सोहनलाल पिछले डेढ़ घंटे से कहर बरसा रहा था । जिस हिस्से में वो हैंडग्रेनेड फेंक रहा था, होटल का वो हिस्सा बुरी तरह तहस-नहस हो चुका हो गया था। चेहरा और बदन पसीने से लथपथ हो चुका था । बांहों में थकावट आ जाने के कारण हल्का-हल्का-सा दर्द हो रहा था। हाथ में पकड़ा हैंडग्रेनेट उसने पूरी शक्ति से फेंका । अंधेरे में कहीं चिंगारियों के साथ-साथ जोर से धमाका गूंजा।
एक ओर रखा सिगरेट का पैकेट सोहनलाल ने उठाया और सिगरेट सुलगाकर गहरा कश लिया । इतनी देर लगातार मेहनत करने के कारण, सिर में हल्का हल्का दर्द होने लगा था ।
तीन-चार कश लेने पर उसे राहत-सी महसूस हुई । मस्तिष्क में छाया तनाव कम हो गया । फिर वो खिड़की से बाहर होटल जय गणेश पर निगाह दौड़ाने लगा । जिसका बहुत बड़ा हिस्सा तहस-नहस हो चुका था।
सोहनलाल ने कमरे में निगाहे दौड़ाई ? अभी भी वहां पर काफी ज्यादा मात्रा में हैंडग्रेनेड मौजूद थे । नीचे गोलियां और हैंड ग्रेनेडों के धमाके बराबर कानों से टकरा रहे थे।
सोहनलाल ने फैसला किया, कुछ देर और हैंडग्रेनेड फेंकने के पश्चात नीचे आकर अपने साथियों की सहायता करेगा । क्योंकि हैंडग्रेनेडों से वो होटल को जितनी हानि पहुंचा सकता था, वो पहुंचा दी थी
सिगरेट समाप्त करके वो पुनः हैडग्रेनेड फेंकने लगा ।
ये काम करते हुए अभी दस मिनट भी न बीते होंगे कि कदमों की तेज आवाजें उसके कानों में पड़ने लगीं। वो ठिठका, तभी दरवाजे पर पूरे वेग से थपथपाहट होने लगी । उसकी आंखें सिकुड़ गयी।
"दरवाजा खोलो वरना तोड़ दिया जायेगा ।" बाहर से खूंखार स्वर सुनाई दिया ।
सोहनलाल ने होंठ काटते हुए नई सिगरेट सुलगा ली । निगाहें दरवाजे पर थीं, वहां बराबर थपथपाहट हो रही थी।
तोड़ दो दरवाजा ।
सोहनलाल के बदन में सिरहन दौड़ गई । आवाज पहचानने में उसे जरा भी कठिनाई न हुई । वो पाहवा के दायें हाथ महेश चन्द की आवाज थी ।
अगले पल दरवाजे पर जोर-जोर से धक्के पड़ने लगे।
तभी नीचे से आती आवाजों से उसे महसूस हुआ कि वहां लड़ने का अंदाज बदल गया है । पहले आ रही आवाजों को पहचान रहा था कि उसके साथी हावी है । लेकिन अब लग रहा था कि जैसे वो आवाजें दब गई हों और अन्य हथियारों के चलने की आवाजें वहां गरजने लगी थीं ।
उसी समय तेज आवाज के साथ दरवाजा टूटकर नीचे गिरा और धड़धड़ाते हुए दो आदमी भीतर आ गये । सोहनलाल ने फुर्ती के साथ हैंडग्रेनेड उठाकर फेंकना चाहा।
"बस हरामजादे बस ।" महेश चन्द का दहशत भरा स्वर उसके कानों से टकराया तो हैंडग्रेनेड वाला हाथ उठा ही रह गया।
दरवाजे के बीचो-बीच ब्रेनगन थामें महेश चन्द खड़ा था। उसकी आंखें खून उबल रही थीं। पीछे भी उसके गुर्गे खड़े थे जिनके हाथों में ब्रेन गनें मौजूद थी । दो गुर्गे जो कमरे के बीच आ चुके थे, अब उन्होंने जेब में से रिवाल्वर निकालकर, हाथ में ले ली थी ।
सोहनलाल किसी बुत की मानिंद खड़ा रह गया । सारा कमरा उसे घूमता-सा महसूस होने लगा । कमरे में हैंडग्रेनेडों का ढेर लगा था। अगर उसने हैंडग्रेनेड इन पर दे मारा तो, ये अपने हाथों में थमें हथियारों का इस्तेमाल करेंगे । इसी बीच ब्रेनगन से निकलने वाले छर्रे कमरे में ग्रेनेडों को लगेंगे और फिर शायद कुछ भी न बचे।
दो में से एक आगे बढ़ा और उसके हाथ से हैंडग्रेनेड ले लिया । सोहनलाल बेजान-सा खड़ा रह गया ।
महेश चन्द आगे आया और दांत भींचकर ब्रेनगन की नाल उसके पेट में मारी । सोहनलाल दोनों हाथों से पेट थामें, चीखकर दोहरा हो गया । मौत के भाव उसके चेहरे पर गहरे हो गये ।
"कुत्तिया की औलाद ।" कहते हुए महेश चन्द ने ब्रेनगन की नाल उसके गाल पर मारी। सोहनलाल चीखकर पीछे को गिरा। मुंह से खून भरा आया । जिसे थूका तो बीच में एक दांत भी था--- "तुम भूल गये कि किससे टकराने चले थे । पाहवा से टक्कर लेने और जीतने के लिए तुम लोगों को बीसियों जन्म लेने पड़ेंगे। दो-चार ये नन्हे-मुन्ने हथगोले फेंककर तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते । बांध दो कुत्ते को ।"
महेश चन्द के कहने की देर थी उसके हाथ-पांव बांध दिये गये ।
महेश चन्द क्रोध में पागल हो रहा था । उसका गुस्सा अपनी जगह वाजिब था । आगे बढ़कर उसने जोरदार लात सोहनलाल की पीठ पर मारी । सोहनलाल फिरकनी की तरह लुढ़क गया।
इतने सारे आदमी होने के बावजूद भी वहां मौत-सा सन्नाटा छाया रहा । सोहनलाल की भयभीत मौत से भरी निगाहें हर एक पर घूमती हुई महेश चन्द पर जाकर स्थिर हो रही थीं। मन ही मन उसे अपने पर क्रोध आ रहा था । मौत से बचने का एक चांस था उसके पास । हाथ में पकड़ी हैंडग्रेनेड को वो दरवाजा टूटते ही इन पर फेंक देता । मरना तो उसे था ही, लेकिन उसके साथ ये भी मर जाते, एक प्रतिशत चांस था कि वो किसी प्रकार खुद को बचा लेता । परन्तु वो सब तो बीती हुई सोचें थीं । जो होना था वो तो हो चुका था।
"इसके शरीर के साथ हैंडग्रेनेड बांधों और उसे खिड़की के बाहर वैसे ही फेंक दो, जैसे ये हैंडग्रेनेड फेंक रहा था ।" महेश चन्द ने शब्दों को चबाकर कहा ।
"न-हीं...।" महेश चन्द की बात सुनकर सोहनलाल की रूह फना हो गयी ।
लेकिन सोहनलाल की सुनने वाला वहां था ही कौन । बंधनों मे वो छटपटाकर रह गया, सबने अपने हथियार एक तरफ रखे, अपने काम में जुट गये । सोहनलाल आतंक भरी निगाहों से उन्हें देखने लगा । उसकी मौत का सामान उसकी आंखों के सामने इकट्ठा हो रहा था ।
वो चीखने लगा । चिल्लाने लगा । ऐसी भयावह मौत से छुटकारा पाने के लिए उन्हें गालियां देने लगा कि शायद कोई क्रोध में आकर उसे गोली मार दे । लेकिन कोई फायदा न हुआ । महेश चन्द की सुलगती निगाहें, सोहनलाल के आतंक भरे चेहरे पर ही टिकी रहीं।
पन्द्रह मिनट में सब अपने काम से फारिग हो गये। हैंडग्रेनेट की पिनें निकालकर उन्हें कपड़े के सहारे सोहनलाल के शरीर से बांध दिया गया था । कुछ ग्रेनेड उसकी कमीज के भीतर डाल दिये थे जो कि उसकी पीठ और पेट से टकराकर बदन में सिहरन पैदा कर रहे थे ।
"फैंक दो ।" महेश चन्द दाँत भींचकर सर्द सर में बोला ।
सोहनलाल की आंखें आतंक से फट गईं । वो इस तरह महेश चन्द को देखने लगा जैसे वो पागल हो गया हो । जब उसे उठाया गया तो वो चीखने-चिल्लाने, उछलने लगा । परन्तु बंधनों के कारण कुछ न कर सका।
वो उसे खिड़की के पास ले गये, फिर किसी रबड़ की भांति खिड़की से बाहर फेंक दिया । सोहनलाल की दहशत पूर्ण चीख उसके कानों में शीशे की तरह घुलती चली गई ।
नीचे गिरते हुए सोहनलाल का दिल उछलकर मुंह में जैसे आ पहुंचा । चारों तरफ मौत ही मौत उसे नजर आ रही थी नीचे आते हुए । आंखें फाड़कर नीचे देखा तो रूह कांप उठी। तभी तीव्रता के साथ उसका कंधा नीचे वाली मंजिल की खिड़की के छज्जे से टकराया।
सोहनलाल तड़फा, अंजाने में ही उसके बायें हाथ की उंगलियां छज्जे की मुंडेर पर जा टिकीं । उसके जिस्म को तीव्र झटका लगा और नीचे जाता शरीर रुक गया । सोहनलाल के मस्तिष्क में बिजली-सी कौंधी। दो क्षणों के बाद उसे अहसास हुआ कि क्या हो गया है । उसने फौरन दायें हाथ से भी छज्जा की मुंडेर थाम ली। पल भर के लिए उसे लगा कि वो बच गया है । बुरी हालत हो रही थी । सांस उखड़ रही थी । उसे अपना ही नहीं शरीर के साथ कपड़ों में लिपटे ग्रेनेड़ों का भी बोझ संभालना पड़ रहा था । चंद पलों की राहत के पश्चात उसने ऊपर देखा ।
जिस खिड़की से उसे फेंक गया था, वहां पर कोई भी नजर ना आया । सोहनलाल ने मन-ही-मन चैन की सांस ली । अगर ऊपर वालों को मालूम हो जाता कि, इत्तफाक से उसके हाथ में छज्जे की मुंडेर आ गई है और वो गिरने से बच गया है तो वो बड़े आराम से ग्रेनेट उठाकर उसकी खोपड़ी का निशाना लेकर उसे मार सकते थे । परन्तु सब ठीक था ।
