जगन्नाथ सेठी के पीछे रंजन लगा था। वह टैक्सी में बैठा था।
जगन्नाथ सेठी की कार भीतर प्रवेश कर गयी तो टैक्सी को उसने बाहर ही रुकवा लिया। यह टैक्सी पिछले पाँच दिन से उसके पास थी और ड्राइवर भी। दोनों में रोज की रकम तय हो गयी थी। टैक्सी ड्राइवर भी जानता था कि उसे किसका पीछा करते रहना है। यह आसानी वाली बात थी रंजन के लिए।
यूँ रंजन अब जगन्नाथ सेठी पर नजर रखने से पूरी तरह बोर हो चुका था। यह बात उसने कल शाम महेश का फोन आने पर भी कही थी। परन्तु महेश ने उसे बताया कि वालिया मुम्बई से बाहर गया है और रूपा के कहे मुताबिक हो सकता है कि वह दिल्ली पहुँचकर जगन्नाथ सेठी की हत्या करने की कोशिश करे।
लेकिन बोर हो चुके रंजन को ऐसा नहीं लगता था कि ऐसा होगा। अभी रंजन टैक्सी के भीतर ही बैठा इधर-उधर नजरें घुमा रहा था कि गोल्फ कोर्स के बाहरी गेट पर निगाह पड़ते ही वह चौंका।
उसकी आँखें अचकचा कर फैल गयीं। वह वालिया ही तो था जो वहाँ से बाहर निकल गया।
ओह! रूपा का ख्याल कितना ठीक निकला कि वालिया दिल्ली में जगन्नाथ सेठी की हत्या करने के लिए आ सकता है। उसकी प्लानिंग कितनी सटीक रही है अब तक।
रंजन ने फौरन पास मौजूद बैग से कैमरा निकाला और गोल्फ कोर्स के बाहरी गेट पर खड़े वालिया की तस्वीरें ले ली। दो-तीन तस्वीरें ली टैक्सी ड्राइवर बोला।
"आप उसकी तस्वीरें क्यों ले रहे हैं?"
"अब हम इस पर नजर रखेंगे।" रंजन बोला।
"वह क्यों?"
"तुम्हें रोज के रोज पेट्रोल के अलावा दो हजार मिल रहे है। तुम चुपचाप उसे लेते रहो। सवाल मत करो।"
"ठीक है, मुझे क्या।"
तभी रंजन ने वालिया को इसी तरफ आते देखा।
"उसे शायद टैक्सी की जरूरत है। तुम बाहर निकलो और उसके पूछने पर मना कर दो कि टैक्सी खाली नहीं है। वह मुझे न देखे।
"समझ गया।" टैक्सी ड्राइवर बाहर निकलता बोला, "वह आपको पहचानता है?"
"नहीं!"
बाहर निकलकर टैक्सी ड्राइवर ने दरवाजा बंद कर दिया। वालिया टैक्सी के पास आया और टैक्सी ड्राइवर से बात करके आगे बढ़ गया।
रंजन ने फोन निकाला और महेश का नम्बर मिला कर बात की-
"वालिया दिल्ली में है और जगन्नाथ सेठी के पीछे लगा हुआ है।" कहकर गोल्फ कोर्स वाली बात कही, "वह शायद पहले से ही जगन्नाथ सेठी के इंतजार में गोल्फ कोर्स में मौजूद था, परन्तु अब वापस जा रहा है।"
"वह कहीं नहीं जाएगा। वह जगन्नाथ सेठी को मारेगा।" महेश की आवाज कानों में पड़ी।
"अभी तो वो वापस जा रहा है जबकि जगन्नाथ सेठी गोल्फ कोर्स में गया है।"
"इस वक़्त वालिया का कुछ करने का प्रोग्राम नहीं होगा। तुम वालिया पर ही नजर रखो।"
"यही कर रहा हूँ अब।"
"मैं दिल्ली आने के लिए अभी की फ्लाइट देखता हूँ। शायद सीट मिल जाये।"
"रूपा को खबर कर देना वालिया के बारे में।"
"हाँ! मैं दिल्ली पहुँचकर तुम्हें फोन करता हूँ।"
तभी टैक्सी ड्राइवर दरवाजा खोलकर भीतर आ बैठा।
रंजन फोन बंद करके, गर्दन घुमाकर, पीछे वालिया को देखने लगा। जो फुटपाथ पर पेड़ों की छाया में पैदल ही आगे बढ़ता जा रहा था।
टैक्सी ड्राइवर बोला-
"अब क्या करना है साब जी?"
"वो सामने पैदल जा रहा है। उसका पीछा करना है। इस तरह कि उसे पता न चले। उसे टैक्सी की तलाश है। उसे कभी भी टैक्सी मिल सकती है। वो हमारी नजरों से दूर न हो।"
■■■
वालिया ऑटो से उतरा और पैसे देकर, उस मार्किट में आगे बढ़ गया। शाम के छः बज रहे थे। बाजार में चहल-पहल होनी आरंभ हो गयी थी। परन्तु वालिया का मस्तिष्क जगन्नाथ सेठी के गिर्द ही घूम रहा था। वो जल्द से जल्द जगन्नाथ सेठी की हत्या करके वापस मुम्बई पहुँच जाना चाहता था।
वालिया मार्किट में एक जनरल स्टोर पर पहुँचा। वो हत्या के वक़्त काम में आने वाली हर चीज का इंतजाम कर लेना चाहता था।
वहाँ से उसने स्टाकिंस, जिसे लड़कियाँ स्कर्ट के नीचे टाँगों में पहनती हैं, खरीदी। स्किन कलर की स्टाकिंस। फिर दस्ताने खरीदे और बाहर आ गया।
स्टाकिंस को अपने चेहरे पर चढ़ा कर वह अपना चेहरा छिपा सकता था। चेहरे पर चढ़ा लेने के पश्चात भी वो उसमें से सब कुछ देख सकता था, क्योंकि वह बहुत पतली होती है। उसके आर-पार देखा जा सकता था। चाकू चलाने से पहले हाथों पर दस्ताने पहनना भी जरूरी था कि अगर चाकू कहीं छूट भी जाये तो, उस पर उसकी उँगलियों के निशान पुलिस को न मिल सके। एक कार की जरूरत थी ताकि हत्या के बाद फौरन फरार हो सके। यूँ तो वह कार को किराए पर भी, बिना ड्राइवर के हासिल कर सकता था, परन्तु उस कार द्वारा वो पहचाना जा सकता था। इसलिए उसे चोरी की कार चाहिए थी।
वालिया के लिए यह काम कठिन था, क्योंकि उसने कार चोरी करने जैसा काम पहले न किया था। कोई अनुभव न था उसे कार चोरी करने का। परन्तु जगन्नाथ सेठी की हत्या करने के लिए, चोरी की कार उसे चाहिए थी।
वालिया वहाँ से थोड़ा आगे गया और मालूम किया कि यहाँ पास में कार पार्किंग कहाँ है। वो पार्किंग में जा पहुँचा। वहाँ 25-30 कारें खड़ी थी। अटेंडेंट नहीं दिखा। एक तरफ 5-6 लड़के बैठे ताश खेल रहे थे। वह यकीनन जुआ खेल रहे होंगे। पार्किंग अटेंडेंट भी उन्हीं में से कोई होगा।
वालिया की निगाह पार्किंग में घुमनी लगी। कभी कोई कार आती तो अटेंडेंट दौड़ा-दौड़ा आता और कार वाले को पर्ची देकर वापस ताश खेलने में लग जाता। आखिरकार वालिया को एक रास्ता सूझा कार हासिल करने का।
शाम के सात बज रहे थे। वालिया वहाँ जा पहुँचा जहाँ से कारें पार्किंग में प्रवेश करती थीं। उसने ताश खेलते उन लड़कों को देखा, जो कि अपने खेल में व्यस्त थे। तभी एक एस्टीम कार वहाँ पहुँची।
वालिया ने हाथ देकर कार को रोका और फौरन उनके पास पहुँचकर मुस्कुरा कर बोला-
"मैं कार पार्क कर दूँगा। चाबी कार में ही छोड़ दें।"
भीतर उन्नीस-बीस का एक युवक और सोलह-सत्रह साल की लड़की थी।
"तुम पार्किंग वाले तो नहीं लगते।" लड़का कह उठा।
"मैं पार्किंग का ठेकेदार हूँ। कभी-कभी यहाँ आता हूँ।" वालिया ने शांत स्वर में कहा।
"ओह! फिर ठीक है।" युवक ने कहा और दरवाजा खोलकर कार से बाहर निकला।
दूसरे कार से लड़की भी बाहर निकल गयी।
"ध्यान से पार्क करना, नई गाड़ी है।" लड़के ने कहा।
"फिक्र मत करो। एक खरोंच भी नहीं आएगी।"
लड़का-लड़की एक-दूसरे का हाथ पकड़े सामने नजर आ रही मार्किट की तरफ बढ़ गए
अंधेरा घिरना आरंभ हो गया था। वालिया उन्हें दूर जाता दिखता रहा फिर कार की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा। कार स्टार्ट करके बैक की और तेजी से सड़क की तरफ ले जाता चला गया। उसने आसानी से कार हासिल कर ली थी। सब कुछ ठीक था। जगन्नाथ सेठी का कत्ल करने के लिए उसकी तैयारी पूरी हो चुकी थी।
उसने घड़ी में समय देखा। साढ़े सात बज चुके थे।
जगन्नाथ सेठी ने आठ बजे बंगले से निकल कर धौला कुआं स्थित लायंस क्लब पहुँचना था। यानी कि करीब 8.45 पर वह लायंस क्लब पहुँचेगा। वालिया के पास बहुत वक़्त था। वह पहले ही लायंस क्लब में पहुँच कर जगन्नाथ सेठी के आने का इंतजार करेगा।
■■■
रात के दस बज रहे थे।
वालिया ने क्लब के भीतर जाने के लिए 1000 रुपये की पर्ची कटवाई थी, क्योंकि वह क्लब के नियमित मेम्बर नहीं था। जगन्नाथ सेठी नौ बजे क्लब में पहुँचा था।
इस वक़्त जगन्नाथ सेठी एक टेबल पर बैठा ताश खेल रहा था और पास में व्हिस्की का दूसरा गिलास रखा था जो कि उसने अभी मँगवाया था। पाँच लोग जो उसकी टेबल पर बैठे थे, वो भी खेलने के साथ व्हिस्की का मजा ले रहे थे। वालिया व्हिस्की का गिलास थामे घूँट लेता, इधर-उधर टहल रहा था और जगन्नाथ सेठी को देखता सोच रहा था कि वह उसका ससुर है। कितनी अजीब बात है कि वे एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं और वह उसे मारने का मौका तलाश कर रहा था। जगन्नाथ सेठी की खुशमिजाज आदत को, वालिया पहचान गया था। खेल के दौरान वह कई बार हँसा था।
वालिया ने एक ही पैग लिया था। वह यहाँ मौज-मस्ती करने नहीं, जगन्नाथ सेठी की हत्या करने आया था। ऐसे मौके पर पीना-पिलाना ठीक नहीं था।
क्लब में काफी भीड़ थी। वालिया जानता था कि उसे तब मौका मिलेगा जगन्नाथ सेठी को मारने का, जब वह क्लब से बाहर निकल कर अपनी कार की तरफ बढ़ रहा होगा। बाहर रोशनी भी कम थी और तब इक्का-दुक्का लोग ही बाहर होंगे।
10.45 बजे वालिया क्लब से बाहर निकला और पार्किंग वाले हिस्से में जा पहुँचा। पार्किंग कारों से भरी हुई थी। परन्तु उसने अपनी कार इस तरह पार्क की थी कि जरूरत पड़ने पर फौरन कार दौड़ा सके।
वालिया ने एस्टीम कार का दरवाजा चाबी लगाकर खोला और भीतर रखे दस्ताने, स्टाकिंस और छुरा निकाला। इधर-उधर नजर मारी। पार्किंग अटेंडेंट बहुत दूर था वहाँ से।
वालिया ने कार का दरवाजा बंद किया और पार्किंग के उस अंधेरे से भरे कोने में जा खड़ा हुआ जहाँ से जो भी क्लब के भीतर से बाहर निकलता वो पार्किंग में प्रवेश करने के लिए उधर से ही निकलता।
यह जगह सही थी जगन्नाथ सेठी की हत्या करने के लिए। यहाँ पर फौरन किसी की नजर भी नहीं पड़ सकती थी कि क्या हो रहा है।
वालिया ने स्टाकिंस निकाली और फौरन उसे अपने चेहरे पर चढ़ा लिया। वह फ्री साइज की इलास्टिक जैसी थी। उसे ज्यादा से ज्यादा खोला जा सकता था। उसके बाद वालिया ने दस्ताने निकाले और पहन लिए। फिर कमीज के भीतर पैंट में छिपा रखा छुरा निकाला और हाथ में पकड़कर उस पर से अपनी उँगलियों के निशान मिटाने लगा।
यह सारा काम उसे साधारण सा लग रहा था। तभी वह फौरन झाड़ियों में अंधेरे में दुबक गया।
कोई आ रहा था। कदमों की आहट सुनाई दे रही थी।
आने वाला उसके पाँच-छः कदमों के फासले से निकला था और पार्किंग की तरफ चला गया था।
वह जगन्नाथ सेठी नहीं था। वालिया वहीं दुबका रहा। लोगों के आने और पार्किंग की तरफ जाने का क्रम रुक-रुक कर चलता रहा।
ग्यारह बज चुके थे। अब लोगों ने बाहर निकलता था वालिया ने सोचा।
वालिया की पैनी निगाह आने वालों पर थी। 11.20 बजे उसे जगन्नाथ सेठी दिखा मध्यम सी रोशनी में। उसके साथ कोई और भी था। वो दोनों इसी तरफ बातें करते आ रहे थे। वालिया के होंठ भिंच गए कि वह अकेला क्यों नहीं है।
जगन्नाथ सेठी और उसके साथ का व्यक्ति पास आते जा रहे थे।
यह ठीक मौका नहीं है जगन्नाथ सेठी की हत्या करने का। उसके साथ कोई और भी है। कुछ किया तो शोर पड़ जायेगा। वह पकड़ा जाएगा, जबकि उसका बच निकलना बहुत जरूरी था।
वालिया वहीं दुबका रहा। जगन्नाथ सेठी और उसके साथ का व्यक्ति उसके सामने से निकले।
वालिया के दाँत भिंच गए कि उसके पास कितना खूबसूरत मौका है हत्या करने का परन्तु जगन्नाथ सेठी अकेला नहीं है। आज की उसकी सारी मेहनत बेकार गयी।
तभी उसने जगन्नाथ सेठी को रुकते और कहते सुना-
"मेरा ड्राइवर यहीं कार ले आएगा। मैंने उसे फोन कर दिया है।"
"मैं चलता हूँ।" दूसरा व्यक्ति बोला, "कल आओगे सेठी?"
