सोहनलाल ने दरवाजा खोला तो सामने जुगल किशोर को देखते ही हड़बड़ा उठा।

"तुम?" फिर उसकी निगाह पीछे खड़े बाकी सब पर पड़ी। जुगल किशोर का चेहरा फक्क था।

"चल अंदर...।" पीछे से वजीर खान ने जुगल किशोर को भीतर धकेला।

जुगल किशोर भीतर आया। सोहनलाल इन लोगों को देखकर हैरान था।

"ये...ये लोग कौन हैं?" सोहनलाल के होंठों से निकला--- "अमरीकन कमांडो तो नहीं?"

सब भीतर आये। शेख ने दरवाजा बंद किया।

वजीर खान के हाथ में गन देखकर सोहनलाल संभल गया था।

तभी अजहर मेनन ने भीतर कदम रखा। यहां का नजारा देखते ही उसके होंठों से निकला---

"ये क्या? जुगल किशोर तुम... तुम तो... तुम ने फिरौती ले ली--- ये क्या माजरा है? ये लोग कौन है?"

वजीर खान ने मेनन और सोहनलाल को भी गनों के निशाने पर ले लिया।

दोनों समझ गये कि कहीं ना कहीं भारी गड़बड़ है।

"रिचर्ड जैक्सन कहां है?" हुसैन ने सोहनलाल और मेनन को देखा।

"उधर--- उस कमरे में।" मेनन ने उलझन भरे स्वर में कहा।

"मिस्टर जुगल किशोर के साथियों को बताओ कि जुगल किशोर ने हमारे साथ और अब उस जंगल में क्या किया है।" कहकर हुसैन शेख के साथ दूसरे कमरे में पहुंचा, जहां रिचर्ड जैक्सन बंधा पड़ा था।

"ये रहा।" शेख के होंठों से निकला।

"इसके बंधन खोलो।" हुसैन बोला।

शेख आगे बढ़कर रिचर्ड जैक्सन के बंधन खोलने लगा।

"तुम... तुम लोग तो ईराकी हो। हो ना?" रिचर्ड जैक्सन के होंठों से निकला।

"तुम ईराक में दो साल अमरीका की तरफ से काम कर चुके हो।" हुसैन बोला--- "इसलिए हमें क्यों नहीं पहचानोगे!"

रिचर्ड जैक्सन की आंखों के सामने खौफ के साये लहरा गये।

शेख ने उसके बंधन खोल दिए।

अपनी कलाईयां और पिंडलियां रगड़ता रिचर्ड जैक्सन ने दोनों को देखकर कहा---

"कौन हो तुम लोग? मैंने पहचाना नहीं।"

"सुलेमान बाजमी का नाम सुना ही है तुमने।" हुसैन ने सख्त स्वर में कहा।

रिचर्ड जैक्सन चौंका।

सुलेमान बाजमी का ईराक में बेहद खतरनाक संगठन था। रिचर्ड जानता था कि संगठन से ईराक में कोई भी पंगा नहीं लेता। अमेरिका ने सुलेमान बाजमी के संगठन से कई बार पंगा लिया, परन्तु हर बार मुंह की खानी पड़ी। अब हालत ये हो गई कि अमेरिका ने सुलेमान बाजमी पर करोड़ों डॉलर का इनाम रख दिया था जो कि उसे पकड़ेगा या मारेगा, परन्तु इस पर भी कई लोग सुलेमान बाजमी का ठिकाना जानते हुए भी उसकी खबर बाहर नहीं करते थे। खौफ ही इतना ज्यादा था सुलेमान बाजमी का।

"जवाब दो...।" हुसैन पुनः बोला।

"हाँ, सुलेमान बाजमी के संगठन का नाम सुन रखा है।" रिचर्ड जैक्सन बोला।

"हम सुलेमान बाजमी के ही आदमी हैं--- और ईराक से तुम्हारे लिए हिन्दुस्तान आए हैं।"

रिचर्ड जैक्सन के शरीर पर जैसे चींटियां रेंगती चली गईं।

"उठ...।" शेख ने रिचर्ड जैक्सन की बांह पकड़कर उसे उठाया--- "चल उस कमरे में।"

हुसैन और शेख, रिचर्ड जैक्सन को लिए वापस पहले वाले कमरे में आ गये।

सोहनलाल और मेनन को, जाकिर ने बता दिया था कि जुगल किशोर ने रिचर्ड जैक्सन को अपहरण करने का उनसे तीस करोड़ में सौदा किया था। दस करोड़ एडवांस में लिए और अपहरण करने के बाद रिचर्ड जैक्सन को उसके हवाले करने की अपेक्षा, अमरीकी एम्बेसी से फिरौती लेने के लिए सौदेबाजी करने लगा। जाकिर ने ये भी बताया कि अपने साथी (जैकी) को शूट करके ये दस करोड़ डॉलर लेकर फरार होने जा रहा था--- कि उन्होंने इसे पकड़ा और यहां ले आये।

सबकुछ सुनकर तो सोहनलाल और मेनन के जैसे तोते ही उड़ गए थे।

"साले कमीने! महाहरामी!" सोहनलाल गुस्से से बोला--- "हमारे साथ काम करके, हमसे दगाबाजी करता है?"

"हमसे भी दगाबाजी की।" मौला ने कहा।

"तू कुत्ता है। मैं तेरे को जिंदा नहीं छोडूंगा। हमारे विश्वास को तोड़ा है तूने...।"

सोहनलाल और मेनन जुगल किशोर को गालियां देने लगे।

जुगल किशोर सिर झुकाये सुनता रहा गालियां।

ये सब कुछ तब रुका जब हुसैन और शेख रिचर्ड जैक्सन को लेकर वहां आये।

"चुप हो जाओ।" हुसैन ने दोनों से कहा था--- "पहले ही हमारा बहुत वक्त खराब हो गया है। अब...।"

"दस करोड़ डॉलर कहां है?" सोहनलाल ने पूछा।

"वो सूटकेस में बंद, जंगल में खड़ी कार की डिग्गी में है।" मौला ने कहा--- "जब तक हमारा काम चलता है, तब तक दीवार के साथ लगकर खामोश होकर बैठ जाओ। हम चले जायें तो वहां जाकर डॉलर ले लेना।"

दोनों को ये सुनकर राहत मिली कि डॉलर उनकी हद में हैं।

"जैकी की आत्मा तेरे को कभी माफ नहीं करेगी।" अजहर मेहनत तड़प कर कह उठा--- "वो हमारा साथी था। कंधे से कंधा मिलाकर इस काम को कर रहा था--- और तूने पैसों के लालच में उसे मार दिया? गोली चलाते वक्त तेरे हाथ नहीं कांपे?"

जुगल किशोर चुप। झुका सिर। बंद होंठ।

"मैं तेरे को जिंदा नहीं छोडूंगा कमीने!" मेनन पुनः गुर्राया--- "बहुत बुरी मौत मारूंगा तुझे।"

"दो गोलियां तो मैं तुम्हारे सिर में मारूंगा।" सोहनलाल ने दांत भींच कर कहा।

"खामोश हो जाओ।" हुसैन कड़े स्वर में बोला--- "जाकिर, इनकी तलाशी लो।"

जाकिर ने आगे बढ़कर सोहनलाल से, मेनन से रिवाल्वरें बरामद कीं।

तीनों को दीवार के साथ बिठा दिया गया।

वजीर खान ने तीनों की पहरेदारी संभाल ली।

हुसैन, मौला, जाकिर शेख की निगाहें रिचर्ड जैक्सन पर जा टिकीं।

रिचर्ड जैक्सन के चेहरे पर डर नाच रहा था।

"मिस्टर रिचर्ड!" मौला ने कठोर स्वर में कहा--- "तुम जानते हो कि हम तुम्हारी तलाश क्यों कर रहे हैं?"

"मैं... मैं नहीं जानता।" रिचर्ड जैक्सन घबराए स्वर में बोला।

"नहीं जानते?" जाकिर ने दांत भींच कर कहा।

रिचर्ड जैक्सन ने इंकार में सिर हिलाया।

"वो डॉयरी हमारे हवाले कर दो।"

"क...कौन सी डॉयरी?"

"जनाब मरहूम सद्दाम हुसैन साहब की काली जिल्द वाली डॉयरी, जो कि ईराक में तुम्हारे हाथ लग गई थी।"

उसी पल सोहनलाल उछल कर खड़ा हो गया।

वजीर खान सतर्क हुआ।

"म...मेरे पास कोई डॉयरी नहीं है।" रिचर्ड जैक्सन ने कहा--- "तुम लोगों को किसी ने गलत खबर...।"

"ये खबर हमें तुम्हारे अमेरिकी डिपार्टमेंट से मिली है। तुम्हारे खुफिया विभाग से--- कि सद्दाम हुसैन साहब की काली जिल्द वाली डॉयरी तुम्हारे पास है। तुम इस बात को गलत नहीं कह सकते। अगर तुम डॉयरी हमारे हवाले कर दोगे तो हम तुम्हारी जान बख्श देंगे। ये हमारा वादा है अगर हमने तुमसे जबरदस्ती डॉयरी हासिल की तो तब तुम्हें मार दिया जाएगा।"

सोहनलाल ने नीचे बैठे मेनन को देखा।

मेनन ने आंख ही आंख से सोहनलाल को इशारा किया तो सोहनलाल कह उठा---

"मैं जानता हूं कि डॉयरी कहां है?"

सोहनलाल के शब्दों पर सब चौंके।

"तुम जानते हो?" शेख तेज स्वर में पूछा।

"हाँ। काली जिल्द वाली डॉयरी की बात कर---।"

"हाँ... हाँ, वो ही।" शेख का स्वर बेसब्र हो उठा।

"दो-तीन घंटे पहले जैकी ने मुझे फोन करके बताया था कि वो डॉयरी जुगल किशोर के पास है। ये अमेरिकन एम्बेसी से निकालकर लाया था उसे।"

रिचर्ड जैक्सन ने चौंक कर जुगल किशोर को देखा।

जुगल किशोर सोहनलाल को खा जाने वाली नजरों से देखने लगा था।

"जैकी कौन?" पूछा मौला ने

"वो ही, जिसे इसने सारे डॉलर हड़पने के लिए मारा है--- जो हमारा साथी था।" मेनन कड़वे स्वर में कह उठा।

जाकिर तब तक जुगल किशोर के सामने जा पहुंचा था।

"तो वो डॉयरी तुम्हारे पास है?" जाकिर की आवाज में सख्ती थी।

"हाँ...।" कहना पड़ा जुगल किशोर को।

"मुझे दो।"

"इस वक्त वो मेरे पास नहीं है।" जुगल किशोर को मजबूरी में सच बोलना पड़ा--- "उसे मैंने डॉलरों के साथ रख दिया था।"

"सूटकेस में?"

"हाँ...।"

"बेवकूफ!" शेख गुर्रा उठा--- "उस डॉयरी को ऐसे क्यों रखा?"

जाकिर का हाथ घूमा और 'तड़ाक' जुगल किशोर के गाल पर जा पड़ा।

जुगल किशोर का शरीर झनझना उठा।

"अगर हमें डॉयरी ना मिली तो हम वहीं पर ही तुम्हें शूट कर देंगे।" गुर्रा उठा जाकिर।

"चलो।" हुसैन ने कहा--- "हमें फौरन उसी जंगल में पहुंचना है।"

"इनका क्या करें?" वजीर खान सोहनलाल और मेनन की तरफ इशारा करके कह उठा।

"इन्हें भी साथ ले चलो। दो कारों में सब लोग आ जाएंगे। चलो यहां से।"

वे लोग आनन-फानन में चलने की तैयारी करने लगे।

उनकी बेचैनी और जल्दबाजी देखकर सोहनलाल और मेनन हैरान थे।

"आखिर उस डॉयरी में है क्या?" सोहनलाल ने पूछा।

"मरहूम जनाब सद्दाम हुसैन साहब ने अपनी बहुत बड़ी दौलत कहीं छिपा रखी है ईराक में। उस खजाने जैसी दौलत तक पहुंचने का नक्शा और सारा विवरण डॉयरी में दर्ज है।" मौला ने बता दिया--- "उस दौलत की सुलेमान बाजमी साहब को जरूरत है ताकि अपने संगठन को और भी ताकतवर बनाया जा सके। नए-नए हथियार खरीदे जा सकें। उस पैसे से हम पूरे ईराक को अपने काबू में ले लेंगे और ईराक के राष्ट्रपति सुलेमान बाजमी साहब बन जाएंगे।"

■■■

शाम के 4:45 हो रहे थे, जब हुसैन, जाकिर, मौला, शेख, वजीर खान, सोहनलाल और अजहर मेनन, जुगल किशोर और रिचर्ड जैक्सन उसी जंगल में आ पहुंचे थे। वहां का वो ही नजारा था, जैसा वे छोड़ कर गए थे। सोहनलाल और मेनन को समझते देर न लगी कि तगड़ा खूनी खेल खेला गया है यहाँ।

"डॉलर कहां हैं?" मेनन ने बेचैनी से पूछा।

तब तक हुसैन ने आगे बढ़कर कार की डिग्गी खोल दी थी।

अगले ही पल सब ठगे से रह गए थे।

डिग्गी खाली थी।

डॉलरों वाले सूटकेस का नामो-निशान नहीं था।

"ये नहीं हो सकता...।" जुगल किशोर के होंठों से निकला।

"दस करोड़ के डॉलरों से भरा सूटकेस इसी डिग्गी में था?" सोहनलाल ने हड़बड़ा कर जुगल किशोर से पूछा।

"हां यहीं था। इन सबने भी देखा था।" जुगल किशोर ने परेशान स्वर में कहा।

"सूटकेस तो यहां नहीं है।" मौला चीखा।

"यहीं था, इसी डिग्गी में। हम सबने देखा था।" वजीर खान परेशानी भरे स्वर में कह उठा।

"कहां गया?" शेख ने दांत पीसकर कहा।

"कोई ले गया...।" जाकिर गुस्से से बोला--- "उस सूटकेस में डॉयरी भी थी।"

हुसैन जुगल किशोर के पास पहुंचा।

"तू सच कहता है कि डॉयरी उसी डॉलरों वाले सूटकेस में रखी थी?" हुसैन गुर्राया।

"कसम से। सूटकेस हाथ में आते ही मैंने पहला और आखिरी काम यही किया था। क्योंकि सूटकेस और कार के साथ मैं यहां से इंदौर शहर भाग जाना चाहता था।" जुगल किशोर अपने शब्दों पर जोर देकर बोला।

सोहनलाल और मेनन ने उसे जहर भरी निगाहों से देखा।

"लाशें गिनो।" हुसैन बोला--- "शायद कोई जिंदा रह गया हो और वो ही सूटकेस ले गया हो।"

लाशों को चैक किया गया। सब अपनी जगह मौजूद थीं।

देवराज चौहान चूंकि कार के भीतर था, इसलिए सोहनलाल उसे देख-पहचान नहीं पाया।

"ये तो बहुत गलत हुआ। वो सूटकेस कोई ले गया।" शेख से गुस्से से बोला--- "उसमें डॉयरी थी... वो डॉयरी---।"

"मेरे ख्याल में सूटकेस ले जाने वाला डॉयरी के फेर में नहीं था। उसे डॉयरी के महत्व का पता नहीं है।" जाकिर ने कहा।

"ये हो सकता है।"

"हम उस इंसान को खोज कर उससे डॉयरी वापस ले सकते हैं।"

"सुलेमान बाजमी को हर हाल में डॉयरी चाहिए। जनाब सद्दाम हुसैन साहब के खजाने का नक्शा चाहिए।"

"हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए... हमें...।"

"हमारे डॉलरों का क्या होगा?" मेनन ने ऊंचे स्वर में कहा।

सबकी नजर उसकी तरफ उठी।

अगले ही पल वे चिंहुक उठे। जुगल किशोर वहां कहीं भी नहीं था।

"जुगल किशोर कहां गायब हो गया?" मौला ऊंचे स्वर में बोला।

तभी जाकिर दांत पीसकर बोला---

"इस अमरीकी को खत्म करो वजीर खान।"

अगले ही पल तड़-तड़-तड़ आवाज गूंजी।

रिचर्ड जैक्सन के होंठों से चीख निकली और वो नीचे गिरकर तड़पने लगा।

फिर वजीर खान की गन सोहनलाल और मेनन की तरफ हो गई।

"हमें मत मारो। हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?" सोहनलाल चीख कर बोला।

चंद पलों के लिए गहरा सन्नाटा छा गया।

वजीर खान की गन उन दोनों की तरफ तनी रही। चेहरे पर दरिंदगी के भाव थे। उंगली ट्रिगर पर कसी पड़ी थी। रिचर्ड जैक्सन तड़पने के पश्चात अब तक शांत पड़ गया था।

सोहनलाल और मेनन की हालत खराब हो रही थी। मौत आंखों के सामने थी।

"मैंने ही तो तुम लोगों को बताया था कि डॉयरी जुगल किशोर के पास है।" सोहनलाल हड़बड़ाकर कह उठा--- "मुझे क्यों मारते हो?"

