वॉल्ट का दरवाजा बन्द अपने आप होता है लेकिन उसका ट्रिपल लॉक खुलता तीन चाबियों से है। अब उस वॉल्ट को खोलकर तुम्हीं मेरी लड़की की जान बचा सकते हो। तुमने न सिर्फ वॉल्ट खोलना है, बल्कि उसे जल्दी से जल्दी खोलना है । मैं तुम्हारी मुंहमांगी फीस तुम्हें दूंगा ।"
"मेरे से न खुला तो ?"
" ऐसी बात मजाक में भी मुंह से न निकालो | तुम वॉल्ट को खोल लोगे, जरूर खोल लोगे, मेरी उम्मीद से कहीं जल्दी खोल लोगे । खोल लोगे न ?"
"मैं कोशिश करूंगा आपकी उम्मीद पर खरा उतरने की।"
"कोशिश नहीं, ये काम करना ही है तुमने । प्लीज, प्लीज, प्लीज | मैं तुम्हें मुंहमागी फीस दूंगा ।"
" आपको मेरी खबर कैसे लगी ?"
"इंस्पेक्टर गायकवाड़ से जोकि ओल्ड गोवा थाने का एस एच ओ है।"
"ओह नो ।"
“क्या हुआ ?"
"जनाब, अगर उसे पता लग गया कि आपका वॉल्ट मैंने खोला है तो वो मुझे पकड़कर जेल में डाल देगा ।"
"लेकिन वॉल्ट तो तुम मेरे कहने पर खोलोगे ।”
" फिर भी वो मुझे नहीं बख्शेगा ।"
"उसकी मजाल नहीं हो सकती ।"
"वो मुझे वार्निंग दे चुका है कि उसके थाने के इलाके में वॉल्ट खोले जाने की कोई भी वारदात हुई तो वो उसे मेरा ही काम समझेगा ।”
"तुमने कोई वॉल्ट को लूटने के लिये थोड़े ही खोलना है । तुमने तो उसे मेरी बेटी की जान बचाने के लिए खोलना है।"
"वो दोनों बातों में फर्क नहीं करेगा ।"
"ओके । मैं वादा करता हूं कि इस बाबत गायकवाड़ को भनक भी नहीं लगेगी ।"
"वो सवाल नहीं करेगा कि वॉल्ट कैसे खुला ?"
"मैं कह दूंगा कि मुझे बाद में दिखाई दिया था कि चाबियां सोफिया अपने साथ वॉल्ट के भीतर नहीं ले गई थी, वो पीछे मेज के करीब नीचे कालीन पर गिरी पड़ी थीं। यानी कि वॉल्ट खोलने के लिए किसी लाक बस्टर की सर्विसिज की जरुरत मुझे नहीं पड़ी थी । अब ठीक है ? "
जीतसिंह ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
तभी सामने जगमग करती कैसीनो की तीनमंजिली इमारत दिखाई दी ।
"बैक में ।" - मार्सेलो उतावले स्वर में बोला - "बैक में चल।”
गाड़ी इमारत के पिछवाड़े में आकर एक दरवाजे के सामने रुकी ।
उसके साथ ही काली एम्बैसेडर भी वहां पहुंच गयी ।
कैसीनो ऐसी स्थिति में बना हुआ था कि उसके सामने उसकी अपनी अप्रोच रोड थी, आजू-बाजू कोई दूसरी इमारत नहीं थी और पिछवाड़े में समुद्र था ।
आनन-फानन जीतसिह को दूसरी मंजिल पर लाया गया ।
वहां एक विशाल लॉन था जहां कि हर तरह के जुए का प्रबंध था अलबत्ता अलबत्ता ज्यादा टेबल्स वहां रॉलेट की थीं । शाम की उस घड़ी हॉल लगभग आधा भरा हुआ था । जीतसिंह, मार्सेलो और काली एम्बैसेडर वाले दोनों दादे हॉल के एक पहलू से गुजरते एक बन्द दरवाजे तक पहुंचे । एक आदमी ने आगे बढकर दरवाजा खोला और फिर बाहर ही ठिठककर खड़ा हो गया । दूसरा, जिससे कि जीतसिंह ने रिवॉल्वर छीनी थी, उनके साथ भीतर दाखिल हुआ और उसने उनके पीछे दरवाजा बंद कर दिया ।
जीतसिंह ने देखा कि वो एक आफिसनुमा कमरा था जिसके एक पहलू में एक विशाल आफिस टेबल थी और दूसरे में एक सोफा सैट लगा हुआ था। उन दोनों के बीच में पिछवाड़े में एक और बन्द दरवाजा था जिसे कि साथ आए आदमी ने आगे बढ़कर खोला । वो भी बाहर जैसा ही विशाल कमरा था जिसमें कि एक आदमी चहलकदमी कर रहा था ।
"ये फ्रांको है।" - मार्सेलो बोला- "मेरा फ्लोर मैनेजर । "
जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।
"बीम बन्द करो।" - मार्सेलो बोला ।
"पहले से बन्द है सर।" - फ्रांको अदब से बोला । -
"बीम क्या ?" - जीतसिंह सकपकाया सा बोला ।
"वॉल्ट के रास्ते में फोटो इलैक्ट्रिकसैल्स के जरिए चलने वाली एक इलैक्ट्रिक किरण है जो आंखों को दिखाई नहीं देती । वो चालू हो तो किसी के उसके पार कदम रखते ही सारी इमारत में अलार्म बजने लगता है ।"
"ओह !"