"हाँ, कल जरूर आऊँगा। पाहवा से कुछ बात करनी है। वह आज नहीं आया तो कल आएगा।"
कहकर वह आगे बढ़ गया। वालिया का दिल तेजी से धड़क गया। उसे मौका मिल गया था।
वक़्त स्वयं ही उसी सहायता कर रहा था। जगन्नाथ सेठी करीब दस कदमों की दूरी पर खड़ा था। आस-पास की जगह पर बहुत हद तक अंधेरा था। कोई देख भी नहीं सकेगा कि यहाँ हत्या हो रही है।
इससे बढ़िया वक़्त दोबारा हाथ नहीं आएगा।
वालिया ने अपनी हिम्मत इकट्ठी की। छुरे को सख्ती से हाथ में पकड़ लिया। मन में था कि जगन्नाथ सेठी के मरते ही वह अरबों की दौलत का मालिक हो जाएगा। उसके सारे नुकसान पूरे हो जायेंगे।
अब वालिया ने उठकर छुरे के साथ जगन्नाथ सेठी पर झपटना था और उसके शरीर में दो-तीन नाजुक हिस्सों में छुरे से वार करके, उसे अपनी कार की तरफ भाग जाना था।
वालिया को इस वक़्त यह सब करना मामूली सा काम लगा। अपनी सोचों को अंजाम देने के लिए वालिया ने उठना चाहा, परन्तु तभी उसे महसूस हुआ कि उसका गला सूख रहा है। टाँगों में कम्पन भर आया है। यह क्या हो गया उसे। डर क्यों रहा है वह? किस बात का डर है उसे? कोई भी तो देख नहीं रहा। उसने खुद को समझाया कि उसके लिए यह सब करना जरूरी है।
वालिया ने सख्ती से छुरा पकड़ा और खुद को पुनः तैयार किया। चेहरे पर पसीने की लकीरें नीचे की तरफ आने लगी थी। छुरे वाली हाथ भी उसे कंपकंपाता सा लगा।
तभी कार की तीव्र हेडलाइट उसपर पड़ी। वालिया रोशनी में भर गया।
अगले ही पल वालिया ने खुद को पूरी तरह गिराकर लिटा लिया। तभी कार जगन्नाथ सेठी के पास आकर रुकी। सेठी ने दरवाजा खोला और भीतर बैठकर दरवाजा बंद किया। कार आगे बढ़ गयी।
वालिया हक्का-बक्का रह गया। शिकार हाथ में आकर निकल गया था।
उसने चेहरे पर डाल रखी स्टाकिंस उतारी, दस्ताने उतारे, छुरा कपड़ों में छिपाया और अपनी कार की तरफ बढ़ गया। मन में उथल-पुथल मची हुई थी कि शानदार मौका हाथ से निकल गया।
■■■
अगले दिन वालिया सुबह आठ बजे ही उठ बैठा। रात तीन बजे गेस्ट हाउस में आकर सोया था पूरी रात बेचैनी भरे ढंग में बीती थी। नींद ठीक से नहीं आयी। रात मौके पर चूक गया। वार करना कितना आसान था। रात को जगन्नाथ सेठी को मार देता परन्तु ठीक मौके पर वह घबरा गया।
वालिया को अपने पर गुस्सा आ रहा था कि वह मौके पर घबराया क्यों?
रात उसने जगन्नाथ सेठी पर छुरा चला दिया होता तो इस वक़्त वह मुम्बई में रूपा के पास बैठा, किसी तरह उसे खबर दे रहा होता कि उसके पिता नहीं रहे।
सुनहरा वक़्त बीती रात को हाथ से निकल गया।
अपने पर उखड़े अंदाज में वालिया ने प्राइवेट जासूस की रिपोर्ट उठायी और आज मंगलवार को उसकी दिनचर्या पढ़ी। सुबह दस बजे से शाम चार बजे तक जगन्नाथपुरी के कनॉट प्लेस स्थित अपने ऑफिस में उसे रहना था। उसके बाद यहाँ से दरियागंज में स्थित अनाथ आश्रम जाना था। उस अनाथ आश्रम को जगन्नाथ सेठी ही पैसा देता था। तीन घण्टे बाद शाम सात बजे उसने दरियागंज अनाथ आश्रम से चलकर सीधा अपने बंगले पर जाना था और उसने आज भी लायंस क्लब जाना था। कल वह अपने साथ के आदमी से कह रहा था। उसने सुनी थी यह बात।
वालिया ने मन ही मन यह फैसला किया कि आज जगन्नाथ सेठी को मारने का मौका क्लब में ही तलाश करेगा। कल की तरह घबराएगा नहीं।
वालिया ने जगन्नाथ सेठी की बुधवार की रिपोर्ट पढ़ी। बुधवार वह लायंस क्लब नहीं जाता था। इस दौरान वह गुड़गांव, फरीदाबाद और रुड़की में मौजूद अपने ऑफिस में जाकर काम देखता था। यानी कि आज का दिन निकल गया तो, उसे इस काम में ज्यादा वक्त लग सकता था। जबकि उसे मुम्बई रूपा के पास भी पहुँचना था। ज्यादा देर बाहर रहने से रूपा को किसी तरह उस पर शक भी हो सकता था कि उसने उसके पिता की हत्या की है।
जो भी हो। आज कुछ करने की कोशिश वह अवश्य करेगा।
■■■
रात के 10.30 हो रहे थे। क्लब में गहमा-गहमी का माहौल था। कल की तरह आज भी भीड़ थी। वालिया साढ़े आठ बजे ही क्लब में आ गया था ताकि कार को अपनी पसंद की जगह पर पार्क कर सके। एंट्री की तौर पर 1000 रुपये की पर्ची आज भी कटवाई। उस वक़्त भीड़ कम थी। परन्तु दस बजते-बजते वहाँ भीड़ नजर आने लगी थी। ताश की बाजियाँ और व्हिस्की-बियर साथ में चल रही थी।
जगन्नाथ सेठी 9.20 बजे क्लब में पहुँच था। आते ही वह एक आदमी से मिला, जो कि पाहवा हो सकता था, जिससे मिलने की खातिर आज वो खासतौर से क्लब में आया था। आधे घण्टे तक जगन्नाथ सेठी उस व्यक्ति से अकेले में बात करता रहा। उसके बाद उसने बार काउंटर से अपना गिलास तैयार करवाया और टेबल पर जा बैठा। ताश के खेल शुरू हो गया।
वालिया व्हिस्की के गिलास के साथ एक खाली कुर्सी पर बैठा था। रह-रहकर उसकी निगाह जगन्नाथ सेठी पर जा रही थी। मन में पक्का पर चुका था कि आज इसे खत्म करके रहेगा।
10.30 पर वालिया क्लब से बाहर निकला आगे खड़ी कार के पास पहुँचकर भीतर से दस्ताने, छुरा और स्टाकिंस निकाली और कल वाली जगह पर अँधेरे में जा पहुँचा।
स्टाकिंस को चेहरे पर सिर के रास्ते डाल लिया। दस्ताने पहनने के बाद छुरे से उँगलियों के निशान को रगड़ कर साफ किया। उसके बाद जगन्नाथ सेठी के आने के इंतजार में वहीं अंधेरे में दुबक गया।
एक-एक पल को बिताना उसके लिए भारी पड़ रहा था। मन ही मन पक्का कर रहा था खुद को। आज वह हर हाल में जगन्नाथ सेठी की हत्या करके रहेगा। चेहरे पर आते पसीने को वह बार-बार पोंछ रहा था।
11.20 के करीब उसे जगन्नाथ सेठी आता दिखा। आज वह अकेला था। आधी बाँह का पैंट और शर्ट पहने था वह। इतने साधारण तरीके से रहता था कि उसे देखकर कोई उसकी हैसियत का अंदाजा नहीं लगा सकता था।
वह पास आता जा रहा था। वालिया का दिल तेजी से धड़क रहा था। परन्तु आज उसे जगन्नाथ सेठी की हत्या करके ही रहना है। आज काम नहीं कर सका तो फिर वो कभी भी काम नहीं कर पायेगा।
तभी जगन्नाथ सेठी उससे पाँच कदम आगे ठिठक गया। यकीनन वह कल की तरह कार और ड्राइवर के आने का इंतजार कर रहा था। वालिया उस पर नजरें टिकाये अपनी जगह से उठा। छुरा हाथ में दबा था। वालिया का चेहरा स्टाकिंस के पीछे छिपा पड़ा था। एकाएक वह जगन्नाथ सेठी पर झपटा। पाँच कदमों का फासला उसने दो ही कदमों में तय कर लिया था।
आहत पाकर जगन्नाथ सेठी तुरंत पलटा। उसी पल वालिया के हाथ में थमा लम्बा छुरा जगन्नाथ सेठी के पेट में धँसता चला गया।
तभी बिजली चमकी। अजय वालिया के सिर पर खून सवार था। बिजली की तरफ ध्यान कहाँ था। वह बहुत घबरा भी चुका था और उसे इस बात का अहसास भी था कि जगन्नाथ सेठी को जिंदा नहीं छोड़ना है। वालिया ने खींच कर उसके पेट से छुरा निकाला और वापस घुसेड़ दिया। ऐसा उसने दो पल में चार वार किया और आखिरी बार छुरे का वार उसकी गर्दन पर किया। ठीक इस वक़्त पुनः बिजली चमकी। छुरा पूरी गर्दन में धँस गया।
इसके साथ ही जगन्नाथ सेठी का शरीर पीठ के बल नीचे जा गिरा।
उसी क्षण कार की हेडलाइट चमकी। वालिया चौंका और पलट कर पार्किंग में खड़ी कारों के बीच भाग निकला। उसे कुछ होश नहीं था कि किधर भाग रहा है वह। भागते-भागते उसने हाथ में पड़े दस्ताने उतार फेंके। चेहरे को ढंके स्टाकिंस उतारी और फेंक दी। सामने चार फीट ऊँची दीवार आ गयी थी। वालिया को कुछ होश नहीं कि कैसे वह दीवार पर चढ़ा और दूसरी तरफ कूद गया। अब वह क्लब से बाहर आ गया था और भागता जा रहा था। जबकि उसके पीछे कोई नहीं था।
वो जाने कितनी दूर जाकर रुका था। हाँफ रहा था। पसीने से वो पूरे तरह भीगा हुआ था।
लेकिन उसे इस बात की तसल्ली थी कि जगन्नाथ सेठी को मार दिया है उसने। गर्दन घुमाकर उसने पीछे देखा जहाँ से भागा आया था। कोई भी उसके पीछे नहीं था। स्पष्ट था कि उसे किसी ने नहीं देखा। सुरक्षित था वह। वह एस्टीम कार वहीं खड़ी रह गयी थी, परन्तु वह चोरी की थी। अब कार की उसे परवाह नहीं थी।
पहनी कमीज पर, पेट की जगह के आसपास खून लग गया था। खून से रंगे कपड़ों में देखकर कोई भी उस पर शक कर सकता था। वालिया ने कमीज उतारी और एक तरफ अंधेरे में फेंक दी। नीचे पहनी बनियान में भी खून लगा था। उसने बनियान भी उतार फेंकी। अब उसे कमीज चाहिए थी और रात के इस वक़्त उसे कमीज कहीं से नहीं मिल सकती थी। वह अंधेरे-अंधेरे में आगे बढ़ने लगा। सड़क पर से वाहन आ-जा रहे थे। वह चलते-चलते बहुत आगे निकल आया था। तभी साईकल पर जाता युवक दिखा। वह शायद काम से लौट रहा था।
वालिया ने उसे रोका।
"सुनो! दो बदमाश मेरी कमीज उतारकर ले गए हैं। तुम अपनी कमीज मुझे दे दो। मैं तुम्हें 500 रुपये दूँगा।"
"पहले पाँच सौ दो।"
वालिया ने पर्स निकालकर उसे पाँच दिया।
"बदमाशों ने तुम्हारा पर्स नहीं निकाला?"
