरगना भंवरलाल नाम का एक दादा माटूंगा लेकर गया था जहां कि डिब्बे को उसने चार हजार में वो रिवॉल्वर बेच दी थी । बाप, वागले को पता भी नहीं कि परसों रात उसे लूटकर भंवरलाल ने उसका कितना भला किया था ।”
“यानी कि” - गजरे बोला - “डिब्बे का सोहल से कोई वास्ता नहीं ?”
“कतई नहीं ।”
“अब वागले कहां है ?”
“पता नहीं ।”
“उसे ढूंढ ।” - इकबालसिंह गरजा - “कहीं से भी ढूंढ । फौरन से पेश्तर ढूंढ वरना मैं कोई दूसरा सिपहसालार ढूंढता हूं ।”
“ढूंढता हूं, बाप ।”
“अब दफा हो जा ।”
अपमान से तिलमिलाते डोंगरे ने दफा होने का उपक्रम न किया ।
“लगता है” - गजरे दबे स्वर में बोला - “अभी कोई और भी बुरी खबर है हमारे सिपहसालार के पास ।”
“और क्या बुरी खबर है ?” - इकबालसिंह आग्नेट नेत्रों से डोंगरे को घूरता हुआ बोला ।
“वो-वो” - डोंगरे के गले की घंटी जोर से उछली - “सितोले...”
“क्या हुआ उसे ?”
“वो गायब है ।”
“गायब है ?”
“कल रात से ।”
“डोंगरे ! डोंगरे ! जो बोलना है एक ही बार में बोल । किश्तों मे न बोल ।”
“कल रात साढे नौ बजे के करीब वह अपनी बुलेटप्रूफ कार पर जैकपॉट से कहीं गया था और अभी तक नहीं लौटा । वेटर और डोरमैन कहते हैं कि उसके साथ एक खूबसूरत लड़की थी जो वहां पहुंची किसी और मर्द के साथ थी लेकिन वहां से गई सितोले के साथ थी ।”
“ताजी फंसी होगी वो तो कहीं ऐश कर रहा होगा पट्ठा उसके साथ । दूसरों की बीवियों के पीछे पड़ना तो उसका खास शौक है । एक नंबर का बीवीकतरा है अपना सितोले ।”
“उसने जैकपॉट बंद होने तक न लौटना हो तो वो ऐसा बोल के जाता है । कल रात वो ऐसा बोल के नहीं गया और लौटा भी नहीं ।”
“भूल गया होगा । छोकरी ज्यादा खूबसूरत होगी ।”
डोंगरे खामोश रहा । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“उसके मालूम ठिकाने टटोल” - इकबालसिंह बोला - “और शाम तक इंतजार कर । शाम तक न लौटा तो फिर खबर करना ।”
“बाप, मैं सोच रहा था...”
“तू सोच रहा था ! अपना डोंगरे सोच रहा था ! क्या कहने ?”
“इसे अपनी बात कहने दे ।” - गजरे बोला ।
“क्या सोच रहा था, भई ?”
“यही कि” - डोंगरे दबे स्वर में बोला - “कहीं सितोले इब्राहीम कालिया की किसी शरारत का शिकार तो नहीं हो गया ?”
“पागल हुआ है ! कालिया को तो यह भी पता नहीं होगा कि सितोले हमारा आदमी है । उसे तो यही नहीं मालूम होगा कि जैक पॉट ‘कंपनी’ का ठीया है ।”
डोंगरे खामोश रहा ।
“किसी औरत के चक्कर में वो पहली बार गायब नहीं हुआ । शाम तक इंतजार कर । लौट आएगा ।”
“लेकिन बिना खबर किए...”
“बोला न, शाम तक इंतजार कर ।”
डोंगरे ने सहमति में सिर हिलाया और फिर अपने आकाओं का अभिवादन करके वहां से विदा हो गया ।
***
कॉलबेल बजी तो विमल ने यह सोचकर तत्काल दरवाजा खोल दिया कि वैभवी वापिस आ गई थी ।
जो कि उसकी गलती थी ।
उसे अपने सामने जो दो व्यक्ति दिखाई दिए वो सूरत से ही सरकारी आदमी लग रहे थे । दोनों के चेहरे कठोर और गंभीर थे, दोनों सूट पहने थे और दोनों के कोटों के नीचे से शोल्डर होल्स्टर की मौजूदगी का आभास मिल रहा था । उन्होंने विमल से कोई सवाल करने का उपक्रम नहीं किया, दरवाजा खुलते ही वे विमल को एक ओर धकेलकर बड़ी बेतकल्लुफी से भीतर घुस आए ।
“इस बद्तमीजी का मतलब ?” - विमल का दिल धड़कने लगा था लेकिन प्रत्यक्षतः वह निडरता दिखा रहा था ।
“दरवाजा बंद कर दो ।” - एक में कठोर स्वर में आदेश दिया ।
“तुम लोग हो कौन, भई ?”
“बताते हैं ?”
विमल ने दरवाजा बंद करके चिटकनी चढा दी ।
दोनों ने एक सरसरी निगाह ड्राइंगरूम में चारों तरफ दौड़ाई और सोफे पर आ बैठे ।
“आओ” - एक जना यूं बोला जैसे घर उनका हो और विमल वहां मेहमान आया हो - “बैठो ।”
“मैं किचन में कॉफी बना रहा था ।” - विमल बोला ।
“थोड़ी देर के लिए कॉफी का ख्याल छोड़ दो ।”
“तो फिर मैं गैस बंद कर आऊं ?”
“जरूरत नहीं । जलने दो ।”
“कमाल है ।”
“इधर आकर बैठो ।”
“गुंडे-बदमाशों के कुछ ज्यादा ही हौसले हो गए हैं बंबई शहर में । दिन-दहाड़े यूं...”
“सोहल ! मैंने कहा है इधर आ के बैठ ।”
विमल का दिल लरजा ।
“कौन सोहल !” - वह बोला - “मेरा नाम सोहल नहीं है ।”
“इधर आ के बैठ ।”
वह उनके करीब पहुंचा और उनके सामने एक सोफा-चेयर पर बैठ गया । उसने अपनी जेब की तरफ हाथ बढाया ।
“खबरदार !” - तत्काल एक का हाथ कोट के भीतर शोल्डर होल्स्टर की तरफ सरक गया ।
“मैं पाइप निकाल रहा था ।”
“पाइप !”
