बृहस्पतिवार ।

“लेडीज एण्ड जन्टलमैन !” - सभापति आगाशे क्राइम क्लम के सदस्यों से सम्बोधित हुआ - “मुझे ये बताते हुए खुशी हो रही है कि मेरे पहले तीन वक्ताओं की तरह मेरे पास भी कहने के लिए कुछ है । मैंने भी अपने तरीके से, अपने प्रयत्नों से केस का हल निकाला है, जो कि पहले तीन वक्ताओं द्वारा निकाले हल से एकदम जुदा है । जैसे पहले तीन वक्ताओं को पूरा यकीन था कि उन्होंने केस का हल निकाल लिया था और वे अपने-अपने हल को प्रमाणों की सहायता से साबित भी कर सकते थे, वैसे ही मुझे भी अपने हल पर ऐसा ही यकीन है । अलबत्ता पहले तीन वक्ताओं के हल निर्विवाद रूप में सिद्ध नहीं हो सके थे लेकिन यहां इस तथ्य का भी वर्णन जरूरी है कि ये हल निर्विवाद रूप से गलत भी करार नहीं दिये जा सके थे । हल के हक में और हल के खिलाफ दोनों तरफ संशय के बीज उपस्थित थे । मिसाल के तौर पर दासानी साहब की थ्योरी इसलिए फेल हुई थी क्योंकि उनकी चायस के अपराधी पार्वती परमार को हमारी माननीया क्राइम-रिपोर्टर सदस्या रुचिका केजरीवाल की एलीबाई हासिल थी लेकिन वो एलीबाई सिर्फ ये सिद्ध कर सकती है कि पार्सल पोस्ट किये जाने के समय के आसपास वो दिल्ली से बहुत दूर लखनऊ में थी, यूं इस सम्भावना को सौ फीसदी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता कि पार्वती परमार का कोई राजदां था जिसने कि उसके कहने पर दिल्ली में पार्सल पोस्ट किया था । मिसेज छाया प्रजापति ने केस का जो हल प्रस्तुत किया उसमें उन्होंने दासानी साहब को अपराधी साबित करके दिखाया । यहां भी वैसी स्थिति है कि अगर दासानी साहब के पास अपने हक में कुछ बातें थीं तो मैजिस्ट्रेट साहिबा के पास उनके खिलाफ कई बातें थीं । मिस्टर प्रभाकर ने बतौर अपराधी रोज पद्मसी को चुना....”

“टोकने के लिए माफी चाहता हूं, सदर साहब” - अशोक प्रभाकर बोला - “लेकिन आप तो आज पहले दुष्यन्त परमार की रोज पद्मसी की एलबम में मौजूद तस्वीर के बारे में कुछ कहने वाले थे ।”

“जी हां” - आगाशे बोला - “मैं कहने वाला था । मैं कहता हूं । उस तस्वीर के सन्दर्भ में मैं आज सुबह ही रोज पद्मसी से मिला था और मैंने उस एलबम का मुआयना किया था । मिस्टर प्रभाकर, आप एक बात बताइये । आप विख्यात लेखक हैं । भारत के प्रसिद्धतम मिस्ट्री राइटर हैं । इस लिहाज से आपके पास फैन मेल भी आती होगी ।”

“जी हां । खूब । पांच छ: सौ चिट्ठियां आती हैं हर महीने ।”

“क्या होता है उनमें ?”

“नावल की बाबत राय होती है, आने वाले नावल के बारे में सवाल होते हैं, नावलों की मुकम्मल लिस्ट की मांग होती है, आटोग्राफ्स की मांग होती है, आटोग्राफ्स वाली तस्वीर की मांग होती है ।”

“तस्वीर आप भेजते हैं ?”

“जी हां ।”

“सबको ?”

“जी हां ।”

“उस पर कुछ लिख कर ?”

“जी हां ।”

“क्या ?”

“यही कि फला आदमी को सप्रेम भेंट और नीचे हस्ताक्षर ।”

“ऐसी तस्वीरें सैंकड़ों की तादाद में आप भेज चुके होंगे ?”

“जी हां ।”

“फर्ज कीजिये आपने मिस एक्स को ऐसी एक तस्वीर भेजी तो उस पर आपने ये ही लिखा होगा न कि मिस एक्स को सप्रेम भेंट, अशोक प्रभाकर ?”

“जी हां ।”

“यूं आपकी तस्वीर हासिल करने वाली मिस एक्स आपकी माशूक हो गयी ?”

“खामखाह !”

“यानी कि नहीं हो गयी ! उसके पास आपकी ऐसी तस्वीर की मौजूदगी उससे आपका अफेयर स्थापित नहीं करती ?”

“बिल्कुल भी नहीं करती । वो तो...”

“ऐग्जैक्टली । मिस्टर प्रभाकर, यही जवाब है रोज पद्मसी की एलबम में दुष्यन्त परमार की तस्वीर की मौजूदगी का । जैसे आप एक प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार हैं, वैसे ही वो भी एक प्रसिद्ध कवि एवं नाटककार हैं । जैसे मिस एक्स ने बतौर आपकी फैन आपकी तस्वीर हासिल की, वैसे ही रोज पद्मसी ने बतौर दुष्यन्त परमार की फैन उसकी तस्वीर हासिल की ।”

“लेकिन वो तो दुष्यन्त परमार से नफरत करती है ! आपने खुद कहा था ऐसा ।”

“जी हां, कहा था । मुझे खूब याद है, मैंने क्या कहा था ! इस सन्दर्भ में दो बातें गौरतलब हैं । एक तो ये कि वो तस्वीर छ: साल पहले की तब की है जब रोज पद्मसी की परमार की बाबत उसकी आज वाली राय अभी नहीं बनी थी । दूसरे, बावजूद किसी शख्स से नफरत के, उसकी कला से मुहब्बत की जा सकती है । वाबजूद घटिया चरित्र के कोई श्रेष्ठ कलाकार हो सकता है । जिस लार्ड बायरन से हम दुष्यन्त परमार की तुलना करते हैं, क्या वो खुद ऐसा नहीं था ! औरतों के मामले में इतना दुश्चरित्र वो व्यक्ति क्या सारे संसार में प्रसिद्धिप्राप्त कवि नहीं था ! अपनी जाती जिन्दगी में आस्कर चाइल्ड होमोसैक्सुअल था लेकिन क्या वो श्रेष्ठतम लेखक नहीं था ! वन कैन बी ए ग्रेट अर्टिस्ट एण्ड स्टिल हैव मारल कैरेक्टर आफ ए रॉटन एग । नो ?”

“हो तो सकता था ऐसा । तो रोज पद्मसी की एलबम में दुष्यन्त परमार की तस्वीर की मौजूदगी की सिर्फ ये वजह थी कि वो उसकी फैन थी ?”

“जी हां । और उस एलबम की बाबत आपने एक ये बात भी नोट की नहीं मालूम होती कि उसमें तमाम-की-तमाम तस्वीरें ऐसे ही लोगों की थीं जिन्होंने कला या साहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त की थी । ऐसी किसी एलबम में दुष्यन्त परमार की तस्वीर की मौजूदगी क्या बड़ी बात है !”

“कोई बड़ी बात नहीं ।” - लेखक ने स्वीकार किया ।

“सो देयर यू आर ।”

लेखक चुप रहा ।

“मैंने आपकी शंकाओं को जवाब दे दिया है, मिस्टर प्रभाकर, लेकिन उसको अपराधी समझने के लिए आप फिर भी स्वतन्त्र हैं । या हम यूं कह लेते हैं कि पार्वती परमार और लौंगमल दासानी की तरह रोज पद्मसी का नाम भी फिलहाल सस्पैक्ट्स की लिस्ट में है । आखिर आपने उसके खिलाफ अपना केस साबित करके दिखाया था ।”

“वो तो इन्होंने” - छाया नाक चढा कर बोली - “अपने खिलाफ भी साबित करके दिखाया था । अपनी भतीजी के खिलाफ भी साबित करके दिखाया था ।”

लेखक बड़ी धृष्टता से हंसा ।

“बहरहाल” - आगाशे बोला - “हमारी मर्डर सस्पैक्ट्स की लिस्ट पर तीन नाम चढ चुके हैं और उस लिस्ट में एक नाम का इजाफा अभी मैं करूंगा ।”

“यानी कि” - रुचिका बोली - “आपका अपराधी इन तीनों से जुदा कोई चौथा शख्स है ?”