"नहीं!"
"हैरानी की बात है।" युवक ने अपनी कमीज उतारकर उसे दी।
वालिया ने कमीज पहनी जो कि तंग थी। परन्तु इस वक़्त काम चलाना जरूरी था। फिर वहाँ से टैक्सी पकड़कर वसंत विहार स्थित गेस्ट हाउस पहुँचा। नहा-धोकर कपड़े बदले।
रात के ढाई बज रहे थे।
फिर उसने एयरपोर्ट फोन करके मुम्बई जाने वाली फ्लाइट्स के बारे में पता किया। पता चला कि पाँच बजे मुम्बई के लिए फ्लाइट जाती है और उसमें सीट भी है।
वालिया ने ब्रीफकेस में अपने कपड़े डाले। गेस्ट हाउस का बिल चुकाया और टैक्सी मंगाकर एयरपोर्ट रवाना हो गया। मन में इस बात की तसल्ली थी कि काम पूरा हो गया। जगन्नाथ सेठी तो मर चुका होगा। अखबारों में, टी०वी० में यह खबर आएगी और किसी तरह रूपा को इस खबर का पता लग जायेगा।
उसके बाद रूपा अपने पिता जगन्नाथ सेठी की दौलत की मालिक थी और रूपा के पास की हर चीज उसकी ही थी। यानी कि वह अरबों की दौलत का मालिक बन गया था। सब नुकसान पूरे हो गए थे।
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महेश और रंजन सुबह साढ़े पाँच बजे एयरपोर्ट पर थे। वहाँ से उन्होंने रूपा को फोन किया।
"अजय वालिया ने कुछ देर पहले ही दिल्ली एयरपोर्ट से मुम्बई के लिए फ्लाइट ली है।" महेश बोला।
"तो वो मुम्बई आ रहा है।" रूपा की आवाज कानों में पड़ी।
"बीती रात जगन्नाथ की हत्या कर दी उसने।"
"बहुत बढ़िया!" रूपा की खुशी से भरी आवाज कानों में पड़ी, "तुम लोगों ने इस बीच क्या किया?"
"हमारे पास इस बात का पूरा रिकॉर्ड है कि जगन्नाथ की हत्या वालिया ने ही की है।"
"सुनकर मजा आ गया। तुम दोनों भी मुम्बई पहुँचो। दीपक का कुछ पता चला?"
"नहीं! उसका कोई फोन नहीं आया। मैंने एक-दो बार कोशिश की, लेकिन उसका फोन स्विच ऑफ मिला।"
"ठीक है! मुम्बई पहुँचकर फोन करना।"
महेश ने फोन बंद किया और पास खड़े रंजन को देखा।
"समझ नहीं आता कि दीपक चला कहाँ गया।" रंजन बोला, "अभी तो उसने रूपा से पैसे भी लेने हैं।"
महेश भला क्या जवाब देता। वो तो खुद उलझन में था।
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उस वक़्त सुबह जगत पाल, अजय वालिया के बंगले पर नजर रख रहा था। देवली कुछ दूर कार में नींद ले रही थी। नौ बज रहे थे जब जगत पाल ने वालिया को अपने बंगले के गेट पर टैक्सी से उतरते देखा। तब वह जल्दी से कार के पास पहुँचा और देवली को नींद से उठाया।
"क्या है?" देवली ने आँखें खोली।
"वालिया आया है टैक्सी पर। वह बंगले में नहीं था। बाहर से आया है।"
देवली जल्दी से कार से बाहर निकली और उसने टैक्सी को जाते देखा।
वालिया बंगले में जा चुका था। गेट पर दरबान खड़ा था।
"वो अंदर चला गया।"
"अब वालिया को फोन मिलाकर देखती हूँ।" कहते हुए देवली ने फोन निकाला और नंबर मिलाने लगी।
परन्तु फोन पहले की तरह स्विच ऑफ मिला।
"नहीं मिल रहा। फोन बंद है।" देवली झल्लाई, "समझ में नहीं आता कि वालिया ने फोन बंद क्यों रखा है।"
"तुम सीधे उससे मिलने क्यों नहीं चली जाती?"
"रूपा मुझे जानती है। शायद उसने मेरा चेहरा न देखा हो, परन्तु मेरे बारे में वह अब कुछ जानती है। वह शातिर है। बंगले में जाकर वालिया से ठीक से बात नहीं कर पाऊँगी।" देवली ने गंभीर स्वर में कहा।
"कोई बात नहीं। वालिया जल्दी ही बाहर निकलेगा। तब उससे...।"
"तुम वालिया के सामने मत जाना।"
"क्यों?"
"मैंने उसे बताया था कि तुम मेरे बाप हो। तो बाप को बेटी के कामों से दूर रहना चाहिए।"
"आशिक को बाप बना दिया।"
"उस वक़्त यह कहना जरूरी था।"
"मैं तेरे साथ वापस कानपुर जाना चाहता हूँ। वहाँ हम अच्छे थे।"
देवली मुँह घुमाकर दूसरी तरफ देखती कह उठी-
जरूर चलेंगे। लेकिन मैं वालिया को, रूपा के हाथों सुरक्षित कर देना चाहती हूँ।"
"क्या फायदा? वालिया कंगाल हो चुका है।"
देवली ने जगत पाल को देखा और मुस्कुराकर कह उठी-
"वह कंगाल भी हमारे लिए मालदार है। बात यह है कि मैं उसे पसंद करने लगी हूँ।"
"तुझे वापस चलना है कानपुर। तभी मैं तेरे साथ यह काम कर रहा हूँ।"
"मैंने कब मना किया है चलने से।"
■■■
बंगले पर पहुँचकर वालिया, रूपा से मिला। दोनों गले मिले।
"कैसी हो तुम?" वालिया ने प्यार से पूछा।
"तुम्हारे बिना मन नहीं लगता अजय।"
"मैं आ तो गया।" वालिया ने उसका माथा चूमते हुए कहा।
"तुम शायद रात को सोयें नहीं। तुम्हारी आँखें बता रही हैं।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा।
"हाँ! रात को मैं बहुत व्यस्त रहा। कल रात ग्यारह बजे चंडीगढ़ में मीटिंग खत्म हुई। वहाँ से सड़क के रास्ते दिल्ली एयरपोर्ट पहुँचा। रात को चंडीगढ़ से दिल्ली की फ्लाइट नहीं थी। फिर दिल्ली से मुम्बई की फ्लाइट ली।"
"तुम्हें नींद लेनी चाहिए।"
"हाँ, दो-चार घण्टे की नींद अवश्य लूँगा।"
"नाश्ता करोगे न?"
"नहीं! नींद लेने के बाद कुछ खाऊँगा। अभी नहीं।"
उसके बाद वालिया नींद में जा डूबा। रूपा के चेहरे पर मुस्कान नाचती रही।
दोपहर एक बजे रंजन का फोन आया।
"मुम्बई पहुँच गए?"
"हाँ!"
"फौरन तस्वीरों के प्रिंट निकालो और कूरियर देने के बहाने मुझ तक पहुँचा दो।"
"इसमें कम से कम तीन घण्टे लगेंगे।" उधर से रंजन ने कहा।
"कोई बात नहीं। उसके नेगेटिव सम्भाल के रखना।" रूपा ने कहा और फोन बंद कर दिया।
■■■
दोपहर तीन बजे वालिया नींद से उठा। अब वह खुद को हल्का महसूस कर रहा था। नहा-धो कर हटा तो रूपा ने तब तक मुरली से कह कर टेबल पर खाना लगवा दिया था।
दोनों खाने पर बैठ गए।
"पैसे का इंतजाम हो गया?" पूछा रूपा ने।
"शायद हो जाये। दो-तीन दिन के बाद पता चलेगा।"
"मैं चाहती हूँ कि जल्दी से तुम्हारी सब मुसीबतें दूर हो जाये।" रूपा ने मुस्कुरा कर कहा।
"जरूर होगी।" वालिया भी मुस्कुराया।
खाना खाने के बाद दोनों बेडरूम में पहुँचे। वालिया ने टी०वी० पर न्यूज़ लगा लिया।
रूपा बेड पर आ बैठी।
अगले ही पल दोनों की निगाह पूरी तरह टी०वी० पर जा टिकीं। वहाँ दिल्ली में हुई जगन्नाथ सेठी की हत्या के बारे में बताया जा रहा था। जगन्नाथ सेठी की तस्वीरें भी दिखाई जा रही थीं।
"य... यह तो तुम्हारे पापा हैं रूपा। किसी ने उन्हें मार दिया। सुनो तो टी०वी० वाले क्या कह रहे हैं।" वालिया हड़बड़ाकर बोला।
रूपा की निगाह टी०वी० पर थी।
टी०वी० पर बताया जा रहा था कि हत्यारे को पकड़ने के लिए पुलिस क्या-क्या भाग-दौड़ कर रही है।
वालिया कुर्सी से उठकर रूपा के पास आ बैठा।
"तुम घबराना नहीं रूपा, मैं तुम्हारे साथ हूँ।"
रूपा शांत सी टी०वी० पर नजरें टिकाये बैठी थी।
"कुछ बोलो। तुम्हारे पिता की हत्या हो गयी है रूपा। तुम्हें... तुम्हें दिल्ली जाना होगा। मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।" वालिया ने परेशानी जाहिर करते हुए कहा, "बहुत बुरा हुआ यह। बहुत बुरा।"
टी०वी० पर बताया जा रहा था कि जगन्नाथ सेठी की इकलौती औलाद रूपा लापता है। जिसे कि पहले से ही पुलिस तलाश कर रही थी। अभी तक जगन्नाथ सेठी का कोई वारिस सामने नहीं आया है।
"तुम क्या सोच रही हो रूपा?" वालिया ने तेज स्वर में कहा, "अब तक तुम्हें चल देना चाहिये था।"
रूपा मुस्कुरायी। टी०वी० से नजरें हटाकर उसने वालिया को देखा। उसे मुस्कुराते हुए देख, वालिया के चेहरे पर अजीब से भाव या ठहरे।
"क्या हुआ? तुम ठीक तो हो?" वालिया ने पूछा।
"मैं ठीक हूँ अजय।" रूपा के होंठों पर अभी भी मुस्कान ठहरी हुई थी।
"तुम्हारे पिता जगन्नाथ सेठी की हत्या हो गयी है। वो...।"
"वह मेरा पिता नहीं था।" रूपा का स्वर शांत और चेहरे पर मुस्कान थिरक रही थी।
"क्या?" वालिया हक्का-बक्का रह गया, "वह तुम्हारा पिता था। जगन्नाथ सेठी। तुम उसकी दौलत की इकलौती वारिस हो।"
"मैं जानती तक नहीं उसे।"
"न...नहीं।"
"तुम... तुम मजाक कर रही हो।"
"मैं उससे कभी मिली भी नहीं।"
"तुम... तुमने ही तो कहा था कि...।"
"झूठ कहा था।"
वालिया ठगा सा रूपा को देखता रहा।
रूपा मुस्कुराती रही और बेड पर आराम से अधलेटी हो गयी। वालिया के चेहरे के भाव देखने लायक था। वालिया लूटी-पुटी हालत में उसे देख रहा था।
"रूपा!" वालिया ने सम्भलकर कहा, "मैं जानता हूँ कि तुम्हें अपने पिता से नफरत है। लेकिन जब वह इंसान दुनिया में ही नहीं है तो, नफरत कैसी? तुम्हारे पिता की हत्या हो चुकी है। अब तुम्हें नफरत की दीवार हटा देनी चाहिए। दिल्ली जाकर अपने पिता की अंतिम क्रिया करो और उनकी दौलत को अपने कब्जे में लो। वरना दौलत लेने के लिए तुम्हारे इधर-उधर के रिश्तेदार वहाँ पहुँचकर टिक जायेंगे। तुम्हें सब बातें भूल जानी चाहिए।"
रूपा खिलखिलाकर हँस पड़ी। वालिया जैसे खुद को पागल सा महसूस कर रहा था।
"तुम होश में तो हो रूपा?"