“तंबाकू वाला । स्मोक करने के लिए ।”
“सरदार हो के स्मोक करते हो ?”
“मैं तुम्हें सरदार दिखाई देता हूं ?”
“दिखाई तो नहीं देते हो । लेकिन दिखाई न देने से क्या होता है ।”
“आजकल किस नाम से जाने जाते हो ?” - दूसरा बोला ।
“किस नाम से जाना जाता हूं !” - विमल प्रत्यक्षतः भुनभुनाया - “एक शख्स के क्या कोई दस-बीस नाम होते हैं ?”
“आम शख्स के नहीं होते । लेकिन तुम कोई आम शख्स नहीं हो ।”
“तुम्हारे चंदेक मशहूर नाम जो हमें मालूम हैं वो हैं सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल । विमल कुमार खन्ना । गिरीश माथुर । बनवारी लाल । रमेशकुमार शर्मा । कैलाश मल्होत्रा । बसंत कुमार । नितिन मेहता । कितने हो गए ?”
“पता नहीं क्या कह रहे हैं आप लोग । मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा । आप लोग जरूर मुझे कोई और समझ रहे हैं जो कि मैं नहीं हूं । मेरा नाम पी.एन. घड़ीवाला है और यह मेरे इकलौता नाम है ।”
“यह भी तुम्हारा एक नाम है ।”
“नाम कोई आप लोगों के भी होंगे । यहां से टलने वाले नहीं हो तो कम-से-कम यह तो बताओ कि तुम लोग हो कौन ?”
“हां । जरूर ।” - पहला बोला - “मेरा नाम योगेश पांडेय है । यह मेरा जोड़ीदार नरेंन्द्र यादव है । हम सरकारी आदमी हैं ।”
“वो तो आप लोगों के माथों पर लिखा है । कौन-से सरकारी आदमी हैं आप लोग ?”
दोनों की आपस में निगाहें मिलीं ।
“एंटीटैरेरिस्ट स्कवायड” - फिर योगेश पांडेय बोला - “सी.बी. आई ।”
“ओह । तो आप लोग बाम्बे पुलिस से नहीं है ?”
“नहीं । हम लोग दिल्ली से आए हैं ।”
“मेरी फिराक में ?” - विमल उपहासपूर्ण स्वर में बोला - “उस शख्स की फिराक में जो कि आप मुझे समझ रहे हैं ?”
“नहीं ।”
“अच्छा ।”
“तुम सात राज्यों में घोषित खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम सोहल हो लेकिन हमारे काम के लिहाज से फिर भी छोटी मछली हो ।”
“मैं सोहल नहीं हूं । मैं...”
“तुम सोहल हो । इलाहाबाद से जब तुम जेल तोड़कर भागे थे तो वहां तुम्हारा यही नाम था । भागकर बंबई आए तो दाढी-मूंछ, केश मुंडवाकर विमल कुमार खन्ना बन गए और यहां लेडी शांता गोकुलदास का बड़ी बेरहमी से कत्ल किया । यहां से भागर मद्रास पहुंचे तो गिरीश माथुर बन गए और वहां अन्ना स्टेडियम में डकैती डाली । मद्रास से दिल्ली पहुंचे और बनवारी लाल बनके एक मामूली तांगेवाले का बहुरूप धर लिया । इसी बहुरूप में दिल्ली के यूनियन बैंक की वैन रॉबरी में शरीक हुए, गिरफ्तार हो के जेल भी पहुंचे लेकिन जेल तोड़कर भाग निकले । अमृतसर में जाके रमेश कुमार शर्मा बन गए और भारत बैंक का वाल्ट लूटा । गोवा में कैलाश मल्होत्रा बनके स्थानीय गैगस्टर्स में घी में खिचड़ी की तरह जा मिले और बंबई के मशहूर स्मगलर विशंभरदास नारंग, उसके सहायक रणजीत चौगुले और वहां के सोनवलकर नाम के एक इंस्पेक्टर का कत्ल किया । स्थानीय गैगस्टर्स की ही सहायता से वहां से फरार होके जयपुर पहुंचे जहां बसंत कुमार मौटर मकैनिक बनकर बीकानेर बैंक की वैन लूटी । फिर आगरा में रत्नाकर स्टील मिल की पे रोल वाली बख्तरबंद गाड़ी लूटी । राजनगर में नितिन मेहता बनकर अमरीकी डिप्लोमैट सिडनी फोस्टर का फिरौती की रकम के लिए अपहरण किया । फिर बंबई आकर ऐसा डेरा जमाया कि तब से यहीं हो । यहां के तुम्हारे प्रमुख कारनामों से सबसे बड़ा कारनामा तो यह है कि तुमने अकेले राजबहादुर बखिया जैसे अंडरवर्ल्ड के सुपर बॉस की कायनात उजाड़ दी । आलमगीर म्यूजियम से बेशकीमती फ्रांसीसी पेंटिगें चुराईं । जौहरी बाजर में प्रीमियम वाल्ट सर्विस का अभेद्य वाल्ट खोल तो लिया लेकिन लूट न सके । बदले में वहां बनी सुनारों की मार्किड लूट ली ।” - पांडेय एक क्षण को ठिठका और फिर बोला - “ये तुम्हारी पुरानी कारगुजारियां जिनकी कि हमें खबर है । इसके अलावा भी हो सकता है तुमने कई डकैतियां डालीं हों, कई कत्ल किए हों, लेकिन उनकी हमें खबर न हो ।”
“लेकिन” - नरेंद्र यादव बोला - “तुम्हारे आइंदा कारनामे की हमें खबर है ।”
“जी !”
“तुम स्वैन नैक प्वाइंट आइलैंड पर स्थित बादशाह अब्दुल मजीद दलवई का कैसीनो लूटने की फिराक में हो ।”
दाता !
“हमने ठीक कहा ?” - पांडेय बोला ।
“मैं अपना पाइप निकाल लूं ?”
