रिंग रोड पुलिस स्टेशन में !



लेडी कांस्टेबल इंटेरोगेशन रूम के दरवाजे पर अधीरतापूर्वक प्रतीक्षा करती मिली ।



रंजीत को देखते ही तेजी से उसके पास आ पहुंची ।



–" भगवान का शुक्र है, आप आ गये, सर ।"



–"क्यों ?" रंजीत ने पूछा–"क्या हुआ ?"



–"उसे और ज्यादा देर यहां रोके रखना मुमकिन नहीं है । बड़ी मुश्किल से रोक पायी हूं, बहाने बना–बना कर ।"



–"उसका बयान ले लिया ?"



–"यस, सर ! उसमें कोई खास बात नहीं है । मेरे पास उसकी कार्बन कॉपी है ।"



लेडी कांस्टेबल ने कॉपी दे दी ।



रंजीत पढ़ने लगा ।



पच्चीस वर्षीया रजनी राजदान के घर और ऑफिस के पते और फोन नम्बर्स के बाद लिखा था–राकेश मोहन से उसकी मुलाकात करीब साल भर पहले हुई थी । तभी से उनका अफेयर चल रहा था । हफ्ते में दो बार उससे मिलती रही थी । उसकी जानकारी के मुताबिक राकेश पेशे से ड्राइवर था लेकिन वह यह नहीं जानती थी, किसके लिये काम करता था अलबत्ता उसका ख्याल था कि वह फ्रीलांसिंग करता था । जब जो बुला लेता उस के लिये काम करने लगता था और उसका ख्याल था कभी–कभी रेसिंग कारों को भी टैस्ट ड्राइव के लिये ले जाता था ।



वे हमेशा राकेश के फ्लेट में ही मिला करते थे । कोई दर्जन भर रेस्टोरेंटों के नाम भी उसने बताये थे, जहां राकेश उसे ले जाया करता था । वे सभी एक्सक्लूसिव तो नहीं थे मगर खासे महंगे जरूर थे । उसने उन फिल्मों के नाम भी बताये थे जो हाल के महीनों में उन्होंने देखी थीं । राकेश अक्सर शहर से बाहर जाता रहता था–पांच–सात रोज के लिये । आखिरी दफा जब राकेश गया तो वह जानती थी कोई महीना भर बाहर रहेगा । राकेश ने आज की मुलाकात पहले ही तय कर ली थी और तीसरे पहर अपने फ्लेट में आने को कहा था । महीने भर में राकेश ने उसे तीन पिक्चर पोस्टकार्ड भेजे थे–एक काठमाण्डू से, दूसरा नेपालगंज से और पिछले हफ्ते तीसरा बीरगंज से । आखिरी पोस्टकार्ड में लिखा था–लुकिंग फारवर्ड टु नैक्स्ट थर्सडे एज अरेंज्ड वीयर ब्लू ।



रंजीत को कुछ याद आया ।



–"कार्ड में लिखा था–वीयर ब्लू । लेकिन वह तो बैंगनी सलवार सूट पहने है ।"



लेडी कांस्टेबल ने स्वयं को शरमा गयी जाहिर करने की कोशिश की लेकिन पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकी ।



–"उसका मतलब अण्डरगारमेंट्स से था, सर !"



–"कोई कोड तो नहीं है यह ?"



–"जी नहीं, मैं चैक कर चुकी हूं..."बेचारी बुरी तरह शरमा गयी थी । नीचे स्काई ब्लू पैंटीज और ब्रेसियर ही पहने है ।"



–"तुम्हारी अपनी क्या राय है उसके बारे में ?"



–"अच्छी लड़की है ।"



–"ठीक है, उसे बाहर भेज दो ।"



लेडी कांस्टेबल चली गयी ।



दो–तीन मिनट बाद ।



रजनी राजदान सर झुकाये बाहर निकली । चेहरे पर थोड़ी रंगत वापस लौट आयी थी । लगता था लेडी कांस्टेबल के कहने पर उसने अपना मेकअप थोड़ा ठीक कर लिया था ।



पुलिस स्टेशन पहुंचते ही रंजीत ने जान–बूझकर अपना ड्राइवर वापस भेज दिया था । वह सीधा लड़की की ओर बढ़ गया ।



–"हलो !"



रजनी ने उसे देखा । मानों पहचानने की कोशिश कर रही थी ।



–"यहां आने से पहले जब तुम राकेश के फ्लैट में थी, मैंने वहीं तुम्हें देखा था...पुलिस की जांच के दौरान । मैं बाद में पहुंचा था ।" रंजीत बोला–"याद आया ?"