सोहनलाल ने नीचे निगाहें मारीं तो जैसे जान ही निकल गई । वो बहुत ऊपर लटक रहा था । नीचे कारों की कतारें नजर आ रही थीं। और अंधेरे के सिवाय कुछ भी आंखों को नजर न आया । सोहनलाल के चेहरे पर आतंक के साए मंडरा उठे। उसने घबराकर आस-पास देखा। ऐसा कोई भी सहारा नहीं नजर न आया कि जिसको पकड़कर मुंडेर से छुटकारा पाकर खुद को बचा पाता। उसके चेहरे का रंग हल्दी की तरह पीला पड़ गया । मौत के भय से सारा चेहरा और शरीर पसीने से भर उठा । सिर के बालों से भी पसीने के पीलेपन का अहसास हुआ।
इतना तो वो समझ गया कि इस तरह ज्यादा देर मुंडेर थामे नहीं रह सकेगा । हाथ की उंगलियां अभी से दर्द करने लगी थीं। दिल कर रहा था कि मुंडेर छोड़ दे, परन्तु जान का मोह ऐसा न करने पर उसे मजबूर कर रहा था, लेकिन वो जानता था, इस प्रकार लटके रहने का सिलसिला ज्यादा देर नहीं चलने वाला । देर-सवेर में पीड़ा-दर्द और थकान के मारे उसे मुंडेर छोड़नी ही पड़ेगी ।
उसके बाद उसके जीवन का खेल खत्म।
एकाएक उसके शरीर को हल्का-सा झटका लगा । ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके शरीर का बोझ हल्का हो गया हो । कमर के साथ पेट पर बांधे ग्रेनेडों वाला कपड़ा खुल गया था और सारे ग्रेनेडों के फटने के धमाके उसके कानों में पड़े । सोहनलाल ने भगवान का नाम लेकर आंखें बंद कर लीं । ग्रेनेड़ों के जिस्म से जुदा होते ही, मस्तिष्क से मौत का आधा भय तो समाप्त हो गया था । परन्तु वो वहीं लटका था । इस बात का अहसास था कि ज्यादा देर इस प्रकार नहीं लटका रह सकेगा ।
सोहनलाल ने आंखें खोलीं। अब बचने का एक ही रास्ता था कि जिस मुंडेर पर पंजे गड़ाकर वो लटका था, उस छज्जे के ऊपर चढ़ जाये । इकलौती यही सूरत थी।
सोहनलाल ने हिम्मत इकट्ठी की । सिर से पांव तक वो दहशत से भर उठा कि हर हाल में उसे अपनी जान बचानी ही है । उसने पुनः सावधानी से छज्जे की मुंडेर पर दोनों हाथों की उंगलियां गड़ायीं और उछलकर कोहनियों को छज्जे पर अटकाना चाहा । बुरी किस्मत, हाथ की उंगलियां और दर्द करती कलाई तो पहले ही साथ छोड़ने को तैयार थी और पंजों के हिलते ही पंजो ने साथ छोड़ दिया ।
सोहनलाल ने समझने की बहुत चेष्टा की, परन्तु कुछ भी कामयाबी हासिल नहीं हुई । छज्जे पर से उसके हाथ छूट गये और वो पुनः भारी बोरी के साथ जमीन की तरफ गिरता चला गया ।
सोहनलाल के होंठों से दहशत भरी चीख निकल गई।
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सोहनलाल को ऐसा लगा जैसे कि किसी ने उसके कूल्हों पर तगड़ा-हथौड़ा दे मारा होगा ।
गिर तो वो सिर और पीठ के बल रहा था, परन्तु जब नीचे आकर उसका जिस्म टकराया तो वो कूल्हे थे, उसे ऐसा लगा जैसे उसके कूल्हे जमीन में धंस गये हो । होंठों से चीख भी नहीं निकली और उसकी आंखें बंद हो गयीं । चेतना लुप्त-सी हो गई । मस्तिष्क काफी हद तक ठीक-ठाक चल रहा था, परन्तु होश गुड़मुड़ थे । वो कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कि उसके साथ क्या हुआ है ? मरा वो नहीं था, इस बात का अहसास था उसे, परन्तु जिंदा कैसे बच गया, वो समझ नहीं पा रहा था । उसमें हिलने की भी शक्ति शेष न बची थी । पूरा जिस्म दर्द के कारण सुन्न पड़ा हुआ था । कूल्हे तो ऐसे लग रहे थे । जैसे हैं ही नहीं, जिस्म से जुदा होकर वो कहीं दूर जा गिरे हों।
वो बेजान-सा पांच मिनट तक वैसे का वैसा ही पड़ा रहा, फिर किसी प्रकार उसने पीड़ा से भरे टूटे जिस्म को संभाला, होंठों से दर्द भरी कराहें भी निकलीं । सोहनलाल ने आंखें खोलीं । चारों तरफ से अंधेरा ही अंधेरा नजर आया । धीरे-धीरे उसकी आंखें देखने के काबिल होने लगीं । हल्के से टटोलकर उसने अपने दाएं-बाएं का अहसास लिया । तब उसे लगा, कि वो जमीन पर नहीं है । मन-ही-मन वो चौंका, हैरान हुआ, जरा आंखें खोलकर उसमें दायें-बायें देखा।
वो मारुति कार की छत पर था और उसके गिरने से मारुति की छत एक फीट तक करीब इस तरह नीचे धंस गई थी कि वो उसमें बिल्कुल फिट आया पड़ा था । सोहनलाल ने आंखें बंद करके मन-ही-मन भगवान और मारुति कार को धन्यवाद किया, जिसने उसे बचा लिया था, ये एक बात थी कि खौफ और पीड़ा के मारे वो उठने के काबिल न था । यहां तक कि भरपूर चेष्टा के पश्चात भी वो छत पर बने गड्ढे से निकल नहीं पा रहा था ।
अथाह कड़ी और लम्बी मेहनत के पश्चात सोहनलाल कार की छत पर छुटकारा पाकर नीचे आया। मौत की भय और खौफ से उसकी टांगें कांप रही थीं । उसे अभी भी यकीन नहीं था कि वो बच निकला है । सिर उठाकर उसने ऊपर देखा फिर मन-ही- मन सिहर उठा । उल्लू के पट्ठे महेश चन्द ने तो उसे मारने में कोई कसर न नहीं छोड़ी थी, परन्तु बचाने वाला उससे बड़ा था।
सोहनलाल को अपने जिस्म के हिस्से अलग-थलग मालूम हो रहे थे । कुल्हे तो सुन्न ही पड़े हुए थे । जो कंधा गिरते समय छज्जे से टकराया था । उसका हाल बुरा था । कांपती टांगों का तो ऐसा हाल था, जैसे लगातार दो दिन दौड़ता रहा हो । वो साथ देने से इंकार कर रहे थे, परन्तु यहां भी ज्यादा देर खड़ा नहीं रहा जा सकता था । चारों तरफ खतरा-ही-खतरा था । महेश अपने आदमियों के साथ इस तरफ आ सकता था । वैसे उसके इस तरफ आने का चांस कम ही था, वो सोच भी नहीं सकता होगा कि सोहनलाल को ऊपर वाले ने बचा लिया है । परन्तु यहां खड़े रहना भी ठीक नहीं था । सोहनलाल ने अपने शरीर को सीधा किया, कार का सहारा छोड़ा । होंठों से दर्द भरी चीख निकल गई । लेकिन इस वक्त जिस्मानी हालत को भूलना ही बेहतर था।
सोहनलाल अपने शरीर की हालत को दुरुस्त करने के लिए धीरे-धीरे हाथ-पांव हिलाने लगा।
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जय गणेश की मेन द्वार का बहुत बड़ा हिस्सा तबाह हो चुका था । अब वो लोग हैंडग्रेनेड के साथ-साथ राइफल का भी प्रयोग कर रहे थे । एक घंटा तो शंकरदास अपने साथियों का साथ देता रहा । फिर उसने धीरे-धीरे दुश्मनों पर हमला करना बंद कर लिया ।
वो किसी तरह होटल में प्रवेश करके टाइम बम लगाना चाहता था । परन्तु उसे होटल में प्रवेश करने का मौका नहीं मिल रहा था ।
कुछ देर के पश्चात उसे मालूम हुआ कि एकाएक हथियारों की तेज आवाजें गूंजने लगी थीं । वो फौरन सीधा हुआ और चौड़ा- सा सिर उठाकर देखा। अगले ही पल उसे महसूस हो गया कि दुश्मनों ने उसके तीनों साथियों को घेर लिया है और उन पर गोलियां बरसाये जा रहे हैं । वो शायद इसलिए बच गया था कि उसने काफी देर से फायरिंग बंद कर रखी थी । कदाचित दुश्मनों ने सोचा होगा कि वो कब का अपनी जगह छोड़ चुका है ।
पीछे और बायीं तरफ से भी धमाकों की आवाजें कम हो गई थीं।
शंकर दास को महसूस हुआ कि वक्त गुजरता जा रहा है । कुछ ही देर में पाहवा के आदमी हर तरफ काबू पा लेंगे, फिर वो कुछ भी न कर सकेगा।
काफी देर से पुलिस सायरनों की आवाजें गूंज रही थीं । पुलिस कार पर लगी लाल लाइटें किसी फ्लैश की लाइट के समान चमक रही थी । इतना तो वो समझ चुका था कि पुलिस ने वो सारा इलाका घेर लिया है परन्तु अभी तक उस ओर से कोई एक्शन नहीं लिया गया था।
शंकरदास ने पीठ पर लटक रहा थैला नीचे रखा। राइफल पहले ही एक ओर रख दी थी । कपड़ों में से उसने राइफल निकालकर हाथों में ली, फिर कारों की ओट में छिपते-छिपाते, वहां इस हिस्से की तरफ बढ़ने लगा था, जहां सोहनलाल हैंडग्रेनेड फेंक रहा था, परन्तु अब हैंडग्रेनेड फेंकने बंद हो चुके थे । पाहवा के आदमी उसी टूटे-फूटे हिस्से में से बाहर निकल रहे थे । अब शंकर दास भी उसी हिस्से में होटल में प्रवेश करके वहां टाइम बम लगाना चाहता था।
कुछ देर बाद बिना किसी दिक्कत के उस जगह पर पहुंच गया । सोहनलाल ने वास्तव में अपना काम पूरा कर दिया था । हैंडग्रेनेड ने अपने कुछ इस ढंग से तबाही मचाई थी कि उस जगह की मरम्मत होना भी असंभव था ।