“हां । उसको मिलाकर मर्डर सस्पैक्ट चार हो जाते हैं और अभी हमारे दो वक्ता बाकी हैं । यूं इस लिस्ट में अभी दो और नामों का इजाफा होने की सम्भावना है, न भी हो तो भी कम-से-कम चार मर्डर सस्पैक्ट्स तो उपलब्ध हैं ही । ये एक रोचक स्थिति है जिससे मैं बहुत सन्तुष्ट हूं । जो दिमागी कसरत क्राइम क्लब का मिशन है, उस पर ये स्थिति पूरी तरह से फिट बैठती है । लेकिन एक कत्ल के चार मुख्तलिफ कातिल तो हो नहीं सकते ।”

“नहीं हो सकते ।” - लेखक बोला - “लेकिन आप तो, जाहिर है कि, दावा करेंगे कि आपका अपराधी ही असली अपराधी है ।”

“मैं तथ्य प्रस्तुत करूंगा और उन तथ्यों की बिना पर आप की राय भी ये ही होगी कि मेरा सुझाया अपराधी असली अपराधी है ।”

“देखेंगे ।”

“आप अपनी थ्योरी पेश कीजिए ।” - दासानी बोला ।

“जरूर ।” - आगाशे बोला - “इस सन्दर्भ में पहले मैं ये कहना चाहता हूं कि मैंने अपनी सारी तहकीकात को दुष्यन्त परमार की निजी जिन्दगी पर ही केन्द्रित रखा था । मुझे पूरा यकीन था कि कत्ल का कोई क्लू अगर मुझे हासिल होने वाला था तो यूं ही हासिल होने वाला था । मिस्टर प्रभाकर, यहां मैं एक बात आपको खासतौर से बताना चाहता हूं कि पहले आपकी तरह मेरी भी ये धारणा थी कि इस केस की बुनियाद जरूर कोई तिरस्कृत प्रेमिका थी, ईर्ष्या की भावना थी और बदले की ख्वाहिश थी । आपकी तरह मेरी भी ये धारणा अपनी तफ्तीश की शुरूआत में ही बन गयी थी कि ये अपराध किसी औरत का काम था । नतीजतन मैंने अपनी मुकम्मल तवज्जो दुष्यन्त परमार के लव अफेयर्स पर रखी । मैंने खोद-खोदकर इस बाबत जानकारी निकाली और यूं मैं उसकी तमाम प्रेमिकाओं की एक लम्बी लिस्ट तैयार करने में कामयाब हो गया । कल की मीटिंग के पहले तक मुझे यकीन था कि मेरी लिस्ट मुकम्मल थी, परमार का कोई लव अफेयर मेरी जानकारी से छूटा नहीं था । लेकिन कल जब तिरस्कृत प्रेमिका के लेबल के साथ मिस्टर प्रभाकर ने रोज पद्मसी का नाम पेश किया तो मुझे अहसास हुआ कि इतनी मेहनत से जो लिस्ट मैंने बनायी थी, वो मुकम्मल नहीं थी । उसमें रोज पद्मसी का नाम नहीं था । अब जब एक नाम छूट सकता था तो एक से ज्यादा नाम भी छूटे हो सकते थे । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, मैं कबूल करता हूं कि इस रहस्योदघाटन ने मुझे बहुत मायूस किया था कि परमार के कई लव अफेयर्स ऐसे थी थे, अपनी आदत से मजबूर होकर जिसकी डींग उसने इधर-उधर नहीं हांकी थी ।”

“आई सी ।” - दासानी बोला ।

“लेकिन अब ये कोई अहम बात नहीं रहीं क्योंकि अब कत्ल की बाबत मेरा नजरिया भी बदल गया है और मेरी थ्योरी भी । पहले मेरी धारणा थी कि ये क्राइम किसी औरत का काम था और वो कुछ समय पहले तक दुष्यन्त परमार की प्रेमिका रह चुकी थी ।”

“अब आपकी ये धारणा नहीं है ?” - अशोक प्रभाकर बोला ।

“कतई नहीं है ।”

“यानी कि मैं शुरू से ही गलत रास्ते पर था ?”

“हां ।” - आगाशे एक विजेता के-से स्वर में बोला ।

“कैसे बदली आपकी धारणा ? कब बदली ?”

“कल सुबह बदली जबकि आई.टी.ओ. के पास इत्तफाक से मेरी मुलाकात रोज पद्मसी से हो गयी । बड़े सहज स्वाभाविक ढंग से उसने मुझे एक ऐसी बात बतायी जिसकी अहमियत तत्काल मेरी समझ में न आयी लेकिन जब समझ में आयी तो मेरी थ्योरी का मुकम्मल हुलिया ही तब्दील हो गया । तब मुझे अहसास हुआ कि तिरस्कृत महिला वाली थ्योरी पर सिर धुनते रहकर मैं कितनी बड़ी गलती कर रहा था । उस लाइन पर काम करके तो मैं असली अपराधी के हाथों में खेल रहा था । असली अपराधी की मंशा ही ये थी कि ये कत्ल किसी तिरस्कृत प्रेमिका का काम समझा जाये और क्या पुलिस और क्या हम लोग उसी की शिनाख्त में और तलाश में सिर धुनते रहें ।”

“क्या बताया आपको उस औरत ने ?” - अशोक प्रभाकर उत्सुक भाव से बोला ।

“जो कुछ तब रोज पद्मसी ने मुझे बताया” - आगाशे बोला - “वो एक तरीके से इस मर्डर मिस्ट्री के हल की कुंजी थी । तब बिजली की तरह उस शख्स का नाम मेरे जेहन में कौंधा जिसने कि दुष्यन्त परमार के नाम जहरीली चाकलेटों का वो पार्सल भेजा था ।”

“कौन था वो ?” - रुचिका सशंक स्वर में बोली ।

आगाशे हंसा ।

“यानी कि आप भी औरों की तरह तपाकर ही हमें वो नाम बतायेंगे ?”

“अपने श्रोताओं को तपाने का मेरा कोई इरादा नहीं लेकिन इतना मैं जरूर चाहता हूं कि मुझे बात को अपने तरीके से, अपनी तरतीब से कहने की इजाजत दी जाए ।”

“आपको तो इजाजत-ही-इजाजत है, आखिर आप सभापति हैं ।”

“चलिए, ऐसे ही सही । अब आगे सुनिए । साहबान, इस कत्ल के केस की योजना इतनी बारीकी से और इतनी होशियारी से बनायी गयी थी कि कातिल कभी सपने में नहीं सोच सकता था कि उसका राज फाश हो सकता था । उसकी योजना की काबिलेतारीफ खूबी ही ये थी कि या तो तफ्तीश करने वालों की आंखों पर पर्दा पड़ जाता था, या वो गलत राह पर लग लेते थे । कल रोज पद्मसी से मुलाकात की सूरत में मुझे एक तरह से खुदाई मदद न हासिल हुई होती तो मैं भी अंधों में एक अंधा होता, तो मैं भी अभी तक डिस्कार्डिड मिस्ट्रेस वाली थ्योरी पर ही सिर धुन रहा होता ।”

“तबसरा छोड़िये, जनाब ।” - दासानी बेसब्रेपन से बोला - “अपनी थ्योरी पर आइये ।”

“उसकी शुरूआत मैं सबूतों से शुरू करता हूं । मेरे पास सबूतों का वैसा मजमुआ तो नहीं है जैसा कि मिस्टर प्रभाकर ने अपनी थ्योरियां डिसकस करते हुए पेश किया था लेकिन जो कुछ मेरे पास है वो कम है तो भी मेरी जरूरत से कम नहीं ।”

“आप” - अशोक प्रभाकर बोला - “मेरी बारह शर्तों वाली लिस्ट से सहमत नहीं ?”

“सबसे सहमत नहीं हूं मैं । मसलन आपकी लिस्ट की पहली दो शर्तों से मैं सहमत हूं कि अपराधी की थोड़ी-बहुत कैमीकल नालेज होनी चाहिए और वो अपराध विज्ञान का ज्ञाता होना चाहिए । लेकिन तीसरी शर्त से मुझे कतई इत्तफाक नहीं । शिक्षा का इस क्राइम से कुछ लेना-देना नहीं । वो उच्च-शिक्षाप्राप्त भी हो सकता है और मामूली पढा-लिखा भी । केस के साथ शिक्षा का दखल सिर्फ इतना है कि अपराधी ने सोराबजी एण्ड संस की ओर से चन्द सतरों की एक चिट्ठी तैयार करनी थी और रैपर पर दुष्यन्त परमार का पता लिखना था । इन दो कामों को कोई ग्रैजुएट या पोस्टग्रैजुएट डिग्री होल्डर भी कर सकता है और कोई किसी सरकारी स्कूल से मिडल पास किया शख्स भी कर सकता है । आपकी चौथी शर्त से - कि सोराबजी एण्ड संस का एक्सक्लूसिव लेटरहैड या अपराधी के अधिकार में होना चाहिए, या उस तक उसकी पहुंच होनी चाहिए - भी मैं सहमत नहीं । कल मिस्टर प्रभाकर की धारणा ये थी कि अपराधी के पास लेटरहैड पहले उपलब्ध था और उस उपलब्धि में से क्राइम की योजना बाद में जन्मी थी । मेरा कहना ये है कि अपराधी ने ये निर्णय पहले लिया था कि कत्ल के अपने नापाक इरादे के लिए हथियार उसने जहर को बनाना था, फिर जहर से उसे चाकलेटों की जरूरत सूझी थी और चाकलेटों से सोराबजी एण्ड संस का ख्याल आया था जो कि चाकलेटों की प्रसिद्धतम निर्मात्री कम्पनी है । तब उसने पहले ये फैसला किया था कि उसने डाक के जरिये चाकलेटों को उनके गन्तव्य स्थान तक पहुंचाना था और फिर सोराबजी एण्ड संस के एक लेटरहैड की जरूरत महसूस की थी । साहबान, वो लेटरहैड मेरे अपराधी ने कैसे हासिल किया था, ये मैं आप को आगे चलकर बताऊंगा । टापइराइटर की बाबत पांचवीं शर्त इस संशोधन के साथ मुझे कबूल है कि वो टापइराइटर अपराधी के पास लाजमी उपलब्ध हो, ये जरूरी नहीं !”

“क्यों ?” - लेखक बोला - “क्यों जरूरी नहीं ?”

