कटघरे में मुलजिम

सुबह ग्यारह बजे अखिल को अदालत ले जाया गया, जहां बारह बजे ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत में उसकी पेशी हुई। कोर्ट रूम में कई वरिष्ठ मीडिया कर्मियों के साथ-साथ वंश वशिष्ठ भी मौजूद था, जो सिर्फ और सिर्फ अखिल का कहा सुनने के लिए वहां पहुंचा था।

“मुलजिम की तरफ से कोई वकील है?” मजिस्ट्रेट ने पूछा।

“है योर ऑनर।” कहता हुअ रमन राय उठकर खड़ा हुआ।

“क्या मुलजिम अपना गुनाह कबूल करता है?”

“नहीं योर ऑनर।”

सुनकर वहां मौजूद अधिकारी और दीक्षित एकदम से चौंक उठे। अखिल के जुर्म कबूल कर लेने के बाद भले ही उन्हें अंदेशा था कि वह कोर्ट में अपने कहे से मुकर जायेगा, मगर आज सुबह मीडिया के सामने उसके गुनाह कबूल कर चुकने के बाद, कोर्ट के लिए रवाना होने से पहले जब उससे ये सवाल किया गया, कि क्या वह अपने बयान में कोई फेर बदल करना चाहता था, या अपनी कही किसी बात से पीछे हटना चाहता था? तो उसने ये कहकर उन्हें बेफिक्र कर दिया, कि अपनी जिंदगी में वह बहुतेरे गलत काम कर चुका था, जिसका उसे बहुत अफसोस था। इसलिए आगे की जिंदगी जेल में पश्चाताप करते हुए गुजारना चाहता था। लिहाजा उन्हें यकीन था कि मुलजिम अदालत में सहज ही अपने तमाम जुर्म कबूल कर लेगा।

उन दोनों की ही तरह सरकारी वकील जयकांत दूबे भी चौंक उठा था, क्योंकि पुलिस ने उससे बड़े ही दावे के साथ कहा था, कि मुलजिम ने अपनी मर्जी से गुनाह कबूल किया था इसलिए अदालत में भी कर के रहेगा।

“पब्लिक प्रॉसिक्यूटर बतायें कि मुलजिम पर क्या आरोप है?” मजिस्ट्रेट ने पूछा।

“थैंक यू योर ऑनर - जयकांत दूबे उठ खड़ा हुआ, फिर अखिल की तरफ इशारा करता हुआ बोला - कटघरे में खड़े इस नौजवान को नशे की लत है माई लॉर्ड, ये चरस, स्मैक, हेरोईन और एलएसडी जैसे खतरनाक ड्रग्स लेता है। उसके लिए पैसों की जरूरत होती है, जिसे हासिल करने के लिए ये अब तक कई जघन्य अपराधों को अंजाम दे चुका है। उनमें से कुछ का पता पुलिस लगा चुकी है, जबकि बाकी का लगना बाकी है। इसलिए अभी इसके ऊपर सिर्फ दो हत्याओं का चार्ज लगाया गया है। पहला मामला लगभग साल भर पुराना है, जबकि दूसरी वारदात को छह दिन पहले अंजाम दिया था। मुलजिम ने अपनी नशे की तलब पूरा करने के लिए एक स्कूल टीचर अमरजीत राय को छुरा दिखाकर लूटने का प्रयास किया, मगर जब वह इसकी धमकी में नहीं आया तो उसका कत्ल कर दिया और पर्स तथा मोबाईल लेकर घटनास्थल से फरार हो गया। इसी तरह साल भर पहले इसने मशहूर मनोचिकित्सक डॉक्टर बालकृष्ण बरनवाल की हत्या कर के तीन लाख रूपये लूट लिए थे। उन दोनों के मर्डर के अलावा भी ये कई अपराधों को अंजाम दिया होने की बात कबूल कर चुका है, जिनकी जांच अभी चल रही है। इसलिए अदालत से मेरी गुजारिश है कि मुलजिम को पंद्रह दिनों के लिए पुलिस रिमांड पर भेज दिया जाये, थैंक यू योर ऑनर।”

वह अपनी जगह पर जाकर बैठ गया।

“मेरे क्लाइंट पर लगाये गये तमाम आरोप बेबुनियाद हैं योर ऑनर - डिफेंस लॉयर रमन राय उठ खड़ा हुआ - इसका किसी के भी कत्ल से कोई लेना देना नहीं है। यह एक मेधावी छात्र है जो हाल ही में 97 परसेंट मॉर्क्स के साथ बी.टेक. कर के हटा है, और हर प्रकार के व्यसन से एकदम दूर है, ऐसे लोग अपराधी नहीं हुआ करते योर ऑनर, जबकि पुलिस तो इसे सीरियल किलर ही साबित करने पर तुली दिखाई दे रही है। इसलिए अदालत से मेरा अनुरोध है कि मुलजिम की मेडिकल जांच कराकर सबसे पहली इसी बात की पुष्टि कर ली जाये कि ये नशा करता है या नहीं। अगर नहीं करता योर ऑनर तो जाहिर है इसके खिलाफ कोई केस भी नहीं बनता क्योंकि कत्ल का इकलौता मोटिव नशे की लत बताई जा रही है।”

“मुलजिम ने अपनी मर्जी से गुनाह कबूल किया था योर ऑनर - जयकांत दूबे थोड़ा तीखे लहजे में बोला - इसने कबूल नहीं किया होता कि साल भर पहले डॉक्टर बरनवाल का कत्ल इसी ने किया था, तो पुलिस को उसका ख्याल भी नहीं आया होता क्योंकि उस मामले की अनट्रेस्ड रिपोर्ट पहले ही अदालत में सबमिट की जा चुकी है।”

“नहीं अपनी मर्जी से नहीं किया था बल्कि करने को मजबूर किया गया था - रमन राय उच्च लहजे में बोला - सच्चाई ये है योर ऑनर कि अमरजीत का हत्यारा पुलिस को खोजे भी नहीं मिल रहा था। और इंवेस्टिगेशन ऑफिसर भी वही थे जो साल भर पहले घटित हुई डॉक्टर बरनवाल की हत्या का मामला सुलझाने में नाकाम रह गये थे। वह ये सोचकर डर गये कि कहीं अमरजीत की हत्या की गुत्थी भी रहस्य ही न बनी रह जाये। इसलिए जो पहला कमजोर इंसान दिखाई दिया उसे धर दबोचा। पुलिस स्टेशन में इस नौजवान को जमकर टॉर्चर किया गया, इसके कपड़े उतारकर नंगा कर दिया, जबरन शराब पिलाई गयी, और मार तो बेतहाशा लगाई ही गयी थी...

अधिकारी और दीक्षित बुरी तरह बौखला उठे।

...उतना सब होने के बाद ये नौजवान अपनी बेगुनाही की बात पर डंटा कैसे रह सकता था योर ऑनर? उन हालात में इसके सामने दो रास्ते थे, पहला ये कि पुलिस की मार खा-खाकर अधमरा हो जाता, और दूसरा ये कि पुलिस जो चाहती थी उसे कबूल कर लेता। ये कोई अपराधी नहीं था योर ऑनर इसलिए मार बर्दाश्त करने की क्षमता भी नहीं थी, लिहाजा इसने वह सब कबूल कर दिखाया जो कि पुलिस चाहती थी, थैंक यू योर ऑनर।”

“ये सरासर गलत इल्जम है माई लॉर्ड - दूबे बोला - मुलजिम के साथ कोई मारपीट नहीं की गयी थी, शराब पिलाने का तो कोई मतलब ही नहीं बनता था। उल्टा इसने बिना किसी जोर जबरदस्ती के अपना किया धरा कबूल किया था। एक बार को पुलिस के आगे दिये गये बयान को झूठ मान भी लें योर ऑनर तो आरोपी ने अपना जुर्म मीडिया के सामने भी स्वीकार किया था, अदालत चाहे तो उसकी फुटेज यहां पेश की जा सकती है, जिसमें ये लड़का अपनी मर्जी से नकाब उतारकर फोटो खिंचवाता भी दिखाई दे रहा है। इसलिए अदालत से मेरी दरख्वास्त है कि फरदर जांच के लिए मुलजिम को 15 दिनों के लिए पुलिस रिमांड पर दे दिया जाये, इसलिए क्योंकि बहुत सारे तथ्यों का पता लगना अभी बाकी है।”

“जबकि असल में कोई तथ्य हैं ही नहीं योर ऑनर - रमन राय बोला - सच ये है कि कटघरे में खड़े इस लड़के को सिर्फ और सिर्फ नाफरमानी की सजा दी जा रही है। बदला लिया जा रहा है इस बात का कि इसने इंवेस्टिगेशन ऑफिसर के हुक्म की तामील नहीं की थी। और हुक्म ये था योर ऑनर कि अखिल भूले से भी दिल्ली में कदम रखने की जुर्रत न करे।”

वह बात चाहे किसी और के पल्ले पड़ी हो या न पड़ी हो, लेकिन अधिकारी और दीक्षित के फक्क पड़ चुके चेहरे स्पष्ट चुगली कर रहे थे, कि वकील का कहा पूरी तरह उनकी समझ में आ चुका था।

“पहेलियां मत बुझाईये राय साहब - मजिस्ट्रेट थोड़ा सख्त लहजे में बोला - साफ-साफ कहिये जो कहना चाहते हैं।”

“कहने को कुछ होगा तब तो कहेंगे।” सरकारी वकील थोड़ा हंसकर बोला।

“अगर आपको सच में ऐसा लग रहा है, तो अपना दिल मजबूत कर लीजिए दूबे जी, क्योंकि धड़का बस लगा ही समझिये।”

“नो पर्सनल कमेंट।”

“सॉरी योर ऑनर - दोनों ने सिर झुकाया, फिर रमन राय बोला - अदालत को किसी केस की गलत तस्वीर दिखाना पुलिस डिपार्टमेंट के लिए कोई नई बात नहीं है योर ऑनर। मगर ऐसा तो पहले कभी शायद ही हुआ होगा, जब मुलजिम की आईडेंटिटी ही चेंज कर दी गयी हो। इस नौजवान का नाम अखिल नहीं है मॉय लॉर्ड, विश्वजीत है मगर पुलिस इसके असली नाम को सामने लाने की हिमाकत नहीं कर सकती थी, इसलिए गिरफ्तारी के फौरन बाद इसके पॉकेट से बरामद आधार कार्ड जलाकर खाक कर दिया, और निखिल गुप्ता के नाम से एक नई पहचान दे दी गयी। उसके लिए फर्जी आधार कार्ड तक तैयार कर लिया गया, ये तो हद ही हो गयी।”

अदालत में सन्नाटा छा गया।

“बकवास - दूबे थोड़ा गुस्से में बोला - मेरी मानिये तो वकालत छोड़कर क्राईम फिक्शन लिखना शुरू कर दीजिए, क्योंकि स्टोरी टेलर आप गजब के हैं, उस बात पर मुझे कोई शक नहीं है।”

“आपको लगता है मैं कहानी सुना रहा हूं?”

“कहानी ही सुना रहे हैं, एक से बढ़कर एक कहानियां, चौंकाने वाली कहानियां, ऐसी स्टोरीज जिनपर वेब सीरीज बनाई जा सकती है, मेगा बजट मूवी भी तैयार की जा सकती है। क्योंकि असल में आप पुलिस की छवि धूमिल करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे फायदा तो आपके क्लाइंट को कुछ नहीं नहीं होने वाला।”

जवाब में उसने अपनी जेब से मुलजिम का आधार कार्ड और पेन कार्ड निकाला, फिर मजिस्ट्रेट की मेज पर रखता हुआ बोला, “यही इस नौजवान की असली पहचान है योर ऑनर, और उससे भी बड़ी बात ये है कि जिस डॉक्टर बरनवाल के कत्ल का आरोप मेरे क्लाइंट पर लगाया जा रहा है, असल में वह और कोई नहीं बल्कि मेरे मुवक्किल विश्वजीत बरनवाल के पिता थे।”

कोर्टरूम में धमाका सा हुआ।

मजिस्ट्रेट, पुलिस, वकील, मीडियाकर्मी सब के सब हक्के बक्के रह गये।

“वह विश्वजीत बरनवाल, जिसके बारे में इंवेस्टिगेशन ऑफिसर इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी ने साल भर पहले अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि डॉक्टर के कत्ल के वक्त वह और उसकी मां बबिता बरनवाल, दोनों पटना में थे।” कहकर उसने पुलिस इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट की कॉपी मजिस्ट्रेट के सामने रख दी।

“यह वही विश्वजीत बरनवाल है योर ऑनर जो पुलिस द्वारा अपने पिता के कत्ल की खबर पाकर मां के साथ दिल्ली पहुंचा था, पुलिस ने इसकी तरफ से कंप्लेन दर्ज की, पूछताछ की और पोस्टमॉर्टम के बाद लाश भी इसी को सौंपी थी, ऐसे में ये बालकृष्ण बरनवाल का हत्यारा कैसे हो सकता है माई लॉर्ड? - कहने के बाद उसने जहर भरी मुस्कान के साथ सरकारी वकील को देखा, फिर हौले से बाईं आंख दबाता हुआ बोला - पर्दे के पीछे का एक सच और है माई लॉर्ड, ऐसा सच जो बहुत घिनौना है, जो साबित करता है कि पुलिस महकमा किस हद तक कानून का मजाक बनाने में जुटा हुआ है। ये भी कि कुछ ऑफिसर्स कैसे अपनी वर्दी का बेजा फायदा उठाते हुए स्याह को सफेद कर दिखाते हैं। डॉक्टर बरनवाल के कत्ल का केस अगर पिछले साल भर में पुलिस सुलझा नहीं पाई तो वह इनकी नाकाबिलियत नहीं थी योर ऑनर। अनसुलझा तो इसलिए रह गया क्योंकि इंवेस्टिगेशन ऑफिसर की उसे सुलझाने की कोई मर्जी ही नहीं थी।”

“राय साहब, साफ-साफ कहिये क्या कहना चाहते हैं?”

“यस मॉय लॉर्ड, हुआ ये कि पिता की हत्या के बाद दिल्ली पहुंचे विश्वजीत और इसकी मां बबिता बरनवाल को इंवेस्टिगेशन ऑफिसर सुयश अधिकारी तथा सब इंस्पेक्टर दयानंद दीक्षित ने धमकी दी कि फौरन गांव वापिस लौट जायें वरना बहुत बुरा होगा। इसलिए दी क्योंकि ये नहीं चाहते थे कि दोनों पूछताछ के लिए किसी को उपलब्ध होते, या मीडिया को उनसे सवाल करने का मौका हासिल होता, क्योंकि दोनों ने डॉक्टर बरनवाल के कातिल को बचाने का ठेका ले लिया था, जिसमें मां बेटे का दिल्ली में बने रहना रुकावट डाल सकता था।”

अदालत में खलबली मच गयी।

सबसे बुरा हाल इस वक्त अधिकारी और दीक्षित का हो रहा था। दोनों के पाप कांप उठे थे। खड़े खड़े बेहोश होकर गिर नहीं गये यही काफी था।

“आप दो ईमानदार पुलिस ऑफिसर्स पर रिश्वत लेने का आरोप लगा रहे हैं, जो आपकी बाकी कहानियों का ही एक हिस्सा जान पड़ता है। ऐसे डिफेंस करेंगे आप अपने क्लाइंट को, दूसरों पर कीचड़ उछालकर?” सरकारी वकील बोला।

“नहीं मैं बस सच बयान कर रहा हूं, रही बात कहानी कहने की, तो आगे बस एक कहानी बाकी है, जो मेरा क्लाइंट इस अदालत को सुनायेगा, सच्ची कहानी - कहकर उसने मजिस्ट्रेट की तरफ देखा - योर ऑनर मेरे मुवक्किल को अपनी बात कहने का मौका दिया जाये।”

इजाजत हासिल हो गयी।

तत्पश्चात विश्वजीत ने बताना शुरू किया, “अमरजीत राय की हत्या किसने की सर, मैं नहीं जानता। लेकिन मेरे पिता बालकृष्ण बरनवाल को किसने मारा था ये बात इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी और सब इंस्पेक्टर दयानंद दीक्षित बखूबी जानते हैं। तभी मुझे और मेरी मां को धमकाकर दिल्ली से पटना रवाना कर दिया। मेरे पिता के कत्ल का केस भी इसलिए अनसॉल्व रह गया योर ऑनर क्योंकि कोई उसे सॉल्व करना ही नहीं चाहता था। मगर ये दोनों पुलिस ऑफिसर पक्का जानते हैं कि उनका कत्ल किसने किया था। और मुझपर अमरजीत की हत्या का चार्ज भी इसीलिए लगाया क्योंकि मैं इनकी पुरानी धमकी भूलकर दिल्ली आने की जुर्रत कर बैठा था। इन्होंने गिरफ्तारी के बाद मेरी मां को खत्म करने देने की धमकी देकर और मेरे साथ मार कुटाई कर के जबरन वह गुनाह कबूल कराया था, जिसे करने के बारे में मैं कभी सोच तक नहीं सकता था, शराब भी जबरन और थाने में ही पिलाई गयी थी मुझे, जबकि आज तक पान खाने के अलावा मैंने कोई दूसरा नशा नहीं किया है। इसलिए मैं अदालत से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूं कि दोनों मामलों की किसी काबिल ऑफिसर से जांच कराई जाये, जिसके बाद ये साबित होते वक्त नहीं लगेगा कि अमरजीत का हत्यारा कौन है, या मेरे पिता की जान किसने ली थी।” कहता हुआ वह फूट फूटकर रो पड़ा।

“तुम्हें लगता है - सरकारी वकील सख्त लहजे में बोला - दो ईमानदार पुलिसवालों पर कुछ भी इल्जाम लगाओगे, और अदालत को कबूल हो जायेगा? जबकि हमारे पास तुम्हारे कबूलनामे की वीडियो रिकॉर्डिंग तक मौजूद है।”

“जरूर होगी सर, लेकिन मैं और कर भी क्या सकता था। जुर्म कबूल करने को तैयार नहीं होता तो ये दोनों जान से मार देते मुझे। बल्कि आज सुबह भी अदालत लाये जाते समय धमकी दी थी कि अगर मैं यहां अपने बयान से मुकरा तो मेरी मां को खत्म कर दिया जायेगा - कहते हुए उसने मजिस्ट्रेट की तरफ देखा - मेरी मां को बचा लीजिए जज साहब, और मुझे भी।”

“अच्छी नौटंकी है - दूबे जबरन हंसकर बोला - लेकिन यहां तुमसे बड़े बड़े एक्टर आते जाते रहते हैं, हालांकि हासिल कुछ नहीं होता क्योंकि अपने कहे को साबित कर के दिखाना पड़ता है। ना कि कहानियां सुनाकर, मौखिक आरोप लगाकर अदालत को बहलाया जा सकता है।”

“ठीक है फिर साबित कर दिखाते हैं।” रमन राय मुस्कराता हुआ बोला।

“साबित कर दिखाते हैं! क्या साबित करेंगे?” दूबे एकदम से हड़बड़ा गया।

“यही कि आपके दोनों ईमानदार पुलिस ऑफिसर्स ने मेरे क्लाइंट को धमकी दी थी, या नहीं दी थी - कहकर उसने मजिस्ट्रेट की तरफ देखा - योर ऑनर मैं अपने क्लाइंट की तरफ से अदालत को एक ऑडियो रिकॉर्डिंग सुनाना चाहता हूं, जिसके बाद सारा माजरा सहज ही क्लियर हो जायेगा।”

“इस अदालत में एविडेंस सबमिट नहीं किये जा सकते।” सरकारी वकील बोला।

“मैं कुछ सबमिट नहीं कर रहा, महज एक रिकार्डिंग सुनाना चाहता हूं।”

“वह भी पॉसिबल नहीं है, इस अदालत को कत्ल के आरोपी किसी मुलजिम को जमानत देने का अधिकार नहीं है, आजाद करने का भी नहीं है। यानि या तो ये पुलिस रिमांड पर जायेगा, या फिर ज्युडिशियल कस्टडी में।”

“क्यों जायेगा? - रमन राय भड़क उठा - पुलिस किसी को भी पकड़कर अदालत में खड़ा कर के कैसा भी आरोप लगा देगी और उस बेचारे को सिर्फ इसलिए पुलिस रिमांड पर या ज्युडिशियल कस्टडी में भेज दिया जायेगा, क्योंकि इस अदालत को वैसे मामलों में फैसला लेने का अधिकार नहीं है? - कहकर उसने मजिस्ट्रेट की तरफ देखा - क्यों योर ऑनर, ऐसे तो पुलिस कभी भी किसी भी बेगुनाह को जेल की हवा खिलाने में कामयाब हो जायेगी। किसी से दुश्मनी है, किसी के साथ बदला लेना है, उसे उठाओ और झूठा आरोप लगाकर अदालत में खड़ा कर दो, बस बदला पूरा हो गया। आगे तीन चार महीने चार्जशीट तैयार कराने में लगा दो, बल्कि जानबूझकर लंबा खींच दो मामले को ताकि तुम्हारा दुश्मन ज्यादा से ज्यादा दिनों तक जेल की हवा खा सके। फिर मौजूदा मामले में तो मेरे क्लाइंट के खिलाफ पुलिस के पास कोई केस ही नहीं है योर ऑनर, ऐसे में इसे पुलिस रिमांड पर देना या ज्युडिशयल कस्टडी में भेज देना, सरासर नाइंसाफी होगी।”

“ठीक है रिकॉर्डिंग सुनाईये।” मजिस्ट्रेट बड़े ही गंभीर लहजे में बोला।

“थैंक यू योर ऑनर।” कहकर रमन राय ने अपने मोबाईल में मौजूद एक ऑडियो क्लिप प्ले कर दी, जिसे वह पहले ही एक पोर्टेबल ब्लू टूथ स्पीकर के साथ जोड़े बैठा था, इसलिए आवाज इतनी लाउड थी कि पूरे कोर्टरूम में सुनाई दे रही थी।

तत्काल कुछ लोगों के बीच चल रही बातचीत वहां गूंजने लगी।

सबसे पहली आवाज अधिकारी की थी, “देख बच्चे, और तू भी सुन ले औरत, जो होना था वह हो चुका है। मतलब तू चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर ले तेरा खसम जिंदा तो हो नहीं जायेगा। इसलिए उसको किसने मारा, क्यों मारा, ये बात भूल जाने में ही तेरी भलाई है, क्योंकि ये तुम लोगों का बिहार नहीं है, दिल्ली है। मतलब यहां वही होगा जो हम चाहेंगे। ज्यादा उछल कूद मचाओगे, सवाल करोगे, मीडिया के सामने बढ़ चढ़कर बोलोगे, तो पता भी नहीं लगेगा कि तुम दोनों की लाश कहां दफ्न कर दी गयी।”

“मतलब ये कि अगर खसम के बाद अपने बेटे का भी मरा मुंह नहीं देखना चाहती - दीक्षित की आवाज गूंजी - तो इसे लेकर चुपचाप गांव लौट जा, और लौटकर दोबारा कभी दिल्ली का रुख मत करना। करेगी तो कुछ भी सलामत नहीं बचेगा।”

“आप लोग बहुत गलत कर रहे हैं हमारे साथ।” विश्वजीत की आवाज।

“अभी गलत कहां किया बेटा, गलत तो तब होगा जब तू हमारी बात मानने से इंकार करेगा, इसलिए अपनी मां को उठा और निकल ले यहां से, नहीं गया तो सुबह का सूरज तुम दोनों में से कोई एक भी नहीं देख पायेगा। हां खर्चे वर्चे के लिए पैसे चाहिएं हों तो बेशक ले ले, बोल कितने चाहिएं?”