शंकर दास टूटी-फूटी इमारत और मलबे की तरफ बढ़ने लगा । अंधेरा इस काम में उसका सहायक हो रहा था । बारूद की गंध वहां तीव्रता से फैली हुई थी ? दूसरी ओर ब्रेनगन राइफलों और रिवाल्वरों के चलने की आवाजें उसके कानों में बिना रुके पटाखों के सामान पड़ रही थी । शंकर दास ने सावधानी से रिवाल्वर पकड़ा हुआ था । आंखें चीते के समान चौकन्नी और सतर्क थीं ।
मलबे के पास क्षण भर ठिठठकर उसने, जगन्नाथ मैन्शन की ग्यारहवीं मंजिल की ओर देखा, जहां से पहले सोहनलाल हैंडग्रेनेड फेंक रहा था । परन्तु वहां कुछ भी नजर न आया। शंकरदास को हैरानी हुई कि सोहनलाल कहां गायब हो गया ? परन्तु इन सोचों में उसने वक्त बर्बाद नहीं किया और मलवे को फलांगता हुआ मीनार की तरफ बढ़ गया ।
वहां कोई भी न था । सब बाहर मोर्चा सम्भालने में व्यस्त थे।
मलवा समाप्त हुआ तो शंकरदास एक कमरे में पहुंचा जो तहस-नहस हो चुका था । छत में दरारे उत्पन्न हो चुकी थीं, एक तरफ की दीवार बिल्कुल ही टूटी हुई थी । वो बिना रुके आगे बढ़ा ।
उस कमरे से बाहर निकलते ही उसे लम्बी गैलरी दिखाई दी । वो तेज-तेज कदम उठाता हुआ गैलरी में बढ़ गया । हैरानी की बात थी कि वहां कोई भी नजर नहीं आया । शायद हैंडग्रेनेड के भय के कारण इस तरफ का हिस्सा लोगों ने खाली कर दिया था। गैलरी के एक तरफ कमरों की कतार थी उसे पूरा यकीन था कि वे सारे कमरे पूर्णतया खाली होंगे।
गैलरी की समाप्ति पर, दायीं-बायीं तरफ मोड़ था । उससे पहले ही उसे लिफ्ट बनी दिखाई दी । शंकर ने लिफ्ट चैक की । वो चालू हालत में थी । बिना क्षण गंवाये वो भीतर प्रवेश कर गया और दूसरी मंजिल के लिए बटन दबाया ।
चंद क्षणों में ही वो दूसरी मंजिल पर था । वहां भी गैलरी थी पर पास ही मोड़ थे । रिवाल्वर संभाले वो आगे बढ़ा और आगे जाकर दायीं तरफ मुड़ गया । उसके पास आखिरी काम किसी ऐसी मुनासिब जगह टाइम बम लगाना था कि फटते ही होटल का हर हिस्सा उड़ जाये।
तभी सामने से होटल के दो कर्मचारी बदहवास से जाते दिखाई दिये । उसे देखते ही ठिठके, फिर हाथ में दबी रिवाल्वर देखते ही उनकी आंखें दहशत से चौड़ी हो गयीं । इससे पहले कि वो पलटकर भागते, शंकरदास ने दांत भींचकर दो बार ट्रेगर दबाया । दो धमाके हुए और दोनों चीखते हुए गिरकर तड़पने लगे । उनकी छातियों पर खून के धब्बे प्रकट हो गये।
अब शंकरदास लगभग भागने के से अंदाज में आगे बढ़ने लगा। रिवाल्वर की गूंज हर ओर गूंज गई होगी । कभी भी, किसी भी तरफ से खतरा आ सकता था ।
जाने किस किस रास्ते से वो गुजरता हुआ, होटल के बीच के हिस्से में जा पहुंचा, अभी तक कोई खतरा सामने नहीं आया, अलबत्ता, कुछ नई आवाजें उसके कानों में पड़नी आरंभ हो गई थीं। जाहिर था होटल में उसकी तलाश आरंभ हो चुकी है। खासतौर पर दूसरी मंजिल पर।
चूँकि वो होटल के बीच के हिस्से में पहुंच चुका था, इसलिए यहां पर आते-जाते लोग दिखाई दे रहे थे । वे वही थे जो होटल में ठहरे हुए मुसाफिर थे । परन्तु इस समय हर कोई मौत के भय से कांप रहा था । शंकरदास ने रिवाल्वर जेब में डाल ली । रिवाल्वर के कारण वो खामखाह किसी की निगाहों का केंद्र नहीं बनना चाहता था । अब उसकी निगाहें कोई ऐसी जगह तलाश कर रही थीं जहां बम लगाया जा सके ।
तभी उसे पाहवा के आदमी आते दिखाई दिये । उसके सामने होटल में ठहरने वाले एक मुसाफिर खड़े थे और उनके पास से कमांडो आ रहे थे ।
बहुत खतरनाक वक्त था । अगर उन्होंने देख लिया तो सारी योजना मिट्टी में मिल जायेगी । उसने फौरन आस-पास देखा। कुछ दूरी पर उसे एक बंद दरवाजा दिखाई दिया । सूखे होंठों पर जीभ करते हुए वो फौरन दरवाजे की तरफ लपका, हैंडिल पर हाथ रखकर दबाया तो दरवाजा खुल गया, वो तुरन्त भीतर प्रवेश कर गया और दरवाजे पर सिटकनी चढ़ा दी ।
लेकिन गड़बड़ हो चुकी थी । पाहवा के कमांडो की निगाह उस पर पड़ चुकी थी । वो भागते हुए वहां पहुंचे और दरवाजा खटखटाने लगा।
"दरवाजा खोलो वरना तोड़ दिया जायेगा ।"
"आयी मुसीबत ।" शंकरदास ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
"तुम बच नहीं सकते शंकरदास ।" बाहर से एक आवाज आई--- "मैंने तुम्हें पहचान लिया है । तुम चारों तरफ से घिर चुके हो । बेहतर होगा खुद को हमारे हवाले कर दो । दरवाजा खोलकर हाथ ऊपर उठा लो ।"
शंकरदास होंठ भिंचे दरवाजे को देखने लगा ।
"सुना नहीं तुमने वे लोग क्या कह रहे हैं ?" दरवाजा खोल दो ।"
शंकरदास उछलकर पलटा । पीछे वर्दी पहने वेटर खड़ा था। वो कमरा, होटल का स्टोररूम था । चूँकि उसके भीतर प्रवेश करते ही दरवाजे पर थपथपाहट आरंभ हो गई थी, इसलिए आस-पास निगाह दौड़ाने का उसे वक्त नहीं मिला था । वेटर ख़ौफपूर्ण निगाहों से उसे देख रहा था ।
शंकरदास की आंखों में कहर के भाव आ गये । उसने जेब में हाथ डालकर, रिवाल्वर निकाल ली । वेटर की आंखें आतंक से फट पड़ीं । इससे पहले कि वेटर उल्टी-सीधी उछल-कूद करता, शंकरदास उछला और रिवाल्वर के दस्ते का भरपूर प्रहार उसके सिर के पीछे के भाग में किया । अगले ही पल वेटर कराहकर, सिर थामे नीचे लुढ़कता चला गया।
मिलिट्री की नौकरी ज्वाइन करने से पहले ट्रेनिंग के दौरान उसे इन बातों का प्रशिक्षण दिया गया कि इंसान के सिर पर कहां वार करके बेहोश किया जा सकता है । वरना आम इंसान, तो सिर पर वार कर-करके सिर फोड़ दे और आदमी मर जाये, लेकिन बेहोश न हो सके । इस तरह बेहोश करने का एक खास आर्ट था, जिससे शंकरदास भलीभांति वाकिफ था।
"दरवाजा तोड़ दो, और अपने-अपने हथियारों पर काबू रखो । उसे देखते ही गोलियों से भून दो ।" बाहर से आती कठोर आवाज सुनाई दी । शोर और आहटों से उसे महसूस हो गया कि वहां अब ज्यादा आदमी इकट्ठे हो चुके हैं ।
दरवाजों पर भारी-भारी ठोकरें पड़ने लगीं ।
शंकरादास के जबड़ों में कसाव आ गया । आंखों में मौत के चिन्ह उजागर हो गये। जिस्म की मांसपेशियाँ तन गयीं । मौत दरवाजे पर दस्तक दे रही थी । उसने हिलते हुए दरवाजे को देखा फिर रिवाल्वर जेब में डालकर, कपड़ों में छिपाया । टाइम बम निकाल लिया।
अब बचने का कोई रास्ता नहीं था । लेकिन मरने से पहले वो इन सबकी मौत का इंतजाम भी कर देना चाहता था । टाइम बम के बाहर दिखाई दे रही तारों को उसने जोड़ दिया, टाइम बम की घड़ी की सुई में एकाएक हरकत हुई और वो टिक-टिक की आवाज के साथ आगे बढ़ने लगी । दरवाजे की थपथपाहटों में अब तेजी आ गई थी । जोरदार ठोकरें वहां पड़ रही थीं । शंकरदास ने एक बार भी दरवाजे की तरफ न देखा । उसने बम फटने का टाइम सैट किया जो कि अब से सिर्फ पाँच मिनट बाद का था । फिर उसने टाइम बम को चादरों के रैक के पीछे आहिस्ता से रख दिया।
उसे जयचंद पाटिया के शब्द याद आये--- इस टाइम बम में बहुत ज्यादा पावर है । अगर ये पाहवा के होटल में फट जाए तो वहां की एक-एक ईंट इस तरह अलग हो जायेगी कि उन्हें फिर से काम में न लाया जा सके ।
शंकरदास ने रिवाल्वर जेब में से निकाली और हिलते दरवाजे को देखने लगा। दरवाजे पर पड़ रही ठोकरें, उसे अपने मस्तिष्क में महसूस हो रही थीं । चेहरा पत्थर के समान सख्त और भावहीन हो चुका था, फिर वो निगाहें दौड़ाता हुआ, कमरे को देखने लगा । एकाएक उसकी निगाह सिकुड़कर सामने दीवार पर स्थिर हो गई । वहां पर दो-बाई-दो फुट का एक खाना दिखाई दे रहा था, जिस पर प्लाईवुड का पेन्ट किया, सरकने वाला छोटा-सा टुकड़ा लगा था।
शंकर बिल्ली के समान झपटकर आगे बढ़ा और प्लाई का वो छोटा-सा टुकड़ा, सरकाकर एक तरफ किया तो उसकी आंखें खुशी से चमकने लगी । वो दीवार के बीच लगा ऐसा खाना था, जिसमें से सामान दूसरी तरफ पहुंचाया जाता था । दूसरी तरफ से स्टोर रूम की तरफ ही कोई कमरा था । देर करना बेवकूफी थी । जिंदगी और मौत उसके सिर पर मंडरा रही थी । रिवाल्वर जेब में डाली और दो-बाई-दो फुट के खाने में पहले हाथ डाले, फिर सिर और किसी सांप की भांति रेंगता हुआ दूसरे कमरे में जा गिरा ।