“क्योंकि वो एक सबूत है जो उसके खिलाफ जा सकता है । ऐसी फसादी आइटम को वो भला अपने पास क्यों रखे रहेगा जो कि कभी भी उसे फंसा सकती हो ! ज्यादा सम्भावना इस बात की है कि वो टाइपराइटर सिर्फ एक, अपने मतलब की, चिट्ठी टाइप करने के लिए उसने चुपचाप कहीं से सैकेण्डहैण्ड खरीदा होगा ।”

“सैकेण्डहैण्ड क्यों ?” - रुचिका बोली ।

“एक तो इसलिये क्योंकि सैकेण्डहैण्ड की सेल छुपी रहती है । नये की तो सर्विस के लिए टाइपराइटर के पीछे-पीछे कम्पनी का मकैनिक पहुंच जाता है । दूसरे, सैकेण्डहैण्ड सस्ता मिलता है । जब इस्तेमाल सिर्फ एक बारी होना हो तो नये पर सैकेण्डहैण्ड से तिगुनी कीमत खर्चने का क्या फायदा ! और फिर सौ बातों की एक बात ये है कि चिट्ठी ही साफ बताती है कि वो किसी नये टापइराइटर पर टाइप नहीं की गई थी ।”

“और ?” - लेखक बोला ।

“और ये कि ये बात निर्धारित कर लेने के बाद मैंने शहर के टाइपराइटर डीलरों के चक्कर लगाने शुरू किये । नतीजा बड़ा सुखद निकला है । यूं मैं खैबर पास में स्थित उस दुकान पर पहुंच गया जहां से कि मेरे अपराधी ने सैकेण्डहैण्ड टाइपराइटर खरीदा था । मैंने उस दुकानदार को अपने अपराधी की तस्वीर दिखाई थी तो वो उसने फौरन पहचान ली थी ।”

“वैरी गुड !” - छाया प्रजापति बोली - “वो टाइपराइटर अब कहां है ?”

“अब तो वो कहीं होगा तो जमना की तलहटी में ही होगा । मैंने पहले ही कहा था कि वो अपराधी अपने खिलाफ कोई सबूत छोड़ने की लापरवाही करने वाला नहीं ।”

“ओह !”

“आपकी छटी शर्त, मिस्टर प्रभाकर, पार्सल को पोस्ट करने के टाइम की बाबत है । मैं आपसे सहमत हूं कि वो पार्सल अपराधी ने खुद पोस्ट किया था और इस लिहाज से एक खास वक्त पर लेटर बक्स के पास उसकी मौजूदगी जरूरी थी । उस वक्त की मेरे अपराधी के पास एलीबाई तो है लेकिन वो बहुत फुसफुसी है । साइन पैन और उसकी स्याही सम्बन्धी आपकी सातवीं और आठवीं शर्त की बाबत में कुछ करने की स्थिति में नहीं हूं क्योंकि उस दो आइटमों को चैक करने का मुझे वक्त ही नहीं लगा था लेकिन वो कोई अहम बात नहीं है । दोनों ही कोई दुर्लभ पदार्थ नहीं । वैसा साइन पैन मेरे अपराधी के अपने पास भी हो सकता है और वो उसने किसी से वक्ती इस्तेमाल के लिये मांगा भी हो सकता है । मांगे वाली बात की सम्भावना ज्यादा है क्योंकि अपराधी की फितरत ये बताती है कि वो अपने पास कोई भी सबूत छोड़ने वाला नहीं । बाकी की चार शर्तों से मैं सहमत हूं, सिवाय इसके कि उसका हर काम को योजनाबद्ध तरीके से करने का आदी होना कोई जरूरी नहीं ।”

“ये नतीजा उपलब्ध तथ्यों पर आधारित था, सभापति महोदय” - अशोक प्रभाकर तनिक शिकायतभरे स्वर में बोला - “और कल आपको ये मंजूर था ।”

“खामोशी मंजूरी नहीं होती, मिस्टर प्रभाकर ।”

“लेकिन जनाब, ये एक न्यायोचित नतीजा है ।”

“आप की निगाह में । सिर्फ आपकी निगाह में ।”

असहाय भाव से कन्धे झटकाता लेखक खामोश हो गया ।

“आप लेटरहैड पर आइये, जनाब ।” - दासानी बोला - “अपराधी कोई भी हो, सोराजबी एण्ड संस के एक्सक्लूसिव लेटरहैड से उसका सम्बन्ध जुड़ना जरूरी है । आप बरायमेहरबानी ये बताइये कि आपके अपराधी के अधिकार में वो लेटरहैड कैसे आया ?”

“वो वैसे नहीं आया जैसे कि दो मेम्बरान पहले बयान कर चुके हैं ? मेरे अपराधी की सोराबजी एण्ड संस में कोई एफ.डी. नहीं । होती भी तो उसकी मैच्योरिटी के लिए लम्बा इन्तजार करना पड़ता क्योंकि थैंक्यू वाली चिट्ठी तो एफ.डी. की मैच्योरिटी पर ही जारी होती है । प्रभाकर साहब की भतीजी की तरह मेरे अपराधी का कोई सगा सम्बन्धी या यार-दोस्त भी कभी सोराबजी एण्ड संस में काम नहीं करता था ।”

“तो फिर वो लेटरहैड” - अशोक प्रभाकर बोला - “उसके पास कहां से आया ?”

“कनाट प्लेस में स्थित प्रिंट आर्ट नामक उस स्टेशनरी शाप से आया” - आगाशे बोला - “जहां से कि सोराबजी एण्ड संस की मुकम्मल स्टेशनरी सप्लाई होती है । वो लेटरहैड कोई तीन हफ्ते पहले प्रिंट आर्ट की एक सैम्पल फाइल में से निकाला गया था - या यूं कहिये कि चुराया गया था । प्रिंट आर्ट में काउन्टर पर तीन सेल्सगर्ल तैनात होती हैं और तीनों के पास सैम्पलों की अलग-अलग फाइल होती हैं । साहबान, वो तीनों फाइलें मैंने देखी थीं । उन में से दो फाइलों में सोराबजी एण्ड संस के उस एक्सक्लूसिव लेटरहैड का नमूना मौजूद था लेकिन तीसरी में से वो गायब था ।”

“इतने से ये साबित हो गया” - रुचिका केजरीवाल बोली - “कि वो आप के अपराधी ने चुराया था ?”

“इतने से तो” - छाया प्रजापति रुचिका के साथ सहमति में सिर हिलाती हुई बोली - “ये तक साबित नहीं होता कि आपके अपराधी ने वहां कभी कदम भी रखा हो ?”

“रखा था कदम ।” - आगाशे मुस्कराता हुआ बोला - “मैंने इसकी तसदीक की है ।”

“कैसे ?”

“सेल्सगर्ल को अपने अपराधी की तस्वीर दिखाकर । उसने तस्वीर को फौरन पहचाना था और तीन हफ्ते पहले मेरे अपराधी के वहां पहुंचे होने की तसदीक की थी ।”

“ओह !”

“लेटरहैड से” - दासानी बोला - “एक इबारत मिटाई गयी होने का सबूत उपलब्ध है ।”

“वो इबारत प्रिंट आर्ट में इस प्रकार के लेटरहैड की छपाई और कीमत की बाबत थी । उनकी फाइल में मौजूद हर सैम्पल पर मैंने वैसी इबारत टाइप द्वारा अंकित देखी थी । जैसे ये स्टाइल - ‘नब्बे रुपये सैकड़ा’ ।”

“आई सी । सैम्पल फाइल का ख्याल कैसे आया आपको ?”

“चाकलेट के साथ आयी चिट्ठी के पीले किनारों की वजह से । मेरी राय में पैड से निकले कागज के किनारे यूं पीले नहीं हो सकते, यूं तो किनारे पीले लूज शीट के हो सकते हैं । तब मुझे ख्याल आया कि मैंने जाब वर्क करने वाली प्रिंटिंग प्रैसों की शो विंडोज में छपाई के ऐसे नमूने लगे अक्सर देखे थे लेकिन वहां ऐसे नमूने एक बोर्ड पर ड्राइंग पिनों द्वारा टांके जाते थे जबकि पुलिस के पास उपलब्ध चिट्ठी के कागज के किसी कोने में भी वैसा पिन का कोई छेद नहीं था । तब मुझे स्टेशनरी शॉप्स का ख्याल आया जो कि स्टेशनरी के नमूनों की सैम्पल फाइल्स रखते हैं । स्टेशनरी शॉप का ख्याल आते ही मेरा प्रिंट आर्ट पर पहुंचना लाजमी था क्योंकि वो सोराबजी एण्ड संस के स्टेशनरी सप्लायर थे । मैं वहां पहुंचा । नतीजा बड़ा अच्छा निकला ।”

“वैरी गुड !”

“अब में उस बुनियादी गलती पर आता हूं जो कि इस केस में क्या पुलिस ने, क्या प्रेस ने और क्या मेरे से पहले हमारे तीन वक्ताओं ने, सबने की । हर कोई असली अपराधी द्वारा निर्धारित गलत राह पर चला । कल शाम मिस्टर प्रभाकर उस गलती के करीब तो पहुंचे लेकिन उससे कोई कारआमद नतीजा न निकाल सके, अपनी खोजबीन की सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर वो न उसकी शिनाख्त कर सके और न उसे केस का हल ढूंढने की दिशा में तरीके से इस्तेमाल कर सके । साहबान, मूलरूप से कल मिस्टर प्रभाकर ने ही सुझाया था कि कातिल का असली निशाना दुष्यन्त परमार नहीं था । ये वो लाख रुपये की बात है जिसकी कल इन्होंने कीमत नहीं पहचानी लेकिन मैंने पहचानी ।”

“बुनियारी गलती आप किसे कह रहे हैं ?” - अशोक प्रभाकर बोला - “वो कौन सी गलत राह है, आपने कहने के मुताबिक जिस पर अपराधी ने हर किसी को भटकाया है ?”