“मैं थूकती हूं ऐसे पैसे पर।” कोई औरत रोती हुई बोली।

“दिल्ली में बनी रहकर तो तू वह भी नहीं कर पायेगी, इसलिए अपनी बुढ़ापे की लाठी को साथ ले और दफा हो जा, और दोबारा राजधानी में कदम रखने से पहले इतना जरूर सोच लेना कि तू दिल्ली नहीं जा रही बल्कि अपने बेटे के लिए कफन खरीदने जा रही है। इसलिए अपना भला बुरा सोच और जो हो गया उसे भूल जा। हमें तुम दोनों का ख्याल भी बहुत है, इसलिए टिकट का इंतजाम पहले ही कर चुके हैं, वह भी राजधानी एक्सप्रेस में, मजे से कट जायेगा सफर, दीक्षित साहब खुद तुम दोनों को बाईज्जत अपनी गाड़ी से स्टेशन पहुंचाकर आयेंगे।”

“सेल्यूट भी कर आऊंगा सर।”

“देखा, देखा कितनी इज्जत दे रहे हैं हम तुम लोगों को?”

“चलो अब फटाफट अपना सामान समेटना शुरू कर दो।”

“ये...ये मेरी आवाज नहीं है योर ऑनर।” अधिकारी बौखलाया सा बोला।

“शटअप।” मजिस्ट्रेट ने जोर से घुड़का।

“अब आप खुद सोचकर देखिये माई लॉर्ड कि अगर इन दोनों ऑफिसर्स की कातिल के साथ मिली भगत नहीं होती तो मां बेटे को दिल्ली से खदेड़ बाहर क्यों करते? बल्कि दीक्षित खुद दोनों को गाड़ी में बैठाकर आये थे। यही है हमारी दिल्ली पुलिस का असली चेहरा योर ऑनर। ऐसे में डॉक्टर बरनवाल के कत्ल का केस सॉल्व होता भी तो कैसे होता, जब करने की मर्जी ही नहीं थी। हां दिखावा पूरे साल भर किया गया था।”

“ये जरूर किसी मिमकरी ऑर्टिस्ट का कमाल है योर ऑनर।” पब्लिक प्रॉसिक्यूटर बोला।

“जिसने दोनों पुलिस ऑफिसर्स की आवाज तो निकाली ही निकाली साथ में विश्वजीत और इसकी मां के आवाज की भी नकल कर के ऑडियो तैयार कर दिखाई। और उस काम के लिए आर्टिस्ट को हॉयर करने वाला जरूर मैं ही रहा होऊंगा, क्योंकि ये बेचारा तो थाने में बंद पुलिस की मार खाने में व्यस्त था।”

“रिकॉर्डिंग पहले से तैयार रखी गयी होगी।”

“क्योंकि मेरे क्लाइंट को सपना आना था कि इसे अमरजीत की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जायेगा, है न?”

“पुलिस के पास दो चश्मदीद गवाह हैं जिन्होंने इसे अमरजीत का कत्ल करते अपनी आंखों से देखा था, उन्हें झूठा कैसे साबित कर पायेंगे आप?”

अदालत में सन्नाटा छा गया। फिर दोनों चरसियों को वहां पेश किया गया।

“ये हैं आपके गवाह?” उनकी शक्ल पर निगाह पड़ते ही मजिस्ट्रेट को अरूचि सी हो आई।

“आई विटनेस हैं योर ऑनर, आप इनकी बात तो सुन लीजिए।”

“जबकि अभी भी नशे में जान पड़ते हैं।”

“नहीं हैं मॉय लॉर्ड, क्योंकि कई दिनों से पुलिस इनकी देख रेख कर रही है, और थाने में किसी को नशा मिलने का तो कोई मतलब ही नहीं बनता।”

“ठीक है सुनाईये क्या सुनाना चाहते हैं इनके मुंह से।”

“तुम दोनों कटघरे में खड़े इस लड़के को पहचानते हो?” विश्वजीत की तरफ इशारा कर के सरकारी वकील ने पूछा।

“जी साहब पहचानते हैं।

तब कहीं जाकर दोनों पुलिसवालों के उड़े हुए होश थोड़ा काबू में आये।

“कैसे पहचानते हो?”

“हमने अमरजीत के कातिल के रूप में इसकी शिनाख्त की थी।”

“मतलब कत्ल करते अपनी आंखों से देखा था?”

“हां।”

सुनकर पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने बड़े ही शान के साथ रमन राय की तरफ देखा, “अब क्या कहते हैं?”

“बस एक मिनट दीजिए प्लीज - कहकर वह उनके सामने पहुंचा फिर बोला - नाम क्या है तुम्हारा?”

“अमित।”

“और तुम्हारा?”

“यशस्वी।”

“जिस रोज कत्ल हुआ तुम लोग कहां थे?”

“मनोहर पार्क में।”

“लाईट जल रही थी?”

“नहीं।”

“सड़क पर?”

“वहां भी नहीं लेकिन एकदम अंधेरा नहीं था।”

“क्या देखा था?”

सुनकर दोनों अधिकारी और दीक्षित की तरफ देखने लगे।

“जवाब दो।” राय ने जोर से घुड़का।

“अ..एक लड़के को देखा था।”

“छुरा भोंकते हुए?”

“न...नहीं।”

“फिर?”

“लाश के पास खड़ा देखा था।”

“तुम तो पार्क में थे।”

“पहले थे, लेकिन जब किसी के चिल्लाने की आवाज सुनी तो सड़क की तरफ बढ़ आये। तब देखा कि एक आदमी सड़क पर पड़ा था, और वहीं खड़ा एक लड़का उसे घूर रहा था।”

“खून दिखाई दिया था?”

“नहीं।”

“क्यों?”

“ज्यादा उजाला नहीं था।”

“मरने वाले का चेहरा दिखा था?”

“नहीं।”

“वहां खड़े लड़के की सूरत देखी थी?”

“अरे कह तो रहा हूं साहब की वहां ज्यादा उजाला नहीं था।”

“अच्छा फिर तुम्हें कैसे पता कि वहां खड़ा लड़का यही था?”

सुनकर दोनों हड़बड़ा से गये।

“जवाब दो।” रमन राय फिर से गरजा।

“ब..बचा लो साहब - वह एकदम से रो पड़ा - प...पुलिस हमें जान से मार देगी।”

“ऐसा कुछ नहीं होगा, इसलिए जो कहना है बेखौफ कहो।”

सुनकर दोनों ने फिर अधिकारी और दीक्षित की तरफ देखा।

“किसी से डरने की जरूरत नहीं है, ये अदालत है, सच बोलो, फिर तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा, मैं गारंटी करता हूं उस बात की।”

“खामख्वाह गवाहों को कंफ्यूज कर रहे हैं आप।” सरकारी वकील बोला।

“मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई सर, तब तक वेट कीजिए प्लीज - कहकर उसने दोनों लड़कों की तरफ देखा - सच बोलो, बताओ क्या हुआ था उस रात?”

“हमने एक लड़के को लाश के पास खड़ा जरूर देखा था साहब लेकिन उसका चेहरा नहीं देख पाये थे। बल्कि करीब तो हम गये ही नहीं थे, इसलिए ये भी बाद में मालूम पड़ा कि वहां किसी का कत्ल हो चुका था।”

“कब मालूम पड़ा?”

“जब पुलिस ने हमें पार्क से उठा लिया।”

“तो फिर गलत शिनाख्त क्यों की?”

“क्योंकि पुलिस रोज शाम को हमें कत्ल वाली जगह पर ले जाती थी और इंतजार करते थे कातिल के वहां पहुंचने का, मगर जब खाली हाथ लौटना पड़ता तो थाने लाकर बुरी तरह पीटते थे साहब, ऊपर से नशा न मिलने के कारण हम दोनों पागल हुए जा रहे थे। इसलिए तंग आकर यूं ही इस लड़के को कातिल बता दिया, ताकि पुलिस हमें आजाद कर देती, माफ कर दीजिए।”

सबके होश उड़ गये।

“और कोई गवाह है दूबे जी?”

सरकारी वकील से जवाब देते नहीं बना।

“साफ दिखाई दे रहा है योर ऑनर - रमन राय बोला - कि डॉक्टर बरनवाल के हत्यारे के बारे में जानते हुए भी दोनों पुलिस ऑफिसर्स ने उसे नजरअंदाज कर दिया था, यही वजह है कि आज तक उसका कातिल पकड़ा नहीं गया। इसलिए अदालत से मेरी दरख्वास्त है कि मामले की फिर से जांच कराई जाये ताकि सच सबके सामने आ सके, और मेरे क्लाइंट को तुरंत आजाद कर दिया जाये।”

“वकालत जरूर बिहार से की होगी राय साहब, है न?”

“आपने अमेरिका से की है?”

“जबकि मैं आपको पहले ही बता चुका हूं कि इस अदालत को वैसा कुछ करने का अख्तियार नहीं है।”

“मतलब अदालत की तरफ से फैसला भी आप ही सुनायेंगे?”

“चाहे जो कहिये आप लेकिन आपका सोचा पूरा नहीं होने वाला।”

“ये अदालत किसी मुलजिम को आजाद नहीं कर सकती न, लेकिन यहां मुलजिम है कहां? यहां तो एक आम लड़का खड़ा है जिसपर लगाये गये तमाम आरोपों को मैं हाथ के हाथ झूठा साबित कर चुका हूं। इसलिए इसके खिलाफ कोई केस भी नहीं बनता। उम्मीद है मेरी बात आपकी समझ में आ गयी होगी।”

“योर ऑनर मुलजिम को रिमांड पर दिया जाये।”

“किस ग्राउंड पर? - मजिस्ट्रेट बोला - क्या किया है इसने?”

वकील की बोलती बंद हो गयी।

“मैं जानता हूं किसी की जमानत याचिका पर सुनवाई करना इस अदालत का काम नहीं है, लेकिन पुलिस के तमाम आरोप क्योंकि पूरी तरह झूठे और बेबुनियाद साबित हुए हैं, बल्कि केस ही बे सिर पैर का जान पड़ता है, इसलिए विश्वजीत को तुरंत रिहा किया जाता है, इस चेतावनी के साथ कि फरदर जांच में पुलिस के साथ सहयोग करेगा, और जांच पूरी होने तक उपलब्ध रहेगा।”

फिर इलाके के डीसीपी को आदेश दिये गये कि मामले की जांच का जिम्मा किन्हीं काबिल ऑफिसर्स को सौंपे और कथित आरोपी पुलिसवालों की जांच कर के ये सुनिश्चित करें कि बालकृष्ण बरनवाल के कत्ल में उनकी क्या भूमिका थी।

अदालत के उस आदेश ने सुशांत अधिकारी और दयानंद दीक्षित पर बज्रपात जैसा असर किया। दोनों ये सोचकर तड़प रहे थे कि काश विश्वजीत को पहचान लिया होता, तो उसी वक्त समझ जाते कि वकील से मिलने के बाद उसने उनके साथ खेलना शुरू कर दिया था। क्योंकि उनसे बेहतर भला कौन जानता था कि अपने बाप का कत्ल विश्वजीत ने नहीं किया था। और वह कोई नशेड़ी भी नहीं था इसलिए नशे के लिए अमरजीत का कत्ल करने का भी कोई मतलब नहीं बनता था।

अगर भांप गये होते तो भले ही विश्वजीत को रिहा नहीं करते, मगर अपना लाईन ऑफ एक्शन जरूर बदल दिया होता, जो कि अब किसी भी हाल में मुमकिन नहीं रह गया था।

यानि दोनों की बुरी तरह लग चुकी थी।

“तुम्हारा अंदाजा तो कमाल का निकला - केबिन में दाखिल होते वंश वशिष्ठ को देखकर अनिल आर्या प्रशंसित लहजे में बोला - बधाई।”

“थैंक यू।”

“तुमने कहा कि उसके गुनाह कबूल करने में कोई भेद है, और आखिरकार निकल भी आया, वह भी ऐसा भेद जिसकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था।” पुनीत कश्यप बोला।

“अब तुम भी कुछ कह डालो गोल्डन गर्ल, खामोश क्यों हो?” वह मेघना पुरोहित की तरफ देखकर बोला।

“नहीं मुझे नहीं लगता कि इसमें तारीफ के काबिल कुछ है।”

“ऐसा?”

“और नहीं तो क्या, आप जैसा जर्नलिस्ट इतनी मामूली बातें भी न भांप सके तो क्या फायदा, ऊपर से आप हमारी टीम के इंचार्ज हैं, इसलिए हमसे दो कदम आगे होना तो बनता है न।”

“बस दो कदम?”

“इस मामले में तो उतना ही है।”

“बेइज्जती करने के लिए थैंक्स।”

“हम इस केस पर तो काम नहीं करने वाले वंश, है न?” आर्या ने पूछा।

“इस पर भी करेंगे।”

“मतलब?”

“इस बार हम दो हिस्सों में बंटने जा रहे हैं। पहली टीम में मैं अकेला, जबकि दूसरी में तुम तीनों। जरूरत इसलिए है क्योंकि डॉक्टर बालकृष्ण बरनवाल की स्टोरी अब मैं हरगिज भी नहीं छोड़ना चाहता, मगर उसमें वक्त लगता भी बराबर दिखाई दे रहा, जो कि हमारे पास नहीं है। इसलिए हम रिस्क नहीं ले सकते।”

“दूसरी स्टोरी दिखनी भी तो चाहिए।”

“अब दिख रही है, कोर्ट से लौटते वक्त इत्तेफाक से एक ऐसी स्टोरी नजर आ गयी, जो हमारे काम की हो सकती है। जिसमें वह तमाम एलिमेंट्स मौजूद हैं, जिनकी हमें तलब है, हमेशा होती है।”

“स्टोरी क्या है?”

जवाब में वंश ने लैपटॉप में गूगल क्रोम खोलकर एक सेव किया हुआ पेज ओपन कर दिया। वह राजस्थान का एक लोकल न्यूज पोर्टल था, लिखा था, ‘एक ऐसा कुआं जिसमें झांकने से हो जाती है मौत’।

बाकी तीनों वंश के इर्द गिर्द इकट्ठे हो गये।

खबर राजस्थान के नागौर जिले की थी। जिसके मुताबिक पिछले दो महीनों के भीतर शहर में हुईं पांच व्यापारियों की रहस्यमयी हत्याओं में जो कॉमन बात थी, वह ये थी कि मरने वाले पांचों लोगों ने अलग अलग, लेकिन ठीक अपनी मौत वाले दिन उस कुएं में झांककर अपनी परछाईं देखी थी। जिसके बाद घर लौटते वक्त उनका कत्ल कर दिया गया था। ये भी कि कुआं शापित है और उसके बारे में दशकों से ये अफवाह है कि जो कोई भी अपनी परछाईं उसमें देखता है, जिंदा नहीं बचता।

“बकवास।” मेघना मुंह बिचकाकर बोली।

“नो डाउट कि ये बकवास ही है, लेकिन राजस्थान में ऐसी भ्रांतियां कदम कदम पर मौजूद हैं। कहीं कोई शापित किला है, तो कहीं किसी नदी में नहाने से लोगों की कुछ दिनों में मौत हो जाती है। कुछ अच्छी बातें भी हैं, जैसे कि कोई मंदिर जहां के फेरे लगाने से बीमारियां दूर हो जाती हैं, या भूत प्रेत पीछा छोड़ देते हैं। इसलिए शापित कुएं का कोई रोल उनकी मौत में नहीं हो सकता। लेकिन ये खबर कोई आम खबर नहीं है, क्योंकि मरने वाले पांचों ही लोग शहर के नामी गिरामी व्यापारी थे। इसलिए जाहिर है किसी षड़यंत्र का ही शिकार बने होंगे। उनके साथ क्या हुआ, किसने किया, उसका पता तुम तीनों को लगाना है। जबकि डॉक्टर वाले मामले को मैं देखूंगा। दोनों में से जो केस पहले सॉल्व हो गया उसे हम अपने अगले शो में ले आयेंगे।”

“और दोनों हो गये तो?”

“तो हम ये देखेंगे कि क्या उनमें से कोई स्टोरी ऐसी है जिसे डिले करने से नुकसान न हो, मतलब उसका सच बाहर आ जाने का खतरा न हो। अगर वैसा कुछ हुआ तो हम उसे अगले शो के लिए सहेजकर रख लेंगे।”

“और खतरा हुआ तो?”

“तो इस बार पर्दाफाश में एक नहीं दो मामलों का खुलासा किया जायेगा। तब शो बेशक लंबा हो जायेगा, लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैंनेजमेंट को उस बात पर कोई ऐतराज होगा, क्योंकि उसी हिसाब से विज्ञापन भी तो ज्यादा हासिल होंगे।”

“हम लोगों ने हमेशा टीमवर्क किया है वंश।”

“अभी भी वह करने जा रहे हैं। नागौर कोई विदेश में नहीं है, जरूरत पड़ने पर हम दिल्ली और नागौर के बीच आना जाना बड़े आराम से कर सकते हैं। मतलब मुझे जरूरत दिखाई दी तो तुममें से किसी को या तीनों को दिल्ली बुला लूंगा, इसी तरह तुम्हें मेरी जरूरत दिखे तो नागौर आने को कह सकते हो।”

“पहली बार तुम्हारा कॉन्फिडेंस डगमगाते देख रहा हूं वंश - आर्या बोला - वरना किसी केस पर काम करना शुरू करते वक्त तुमने आज तक ये नहीं सोचा होगा कि कामयाबी मिलेगी या नहीं, और ये भी सच है कि हम हमेशा कामयाब ही रहे हैं।”

“कॉन्फिडेंस अभी भी पहले जैसा ही है, मगर डॉक्टर बरनवाल की मौत का मामला क्योंकि एक साल पुराना है, इसलिए उसमें वक्त ज्यादा लगने के आसार बन रहे हैं। इतने लंबे वक्फे में लोग बातें भूल जाया करते हैं। या भूल गया होने का बहाना कर देते हैं, जिसे चैलेंज नहीं किया जा सकता।”

“अगर ऐसा है तो हम सब राजस्थान वाली स्टोरी पर ही फोकस क्यों न करें?”

“क्योंकि डॉक्टर बरनवाल का मामला अब उससे कहीं ज्यादा सनसनीखेज हो उठा है, जितना उसके कत्ल के बाद दिखाई दे रहा था।  इसलिए क्योंकि कटघरे में इस बार पुलिस खड़ी है, और आंशिक रूप से ही सही विश्वजीत ने ये साबित कर दिखाया है कि उसके पिता के कत्ल में या तो पुलिस की मिली भगत थी, या फिर वे लोग जानबूझकर हत्यारे को नजरअंदाज कर गये थे। इस तरह से देखो तो मामले का पर्दाफाश देश भर को झकझोर कर रख देने वाला होना चाहिए।”

“जबकि मुझे लगता है कि केस में करने को कुछ बचा ही नहीं है। इंस्पेक्टर अधिकारी या सब इंस्पेक्टर दीक्षित, दोनों में से किसी एक की जुबान खुलवा लेना ही काफी होगा, जो कि उनका डिपार्टमेंट अब कर के रहेगा। मतलब सारे राज बाहर आ जायेंगे, हमारे शो से कहीं पहले बाहर आ जायेंगे।”

“नहीं, दोनों मरते मर जायेंगे लेकिन वैसा किया होने की हामी नहीं भरेंगे। वो क्या बेवकूफ हैं जो सच कबूल करने के नुकसान से नावाकिफ  होंगे? और नहीं होंगे तो अपनी हालत आ बैल मुझे मार वाली क्यों करने लगे? जबकि जुबान बंद रखकर साफ बच निकलेंगे, बड़ी हद कुछ दिनों के लिए सस्पेंड किये जा सकते हैं, लेकिन उनका जुर्म साबित तो नहीं ही हो पायेगा।”

“क्यों नहीं होगा?”

“क्योंकि मामला साल भर पुराना है, खोजे से भी कोई साक्ष्य हासिल नहीं होने वाला। पुलिस ने अगर असल अपराधी को बचाया था, तो जाहिर है हाथ के हाथ सबूतों को मिटा दिया गया होगा। रही बात विश्वजीत के वकील द्वारा अदालत में पेश की गयी ऑडियो रिकॉर्डिंग की, तो कोर्ट में बतौर एविडेंस उसकी कीमत दो कौड़ी की भी नहीं है।”

“जबकि उसी के बेस पर विश्वजीत को आजाद कर दिया गया?”