इस कमरे में कोई भी नहीं था । शंकरदास का दिल छाती के साथ जोर-जोर से टकराने लगा । मौत को उसने पीछे धकेल दिया था, रिवाल्वर जेब से निकालकर हाथ में ले ली और आगे बढ़कर, हैंडिल दबाते हुए दरवाजा रफ्तार के साथ खोला और रिवाल्वर वाला हाथ आगे कर दिया ताकि द्वार पर दुश्मन घात लगाये बैठे हों तो उन्हें संभालने का मौका न मिले।
परन्तु बाहर कोई भी नहीं था ।
जिस कमरे में बम लगाया था । उसका दरवाजा दूसरी तरफ खुलता था और इस कमरे का दरवाजा दूसरी तरफ । किसी प्रकार का खतरा सामने नहीं आया । वो बाहर निकला और दरवाजा बंद करके दबे पांव आगे भागने लगा । ये छोटी-सी गैलरी थी । तभी पीछे से आती जोरदार आवाज उसके कानों में पड़ी तो वो समझ गया, दरवाजा टूट गया है, और वे लोग भीतर आ गये होंगे । वे फौरन समझ जायेंगे कि वो किस प्रकार फरार हुआ है । उसने घड़ी देखी । टाइम बम लगाइए साढ़े तीन मिनट बीत चुके हैं । डेढ़ मिनट के बाद वहां पर तबाही ही दिखाई देनी थी ।
शंकर दास तेजी से भागने लगा । वो इन दीवारों में फंसकर नहीं मरना चाहता था । उसने अपना काम पूरा कर दिया था । अब उसके सामने जिंदगी थी जिसे वो कहीं दूर शांति की जगह पर बिताना चाहता था, ये उसकी जिंदगी का आखिरी हंगामा था । तीरथराम पाहवा टाइम बम के ब्लास्ट के बाद बच नहीं सकेगा । वो जानता था कि पाहवा इसी होटल में है, अपने ऑफिस में है और इस विश्वास के साथ बैठा होगा कि उसके आदमी हर प्रकार की स्थिति पर काबू पा लेंगे । इंस्पेक्टर देशमुख के किए गए वायदे के अनुसार पाहवा की मौत होनी लाजमी थी, जो कि टाइम बम फटते ही हो जानी थी।
शंकरदास को दीवार पर लगी खिड़की दिखाई दी । वो तुरन्त ही उसके पास पहुंचा । खिड़की एक मंजिला ऊंची थी, परन्तु उसके पास लम्बाई-ऊँचाई नापने का वक्त ही नहीं था । वो चौखट पर चढ़कर कूदने ही वाला था कि उसके पास से गुजरती लोहे की पाइप दिखाई दी । उसने हाथ बढ़ाकर पाइप थामी और तेजी से नीचे सरकने लगा । रिवाल्वर उसके मुंह में दबा लिया था । दूसरी मंजिल समाप्त होते ही पाइप भी समाप्त हो गई । वो दीवार के भीतर कहीं जाकर लुप्त हो गई थी। शंकरदास ने पाइप से हाथ छोड़ दिया । वो सीधा नीचे जा गिरा और संभलते-संभलते भी लुढ़क गया।
फिर उठा और तीर की भांति भाग खड़ा हुआ । कुछ क्षण में ही उसे होटल का पिछला हिस्सा दिखाई दिया जिसे कि उसके आदमियों ने हैंडग्रेनेड़ों के द्वारा तबाह कर डाला था । शंकर दास को अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं आया कि वो बाहर आ गया है । उसका थक चुका शरीर, फुर्ती से भर गया। टाइम बम फटने में कोई वक्त नहीं रह गया था । वो किसी भी आने वाले सेकिंड में फट सकता था । वो उसी प्रकार दौड़ता हुआ होटल के पिछले ध्वस्त हिस्से में पहुंचा और मलवा फलांगते हुए वो बाहर की तरफ बढ़ने लगा । मलबे पर ही उसे कुछ लाशें दिखाई दीं, परन्तु उन्हें देखने बिना वो आगे बढ़ता रहा।
ज्योंही वो होटल के दायरे से बाहर पहुंचा । कान फाड़ देने वाला, जबरदस्त धमाका हुआ । जिसकी गूंज से कानों के पर्दे फटते हुए महसूस हुए । धरती का कंपन इस कदर तेज था कि वो लड़खड़ाकर नीचे जा गिरा । बिना वक्त गंवाये वो उठा और सामने भागा । शंकरदास इस जगह से दूर निकल जाना चाहता था। अभी चंद फिट आगे बढ़ा होगा कि तीव्र गति से आती ईंट उसके कंधे से टकराई, वो पूरी शक्ति से चीख उठा। उसके पांव उखड़ गये । उसका बदन कुछ आगे जाकर सड़क से टकराया और लुढ़कता हुआ सड़क के पार खड़ी कार से टकराकर रुक गया। शंकरदास गहरी-गहरी सांसे लेने लगा । बदन में कई जगह खरोचें आ गयी थीं । कपड़े कई जगह से फट गये थे । उसने कराहकर आंखें खोलीं और पाहवा के होटल की तरफ आंखें गढ़ा दीं । वातावरण में धूल ही धूल थी । आंखें खोलने में कठिनाई पेश आ रही थी, परन्तु उसने किसी तरह आंखें खोलकर देखा, पाहवा का होटल खंडहर हो गया था । उसके होंठों पर मुस्कुराहट उभर आई । वो जीत चुका था । वो विजेता था।
एकाएक मृत पड़ा वातावरण जिंदा हो उठा । पुलिस का तगड़ा घेराव फौरन हरकत में आ गया । सायरन पुनः चीखने लगे । कारों की हैडलाइटों रोशन हो गईं । वो सब धड़ाधड़ कारों से बाहर निकलने लगे।
शंकरदास की हालत अजीब-सी हो गई । पाहवा के होटल को तबाह करने के चक्कर में, वो भूल ही चुका था कि होटल को कब का पुलिस घेर चुकी है । अभी भी वक्त था कि वो निकल सकता था । जब रात का अंधेरा और बम की तबाही में व्यस्त पुलिस वालों की निगाह में धूल झोंक सकता था । उसके आस-पास कोई पुलिस वाला नहीं था । वो उठने की सोच ही रहा था कि, वही कार, जिससे टकराकर वो रुका था । उसका दरवाजा खुला । शंकरदास ने लेटे-ही-लेटे देखा, कार में से भारी बूट बाहर निकला, बूट उसके जमीन पर पड़ने लगे फिर भीतर वाले व्यक्ति ने आगे बढ़ाकर बूट सड़क पर टिकाया और बाहर आ गया।
तो क्या ये भी पुलिस कार है ?
फिर अन्य दरवाजे खोल कर दो और पुलिस वाले बाहर निकले और शंकरदास के गिर्द खड़े हो गये ।
शंकर दास उनके जिस्म पड़ी वर्दियां पहचान चुका था ।
"कौन हो तुम ?" एक पुलिस वाले ने अधिकार भरे स्वर में पूछा ।
शंकर दास ने कोई जवाब न दिया । उत्पन्न हो चुकी स्थिति पर हैरान था ।
"कार से टॉर्च निकालो ।" एक ने कहा, दूसरे ने कार की खिड़की में से हाथ डालकर, टार्च निकाली और रोशन करके रोशनी शंकरदास पर डाली।
शंकरदास आंखें फाड़े उसी प्रकार पड़ रहा।
रोशनी उसके चेहरे पर जाकर स्थिर हो गई ।
"य-यह तो शंकरदास है। तभी एक पुलिस वाले ने चौंककर कहा--- "कुछ दिन पहले ही जेल से फरार हुआ था। इसे फांसी की सजा हो चुकी है ।"
"नहीं-नहीं, मैं शंकरदास नहीं हूँ । शंकरदास ने चीखकर कहना चाहा, परन्तु होंठों से कोई शब्द न निकला । जुबान चिपककर रह गई थी ।
अगले ही पल उसके जिस्म से पुलिस रिवाल्वर सट गई । दूसरे पल एक पुलिस वाले ने सीटी होंठों में दबाकर बजा दी । फिर पुलिस के बूटों की आवाजों से वातावरण गूंज उठा । वहाँ धड़ाधड़ पुलिस वाले पहुंचने लगे ।
शंकरदास ने गहरी सांस लेकर आंखें बंद कर ली । सब कुछ समाप्त हो चुका था । अगर उसे मालूम होता कि उसकी आखिरी मंजिल फांसी का फंदा ही है तो वो पाहवा के होटल से कभी भी बाहर न आता । अपने ही लगाये बम में खुद भी समाप्त समाप्त होकर रह जाता । वो मिलिट्री मैन था । शान से जान देने में फक्र समझता था । अपनी जान दे देने से, फांसी तक उसे जो घुट-घुटकर जीना था, उससे बच जाता । परन्तु किस्मत का लिखा कौन मिटा सकता था।"
■■■
सोहनलाल टूटता-फूटता, जैसे-तैसे आगे बढ़ने लगा था । हिम्मत तो उसमें बहुत बची थी । परन्तु जिस्म साथ नहीं दे रहा था । एक निगाह उसने जय गणेश होटल के उस हिस्से पर डाली, जहां उसने ग्रेनेड फेंके थे । वहां की हालत देखते ही वह मन-ही-मन खुश हो गया । अगर उसकी हालत जरा भी काबिल होती तो अपनी पीठ होकर खुद को शाबाशी अवश्य देता परन्तु कराहकर ही उसने काम चलाया ।
अब ग्रेनेट के धमाकों के बीच फायरिंग की आवाजें भी शामिल हो गई थीं ।
सोहनलाल समझ गया कि पाहवा के आदमी संभलकर, हरकत में आने शुरू हो गये हैं । उसे शंकर दास का ध्यान आया । वो कहां होगा ? क्या कर रहा होगा ? अगले ही पल सोहनलाल ने सिर, झटककर शंकरदास का विचार अपने मस्तिष्क से निकाला। इस समय वो अपनी ही हालत देखने के काबिल नहीं था, शंकरदास के बारे में सोचने का क्या फायदा ? सोहनलाल का मन अभी वहां से जाने का नहीं कर रहा था परन्तु उसका शरीर, वहां ठहरने की इजाजत नहीं दे रहा था । उसे इलाज और डॉक्टर की आवश्यकता थी । उसके बाद आराम की । कोई और वक्त तथा हालात होते तो वो एक कदम भी न चलता । परन्तु यहां चारों तरफ मौत ही मौत थी, जिससे वो दूर हो जाना चाहता था।
सामने की तरफ से निकलने में भारी खतरा था । वहां ग्रेनेडों और गोलियों का इस्तेमाल ज्यादा हो रहा था । उसे कुछ भी हो सकता था और फिर पुलिस गाड़ियों के सायरन उसके कानों में बजने लगे थे । यानी कि पीछे से निकल जाना ही बेहतर था।