“वो बुनियादी गलती ये है कि हर कोई ये समझ रहा है कि अपराधी की योजना बैकफायर कर गयी थी - कि गलत शख्स मारा गया था ।”

“क्या !”

वो हैरानीभरा सवाल लगभग हर किसी के मुंह से निकला । प्रत्यक्षत: उस प्रतिक्रिया से आगाशे बहुत आनन्दित हुआ ।

“आप कहीं ये तो नहीं कहना चाहते, मिस्टर आगाशे” - छाया प्रजापति बोली - “कि कातिल का निशाना थी ही मिसेज अंजना निगम ?”

“मैं बिल्कुल यही कहना चाहता हूं ।” - आगाशे बोला - “यही तो इस केस की खूबसूरती है । अपराधी की योजना बैकफायर नहीं कर गयी । कातिल अपने मिशन में फेल नहीं हुआ । गलत आदमी नहीं मारा गया । कातिल की योजना सौ फीसदी कामयाब रही है । कत्ल उसी का हुआ है जिसका कि वो करना चाहता था । यही वो गलत राह है जिस पर उसने हर किसी को भटकाया है । हर कोई क्यों कि यही समझ रहा था कि कातिल का निशाना परमार था और अंजना निगम की जान एक दुखद दुर्घटनावश चली गयी थी इसलिये कातिल को तलाश करने की कोशिश में हर किसी की तवज्जो दुष्यन्त परमार पर ही केन्द्रित थी, हर कोई यही सोचने में लगा रहा था कि दुष्यन्त परमार की मौत से किसको फायदा था, किसकी उससे अदावत थी, कौन उसका दुश्मन था ! हकीकतन कत्ल का कोई हल न सूझने की अहम वजह ही ये थी कि हर कोई गलत राह पर भटक रहा था । यही बात साबित करती है कि कातिल कोई मामूली आदमी नहीं, बल्कि कोई जीनियस है ।”

“कमाल है !” - दासानी के मुंह से निकला ।

“वाकई कमाल है, साहबान ! ये कमाल ही है कि कातिल ने कत्ल की ऐसी शानदार योजना बनाई कि किसी को सूझा तक नहीं कि उसका असली निशाना अंजना निगम थी । अपराधी का हर कदम पहले से सोचा-समझा हुआ था । जैसे ये पहले ही सोच लिया गया था कि दुष्यन्त परमार के हाथों में पार्सल पहुंचते वक्त अगर मुकेश निगम उसके करीब होगा तो परमार जरूर वो पार्सल निगल को सौंप देगा । ये भी पूर्वनिर्धारित था कि वारदात हो जाने के बाद पुलिस की तफ्तीश परमार को धुरा बना कर उसके इर्द-गिर्द घूमेगी, वो परमार के वाकिफकारों में कातिल को तलाश करने की कोशिश करेंगे न कि अंजना निगम के वाकिफकारों में । ये भी कातिल पहले से ही निर्धारित किये बैठा था कि चाकलेटों की वजह से अपराध किसी औरत का काम माना जायेगा । जबकि असल में चाकलेटों को कत्ल का हथियार इसलिए बनाया गया था क्योंकि जिसका कत्ल किया जाना था, वो एक औरत थी ।”

“बहुत खूब !” - लेखक बोला ।

“तो” - दासानी बोला - “आपकी थ्योरी ये है कि कातिल अंजना निगम से सम्बन्धित कोई व्यक्ति था और दुष्यन्त परमार से उसका कुछ लेना-देना नहीं था ?”

“बिल्कुल !”

“सूझा कैसे ?”

“मिसेज रोज पद्मसी ने सुझाया । उसकी बतायी इस बात ने सुझाया कि ‘अपराधी कौन’ नाम की फिल्म उसके ‘रीगल’ पर प्रीमियर से भी पहले अंजना निगम ने देखी हुई थी । इस बात में शक की कोई गुंजायश नहीं क्योंकि प्रीमियर से दो दिन पहले मिसेज पद्मसी अंजना निगम को खुद अपने साथ हाउस आफ सोवियत कल्चर में वो फिल्म दिखाने लेकर गयी थी । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, जरा इस बात की अहमियत पर गौर फरमाइये । गौरतलब बात ये है कि जो शर्त अंजना ने अपने पति के साथ लगायी थी उसका जवाब उसे पहले से ही मालूम था । उसे पहले से मालूम था कि फिल्म में कत्ल का अपराधी घर का चौकीदार था ।”

“यानी कि” - रुचिका बोली - “अंजना निगम को अपने हसबैंड को चीट करने की सजा मिल गयी ।”

“रोज पद्मसी ने भी यही कहा था । उसने इसे खुदाई इंसाफ का दर्जा दिया था । उसने कहा था अंजना को बहुत छोटे गुनाह की बहुत सजा मिली थी । लेकिन वो मसला जुदा है । जिस बात पर मेरा जोर है, उसे आप अभी भी नहीं समझ पाये हैं ।”

सबकी प्रश्नसूचक निगाहें आगाशे पर टिक गयीं ।

“मैं ये कहना चाहता हूं” - आगाशे बोला - “कि अंजना निगम ऐसी स्त्री नहीं थी जो इतनी छोटी-सी बात पर अपने हसबैंड को चीट करती । वो एक पढी-लिखी, नेकनीयत, खानदानी औरत थी जिसके कैरेक्टर में ऐसी फरेबी लगने वाली बात फिट नहीं बैठती । और शर्त भी किससे ? अपने पति से । और शर्त का हासिल क्या ! चाकलेट का एक पैकट । साहबान, क्या ये कबूल करने की बात है कि ऐसी शर्त उसने लगायी होगी ?”

“मजाक में !” - दासानी ने सुझाया ।

“मजाक में भी नहीं । मेरी जानकारी ये बताती है कि वो एक निहायत संजीदा मिजाज की औरत थी । ऐसे मजाक उसके कैरेक्टर से मेल नहीं खाते । फिर भी अगर ऐसा उसने मजाक में किया होता तो अपने पति को हरा लेने के बाद तो उसने असलियत बताई होती !”

“तो फिर क्या मतलब हुआ इसका ?” - छाया बोली - “क्यों किया अंजना ने ऐसा ?”

“इसका मतलब ये हुआ, लेडीज एण्ड जन्टलमैन, कि अंजना ने ऐसा कुछ नहीं किया था । वो शर्त कभी नहीं लगी थी । ऐसी कोई शर्त थी ही नहीं । इसका आगे मतलब ये हुआ कि मुकेश निगम उस शर्त की बाबत झूठ बोल रहा था । उस शर्त की कहानी मुकेश निगम ने वो चाकलेटों का पार्सल हासिल करने के लिये गढी थी । और वो चाकलेटें उसे शर्त की अदायगी के लिए नहीं, किसी और मकसद के लिए चाहिए थीं । और वो मकसद क्या था, ये आप मेरे बिना बताये भी समझ सकते हैं ।”

सभा में सन्नाटा छा गया ।

“यानी कि” - कई क्षण बाद छाया ने चुप्पी तोड़ी - “खुद मुकेश निगम ने अपनी बीवी का खून किया ?”

“जी हां” - आगाशे बोला - “हर बात उसकी तरफ इशारा करती है । ये काम उसके सिवाय और किसी का हो ही नहीं सकता ।”

“लेकिन उद्देश्य !” - दासानी बोला - “उद्देश्य क्या है कत्ल का ?”

“उद्देश्य के खाते में पहली बात तो ये ही है कि वो अपनी बीवी से उकता चुका था । ये बात जगविदित है कि शादी से पहले सोसायटी की रंगीन तितलियों की तरफ उसका जो रुझान रहा था वो शादी के बाद भी चोरी-छुपे जोर मारता रहा था । और बीवियों की तरह उसकी बीवी उसकी इस खामी को ये सोचकर नजरअन्दाज करने वाली नहीं थी कि पैसे वाले लोगों पर ऐसी तितलियां मंडराती ही थीं । मुकेश निगम की पब्लिक लाइफ की ऊपरी परत जरा-सी खरोंचने पर ही ये तथ्य उजागर हो जाता था कि शादी के बाद भी उसके संदिग्ध चरित्र की औरतों से - जैसे कैब्रे डांसर्स, छोटी-मोटी फैशन माडल्स, स्टेज आर्टिस्ट्स वगैरह से - ताल्लुकात रहे थे । यानी कि मुकेश निगम एक निष्ठावान पति को हरगिज भी नहीं था । वो मौज-मेले का शौकीन था और उसकी बीवी को उसके ऐसे शौकों से कतई कोई इत्तफाक नहीं था ।”

आगाशे एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “मैं ये नहीं कहता कि मुकेश निगम ने अंजना को पसन्द करके शादी नहीं की थी, मैं ये कहना चाहता हूं कि जब उसने बीवी पसन्द की थी तो तब बीवी की दौलत ज्यादा पसन्द की थी । उसकी निगाह क्योंकि बीवी की दौलत पर ज्यादा थी इसलिए वो जल्दी ही बीवी से बोर हो गया था । इसमें मैं उसकी कोई खास गलती भी नहीं मानता । ऐसी बीवी से अन्तपन्त मर्द ने बोर ही होना होता है जो कि सदा उसे शराफत और सदाचार का उपदेश देती रहती हो और जो सदा उसे जबरन का एक आदर्श पति बनाने पर तुली रहती हो । मेरी तफ्तीश ये कहती है कि अंजना निगम पति के पीछे पड़ी रहने वाली ऐसी ही एक खुन्दकी औरत थी जो अपने पति की छोटी-मोटी खामी, छोटी-मोटी कमतरी को भी मैग्नीफाइंग ग्लास से देखती थी और उसके लिए उसे शर्मिन्दा करने की कोशिश करती थी । पति जो कुछ भी करे वो गलत, वो खुद जो कुछ भी करे वो ठीक, ये उसकी स्थापित धारणा थी । साहबान, आप मेरे साथ इत्तफाक जाहिर करेंगे कि इस ‘मैं अच्छी, तू घटिया’ वाली नीयत से पति ने कभी न कभी बगावत करनी ही होती है । आप ये कतई न समझें कि मैं अंजना निगम के चरित्र पर कालिख पोतने की कोशिश कर रहा हूं । मैं सिर्फ ये कहना चाह रहा हूं कि कितनी नाकाबिलेबर्दाश्त बन सकती है जिन्दगी ऐसी औरत के साथ !”