"वो रहा वॉल्ट । अब खोलो इसे । "
जीतसिंह वॉल्ट के विशाल दरवाजे के सामने पहुंचा और उसके लाकिंग सिस्टम का मुआयना करने लगा ।
"जल्दी करो, भाई।" - मार्सेलो बोला- "टाइम जाया करने से काम नहीं चलेगा।"
जीतसिंह ने औजारों का बैग खोला, उसने उसमें से एक डाक्टरों जैसा स्टेथोस्कोप और, स्टेनलैस स्टील की कुछ लम्बी सलाइयां-सी और पलास वगैरह निकाले । उसने स्टेथोस्कोप कानों से लगा लिया, एक सलाई चाबी के छेद में डाली और उसका बाहरला सिरा एक पलास से पकड़ा, दूसरे हाथ से उसने स्टेथोस्कोप की टूटी थामी और उसे छेद के करीब लगाकर पलास के जरिये सलाई को बाल-बाल घुमाता, स्टेथोस्कोप के जरिए कोई हल्की से हल्की आवाज सुनने की कोशिश करने लगा ।
यूं ही दस मिनट गुजरे जिस दौरान पता नहीं कितनी बार मार्सेलो ने 'जल्दी करो, जल्दी करो' की दुहाई दी ।
- "अरे, क्यों इतनी देर लगा रहे हो ?" - जो भुनभुनाता सा बोला- "जल्दी करो । वक्त रहते वॉल्ट न खुला तो क्या फायदा हुआ ? जल्दी ! जल्दी करो !”
"आप बाहर निकल जाइए।" - जीतसिंह भड़क कर बोला।
“क्या !” - मार्सेलो कहरभरे स्वर में बोला ।
"आप मेरा कंसंट्रेशन खराब कर रहे हैं । मेरी तल्लीनता में विघ्न डाल रहे हैं । आप अपनी हालदुहाई बन्द नहीं करेंगे तो मैं इसे कभी नहीं खोल पाऊंगा ।"
"सर, ये ठीक कह रहा है ।" - फ्रांको धीरे से बोला ।
"आप मेहरबानी कीजिए और बाहर जा के बैठिये । "
"सर, प्लीज कम ।"
चेहरे पर तीव्र अनिच्छा के भाव लिये भारी कदमों से फ्रांको के साथ चलता वो वहां से बाहर निकल गया ।
जीतसिंह ने घूरकर पीछे खड़े रह गए दादे को देखा । वो हड़बड़ाया और फिर घूमकर अपने साहब लोगों के पीछे चल दिया ।
वॉल्ट वाले कमरे में जीतसिंह अकेला रह गया । उसने देखा कि उस कमरे ने एक ही विशाल खिड़की थी जो समुद्र की ओर खुलती थी । उसने आगे बढ़कर उस खिड़की का खोल दिया । ताजी समुद्री हवा भीतर आने लगी । तेज बारिश तब तक हल्की बूंदा-बांदी में तब्दील होने लगी थी ।
वो वापिस वॉल्ट के सामने पहुंचा और फिर पूरे मनोयोग से उसकी खोलने की कोशिश में जुट गया ।
मार्सेलो आफिस में सिगार के कश लगाता, फर्श को रौंदता सा बेचैनी से चहलकदमी कर रहा था । फ्रांको बीच के दरवाजे के करीब खड़ा था और भीतर से किसी शुभ समाचार के जारी होने की उम्मीद में बंद दरवाजे के साथ कान लगाए खड़ा था । उनके साथ भीतर आया दादा ऑफिस के बन्द प्रवेशद्वार के करीब खड़ा था ।
एकाएक बीच का दरवाजा खुला ।
मार्सेलो थमककर खड़ा हुआ । उसने व्याकुल भाव से उधर देखा तो उसे सोफिया को गोद में उठाये खड़ा जीतसिंह दिखाई दिया ।
"खुल गया ।" - फ्रांको चैन की सांस लेता हुआ बोला ।
"मेरी बेटी !" - मार्सेलो ने सिगार एक तरफ फेंका और बांहें फैलाए सामने को लपका - "मेरी बेटी !"