पांडेय एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “हां । शौक से ।”
विमल ने जेब से पाइप और तंबाकू का पाइप निकाला, बड़े यत्न से पाइप तैयार करके उसे सुलगाया और फिर उसके दो-तीन लंबे-लंबे कश खींचे ।
उस दौरान वहां मुकम्मल सन्नाटा छाया रहा ।
“भाई साहब” - अंत में विमल बोला - “ये जो कारनामे आपने बयान किए, ये सब मैंने गाहे-बगाहे अखबारों में पढे हैं और मैं जानता हूं कि इनके लिए सोहल नाम का कोई बहुत ही खतरनाक मुजरिम जिम्मेदार है, लेकिन आप लोगों का यह ख्याल कि वो सोहल मैं हूं, निहायत बचकाना ही नहीं, बेहूदा भी है ।”
“ये हमारा ख्याल नहीं, हम ये सब यकीनी तौर से जानते हैं ।”
“आप कुछ नहीं जानते । जिन शहरों के आपने नाम लिए हैं, उनमें से एक में भी आज तक मैंने कदम नहीं रखा । बड़ौदा और बंबई के अलावा मैंने कोई तीसरा शहर नहीं देखा । चोरी, डकैती, खून-खराबे के तो किस्से पढने से मेरा दिल दहलता है, इन कारनामों को खुद तो मैं क्या अंजाम दूंगा । मैं न कोई सोहल हूं, न हो सकता हूं । मेरा नाम पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला है और मैं एक खुदा का खौफ खाने वाला, अमनपरस्त, शादीशुदा, बाऔलाद शहरी हूं ।”
“वैरी वैल सैड !” - यादव बोला - “खूब कहा ।”
“लेकिन बेकार रहा ।” - पांडेय बोला - “गैरजरूरी कहा । तुम सोहल हो और ये बात तुमसे पूछी नहीं जा रही, तुम्हें बताई जा रही है ।”
“आप साबित कर सकते हैं, मैं सोहल हूं ?”
“हां, निर्विवाद रूप से ।”
“कैसे ? मेरी सूरत से ?”
“नहीं, सूरत से नहीं । तुम्हारी सूरत सोहल से नहीं मिलती ।”
“क्यों नहीं मिलती ? अगर मैं सोहल हूं तो मेरी सूरत सोहल से क्यों नहीं मिलती ? मैं क्या कोई मुखौटा पहने हूं ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“फिलहाल हमारे लिए यह हैरानी की बात है कि क्यों तुम्हारी सूरत सोहल से नहीं मिलती ।”
“तो और कैसे साबित करेंगे आप कि मैं सोहल हूं ?”
“तुम्हारी उंगलियों के निशानों से । साबित कर चुके हैं ।”
“जी !”
“तुम्हारी उंगलियों के निशानों का मिलान हम बॉम्बे पुलिस के रिकॉर्ड में मौजूद सोहल की उंगलियों के निशानों से करके देख चुके हैं । दोनों निशानात हूबहू मिलते हैं । फिंगर प्रिंट्स झूठ नहीं बोलते । फिगर प्रिंट्स के माध्यम से यह बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है कि तुम सोहल हो ।”
विमल का दिल डूबने लगा ।
“आपने मेरे फिंगर प्रिंट्स कब को ले लिए ?” - विमल बोला - “मैंने तो आज से पहले आपकी सूरत कभी नहीं देखी ।”
“लेकिन हम तुम्हारी मौजूदा सूरत शनिवार से देख रहे हैं । हमारे सामने तुमने दर्जनों चीजों को हैंडल किया । उनमें से किसी एक पर से तुम्हारे फिंगर प्रिंट्स उठाकर उन्हें रिकार्ड से चैक कर लेना क्या मुश्किल था !”
“आप तो यूं कह रहे हैं जैसे शनिवार से ही आपको मालूम हो कि मैं सोहल हूं और तभी से मैं मुतवातर आपकी निगाह में रहा होऊं !”
“बिलाशक ।”
“तो दर्शन आज क्यों दिए ?”
“हम तो आज भी न देते अगर...”
पांडेय जानबूझकर खामोश हो गया । वह विमल को देखकर बड़े नाटकीय अंदाज में मुस्कराया ।
“क्या अगर ?”
“...तुमने ढोलकिया की चलता न कर दिया होता ।”
“ढोलकिया !” - विमल चौंका ।
“बोटमैन ! अच्छा- खासा था । तुम्हें उसको रख लेना चाहिए था ।”
“वो... वो तुम्हारा आदमी था ?”
“हमारा आदमी नहीं था, हमारा भेजा हुआ आदमी था ।”
“फिर तो मैने अच्छा किया ।”
“अच्छा नहीं किया । तुमने कल उसे रख लिया होता तो आज हमें यहां न आना पड़ता । सच पूछो तो तब तो हो सकता था कि हमें जिंदगी में एक-दूसरे की सूरत देखने का इत्तफाक न होता ।”
“बावजूद आपकी इस गांरटी के कि मैं सोहल हूं ?”
“हां ।”
“आप लोग मुझे गिरफ्तार करने के लिए यहां नहीं आए ?”
“बिल्कुल भी नहीं ।”
“कमाल है !”
“खूनी, डकैतों को पकड़ना हमारा काम नहीं ।”
“फिर भी...”
“देखो, पुलिस की निगाहों में, आम शहरियों पर आयद होने वाले मुल्क के कायदे-कानून के लिहाज से तुम बहुत बड़ी तोप हो सकते हो लेकिन हमारे लिहाज से तुम एक छोटी मछली हो जबकि हमारा निशाना एक बड़ा मगरमच्छ है ।”
“वो कौन हुआ ?”
“बादशाह ।”
“अब्दूल मजीद दलवई ।” - यादव बोला ।
“हम बयान नहीं कर सकते” - पांडेय बोला - “कि आज की तारीख में इस शख्स की गरदन तक हमारे हाथ पहुंचना कितना जरूरी है ।”
“क्यों जरूरी है ?” - विमल बोला ।
“वो तुम नहीं समझोगे ।”
“समझाओगे तो क्यों नहीं समझूंगा !”
“इस बात को तुम यूं समझो कि वो तुम्हारे समझने लायक बात नहीं ।”
“वो कोई स्टेट सीक्रेट है ? सरकारी राज है ?”