"मुझे भी...।" मेनन कांप कर बोला--- "ये और मैं एक ही हैं।"

"छोड़ो इन्हें।" मौला कह उठा। उसने हाथ हिलाया--- "इन दोनों ने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा।"

वजीर खान ने गन नीचे कर ली।

सोहनलाल और मेनन की जान में जान आई।

"वो कमीना जुगल किशोर कहां भाग गया?" शेख गुर्रा उठा।

"वो डॉयरी उसी के पास होगी।" हुसैन ने कहा।

"हमने उसकी तलाशी भी तो नहीं ली!" शेख ने हवा में मुक्का चलाते हुए कहा।

"नहीं।" बोला जाकिर--- "डॉयरी उसके पास होती तो घुंघरू गांव वाले मकान पर ही उसने हमें दे दी होती। वो डॉयरी उसने वास्तव में सूटकेस में डॉलरों के साथ रख दी होगी। ये बात उसने सच कही थी। हमें उसकी इस बात पर यकीन करना होगा।"

"तो वो सूटकेस कहां गया?" मौला बोला।

"ये ही बात हमें उलझन में डाल रही है कि सूटकेस कहां गया!" वजीर खान ने कहर भरी निगाहों से सोहनलाल और अजहर मेनन को देखा और बढ़कर पुनः गन उन पर तान दी।

"ये क्या कर रहे हो? हमें क्या मालूम कि सूटकेस कहां गया!" मेनन कांप कर बोला--- "हम तो उस गांव के मकान में थे रिचर्ड जैक्सन के साथ...।"

"जब तक वो सूटकेस, डॉयरी हमें नहीं मिलती, तुम हमारे साथ रहोगे।" वजीर खान ने खतरनाक स्वर में कहा।

"तुम लोगों के साथ मैंने सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "ह... हमारा क्या कसूर है?"

"वो डॉयरी हमें हासिल कराने में हमारी मदद करोगे तुम दोनों। ये काम पूरा होने पर ही तुम दोनों आजाद हो पाओगे। नहीं तो मारे जाओगे।"

मेनन ने घबराकर सोहनलाल को देखा।

"हाँ... हाँ क्यों नहीं।" सोहनलाल ने जल्दी से कहा--- "ह... हमें मंजूर है। हम डॉयरी तलाश करने की पूरी चेष्टा करेंगे।"

"हाँ... हाँ...।" मेनन तुरन्त सिर हिला उठा।

तभी वजीर खान ने सबसे ऊंची आवाज में कहा---

"आसपास की जगह छान डालो। शायद सूटकेस ले जाने वाले ने सूटकेस खोला हो और डॉयरी को फिजूल समझ कर फेंक दिया हो। अच्छी तरह हर जगह चैक करो। मैं इन दोनों को संभालता हूं।"

"हम भी आसपास की जगहों को छानते हैं।" मेनन घबराया हुआ बोला--- "शायद डॉयरी...।"

"खामोशी से खड़े रहो।" वजीर खान गुर्राया।

उसके बाद मौला, शेख, हुसैन, जाकिर ने उस जगह के आसपास की सारी जगह छानी। परन्तु सूटकेस या डॉयरी उन्हें नहीं मिली। ऐसा भी कोई निशान नहीं मिला कि कोई आया हो। परन्तु कोई तो आया था--- जो सूटकेस ले गया था।

तो पाठकों, ये सब हुआ था पहले।

उसके बाद जो हुआ, वो तो आपने जान ही लिया है, जो बचा है, वो अब देखते हैं।

■■■

देवराज चौहान को पुनः होश आया।

चेहरे पर पीड़ा के निशान दिख रहे थे। आंखें पूरी नहीं खुल रही थीं। उसने थोड़ी सी गर्दन हिलाकर नीचे कमर की तरफ देखा तो कमीज तो कमीज पैंट तक उस तरफ से खून से रंगी दिखी। कमजोर अंदाज में उसने गर्दन घुमाकर कार के चढ़े शीशों से बाहर देखा। हर तरफ जंगल का नजारा था। शाम ढल रही थी। कुछ ही देर में अंधेरा फैल जाना था। वो जानता था कि उसका हिलना, कार से निकलना खतरनाक है। उस स्थिति में खून ज्यादा बहेगा। कमर में गोली लगी थी, जो कि अभी शरीर के भीतर ही कहीं थी। लंबे वक्त के बाद उसे होश आया था। उसने हाथ उठाकर सिर को टटोला। सिर जोर से कार की बॉडी से टकराने के बाद ही वो बेहोश हुआ था। फिर रही सही कसर, गोली लगने से निकलने वाले खून ने पूरी कर दी थी।

तभी उसकी आंखों के सामने मोहनलाल दारूवाला का चेहरा उभरा।

उसे याद आया कि एक बार पहले भी उसे होश आया था। जरा सा होश, तब उसके पास कोई था। कौन था वो? मोहनलाल दारूवाला उसने अपना नाम बताया था। उसके बाद वो फिर बेहोश हो गया था।

वीरा त्यागी का चेहरा उसके सामने नाचा।

गद्दारी की उसने।

और ना सोचा।

अपने बारे में सोचने लगा कि उसे गोली लगी है। जख्मी है। खून काफी निकल चुका है। उसे फौरन डॉक्टर की जरूरत है। परन्तु इस हाल में चलेगा तो हिम्मत जवाब दे सकती है।

देवराज चौहान ने जेब से मोबाइल निकाला और नंबर मिलाने लगा।

एक ही बार में उधर बेल जाने लगी।

"हैलो।" आवाज कानों में पड़ी।

"हेमंत।" देवराज चौहान ने कमजोर स्वर में कहा।

"देवराज चौहान।" उधर से हेमंत की आवाज कानों में पड़ी--- "अभी तो विनायक साहब और जगमोहन चीन से नहीं लौटे। वो जब भी आएंगे, मैं तुम्हें फोन पर बता...।"

"मेरी बात सुनो---।"

"हाँ, कहो---।"

"मुझे गोली लगी है, मैं घायल हूं। खून काफी बह चुका है।" देवराज चौहान ने क्षीण स्वर में कहा।

"ओह--- तुम---।"

"मुझे सहायता की जरूरत है। तुम मेरे पास आ जाओ।"

"कहां हो तुम?"

पांच मिनट लगाकर देवराज चौहान ने बताया कि वह कहां पर मौजूद है।

"एक घंटे में मैं वहां पहुंचता हूं। वहां कोई लफड़ा तो नहीं होगा मेरे साथ?"

"कुछ नहीं होगा। तुम आ जाओ। डॉक्टर को भी पहले से तैयार रखना। डॉक्टर कोई है पहचान वाला?"

"उसकी फिक्र मत करो। विनायक साहब का खास है डॉक्टर---।"

देवराज चौहान ने मोबाइल बंद करके जेब में रखा और वैसे ही बैठा रहा। आंखें बंद कर लीं।

अंधेरा हो जाने को तैयार था।

देवराज चौहान ने कार का दरवाजा खोला। एक हाथ से कमर पर बने गोली के जख्म को हाथ से दबाया कि खून और ना निकले, फिर आहिस्ता से कार के बाहर निकला और इधर-उधर देखा।

तभी उसकी निगाह एक लाश पर पड़ी।

देवराज चौहान धीमे-धीमे चलता लाश तक पहुंचा। उसने नहीं सोचा था कि यहां लाश होगी परन्तु तब तक तीन अन्य लाशों पर भी उसकी निगाह पड़ गई थी। मन ही मन वो हैरान हुआ।

उसने वो लाश देखी।

वो जैकी की लाश थी। परन्तु देवराज चौहान उसे नहीं पहचानता था।

फिर वो अन्य लाशों के पास पहुंचा--- उन तीनों लाशों को वो पहचानता था।

एक नारायण टोपी की लाश थी।

दूसरी प्रेमसिंह की लाश थी।

परन्तु तीसरी लाश वीरा त्यागी की देखकर चौंक पड़ा देवराज चौहान।

वीरा त्यागी को किसने मार दिया? जबकि उसे वीरा ने ही गोली मारी थी। वो सोच सकता था कि सारे डॉलर खुद ले लेने का विचार वीरा त्यागी का बना, और उसने सबको मार दिया। परन्तु वीरा त्यागी को किसने मारा? और वो (जैकी) कौन है, उसे उसने पहले कभी नहीं देखा?

वीरा त्यागी की लाश ने उसे उलझन में डाल दिया था।

एकाएक उसका ध्यान डॉलरों की तरफ चला गया। नजरें कार की डिग्गी की तरफ गईं। जोकि खुली पड़ी थी। धीमे-धीमे चलता हुआ वो कार की डिग्गी तक पहुंचा। परन्तु दस करोड़ डॉलरों से भरा सूटकेस वहां नहीं था। उसे कोई ले गया था। ये काम उसने वीरा त्यागी को शूट करने के बाद ही किया होगा।

परन्तु वो कौन हो सकता है?

किसे पता है कि वो दस करोड़ डॉलर का खेल खेल रहे थे?

वो (जैकी) आदमी कौन है, जिसे उसने कभी नहीं देखा? उसकी लाश कैसे यहां आई? उसे किसने मारा?

ये सवाल देवराज चौहान के मस्तिष्क में दौड़ने लगे।

कोई तो है--- जो दस करोड़ डॉलरों  से भरा सूटकेस...।

देवराज चौहान की सोचें ठिठकीं।

आंखों के सामने मोहनलाल दारूवाला का चेहरा नाचा।

"मोहनलाल दारूवाला!" देवराज चौहान बड़बड़ा उठा। ये ही तो नाम बताया था उसने, जब उसको थोड़ा सा होश आया था, उसने यहां पर आखिरी बार मोहनलाल दारूवाला को ही देखा था।

तो क्या वो ही 10 करोड़ के डॉलरों से भरा सूटकेस ले गया?

देवराज चौहान को अपना गला खुश्क लगा। उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। शरीर में कमजोरी की तेज लहर दौड़ी। देवराज चौहान ने कार के साथ टेक लगा ली, फिर थोड़ा सा सरककर कार के खुले दरवाजे के भीतर सीट पर जा बैठा। इतने में ही उसे लगा कि उसने बहुत मेहनत कर ली है। कमर में गोली के जख्म से पीड़ा की लहर उठी।

कुछ पल वैसे ही बैठे रहकर उसने खुद को संयमित किया और मोबाइल निकालकर हेमंत का नंबर मिलाया।

"फरीदाबाद तक आ गया हूं मैं।" हेमंत की आवाज कानों में पड़ी--- "पन्द्रह मिनट तक तुम तक पहुंच जाऊंगा।"

■■■

बाहर अंधेरा छा चुका था।

सोहनलाल और अजहर मेनन एक मकान में मौजूद थे। वो नहीं जानते थे कि वो कहां पर मौजूद हैं--- परन्तु वो पांचों कारों में बिठा कर उन्हें यहीं लाए थे। अलग-अलग कारों में उन्हें बिठाया गया था। ताकि रास्ते में वो शरारत ना कर सकें। उन पांचों के बारे में वो कुछ भी नहीं जानते थे। परन्तु उनसे ये जानकर वे अचकचाए हुए थे कि जुगल किशोर ने रिचर्ड जैक्सन के अपहरण का सौदा 10 करोड़ डॉलरों में इनसे कर रखा था। 10 करोड़ डॉलर एडवांस भी ले लिए थे।

जबकि जुगल किशोर ने उन्हें इस बारे में कुछ नहीं बताया था। जुगल किशोर ने तो यही कहा था कि रिचर्ड जैक्सन का अपहरण करके, फिरौती में अमेरिकन एम्बेसी से दस करोड़ डॉलर वसूलने हैं और इतनी रकम अमेरिका वाले अवश्य देंगे।

ऐसा हुआ भी।

फिरौती में दस करोड़ डॉलर मिल गये।

परन्तु उसके बाद सारी मेहनत पर पानी फिर गया। ये सब जुगल किशोर की गद्दारी की वजह से हुआ था।

एक कमरे में सोहनलाल और अजहर मेनन को बंद कर दिया गया।

दोनों की नजरें मिलीं।

"जुगल किशोर हमसे डबल खेल खेल रहा था।" मेनन गुस्से से बोला--- "उसने इन लोगों से तीस करोड़ में सौदा किया कि तीस करोड़ डॉलर में इन्हें रिचर्ड जैक्सन का अपहरण करके देगा। 10 करोड़ एडवांस में ले लिए थे उसने और इस बारे में हमें कुछ नहीं बताया कमीने ने! साले-कुत्ते को मैं बहुत बुरी मौत मारूंगा। मैं...।"

"जैकी को जुगल किशोर ने ही शूट किया है।" सोहनलाल गंभीर स्वर में बोला।

"हरामजादा! डबल क्रॉस करता रहा हमें---।" मेनन गुर्रा उठा--- "बहुत बुरी मौत मारूंगा उसे।"

"वो वहां से गायब हो गया, वरना ये लोग ही उसे बुरी मौत मार देते।" सोहनलाल ने कहा--- "जुगल किशोर के साथ मैं पहले भी काम कर चुका था। परन्तु मुझे नहीं लगा कि वह इतना कमीना इंसान होगा कि हमें धोखा देगा। अपने ही साथी जैकी को शूट करके सारी दौलत लेकर खिसक जाना चाहता था।"

"अब तो देख लिया कि वो कितना हरामजादा है?" मेनन ने दांत भींचकर कहा।

"बच गये अभी।"

"कैसे?" मेनन गुस्से से भरा पड़ा था।

"अगर उसके साथ जैकी के बदले हम होते तो वो हमें भी मार देता। परन्तु हम अपहरण के बाद रिचर्ड जैक्सन की पहरेदारी पर सोनीपत के घुंघरू गांव में थे और बच गए।" सोहनलाल ने गहरी सांस लेकर कहा।

"एक बार मुझे मिल जाये जुगल किशोर।" मेनन गुर्राया।

"जुगल किशोर को छोड़ और अब के हालातों को देख। हम इनके हाथों में फंसे पड़े हैं।"

"सुलेमान बाजमी।" मेनन ने कहा--- "वो कह रहे थे कि सुलेमान बाजमी को हर हाल में डॉयरी चाहिए। मैंने तो सुलेमान बाजमी का नाम कभी नहीं सुना पहले। तूने सुना है?"

"नहीं।"

"ये है कौन सुलेमान बाजमी?"