उसने निचला होंठ चबाते हुये धीरे से सर हिला दिया ।



–"हाँ ।"



–"घर जा रही हो ?"



रजनी ने जवाब नहीं दिया ।



–"लिफ्ट चाहिये ?" रंजीत ने पूछा ।



–"अ...आपकी तारीफ ?"



– मेरा नाम रंजीत मलिक है । क्राइम ब्रांच में इंसपेक्टर हूं । खूबसूरत लड़कियों की परेशानी दूर करना मेरा शौक है ।"



वह तनिक मुस्करायी ।



–"शुक्रिया ! बहुत–बहुत शुक्रिया ! आप सब लोग बहुत...!"



–"अच्छे हैं ?"



–"हां, जबकि मैंने सुना था पुलिस वाले अच्छे नहीं हुआ करते ।"



–"मुझे खुशी है, इस बहाने पुलिस वालों के बारे में तुम्हारी राय तो बदल गयी । आओ ।"



रजनी उसके साथ चल दी ।



दोनों रंजीत की कार के पास पहुंचे ।



उसे अगली सीट पर सवार कराकर रंजीत ड्राइविंग सीट पर बैठ गया । उसने पहली बार महसूस किया अगर वह इस कदर शॉक्ड नहीं होती तो यकीनन इंतिहाई खूबसूरत नजर आती और चाहे जो भी रहा हो राकेश मोहन की लड़कियों के मामले में पसंद वाकई काबिलेतारीफ थी ।



–"तुम ठीक तो हो ?"



रजनी स्वयं को सामान्य बनाने की कोशिश करती प्रतीत हुई ।



–"हां...!" गहरी सांस लेकर बोली–"दरअसल ये सब इतना अचानक...मैं अभी भी यकीन नहीं कर पा रही हूँ ।"



–"जानता हूं । हम आये दिन ये सब देखते रहते हैं ।"



–"दूसरे लोगों के साथ हुआ होता ।"



–"हां ! पुलिस विभाग में आने के बाद हमें इस स्थिति से निपटना सीखना पड़ता है । फिर धीरे–धीरे आदत पड़ जाती है । लेकिन दूसरों पर जो गुजर रही होती है उसे भी हम समझते हैं और हर मुमकिन मदद करने की कोशिश करते हैं ।"



–"मैं पहली बार ऐसे किसी हादसे से गुजर रही हूं ।"



–"मुझे तुमसे हमदर्दी है । घर जाना चाहती हो ?"



–"चाहती तो नहीं । लेकिन जाने के लिये और कोई जगह भी तो नहीं है ।"



–"तुमने लंच लिया था ?"



–"एक सादा डोसा खाया था ।"



–"मुझे भी भूख लगी है ।" रंजीत इंजिन स्टार्ट करता हुआ बोला–"पहले कुछ खाते हैं फिर तुम्हें घर छोड़ दूंगा । घर में और कौन–कौन है ?"



–"कोई नहीं ।"



–"अकेली रहती हो ?"



–"हां !"



–"माता–पिता ?"



–"दोनों हैं । कीरतपुर में रहते हैं ।"



–"वो कहां है ?" औसत रफ्तार से कार ड्राइव करते रंजीत ने पूछा ।



–"करीब तीन सौ मील दूर एक कस्बाई शहर है ।"



–"तुम्हें वो जगह पसंद नहीं है ?



–"नहीं ।"



–"तुम्हारे माता–पिता राकेश से मिले थे ?"



इस नाम के जिक्र से रजनी का चेहरा पल भर को कठोर हो गया ।



–"नहीं ।"



–"उसे जानते भी नहीं थे ?"



–"बिल्कुल नहीं ।"



–"तुमने बताया नहीं था ?"



–"नहीं ।"



–"वजह ? जेनेरेशन गैप ?"



रजनी ने आह–सी भरी ।



–"नहीं ! लैक ऑफ कम्युनीकेशन !"



–"ओह, समझा । तुम्हारी उसके साथ नहीं बनती । गलती किसकी थी–तुम्हारी या उनकी ?"



–"दोनों की ।"



रंजीत ने इस बारे में ज्यादा कुरेदना ठीक नहीं समझा ।



–"तुम्हारा कोई और रिश्तेदार हैं यहां ?"



–"नहीं ।"



–"कोई नज़दीकी दोस्त या सहेली ?"



–"ऑफिस में है ।"



–"उनमें से कोई दो–तीन रोज तुम्हारे साथ रह सकता है ?"