“यही समझ लो ।”
“दिक्कत क्या है उसकी गरदन नापने में ?”
“उसकी गरदन हमारी पहुंच से बाहर है । स्वैन नैक प्वाइंट नाम से जिस टापू पर वो आजकल बसा हुआ है, वो पाकिस्तान की मिल्कीयत है । वो पाकिस्तान है ।”
“और हिंदुस्तानी धरती पर वो कदम नहीं रखता ?” 
“नहीं रखता ।”
“रखता है तो” - यादव बोला - “हमें मालूम नहीं पड़ता कि उसने कदम कब रखा ।”
“आई सी ।”
“अब पोजीशन यूं है, सरदार साहब” - पांडेय बोला - “कि हमें मालूम है कि तुम बादशाह के कैसीनो पर हल्ला बोलने की फिराक में हो । शनिवार से ही तुम इस काम की तैयारियों में लगे हुए हो । तुम आदमी और असला जमा कर रहे हो ।”
“असले की खबर कैसे लगी ?”
“भट्टी के पीछे लग के लगी ।”
“चार रिवॉल्वरें !” - यादव बोला - “सौ गोलियां । दो मशीनगन । पांच स्पेयर मैगजीन । छः हैंड ग्रेनेड । छः धुएं के बम । छः टाइम बम ।”
“तुम लोग” - पांडेय बोला - “कैसीनो को बिल्कुल ही तबाह कर देने की फिराक में तो नहीं हो ?”
“मैं आप लोगों की मुस्तैदी और सलाहियात की दाद देता हूं ।”
“यानी कि अब तुम मानते हो कि तुम सोहल हो और तुम अपने कुछ साथियों के साथ बादशाह के कैसीनो को हिट करने की फिराक में हो ।”
“मेरा इनकार” - विमल बोला - “आप लोगों को कबूल हो जाएगा ?”
“नहीं ।”
“फिर पूछने से फायदा ?”
“कोई फायदा नहीं । तुम हां बोलो या न, यह हकीकत अपनी जगह कायम है कि तुम कैसीनो को लूटने वाले हो । हमें कोई एतराज नहीं । हमारी तरफ से तुम कैसीनो की ईंट से ईंट बजा दो, उसे जला के भस्म कर दो, उसे समुद्र में डुबो दो । लेकिन...”
वो खामोश हो गया । यूं बात को बीच में लटकी छोड़कर सस्पेंस पैदा करना उसकी आदत मालूम होता था ।
“क्या लेकिन ?”
“लूट के माल का एक नग बादशाह भी होना चाहिए ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब साफ है । हमें बादशाह चाहिए । हमें बादशाह ऐसी जगह चाहिए जहां उस तक हमारी पहुंच मुमकिन हो । इसलिए कैसीनो को लूटकर वापिस लौटते वक्त तुम्हें बादशाह को भी साथ लाना होगा ।”
“ओह !”
“तुम्हारी गुनाहों से पिरोई जिंदगी का ये पहला काम होगा” - यादव बोला - “जिसके लिए तुम अपने मुल्क का कोई कानून नहीं तोड़ रहे होगे ।”
“मैंने” - विमल बोला - “पहले भी कभी मुल्क का कोई कानून नहीं तोड़ा ।”
“अब यह पाखंडवाद छोड़ो ।” - पांडेय तनिक झुंझलाए स्वर में बोला - “यूं क्या हम तुम्हें मुकरने देंगे । हम क्या नहीं जानते...”
“हैलीकॉप्टर !” - एकाएक विमल के मुंह से निकला ।
“क्या ?” - पांडेय हड़बड़ाया ।
“मैं इतनी देर से यह नहीं समझ पा रहा था कि तुम लोगों को कैसीनो में मेरी दिलचस्पी की खबर कैसे लगी । अब समझ गया मैं ।”
“क्या समझ गए ?”
“शनिवार सुबह टापू का मुआयना करने की नीयत से जब मैं मोटरबोट पर वहां का चक्कर लगाने गया था तो मैंने आसमान पर एक हैलीकॉप्टर मंडराता देखा था । वो हैलीकॉप्टर जरूर तुम्हारा था ।”
“हैलीकॉप्टर तो कोस्टगाडर्स का था” - पांडेय बोला - “अलबत्ता सवार उस पर हम थे ।”
“तभी तुम्हें हमारी खबर लगी थी ?” - विमल बोला ।
“हां । हम टापू की ताक में थे इसलिए ऐसी किसी मोटरबोट में हमारी दिलचस्पी होना स्वाभाविक था जो कि हमें अपनी तरह टापू की ताक में दिखाई दी थी ।”
“ओह !”
“फिर हमारा यह जानने की कोशिश करना स्वाभाविक था कि तुम लोग कौन थे । भट्टी को तो बॉम्बे पुलिस का कदम नाम का वो सब-इंस्पेक्टर ही पहचानता था जो हैलीकॉप्टर में हमारे साथ मौजूद था । तुम्हारी बाबत कोई जानकारी हासिल करने के लिए हमने तुम्हारी उंगलियों के निशान उठवाए ।”
“कहां से ? कैसे ?”
“जब तुम वापिस अपोलो बंदर पहुंचे थे तो पायर की सीढियों पर पहुंचने के लिए तुमने अपने दोनों हाथों से सीढियों के करीब लगी रेलिंग को थामा था । हमने रेलिंग पर से वो पाइप ही उतरवा दिया था ।”
“और उस पर से उठाए उंगलियों के निशानों को देखते ही आपने फौरन कह दिया था कि वो मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेंद्रसिंह सोहल की उंगलियों के निशान थे ।”
“पागल हुए हो ।”
“तो ?”
“हमें बताया गया था कि भट्टी यहां के एक खतरनाक गैंगस्टर इब्राहीम कालिया का आदमी था जो कि दुबई में छुपकर रहता है । हमें दिख रहा था कि बादशाह के कैसीनो को हिट करना किसी ऐरे-गैरे आदमी का काम नहीं था । तुम्हारे फिंगरप्रिंट्स का मिलान हमने रिकार्ड में उपलब्ध केवल उन अपराधियों के फिंगर प्रिंट्स से किया था जिनकी जीदारी बेमिसाल थी और जिनका सशस्र डकैतियों का बड़ा कामयाब रिकार्ड था । ऐसे अपराधियों में एक अपराधी सरदार सुरेंद्रसिंह सोहल भी था जिससे कि तुम्हारी उंगलियों के निशान मिल गए ।”
“ओह !”