"ये पांचों लोग कौन हैं? रिचर्ड जैक्सन को पलक झपकते ही शूट कर दिया। सालों ने हमें मार देना था।" सोहनलाल गहरी सांस लेकर कह उठा--- "लेकिन अभी तो बचे पड़े हैं।"

"ये डॉयरी को तलाश करने में हमारी मदद चाहते हैं, पर हमें क्या पता कि डॉयरी कौन ले गया?"

"जुगल किशोर ने इन्हें कहा था कि डॉयरी को उसने डॉलरों वाले सूटकेस में रखा था?"

"जरूर रखा होगा। हरामी 10 करोड़ डॉलर के साथ अपनी नई दुनिया बसाने के लिए इन्दौर खिसक रहा था।"

सोहनलाल के चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे।

"बहुत बुरा हुआ हमारे साथ।" मेनन बोला।

"जैकी के बारे में सोच, बेचारे को जुगल किशोर ने ही गोली मार दी। वो सोच भी नहीं सकता होगा कि जुगल किशोर ऐसा करेगा।"

"जुगल किशोर ने इन लोगों से सही कहा था कि सूटकेस डिग्गी में ही रखा था।"

"सही कहा था।" सोहनलाल बोला--- "उन चारों में से कोई कह रहा था कि सूटकेस डिग्गी में ही था। उन लोगों ने जुगल किशोर को उसी जगह से उसी कार के पास से ही पकड़ा था।"

"हरामी जुगल किशोर, खुद तो भाग गया और मुसीबतें हमारे लिए छोड़ गया।"

"अगर हम खिसक जायें तो...।"

"खतरनाक लोग हैं ये सब। अभी तो हम जिंदा हैं। भागने की कोशिश की तो खामखाह जान गंवाएंगे।"

"फिर भी मौका मिला तो निकल जायेंगे।"

"कहां सोच रहा था कि ढाई करोड डॉलर का हिस्सा मिलेगा! और कहां अब जान बचानी भारी पड़ रही...।"

"पर ये लोग हैं कौन?"

"अब इनके ही साथ हैं, पता चल जाएगा।"

"जब ये लोग जुगल किशोर को पकड़कर हमारे पास घुंघरुं गांव लाए और फिर हमें लेकर वापस गए, इस दौरान जंगल में कोई आया और डिग्गी से सूटकेस निकाल कर चलता बना।" सोहनलाल ने कहा--- "वो कौन हो सकता है?"

"क्या पता! मालूम नहीं किस-किस की नजर हो दस करोड़ डॉलरों पर। इधर जुगल किशोर ने कुछ और लोगों को भी इस काम के लिए तैयार कर रखा था... कि जब अमरीकी हमें फिरौती देने निकलें तो वो उनसे डॉलरों को लूट लें...।"

"ताकि हमें हिस्सा ना देना पड़े---।"

"मक्कारी की भी हद होती है! जुगल किशोर ने तो कुत्तेपन की हदों को भी पार कर दिया।"

तभी दरवाजा खुला और मौला, हुसैन, शेख और जाकिर और वजीर खान ने भीतर प्रवेश किया। वजीर खान ने हाथ में गन पकड़ी हुई थी। सबके चेहरों पर कठोरता नाच रही थी। वो परेशान भी दिख रहे थे।

"सुनो---।" सोहनलाल ने समझाने वाले स्वर में कहा--- "हमें नहीं पता वो सूटकेस कौन ले गया। हम उसे ढूंढने में तुम्हारी कोई मदद कैसे कर सकते हैं? हम तो सिर्फ जुगल किशोर और जैकी को ही जानते हैं। इसके अलावा किसी से हमारा कोई मतलब नहीं।"

"जिंदा रहना चाहते हो?" मौला ने खतरनाक स्वर में कहा।

"ह...हाँ---।"

"तो फिर वो डॉयरी हमें ढूंढ कर दो। हमारा साथ दोगे तो तुम दोनों को पांच-पांच करोड़ देंगे। साथ नहीं दिया तो मार देंगे।"

"ह-हमने साथ देने से कब मना किया है...।" मेनन जल्दी से कह उठा।

"हम फिर दोबारा उसी जंगल में जाने की सोच रहे हैं। कुछ देर बाद तुम दोनों को खाना मिलेगा। खा लेना। उसके बाद उसी जंगल में चलकर हमें ऐसा कुछ ढूंढना है--- कि पता चल सके वो सूटकेस कौन ले गया।" मौला कठोर स्वर में बोला।

"अंधेरे में?"

"हमारे पास तेज रोशनी की टॉर्चें होंगीं।" हुसैन बोला।

"मिस्टर जुगल किशोर कहां मिलेगा? उसका ठिकाना तो तुम लोगों को पता होगा।" शेख ने पूछा।

"हम नहीं जानते उसका ठिकाना।" सोहनलाल बोला--- "वो ही काम होने पर, हमारे पास आ जाता था।"

"तुम दोनों को हम डॉयरी मिले बिना छोड़ने वाले नहीं।" जाकिर दांत भींचकर कह उठा।

■■■

मोहनलाल दारूवाला और लक्ष्मी ने डॉलर ठिकाने लगाने के लिए अपना पूरा दिमाग लगा दिया। खासतौर से लक्ष्मी ने। लक्ष्मी ने सलाह दी कि डॉलरों के दोनों सूटकेस को एक ही रेलवे स्टेशन के क्लॉक रूम में जमा कराना ठीक नहीं। कहीं क्लॉक रूम वाला, शक न कर जाये। दोनों सूटकेसों को अलग-अलग रेलवे स्टेशनों के क्लॉक रूम में जमा कराया जाये। मोहनलाल दारूवाला को इसमें दम दिखा। दोनों सूटकेस छोटे वाले थे। मीडियम।

फरीदाबाद जैसे छोटे रेलवे स्टेशन पर तो सूटकेस जमा कराना ठीक नहीं था। वहां जल्दी नजर में आ जाता कि सूटकेस लेने कोई नहीं आया। आखिर दोनों सूटकेस कार में रख कुछ देर का सफर करके दिल्ली के निजामुद्दीन स्टेशन पहुंचे और मोहनलाल दारूवाला एक सूटकेस क्लॉक रूम में जमा करा आया।

"रसीद कहां है?" लक्ष्मी ने उसके आते ही व्याकुलता से पूछा।

"मेरे पास।"

"संभाल के रखना।"

"चिंता क्यों करती हो। अपनी जान से प्यारी चीज को संभाल कर ही तो रखूंगा।"

"हाँ---।" लक्ष्मी ने मुंह बनाया--- "मैं जानती हूं तुमने मुझे कितना संभाल के रखा है!"

"तुम्हें तो मैंने बहुत संभाल कर रखा है।"

"इस बात का जवाब तुम नहीं दे सकते। ये तो मैं ही जानती हूं!" लक्ष्मी ने गहरी सांस ली।

"मैं समझा नहीं कि तुम्हारा मतलब क्या है?"

"मेरा कोई मतलब नहीं है। अब नई दिल्ली स्टेशन चलो। दूसरा सूटकेस वहां जमा करवाना है।"

मोहनलाल दारूवाला ने कार पार्किंग से निकाली और सड़क पर दौड़ा दी।

"तुम्हारा बस चलता तो फौज में जाने से पहले मुझे भी सूटकेस में बंद करके किसी स्टेशन के क्लॉक रूम में जमा करा देते।"

"ऐसी चुभती बातें क्यों करती हो।"

"मैं भविष्य के बारे में सोच रही हूं कि मेरा भविष्य कैसा होगा?"

"तुम्हारा भविष्य? भविष्य तो हम दोनों का साथ-साथ ही होगा और बहुत बढ़िया होगा।" मोहनलाल दारूवाला कह उठा।

"तुम्हारे साथ रहकर मेरा भविष्य नहीं सुधरने वाला।"

"क्या कोई और पसंद कर रखा है?" मोहनलाल दारूवाला हंसकर कह उठा।

लक्ष्मी गहरी सांस लेकर रह गई।

"तुम्हारी बहन को तो बहुत जलन होगी।"

"क्यों?"

"भविष्य में तुम्हारे ठाठ-बाठ देख कर तो वह जरूर जलेगी।"

"उसके ठाठ-बाठ क्या कम हैं? पति उसका सारा दिन वेल्डिंग करता रहता है और वह बन-ठन कर कभी इधर जा, कभी उधर जा, हर वक्त उड़ती रहती है। उसकी शादी से पहले वाली आदतें गईं नहीं---।"

"कैसी आदतें?"

"छोड़ो! तुम क्या करोगे सुनकर!" लक्ष्मी बोली--- "ये सब कब तक चलेगा?"

"क्या?"

"ये ही कि पैसा इधर-उधर रखना। कब हम ऐश करना शुरू करेंगे?" लक्ष्मी ने पूछा।

"कुछ दिन शांति रखो...।"

"शांत तो हूँ। मैंने पूछा कि...।"

"अगर सब कुछ ठीक रहा तो दस-पन्द्रह दिन में घर में ताला लगा कर निकल जायेंगे।"

"कहां?"

"मुंबई।"

"मुंबई क्यों?"

"कहीं तो जाना ही है। फिर मुंबई क्यों नहीं? यहां रहकर हम बढ़िया मकान लेंगे, लम्बी कार लेंगे तो लोगों की नजर में आ जायेंगे। मुंबई बड़ा शहर है। वहां कोई किसी की परवाह नहीं करता। वहां समंदर का किनारा है। फिल्म नगरी। है ऐश्वर्या राय और असिन वहीं रहती हैं--- हम---।"

"ये मत भूलना कि वहां शाहरुख खान और अक्षय कुमार भी रहता है।" लक्ष्मी मुंह बना कर बोली।

"तुम्हारा हीरो तो मैं हूँ---।" मोहनलाल दारूवाला दांत फाड़कर उठा।

"और तुम्हारी हीरोइन मैं हूँ। ये बात कभी मत भूलना। अगर तुमने एक बार गड़बड़ की तो मैं बीस करूंगी। वैसे भी मैं तुम्हें खास पसंद नहीं करती। ये बात हमेशा याद रखना।"

"मैं तुम्हें एक राय दे सकता हूँ।" मोहनलाल दारूवाला गंभीर स्वर में कह उठा।

"क्या?"

"ये बेहतर होगा कि हम दोनों एक-एक सूटकेस लेकर अलग हो जायें।"

"तुम्हारा मतलब कि तलाक?"

"क्योंकि तुम मुझे पसंद नहीं करतीं।"

"समझ गई।" लक्ष्मी कड़वे स्वर में कह उठी--- "अब दौलत आ गई तो मुझसे छुटकारा चाहते हो? लेकिन मैं तुम्हारी यह प्लानिंग कभी सफल नहीं होने दूंगी कि तुम गुलछर्रे उड़ाओ और दूसरी लड़कियों पर पैसा फूंको।"

"मैंने तो यह बात इसलिए कही कि तुम मुझे पसंद नहीं करतीं।"

"किसने कहा ये तुमसे?"

"तुमने--- अक्सर तुमने ये कहा है।"

"वो तो मैं यूं ही कह देती हूँ। मेरी ऐसी बातों की परवाह मत किया करो। जब तुम कंगाल थे तब मैंने नहीं छोड़ा तो अब तो बिल्कुल नहीं छोडूंगी। एक-एक पैसा अपने काबू में रखूंगी।"

"मुंबई जाकर मैं फिल्म बनाऊंगा।"

"फिल्म? पागल हो क्या? फिर से सड़क पर आना चाहते हो, पैसा हजम नहीं हो रहा क्या जो।"

"फिल्म चल गई तो...।"

"तुम किसी हीरोइन का हाथ पकड़ने के लिए मरे जा रहे हो। यही बात है ना?" लक्ष्मी खा जाने वाले स्वर में कह उठी।

"बहुत गलत सोच रही हो तुम--- मेरी पूरी बात तो सुन...।"

"मेरी माँ ठीक कहा करती थी कि मर्द जात का भरोसा करना सांप पर भरोसा करने के बराबर है। तुम तो---।"

"लक्ष्मी मेरी प्यारी लक्ष्मी, मेरी बात सुन। मैं तेरे को फिल्म में हीरोइन लूंगा। ये सोच रखा है मैंने।"

"मैं...मैं हीरोइन?" लक्ष्मी सकपका उठी।

"हाँ, तू मेरी फिल्म की हीरोइन होगी। फिल्म फ्लॉप हो गई तो क्या हुआ तुम हीरोइन के रूप में खड़ी हो जाओगी।"

"ले- लेकिन मैं हीरोइन कैसे, मेरे कूल्हे तो इतने बड़े हैं...।"

"उनकी तुम परवाह मत करो, वो सब ठीक हो जाएगा। तुम एकदम छरहरी हो जाओगी। खूबसूरत तो तुम हो ही। एक्टिंग के लिए, एक्टिंग स्कूल में छः महीने की ट्रेनिंग ले लेना। वो सब मेरे पर छोड़ दो। मैं तेरे को फिट कर कर दूंगा।"

"ऐसा हो जायेगा मोहनलाल?" लक्ष्मी हड़बड़ायी सी कह उठी।

"मैं तेरे साथ हूँ तो क्यों नहीं होगा?"

"ओह मोहनलाल!" लक्ष्मी मीठे स्वर में कह उठी--- "तू मेरे बारे में कितना अच्छा सोचता है...।"

"तू मेरी बीवी है। तेरे बारे में नहीं सोचूंगा तो क्या किसी और के बारे में सोचूंगा?" मोहनलाल दारूवाला प्यार से बोला।

"तू मेरे से सच में इतना प्यार करता है?"

"इससे ज्यादा। लेकिन तेरे को वादा करना होगा कि फिल्मी दुनिया में तू गड़बड़ी नहीं करेगी।"

"कैसी गड़बड़?"

"तू किसी मर्द का हाथ नहीं पकड़ेगी।"

"कसम से नहीं पकड़ूंगी।" लक्ष्मी बहुत खुश थी--- "बस तू मुझे एक बार हीरोइन बनाकर पर्दे पर पेश कर दे।"

"समझ ले लक्ष्मी, तू एक टॉप की हिरोइन बन गई। ये मेरा वादा है।"

"सच मोहनलाल---।"

"तू मेरी जान है लक्ष्मी। अपनी जान को चमका दूंगा। बॉलीवुड के टॉप पर तू खड़ी होगी।"

"ओह...।" लक्ष्मी ने गहरी सांस ली और आंखें बंद कर लीं।

मोहनलाल दारूवाला कार चलाता रहा।

मिनट भर से ज्यादा वक्त हो गया लक्ष्मी को चुप हुए तो वो कह उठा---

"बात कर लक्ष्मी।"

"मैं... मैं सोच रही हूँ... सोच रही हूँ...।"

"क्या?"