"एकदम सलामत है।" - जीतसिंह बोला- "बेहोश है लेकिन जल्दी ही होश में आ जाएगी ।"
मार्सेलो ने बड़े उतावले भाव से सोफिया के निश्चेष्ट शरीर को सम्लाता और उसे ले जाकर बड़ी एहतियात से सोफे पर लिटा दिया ।
"डॉक्टर को बुलाओ।" - वो व्याकुल भाव से बोला ।
फ्रांको ने दरवाजे पर खड़े आदमी को इशारा किया । वो तत्काल दरवाजा खोलकर बाहर को लपका ।
" इसे कुछ नहीं हुआ।" - जीतसिंह बोला - "ये ऐसे ही उठ बैठेगी | महज वक्त की बात है ।"
"बिन मां की बेटी है, भाई । मैं फिर भी इसे डॉक्टर को दिखाकर तसल्ली कर लेना चाहता हूं।"
जीतसिंह खामोश रहा ।
"तुमने तो कमाल कर दिया ! इतना पेचीदा वॉल्ट इतने आराम से खोल लिया । बड़े हुनरमंद आदमी हो । कहां से सीखा सब कुछ ? "
" उस्ताद ने सिखाया ।”
"गुड | अब बोलो क्या चाहते हो ?"
"जी, वो...वो.."
"जो चाहते हो, बेहिचक बोलो। मैंने वादा किया है तुमसे तुम्हारी मुंहमांगी फीस भरने का । अब बोली क्या चाहते हो ?"
"जी द...द, दस..."
"कबूल । काम के लिहाज से रकम ज्यादा बोली तुमने लेकिन कबूल ! फ्रांको ।"
"यस, सर ।" " इसे दस हजार रुपये दे दो ।” जीतसिंह जैसे आसमान से गिरा ।
" जनाब" - वो बड़ी मुश्किल से बोल पाया- "द... दस से.... मेरा मतलब था..."
“अब छोड़ो मतलब वतलब | तुम कहोगे तुमने लालच में ज्यादा रकम बोल दी लेकिन कोई बात नहीं । आई डोंट माइंड । स्मोक करते हो ?"
“ज... जी हां। कभी-कभी । "
मार्सेलो विशाल टेबल के करीब पहुंचा, वहां पड़े सिगार के डिब्बे में से उसने चार सिगार निकाले और जीतसिंह के पास वापिस लौटा ।
"ये लो।" - वो चारों सिगार जीतसिंह की कमीज की जेब में डालता हुआ बोला - "हवाना सिगार है । पियोगे को मजा आ जाएगा।"
"शु... शुक्रिया । "
फ्रांको ने उसे दस हजार रुपये के नोटों की गड्डी सौंपी।
मार्सेलो ने एक वाल कैबिनेट में से एक नामालूम ब्रांड की विस्की की बोतल निकाली और बड़ी गर्मजोशी से लाकर जीतसिंह को दी ।
"स्कॉच विस्की ।" - वो बोला- "इतनी उम्दा कि उम्र भर याद करोगे ।"
"शुक्रिया | "
" मार्सेलो नाम है मेरा । जो मेरे काम आते हैं, उन्हें मैं हमेशा याद रखता हूं । कभी मेरी किसी मदद की जरुरत हो तो बेहिचक मेरे पास आना । मैं स्टाफ को बोल के रखूंगा कि कभी बद्रीनाथ इधर आए तो उसे फौरन मेरे पास पहुंचाया जाए । बद्रीनाथ ही नाम है न तुम्हारा ?"