यह उसकी बदकिस्मती थी कि केशवराव भौंसले ने उसके फिंगर प्रिंट्स तब्दील करने का काम तत्काल नहीं कर दिया था । वो ऐसा कर पाया होता तो विमल को अपनी मौजूदा दुश्वारी का मुंह न देखना पड़ा होता । अब बदली हुई सूरत के हासिल का सफाया फिंगर प्रिंट्स ने कर दिया था ।
“ढोलकिया की क्या कहानी है ?” - फिर वह बोला ।
“अगर तुम लोग उसे अपने ग्रुप में शामिल कर लेते” - पांडेय बोला - “तो टापू की रेड के वक्त वो तुम लोगों के साथ होता । तुम्हारी बताई ड्यूटी को भुगताने के अलावा उसका एक अतिरिक्त काम बादशाह को अपने साथ वापिस हिंदोस्तानी जमीन पर लाना होता ।”
“वो कर लेता यह काम ?”
“बहुत आसानी से । उसे ऐसी ही ट्रेनिंग देकर भेजा जाता कि इस काम को करने में उसे कोई मुश्किल पेश न आती ।”
“ओह !”
“तुम अभी भी ढोलकिया को वापिस कबूल कर लो तो हमारा काम आसान हो सकता है ।”
“वो बेकार आदमी है ।”
“बेकार तो नहीं, अलबत्ता यूं कहो कि तुम्हारे जैसे सुपर गैंगस्टर की सोहबत के काबिल नहीं ।”
“मैं और गैंगस्टर !”
“डकैत भी ! बेरहम हत्यारा भी ।”
“हा... हा... हा ।”
“बात तो यूं हंसी में उडाने की कोशिश बेकार होगी, सरदार साहब ।”
“आप ढोलकिया की तारीफ में कुछ फरमा रहे थे ।”
“मैं कह रहा था वो इतना बेकार आदमी नहीं । वैसे हमें अफसोस है कि हम खड़े पैर उससे बेहतर आदमी पैदा न कर पाए ।”
“जेल से छूटते ही वो आप लोगों के पल्ले कैसे पड़ गया ?”
“उसे जेल से छुड़ाया ही हमने था ।”
“खास मेरे सिर मढने के लिए ?”
“हां ।”
“कमाल है !”
“वैसे हम तुम्हारी काबलीयत का दाद देते हैं कि तुमने झट भांप लिया कि वो ताजा-ताजा आजाद हुआ जेलबर्ड था ।”
“कोई भी भांप सकता था ।”
“हर कोई तो नहीं भांप सकता था । तो वो तुम्हें मंजूर नहीं ?”
“नहीं ।”
“फिर इसका दूसरा हल ये है कि तुम ढोलकिया की जगह मुझे कबूल कर लो ।”
“क्या ?”
“मैं तुम्हारा बोटमैन ।”
“पागल हुए हो !”
“तुम्हें फायदा है । ढोलकिया को या किसी और बोटमैन को तुम्हें उसकी सेवाओं की उजरत देनी पड़ेगी । मैं ये काम फ्री में करूंगा ।”
“तुम मजाक कर रहो हो ।”
“मैं एकदम गंभीर हूं ।”
“अरे चोर और हाकिम का कहीं साथ होता है ।”
“अब हो जाएगा ।”
“जब मेरे साथियों को पता चलेगा कि तुम सरकारी आदमी हो और हमें गिरफ्तार कर लेने की पावर रखते हो तो सब-के-सब भाग खड़े होंगे ।”
“तुम मत बताना उन्हें कि मैं कौन हूं ।”
“तुम्हारे मुंह पर लिखा है, तुम कौन हो ।”
“दो मैं से एक की तो तुम्हें चुनना हो होगा । या मुझे, या ढोलकिया को ।”
“मेरी मर्जी तो...”
“यहां नहीं चलने वाली ।” - पांडेय एकाएक बेसब्रा हो उठा - “तूने जो करना है, हमारे हुक्म से करना है, अपनी मर्जी से नहीं करना है ।”
“नहीं करूंगा तो क्या करोगे ?”
“तो मैं अभी तुझे गिरफ्तार करके ले जाऊंगा ।”
“पहले भी हम” - यादव बोला - “ढील ही दे रहे हैं वरना हम तो जब चाहते तुम्हें गिरफ्तार कर लेते ।”
“तो किया क्यों नहीं ?”
“बताया तो ।” - पांडेय बोला - “तूने हमारे लिए बादशाह तक पहुंचने का जरिया जो बनना है ।”
विमल खामोश रहा ।
“सरदार, तेरा इनकार तीस मिनट के अंदर-अंदर तुझे जेल के सींखचों के पीछे पहुंचा देगा ।”
“शटअप !”
“क्या ?” - पांडेय कहर-भरे स्वर में बोला ।
“मुझे सोचने दो ।”
यादव ने पांडेय के हाथ पर हाथ रखकर से शांत किया ।
“ठीक है ।” - पांडेय भुनभुनाया -सोच ले । जी भर के सोच ले । बहुत वक्त है हमारे पास ।”
विमल पाइप का कश लगाता सोचने लगा । स्थिति निश्यच ही बहुत विकट थी । उस घड़ी उसे अगर कोई पनाह हासिल हो सकती थी तो उन दोनों की हां में हां मिलाने में, उन्हें राजी रखने में ही हो सकती थी ।
“सुनो ।” - अंत में वह बोला - “तुम क्यों अपने आपको या उस ढोलकिये को जबरन हमारे सिर थोपते हो ? तुम्हें बादशाह चाहिए न ! बादशाह...”
“बादशाह हमें जिंदा चाहिए ।” - पांडेय बोला - “टापू की रेंज से लौटकर तुम्हारे यह साबित कर दिखाने से हमारा काम नहीं बनेगा कि तुमने टापू पर बादशाह का काम तमाम कर दिया है । बादशाह हर हाल में हमें जिंदा चाहिए ।”
“क्यों ?”