"यही कि सिनेमा हॉल में मेरी फिल्म चल रही है... और मेरी बहन मुझे स्क्रीन पर देख रही है।"

"सारा मूड खराब कर दिया। वेल्डर की बीवी ही मिली सोचने को? ये सोच कि कैटरीना का पत्ता तूने साफ कर दिया। सब फिल्म वाले तेरे घर के बाहर खड़े हैं और कैटरीना कैफ अपने घर की बालकनी में फिल्म बनाने वालों के इंतजार में खड़ी है कि वो कब आयेंगे। बड़ी सोच रख। वेल्डर की बीवी के बारे में मत सोचा कर।"

"ओह, मोहनलाल... तुम मुझे पागल कर दोगे।"

"सीधी होकर बैठ। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन आ गया। दूसरा सूटकेस यहां जमा कराना है क्लॉक रूम में।"

"तू करा के आ।"

"तू भी साथ चल। रास्ता देख ले, कभी तेरे आने की भी जरूरत पड़ सकती है।"

"ये बात है तो तूने निजामुद्दीन स्टेशन का रास्ता क्यों नहीं दिखाया? मैं कार में बैठी रही तब।"

"तब याद नहीं रहा। अब तो चल।"

मोहनलाल दारूवाला और लक्ष्मी सूटकेस के साथ स्टेशन के भीतर पहुंचे। क्लॉक रूम तलाश किया और वहां सूटकेस जमा करा दिया। रसीद प्राप्त की और वापस कार पर आ पहुंचे।

"ये रसीद तू रख ले। एक तेरी-एक मेरी---।"

"अब मैं कहां रखूं! घर जाकर मुझे दे देना।"

दोनों कार में बैठे। मोहनलाल ने कार की पार्किंग से कार निकाली और सड़क पर आ पहुंचे।

"अब घर जाना है न?" लक्ष्मी ने पूछा।

"हाँ...।"

"मुझे भूख लग रही है। यहीं कनॉट प्लेस से काके के होटल से खाना खाते हैं...।"

"फिजूलखर्ची मत कर। पैसा इस तरह नहीं उड़ाते।"

"मैं थक गई हूँ। घर में खाना नहीं बनाऊंगी।"

"तूने कहा था कि आलू मैथी बनी पड़ी है।"

"रोटी तो बनानी पड़ेगी।"

"तो मैं बना दूंगा। नौ बज रहे हैं। सड़कों पर भीड़ है। दो घण्टे लग जायेंगे वापस फरीदाबाद पहुंचने में।"

"लाख डॉलर तेरे पास हैं ना?"

"घर पर रखे हैं--- क्यों?"

"उन्हें कब हिन्दुस्तानी नोटों में बदलवायेगा?"

"जल्दी क्या है! हमारा काम तो चल ही रहा है।"

"नहीं। कल ही बदलवा। मैं डॉलरों के बदले मिले नोटों को जी भर कर देखना चाहती हूँ।"

"ठीक है। कल हजार डॉलर बदलवाऊंगा।"

"सिर्फ हजार?"

"अभी हमें जरूरत नहीं है। आराम से चल। ज्यादा डॉलर खर्च किये तो फंस जायेंगे।"

"तू ठीक ही कहता होगा।" लक्ष्मी ने कहा।

मोहनलाल दारूवाला कार चलाता रहा।

कुछ देर कार में खामोशी रही।

"मोहनलाल...।"

"हाँ...।"

"मैं सोचा करती थी कि ये पैसे वाले लोग हमेशा भागते क्यों रहते हैं? अब समझ में आया...।"

"क्या समझ में आया?"

"अपने को ही देख लो। पैसा मिलने से पहले घर बैठे रहते थे। करने को कोई काम ही नहीं होता था--- और अब हम व्यस्त हो गये। कहाँ तू दस बजे ही खुर्राटे भरा करता था और मैं टी•वी• देखती रहती थी। अब आज का दिन है कि हम दिल्ली में हैं।"

"पैसा इंसान को नचाता है। हो तो इंसान नाचेगा। ना हो तो इंसान नाचेगा।" मोहनलाल मुस्कुराकर बोला।

"मुझे तो अब भी यकीन नहीं आ रहा।" लक्ष्मी ने गहरी सांस ली।

"तेरी किस्मत से पैसा आया है।"

"मेरी किस्मत! वो कैसे?"

"अरे, तेरा नाम जो लक्ष्मी है। लक्ष्मी को देखकर ही तो लक्ष्मी आई है।"

"मजाक मत कर।"

कुछ देर बाद मोहनलाल बोला---

"वो डॉयरी कौन से सूटकेस में रखी है?"

"क्यों?"

"यूँ ही पूछा।"

"पता नहीं मुझे। होगी किसी सूटकेस में। पर उस डॉयरी में है क्या?"

"डॉलरों के साथ उसे रखा हुआ था--- तो जरूर वो खास डॉयरी ही होगी। फुर्सत में उसे चैक करूँगा।"

"मोहनलाल, एक बात आई मेरे दिमाग में।"

"क्या?"

"स्टेशन के क्लॉक रूम में ज्यादा दिनों तक सूटकेस पड़े रहना ठीक नहीं। वहां तो मुसाफिर सामान रखते हैं। सुबह रखा तो शाम को ले लिया, आज रखा तो कल ले लिया। हमारे सूटकेस ज्यादा दिनों तक वहां पड़े रहेंगे तो क्लॉक रूम वाले शक भी कर सकते हैं कि---।"

"ये बात तो तूने ठीक कही।"

"मेरे पास एक आइडिया है।"

"आइडिया बोल।"

"दो दिन बाद हम फिर जायेंगे और निजामुद्दीन स्टेशन वाला सूटकेस लेकर नई दिल्ली के स्टेशन पर जमा करा देंगे और वापसी पर नई दिल्ली वाला सूटकेस वहां से लेकर, निजामुद्दीन पर जमा करा देंगे।"

"बाई गॉड लक्ष्मी, तूने तो कमाल की बात कह दी।" मोहनलाल के होंठों से निकला।

"बात नहीं, ये आइडिया है मेरा।"

"वो ही। वो ही। तेरे में तो सच में दिमाग है।"

"तो तू क्या आज तक मुझे यूँ ही समझता रहा था?"

"वो बात नहीं, मैंने सोचा कि तेरे में रोटी-सब्जी बनाने वाला दिमाग है, पर तेरे में तो सच में दिमाग है।"

"तू मोहनलाल---बस---हमेशा कबाड़ ही बोलेगा।" लक्ष्मी तीखे स्वर में कह उठी।

मोहनलाल के चेहरे पर गम्भीरता दिखने लगी एकाएक।

"एक बात मुझे चिंता में डाले दे रही है लक्ष्मी।"

"बोल।"

"जिसके डॉलर हैं, वो हमें ढूंढ लेगा।"

"तूने ही तो कहा था कि तेरे को वहां किसी ने नहीं देखा। कोई पीछे नहीं आया।"

"वो तो ठीक है, परन्तु वो लोग खतरनाक हैं। चार-पांच लाशें पड़ी थीं वहां।"

"क्या पता वो एक-दूसरे को मारकर, सब ही मर गये हों।" लक्ष्मी ने उसे देखा।

"ऐसा हो गया तो कहना ही क्या!" मोहनलाल ने गहरी सांस ली।

"तू डर मत। मैं तेरे साथ हूँ।"

"तेरे को पता नहीं कि मोहनलाल फौजी है और वह डरता नहीं है। लेकिन अंदेशे जब दिमाग में आते हैं तो चिंता होती है। हां, वहां कुछ खास ही हुआ होगा, मेरे पहुंचने से पहले। तब मैं पहाड़ी पर सुस्ता रहा था कि गोलियां चलने की आवाजें सुनाई देने लगीं। तभी समझ गया था कि ये रिवाल्वर की गोलियां हैं। वहां कुछ गड़बड़ है। मैं तुरंत इधर चल पड़ा। परन्तु जंगल के रास्ते थे और दिशा का भी मुझे ठीक से पता नहीं था। वहां तक पहुंचने में मुझे आधा घंटा लग गया और जाकर देखा कि सब मरे पड़े हैं। एक कार में जिंदा था। कुछ साँसें बची थीं उसकी। वो मेरे से पानी मांग रहा था। परन्तु मेरे पास पानी नहीं था। फिर मुझे डिग्गी में रखा डॉलरों से भरा सूटकेस मिला। उसे लेकर मैं चला आया। पर लक्ष्मी, मुझसे गलती हो गई।" मोहनलाल दारूवाला ने सोच भरे स्वर में कहा।

"क्या?"

"मुझे दोबारा वहां जाना चाहिए था। उस घायल को पानी पिलाना चाहिए था। शायद वो अब भी जिंदा हो...।"

"मतलब कि तुम मरते इंसान को जिंदा करना चाहते हो कि ठीक होकर वो तुझसे सारे डॉलर वापस मांगने लगे?" लक्ष्मी झल्लाई।

"इंसान होने के नाते इस हाल में उसे पानी पिलाना चाहिए था। मुझे शाम को ही दोबारा वहां जाना चाहिए था।"

"तुम्हारा दिमाग खराब होता जा रहा है। तुम...।"

"मेरी माँ कहती थी कि किसी प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम होता है। भगवान...।"

"चुप हो जाओ। पुण्य कमाना है तो प्याऊ लगा लेते। जिंदगी भर लोगों को पानी पिलाते रहते और अपने परिवार को भी रात रोटी के बदले पानी पिला कर सुला दिया करते। मेरे सामने तुम खामखाह की बातें मत करो। तुम जैसी सोच का आदमी मुंबई पहुंच कर फिल्म कैसे बना पाएगा? बनाएगा तो फ्लॉप फिल्म ही बनाएगा और हीरोइन के तौर पर मेरा करियर भी खराब हो जाएगा।"

"उसकी तू फिक्र मत कर।"

"फिक्र क्यों ना करूं? आखिर हीरोइन तो फिल्म की मैं ही होऊंगी।"

"फिल्म सुपर-डुपर हिट जायेगी। देखती रह। कहानी मेरे दिमाग में है, बस तेरे को कैमरे के आगे अपने जलवे दिखाने होंगे।"

"वो तो मैं दिखा ही दूंगी।" लक्ष्मी मुस्कुराई--- "ऐसे जलवे दिखाऊंगी कि तुम भी आहें भरने लगोगे।"

■■■

मोहनलाल दारूवाला और लक्ष्मी अपने घर पहुंचे। लक्ष्मी ने खाना बनाया और दोनों ने खाना खाया तो रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। लक्ष्मी खुश थी कि वह फिल्म की हीरोइन बनेगी।

"वो लाख डॉलर कहां रखे हैं?" लक्ष्मी ने पूछा।

"सेंटर टेबल पर हैं।"

"वो कोई जगह है रखने की? मैं उन्हें संभाल कर रख देती हूँ।" लक्ष्मी ने कहा और ड्राइंगरूम में पहुंचकर सेंटर टेबल पर रखे लाख डॉलर उठाये और दूसरे कमरे की तरफ बढ़ती कह उठी--- "तुम अब कपड़े बदल लो। सोना नहीं क्या?"

परन्तु मोहनलाल दारूवाला का इरादा तो कुछ और ही था। उसने फ्रिज से पानी की बड़ी बोतल निकाली और कार की चाबी उठा ली। तभी लक्ष्मी वहां आ पहुंची। उसे देखते ही कह उठी---

"ये क्या कर रहे हो?"

"मैं उसे पानी पिलाने जा रहा हूँ।" मोहनलाल दारूवाला गंभीर था।

"पागल हो गए हो तुम?" लक्ष्मी के माथे पर बल पड़े।

"कुछ भी कहो--- मैं...।"

"बेवकूफ! वह अब तक मर गया होगा।"

"तो उसकी लाश देखकर वापस आ जाऊंगा। जिंदा हुआ तो पानी पिला कर वापस आ जाऊंगा।"

"तुम्हें वहां नहीं जाना चाहिए मोहनलाल...।"

"तुम मुझे रोक नहीं सकती। ये काम मुझे करना ही है।" मोहनलाल दारूवाला दृढ़ स्वर में बोला और जेब से क्लॉक रूम की एक रसीद निकालकर लक्ष्मी को थमाई--- "रसीद संभाल के रखना।"

"तुम वहां मत जाओ।"

"दो घंटे में आ जाऊंगा। तुम मजे से नींद लो। और सूटकेस लेकर अकेली ही हीरोइन बनने मुंबई मत भाग जाना।"

"मैं तुम्हें ऐसी लगती हूँ?"

"समझा रहा हूँ। तुम्हें केवल मैं ही हीरोइन बना सकता हूँ। कोई और तुम्हें बर्बाद कर देगा।"

"मैं ऐसा कुछ नहीं करने वाली।"

"ये अच्छी बात है।" मोहनलाल दारूवाला ने कहा और छिपी जगह से रिवॉल्वर निकालकर जेब में रखी।

"तुम वहां जा रहे हो... न जाने क्यों मुझे डर लग रहा है।"

"मैं उस घायल को पानी पिलाने जा रहा हूँ।"

"मैं भी तुम्हारे साथ चलती...।"

"तुम घर पर ही रहो। इस काम में तुम्हारी जरूरत नहीं है।" मोहनलाल दारूवाला मुस्कुराया।

"जल्दी आना मैं--- तुम्हारे इंतजार में जागी रहूंगी।"

"तुम्हें जागने की जरूरत नहीं। सो जाओ।"

"मैंने तो सोचा था कि हम प्यार करेंगे... पर तुम तो जा रहे हो।" लक्ष्मी ने उसे रोकने की कोशिश की।

"वो फिर कभी। दरवाजा बंद कर लो।"

"मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ। जल्दी आना।" लक्ष्मी ने मोहनलाल दारूवाला का हाथ पकड़कर कहा।

मोहनलाल ने उसका गाल थपथपाया और बाहर निकलता चला गया।

चंद पलों बाद ही लक्ष्मी ने कार स्टार्ट होने और फिर दूर जाने की आवाज सुनी।

■■■

रात में जंगल और भी स्याह पड़ा हुआ था। गहरा सन्नाटा था। वहां जहां तक कार जाती थी, वहां तक कार ले जाने के बाद मोहनलाल दारूवाला ने कार रोकी, इंजन बंद किया और पानी की बोतल लेकर पैदल ही अंधेरे में बढ़ गया। रास्ता तक नहीं दिखाई दे रहा था अंधेरे में, परन्तु वो इस जंगल के अधिकतर रास्ते जानता था। यहां शिकार के लिए वह अक्सर आता रहता था। पहली बार जब शिकार के लिए आया तो एक हिरण का शिकार किया था, क्योंकि वह तब गहरी नींद में था। परन्तु उसके बाद जब भी आया हिरण का शिकार नहीं कर पाया था। हर बार हिरण उसके सामने से बच निकलते थे।

पानी की बोतल थामें, अंधेरे में ही मोहनलाल दारूवाला आगे बढ़ा।

बीस मिनट बाद।

दो कारें वहीं आकर रुकीं, जहां मोहनलाल दारूवाला की कार रुकी पड़ी थी। दोनों कारों की हैडलाइट रोशन थी। जंगल का काफी बड़ा हिस्सा रोशनी से चमक गया था।

"कारों की हैडलाइट बंद करो।" एकाएक जाकिर के चीखने की आवाज आयी।

फौरन ही दोनों कारों की हैडलाइट बंद हो गई।

वहां पुनः अंधेरा छा गया।

कारों के दरवाजे खुले और जाकिर, हुसैन, मौला, शेख, वजीर खान, सोहनलाल और अजहर मेनन बाहर निकले।

"ये कार किसकी है?" मौला बोला।

"शाम को नहीं थी, जब यहां आए थे।"

तभी सोहनलाल आगे बढ़ा और कार के बोनट पर हाथ रखा, फिर फौरन ही हाथ हटाकर कह उठा---

"बोनट गर्म है। लगता है अभी-अभी ये कार आई है।"

पल भर के लिए वहां खामोशी छा गई।

"मुझे लगता है, ये जो आया है, डॉलरों के चक्कर में ही होगा।"

"जुगल किशोर भी हो सकता है।" शेख ने कठोर स्वर में कहा।

"जो भी है, हमारे काम का आदमी हो सकता है। हमें डॉलरों तक पहुंचा सकता है।"

"हमें डॉलर नहीं, वो डॉयरी चाहिए जो जुगल किशोर ने डॉलरों के ऊपर रखी थी।" जाकिर ने कहा।

"मेरा मतलब वो ही था।"

"वो जो भी है, वहीं पर, उस कार के पास गया होगा--- आओ चलें।"

"टॉर्च मत जलाना।" सोहनलाल ने कहा--- "रोशनी देखकर वह सावधान हो जायेगा, हमें अंधेरे में ही आगे बढ़ना होगा, अगर उसे पकड़ना है तो। अगर उसे हमारे आने का जरा भी अहसास हुआ तो जंगल में गायब हो जायेगा। चारों तरफ अंधेरा है।"

