जब पुलिस जीप ने कोठियात मौहल्ले में प्रवेश किया—मोहल्ले में इतनी भीड़ लगी हुई थी कि पुलिस को लोगों से पूछना पड़ा कि क्या मामला है—पता लगा कि कुछ पत्रकार उनका पक्ष छापने हेतु गुप्ता परिवार के बयान लेने आए हुए थे।
"तो भीड़ क्यों लगा रखी है, यहां कोई तमाशा हो रहा है क्या? हटो, रास्ता दो—सारी सड़क घेर रखी है।" ऐसे और इन्हीं से मिलते-जुलते वाक्य बोलते पुलिस जीप बिशम्बर गुप्ता के मकान के बाहर जा रुकी।
छः सिपाहियों के साथ गोडास्कर बाहर निकला।
वहां पहले ही से कुछ पत्रकारों के वाहन खड़े थे।
भीड़ में से कोई चिल्ला उठा—"बहू के हत्यारों को...।"
"गिरफ्तार करो—गिरफ्तार करो।" सम्वेत् स्वर।
"दहेज के लोभी दरिदों को...।"
"फांसी दो—फांसी दो।" भीड़ का स्वर बुलंद हो गया।
"सुचि हमारी बहन थी।"
"सुचि हमारी बेटी थी।"
अचानक इस किस्म के जाने कितने नारों से सम्पूर्ण कोठियात मौहल्ला ही नहीं बल्कि आसपास के इलाके भी गूंज उठे—अपने दल के साथ गोडास्कर ने जब ड्राइंगरूम में कदम रखा, तब पत्रकारों से घिरे, बाहर लगे रहे नारों को सुन रहे गुप्ता परिवार के लोग डरे-सहमें बैठे थे।
एक तो पहले ही उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं, ऊपर से पुलिस को भी आते देख, उनके छक्के छूट गए।
हेमन्त को लगा कि पुलिस रात ग्यारह नहीं बजने देगी।
बिशम्बर गुप्ता के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे जलील होने पर, वैसे किसी भी इज्जतदार व्यक्ति के चेहरे पर हो सकते हैं—ललितादेवी, रेखा और अमित के चेहरों पर मौत के साए मंडरा रहे थे।
"आओ इंस्पेक्टर।" हेमन्त को अपनी आवाज किसी अंधकूप से आती महसूस हुई जबकि गोडास्कर ने अपनी जेब से एक कागज निकालकर उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा—"मैं आपके घर की तलाशी लेना चाहता हूं, मिस्टर हेमन्त।"
"ऑफकोर्स...मगर यह क्या है?"
"सर्च वारंट।"
"इसकी क्या जरूरत थी, इंस्पेक्टर, आप तलाशी लेना चाहते थे तो सुबह भी ले सकते थे, मगर आपने ऐसी कोई इच्छा जाहिर नहीं की।"
"उस वक्त मेरे पास सर्च वारंट नहीं था और हम पुलिस वाले कानून की परिधि से निकलकर कोई काम नहीं कर सकते।" अपनी भूरी आंखों से उसे घूरते हुए गोडास्कर ने कहा—"खासतौर से तब जबकि तलाशी आप जैसे इज्जतदार घर में लेनी हो—जज साहब कह सकते थे कि सर्च वारंट कहां है?"
"ऐसी कानूनी पेचीदगियां मुजरिम उठाते हैं, वे नहीं जो बेगुनाह हों—सुबह आपने जिक्र करके तो देखा होता?"
"मैं नहीं समझता कि सुबह और अब में कोई खास अंतर आ गया होगा।"
हेमन्त मन-ही-मन बड़बड़ाया—"अंतर तो बहुत आ गया है बेटे, सुबह अगर तुम तलाशी का नाम भी लेते तो मैं तुरन्त सर्च वारंट मांग लेता।"
"दरअसल मैं अभी तक सुचि को मृत नहीं मानता—ऐसा भी हो सकता हैं कि आपकी दहेज की मांग और प्रताड़नाओं से घबराकर वह घर से कहीं चली गई हो।"
"इंस्पेक्टर।" पत्रकारों की मौजूदगी के कारण हेमन्त ने कुछ ज्यादा ही पुरजोर अंदाज में विरोध किया—"तुम शायद हमारे सुबह के बयान को भूल गए हो, हमने यह कहा था कि सुचि से कभी दहेज नहीं मांगा गया, उसे कोई प्रताड़ना नहीं दी गई।"
गोडास्कर अजीब अंदाज में मुस्कराकर बोला—"आप तो चीखने लगे मिस्टर हेमन्त, मेरा मतलब तो सिर्फ यह था कि मुख्य रूप से मुझे मिसेज सुचि के कमरे और सामान की तलाशी लेनी है—मुमकिन है कोई ऐसी चीज हाथ लग जाए जिससे पता लग सके कि मिसेज सुचि आखिर चली कहां गईं या हो सकता है कि वे बीस हजार रुपये ही हाथ लग जाएं जो वे हापुड़ से लाई थीं।"
"मैं एक बार फिर कहूंगा कि वह कोई रुपये नहीं लाई।"
"यह भी तो हो सकता है कि उसने आपसे में से किसी से जिक्र ही न किया हो—मिसेज सुचि को अपने किसी पर्सनल काम से पैसों की जरूरत रही हो।"
हेमन्त ने गोडास्कर से उलझने के स्थान पर यही कहना उचित समझा—"आप शौक से तलाशी ले सकते हैं, सारा मकान आपके सामने है।"
"हमें सुचि के कमरे में ले चलिए।"
इस तरह, हेमन्त उन्हें सुचि के कमरे में ले गया।
तलाशी के दौरान गोडास्कर ने सेफ से एलबम निकाली ही थी कि हेमन्त के दिलो-दिमाग पर बिजली-सी गिरी।
यह विचार उसके जेहन में बड़ी तेजी से कौंध गया कि इस एलबम में सुचि के असली पत्र हैं और उनका गोडास्कर के हाथ लगना खतरनाक है।
बड़ी तेजी से वह गोडास्कर की तरफ झपटता हुआ बोला—"य...ये हमारी शादी की एलबम है।"
गोडास्कर ने पलटकर उसकी तरफ देखा।
हेमन्त की टांगें कांप गईं।
उसके चेहरे पर उभर आईं पसीने की असंख्य नन्हीं-नन्हीं बूंदों को घूरता गोडास्कर एकाएक ऐसे मोहक अंदाज में मुस्कराया कि हेमन्त के छक्के छूट गए।
कुछ बोल न सका वह।
"मैंने शायद आपसे कोई सवाल तो नहीं किया था मिस्टर हेमन्त?"
"न...नहीं।" हेमन्त हकला गया।
"तो फिर आप बेवजह क्यों परेशान हो रहे हैं? मैं खुद देख लूंगा कि कौन-सी चीज क्या है?" कहने के साथ उसने एलबम खोली और पहले पृष्ठ पर मौजूद सुचि के दुल्हन वाले फोटो पर नजरें गड़ा दीं।
हक्का-बक्का-सा हेमन्त खड़ा रह गया।
उसका दिल चाह रहा था कि अभी, इसी वक्त झपटे और गोडास्कर के हाथ से एलबम छीन ले—उफ्फ—अपनी बुद्धि पर उसे झुंझलाहट आ रही थी—जब उसने यह अनुमान लगा लिया था कि पुलिस तलाशी लेने आ सकती है तो उसने एलबम के अन्दर से पत्र हटा क्यों नहीं लिए थे—एक बार भी इन पत्रों का ख्याल तक क्यों नहीं आया उसके जेहन में?
उसका ध्यान एलबम से हटाने के लिए हेमन्त अभी कोई तरकीब सोच ही रहा था कि पेज उलटते ही सुचि के पत्र गोडास्कर के सामने आ गए।
हेमन्त के दिल ने रबर की गेंद की तरह उछलकर बड़ी जोर से उसके गले में ठोकर मारी और फिर हलक में अटककर रह गया।
धड़कना बंद कर दिया था उसने।
हेमन्त का दिमाग सुन्न पड़ गया, सारे जिस्म पर चीटियां-सी रेंगने लगीं—आंखें पथरा गईं—किसी स्टैचू के समान ज्यों-का-त्यों खड़ा रह गया वह।
"ज...जी हां—यह हमारे पर्सनल लेटर्स हैं, मुझे दीजिए।" हड़बड़ाकर कहते हुए हेमन्त ने हाथ बढ़ा ही जो दिया, किन्तु गोडास्कर पत्रों सहित एलबम को उसके हाथ से दूर खींचता हुआ बोला—"स...सॉरी, मिस्टर हेमन्त।"
"क्या मतलब?" हेमन्त का जैसे दम निकल गया।
"माना कि पति-पत्नी के पत्र पर्सनल होते हैं मगर उस हालत में बिल्कुल नहीं, जबकि उनमें से किसी एक की हत्या हो गई हो और खासतौर से तब तो ये पत्र पुलिस के होते हैं जबकि मरने वाले का या गायब हो जाने वाले का जीवनसाथी ही संदेह के दायरे में हो।"
सूखे पत्ते-सा कांप उठा हेमन्त, बोला—"इ...इनमें आपको क्या मिलेगा?"
"पत्र पढ़ने से मुझे पता लग जाएगा कि आपका दाम्पत्य जीवन कैसा था?"