“कहा न यह तुम्हारी समझ में आने वाली बात नहीं ।”
“चलो ऐसे ही सही । तुम मुझे मेरे तरीके से काम करने दो, ढोलकिया को या खुद को या किसी और को मेरे सिर न थोपो, मैं बादशाह को जिंदा वापिस लेकर आऊंगा ।”
“क्या गारंटी है ?”
“किस बात की ?”
“कि तुम धोखा नहीं दोगे ।”
“कोई गांरंटी नहीं । लेकिन जब तुम कहते हो कि तुम जब चाहे मुझे गिरफ्तार कर सकते हो तो फिर तुम्हें मेरी किसी गारंटी की क्या जरूरत है ? मैं तुम्हें धोखा देता लगूं तो तुम मुझे गिरफ्तार कर लेना । क्या मुश्किल है ?”
पांडेय ने उत्तर न दिया । उसकी निगाह अपने जोड़ीदार से मिली । किसी के भी चेहरे पर आश्वासन के भाव न आए ।
तभी एकाएक फोन की घंटी बजी ।
विमल ने हाथ बढाकर फोन का रिसीवर उठाया तो पांडेय ने टेलीफोन के पलंजर पर उंगली रखी ।
“फोन पर” - वह चेतावनी भरे स्वर में बोला - “कोई शरारती बात हुई तो मैं लाइन काट दूंगा ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया और माउथपीस में बोला - “हैलो ।”
“घड़ीवाला ?” - उसे केशव भौंसले की आवाज सुनाई दी ।
“हां ।”
“तुम्हारा काम हो गया ।”
“ठीक है ।”
“मैंने तुम्हारे फिंगरप्रिंट्स...”
“रांग नंबर ।”
विमल ने रिसीवर क्रेडल की तरफ बढाया तो पांडेय ने वहां से हाथ हटा लिया । विमल ने रिसीवर क्रेडल पर रख दिया और पाइप का एक लंबा कश लगाया ।
“तुम्हारी बात मुझे मंजूर नहीं ।” - पांडेय बोला ।
“मेरी कौन-सी बात ?” - विमल बोला ।
“कि तुम बादशाह को खुद ही अपने साथ वापिस ले आओगे ।”
“कौन बादशाह !”
“अबे सरदार, तेरा दिमाग...”
“कौन सरदार ?”
“सोहल के बच्चे, इतनी होशियारी नहीं चलने की ।”
“कौन सोहल ?”
“तू सोहल और कौन सोहल ?”
“मैं सोहल नहीं हूं ।”
“तू सोहल है ।”
“मैं सोहल होता तो तुम दोनों मेरे सामने इतने इत्मीनान से पसरे न बैठे होते । सिर से पांव तक थर-थर कांप रहे होते ।”
“साले ! पैंतरेबाजी करता है हमारे साथ ! अभी एक सांस में ये कबूल करके बात करता है कि तू सोहल है, दूसरे ही सांस में मुकर जाता है । बेवकूफ बनाता है हमें ।”
“मैं सोहल होता तो तुम्हारी कतरनी कब की बंद हो चुकी होती । तुम दोनों की लाशें बिछी होतीं यहां ।”
“साले, हम दोनों हथियारबंद हैं ।”
“तो भी तुम दोनों की लाशें बिछी होती यहां । चाहे तोप ही क्यों न होती तुम्हारे पास । मैं क्या सोहल को जानता नहीं ।”
“क्यों नहीं जानेगा ? खुद को कैसे नहीं जानेगा ?”
“मैं सोहल नहीं हूं ।”
“तूने कह दिया और हमने मान लिया ।”
“नहीं मानोगे तो मैं तुम्हारी शिकायत करूंगा ।”
“तू हमारी शिकायत करेगा !” - पांडेय अविश्वासपूर्म स्वर में बोला ।
“हां ।” - विमल दृढ स्वर में बोला - “मैं पुलिस कमिश्नर से तुम्हारी शिकायत करूंगा । मैं गृह मंत्रालय को लिखूंगा । मैं प्रधानमंत्री तक पहुंचूंगा ।”
“दीदादिलेरी देखो साले की !”
“तुम लोग एक नेक शहरी को यूं हलकान नहीं कर सकते ।”
“तू और नेक शहरी ?”
“हां । पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला । जो कि मैं हूं । तुम लोग मुझे जबरन कोई और नहीं बना सकते ।”
“जबरन ! साले ! तेरे खुद के फिंगरप्रिंट्स...”
“मेरे फिंगरप्रिंट्स किसी सोहल-वोहल से मिलते नहीं हो सकते ।”
“लेकिन हमने खुद...”
“या तुम्हें धोखा हुआ है या तुम जानबूझ कर मुझे फंसाने के लिए झूठ बोल रहे हो ।”
“अबे, हम ऐसा क्यों करेंगे ?”
“तो फिर जिस रेलिंग पर से तुम मेरे फिंगरप्रिंट्स उठाए बताते हो, उसे कभी सोहल के भी हाथ लगे होंगे और मेरे धोखे में तुमने उस पर से सोहल के ही फिंगरप्रिंट्स उठाए होंगे जो कि उसके रिकार्ड से मिलें ही होंगे ।”
पांडेय हकबकाया-सा कभी विमल का और कभी अपने जोड़ीदार का मुंह देखने लगा ।
“तेरा ये पैंतरा मेरी समझ में नहीं आ रहा है ।” - पांडेय बेचेनी से पहलू बदलता हुआ बोला - “अभी तो तू बकरी की तरह मिमिया रहा था और अभी तू शेर की तरह गरजने लगा है । ऐसा क्या कहा गया था तुझे उस टेलीफोन काल में ?”
“कुछ भी नहीं । वो रांग नंबर था ।”
“तू समझता है यूं तेरी खलासी हो जाएगी ?”