सोहनलाल जैसे-तैसे तेजी से आगे की तरफ बढ़ने लगा ।
पांच मिनट पश्चात वो जय गणेश के पिछवाड़े की सड़क तक पहुंचा तो वहां का दृश्य देखते ही ठगा-सा रह गया । फिर तेजी से दो कदम पीछे हटकर दीवार की ओट में हो गया । पल भर में ही उसके शरीर में छाया दर्द जाने कहां गायब हो गया । टूटा, झुका जिस्म एकदम सीधा हो गया। होंठ भिंच गये । चेहरे पर सोच और चिंता के भाव छाते चले गये।
सामने ही शंकरदास पुलिस के घेरे में था ।
वे ढेर सारे पुलिस वाले थे । शंकर दास उनके बीच बेबस खड़ा था । उसकी स्थिति देखकर ही, सोहनलाल समझ गया था कि शंकरदास गया, वो नहीं बच सकेगा पुलिस से। सोहनलाल की समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या करे और क्या कर सकता है । वो अकेला था और मात्र एक रिवाल्वर थी उसके पास । जबकि सामने शंकरदास को घेरे खड़े पुलिस वाले करीब चौदह थे और उसमें से चार के पास हथियार थे । वैसे भी सोहनलाल के अपने विचार थे कि पुलिस वालों के सामने तो छाती फुलाकर भी साँस नहीं लेनी चाहिये । कतराकर ही निकल जाना ठीक है । टकराने की तो बात ही बहुत दूर की थी परन्तु शंकरदास उनके सामने पुलिस के घेरे में था।
सोहनलाल होंठ भींचे सोच रहा था कि वो क्या कर सकता है । क्या एक रिवाल्वर के बलबूते पर चौदह पुलिस वालों का मुकाबला करके उसे बचा सकता है ? नहीं, शंकरदास को नहीं बचा सकता । इनके बीच में आने का मतलब खुद को ही मुसीबत में डालना । कहीं वो भी कानून के घेरे में जा फंसा तो, सारी उम्र जेल में ही पिघलकर रह जायेगा। सोहनलाल ने वहां से निकलने का फैसला किया । उसने जेब में पड़ी रिवाल्वर को थपथपाया । इस शहर की पुलिस की निगाहों में वो साफ था, सिवाय इसके कि पाहवा के इशारे पर पुलिस वालों को भी उसकी तलाश थी । वहां से पलटने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था । सामने की तरफ ज्यादा खतरा था । इधर कुछ ही पुलिस वाले थे, जिनसे बचकर निकला जा सकता था । वैसे भी अब उनका ध्यान शंकरदास जैसे मगरमच्छ की तरफ था, इसलिये उसकी तरफ ध्यान देने की फुर्सत ही किसे होगी ?
ये सोहनलाल का विचार था ।
सोहनलाल दीवार की ओट से निकला और धीरे-धीरे चलता हुआ सड़क पर आ गया था । उसे उन पुलिस वालों के और शंकरदास के पास से ही निकलना था, इस समय मात्र यही दिक्कत थी उसे । मस्तिष्क की विवशता बढ़ जाने के कारण उसके शरीर में कम ही पीड़ा हो रही थी । चाल भी काफी हद तक ठीक थी ।
"ऐ रुको ।" पुलिस वालों का तेज स्वर उसके कानों से टकराया, तब वो उनके करीब से गुजर रहा था ।
सोहनलाल के होंठ भिंच गये । फिर वो सामान्य चेहरा लिए पलटा ।
सबसे पहले उसकी निगाह शंकरदास से टकराई । सोहनलाल को सामने पाकर शंकरदास की आंखें चमक उठीं । उसे आशा की किरण नजर आने लगी कि शायद सोहनलाल उसे बचा ले।
हथियार लिए पुलिस वाला उसके पास पहुंचा ।
"कौन हो तुम ?" पुलिस वाले का स्वर बेहद सख्त था ।
"कौन हूँ ।" सोहनलाल ने माथे पर बल डालकर कहा--- "देख नहीं रहे, आदमी हूँ । तुम्हारे बोलने का ढंग ठीक नहीं है । मैं होटल के भीतर हो रही बमबारी से बचकर निकला हूँ । घायल हूँ । तुम्हें मेरे साथ सहानुभूति होनी चाहिये । लेकिन तुम तो ऐसे बात कर रहे हो, जैसे मैंने ही ये सब किया हो।"
पुलिसवाला कुछ ढीला हुआ ।
"ठीक है । ठीक है । अब जाओ यहां से ।" पुलिस वाले ने उसे चलता करने की चेष्टा की ।
सोहनलाल आगे बढ़ने को हुआ कि अन्य पुलिस वाले का स्वर सुनकर ठिठका।
"ये तो मुझे सोहनलाल जैसा लगता है ।"
"सोहनलाल ?" सोहनलाल के पास खड़े पुलिस वाले ने दूसरे पुलिस वाले को देखा ।
"वही, जिसकी पाहवा को तलाश है ।" हुलिया वैसा ही लगता है इसका ।"
सोहनलाल का दिल जोरों से धड़का ।
उसके पास खड़े पुलिस वाले ने उसे घूरा ।
"क्या नाम है तेरा ।"
"राम सिंह ।"
"असली या नकली ?" पुलिस वाले ने बेहद सख्त स्वर में कहा।
सोहनलाल ने धड़कते दिल को समझाया कि काबू से बाहर मत हो और हिम्मत करके तीखे स्वर में कह उठा ।
"तुम पुलिस वाले हो क्या हो ? कभी मेरा नाम पूछते हो । कभी मुझे सोहनलाल कहते हो । कभी मेरे नाम को नकली कहते हो । ज्यादा से ज्यादा थाने ही ले चलोगे न मुझे ? ले चलो ! वहां तुम सबको विश्वास दिला दूंगा कि मैं रामसिंह ही हूँ और मेरे बाप का नाम अमर सिंह है ।"
पुलिस वाला अनिश्चित-सा खड़ा रहा ।
शंकरदास की निगाह हर तरफ घूम रही थी ।
तभी उसके पास खड़ा पुलिसवाला निर्णायक ढंग से कह उठा ।
"सोहनलाल, पाहवा का दुश्मन है और सामने पाहवा का होटल उड़ाया जा रहा है । बात कुछ समझ में आती है । इसे थाने ले चलो । वहां जाकर इससे बात करेंगे । जीप में बिठा दो इसे।"
सोहनलाल की खोपड़ी उलट गई । वह समझ गया कि फंस गया । बुरे हाल फंसा । अगले ही पल सोहनलाल ने मन-ही-मन खुद को पक्का किया और शंकरदास को घेरे खड़े पुलिस वालों की तरफ तेजी से बढ़ा और उनमें मौजूद सब-इंस्पेक्टर के करीब पहुंचकर ठिठका ।
"इंस्पेक्टर साहब । ये तो ज्यादती है । किसी शरीफ नागरिक को बिना वजह परेशान किया जा रहा है ?...मैं...।"
"पुलिस स्टेशन चलकर बात करना ।" सब-इंस्पेक्टर ने रूखे स्वर में कहा और फिर पास खड़े पुलिस वालों से बोला--- "शंकरदास के हाथों में हथकड़ी डाल दो । कड़ी सुरक्षा में से थाने ले जाओ, मैं यहां से निपटकर पहुंचता हूँ ।"
तभी तैसे तूफानी हलचल-सी हुई ।
फिर सब कुछ थम गया ।
सोहनलाल की रिवाल्वर, सब-इंस्पेक्टर की कमर पर लग चुकी थी और सोहनलाल की बांहें सब-इंस्पेक्टर की गर्दन से लिपट गई थीं । उंगली ट्रेगर पर थी ।
सब-इंस्पेक्टर ठगा-सा खड़ा रह गया था।
सोहनलाल की उंगली ट्रेगर पर, चेहरा कठोर और खतरनाक हुआ पड़ा था ।
अन्य पुलिस वाले भी ये सब देखकर ठगे से रह गये थे ।
"हिलना नहीं ।" सोहनलाल गुर्राया ।
"य-ह क्या कर रहे हो ?"
"चुप ।" सोहनलाल दहाड़ा...जुबान मुंह में ।"
सब-इंस्पेक्टर दांत भींचकर रह गया ।
शंकरदास अपनी जगह से हिला और एक पुलिस वाले के हाथ से रिवाल्वर ले ली ।
"तुम पागल हो गये हो । सब-इंस्पेक्टर बोला---- "जानते हो क्या कर रहे हो ।"
"जानता हूँ ।"
"पुलिस से टकराने का मतलब ?"
"जानता हूँ । मेरा तो धंधा यही है ।" सोहनलाल कड़वे स्वर में कह उठा--- "उल्लू के पट्ठे हो तुम सब लोग । कुत्ते हो । तनख्वाह सरकार से लेते हो और हुजूरी तीरथराम की करते हो । तुमसे अच्छा तो मैं ही हूँ । जो करता हूँ, सबके सामने तो करता हूँ ।"
"तुम-तुम।"
"जुबान मुंह में रख ।" सोहनलाल ने रिवाल्वर का दबाव बढ़ाया ।
सब-इंस्पेक्टर ने खतरा भांपकर फौरन मुहं बंद कर लिया ।
सोहनलाल और शंकर दास की निगाहें मिलीं ।
"चलो ।" सोहनलाल ने अच्छी तरह, सब-इंस्पेक्टर को रिवाल्वर के साये में ले लिया।
"कहाँ ?" सब-इंस्पेक्टर के चेहरे का रंग उड़ा ।
"अपनी पुलिस गाड़ी की तरफ ! उसका इस्तेमाल हम करेंगे । यहां से जाने के लिये ।"
"तुम पागल तो...।"
"नहीं हुआ । मेरे खानदान में कोई पागल नहीं हुआ तो मैं कैसे हो सकता हूँ ।" सोहनलाल ने दांत भींचकर कहा----"जो मैं कह रहा हूँ, वही कर, वरना तेरी गिनती शहीदों में होने लगेगी ।"
अपने ऑफिसर को रिवॉल्वर के दबाव में देखकर सब पुलिस वाले सीधे खड़े थे । वो जानते थे कि, उनकी गलत हरकत सब-इंस्पेक्टर की जान ले सकती है ।
तभी शंकरदास, रिवाल्वर थामे दरिंदगी भरे अंदाज में आगे बढ़ा ।
"पुलिस गाड़ी की तरफ तूने चलना है कि नहीं ।"
शंकरदास का खतरनाक स्वर सुनकर सब-इंस्पेक्टर कांप-सा उठा । कोई रास्ता न पाकर, वो उनके साथ हो गया । सब पुलिस वाले वहीं खड़े रहे।
"तीरथराम पाहवा के होटल को तुम लोगों ने उड़ाया है ?" सब-इंस्पेक्टर ने चलते हुए सूखे स्वर में पूछा ।
"हाँ ।"
"क्यों ?"