“ अ...आप यहीं पढ़कर पता लगा सकते हैं।"
"जब आपको ये पत्र मुझे पढ़ाने में कोई उज्र नहीं है तो इसमें क्या उज्र है कि मैं थाने ले जाकर इन्हें आराम से पढूं—वादा रहा कि मेरे अलावा इन्हें कोई अन्य नहीं पढ़ेगा और यह भी कि सभी पत्र आपको लौटा दिए जाएंगे।"
हेमन्त को काठ मार गया।
जुबान तालू में कहीं जा छुपी और उसके मुंह से सांस तक न निकली।
¶¶
"यह तो बहुत बुरा हुआ भइया, हम लोग फंस सकते हैं।" हेमन्त के सब कुछ बताने के बाद सबसे पहले अमित बोला—"भाभी के असली पत्र आपने उसे ले जाने ही क्यों दिए?"
"मैं कर ही क्या सकता था?" हेमन्त स्वयं ही पर झुंझलाया—"उन्हें वहां से हटा लेने का काम हमें पहले ही कर लेना चाहिए था, मगर यह बात किसी के दिमाग में नहीं आई, जबकि यह सबको मालूम था कि तलाशी के लिए इंस्पेक्टर गोडास्कर यहां आने वाला है।"
"अगर उसने भाभी के ये पत्र भी एक्सपर्ट को सौंप दिए तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा—वह समझ जाएगा कि जो पत्र आपने हाथ से उसे दिया, दरअसल वही पत्र राइटिंग की नकल उतारने वाले किसी माहिर व्यक्ति ने लिखा है।"
रेखा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं, बोली—"इस स्थिति में तो वह यह भी पूछेगा भइया कि वह पत्र आपने किससे लिखवाया था, तब आप क्या जवाब देंगे।"
"हम सबके फंसने में अब ज्यादा देर नहीं है।" बिशम्बर गुप्ता ने घोषणा कर दी।
सभी के चेहरे पीले जर्द पड़ गए, काटो तो खून नहीं।
हिम्मत करके हेमन्त ने पूछा—"क्या मतलब, बाबूजी?"
"क्या अब मतलब समझाने के लिए भी बाकी कुछ रह गया है—हमने पहले ही कहा था कि कानून और जुर्म की टक्कर में मुजरिम कभी नहीं जीतता—वह सोचता कुछ है और हो कुछ जाता है—एक-से-एक खूबसूरत स्कीम बनाता है वह, लेकिन सारी धरी रह जाती हैं—अचानक कानून के हाथ उसकी गर्दन पर नजर आते हैं।"
हेमन्त झुंझला गया—"इतनी निराशा भरी बात क्यों कर रहे हैं आप?"
"क्या अब भी तुम्हें कोई आशा नजर आ रही है—सारे सबूत गोडास्कर के हाथ में पहुंच चुके हैं—यह स्पष्ट होते ही कि फर्जी वह पत्र था जो तुमने दिया था, गोडास्कर के दिमाग में सारा मामला हल हो जाएगा—जो आदमी कानून को धोखा देने का प्रयास कर रहा है, जाहिर है कि मुजरिम वही है—और अब अपनी स्कीम को कार्यान्वित करके तुम कोई लाभ नहीं उठा पाओगे—गोडास्कर को समझते देर नहीं लगेगी कि सुसाइड लेटर भी उन्हीं हाथों ने लिखा हैं, जिन्होंने तुम्हारा दिया फर्जी पत्र।"
उनके हर तरफ अंधेरा, चारों तरफ निराशा फैल गई।
काफी देर तक आतंकित आंखों से एक-दूसरे की तरफ देखते भर रहे, फिर उस स्तब्धता को हेमन्त ने ही रौंदा, बोला—"मेरा ख्याल तो यह है कि व्यर्थ ही, अपने ही मन से कल्पानाएं कर-करके मरे जा रहे हैं, जबकि ऐसा कुछ होने वाला नहीं है।"
"यह बात तुम उस स्थिति में कह रहे हो जब सारे सुबूत गोडास्कर पर पहुंच चुके हैं?"
"उसके दिमाग में केवल मेरे और सुचि के सम्बन्धों को रीड करने वाली बात है और अगर उसका यही दृष्टिकोण रहा तो सुचि के वे पत्र हमें फेवर ही करेंगे—मेरे और सुचि के बीच जब कोई कटुता जन्मी ही नहीं तो पत्रों में ऐसी किसी बात का जिक्र कहां से आएगा—हां, अगर वह पत्र भी उनमें होता जिसकी मैंने रेखा से नकल कराई थी तो हमारे बचाव का कोई रास्ता बाकी न बचता, क्योंकि एक ही मजमून के दो पत्र सारी कलई खोल देते।"
"वह पत्र कहां है?"
"उस वक्त से मेरी जेब ही पड़ा है।"
"उसे जलाकर फ्लश में बहा दो, भइया।" रेखा बोली—"अगर वह भी पकड़ा गया तो फिर बाकी कुछ नहीं बचेगा।"
बिशम्बर गुप्ता शायद अभी कुछ कहना चाहते थे कि एक बार पुनः कॉलबेल बज उठी, झुंझलाई हुई ललितादेवी के मुंह से निकला— "अब कौन मरा?"
"तुम देखो अमित।"
"म...मैं?"
"इस तरह डरने से क्या काम चलेगा?" हेमन्त ने कहा—"बिना हौसले के रात को गाड़ी कैसे चुराओगे, जाओ—दरवाजा खोलकर देखो कौन है?"
थूक सटकते हुए अमित को जाना पड़ा।
कुछ देर बाद।
अमित के साथ लक्ष्मी ने ड्राइंगरूम से कदम रखा, उसे देखते ही ललितादेवी कह उठीं—"तू क्यों आई है?"
"लो, यह भी कोई बात हुई मालकिन—बर्तन साफ करने आई हूं।"
"मगर आज हमारे यहां खाना नहीं बना है।" ललितादेवी ने उसे जल्दी-से-जल्दी टरकाने की गर्ज से कहा—"जा—कल जाना।"
"हाय दय्या, खाना ही नहीं बना तो आप लोगों ने खाया क्या होगा?" लक्ष्मी अपने मुंह पर हाथ रखकर बोली, जबकि ललितादेवी ने पुनः झुंझलाए हुए अंदाज में कहा—"तुझसे कितनी बार कहा है लक्ष्मी, इतनी मत बोला कर, अब जा यहां से।"
इतनी आसानी से टलने वाली कहां थी लक्ष्मी, बोली—"मैं ज्यादा कहां बोलती हूं मालकिन, मगर वह तो बोलना ही पड़ता है जो बोलना चाहिए—ज्यादा तो वह नुक्कड़वाली मालकिन बोलती हैं—आपके बारे में जाने क्या-क्या कह रही थीं?"
"क्या कह रही थी?"
"यही कि सुचि मेमसाहब कहीं गायब-वायब नहीं हुई है, बल्कि आप लोगों ने उन्हें मार डाला है।"
हालांकि मालूम था कि हर तरफ इसी किस्म की बातें बन रही हैं, मगर फिर भी सुनकर उन्हें धक्का-सा लगा, बोलीं—"जवाब में तूने क्या कहा?"
"मैं क्या कहती—अड़ गई—बोली कि यह गलत है, मैं जानती हूं कि सुचि मेमसाहब खुद ही कहीं भाग गई हैं—शायद अपने किसी पुराने यार के साथ।"
"ल...लक्ष्मी।" हेमन्त दहाड़ उठा।
लक्ष्मी सहम गई, बोली—"क्या मैंने कुछ गलत कहा साहब?"
गुस्से से भरा हेमन्त अभी कुछ कहने ही वाला था कि बिशम्बर गुप्ता ने उसका हाथ दबाकर चुप रहने का इशारा किया—लक्ष्मी की बात ने दरअसल उन्हें चौंका दिया था, पूछा—"तुम कैसे जानती हो कि वह खुद गायब हुई है?"
"मैं तो यह भी जानती हूं कि सुचि मेमसाहब जरूर इस घर में से कुछ-न-कुछ चुराकर ले गई हैं।" चंचल लक्ष्मी अपने सारे शरीर को दाएं-बाएं हिलाती हुई कह रही थी—"मैंने खुद चोरी से उन्हें आपकी सेफ खोलते हुए देखा था।"
"हमारी सेफ?"
"हां—अगर सुचि मेमसाहब आपकी सेफ चोरी से न खोल रही होतीं तो उनके पास चाबी होती ना—जंग लगी हुई इतनी सारी चाबियों की क्या जरूरत थी?"
बिशम्बर गुप्ता ही नहीं बल्कि हेमन्त, ललिता, रेखा और अमित भी भौंचक्के रह गए—लक्ष्मी उन्हें बिल्कुल नई और हैरतअंगेज इनफॉर्मेशन दे रही थी—उन्होंने विस्तार से पूछा, जब लक्ष्मी बता चुकी तो सवाल हेमन्त ने किया—"क्या तूने यह भी देखा था लक्ष्मी की सेफ से उसने क्या निकाला था?"
"ना—यह मैं नहीं देख सकी—उन्होंने डांटकर मुझे बर्तन साफ करने भेज दिया था।"
"और कुछ जानती है तू?"