"ज..जी हां ।”
" फ्रांको अभी तुम्हारी वापिसी का इंतजाम कर देगा ।"
"शुक्रिया ।"
"और भई वो" - मार्सेलो ठठाकर हंसा - "धनेकर की रिवॉल्वर साथ न ले जाना । बेचारे की पहले ही बड़ी किरकिरी हो रही है । रिवॉल्वर पीछे छोड़ के जाना ।”
"ये.... ये तो नहीं हो सकता ।”
"क्यों ?" - मार्सेलो के माथे पर बल पड़े । "वो... वो रिवॉल्वर तो दुकान पर रह गई है ।” "ओह !" "मैं अभी जा के ले आता हूं।"
"कोई जल्दी नहीं । कल धनेकर खुद वहां आएगा और रिवॉल्वर ले जाएगा । ठीक ?"
जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।
उसने जानबूझकर इस बात का जिक्र नहीं किया था कि कल इतवार था और दुकान की छुट्टी थी ।
खुद उसे किसी हथियार की अहम जरूरत जो थी ।
***
वास्कोडिगामा की रोड नंबर दो की तेरह नम्बर इमारत एक डेढ़ मंजिली कोठी निकली जिसके बाहरले फाटक पर मिसेज एम वी अचरेकर की नेम प्लेट लगी देखकर जीतसिंह आश्वस्त हो गया कि वो ठीक जगह पहुंच गया था । पोर्च की एक लाइट को छोड़कर कोठी की तमाम बत्तियां बुझी हुई थीं और आधी रात की उस घड़ी बाकी इलाके की तरह वहां भी सन्नाटा था ।
कोठी की बाई ओर का प्लाट खाली था और उसके उसी पहलू में कोठी का गैरेज था । वो खाली प्लाट की ओर से दीवार फांदकर भीतर दाखिल हो गया । पोर्च में जाकर मुख्य द्वार आजमाने की जगह वो गैरेज के सामने पहुंचा । गैरेज के दहाने पर ग्रिल का झूलकर खुलने वाला दरवाजा लगा हुआ था जो कि बंद था और उस पर ताला जड़ा हुआ था । भीतर कोई गाड़ी नहीं खड़ी थी लेकिन फर्श पर से उठती मोबिल आयल की गंध इस बात का सबूत था कि गाड़ी वहां रैगुलर खड़ी होती थी जो कि इत्तफाक से ही उस घड़ी वहां नहीं थी |
उसने बड़ी सहूलियत से दरवाजे का ताला खोल लिया और भीतर दाखिल हुआ । उसने माचिस की एक तीली जलाकर गैरेज का मुआयना किया तो पाया कि उसके पिछवाड़े में एक बंद दरवाजा था । वो दरवाजे के करीब पहुंचा । उसने दरवाजे को धक्का दिया तो पाया कि वो मजबूती से बन्द था । लेकिन दरवाजे में बिल्ट इन लाक था जो कि भीतर बाहर दोनों तरफ से चाबी लगाकर खोला जा सकता था ।
वैसा ताला वो फूंक मारकर खोल सकता था ।
वो ताला खुल गया तो वो गैरेज के ग्रिल वाले दरवाजे पर
वापिस लौटा । उसने उसका खुला ताला ग्रिल में से हाथ निकाल कर बाहर कुंडे में पिरोया और जैसे उसे खोला था, वैसे ही बंद कर दिया ।
वो वापिस लौटा, पिछले दरवाजे से वो भीतर दाखिल हुआ तो उसने अपने आप को एक किचन में पाया । किचन में उसने एक बार फिरे माचिस जलाई तो पाया कि उसका परला, किचन की कोठी से जोड़ने वाला, दरवाजा खुला था । माचिस की रोशनी गुल होने से पहले उसने किचन के शैल्फ पर एक गोश्त काटने वाली छुरी पड़ी देखी जिसे कि उसने अपने अधिकार में कर लिया । जरुरत पड़ने पर खामोश हथियार के तौर पर वो उसे इस्तेमाल कर सकता था ।
दबे पांव वो किचन के भीतरी खुले दरवाजे पर पहुंचा और कान खड़े करके कोई आहट लेने की कोशिश करने लगा ।
कहीं कोई आहट नहीं । सब जगह मुकम्मल सन्नाटा ।
कार का गैरेज में मौजूद न होना यही जाहिर कर रहा था कि कोठी की मालकिन कहीं बाहर गई हुई थी । लेकिन बाहर कहां ? तफरीहन कहीं आसपास ही जहां से कि वो लौट आने वाली थी या किसी लम्बे सफर पर ?