“नहीं, इसलिए कर दिया गया क्योंकि मजिस्ट्रेट को यकीन आ गया कि पूरे मामले में कोई न कोई गड़बड़ जरूर थी। ना कि उसे सच में कोई साक्ष्य मान लिया था। बावजूद इसके अगर पुलिस ने अपने दोनों अफसरों पर कोई चार्ज लगाया तो देख लेना उनका वकील अदालत में उस रिकॉर्डिंग की धज्जियां उड़ाकर रख देगा। इसलिए क्योंकि वह कोई कॉल रिकॉर्डिंग नहीं थी, जो अधिकारी या दीक्षित ने अपने मोबाईल से विश्वजीत को की हो। ऐसे में आवाज किसी और की होने के चांसेज पूरे पूरे बने हुए हैं।”

“मुझे तो नहीं लगता।”

“लगना भी नहीं चाहिए, क्योंकि रिकॉर्डिंग के गलत होने की कोई वजह दिखाई नहीं देती, मगर उनके वकील का सारा जोर इसी बात पर होगा कि वह किसी मिमकरी ऑर्टिस्ट का कारनामा था। नतीजा ये होगा कि दोनों का सस्पेंशन रद्द हो जायेगा।”

“अच्छा मान लो कि तुम ये साबित करने में कामयाब हो जाते हो कि दोनों पुलिसवालों ने हत्यारे का फेवर किया था, तो उसमें खास क्या है वंश? ऑडियंस तो न्यूज देखकर अब तक वैसे ही यकीन कर चुके होंगे कि दोनों पुलिसियों की डॉक्टर बरनवाल के हत्यारे के साथ सांठ गांठ थी। ऐसे में कोई सरप्राईज एलिमेंट कहां से परोस पाओगे?”

“परोसेंगे, क्योंकि ये मामला बहुत जटिल दिखाई दे रहा है। और मान लो कल को मेरी इंवेस्टिगेशन में ये सामने आ जाता है कि अधिकारी और दीक्षित की बरनवाल के कातिल के साथ कोई मिली भगत नहीं थी, बल्कि कत्ल किया ही उन दोनों ने था, तो क्या वह खबर आग लगाकर नहीं रख देगी।”

“पुलिस और कातिल?”

“जो पहली बार नहीं होगा।”

“ठीक है, हम राजस्थान जाते हैं और तुम दिल्ली में ऐश करो। इंचार्ज हो तो इतनी बात माननी ही पड़ेगी। नहीं होते तो मैं तुम्हें राजस्थान की सैर पर भेजता और हम तीनों डॉक्टर बरनवाल की हत्या की पहेली हल करने में जुट जाते।”

“मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है, हम केस बदल सकते हैं।”

“कोई जरूरत नहीं है - आर्या बोला - आज से राजस्थान हमारा और दिल्ली तुम्हारी।”

“कह तो यूं रहे हो जैसे यहां की सल्तनत मेरे हवाले कर के जा रहे हो।”

उस बात पर सबने जोर से ठहाका लगा दिया।

सुशांत अधिकारी और दयानंद दीक्षित थाना इंचार्ज के कमरे में पहुंचे। वहां डीसीपी अंशुमन गुप्ता और एसीपी नारायण सिंह के मौजूद होने की खबर उन्हें पहले से थी। ये भी जानते थे कि आगे उनसे किस तरह के सवाल किये जा सकते थे, इसलिए दोनों पूरी तरह तैयार होकर वहां पहुंचे थे। अलबत्ता अचानक बढ़ गयीं धड़कनों पर उनका कोई जोर नहीं चलने वाला था, जिसके कारण कुछ बौखलाये हुए से थे और वह बात उनकी सूरत पर साफ नुमायां हो रही थी।

कमरे में दाखिल होने के बाद दोनों ने अपने आला अफसरों को सेल्यूट किया फिर उनके इशारे पर अगल बगल की कुर्सियों पर बैठ गये। और बैठकर यूं उनकी तरफ देखने लगे जैसे किसी शरारती स्टूडेंट को मजबूरन प्रिंसपल के सामने पेश होना पड़ा हो।

“खुशी तो बहुत महसूस हो रही होगी, है न?” डीसीपी बोला।

“मैं समझा नहीं सर।”

“पुलिस डिपार्टमेंट की नाक कटाकर।” जवाब एसीपी ने दिया।

“इतने घटिया किस्म के ऑफिसर मैंने ताजिंदगी नहीं देखे होंगे - डीसीपी उन्हें घूरता हुआ बोला - कभी सोचा तक नहीं होगा कि अधिकारी या दीक्षित इस तरह की हरकत कर सकते हैं।”

“सॉरी सर, लेकिन...”

“कोई लेकिन-वेकिन, किंतु परन्तु नहीं चलेगा। आप दोनों पर लगाये गये आरोप बहुत संगीन हैं, जिन्हें हम नजरअंदाज नहीं कर सकते, करेंगे तो आप दोनों के किये धरे का परिणाम आपके साथ-साथ इस थाने के पूरे स्टॉफ को भुगतना पड़ जायेगा, जबकि गलती सिर्फ आप लोगों की है।”

“आरोप झूठे हैं सर।”

“सच क्यों नहीं हो सकते? आखिर साल भर पहले डॉक्टर बरनवाल के कत्ल की इंवेस्टिगेशन आप लोगों ने ही की थी। इसलिए जाहिर है उसके बेटे और बीवी से भी जरूर मिले होंगे। और सौ बातों की एक बात ये कि वे लोग झूठी रिकॉर्डिंग अदालत में क्यों पेश करेंगे? आपसे क्या उनकी कोई दुश्मनी है? अगर है तो बयान कीजिए।”

“नहीं दुश्मनी नहीं है सर लेकिन एक बार उसके किये धरे पर गौर कर के देखेंगे तो फिर हम आपको खुद ब खुद बेकसूर दिखाई देने लगेंगे, वह कमीना....”

“माईंड योर लैंग्वेज।”

“सॉरी सर - अधिकारी हड़बड़ाया - साफ जाहिर हो रहा है कि उसने जो कुछ भी किया वह प्लॉन कर के किया था, जिसमें उसके साथ-साथ उसका वकील रमन राय भी शामिल था। जो लड़का पहले कुछ बताकर राजी नहीं था, वकील से मिलने के बाद ऐसी ऐसी बातें कबूल कर गया, जिनके बारे में हमने पूछा तक नहीं था। जैसे डॉक्टर बरनवाल की हत्या, या पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के करीब किये गये एक से ज्यादा कत्ल। हमें उसकी बात पर थोड़ा शक तो हो रहा था सर, मगर उसकी चतुराई नहीं भांप पाये। हां एक बार नये सिरे से ऑन रिकॉर्ड उसका बयान जरूर ले लिया, जिसमें उसने तमाम बातें यूं दोहरा दीं कि उसपर रहा सहा हमारा शक भी दूर हो गया। यानि उसके कातिल होने की गारंटी हो गयी हमें। लेकिन अब यही लग रहा है कि बाकी के अपराध उसने जानबूझकर कबूल किये थे, प्लॉन कर के किये थे, ताकि उनके अगेंस्ट में अमरजीत की हत्या के आरोप से भी साफ बच निकलता, जो कि वह निकल ही गया।”

“इतनी बड़ी नौटंकी तो हमने अपने करियर में पहले कभी नहीं देखी सर - दीक्षित बोला - लोग बाग पुलिस से बचकर निकल जाना चाहते हैं। अपराध किया होने के बावजूद बार-बार इस बात की रट लगाते रहते हैं कि निर्दोष हैं, जबकि उसने तो निमंत्रण दिया था कि हम उसे बड़ा अपराधी साबित कर दिखायें। ऐसा लड़का कोई झूठी रिकॉर्डिंग क्यों नहीं तैयार कर सकता?”

“आपको अभी भी लगता है कि अमरजीत की हत्या उसी ने की थी?”

“बिल्कुल की थी सर।”

“क्यों? नशे के लिए पर्स छीनने वाली कहानी तो झूठी साबित हो चुकी है क्योंकि वह नशा नहीं करता। मैं इस बात पर भी हैरान हूं कि तुम लोगों ने उसकी कोई मेडिकल जांच कराने की कोशिश क्यों नहीं की?”

“क्योंकि फौरन वैसा करने की कोई जरूरत नहीं दिखाई दे रही थी सर। हमने सोचा रिमांड पर लेने के बाद उसका टेस्ट करा देंगे, और जब वह खुद कबूल कर रहा था कि स्मैक खरीदने की खातिर उसने अमरजीत की हत्या कर दी थी तो हम भला उसपर शक क्यों करते? रही बात हत्या के असली मोटिव की सर तो आप अगर मौका देंगे तो हम जरूर खोज निकालेंगे।”

“नहीं वैसा मौका आप दोनों को नहीं दिया जा सकता। ना ही मुझे उसके वकील द्वारा अदालत में पेश की गयी रिकॉर्डिंग पर कोई शक है। इसलिए नहीं है क्योंकि उस रिकॉर्डिंग के बूते पर उसका कोई भला नहीं होने वाला, महज उसके चलते आप दोनों को कोई सजा नहीं हो जानी थी, इसलिए उसने जो कहा उसपर यकीन करने को हम मजबूर हैं।”

“झूठ बोल रहा है वह?”

“चलिए वही सही, अब कबूल कीजिए कि उसे गिरफ्तार करते वक्त आप जानते थे कि वह डॉक्टर बरनवाल का बेटा है, बल्कि गिरफ्तार किया ही इसी वजह से क्योंकि वह उसका बेटा था जो आपका हुक्म मानकर पटना में बैठे रहने की बजाये किसी वजह से दिल्ली आ गया। वह बात आपको अपनी शान के खिलाफ लगी, नाफरमानी लगी, इसलिए उसे कत्ल के झमेले में लपेट दिया।”

“ऐसा नहीं है सर, और वह बात मैं अभी के अभी साबित कर सकता हूं।”

“अच्छा! कीजिए।”

“अगर हमें मालूम होता सर कि वह डॉक्टर बरनवाल का बेटा है तो उसे अमरजीत की हत्या के आरोप से मुक्त भले ही न करते, लेकिन डॉक्टर के कत्ल का चार्ज तो हरगिज भी नहीं लगाया होता, क्योंकि हम अच्छी तरह से जानते हैं कि डॉक्टर के कत्ल के वक्त वह दिल्ली में नहीं था।”

“हमारा यकीन कीजिए सर - दीक्षित बोला - वह सिर्फ और सिर्फ झूठ ही बोल रहा है, और इसलिए बोल रहा है क्योंकि अमरजीत की हत्या के इल्जाम से बचना चाहता है।”

“आप दोनों ने पहचाना क्यों नहीं उसे?”

“क्योंकि बाल और दाढ़ी दोनों बढ़ा ली है, ऊपर से बहुत छोटी सी एक मुलाकात हुई थी उससे डॉक्टर के कत्ल के बाद। ऐसे में पहचान न पाना क्या बड़ी बात थी।”

“उसकी आईडी जला दी।”

“नो नैवर।”

“इंटेरोगेशन के दौरान उसे शराब पिलाई।”

“हां वह गुनाह मैंने जरूर किया था सर, लेकिन व्हिस्की नहीं बस एक बीयर पिलाई थी, आप चाहें तो कांस्टेबल अमरेंद्र से पूछ सकते हैं। वह भी इसलिए पिला दी क्योंकि उसने कहा था कि बीयर पीने के बाद सारी सच्चाई बयान कर देगा। मतलब वह पहले से ही हमारे खिलाफ कुचक्र रचे बैठा था, जिसमें अफसोस कि हम दोनों फंसते चले गये।”

“उसके कपड़े उतार कर नंगा कर दिया था।”

“सिर्फ टीशर्ट उतारी थी सर, नंगा करने जैसी कोई बात नहीं थी।”

“पिटाई भी की थी।”

“बहुत मामूली सर, किसी गिनती में न आने लायक।”

“एनी वे, जो भी रहा हो मगर ये सच है कि आप दोनों ने मां बेटे को दिल्ली से बाहर खदेड़ दिया था, इस धमकी के साथ कि दोबारा दिल्ली में कदम रखेंगे तो उनका भी हश्र डॉक्टर बरनवाल जैसा होकर रहेगा। वह इकलौती बात ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि आपको डॉक्टर बरनवाल के हत्यारे की खबर है। कैसे है अधिकारी साहब, और है तो अभी तक उसे हिरासत में क्यों नहीं लिया?”

“ये झूठ है सर, वह रिकॉर्डिंग भी झूठी है।”

“मुझे तो एकदम सच जान पड़ती है।”

इस बार अधिकारी चुप रह गया, जानता था अपने अफसर के साथ वह जितनी बहस करेगा मामला उतना ही उन दोनों के खिलाफ होता चला जायेगा, क्योंकि इस वक्त उनकी सुनने के मूड में तो वहां कोई नहीं दिखाई दे रहा था।

“अब हमारे सामने दो रास्ते हैं - कुछ देर की चुप्पी के बाद डीसीपी बोला - पहला ये है कि आप दोनों को अभी के अभी सस्पेंड कर दिया जाये....

दोनों के चेहरे लटक गये।

....और दूसरा ये कि पुलिस डिपार्टमेंट की नाक कटने से बचाने के लिए हम आपका साथ दें, और किसी तरह ये साबित कर दिखायें कि रिकॉर्डिंग झूठी थी, यानि आप लोगों ने विश्वजीत और उसकी मां को कोई धमकी नहीं दी थी।”

सुनकर दोनों ने हैरानी से अपने अफसर की तरफ देखा, क्योंकि इतना तो फौरन समझ गये कि उस बात में कोई गहरा राज दफ्न था, जो बस सामने आने ही वाला था।

“हम आपका साथ देने के लिए तैयार हैं, बशर्ते कि आप ये बता दें कि साल भर पहले डॉक्टर बरनवाल की हत्या किसने की थी। कातिल गिरफ्तार हो जायेगा, तो जाहिर है दोनों मां बेटे के मन को शांति मिल जायेगी। उसके बाद हम उसे अदालत में ये कहने के लिए तैयार कर सकते हैं कि रिकॉर्डिंग झूठी थी, जिसका इस्तेमाल उसने इसलिए किया ताकि पुलिस दबाव में आकर जल्द से जल्द उसके पिता के हत्यारे को खोज निकाले। बस यही एक रास्ता है जिसके जरिये आप दोनों सस्पेंड होने से बच सकते हैं, जेल जाने से भी।”

“जो भी फैसला लेना है सोच समझ कर लेना - एसीपी नारायण सिंह बोला - क्योंकि इस बात में कोई दो राय नहीं कि तुम दोनों का भविष्य उस फैसले पर ही टिका हुआ है। हां इतना वादा करते हैं हम कि कातिल का नाम तुम्हारे मुंह से सुनने के बाद उस बारे में कोई दूसरा सवाल नहीं किया जायेगा। मतलब हम ये जानने की भी कोशिश नहीं करेंगे कि तुम दोनों ने उसका फेवर क्यों किया, या उसे बचाने में कैसे कामयाब हो गये।”

एसीपी चारा डाल रहा था, मछली फांसने की कोशिश कर रहा था। इस बात को भूलकर कि उस मामले में अधिकारी और दीक्षित उसके बाप थे। मतलब जो खेल वह खेलने की कोशिश कर रहा था, उसमें दोनों को महारत हासिल थी।

“आपका ऑफर बहुत अच्छा है सर - अधिकारी बड़े ही गंभीर लहजे में बोला - थैंक्यू कि आप दोनों ने हमारे बारे में इतना सोचा, लेकिन सच यही है सर कि हम नहीं जानते बरनवाल की हत्या किसने की थी, जानते होते तो साल भर हत्यारे की तलाश में मारे मारे नहीं फिरे होते। और वह कोई दिखावा नहीं था सर, हम इंवेस्टिगेशन ही कर रहे थे। अफसोस कि कातिल तक पहुंचने में कामयाब नहीं हो पाये। आप हमारा अब तक सर्विस रिकॉर्ड देखेंगे सर तो यही पता लगेगा कि हमने कभी कोई गलत काम नहीं किया। यहां तक कि इंटेरोगेशन के दौरान भी हमारी पहली कोशिश अपराधी को मानसिक तौर पर तोड़ने की होती है ना कि डंडा परेड कर के जबरन उसका जुर्म कबूल करवाते हैं। बावजूद इसके एक डॉक्टर बरनवाल के मामले को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा केस नहीं है जिसमें हमें हार का मुंह देखना पड़ा हो, जबकि अब तक पचासों मामले सॉल्व कर चुके हैं।”

“मैं उन सभी बातों का ख्याल कर के ही कह रहा हूं। मगर उनका हवाला देना बेकार है। इंसान के सौ अच्छे कर्मों पर उसका एक गुनाह भारी पड़ जाता है, जो कि इस वक्त आप दोनों पर पड़ता दिखाई दे रहा है। ऐसे में आप दोनों को सस्पेंड ना करने की वजह चाहिए मुझे, जो सिर्फ और सिर्फ यही है कि आप हमें बरनवाल के कातिल का नाम बता दें।”

“सॉरी सर मुझे नहीं पता।”

“दीक्षित जी, आपका जवाब क्या है?”

“वही जो अधिकारी सर का है। मैं नहीं जानता कि बरनवाल की हत्या किसने की थी, जबकि अपनी तरफ से कोई कोशिश उठा नहीं रखी। आपको फिर भी लगता है कि हम जानबूझकर हत्यारे को बचाने की कोशिश कर रहे हैं तो बेशक हमारी जांच पड़ताल करा लीजिए। किसी से मोटी रिश्वत लेनी हो सर, या उसे जेल जाने से बचाना हो तो एक ऑफिसर को दसियों बार उससे मुलाकात करनी पड़ती है, कदम कदम पर उसे कोच करना पड़ता है। जबकि आप पता करेंगे तो मालूम पड़ेगा कि पूरी इंवेस्टिगेशन के दौरान एक बार भी ऐसा नहीं हुआ होगा, जब हम अकेले किसी से मिलने गये हों, या किसी से बार बार मिले हों, फिर हत्यारे का फेवर क्यों कर दिखाया हमने? वह काम क्या फोन पर होने वाला था?”

“यानि नौकरी का कोई मोह नहीं है आप दोनों को?”

“है क्यों नहीं सर, आखिर इसी के जरिये हमारा परिवार पलता है। नौकरी चली गयी तो हम सड़क पर आ जायेंगे। मगर जो बात हमें नहीं मालूम वह आपको कैसे बता सकते हैं।”

“ये आप दोनों का आखिरी फैसला है?”

“हमारे पास बताने को कुछ नहीं है सर।”

“ठीक है जब आप की यही मर्जी है तो ऐसा ही सही - डीसीपी का लहजा सख्त हो गया - अभी और इसी वक्त आपको सस्पेंड किया जाता है, आगे आप दोनों के खिलाफ ऑफिशियल इंक्वायरी पूरी होने तक सस्पेंड ही रहेंगे। बेकसूर हुए तो नौकरी वापिस मिल जायेगी, कसूरवार हुए तो सिर्फ नौकरी ही नहीं जायेगी, जेल का मुंह भी देखना पड़ेगा।”

सुनकर दोनों के चेहरे लटक गये।

“अपनी बेल्ट, कैप और सर्विस रिवाल्वर यहां छोड़कर जाईये, और आगे जांच के लिए हर वक्त अवेलेबल रहना है आप दोनों को। जब भी जहां भी बुलाया जायेगा जाना पड़ेगा, नहीं पहुंचे तो फौरन गिरफ्तार कर लिये जायेंगे, समझ गये?”

“यस सर।”

“अब ऑर्डर फॉलो कीजिए और अपने कमरे में बैठकर फरदर इंस्ट्रक्शन का इंतजार कीजिए। मतलब अभी आप दोनों ने थाने में ही मौजूद रहना है, समझ गये?”

“यस सर।”

तत्पश्चात भारी बेइज्जती का अनुभव करते हुए दोनों ने डीसीपी के आदेश का पालन किया और मन ही मन उसकी मौत की कामना करते हुए वहां से निकल गये।

“मुझे तो बेकसूर ही जान पड़ते हैं सर।” एसीपी नारायण सिंह बोला।

“नहीं बेकसूर नहीं हैं, वरना मैं सस्पेंड नहीं करता। रिकॉर्डिंग में दोनों की आवाज तो सेम है ही, अंदाजेबयां भी सेम है, जिसकी मिमकरी तब तक पॉसिबल नहीं है, जब तक कि आर्टिस्ट ने दोनों की बोलचाल का गहराई से अध्ययन न किया हो। फिर वह लड़का ऐसी कोई झूठी रिकॉर्डिंग क्यों तैयार करायेगा, क्या हासिल होना है उसे किसी पुलिस ऑफिसर पर इल्जाम लगाकर?”

“दिखाई तो नहीं देता सर।”

“तो फिर मान लीजिए कि दोनों मिलकर डॉक्टर बरनवाल के कातिल को बचाने में ही जुटे हुए थे, वरना केस कब का सुलझा लिया होता, क्योंकि इस बात में कोई शक नहीं है कि आज तक किसी मामले में डिपार्टमेंट को निराश नहीं किया था। विश्वजीत और उसकी मां को दिल्ली से भगा भी इसीलिए दिया ताकि यहां रहकर दोनों कोई हो हल्ला न मचा पायें।”

“अगर भगा दिया था तो वापिस क्यों लौट आये?”

“क्योंकि मुल्क किसी अधिकारी या दीक्षित के बाप की बपौती नहीं है। फिर उनके दिल्ली आने की कोई जायज वजह रही हो सकती है। ये सोचकर भी चले आये हो सकते थे कि उस धमकी को पूरा एक साल गुजर चुका था, इसलिए अब उसे फॉलो करना जरूरी नहीं था।”

“तो क्यों न उस बात की जांच ही करा ली जाये, मतलब उनके दिल्ली आने की कोई जेनुईन वजह है या नहीं। अगर है तो ठीक वरना हम विश्वजीत को इंटेरोगेट कर के सच का पता लगाने की कोशिश कर सकते हैं।”

“सस्पेंड ही तो किया है नारायण जी, नौकरी से निकाल बाहर थोड़े ही किये गये हैं। जांच पूरी होने दीजिए फिर वापिस बहाल कर देंगे, अगर निर्दोष निकल आये तो, वरना पक्का जेल ही जायेंगे।”

“कोई ऑफिसर सोचा है आपने?”