"और तो कुछ भी नहीं जानती—जब नुक्कड़वाली मालकिन के यहां जिक्र चल रहा था तो मैं समझ गई कि सुचि मेमसाहब ने जरूर चोरी से सेफ खोल रखी थी और वे कुछ-न-कुछ यहां से चुराकर भागी हैं।"
सबके चेहरों पर सन्नाटा फैल गया।
¶ ¶
"ह...हमारा रिवॉल्वर।" बिशम्बर गुप्ता के पैरों तले से जमीन खिसक गई—"साइलेंसर और गोलियां—सब गायब हैं—हे भगवान! यह क्या किया सुचि ने?"
खुली हुई सेफ के सामने सभी हक्के-बक्के खड़े थे।
इस नई जानकारी ने उनके होश उड़ा दिए, अमित बड़बड़ाया—"चक्कर कुछ समझ में नहीं आ रहा है, भाभी रिवॉल्वर चुराकर क्यों ले गईं?"
"शायद ब्लैकमेलर का खात्मा करने के लिए।"
"क्या वह ऐसा कर सकी होगी, हेमन्त?" बिशम्बर गुप्ता की आवाज में दम बाकी न था—"रिवॉल्वर रख लेना अलग बात है और उससे गोली चलाकर किसी को मार देना दूसरी बात—हमारे ख्याल से यह काम सुचि के बस का बिल्कुल नहीं था।"
"लक्ष्मी के बयान से इतना तो जाहिर है कि सेफ उसी ने खोली—ब्लैकमेलर को खत्म कर देने के जोश में भरकर शायद सुचि ने रिवॉल्वर चुरा ली होगी—उससे हत्या करने में कामयाब हुई हो या नहीं।"
"अगर कामयाब हो जाती तो उन्हें आत्म-हत्या करने की क्या जरूरत थी?"
"तुम ठीक कहते हो अमित, उसने कोशिश की होगी, मगर असफल—और उस स्थिति में ब्लैकमेलर ने सुचि से रिवॉल्वर छीन लिया होगा।"
"हे भगवान, किसी मुजरिम के हाथ हमारा रिवॉल्वर पड़ जाना खतरनाक बात है—अगर उसने कहीं कोई जुर्म कर दिया और घटनास्थल से पुलिस को हमारा रिवॉल्वर बरामद हो गया तो गजब हो जाएगा—पुलिस सीधी यहां आ धमकेगी और अभी तक हमने अपना रिवॉल्वर चोरी होने की रपट तक नहीं लिखवाई है।"
खतरनाक आशंकाओं ने उन्हें घेर लिया।
अमित ने कहा—"क्या हमें रपट लिखवानी चाहिए, बाबूजी?"
"लिखवानी ही पड़ेगी—अगर हमने ऐसा नहीं किया तो कल कोई नई मुसीबत खड़ी हो सकती है, क्यों हेमन्त?"
सारे मामले को बहुत ध्यान से सोचने के बाद हेमन्त ने कहा—"रपट लिखवाने में हमारी भलाई ही नहीं, बल्कि फायदा भी है।"
"क्या मतलब?"
"यह पहला ऐसा सूत्र हमारे हाथ लगा है जिससे हम साबित कर सकते हैं कि सुचि जहां भी गई, अपनी इच्छा से गई थी।" हेमन्त कहता चला गया—"लक्ष्मी गवाह है कि उस वक्त घर में हममें से कोई नहीं था, जब उसने चोरी से सुचि को सेफ खोले देखा—वह ब्लैकमेलर को मारने के लिए ही रिवॉल्वर चुराकर ले गई थी—इसका जिक्र हम उसके सुसाइड पत्र में भी कर देंगे—रपट लिखवाकर दूसरे लफड़ों से भी बच जाएंगे।"
"रपट में क्या लिखवाएं?"
"वही जो लक्ष्मी ने कहा और उसके बाद हमने जाना—आप और अमित फौरन थाने चले जाओ बाबूजी, इस मामले में देर करना हमारे लिए खतरनाक हो सकता है।"
¶ ¶
सारी बातें सुनने के बाद गोडास्कर ने कहा—"अगर ये सब हरकतें कोई नासमझ आदमी कर रहा होता गुप्ताजी तो मैं इन बचकानी बातों पर ठहाके लगा-लगाकर हंसता, मगर आप चूंकि मजिस्ट्रेट रहे हैं, उसके बाद भी एक के बाद दूसरी अटपटी और बचकानी बात करते चले जा रहे हैं, इसलिए अफसोस हो रहा है।"
"क्या मतलब?"
"रिवॉल्वर चोरी चले जाने और उससे सुचि का नाम जोड़ने की रपट लिखवाने का एक ही मकसद है, वही—जो आप शुरू से कहते और साबित करने की नाकाम कोशिश करते आ रहे हैं—यह कि सुचि आपकी गैर-जानकारी में स्वयं कहीं चली गई है।"
"सच्चाई यही है, गोडास्कर।" बिशम्बर गुप्ता चीख पड़े।
अपेक्षाकृत गोडास्कर ने संयत, धीमे परन्तु दांत भींचकर पूरी दृढ़ता के साथ कहा—"सच्चाई यह है कि जब किसी भी तरह अपनी बात साबित नहीं कर पाए तो घर पर आप सब लोगों ने सिर जोड़कर फिर मीटिंग की—इस बात पर विचार किया कि पुलिस को अपने बयान पर कैसे यकीन दिलाया जा सकता है और तब आपमें से किसी के दिमाग में यह रिवॉल्वर वाली नई कहानी निकलकर आई।"
"यह झूठ है।" बिशम्बर गुप्ता हलक फाड़ उठे—"लक्ष्मी ने अपनी आंखों से हम सबकी गैर-मौजूदगी में उसे सेफ खोले देखा था।"
"लक्ष्मी आपके घर बर्तन मांजने वाली एक गरीब नौकरानी है, मिस्टर गुप्ता और गरीब आदमी को खरीद लेने के लिए ज्यादा पैसों की जरूरत नहीं पड़ती।"
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया, इंस्पेक्टर।" जोश में भरा अमित चिल्ला उठा—"क्या तुम यह कहना चाहते हो कि हम झूठी रिपोर्ट लिखवाने आए हैं?"
"सरासर झूठी।"
इससे पहले कि अमित गुस्से की ज्यादती के कारण पागल हो जाए, बिशम्बर गुप्ता ने उसे रोका और शांत तथा गोडास्कर को समझाने वाले अंदाज में बोले—"देखो इंस्पेक्टर, जब हम किसी के बारे में नेगेटिव ढंग से सोचने की रवैया बना लेते हैं तो उसकी हर बात झूठ और हर हरकत एक चाल नजर आने लगती है—प्लीज, तुम हमारे बारे में नेगेटिव ढंग से सोचने का रवैया त्यागकर देखो—यह दिमाग में रखकर सोचने की कोशिश करो कि हम लोग भी ठीक हो सकते हैं—उस स्थिति में तुम्हें हमारी बात झूठ या चाल नजर नहीं आएगी।"
"अगर तुमने यह कहानी कुछ ही देर पहले नहीं घढ़ी है तो जवाब दो कि रिवॉल्वर चोरी की रपट इतनी देर से क्यों लिखता रहे हो?"
"देर से कहां—अब से कुछ देर पहले ही तो लक्ष्मी आई थी, उसी से पता लगा और तुरन्त रपट लिखवाने तुम्हारे पास चले आए।"
"यानि कल से रिवॉल्वर गायब है, आपको भनक ही नहीं?"
"भगवान कसम हम सच कह रहे हैं, लक्ष्मी के बताने से पहले हमें कुछ पता नहीं था—सेफ खोली जरूर, मगर उसका लॉकर खोलने की तो जरूरत ही नहीं पड़ी।"
कुछ देर तक गोडास्कर उनके दयनीय चेहरे की तरफ देखता रहा, फिर बोला— “ जो कुछ लक्ष्मी ने बताया उसे सुनकर आप सीधे यहां आ रहे हैं?"
"हां।"
"लॉकर खोलकर तो नहीं देखा अभी?"
“खोलकर देखा। तभी तो रिवॉल्वर गायब होने की जानकारी मिली।”
"अगर लॉकर खोलकर न देखा होता तो उसके अन्दर या हैंडल पर से सुचि की उंगलियों के निशान बरामद हो सकते थे और आपकी बात साबित हो सकती थी।"
बिशम्बर गुप्ता का दिल चाहा कि वे अपने सारे बाल नोचकर फेंक दें।
"आपको खुद लॉकर खोलकर नहीं देखना चाहिए था।" गोडास्कर कहता चला जा रहा था—"लक्ष्मी की बात सुनते ही यहां आ जाते और रपट लिखवाते कि लक्ष्मी के बयानानुसार जाने से पहले सुचि आपकी सेफ से कुछ चुराकर ले गई है, तब आप अपनी बात को साबित
कर सकते थे।"
"य...यह भूल तो हमसे वास्तव में हो गई है, गोडास्कर।"
"भूल तो आपसे होनी ही थी।"
"क्यों?"
"क्योंकि जब सुचि ने वास्तव में लॉकर खोला ही नहीं तो भला आप वहां से उसकी उंगलियों के निशान कैसे बरामद करा सकते थे?"
"त...तुम फिर हमारे बारे में नेगेटिव ढंग से सोच रहे हो।"
"आपको वहम है, मिस्टर गुप्ता—पुलिस सिर्फ उन सुबूतों के आधार पर सोचती है जो सामने होते हैं और मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके पास एक भी प्रमाण नहीं है कि जिससे साबित कर सकें कि सच्ची रपट लिखवाने यहां आए हैं।"
"और आपके पास क्या सुबूत है कि हम झूठी रपट लिखवाने आए हैं?" अमित पर रहा नहीं गया तो वह भड़क उठा—"आपके पास क्या सबूत है कि हमने झूठ बोलने के लिए लक्ष्मी को पैसे दिए हैं?"
