दस बजे के करीब और दीपाली की नींद टूटी। दीपाली के चेहरे पर मस्ती छाई हुई थी। वो शोख और कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लग रही थी। बेशक चारपाई पर मर्जी उसकी ही चली थी। लेकिन बेदी ने उसकी सारी थकान उतार दी थी। कुछ घंटों की नींद से दोनों खुद को थोड़ा-सा हल्का महसूस कर रहे थे।

“गुड मॉर्निंग ! " दीपाली ने मुस्कराकर बेदी का गाल थपथपाया।

बेदी ने उसे देखा फिर गहरी सांस लेकर उठ बैठा।

“क्या हुआ? मेरे साथ अच्छा नहीं लगा क्या?" दीपाली हौले से हँसी।

“अच्छा लगा।"

"तो फिर थोबड़े पर मातम के निशान क्यों छाप रखे हैं?"

“अमर-सोफिया वगैरह, यहां पर आकर हमारे बारे में पूछताछ कर रहे थे।" बेदी ने कहा।

“क्या?" दीपाली हड़बड़ाकर उठ बैठी--- "कब की बात है ये?"

“सुबह की ही। जब तुम सो गई थीं और मुझे नींद आने वाली थी।" बेदी ने सिग्रेट सुलगा ली--- "लेकिन उस छोकरे ने उन्हें कह दिया कि हम लोग यहां नहीं आये हैं।"

दीपाली एकाएक कुछ कह नहीं सकी।

"उन लोगों को हाथों-हाथ मालूम हो गया था कि हम शहर से बाहर इस तरफ आ गये हैं।"

"लेकिन उन्हें कैसे पता चला?"

“किसी ने देख लिया होगा। मैं तुम्हें उन लोगों के हुलिये बताता हूं, जो हमें ढूंढ रहे थे। उनमें से एक को तो मैंने पहचानता हूं। शायद दूसरों को तुम पहचानती हो।” बेदी ने छोकरे के बताये हुलिये, दीपाली को बताये।

“कल्पना। इनमें से एक तो कल्पना है।” दीपाली के होंठों से निकला।

“दूसरी सोफिया है और तीसरा उनके साथ अमर होगा।" बेदी ने दीपाली के चेहरे पर नजर मारी।

दीपाली परेशान नजर आने लगी थी।

"विजय! अमर-कल्पना-सोफिया हाथ धोकर हमारे पीछे पड़ गये हैं। मैंने तो सोचा था, खतरा दूर हो गया है। लेकिन सब कुछ वही है। पहले जैसा ही है।” दीपाली व्याकुल थी।

“छोकरे ने बताया कि यहां पूछताछ करने के बाद, वो लोग सुन्दर नगर की तरफ गये हैं।" बेदी खड़े होते हुए बोला--- “तब तो सिर्फ छोकरा ही था होटल में। उसने मामला संभाल लिया। लेकिन अब वो आते हैं तो ढाबे वाले हमारे यहां होने के बारे में बता देंगे। इस वक्त ढाबे पर कई काम करने वाले होंगे।"

“फिर तो हमें फौरन ये जगह छोड़ देनी चाहिए।" दीपाली भी जल्दी से खड़ी हो गई।

"मैं भी यही सोच रहा था।"

"लेकिन जायेंगे कहां?"

“ये बाद की बात है। पहले यहां से तो निकलें।” कहते हुए बेदी ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला।

दरवाजे के बाहर, पास ही छोकरा, टाट बिछाकर सोया हुआ था। दरवाजा खुलने की आवाज पर वो तुरन्त उठ बैठा। बेदी की निगाह उस पर जा टिकी।

“साब जी!” छोकरा खड़े होते हुए बोला--- “आपको एक और प्राईवेट खबर देनी है। उसी वक्त इसलिए नहीं बताया कि आपकी नींद खराब---।"

“क्या बताना है?" बेदी के माथे पर बल पड़े।

"भीतर आ जाऊं। ढाबे का मालिक, आपसे बातें करते देखेगा तो पूछेगा मैं क्या बात कर रहा हूँ?"

"आ।”

छोकरा भीतर आ गया और बोला ।

“साब जी! कुछ लोग और भी आप दोनों को पूछते हुए आये थे। वो शरीफ लग रहे थे। लेकिन उन्हें भी मैंने नहीं बताया कि---।"

"कौन थे वो लोग?”

“मुझे क्या मालूम साब!" छोकरा, दीपाली को सिर से पांव तक देखता हुआ बोला--- “आपको ही पता होगा कि कौन लोग वो हो सकते हैं। हो सकता है मेम साब के घरवाले हों। जिन्हें आप घर से भगाकर---।"

“ज्यादा मत बोल। मैं किसी को घर से भगाकर नहीं ले जा रहा।” बेदी मुंह बनाकर कह उठा ।

“तो मेमसाब, खुद घर से भागी---।"

"देखने में वो कैसे थे?"

छोकरे ने विनोद कुमार और टण्डन का हुलिया बताया।

“विनोद कुमार। प्राइवेट जासूस।” सुनते ही दीपाली के होंठों से निकला।

“तुम जानती हो उसे?"