"ये ठीक कहता है।" शेख ने कहा।

"हम बिना रोशनी के ही आगे बढ़ेंगे।"

"लेकिन ठीक से रास्ता भी पता होना चाहिए कि जंगल में हमें कहाँ जाना है।" सोहनलाल ने कहा--- "मैं तो शाम को एक बार ही आया था। मुझे रास्ता नहीं पता। जरा से भी भटक गये तो वो आदमी हमारे हाथ से निकल जायेगा।"

"मुझे रास्ता मालूम है।" जाकिर बोला--- "सब मेरे पीछे-पीछे आओ।"

तभी मौला कह उठा।

"मैं यहीं पर रहूंगा।"

"क्यों?" हुसैन ने गर्दन घुमाकर मौला को देखा।

"अगर वो तुम लोगों के हाथों से बच निकला तो, वापस कार तक आने की चेष्टा करेगा। ऐसा किया तो मैं उसे पकड़ लूंगा।" मौला बोला--- "यहां पर भी किसी को होना चाहिए।"

"तुम यहीं रहो।" शेख ने कहा--- "चलो हम चलते हैं।"

■■■

पन्द्रह-बीस मिनट चलने के बाद मोहनलाल दारूवाला उस जगह पर पहुंच गया। जहां लाशें बिखरी पड़ी थीं और कार खड़ी थी। जंगल के गहरे अंधेरे में स्पष्ट कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। परन्तु उसे सबकुछ वैसा ही लगा जैसा वो दोपहर को छोड़कर आया था। पैनी निगाह कई मिनटों तक फिरती रही। लेकिन किसी तरह के खतरे को उसने महसूस नहीं किया। पानी की बोतल थामें उसने वहां छोटा सा चक्कर मारा, सब लाशों को वहां ही मौजूद पाया जहां दोपहर को देखी थीं।

फिर मोहनलाल दारूवाला कार की तरफ बढ़ गया।

कार का दरवाजा खुला हुआ था और वो जानता था कि दोपहर को जब वो आया था तो तब भी दरवाजा खुला हुआ था। पास पहुंचकर वो झुका और कार के भीतर झांकते हुए बोला---

"दोस्त, मैं तुम्हारे लिए पानी ले आया...।"

कोई जवाब नहीं मिला।

मोहनलाल दारूवाला की नजरें कार के भीतर फिर रही थीं।

चंद पलों में उसकी निगाहें कार के भीतर देखने की अभ्यस्त हो गईं।

सीट खाली थी।

मोहनलाल दारूवाला की आँखें सिकुड़ी। वो तुरन्त कार से हटा और इधर-उधर नजर मारने लगा। मन में ये ही विचार आ रहा था कि उसकी हालत ऐसी तो नहीं थी कि कहीं आ-जा सके। जरूर वो कार से निकला होगा, परन्तु कुछ कदम चलकर कहीं नीचे गिर गया होगा। शायद वो अभी भी जिंदा हो।

इस विचार के साथ मोहनलाल दारूवाला पानी की बोतल थामे अंधेरे में जमीन पर नजरें दौड़ाता देवराज चौहान को तलाश करने लगा। मन में सोचा कि अगर वो जिंदा हुआ तो उसे यहां से उठाकर किसी अस्पताल के बाहर छोड़ देगा। ये काम उसे दिन में ही कर देना चाहिए था, परन्तु तब यहां के हालातों से इतना हैरान हो गया था कि कुछ भी करने-सोचने का वक्त नहीं मिला था।

काफी देर हो गई मोहनलाल दारूवाला को, देवराज चौहान को तलाश करते हुए।

परन्तु वो नहीं मिला।

"तुम मेरी आवाज सुन रहे हो? मैं तुम्हें पानी पिलाने आया हूँ।" मोहनलाल दारूवाला ऊँचे स्वर में कह उठा।

जवाब में कोई आवाज या आहट सुनने को नहीं मिली।

"भाड़ में जाये। चला गया होगा कहीं पास में ही कहीं मरा पड़ा होगा। मैं यूँ ही आया।" मोहनलाल दारूवाला बड़बड़ाया और वापस जाने के लिए पलटा। अगले ही पल उसे चौंक जाना पड़ा।

दो टॉर्चों की तीव्र रोशनी उस पर आ पड़ी।

मोहनलाल दारूवाला हड़बड़ा उठा।

"हिलना मत।" हुसैन का खतरनाक स्वर उसके कानों में पड़ा--- "वरना मारे जाओगे।"

"दोस्त, मैं तुम्हें पानी पिलाने आया हूँ।" मोहनलाल दारूवाला कह उठा।

"पानी?"

"हाँ। तुम दोपहर को बेहोशी की हालत में घायल पड़े थे और तुमने मुझसे पानी मांगा था। मैं तुम्हारे लिए पानी लाया हूँ।"

"कौन हो तुम?" हुसैन की आवाज पुनः गूंजी।

"मोहनलाल दारूवाला। तुम्हें याद होगा कि दोपहर को भी मैंने तुम्हें अपना नाम बताया था।"

टॉर्चों की रोशनियाँ बराबर मोहनलाल दारूवाला पर पड़ी रही थीं।

"तुम्हारे हाथ में क्या है?"

"पानी की बोतल--- तुम्हारे लिए।"

"तुम्हारे पास हथियार है?"

"हाँ। रिवाल्वर है।"

"उसे बाहर निकालो और पांवों के पास रखो।"

"रिवाल्वर को?"

"हाँ।" हुसैन की आवाज में और भी कठोरता आ गई।

"क्या तुमने मुझे पहचाना नहीं, मैं...।"

"जो कहा है वो ही करो...।"

मोहनलाल दारूवाला उलझन में फंस गया कि वो घायल है, परन्तु फिर भी कितने दम-खम से बात कर रहा है। उसे रिवाल्वर नीचे रखने को कह रहा है। सावधानी के नाते ऐसा कह रहा होगा। ज्यादा न सोचकर उसने रिवाल्वर निकाली और नीचे झुककर अपने पांवों के पास रखी और सीधा खड़ा हो गया।

"पानी की बोतल नीचे रखो।"

मोहनलाल ने ऐसा ही किया।

"तुम्हारे साथ कितने लोग हैं?" कानों में हुसैन की आवाज पड़ी।

"कोई नहीं। अकेला हूँ।"

"ऐसे ही खड़े रहो। मेरा आदमी तुम्हारे पास पहुंच रहा है। हिलने की कोशिश मत करना। वरना गोली लगेगी तुम्हें...।"

"तुम्हारा आदमी? तुम तो अकेले थे...।" मोहनलाल दारूवाला के होंठों से निकला।

"खामोश रहो।"

मोहनलाल दारूवाला को कुछ गड़बड़ लगी। उसे लगा कि वो उससे बात नहीं कर रहा, जिसे कार में दोपहर को बुरे हाल में पड़े देखा था। ये कोई और लोग ही हैं। मोहनलाल को खतरे का अहसास हुआ। कहीं डॉलर इनके तो नहीं हैं?

मोहनलाल दारूवाला पछता उठा कि वो यहां आया ही क्यों? लक्ष्मी उसे रोक रही थी। उसकी बात मान लेता तो ठीक रहता। वो कौन सा सगा वाला था जिसे पानी पिलाने आ गया। उसे लगा कि वो सच में गलती कर चुका है।

टॉर्चों की रोशनी में किसी को उसने अपनी तरफ बढ़ते देखा।

रोशनी उसकी आँखों में पड़ रही थी, इसलिए आने वाले का चेहरा नहीं देख सका। परन्तु उसके हाथों में दबी रिवाल्वर को उसने महसूस कर लिया था। उसी पल हुसैन का कठोर स्वर पुनः कानों में पड़ा---

"कोई चालाकी करने की कोशिश मत करना।"

"मैं चालाकी क्यों करूंगा? मैं तो पानी पिलाने आया था।" मोहनलाल दारूवाला बोला--- "तुम कौन हो?"

जवाब में हुसैन की आवाज नहीं आई।

आने वाला उसके पास, तीन कदम पहले ठिठक गया और बोला---

"रिवाल्वर के अलावा भी तुम्हारे पास कोई हथियार है?" वो वजीर खान की आवाज थी।

"नहीं...।"

वजीर खान नीचे झुका और मोहनलाल दारूवाला के पैरों के पास पड़ी रिवाल्वर उठाई और अपनी जेब में रख ली। फिर उसने मोहनलाल दारूवाला की तलाशी ली। टॉर्चों की रोशनी में मोहनलाल चमक रहा था।

एकाएक मोहनलाल का दिल जोरों से धड़क उठा।

जेब में क्लॉक रूम में जमा कराये सूटकेस की रसीद पड़ी थी। दूसरी रसीद उसने लक्ष्मी को दे दी थी। अगर रसीद इनके हाथ लग गई तो भारी गड़बड़ हो जायेगी। तभी मोहनलाल ने चैन की सांस ली।

"इसके पास कोई हथियार नहीं है।" वजीर खान ने ऊंचे स्वर में कहा।

तभी आहटें गूंजने लगीं।

वो लोग पास आने लगे।

मोहनलाल दारूवाला ये ही सोच रहा था कि वो खामखाह फंस गया।

सब पास पहुंचे।

मोहनलाल दारूवाला घबरा उठा। वो इतने लोगों के वहां होने की आशा नहीं कर रहा था। टॉर्चों की रोशनियाँ अभी भी उसके चेहरे पर पड़ रही थीं। रह-रह कर वो आँखें मिचमिचा रहा था।

"कौन हो तुम?" इस बार शेख ने पूछा।

"मोहनलाल दारूवाला। फौजी हूँ। रिटायर्ड हूँ... तुम लोग।"

"ज्यादा जुबान मत चलाओ। जो पूछा, सिर्फ उसका जवाब दो। कहाँ रहते हो?"

"फरीदाबाद में।"

"यहां क्या कर रहे हो?"

"पानी पिलाने आया था घायल को।"

"कौन घायल?"

"दोपहर को कार के पीछे वाली सीट पर बैठा था और मुझसे पानी मांगा था उसने।"

"दोपहर में?"

"हाँ।"

"तो तुम दोपहर में भी यहां आये थे?" शेख का स्वर कड़वा हो गया था।

"हाँ, आया था।" मोहनलाल दारूवाला ने गर्दन हिलाई।

"दोपहर में जंगल में क्या कर रहे थे?"

"मैं यहां हिरण का शिकार करने आया था। अक्सर आता रहता हूँ।"

"तो वो डॉलरों वाला सूटकेस तुम ले गये?"

"कौन से डॉलर...क्या बात कर रहे हो?"

"वो डॉलरों वाला सूटकेस, जिसमें काली जिल्द वाली डॉयरी भी पड़ी थी।"

मोहनलाल दारूवाला का दिल जोरों से धड़का।

इन्हें सबकुछ मालूम है। डॉलर इनके ही होंगे और अब ये डॉलरों को ढूंढ रहे हैं।

"जवाब दो, वो सूटकेस कहाँ...?"

"मैं सूटकेस के बारे में ही सोच रहा था।" मोहनलाल दारूवाला भोला बनकर कह उठा--- "मैंने तो यहां सूटकेस नहीं देखा। लाशें थीं और कार में एक घायल आदमी था जो कि...।"

"वो घायल नहीं, मर चुका था।"

"वो घायल था। उसने मेरे से बात की। मेरा नाम पूछा, पानी मांगा।" मोहनलाल दारूवाला कह उठा।

"तो दोपहर के गये तुम अब उसे पानी पिलाने आये हो?"

"मैं किसी काम में व्यस्त था।"

"डॉलरों को ठिकाने लगा रहे थे।"

"कौन से डॉलर, क्या बात कर रहे हो--- मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा...।"

"साला बहुत कमीना है।" शेख ने खतरनाक स्वर में कहा--- "तू इतना शरीफ है कि एक घायल को पानी पिलाने आ गया, परन्तु यहां लाशें देखकर तूने पुलिस को खबर नहीं की?"

"पुलिस को खबर करता तो वो मुझे ही इस मामले में खामखाह फंसा देती।" मोहनलाल दारूवाला कह उठा।

"वो अब कहां है, जिसे तुम पानी पिलाने आये थे?"

"पता नहीं कहां चला गया! कार में तो नहीं है। मैंने सोचा बाहर कहीं मरा पड़ा होगा, परन्तु वह बाहर भी नहीं है।"

तभी जाकिर कह उठा---

"इसका मतलब एक आदमी जिंदा है। घायल है और बच निकला है।"

"मैं कार को देखता हूँ।" हुसैन ने कहा और सामने खड़ी कार की तरफ बढ़ गया।

"सुनो।" वजीर खान बोला--- "हमें डॉलरों से कोई मतलब नहीं, वो तुम रख लो। हमें काली जिल्द वाली वो डॉयरी...।"

"डॉलरों को मैं रख लूं?" मोहनलाल दारूवाला हैरानी से कह उठा--- "कौन से डॉलर--- कौन सी डायरी की बात...।"

"ये आसानी से मुंह नहीं खोलेगा।" जाकिर कठोर स्वर में बोला--- "ले चलो इसे।"

"ऐसा मत करो। मैंने तुम लोगों का क्या बिगाड़ा...।"

तभी वजीर खान का हाथ घूमा और मोहनलाल दारूवाला के चेहरे पर जा पड़ा।

मोहनलाल तिलमिला उठा।

"हमसे चालाक बनने की कोशिश मत करो। हम बहुत खतरनाक लोग हैं।" वजीर खान गुर्रा उठा।

"मुझे क्यों मार रहे हो! मैंने क्या किया है! मैं तो घायल को पानी पिलाने...।"

"चुप हो जाओ।" शेख दांत भींचकर गुर्राया।

"मोहनलाल दारूवाला चुप हो गया।

"सब जगह की तलाशी लो।" वजीर खान सबसे बोला--- "देखो, यहां हमें कुछ मिलता है कि नहीं। इसका मैं ध्यान रखूंगा।" उसका इशारा मोहनलाल दारूवाला की तरफ था--- "तुम लोग इन दोनों का ख्याल रखना, ये भागने न पाये, अंधेरे का फायदा उठाकर।"

"हम क्यों भागेंगे।" मेनन हड़बड़ा कर कह उठा--- "डॉयरी ढूंढ कर तुम्हें देंगे, तब जायेंगे। क्यों सोहनलाल?"

"डॉयरी भी कहाँ से ढूंढेंगे! हमें क्या पता कि वो डॉलरों वाला सूटकेस कौन ले गया।"

■■■

सोहनलाल, अजहर मेनन और मोहनलाल दारूवाला के साथ वो पांचों उसी ठिकाने पर लौट आये थे। रात के साढ़े तीन बज रहे थे। मोहनलाल दारूवाला को अलग कमरे में रखा गया और पांचों उसके पास थे।

मोहनलाल दारूवाला परेशान था, व्याकुल था कि ये किस मुसीबत में फंस गया। वह दोबारा उस जगह पर नहीं जाना चाहता था। यूँ ही फँस गया। लक्ष्मी घर पर उसके इंतजार में बैठी होगी। सामने बैठे वो पांचों उसे प्रेत की तरह लग रहे थे, परन्तु मन ही मन इस बात के लिए पक्का था कि डॉलर इन लोगों के हवाले नहीं करेगा, मानेगा ही नहीं कि डॉलर उसने लिए हैं। एक और चिंता मन में नाच रही थी कि उसकी कार जंगल में खड़ी है। अगर पुलिस को वहां हुए खून-खराबे के बारे में खबर मिली और वहां पहुंच कर पुलिस को उसकी कार भी मिली तो पुलिस उसे इस मामले में रगड़ देगी।

मोहनलाल दारूवाला को अब हर तरफ मुसीबत ही मुसीबत नजर आ रही थी।

मौला बेहद शांत स्वर में, उससे कहा उठा---

"तुम हमसे डरो मत और ये मत सोचो कि हम तुमसे डॉलर ले लेंगे। हमें डॉलर नहीं चाहिए। वो हमारे हैं भी नहीं। हमें सिर्फ वो डॉयरी चाहिए जो डॉलरों वाले सूटकेस में रखी थी। काली जिल्द है उस डॉयरी की। समझ गये ना?"