"कोई सबूत नहीं।"
"फिर?"
"मैं तो आपको सिर्फ यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि झूठी रपट लिखवाने की इन बचकानी हरकतों से कुछ नहीं होगा—बाकी अगर आपकी जिद है तो हम लोग तो बैठे ही लोगों की रपट लिखने के लिए हैं—जो चाहें लिखवाइए, मगर याद रखना, पुलिस को झूठी रपट लिखवाना भी एक संगीन जुर्म है।"
"हम जानते हैं।"
"तो रपट लिखवाइए, जांच करने मैं फौरन आपके साथ चलता हूं।"
¶ ¶
"रपट भी लिखवा दी गई और गोडास्कर यहां से जांच करके भी चला गया।" मुख्य गेट बंद करने के बाद वापस लौटकर ड्राइंगरूम में कदम रखते हुए अमित ने कहा—"मगर नतीजा कुछ नहीं निकला, हम वहीं के वही हैं जहां थे।"
"लगता है कि इंस्पेक्टर हमसे कुछ चिढ़-सा गया है।" ललितादेवी बोलीं—"हमारी किसी बात पर यकीन ही नहीं करता, उल्टे ही ढंग से सोचता है।"
हेमन्त ने कहा—"कहीं ऐसा तो नहीं कि यह हमसे कुछ चाहता हो?"
"क्या मतलब?" अमित ने पूछा।
"रिश्वत।"
"न...नहीं।" बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"वह ऐसा नहीं है, रिश्वत लेने वाले लोग दूसरे होते हैं—उनकी बातों से ही पता लग जाता है कि वे क्या चाहते हैं?"
"आपको तो हर आदमी अपने जैसा नजर आता है, बाबूजी।"
"बेकार की बात मत करो, हेमन्त। उसे रिश्वत देने की पेशकश करने की बेवकूफी कर भी मत देना, वरना तुरन्त हथकड़ी डालकर थाने में ले जाएगा।"
"फिर वह हमारी किसी बात पर यकीन क्यों नहीं कर रहा है, हमारे कथन को वह एक चाल करार क्यों दे रहा है?"
"क्या ऐसा सिर्फ वही कर रहा है?"
"मतलब?"
"अपने और अपनी किस्मत के दोषों को हमें दूसरों के सिर नहीं मढ़ना चाहिए, हेमन्त।" बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"हमारा वक्त ही खराब चल रहा है, माहौल ही ऐसा बन गया है कि हर आदमी हमारे शब्दों को झूठ और चाल समझ रहा है—कुछ हम अपनी बेवकूफियों से ही उन सुबूतों को खुद नष्ट कर देते हैं जो हमारे पक्ष में जाते होते हैं—जैसे, सुचि की उंगलियों के निशान खुद ही मिटा डाले—दोष गोडास्कर को क्यों दें?"
"खैर—हमारी स्कीम कामयाब हो जाए—रेखा से ऐसा पत्र लिखवाऊंगा कि पुलिस की ही नहीं इस शहर के बच्चे-बच्चे की सोचने की धारा बदल जाएगी।"
"हमें तो यह भी होता नजर नहीं आता।"
"क्यों?"
"तुमने अब भी गोडास्कर से वे पत्र वापिस मांगे थे, मगर उसने नहीं दिए, क्या इसका साफ मतलब तुम्हारी समझ में नहीं आया?"
"उसने कहा था कि अभी पढ़े नहीं हैं।"
"उसने कहा और तुमने मान लिया, यह भी खूब रही—क्या यह स्वाभाविक है कि उसने पत्र अभी तक न पढ़े हों—हम पूरे विश्वास के साथ कहेंगे कि वह पढ़ चुका है और पढ़ने के बाद भी पत्र न देने का मतलब ही गड़बड़ है—जब तक वे पत्र उसके पास है तब तक तुम अपनी स्कीम की कामयाबी का दावा नहीं कर सकते, हेमन्त।"
"जो डर आपको सता रहा है उससे खौफ खाकर स्कीम को कार्यान्वित करने का विचार रद्द भी नहीं कर सकता, क्योंकि अब स्थिति यह आ गई कि सुचि की लाश को अपने घर से तो बरामद करा ही नहीं सकते।"
¶ ¶
रात के ठीक ग्यारह बजे।
अचानक पूरा कोठियात मौहल्ला चौंक पड़ा।
बिशम्बर गुप्ता के मकान से किसी के जोर-जोर से रोने और चीख-चिल्लाहटों की आवाजें आने लगीं—अपने-अपने घरों में, लिहाफों में घुसे ज्यादातर लोग उस वक्त भी सुचि के गायब होने और गुप्ता परिवार पर ही चर्चा कर रहे थे।
शोर इतना जबरदस्त उठा कि जो सो चुके थे, वे भी उछल पड़े।
सख्त सर्दी के बावजूद लोग अपनी बॉल्कनियों पर लटक गए—जिनके घरों में बॉल्कनियां नहीं थीं वे लिहाफ या कम्बलों में लिपटे सड़क पर आ गए।
हर तरफ जाग।
"क्या हुआ—क्या हुआ?" चारों तरफ से ये आवाजें उठ रही थीं।
समझ में किसी की कुछ न आ रहा था, जानने की जिज्ञासा भी सबको थी, परन्तु घर के अन्दर जाने का साहस किसी में नहीं—अचानक बिशम्बर गुप्ता के मकान का दरवाजा खुला—रेखा सड़क पर आकर चिल्लाई—"बचाओ—बचाओ—अरे कोई मेरी मम्मी को बचाओ—वे बेहोश हो गई हैं।"
बार-बार चीखती रही वह—कुछ इस तरफ कि जिससे सब सुन लें और सबने सुना भी—यह जानने की जिज्ञासा भी दिल में उठी कि ललितादेवी को क्या हुआ—वे क्यों और कैसे बेहोश हो गईं, मगर सामने कोई नहीं आया।
आए भी कौन?
बहू के हत्यारे परिवार की मुसीबत में साथ देने की इच्छा किसी में न थी।
एकाएक भागता हुआ हेमन्त सड़क पर आया, पागलों की तरह चीख रही रेखा को पकड़कर झंझोड़ता हुआ चिल्लाया—"यह तुम क्या कर रही हो, रेखा? पागल हो गई हो क्या? अन्दर जाकर मम्मी को संभालो, मैं कुछ करता हूं।"
अपनी बॉल्कनी में खड़े बंसल ने साफ देखा कि वह अन्दर दौड़ गई—बौखलाए से हेमन्त ने चारों तरफ देखा, फिर जोर से चिल्लाया—"बंसल अंकल—बंसल...।"
"क्या है?" वहीं खड़े बंसल ने उखड़े स्वर में कहा।
हेमन्त ने इस तरह ऊपर देखा जैसे पहली बार जाना हो कि बंसल साहब ऊपर खड़े थे, हड़बड़ाहट का अच्छा अभिनय करता हुआ चीखा—"मम्मी गश खाकर गिर पड़ी हैं बंसल अंकल, बेहोश हो गई हैं वह।"
"कैसे?"
"झुंझलाए हुए बाबूजी उन पर यह आरोप लगाने लगे कि हो न हो—तुमने सुचि से बीस हजार की मांग की होगी—इतना सुनते ही मम्मी गश खाकर गिर पड़ीं—हमारी कुछ मदद कीजिए बंसल अंकल, अगर मम्मी को कुछ हो गया तो...।"
"मैं इसमें क्या कर सकता हूं?"
"अ...आपके यहां स्ट्रेचर है, प्लीज—वह दे दीजिए—मम्मी को इसी वक्त अस्पताल ले जाना है—अगर देर हो गई तो कहीं मम्मी भी हमें छोड़कर न चली जाएं?"
बंसल साहब चुप रह गए।
दरअसल ठीक से उन्हें सूझा नहीं था कि क्या कहें?
"प्लीज, जल्दी कीजिए बंसल अंकल—हमें स्ट्रेचर दे दीजिए, आपका यह अहसान हम जिंदगी भर नहीं भूलेंगे।" हेमन्त ने ये शब्द कुछ ऐसे अंदाज में कहे थे कि बंसल को तरस आ ही गया, बोला—"अच्छा ठहरो, अभी दरवाजा खोलता हूं।"
वह बॉल्कनी से हट गया।
हेमन्त की बांछें खिल गईं—उसी योजना का वह पहला स्पॉट जहां गडबड़ की संभावना थी, बड़ी आसानी से पूरा होने जा रहा था—ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी थी उसे—लपककर बंसल के मकान के मुख्य गेट पर पहुंचा।
धड़कते दिल से वह दरवाजा खुलने का इंतजार करता रहा।
काफी देर बाद, गैलरी की लाइट ऑन हुई—नजदीक आती पदचाप गूंजी तो अपने चेहरे पर घबराहट, जल्दबाजी और पीड़ा के असीमित भाव उत्पन्न कर लिए, दरवाजा खुलते ही बोला—"जल्दी कीजिए, अंकल।"
"लो।" बंसल स्ट्रेचर अपने साथ ही लाया था।
स्ट्रेचर संभालकर वह मुड़ता हुए बोला—"थैंक्यू, अंकल।"
बंदूक से छूटी गोली की तरह वह अपने मकान की तरफ भागा और अभी दरवाजे के नजदीक पहुंचा ही था कि सिहर उठा।
उसने महसूस किया कि मिस्टर बंसल उसके पीछे-पीछे चले आ रहे थे।
बौखला गया वह—ठिठका, घूमकर बोला—"अ...आप क्यों आ रहे हैं, अंकल?"