"मैं तो हमेशा से ही होश में रही हूँ।"
"तो अब तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हें अपने पिता के मरने का दुख तो होना चाहिए।"
"मैं जगन्नाथ सेठी को नहीं जानती। तुम्हें वहम हुआ है कि वह मेरा पिता था।"
"तुमने तो मुझे कहा था कि वह तुम्हारा पिता है।"
"झूठ कहा था।"
"ऐसा कैसे कह सकती हो तुम? क्यों कहोगी?"
"तुमसे शादी जो करनी थी।"
"क्या मतलब?" वालिया की निगाह रूपा के मुस्कुराते चेहरे पर टिकी।
"मेरा सपना था अमीर आदमी से ब्याह करना और वो हो गया।"
वालिया टकटकी बाँधें रूपा को देखने लगा।
"विश्वास नहीं हो रहा है कि मैं ऐसी हूँ?" रूपा ने उसे देखा।
"न... नहीं।"
"मैं ऐसी ही हूँ।" रूपा बेड से उठी और कुर्सी पर जा बैठी, "तुम सोचते हो कि तुमने मुझे फँसाया। मेरे से शादी की। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। दरअसल वह सब ड्रामा था। मैं ही बार-बार तुम्हारे सामने आती रही कि तुम मेरे जाल में फँसो। यह तो मैं बखूबी जानती हूँ कि मैं सुंदर हूँ। खूबसूरत हूँ। मेरी खूबसूरती देखकर लोग मुझे पाने के लिए दीवाने हो जाते हैं और यही तुम्हारे साथ हुआ। मैं बहाने-बहाने से तुम्हारे सामने आती गयी और तुम मेरे दीवाने होते चले गए।"
वालिया फटी-फटी आँखों से रूपा को देखे जा रहा था।
"जगन्नाथ सेठी मेरे पिता हैं और अरबों की दौलत के मालिक हैं और मैं उस दौलत की इकलौती वारिस हूँ। यह तुमसे कहना पड़ा ताकि मेरी खूबसूरती के साथ-साथ दौलत भी तुम्हारे सिर पर सवार हो जाये और तुम हर हाल में मेरे से शादी कर लो और तुमने ऐसा ही किया।"
"तुम... तुम जगन्नाथ सेठी की बेटी नहीं हो?" वालिया के मुँह से अविश्वास भरा स्वर निकला।
"कितनी बार कहूँ कि नहीं हूँ। अब तक तो तुम्हें मेरी बात का भरोसा कर लेना चाहिए था।"
"इतना बड़ा धोखा।" वालिया के होंठों से निकला।
"यह दुनिया धोखेबाजों से भरी पड़ी है मिस्टर अजय वालिया!" रूपा ने कड़वे स्वर में कहा।
"लेकिन... लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया?"
"बोला तो, मैं अमीर बनना चाहती थी। तुमसे शादी करना चाहती थी। लेकिन मेरी सारी मेहनत बेकार गयी। तुम्हारी बिल्डिंगों को किसी ने बम लगाकर उड़ा दिया। तुम कंगाल होने की कगार पर आ गए। मेरा सपना टूट गया।"
"तुम... तुम झूठ बोल रही हो।" वालिया को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहे।
"सच बातें तुम्हें हजम नहीं हो रही हैं वालिया।"
"तुम ऐसी नहीं हो सकती।"
"मैं ऐसी ही हूँ।"
वालिया ने दोनों हाथों से सिर थाम लिया। यह सब क्या हो गया। उसने तो यह सोचकर जगन्नाथ सेठी की हत्या कर दी कि वो रूपा का पिता है। उसकी मौत के बाद अरबों की दौलत रूपा की होगी और रूपा वह दौलत उसे दे देगी।
परन्तु जगन्नाथ सेठी रूपा का पिता था ही नहीं। रूपा उसे जानती तक नहीं। झूठ बोला था रूपा ने उससे। और उसने जगन्नाथ सेठी की हत्या कर दी दौलत पाने के लिए। इतना बड़ा धोखा। इतनी बड़ी भूल कर दी उसने। रूपा ने उसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया। उसके हाथों हत्या करवा दिया।
रूपा खतरनाक मुस्कान के साथ वालिया को देख रही थी। वालिया ने चेहरे से हाथ हटाया और रूपा की तरफ देखा। आँखों के पपोटे भारी हो रहे थे।
"तुमने बहुत गलत किया।" वालिया थकी आवाज में कह उठा।
"क्या गलत किया? कुछ भी तो गलत नहीं किया। मैंने झूठ बोलकर सिर्फ तुमने शादी ही तो की है। इसमें बुरा क्या है? क्या मैं तुम्हारी पत्नी बनकर नहीं रही? तुम्हें प्यार नहीं किया? क्या मेरी जैसी वफादार और खूबसूरत लड़की तुम्हें मिल सकती थी? यह तो मामूली सा माफ कर देने लायक झूठ है। शादी-ब्याह करने के लिए लोग झूठ नहीं बोलते क्या?"
"मैं तबाह हो गया।"
"इसमें तबाह होने वाली बात क्या है? मैंने तो तुम्हारे साथ कभी कुछ गलत नहीं किया। तुम्हारे खाने-पीने का पूरा ध्यान रखा है। तुम्हें पूरी इज्जत दी है। मैंने तुम्हारे साथ कभी भी गलत व्यवहार नहीं किया।" रूपा ने मुस्कुराकर कहा, "अगर तुमने मेरे प्यार में कोई कमी पायी हो तो कहो? मेरे इस झूठ से तुम्हें कभी कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।"
"तुम्हें... तुम्हें मुझे बता देना चाहिए था कि तुम जगन्नाथ सेठी की बेटी नहीं हो।"
"नहीं भी बताया तो कौन सा आसमान टूट पड़ा? अब तो बता दिया तुम्हें।" रूपा ने सरल स्वर में कहा।
वालिया ने आँखें बंद कर ली। रूपा चेहरे पर मुस्कान समेटे वालिया को देख रही थी। वह सब जानती थी कि वालिया के दिल पर क्या बीत रही है। वह क्या सोच रहा है। उसे यह भी नहीं कह सकता था कि दौलत पाने की लालच में दिल्ली जाकर जगन्नाथ सेठी की हत्या कर आया है। कहता तो किस मुँह से कहता। तभी रूपा कह उठी-
"अगर तुम्हें लगता है कि मैंने ठीक नहीं किया तो मैं यहाँ से जाने को तैयार हूँ।"
"नहीं, जाना मत।" वालिया ने आँखें खोली। चेहरा बुझा-बुझा सा था, "तुम्हारे जाने से कुछ भी ठीक नहीं होगा। बल्कि तुम्हारा जो सहारा है वो भी नहीं रहेगा। मैं टूट चुका हूँ रूपा। थक चुका हूँ।"
"लगता है चंडीगढ़ में दौलत का इंतजाम नहीं हुआ।" रूपा मुस्कुरायी।
"नहीं! कोई इंतजाम नहीं हुआ। होगा भी नहीं। सब कुछ खराब हो गया। अब जो है उसी में गुजारा करना होगा।"
"वालिया।"
वालिया ने रूपा को देखा। इस तरह पहले कभी रूपा ने उसे नहीं पुकारा था।
रूपा के चेहरे पर मुस्कान नाच रही थी।
"कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी कही बात में आकर कि जगन्नाथ सेठी मेरे पिता है और इस वक़्त तुम्हें दौलत की जरूरत है। तुमने जगन्नाथ सेठी की हत्या कर दी हो कि उसके उसकी मौत के बाद पैसा मुझे मिल जाएगा।"
वालिया ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी और धीमे स्वर में बोला-
"मैं... मैं ऐसा क्यों करूँगा। कि... किसी की जान क्यों लूँगा।"
"ओह! फिर मुझे वह सपना क्यों आया था?"
"सपना? कैसा सपना?"
"यही कि तुमने दिल्ली में जाकर जगन्नाथ सेठी की हत्या की और प्लेन पकड़कर मुम्बई आ गए।"
वालिया उछलकर खड़ा हो गया। उसकी आँखें फटकर फैल गयीं। चेहरे के भावों में हैरानी भरी पड़ी थी। वह रूपा को देखे जा रहा था और जहरीली मुस्कान के साथ रूपा उसे देखे जा रही थी।
"क्या हुआ वालिया? तुम परेशान क्यों हो गए अचानक ही?"
"त... तुम कहना क्या चाहती हो?" वालिया के होंठों से खरखराता स्वर निकला।
"मेरे पास इस बात के पूरे सबूत हैं कि कल रात तुमने दिल्ली में जगन्नाथ सेठी की हत्या की।" रूपा खतरनाक स्वर में बोली।
वालिया फटी-फटी आँखों से रूपा को देखता रहा।
"इंकार करोगे तो मैं सबूत सामने रख दूँगी।"
"दि... दिखाओ...।" वालिया के होंठों से निकला।
"शाम को दिखाऊँगी। कुछ ही देर में मेरे पास सबूतों के कूरियर आने वाला है। तब तक तुम आराम कर लो।"
"आखिर तुम हो कौन और क्या चाहती हो मुझसे?" एकाएक वालिया गला फाड़कर चीख उठा।
"मैं तुम्हारी पत्नी हूँ वालिया।" रूपा ने शांत स्वर में कहा।
"तुम... तुम कोई खेल... खेल रही हो मुझसे...।"
"इस दुनिया में हर कोई अपनी गेम खेलने में लगा हुआ है। जैसा कि मैं अपनी गेम खेल रही हूँ और तुम अपनी गेम की चालें चल रहे हो। परन्तु जीतता वही है जिसका वार निशाने पर पड़े।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा।
"तुम स्पष्ट बात क्यों नहीं करती मुझसे?" वालिया चीखा।
"आराम से बात करो।" रूपा का स्वर कठोर हो गया, "जब तक मेरा कूरियर नहीं आता, तब तक तुम इस कमरे से बाहर तक नहीं निकलोगे। इस बात को मत भूलना कि मैं तुम्हारी राजदार हूँ और इस राज को वह भी जानता है जो कूरियर द्वारा सबूतों को भेज रहा है। भूल से भी मत सोच लेना कि मेरी जान लेकर तुम बच जाओगे।"
"आखिर तुम चाहती क्या हो?"
"वह भी पता चल जाएगा।" रूपा के चेहरे पर अब गंभीरता ठहरी हुई थी।
वालिया, रूपा को देखता रहा।
"वैसे तुमने मेहनत बहुत की जगन्नाथ सेठी की हत्या करने के लिए। हिम्मत का काम किया।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा और कमरे के दरवाजे की तरफ बढ़ती कह उठी, "इस कमरे से बाहर मत निकलना वरना तुम्हारे हक में बुरा होगा वालिया।"
रूपा चली गयी। अजय वालिया के होश गुम थे। रूपा का नया रूप उसके सामने आया था जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। परन्तु अभी भी वह हर बात से अनजान था।
जाने क्यों अब उसे रूपा से डर लगने लगा था।
■■■
वालिया के होश उड़े हुए थे। उसके सामने ढेर सारी तस्वीरें पड़ी थी। किसी तस्वीर में वह गोल्फ कोर्स के बाहर खड़ा था तो किसी में वह दुकान से दस्ताने ले रहा था। एक तस्वीर में वह लोहार के पास बैठा था। एक में वह क्लब के भीतर जगन्नाथ सेठी के पीछे खड़ा था जब वह कुर्सी पर बैठा ताश खेल रहा था। फिर वह तस्वीरें भी उसने देखी जब वह जगन्नाथ सेठी के पेट में छुरा मार रहा था। वह तस्वीरें भी देखी जब वह जगन्नाथ सेठी की गर्दन में छुरा मार रहा था। तब चेहरे पर स्टाकिंस डली हुई थी। परन्तु पहचानना कठिन नहीं था कि वह वही है। क्योंकि जो कपड़े उसने पहने थे। उन कपड़ों में उसकी अन्य तस्वीरें भी थीं।
वालिया का पूरा शरीर काँप रहा था। उसे समझ आ गया था कि जब वह जगन्नाथ सेठी की हत्या कर रहा था तो बिजली क्यों चमकी थी।
तब उसकी तस्वीरें ली जा रही थीं। कोई उस पर नजर रख रहा था। बराबर उसके पीछे लगा था।
लेकिन उसका रूपा से क्या वास्ता?
बार-बार वालिया के आँखों के सामने अंधेरा छा रहा था। यह सब क्या हो रहा है उसके साथ?
वालिया के गले में भय के काँटे चुभ रहे थे। उसने नजर उठाकर सामने कुर्सी पर बैठी रूपा को देखा। रूपा गंभीर थी।
शाम के सात बज रहे इस समय।
"तुम... तुमने मुझ पर नजर रखवाई।" वालिया सूखे स्वर में बोला।
"हाँ!" रूपा का स्वर शांत था।
"क्यों?" वालिया पूरी तरह असंयत था।
"क्योंकि मैं जानती थी कि तुम दौलत पाने के लिए जगन्नाथ सेठी की हत्या अवश्य करोगे।"
"ऐसा तुमने कैसे सोच लिया?"