“क्यों नहीं होगी ? आखिर मुल्क का कायदा-कानून भी कोई चीज है ! बिल्कूल ही तो गुंडारज नहीं स्थापित हो गया है हिंदुस्तान में ! मैं मांग करता हूं कि तूम किसी अपने से ज्यादा जिम्मेदार आदमी के सामने मेरे फिंगर-प्रिंट्स लो और फिर साबित करके दिखाओ कि मैं सोहल हूं ।”
“मैं ऐसा ही करूंगा ।” - पांडेय दात पीसता हुआ बोला - “मैं तुझे पुलिस कमिश्नर के पास लेकर चलता हूं ”
“लेकर चलो ।” - विमल चैलेंज-भरे स्वर में बोला ।
“अब तुझे तो मैं फांसी पर लटकवाकर ही छोडूंगा । बादशाह पर हाथ डालने की मैं कोई और जुगत भिड़ा लूंगा ।”
विमल हंसा ।
“तू” - पांडेय संदिग्ध भाव से उसे घूरता हुआ बोला - “ये तो नहीं समझ रहा कि यहां से लेकर पुलिस हैडक्वर्टर तक के रास्ते के बीच कहीं तू फरार हो जाने में कामयाब हो जाएगा ?”
“मुझे क्या जरूरत पड़ी है फरार होने की ? तुम दस बार मेरे से माफी मांग के खुद मुझे छोड़ोगे ।”
“वैसे तेरी जानकारी के लिए इस सारी इमारत को पुलिस के बीस आदमी घेरे हुए हैं । वो बीस-के-बीस पुलिस हैडक्वार्टर तक हमारे साथ चलेंगे । तू भाग नहीं सकेगा ।”
“मैं क्यों भागूंगा ? तुम मुझे बाइज्ज्त यहीं छोड़ के जाओगे ।”
“इतनी दिलेरी !”
“दिलेरी नहीं । यह एक सच्चे और ईमानदार आदमी की अपने हक के लिए दुहाई है । मैं अल्पसंख्यक वर्ग का अंग हूं तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम लोग...”
“शटअप ।” - पांडेय गला फाड़कर चिल्लया ।
“क्यों शटअप ? मैं क्या....”
“बकवास बंद । उठके खड़ा हो और चल ।”
“फ्लैट की मालकिन बाहर गई हुई है । मैं उसके आने पर चलूंगा ।”
“तू अभी चलेगा । मैं पीछे एक आदमी फ्लैट की रखवाली के लिए और मालकिन को ये बताने के लिए छोड़कर जाता हूं कि तू जहां गया है वहां से कभी लौट के नहीं आएगा । स्टैंड अप एंड मूव ।”
विमल बड़े इत्मीनान से पाइप के कश लगता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
***
पुलिस हैडक्वार्टर की लॉबी में ही प्रेसरूम था । उसके सामने से गुजरते समय विमल ने जोर-जोर से शोर मचाना आरंभ कर दिया कि पुलिस वाले उस बेगुनाह को जबरदस्ती कोई इश्तिहारी मुजरिम साबित करने पर तुले हुए थे । तत्काल कितने ही रिपोर्टर उसके इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए । पांडेय ने जब उन्हें बताया कि दुहाई देता वह शख्स मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेंद्रसिंह सोहल था तो किसी के भी चेहरे पर विश्वास के भाव न आए । नतीजन सब विमल, पांडेय और यादव के पीछे-पीछे पहली मंजिल पर पहुंच गए जहां कि पुलिस कमिश्नर जुआरी का दफ्तर था । वहां बड़ी कठिनाई से रिपोर्टरों को रोका गया और भीतर कमिश्नर के दफ्तर में जाने के लिए उन्हें अपना एक प्रतिनिधि चुनने के लिए कहा गया ।
रिपोर्टरों ने इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता झालानी को चुना ।
वे कमिश्नरर के दफ्तर में दाखिल हुए ।
उस किस्से की खबर वायरलेस पर पहले कमिश्नर तक पहुंचाई जा चुकी थी इसलिए उसके ऑफिस में ए.सी.पी. मनोहर देवड़ा के अलावा दामोदर राव नाम का वो सब-इंस्पेक्टर भी मौजूद था जा सोहल की आवाज और सूरत दोनों से वाकिफ था । बखिया से छिड़ी जंग के दौरान जब विमल नीलम को बॉम्बे सैंट्रल स्टेशन से दिल्ली की गाड़ी में बैठाने गया था और वापिसी में पुलिस से घिर गया था तो सब-इंस्पेक्टर दामोदर राव ने ही उसे गिरफ्तार होने से बचाया था (उपन्यास : खून के आंसू) उसके बाद फ्रांसीसी पेंटिगों की चोरी वाले मामले में टेपरिकार्ड हुई विमल की आवाज को भी उसी ने पहचाना था (उपन्यास : मरना यहां) ।
विमल पर निगाह पड़ते ही और उसके दो शब्द बोलते ही सब-इंस्पेक्टर दामोदर राव का सिर इनकार से हिलने लगा ।
“सुना है” - ए.सी.पी. देवड़ा दबे स्वर में बोला - “आजकल प्लास्टिक सर्जरी से सूरत बदल जाती है ।”
“लेकिन आवाज !” - कमिश्नर जुआरी बोला । 
देवड़ा ने जवाब न दिया ।
“सर‍ !” - पांडेय आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “ये बेकार की बातें हैं...”
“मिस्टर पांडेय !” - जुआरी सख्ती से बोला - “माइंड युअर लैंग्वेज ।”
“वाट आई मैंट टु से सर, वाज दैट इन प्रेजेंट सरकमस्टांसिज दीज आर इनकन्सीक्वेंशल थिंग्स । मेन एंड‍ डिसीसिव थिंग इज हिज फिंगरप्रिंट्स । सूरत तब्दील हो सकती है । ट्रेनिंग से आवाज बदलकर बोलने की आदत डाली जा सकती है । लेकिन फिंगरप्रिंट्स तब्दील नहीं किए जा सकते । कोई मुजरिम अपने फिंगरप्रिंट्स से पीछा नहीं छुड़ा सकता । अपने हाथ ही काट दे तो बात जुदा है...”
“इसके हाथ सलामत हैं ।”
“जी हां । और मैं इन हाथों पर मौजूद फिंगरप्रिंट्स खुद सोहल के फिंगरप्रिंट्स से मिलाकर देख चुका हूं । ये सोहल है । एक बार सोहल है । हजार बाहर सोहल है ।”
“मैं फिंगरप्रिंट्स को नहीं समझता ।” - विमल ने फरियाद की - “लेकिन मैं सोहल नहीं ।”
“तो” - कमिश्नर जुआरी बोला - “कौन हो तुम ?”