"क्या...क्या तुम्हें हमारी मदद की जरूरत नहीं है?"
"अ...आप हमारी मदद करेंगे?" हेमन्त के देवता कूच कर गए, अपनी योजना का महल उसे इसी पल धड़धड़ाकर धराशायी होता नजर आया।
"इसमें आश्चर्य की क्या बात है, मुसीबत में आदमी-ही-आदमी के काम आता है।"
"म...मगर—आप हमारी मदद करने के लिए कह रहे हैं, अंकल?" बंसल को अपनी जान से लिपटा देखकर हेमन्त के देवता कूच कर गए थे, बोला—"सब लोग हमें बहू का हत्यारा समझ रहे हैं—मौहल्ले में किसी को हमसे बात तक करना गंवारा नहीं।"
"वह अलग बात है, तुमने ठीक नहीं किया हेमन्त, मगर फिलहाल यह वक्त बातों में गंवाने का नहीं है, जल्दी करो—भाभी को संभालो।"
हेमन्त की सिट्टी-पिट्टी गुम।
अब बंसल को मकान में घुसने से रोकने का उसके पास कोई बहाना नहीं था, जबकि बंसल ने कहा—"सोच क्या रहे हो, चलो अन्दर।"
"अ...अगर आप हमारी मदद ही करना चाहते है अंकल त...तो चौपले से एक रिक्शा ले आइए—मैं तब तक मम्मी को स्ट्रेचर पर डालकर यहां लाता हूं।"
"ठीक है, जल्दी करो।" कहने के तुरन्त बाद बंसल सचमुच सड़क पर भाग लिया—हेमन्त की सांस में सांस आई—बंसल की इंसानियत जहां सराहनीय थी, वहीं उसने सबसे बड़ी मुसीबत भी पैदा कर दी थी।
अब बड़े ही खतरनाक अंदाज में उसके दिमाग में यह सवाल रेंगने लगा कि बंसल से प्रेरित होकर कहीं मौहल्ले का कोई अन्य व्यक्ति भी उसी की तरह इंसानियत दिखाने यहां न आ पहुंचे?
इस विचार ने उसके रेंगटे खड़े के दिए।
स्ट्रेचर संभाले तेजी से मुख्य गेट पार किया—सुरक्षा हेतु दरवाजा अन्दर से बंद करके चिटकनी चढ़ा दी उसने और दौड़कर अन्दर पहुंचा।
बिशम्बर गुप्ता, ललिता और रेखा चादर में लिपटी सुचि की लाश के इर्द-गिर्द खड़े थे—उनके चेहरों पर हवाइयां ऊड़ रही थीं, देखकर यह सोचते ही हेमन्त के तिरपन कांप गए कि अगर समय रहते उसे बंसल को टरकाने का बहाना न सूझता तो क्या होता?
"इतनी देर कैसे हो गई?" बिशम्बर गुप्ता ने पूछा।
स्ट्रेचर को फर्श पर पटकते हुए हेमन्त ने कहा—"बंसल अंकल जान को उलझ गए थे, मदद के लिए वे अन्दर आना चाहते थे। ”
"फ...फिर?" ललितादेवी की सांस रुक गई।
"बड़ी मुश्किल से उन्हें रिक्शा लाने के बहाने टरकाया है।" तैयार किए गए तिरपाल के टुकड़े का नेफा स्ट्रेचर की बाही में डालते हुए हेमन्त ने कहा—"खड़े-खड़े मेरा मुंह क्या देख रहे हो—दूसरी तरफ का नेफा बाही में डालो, जल्दी करो—अगर हमसे पहले रिक्शा लेकर वे पहुंच गए तो दरवाजा अन्दर से बंद देखकर संदिग्ध हो उठेंगे।"
बिशम्बर गुप्ता के जिस्म में जैसे बिजली भर गई।
तिरपाल स्ट्रेचर में फंसाकर उन्होंने सुचि की लाश उसमें डाली।
किंकतर्व्यविमूढ़-सी खड़ी ललितादेवी और रेखा सब कुछ देख रही थीं, हेमन्त ने कहा—"लेट जाओ, मम्मी। जल्दी करो—क्विक।"
"म...म...।" सुचि की लाश के ऊपर लेटने की कल्पना मात्र से ललितादेवी मिमिया उठीं, जबकि हेमन्त किसी हिंसक पशु की तरह गुर्राया—"जल्दी करो।"
ललितादेवी बुरी तरह डर गई।
बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"अब कदम पीछे हटाने का वक्त निकल चुका है, ललिता—जल्दी से लेट जाओ, वरना सब मारे जाएंगे।"
बेचारी ललितादेवी!
उन्हें लेटना ही पड़ा।
हेमन्त ने तेजी से झपटकर एक फुलसाइज कम्बल उनके ऊपर डाल दिया, बिशम्बर गुप्ता ने कम्बल को इस तरह कर दिया कि ललितादेवी का चेहरा साफ चमकता रहे—सुचि की लाश के ऊपर लेटी मारे दहशत के वे मरी जा रही थीं।
एक तरफ से स्ट्रेचर हेमन्त ने उठा लिया, दूसरी तरफ से बिशम्बर गुप्ता ने, कुछ दूर चले, तब अचानक हेमन्त ने रेखा से पूछा—"सुचि की लाश कहीं चमक तो नहीं रही है?"
"न...नहीं।"
"ठीक से देखकर बताओ, ऐसा लग तो नहीं रहा है कि स्ट्रेचर दोमंजिला है।"
रेखा ने ठीक से देखा, बोली—"नहीं, सब ठीक है।"
"चलो बाबूजी।" एक तरफ से स्ट्रेचर को पकड़े वह दरवाजे की तरफ बढ़ता हुआ बोला—"रिक्शा के पहुंचते ही हमें स्ट्रेचर बहुत फुर्ती से रिक्शा में रख देना है बाबूजी—बंसल अंकल हमारी मदद करने की कोशिश करेंगे, मगर उन्हें इतना मौका नहीं देना है कि स्ट्रेचर के नजदीक पहुंच सकें—अगर उन्हें, स्ट्रेचर के बीच से सहारा देने का मौका मिल गया तो वहीं खेल खत्म समझ लेना।"
बिशम्बर गुप्ता के मुंह से कोई आवाज नहीं निकली।
"और रेखा, हमारे निकलते ही तुम दरवाजा अन्दर से बंद कर लेना।"
दरवाजा खोलकर वे स्ट्रेचर को बाहर ले आए—रेखा दरवाजे के बीच में खड़ी उन्हें देख रही थी और वे देख रहे थे सुनसान पड़ी सड़क पर चौपले की तरफ से आते एकमात्र रिक्शे को—रिक्शे में बैठा बंसल ठंड से सिकुड़ रहा था।
"तुम अन्दर जाओ रेखा, दरवाजा बंद कर लो।"
बेमन से रेखा को ऐसा करना पड़ा।
बिशम्बर गुप्ता और हेमन्त स्ट्रेचर को उठाए सड़क पर आ गए—रिक्शा के रुकते ही बंसल उसमें से उतरा और मदद के लिए उसे कोई भी अवसर दिए बिना स्ट्रेचर रिक्शा में।
बिशम्बर गुप्ता ने औपचारिकता के नाते कहा—"थैंक्यू बंसल, हम याद रखेंगे कि बुरे वक्त में सिर्फ तुम हमारे काम आए।"
"तुम भाभी को लेकर चलो, मैं कपड़े पहनकर पहुंचता हूं।"
"न...नहीं । " मारे खौफ के बिशम्बर गुप्ता लगभग चीख पड़े—"इसकी क्या जरूरत है, बंसल, हम देख लेंगे—तुम आराम करो।"
"तुम चलो तो सही, मैं कपड़े बदलकर आ रहा हूं।" कहता हुआ बंसल दौड़कर अपने मकान के दरवाजे पर पहुंच गया।
चलते हुए रिक्शा में से हेमन्त चिल्लाया—"आप अस्पताल मत आना बंसल अंकल, वरना कोई नई बात बनी तो आपको भी हमारा ही साथी कहा जाएगा।"
बंसल की तरफ से कोई जवाब न आया।
शायद वह अपने मकान के अन्दर जा चुका था—बिशम्बर और हेमन्त ही के नहीं बल्कि सुचि की लाश के ऊपर लेटी ललितादेवी का दिल भी धाड़-धाड़ करके बज रहा था।
"यह बंसल मरवाकर छोड़ेगा, शायद वह अस्पताल आए।"
हेमन्त ने तेजी से उन्हें चुप रहने का संकेत करके यह अहसास दिलाया कि इस वक्त उनके साथ एक रिक्शा चालक भी था, बोला—"बंसल अंकल बड़े अच्छे आदमी हैं।"
"सच।" मजबूर बिशम्बर गुप्ता को कहना पड़ा—"मुसीबत में पड़ोसी इतना साथ कहां देते हैं और फिर बेचारा अस्पताल में आने को तैयार है।"
"जरा तेज चलो रिक्शा वाले, पेशेंट की हालत सीरियस है।"
रिक्शा वाले ने तेजी से पैंडल मारने शुरू कर दिए—उनके बीच खामोशी छा गई—दरअसल तीनों यहीं कल्पना कर रहे थे कि अगर बंसल अस्पताल पहुंच गया तो क्या होगा?