“हां। शायद वो पापा के कहने पर मेरी तलाश कर रहा होगा।" दीपाली ने होंठ भींचकर कहा ।

“हो सकता है, वो अमर के कहने पर तुम्हारी तलाश कर रहा हो।” बेदी ने दीपाली को घूरा ।

"नहीं। विनोद कुमार ऐसा इन्सान नहीं है। वो---।”

“वो प्राईवेट जासूस है। पैसा लेकर काम करना उसका पेशा है। वो किसी के लिए भी काम कर सकता है। दौलत के लिए मैंने इन्सानों को बदलते देखा है। दौलत पाने के लिए इन्सान कुत्ता बन जाता है।” बेदी ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "इस बात का सबसे बड़ा गवाह, मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं।"

"क्या मतलब?” दीपाली की आंखें सिकुड़ीं ।

"कोई मतलब नहीं।” बेदी ने गहरी सांस लेकर कहा--- "इस बात से तुम्हारा कोई वास्ता नहीं। ये बात मेरी बीती जिन्दगी से वास्ता रखती है।"

दीपाली की निगाह बेदी पर ही रही। कहा कुछ नहीं ।

“आप दोनों अपनी बातें फिर कर लेना। मुझे नींद आ रही है। खबर देने के लिए मैं दरवाजे के बाहर सोया था। मेरा ईनाम मिल जाये तो, मैं जाकर नींद लूं। रोज रात को मुझे ड्यूटी देनी पड़ती है।"

"पांच सौ का नोट दिया था तेरे को। वो--।"

"वो तो पहली खबर के लिए था।" छोकरे ने दांत फाड़े।

"दांत साफ किया कर।" बेदी ने तीखे स्वर में कहा और सौ का नोट निकालकर, उसे थमा दिया।

"सौ का नोट । वो भी एक।" छोकरे ने बेदी को देखा।

“उल्लू के पट्ठे और मेरी क्या जान लेगा। छः सौ तेरे को मुफ्त का मिल गया। कुछ मेरे पास भी छोड़ेगा। दाल-रोटी खाने के लिए।" बेदी मुंह बनाकर बोला--- "जेब हल्की हो रही है। "

“समझ गया साब। कोई बात नहीं।” छोकरा नोट को जेब में डालता हुआ बोला--- “साब जी, नहाना-धोना हो तो बता दीजिए। मिनटों में इन्तजाम कर देता हूँ। उसके बाद खाने के लिए परांठे । मजा आ जायेगा।"

बेदी और दीपाली की नजरें मिलीं।

“नहा भी लेते हैं और खा भी लेते हैं।" बेदी ने गहरी सांस लेकर कहा--- “आगे के वक्त का कोई भरोसा नहीं।"

“नहाने का इन्तजाम करूं?" छोकरा बोला।

“जल्दी। और उसके बाद खाने का और भी जल्दी । हमने यहां से निकलना है।"

“समझ गया साब।” छोकरा फौरन कमरे से बाहर निकल गया।

बेदी ने दीपाली को देखा।

“मैं तुम्हें सुरक्षित, तुम्हारे घर पहुंचा देना चाहता हूं।” स्वर में गम्भीरता थी।

"मैं भी जल्दी अपने घर पहुंच जाना चाहती हूं।” दीपाली शांत स्वर में कह उठी--- "लेकिन जाने क्यों तुम्हारा साथ मुझे अच्छा लगने लगा है। तुमसे बातें करके अच्छा लगता है।”

"तुम काम की बातों से भटक रही हो।" बेदी ने सपाट स्वर में कहा।

दीपाली गहरी सांस लेकर, मुस्करा पड़ी।

कुछ पलों तक उनके बीच चुप्पी रही। फिर दीपाली कह उठी।

“विजय! अमर-कल्पना-सोफिया हमारी तलाश की तरफ चले गये हैं। ऐसे में हमारे पास बहुत अच्छा मौका है। सुन्दर नगर वापस जाने का। मैं आसानी से अपने घर पहुंच सकती हूं।"

“ये तुम्हारी सबसे बड़ी बेवकूफी होगी।” बेदी ने कहा।

“क्या मतलब? ऐसा करने में बुराई ही क्या है?"

“तुम्हारे लिए शहर में अभी भी अमर के आदमी फैले होंगे। तुम्हारे बंगले पर नजर रखी जा रही होगी। जो तुम्हें तलाश कर रहा है, वो ऐसा बेवकूफ नहीं होगा कि तुम्हारे बंगले पर से अपने आदमी हटवा दे। वो तब तक तुम्हारे बंगले पर नजर रखवायेगा, जब तक कि तुम उसकी पकड़ में नहीं आ जातीं या फिर उसे ये विश्वास नहीं हो जाता कि तुम, उनकी पकड़ से दूर हो चुकी हो।"

दीपाली ने गम्भीरता से सिर हिलाया ।

“बात तो तुम्हारी बिल्कुल ठीक है।" बेदी ने कश लेकर, सिग्रेट खुले दरवाजे से बाहर उछाल दी।

“विजय! आखिर इन लोगों से मेरा पीछा कैसे छूटेगा ?”

“कुछ तो करना ही पड़ेगा।" बेदी ने सोच भरे गम्भीर स्वर में कहा--- “हम इस तरह भाग-दौड़ कर ज्यादा देर तक खुद को नहीं बचा सकते। मौका पाकर पुलिस वालों की सहायता लेनी पड़ेगी। वो तुम्हें, बचा लेंगे। लेकिन ऐसे वक्त में, मैं पुलिस वालों के पास नहीं जाऊंगा।"

“क्यों?” दीपाली की आंखें सिकुड़ीं--- “तुम्हें पुलिस वालों से डर लगता है।"

“ऐसी कोई बात नहीं।” बेदी मुस्करा पड़ा--- "मुझे उनकी वर्दी अच्छी नहीं लगती।”

“ऐसा तो नहीं कि तुम कोई जुर्म करके भागे हुए हो और---।"

“क्या तुम्हें मैं ऐसा लगता हूँ?” बेदी के चेहरे पर अभी भी मुस्कान थी।

“लगते तो नहीं।” दीपाली भी मुस्कराई--- "तो यहां से कहां चलना है?"