“हां सोचा है।”

“कौन?”

“आ गयी, खुद देख लो।”

उसी वक्त इंस्पेक्टर गरिमा देशपांडे इजाजत लेकर कमरे में दाखिल हुई और दोनों अफसरों को सेल्यूट करने के बाद तनकर खड़ी होती हुई बोली, “आपने बुलाया सर।”

“क्यों कोई गलती कर दी?”

“सॉरी सर, मेरा मतलब वजह की तरफ था।”

“बैठो।”

“थैंक्यू सर।”

“मैं दो काम तुम्हें सौंप रहा हूं, दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन लाईन ऑफ एक्शन अलग-अलग निर्धारित करना पड़ेगा। क्योंकि एक में अपराधी का पता लगाना है और दूसरे में अपराधियों को अपराधी साबित कर के दिखाना है।”

“डॉक्टर बालकृष्ण बरनवाल?”

“तुम जानती हो उसके बारे में?”

“नो सर, लेकिन आज की तारीख में तो वही एक मामला है जो सबके लिए हॉट केक बना हुआ है। और अगर आप मुझे उसके कत्ल का केस सौंप रहे हैं तो जाहिर है दूसरा काम अपने ही डिपार्टमेंट के दो अधिकारियों की उस केस में इंवॉल्वमेंट के बारे में पता लगाने का होगा, है न?”

“एकदम सही समझीं, पहले मैंने सोचा था इस थाने के ही किसी ऑफिसर को मामले की जांच सौंप दूं, लेकिन उससे जांच प्रभावित होने का खतरा है, जबकि मैं नहीं चाहता कि मीडिया को कहानियां गढ़ने का मौका मिले।”

“विद सॉरी पूछ रही हूं सर कि किसी पुलिस ऑफिसर की ऑफिशियल इंक्वायरी उसी की रैंक वाली दूसरी ऑफिसर को क्यों सौंपी जा रही है। जबकि अमूमन इसे आप जैसे आला अफसर हैंडल किया करते हैं?”

“मामला साल भर पुराना है गरिमा, मतलब वक्त भी उसी हिसाब से देना पड़ेगा केस को, और उतना वक्त मेरे या नारायण सिंह के पास नहीं है। इसलिए जांच तुम करोगी, फैसला हम लेंगे। उनके खिलाफ कुछ खोज निकालो तो उसकी खबर हमें करना, फिर हम तय करेंगे कि आगे क्या करना है।”

“उन दोनों से दूरी बनाकर इंवेस्टिगेशन करनी है?”

“नहीं, क्योंकि उससे कुछ हासिल नहीं होगा। इसलिए तुम जब चाहो उन्हें बुलाकर सवाल जवाब कर सकती हो। उन्हें चेतावनी दी जा चुकी है कि फरदर जांच में पूरा पूरा को-ऑपरेट करें। बल्कि एक चेतावनी तुम्हारे लिये भी है।”

“क्या सर?”

“उन्हें मुजरिमों की तरह ट्रीट नहीं करना है गरिमा।”

“मैं कर भी कैसे सकती हूं सर?”

“गुड अब तुम फौरन काम पर लग जाओ, दोनों इस वक्त थाने में अवेलेबल हैं, चाहो तो पूछताछ कर सकती हो, हेडक्वार्टर ले जाकर करना चाहती हो तो उसकी भी पूरी पूरी आजादी है।”

“थैंक यू सर।” कहती हुई वह उठ खड़ी हुई।

आकाश अग्निहोत्री वह क्राईम रिपोर्टर था जिसने डीसीपी की प्रेस कॉन्फ्रेंस अटैंड की थी। वंश के बुलावे पर दो बजे के करीब वह उसके केबिन में पहुंचा। तब तक अनिल आर्या, पुनीत कश्यप और मेघना पुरोहित नागौर के लिए रवाना हो चुके थे।

“कैसा है वीर बालक?”

“ठीक हूं सर।”

“बैठो।”

“थैंक यू सर।”

“कल वसंतकुंज वाली कॉन्फ्रेंस तुमने अटैंड की थी।”

“बता रहे हैं या पूछ रहे हैं?”

“बता रहा हूं।”

“हां की थी, वैसे आप जाना चाहते थे तो कह देते, मैं क्या जबरन चला जाता वहां?”

“चिल कर बालक, उखड़कर क्यों दिखा रहा है?”

“मैं बालक नहीं हूं।”

“ओके, तो अंकल जी बात ये है कि आप खामख्वाह भड़क रहे हैं। अगर ऐसा इसलिए है कि मैंने आपको फोन कर के अपने केबिन में बुला लिया है, तो आप जा सकते हैं, क्योंकि मुझे आपके केबिन में आने से कोई तकलीफ नहीं होगी।”

“बात वो नहीं है सर।”

“फिर क्या बात है?”

“रहने दीजिए आपको बुरा लग जायेगा।”

“नहीं लगेगा, बोलो।”

“पर्दाफाश की टीम खुद को यूं पेश करती है जैसे हमारे चैनल में बस आप लोग ही अक्ल रखते हैं, बाकी साब गावदी हैं। जबकि सच यही है कि हमारी जितनी मेहनत तो क्या करते होंगे। हमें गली गली दौड़ना पड़ता है, घटनाओं पर निगाह रखनी होती है, खबरी को अलर्ट करते रहना होता है। बावजूद इसके हमें यहां कोई भाव नहीं दिया जाता। और आप चारों को यूं सिर पर बैठाकर रखा जाता है जैसे आसमान से धरती पर उतरे फरिश्ते हों, जैसे भारत न्यूज का पूरा का पूरा दारोमदार आप लोगों के कंधों पर ही टिका हो।”

“तुम जर्नलिस्ट हो आकाश, भाव की नहीं न्यूज की तलब होनी चाहिए तुम्हें। मुझे इस बात पर भी कोई शक नहीं है कि तुम्हारा काम ज्यादा मेहनत वाला है। और तुम्हें वह डिटेल्स में मुझे समझाने की भी कोई जरूरत नहीं है क्योंकि कुछ सालों पहले तक मैं भी तुम्हारी तरह माईक हाथ में लेकर दौड़ा करता था, जबकि फुटवर्क तो आज भी करना ही होता है। यहां बैठे बैठे स्टोरी थोड़े ही हासिल हो जाती है।”

“छोड़िये सर मैं बहस नहीं करना चाहता।”

“ऐसे तो तुम - वंश उसकी बात को नजरअंदाज कर के बोला - एडिटर साहब के बारे में भी कह सकते हो कि वह दिन भर यहां कुर्सी पर बैठे सबके कामों में मीन मेख निकालते रहते हैं, फील्ड में उतरें तब पता लगे कि काम कैसे होता है। लेकिन ऐसा नहीं है मेरे भाई, यहां हर कोई बस अपना काम कर रहा है। सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, टीम वर्क है ये। कार कितनी भी महंगी या शानदार क्यों न हो, क्या पहियों के बिना आगे बढ़ सकती है? नहीं बढ़ सकती, इसी तरह तुम न्यूज कवर न करो तो वर्क स्टेशन पर बैठा एंकर क्या पेश करेगा ऑडियन्स के सामने, एडिटर साहब किस बात में काट छांट करेंगे? मॉर्केटिंग के लोग किस बेस पर विज्ञापन हासिल करेंगे? इसलिए बात को यूं समझो कि तुम उस सीढ़ी के पहले पायदान हो जिसपर कदम रखे बिना कोई ऊपर नहीं पहुंच सकता - कहकर उसने पूछा - समझ गये?”

“जी हां समझ गया।”

“गुड तो अब जा सकते हो?”

“आपने मुझे समझाने के लिए बुलाया था?”

“नहीं, लेकिन जिस लिए बुलाया था उसकी जरूरत अब खत्म हो गयी है, इसलिए तशरीफ ले जा सकते हो।”

“आप बुरा मान रहे हैं।”

“नहीं, हरगिज भी नहीं, अब जाओ।”

सुनकर वह बेमन से उठा और वहां से बाहर निकल गया।

आकाश के पीठ पीछे वंश ने एक सिगरेट सुलगाया और छोटे छोटे कश लगाता हुआ पूरे मामले पर गहराई से विचार करने लगा। फिर थोड़ी देर बाद उठकर पत्रकारों के केबिन में पहुंचा, जहां आकाश अग्निहोत्री भी मौजूद था।

“सब लोग मेरी तरफ से हैलो टिका लें।”

“हैलो सर।”

“कैसा चल रहा है?”

“एकदम बढ़िया सर।”

“गुड।” कहता हुआ वह अग्निहोत्री के सामने एक कुर्सी पर बैठ गया।

“ज्यादा बिजी तो नहीं हो?”

“न...नहीं।” वह एकदम से हड़बड़ा उठा।

“बात कर सकते हैं?”

“कर सकते हैं।”

“थैंक यू - यह वंश का किसी को शर्मिंदा करने का अपना स्टाईल था, जो हमेशा कामयाब रहता था - कल की कॉन्फ्रेंस में उसके अलावा भी कोई बात सामने आई थी, जितना मैं तुम्हारी रिर्पोटिंग में देख चुका हूं?”

“जी नहीं।”

“विश्वजीत का कोई पता ठिकाना है तुम्हारे पास?”

“जी है।”

“और अमरजीत का?”

“वह भी है।”

“मुझे बताओ प्लीज।”

जवाब में उसने दोनों के एड्रेस नोट करा दिये।

“पूरे मामले में और कुछ जो टीवी पर न आया हो?”

“कॉन्फ्रेंस के बाद मैंने दोनों जगहों का फेरा लगाया था सर।”

“वेरी गुड, कहां गये, और क्या जाना?”

“संगम विहार में विश्वजीत की एक मौसी रहती है, जहां एक महीने पहले वह अपनी मां के साथ ठहरा था, फिर मौसी से रिक्वेस्ट कर के बगल की बिल्डिंग में किराये पर एक कमरा ले लिया। मौसी कहती है कि वह नौकरी की तलाश में दिल्ली आया है, और उस बात पर हैरान भी होती है।”

“क्यों?”

“क्योंकि पैसे रूपयों की कोई दिक्कत नहीं है दोनों को, गांव में जमीनें भी खूब हैं, ऐसे में विश्वजीत का दिल्ली में नौकरी तलाशना उसे बहुत अजीब लग रहा है।”

“भई बी.टेक. है वो, और जब पढ़ाई की है तो नौकरी भी बराबर करना चाहेगा, इसमें हैरान होने लायक क्या बात है?”

“पटना में भी तो कर सकता था सर?”

“ठीक कहा, और कुछ?”

“उसी तरह मैंने अमरजीत के पास-पड़ोस में भी बात की, फिर एक शख्स ये बताने वाला भी निकल आया कि डॉक्टर बरनवाल और अमरजीत में गहरी दोस्ती थी, दोनों का एक दूसरे के यहां आना जाना भी खूब हुआ करता था।”

“मियां बीवी में बनती कैसी थी?”

“बहुत अच्छी, माचिस और मोमबत्ती जैसी कोई छोटी चीज खरीदने भी जाना हो तो दोनों एक साथ दुकान पर जाते थे। मगर बेऔलाद थे, जबकि शादी को दसियों साल गुजर चुके हैं।”

“किसी ने विश्वजीत को वहां आते जाते नहीं देखा कभी?”

“नहीं, उस मामले में हर किसी ने यही कहा कि डॉक्टर बरनवाल के अलावा कोई उनके घर नहीं आता था, रिश्तेदार तक नहीं।”

“बरनवाल के बारे में कोई जानकारी?”

“नई जानकारी कोई नहीं है, लेकिन जब फिर से उसका नाम सामने आया तो मैंने पिछली जानकारियों का - जो उसके कत्ल के वक्त हासिल हुई थीं - गहराई से अध्ययन किया, उसमें दो खास बातों की तरफ मेरा ध्यान गया।”

“कौन सी बातें?”

“पहली जो जग विदित है। डॉक्टर बरनवाल का धंधा जोरों पर था, पैसा तो जैसे बरस रहा था उसके पास। मगर दूसरी जानकारी हैरान कर देने वाली है।”

“क्या?”

“उसने अपनी बीवी और इकलौते बेटे को कभी दिल्ली में अपने साथ रखने की कोशिश नहीं की। अभी की जांच पड़ताल में भी यही सामने आया है कि किसी ने भी बरनवाल के परिवार को उसके साथ रहते नहीं देखा था।”

“कोई वजह सूझती है?”

“बबिता बरनवाल एकदम घरेलू महिला है, पढ़ी लिखी भी ज्यादा नहीं जान पड़ती, शायद इसीलिए डॉक्टर उसे अपने साथ नहीं रखता था। क्योंकि उसके नाम का शुमार हाई सोसाईटी के लोगों में होता था, जिसमें बबिता को खपा पाना मुश्किल था।”

“बेटे को साथ क्यों नहीं रखा?”

“क्या पता क्यों नहीं रखा, हो सकता है बेटा मां से दूर रहने को तैयार न होता हो।”

“हो सकता है - वंश उठ खड़ा हुआ - थैंक यू।”

“वेल्कम सर।”

“एक आखिरी बात और।”

“क्या सर?”

“जलन की भावना इंसान के लिए सिर्फ और सिर्फ पतन के दरवाजे ही खोलती है अग्निहोत्री साहब, मेरी इस बात को याद रखेंगे तो तरक्की करेंगे।” कहकर वह केबिन से बाहर निकल गया।

वसंत कुंज थाने पहुंचकर वंश वशिष्ठ ने इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी के बारे में जानकारी हासिल की तो पता लगा वह और दीक्षित दोनों पुलिस हेडक्वार्टर गये थे। ये भी मालूम पड़ गया कि थाने से दोनों को इंस्पेक्टर गरिमा देशपांडे अपने साथ लेकर गयी थी। तत्पश्चात वह एसएचओ से मिला और उससे बड़ी मिन्नतें करने के बाद रिकॉर्ड रूम के कंप्यूटर से डॉक्टर बरनवाल की फाईल का प्रिंट आउट निकलवाने में कामयाब हो पाया।

तत्पश्चात थाने के बाहर खड़ी अपनी कार में बैठकर हासिल कागजातों का अध्ययन किया तो सबसे पहले जिस नाम में उसकी दिलचस्पी जगी वह थी डॉक्टर बरनवाल की नर्स कविता कुमावत।

एड्रेस मुनिरका का था, जहां पहुंचकर उसकी मुलाकात कविता की मां से हुई, जिसने बताया कि उसकी शादी हो गयी थी, इसलिए अब अपने पति के साथ उसी इलाके में लेकिन दूसरे फ्लैट में रहती थी। ये भी कि उस वक्त वह जॉब पर होगी इसलिए फ्लैट पर नहीं मिलने वाली। फिर उसने कविता का मोबाईल नंबर मांगा, जो कई बार गिड़गिड़ाने के बावजूद तब हासिल हुआ जब मां ने बेटी से पूछ लिया कि नंबर देना था या नहीं। उसके बाद वह अपनी कार में जा बैठा, बैठकर कविता को फोन लगाया जो दूसरी तरफ से तुरंत अटैंड कर लिया गया।

“हैलो, कविता जी?”

“बोल रही हूं, आप कौन?”

“वंश वशिष्ठ, भारत न्यूज से।”

“वंश साहब, पर्दाफाश वाले वंश साहब?”

“शुक्र है आप मेरा शो देखती हैं।”

“नहीं देखती, मुझे वैसी स्टोरीज जरा भी पसंद नहीं है।”

“ओह, सुनकर बहुत बुरा लगा।”

“अरे मजाक कर रही हूं।”

“थैंक यू।”

“बताईये क्या चाहते हैं?”

“आपके साथ एक कप कॉफी पीना, अगर आपको बुरा न लगे तो।”

“आजकल बुरा नहीं लगेगा। मेरा हस्बैंड दिल्ली से बाहर है, इसलिए उसकी गैरहाजिरी का इतना फायदा तो उठा ही सकती हूं। वह होता तो मजबूरन ही सही आपको ना कहना पड़ जाता।”

“फिर तो अच्छा ही हुआ जो सर दिल्ली में नहीं हैं।”

सुनकर वह हौले से हंसी, फिर पूछा, “कहां मिलना पसंद करेंगे वंश साहब?”

“जहां आप कहें।”

“मैं होली फेमिली में जॉब करती हूं, चार बजे छुट्टी हो जायेगी। उसके बाद यहां के कैफेटेरिया में बैठकर एक कप कॉफी के साथ सेंडविच खा सकती हूं। कॉफी आप ऑफर कर रहे हैं, इसलिए सैंडविच के पैसे मैं दूंगी, मगर सिर्फ अपने हिस्से के।”

“मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है, चार बजे मिलते हैं।”

“ठीक है।” कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।

वंश ने घड़ी देखी तो पाया कि साढ़े तीन तो बज भी चुके थे, इसलिए उसने सीधा होली फेमिली की तरफ ड्राईव करना शुरू कर दिया। आगे चार बजे से बस थोड़ा पहले वहां पहुंचकर गाड़ी पार्क की तो ये जानकर हैरान रह गया कि हॉस्पिटल में पॉर्किंग फ्री थी।

उसने गार्ड से कैफेटेरिया के बारे में दरयाफ्त किया फिर भीतर पहुंचकर इधर-उधर बैठे लोगों पर निगाह दौड़ाई तो पाया कि वहां जवान महिला कोई नहीं थी।

मतलब कविता अभी नहीं पहुंची थी।

चार बजकर पांच मिनट पर एक खूबसूरत युवती वहां पहुंची और चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगी, फिर वंश पर नजर पड़ते ही उसके सामने आकर बैठ गयी।

“कविता जी?”

“मैं ही हूं।”

“ऑर्डर करें?”

“यहां सेल्फ सर्विस है।”

“ओके तो मैं लेकर आता हूं।” कहकर वह काउंटर पर पहुंचा और वहां से दो कॉफी और सेंडविच लेकर वापिस पहले वाली जगह पर आ बैठा।

“थैंक यू।” सैंडविच उठाती हुई वह बोली।

“आपका भी।”

“सैंडविच खाने के लिए?”

“और मुझसे मिलने के लिए भी।”

“मैं जीवन में फर्स्ट टाईम किसी जर्नलिस्ट से मिल रही हूं।”

“मैं भी पहली बार किसी खूबसूरत नर्स से मिल रहा हूं।”

सुनकर वह हौले से हंसी फिर बोली, “बताईये क्यों मिलना चाहते थे?”

“डॉक्टर बरनवाल।”

“मुझे भी यही लगा था।”

“आप तो उसे बहुत अच्छी तरह से जानती होंगी?”

“नहीं, बहुत मिस्टीरियस पर्सन था डॉक्टर, उसके मर्डर से पहले तो फिर भी लगता था कि मैं उसके बारे में जानकारियां रखती हूं, मगर बाद में यही लगा कि कुछ नहीं जानती थी।”

“उम्र कितनी रही होगी डॉक्टर की?”

“मे बी फॉर्टी ऑर फॉर्टी फाईव।”

“दिखता कैसा था?”

“हैंडसम थे, खूब लंबे, हैल्दी और वेल मेंटेन रहते थे। संजय दत्त के फैन थे इसलिए आउट ऑफ फैशन हो चुके लंबे बाल रखा करते थे, लेकिन ‘साजन’ वाले नहीं ‘खलनायक’ वाले स्टाईल में।”

“स्वभाव कैसा था?”

“बहुत अच्छा, वैसे भी सायकियाट्रिस्ट थे इसलिए स्वभाव बढ़िया ही होना था।”

“सोशल लाईफ?”

“बहुत कम, ना होने जैसा, जबकि पूरा वसंतकुंज उन्हें नाम और सूरत, दोनों से पहचानता रहा होगा। पेशेंट्स की लाईन लगी रहती थी। कई बार लोग पर्सनल बातें डिस्कस करने के लिए भी डॉक्टर की फीस भर दिया करते थे।”

“पर्सनल बातें?”

“जैसे कि किसी को अपनी बीवी पर शक था, या किसी की बेटी का ब्वॉय फ्रैंड उसे पसंद नहीं था, एक साहब तो ये तक पूछने पहुंच गये थे कि उन्हें पैंतालिस की उम्र में शादी करनी चाहिए या नहीं।” कहती हुई वह हंस पड़ी।

“हुआ क्या था?”

“थर्टी फर्स्ट जेन को?”

“अगर डॉक्टर का कत्ल एक 31 जनवरी को हुआ था तो हां, उसी बारे में पूछ रहा हूं?”

“मैं आठ बजे काम पर पहुंची, तो क्लिनिक खुला दिखाई दिया, जिससे मैंने यही अंदाजा लगाया कि डॉक्टर उस दिन मुझसे पहले वहां पहुंच गया था, क्योंकि वहां की चाबी हम दोनों के ही पास रहती थी। फिर मैं आवाज लगाते हुए ऊपर गयी जहां वह अपने केबिन में मरा पड़ा था। बस इतना ही हुआ था।”

“उसके आगे पीछे कुछ हुआ हो?”

“30 जनवरी को साढ़े आठ बजे डॉक्टर ने मेरे को घर जाने को बोल दिया, ये कहकर कि कोई उससे मिलने आने वाला था, जिसके बाद वह खुद क्लिनिक बंद करके चला जायेगा।”

“कौन आने वाला था?”

“मैं नहीं जानती, बट वैसा हर महीने होता था।”

“आप का मतलब है हर महीने तीस तारीख को कोई सीक्रेट विजिटर वहां पहुंचता था, जिसके लिए डॉक्टर आपको क्लिनिक से चलता कर देता था?”

“नो, डेट फिक्स नहीं थी, बट एवरी मंथ वैसा एक बार तो जरूर होता था।”

“कहीं कोई गर्लफ्रैंड तो नहीं बन गयी थी डॉक्टर की?”

“अगर बन गयी थी तो मेरे सामने उससे मिलने में क्या बुराई थी। वह उसे अपने केबिन में बुला लेता तो क्या मैं दरवाजे पर नॉक करती जाकर? नहीं बात तो कुछ और ही थी।”

“वैसे थी कोई गर्लफ्रैंड?”

“हो सकती थी।”

“कौन?”