शंकाएं उन्हें पागल किए दे रही थीं।
रिक्शा अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड के सामने रुका और यहां पहुंचते ही एक बार फिर उनके दिलो-दिमाग पर बिजली गिर पड़ी, बिशम्बर गुप्ता की शंका ठीक ही साबित हुई थी।
इमरजेंसी से पहले ही कोई पेशेंट आया हुआ था।
नर्सें और वार्डन दौड़े-दौड़े फिर रहे थे।
बरामदे में टहलने वाले शायद पेशेंट के शुभचिंतक थे।
वातावरण हेमन्त की कल्पना के ठीक विपरीत।
दिमाग जमा होकर रह गए, समझ में न आया कि क्या करें? इस माहौंल में, बरामदे में मौजूद लोगों की नजर से बचाकर सुचि की लाश को किसी भी स्थिति में कार में नहीं रखा जा सकता था, ऊपर से बंसल के यहां पहुंचने का डर।
बरामदे में खड़े लोग उन्हें देखने लगे थे।
अगर यह कहा जाए तो गलत न होगा कि उन्होंने किंकर्तव्यवमूढ़ अवस्था में स्ट्रेचर रिक्शा से उतारकर गैलरी में रखा, रिक्शा वाले का पेमेंट करके उसे विदा किया।
बरामदे में खड़े तीन व्यक्तियों में से एक ने पूछा—"इन्हें क्या हुआ, भाई साहब?"
उसकी बात का कोई जवाब न देकर हेमन्त इमरजेंसी की तरफ तेजी से दौड़ी चली जा रही नर्स की तरफ झपटा, बोला—"एक इमरजेंसी सिस्टर।"
"देखते नहीं, इमरजेंसी—वेट करो।"
"केस बहुत ही सीरियस...।"
सुनने के लिए नर्स रुकी नहीं।
तेजी से भागकर इमरजेंसी में चली गई—हेमन्त अपना-सा मुंह लिए स्ट्रेचर के पास खड़े बिशम्बर गुप्ता के नजदीक पहुंचा—वहां खड़े वे इस तरह कांप रहे थे, जैसे तेज हवा में पीपल का सूखा पत्ता कांपा करता है।
उन्हें लग रहा था कि अब पकड़े जाने में देर नहीं थी।
तभी अस्पताल के दरवाजे में एक कार दाखिल होती नजर आई, हेमन्त ने तेजी से कहा—"यहां तो देर लगेगी बाबूजी, इमरजेंसी बिजी है।"
"हां।" बिना सोचे-समझे वे इतना ही कह सके।
"इससे बेहतर तो यह है कि मम्मी को किसी प्राइवेट डॉक्टर के यहां ले चलें।"
"हां।"
गैलरी में खड़े उनकी बात सुन रहे तीन व्यक्तियों में से एक ने कहा—"ज्यादा वक्त नहीं लगेगा, हमारे पेशेंट की पट्टियां हो चुकी हैं, मगर इन्हें हुआ क्या है, भाई साहब?"
कार उनकी बगल में आ रुकी।
हेमन्त जल्दी से बोला—"गाड़ी भी आ गई है बाबूजी, उठाओ मम्मी को।"
यह हकीकत है कि बिशम्बर गुप्ता की समझ में कुछ न आ रहा था कि क्या किया जाए, क्या नहीं, क्या उचित रहेगा, क्या गलत—अतः जो हेमन्त ने कहा, कर दिया, यानि उसके साथ एक तरफ से पकड़कर उन्होंने स्ट्रेचर उठा लिया।
उधर अमित ने अपना काम बिल्कुल मशीनी अंदाज में किया था।
गाड़ी का पिछला दरवाजा खोलते वक्त जब उसने देखा कि वे सुचि की लाश को नहीं, बल्कि समूचे स्ट्रेचर को ही उठाए गाड़ी की तरफ ला रहे हैं तो बोला—"यह क्या?"
"यहां इमरजेंसी बिजी है, मम्मी को कहीं और ले चलते हैं।" उसे बात पूरी करने का अवसर दिए बिना हेमन्त ने तेजी से कहा—"तुम गाड़ी चलाओ, जल्दी।"
अमित की खोपड़ी उलट गई।
हालांकि उसने बरामदे में खड़े तीन व्यक्तियों को देख लिया था, परन्तु समझ कुछ न सका—स्ट्रेचर को तेजी से गाड़ी में रखते हुए हेमन्त ने उससे एक बार पुनः जल्दी चलने के लिए कहा तो अमित ड्राइविंग सीट पर लपका।
बरामदे में खड़े तीनों व्यक्ति उनकी हड़बड़ाहट और फुर्ती को अजीब से अंदाज में देख रहे थे—हेमन्त और बिशम्बर गुप्ता स्ट्रेचर सहित गाड़ी में समा गए, गाड़ी स्टार्ट हुई और एक झटके से आगे बढ़ गई।
पिछला दरवाजा बंद होने की आवाज सारे अस्पताल में गूंज गई।
फर्राटे भरती हुई गाड़ी अस्पताल के गेट से बाहर निकल गई तो वहां खड़े तीनों में से एक कह उठा—"अजीब आदमी था, रिक्शा में आए और कार में भाग गए।"
"बड़ी घबराहट और जल्दी में थे।"
"घबराहट तो हो ही जाती है, पता नहीं बेचारी को क्या हुआ था!" यह वही व्यक्ति था, जिसके दो बार सवाल करने पर भी बिशम्बर या हेमन्त में से किसी ने जवाब नहीं दिया था।
¶ ¶
सुनसान सड़क पर गाड़ी तेज रफ्तार से भागी चली जा रही थी, सबसे पहला सवाल अमित ने किया—"यह क्या चक्कर है, भइया, स्कीम में कुछ चेंज कर लिया है क्या—मां और स्ट्रेचर को तो शायद गाड़ी में.....।"
"तुम बिल्कुल बेवकूफ हो, अमित।" उसके साथ-साथ हेमन्त बिशम्बर गुप्ता के दिमाग पर भी झुंझला रहा था—"क्या तुमने देखा नहीं था कि बरामदे में एक नहीं तीन-तीन आदमी खड़े थे—उनके सामने भला लाश कैसे अलग की जा सकती थी?"
"मगर अब क्या होगा?" स्ट्रेचर पर पड़ी ललितादेवी के मुंह से भयभीत आवाज निकली—"मुझे कहां-कहां उठाए फिरोगे?"
"तुम चुप रहो मां, अभी तुम बेहोश हो।" हेमन्त ने कहा—"उफ—बड़ी मुश्किल से बचे हैं, अगर समय रहते तरकीब दिमाग में नहीं आ जाती तो सब वहीं धरे गए थे।"
"ल...लेकिन वे हमारी इस आनन-फनन कार्यवाही को देखकर क्या सोच रहे होंगे?"
"इसके अलावा सोच भी क्या सकते हैं कि हमारा पेशेंट ज्यादा सीरियस था—इमरजेंसी को बिजी देखकर जल्दी में किसी प्राइवेट डॉक्टर के यहां चले गए हैं।"
"मगर वास्तव में इस वक्त हम कहां जा रहे हैं?" ड्राइविंग करते अमित ने पूछा—"रात के इस वक्त जबकि सड़को पर ट्रेफिक न के बराबर है, चोरी की कार लिए हमारा यूं शहर की सड़कों पर घूमते रहना खतरनाक है।"
"क्या इस गाड़ी के मालिक को गाड़ी चोरी चली जाने के बारे में मालूम हैं?"
"नहीं।"
"कैसे कह सकते हो?"
"बहुत से लोग हाथी पाल तो लेते हैं, मगर उनके घर का दरवाजा इतना बड़ा नहीं होता जिसमें हाथी घुस सके, यानि गाड़ी तो रखते हैं मगर गैरेज नहीं—ऐसे लोग रात को गाड़ी सड़क किनारे खड़ी कर देते हैं, यह उन्हीं में से एक है—चोरी से बेखबर इसका मालिक अपने लिहाफ में घुसा खर्राटे ले रहा होगा।"
"फिर तुम क्यों डर रहे हो?"
"अगर किसी फ्लाइंग दस्ते ने रोक लिया तो उनके सवालों के जवाब देने मुश्किल हो जाएंगे, भइया। सबसे बड़ा सवाल मेरे ड्राइविंग लाइसेंस का उठेगा।"
"डॉक्टर एस.डी. अस्थाना के क्लिनिक पर चलो।"
"ओ.के. ।"
बिशम्बर गुप्ता ने पूछा—"वह क्या होगा?"