“सुन्दर नगर की तरफ ही जायेंगे।" बेदी के चेहरे से मुस्कान गायब हो गई--- “देखते हैं, आगे क्या होता है? शायद कुछ भी न हो। हम उन लोगों को धोखा देने में कामयाब हो जायें।"

“विनोद कुमार हमें बचा सकता।"

“मैं पहले भी कह चुका हूं कि वो प्राइवेट जासूस है। वो हर काम पैसे के लिए करता है। और तुम्हारी तलाश वो, अमर या किसी और के लिए भी करता हो सकता है।" बेदी ने अपने शब्दों पर जोर देते हुए कहा--- "यानि कि मैं किसी भी तरह का धोखा खाने को तैयार नहीं हूं।"

तभी छोकरा दरवाजे पर नजर आया।

“साब जी! नहाने का इन्तजाम कर दिया है। पहले कौन नहायेगा या दोनों का इकट्ठा ही प्रोग्राम है?"

■■■

दिन कब का निकल चुका था।

शामपुर में आगे पड़ने वाले दो अन्य ढाबों पर भी अमर-कल्पना ने पूछताछ की, विजय और दीपाली के बारे में---परन्तु कोई खबर नहीं मिली उनकी।

"ये भी हो सकता है कि वो लोग यहां रुके ही न हो।" कल्पना ने कहा--- "बीच में कहीं भी न रुके हों। सीधे सुन्दर नगर ही जाकर रुके हों। दो-तीन घंटे का तो रास्ता है सुन्दर नगर का।"

"कल्पना की बात ठीक हो सकती है।" सोफिया ने कहा।

कल्पना ने सोफिया को घूरा, कहा कुछ नहीं।

"तुमने अपने आदमी से पूछा था कि उनके पास कौन-सी कार है? कार का रंग क्या है?" अमर ने सोफिया से पूछा ।

"इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं।”

"ये तो मालूम करना था।" अमर ने तीखे स्वर में कहा।

वो जहां रुके थे। वो शामपुर का अन्तिम छोर था। फिर काँवरा नाम की जगह शुरू हो जानी थी।

"इस बात की आशा बहुत ही कम है कि वो दोनों शामपुर गांव पहुंच गये हों।" अमर ने वहां से नजर आ रहे हर गांव की तरफ देखते हुए कहा--- “काँवरा पहुंचकर उनके बारे में पूछताछ---।”

“अमर!" कल्पना कह उठी--- "तुम इसी तरह विजय और दीपाली को पूछते हुए आगे बढ़ो। मैं तुम्हारे दो आदमियों के साथ सीधे सुन्दर नगर जा रही हूं। उन्हें वहाँ के होटलों में चैक करूंगी। इससे वक्त बचेगा और अगर वो दोनों सीधे सुन्दर नगर पहुंचे हैं तो जल्दी हमारे हाथ लग जायेंगे।"

"ठीक कहा तुमने। ऐसा करना बहुत अच्छा रहेगा।" अमर ने सिर हिलाया।

“हमारी मुलाकात कहां होगी ?" कल्पना बोली--- “कि मालूम हो सके वो दोनों हाथ लगे हैं या नहीं?"

“सुन्दर नगर में गांधी चौक है। जानती हो?"

“देखा हुआ है।"

"अब सुबह के आठ बजे हैं। हम शाम को छः बजे वहीं मिलेंगे।" अमर ने कहा।

“ठीक है।” कल्पना ने कहा और अमर के दो आदमियों के साथ कार में सुन्दर नगर की तरफ रवाना हो गई।

कार चलाने वाला! अमर-सोफिया और दो आदमी वहां रह गये।

“चलो।” अमर बोला--- “हम पूछताछ करते हुए आगे बढ़ते हैं।"

फिर वो अपनी कार में आगे बढ़ गये।

■■■

विनोद कुमार ने सुन्दर नगर की सीमा पर मौजूद महेश और पांडे से बात की।

“सर!" पांडे का स्वर कानों में पड़ा ।

"विजय और दीपाली की क्या खबर है?” विनोद कुमार ने पूछा।

“सर! उनके चेहरों से तो हम, उन्हें जानते नहीं।" पांडे की आवाज कानों में पड़ी--- “टण्डन के बताये हुलिये के दम पर ही हम आने वाली कारों पर नजर रख रहे हैं। अभी तक ऐसी कोई कार नजर नहीं आई कि जिसमें युवा जोड़ा हो और उन पर दीपाली-विजय होने का शक हुआ हो।”

“मेरे ख्याल से अब तक उन्हें सुन्दर नगर पहुंच जाना चाहिये था।"

“नो सर ! इस बात का तो मुझे पूरा विश्वास है कि उन्होंने अभी तक सुन्दर नगर में प्रवेश नहीं किया।"

“महेश पास में ही है?"

"यस सर---।"

“लापरवाही न हो । सुन्दर नगर में प्रवेश करने वाली कारों पर अच्छी तरह नजर रखो।"

“राईट सर ! सर, उनकी कार का रंग या वो कौन-सी कार---?"

“इस बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम।" कहने के साथ ही विनोद कुमार ने फोन बंद कर दिया।

तभी टण्डन बोला।

“इसका मतलब, वो दोनों बीच रास्ते में कहीं रुके हुए हैं।"

"सुन्दर नगर में नहीं पहुंचे तो फिर वो रास्ते में ही कहीं होंगे।” विनोद कुमार ने कुछ आगे दो ढाबों और चाय के खोकों पर नजर मारते हुए कहा--- “हर जगह हमें पक्की तरह से पूछताछ करनी होगी। हो सकता है, कहीं पर वो रुके हों और पैसे देकर कह रखा हो कि उनके बारे में किसी को न बताया जाये।”

"ये बात भी हो सकती है। "

“उन ढाबों पर रोक देना। वहां चाय भी पी लेंगे और तसल्ली से उनके बारे में मालूम करेंगे। आस-पास नजर भी मारनी है कि कार को किसी ओट में छिपा न रखा हो।” विनोद कुमार ने शांत स्वर में कहा।