“आयशा बागची, वह क्लिनिक के करीब ही एक फ्लैट में रहती थी। उम्र ज्यादा थी, लेकिन अनमैरिड थी। वह रेग्युलर डॉक्टर से मिलने आती थी। यू नो डॉक्टर की मौत के बाद वह इकलौती लेडी थी जिसकी आंखों में मैंने उसके लिए आंसू देखे थे।”

“एड्रेस मालूम है उसका?”

“नहीं, लेकिन उन दिनों डॉक्टर के क्लिनिक से दो बिल्डंग छोड़कर तीसरे में रहती थी। अभी भी रहती हो तो आपके लिए पता लगा लेना कौन सा मुश्किल काम है।”

“कोई दोस्त जो उससे मिलने आते हों?”

“उन्मेद कनौजिया, अभिनव गोयल, एक और दोस्त भी था जो क्लिनिक तो नहीं आता था लेकिन डॉक्टर ट्वाईस इन मंथ उसके घर का राउंड लगाता था।”

“अमरजीत?”

“नहीं, उसका नाम तो मैंने पहली बार कल टीवी पर देखा था।”

“फिर?”

“भीष्म साहनी, उसकी बीवी को डिप्रेशन था, बट वह क्लिनिक में आने को तैयार नहीं होती थी, इसलिए साहनी साहब डॉक्टर को अपने घर बुला लेते थे, जबकि होम विजिट की फीस पंद्रह हजार थी। लेकिन पैसे वाले लोग ऐसी बातों की परवाह कहां करते हैं। ऊपर से वह उसकी दूसरी बीवी थी, इसलिए भी नखरे झेलने को तैयार हो जाता होगा।”

वंश ने पॉकेट डॉयरी निकालकर सबके नाम नोट कर लिये।

“आपके बताये सभी लोग क्या वसंतकुंज के इलाके में ही रहते हैं?”

“रहते थे, अभी का नहीं मालूम।”

“और एड्रेस भी नहीं मालूम, है न?”

“मैंने इंवेस्टिगेशन ऑफिसर को बताया था सबका एड्रेस, पुलिस फाईल से मिल सकता है।”

“सुशांत अधिकारी को?”

“जी हां।”

“आपको तो पता ही होगा कि डॉक्टर बरनवाल के बेटे ने अधिकारी और दीक्षित पर कितने गंभीर आरोप लगाये हैं?”

“हां टीवी पर देखा था, हैरान भी बहुत हुई।”

“क्यों?”

“क्योंकि डॉक्टर को वो लोग बहुत अच्छे से जानते थे, मिलने भी आते रहते थे क्लिनिक में, वह भी दूसरे वाले विजिटर की तरह एवरी मंथ।”

“किसलिए?”

“पुलिसवाले क्यों किसी से मिलने जाते हैं, अगर फ्रैंड न हों तो?”

“रिश्वत के लिए?”

“मेरे को तो यही लगता था, क्योंकि हर महीने मुंह उठाये वहां पहुंच जाते थे। फिर मुझसे डॉक्टर को फोन कराते और इजाजत लेने के बाद ऊपर केबिन में जा बैठते। वह मीटिंग कभी भी पांच मिनट से ज्यादा नहीं चली होगी, लेकिन डॉक्टर पेशेंट के बीच उन्हें वक्त देता था तो बात जरूर कोई खास ही रही होगी। एक बार ऐसा भी हुआ जब उनके आने पर डॉक्टर नीचे रिसेप्शन पर ही खड़ा था। तब मेरे को साफ साफ मालूम पड़ा कि दोनों पुलिसवालों को देखकर वह खुश नहीं हुआ, मतलब उनसे मुलाकात मजबूरी थी ना कि डॉक्टर की मर्जी।”

“बातें क्या हुईं उनके बीच?”

“इंस्पेक्टर बोला था, ‘ऊपर चलिए डॉक्टर साहब, जरूरी बात करनी है’ फिर दोनों उसके साथ फर्स्ट फ्लोर पर चले गये। वह जरूरी बात मेरे ख्याल से तो रिश्वत ही रही होगी।”

“किस बात की रिश्वत, डॉक्टर ने ऐसा क्या कर दिया होगा, जिसके लिए उसे पुलिस को हर महीने रिश्वत देनी पड़ रही थी?”

“मैं नहीं जानती, लेकिन कुछ तो गड़बड़ जरूर थी।”

“बरनवाल सायकियाट्रिस्ट था इसलिए ये तो नहीं हुआ हो सकता कि किसी ऑपरेशन वगैरह के दौरान कोई पेशेंट अपनी जान से हाथ धो बैठा हो, या किसी लड़की का जबरन एबॉर्शन वगैरह कर दिया हो, जिसमें पुलिस केस बना और अधिकारी ने उसे बचा लिया, और बाद में उसी बात की वसूली शुरू कर दी।”

“सायकियाट्रिस्ट के पास ऐसा केस नहीं आता वंश जी, लेकिन कर तो बराबर सकता है। बिकाज वह सायकियाट्रिस्ट बाद में होता है एमबीबीएस डॉक्टर पहले होता है।”

“यानि वैसा कुछ हुआ भी रहा हो सकता है?”

“मेरे सामने तो नहीं हुआ, हां मेरे जॉयन करने से पहले हुआ हो तो नहीं कह सकती, क्योंकि सिलसिला तो पहले से ही चला आ रहा था।”

“ये भी हो सकता है कि उसकी डिग्री फर्जी रही हो जिसके बारे में किसी तरह अधिकारी और दीक्षित को पता लग गया, और उसी बूते पर उसे ब्लेकमेल करने लगे?”

उसकी बात पूरी होने से पहले ही कविता का सिर इंकार में हिलने लगा।

“नहीं हो सकता?”

“नहीं।”

“क्यों?”

“क्योंकि एक बार गर्वनमेंट की तरफ से बहुत बड़ा कैंपेन चलाया गया था डॉक्टर लोगों की डिग्री जांचने के लिए। तब डॉक्टर बरनवाल की डिग्री की भी जांच की गयी थी, फर्जी होती तो पकड़ में नहीं आ गयी होती?”

“क्या पता आ गयी हो?”

“आ जाती तो पुलिस उसे कैसे बचा पाती, क्योंकि वह कैंपेन तो स्वास्थ विभाग की तरफ से चलाया गया था। मतलब रिश्वत की जरूरत आन भी पड़ी थी, तो पुलिस को देने का कोई मतलब नहीं बनता था। फिर डॉक्टर अपने काम में एक्सपर्ट था वंश जो कि कोई फर्जी डिग्री वाला डॉक्टर नहीं हो सकता। छह पेशेंट तो उसने ऐसे ठीक किये जिनके बारे में सबको यकीन था कि उनपर किसी प्रेतात्मा का साया था, मैं खुद भी वही समझने लगी थी। क्योंकि वे लोग अचानक आवाज बदलकर बोलने लग जाते थे। उनके शरीर की ताकत भी बढ़ जाती थी। एक लड़की जिसके हाथों को बांधकर वहां लाया गया था, उसने झटका देकर यूं बंधन तोड़ दिये जैसे उसके भीतर सच में पिशाच समा गया हो।”

“जबकि वैसा कुछ नहीं था?”

“आप भूत प्रेतों पर यकीन करते हैं?”

“नहीं करता।”

“मैं भी नहीं करती, फिर कैसे पॉसिबल था कि उनपर कोई आत्मा सवार हो गयी हो।”

“असलियत क्या थी उन मामलों की?”

“कोई डिसोसिएटिव डिसऑर्डर, कोई मल्टीपल पर्सनॉलिटी डिसऑर्डर तो कोई पैरानॉयड पर्सनॉलिटी डिसऑर्डर का शिकार था। यानि भूत प्रेतों वाली कोई बात नहीं थी।”

“मल्टीपल पर्सनॉलिटी तो मैं समझ गया मैडम, क्योंकि कई फिल्मों में देख चुका हूं। लेकिन डिसोसिएटिव और पैरानॉयड पर्सनॉलिटी डिसऑर्डर क्या होते हैं?”

“डिसोसिएटिव आईडेंटिटी डिसऑर्डर से ग्रस्त लोगों को महसूस होता है जैसे कोई उन्हें कंट्रोल कर रहा है, जैसे कि उसे लग सकता है कि कोई उसे आंखें बंद रखने, हाथ उठाने या ना बोलने के लिए कह रहा है। मतलब करता वह खुद ही है लेकिन इस भ्रम में होता है कि उससे करवाया जा रहा है। जबकि पैरानॉयड पर्सनॉलिटी डिसऑर्डर की स्थिति में लोग पहले किसी बात पर संदेह करते हैं, फिर उसे सच मान लेते हैं, और वही सच उन्हें अपनी आंखों के सामने दिखाई देने लगता है। जैसे कि दस लोगों के बीच बैठा कोई शख्स ये कह सकता है कि कमरे में उनके अलावा भी एक आदमी मौजूद है, उसकी जैसी कल्पना होगी वह शख्स उसे हू ब हू वैसा ही दिख रहा होगा।”

“फिर तो भूत प्रेतों के सारे मामले ऐसे ही होते होंगे?”

“हो सकते हैं, बल्कि मानसिक बीमारियों का कोई ओर छोर ही नहीं होता, मेडिकल टर्म में बहुतों को परिभाषित किया जा चुका है, उनका उपचार भी उपलब्ध है, मगर पेशेंट किसी साईकेट्रिस्ट तक पहुंचे तो तब न जब उसे यकीन हो कि उसपर प्रेत का साया नहीं है बल्कि मनोविकार से ग्रस्त है।”

“ठीक कहती है।”

“मेरे ख्याल से हम प्वाइंट से भटक गये, है न वंश?”

“बिल्कुल भटक गये हैं, इसलिए वापिस लौटते हैं - कहकर उसने सवाल किया - अच्छा ये बताओ कि क्या उस क्लिनिक में काम करने के दौरान कभी डॉक्टर की फेमिली उससे मिलने आई थी?”

“कभी नहीं, एक बार मैंने सवाल भी किया था, तब डॉक्टर ने बताया कि परिवार घर में रहता है, उनका क्लिनिक आना जरूरी नहीं होता। उस वक्त मैंने यही सोचा था कि हौजखास में वह फेमिली के साथ ही रहता होगा, मगर कत्ल के बाद पता लगा कि अकेला रहता था।”

“कोई अंदाजा कि फेमिली को साथ में क्यों नहीं रखता था?”

“अंदाजा तो यही है कि आयशा बागची के साथ उसका अफेयर था, फिर बीवी बहुत आम शक्लो सूरत वाली है, मतलब पसंद नहीं होगी, इसलिए दूर गांव में छोड़े बैठा था।”

“तुम मिली हो?”

“बीवी से?”

“हां।”

“डॉक्टर के कत्ल के बाद बस एक बार।”

“तब कोई बातचीत भी हुई थी?”

“हां हुई थी, साथ में मुझे हैरानी भी बहुत हुई।”

“क्यों?”

“बीवी के चेहरे पर पति की मौत का जरा भी गम नहीं दिखाई दे रहा था। जबकि देहाती औरतें वैसे मौके पर छाती पीट पीटकर रोने लग जाया करती हैं। बेटा थोड़ा दुःखी तो जरूर था मगर रोया वो भी नहीं।”

“कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हीं दोनों ने मिलकर डॉक्टर का कत्ल कर दिया हो?”

“कैसे हो सकता है, कत्ल अगर उन लोगों ने किया होता तो क्या पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार नहीं कर लिया होता? वे लोग क्या ये पता लगाने से पीछे रह गये होंगे कि पटना से दोनों मां बेटे दिल्ली कब पहुंचे थे?”

“रिश्वत का रोल भी तो रहा हो सकता है।”

“आपका ध्यान कहां है वंश जी?”

“क्या कहना चाहती हैं?”

“अरे रिश्वत देने वाले अगर वो दोनों होते तो इंवेस्टिगेशन ऑफिसर ने उन्हें धमकाकर गांव वापिस लौट जाने के लिए क्यों मजबूर किया होता? और विश्वजीत अब गड़े मुर्दे भी क्यों उखाड़ रहा होता? क्या जानता नहीं होगा कि दोनों पुलिसवाले फंसे तो वह खुद भी फंस जायेगा?”

“सॉरी मैंने इस तरह से नहीं सोचा था। मगर सवाल ये है कविता कि डॉक्टर को मारा तो किसने मारा? और क्यों मारा?”

“मेरे ख्याल से तो सब किया धर उस सीक्रेट विजिटर का ही रहा होगा, जो पक्का किसी वजह से डॉक्टर को ब्लैकमेल कर रहा था। इस बार डॉक्टर ने पैसे देने से इंकार कर दिया तो उसने डॉक्टर को खत्म कर दिया। या डॉक्टर ने उसे खत्म करने की कोशिश की लेकिन दांव उसका लग गया।”

“ब्लैकमेलिंग की कोई वजह भी तो होनी चाहिए?”

“जरूर होगी, आप जब इस बारे में जांच पड़ताल करेंगे तो कुछ न कुछ सामने आकर रहेगा - फिर थोड़ा ठहरकर बोली - एक रिक्वेस्ट करूं आपसे?”

“जरूर कीजिए।”

“कोई ऐसा रास्ता है जिससे इस बार के ‘पर्दाफाश’ में मैं टीवी पर दिखाई दे जाऊं?”

“आप दिखना चाहती हैं?”

“अगर पॉसिबल है तो हां।”

“ठीक है समझ लीजिए दिख गयीं।”

“कैसे, मेरी कोई वीडियो तो आपने बनाई ही नहीं।”

वंश हंसा।

“मतलब?”

“सोचिये, समझ में आ जायेगा।”

“ओह मॉय गॉड, हमारी बातें रिकॉर्ड तो नहीं हो रहीं?”

वंश बस मुस्कराकर रह गया।

“मुझे पहले ही सोचना चाहिए था।”

“किस बारे में?”

“यही कि मैं ऑन रिकॉर्ड बात कर रही हूं, क्योंकि ऐसी फुटेज आप लोग हर शो में दिखाते हैं। वैसे आपने बता दिया होता तो मैं थोड़ा मेकअप कर के आई होती।”

“आप ऐसे ही बहुत खूबसूरत लग रही हैं।”

“ओह, थैंक यू वंश।”

“अब चलते हैं - कहते हुए वंश ने अपना एक विजिटिंग कार्ड उसे थमा दिया - कुछ और याद आ जाये तो बताना मत भूलियेगा मुझे।”

“नहीं भूलूंगी, क्या पता उसी वजह से एक बार की बजाये दो बार दिख जाऊं टीवी पर।” कहकर वह जोर से हंस पड़ी।

तत्पश्चात दोनों वहां से बाहर की तरफ बढ़ गये।

पांच बजे के करीब वंश वशिष्ठ हौजखास पहुंचा। जहां अपनी मौत से पहले तक डॉक्टर बरनवाल का बसेरा हुआ करता था। एड्रेस पुलिस फाईल की कॉपी में मौजूद था जो उसने वसंतकुंज थाने से हासिल की थी।

घर के सामने पहुंचकर उसने गाड़ी रोकी और नीचे उतर गया।

वह दो मंजिलों तक उठा मकान था, जिसकी खूबसूरती देखते बन रही थी। फ्रंट में बाउंड्री थी, जिसमें लोहे का फाटक लगा हुआ था, जो बस उतना ही ऊंचा था जितनी की बाउंड्री। आगे करीब तीस फीट का कंपाउंड छोड़कर इमारत बनाई गयी थी।

गेट से बाईं तरफ एक छोटा सा पान के खोखे जैसा केबिन बना था। जिसके बाहर लोहे के स्टूल पर बावर्दी सिक्योरिटी गार्ड बैठा था। वह कार को रुकता देखकर उठ खड़ा हुआ।

“नमस्कार सर।”

“नमस्कार भाई, साहब होंगे भीतर?”

“जी हां अभी थोड़ी देर पहले ही लौटे हैं।”

“जरा खबर कर दो प्लीज।”

“आपका नाम सर?”

“वंश वशिष्ठ, कहना भारत न्यूज से आया हूं।”

“ठीक है सर - कहकर उसने केबिन में रखे इंटरकॉम से भीतर खबर दी, और उधर से मिला जवाब सुनकर रिसीवर वापिस रख दिया, फिर वंश की तरफ देखकर बोला - थोड़ा वेट कीजिए सर।”

“ठीक है, वैसे नाम क्या है घर के मालिक का?”

“शुभम अग्रवाल, आप उन्हें नहीं जानते?”

“नहीं भई, पहली बार मिलूंगा।”

गार्ड ने फिर कुछ नहीं कहा।

थोड़ी देर बाद एक नौकर बाहर आया और वंश को अपने साथ बैठक में लिवा ले गया। वहां एक भारी बदन वाला, नई उम्र का लड़का बैठा था, जो उसपर नजर पड़ते ही उठ खड़ा हुआ, फिर आगे बढ़कर हाथ मिलाता हुआ बोला, “आईये वंश साहब प्लीज बैठिये।”

“थैंक यू सर - कहकर उसने पूछा - आप शुभम अग्रवाल साहब हैं?”

“नहीं वह मेरे डैड हैं, मेरा नाम निखिल अग्रवाल है।”

“ओह।”

“अगर आप पापा से ही मिलना चाहते हैं तो उसके लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा।”

“जरूरत नहीं है निखिल - कहकर उसने पूछा - मैं आपको नाम से बुला सकता हूं न?”

“ऑफ कोर्स बुला सकते हैं।”

“थैंक यू, असल में मैं कुछ बेहद मामूली बातें जानने के लिए यहां हाजिर हुआ हूं, जिनके बारे में आपको भी यकीनन पता होगा।”

“पूछिये।”

“आप लोगों से पहले यहां डॉक्टर बरनवाल रहा करते थे, जिनका पिछले साल कत्ल कर दिया गया था, जानते हैं उस बारे में?”

“हां उसके कत्ल की खबर है मुझे।”

“न्यूज देखकर मालूम पड़ा था?”

“न्यूज में तो देखा ही था, लेकिन असल में जो जाना वह केस के इंवेस्टिगेशन ऑफिसर के मुंह से जाना। पूछताछ की जरूरत इसलिए पड़ गयी क्योंकि सौदा करोड़ों का था, ऐसे ही हम किसी पर भी विश्वास तो नहीं कर सकते थे।”

“ठीक कहा, अच्छा ये बताईये कि मकान की डील किसके साथ हुई थी आपकी?”

“मरने वाले की विधवा बबिता बरनवाल से।”

“तब क्या उसका बेटा भी मौजूद था?”

“जी हां, नाम था विश्वजीत।”

“कितने में खरीदा था आप लोगों ने ये मकान?”

“दस करोड़ में।”

“सीधा बबिता बरनवाल से?”

“नहीं, डील एक डीलर की मार्फत हुई थी।”

“डीलर का नाम याद है आपको?”

“हां उमाकांत माहेश्वरी, मेन रोड पर पहुंचकर दायें मुड़ेंगे तो एक छोटा सा शॉपिंग कॉम्प्लैक्स है, वहीं उसका ऑफिस है। बबिता को तो हम जानते तक नहीं थे, ऐसे में उससे सौदा कैसे कर सकते थे।”

“डील फाईनल करने के लिए कोई और भी पहुंचा था उनकी तरफ से?”

“इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी और सब इंस्पेक्टर दयानंद दीक्षित चले आये थे उस औरत की हैल्प करने के लिए, वरना जरूरत तो कोई नहीं थी। पुलिस का वह एकदम नया रूप था मेरे लिये, वरना तब तक तो यही सोचता आया था कि वर्दी वाले बस लोगों को परेशान ही किया करते हैं।”

वह एक हैरान कर देने वाली बात थी, अधिकारी ने अगर मां बेटे को दिल्ली से बाहर खदेड़ दिया था तो कत्ल के करीब दो महीने बाद उनकी हेल्प करने को कैसे तैयार हो गया।

“सेल परचेज कब की गयी थी, तारीख याद है आपको?”

“मार्च का लास्ट वीक था, डेट ध्यान नहीं है।”

“पेमेंट कैसे की थी आप लोगों ने?”

“चेक बनाया था पापा ने, बबिता बरनवाल के नाम से।”

“एक ही बार में फाईनल पेमेंट कर दी गयी थी?”

“नहीं, पहले एडवांस के तौर पर एक करोड़ दिये, फिर दस दिन बाद बाकी के नौ करोड़ तब दिये जब प्रापर्टी के फाईनल पेपर्स साईन किये गये।”

“चेक क्लियर हो जाने के बाद?”

“नहीं, लेकिन उसमें एक क्लॉज था जिसके मुताबिक चेक अगर बाउंस हो जाता तो डील कैंसिल हो जाती, और हमारा एक करोड़ का एडवांस भी डूब जाता।”

“चेक हैंडओवर किसे किया था?”

“दोनों बार बबिता बरनवाल को।”

“ठीक है निखिल थैंक यू।” वह उठ खड़ा हुआ।

“डील में कोई गड़बड़ तो नहीं है वंश साहब?”

“नहीं, अभी तक तो नहीं दिखाई देती।”

बाहर निकलकर उसने अगल बगल के मकानों में पूछताछ की तो बस इतना ही पता लग पाया कि डॉक्टर वहां अकेला रहता था। यहां तक कि कोई गार्ड या नौकर तक नहीं रखे था। जो कि अपने आप में कम हैरानी की बात नहीं थी।

कार में बैठकर उसने इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी को फोन लगाया। रिंग जाती रही मगर दूसरी तरफ से कॉल अटैंड नहीं की गयी। फिर दीक्षित का नंबर डॉयल किया तो कॉल तुरंत पिक कर ली गयी। वंश ने उसे अपना परिचय देकर मुलाकात के लिए वक्त हासिल करना चाहा तो उसने साफ मना कर दिया।

“सोच लीजिए दीक्षित साहब, जिन हालात में आप और अधिकारी साहब इस वक्त फंसे दिखाई दे रहे हैं उनमें मीडिया की हैल्प आपके बहुत काम आ सकती है।”

“क्यों आप क्या हमारा सस्पेंशन रद्द करा देंगे?”

“नहीं करा सकते क्योंकि वह हमारे अख्तियार में नहीं है, लेकिन ग्राउंड बराबर तैयार कर सकते हैं।”

“कैसे?”