"अस्थाना का रेजीडेंस क्लिनिक के ऊपर है—वहां आपको वही कराना है जो अस्पताल में इमरजेंसी वार्ड में कराना था, हम आपको वहां छोड़कर गुलावठी की तरफ निकल जाएंगे।"
"अपना ध्यान रखना बेटों।"
"आप फिक्र न करें।" हेमन्त ने कहा—"स्ट्रेचर की निचली मंजिल सुचि की लाश के साथ अलग करने में मेरी मदद कीजिए, उठना मम्मी।"
कांपती हुई ललितादेवी सुचि की लाश के ऊपर से उठ गईं।
¶ ¶
बाउंड्री वॉल के ऊपर से हवा में लहराता हुआ धप्प की आवाज के साथ बिशम्बर गुप्ता के मकान के छोटे से लॉन में जो व्यक्ति पहुंचा, उसके तन पर गर्म पतलून, ओवरकोट और एक हैट था।
संभलने के चक्कर में उसका हैट उतरकर लॉन में गिर गया, परन्तु उसे शीघ्र ही उठकर वापस उसने सिर पर रख लिया—चौंक्ने कुत्ते की तरह उसने दाएं-बाएं का निरीक्षण किया—हर तरफ सन्नाटा, अंधेरा—वह स्वयं भी इस अंधेरे का ही एक भाग लग रहा था।
सारा कोठियात मौहल्ला सोया पड़ा था।
दबे पांव आगे बढ़ा।
कुछ ही देर बाद वह बंदर के समान एक रेनवाटर पाइप पर चढ़ रहा था—पांच मिनट बाद बिशम्बर गुप्ता के मकान की छत पर पहुंचा।
सीढ़ियों की तरफ बढ़ा।
जीने में कोई दरवाजा नहीं था—हां वहां इतना अंधेरा जरूर था कि अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो गईं उसकी आंखें भी कुछ न देख पा रही थीं। उस कुछ न कुछ दिखाई देने से काम नहीं चल रहा था, सो अपने ओवरकोट की जेब से उसने एक टॉर्च निकाल ली।
उसकी रोशनी में वह मकान की निचली मंजिलों की तरफ बढ़ा।
¶ ¶
रेखा घर में अकेली थी।
हालांकि मकान बहुत बड़ा नहीं था, किन्तु इस वक्त उसे ऐसा लग रहा था जैसे मीलों में फैली किसी विशाल और उजाड़ हवेली में वह अकेली हो।
हर तरफ सांय-सांय करता सन्नाटा।
नि:स्तब्धत!
अपने पलंग पर लेटी रेखा के हाथ में एक उपन्यास था—अपनी ही कल्पनाओं से डरकर वह उपन्यास पढ़ने लगती, मगर जब एक भी शब्द उसके पल्ले न पड़ता तो उसे छाती पर रखकर छत को घूरने लगती।
यह याद आता कि कुछ देर तक इस घर में एक लाश थी तो रोंगटे स्वतः खड़ो हो जाते—यह विचार तो उसके होश उड़ा देता कि लाश सुचि भाभी की थी और घर के बाकी सभी सदस्य उस वक्त उससे मुक्ति पाने, उसे ठिकाने लगाने गए थे।
क्या वे कामयाब हो सकेंगे?
जो आरोप बेवजह घर के हर सदस्य के माथे का कलंक बन गया है, क्या वह धुल सकेगा—उनमें से अभी तक कोई लौटा क्य़ों नहीं?
अमित और हेमन्त भइया का काम तो लम्बा है, मगर मम्मी और बाबूजी को तो अभी तक लौट आना चाहिए था—वे क्यों नहीं आए हैं, कहां रह गए?
अभी यह सब कुछ वह सोच ही रही थी कि—
'टक...टक...।'
गैलरी में किसी की पदचाप गूंजी।
कानों के साथ ही रेखा के रौंगटे भी खड़े हो गए—हर तरफ छाई नि:स्तब्धा भंग होते उसने खूब अच्छी तरह सुनी थी और दिमाग में बडी तेजी से कौंध गए इस विचार ने उसके छक्के छुड़ा दिए कि गैलरी में कोई था।
कौन?
अब कहीं से कोई आवाज न आ रही थी—हर तरफ खामोशी—रेखा ने सोचा कि शायद उसे वहम हुआ था—मकान का मुख्य दरवाजा अन्दर से बंद था, उसके खोले बिना भला कोई अन्दर कैसे आ सकता था?
मगर अपना यह विचार भी उसे न जंचा।
उस बार गैलरी में उभरने वाली पदचाप उसने बिल्कुल साफ सुनी।
टक..टक...टक...टक।
कोई नजदीक आ रहा था।
"क...कौन है?" बुरी तरह भयभीत वह हलक फाड़कर चिल्ला उठी।
स्पष्ट गूंजती कदमों की आवाज के अलावा कोई जवाब नहीं।
रेखा बेड से उछलकर खड़ी हो गई और वही क्षण था जब पदचाप दरवाजे पर पहुंची—ढलका हुआ दरवाजा भड़ाक से खुला और रेखा के हलक से चीख निकल गई।
दरवाजे के बीचो-बीच खड़ा वह अपनी लाल-लाल आंखों से एकाएक रेखा को घूर रहा था और आतंक की ज्यादती के मारे रेखा मानो स्टेच्यू में बदल गई—सारा शरीर पसीने से भरभरा उठा उसका—जड़ हो गई थी वह, मुंह में मानों जुबान न थी।
और वह, जिसके चेहरे पर भूकम्प के भाव थे—वह, जिसका चेहरा ज्वालामुखी के लावे के समान भभकता नजर आ रहा था—निरन्तर रेखा को ही घूरे जा रहा था वह।
"त...तुम?" रेखा की घिग्घी बंध गई—"त...तुम यहां?"
"हां।" दरिन्दगी भरी गुर्राहट निकली थी उसके मुंह से।
"म...मगर दरवाजा तो बाहर से बंद है, तुम अन्दर कैसे आ गए मनोज....और रात के इस वक्त त...तुम यहां आए क्यों हो?"
वह मनोज ही था, जिसके जबड़े भिंचे हुए थे—गुस्से की ज्यादती के कारण जो पागल हुआ जा रहा था और रेखा के सवालों पर कोई ध्यान न देकर एक खतरनाक बला की तरह जो उसकी तरफ बढ़ता चला गया।
रेखा पीछे हटी, चीखी—"म...मनोज—क्या हो गया है तुम्हें?"
"तेरे मां-बाप और भाई कहां हैं?" वह गुर्राया।
"व...वे तो अस्पताल गए हैं—मम्मी बेहोश हो गई थीं।"
"ओह—तो इतने बड़े घर में तू इस वक्त अकेली है?" कहते समय मनोज की आंखों में हिंसक चमक उभर आई—"बहुत खूब—अब मैं अपनी बहन की मौत का बदला उसी तरह ले सकूंगा—मगर जाऊंगा नहीं, यहीं—उनके लौटने का भी इंतजार करूंगा—लाशें बिछा दूंगा—एक-एक को मार डालूंगा—अपनी सुचि के एक-एक हत्यारे का खून पी जाऊंगा मैं।"
"म...मनोज—हमने भाभी को नहीं मारा है।"
"झूठ!" वह गुर्राया—"झूठ बोलती है, हरामजादी—मेरी फूल-सी बहन को मारकर झूठ बोलती है—क्या तू यह समझती है कि मैं तुझे छोड़ दूंगा?"
मारे खौफ के रेखा का बुरा हाल था—मौत के भय से उसका सुंदर चेहरा बुरी तरह विकृत हो उठा, पीछे हटती हुई वह बोली—"म...मेरा यकीन करो मनोज। भगवान कसम....हमने भाभी को नहीं मारा—हमने कभी उनसे दहेज...।"
"खामोश।" दीवानगी के आलम में मनोज ने चीखकर जेब से एक शीशी निकाली—उसका कार्क खोला और गुर्राया—"मैं तुझे मारूंगा नहीं, बल्कि जिंदा लाश बना दूंगा—ऐसी लाश, जिससे कोई शादी करने के लिए तैयार न हो।"
रेखा को लगा कि मनोज को नहीं समझाया जा सकता।
प्रतिशोध की आग में उसका रोम-रोम सुलग रहा था, अतः बचाव का कोई अन्य रास्ता न देखकर वह चिल्ला उठी—"बचाओ—बचाओ।"
"हा—हा—हा।" मनोज वहशियाना अंदाज से हंसा—एक-एक शब्द को चबाता हुआ गुर्राया—"इसी तरह मेरी बहन भी चीखी होगी—इसी तरह मेरी सुचि भी चिल्लाई होगी, मगर तुमने उस पर रहम नहीं किया—जान से मार डाला उसे—तुम—तुम भी तो उसके हत्यारों में से एक हो?"
रेखा लगातार चिल्ला रही थी।
मनोज ने अचानक शीशी में भरा सारा तरल पदार्थ रेखा की तरफ उछाल दिया—तरल पदार्थ रेखा के चेहरे पर जाकर गिरा और—
रेखा हलक फाड़कर चीख पड़ी।
उसकी इस चीख ने सारे कोठियात मौहल्ले को झंझोड़ डाला—तेजाब ने रेखा का चेहरा बुरी तरह जला डाला था और दीवानगी के आलम में मनोज पागलों की तरह हंस रहा था।
¶ ¶
गुलावठी से नजदीक के किसी गांव की तरफ जा रही अधपक्की सड़क पर कार हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ रही थी—सड़क की हालत बेहद खराब थी—बारिश के कारण जगह-जगह गड्ढे हो गए थे और रोड़ियां कंकर में बदलकर बिखरी पड़ी थीं—अमित को ड्राइविंग करने में दिक्कत हो रही थी, इसीलिए पूछा—"इस सड़क पर और कितना आगे बढ़ना है?"
"यहीं रोक दो।"
अमित ने तुरन्त गाड़ी रोक दी, बोला—"अब?"
"सुचि की लाश हमें ऐसे पेड़ पर लटकानी है, जो आम रास्ते में न पड़ता हो।"
"उससे फायदा?"