केवल पुरुषों के सिर सहमति में हिले ।

“लेकिन कत्ल का बड़ा उद्देश्य ये नहीं । कत्ल का बड़ा उद्देश्य ये है कि वो अपनी दौलत को अपनी छाती से लगाकर रखती थी । वो चालीस-पचास लाख की चल-अचल सम्पत्ति की स्वतन्त्र रूप से स्वामिनी बताई जाती है और उस रकम पर वो अपने पति की परछाई तक नहीं पड़ने देती थी । साहबान, उसकी ये ही नीयत उसके लिए मौत की सजा बनी ।”

“क्यों ?” - रुचिका बोली - “मुकेश निगम खुद भी तो पैसे वाला आदमी था । क्यों निगाह थी उसकी अपनी बीवी की दौलत पर ?”

“मुकेश निगम पैसे वाला आदमी था, इस ढोल में बड़ी पोल निकली है, मैडम । उसकी माली हालत का जायजा लेने के लिए मैंने कम्पनी रजिस्ट्रार के दफ्तर से उन कम्पनियों की जानकारी हासिल की थी जिन के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स में मुकेश निगम का नाम था । ऐसी तीन कम्पनियों की मुझे खबर लगी थी और मुझे मालूम हुआ है कि वो तीनों ही दीवालियेपन की कगार पर खड़ी हैं । ऐसी कम्पनियों में लगी अपनी पूंजी के बदले में मुकेश निगम के पल्ले क्या पड़ता होगा, इसका आप लोग खुद ही अन्दाजा लगा सकते हैं ।”

“ओह !”

“फिर मैंने सब-रजिस्ट्रार के दफ्तर से अंजना निगम की वसीयत की कापी निकलवाई । उससे मुझे मालूम हुआ कि उसकी मौत के बाद उसकी तमाम चल और अचल सम्पत्ति का स्वामी उसका पति मुकेश निगम बनने वाला था । अब बताइये लेडीज एण्ड जन्टलमैन, उद्देश्य में कोई कसर रह गयी !”

“उद्देश्य तो तगड़ा है ।” - दासानी बोला ।

“नाइट्रोबेंजीन से” - लेखक अशोक प्रभाकर बोला - “मुकेश निगम का रिश्ता जोड़ पाये आप ?”

“बड़ी आसानी से ।” - आगाशे बोला ।

“कैसे ?”

“मिस्टर प्रभाकार, ये बात हम लोगों को आपने ही बताई थी कि नाइट्रोबेंजीन का इस्तेमाल परफ्यूमरी में भी होता है । अब सूचनार्थ निवेदन है कि जिन तीन कम्पनियों के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स में मुकेश निगम का नाम है, उनमें से एक ओरियन्टल परफ्यूमरी कम्पनी है । मैंने खुद लारेंस रोड इन्डस्ट्रियल एरिया में स्थित उनके दफ्तर में जाकर इस बात की तसदीक की थी कि वहां नाइट्रोबेंजीन इस्तेमाल होती थी और वहां हर किसी को ये चेतावनी थी कि इस आइटम को सावधानी से हैंडल किया जाना जरूरी था क्योंकि ये एक घातक विष था । अब आप बताइये कि जो जानकारी कम्पनी के हर मुलाजिम को है वो क्या उसके एक डायरेक्टर को भी नहीं होगी ? और अपनी ही कम्पनी ने अपनी जरूरत के काबिल नाइट्रोबेंजीन चुरा लाना उसके लिए क्या कठिन काम रहा होगा !”

“आप ठीक कह रहे हैं ।”

“साहबान, इस तथ्य से किसी को इनकार नहीं कि ये स्कीम बड़ी चतुराई से तैयार की गयी है और इसे परफैक्ट बनाने में कोई कोशिश उठा नहीं रखी गयी । लेकिन अपराधी अपनी स्कीम की नोक पलक हासिल जानकारी की मद्देनजर रख कर ही सुधार सकता है जबकि हकीकत में बेहतरीन तरीके से बनायी गयी खीर में भी मक्खी पड़ सकती है । मुकेश निगम की बनायी खीर में मक्खी इस सूरत में पड़ी कि उसे मालूम नहीं था कि उसकी बीवी ‘अपराधी कौन’ नामक पिक्चर का एक शो उसके प्रीमियर से भी पहले देख चुकी थी । निगम का वो प्रीमियर शो देखना भी उसकी स्कीम का एक हिस्सा था । यूं वो ये कह सकता था कि उस सवा एक और पौने तीन के बीच के जिस वक्फे में पार्सल पोस्ट किया गया था, उस वक्फे के दौरान तो वो ‘रीगल’ में अपनी बीवी के साथ बैठा पिक्चर देख रहा था । ये एलीबाई स्थापित करने के लिए ही उसने बीवी से पिक्चर चलने की जिद की थी और बीवी ने मुलाहजे में उसे ये नहीं बताया था कि वो पिक्चर पहले ही देख चुकी थी । यूं पति के उसे पिक्चर ले जाने के उत्साह को ठण्डा करना उसे मुनासिब न लगा होगा । किसी का दिल रखने के लिए इतना झूठ लोग-बाग आम बोल लेते हैं लेकिन इस झूठ को अपने हक में इस्तेमाल करके कोई शर्त जीतने की कोशिश करना एक ऐसा काम है जो अंजना निगम के कैरेक्टर से मेल नहीं खाता । पति के साथ देखी हुई फिल्म देखने चले जाना और बात है लेकिन इसी क्रिया पर आधारित कोई शर्त भी लगा बैठना और बात है । ऐसी किसी शर्त की कोई बात उठी भी होती तो उन हालात में अजना में उसे यकीनन टाल दिया होता । साहबान, शर्त की कहानी फर्जी है और वो इस मुगालते में से जन्मी है कि अंजना वो फिल्म अपने पति के साथ पहली बार देख रही थी । और ये ही वो मक्खी है जो कि मुकेश निगम की परफैक्ट स्कीम की खीर में पड़ी है ।”

आगाशे एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “अब जरा एलीबाई पर आइये । साहबान, मैंने खुद चैक किया है कि ‘रीगल’ पर ‘अपराधी कौन’ के नून शो का इन्टरवल सवा दो बजे होता है और पैदल चल कर ‘रीगल’ से जनपथ और जनपथ से वापिस ‘रीगल’ सात मिनट में आया जा सकता है । यानी कि इन्टरवल में टायलेट जाने के बहाने बीवी के पहलू से उठा मुकेश निगम बड़ी आसानी से जनपथ जाकर जहरभरी चाकलेटों वाला वो पार्सल वहां पोस्ट कर के पिक्चर शुरू होने से पहले वापिस लौट सकता है ।”

“वो ‘रीगल’ के बाहर से कोई सवारी पकड़ सकता था ।” - अशोक प्रभाकर बोला ।

“टाइम तब भी इतना ही लगता क्योंकि पैदल का रास्ता छोटा है और कनाट प्लेस के वन-वे ट्रैफिक के नियमों की वजह से सवारी का रास्ता बहुत लम्बा है । ऊपर से सवारी चालक को अपना वो मुसाफिर याद रह सकता था जो सिर्फ एक पार्सल पोस्ट करने के लिए जनपथ गया था और उल्टे पांव वापिस लौटा था । ऐसा सवारी चालक निगम के खिलाफ गवाह बन सकता था जो कि निगम को कभी गवारा न होता ।”

“आप ठीक कह रहे हैं ।”

“मैडम” - आगाशे छाया प्रजापति से सम्बोधित हुआ - “पिछले सोमवार आपने कहा था कि ‘अपराधी कौन’ का ‘रीगल’ का प्रीमियर शो आपने मिस्टर एण्ड मिसेज निगम के साथ उन्हीं वाले बाक्स में बैठकर देखा था । आप जरा याद करके बताइये कि क्या इन्टरवल के दौरान मुकेश निगम हर क्षण अपनी सीट पर ही मौजूद रहा था ?”