टण्डन सिर हिलाकर रह गया।

■■■

विजय और दीपाली एक घंटे में नहा-धोकर, नाश्ता करके वहां से चल पड़े थे।

“सुन्दर नगर कैसी जगह है?" बेदी ने पूछा।

"अच्छी जगह है। छोटा सा पूरा शहर है।" दीपाली ने बताया।

"जो लोग हमें तलाश कर रहे हैं, वो यकीनन यही सोचेंगे कि हम सुन्दर नगर गये हैं।" कार ड्राईव करते बेदी ने दीपाली पर निगाह मारी।

"हां।" दीपाली ने सिर हिलाया--- “वो ऐसा ही सोचेंगे।"

“हम उनसे बच सकते हैं अगर सुन्दर नगर से पहले ही कहीं पर हमें रहने का ठिकाना मिल जाये।”

"ओह!” दीपाली के होंठों से निकला--- “ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था। शामपुर और काँवरा नाम के दो कस्बे रास्ते में पड़ते हैं। एक-दो छोटे-छोटे गांव और भी हैं। लेकिन उनके बारे में मुझे जानकारी नहीं ।"

"इस वक्त हम शामपुर में हैं।”

“हां। लगभग आधे घंटे बाद काँवरा शुरू हो जायेगा।"

"शामपुर या काँवरा में जानती हो किसी को जहां रुका जा सके?" बेदी ने पूछा।

"नहीं।"

कार सामान्य गति से आगे बढ़ रही थी।

"विजय!" एकाएक दीपाली की आवाज में कम्पन उभरा--- “ये सोचकर मैं बहुत डर जाती हूं कि अगर उन लोगों ने मुझे पकड़ लिया तो--तो---।"

“मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं तुम्हें बचाने की।” बेदी की आवाज में गम्भीरता थी।

“मालूम है मुझे। फिर भी सोचती हूं कि--।"

“किस्मत से मुकाबला नहीं किया जा सकता। इस बात का एहसास हो चुका है मुझे। कोशिश करना, कर्म करना इन्सान का फर्ज है। धर्म है। आगे क्या होना है, वो ऊपरवाले के हाथ में है।"

दीपाली ने बेदी को देखा।

“तुम भगवान को मानते हो?” दीपाली ने पूछा ।

"हां।"

“मुझे कभी फुर्सत ही नहीं मिली कि भगवान के बारे में सोच सकूं। यूँ ही तेईस बरस की हो गई।"

“हम आगे बढ़े जा रहे हैं।" बेदी ने कहा--- “और आगे अमर है। विनोद कुमार है, जो हमें ढूंढ रहे हैं। वो कहीं भी टकरा सकते हैं हमसे और हमारे पास उनका मुकाबला करने लिए कुछ भी नहीं है।"

"कुछ से, क्या मतलब?"

"उनके पास हथियार अवश्य होंगे। हमारे पास नहीं हैं। "

"तुम हथियार चलाना जानते हो?"

“चाकू का इस्तेमाल तो बच्चा भी करना जानता है।” बेदी ने सामान्य स्वर में कहा--- "रिवाल्वर चलाने में कोई परेशानी नहीं होती। सामने वाले की तरफ सीधी की और ट्रेगर दबा दिया।"

“मतलब कि तुम रिवाल्वर चला चुके हो।" दीपाली ने गहरी निगाहों से उसे देखा ।

बेदी ने दीपाली के चेहरे पर निगाह मारी फिर मुस्करा पड़ा।

“फिक्र मत करो। मैंने कभी रिवाल्वर नहीं चलाई। जैसा सुना, वैसा तुम्हें बता दिया।”

"मैं तुम्हें जरा भी नहीं समझ पाई विजय!"

"मेरे में ऐसा कुछ है ही नहीं, कि तुम्हें समझना पड़े।"

"अपने बारे में तुमने, ये कहकर बात खत्म कर दी कि, तुम्हारे आगे-पीछे कोई नहीं है।"

“गलत क्या कहा। सच बोला है।"

दीपाली बेदी को देखती रही। फिर मुस्कराकर कह उठी।

"जो भी हो। तुम मुझे अच्छे लगने लगे हो।"

“ये सब बातें मेरे लिए कोई अहमियत नहीं रखतीं। सब अच्छे होते हैं। सब बुरे होते हैं। यही दुनियां है।"

“मैंने कहा है तुम मुझे अच्छे लगने लगे। । दुनियां की बात नहीं कर रही मैं---।"

"और मैं दुनियां की बात कर रहा हूं, जिसमें कि तुम भी आती हो।" बेदी का स्वर शांत था।

“कभी-कभी तो तुम बहुत ही अजीब-सी बातें करने लगते हो।" दीपाली उखड़े स्वर में कह उठी--- "मैं तुमसे प्यार-मोहब्बत की बातें कर रही हूं और तुम जाने क्या कहने लगे।"

बेदी के होंठों पर मुस्कान उभरी।

"वक्त का तकाजा है। तुम्हें जिस चीज की जरूरत है, तुम वो ही बात करोगी।"

"तुम्हें किस चीज की जरूरत है। तुम कैसी बातें करना चाहते हो?"

जवाब में, बेदी ने मन ही मन गहरी सांस ली। उसने नहीं बताया कि उसे अपनी जान की जरूरत है, जो कभी भी जा सकती है और जान बचाने के लिए बाकी के छः लाख की जरूरत है।

पैंतालीस मिनट बाद सड़क के किनारे चाय के खोके और दो ढाबे बने नजर आये तो बेदी ने कार को सड़क के किनारे उतार लिया तो दीपाली कह उठी।

"यहां रुकने की क्या जरूरत है?"

“दो जरूरतें हैं।" बेदी ने कार का इंजन बंद करते हुए कहा--- "एक तो ये जानना है कि उन लोगों ने यहां पर भी हमारे बारे में पूछताछ की और ।"

"इससे क्या फायदा?"