"वो तो ठीक है। परन्तु मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। ना डॉलर ना डॉयरी...।" मोहनलाल ने कहा।

"हमें बेवकूफ मत बनाओ।" मौला सब्र के साथ बोला--- "हमने सारे हालातों पर गौर किया है--- और हालात ये ही कह रहे हैं कि वो सूटकेस तुम ही ले गये हो। जब तुम वहां जंगल में पहुंचे तो सूटकेस डिग्गी में था। हम उसे वहां छोड़कर गये थे।"

"तुम लोग छोड़कर गये थे?"

"हाँ।"

"तो उसमें से डॉयरी क्यों नहीं निकाली, जो मुझसे मांग रहे हो?"

"उस वक्त हमें पता नहीं था कि डॉयरी सूटकेस के भीतर रखी हुई है। ये बाद में पता चला।"

"उन सबको तुम लोगों ने मारा?"

"सबको नहीं। दो को। बाकी आपसी लड़ाई में मरे हैं। तुम वहां कैसे पहुंचे?"

"गोलियों की आवाज सुनकर।"

"कितनी आवाजें?" मौला ने पूछा।

"काफी आवाजें...।"

"इसका मतलब, तुम हमारे जाने के पांच-दस मिनट बाद ही पहुंच गये थे। क्योंकि पहले कुछ गोलियां उन लोगों ने आपस में चलाईं, फिर हम आये तो हमने सिर्फ दो को ही मारा। हमसे झूठ मत बोलो मोहनलाल। तुम ही डॉलरों वाला सूटकेस ले गये...।"

"कसम से, मैं  नहीं ले गया।"

"यकीन मानो, हमें सच में डॉलर नहीं चाहिए। हमें सिर्फ वो काली जिल्द वाली डॉयरी चाहिए। तुम चाहो तो हम उसके बदले तुम्हें पांच-दस करोड़ भी दे देंगे। परन्तु वो डॉयरी हमें हर हाल में चाहिए।"

सच बात तो ये ही थी कि मोहनलाल दारूवाला सोच रहा था कि डॉयरी इन्हें दे दे। उसे डॉयरी में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। परन्तु वो जानता था कि ये डॉलर भी ले लेंगे और डॉलर वो देना नहीं चाहता था--- क्योंकि उसने अपना भविष्य सोच रखा था कि मुम्बई जाकर फिल्म बनायेगा और लक्ष्मी उसमें हीरोइन होगी। वो नहीं चाहता था कि नसीब के जो पत्ते सीधे पड़े हैं, वो इन्हें डॉयरी देने के चक्कर में, करवट ले लें। डॉलर हाथ से निकल जायें।

"मुझे आजाद कर दो। मैं तुम लोगों के लिए डॉयरी तलाश करूंगा।" मोहनलाल दारूवाला ने कहा।

"डॉयरी हमारे हवाले करके तुम कहीं भी जा सकते हो।" मौला शांत स्वर में बोला--- "मैं फिर कहता हूँ कि हमें डॉलर नहीं चाहिए। तुम ये मत सोचो कि हम डॉलर ले लेंगे। नहीं लेंगे। वो तुम्हारे हैं। हमें सिर्फ डॉयरी चाहिए। वो...।"

"तुम लोग हिन्दुस्तानी नहीं हो?" मोहनलाल दारूवाला ने एकाएक पूछा।

"नहीं। हम ईराकी हैं।"

"हूं, इतना तो लग ही रहा था कि तुम किसी और देश के हो। हिन्दी अच्छी बोल लेते हो।"

पांचों एकटक उसे देखे जा रहे थे।

मोहनलाल का दिमाग तेजी से चल रहा था।

"हम तुमसे कितने प्यार से बात कर रहे हैं।" जाकिर बोला--- "अगर तुमने हमारी बात नहीं मानी तो हमारी क्रूरता भी देखोगे, जिसका कोई अंत नहीं होगा। डॉयरी पाने के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं।"

"मुझे डराने की कोशिश मत करो। फौजी हूँ मैं...।" मोहनलाल दारूवाला कह उठा।

"हम तुम्हें डरा नहीं रहे। ऐसी हकीकत से तुम्हें वाकिफ करा रहे हैं, जिसका तुम हिस्सा बन सकते हो, अगर तुमने हमें डॉयरी नहीं दी तो। उस डॉयरी के लिए हम कई लाशें बिछा सकते हैं।"

"वो डॉयरी तुम लोगों की है?"

"नहीं। परन्तु हमारे देश ईराक की है।" शेख ने शब्दों को चबाकर कहा।

"क्या है उसमें?"

"तुम डॉयरी हमें दो और डॉलरों से जिंदगी भर ऐश करो। कितने हैं वो?" हुसैन ने पूछा।

"पता नहीं।" मोहनलाल दारूवाला के होंठों से निकला और अगले ही पल उसने होंठ भींच लिए।

हुसैन के चेहरे पर मधुर मुस्कान नाच उठी।

शेख, मौला, वजीर खान और जाकिर ने चैन की सांस ली।

मोहनलाल दारूवाला ने कबूल कर लिया कि डॉलर उसके पास हैं।

"मेरा मतलब है कि डॉलर मेरे पास नहीं हैं--- तो मुझे क्या पता वो कितने हैं!" मोहनलाल दारूवाला जल्दी से पुनः कह उठा।

"हमें बच्चा समझते हो?" वजीर खान ने कहा--- "क्या सोचते हो कि हम बदल जायेंगे?"

मोहनलाल दारूवाला का दिमाग तेजी से दौड़े जा रहा था।

"अच्छे इंसान बन जाओ।" शेख बोला--- "हमारे मुंह मत लगो, वरना हम इंसान को ऐसी मौत देते हैं कि दोबारा वो जन्म लेना भी पसन्द नहीं करता। वो डॉयरी हमें दे दो और अपने घर पर चले जाओ। हम ईराक चले जायेंगे।"

"इस बात की क्या गारंटी है कि तुम लोग डॉलर नहीं लोगे?"

"हमारी जुबान गारण्टी है।" मौला ने कहा।

"जुबान की गारंटी कच्ची होती है।" मोहनलाल दारूवाला ने बेचैन स्वर में कहा।

"हमारे ईराक में जुबान की इज्जत की जाती है। जो कह दिया, वो ही होगा।"

"हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं होता।"

"तुम कैसी गारण्टी चाहते हो?"

मोहनलाल दारूवाला खामोश हो गया।

"उस डॉयरी को पाने के लिए तुम जैसी गारंटी चाहोगे, हम वैसी ही गारंटी देंगे। तुम मुंह से बोलो...।"

मोहनलाल दारूवाला की निगाह उन पांचों पर जा रही थी।

"सोच लो। सुबह तक फैसला कर लो।" शेख बोला।

"अब ये बताओ कि तुमने डॉयरी देखी है?" जाकिर ने पूछा।

मोहनलाल दारूवाला की निगाह जाकिर के चेहरे पर जा टिकी।

"हमसे दोस्तों की तरह बात करो मोहनलाल। क्योंकि हम साफ मन से तुमसे बात कर रहे हैं।"

"हाँ...।" मोहनलाल दारूवाला हिचकिचा कर बोला--- "परन्तु मेरी समझ में डॉयरी की भाषा नहीं आई।"

"वो समझ में नहीं आने वाली। वो हमारी भाषा है। समझ भी लो, तो कोई फायदा नहीं। क्योंकि उसमें कई ऐसे कोडवर्ड होंगे, जिन्हें हम लोगों के अलावा कोई नहीं समझ सकता। तुम्हें उस डॉयरी की तो जरूरत नहीं?"

"मुझे डॉयरी की जरूरत नहीं।"

"इसी तरह हमें डॉलरों की जरूरत नहीं। तुम वो डॉयरी हमें दे दो। कहां रखा है उसे?"

"संभाल कर रखा है।"

"उस तक कोई और तो नहीं पहुंच सकता?"

"नहीं।"

"ये अच्छी बात है। अब तुम वो डॉयरी दो और...।"

"अभी मैंने फैसला नहीं किया कि क्या करना है।" मोहनलाल दारूवाला ने कहा।

"फैसला करने में अड़चन क्यों...?"

"क्योंकि डॉयरी डॉलरों के साथ है। मुझे डर है कि तुम लोग डॉलर भी ले लोगे।"

"ऐसा नहीं होगा। हमारी जुबान पर भरोसा करो।"

"आजकल जुबान पर कोई भरोसा नहीं करता।"

"तो फिर क्या करोगे? आखिर कोई तो रास्ता निकालना पड़ेगा। हमें सिर्फ डॉयरी चाहिए।"

"मुझे सोचने दो। सुबह तक का वक्त दो मुझे...।"

पांचों की नजरें मिलीं।

"ठीक है। सुबह होने में ज्यादा वक्त नहीं है। तुम सोच लो। हम दो घंटे बाद तुमसे बात करेंगे। हम भी सोचेंगे, कोई रास्ता तो जरूर निकलेगा। तुम जिस तरह कहोगे हम वैसे ही तुम्हें विश्वास दिला देंगे कि हमें डॉलर नहीं डॉयरी चाहिए।"

उसके बाद मोहनलाल दारूवाला को वो पांचों उसे कमरे में बंद करके चले गये।

■■■

खुद को अकेला पाते ही मोहनलाल दारूवाला ने सबसे पहले लक्ष्मी से बात करने के लिए घर पर फोन किया। उसका मोबाइल उसके पास ही था। दूसरी तरफ की बजती बेल उसके कानों में पड़ने लगी।

देर तक बेल बजती रही, फिर बेल बजनी बंद हो गई।

"साली सो रही होगी!" मोहनलाल बड़बड़ाया और पुनः नंबर मिलाया।

दूसरी तरफ बेल जाने लगी।

"उठा... उठा।" मोहनलाल दारूवाला बड़बड़ाया--- "साली घोड़े बेंचकर सो रही...।"

"हैलो...।" लक्ष्मी की नींद से भरी आवाज कानों में पड़ी।

"सो रही है तू?" मोहनलाल दारूवाला शिकायती स्वर में बोला।

"सोऊंगी नहीं क्या! दिन भर कितनी मेहनत की। कभी एक स्टेशन तो कभी...।"

"इतनी सी मेहनत से तेरा यह हाल हो गया। कल को फिल्म की हीरोइन बनेगी तो तब तेरा क्या हो...।"

"तब की बात दूसरी है। तुम भी सो जाओ और मुझे भी सोने...।"

"लगता है नींद में बात कर रही हो।" मोहनलाल दारूवाला कह उठा--- "मैं घर में नहीं हूँ।"

चंद क्षणों की चुप्पी के बाद लक्ष्मी की आवाज कानों में पड़ी।

"ओह, माफ करना मोहनलाल। मैं सच में नींद में थी।" अब आवाज चौकस हो गई थी--- "तुम तो उसे पानी पिलाने गए थे। कहां हो--- अब तक तो तुम्हें आ जाना चाहिए था। पर तुम तो फोन कर रहे...।"

"मैं सोच रहा था कि मेरे इंतजार में पतली हो रही होगी। लेकिन तू तो सोई पड़ी है।" मोहनलाल दारूवाला ने गहरी सांस ली--- "तेरे को जरा भी चिंता नहीं मेरी। कम से कम ये सोचकर ही चिंता कर लेती कि मैंने तेरे को टॉप की हीरोइन बनाना...।"

"मजाक छोड़ो मोहनलाल। ये बताओ कि कितनी देर में आ रहे हो। अब मुझे नींद नहीं आयेगी। उसे पानी पिलाया?"

"मैं फंस गया हूँ लक्ष्मी। वहां पर कुछ लोग थे। उन्होंने मुझे पकड़ लिया। वो समझ गए हैं कि मैं ही डॉलरों वाला सूटकेस...।"

"वो सारे डॉलरों को वापस मांग रहे होंगे---।"

"सुन तो हीरोइन, वो कहते हैं कि उन्हें डॉलर नहीं, काली जिल्द वाली डॉयरी चाहिए जो---।"

"वो डॉयरी---।" लक्ष्मी की बेचैन आवाज कानों में पड़ी।

"वो ही डॉयरी।" मोहनलाल दारूवाला ने गहरी सांस ली।

"तो दे दो। हमें तो डॉयरी--- हम---।"

"कैसे दे दूं! डॉयरी को तो डॉलरों के साथ रखा है। सालों को डॉयरी दी तो डॉलर भी ले लेंगे। फिर ये भी नहीं पता कि कौन से वाले सूटकेस में डॉयरी है हजरत निजामुद्दीन स्टेशन वाले सूटकेस में या नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के क्लॉक रूम में जो सूटकेस रखा है, उसमें है डॉयरी। ये मुझे अकेला छोड़ेंगे नहीं की डॉयरी ला के दे सकूं।"

"तुम उनकी पकड़ में हो?" लक्ष्मी ने परेशान स्वर में पूछा।

"हाँ। जाने किस कमरे में बंद कर रखा है। ये सात लोग हैं। दो तो यूं ही लगते हैं, परन्तु पांच लोग खतरनाक लगते हैं। डॉयरी लिए बिना मानने वाले नहीं---।"

"तो दे दो डॉयरी--- हमें डॉयरी का क्या करना...।"

"डॉयरी डॉलरों के साथ है। ये कमीने डॉलर भी लेंगे। दौलत किसी को बुरी लगती है क्या?"

"दौलत गई तो मैं हीरोइन कैसे बनूंगी...।"

"चिंता मत करो लक्ष्मी। दौलत तो मैं हाथ से नहीं जाने दूंगा। फौज की सख्त ट्रेनिंग ली है मैंने।"

"मुझे तो हैरानी है कि तुम इनके हाथ कैसे आ गये?"

"उस वक्त मैं कुछ नहीं कर सका। फंस गया---।"

"तुम तो रिवाल्वर लेकर गये...।"

"वो अब इनके पास है।"

"कहां पर रखा है, तुम्हें कुछ अंदाज है कि नहीं?"