–"लीना है । वह हमेशा कहा करती है...।"



–"उसे टेलीफोन करके बुला लेंगे । तुम्हें अकेली छोड़ना मैं नहीं चाहता ।"



—"मैं समझती हूं । लेकिन मैं सुसाइड टाइप नहीं हूं । न ही उन लोगों में से हूं, जो अपने गम शराब में घोलने की कोशिश करते हैं ।"



–"तुम्हें भी राकेश की मौत का गम तो है ही ।"



–"वो तो होना ही है । दरअसल राकेश और मैं यंग लवर्स बिल्कुल नहीं थे ।"



–"फिर ?"



–"हमारे आपस में जिस्मानी ताल्लुकात तो थे लेकिन मैं प्यार नहीं करती थी उससे ।"



इस सीधी और साफ बात ने रंजीत को चकरा दिया ।



–"तुम्हारा मतलब है, उससे कोई जज्बाती लगाव तुम्हें नहीं था ?"



–"जो चाहो मतलब निकाल सकते हो ।"



–"लेकिन तुम अक्सर मिला करते थे और काफी वक्त साथ गुजारते थे ।"



–"सच्चाई जानना चाहते हो ?"



–"हां ।"



–"हम अक्सर हम बिस्तर हुआ करते थे...लेकिन इससे मेरे बारे में कोई गलत या घटिया राय कायम मत कर बैठना ।"



यह बेबाक जवाब रजनी की शख्सियत से मेल खाता नहीं लगा । आमतौर पर जिस बात को लड़कियां छिपाने या नकारने की कोशिश करती हैं या फिर गोलमोल ढंग से बताती हैं, उसे वह साफ कबूल कर रही थी–बगैर किसी शर्म या संकोच के ।



–"हफ्ते में दो या तीन बार और वीकएण्ड में भी कभी–कभार हम मौज–मेला किया करते थे ।" रजनी का कथन जारी था–"हमारे बीच जिस्मों का रिश्ता था, दिमागों का नहीं । राकेश के दिमाग को समझ पाना नामुमकिन था । वह कभी खुलकर बातें नहीं करता था अपने बारे में ।"



–"और तुम इसने संतुष्ट थी ?"



–"इसमें सुकून और राहत तो थे ही । किसी के साथ होने का अहसास अच्छा ही लगता है । बिस्तर में भी उसकी परफारमेंस बढ़िया थी । हम एक–दूसरे के लिये बिल्कुल फिट थे । इसमें जिंदगी की एकरसता की बोरियत नहीं थी । रोजमर्रा का रूटीन–सुबह उठो, तैयार होकर ऑफिस जाओ, रोज वही काम करो, शाम को वापस लौटो, खाओ–पिओ, टी. वी. देखो और सो जाओ । हफ्ते में दो बार राकेश से मिलकर बदल जाता था । मुझे उसमें कभी कोई बुराई नहीं नजर आयी । रोटी, कपड़ा और मकान की तरह सैक्स भी जरूरी जरूरत है ।"



–"मैंने तो सोचा था किसी पब्लिशर के लिये काम करना...!"



–"यह किसी के लिये भी काम करने जैसा ही है । मैं एडीटोरियल सेक्रेटरी हूँ और यह किसी की भी सेक्रेटरी होने जैसा ही



रंजीत को बायीं ओर एक रेस्टोरेंट का बोर्ड नजर आ रहा था । बहुत बढ़िया तो वो नहीं था, लेकिन स्नैक्स बढ़िया मिलते थे वहां ।



–"उतनी अच्छी जगह तो यह नहीं है जहां तुम जाने की आदी थीं ।" वह कार पार्क करता हुआ बोला–"लेकिन चीजें लजीज मिलती हैं ।"



–"खाने की चीजें टेस्टी ही होनी चाहिये । जहां तक मेरा सवाल है मैं कहीं जाने की आदी नहीं हूं । राकेश जिन जगहों पर मुझे ले जाता था, मैं हमेशा नर्वस ही हुआ करती थी वहां ।"



दोनों कार से उतरकर भीतर दाखिल हो गये ।



रेस्टोरेंट साफ–सुथरा था । सिर्फ चार मेजों पर ही कस्टमर मौजूद थे । दोनों पीछे एक मेज पर जा बैठे ।



रंजीत ने वहां रखा मेन्यु कार्ड उठाकर रजनी को दे दिया ।



–"मेक यूअर च्वाइस ।"



वेटर आया ।



रजनी ने बर्गर चिप्स और कॉफी का ऑर्डर दे दिया ।



वेटर द्वारा आर्डर सर्व किये जाने तक दोनों खामोश बैठे रहे ।



–"क्या मुझे हिरासत में लिया जायगा ?" अचानक रजनी ने पूछा ।



–"तुमने कोई जुर्म किया है ?"