“बिल्कुल भी नहीं ।” - छाया बोली - “मुझे अच्छी तरह से याद है कि वो तो स्क्रीन पर ‘इन्टरवल’ फ्लैश होते ही उठकर बाहर चला गया था और अंधेरे में तब वापिस लौटा था जब कि कमर्शियल्स के बाद फिल्म शुरू होने ही वाली थी ।”

“सो दिस प्रूव्स माई प्वायन्ट ।”

“बाक्स में तो अंजना भी नहीं बैठी रही थी । इन्टरवल में पति के पीछे-पीछे ही वो भी वहां से बाहर निकल गयी थी, अलबत्ता लौट वो पति से काफी पहले आयी थी ।”

“आई सी ।”

“तो आपकी निगाह में अपराधी मुकेश निगम है ?”

“जी हां ।”

“ऊपर से ये आदमी अपराधविज्ञान विशेषज्ञ भी बताया जाता है ?”

“जी हां ।” - दासानी बोला - “उसकी इसी खूबी की वजह से तो मैंने ये प्रस्ताव रखा था कि उसे हमारी क्राइम क्लब की मेम्बरशिप आफर की जाये ।”

“अब तो वो” - आगाशे बोला - “तिहाड़ जेल की किसी क्रिमिनल क्लब का ही मेम्बर बनेगा ।”

“इतनी जल्दी उसे सजा न सुनाइये, मिस्टर आगाशे ।” - रुचिका केजरीवाल बोली - “अभी तो आपने बहुत से नुक्तों पर रोशनी डालनी है ।”

“अच्छा !” - आगाशे उसे घूरता हुआ बोला ।

“जी हां ।”

“मसलन ?”

“मसलन जब चाकलेटों का पार्सल क्लब में मुकेश निगम के अधिकार में आ गया था तो उसने उसके साथ आयी चिट्ठी और उसका रैपर नष्ट क्यों न कर दिया ? उसने उन दोनों चीजों के पुलिस के हाथों में पहुंच जाने देने का रिस्क क्यों लिया ?”

“इसमें कोई रिस्क नहीं था । वो तो चाहता था कि वो दोनों चीजें पुलिस के हाथ पड़तीं । यूं शक की सुई उसकी तरफ तो घूमती ही नहीं, बल्कि उससे परे किसी और की तरफ घूमती - जैसे सोराबजी एण्ड संस के किसी कर्मचारी की तरफ या किसी गुमनाम सिरफिरे की तरफ । और हम सब जानते ही हैं कि असल में भी ये ही हुआ । पुलिस कूद पर इस नतीजे पर पहुंच गयी कि यूं किसी को जहरभरी चाकलेटों का पार्सल भेजना किसी विकृत मस्तिष्क वाले व्यक्ति का, किसी होमीसिडल मैनियाक का, किसी क्रिमिनल ल्यूनैटिक का काम था ।”

“लेकिन यूं डाक से भेजी गयी चाकलेटों का पार्सल दुष्यन्त परमार को डिलीवर होने की क्या गारन्टी थी ?” - अभिजीत घोष ने संकोचपूर्ण स्वर में पूछा - “परमार अगले रोज बीमार पड़ सकता था या ऐसी ही कोई और वजह हो सकती थी अगले रोज उसके क्लब में न आने की । हो सकता था वो पार्सल मुकेश निगम को न देता या उसे देने की जगह किसी और को दे देता !”

“ऐसी सम्भावनायें तो इससे कहीं आगे तक हैं, मिस्टर घोष ।” - आगाशे तनिक अप्रसन्न स्वर में बोला - “परमार का हार्टफेल हो सकता था । उसके मकान की छत उसके ऊपर आकर गिर सकती थी । उसके घर में डाका पड़ सकता था । उस पर बिजली गिर सकती थी । उसे बिच्छू काट सकता था । चाकलेटें निगम को देने की जगह वो उन्हें खुद खा सकता था । पार्सल रजिस्टर्ड नहीं था इसलिये डाकिया ही उसे हथिया सकता था और उसकी बीवी, बेटी या माशूक उन चाकलेटों को खा सकती थीं । ऐसी और भी बेशुमार सम्भावनायें हैं । मिस्टर घोष, ये सम्भावनायें अगर आपको सूझ सकती हैं तो क्या ये निगम को नहीं सूझी होंगी ? एक तरफ तो हम उस आदमी को मर्डर की एक फरपेक्ट स्कीम का जन्मदाता साबित करने की कोशिश कर रहें हैं, दूसरी तरफ हम उसे इतना गावदी कैसे मान सकते हैं कि ये मामूली अड़ंगे उसे न सूझते ?”

अभिजीत घोष का चेहरा कानों तक लाल हो गया । उसकी सूरत उस स्कूल के बच्चे जैसी बन गयी जो मास्टर की पीठ पीछे शरारत करता पकड़ा गया था ।

“आपने ये कैसे सोच लिया” - आगाशे पूर्ववत् अप्रसन्न स्वर में बोला - “कि उसने जहर वाली चाकलेटें डाक से भेजी होंगी ? डाक से तो उसने एकदम निर्दोष चाकलेटें भेजी होंगी और फिर पार्सल अपने अधिकार में आ जाने के बाद अपने घर के रास्ते में उसने उन्हें जहरभरी चाकलेटों के पैकेट से बदल दिया होगा । इट इज ऐज ईजी ऐज दैट । एग्रीड ?”

अभिजीत घोष ने जल्दी से सहमति में सिर हिलाया ।

“साहबान, इस केस का एक-एक नुक्ता इस हकीकत की तरफ इशारा करता है कि हमारा वास्ता किसी मामूली शख्स से नही, एक आलादिमाग शातिर मुजरिम से है । मिसाल के तौर पर जरा सोचिये कि उसने पार्सल को जनपथ के लेटरबक्स से ही क्यों पोस्ट किया ! ऐसा उसने इसलिए किया क्योंकि जनपथ और कर्जन रोड, जहां कि शिवालिक क्लब है, एक ही बड़े डाकखाने के अन्डर आते हैं । यानी कि जिस बड़े डाकखाने से उसकी जनपथ से क्लैकशन है, उसी से उसकी कर्जन रोड पर डिलीवरी है । ये सिलसिला इस बात की गारन्टी था कि दोपहर बाद जनपथ से पोस्ट किया गया था पार्सल अगले रोज पहली ही डाक से शिवालिक क्लब में डिलीवर हो जाने वाला था । अब पार्सल की डिलीवरी वाले दिन निगम के शिवालिक क्लब में आगमन का अन्दाज देखिये । वो उस सुबह क्लब के आसपास इस ताक में मंडराता नहीं रहता कि दुष्यन्त परमार वहां पहुंचे और वो उसके पीछे-पीछे क्लब में दाखिल हो । वो ऐसा नहीं करता । ऐसा करना उसके लिए जरूरी भी नहीं । क्योंकि अपने मकसद के लिए उसने दुष्यन्त परमार को इसलिए चुना था क्योंकि ये बात जगविदित है कि सुबह साढे दस बजे शिवालिक क्लब में उसकी हाजिरी अवश्यम्भावी होती है । उसकी वक्त की ये पाबन्दी ऐसी स्थापित है कि लोग क्लब में उसकी एन्ट्री के टाइम से अपनी घड़ियां मिला सकते हैं । ये बात निगम को भी मालूम है । इसलिये ऐन उसी वक्त वो भी बड़े सहज स्वभाविक ढंग से क्लब में दाखिल होता है और यूं ऐसा कतई नही लगता कि वो वहां परमार के आगमन की ताक में था । पहले इस बात ने भी मुझे बड़ी उलझन में डाला था कि चाकलेटों का वो पार्सल परमार के घर के पते पर क्यों नहीं पोस्ट किया गया था, वो उसे क्लब के पते पर क्यों भेजा गया था ! अब ये बात साफ है । पार्सल वहां इसलिये भेजा गया था क्योंकि वो पहली डाक से डिलीवर होने वाला था और पहली डिलीवरी के वक्त परमार की क्लब में मौजूदगी की गारन्टी थी ।”

समस्त श्रोतागण बहुत प्रभावित दिखाई देने लगे ।

“आपने” - अशोक प्रभाकर बोला - “मेरी शर्तों की लिस्ट की तीसरी शर्त से नाइत्तफाकी जाहिर की । आपने कहा कि अपराधी कोई ग्रैजुएट या पोस्टग्रैजुएट डिग्रीहोल्डर भी हो सकता था । ऐसा क्या आपने इसलिये कहा था क्योंकि आप को अब मालूम है कि आपका अपराधी मुकेश निगम है और वो खूब पढा-लिखा है ?”