या शायद वो कोठी में ही कहीं मुर्दों से शर्त लगाये सोई पड़ी थी और उसकी कार देवरे कहीं ले गया हुआ था ?
बहरहाल कोठी को पूरी तरह से टटोलना जरूरी था ।
उसने किचन से बाहर के गलियारे में कदम रखा और अंधेरे में आंखें फाड़ फाड़कर सामने देखता आगे बढ़ा । उसके दाएं हाथ में रिवॉल्वर थी और बाएं में किचन से उठाई छुरी थी ।
अभी उसने दो ही कदम उठाए थे कि एकाएक एक कोई काली सी चीज उसकी आंखो के सामने हवा में लहराई और इससे पहले कि वो कुछ समझ पाता वो इतरे वेग से उसकी छाती से आकर टकराई कि वो संभलते सम्भलते भी धराशायी हो गया ।
फिर एक हल्की-सी गुर्राहट और फिर उसके चेहरे से टकराती गर्म सांस ।
कुत्ता !
उसने रिवॉल्वर अपने हाथ से गिर जाने दी और छुरी को दाएं हाथ में लेकर सामने वार किया । फिर वार किया । फिर वार किया ।
अपने ऊपर पहाड़-सा आन गिरा तब उसे परे सरकता लगा । उसने छुरी को उसके जिस्म में ही कहीं पेवस्त छोड़कर उसे जोर से धक्का दिया और उठ खड़ा हुआ। उसने फर्श टटोलकर अपनी रिवॉल्वर तलाश की और उसे थामे हांफता सा खड़ा रहा । फिर उसने माचिस की एक तीली जलाई और उसकी रोशनी में सामने झांका ।
उसे गलियारे के फर्श पर पड़ा एक निहायत खतरनाक काला कुत्ता दिखाई दिया जो कि उस घड़ी अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था ।
जीतसिंह के शरीर में जोर से झुरझुरी दौड़ी ।
छुरी चलाने में उससे जरा भी देर हो गई होती तो निश्चित रूप से उस खतरनाक कुत्ते ने उसे फाड़ के रख देना था ।
माचिस बुझने से पहले कुत्ता एक बार आखिरी बार तड़पा और फिर उसका शरीर स्थिर हो गया ।
उसने कुत्ते को उसकी एक टांग से थामा और उसे घसीटकर किचन के भीतर डाल दिया । किचन का दरवाजा उसने बाहर से बन्द कर दिया ।
उसी गलियारे में एक वाथरूम था जिसमें से उसने एक तौलिया बरामद किया और उसके जरिए गलियारे के फर्श को रगड़ रगड़कर उस पर बहा कुत्ते का खून साफ किया । फिर खून से सना तौलिया उसने बाथरूम में एक क्लोजेट में ठूंस दिया |
उसने फिर कोठी का चक्कर लगाना शुरू किया ।
इस बार कोई विघ्न न आया और जल्दी ही इस बात की तसदीक हो गई कि कोठी में कोई नहीं था ।
उसने ये भी नोट किया कि कोठी में कहीं भी किसी तरह का कोई मर्दाना कपड़े या मर्दाना साजोसामान नहीं था । इसका यही मतलब हो सकता था कि कोठी की मालकिन मिसेज अचरेकर या तो परित्यक्ता थी या विधवा थी और देवरे उसके साथ उसकी कोठी में ही नहीं रहता था ।
वो ड्राइंगरूम में पहुंचा जो कि अपेक्षानुसार कोठी के अग्रभाग में था । उसको एक शीशे की खिड़की पर से पर्दे को थोड़ा सरकाकर उसने बाहर झांका तो उसे सामने सड़क दिखाई दी ।
बढ़िया |
उसने खिड़की के करीब एक कुर्सी घसीट ली और परदे की ओट में बैठा प्रतीक्षा करने लगा ।
आधे घंटे बाद उसकी प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्त हुई ।