“मान लीजिए आप दोनों हमें यकीन दिलाने में कामयाब हो जाते हैं कि आप पर लगाये जा रहे आरोप झूठे हैं, तो कुछ बातें आपके हक में बोलकर आपके अफसरों को नये सिरे से उनके फैसले पर विचार करने को मजबूर तो कर ही सकते हैं।”

“कौन सी बातें?”

“उसका पता तो मुलाकात के बाद ही चलेगा न, बातचीत होगी तो कोई न कोई रास्ता जरूर निकल आयेगा। किसी वजह से नहीं भी निकला तो उससे आप दोनों का अलग से क्या बिगड़ जायेगा?”

“ठीक है मैं अधिकारी साहब से बात कर के आपको फोन करूंगा।”

“मैं इंतजार करूंगा।” कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।

हौजखास से निकलकर वंश वसंतकुंज स्थित अमरजीत राय के घर पहुंचा। वहां मुक्ता को बात करने के लिए तैयार करने में पांच मिनट से ज्यादा का वक्त लग गया, क्योंकि वह उसे गेट से ही टरकाने की कोशिशों में जुटी हुई थी।

फिर कुल जहान का एहसान करते हुए उसने वंश को भीतर बुलाया और उसके बैठने के बाद बोली, “जो बात करनी है जल्दी कीजिए।”

“कोई आने वाला है यहां?”

“मैंने कब कहा कि कोई आने वाला है?”

“फिर जल्दी किसी बात की है आपको?”

“अरे तो क्या पूरे दिन मेरे घर में ही बैठे रहेंगे?”

“नहीं, बस दस मिनट।”

“ठीक है पूछिये जो पूछना चाहते हैं?”

“सुना है आपके हस्बैंड गर्वनमेंट जॉब में थे?”

“ठीक सुना है, टीचर थे।”

“और आप?”

“हाऊस वाईफ हूं।”

“कत्ल वाली रात अमरजीत साहब मनोहर पार्क क्यों गये थे?”

“खाना खाने के बाद वॉक करते हुए निकल गये थे?”

“डिनर आप दोनों ने इकट्ठे किया था?”

“जी हां।”

“लेकिन वॉक पर आप उनके साथ नहीं गयीं?”

“नहीं क्योंकि मेरे पेट में अचानक दर्द होने लगा था।”

“खाने के बाद?”

“थोड़ा बहुत पहले से हो रहा था, लेकिन बाद में बढ़ गया।”

“अगर ऐसा था तो आपको डॉक्टर के पास ले जाने की बजाये आपके हस्बैंड वॉक पर क्यों निकल गये?”

“क्योंकि वह डॉक्टर के पास जाने वाली प्रॉब्लम नहीं थी।”

“फिर कैसी प्रॉब्लम थी?”

“पीरियड शुरू हो गये थे।”

“ओह, अच्छा ये बताईये कि कत्ल की खबर कब लगी आपको?”

“ग्यारह बजे, पुलिस ने आकर बताया था।”

“पता कैसे लगा उन्हें कि मरने वाला यहां रहता था?”

“अमरजीत को इधर काफी लोग जानते थे, उन्हीं में से किसी ने बता दिया होगा।”

“किसने बताया ये नहीं मालूम?”

“नहीं, लेकिन पुलिस जानती होगी।”

“किसी के साथ कोई वाद विवाद, रंजिश?”

“नहीं थी।”

“वह डिनर के बाद वॉक पर निकले थे तो पर्स लेकर तो नहीं गये होंगे?”

“गये थे।”

“और मोबाईल?”

“वह भी ले गये थे।”

“पैसे कितने रहे होंगे उनके पास?”

“हजार दो हजार से ज्यादा नहीं।”

“इतनी छोटी रकम के लिए किसी ने उनका कत्ल कर दिया?”

“पुलिस तो यही कहती है लेकिन मुझे यकीन नहीं है।”

“अगर नहीं यकीन है तो किसी न किसी पर शक भी होगा?”

सुनकर उसने क्षण भर को उस बात पर विचार किया फिर बोली, “नहीं, मुझे किसी पर शक नहीं है।”

“डॉक्टर बरनवाल को कैसे जानते थे अमरजीत साहब?”

“दोस्त थे दोनों, स्कूल की पढ़ाई भी एक साथ एक ही इंटर कॉलेज से किया था।”

“सुना है गांव भी एक ही था?”

“गलत सुना है, डॉक्टर पटना के रहने वाले थे, जबकि अमरजीत दूर के एक गांव मलसां का। हां पढ़ाई उसने पटना में ही किराये के कमरे में रहकर पूरी की थी।”

“यानि जान पहचान पटना में ही बनी थी?”

“नहीं, वह तो बहुत पहले से थी।”

“बात समझ में नहीं आई मैडम।”

“मलसां में बालकृष्ण की मौसी ब्याही थी, जहां वह अक्सर आता-जाता रहता था। वहीं अमरजीत से उसकी मुलाकात हुई, फिर जल्दी ही दोनों जिगरी दोस्त बन गये।”

“यहां दिल्ली में मिलना मिलाना होता था?”

“हां महीने में एक दो फेरे तो डॉक्टर साहब लगा ही लिया करते थे।”

“आप दोनों भी जाते थे उनके घर?”

“नहीं।”

“वजह?”

“वह अकेला रहता था, इसलिए जाने का कोई फायदा नहीं था। जबकि हमारे यहां जब भी आता था अमरजीत उसे डिनर कराये बिना नहीं जाने देते थे।”

“डिनर करने तो नहीं ही आते होंगे?”

“नहीं वैसा होता तो रोज आ जाता।”

“आपको ऐतराज नहीं होता?”

“क्यों होता भला, जैसे दो लोगों का खाना बनाती वैसे ही तीन लोगों का बना देती, उससे क्या मेरे हाथ घिस जाते?”

“फेमिली को साथ क्यों नहीं रखते थे?”

“गांव में काफी जमीनें थीं उसके पास, जिनकी देखभाल के लिए भी तो कोई चाहिए था या नहीं?”

“हां वो तो जरूरी होता है।”

“इसीलिए बीवी और बेटा पटना में रह रहे थे।”

“डॉक्टर के कत्ल के बारे में कुछ बता सकती हैं आप?”

उस बात पर मुक्ता ने कुछ देर विचार किया, फिर बोली, “एक बुढ़िया लड़की थी, बहुत खूबसूरत तो नहीं कह सकते लेकिन ठीकठाक थी, उसके साथ डॉक्टर का टांका भिड़ा हुआ था।”

“बुढ़िया लड़की?”

“हां, उम्र चालीस के करीब होगी इसलिए बुढ़िया, और शादी नहीं की थी इसलिए लड़की।”

“दोनों करीब थे?”

“और क्या कह रही हूं मैं।”

“अगर थे भी तो उसने डॉक्टर का कत्ल क्यों कर दिया?”

“क्योंकि बहुत गुस्सैल किस्म की थी, वैसा बालकृष्ण ने एक रोज मेरे हस्बैंड को बताया था, ये कहते हुए कि ‘गलत लड़की के साथ रिश्ता जोड़ लिया, ऐसी लड़की के साथ जो जी का जंजाल बन गयी है, कहती है शादी कर लो वरना अपनी जान दे दूंगी, या तुम्हारी जान ले लूंगी। कमीनी को इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि मैं पहले से शादीशुदा हूं।’ तब मेरे हस्बैंड ने पूछा कि अगर वह इतना ही परेशान था तो रिश्ता तोड़ क्यों नहीं लेता, जवाब में डॉक्टर बोला, ‘ये इतना आसान नहीं है अमरजीत, तुम अभी उसे जानते नहीं, इतनी गुस्सैल है कि मैंने रिश्ता तोड़ा तो जीना हराम कर देगी, ऐसा उपद्रव मचायेगी कि कोर्ट कचहरी सब हो जायेगी।”

“नाम क्या था उस बुढ़िया लड़की का?”

“आयशा बागची, मुझे लगता है बालकृष्ण ने शादी करने से साफ मना कर दिया होगा, जिसके बाद गुस्से में आकर आयशा उसका कत्ल कर बैठी होगी।”

“कमाल है, इतनी खतरनाक लड़की भी कोई होती है?”

“डॉक्टर की बातों पर यकीन करें तो आयशा बराबर थी।”

“अच्छा ये बताईये कि क्या आपके हस्बैंड और डॉक्टर का कातिल कोई एक ही शख्स हो सकता है?”

“ये मैं क्या जानूं?”

“कोई अंदाजा, जवाब ये सोचकर दीजिएगा कि दोनों दोस्त थे।”

“नहीं इस बारे में मैं कोई अंदाजा नहीं लगा सकती।”

“आपके हस्बैंड की ना सही डॉक्टर की किसी के साथ रंजिश रही हो?”

“अगर थी भी तो मैं नहीं जानती।”

“और कुछ जो आप अपनी तरफ से बताना चाहें?”

“अमरजीत के कत्ल के बाद जब मैं थाने गयी थी तो वहां से निकलते वक्त इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी ने एक बड़ी अजीब बात कही थी मुझसे।”

“क्या?”

“ये कि मैं किसी को ना बताऊं कि अमरजीत की डॉक्टर के साथ दोस्ती थी।”

“फिर भी आपने बता दिया?”

“बेध्यानी में उसकी चेतावनी भूल गयी, लेकिन प्लीज ये बात तुम किसी को बताना मत।”

“नहीं बातऊंगा प्रॉमिस, लेकिन अधिकारी के मुंह से वो बात सुनकर आपको हैरानी नहीं हुई?”

“बहुत हुई, कई बार उस बात पर दिमाग खपा चुकी हूं कि उसने मुझे चुप रहने को क्यों कहा था? क्योंकि सामने से तो यही वजह बताई थी कि वह बात कबूल करूंगी तो मीडिया सवाल पूछ पूछकर मेरा जीना मुहाल कर देगी।”

“जिसपर कि आपको यकीन नहीं आया?”

“जरा भी नहीं, तुम्हें दिखाई देती है कोई वजह?”

“नहीं मैडम।”

“ओह।”

“ऐसी ही कोई और बात?”

“हां है।”

“क्या?”

“डॉक्टर के कत्ल से बहुत पहले की बात है, एक रात वह और अमरजीत यहां खाना खा रहे थे, तब डॉक्टर ने कहा था कि ‘अधिकारी और दीक्षित तो एकदम खून चूसने पर ही उतर आये हैं, समझ में नहीं आता कि सालों से पीछा कैसे छुड़ाऊं?”

“तब आपके हस्बैंड ने ये नहीं पूछा कि क्यों खून चूस रहे थे दोनों उसका?”

“नहीं, इसलिए मुझे लगता है कि जवाब उसे पहले से मालूम था।”

“डॉक्टर के कहे का कोई उत्तर भी तो दिया होगा अमरजीत साहब ने?”

“हां, कहा था कि ‘कमीनों का पेट बहुत बड़ा है, शुक्र है मुंह का साईज नहीं बढ़ाते जा रहे वरना प्रॉब्लम हो जाती’ फिर ये भी कहा था कि ‘अगर तुम चाहो तो मैं उनसे पीछा छुड़ाने की कोई योजना बनाना शुरू कर दूं’ जवाब में डॉक्टर ने कहा, ‘अभी वैसा कुछ करने की जरूरत नहीं है, बाद की बाद में देखी जायेगी’ फिर डॉक्टर यहां से चला गया तो मैंने अमरजीत से पूछा कि क्या बात थी, जवाब में उसने बताया कि एक बार डॉक्टर ने किसी मरीज को गलत दवा दे दी थी, जिसके कारण उसकी हालत बहुत बिगड़ गयी, तब उसके घरवालों ने पुलिस में कंप्लेन दर्ज कराने की कोशिश की, जिससे दोनों पुलिसवालों ने किसी तरह डॉक्टर को बचा लिया था। और तभी से वे लोग डॉक्टर से पैसे झटके जा रहे थे। मगर मुझे उसके कहे पर जरा भी यकीन नहीं आया था।”

“वजह?”

“उसने बताया था कि दोनों पुलिसवाले डॉक्टर से हर महीने पांच हजार रूपये लेकर जाते थे।”

“इसमें यकीन ना आने वाली क्या बात है?”

“अगर सच में दोनों ने डॉक्टर को उतनी ही बड़ी मुसीबत से बचाया था, जितनी बड़ी का जिक्र अमरजीत ने किया था, तो क्या महज पांच हजार महीने से संतुष्ट हो जाते? और हो जाते थे तो उसमें डॉक्टर को फिक्र करने की क्या जरूरत थी, उतना तो वह एक पेशेंट देखकर ही कमा लेता था। इसलिए तब मुझे यही लगा कि असल माजरा कुछ और था।”

“जिसके बारे में अमरजीत साहब ने आपको नहीं बताया?”

“नहीं बताया, बल्कि बाद में मैंने पूछा भी नहीं, कोई डॉक्टर को ब्लैकमेल कर भी रहा था तो उससे मेरा क्या लेना देना था, हां अपने हस्बैंड को समझाया जरूर था कि वह खामख्वाह किसी लफड़े में ना डाले खुद को।”

“मतलब चाहते तो डाल सकते थे?”

“दोस्त के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था, इसलिए मेरा जवाब हां में है। वैसे भी टीचर बनने से पहले की उसकी पूरी जिंदगी नेतागिरी में कटी थी, पहले छात्रसंघ का नेता था, फिर जिस तिस पार्टी के साथ काम करने लगा। वह तो भला हो दिल्ली में नौकरी का जिसने अमरजीत को सबकुछ पीछे छोड़ देने को मजबूर कर दिया।”

“नौकरी आपकी शादी के बाद लगी थी?”

“हां, हमारी शादी को दस साल हो चुके हैं।”

“वसंतकुंज में कब से हैं आप?”

“चार साल से ज्यादा हो चुके हैं।”

“उससे पहले कहां रहते थे?”

“तुगलकाबाद में।”

सुनकर वंश को बड़ी हैरानी हुई, दो साल पहले तुगलकाबाद जैसी जगह में रहने वाला शख्स छलांग लगाकर सीधा वसंतकुज के पॉश इलाके में पहुंच गया था।

“बढ़िया जगह है ये, महंगी भी बहुत होगी, है न मैडम?”

“हां पूरे दो करोड़ में खरीदा था अमरजीत ने ये फ्लैट।”

“फिर तो मेरी उम्मीद से भी ज्यादा महंगा है।”

“जगह भी तो देखिये।”

“हां ये तो आपने एकदम सही कहा, वैसे यहां शिफ्ट होने के बाद आप लोगों ने तुगलकाबाद वाला घर तो बेच ही दिया होगा, है न?”

“नहीं, क्योंकि वहां हम किराये पर रह रहे थे।”

वह और भी ज्यादा हैरानी की बात थी।

“जॉब कब से कर रहे थे अमरजीत साहब?”

“पांच सालों से।”

“आय का कोई और साधन?”

“होता तो हम गांव छोड़कर दिल्ली क्यों पहुंच जाते।”

“यानि खेती बाड़ी नहीं थी?”

“थोड़ी बहुत थी, जिसे फ्लैट लेने के वास्ते साठ लाख में बेच आया था अमरजीत।”

“और बाकी के एक करोड़ चालीस लाख?”

“अरे बताया तो वह गर्वनमेंट स्कूल में टीचर था।”

“तंख्वाह कितनी थी?”

“साठ सत्तर हजार।”

“एक लाख भी मान लें मैडम तो इसका मतलब हुआ पांच सालों में साठ लाख से ज्यादा नहीं कमा सकते थे, फिर खर्चे भी तो होते हैं इंसान के।”

“अरे तुम अचानक अमरजीत की कमाई के पीछे क्यों पड़ गये?”

“दिमाग दौड़ाईयेगा, क्या पता समझ में आ ही जाये।” कहकर वह उठा और उसे हकबकाया सा छोड़कर फ्लैट से बाहर निकल गया।

‘साठ सत्तर हजार कमाने वाले टीचर ने पांच सालों में दो करोड़ का फ्लैट खरीद लिया था, जिसमें से खेत बेचकर हासिल हुए साठ लाख को माईनस भी कर दिया जाता तो बाकी बचते एक करोड़ चालीस लाख जो अपनी नौकरी से तो उसे हरगिज भी हासिल नहीं होने वाले थे और कोई बड़ा लोन उठाया होता तो मुक्ता ने उस बात का जिक्र कर के रहना था।’

‘क्या माजरा था?’

‘क्या वह लोन के बारे में बताना भूल गई थी?’

‘क्या अमरजीत के किरदार में कोई भेद था?’

‘क्या डॉक्टर और उसका कातिल कोई एक ही शख्स था?’

सोचता हुआ वह अपनी कार में जा बैठा।

तभी मोबाईल रिंग होने लगा, कॉल दयानंद दीक्षित के नंबर से आ रही थी, जिसे उसने तुरंत अटैंड कर लिया।

“हैलो।”

“अधिकारी साहब तुमसे मिलने को तैयार हैं।”

“बहुत अच्छा फैसला लिया, बताईये कहां आना होगा?”

“अभी कहां हो तुम?”

“वसंतकुंज में।”

“वहां से निकलकर साकेत पहुंचो, एड्रेस व्हॉट्सअप कर रहा हूं तुम्हें।”

“समझ लीजिए पहुंच गया।” कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट की और गाड़ी आगे बढ़ा दी।

दयांनद का भेजा पता साकेत के डी ब्लॉक में स्थित एक तीन मंजिला मकान का निकला। गेट के बगल में कार खड़ी कर के वंश नीचे उतरा फिर बाउंड्री गेट पर लगी सांकल हटाकर भीतर दाखिल हो गया, इसलिए क्योंकि मैसेज में उससे वैसा ही करने को कहा गया था।

सामने दिखाई दे रही इमारत जमीन के लेबल से करीब दो फीट की ऊंचाई पर थी। दरवाजा लकड़ी का था, और उस वक्त आधा से थोड़ा अधिक खुला दिखाई दे रहा था।

उसने हौले से दस्तक दी।

“कौन?”

“वंश वशिष्ठ।”

“आओ भई पत्रकार साहब, अंदर आ जाओ।”

“थैंक यू।” कहता हुआ वह भीतर दाखिल हो गया।

सुशांत अधिकारी एक सोफे पर करीब करीब लेटकर ड्रिंक कर रहा था। जबकि दीक्षित उसके सामने बैठा सिगरेट के सुट्टे लगा रहा था। सेंटर टेबल पर एक बोतल रखी थी, और वहीं व्हिस्की से आधा भरा एक कांच का गिलास भी मौजूद था, जो कि दीक्षित पक्का अपने लिए तैयार किये बैठा था।

“सस्पेंड होने का गम कुछ ज्यादा ही भारी पड़ गया दिखता है, जो दिन में ही घूंट लगाने लगे।” वंश थोड़ा हंसता हुआ बोला।

“बैठ जा भाई क्यों जले पर नमक छिड़क रहा है, जबकि वह काम हमारा महकमा पहले ही पूरी तसल्ली के साथ कर चुका है।”

“थैंक यू।” कहता हुआ वह दयानंद के बगल में सोफे पर बैठ गया।

“अब बताओ क्या बात करना चाहते हो?”

“मुझे अफसोस है।”

“हमारे सस्पेंशन का?”

“तुम दोनों की इस वक्त दिखाई दे रही हालत का। वक्त की मार ने कैसे एक ही झटके में दिल्ली पुलिस के दो जांबाज ऑफिसरों को चूहा बनाकर रख दिया।”

“भई पहले ये बता कि जांबाज बोलकर तारीफ कर रहा है या चूहा बोलकर बेइज्जती कर रहा है? अगर बेइज्जती ही कर रहा है तो मत कर, क्योंकि वह तो पहले ही जम जम कर हो चुकी है।”

“ओह मुझे हमदर्दी है।”

“कमीनी ने दिमाग की दही कर के रख दी यार।”

“गरिमा देशपांडे ने?”

“तुझे कैसे पता?”

“खबर रखनी पड़ती है अधिकारी साहब।”

“हां उसी ने, साली इतनी बेइज्जती तो जिंदगी में कुल मिलाकर भी नहीं हुई होगी, जितनी उसने दस मिनट में कर के दिखा दी। वह भी किसकी? इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी की, जो उसी की तरह थ्री स्टार वाला पुलिस ऑफिसर है।”

“हैं नहीं जनाब, थे।”

“क्यों बद्दुआ दे रहा है यार, अभी सस्पेंड ही तो हुआ हूं, नौकरी से बाहर थोड़े ही दिया गया है। और मर्द के बच्चे को उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए।”

“तो मर्दों वाले काम कीजिए अधिकारी साहब, ये क्या बात हुई कि खुद को नशे की गर्त में डुबोये दे रहे हैं।”

“करूंगा, वह भी करूंगा।”

“तुम ये बताओ - इस बार दीक्षित बोला - कि हमारी क्या मदद कर सकते हो?”

“ये मैं पूरी कहानी सुने बिना कैसे बता सकता हूं।”

“कौन सी कहानी?”

“डॉक्टर बरनवाल के कत्ल की कहानी?”

“उसमें ऐसा कुछ है ही नहीं जो मीडिया को पहले से न पता हो।”

“फिर भी बताईये।”

“हीरो।”

“यस सर।”

“सुना दे भाई।”

“पूरी की पूरी?”

“हां, लेकिन शॉर्टकट में, और सेंसर कर के।”

“ठीक है - कहकर उसने वंश की तरफ देखा - कत्ल 31 जनवरी को किया गया था, ये बात तुम जाने ही होगे। उसका पता सबसे पहले क्लिनिक में उन दिनों बतौर नर्स काम कर रही कविता कुमावत को लगा, उसी ने कंट्रोल रूम को खबर दी, जिसके बाद हम वहां इंवेस्टिगेशन के लिए पहुंचे। मरने वाले को स्टैब किया गया था, और उस बारे में फॉरेंसिक डिपार्टमेंट ने जो नतीजा निकाला वो ये था कि कत्ल से ऐन पहले तक वह किसी के साथ अपने केबिन में सोफे पर बैठा बातचीत कर रहा था। दूसरी अहम बात ये थी कि वहां मेज पर एक फूला हुआ लेकिन खाली लिफाफा रखा था, जिसकी जांच में पता लगा कि उसके भीतर खाली होने से पहले तक कोई आयताकार चीज रखी हुई थी, जिससे बने हल्के से आकार को नापकर देखा गया तो ये अंदाजा लगाते देर नहीं लगी कि उसमें पांच सौ के नोटों की गड्डियां ठूंसी गयी थीं। बाद में जब हमने उसका बैंक एकाउंट चेक किया तो पता लगा उस रोज दिन में उसने तीन लाख रूपये विदड्रॉ किये थे, यानि लिफाफे में रकम ही मौजूद थी।”

“मतलब बाद में वो पैसे कातिल ले उड़ा था?”