"तुम्हारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था कि जिससे तुम दौलत हासिल लर सको। यह तुम्हारे लिए आसान रास्ता था।"
वालिया नव गहरी साँस ली। वह अब कुछ-कुछ बातों को समझने लगा था।
"जब मैं चंडीगढ़ जाने को कह कर घर से गया तो तुमने मेरे पीछे आदमी लगा दिया।"
"नहीं। मैं तो जगन्नाथ सेठी पर नजर रखवा रही थी। क्योंकि मैं जानती थी कि तुम उसकी हत्या करने वहाँ पहुँचोगे।"
"हो सकता है कि मैं ऐसा न करता।"
"तुम्हें ऐसा करना ही था वालिया क्योंकि गेम तो मैं खेल रही थी। चालें मैं चल रही थी। तुम सोच रहे थे कि तुम अपनी सोचों पर आगे बढ़ रहे हो, जबकि तुम मेरी गेम की चालों में फँसें आगे बढ़ रहे थे। यह बात तुम महसूस कर ही नहीं सकते थे।" रूपा ने शांत स्वर में कहा, "तुम तो बुरी तरह फँस गए वालिया। कंगाल तो तुम हो ही गए थे, अब हत्या भी कर दी।"
"तुम... तुम आखिर चाहती क्या हो?"
"अभी तो तुम्हें और भी जानना बाकी है।" रूपा मुस्कुरा पड़ी।
"क्या?"
"तुम्हारी बन रही छः इमारतें, जिनमें तुम्हारा अरबों रुपया लगा था, वह किसने उड़ाई है?"
वालिया एकाएक सीधा होकर बैठ गया।
"जानना चाहोगे?"
"ह... हाँ!" वालिया के होंठों से शंकित सा स्वर निकला।
"मैंने।"
जैसे यही सुनने की आशा थी वालिया को। वह आँखें फाड़े रूपा को देखने लगा।
"न... नहीं! तुम यह सब नहीं कर सकती। तुम...।"
"मैंने सब इंतजाम पहले ही कर रखे थे वालिया। तुम्हारी इमारतों को उड़ाने के लिए मैंने 60 लाख में बारूद खरीदा।"
वालिया चीते की भांति रूपा पर झपटा।
"मैं तुझे जिंदा नहीं छोड़ूँगा कमीनी औरत। तूने मुझे बर्बाद कर दिया। मैं...।"
रूपा पहले ही सावधान थी। वह कुर्सी छोड़ चुकी थी। वालिया खाली कुर्सी से टकराया फिर गुस्से में भरा तुरंत ही सम्भला।
वालिया अगले ही पल ठिठक गया।
तीन कदम के फासले पर रूपा हाथ में रिवॉल्वर लिए खड़ी थी। उसने फौरन पहचाना कि यह उसी का रिवॉल्वर है।
"आराम से बैठ जा वालिया! नहीं तो गोली चला दूँगी।" रूपा ने शांत स्वर में कहा।
वालिया ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"दोबारा मुझ पर हाथ डालने की मत सोचना।"
वालिया, रूपा को देखे जा रहा था।
"यह तेरी ही रिवॉल्वर है।" रूपा ने सिर हिलाकर कहा, "तो अब तक तूने हिसाब लगा लिया होगा कि मैंने तेरे को फँसाकर तेरे से शादी की। उसके बाद तेरी बन रही इमारतों को उड़ाकर तेरे को कंगाल कर दिया। मैंने अपनी प्लानिंग के तहत ही तेरे से यह झूठ बोला कि मैं दिल्ली के अरबपति सेठ जगन्नाथ सेठी की घर से भागी इकलौती लड़की हूँ। क्योंकि मैं जानती थी कि बाद में तू पैसा हासिल करने की खातिर जगन्नाथ सेठी की जान ले लेगा। मैंने ही तेरे को इस राह पर डाला। तूने मुझे कई बार कहा कि मेरे पिता के पास चलते हैं, ताकि तुम उनसे दौलत ले सको। परन्तु हर बार मैंने मना किया। तब मैं जानती थी कि अब तुम जगन्नाथ सेठी की जान लोगे। जबकि जगन्नाथ सेठी से मेरा कोई रिश्ता नहीं। वह मुझे नहीं जानते, मैं उन्हें नहीं जानती। परन्तु जगन्नाथ सेठी की बेटी रूपा सेठी को मैं जानती थी। हम कॉलेज में इकट्ठे पढ़ा करते थे। हॉस्टल में रहते थे। इसी वजह से एक बार मुझे किसी से पता चला कि रूपा अचानक ही घर से गायब हो गयी है और साल भर से उसका पता नहीं चल रहा है तो उस रूपा का रूप ओढ़ना ठीक लगा। मेरी प्लानिंग भी आसानी से बन गयी वालिया।"
वालिया को काटो तो खून नहीं। यह हाल था उसका।
"वह अखबार की कटिंग, जो तुमने मुझे दिखाई थी।"
"नकली थी।"
"तुम बहुत खतरनाक हो।"
"हर कोई खतरनाक होता है। तुम क्या कम खतरनाक हो। परन्तु तुम्हारी चालें सीधी नहीं पड़ी, जबकि मेरी सीधी पड़ती रहीं। इस प्लानिंग में मुझे सिर्फ एक बात पसन्द नहीं थी वालिया।"
"क्या?"
"तुम्हारे साथ सोना। परन्तु शादी करके तुम्हारे संग रहना था। तुम्हें जगन्नाथ सेठी की हत्या के रास्ते पर डालना था। इसलिए मुझे तुम्हारे साथ सोने की नापसंदगी भरा काम भी करना पड़ा। गेम जीतने के लिए कभी-कभी सब कुछ दाँव पर लगाना पड़ता है। सो मैंने भी लगा दिया।" रूपा ने रिवॉल्वर वाला हाथ नीचे किया।
"तुमने बहुत लम्बा खेल खेला।" वालिया बोला।
"इसमें कोई शक नहीं।"
"अब तुम्हें यह भी बता देना चाहिए कि यह सब तुमने क्यों किया?" वालिया ने गहरी साँस ली।
रूपा मुस्कुरायी। वालिया उसे देखे जा रहा था। चेहरे पर उजड़े से भाव थे।
"तुम क्या समझ रहे हो कि खेल खत्म हो गया?" रूपा के चेहरे पर गंभीरता आ ठहरी।
वालिया की निगाहें बेड पर पड़ी तस्वीरों पर गयी। अब तक वह अपने पर काबू पा चुका था।
"जब तक इन तस्वीरों के नेगेटिव तुम्हारे पास हैं, खेल खत्म नहीं हो सकता।" वालिया बोला।
"ठीक समझे वालिया!"
"लेकिन मैं जानना चाहता हूँ कि तुम यह सब क्यों कर रही हो?"
"अभी तुम्हें कुछ नहीं बताया जाएगा। तुम ही सोचों कि मैंने यह सब क्यों किया?"
"मैं नहीं समझ पाया।"
रूपा कुछ पलों तक वालिया को देखती रही फिर बोली-
"अभी तो खेल शुरू हुआ है। तुम्हें बहुत तड़पना होगा वालिया।"
"मेरा कसूर क्या है जो तुम मेरे साथ यह सब कर रही हो? मेरे को कंगाल कर दिया। मेरे हाथों हत्या करवा दी।"
"हत्या तुमने अपनी मर्जी से की है।"
"लेकिन खामोश इशारा तुम्हारा था। तुमने ही ऐसे हालात पैदा किये कि...।"
"मैं तो खुद स्वीकार कर चुकी हूँ कि मैंने यह सब किया। परन्तु तुम साबित नहीं कर सकते, जबकि मैं साबित कर सकती हूँ कि दिल्ली जाकर जगन्नाथ सेठी की हत्या तुमने की है।"
वालिया उसे देखता रहा फिर गहरी साँस लेकर बोला-
"आखिर तुम करना क्या चाहती हो इन तस्वीरों के दम पर? कुछ मुझे भी तो पता चले कि मेरा क्या होने वाला है।"
"डर रहे हो?" रूपा गंभीर थी।
"क्यों नहीं डरूँगा। क्योंकि मैं अभी तक यह नहीं जान पाया कि तुम यह सब क्यों कर रही हो।"
"तुम्हारी सबसे बड़ी सजा ही यह है कि तुम यह न जान पाओ कि मैंने यह सब क्यों किया?"
"क्या मतलब?"
"यह तो तुम महसूस कर ही चुके हो कि तुमने कुछ तो गलत किया ही होगा, जिसके कारण मुझे यह सब करना पड़ रहा है।"
"लेकिन मैंने कभी ऐसा कोई काम नहीं किया जो...।"
"सोचो। याद करो। शायद याद आ जाये।"
"सोच चुका हूँ।"
"तो तुम खुद को बेदाग कहते हो।"
वालिया खामोशी से बैठा रूपा को देखता रहा।
"मैं जानती हूँ कि तुम मेरे मुँह से सुनना चाहते हो कि मैंने यह सब क्यों किया। लेकिन इसके लिए तुम्हें बहुत मेहनत करनी होगी।"
"वजह जानने के लिए?"
"हाँ!"
"कैसी मेहनत?'
"बाद में बताऊँगी वालिया।"
"तो अब तुम क्या करने वाली ही?" वालिया ने शंका भरी निगाहों से बेड पर पड़ी तस्वीरों को देखा, "यह तस्वीरें तुम्हारे आदमियों ने खामखाह नहीं लीं। यह तुमने मुझे यूँ ही नहीं दिखाईं। कोई तो वजह होगी दिखाने की।"
"इस बारे में कल सुबह बात करूँगी। तब तक तुम यह बातें हजम कर लो, जो अब तक हुई हैं।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा, "यह तस्वीरें अब तुम्हारी हैं। इन्हें अपने पास रखो और बार-बार देखो ताकि तुम्हें याद रहे कि तुमने ताजी-ताजी हत्या की है।"
"तुम यह तस्वीरें पुलिस को देने वाली हो?"
"अभी तक तो मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है।"
"तो... तो...।"
"अगर तुमने मेरी बात न मानी तो यह तस्वीरें मुझे पुलिस को देनी ही पड़ेगी।"
"ऐसा मत करना।" वालिया तेज स्वर में बोला, "मैं तुम्हारी हर बात मानूँगा।" उसके चेहरे पर डर सा आ गया था।
"मैं जानती हूँ कि तुम मेरी बात मानोगे।" रूपा के चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था।
"आखिर मुझे कुछ तो बताओ कि यह सब क्यों...।"
"मेरी सलाह मानो तो पेट भर के व्हिस्की पीओ कि होश न रहे। कोई डर तुम्हें न सताये और रात तुम्हारी आराम से बीत जाए। बुरे सपने तुम्हें न डराये। इस बारे में बाकी बातें अब कल सुबह करेंगे।"
वालिया ने सूखे होंठ पर जीभ फेरी।
"तुम इस कमरे से बाहर नहीं निकलोगे। जो चीज चाहिए हो उसके बारे में मुरली से कह सकते हो।" रूपा ने कहते हुए रिवॉल्वर वाला हाथ उसे दिखाया, "अगर तुमने सोचा कि मेरे को मार दोगे तो मैं ऐसा वक़्त आते ही तुम्हें मार दूँगी। तुम मेरे हाथों में बुरी तरह फँस चुके हो। इस बात का अहसास तुम्हें पूरी तरह हो जाना चाहिए।"
रूपा कमरे से बाहर निकल गयी। अजय वालिया ठगा सा बैठा रहा। रूपा के इस रूप पर उसे विश्वास नहीं आ रहा था। दम घुटता सा महसूस हो रहा था। उसकी निगाह तस्वीरों पर गयी। यकीन करने को मन नहीं कर रहा था कि रूपा ने उसको बर्बाद कर दिया है। परन्तु तस्वीरें उसके सामने थीं और हर बात रूपा खुद भी अपने मुँह से कह चुकी थी।
परन्तु यह सब क्यों किया रूपा ने। कोई तो वजह होगी। वालिया ने अपनी जिंदगी के पिछले सालों के बारे में सोचा। बहुत सोचा। लेकिन ऐसा कुछ भी याद न आया कि उसने किसी का बुरा किया हो।
जो भी हो, कुछ ति बात थी ही। बिना वजह रूपा यह सब करने से रही। कितनी आसानी से उसे रूपा ने अपने जाल में फँसा लिया। वह सोचता रहा कि अपनी सोचों के मुताबिक वह काम कर रहा है, परन्तु इस बात का उसे अहसास भी न हो पाया था कि उसकी सोचों को दिशा, रूपा ही दे रही है। रूपा उसके गिर्द जाल बुन चुकी थी।
■■■
अजय वालिया कभी कमरे में घूमता, तो कभी बैठ जाता। सिर के बाल बिखरे हुए थे। चेहरे पर परेशानी ही परेशानी थी। बार-बार उसकी नजर बेड पर बिखरी तस्वीरों पर जा रही थी। परन्तु वह उन्हें छू न रहा था। जैसे डर लग रहा हो उसे तस्वीरों से। क्या से क्या हाल हो गया उसका। रूपा ने उसे जबरदस्त धोखा दिया।
बाहर अंधेरा छाने लगा था। कमरे में तो पहले ही अंधेरा हो चुका था।
जाने कब तक वह अंधेरे से भरे कमरे में ही बैठा रहा। सोचता रहा इन मुसीबतों से, हालातों से बाहर निकलने का रास्ता। परन्तु एकमात्र रास्ता था कि उन तस्वीरों के नेगेटिव उसे मिल जाये। जो कि सम्भव नहीं था। रूपा ने उन्हें सुरक्षित रखा था। सीधे-सीधे वह रूपा को भी कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता था, क्योंकि उसका कोई फायदा नहीं था। रूपा के साथी भी थे इस काम में। रूपा को मार दिया तो उसके साथियों से निपटना होगा। यानी कि यह सिलसिला रुकने वाला नहीं। उसके बचने का कोई रास्ता नहीं।
वालिया ने कमरे की लाइट्स जलाई।
रोशनी कुछ पल आँखों को जलाती रही, फिर सब ठीक हो गया। उसने वक़्त देखा तो 8.30 बज रहे थे। तभी उसकी निगाह एक तरफ रखे फोन पर पड़ी। दिल्ली जाने से पहले वो फोन का स्विच ऑफ कर गया था।
वालिया ने फोन का स्विच ऑन किया। उसके बाद बेड पर पड़ी तस्वीरें समेटने लगा। किसी की निगाह इन तस्वीरों पर पड़ना ठीक नहीं था।
तभी दरवाजा खटखटाने की आवाज आई फिर दरवाजा खुला। मुरली आया था।
"मालिक कुछ चाहिए?" मुरली ने पूछा।
तस्वीरें इकट्ठी करते ठिठका वालिया। मुरली को देखा। चेहरे के भावों को सामान्य करने की चेष्टा की।
"रूपा कहाँ है?"