"कुछ नहीं पता। रात का अंधेरा था, जब मुझे लाया गया--- लेकिन ये जगह फरीदाबाद नहीं है। दिल्ली होगी। खैर, तेरे को इसलिए फोन किया कि तू मेरी चिंता मत कर। मैं जल्दी से यहां से निकल...।"

"तेरे पास स्टेशन के क्लॉक रूम की रसीद है--- वो तो उन्होंने...।"

"मेरे पास ही है। जेब में है। कागज का टुकड़ा समझकर उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। बंद करता हूँ हीरोइन। देखता हूँ कैसे निकलना है यहां से।" मोहनलाल दारूवाला ने कहा और फोन बंद करके जेब में रखा।

मोहनलाल दारूवाला अब गंभीर नजर आ रहा था। वह जानता था कि मुसीबत में फंस चुका है--- अगर यहां से ना निकला तो गहरी मुसीबत में फंसता चला जाएगा। उसने कमरे में नजरें मारीं। यहां टेबल कुर्सियों के अलावा बैठने के लिए सोफा था। दीवारें और छत पुरानी दिख रही थी। छत पर गार्डर पड़ा दिख रहा था। आजकल ऐसी छत नहीं बनती। पुराना मकान था। एक तरफ खिड़की दिखी। ऊपर रोशनदान था।

मोहनलाल दारूवाला आगे बढ़ा और खिड़की खोलने लगा।

खिड़की पर लकड़ी की फट्टियां लगाकर उन पर कीलें ठोंकी हुई थीं कि खिड़की ना खोली जा सके। परन्तु मोहनलाल दारूवाला हिम्मत हारने वाला नहीं था। फौजी था। हिम्मती था। औजार ना होने के बावजूद खिड़की पर ठोकी गई लकड़ी की फट्टियों को हटाने की चेष्टा करने लगा। इस बात का पूरा ध्यान रख रहा था कि शोर पैदा ना हो। बाहर कहीं मौजूद लोग होशियार ना हो जायें। फट्टी के ऊपर लगी कीलों को उखाड़ा नहीं जा सकता था। परन्तु उन फट्टियों को तोड़ा या काटा जाये तो बात बन सकती थी।

मोहनलाल कमरे में ऐसी चीज तलाश करने लगा, जिसे औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके। कमरे में कुछ नहीं मिला। तभी तरफ के दरवाजे पर ध्यान गया। आगे बढ़कर उसने दरवाजा खोला तो वो बाथरूम था। साधारण सा पुराने ढंग का बना बाथरूम।

परन्तु मोहनलाल दारूवाला का काम बन गया।

सामने ही एक पुराना सा पेंचकस रखा था। जो कि शायद किसी से काम करते वक्त छूट गया होगा। नीचे झुककर मोहनलाल ने पेंचकस उठाया और कमरे में खिड़की पर पहुंच गया। पेंचकस से खिड़की पर ठोकी गई फट्टियों के बीच में लाइन डालने लगा। और फिर वो लाइन गहरी करने लगा। मेहनत का काम था परन्तु मोहनलाल दारूवाला किसी भी तरह इस मुसीबत से बचना चाहता था। अभी ये भी पता नहीं था कि बंद खिड़की के बाहर क्या है। क्या पता मेहनत बेकार जाये! परन्तु वो लगा हुआ था। फौज से उसने ये सीखा था कि कभी भी हिम्मत नहीं हारो।

एक के बाद बराबर मेहनत करने के बाद वो खिड़की पर लगी फट्टियों को पेंचकस से गहरा करते हुए उन्हें काट चुका था। तभी बाहर से चिड़ियों के चहकने की आवाज उसके कानों में पड़ी तो उसका हौसला बढ़ गया, ये सोचकर कि बाहर खुली जगह है, चिड़ियों के चहचहाने का मतलब था कि बाहर दिन निकलने को है।

खिड़की पर लगी फट्टियों की पकड़ हट चुकी थी।

मोहनलाल दारूवाला ने पेंचकस को धन्यवाद दिया और खिड़की खोली। ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे पर आ टकराया। बाहर अंधेरा ही था। परन्तु वातावरण बता रहा था कि दिन निकलने वाला है।

मोहनलाल दारूवाला ने खिड़की से सिर बाहर निकालकर झांका।

ये दिल्ली का कोई पुराना इलाका था। तीन-तीन मंजिला पुरानी इमारतें बनी थीं। खिड़की के ठीक नीचे चार फीट चौड़ी जगह थी। वहां किसी को जाते भी देखा। गली में स्ट्रीट लाइट का पीला बल्ब जल रहा था। उसने सामने देखा। चार फिट के फैसले पर, गली पर दूसरी इमारत थी। वहां अंधेरा था। वो लोग या तो नींद में थे या घर पर कोई नहीं था। चार फीट की जगह को फलांगना उसके लिए मामूली काम था, परन्तु खिड़की से छलांग लगाकर चार फिट को पार कर पाना संभव नहीं था। ऐसा कर पाता तो वो छत पर पहुंच जाता।

मोहनलाल दारूवाला ने खिड़की से सिर बाहर निकालकर दायें-बायें देखा तो खिड़की के पास से ही इमारत की छत से आती हुई रेन वॉटर पाईप नीचे जाती दिखी।

"काम बन गया मोहनलाल।" मोहनलाल दारूवाला बड़बड़ाया और अगले ही पल चौखट पर चढ़कर आंखों ही आंखों में रेन वॉटर पाइप की दूरी नापी। वो मात्र दो फीट दूर थी।

तभी मोहनलाल दारूवाला ने एक छोटी सी छलांग लगाई और बंदर की भांति दोनों हाथों से पाइप को पकड़ लिया। उंगलियां दीवार से रगड़ खाने से कुछ छिल गईं। जलन सी उभरी उंगलियों में। परन्तु उसने वक्त बर्बाद नहीं किया और तेजी से पाइप से फिसलता नीचे उतरने लगा।

ये उसके लिए आसान काम था।

ऐसी ट्रेनिंग वह फौज में पा चुका था।

चंद पलों में ही मोहनलाल दारूवाला गली में खड़ा था।

"साले मुझे कैद करते हैं!" बड़बड़ाता मोहनलाल दारूवाला गली के किनारे की तरफ बढ़ता चला गया। तब तक चिड़ियों की चहचहाने की आवाज तेज हो गई थी और धीमे-धीमे दिन का उजाला फैलना आरंभ हो गया था।

मोहनलाल दारूवाला गली से बाहर निकला तो खुद को पन्द्रह फिट चौड़ी गली में पाया। दोनों तरफ दुकाने थीं, परन्तु वो बंद थीं। एक दूध की डेरी खुली थी। छोटा टैंकर दूध उतार रहा था। एक अन्य बेकरी की दुकान खुलने जा रही थी। एक-दो लोग आते-जाते दिखे। मोहनलाल आगे बढ़ गया। एक दुकान के बोर्ड पर लिखा निजामुद्दीन पढ़ा उसने। तो ये दिल्ली निजामुद्दीन का इलाका है।

परन्तु मोहनलाल दारूवाला का दिमाग तो अब अपनी कार की तरफ चला गया था। वो कार जो कि फरीदाबाद के जंगल में खड़ी थी और वहां लाशें पड़ी थीं। अगर पुलिस वहां पहुंच गयी और उसकी कार भी देख ली तो मुसीबतें जिंदगी भर भी खत्म नहीं होंगी। यही सोचता मोहनलाल तेजी से आगे बढ़ा जा रहा था कि तभी एक आदमी को देखा, जो कि तंग गली से निकला और पास ही खड़ी कार के पास पहुंचकर कार को खोला।

मोहनलाल उसके सिर पर जा पहुंचा।

"ये कार मुझे चाहिए।" मोहनलाल ने कहा और उसके हाथ से चाबी छीन ली।

"ये क्या कर रहे हो?" वो घबराया सा कह उठा।

"पुलिस में रिपोर्ट लिखाओ कि तुम्हारी कार कोई ले गया है।" कहते हुए मोहनलाल भीतर बैठा और चाबी लगाकर कार को स्टार्ट किया कि वो आदमी उसकी बांह पकड़कर बोला---

"मेरी कार छोड़ो। बाहर निकलो--- मैं---।"

"रिवाल्वर निकालूं?" मोहनलाल दारूवाला गुर्रा उठा।

वो सिटपिटा कर खामोश हो गया।

मोहनलाल दारूवाला ने दरवाजा बंद किया और कार को दौड़ा दिया।

■■■

सुबह के नौ बज रहे थे जब मोहनलाल दारूवाला फरीदाबाद स्थित अपने घर पर पहुंचा। अपनी कार जंगल से लेता हुआ आया था। खैरियत है कि अभी तक जंगल में हुए खून-खराबे की खबर पुलिस को नहीं मिली थी। रात भर का जागा हुआ था। आंखों में नींद भरी थी। घर का दरवाजा खुला हुआ था। लक्ष्मी कार रुकने की आवाज सुनकर ही बाहर आ गई थी। उसे आया पाकर लक्ष्मी के चेहरे पर राहत के भाव उभरे। वो चिंतित दिख रही थी।

मोहनलाल दारूवाला कार से बाहर निकला--- तभी गली में टहलते चोपड़ा साहब पास आ पहुंचे।

"क्यों जनाब! सुबह-सुबह कार से कहां से आ रहे हैं? रात भर किसी पार्टी में मस्ती की है क्या?"

मोहनलाल दारूवाला ने नापसंदगी भरी नजरों से चोपड़ा साहब को देखा।

दरवाजे पर खड़ी लक्ष्मी भीतर चली गई थी।

"सैर कर के आ रहा हूँ।" मोहनलाल दारूवाला ने कहा।

"कार पर?"

"हाँ। बड़े वाले बाग में गया था, वो यहां से दूर पड़ता है।"

"पैंट-कमीज जूते पहनकर।"

"हाँ।" मोहनलाल दारूवाला ने सिर हिलाया।

"मैंने तो सोचा कि रात भर से बाहर हो। भाभी को भी दरवाजा खोले वहां खड़े देखा तो सोचा वो इंतजार...।"

"उसने नाश्ते में पूड़ी-आलू बना रखे हैं। ठंडे ना हो जायें, इसलिए मेरी वापसी का इंतजार कर रही...।"

"समझ गया। समझ गया। तो आप दोबारा गोल्फ खेलने नहीं गये?"

"नहीं।"

"जब जायें तो मुझे ले जाना मत भूलिएगा। जब चलना हो, एक दिन पहले बता देना।"

"जरूर बता दूंगा।" कहने के साथ ही मोहनलाल दारूवाला घर के खुले दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

चोपड़ा साहब पुनः सैर करते हुए गली के चक्कर लगाने लगे।

मोहनलाल दारूवाला ने घर में प्रवेश किया और दरवाजा बंद कर लिया।

सामने खड़ी लक्ष्मी ने बेचैनी से पूछा---

"तुम ठीक तो हो?" वो पास आ गई।

"बिल्कुल ठीक हूँ।" मोहनलाल दारूवाला मुस्कुराया--- "मेरी रिवाल्वर जरूर उनके पास रह गई।"

"उन्होंने तुम्हें कैद कर रखा था?"

"भाग आया वहां से। फौजी को भला कब तक कैद में रखा जा सकता है!" मोहनलाल दारूवाला कुर्सी पर बैठ गया--- "मैं कपड़े बदल लूं, तब तक तुम चाय बना लो। उसके बाद मैं सोना चाहता हूँ। रात भर का जगा हूँ। नींद आ रही है।"

पांच मिनट बाद मोहनलाल दारूवाला ने कपड़े बदले, बैड पर बैठा चाय के घूंट ले रहा था। चेहरे पर सोच और गंभीरता चमक रही थी। लक्ष्मी ने पास बैठते हुए कहा---

"मुझे बताओ, क्या हुआ था।"

मोहनलाल दारूवाला ने सारी बात बताई।

लक्ष्मी ने गंभीरता से सुनी सब बात।

"फिर तो तुम बुरे बच के आये।"

"हाँ।"

"मैं तो तुम्हें मना कर रही थी कि पानी पिलाने मत जाओ। परन्तु तुम मेरी बात माने नहीं।"

"दिमाग खराब था जो मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी। अब से माना करूंगा।" मोहनलाल ने गहरी सांस ली।

"वो लोग खतरनाक थे?"

"हाँ। बहुत खतरनाक थे। उन्होंने ही बताया कि वो ईराकी हैं।"

"डॉयरी मांग रहे थे वो?"

"हाँ। डॉयरी पाने के लिए मरे जा रहे थे। एक बार उन्होंने यह भी कहा कि डॉलर उनकी हैं ही नहीं। उन्हें चाहिए नहीं।"

"परन्तु डॉयरी में ऐसा क्या है कि उसे पाने के लिए वो लोग जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं?"

मोहनलाल दारूवाला खामोश रहा।

"तुमने डॉयरी देखी थी न?"

"ये भी बताया था कि उसकी भाषा मेरी समझ में नहीं आई कि वहां क्या लिखा है, लक्ष्मी...।"

"हाँ।"

"मैं नींद ले लूं, फिर दिल्ली चलकर देखेंगे कि कौन से वाले सूटकेस में डॉयरी पड़ी है वो डॉयरी ले आयेंगे।"

"क्यों?"

"वो लोग चुप नहीं बैठने वाले। इस बार उनके हाथ लग गया तो वो छोड़ेंगे भी नहीं। दोबारा ऐसा मौका आया तो डॉयरी उन्हें देकर अपनी जान छुड़ा लूंगा। हमें डॉलर से मतलब है। डॉयरी की हमें परवाह नहीं है।"

"तुम्हें लगता है कि वो तुम्हें ढूंढ लेंगे?"

"हाँ। वो चुप नहीं बैठने वाले। ऐसा वक्त आया तो डॉयरी उन्हें देकर जान छुड़ा लूंगा। डॉयरी हर वक्त मेरे पास होनी चाहिये।"

"अगर उन्होंने डॉलर मांगे तो?"

"वो नहीं दूंगा।"

"हमें यहां से कहीं भाग जाना चाहिए।"

"इस तरह हम अपना घर छोड़ कर नहीं जायेंगे।" मोहनलाल दारूवाला ने चाय का प्याला खाली करते हुए कहा--- "सब ठीक हो जायेगा। वो डॉयरी उन्हें मिल जायेगी। मेरे ख्याल से उन्हें डॉयरी ही चाहिए। नींद लेने के बाद दिल्ली चलेंगे डॉयरी लेने।"

■■■

जुगल किशोर, उस शाम उन लाशों और कार के पास से जंगल से उन लोगों के पास से भागा जरूर था, परन्तु वहीं जंगल में ही छुपकर उन पर नजर रखने लगा था। वो सब देख रहा था कि शेख, जाकिर, हुसैन, मौला, वजीर खान के बीच वहां फंसे सोहनलाल और मेनन मौजूद है। फिर उसने देखा कि उन्हें उसके गायब होने का पता चल गया। वे लोग उसे ढूंढने लगे और साथ ही सोहनलाल और मेनन का भी ख्याल रख रहे थे कि कहीं वो भी फरार ना हो जायें।

रिचर्ड जैक्सन को उन्होंने गोली मार दी थी।

जुगल किशोर को रिचर्ड जैक्सन की जरा भी परवाह नहीं थी। उसका अपहरण तो उसने दस करोड़ डॉलरों की फिरौती के लिए किया था। परन्तु सारी मेहनत पानी में चली गई थी। दस करोड़ डॉलर मिलने के बाद भी, हाथ में कुछ नहीं आया था। जब वह सब कुछ लेकर इंदौर फरार होने की सोच रहा था तो यह पांचों ईराकी आ धमके और उसे पकड़ लिया। दस करोड़ डॉलर से भरे सूटकेस को कार की डिग्गी में ही रहने दिया और उसे साथ ले गये।

बाद में जब उन्हें पता चला कि उसने उस काली जिल्द वाली डॉयरी को डॉलरों वाले सूटकेस में ही रख दिया था, तो उसे लेकर वापस वहां खड़ी कार और लाशों के पास जंगल में आये, परन्तु तब डिग्गी से सूटकेस गायब हो चुका था।

जुगल किशोर परेशान था कि आखिर सूटकेस कौन ले गया? वह जानता था कि पांचों ईराकी डॉयरी पाने के लिए सूटकेस तलाश करेंगे। इसलिए उनके पीछे लग कर ही वो पुनः डॉलरों तक पहुंच सकता है। इसलिए जुगल किशोर इन लोगों के पीछे रहा। जब वो सोहनलाल और मेनन को लेकर जंगल में जाने वाले थे तो जुगल किशोर को चिंता हुई कि वह इन लोगों के पीछे कैसे जाएगा। उसके पास कार तो है नहीं।

कोई और रास्ता नहीं पाकर वो पहले ही उस जगह पर जा पहुंचा, जहां उनकी दो कारें खड़ी थीं। वो एक कार की डिग्गी में जा घुसा और इस प्रकार वो हजरत निजामुद्दीन के पुराने इलाके में जा पहुंचा।

जुगल किशोर ने उनका ठिकाना देखा, फिर लोधी कॉलोनी का चक्कर लगाकर एक कार चुरा लाया कि दोबारा पीछा करने की जरूरत पड़े तो उसे परेशानी ना हो।