"हमें इस बात की पक्की जानकारी मिल जायेगी कि अगर उन्होंने यहां पूछताछ की है तो हमें तलाश करने वाले हमारे आगे-आगे चल रहे हैं।” बेदी ने कहा--- “दूसरे, होटल से एक चाकू का इन्तजाम करूंगा कि बुरे वक्त पर, चाकू के दम पर अपना बचाव किया जा सके। तुम कार में ही रहो।"

दस मिनट बाद बेदी आया। कार में बैठा और कार को सड़क पर ले आया।

"चाकू ले आये?" दीपाली ने पूछा।

“हां। कपड़ों में छिपा रखा है।" बेदी ने कहा।

"किसी को मार मत देना ।"

"मैंने तो सावधानी के तौर पर चाकू का इन्तजाम किया है। हो सकता है, वक्त आने पर उसे इस्तेमाल ही न कर सकूं।" बेदी बोला--- “वैसे यहां पहले अमर ने हमारे बारे में पूछताछ की और उसके डेढ़-दो घंटे बाद उस प्राईवेट जासूस विनोद कुमार ने। मतलब कि वो यहां से आगे जा चुके हैं। विनोद कुमार को यहां से आगे गये, करीब ढाई घंटे हो चुके हैं।"

"फिर तो वो सुन्दर नगर पहुंच चुका होगा।" दीपाली कह उठी।

बेदी के चेहरे पर सोच के भाव थे। कार सामान्य गति से आगे बढ़ रही थी।

■■■

दिन के ग्यारह बज चुके थे और विनोद कुमार के चेहरे पर उलझन के भाव स्पष्ट देखे जा सकते थे। वो फोन पर महेश और पांडे से सम्पर्क बनाये हुए था। उन दोनों का पूरे विश्वास के साथ ये कहना था कि ऐसी किसी कार ने सुन्दर नगर में प्रवेश नहीं किया, जिसमें सिर्फ युवक-युवती बैठे हों। जबकि विनोद कुमार के हिसाब से विजय और दीपाली को अब तक हर हाल में सुन्दर नगर पहुंच जाना चाहिये था। इस वक्त वो काँवरा नाम की जगह में, सड़क के किनारे रुके हुए थे।

विजय और दीपाली की खबर भी न मिलने से स्पष्ट था कि कहीं चूक हो चुकी है।

"टण्डन !" विनोद कुमार ने उसे देखा--- "अब क्या कहते हो? महेश और पांडे को पूरा विश्वास है कि विजय और दीपाली ने अभी तक सुन्दर नगर में प्रवेश नहीं किया।"

"ये तो अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई। अगर वो अभी तक सुन्दर नगर नहीं पहुंचे तो कहां पर हैं? रास्ते में भला वो कहां रुकेंगे और फिर क्यों रुकेंगे? वो तो जल्दी से जल्दी सुन्दर नगर पहुंचना चाहेंगे।"

“लेकिन वो सुन्दर नगर नहीं पहुंचे।” विनोद कुमार ने शब्दों को चबाकर कहा ।

“सर! ऐसा भी हो सकता है कि उन्हें अमर के पीछे आने के बारे में मालूम हो गया हो और उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया हो। अब तक के हालातों से तो विजय समझदार ही लगा है।” टण्डन बोला।

“ये बात हो सकती है।” विनोद कुमार ने कहा--- “लेकिन वो चाहकर भी रास्ता नहीं बदल सकते। क्योंकि सुन्दर नगर तक ये हाईवे बीच में से कहीं भी नहीं मुड़ता । सुन्दर नगर से ही अन्य जगहों में जाने के रास्ते निकलते हैं।"

टण्डन के चेहरे पर सोच के भाव उभरे हुए थे ।

“विजय और दीपाली जब सुन्दर नगर में प्रवेश करेंगे तो महेश-पांडे हमें फोन पर खबर दे देंगे।” विनोद कुमार ने कहा--- "हमें विजय- दीपाली के बारे में सोचना है कि सुन्दर नगर पहुंचने के रास्ते के बीच वो कहां छिप सकते हैं। उन्हें दो जगह ही ठिकाना मिल सकता है। या तो शामपुर के गांवों में। वहां कुछ-कुछ फासले पर तीन-चार गांव हैं या फिर यहां काँवरा के गांवों में।"

“सर! गांवों को छानना आसान नहीं ।"

“मेरे ख्याल में बहुत आसान काम है ये।" विनोद कुमार ने सिर हिलाकर कहा--- "गांव में कोई बाहरी आदमी आये तो, अधिकतर लोगों को उसके आने की खबर हो जाती है। फिर वो तो कार पर हैं। कार पर तो जिसकी नजर नहीं भी पड़ती, उसकी भी पड़ेगी। ऐसे में उनके बारे में जल्दी खबर मिल सकती है, अगर वो किसी गांव में हैं तो---।"

“आप ठीक कह रहे हैं सर ! इस तरफ तो मैंने सोचा भी नहीं था।" टण्डन कह उठा--- "पहले काँवरा के गांवों में जाकर पूछताछ करते हैं। उनकी कोई खबर न मिली तो वापस शामपुर पहुंचकर वहां के गांवों में जाकर पूछताछ करते हैं। इस बीच अगर वो सुन्दर नगर पहुंचे तो पांडे हमें खबर कर देगा।"

“ऐसा ही करना पड़ेगा। कार आगे बढ़ाओ। वो कच्चा रास्ता उधर गांव की तरफ जा रहा है। वहां चलो।”

टण्डन ने कार आगे बढ़ाई और फिर सड़क किनारे कच्चे रास्ते पर कार उतार दी। एक किलोमीटर की दूरी पर कच्चा-पक्का गांव नजर आ रहा था।