"मालकिन हॉल में बैठी हैं।"
"हॉल में? अकेली?"
"जी मालिक!"
"म... मेरे लिए बोतल वगैरा ले आओ।"
मुरली चला गया।
वालिया ने सोचा कि रूपा ने सही कहा था कि उसे व्हिस्की पीकर अपने होश गुम कर लेने चाहिए। वरना उसे चैन नहीं मिलने वाला। यह सारे हालात उसे पागल कर देंगे।
तस्वीरों को उसने बेड के साइड टेबल के दराज में रख दिया।
कुछ ही देर में मुरली वहाँ सारा सामान रख गया। वालिया ने अपना गिलास तैयार किया और घूँट भरा। तभी उसका फोन बजने लगा। आगे बढ़कर वालिया ने अपना मोबाइल उठाया।
"हेलो!"
"अजय!" देवली की आवाज कानों में पड़ी।
वालिया ने लम्बी साँस ली। देवली का चेहरा आँखों के सामने नाचा। साथ ही यह विचार की देवली कितनी अच्छी है रूपा से। उसका कितना ख्याल रखती है।
"देवली!" वालिया का दिल रोने को किया।
"म... मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती हूँ। तीन दिन से तुम्हारा फोन नहीं मिल रहा था।" उधर से देवली ने तेज स्वर में कहा।
"फ़ोन बन्द था।" वालिया ने खुद को संभाला, "मैं मुम्बई से बाहर गया हुआ था।"
"अजय, जिस रूपा से तुमने शादी की है, वह तुम्हें बर्बाद करने पर लगी है। तुम्हारी बन रही उन सारी इमारतों को रूपा के इशारे पर ही बम से उड़ाया गया था।" देवली की आवाज कानों में पड़ी।
"मालूम है।" वालिया ने शांत स्वर में कहा।
"तुम मेरी बात को मजाक समझ...।"
"नहीं देवली। मैं जानता हूँ कि तुम सही कह रही हो। लेकिन तुमने यह बताने में देर कर दी।"
"देर कर दी? क्या मतलब?"
"मतलब कि यह बात शाम को ही रूपा ने मुझे बताई है।"
"रूपा ने बताई तुम्हें यह बात?" उधर से देवली ने हैरानी भरे स्वर में पूछा, " और... और तुमने उसे कुछ नहीं कहा?"
वालिया ने घूँट भरा और शांत स्वर में बोला-
"तुम्हें यह सब कैसे पता चला?" वालिया ने कठिनता से अपने पर काबू पा रखा था। वह जैसे रो लेना चाहता था।
"यह सब क्या हो रहा है अजय? जो तुम्हारी पत्नी है, वही तुम्हें...।"
"इस वक़्त मैं तुमसे बात नहीं कर सकता। आऊँगा तुम्हारे पास।"
"वह तुम्हारे पास बैठी है?" देवली ने पूछा।
"नहीं।"
"तो फिर तुम मुझसे बात क्यों नहीं करते। रूपा ने ऐसा क्यों किया? जब उसने तुम्हें बताया तो तुमने उसे कुछ नहीं कहा?"
"नहीं।"
"हैरानी है। तुम्हें तो उसका गला काट देना चाहिए था।"
वालिया ने गहरी साँस ली।
"क्या हुआ?" उधर से देवली की आवाज आई।
"मैं तुमसे कल मिलूँगा।"
"अजय, तुम मुझसे ठीक से बात क्यों नहीं कर...।"
तब तक वालिया ने फोन बंद कर दिया।
■■■
"जगतू!" देवली फोन करते कह उठी, "मामला कुछ जरूरत से ज्यादा गंभीर है।"
"मेरी जान, तूने तो मेरा दिल खुश कर दिया जगतू कहकर। बहुत देर बाद तेरे मुँह से जगतू...।"
"बकवास मत कर। मुझे लगता है वालिया मुसीबत में है।"
"क्या हुआ?"
"रूपा ने शाम को वालिया को बता दिया कि उसने ही बम लगाकर उसकी इमारतें उड़ाई थीं।"
"यह बात तेरे को वालिया ने कही?"
"हाँ!"
"हैरानी है कि रूपा ने इतनी बड़ी बात क्यों स्वीकार कर ली।" जगत पाल के माथे पर बल पड़े, "जरूर कोई बात है।"
"हाँ! इस वक्त वालिया भी मुझसे खुल कर बात नहीं कर रहा। बंगले में कुछ हो रहा है।"
दोनों की नजरें मिली।
"इन हालातों में हमारा बंगले में जाना ठीक नहीं होगा।" जगत पाल बोला।
देवली की निगाह वालिया के बंगले की तरफ उठी।
"वालिया के बाहर निकलने का इंतजार करते हैं।" जगत पाल का स्वर गंभीर था।
■■■
रूपा ने फोन पर महेश से बात की।
"उन तस्वीरों के नेगेटिव सुरक्षित रखना।" रूपा ने कहा।
"वह सम्भाल रखे हैं।"
"दीपक का कोई पता नही चला?"
"नहीं!" महेश की आवाज कानों में पड़ी, "तुम्हें दीपक के बारे में पता करना चाहिए। तुम ही दीपक को लायी थी।"
"मैंने दीपक के घर पहले भी फोन किया था और कुछ देर पहले भी किया है। वह अपने घर नहीं पहुँचा।"
"क्या पता पहुँचा हो। तुमने उसके घर जाकर देखा?"
"मैंने फोन पर उसकी माँ से बात की है। दीपक ने मुझसे पैसा भी लेना है। वह इस तरह गायब नहीं हो सकता।"
"दीपक का गायब हो जाना गंभीर बात है।"
"तुम लोग कहाँ पर हो?" रूपा ने पूछा।
"होटल में।"
"उस फ्लैट पर तो नहीं गए?"
"नहीं!"
"यह ठीक किया। वहाँ जाना ठीक नहीं होगा। क्या पता दीपक किसी की नजर में आ गया हो।" रूपा ने सोच भरे स्वर में कहा, "खैर तुम लोगों ने दिल्ली में बहुत अच्छा काम किया। अगले दो दिनों में यह काम खत्म हो जाएगा।"
"तुम्हारा मतलब कि सिर्फ दो दिन में यह काम खत्म। हम बाकी का पैसा लेकर जा सकेंगे?" महेश के स्वर में खुशी थी।
"हाँ! लगता तो ऐसा ही है। तुम दोनों होटल में ही रहना। बिना वजह बाहर मत निकलना।"
उसके बाद रूपा ने वासु को फोन किया।। बात हो गयी।
"कहाँ हो वासु?"
"आपने मुझे वापस जाने को कहा था।"
"मुम्बई आ जाओ। पैसा साथ ले आना। आज रात ही चल पड़ो वहाँ से। परसों मुझे फोन पर पहुँचने की खबर देना।"
"जी। आपको अभी और कितना काम है मुम्बई में?"
"क्यों पूछा?"
"यहाँ पर सब यही जानते हैं कि आप अमेरिका में अपनी बहन के पास गई हैं। यहाँ हर कोई आपको पूछ रहा है। वह गुस्से में है कि आपने एक बार भी फोन नहीं किया।" वासु की आवाज कानों में पड़ी।
"प्रेम की फिक्र मत करो। इसके अलावा कोई खबर?"
"चुनाव की तैयारियाँ शुरू हो रही हैं। आपकी जरूरत है यहाँ। हर कोई रानी साहिबा को पूछ रहा है कि वह कब वापस आयेंगी?"
"मैं तुम्हारे साथ ही परसों वापस चलूँगी वासु।"
"यह तो अच्छी खबर है रानी साहिबा।"
रूपा ने फ़ोन बन्द कर दिया। चेहरे पर गंभीरता नाच रही थी।
एकाएक रूपा उठी। सीढ़ियाँ चढ़कर पहली मंज़िल पर उस कमरे में पहुँची जहाँ वालिया मौजूद था। उसने दरवाजा खोला और कमरे के भीतर झाँका। वालिया व्हिस्की पी रहा था। सामने रखी बोतल आधी हो चुकी थी। उसके चेहरे पर नशा ही नशा था।
आहत पाकर वालिया ने नशे से भरा चेहरा दरवाजे की तरफ घुमाया। दोनों की नजरें मिली।
रूपा के शांत चेहरे पर गंभीरता थी, जबकि वालिया के चेहरे पर कड़वी मुस्कान तैर गयी।
"तुम नागिन हो, नागिन।" स्वर में नशे की भरभराहत थी।
रूपा ने पीछे हटते हुए दरवाजा बंद किया और आगे बढ़ गयी। सामने से मुरली आया तो रूपा बोली-
"साहब पी रहे हैं। उन्हें पेट भरकर पीने दो। उनसे ज्यादा बात मत करना। जब खाना माँगे तो दे देना। दरवाजे के बाहर ही रहो।"
"जी मालकिन।"
■■■
अगले दिन दस बजे रूपा ने कठिनता से अजय वालिया को नींद से उठाया। अगर उसे न उठाया जाता तो शायद वह दोपहर के बाद ही उठता। कमरे में व्हिस्की की स्मेल अभी तक फैली थी।
वालिया कठिनता से अपनी आँखें खोल पाया।
सुर्ख सी हो रही थी उसकी आँखें। चेहरे पर नशे में डूबे होने के निशान थे। एक तरफ बोतल लुढ़की पड़ी थी, जिसमें इंच भर शराब बची थी। रूपा मुस्कुराकर कह उठी-
"उठ जाओ। दिन के दस बज रहे हैं। आज तुम्हें कुछ काम करने हैं।"
"तुम हरामजादी हो।"
"नाराजगी से कोई फायदा नहीं होगा। उन तस्वीरों को याद करो तो तुम्हें सब कुछ ठीक लगेगा।"
उस पल मुरली ट्रे में चाय का प्याला रखे भीतर आया।
"लो बेड टी पी लो। इससे तुम्हें ठीक से सोचने में सहायता मिलेगी।"
वालिया उठ बैठा।
मुरली, वालिया को चाय देकर चला गया।
"तुमने बहुत गलत किया मेरे साथ।" वालिया ने चाय का घूँट भरा।
रूपा मुस्कुराती हुई कुर्सी पर बैठ गयी।
"कम से कम यह तो बता दो कि आखिर तुमने किस बात का बदला लिया है?" वालिया बोला।
"पहले वो काम करो जो अब मैं तुम्हें बताने जा रही हूँ।"
"नहीं। पहले तुम बताओ कि मैंने ऐसा क्या किया?"
"पुलिस को बुलाऊँ?" रूपा ने कड़वे स्वर में कहा, "जगन्नाथ सेठी की हत्या में फँसना चाहोगे?"