–"नहीं ।"



–"फिर क्यों पूछ रही हो ?"



–"राकेश से अपने ताल्लुकात की वजह से ।"



–"वो कोई जुर्म नहीं है ।"



–"लेकिन कड़ी पूछताछ की जायेगी । पुलिस मेरे साथ सख्ती से पेश आयेगी । मुझे बार–बार पुलिस स्टेशन बुलाकर परेशान किया जायेगा ?



–"जरूरी नहीं है । अगर एतराज न हो तो क्या मैं कुछेक सवाल पूछ सकता हूं ?"



–"पूछिये ।"



–"राकेश मोहन से तुम्हारी पहली मुलाकात कब हुई थी ?"



–"करीब बाईस महीने पहले ।"



–"कहां ?"



–"गोल्डन ईगल बीयर बार में ।"



–"मेरी सहेली मीना रमानी के पास मारुति कार है । शनिवार या इतवार की शाम हम दोनों अक्सर शॉपिंग, सैर–सपाटा वगैरा करने जाया करती थीं । तभी एक शाम राकेश हमें बार में मिला ।"



–"वह अकेला था ?"



–"हां ! बार में भीड़ की वजह से हम दोनों को उसकी मेज पर बैठना पड़ा । आपस में परिचय हुआ । बातचीत शुरू हो गयी । थोड़ी देर बाद मीना टायलेट चली गयी । तब उसने मेरा टेलीफोन नम्बर पूछा । मैंने बता दिया । अगले रोज उसने फोन किया । मेरी जिंदगी में कोई खास दोस्त नहीं था । जबकि राकेश हैंडसम खुशमिजाज और दिलचस्प युवक था । इसलिये मैं उसके साथ डिनर के लिये चली गयी और फिर उसके अपार्टमेंट में । इस तरह ताल्लुकात शुरू हो गये ।"



–"बस, इसी तरह ?"



–"बिल्कुल । मुझे बहुत अच्छा लगा । किसी की होने का अहसास नया और बढ़िया था । जैसा कि मैंने बताया, प्यार हममें नहीं था । लगाव और शारीरिक आकर्षण था । तबसे कोई और मेरी जिंदगी में नहीं आया । हालांकि मुझे यकीन है उसके और भी दो–एक दूसरी लड़कियों से सम्बन्ध थे ।"



–"यह यकीन तुम्हें कैसे हुआ ?"



–"छोटी–मोटी बातें नोट करके । मसलन–उसके कंधों पर नाखूनों की हल्की खरोंचों से जो मेरी बनायी हुई नहीं थीं जनाना परफ्यूम की बोतल से जो कि मेरी नहीं थी । दो–एक बार उसके बिस्तर के नीचे लेडीज पेंटीज और ब्रा भी मैंने देखी थीं जो मेरे साईज की बिल्कुल नहीं थीं । एक दफा उसकी ड्रेसिंग टेबल में ऐसी लिपस्टिक और नेल पालिश भी मैंने देखी थीं जो मेरी हर्गिज नहीं थी । क्या इतनी बातें काफी नहीं हैं नतीजा निकालने के लिये ?"



–"तुमने इसका जिक्र किया था कभी उससे ?"



–"नहीं ।"



–"उसकी किसी सहेली या दोस्त से मिली थीं ?"



–"कभी नहीं ।"



स्वर की दृढ़ता से रंजीत को वह सच बोलती नजर आयी ।



–"तुम्हारी मौजूदगी में कभी कोई उससे मिलने आया था ?"



–"नहीं ।"



–"टेलीफोन कॉल्स आती थीं ?"



–"मुझे याद नहीं पड़ता ।"



–"अगर कभी याद आये तो मुझे बता दोगी ?"



–"जरूर !"



रंजीत ने उसे अपने ऑफिस और घर के फोन नम्बर और पता नोट करा दिये ।



–"तुमने अपने बयान में कहा है, उसके पेशे या काम–धंधे के बारे में कुछ नहीं जानती और मुझे बताया है, वह कभी कुछ नहीं बताता था । क्या तुमने कभी जानने की कोशिश नहीं की ?"



–"नहीं !"



–"क्यों ?"