“देखिये, लेखक महोदय, मुझे पूरा-पूरा शक है कि आपने ये जो शर्तें गढी थी, खुद अपने-आपको मद्देनजर रखकर गढी थीं । क्योंकि आप अपने-आपको अपराधी घोषित करके सनसनी फैलाना चाहते थे । इसीलिए जहां आपकी कुछ शर्तें निहायत मानीखेज हैं वहां कुछ शर्तें बेमानी भी हैं । शिक्षा सम्बन्धी आपकी शर्तें दूसरी श्रेणी में आती हैं । मैं ये तो कबूल कर सकता हूं कि अपराधी कतई अनपढ नहीं है - और आज के जमाने में कतई अनपढ कोई होता भी नहीं - लेकिन उसका गुजारे लायक पढा-लिखा होना ही जरूरी नहीं । उसकी पढाई का कोई ओर-छोर निर्धारित करना बेईमानी है । आप कहते हैं कि आदमी का कत्ल के लिए चुना गया तरीका उसकी शिक्षा से प्रभावित होता है । मैं ये कहता हूं कि ये बात तब तो थोड़ी-बहुत लागू होती भी है जबकि कत्ल करने वाला भी आदमी हो और कत्ल होने वाली भी आदमी हो लेकिन तब नहीं जबकि कत्ल होने वाली औरत हो । मुकेश निगम ने दुष्यन्त परमार का कत्ल करने की कोशिश की होती तो शायद उसने जहरभरी चाकलेटों का सहारा न लिया होता । तब शायद वो कत्ल को कोई ज्यादा प्रचलित तरीका इस्तेमाल करता । किसी औरत को मारने के लिए कातिल को जहर का ख्याल आना स्वाभाविक है । क्योंकि ऐसी मौत को वायलैंट डैथ नहीं कहा जा सकता । आप किसी का सिर फोड़ कर उसे मरने को छोड़ दें या फाड़ कर उसकी आंतें बाहर निकाल दें या पटक कर उसकी रीढ की हड्डी के जोड़ खोल दें तो ये वायलैंट डैथ के तरीके - मर्दाना तरीके - होंगे, लेकिन कम-से-कम मेरी कल्पना में ये नहीं आता कि कोई मर्द किसी औरत की जान यूं ले । औरत के मामले में तो उसकी ये ही कोशिश होगी कि मरने में उसे कम-से-कम तकलीफ हो । जहर ऐसा ही जरिया है । उससे बेहोशी जल्दी तारी हो जाती है और फिर मरने वाले को दुख-तकलीफ का पता नहीं चलता ।”

अशोक प्रभाकर खामोश रहा । आगाशे ने किसी प्रत्युत्तर की अपेक्षा में उसकी तरफ देखा तो वो केवल मुस्कराया ।

“अब देखिए” - आगाशे बोला - “हर चाकलेट में नाइट्रोबेंजीन की ऐन छह बूंदे होने से आपने क्या नतीजा निकाला ? इससे आपने ये नतीजा निकाला कि हत्यारा आदतन नीट एण्ड क्लीन और नफासतपसन्द था जोकि नौवीं शर्त है । लेकिन मेरा ये कहना है कि उसकी इन आदतों का केस से कुछ लेना-देना नहीं । कोई जरूरी नहीं है कि वो नीट एण्ड क्लीन हो या नफासतपसन्द हो । इसलिये जरूरी नहीं क्योंकि हर चाकलेट में नाइट्रोबेंजीन का एक ही जैसा डोज होना किसी और वजह से जरूरी है । और वो वजह ये है कि वो ही चाकलेट मुकेश निगम से खुद भी खानी थी । उसने दो चाकलेट खायी, उसकी बीवी से सात खायीं । अगर डोज कमी-बेशी वाले होते तो मुमकिन था, कि सात चाकलेटों के जरिये अंजना के पेट में उतना जहर न पहुंचता जितना कि दो चाकलेटों के जरिये मुकेश निगम के पेट में पहुंच गया होता । फिर क्या होता ? फिर अंजना कांख-कूंखकर, हाय-हाय करके पति की तरह बच गयी होती और निगम अपनी पत्नी की तरह परलोक सिधार गया होता । कातिल मर गया होता, उसका शिकार जिन्दा बच गया होता । साहबान, निगम की योजना की सबसे मास्टरपीस बात ही ये थी कि जहर से उसने अपनी बीवी की जान ली थी, वही उसने खुद भी खाया था । उसे मालूम था कि डिब्बे की ऊपरली परत की पन्द्रह चाकलेटों में से कोई भी दो उसके पल्ले पड़ सकती थीं इसलिए ये जरूरी था कि हर चाकलेट में एक ही पूर्वनिर्धारित डोज होता । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, ये थी असल वजह पर चाकलेट में नाइट्रोबेंजीन की ऐन छह बूंदें मौजूद होने की, न कि ये कि हत्यारा एक नीट एण्ड क्लीन आदमी था या वो नफासतपसन्द था या वो हर काम को योजनाबद्ध तरीके से करने का आदी था । बेशक वो ये सब कुछ भी हो लेकिन वो ये कुछ न होता तो इसका मतलब ये नहीं है कि हर चाकलेट में जहर की जुदा मिकदार होती । अगर निगम ने जिन्दा बाकी बचना था तो हर चाकलेट में जहर की एक ही मिकदार होना निहायत जरूरी था । और कोई बड़ी बात नहीं कि ऐसी पन्द्रह चाकलेट तैयार करने के लिये उसने इससे चार गुणा चाकलेटें बिगाड़ी हों । साहबान, चाकलेट के मामले में हमारे सामने ऐण्ड रिजल्ट है, टोटल रिजल्ट नहीं ।”

इस बार हर कोई - अशोक प्रभाकर भी - साफ-साफ प्रभावित दिखाई दिया ।

“और फिर ये न भूलिये” - आगाशे आगे बढा - “कि चाकलेटों को लेकर अपने घर के ड्राइंगरूम में अपनी बीवी के साथ जो वार्तालाप हुआ मुकेश निगम बताता है, उसका जामिन खुद उसके सिवाय दूसरा कोई नहीं - बिल्कुल वैसे ही जैसे कि फिल्म को लेकर उसकी बीवी के साथ लगी शर्त का जामिन दूसरा कोई नहीं । वो कहता है कि वो अपनी बीवी को ड्राइंगरूम में चाकलेट खाती छोड़कर वहां से चल दिया था लेकिन मेरा दावा है कि तब तक वहां रुका होगा जब तक उसने अपनी बीवी को उसकी मर्जी से या अपनी मनुहार से इतनी काफी चाकलेंट खा चुकी अपनी आंखों से न देख लिया होगा जितनी से कि उसकी जान जाना निश्चित था । इसी से ये साबित होता है कि उसे मालूम था कि नाइट्रोबेंजीन की कितनी बूंदें पेट में जमा होने के बाद हालात जानलेवा बनते हैं । जरूर वो डोज बीवी के पेट में पहुंच गया अपनी आंखों से देख लेने के बाद ही वो वहां से हिला होगा । उसके बाद बीवी और चाकलेट खाती या न खाती, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था ।”

“फिर तो” - अशोक प्रभाकर प्रभावित स्वर में बोला - “बहुत पहुंचा हुआ बन्दा है मुकेश निगम ।”

“बहुत ही ज्यादा पहुंचा हुआ ।” - आगाशे बोला ।

“यानी कि” - रुचिका बोली - “आपकी निगाह में अब शक की कोई गुंजाइश नहीं कि वो ही अपराधी है ?”

“न । कतई नहीं ।”

“हूं ।”

“क्या हूं ? तुम्हें दिखाई देती है शक की कोई गुंजायश ?”

वो खामोश रही ।

“भई, अगर कोई शक है तो उसे जुबान दो । किसी को भी मेरी थ्योरी पर कोई शुबह हो तो उसे बयान करे ।”

“मुझे तो” - छाया प्रभापति अपनी न्यायाधीशसुलभ गम्भीरता से बोली - “कोई नुक्स नहीं दिखाई देता आपकी थ्योरी में ।”

“आप क्या कहते हैं, मिस्टर प्रभाकर ?”

अशोक प्रभाकर ने खंखारकर गला साफ किया और फिर बोला - “आपका उद्देश्य पर बहुत जोर है, सभापति महोदय । लेकिन मुझे यहां कुछ अतिशयोक्ति से काम लेते मालूम हो रहे हैं आप । बीवियों से उकताये खाविन्द उनके खून के प्यासे नहीं हो जाते । ये भी आसानी से हज्म होने वाली बात नहीं कि अपनी इनवैस्टमैंट्स को सुधारने के लिए उसे अगर कोई रकम दरकार थी तो वो बीवी के कत्ल के बिना उसे हासिल हो ही नहीं सकती थी । और खाविन्द के डूबते बिजनेस को संभालने में उसकी मदद करने के लिए उसकी दौलतमंद बीवी खुद ही आगे न आए, ये भी मुश्किल से ही एतबार में आने वाली बात है ।”

“ऐसा आप इसलिए कर रहें हैं” - आगाशे बोला - “क्योंकि आप पति-पत्नी दोनों के ही चरित्र का सही जायजा नहीं ले पाये हैं । दोनों एक नम्बर के ढीठ हैं । और मुकेश निगम का बिजनेस डूब रहा था, इस बात का अहसास पहले निगम को नहीं, अंजना को हुआ था । ऐसे हालात में अपनी दौलत पर काबिज रहने का हठ ठान लेना बीवी के लिए स्वाभाविक बात थी । मिस्टर प्रभाकर, मैं दर्जनों ऐसी हत्याओं की बाबत जानता हूं जिनको करने वालों के पास मुकेश निगम से भी कम उद्देश्य था ।”

“चलिये, मान ली आपकी बात ।” - लेखक बड़ी दयानतदारी से बोला - “अब आप जानते हैं कि हत्या वाले रोज अंजना निगम का लंच घर से बाहर होने वाला था लेकिन लंच अप्वायन्टमैंट कैंसिल हो गयी थी । क्या मुकेश निगम को इस बात की खबर नहीं थी ? क्योंकि अगर खबर थी तो ऐसा क्यों कर हुआ कि उसने चाकलेटों की डाक से डिलीवरी के लिए वो दिन चुना जिस दिन उसकी बीवी लंच में उन्हें प्राप्त करने के लिए घर पर ही नहीं होने वाली थी ?”