कोठी के फाटक के सामने एक कार आकर रुकी और उसकी हैडलाइट की तीखी रोशनी कोठी पर पड़ी ।
जीतसिंह उठकर खड़ा हो गया। उसने रिवॉल्वर को मजबूती से अपने हाथों में थाम लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
वो पोर्च की तरफ से कोठी के प्रवेशद्वार के बाहर से खुलने की अपेक्षा कर रहा था लेकिन ऐसा न हुआ । कार कम्पाउंड में दाखिल होकर पोर्च में पहुंचने की जगह गैरेज की तरफ घूम गई और ड्राइंगरूम की खिड़की में से जीतसिंह को दिखनी बन्द हो गई ।
फिर कार के दो दरवाजे भड़ाक से बंद होने की आवाज आई ।
दो जने ।
यानी कि कार में अगर मिसेज अचरेकर लौटी थी तो वो अकेली नहीं थी ।
और उसका किचन के रास्ते कोठी में घुसने की कोशिश करना उस का खेल बिगाड़ सकता था क्योंकि उसे सबसे पहले किचन के फर्श पर मरा पड़ा कुत्ता ही दिखाई देता ।
क्या करे वो ?
उसकी अक्ल ने यही जवाब दिया कि उसे कोठी से बाहर निकलकर गैरज में उनके पीछे पहुंचना चाहिए था ।
वो ऐसा करने जा ही रहा था कि पोर्च में से दो जोड़ी कदमों की आवाज आई ।
फिर प्रवेशद्वार के ताले नें चाबी घूमने की आवाज ।
यानी कि गैरेज में वो गाड़ी ही खड़ी करने गए थे। कोठी में दाखिल वो प्रवेशद्वार से ही होने वाले थे ।
"टाइगर ।" - एकाएक एक स्त्री स्वर कोठी में गूंजा - "टाइगर !"
ऊंची एड़ी की दो बार ठक ठक हुई और फिर खामोश हो गई ।
कहीं कोई बत्ती जली ।
"टाइगर !"
एक मर्दाना आवाज में कोई कुछ बोला जिसे कि वो समझ न सका । न ही वो ये फैसला कर सका कि वो आवाज देवरे की थी या नहीं ।
"पता नहीं क्या बात है ?" - औरत की आवाज आई - "ऐसा तो आज तक नहीं हुआ कि मेरी एक आवाज एर कुत्ता दौड़ता हुआ मेरे पास न पहुंचे । टाइगर ।”
एक बत्ती और जली जिसकी प्रतिबिम्बित होती रोशनी ड्राइंगरूम तक पहुंची ।
जीतसिंह दबे पांव ड्राइंगरूम के दरवाजे पर पहुंचा ।
"टाइगर !"
आदमी फिर कुछ बोला जो कि इस बार भी जीतसिंह के पल्ले न पड़ा ।
"तुम ठीक कह रहे हो, देवरे ।" - औरत बोली ।
यानी कि उसके साथ देवरे ही था लेकिन पता नहीं वो क्या ठीक कह रहा था ! वो कमबख्त कुत्ता खामखाह ही उसका काम बिगाड़े दे रहा था । देवरे ने उसे कोई भी ऐसी राय दी हो सकती थी जो कि जीतसिंह के खिलाफ जा सकती थी । उसने औरत की पुलिस को फोन करने को या वहां से तत्काल कहीं लौट चलने को कहा हो सकता था ।
फौरन कुछ करना जरूरी था ।
उसने ड्राइंगरूम से बाहर कदम रखा ।
बाहर गलियारे में रोशनी थी जिसमें उससे कोई पन्दरह फुट परे खुले प्रवेशद्वार के करीब एक औरत खड़ी थी जिसके पीछे उसकी ओट में लगभग छुपा हुआ एक पुरुष शरीर था ।
"बाजू हट !" - जीतसिंह रिवॉल्वर सामने तानता हुआ चिल्लाया - "बाजू हट ।"
पुरुष ने औरत की ओट में से घूमकर खुले दरवाजे से बाहर छलाग लगा दी । दरवाजा भड़ाक से उसके पीछे बन्द हुआ ।
औरत एकाएक गला फाड़कर चिल्लाने लगी ।
सत्यानाश !