■■■

सवा घंटे बाद विनोद कुमार और टण्डन कार पर वापस सड़क पर आ पहुंचे। पूरी कार धूल से अंट गई थी। काँवरा में पड़ने वाले तीन गांवों में पूछताछ की थी, परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ। विजय और दीपाली के बारे में कोई खबर नहीं मिल सकी थी

वापस सड़क पर आकर टण्डन ने कार रोक दी।

"कोई फायदा नहीं हुआ।" टण्डन बोला।

“कार वापस लो। शामपुर की तरफ।" इसके साथ ही विनोद ने फोन पर पांडे से बात की, परन्तु यही जवाब मिला कि अभी तक कार में ऐसा कोई युवा जोड़े ने सुन्दर नगर में प्रवेश नहीं किया जिस पर इस बात का जरा भी शक हो सके कि वो विजय और दीपाली हो सकते हैं।

"वो दोनों सुन्दर नगर नहीं पहुंचे।" विनोद कुमार ने विश्वास भरे स्वर में कहा--- “मेरे ख्याल में विजय और दीपाली शामपुर में ही कहीं रुके पड़े हैं। वो, वहां हमें अवश्य मिलेंगे। कार वापस लो।"

ठीक तभी एक कार उनके पास से ही सड़क पर से गुजरी। टण्डन तो कार स्टार्ट कर रहा था। विनोद कुमार की निगाह उस कार की तरफ उठी तो दो पल के लिए हक्का-बक्का सा रह गया। पल के सौवें हिस्से में उसे, कार में बैठी दीपाली की झलक मिली थी।

“दीपाली !” विनोद कुमार के होंठों से अविश्वास भरा स्वर निकला। वो इस तरह अचानक दीपाली के दिखाई देने की सोच भी नहीं सकता था। वो अभी तक जाती कार को देखे जा रहा था।

"क्या हुआ सर!" टण्डन ने कार स्टार्ट की ।

“टण्डन !” विनोद कुमार के होंठों से निकला--- “उस कार में दीपाली हैं। जल्दी। उस कार को रोकना है।"

टण्डन ने फौरन कार आगे बढ़ा दी ।

आगे वाली कार सामान्य गति पर थी। लेकिन इतने में ही वो दूर जा चुकी थी।

“सर!" टण्डन ने कार की स्पीड तेज कर दी थी--- “आपको विश्वास है कि उस कार में दीपाली है?"

"हां । वो दीपाली ही थी। मैंने जरा-सी उसकी झलक देखी थी।" विनोद कुमार ने विश्वास भरे स्वर में कहा।

टण्डन ने अपना पूरा ध्यान ड्राइविंग पर लगा दिया।

“सर! ये पीछे कहां रह गये हो सकते हैं। हम इनकी तलाश में पीछे से तो आ रहे हैं।"

"इत्तफाक से नजरों से बच गये होंगे। हमारी निगाहों से भी। अमर की निगाहों से भी।” विनोद कुमार ने गहरी सांस ली।

बेदी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि, उसकी सोचों के मुताबिक, उन्हें तलाश करने वाले जो यहां से डेढ़ घंटे पहले गुजरे। हैं, वो किसी इत्तफाक से उसके पीछे भी हो सकते हैं।

दीपाली के साथ बेदी की कभी-कभार बात हो जाती थी। पचास की स्पीड पर वो कार को साईड पर रखे सुन्दर नगर की तरफ बढ़ रहा था कि तभी पीछे से आती कार ने रफ्तार के साथ ओवरटेक किया और उसके सामने आकर, आड़ी-तिरछी होकर अचानक ही ब्रेक मारे।

बेदी को लगा एक्सीडेंट हो जायेगा। तेज स्वर में अगली कार पर चिल्लाते हुए फुर्ती से स्टेयरिंग मोड़ा, ब्रेक लगाये। चूंकि वो पहले ही सड़क की साईड में था। सामने वाली कार को बचाने की कोशिश में, उसकी कार सड़क के किनारे, ढलान पर जा उतरी। रुक गई। बेदी ने मन ही मन चैन की सांस ली कि एक्सीडेंट होने से बच गया। दूसरी कार के ड्राईवर के प्रति मन में गुस्सा लिए, कार से उतरने लगा तो दीपाली ने उसकी कलाई थाम ली।

बेदी ने दीपाली को देखा।

वो गहरी-गहरी सांसें ले रही थी।

“ठीक हो ?” बेदी ने उसकी कलाई थपथपाकर, तसल्ली देने वाले ढंग में पूछा।

"हां। वो विनोद कुमार है।" दीपाली ने जल्दी से कहा।

"प्राईवेट जासूस।" साथ ही बेदी की निगाह फुर्ती से उस तरफ घूमी ।

सड़क के किनारे वो कार खड़ी थी। विनोद कुमार और टण्डन, बाहर निकलकर उनकी तरफ आ रहे थे।

“दीपाली!” बेदी ने दांत भींचकर कहा--- “इनसे बचना है।"

“विनोद कुमार पापा को जानता है और---।"

"जानता होगा। ये हजारों के पापाओं को जानता होगा। मुझे क्या लेना-देना।" बेदी का स्वर गुस्से से भर गया--- “ये प्राईवेट जासूस। अच्छी तरह जानता हूं कि ये लोग किसी अपराधी से कम नहीं होते। मौका मिलने पर अपने ही क्लाईंट को ब्लैकमेल करने लगते हैं। ये---।"

"मेरे ख्याल में ये ऐसा नहीं ।"

"चुप रहो तुम।" कहने के साथ ही बेदी ने कपड़ों में छिपा रखा चाकू निकाला और दीपाली को अपनी तरफ खींचकर, उसकी गर्दन पर चाकू रख दिया। दांत भिंच चुके थे बेदी के ।

गर्दन पर चाकू लगा देखकर, दीपाली की जान सूखने लगी।

"ये क्या कर रहे हो विजय। होश में---।"