–"ऐसा करने की कोई तुक ही नहीं थी । मैं बता चुकी हूं उसने यह बात पहले ही साफ कर दी थी । वह अक्सर कार रेसिंग और विदेशी कारों के बारे में तो बात करता था लेकिन उसने शुरूआत में ही क्लीयर कर दिया था, जब भी वह मेरे साथ होगा मेरे अलावा किसी और बात के बारे में सोचेगा भी नहीं । एक–दूसरे की पर्सनल लाइफ से कोई लेना–देना नहीं होगा । मैंने उसकी बात मान ली थी ।"



रंजीत को वो सारी सिचुएशन समझ आ गयी, मगर उसके दिमाग के एक कोने में एक सवाल भी कीड़े की तरह कुलबुला रहा था ।



रजनी सुन्दर और आकर्षक होने के साथ–साथ पढ़ी–लिखी होशियार लड़की भी थी । कस्बाई शहर छोड़कर महानगर में आ गयी–संभवतया मां–बाप से मतभेदों के कारण । किसी भी महानगर की तरह करीमगंज ने भी उसे रोजगार तो दे दिया, साथ ही तेज रफ्तार और भागमभाग भरी महानगरीय जिंदगी ने उसे असुरक्षा एकरसता और अकेलेपन के तनाव की सौगात भी दे दी । इससे निजात दिलाने के लिये तो उसे राकेश मिल गया लेकिन इस सारे सिलसिले को लेकर वह जितनी ज्यादा सहज लग रही थी वो अपने आपमें खटकने वाला था । उस उम्र में रोजी कमाने का वसीला मिलने के बाद आमतौर पर लड़कियाँ शादी करके सैटल होने के बारे में सोचा करती हैं । जबकि वह जिस्मानी ताल्लुकात कायम करके ही खुश थी । राकेश को ही या उसकी बजाय किसी और को उसने शादी के इरादे से क्यों नहीं पकड़ा ?



यह सही था ऐसा न करने की दर्जनों वजह हो सकती थीं । फिर भी यह सवाल अपने आपमें खटकने वाला तो था ही ।



रंजीत ओर ज्यादा कुरेदने की बजाय उसे घर छोड़ने चला गया ।



सुभाष मार्ग पर वो एक पुरानी बहुमंजिला इमारत थी, जिसमें ज्यादातर टू रूम सैट्स थे । खासतौर पर कामकाजी महिलाओं और पुरुषों के लिये ।



रंजीत ने प्रवेश द्वार के पास कार रोक दी ।



–"ऊपर चलना चाहते हो ?" रजनी ने पूछा ।



रंजीत यकीनी तौर पर तो नहीं कह सकता था लेकिन उसके स्वर में उसे सैक्सुअल इन्वीटेशन का पुट लगा ।



–"नहीं, अब में चलूंगा । तुम उस लड़की मीना को अपने साथ रहने के लिये बुला लोगी न ?"



–"हां !"



–"वादा करो । मैं तुम्हें अकेली छोड़ना नहीं चाहता ।"



–"मैं वादा करती हूं…!'



–"गुड !"



–"लेकिन तुम खुद ही क्यों नहीं ठहर जाते ?" रजनी ने पूछा फिर तनिक मुस्कराकर बोली–"ओह, समझी...घर में पत्नी इंतजार कर रही हैं ।"



–"मैं मैरिड नहीं हूं । होने वाला था लेकिन मेरी मंगेतर कुछेक हफ्ते पहले मंगनी तोड़कर चली गयी ।"



–"तब तो हम दोनों एक जैसे हो गये । यह अलग बात है मेरा इरादा कभी शादी करने का नहीं रहा था । फिर भी हम दोनों ही क्योंकि सिंगल हैं तो तुम ही मुझे कम्पनी क्यों नहीं दे देते ?"



–"इसलिये कि मेरा अफसर मेरे इंतजार में सूख रहा होगा ।"



रजनी पुन: तनिक मुस्करायी ।



–"पुलिस वाले भी डॉक्टरों की तरह होते हैं अपने पेशे के पाबंद !"



रंजीत मुस्कराया ।



–"तारीफ के लिये शुक्रिया ! मैं कल फोन करुंगा, यह जानने के लिये कि तुम सही–सलामत हो ।"



–"जरूर करना । मैं इंतजार करूंगी । थैंक्यू वैरी मच फॉर बर्गर, चिप्स, कॉफी !" वह कार से उतर गयी–"थैंक्स ए लॉट फॉर एवरीथिंग ।"



रंजीत उसकी ओर हाथ हिलाकर कार आगे बढ़ाता हुआ मन ही मन मुस्कराया । इस दफा स्पष्ट निमन्त्रण था लहजे में ।