"उसने हमारी विलायती भैंस खोल ली थी ।" सोहनलाल शब्दों को चबाकर बोला ।
इस जवाब से क्षण भर के लिए सब-इंस्पेक्टर सकपकाया ।
"पुलिस जीप की तरफ क्यों जा रहे हो ?"
"यहां से जाने के लिए हमें कुछ चाहिए और पुलिस गाड़ी से बढ़िया सवारी इस समय और क्या हो सकती है ?"
"पुलिस गाड़ी को ले जाने का मतलब समझते हो तुम लोग ?"
"किसी पुलिस वाले की हत्या कर देने से तो, कम ही मतलब निकलता होगा ?"
शंकरदास की धमकी सुनकर, सब-इंस्पेक्टर खामोश हो गया ।
वो लोग पुलिस जीप के करीब जा पहुंचे ।
शंकरदास ने, सब-इंस्पेक्टर की रिवाल्वर वहां से दूर उछाल दी । फिर वो उछलकर जीप की स्टेयरिंग सीट पर बैठा और जीप स्टार्ट की । सोहनलाल उसकी बगल में जा बैठा । उसकी रिवाल्वर सब-इंस्पेक्टर की तरफ तनी हुई थी जो कि बेबस भरे अंदाज में खड़ा था।
"चलें ।" सोहनलाल ने कड़वे स्वर में कहा
अब सब-इंस्पेक्टर क्या कहता ।
शंकरदास ने जीप आगे बढ़ा दी और पलों में ही वे दोनों वहां से दूर होते चले गये । सोहनलाल ने रिवाल्वर जेब में डालकर सिगरेट सुलगा ली ।
"पुलिस जीप से हमें फौरन छुटकारा पाना है । ये हमें फंसा भी सकती है ।" शंकरदास बोला ।
"पा लो ।"
दस मिनट पश्चात ही, वो दोनों जीप को सड़क के किनारे छोड़कर पैदल ही आगे बढ़ गये थे । दोनों के चेहरों पर गंभीरता थी । शंकरदास ने गहरी सांस लेकर सोहनलाल को देखा ।
"मजा नहीं आया । होटल के भीतर मौजूद, पाहवा जिंदा ही बच गया होगा ।"
"क्या कहा जा सकता है ? हो सकता है मर ही गया हो।"
"अगर यही सब पन्द्रह मिनट और चलता है तो तब शायद मर जाता । अभी वो नहीं मरा ।
सोहनलाल गहरी सांस लेकर रह गया ।
"ये बातें बाद की है । सोचो कि अब हम जायें कहां । सुंदर वाला ठिकाना तो गया हाथ से । उसे पाहवा के आदमी जान चुके हैं । उसका घर अब पाहवा की निगाह में है ।"
शंकरदास होंठ भींचें चलता रहा ।
"अब एक ही रास्ता बचा है हमारे पास ।"
"कौन-सा ?" शंकरदास ने उसे देखा ।
"जयचंद पाटिया। हमारे छिपने और आराम से रहने का इंतजाम वो करेगा ।" सोहनलाल ने विश्वास भरे स्वर में कहा--- "हमें उसकी और उसे हमारे जरूरत है ।
"ठीक कह रहे हो ।"
कुछ आगे जाकर दोनों टैक्सी पर सवार हो गये । सोहनलाल की आंखों के सामने वो दृश्य झूम उठा, जब वो ऊपर से नीचे गिरा था । खौफ के मारे बदन में एक साथ जाने कितनी सिरहनें दौड़ती चली गईं । वो समझ न पाया कि जिंदगी में कौन-सा काम उसने अच्छा किया था कि जो बच निकला है ।
■■■
जयचंद पाटिया से उसकी मुलाकात इस रात तो नहीं, अलबत्ता अगले दिन सुबह नाश्ते के समय हुई । रात को जयचंद पाटिया वहां नहीं था । कहां था, ये बात वहां मौजूद आदमियों को भी पता नहीं थी। रात दोनों चैन की नींद सोये ।
उनकी नाश्ते की टेबल भी सुबह ग्यारह बजे लगी थी । वो दोनों नाश्ता करने की तैयारी में थे कि पाटिया ने भीतर प्रवेश किया । उनके चेहरे पर मुस्कुराहट थी ।
"गुड मॉर्निंग-बॉस ।"
जवाब में सोहनलाल और शंकरदास मुस्कुराये ।
"मुझे आशा है रात अच्छी बीती होगी ।" पाटिया उनके सामने वहां पर बैठता हुआ बोला ।
"कौन-सी रात ।" सोहनलाल ने सिर उठाया--- "यहां पहुंचने से पहले वाली रात या पहुंचने के बाद का हिस्सा ? हम गहरी नींद सो रहे थे।"
जवाब में पाटिया हंसकर रह गया ।
नाश्ता शुरू हुआ ।
"तुमने नाश्ता नहीं किया अभी तक ?" सोहनलाल ने पाटिया को देखा ।
"कब का कर लिया ?"
"फिर दोबारा ?"
"क्या फर्क पड़ता है ।" जयचंद पाटिया हँसा--- "लंच समझकर लूंगा ।"
सोहनलाल ने मुंह बिचकाया । फिर वे सारे नाश्ते में व्यस्त हो गये।
रात का हादसा क्या रंग लाया ?" शंकर दास ने पूछा ।
"जो भी रहा, ठीक रहा ।" जयचंद पटिया ने गंभीर स्वर में कहा--- "पचास हिस्सा, होटल का खत्म हो गया है । अब वो इस्तेमाल के काबिल तो रहा ही नहीं ।"
"मैं होटल के बारे में नहीं पूछ रहा हूँ।"
"तो ?"
"पाहवा के बारे में पूछ रहा हूँ । वो जिंदा है कि मर गया ?" जयचंद पाटिया अजीब से अंदाज में मुस्कुराया ।
"अगर तुम ये सोचते हो कि तुम्हारे इतना भर कर देने से मर जायेगा, तो वो कब का मर चुका होता । इतना आसान नहीं है पाहवा को खत्म करना ।" जयचंद ने कड़े स्वर में कहा--- "आसान होता तो कब का तीरथराम का किस्सा ही खत्म हो चुका होता।"
"तुम करते ?"
"हाँ ?"
"तो अब क्यों नहीं कर देते ?"
"कल तुम्हें बताया तो था--- "जयचंद ने चुभते स्वर में कहा--- "तीरथराम पहावा से निपट पाना मेरे बस का नहीं है। वो बहुत ज्यादा ताकत रखता है और उसके मुकाबले, मैं कुछ भी नहीं रखता ।"
"मतलब कि तीरथराम पाहवा बच निकला ?"
"वो खतरे में ही कहाँ था, जो बच निकलता ।" जयचंद का स्वर कड़वा हो गया--- "उसे मारने के लिए एक साथ होटल जय गणेश को नीचे गिराते तो, तब वो मरता ।"
"पुलिस के आने के बाद होटल से निकला होगा ?"
"हाँ, शान से पुलिस के बीच में से निकला है ।" पटिया गहरी सांस ली ।
शंकरदास कुछ नहीं बोला ।
नाश्ता समाप्त हुआ ।
कॉफी आ गई । तीनों कॉफी के घूंट भरने लगे ।
"तुम दोनों रात को पुलिस के फंदे में आ गये थे ?" एकाएक जयचंद ने पूछा ।
"तुमसे किसने कहा ?"
"पुलिस के बीच इस बात की चर्चा है ।"
"हाँ । पुलिस के फंदे में फँसकर बच निकले । नहीं तो अब तक हमारा किस्सा खत्म था।"
जयचंद पाटिया ने सिर हिलाया और कॉफी के साथ सिगरेट सुलगा ली ।
"अब क्या करोगे तीरथराम के बारे में ?"
"चिंता मत करो । कुछ तो करेंगे ही ?" सोहनलाल ने कहा--- "कम-से-कम इस बात का वायदा तो किया कि पाहवा जिंदा नहीं बचेगा । बिल्कुल निश्चिंत रहो ।"
सोहनलाल के शब्द सुनकर, जयचंद पाटिया के चेहरे पर तसल्ली के भाव उभरे।
"अब जयचंद भाई एक बात तो बताओ ।" सोहनलाल बोला ।
"क्या ?"
"तीरथराम अब जय गणेश में तो नहीं रहेगा ?"
"नहीं । वहां रहने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। वो तो खंडहर हो गया।"
"तो अब वो कहां रहेगा ?"
"कहां रहेगा ?" जयचंद पटिया ने चौंककर सोहनलाल को देखा ।
"हाँ । उसका दूसरा ठिकाना ?"
जयचंद पाटिया के चेहरे पर सोच भरे गंभीरता के भाव उभरे ।
"क्या हुआ ?" सोहनलाल उसे खामोश देखकर बोला--- "पाहवा और ठिकाने की तुम्हें खबर नहीं ।"
"एक क्या, उसके तो पचासों ठिकाने की खबर है मुझे ।" जयचंद ने घूंट भरा ।
"फिर ?"
"पाहवा, किस ठिकाने को सुरक्षित समझकर ठिकाना बनाता है । इस बारे में यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता ।" जयचंद पाटिया के होंठ भिंचते चले गये।
"मतलब कि तुम मालूम नहीं कर सकते ?"
"क्यों नहीं कर सकता । अवश्य कर सकता हूँ ।" पटिया ने सिर हिलाया।
"तो मालूम करो, जय गणेश तबाह होने के बाद, पाहवा ने अपना ठिकाना कहां बनाया है ?"