"खामोश रहो। तुम कुछ नहीं बोलोगी।” बेदी ने कठोर स्वर में कहा और ऊंचे स्वर में कुछ कदमों की दूरी पर मौजूद विनोद कुमार और टण्डन से कहा-- "वहीं रुक जाओ। आगे मत बढ़ना।"

दोनों ठिठक गये। दीपाली की गर्दन पर लगा चाकू उन्होंने देख लिया था।

"अगर आगे बढ़े तो ये चाकू दीपाली की गर्दन काटकर रख देगा।" बेदी ने खतरनाक स्वर में कहा।

जो भी हो, गर्दन पर चाकू रखा होने की वजह से, दीपाली का चेहरा भी फक्क पड़ चुका था।

"ये क्या कर रहे हो विजय!” विनोद कुमार बोला--- “तुम---।”

"बकवास मत करो। तुम दीपाली को नहीं ले सकते।” बेदी ने पूर्ववतः स्वर में कहा--- "मैं--।"

"विजय!" विनोद कुमार ने गम्भीर स्वर में कहा--- “मेरे ख्याल में तुम दीपाली को बचाते फिर रहे हो। ऐसे में इसकी गर्दन पर चाकू नहीं रख सकते। इसकी जान कभी नहीं लोगे तुम।"

"आजमाकर देख लो।" बेदी की आवाज में दरिन्दगी आ गई--- "आगे बढ़ । बढ़ आगे। तेरे दूसरे कदम पर ही मैं इसका गला काट दूंगा। चाकू से खेलना भी आता है मुझे।”

विनोद कुमार और टण्डन की गम्भीर नजरें मिलीं।

बेटी ने अपने चेहरे पर खतरनाक भाव समेट रखे थे।

विनोद कुमार ने शांत भाव में सिग्रेट सुलगाई और गम्भीर स्वर में कह उठा ।

"विजय! क्या हम आराम से बात नहीं कर सकते ?"

"कर। कर। क्यों नहीं कर सकते। लेकिन मेरे से दूर रहकर । पास आया तो...।" आगे के शब्द बेदी ने अधूरे छोड़ दिए। उसके चेहरे के भावों से लग रहा था कि विनोद कुमार ने एक कदम भी आगे बढ़ाया तो वो दीपाली की गर्दन काट देगा। यही कारण था कि विनोद कुमार सावधानी से बात कर रहा था।

जबकि दूर-दूर तक बेदी का ऐसा कोई इरादा था ही नहीं।

"मैं, दीपाली के पापा सुखवंत राय के कहने पर, दीपाली को तलाश कर रहा हूं।" विनोद कुमार ने अपने शब्दों पर जोर देकर, उसे समझाने वाले स्वर में कहा।

बेदी ने अपने चेहरे पर कड़वे भाव फैला लिए।

"तुम जैसे प्राईवेट जासूसों को मैं अच्छी तरह जानता हूँ।" बेदी ने दांत भींचकर कहा--- “सुखवंत राय का नाम लेकर तुम दीपाली को मेरे से पा लेना चाहते हो। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम अमर के लिए, दीपाली की तलाश कर रहे हो।"

“अमर के लिए। ऐसा मत कहो। मैं---।"

"अमर के लिए नहीं तो अमर जैसे किसी और के लिए, दीपाली की तलाश कर रहे हो। प्राईवेट जासूस हमेशा नोटों को पाने की फिराक में रहता है। बेशक वो कैसे भी हाथ लगे। तुम तो---।"

"मैं, उस जैसा प्राईवेट जासूस नहीं हूं।” विनोद कुमार ने सहज स्वर में कहा--- "दीपाली मुझे अच्छी तरह जानती है। चाहो तो दीपाली से पूछ लो कि---।"

"इसकी मैं जरूरत नहीं समझता।"

विनोद कुमार ने होंठ भींच लिए।

“सर!" टण्डन धीमे स्वर में कह उठा--- "ये हम पर तगड़ा शक कर रहा है कि---।"

"मेरी बात पर विश्वास करो कि मैं सुखवंत राय के कहने पर, दीपाली को तलाश---।"

“मेरी बात पर विश्वास करोगे।” बेदी ने कड़वे स्वर में कहा--- “सुखवंत राय ने मुझे ये काम दिया है। इसलिए मैं दीपाली को बचाने में लगा हूं। बोलो, अब क्या कहते हो ? "

विनोद कुमार आंखें सिकोड़कर, बेदी को देखने लगा।

"तुम्हें मालूम है अमर-कल्पना-सोफिया, अपने बदमाशों के साथ तुम लोगों की तलाश में---।"

"सब जानता हूँ। तुम लोग दो पार्टियां बनाकर मुझे और दीपाली को ढूंढ रहे हो। मेरा तो ख्याल था कि तुम सब लोग आगे निकल चुके हो।" बेदी ने भिंचे स्वर में कहा--- “लेकिन याद रखना, मैं तुम लोगों को सफल नहीं होने दूंगा। चले जाओ यहां से ।”

विनोद कुमार कश लेकर शांत स्वर में बोला ।

“मैं जानता हूं तुम्हारे दोनों दिमागों के ठीक बीचों-बीच गोली फंसी हुई है।"

बेदी की आंखें सिकुड़ीं। चेहरे पर कठोरता छाई रही।

"वो गोली कभी भी अपनी जगह छोड़ सकती है। तब जहर फैलेगा और तुम मर जाओगे।"

"तो हरबंस से मुलाकात कर चुके हो तुम।" बेदी ने उसी लहजे में कहा।

"मेरी हरबंस से कोई मुलाकात नहीं हुई। वो मेरे सामने आ जाये तो शायद मैं उसे पहचान भी न सकूं।” विनोद कुमार ने कहा--- "तुम्हें जल्दी से जल्दी ऑप्रेशन करवाने की जरूरत है, ताकि मस्तिष्क में फंसी, मौत रूपी गोली से छुटकारा पा सको और उस ऑप्रेशन के लिए छः लाख रुपया चाहिये। जिसके इन्तजाम में तुम भटक रहे हो।”

बेदी दांत भींचे विनोद कुमार को घूरता रहा।

"मैंने गलत तो नहीं कहा विजय!"