“मेरा नाम पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला है और आज तक मैंने जिंदगी में मक्खी नहीं मारी ।”
“अपनी शिनाख्त का कोई जरिया है तुम्हारे पास ?”
“मेरे पास ड्राइविंग लाइसेंस है ।
“दिखाओ ।”
विमल ने ड्राइविंग लाइसेंस निकालकर मेज पर डाल दिया जिसका खुद कमिश्नर ने मुआयना किया ।
कुछ क्षए लाइसेंस झालानी समेत बाकी हाथों में घूमा और फिर विमल के पास लौट आया ।
“मेरी बीवी फिरोजा” - विमल बोला - “मेरा लड़का आदिल और मेरी लड़की यासमीन इस वक्त होटल सी व्यू के कमरा नंबर छ: सौ आठ में मौजूद हैं । आप उन्हें यहां बुलाइए और उनसे दरयाफ्त कीजिये कि मैं कौन हूं ।”
“ये सब बातें” - पांडेय आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “इस शख्स कि, जो कि यकीनन सोहल है, फिंगरप्रिंट्स से बड़ा सबूत साबित नहीं हो सकतीं ।”
“तुम्हें” - किमश्नर बोला - “अपने फिंगरप्रिंट्स देने से कोई एतराज है ?”
“कोई एतराज नहीं ! कतई कोई एतराज नहीं ।”
कमिश्नर के आदेश पर सब-इंस्पेक्टर प्रभाकर राव ने विमल के फिंगरप्रिंट्स लेने की प्रक्रिया आरंभ की ।
उस दौरान एक हवलदार रिकार्ड सैक्शन से इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेंद्रसिंह सोहल के फिंगरप्रिंट्स का रिकार्ड ले आया ।
सब-इंस्पेक्टर प्रभाकर राव ने फिंगरप्रिंट्स का मिलान किया ।
“नहीं मिलते ।” - फिर उसने घोषणा की ।
कमिश्नर जुआरी ने भी मैग्नीफाइंग ग्लास लेकर खुद फिंगरप्रिंट्स का मुआयना किया ।
“कतई नहीं मिलते ।” - पांडेय को घूरता हुआ वह अप्रसन्न स्वर में बोला ।
पांडेय बद्हवास हो उठा, उसने झपटकरर फिंगर-प्रिंट्स के दोनों सेट और मैगनीफाइंग ग्लास अपने अधिकार में किया ।
कुछ क्षण बाद उसने सिर उठाया तो उसका चेहरा छाती तक लटका हुआ था ।
“व्हाट डु यू से नाओ, मिस्टर पांडेय ?” - कमिश्नर बोला ।
“मैं तो कुछ समझ नहीं पा रहा ।” - वह मरे स्वर में बोला - “ये तो जादूगरी हो गई । शनिवार को मैंने खुद यही मिलान किया था तो...”
“इसके फिंगरप्रिंट्स कैसे हासिल किए थे ?”
पांडेय ने पाइप वाली बात बताई ।
“यह तो कोई प्रमाणिक तरीका नहीं ।” - कमिश्नरर बोला - “अपोलो बंदर जैसी जगह के एक बिजी पायर की रेलिंग पर तो एक खास वक्फे में दर्जनों लोगों के हाथ पड़े हो सकते हैं । फिर पाइप को यहां लाकर फिंगरप्रिंट्स उठाने में भी चूक हुई हो सकती है ।”
“सर, इस आदमी ने मेरे साथ अपने वार्त्तालाप के दौरान इस बात की तसदीक की थी कि यह सोहल था ।”
“ये झूठ है ।” - विमल रुआंसे स्वर में बोला - “ये ही सोहल-सोहल कहकर मेरे गले पड़ रहे थे । ये ही जबरदस्ती मुझे सोहल करार देने पर तुले हुए थे ।”
“हम मान भी लें कि ये सोहल है” - कमिश्नर बोला - “तो हम ये बात साबित कैसे करें ? इसकी सूरत सोहल से नहीं मिलती । इसकी आवाज सोहल से नहीं मिलती । इसके फिंगर प्रिंट्स भी सोहल से नहीं मिलते । और कौन-सा जरिया है आपके पास इसे सोहल साबित करने का ?”
“इसने खुद कहा कि...”
“मैंने नहीं कहा ।” - विमल बोला - “अगर कहा भी तो मुझे एक बात बताइए । अगर मैं अभी कहना शुरू कर दूं कि मैं राजीव गांधी हूं तो आप लोग मान जाएंगे ?”
“जवाब दीजिए, मिस्टर पांडेय ।” - कमिश्नर बोला ।
पांडेय ने कोई जवाब नहीं दिया, उसने केवल निगाहों से भाले-बर्छियां बरसाते हुए विमल को घूरा ।
“मिस्टर घड़ीवाला ।” - फिर कमिश्नर निर्णयक स्वर में बोला ।
“यस, सर ।” - विमल बोला ।
“आप आजाद हैं ।”
“थैंक्यू, सर ।”
“आपको जो असुविधा हुई उसके लिए हम शर्मिंदा हैं । संबंधित अधिकारी के खिलाफ अगर आप कोई रिपोर्ट लिखाना चाहें तो...”
“मैं नहीं लिखना चाहता । आई एम ए पीस लविंग सिटिजन । आई डू नाट वांट टु प्रोवोक ट्रबल ।”
“दैट्स वैरी नाइस आफ यू । यू कैन गो नाओ ।”
विमल वहां से बाहर निकल आया ।
बाहर निकलते ही उसे रिपोर्टरों ने घेर लिया और उस पर सवालों की बौछार करने लगे । एक-दो रिपोर्टरों ने उसकी तस्वीर भी खींच ली ।
बड़ी कठिनाई से उसने उन लोगों से पीछा छुड़ाया ।
वहां एक गलियारे में उसे केशवराव भौंसले भी खड़ा दिखाई दिया लेकिन उसने विमल के करीब आने का उपक्रम नहीं किया ।
मन-ही-मन वाहे गुरु का नाम लेता विमल वहां से विदा हो गया ।