जीतसिंह सामने को दौड़ा। उसने औरत को एक तरफ धक्का दिया और दरवाजा खोलकर बाहर झांका ।
देवरे ने बला की फुर्ती दिखाई थी । वो उससे दूर, बहुत दूर सड़क पर दौड़ा जा रहा था । जीतसिंह अभी रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा भी नहीं कर पाया था कि वो अन्धकार में कहीं विलीन हो गया ।
लानत !
वो वापिस भीतर दाखिल हुआ, उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द किया और तब भी चीखती औरत पर झपटा । उसने अपनी रिवॉल्वर वाली बांह उसकी गर्दन में लपेटी और दूसरे खाली हाथ से उसका मुंह दबोच लिया ।
“खबरदार !” - वो उसके कान में गुर्राया - "आवाज न निकले । वर्ना गर्दन मरोड़ दूंगा!"
वो खामोश हो गई । आतंकित भाव से उसकी आंखों की पुतलियां उसकी कटोरियों में घूमी ।
जीतसिंह प्रतीक्षा करने लगा । औरत केवल तीन बार चीखी थी जिसकी कोई प्रतिकिया सामने आती दिखाई नहीं दे रही थी ।
तब जीतसिंह को तनिक राहत महसूस हुई । उसने औरत के मुंह पर से अपनी पकड़ थोड़ी ढीली की और चेतावनी भरे स्वर में बोला "चीखना नहीं । " -
औरत ने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
जीतसिंह ने उसे बंधनमुक्त कर दिया ।
"क... कौन हो ?" - वो हकलाती सी बोली - "भीतर कैसे आए ?"
“अभी तुम्हारे साथ देवरे था ? काशीनाथ देवरे ?”
"क्या चाहते हो ?"
"देवरे का पता चाहता हूं।"
"मु... मुझे....मुझे नहीं... "F
"झूठ मत बोलो । ये हो ही नहीं सकता कि तुम्हें उसका पता मालूम न हो ।” - उसने रिवॉल्वर की नाल से उसकी छाती को टहोका - "अब जो जवाब दो, ये सोचकर दो कि मुझे उसका पता बताने से ही तुम्हारी जान बच सकती है।"
"तू.. . तुम उसका क्या करोगे ?"
"वही जो तुम्हारा नहीं करूंगा। तब जब कि तुम मुझे देवरे का पता बता दोगी ।"
"वो... वो पोंडा में है।"
" पोंडा में कहां ?"
"वहां की एक टूरिस्ट लॉज में ।"
"लॉज का नाम ?”
"यही है । पोंडा टूरिस्ट लॉज ।” -
“लॉज कहां है ?”
"बस स्टैण्ड के पास । वो... वो रूम नंबर 308 में है । "
"साथ कौन है ?"
"कोई नहीं ।"
"कब से वहां है ?"
"दो हफ्ते से ।"
"इतनी जल्दी तुम्हारे से यारी कैसे हो गई ?”
"प... पहले से वाकिफ था । म... मेरे हसबैंड का दोस्त था । "
“हसबैंड अब कहां है?"
"अब नहीं है । डैथ हो गई। दो साल पहले "
"वो आधी रात को यहां आया, यानी कि रात यहां रहने वाला था ?"
“ह...हां ।”
"इतना ज्यादा वाकिफ है वो तुम्हारा ?"
वो खामोश रही ।
"तुम्हारा बताया पता गलत निकला तो जानती हो क्या होगा ?"
"क... क्या होगा ?"
"मैं उलटे पांव वापिस लौटूंगा और अपने हाथों से तुम्हारी बोटी बोटी नोंच डालूंगा।"
उसके शरीर ने जोर की झुरझुरी ली। बड़ी कठिनाई से वो कह पाई - "पता सही है । कसम गणपति की ।"
"कार की चाबियां कहां हैं ?"