जुगल किशोर उन ईराकियों के ठिकाने के आसपास ही मंडराता रहा, जो कि एक पुरानी इमारत की दूसरी मंजिल पर था। रात ग्यारह बजे उसने उन सबको, सोहनलाल और मेनन के साथ कारों पर जाते देखा तो उसने सावधानी से उनका पीछा करना शुरू कर दिया। कुछ ही देर में समझ गया कि वे लोग फरीदाबाद की तरफ जा रहे हैं, शायद उस जंगल में।

उनके पीछे-पीछे जुगल किशोर फरीदाबाद के उसी जंगल में पहुंचा। उसे अंदाज था कि वो जंगल में कहां पहुंचकर रुकेंगे इसलिए उसने कार को पहले ही एक तरफ छिपाकर खड़ा किया और अंधेरे में तेजी से जंगल में कारों के पीछे हो गया, जो कि तब धीमी गति से पेड़ों के बीच से रास्ता बनाती आगे बढ़ रही थी।

उसके बाद जुगल किशोर ने सब देखा कि उन्होंने वहां पहले से ही खड़ी कार को पाया। फिर सब अंधेरे में आगे बढ़ गये। वो दूर था, उनकी बातें कम ही सुन पा रहा था। उसके बाद जो हुआ, जुगल किशोर ने सब देखा।

वहां पर मोहनलाल दारूवाला को भी पकड़ते देखा।

फिर उसे लेकर वापस हजरत निजामुद्दीन वाले ठिकाने पर पहुंचते देखा।

जुगल किशोर बराबर इन लोगों का पीछा करता रहा। जंगल में तब उसने उसका नाम सुना था--- मोहनलाल दारूवाला।

जुगल किशोर नहीं समझ पाया कि मोहनलाल दारू वाला कौन है और रात के इस वक्त वहां क्या कर रहा था--- और वो पांचों ईराकी उसे क्यों पकड़ कर ले गए हैं। सोहनलाल और मेनन को उन्होंने साथ क्यों रखा हुआ है? उन्हें मारा या छोड़ा क्यों नहीं? जो भी हो जुगल किशोर उन पर नजर रखता रहा। रात तीन बजे वो हजरत निजामुद्दीन वाले ठिकाने पर पहुंचे तो जुगल किशोर ने ऐसी मुनासिब जगह तलाश की कि जहां से वो इमारत पर नजर रख सके और कार के भीतर ही सीट पर अधलेटा हो गया। वो जानता था कि अब वो कल दिन में ही बाहर निकलेंगे, परन्तु जुगल किशोर लापरवाही नहीं करना चाहता था और उस मकान पर नजर रखता रहा। इस दौरान वो इस बात को लेकर परेशान था कि आखिर डॉलरों वाला सूटकेस कार से कौन ले गया?

दो घंटे बाद ही जब दिन निकलने को था तो जुगल किशोर की आंखें नींद से भारी हो रही थीं। वो जानता था कि चुस्त रहने के लिए दो घंटे की नींद लेना जरूरी है। और उसने नींद लेने की सोची भी। वो जानता था कि वो लोग भी नींद ले रहे होंगे और सुबह दस-ग्यारह बजे से पहले बाहर निकलने वाले नहीं, ये सोचकर उसने गली में निगाह मारी तो चौंका।

उसने पाइप के सहारे किसी को नीचे उतरते देखा।

जुगल किशोर सतर्क हो गया। कार में बैठे रहकर नजरें गली में पाइप से उतरते व्यक्ति पर ही रहीं।

कुछ ही देर में वो व्यक्ति गली से बाहर निकला।

जुगल किशोर ने उसे स्पष्ट पहचाना कि ये ही मोहनलाल दारूवाला है, जिसे वो ईराकी पकड़ लाये थे। तो क्या अब ये उन इराकियों के ठिकाने से भाग रहा है? क्या इसे कैद कर रखा था इराकियों ने?

परन्तु ये मोहनलाल दारू वाला है कौन?

इसका इस सारे मामले से संबंध क्या है?

रात के वक्त ये फरीदाबाद के जंगल में कार और लाशों के बीच क्या कर रहा था?

इराकियों ने इसे कैद किया तो कोई खास वजह होगी। ईराकी डॉयरी तलाश कर कर रहे हैं।

जुगल किशोर ने फौरन फैसला कर लिया कि वो अब इसी मोहनलाल दारूवाला के पीछे जायेगा। इसके बारे में जानने की चेष्टा करेगा कि कहीं इसके पास तो दस करोड़ डॉलरों से भरा सूटकेस नहीं?

जुगल किशोर ने स्पष्ट देखा कि मोहनलाल दारूवाला उस बड़ी गली में आगे जाकर एक आदमी से कार छीन कर भाग निकला। देर न करते हुए जुगल किशोर ने कार स्टार्ट की और मोहनलाल दारूवाला के पीछे लग गया। मोहनलाल दारूवाला पहले फरीदाबाद के उसके जंगल में जा पहुंचा और वहां खड़ी अपनी कार लेकर फरीदाबाद की एक कॉलोनी में पहुंचा। एक मकान के आगे कार खड़ी की फिर गली में टहलते एक आदमी से मिनट भर बातें कीं और एक मकान में चला गया।

जुगल किशोर समझ गया कि यही इस व्यक्ति का घर है। रात भर जगा है और अभी बाहर नहीं निकलने वाला। जुगल किशोर को भी नींद आ रही थी। उसने मोहनलाल दारूवाला की कार के पीछे ही अपनी कार खड़ी की और सीट को लंबा करके लेट गया। कुछ देर की नींद लेकर वह खुद को सोचने के काबिल बनाना चाहता था।

■■■

जुगल किशोर की आंख खुली तो दिन के बारह बज रहे थे। ढाई घंटे की नींद लेकर वह खुद को कुछ ठीक महसूस कर रहा था। सीट सीधी करके बैठा और आगे खड़ी मोहनलाल दारूवाला की कार देखी। खड़ी थी वो। जुगल किशोर को चाय की इच्छा हुई, परन्तु वो जानता था कि चाय नहीं मिलने वाली।

जुगल किशोर का मक्कार दिमाग अब आगे की सोचने लगा कि क्या करे?

वह नहीं जानता था कि मोहनलाल दारूवाला का इस मामले में क्या दखल है। कहीं वह इस पर नजर रखकर अपना वक्त तो खराब नहीं कर रहा? क्या करे? वो यही सोचता रहा।

करीब आधा घंटा इन्हीं उलझनों में फंसे रहने के बाद उसने उन इराकियों से बात करने की सोची। उनसे बात करके ही जाना जा सकता था कि मोहनलाल दारूवाला उनके लिए कितना जरूरी है और ये है कौन?

जुगल किशोर ने मोबाइल निकाला और उनका नंबर मिलाने लगा।

दूसरी तरफ बेल जाने लगी।

"हैलो।" जाकिर की आवाज कानों में पड़ी।

जुगल किशोर के चेहरे पर कड़वी मुस्कान फैल गई।

"जाकिर साहब बोल रहे हैं। खादिम को तो आपने पहचान लिया होगा, मैं आपका मिस्टर जुगल किशोर... कैसे मिजाज हैं जनाब के?"

"तुम?" उधर से जाकिर का चौंका स्वर कानों में पड़ा--- "मिस्टर जुगल किशोर... धोखेबाज!"

जुगल किशोर हंस पड़ा।

"तुम कल हमारे हाथों से भाग गये, परन्तु हम तुम्हे छोड़ेंगे नहीं। तुमने हमसे दगाबाजी की...।"

"जाकिर साहब, ऊंचा बोलकर क्यों अपने को कष्ट दे रहे हो। जरा प्यार से बोलो।"

"हमने तुम्हें दस करोड़ दिए--- परन्तु तुमने सौदा पूरा नहीं किया और...।"

"रकम भी कहां ली! बीस करोड़ तो अभी बाकी है।" जुगल किशोर हंसकर कह उठा।

"तुमने रिचर्ड जैक्सन का अपहरण हमारे लिए किया और उसे हमारे हवाले ना करके, उन अमेरिकियों से फिरौती लेने में लग गये। तुमने हमारा विश्वास तोड़ा है। हम ऐसे इंसान को जिंदा नहीं छोड़ते।"

"तुम जैसे बहुत लोग हैं, जो मुझे मौत देने के लिए मुझे ढूंढते रहते हैं--- परन्तु सफल कभी नहीं हो सके।"

"हम तुम्हें ढूंढकर...।"

"मैं अभी भी पुराने सौदे पर कायम हूँ...।"

"क्या मतलब?"

"मुझे सद्दाम हुसैन के खजाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। वो डॉयरी सद्दाम हुसैन ने अपने हाथों से लिखी है। उसमें नक्शा भी है, जिसमें सद्दाम हुसैन ने बता रखा है कि उसने अपनी सारी दौलत इराक में कहां छुपा रखी है। परन्तु मुझे डॉलरों में दिलचस्पी है। दस करोड़ डॉलर--- जो मैंने अमेरिकियों से रिचर्ड जैक्सन की फिरौती में वसूले थे। हमारे रास्ते अलग-अलग हैं--- फिर झगड़ा कैसा?"

"झगड़ा ये है कि तुमने कीमत लेकर भी रिचर्ड जैक्सन को हमारे हवाले नहीं...।"

"कीमत अभी बाकी है।"

"वो तो हमें तैयार रखी हुई थी। अपहरण करने के बाद रिचर्ड जैक्सन को हमारे हवाले करते और कीमत ले लेते।"

"फिरौती लेने के बाद रिचर्ड जैक्सन को मैंने तुम लोगों के हवाले ही...।"

"बकवास मत करो। तुम डॉयरी पहले से ही पा चुके थे।" जाकिर का गुस्से से भरा स्वर कानों में पड़ा।

"तुमने मुझे ये नहीं बताया था कि रिचर्ड जैक्सन के पास सद्दाम हुसैन की कोई डॉयरी है, वो पाने के लिए मेरे से उसका अपहरण करवा रहे हो। बता देते तो तुम लोगों को अब तक डॉयरी मिल चुकी होती।"

"जो भी हो, तुम कमीने हो, तुमने...।"

"मैं क्या हूँ, ये तुम लोग नहीं समझ सकोगे। काम की बात करते हैं, जिसके लिए मैंने तुम्हें फोन किया...।"

"हम तुमसे कोई बात नहीं करना चाहते।"

"करोगे। जरूर करोगे।" जुगल किशोर मुस्कुराया--- "लेकिन पहले मोहनलाल दारूवाला के बारे में बताओ।"

"मोहनलाल दारूवाला?" उधर से जाकिर बुरी तरह चौंका--- "तुम उसे जानते हो?"

जुगल किशोर समझ गया कि उसका निशाना सही लगा है।

"वो सुबह तुम्हारी कैद से भाग निकला।"

"तुम्हें कैसे पता?"

"मुझे सब खबर रहती है। जुगल किशोर हूँ मैं--- आंख बंद रखकर भी सब तरफ देख लेता हूँ।"

"वो कहां है, तुम जानते हो?" जाकिर का तेज स्वर कानों में पड़ा।

"पहले बताओ कि मोहनलाल और मेनन को क्यों अपने साथ रखा हुआ है?"

"उन्हें मारने से बेहतर समझा कि उन्हें तब तक साथ रखें जब तक वो डॉयरी हमें न मिल जाये।" जाकिर का व्याकुल स्वर कानों में पड़ रहा था--- "तुम मोहनलाल दारूवाला की बात कर रहे थे--- वो कहां है?"

"इस बात का जवाब बाद में, पहले मेरी बात का जवाब दो कि मोहनलाल दारूवाला इस मामले में कहां फिट होता है?"

जवाब में जाकिर की आवाज नहीं आई।

"फोन बंद कर दूं?" जुगल किशोर बोला।

"नहीं। बंद मत करना।"

"जवाब दो।"

"तुम जानते हो कि वो कहां है?" जाकिर का सतर्क स्वर कानों में पड़ा।

"समझो, मेरे पास है।"

"तो उससे क्यों नहीं पूछ लेते?"

"मैंने कहा है, समझो मेरे पास है। इस वक्त भी वो मेरे पास है। मेरी उससे कोई बात नहीं हुई।"

"समझा...।"

"अगर तुम नहीं बताओगे तो मुझे ये सवाल उससे पूछना पड़ेगा।" जुगल किशोर ने कहा।

"डॉयरी वाला सूटकेस मोहनलाल दारूवाला के पास है।" उधर से जाकिर ने कहा।

"तुम्हें किसने कहा?" अब जुगल किशोर चौंका।

"उसी ने...उसने कबूला कि वो सूटकेस और डॉयरी उसके पास है। वो डॉयरी हमें देने पर राजी हो गया था--- परन्तु मौका पाकर वह भाग निकला। हम अभी भी अपने सौदे पर कायम हैं जुगल किशोर।"

"जो हममें पहले हुआ था---।"

"हाँ। दस करोड़ तुम एडवांस ले चुके हो, बाकी का बीस करोड़ तैयार रखा है। तुम सूटकेस के डॉलर भी ले लो। हमें उसमें कोई दिलचस्पी नहीं। हमें तो जनाब सद्दाम हुसैन की काली जिल्द वाली डॉयरी चाहिए। मोहनलाल दारूवाला कहां है, ये बात अब तो तुम जानते हो। तुम जहां कहो, हम बीस करोड़ रुपया लेकर आ जाते हैं।"

जुगल किशोर के चेहरे पर सोचें दौड़ रही थीं।

"मिस्टर जुगल किशोर...।" जाकिर का बेचैन स्वर कानों में पड़ा।

"सुन रहा हूं।"

"तुम जहां कहो, हम बीस करोड़ रुपया...।"

"मैं सोच रहा हूँ कि इतना पैसा लेकर क्या करूंगा! दस करोड़ डॉलर मेरे लिए काफी हैं।" जुगल किशोर ने शांत स्वर में कहा।

"हम रकम बढ़ा भी सकते हैं। बोलो, क्या चाहते हो?"

"तुम बोलो।"

"पच्चीस करोड़ देंगे।"

"सद्दाम हुसैन के खजाने जैसी दौलत पाने के लिए यह रकम कम है।"

"तीस करोड़...। इस वक्त इतनी दौलत ही है। दस करोड़ तुम्हें पहले ही दे चुके हैं। ये बात ध्यान में रखो की दूसरों के लिए यह डॉयरी बेकार है। हर कोई उस डॉयरी के दम पर सद्दाम हुसैन के खजाने तक नहीं पहुंच सकता।"

"कम से कम ऐसा मेरा तो कोई इरादा नहीं है। तीस करोड़ रुपये तैयार रखे हैं?"

"बीस तैयार हैं, तीस भी तैयार हो जायेंगे मिस्टर जुगल किशोर।"

"ठीक है। तैयार करके मुझे फोन कर दो। मेरा फोन नंबर वही है, पहले वाला।" जुगल किशोर सोच भरे स्वर में बोला।

"ये क्या कह रहे हो? हम तुम्हारे पास आ जाते हैं। बीस करोड़ ले आते हैं। बाकी दस करोड़ पीछे-पीछे आ जायेगा। हम तुम्हारे साथ रहना चाहते हैं, क्योंकि तुम हमें डॉयरी दिलवा सकते हो।"

"डॉयरी की फिक्र मत करो। समझो वो मेरे पास ही है। तुम तीस करोड़ रुपये तैयार करके मुझे फोन करना।" जुगल किशोर ने कहा और फोन बंद करके मोहनलाल दारूवाला के घर पर नजर मारी। दरवाजा बंद था। जुगल किशोर कार में निश्चिंत होकर बैठा रहा।

वो सोच रहा था कि सब ठीक है। नसीब के पत्ते जोकि पहले उलट-पुलट हो गए थे, अब फिर उन पत्तों ने करवट ले ली है और सीधे पड़ गए हैं। बाजी उसके हाथ में आ चुकी है--- ऐसा वह सोच रहा था।

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