“या रखे ही कातिल के लिए गये थे।”

“क्योंकि वह डॉक्टर को ब्लैकमेल कर रहा था?”

“कुछ कुछ ऐसा ही नतीजा निकाला था हमने।”

“ब्लैकमेलिंग की वजह?”

“नहीं पता लगी।”

“सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को खत्म क्यों कर दिया गया?”

“ये एक ऐसा सवाल था वंश साहब जिसका पता हम नहीं लगा पाये। बहुत कोशिश की मगर कुछ हासिल नहीं हुआ। फिर हमने इस बात पर भी दिमाग खपाया कि कोई आदमी हर महीने उससे सीक्रेटली मिलने आता था। कातिल वही था इस बात का यकीन हमें बहुत जल्द आ गया, मगर वह था कौन इसका पता आज तक नहीं लग पाया।”

“किसी दोस्त या दुश्मन की खबर नहीं लगी?”

“दोस्तों की लगी, उनसे पूछताछ भी की मगर दाल नहीं गली क्योंकि जिन लोगों के नाम उसके जानने वालों में शुमार होते थे, वह बड़ी हैसियत वाले लोग थे, जिनसे जबरन कुछ उगलवा पाना मुमकिन नहीं था, और प्यार मनुहार से सवाल कर के बात बनी नहीं।”

“सुना है आयशा बागची नाम की एक लड़की के साथ डॉक्टर का अफेयर था?”

“हां चालीस साल की लड़की, हमने उससे भी सवाल जवाब किये, जिनमें से कुछ का जवाब दिया, तो बहुतेरे सवालों का नहीं दिया। और तो और उस औरत ने मुझे धमकी तक दे दी कि ज्यादा परेशान करने की कोशिश करूंगा तो नौकरी ही नहीं रह जायेगी। तब अधिकारी साहब भी तैश में आ गये, खूब गहमागहमी हुई, और आखिरकार किसी प्वाइंट पर पहुंचकर बात वहीं खत्म भी हो गयी।”

“उसने वर्दी उतरवाने की धमकी दी और तुमने सुन ली?”

“और क्या करता उसपर डंडे बरसाने लग जाता?”

“नहीं वो तो खैर संभव ही नहीं था, अच्छा ये बताओ कि क्या तुम लोगों ने विश्वजीत और उसकी मां के बारे में ये पता लगाया था कि दोनों दिल्ली कब पहुंचे थे?”

“हां लगाया था, उसके लिए पटना तक भेज दिया एक सिपाही को लेकिन जवाब उनके हक में ही रहा, पता लगा कि 31 जनवरी को वह और उसकी मां हाजीपुर में थे, जहां बबिता बरनवाल का मायका है। उनके घर पर रामचरित मानस का पाठ चल रहा था, जिसका एक फरवरी को समापन हुआ। बेटा हर वक्त वहां पाठ करता रहा था और मां बीच बीच में सबके लिए चाय बनाकर लाती रही थी। जिसके दस से ज्यादा गवाह वहां मौजूद थे।”

“दिल्ली कब आये दोनों?”

“उसी रोज शाम की फ्लाईट लेकर।”

“इंफॉर्म आपने किया था?”

“हां।”

“रहे कब तक थे यहां?”

“अंतिम क्रिया कर्म कर के लौट गये थे।”

“और दोबारा करीब दो महीने बाद आये, है न?”

“नहीं आये थे।”

“पक्का?”

“पक्का।”

“अगर ऐसा था तो पति के मकान पर अधिकार पाने में कैसे सफल हो गयी बबिता बरनवाल, वह काम जाहिर है कोर्ट के जरिये ही हुआ होगा, जिसमें वक्त लगकर रहना था।”

सुनकर सोफे पर अधलेटा सा बैठा अधिकारी सीधा होकर बैठ गया, फिर हाथ में थमें गिलास से एक तगड़ा घूंट भरकर बोला, “कौन सा मकान? जिस मकान की तुम बात कर रहे हो वह तो रेंट पर ले रखा था डॉक्टर ने।”

“आप मजाक कर रहे हैं?”

“क्यों करूंगा?”

“अधिकारी साहब मैं सीधा उसके नये ऑनर से मिलकर आ रहा हूं, उसने बताया है कि मकान बबिता बरनवाल से खरीदा था, और उस काम में आप और दीक्षित साहब ने मां बेटे की मदद भी खूब की थी।”

“हां की थी - दीक्षित बोला - साहब पर लगता है नशा सवार हो गया है, इसलिए कुछ याद नहीं आ रहा। बात ये थी वंश कि मानवता के नाते हमने उन्हें ना तो कोर्ट के चक्कर में परेशान होने दिया ना ही उन्हें यहां रुकने की जरूरत पड़ी। बाद में जब सारा काम हो गया तो उन्हें खबर कर के दिल्ली बुला लिया, फिर एक प्रॉपर्टी डीलर के जरिये डॉक्टर का हौजखास वाला मकान बिकवाने में भी मदद कर दी।”

“सिर्फ मानवता के नाते?”

“थोड़ी कमाई भी की थी यार।” वह झेंपे लहजे में बोला।

“कितनी?”

“डीलर को दो परसेंट हासिल हुए थे, उसी में से एक परसेंट के हिस्से पर हमने कब्जा जमा लिया था। और वह डील हम पहले ही कर चुके थे उसके साथ।”

“दस करोड़ का एक परसेंट यानि दस लाख, है न?”

“हां भई क्या गुनाह कर दिया? हमने बबिता बरनवाल का हिस्सा थोड़े ही खाया था, डीलर की कमीशन खाई थी, जिसमें हमारा हिस्सा होता या न होता, उसने तो मिलकर रहना था।”

“नहीं गुनाह नहीं किया, उल्टा एहसान किया मां बेटे पर जो उनसे कुछ और नहीं मांगा। हैरानी है कि इतनी हैल्प करने वाले ऑफिसर्स पर विश्वजीत ने भरी अदालत में कातिल से मिला होने का इल्जाम लगा दिया।”

“भलाई का जमाना ही नहीं है यार।”

“कोई वजह सूझती है आप दोनों को?”

“हां।”

“क्या?”

“असल में वह बस ये चाहता है कि किसी तरह उसके बाप के केस की रीइंवेस्टिगेशन शुरू हो जाये, वह काम आसान नहीं था, इसलिए हमारे साथ गेम खेल गया कमीना। और सब साले अंधे हो गये हैं जो उसकी चतुराई किसी को दिखाई नहीं देती।”

“केस का खुलासा क्यों नहीं हो पाया इंस्पेक्टर साहब, क्या कमी रह गयी?”

“कोई कमी नहीं थी, सौ के करीब लोगों से पूछताछ की गयी। हर संभवना पर गौर किया गया, तीन दर्जन के करीब सिपाही इधर उधर की खाक छानते रहे, दर्जनों नशेड़ियों और गुंडे बदमाशों पर डंडे बरसाये, मगर हासिल कुछ नहीं हुआ, और इसके बावजूद वह कमीना कहता है कि हमने कातिल का फेवर किया था।”

“अपने कहे को साबित कर के भी तो दिखा रहा है।”

“बकवास, पता नहीं किससे हम दोनों के आवाज की नकल करा ली। फिर जरा सोचकर देखो कि अगर हमने उसके बाप के हत्यारे का फेवर करना भी था, तो मां बेटे को दिल्ली से भगाने के लिए दबाव डालना क्यों जरूरी था? यहीं बने रहते तो हमारा क्या बिगाड़ लेते? और सबसे बड़ी बात ये कि कोई माई का लाल चाहकर भी ये बात साबित नहीं कर सकता कि बरनवाल की हत्या के बाद हमने उनके किराये के कमरे पर कदम भी रखा था।”

“फिर दुश्मनी किस बात की निकाल रहा है वह?”

“बताया तो केस रीइंवेस्टिगेट कराना चाहता है।”

“या कुछ और चल रहा है उसके मन में?”

“हो सकता है, अगर मुलाकात हो तो पूछकर देखना - फिर थोड़ा बौखलाये लहजे में बोला - नहीं नहीं, उससे कोई सवाल मत करना, वरना हमारी कंप्लेन कर देगा।”

“सवाल मैं करूंगा तो कंप्लेन आप दोनों की क्यों करेगा?”

“सनकी है, क्या पता यही सोचकर कर दे कि हमीं ने तुम्हें उसके पास भेजा है।”

“ठीक है नहीं करूंगा, लेकिन इतनी तत्तपरता बरतने के बाद भी आप दोनों हत्यारे तक नहीं पहुंच पाये, ये बात कुछ समझ में नहीं आती, आखिर महकमे में बहुत काबिल ऑफिसर माने जाते हैं।”

“हां काबिल तो हम बराबर हैं, वैसे जांच की दिशा भटकाने में तुम मीडिया वालों ने भी कोई कम भूमिका नहीं निभाई थी।”

“वो कैसे?”

“ऐसे कि आजकल सारे पत्रकारों पर जासूस बनने का भूत सवार है, हर कोई पुलिस से दस हाथ आगे की चीज समझता है अपने आपको। बल्कि हमारे अफसरों को भी हमसे ज्यादा मीडिया के कहे पर यकीन आने लगा है। बरनवाल के केस में भी मीडिया इन्वेस्टिगेशन का नेगेटिव इंपेक्ट पड़कर रहा। तुम लोग रोज नए-नए तथ्यों की रिपोर्ट करते रहे, ऐसे तथ्य जिनका साला कोई सिर पांव ही नहीं था, मगर हमारे अफसर तुम्हारे दिखाये गये हर रास्ते पर दौड़ाते रहे हमें। यानि केस के उन पहलुओं की भी जांच करनी पड़ी, जिनका बरनवाल के कत्ल से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं हो सकता था। जैसे कि ड्रग कार्टल, स्ट्रीट क्राईम ब्ला ब्ला ब्ला। साली खोपड़ी घुमाकर रख दी थी। दूसरी समस्या ये आई कि जितनी तेजी से यह मामला हाईलाइट हुआ, उतनी ही तेजी से इलाके में सक्रिय रहने वाले आवारागर्द व असमाजिक तत्व गायब हो गए, क्योंकि जानते थे पुलिस उन्हें इंटेरोगेट कर के रहेगी। सीधे शब्दों में कहूं तो हम भटकते चले गये, उन तथ्यों में उलझते चले गये, जिनसे इस मामले में कोई मदद नहीं मिलने वाली थी। और उसी अनुपात में हत्यारा निरंतर हमसे दूर होता चला गया। जबकि हमें कल भी लगता था कि डॉक्टर बरनवाल की हत्या ब्लैकमेलिंग से जुड़ी थी, और आज भी यही लगता है।”

“लेकिन ऐसा कोई दिखाई नहीं दिया जो उसे ब्लैकमेल कर सकता हो?”

“भई दिखता तो तब न जब ब्लैकमेलिंग की कोई वजह सामने आती।”

“उस दौरान क्या अमरजीत से पूछताछ की थी आप लोगों ने?”

“अमरजीत से? उससे क्यों?”

“लगता है अधिकारी साहब सच में नशे में पहुंच गये हैं, अरे जब अमरजीत और डॉक्टर दोस्त थे तो उससे पूछताछ न करने का क्या मतलब बनता है।”

“ठीक कहा, हां एक बार की थी, मगर सतही पूछताछ की, क्योंकि उसके और डॉक्टर की दोस्ती जगविदित बात थी, फिर जिस रात कत्ल हुआ उस रात अमरजीत अपने परिवार के साथ संगम विहार में एक शादी अटैंड कर रहा था। वह बात साबित भी हो गयी, इसलिए सहज ही उसका पीछा छोड़ दिया।”

“कम से कम एक बात तो ऐसी जरूर थी इंस्पेक्टर साहब, जिसकी तरफ आपका ध्यान जाना चाहिए था। गया होता तो उसपर शक भी कर के रहते आप।”

“कौन सी बात?”

“दो साल पहले अमरजीत संगम विहार जैसे इलाके में किराये पर रहा करता था, फिर उसकी इतनी हैसियत हो गयी कि वसंत कुंज में दो करोड़ का फ्लैट खरीद लिया, ये बात हैरान नहीं करती आपको?”

“भई गर्वनमेंट जॉब में था।”

“बेशक था, लेकिन पुलिसवाला नहीं बल्कि टीचर था, इसलिए ऊपरी कमाई की कोई गुंजाईश नहीं थी।”

“तंख्वाह भी तो मोटी ही रही होगी।”

“साठ सत्तर हजार बताती है उसकी बीवी।”

“कमाल है - इतनी देर में पहली बार अधिकारी बोला - हमारा ध्यान उस तरफ क्यों नहीं गया हीरो?”

“अब मैं क्या कहूं सर।”

“इस तरह से देखें तो ब्लैकमेलर अमरजीत क्यों नहीं रहा हो सकता?”

“एक स्कूल टीचर, विद्यार्थियों को सदाचार का ज्ञान देने वाला ब्लैकमेलर?”

“जब कानून की रक्षा करने वाला कोई पुलिस ऑफिसर रिश्वत लेकर स्याह को सफेद कर सकता है, तो एक टीचर किसी को ब्लैकमेल क्यों नहीं कर सकता।”

“तुम हमपर रिश्वतखोरी का आरोप लगा रहे हो?”

“अगर ली है तो हां, नहीं ली तो नहीं लगा रहा, इसमें बुरा मानने वाली क्या बात है।”

“नहीं हम दोनों का अपनी तंख्वाह से पेट भर जाता है, है न हीरो?”

“जी बिल्कुल।”

“अब जरा अपने दिमाग पर जोर डालिये और रीइंवेस्टिगेशन वाली बात को भूलकर, ये सोचिये कि अगर विश्वजीत की रिकॉर्डिंग झूठी है तो ऐसा क्या नुकसान कर दिया आप लोगों ने उसका जो वह बदला लेने पर उतारू हो गया?”

“याद तो नहीं आ रहा ऐसा कुछ? हां इंटेरोगेशन के दौरान एक थप्पड़ जरूर जड़ दिया था दीक्षित ने उसे, क्योंकि वह हर बात का उल्टा जवाब दिये जा रहा था।”

“नहीं बात इतनी मामूली नहीं हो सकती, क्योंकि उसने थाने में बैठकर अमरजीत का कत्ल किया होना कबूल किया था, साथ में डॉक्टर बरनवाल का भी।”

“और भी दर्जनों कत्ल किया होना कबूल किया था साले ने।”

“तभी तो कह रहा हूं कि उसने जो किया वह बहुत दिल गुर्दे वाला काम था, इसलिए वजह बहुत बड़ी होनी चाहिए। फिर वह अपने बाप के कत्ल की इंवेस्टिगेशन दोबारा कराना भी चाहता था तो उसके लिए सीधा कोर्ट में अर्जी दाखिल कर सकता था, इतना फसाद खड़ा करने की क्या जरूरत थी?”

“मेरे ख्याल से तो सर आपकी कही पहली बात ही सच है।” दीक्षित बोला।

“कौन सी बात?”

“वही जो आपने डीसीपी साहब से कही थी।”

“अच्छा! इस बारे में मैंने गुप्ता से भी कुछ कहा था?”

“जी हां।”

“क्या कहा था?”

“यही कि कई सारे कत्ल किया होने की बात उसने इसलिए कबूल की ताकि उनकी ओट में अमरजीत की हत्या के इल्जाम से भी साफ बरी हो जाये। जानता था कि उसके बाप की हत्या का जुर्म हम किसी भी हाल में साबित नहीं कर पायेंगे। बल्कि उसके खिलाफ लगाये गये तमाम चार्जेज झूठे साबित होकर रहेंगे, इसलिए जी खोलकर गुनाह कबूल किया और अदालत में हर बात से साफ मुकर गया। और जब डॉक्टर का केस झूठा साबित हो ही गया था तो किसे पड़ी थी कि अमरजीत के कत्ल के बारे में अलग से सोचता।”

“कह तो तू ठीक रहा है हीरो।”

“ये मैं नहीं कह रहा सर, आपने कहा था डीसीपी साहब के सामने।”

“चल वही सही - कहकर उसने वंश की तरफ देखा - सुन लिया पत्रकार, अब तुम बताओ कि विश्वजीत की नौटंकी के पीछे की असल वजह क्या लगती है तुम्हें?”

“मेरे ख्याल से उसे डर था कि कहीं कत्ल की जांच फिर से आप दोनों को ही न सौंप दी जाये, तभी उसने उतना बवेला किया ताकि आप एक्सपोज हो जाते, जिसके बाद जांच किसी काबिल ऑफिसर के हाथों में पहुंच जाती।”

“हम तुम्हें काबिल नहीं लगते?”

“उसे नहीं लगते होंगे, फिर उसकी निगाहों में तो आप दोनों कातिल से मिले हुए थे, ऐसे में आपसे ईमानदारी की उम्मीद कैसे कर सकता था।”

“हां इस बात में थोड़ा दम दिखाई दे रहा है, हैरानी है कि उसे बदला लेना सूझा भी तो पूरे छह सालों बाद।” अधिकारी बोला।

“एक साल बाद।”

“क्या?”

“डॉक्टर बरनवाल का कत्ल हुए अभी बस एक साल ही गुजरे हैं।”

“ओह सॉरी, लगता है सच में नशा चढ़ गया है।”

“जिससे आपको बच के रहना चाहिए क्योंकि कभी भी गरिमा देशपांडे का बुलावा आ सकता है, और उसके सामने नशे की हालत में पहुंच गये तो हो गया आपका काम।”

“लगता है अच्छे से जानते हो उस कमीनी को।”

“हां जानता हूं।”

“अरे तो जाकर हमारा कहा उसे बता तो नहीं दोगे?”

“नहीं, हरगिज भी नहीं।”

“हमारे काम आकर दिखावो वंश साहब, फिर वर्दी वापिस मिल गयी तो हम तुम्हारे इतने काम आकर दिखायेंगे कि जीवन भर याद करोगे कि किन्हीं दरियादिल पुलिसवालों से पाला पड़ा था।”

“जरूर दिखाऊंगा, तभी तो यहां हूं।”

“और कुछ पूछना है?”

“आपके दोनों आई विटनेसेस ने अदालत में क्या कहा था, मैंने सुना था क्योंकि उस वक्त वहीं मौजूद था। मतलब मार से बचने के लिए झूठी शिनाख्त कर दिखाई थी, ऐसे में अमरजीत का हत्यारा विश्वजीत कैसे हो सकता है?”

“हां इस तरह से तो नहीं ही हो सकता।”

“हो भी सकता है।” दीक्षित बोला।

“कैसे?”

“हो सकता है बरनवाल का कत्ल अमरजीत ने ही किया हो, आखिर थोड़ी देर पहले तुम उसे ब्लैकमेलर बताकर हटे हो, जिसकी खबर किसी तरह विश्वजीत को लग गयी और उसने बाप की मौत का बदला लेने के लिए उसे खत्म कर दिया।”

“अगर कर दिया था तो फरार हो जाता, या वापिस घटनास्थल का फेरा लगाने चला जाता, ताकि तुम लोग उसे गिरफ्तार कर लेते?”

“नहीं ऐसा तो वह नहीं करने वाला था।”

“ठीक है तो अभी हम ये मान लेते हैं कि कातिल विश्वजीत नहीं है - अधिकारी बोला - होता तो वाकई में फरार हो गया होता। जबकि सच ये है कि उसे गिरफ्तार करने के लिए हमें जरा भी मशक्कत नहीं करनी पड़ी थी। इसका मतलब ये बनता है कि सारा किया धरा एडवोकेट रमन राय का था। वह इंटेरोगेशन रूम में जाकर उससे मिला था, और वहीं उसे पट्टी पढ़ाई कि आगे पुलिस से क्या कहना था और क्या नहीं कहना था।”

“ये नई बात सुन रहा हूं मैं, क्या हुआ था?”

जवाब में अधिकारी ने उसे वकील के थाने पहुंचने की बात बता दी।

“इंवेस्टिगेशन के दौरान कभी आप लोगों का शक कविता कुमावत की तरफ नहीं गया, आखिर खूबसूरत है वह, पेशेंट चले जायें तो क्लिनिक में बस वो और डॉक्टर ही बचे रह जाते होंगे।”

“सच पूछो तो नहीं ही हुआ, क्योंकि वो तो साढ़े आठ बजे ही वहां से निकल गयी थी?”

“कैसे पता, कोई कैमरा लगा था वहां?”

“नहीं कैमरा नहीं था, लेकिन पड़ताल हमने बराबर थी।”

“और कहीं जाकर लौट आई हो तो?”

“उस तरफ तो खैर हमने कोई ध्यान नहीं दिया था। लेकिन वह भला डॉक्टर का कत्ल क्यों करती?”

“खुद को डॉक्टर के चंगुल से बचाने के लिए?”

“मतलब?”

“क्या पता डॉक्टर ने उसपर रेप अटैंप कर दिया हो जिसके बाद उसी ने उसका कत्ल किया और वहां रखे तीन लाख रूपये लेकर गायब हो गयी।”

“यानि जो हुआ अचानक हुआ?”

“हां।”

“तो उसके पास कत्ल के लिए छुरा कहां से आ गया पत्रकार साहब, मत भूलो कि वह डॉक्टर का क्लिनिक था, ऐसे डॉक्टर का जिसे सर्जिकल नाईफ की भी कोई जरूरत नहीं पड़ती होगी।”

“नहीं, वो कातिल नहीं हो सकती।” दीक्षित बोला।

“क्यों?”