"म... मेरे बैग में ।"
बैग तब भी उसके हाथ में था । जीतसिंह ने बैग उसके हाथ से झटका और उसमें से चाबियां बरामद कर ली । फिर उसने एकाएक रिवॉल्वर की नाल से उसकी कनपटी पर जोर से प्रहार किया । तत्काल उसकी आंखें उलट गई लेकिन उसके धराशायी होने से पहले ही उसने उसे संभाल लिया । उसने उसे गोद में उठाया और ले जाकर एक बैडरूम में डाल दिया । वहां उसने उसकी नब्ज टटोली, दिल की धड़कन महसूस की, आंखें खोलकर पुतलियों का मुआयना किया तो इसी नतीजे पर पहुंचा कि वो डेढ़ दो घंटे से पहले होश में नहीं आने वाली थी । उसने बैडरूम का दरवाजा बंद किया और वहां से बाहर निकला ।
वो गैरेज में पहुंचा ।
कार एक फिएट निकली । वो उसमें सवार हुआ और पोंडा की तरफ रवाना हो गया ।
पोंडा का वहां से कोई पच्चीस किलोमीटर का फासला था।
देवरे वहां से पैदल भागा था, आधी रात के को आगे कहीं पोंडा के लिए सवारी मिलने में उसे वक्त लग सकता था । इस लिहाज से वो उससे पहले उसकी लॉज में पहुच सकता था । पहले नहीं तो उसकी मौजूदगी में उसके कूच का सामान कर पान से पहले तो पहुंच ही सकता था ।
वो पोंडा पहुंचा । कार उसने टूरिस्ट लॉज के पिछवाड़े की एक संकरी गली में खड़ी कर दी और उसकी चाबियां उसी में रहने दी । फिर वो लॉज के सामने पहुंचा। उसने पाया कि लॉज में उस घड़ी भी आवाजाही की कमी नहीं थी । वो सहज भाव से भीतर दाखिल हुआ और दो और यात्रियों के साथ जाकर लिफ्ट में सवार हो गया । वो तीनों तीसरी मंजिल पर उतर गए । जीतसिंह चौथी मंजिल पर उतरा और सीढ़ियों के रास्ते तीसरी मंजिल पर पहुंचा ।
308 नंबर कमरा गलियारे के ऐन कोने में था जिसका ताला खोल लेना उसके लिए फिर मामूली साबित हुआ । उसने खाली कमरे में कदम रखा तो उसे अपनी अपेक्षा से कहीं बढ़िया पाया ।
उसकी निगाह पैन होती हुई सारे कमरे में फिरी ।
कहीं कोई खास बात नहीं ।
उसने आगे बढ़कर वार्डरोब का दरवाजा खोला । वहां हैंगर पर एक कोट टंगा हुआ था जिसे कि देवरे के कोट की सूरत में उसने साफ पहचाना ।
कोट की जेबें खाली निकलीं ।
वहीं नीचे एक शैल्फ पर एक सूटकेस रखा था जिसको कि ताला लगा हुआ था । ताला तोड़कर उसने वो सूटकेस खोला । सूटकेस में से दो काम की चीजें बरामद हुई ।
एक छोटी नाल वाली पिस्तौल और उसकी गोलियां ।
बारह हजार रुपये ।
बढ़िया । बढ़िया ।
उसने दोनों चीजें अपने काबू में कर ली ।
तभी फोन की घंटी बजी ।
उसने आगे बढ़कर फोन उठा लिया और दबे स्वर में बोला - "हल्लो ।"
"देवरे !" - उसके कानों में मिसेज अचरेकर की आतंकित आवाज पड़ी - "फौरन वहां से कूच कर जाओ। उसने मेरे से जबरन तुम्हारा पता कुबुलवा लिया है और अब वो तुम्हारे पीछे आ रहा है । उसके सिर पर खून सवार है इसलिये जल्दी...जल्दी वहां से... देवरे, सुन रहे हो न ?”
जीतसिंह खामोश रहा ।
औरत उसकी अपेक्षा से बहुत पहले होश में आ गई मालूम होती थी ।
"वो मेरी कार ले गया है इसलिए मैने पुलिस को भी फोन कर दिया है..."
हो गया काम ।
"देवरे ! देवरे, तुम बोलते क्यों नहीं हो ? तुम... " ? उसने हौले से रिसीवर क्रेडल पर रख दिया ।
देवरे के इनजार में अब वहां एक क्षण भी और रुकना खामखाह मुसीबत मोल लेने जैसी बात होती ।
वो चुपचाप वहां से कूच कर गया ।
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