जयचंद पाटिया ने शंकरदास और सोहनलाल को देखा ।
"शाम तक ये खबर फैल जायेगी । मेरे आदमी पाहवा के पाले में मौजूद हैं । पता चल जायेगा ।"
"तो शाम को आओगे ?" सोहनलाल बोला ।
"हाँ ! मैं न आया तो मेरा मैसेज ।"
"तुम्हारा मैसेज सिर्फ फोन पर होना चाहिए ।" सोहनलाल ने उसकी आंखों में देखा--- किसी आदमी को मत भेज देना । हम नहीं चाहते कि हमारा ठिकाना कोई जाने । जिस तरह तुम्हारे आदमी, पाहवा के पाले में हैं उसी तरह उसके आदमी भी तुम्हारी किसी जेब में घुसे हो सकते हैं।"
जयचंद पटिया उठ खड़ा हुआ ।
"मैं खुद ही आऊंगा ।"
"रिवाल्वर की गोलियां भी लेते आना ।" शंकरदास बोला ।
"कौन-से रिवाल्वर की ?"
शंकरदास और सोहनलाल ने अपनी रिवाल्वर दिखाई ।
जयचंद ने दोनों रिवाल्वरों का मेक और नाम देखा ।
"लेता आऊंगा । कुछ और चाहिए ?"
"नहीं तुम शाम को पहुंच जाना । हमें खबर चाहिए कि पाहवा कहां पर है ?"
"मिलेगी । खबर मिलेगी कि पाहवा कहां है ।" जयचंद पाटिया ने विश्वास भरे स्वर में कहा--- "और मुझे पूरा विश्वास है कि उस खबर का तुम सही इस्तेमाल करोगे ।"
सोहललाल ने कड़वे स्वर में कुछ कहना चाहा कि जयचंद बाहर निकल गया ।
"साला ।" सोहनलाल बड़बड़ा उठा--- "हमारे कंधे पर बंदूक रखकर चला रहा है ।"
"तुम तो अपने कंधे पर बंदूक रखकर चला ही रहे हो । अगर जयचंद भी हमारी बंदूक में अपनी एक-आध गोली डाल देता है । तो क्या फर्क पड़ता है ।" शंकरदास ने हंसकर कहा।
■■■
सोहनलाल के चेहरे पर एकाएक गंभीरता के भाव नाचने लगे थे ।
"अब क्या करना है ?"
"क्या करना है, पाहवा को खत्म करना है, क्यों ?" शंकरदास ने उसे देखा ।
"सोच ले शंकरदास ?" सोहनलाल ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया।
"इसमें सोचने की क्या बात है ?" शंकरदास ने हैरानी से उसे देखा ।
सोहनलाल ने कश लिया और गंभीर स्वर में कह उठा ।
"तीरथराम पाहवा की मौत से ज्यादा जरूरी काम, सुन्दरलाल को, पाहवा की कैद से निकालना है ।"
"सुन्दरलाल ?" शंकरदास चौंका ।
"हाँ ! उसे पाहवा ने इसलिए पकड़ा है कि हम उसके घर पर पनाह लिए हुए थे ।"
शंकरदास एकाएक कुछ नहीं कह सका।
"सुन्दरलाल को बचाने की चेष्टा करना हमारा फर्ज है । उसे कुछ नहीं होना चाहिए ।"
शंकरदास ने सोच भरे अंदाज में सिगरेट सुलगा ली ।
"क्या सोच रहे हो शंकरदास ?"
"ये तो फालतू का लफड़ा हुआ ।"
"फालतू का ?" सोहनलाल की आंखें सिकुड़ गयीं ।
"हाँ । मैं फांसी फरार मुजरिम हूँ । पुलिस मेरे पीछे है । कभी भी पुलिस की गिरफ्तारी में आ सकता हूँ । गोली का शिकार हो सकता हूँ । पाहवा के आदमी पीछे हैं, और मेरा टारगेट तीरथराम पाहवा की हत्या करना है । ऐसे में, अगर सुन्दरलाल को बचाने के चक्कर में पड़ जाऊंगा तो जान को खतरे में डालने और वक्त बर्बाद के सिवाय और कुछ नहीं होगा।"
सोहनलाल की आंखों में कड़वे भाव फैलते चले गये ।
"हाँ ! ये बात तो है ।" सोहनलाल का स्वर सामान्य था ।
"बेहतर यही होगा कि हम पाहवा की तरफ ध्यान दें कि उसे कैसे खत्म किया जाये । सुन्दरलाल की तरफ तो ध्यान देना भी, हमारे हक में ठीक नहीं होगा । जंग के समय लक्ष्य देखा जाता है । जंग के मैदान में हाथ में तलवार लेकर, घायल सिपाहियों की मरहम पट्टी नहीं की जाती ।" शंकरदास ने कहा।
सोहनलाल की आंखों में कठोरता उभरी ।
"तुम तो अपने मिलिट्री वाले रूल बता रहे हो । ठीक कहा न मैंने शंकरदास ?"
"हाँ मिलिट्री में हमें, जंग के दौरान पैदा होने वाले हालातों के लिए, यही सब बताया जाता है और ऐसा करना ही बेहतर रहता है । इंसान अपना टारगेट जल्दी हासिल कर लेता है ।"
सोहनलाल की आंखों में क्रोध के भाव उभरे ।
"मेरे ख्याल में तुम ठीक कह रहे हो शंकरदास ।" सोहनलाल शांत स्वर में बोला।
"मैं ठीक ही कहता हूं अगर सामने वाला समझे तो ।"
"सामने वाला सब कुछ समझ रहा है । अब जरा सामने वाला भी समझ ले ।
शंकरदास ने सोहनलाल को देखा ।
"जैसे मिलिट्री की पढ़ाई तूने मुझे बताई, इसी तरह मैं भी तुझे अपनी पढ़ी-पढ़ाई बताता हूँ । उसे समझ लेना प्यारे भाई । क्योंकि तुम्हारी पढ़ाई तो चंद आदमियों के बीच होती है, परन्तु जो पढ़ाई मैंने पढ़ी है, वो दुनिया में ज्यादातर चलती है । उसके आगे मिलिट्री की पढ़ाई की कोई अहमियत नहीं ।"
"तुम कहना क्या चाहते हो सोहनलाल ?"
सोहनलाल ने सिगरेट का कश लिया फिर गंभीर स्वर में बोला ।
"मेरी पहली पढ़ाई ये है कि किसी का अहसान मत भूलो और सुन्दरलाल ने बिना वहज हम पर अहसान किया था, हमें छिपने की जगह देकर, अपनी जान को खतरे में डालकर, हमें अपने घर में रखकर ।"
शंकर दास की निगाहें सोहनलाल पर थीं।
"वो हमारे कारण फँसा, हमारे कारण पाहवा का क्रूर पंजा उसकी जिंदगी के लम्हों पर जा गढ़ा है ।" सोहनलाल के शब्दों में दृढ़ता उभर आई थी--- "उस क्रूर पंजे को, सुन्दरलाल की गर्दन से दूर करना हमारा नैतिक फर्ज बनता है । मानवता यही कहती है । अपने साथी को हम कुंड में धकेलकर आगे बढ़ जाएं, ये बात मेरे गले से नीचे नहीं उतरती और न ही ये तुम्हारी मिलिट्री वाली जंग है, इस देश के दुश्मनों से । ये चंद बदमाशों की दादाओं की जंग है । जिसमें हर तरफ देखकर चलना पड़ता है । मैं अहसान फरामोश नहीं हूँ कि इन हालातों में सुन्दरलाल को मौत के मुंह में छोड़कर आगे बढ़ जाऊं ।"
शंकरदास के होंठ भिंच गया ।
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है ।"
"शायद ।" सोहनलाल ने दांत पीसकर कहा--- "और तब सुंदरलाल का भी दिमाग खराब हो गया था ,जब इस शहर में तीरथराम के डर से मुझे पनाह देने वाला कोई नहीं था, परन्तु उसने मुझे अपने घर में छिपाया । लोग तुम्हारा नाम सुनकर डरने लगते हैं । परन्तु उसने तुम जैसे खतरनाक आदमी को भी अपने घर में रखने से इंकार नहीं किया । जबकि वो चाहता तो स्पष्ट तौर पर मना कर सकता था । परन्तु उसने ऐसा नहीं किया । शायद वो पागल था।"
होंठ भिंचे शंकरदास उसे देखता रहा ।
"पाहवा को खत्म करना है, ठीक है, खत्म हो जायेगा वो। बाद में हो जायेगा, पहले सुन्दरलाल को पाहवा की कैद से निकालना है । क्योंकि अगर उसे कुछ कर दिया गया तो, फिर वो जिंदा नहीं हो सकेगा । जबकि पाहवा तो जिंदा ही रहेगा, मैं नहीं समझता कि उसे दिल का दौरा पड़ेगा।"
"कैसी बेवकूफी वाली बातें कर रहे हो तुम ?" शंकरदास कड़वे स्वर में बोला--- "मेरी पोजीशन को भी समझने की चेष्टा करो । मुझे पुलिस तलाश कर रही है और अब तो तीरथराम पाहवा को भी ये खबर मिल गई होगी कि तुम्हारे साथ मैं भी उसके पीछे हूँ । उसके आदमी भी मुझे तलाश करना शुरू कर चुके होंगे । दोनों तरफ से भारी खतरा है मुझे। जितना वक्त बीतता जायेगा, मेरे लिए खतरा बढ़ता जायेगा । मैं अपना काम खत्म करके फौरन इस शहर से निकल जाना चाहता हूँ । अगर सुन्दरलाल को बचाने के चक्कर में पड़ा तो शायद जिंदा न बच पाऊँ । पाहवा के आदमियों की या पुलिस की गोली मुझे खत्म कर देगी । मेरी और तुम्हारी पोजीशन में बहुत फर्क है सोहनलाल।"
"हाँ ।" सोहनलाल ने होंठ भींचकर सिर हिलाया--- "वास्तव में बहुत फर्क है ।"
शंकरदास ने उसके अंदाज को महसूस करके कहा ।
"शायद तुम मेरी बात को गंभीरता से नहीं ले रहे ।"
"मैं इस समय गंभीर हूँ । कम-से-कम अपनी बात के प्रति तो बहुत गंभीर हूँ । सोहनलाल ने कश लेकर कुर्सी पर बैठे ही बैठे टांगे फैला लीं । पाहवा को भूलकर, सुन्दरलाल को हर हाल में बचाया जायेगा । उसके बाद ही पाहवा के इंतजाम के बारे में सोचा जायेगा ।"
"सोहनलाल ।" शंकरदास के होंठों से गुर्राहट निकली । चेहरा सुर्ख हो उठा ।
सोहनलाल की आंखें सिकुड़ी । माथे पर बल पड़े । टांगे समेटकर वो सतर्क हो गया।
"हाँ ।"
शंकरदास खतरनाक अंदाज में उसे घूमता रहा । बोला कुछ नहीं ।
"बोल ! दहाड़कर क्या कहना चाहता है तू ।"
शंकरदास की मुद्रा में कोई फर्क नहीं आया ।
"तू ठीक नहीं चल रहा ।" शंकरदास ने सुलगते स्वर में कहा ।
"मेरा भी यही ख्याल है । खैर, तू चाहता है कि तीरथराम पाहवा का किस्सा खत्म किया जाये ।"
"हाँ । मेरे पास इतना वक्त नहीं कि सुन्दरलाल को बचाने के फेर में पड़ूं ।"
"मत पड़ ।"
"क्या मतलब ?" शंकरदास की आंखें सिकुड़ी।
"तू पाहवा के पीछे लग जा । हाथ धोकर होकर उसके पीछे पड़ जा । साले की मुंडी मरोड़कर रख दे ।"
"और तू-तू क्या करेगा ?"