“ऐन यही सवाल” - रुचिका बोली - “मैं पूछने वाली थी ।”

आगाशे के चेहरे पर उलझन के भाव आये जो कुछ क्षण बाद झुंझलाहट में तब्दील हो गये ।

“ये कोई अहम सवाल नहीं ।” - वो बोला - “और फिर उन चाकलेटों का लंच टाइम पर ही बीवी को सौंपा जाना क्यों जरूरी था ?”

“दो कारणों से जरूरी था ।” - अशोक प्रभाकर बोला - “एक तो बाजरिया दुष्यन्त परमार पार्सल हाथ में आ जाने के बाद यही स्वाभाविक लगता है कि हत्यारे ने उसे फौरन इस्तेमाल में लाने की कोशिश की होती और दूसरे, क्योंकि शर्त वाली बात का जिक्र करके ही निगम ने वो पार्सल परमार से हासिल किया था और शर्त - आपका दावा है कि - ऐसी कोई थी ही नहीं तो जाहिर है कि शर्त वाली बात को सिर्फ बीवी ही झुठला सकती थी इसलिए निगम की जरूर यही कोशिश रही होगी कि जितनी जल्दी हो सके बीवी का मुंह हमेशा के लिए बन्द हो जाये ।”

“ये सब बाल की खाल निकलने वाली बातें हैं ।” - आगाशे भुनभुनाया - “मेरी तो ये ही समझ से बाहर है कि क्यों - आखिर क्यों मुकेश निगम को अपनी बीवी की लंच अप्वायन्टमैंट की खबर होनी चाहिए थी ? दोनों हाई सोसायटी में विचरने वाले शख्स थे और वक्त का उन्हें कोई तोड़ा नहीं रहता था । ऐसे लोगों के लंच और डिनर तो रोज ही बाहर होते हैं । मुझे तो उम्मीद नहीं कि ऐसे पति-पत्नी एक दूसरे को खबर करके रखते हों कि कब किसका लंच कहां होने वाला था !”

अशोक प्रभाकर को जवाब न सूझा ।

उस स्थिति से उत्साहित होकर आगाशे ने सगर्व सब सदस्यों पर निगाह दौड़ाई ।

“सभापित महोदय” - एकाएक अभिजीत घोष बोला - “मेरी तुच्छ राय में आपके केस का मुकम्मल दारोमदार शर्त पर है !”

“जाहिर है ।” - आगाशे सहज स्वर में बोला ।

“अगर ये साबित हो जाये कि वो शर्त तो लगी थी तो फिर आपके केस का तो कुछ न बचा ।”

“क्या ?” - आगाशे सकपकाया ।

“आपकी थ्योरी की इमारत इसी बुनियाद पर खड़ी है कि वो शर्त कभी लगी ही नहीं थी । लेकिन अगर ये जाहिर हो कि शर्त से ताल्लुक रखता तमाम वाकया हकीकत है तो आपकी इमारत तो धराशायी हो गयी !”

“आपके पास” - आगाशे बड़े विचलित भाव से उसे घूरता हुआ बोला - “कोई सबूत है उस शर्त के लगी होने का ?”

“नहीं, नहीं । मेरे पास कोई सबूत नहीं, जनाब । मेरे पास कहां से आया ऐसा सबूत ?”

“तो फिर ?”

“मैं तो सिर्फ से ख्याल जाहिर कर रहा था कि अगर किसी ने आपके केस की बुनियाद हिलानी हो तो उसे शर्त पर ही अपना सारा ध्यान केन्द्रित करना होगा ।”

“बात तो ठीक कह रहे हैं मिस्टर घोष ।” - अशोक प्रभाकर तत्काल बोला - “तब हत्या का उद्देश्य, लंच अप्वायन्टमैंट की पति को खबर जैसे मामले तो गौण हो जायेंगे ।”

“ऐसा खामख्वाह कैसे ये हो जायेगा ?” - आगाशे तमक कर बोला - “खामख्वाह कैसे ये साबित हो जायेगा कि वो शर्त लगी थी ?”

“नहीं साबित हो जायेगा ।” - आभिजीत घोष दबे स्वर में बोला - “मैंने तो कहा था कि अगर...”

“आपकी छोटी- छोटी अगर- मगर मेरी परफैक्ट थ्योरी पर सवालिया निशान नहीं लगा सकती, मिस्टर घोष ।”

“मैंने ऐसी कोई कोशिश भी नहीं की लेकिन....”

“मेरी थ्योरी के सामने अगर-मगर की तरह लेकिन-वेकिन भी नहीं चलने वाला ।”

अभिजीत घोष ने बड़े नर्वस भाव से जोर से थूक निगली ।

“आपकी क्या राय है, लेडीज एण्ड जन्टलमैन, आपको मेरी थ्योरी से इत्तफाक है ?”

“है ।” - सबसे ज्यादा एतराज पेश करने वाला जासूसी उपन्यासकार अशोक प्रभाकर सबसे पहले बोला ।

“दम है आपकी थ्योरी में ।” - एडवोकेट लौंगमल दासानी बोला ।

“क्राइम क्लब में डिटेक्टिव प्रेसीडेंट विवेक आगाशे को” - मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति जोशभरे स्वर में बोली - “अंजना निगम मर्डर केस हल कर लेने की बधाई ।”

केवल क्राइम रिपोर्टर रुचिका केजरीवाल अपने ही ख्यालों में खोई खामोश बैठी थी ।

“हमारी जर्नलिस्ट सदस्या को” - आगाशे शिकायतभरे स्वर में बोला - “बाकी मेम्बरान की सामूहिक राय से इत्तफाक नहीं मालूम पड़ता ।”

“ऐसी कोई बात नहीं है ।” - रुचिका हड़बड़ा कर सिर उठाती हुई बोली - “तो आपका ये कहना है कि आपने मुकेश निगम द्वारा टापइराइटर की खरीद को भी साबित कर दिया है और प्रिंट आर्ट की एक सेल्सगर्ल की सैम्पल फाइल से भी उसका सम्पर्क स्थापित कर दिखाया है !”

“कोई शक ?”

“कतई नही । लेकिन क्या आप मुझे उस टाइपराइटर शॉप का नाम और पता बतायेंगे ?”

“जरूर । दुकान का नाम राजधानी टाइपराइटर कम्पनी । पता खैबर पास, माल रोड ।”

“और प्रिंट आर्ट की उस सेल्सगर्ल का नाम क्या था जिसने कि तस्वीर से मुकेश निगम की शिनाख्त की थी ?”

“नाम तो मैंने पूछा नहीं था उसका लेकिन शायद उसने उस रसीद पर अपना नाम लिखा हो जो कि उसने मेरा आर्डर बुक करते वक्त मुझे दी थी ।” - आगाशे ने जेब से अपना पर्स निकाला और उसमें से रसीद बरामद की - “हां, है इस पर उसका नाम । सुनीता सूद ।”

“शुक्रिया ।” - रुचिका बोली ।

“इन मालूमात की वजह, मिस केजरीवाल ?” - आगाशे संशय और उत्सुकता मिश्रित स्वर में बोला ।

“कोई खास नहीं ।” - रुचिका लापरवाही से बोली ।

“आपने मेरी थ्योरी की बाबत अपनी राय नहीं जाहिर की ? आप इससे सहमत हैं या नहीं ? आप मानती हैं या नहीं कि अंजना निगम का कत्ल उसके पति ने किया है ?”

“आपके इन तमाम सवालों का जवाब मैं कल दूंगी ।” - रुचिका बड़े इत्मीनान से बोली ।

“कल क्यों ? अभी क्यों नहीं ?”

“क्योंकि कल मेरी बारी है । और ये प्रस्ताव हम सर्वसम्मति से पास कर चुके हैं कि क्राइम क्लब के छ के छ मेम्बरान को बोलने का मौका दिया जायेगा । मुझे आपकी थ्योरी से इत्तफाक हो या न हो, कल मेरी बारी पर मुझे बोलने का मौका तो आपको देना ही पड़ेगा ।”

“इसका तो यही मतलब हुआ कि आपको मेरी थ्योरी से इत्तफाक नहीं । होता तो कल अपनी बारी के इस्तेमाल से आप ने क्या हासिल कर लेना था !”

“अच्छा हुआ कि आपने ये बात समझी और अपनी जुबानी कही ।”

“तो इसका मतलब ये हुआ कि कातिल की बाबत आपकी राय मुख्तलिक है ?”

“जाहिर है ।”

“आपकी राय में कातिल कोई और है ?”

“जी हां ।”

“यानी कि आपकी निगाह में मेरी थ्योरी बेबुनियाद है ?”

“बुनियाद तो आपने उसकी बहुत खूबसूरती से बनायी है मिस्टर आगाशे । साबित करते दिखाया है आपने कि आप एक इन्तहाई आला दिमाग के मालिक हैं और सही मायनों में क्राइम क्लब की सदारत के काबिल हैं । आपकी थ्योरी जानदार है, शानदार है, करिश्मासाज है लेकिन गलत है ।”

आगाशे हक्का-बक्का सा रुचिका का मुंह देखने लगा ।

“कहना जरूरी था” - रुचिका गम्भीरता से बोली - “कहना पड़ा । अब मैं गलत हूं या आप, इसका फैसला कल होगा ।”

आगाशे ने सहमति में सिर हिलाया ।

फिर उसने उस रोज की मीटिंग बर्खास्तगी की घोषणा कर दी ।