वालिया होंठ भींचकर रह गया।
"तुम्हें वही करना होगा जो मैंने कहा है।"
"बहुत बुरी हो तुम।" वालिया ने नफरत भरे स्वर में कहा।
"बहुत देर बाद तुम्हें इस बात का पता चला।" रूपा हँस पड़ी।
उसे देखते हुए वालिया ने चाय के घूँट भरा।
"गलती मेरी थी। मैं तुम्हें पहचान न पाया। मेरी आँखों पर तुम्हारी खूबसूरती का पर्दा पड़ा था।"
"अब सुनो, तुम्हें क्या-क्या करना है।"
वालिया उसे देखने लगा।
"तुम्हारे पास मुम्बई में छः जमीनें हैं, जहाँ पर तुम्हारी इमारतें बन रही थीं, जिन्हें मैंने तबाह कर दिया। वे कीमती जगहों पर जमीनें हैं। मैं नहीं चाहती कि तुम उन जमीनों को बेचकर फिर से अपने को जमा सको।"
वालिया उसे देखता रहा।
"तुम्हें वह जमीनें दान देनी होंगी। अपने वकील को फोन करो और कागज तैयार करने को कहो।"
"यह नहीं हो सकता। उन जमीनों का मालिक मेरा पार्टनर भी है।"
"जमीनें तुम्हारे नाम पर हैं।"
"तो क्या हो गया?"
"तुम कानूनी तौर पर उन जमीनों को बेच सकते हो, किसी को भी दे सकते हो।"
"मेरा पार्टनर...।"
"मैं तुम्हारे पार्टनर को नहीं जानती। तुम्हें जानती हूँ।" रूपा ने कठोर स्वर में कहा, "तुम्हें मेरी बात माननी होगी।"
"यह गलत होगा। मेरा पार्टनर मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा।" वालिया ने परेशान स्वर में कहा।
"तुम मर भी जाओ तो क्या फर्क पड़ता है।" रूपा ने कड़वे स्वर में कहा, "अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो मैं अभी पुलिस को फोन करूँगी। जगन्नाथ सेठी की हत्या के जुर्म में तुम्हें गिरफ्तार करवा दूँगी। मेरे पास पक्के सबूत हैं तुम्हारे हत्यारे होने के।"
"तुमने मुझे बर्बाद तो कर दिया है।" वालिया की आँखों में पानी चमक उठा, "जो थोड़ा-बहुत बचा है वह रहने दो मेरे पास।"
"मैं तुम्हें पूरी तरह बर्बाद करने आई हूँ और पूरा ही बर्बाद करके जाऊँगी।"
"आखिर क्यों? तुम बताती भी तो नहीं।"
"कब मेरी बात सुनो। अपने वकील को फोन करो, वह कागज तैयार करेगा। एक जमीन तुम अनाथ आश्रम को दान दोगे। दूसरी अंध विद्यालय को, तीसरी रैन बसेरा के लिए, जिन्हें सर्दियों में रहने के लिए घर नहीं मिलता, और ठंड में मर जाते हैं। चौथी जगह विधवा और बेसहारा औरतों के लिए आश्रम। पाँचवी जगह मंदिर के नाम पर दान दोगे। छठी जगह ओल्ड एज होम, यानी कि बूढ़े लोगों के नाम और दान दोगे, जिन्हें बुढ़ापे में रहने-खाने को नहीं मिलता और उनकी औलादें उन्हें घर से बाहर निकाल देती हैं। यह जगह बुढ़ापे में तुम्हारे काम भी आएगी, जब तुम बूढ़े हो जाओगे। रैन बसेरा सर्दियों में तुम्हारे काम आएगा। तुम भी वहाँ रह सकोगे। तुम्हारी जिंदगी मजे में बीतेगी वालिया।"
वालिया टकटकी बाँधे रूप को देखे जा रहा था। रूपा उठी और एक तरफ रखा उसका फोन उठाकर वालिया के सामने फेंका।
"अपने वकील को फोन करो। किस-किस संस्था को जमीनें दान करनी हैं, इसका फैसला तुम्हारा वकील कर लेगा। उसे कहना कि शाम तक तुम्हारे कागज तैयार होकर, तुम्हारे पास होने चाहिए, और उन कागजों के साथ कल तुम कोर्ट में पेश होगे। वहाँ पर उन संस्थाओं के लोग भी होंगे, जिन्हें जमीनें दान दी जा रही हैं। यानी कि कल दोपहर तक यह काम खत्म हो जाना चाहिए। चलो वालिया, वकील का नंबर मिलाओ।"
वालिया का चेहरा हल्दी की तरह पीला पड़ा हुआ था।
"एक मिनट में तुमने वकील को फोन नहीं किया तो मैं पुलिस को...।"
वालिया ने फोन उठा लिया और वकील का नम्बर मिलाने लगा।
वालिया वकील से बात करता रहा। रूपा सुनती रही। जब वालिया ने फोन बंद किया तो रूपा के चेहरे पर तसल्ली के भाव थे।
"तुम्हारे इस बंगले की मुझे चिंता नहीं है वालिया। इसे तो दीपचंद तुमसे ले ही लेगा।"
"आखिर मेरा कसूर क्या है?" वालिया फीके स्वर में कह उठा, "सजा देने से पहले तो भगवान भी कसूर बता देता है, परन्तु तुम तो मुझे यह भी नहीं बता रही।"
रूपा उठी और कमरे से बाहर निकल गयी।
■■■
अगले दिन दोपहर के एक बजे वालिया कोर्ट से बाहर निकला। उसे उन संस्थाओं के लोगों ने घेर रखा था, जिन्हें उसने जमीनें दान दी थीं। एक-दो अखबार के रिपोर्टर भी थे, जो उसकी तस्वीरें ले रहे थे।
वालिया को समझ नहीं आ रहा था कि वह रोये या हँसे।
महेश और रंजन भी वहाँ थे। उस पर नजर रखने के लिए कि वह काम ठीक से कर रहा है या नहीं। परन्तु वालिया ने वैसा ही काम किया था जैसा कि रूपा चाहती थी।
सब ठीक देखकर महेश और दीपक वहाँ से चले गए।
वालिया सब से जान छुड़ाकर अपनी कार के पास पहुँचा। ड्राइवर हीरा कार के पास ही खड़ा था। तभी वालिया ठिठक गया। चेहरे पर कई भाव आकर चले गए।
कार के पास देवली खड़ी थी। वह तुरंत वालिया के पास आ पहुँची।
"यह सब क्या हो रहा है वालिया?" देवली बेचैनी से कह उठी, "तुमने अपनी सारी जमीनें दान दे दीं।"
वालिया की आँखों से आँसू बह निकले।
"तुमने ऐसा क्यों किया? क्या तुम रूपा के दबाव में ऐसा कर रहे हो? मुझे बताओ।"
वालिया ने आँखों से बहते आँसू साफ किये।
"तुमसे क्या कहूँ देवली। मैं पूरी तरह बर्बाद हो गया।"
"मुझे बताओ, क्या बात है?"
"अब कुछ नहीं हो सकता।"
"तुम अभी मुझे नहीं जानते। मैं सब कुछ कर सकती हूँ।" देवली की आवाज कठोर हो गयी, "मुझे बताओ अजय?"
वालिया ने दूर खड़े हीरा को वहाँ से चले जाने का इशारा किया।
हीरा चला गया।
"रूपा ने तुम्हारी सारी इमारतें तबाह की। अब तुमने अरबों रुपये की महँगी जमीनें दान दे दीं। यह सब क्या हो रहा है?"
"रूपा ने मुझे अपने शिकंजे में जकड़ लिया है।" वालिया थके स्वर में बोला, "वह खतरनाक औरत है।"
देवली के दाँत भिंच गए।
"मुझसे ज्यादा खतरनाक नहीं होगी अजय। बताओ उसने क्या किया?"
"उसने... उसने मेरे हाथों खून करवा दिया।"
"खून?"
"हाँ! उसके पास इस बात के सारे सबूत हैं कि मैंने खून किया है। मुझे उसकी हर बात माननी पड़ रही है।"
"लेकिन उसने ऐसा क्यों किया? वो क्यों तुम्हारे साथ...।"
"मुझे कुछ नहीं पता। लेकिन इतना जानता हूँ कि वह मुझसे किसी बात का बदला ले रही है। उससे शादी करके मैंने अपने को बर्बाद कर लिया। बहुत बड़ा धोखा खाया मैंने।"
देवली के चेहरे पर खतरनाक भाव नाचने लगे थे।
"अजय, मुझे बताओ।"
वालिया, देवली को देखता रहा।
"मैं तुमसे प्यार करने लगी हूँ अजय। तुम्हारी सब परेशानियाँ मैं दूर करूँगी। सब कुछ ठीक करने का दम है मुझमें।"
"अब कुछ ठीक नहीं हो सकता।" वालिया ने दुखी स्वर में कहा।
"सब ठीक हो जाएगा। तुम मुझे बताओ कि क्या मामला है सारा?"
वालिया को इस समय देवली बहुत बड़ा सहारा लग रही थी। वालिया जानता था कि इस वक़्त उसके लिए देवली मात्र तिनके का ही वजूद रखती है। परन्तु उस जैसे डूबते इंसान को तिनके का सहारा ही बहुत बड़ा लगा। सब कुछ बता दिया वालिया ने देवली को।
शुरू से अंत तक की बात। जगन्नाथ सेठी की हत्या करने की बात भी।
देवली ने सब कुछ सुना। अब वह उतना जान गई जितना कि वालिया जानता था।
देवली के चेहरे पर गुस्सा और गंभीरता थी।
"तुम्हारे साथ तो रूपा ने सच में बहुत बुरा किया।"
"बहुत ही बुरा।"
"क्यों किया?"
"यह बात उसने अभी तक नहीं बताई। मेरे पूछने पर भी नहीं बताई। ज्यादा पूछता हूँ तो पुलिस बुलाने को कहती है।"
"तो रूपा ने खुद को जगन्नाथ सेठी की भागी हुई बेटी बताया।"
"हाँ!"
"काश, यह बात तुमने मुझसे पहले की होती तो मैं तुम्हें बता देती कि वह जगन्नाथ सेठी की बेटी रूपा नहीं हो सकती।"
"तुम जगन्नाथ सेठी को जानती थी?" वालिया ने पूछा।
"छोड़ो इस बात को। मैं यह सोच रही हूँ कि मैं इस मामले में क्या कर सकती हूँ।"
"तुम कुछ नहीं कर सकती। कोई भी कुछ नहीं कर सकता। रूपा के पास इस बात के सबूत हैं कि मैंने जगन्नाथ सेठी को मारा है।"
"कुछ तो कर ही सकती हूँ।"
"क्या?"
"पता नहीं क्या।" देवली सोच भरे स्वर में बोली, "तुम अब बंगले पर जा रहे हो?"
"हाँ! रूपा ने सीधे बंगले पर आने को कहा था। उसकी बात माननी पड़ी रही है मुझे।" वालिया ने परेशान स्वर में कहा।
"ठीक है, तुम जाओ अजय!"
वालिया, देवली को देखने लगा।
"मैं तुमसे फिर मिलूँगी।"
वालिया ने गहरी साँस ली और कह उठा-
"मैं जानता हूँ, तुम अब कभी नहीं मिलोगी मुझसे। हत्यारे से, कंगाल आदमी से कौन मिलना पसन्द करेगा।"
देवली ने वलिया के बुझे चेहरे को देखा फिर उसका गाल थपथपाकर प्यार से कहा-
"मैं तुमसे प्यार करती हूँ अजय!"
वालिया ने देवली को देखा।
"सच में। मेरी बात का विश्वास करो। यह प्यार रूपा जैसा नहीं है, देवली जैसा है। वक़्त आने पर तुम्हें विश्वास आ जायेगा। मैं तुमसे मिलूँगी, जल्दी मिलूँगी।" देवली ने कहा और पलटकर वहाँ से चली गयी।
वालिया को जाने क्यों, इस वक़्त सब झूठे और मक्कार लग रहे थे।
■■■
देवली कुछ दूर खड़ी कार में जा बैठी। उसकी ड्राइविंग सीट पर जगत पाल मौजूद था।
"चलूँ?" जगत पाल ने बोरियत भरे स्वर में पूछा।
"हाँ!" देवली ने सीट के पुश्त से सिर टिकाकर आँखें बन्द कर लीं।
जगत पाल ने कार आगे बढ़ाते हुए कहा-
"तू क्यों यहाँ खामखाह वक़्त खराब कर रही है। कानपुर चलते हैं और पहले वाली जिंदगी फिर शुरू करते हैं।"
"जगतू!" देवली ने आँखें खोलते हुए कहा, "हमारा आखिरी काम कौन सा था, जो हमने मिलकर किया था?"