"मैं ।" सोहनलाल मुस्कुराया--- "सुन्दरलाल को तलाश करके, उसे बचाऊँगा ।"
शंकरदास का चेहरा क्रोध से स्याह पड़ गया ।
"तू ऐसा नहीं करेगा ।"
"तो कैसा करूंगा ?"
"मेरे साथ मिलकर, पाहवा की गर्दन...।"
"तू नहीं ! मैं अपनी मर्जी का मालिक हूँ । जो मेरे मन को आयेगा, वही मैं करूंगा ।" सोहनलाल ने सख्त स्वर में कहा--- "और अपने लहजे को संभाल, तेरी आवाज कुछ ठीक नहीं जा रही।"
"शंकर दास का चेहरा दरिंदगी से भरे भावों से भर उठा ।
"सोहनलाल ।" शंकरदास के होंठों से गुर्राहट निकली--- "तो क्यों मेरे साथ रहेगा । मेरा कहना मानेगा ।"
"फालतू मत बोलो शंकरदास ।" सोहनलाल का चेहरा सुर्ख हुआ पड़ा था ।
"तू फाइनल इंकार करता है ।"
"डबल फाइनल इंकार ।"
शंकर दास ने दांत किटकिटाये ।
अगले ही पल उसके हाथ में रिवाल्वर दबी नजर आने लगी । उंगली ट्रेगर पर और रुख सोहनलाल के चेहरे की तरफ था ।
दो पल के लिए वहां मौत का-सा सन्नाटा छा गया ।
दोनों एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे।
"मैं तुझे दो घंटे का वक्त देता हूँ ।" शंकरदास के होंठों से सर्द स्वर निकला ।
"किस बात के लिए ।" सोहनलाल की आंखों में सुर्ख शोले उछाले मार रहे थे ।
"सोचने के लिए फैसला कर ले कि तुझे सुन्दरलाल को आजाद कराना है या मेरे साथ मिलकर पाहवा को खत्म करना है । अगर तूने मेरे साथ मिलकर, पाहवा को खत्म करने की हाँ, न भरी तो, मैं रिवॉल्वर की सारी की सारी गोलियां तेरे शरीर में उतार दूँगा ।"
"सोचकर कह रहा है ।"
"हाँ ।"
"तो सुन ले । मेरा फैसला वही है, मैं कर चुका हूँ ।"
"जल्दी मत कर । दो घंटे हैं तेरे पास।"
"मुझे दो घंटे नहीं चाहिए, जवाब दे दिया । बोल क्या करेगा तू ! मुझ पर गोलियां चलायेगा ?"
"तुझे सोचने के लिए दो घंटे दिये जाएं, वो बहुत जरूरी है । इन दो घंटों में तुझे इस बात का अहसास हो जायेगा कि मुझे इंकार का मतलब है, तेरी मौत ।" शंकरदास वहशी स्वर में कह उठा ।
सोहनलाल दरिंदगी भरी निगाहों से शंकरदास को देखे जा रहा था ।
उन दोनों के अलावा वहां मौत की खामोशी छा चुकी थी ।
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दो घंटे, शंकरदास के हाथ में थमी रिवाल्वर का रुख, सोहनलाल की तरफ रहा। सोहनलाल के प्रति वो सतर्क था कि कहीं मौका पाकर, अपनी रिवाल्वर न निकाल ले । सोहनलाल का इरादा था जेब से रिवाल्वर निकालकर, शंकरदास को शूट करने का। परन्तु शंकरदास बेहद सावधान था । वो उसे हिलने तक की मोहलत न दे रहा था । सोहनलाल को सिर से पांव तक खतरा ही खतरा नजर आ रहा था । उसे स्पष्ट महसूस हो रहा था कि अगर उसने शंकरदास की बात न मानी तो, वो उसे शूट कर देगा।
परन्तु शंकरदास की बात मानने का मतलब था सुन्दरलाल ने उनके लिये जान की बाजी लगा दी थी, अब वो मौत के मुंह में था, सिर्फ उनके कारण । वरना उसे क्या पड़ी थी, पाहवा के खिलाफ काम करने की । अब उसे सहायता की जरूरत थी, और सोहनलाल हर हाल में उसके अहसान को उतारकर उसकी जान बचाना चाहता था ।
जबकि शंकरदास उसे अपने इशारे पर चलाने की चेष्टा में था ।
उसका दिलो-दिमाग नहीं मान रहा था कि शंकरदास की बात माने।
मौत के सन्नाटे में दो घंटे इसी प्रकार बीत गये ।
दो घंटे बीत चुके थे हैं ।" शंकरदास ने खतरनाक लहजे में कहा ।
सोहनलाल ने क्रूरता भरी निगाहों से शंकरदास की आंखों में झांका ।
"बोल क्या फैसला किया तूने ?"
कुछ कहने के लिए सोहनलाल ने मुंह खोला कि शंकरदास गुर्राहट भरे लहजे में कह उठा ।
"जो भी कहना । सोच समझकर कहना ? ये तेरी जिंदगी और मौत का सवाल है ?"
"मुझे तेरी बात मंजूर नहीं ।" सोहनलाल ने दांत भींचकर कहा।
"क्या ?"
मैं किसी भी कीमत पर तेरी बात नहीं मानता ? तू अहसान फरामोश हो सकता है, लेकिन सोहनलाल किसी का अहसान नहीं भूलता । बोल, क्या करेगा अब तू ? मुझे गोली मारेगा ?"
"हाँ और अगर तू मर गया तो तब सुन्दरलाल को कौन बचायेगा ।
"कोई भी मत बचाये ? लेकिन जब तक मैं जिंदा हूँ, उसे बचाने की चेष्टा अवश्य की जायेगी और तू वास्तव में कमीना इंसान है। शंकरदास। ये तो साबित हो ही गया है ?"
"अभी साबित नहीं हुआ ?"
"नहीं हुआ ?" सोहनलाल ने खूनी निगाहों से शंकरदास को देखा।
"नहीं ?"
"मतलब कि मुझे गोली मारने के बाद साबित करेगा तू निहायत ही गिरा हुआ इंसान है ?"
"साबित करने के तरीके होते हैं ?"
"कर...साबित कर...देखूं तो सही कि और कैसे गन्दगी भरे तरीके है तेरे पास।"
शंकरदास ने हाथ में पकड़ी रिवाल्वर उंगली में घुमाई और उसे वापस जेब में डाल लिया ।
सोहनलाल के होंठ भिंच गये । आंखें सिकुड़ गयीं ।
शंकरदास ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया ।
"मिलिट्री में हमें एक चीज और भी सिखाई जाती है ?" शंकरदास बोला ।
"ये कि जब किसी को शूट करने का समय आये तो रिवाल्वर को जेब में डाल लो ?"
"नहीं...।" शंकरदास ने मुस्कुराकर कहा--- "बल्कि ये कि जंग के दौरान किसी के द्वारा किए गए अहसान को याद रखो बेशक वो अहसान छोटे से छोटा भी क्यों न हो...।"
"और तुम, सुन्दरलाल के इतने बड़े इंसान अहसान को भूल रहे हो ?"
"भूल नहीं रहा ? बल्कि पीछे धकेल रहा हूँ ? ऐसा करना इस समय मेरी मजबूरी का हिस्सा भी है ? क्योंकि मैं इस वक्त हालातों के चक्रव्यूह में बुरी तरह फँसा हुआ हूँ ?" शंकरदास का स्वर शांत था--- "लेकिन तुम अपनी बात से पीछे हट रहे हो तो मैं कर भी क्या सकता हूँ ।"
"कम-से-कम मुझे गोली तो मार सकते हो ?" सोहनलाल कड़वे स्वर में बोला
"नहीं...।" शंकरदास ने सिर हिलाया--- "मैं तुम्हें डरा रहा था । सोचा था डर कर तुम रास्ते पर आ जाओगे । मेरा साथ दोगे पाहवा को खत्म करने में...। सुंदरलाल को भूल जाओगे ? परन्तु तुम नहीं डरे ।"
सोहनलाल, उसे घूरता रहा ।
"अब तुम्हारी ही जीत रही...।"
"क्या मतलब ?"
"पहले हम सुन्दरलाल को, तीरथराम के कैद से निकालेंगे उसके बाद पाहवा की मौत की सोचेंगे।"
सोहनलाल के चेहरे पर राहत के भाव आये । तनाव कुछ कम हुआ ।
"लेकिन एक तरफ शायद तुम सोचना भूल गये ?"
"किस तरफ ?"
"तीरथराम पाहवा ने सुन्दरलाल को पकड़कर हमारे बारे में पूछा होगा कि हम कहां हैं...? हमारा दूसरा ठिकाना कौन-सा है दूसरा ठिकाना हम नहीं जानते तो सुन्दरलाल क्या जानेगा । ऐसे में उसने यही कहा होगा कि वो नहीं जानता और उसकी बात पर विश्वास न करके, उसे तरह-तरह की यातनाएं दी होंगी और उन यातनाओं के पश्चात इस बात का कोई भरोसा नहीं कि वो जिंदा बचा होगा या उसकी लाश नाले में पड़ी सड़ रही हो...।"
"सोहनलाल ने गंभीरता भरे अंदाज में गर्दन हिलाई ।
"हाँ...इस पहलू पर भी मैं सोच चुका हूँ। अगर उसे मार दिया है तो उसकी किस्मत। अगर वो जिंदा है तो उसे बचा निकालना है । वो बेचारा खामखाह हमारे फटे में टांग अड़ा बैठा ।" सोहनलाल ने कहा ।
शंकरदास कंधे उचकाकर रह गया ।
"सबसे पहले हमें सुन्दरलाल के बारे में मालूम करना है कि उसे कहां पर रखा गया है ?"
"शाम को जयचंद पाटिया आयेगा । उससे बात करेंगे । वही सुन्दरलाल के बारे में हमें खबर देगा ?" शंकरदास ने कहा।
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