"लाश कल रात से वहां लटकी हुई है।" हेमन्त ने कहा—"आम रास्ता होता तो आज दिन में ही किसी के द्वार देख ली जाती—लाश का पता गांव वालों को भी तब पड़ता है, जब गिद्ध मंडराने लगते हैं।"
"मैं समझ गया, मगर ऐसी जगह हमें कहां मिलेगी?"
"गाड़ी को यहीं छोड़कर, लाश को उस बाग में ले चलते हैं—वहां कोई-न-कोई पेड़ जरूर मिलेगा, जिस पर आसानी से किसी राहगीर की नजर न पड़े।"
"ओ.के.।" कहकर अमित ने इंजन बंद कर दिया।
हेमन्त ने गाड़ी के अन्दर की लाइट ऑन की—जेब से दस्ताने निकालकर पहनाता हुआ बोला—"तुम भी दस्ताने पहने लो, अमित।"
अमित ने उसके हुक्म का पालन किया।
लाश को तिरपाल और चादर से अलग करके हेमन्त ने अपने कंधे पर लादा—अमित ने गाड़ी लॉक की और जेब से एक टॉर्च निकालकर हेमन्त के आगे बढ़ गया।
¶ ¶
रेखा की चीखों ने बार फिर सारे कोठियात मौहल्ले को बॉल्कनी या सड़कों पर ला खड़ा किया था—सभी के बीच यह चर्चा थी कि बिशम्बर गुप्ता के मकान में आखिर अब क्या हो रहा है, ये चीखें कैसी हैं?
कुछ लोग गालियां बक रहे थे।
कह रहे थे कि जाने कैसे लोग मौहल्ले में बसे हुए हैं—सारी रात खराब कर दी।
कुछ देर बाद रेखा की मर्मांतक चीखें गूंजनी बंद हो गईं।
अजीब सस्पैंस छा गया।
चार-पांच लोगों के बीच खड़ा बंसल कह रहा था—"इस वक्त रेखा मकान में अकेली है और ये चीखें उसी की थीं।"
"उसे ऐसी क्या आफत आ गई है?"
"मालूम करना चाहिए।"
"हुंह!" एक मौहल्ले वाले ने मुंह बिसूरा—"ऐसे कमीने लोगों पर तो आफतें आएंगी ही, क्या मालूम करना और क्या इनकी मदद करनी?"
"बहू के साथ जो उन्होंने किया, वह वास्तव में बड़ा बुरा किया शर्माजी।" बंसल बोला—"उसकी सजा तो भगवान इन्हें देगा ही—लेकिन अगर वे किसी दूसरी मुसीबत में फंसते हैं तो मौहल्ले वाले और पड़ोसी होने के नाते मदद करने का न सही, मगर हमारा यह फर्ज तो बनता ही है कि उनकी मुसीबत मालूम करें।"
"अरे, जो बहू की हत्या करेगा, क्या वह कभी चैन से रह सकता है।"
"फिर भी।" बंसल ने कहा—"जरा समझने की कोशिश करो शर्माजी, अगर सुबह पता लगता है कि कोई ऊंच-नीच बात हो गई है तो पुलिस मौहल्ले वालों से भी पूछेगी कि जब तुमने चीखों की आवाज सुनी थी तो कुछ किया क्यों नहीं?
"हम कर ही क्या सकते हैं?"
"ज्यादा कुछ न सही, दरवाजा खोलकर रेखा से यह तो पूछ ही सकते हैं कि वह चीख क्यों रही थी—उनमें इंसानियत भले ही न रही हो, मगर हममें तो है, लड़की घर में अकेली है—इंसानियत के नाते उसकी खबर तो हमें लेनी ही चाहिए।"
इस तरह, बंसल ने जनमत तैयार किया और बिशम्बर गुप्ता के दरवाजे पर पहुंचकर कॉलबेल दबा दी। उधर—
रेखा बेहोश हो चुकी थी।
सारा चेहरा बुरी तरह जल गया था उसका—बड़े-बड़े फफोले पड़ गए थे और उन फफोलों को देखकर मनोज की आंखों से एक अजीब सुकून, अजीब-सी शांति झांक रही थी कि कॉलबेल की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा।
दिमाग में एक ही विचार आया—'इसके मां-बाप और भाई शायद आ गए हैं।'
इस विचार से वह डरा या बौखालाया नहीं।
बल्कि चेहरा कठोर हो गया।
आंखों में एक बार फिर वैसी ही हिंसक चमक उभर आई, जैसी रेखा के चेहरे पर तेजाब फेंकते वक्त थी—अभी तक अपने हाथ में दबी शीशी एक तरफ फेंककर उसने जेब से चाकू निकाल लिया।
बटन दबाते ही क्लिक की आवाज के साथ चाकू खुल गया।
ट्यूब की रोशनी में चाकू का फल चमचमा उठा और उसी फल को घूरता हुआ मनोज गुर्राया—''मैं एक को भी जिंदा नहीं छोङूगा—तेरे एक-एक हत्यारे की लाश बिछा दूंगा सुचि—कानून उन्हें क्या सजा देगा—तेरा भाई अभी जिंदा है।"
कॉलबेल पुनः बजी।
वह घूमकर गुर्राया—"आ रहा हूं, हरामजादो—घंटी बजा-बजाकर तुम अपनी मौत को बुला रहे हो—मनोज को अपने अंजाम की परवाह नहीं है—ज्यादा-से-ज्यादा कानून मुझे फांसी पर लटका देगा, मगर उससे पहले मैं तुम सबको मौत के घाट उतार दूंगा।"
हाथ में खुला चाकू लिए वह आगे बढ़ा।
दृढ़तापूर्वक गैलरी पार करके ड्राइंगरूम में पहुंचा—एक पल के लिए भी ठिठका नहीं वह—ड्राइंगरूम पार करके आगे बढ़ा—वह, प्रतिशोध की ज्वाला ने जिसे पागल कर दिया था—इस हद तक कि यह सोच ही न सका कि दरवाजे पर कोई और भी हो सकता है।
इंतकाम की आग में झुलसे उसके दिमाग में यह विचार आया ही नहीं कि जितनी जोर-जोर से रेखा चीखी है, उनसे पड़ोसियों का जग जाना कितना स्वाभाविक था।
किसी ने ठीक ही कहा है, बदले की आग इंसान को पागल बना देती है—सोचने-समझने की शक्ति को भी वह जलाकर राख कर देती है।
दरवाजे तक पहुंचने वाली गैलरी उसने दबे पांव पार की।
धीरे से चिटकनी गिराकर एक झटके से दरवाजा खोला—वार करने के लिए उसने अपना चाकू हवा में उठाया, किन्तु दरवाजे पर खड़े लोगों को देखकर चौंक गया।
इधर, दरवाजा खुलते ही बंसल और मौहल्ले के दूसरे लोगों ने जिस स्थिति का सामना किया, उसे देखकर उनके छक्के छूट गए।
सभी पलटे और रिवॉल्वर की गोली के समान चीखते हुए उलटे पैर भागे।
मनोज को पहली बार यह अहसास हुआ कि कॉलबेल बजाने वाले उसके शिकार नहीं, बल्कि कोई और हैं—इस अहसास ने उसे कंपकंपाकर रख दिया—उधर, बंसल और उसके साथियों को इस तरह भागते देख चारों तरफ से आवाजें आने लगीं—"क्या हुआ—क्या हुआ?"
इन आवाजों को सुनकर मनोज को रेखा की चीखों का ख्याल आया—यह समझते उसे देर न लगी कि उन चीखों ने सारे मौहल्ले को जगा दिया था और उस क्षण उसे पहली बार महसूस हुआ कि वह भयानक खतरे से घिर चुका था।
लोगों के अपने सामने से भाग जाने से उसका साहस बढ़ा।
दिमाग में एक ही विचार आया कि जितनी जल्दी हो उसे वहां से भाग जाना चाहिए—अतः हाथ में नंगा चाकू लिए दौड़कर सड़क पर पहुंचा—दूर, सड़क के दोनों तरफ खड़े मौहल्ले के डरे सहमें लोग उसे देख रहे थे।
सबको आतंकित करने की मंशा से वह चीखा—"अगर कोई भी आगे बढ़ा या किसी ने मुझे रोकने की कोशिश की तो मैं अंतड़ियां फाड़ डालूंगा।"
सभी कांप उठे।
मनोज खुद डरा हुआ था।
चाकू हाथ में लिए वह एक तरफ को भागा, विपरीत दिशा की भीड़ उसके पीछे लपकी, जबकि उस तरफ की भीड़ काई की तरह फट गई जिस तरफ वह भाग रहा था।
तेजी से भागने के कारण उसका हैट सड़क पर गिर गया।
"अरे!" कोई चीखा—"यह तो हेमन्त का साला है।"
बंसल चिल्लाया—"शायद रेखा का खून करके भाग रहा है वह—पकड़ो!"
हर तरफ से पकड़ो-पकड़ो की आवाजें उठने लगीं तो मनोज कुछ और ज्यादा बौखला गया—वह तेजी से भागा मगर तभी बॉल्कनी से आकर ईंट का अद्धा उसकी कमर पर लगा, मुंह से चीख निकली और सड़क पर जा गिरा।
उठा, पुनः भागने का प्रयास कर ही रहा था कि उस इलाके के चौकीदार की लाठी उसके सिर पर पड़ी।
उस बार गिरा तो उठने से पहले ही पीछे से दौड़कर आ रही भीड़ ने दबोच लिया।
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