"रहने दे। वह काम खराब हो गया था।"
"बता। बात कर।"
"नेवले ने दिल्ली से खबर भेजी थी कि आ जाओ। यहाँ बढ़िया काम है। हम दोनों दिल्ली गए। वहाँ अरबपति सेठ जगन्नाथ सेठी की बेटी रूपा का अपहरण किया। साल भर पहले की बात है यह।"
"फिर?" देवली गंभीर थी।
"फिर क्या? हमने फिरौती के लिये सेठ जगन्नाथ सेठी को फोन किया। 50 करोड़ माँगा। वह तीस देने को तैयार हो गया। लेकिन नेवले ने सारा काम बिगाड़ दिया। रूपा की इज्जत पर हाथ डाल दिया। इज्जत बचाने के लिए रूपा ने पूरी ताकत से नेवले का मुकाबला किया। एक युवती को अपने पर हावी होते देख कर नेवला पागल हो गया और उस हमारी ने रूपा का गला दबा दिया। मार दिया उसे। हम वहाँ पहुँचे तो नेवला रूपा के पास मौजूद था। 30 करोड़ हाथ से गया। हमने खामोशी से उस जंगल में रूपा की लाश को जमीन में दफन किया और कानपुर वापस आ गए। उसके बाद नेवले से नहीं मिले।"
"साल भर पहले गलती से रूपा, नेवले के हाथ मर गयी थी।"
"छोड़, पुरानी बात हो गयी यह।"
"तेरे को पता है, वालिया से शादी करने वाली युवती का नाम भी रूपा है और उसने अपने बारे में वालिया से कहा कि वह सेठ जगन्नाथ सेठी की घर से भागी हुई बेटी है।"
"अच्छा! साली, बड़ी हरामी है।"
"वालिया को पैसों की जरूरत थी। उसने दिल्ली जाकर सेठ जगन्नाथ सेठी की हत्या कर दी।"
"और वह उसकी बीवी का बाप नहीं था।" जगत पाल हँस पड़ा।
"हँस मत। मामला गम्भीर है।"
देवली, जगत पाल को सारी बात बताने लगी। सब कुछ जानने-सुनने के बाद जगत पाल बोला-
"हमारा इस मामले से क्या वास्ता? वालिया तो बर्बाद हो गया।"
"मैं वालिया को इस मुसीबत से निकालना चाहती हूँ।"
"पर क्यों?"
"वो मुझे अच्छा लगता है। मैं उसे परेशानी में नहीं देख सकती।" देवली ने गंभीर स्वर में कहा।
"सब कुछ तो अब खत्म हो गया। वालिया के पास जमीनें बची थीं वह भी रूपा ने दान में दिलवा दी अब।"
"रूपा ने अभी तक वालिया को अपने बारे में नहीं बताया कि वह कौन है और क्यों उसने ऐसा किया।"
"तो?"
"वालिया की खातिर मुझे इस बात का जवाब चाहिए।"
"पागल है तू जो इस मामले में पड़ रही है।"
"तूने पागल बनना है तो मेरे साथ रह, नहीं तो कानपुर वापस चला जा।"
जगत पाल ने लम्बी गहरी साँस ली।
"मैं तेरे को कानपुर ले जाने के लिए मुम्बई आया, तेरे को ढूँढा और...।"
"तो फिर मेरा साथ दे।"
"ठीक है!" जगत पाल ने बुरा मुँह बनाया, "उसके बाद तू कानपुर चलेगी।"
"जरूर।"
"मेरी टाँगों पर बैठेगी पहले की तरह।"
"जरूर।" देवली मुस्कुरा पड़ी।
"खुश किया तूने अपनी जगतू को। तेरी खातिर तो कुएँ में भी छलांग लगा दूँ।"
देवली गंभीर सी दिखने लगी।
"क्या है तेरे दिमाग में?"
"जगतू!" देवली ने कहा, "मेरे ख्याल में उस रूपा का काम खत्म हो गया है।"
"उसके पास सबूत है कि वालिया ने जगन्नाथ सेठी की हत्या की है। वह उसका इस्तेमाल करेगी।"
"वो कुछ भी कर सकती है। वह जो भी है, काफी बड़ी चालबाज है। लेकिन यह तो पक्का है कि उसका काम अब लगभग समाप्त हो गया है। वह देर-सबेर में अपने ठिकाने के लिए चल देगी।"
जगत पाल ने सोच भरे अंदाज में अपना सिर हिलाया।
"हाँ! वह वालिया को बर्बाद करने आई थी। कर दिया उसने। अब ज्यादा से ज्यादा वह यह कर सकती है कि वालिया को जगन्नाथ सेठी की हत्या के जुर्म में फँसा दे। उसके बाद तो वह फुर्र हो जाएगी।"
"मैंने देखना है कि वह कहाँ फुर्र होती है।"
जगत पाल ने गर्दन घुमाकर देवली की तरफ देखा।
"क्या फायदा?"
"मेरे दिमाग में बहुत कुछ है जगतू। परन्तु इतनी बड़ी साजिश करके वह कहीं छिप नहीं सकती। मैं देखना चाहती हूँ कि आखिर वह है कौन। कहाँ से आई है और क्यों उसने वालिया को बर्बाद किया।"
"यह सब तू वालिया के लिए कर रही है?"
"हाँ!"
"उससे प्यार तो नहीं करने लगी तू?"
"नहीं! वह भला और शरीफ इंसान है। इस वक़्त हालातों ने उसे और घबरा दिया है। मेरे से जितना हो सकेगा, मैं उसकी सहायता करूँगी। मत भूलो की साल भर मैं उसके साथ रही हूँ। वह मुझे किसी भी तरफ से बुरा इंसान नहीं लगा। इस पर भी रूपा ने उसे भीख माँगने की हद तक कंगाल कर दिया तो क्यों किया उसने ऐसा?"
"अभी बंगला तो बचा है वालिया का।" जगत पाल ने कहा, "उसकी रोटी-पानी चल जाएगी।"
"बंगला गिरवी है, 50 करोड़ में।"
"तौबा। फिर तो वालिया का पूरा काम कर दिया उसने।"
"तू मेरा साथ देगा?"
"जरूर मेरी जान।" जगत पाल उसे देखते हुए मुस्कुरा पड़ा।
■■■
अजय वालिया बंगले में पहुँचा। रूपा ने मुस्कुरा कर उसका स्वागत किया।
"आ गए महादानी बनकर।"
वालिया ने बुझी-बुझी निगाहों से रूपा को देखा।
"अब तुम पूरी तरह खाली हो गए वालिया। मैं तुम्हें अर्श से फर्श तक ले आयी।" कहते हुए रूपा गंभीर हो गयी, "यही मेरा मकसद था कि मैं तुम्हारे साथ कुछ ऐसा करूँ कि जिसे तुम जिंदगी भर भूल न सको।"
"बहुत खुशी हो रही होगी तुम्हें अपना मकसद पूरा करके।" वालिया ने शब्दों को चबाकर कहा।
"हाँ, सच में!" रूपा गंभीर थी, "बहुत खुश हूँ मैं।"
"तो अब मुझे वो नेगेटिव दे दो जो...।"
"वो तो पुलिस को मिलने चाहिए वालिया।"
वालिया सिर से पाँव तक काँप उठा।
"पुलिस! तुम... तुम।"
"घबरा गए?" रूपा के चेहरे पर जहरीली मुस्कान थिरक उठी।
वालिया ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"इस बारे में तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं।" रूपा ने हँसकर कहा, "वो नेगेटिव मैं पुलिस को नहीं दूँगी। मेरे पास सुरक्षित रहेंगे नेगेटिव। दोबारा कभी तुम मेरे रास्ते में आये तो जगन्नाथ सेठी की हत्या का सबूत मुम्बई पुलिस को सौंप दूँगी।"
वालिया ने उलझन भरी निगाहों से रूपा को देखा।
"दोबारा?" वालिया के होंठों से निकला।
"हाँ दोबारा! क्योंकि अब अब मेरा काम खत्म हुआ। मुझे यहाँ से जाना होगा।" रूपा बोली।
"तुमने बहुत बुरा किया मेरे साथ।"
"हो सकता है कि तुमने इससे भी बुरा किया हो मेरे साथ।" रूपा शांत स्वर में कह उठी।
"नहीं! मैंने तुम्हारे साथ कभी कुछ नहीं किया। मैंने पहले कभी तुम्हें देखा तक नहीं।"
"फिर तो मैं पागल हूँ जो यह सब तुम्हारे साथ किया।" रूपा का स्वर कड़वा हो गया।
"तुम बताओ मुझे कि तुमने किस बात का बदला मुझसे लिया है?" वालिया तेज स्वर में बोला।
"यह न बताना भी तुम्हारी सजा का हिस्सा है।"
"क्या मतलब?"
"इंसान को अगर पता चल जाये कि उसे किस बात की सजा मिली है तो देर-सवेर के बाद वह शांत हो जाता है। मन में यही बात बिठा लेता है कि शायद उसे ठीक ही सजा मिली होगी। परन्तु सजा मिलने और भुगतने के पश्चात भी जब इंसान को यह पता न चले कि उसे किस बात की सजा मिली है तो यह बात किसी सजा से कम नहीं। सारी जिंदगी वह इसी बात को लेकर तड़पता रहेगा कि आखिर उसे किस बात की सजा दी गयी।"
अजय वालिया होंठ भींचे रूपा को देखता रहा।
"समझे तुम कि तुम्हें यह नहीं बताना कि मैंने यह सब क्यों किया, तुम्हारे लिए यह भी सजा है।"
"तुम ऐसा नहीं कर सकती। तुम्हें सब कुछ बताना पड़ेगा कि तुमने यह सब क्यों किया मेरे साथ।" वालिया चीखा।
"तुम्हें मुझसे कुछ भी पता नहीं चलेगा। मैंने तुम्हें कुत्ता बनाकर रख दिया। तुम्हारे पास न तो बिज़नेस रहा, न ही घर। छोटा काम तुम कर नहीं सकते और बड़ा करने लायक तुम हो नहीं।" रूपा मुस्कुरा पड़ी, "मैं तुम्हें...।"
"तुम आखिर हो कौन?" वालिया का चेहरा गुस्से से भर चुका था।
"मैं जानती हूँ कि तुम अब जिंदगी भर यह पता लगाते रहोगे कि मैं कौन थी। परन्तु मुझ तक पहुँचना आसान ही नहीं असम्भव है। अगर मुझ तक पहुँच भी गए तो तुम्हें अपना मुँह बन्द रखना पड़ेगा तब भी। क्योंकि जगन्नाथ सेठी की हत्या का सबूत मेरे पास है कि उसे तुमने ही मारा है।"
वालिया भस्म कर देनी वाली निगाहों से रूपा को देखता रहा।
"मैं चाहूँ तो तुम्हें हमेशा के लिए जेल में सड़ा सकती हूँ। परन्तु इसमें मजा नहीं आएगा। मजा तो तब आएगा जब तुम भूखे-नंगे भटक कर अपनी जिंदगी बिताओ और हर पल, हर साँस के साथ मुझे याद करते रहो। और यह सोचते रहो कि मैंने तुम्हें किस बात की सजा दी है।" रूपा की आवाज में कठोरता आ गयी।
"तुम बहुत बुरी औरत हो।"
"यह बात तुम सारी जिंदगी कहते रहोगे। लोगों को बताते रहोगे और तड़पते रहोगे।"
"तुम जो भी हो, मैं तुम्हें छोड़ूँगा नहीं।" वालिया गुर्रा उठा।
"जरूर! लेकिन इसके लिए तुम्हें मुझे तलाश करना होगा और तुम मुझ तक नहीं पहुँच पाओगे।"
तभी रूपा का फोन बजा।
"हेलो!" रूपा ने बात की।
"रानी साहिबा!" वासु की आवाज कानों में पड़ी, "मैं होटल में पहुँच चुका हूँ। आप कब आ रही हैं?"
रूपा ने फोन बन्द करके वापस रखा और वालिया से बोली-
"अब हमारे जुदा होने का वक़्त आ गया है वालिया।"
"मुझे बताओ, तुमने मुझे क्यों बर्बाद किया?"
"तलाशते रहो सारी जिंदगी इस बात का जवाब। और जवाब तुम्हें मिलेगा नहीं।"
वालिया दाँत पीसकर रूपा पर झपटा। तभी रूपा के हाथ में रिवॉल्वर नजर आने लगी। वालिया ठिठक गया।
"ये तुम्हारी ही रिवॉल्वर है वालिया, और वह लोग बहुत ही अभागे होते हैं जो अपनी ही रिवॉल्वर से मारे जाते हैं।"
वालिया के भिंचे होंठ से गुर्राहट निकली।
रूपा ने रिवॉल्वर वापस अपने कपड़ों में रखी और पलटकर बाहर की तरफ बढ़ती चली गयी।
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देवली और जगत पाल बंगले के बाहर ही मौजूद थे। उन्होंने रूपा को कार से बाहर आते देखा।
"यह कहाँ जा रही है?"
"चल पीछे।" जगत पाल ने कार स्टार्ट करते हुए कहा।
फिर वे दोनों कार पर रूपा के पीछे लग गए।
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