“बस नहीं हो सकती, अगली सुबह जिस बिंदास अंदाज में उसने हमारे सवालों का जवाब दिया था, वह कोई ऐसी लड़की नहीं दे सकती थी जिसने अपने बॉस का कत्ल कर दिया हो।”

“संभाल लिया होगा खुद को, आखिर कत्ल करने और जवाब देने के बीच बड़ा वक्फा रहा होगा - कहकर उसने पूछा - कत्ल हुआ कितने बजे था डॉक्टर का?”

“नौ से ग्यारह के बीच।”

“फिर तो घर जाकर वापिस लौट आने का पूरा पूरा मौका हासिल था उसे।”

“अरे क्यों खामख्वाह उस बेचारी के पीछे पड़े हो, कहा न वह कातिल नहीं हो सकती।”

“कुछ ज्यादा ही हमदर्दी हो गयी है उससे, नहीं?”

“हमदर्दी जैसी कोई बात नहीं है, लेकिन कोई वजह भी तो होनी चाहिए। खामख्वाह किसी को परेशान करने का क्या फायदा, तुम भी मत करना।”

“वजह डॉक्टर की टेबल पर मौजूद तीन लाख रूपये ही क्यों नहीं रहे हो सकते?”

“अरे कहा न वो कातिल नहीं हो सकती।”

“ठीक है नहीं हो सकती तो नहीं हो सकती।”

“और कुछ पूछना चाहते हो?”

“आप कुछ बताना चाहते हैं?”

“नहीं।”

“फिर तो बात ही खत्म हो गयी, अब चलता हूं।”

“अरे घूंट लगाकर जाओ।”

“मैं दिन में नहीं पीता।”

“तो कभी रात में आकर मिलो।”

“मैं रात में भी नहीं पीता।”

“कम से कम इतना तो कहकर जाओ कि हमारी हैल्प करोगे?”

“अगर आप दोनों बेगुनाह हैं तो पक्का करूंगा।”

“कैसे?”

“डॉक्टर के कातिल को खोज निकालूंगा इंस्पेक्टर साहब - वह टेबल के ऊपर से थोड़ा अधिकारी की तरफ झुका और दायें हाथ से मटर के बराबर की कोई चीज सेंटर टेबल के निचले पोर्शन में रख दी, फिर बोला  - कातिल मिल गया तो उसे ढूंढ निकालने का सेहरा आपके सिर पर बांध दूंगा, फिर आपके अफसर ये भूल जायेंगे कि किस तरह के इल्जामों के तहत आप दोनों को सस्पेंड किया गया था।”

“तो तुम भी उन्हीं लोगों में से हो?”

“किन लोगों में?”

“खुद को पुलिस से होशियार समझने वालों में।”

“इंतजार कीजिए, जवाब खुद ब खुद हासिल हो जायेगा।” कहकर वह वह उठा कमरे से बाहर निकल गया।

उसके पीठ पीछे काफी देर तक सन्नाटा छाया रहा फिर अधिकारी ने दो पैग बनाये और एक दीक्षित के हवाले करता हुआ बोला, “कहीं ये साला कविता के पीछे पड़कर उससे सच न उगलवा ले।”

“नहीं उगलवा सकता, मत भूलिये कि अब वह शादीशुदा है, इसलिए किसी कंट्रोवर्सी में फंसना अफोर्ड नहीं कर सकती। करेगी तो हमारा जो बिगड़ेगा बाद में बिगड़ेगा, पहले वह बर्बाद हो जायेगी।”

“आजकल दूसरी तीसरी शादी खासा प्रचलन में है हीरो, मतलब वह किसी और से ब्याह रचाकर ऐश कर रही होगी, जबकि हम दोनों जेल में बैठे चक्की पीस रहे होंगे।”

“सर उससे भी बड़ा खतरा हमें विश्वजीत से है, बल्कि मनसुख और उसकी मां कौशल्या से भी है। पूरी तरह निश्चिंत होना है तो हमें एक नहीं पांच लोगों का मुंह बंद करना पड़ेगा।”

“अगर ऐसा है तो क्यों न कर ही डालें?”

“आसान नहीं होगा सर, विश्वजीत और बबिता की जान गयी तो सीधा शक हमपर ही जायेगा। हां मनसुख और कौशल्या से बराबर निबट सकते हैं हम।”

“तो एक काम करते हैं, कविता को किसी और से कहकर ठिकाने लगवा देते हैं, और मनसुख कौशल्या को हम दोनों खत्म कर आते हैं। बाकी बचे विश्वजीत और बबिता बरनवाल तो उनके बारे में थोड़ा ठहरकर कुछ सोच लेंगे।”

“प्रॉब्लम हो जायेगी सर कम से कम कविता के मामले तो यकीनन होगी। हर कोई ये सोचकर चौंक पड़ेगा कि डॉक्टर बरनवाल के नर्स की हत्या भला किसी ने क्यों कर दी, फिर ये समझते देर नहीं लगेगी कि वह काम हमारे अलावा किसी का नहीं हो सकता।”

“तभी तो उसका कत्ल करने की बजाये करवाने की बात कर रहा हूं मैं।”

“सर हम पहले से ही बड़ी मुसीबत में हैं।”

“तो दो चार मुसीबतें और सही, अंजाम अगर जेल जाना ही है तो क्यों न दिल खोलकर जुर्म कर लिये जायें। या तू कन्नी काटना चाहता है, इसलिए क्योंकि तुझपर आई मुसीबतों की वजह भी मैं ही हूं?”

“क्यों जूते मार रहे हैं सर?”

“यानि तू मेरे साथ है?”

“हर वक्त, भले ही जेल क्यों न जाना पड़ जाये। फिर मुझे नहीं लगता कि जेल में हमें कोई परेशानी होगी, शेर आखिर शेर ही रहता है, चाहे खुले जंगल में हो या पिंजरे में, इसलिए मुझे आपका ये कहा कबूल है कि अगर गिरफ्तार होना ही है तो क्यों न जी खोलकर जुर्म कर लिया जाये। बच गये तो ठीक वरना जेल में ऐश करेंगे।”

“शाबाश हीरो।”

“लगता है कोई योजना है आपके दिमाग में।”

“अभी नहीं है, लेकिन बनाई जा सकती है।”

“अगर वाकई में कोई फुल प्रूफ योजना आप बना सकें तो इस बात में कोई शक नहीं कि हमारी काफी सारी मुसीबतें एक ही झटके में समाप्त हो जायेंगी।”

“ठीक है एक काम करो।”

“क्या?”

“दिमाग पर जोर डालकर सोचो कि ऐसा कौन है जिसकी डील डोल विश्वजीत से मिलती हो, साथ ही वह हमारे फुल काबू में हो। कविता का कत्ल हम उसी से करायेंगे, जिसके बाद गरिमा का ध्यान विश्वजीत की तरफ जाकर रहेगा, क्योंकि डील डौल मिलती होगी, और चेहरा दिख नहीं रहा होगा।”

“बल्ली कैसा रहेगा?”

“विश्वजीत के मुकाबले मोटा है।”

“चिरकुट?”

“कद में छोटा है, फिर कत्ल करना उसके बस की बात नहीं है।”

“काले?”

“हां काले एकदम फिट है इस काम के लिए, फोन कर उसे।”

“कर के क्या कहूं?”

“मिलने के लिए यहां बुला।”

दीक्षित ने तुरंत उसका नंबर डॉयल कर दिया। थोड़ी देर बाद दूसरी तरफ से कॉल भी पिक कर ली गयी।

“कैसा है काले?”

“सलाम साहब, एकदम मस्त है मैं।”

“एक काम है तेरे से, खास काम।”

“नहीं कर सकता।”

“क्या बकता है?”

“मैंने धंधा छोड़ दिया है, शादी करने जा रहा हूं।”

“साले हमसे बाहर जाने का अंजाम जानता है?”

“हां जानता हूं, कुछ नहीं बिगाड़ सकते।”

“अंटी चढ़ा रखी है, भूल गया किससे बात कर रहा है?”

“हां ऐसे साहब से जिनकी आजकल लगी पड़ी है।”

“दिन हमेशा एक जैसे नहीं रहते काले।”

“जब बदल जायें तो फोन कर लीजिएगा।” कहकर दूसरी तरफ से कॉल डिस्कनैक्ट कर दी गयी।

“मादर...ऐसे फैल रहा है जैसे गारंटी हो कि हमारे जिस्म पर दोबारा वर्दी दिखाई ही नहीं देगी।”

“वक्त बुरा चल रहा हो हीरो तो यही होता है।”

“अब क्या करें?”

“लल्लन को फोन कर, उसकी कद काठी भी काफी हद तक विश्वजीत से मैच करती है।”

“वह तैयार हो जायेगा?”

“हां भई, बहुत एहसान है हमारा उसपर, आज ऐश और आजादी की जिंदगी जी रहा है तो सिर्फ और सिर्फ हमारी वजह से, वरना साल भर पहले ही बिलाल खान की हत्या के मामले में जेल पहुंच गया होता।”

“आप बात कीजिए।” कहकर उसने लल्लन का नंबर डॉयल किया और मोबाईल को हैंड्स फ्री मोड पर डाल दिया।

तत्तकाल संपर्क हुआ।

“नमस्कार साहब।”

“नमस्कार, कैसा है?”

“बढ़िया हूं सर, आप दोनों के बारे में सुना, बहुत अफसोस हुआ सुनकर।”

“मत कर, बस महीना दो महीना की बात है।”

“भगवान करें एक दो दिन की बात हो।”

“एक काम था लल्लन।”

“हुक्म कीजिए।”

“उससे पहले मैं तुझे याद दिला दूं कि दो साल पहले कैसे एक चिंदी चोर, खान मोटर वर्कशॉप का मालिक बन गया, और क्यों वह जेल जाने से बच गया।”

“मुझे सब याद है साहब।”

“और जिगरे का क्या हाल है, वह पहले वाला ही है या खालिस मोटर मैकेनिक बनकर रह गया है?”

“आजमाकर देखेंगे साहब तभी तो जान पायेंगे।”

“यानि काम करने से इंकार नहीं है तुझे?”

“क्यों जूते मार रहे हो साहब?”

“बड़ा काम है?”

“ज्यादा से ज्यादा किसी को ठिकाने लगाना होगा, बैंक लूटने को थोड़े ही कह देंगे आप।”

“नहीं, ठिकाने ही लगाना है, वह भी एक लड़की को।”

“मामूली काम है, बताईये।”

“उसके बाद हमारे बीच का हिसाब बराबर हो जायेगा, मतलब आगे तू हमारा कोई काम करने से साफ मना कर सकता है।”

“मुझे मना करना ही नहीं है साहब, काम बताईये।”

“ठीक है एक एड्रेस नोटकर, और आकर मिल।”

“अभी?”

“और क्या कल परसों आयेगा?”

“ठीक है बताईये।”

जवाब में दीक्षित ने वहां का पता उसे समझाकर कॉल डिस्कनैक्ट किया ही था कि अपने बगल में सोफे पर निगाह पड़ते ही चौंक उठा, “ये किसका मोबाईल है?”

“पत्रकार का लगता है।”

“हे भगवान!”

“जरा चेक तो कर कि साला रिकॉर्डिंग ऑन कर के तो नहीं गया है?”

दीक्षित ने हड़बड़ाकर उस काम को अंजाम दिया, काफी देर तक मोबाईल के अंदर झांकता रहा, फिर बोला, “नहीं इसमें कोई रिकॉर्डिंग नहीं हो रही।”

“ध्यान से देख लिया न?”

“हां देख लिया।”

“शुक्र है वरना तो मुझे यकीन ही आ गया था कि मोबाईल जानबूझकर यहां छोड़ गया था।”

“नहीं बेध्यानी में छूटा जान पड़ता है।”

तत्पश्चात दोनों ने अपने अपने जाम उठा लिये।

तभी कॉलबेल बजी।

“लल्लन होगा जाकर देख।”

“या वंश होगा।” कहते हुए दीक्षित ने उठकर दरवाजा खोला तो बाहर वंश वशिष्ठ को खड़ा पाया।

“मेरा मोबाईल छूट गया था यहां?”

“हां है, देता हूं।” कहकर वह भीतर दाखिल हुआ तो वंश भी उसके पीछे पीछे अंदर आ गया, तभी दीक्षित ने मोबाईल उठाकर उसे थमा दिया। बावजूद इसके वह सोफे पर बैठ गया।

“कुछ और पूछना है?”

“हां एक बात अभी अभी याद आई है।”

“क्या?”

“कविता ने बताया था कि अक्सर आप दोनों भी डॉक्टर से मिलने उसके क्लिनिक चले जाया करते थे, क्या मैं वजह जान सकता हूं?”

“मतलब उस साली ने मुंह फाड़ भी दिया?”

“नहीं फाड़ना चाहिए था?”

“मिल कब लिये उससे?”

“आज ही मिला था, चार बजे के आस-पास।”

“सुना हीरो?”

“जी जनाब सुन लिया।”

“और तू उसकी पैरवी कर रहा था।”

“अब नहीं कर रहा।”

“यानि कोई बड़ी वजह थी वहां जाने की?” वंश ने पूछा।

“बड़ी तो नहीं थी, लेकिन अच्छी भी नहीं थी।”

“फिर तो बता ही दीजिए, वरना मेरा ध्यान वहीं अटककर रह जायेगा।”

उसी दौरान उसका हाथ एक बार फिर टेबल के नीचे रेंग गया। जिसपर दोनों में से किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। मटर के दाने जैसी चीज जहां की तहां मौजूद थी जिसे उसने उठा लिया।

“वजह बहुत मामूली है यार।”

“क्या?”

“डॉक्टर के पेशेंट्स की गाड़ियां हमेशा क्लिनिक के बाहर खड़ी होती थीं, जो कभी कभार बहुत ज्यादा हो जाती थीं, जिसके लिए वह हमारी थोड़ी सेवा पानी कर दिया करता था, इसके अलावा कोई बात नहीं थी।”

“ओह, जबकि मैं ये तक सोचने लगा था कि कहीं उसे ब्लेकमेल करने वाले आप दोनों ही तो नहीं थे।”

जवाब में अधिकारी पहले तो थोड़ा सकपकाया फिर खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरा, “गोद में बैठकर दाढ़ी मूड़ना अच्छी बात नहीं होती पत्रकार साहब।”

“अरे मैं मजाक कर रहा था - कहकर उसने एक फरमाईशी ठहाका लगाया फिर बोला - ब्लैकमेलिंग जैसा काम भला पुलिस क्यों करने लगी। फिर आप दोनों का तो वैसे भी बहुत नाम है महकमे में।”

“अब तुम जा सकते हो?”

“अरे क्यों नाराज हो रहे हैं इंस्पेक्टर साहब, कहा तो मजाक कर रहा था।”

“वो बात नहीं है।”

“फिर?”

“हम खुद भी बस यहां से निकल ही रहे हैं।”

“ठीक है फिर - वह उठ खड़ा हुआ - उम्मीद है जल्दी ही दोबारा मुलाकात होगी, किसी गुडन्यूज के साथ।”

“हम इंतजार करेंगे।”

तत्पश्चात बाहर निकलकर वह अपनी कार में सवार हुआ और उसे थोड़ा परे ले जाकर खड़ा कर दिया। अधिकारी ने जिस तरह उसे वहां से जाने को कहा था उसके दो मतलब हो सकते थे, पहला ये कि उसे उसपर गुस्सा आ गया था, और दूसरा ये कि कोई उनसे मिलने आने वाला था।

इसलिए उसने थोड़ी देर इंतजार करने का फैसला किया।

बीस मिनट बाद एक बुलेट घर के सामने पहुंचकर रुकी, सवार ने हैल्मेट उतारकर हैंडल में लटकाया फिर भीतर दाखिल हो गया। वंश ने कार में बैठे ही बैठे तीन चार तस्वीरें उतार लीं उसकी। फिर कार से निकलकर एक बार फिर घर में दाखिल हुआ और बंद दरवाजे से अपने कान सटाकर खड़ा हो गया।

“काम कोई ज्यादा मुश्किल नहीं है लल्लन - अधिकारी की आवाज उसके कानों में पड़ी - लेकिन सावधानी बरतने की जरूरत बराबर है, क्योंकि तू देख ही रहा है दिन अच्छे नहीं चल रहे।”

“मैं संभाल लूंगा सर, आप बस ये बताईये कि करना कब है, और लड़की का पता ठिकाना भी बता दीजिए।”

“आज के आज करना है और पता अभी दीक्षित साहब तुझे नोट कर के दिये देते हैं।”

“ठीक है समझ लीजिए काम हो गया।”

“थैंक यू, ड्रिंक करोगे।”

“मेहरबानी।”

तत्पश्चात कांच के गिलास टकराने की आवाज वंश के कानों में पड़ी तो वह दरवाजे से हटा और वहां से बाहर निकल गया।

‘वे लोग किसी लड़की के साथ कुछ करने जा रहे थे, कौन लड़की?’

‘कविता कुमावत, या आयशा बागची, या कोई और?’

वह वापिस अपनी कार में जाकर बैठ गया।

थोड़ी देर बाद लल्लन बाहर आया और बाईक पर सवार होकर वहां से निकल गया। वंश ने अपनी कार उसके पीछे लगा दी। विभिन्न सड़कों से होती हुई उसकी बाईक आखिरकार महरौली के एक खूब बड़े मोटर वर्कशॉप में दाखिल हो गयी।

तब तक अंधेरा घिरना शुरू हो चुका था।

आगे वंश ने बहुत देर इंतजार किया, मगर लल्लन बाहर नहीं आया, तब वह कार को वर्कशॉप तक ले गया और जोर से बोला, “धुलाई करनी है।”

तत्काल एक लड़का उसके करीब पहुंचा और चाबी उसके हाथों से लेकर कार को वहां बने एक हाईड्रोलिक प्लेटफॉर्म पर ले जाकर खड़ा कर दिया, फिर कोई बटन दबाया तो गाड़ी धीरे धीरे ऊपर को उठती चली गयी।

उसके बाद धुलाई का काम शुरू हो गया।

नुकसान ये हुआ कि उसी दौरान लल्लन बाहर आया और अपनी बाईक पर बैठकर वहां से निकल गया।

“ये पहलवान जी कौन थे?” उसने धुलाई कर रहे लड़के से पूछा।

“मालिक हैं।”

“कहां गये?”

“क्यों पूछ रहे हैं?”

“अरे गाड़ी में कुछ काम भी कराना था सोचा कोटेशन ले लूं।”

“पहले बोलना चाहिए था।”

“यानि वापिस नहीं आयेंगे?”

“आयेंगे क्यों नहीं, लेकिन पता नहीं कब आयेंगे।”

वंश मन ही मन कुछ बौखला सा उठा। ये सोचकर कि कहीं वह कत्ल करने ही तो नहीं निकल गया था। एक बार को उसके मन में कार की सफाई रुकवा देने का भी ख्याल आया मगर तब तक उसपर फोम डाला जा चुका था, मतलब कितनी भी कोशिश करता तो दो तीन मिनट से पहले वहां से नहीं निकल सकता था, तब तक तो लल्लन कहां का कहां पहुंच चुका होता।

अगर उसका टारगेट कविता थी तो वह उसे फोन कर के सावधान कर सकता था, लेकिन आयशा बागची से तो उसका कोई कांटेक्ट ही नहीं हुआ था अभी तक, ऐसे में वह भला उसकी किसी बात पर ध्यान क्यों देती?

क्या करूं?

क्या करूं?

आखिरकार उसने यही फैसला किया कि उसे कविता के बारे में सोचना चाहिए, जिसे नहीं जानता था उसके बारे में दिमाग खपाना बेकार था। फिर आयशा के मुकाबले कविता का बुरा होने की उम्मीद उसे ज्यादा दिखाई दे रही थी।

वंश ने उसे फोन लगाया।

दूसरी तरफ से फौरन कॉल अटैंड कर ली गयी।

“हैलो।”

“मैं वंश वशिष्ठ।”

“नया कुछ याद तो नहीं आया मुझे वंश साहब।”

“लेकिन मुझे आ गया है।”

“क्या?”

“पहले आप बताईये कि क्या डॉक्टर बरनवाल के कत्ल के बाद ऐसा कुछ भी हुआ था जिसके कारण आप किसी के लिए खतरा बन सकती हों?”

“मैं समझी नहीं।”

“मुझे इंफॉर्मेशन मिली है मैडम की आपकी जान लेने की कोशिश की जा सकती है।”

“क्या कह रहे हैं?” वह बौखलाये लहजे में बोली।

“एकदम सही कह रहा हूं, इसलिए मेरे सवाल का जवाब बस हां या ना में दीजिए, क्या आप कुछ भी ऐसा जानती हैं जिससे किसी को खतरा हो?”

“नहीं।”

“और इंवेस्टिगेशन ऑफिसर्स को, क्या उन्हें आपसे कोई खतरा महसूस हो सकता है?”

“आपकी बातें मेरी समझ से बाहर हैं वंश साहब।”

“जिंदा तो रहना चाहती हैं न आप?”

“बिल्कुल रहना चाहती हूं।”

“गुड, अभी कहां हैं?”

“अपने फ्लैट पर।”

“वहां से फौरन निकलिये और किसी दूसरी जगह चली जाईये, चाहें तो अपने पेरेंट्स के घर चली जायें। और तब तक वहीं बनी रहें जब तक मैं उधर पहुंचकर आपको फोन नहीं करता।”

“बात क्या है?”

“फोन पर समझाना मुश्किल है, लेकिन इतना यकीन कर सकती हैं कि मैं आपसे इस तरह का बेहूदा मजाक नहीं करने वाला।”

“ठीक है मैं पापा के यहां जा रही हूं।”

“बढ़िया, बड़ी हद एक घंटा में मैं वहां पहुंच जाऊंगा, तब तक वहीं रुकिये।”

“ठीक है।”

वंश ने कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।

बीस मिनट बाद कार धो पोंछकर चमका दी गयी, जिसके बाद उसने बिल पे किया और वहां से निकल गया। तब तक सड़क पर ट्रैफिक का इतना बुरा हाल हो चुका था कि सेकेंड गियर से आगे ड्राईव करना भी असंभव जैसा काम बन गया।