"जो कहना है कह डालो।" बेदी ने उसी लहजे में कहा।

"मैं तुम्हारी परेशानी दूर कर सकता हूं। तुम्हें छः लाख मिल सकता है। आठ लाख मिल जायेगा। बोलो ।”

“दीपाली को मैं तुम्हारे हवाले कर दूं। तब ।” बेदी ने कड़वे स्वर में कहा।

“समझदार हो। इस वक्त तुम्हें दिमाग में फंसी उस गोली के बारे में सोचना चाहिये जो तुम्हारी जान ले सकती है। वैसे भी ये काम तुम दीपाली के भले के लिए करोगे। मैं सुखवंत राय के कहने पर ही दीपाली को तलाश कर---।"

बेदी के चेहरे पर जहरीली मुस्कान फैलती देखकर विनोद कुमार खामोश हो गया।

“अपनी बातों के जाल में फंसाने की कोशिश मत करो। सफल नहीं हो सकोगे।” बेदी ने चेहरे पर मुस्कान बिखेरे सख्त स्वर में कहा--- “छोटे खिलाड़ी हो तुम। मेरी तरह बड़े खेल खेला करो।"

"क्या मतलब?"

"जानते हो, मैं दीपाली के साथ क्या करने जा रहा हूं।"

"क्या?"

“शादी।” कहते हुए बेदी खतरनाक ढंग में हंसा ।

"शादी?” विनोद कुमार के माथे पर बल नजर आने लगे।

“तुम छः लाख की बात कर रहे हो, जबकि मैं सुखवंत राय की सारी दौलत को पाने का खेल खेल रहा हूं। सारी नहीं तो, आधी तो मिल ही जायेगी। दीपाली को मैंने तैयार कर लिया है। शादी के लिए। इसे मेरे साथ शादी करने में कोई ऐतराज नहीं । लेकिन तुम बीच में आकर मेरा खेल बिगाड़ रहे हो। अगर तुमने दीपाली को छीनने की चेष्टा की तो मैं इसे खत्म कर दूंगा। तुम्हें भी मार दूंगा। चले जाओ, वरना---।”

विनोद कुमार होंठ सिकोड़े बेदी को देखने लगा।

"सर!" टण्डन धीमे स्वर में बोला--- “यहां तो मामला ही दूसरा लगता है।"

"सब ठीक है।" विनोद कुमार ने आहिस्ता से कहा--- "विजय हम पर भरोसा करने को तैयार नहीं है। वो---।"

"लेकिन ये दीपाली के साथ शादी---।"

"हमें उलझाने के लिए, हमसे पीछा छुड़ाने के लिए शादी वाली बात यूं ही कह रहा है।"

“सर, हो सकता है, ये ठीक कह रहा हो। शादी के मामले में लड़कियां पूरी तरह बेवकूफ होती हैं। ऐसे मौके पर दिमाग से काम तो लेती नहीं। क्या मालूम दीपाली इस पर फिदा हो गई हो। इसने दीपाली को अपने चक्कर में ले लिया हो। और शादी के लिए तैयार हो गई हो।" टण्डन ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा।

"बेवकूफी वाली बातें मत करो। विजय को बातों में उलझाकर, इसे लापरवाह करके, इसे फांसना पड़ेगा। सीधे-सीधे ये हमारी बात पर विश्वास नहीं करेगा और दीपाली को हमारे हवाले नहीं करेगा।"

तभी टण्डन ने बेदी से कहा।

“दीपाली से शादी की बात तुम झूठी कह रहे हो।"

“अपनी तरह सबको झूठा समझते हो।" बेदी ने दांत भींचकर कहा।

“दीपाली!" टण्डन बोला--- "विजय, शादी वाली बात ठीक कह रहा है ?"

दीपाली एकाएक कुछ न कह सकी।

“जवाब दो।" बेदी ने सख्त स्वर में कहा।

"ह-हां।" दीपाली ने गहरी सांस लेकर ऊंचे स्वर में कहा--- “मैं,विजय के साथ शादी कर रही हूं।"

"तुम्हारे पापा, तुम्हारे लिए परेशान हो रहे हैं।” विनोद कुमार कह उठा।

"शादी के बाद मैं जल्दी ही पापा से--।"

“तब तक अमर तुम्हें पकड़ लेगा। कल्पना-सोफिया उसके साथ हैं। अच्छा यही होगा कि पहले हम तुम्हें सुरक्षित तुम्हारे पापा तक पहुंचा देते हैं। उसके बाद विजय से शादी कर---।"

“फालतू मत बोलो।" बेदी कठोर स्वर में कह उठा--- "पहले हम शादी करेंगे। उसके बाद सुखवंत राय के पास जायेंगे। वरना सुखवंत राय कभी भी हमारी शादी नहीं होने देगा। वो तो इसके लिए बड़े घर का लड़का ढूंढेगा। मेरे जैसे इन्सान के साथ इसकी शादी क्यों करेगा। और अमर का डरावा मुझे मत दिखाओ। देख लूंगा उसे मैं।"

"विजय मेरा विश्वास करो।" विनोद कुमार ने कहते हुए आगे बढ़ना चाहा--- "मैं---।"

"वहीं रहो।" बेदी ने दांत पीसकर कहा--- "वरना इसकी गर्दन काट दूंगा।"

विनोद कुमार ठिठक गया।

“अब तुम मेरे सामने अपनी चालाकी का इस्तेमाल कर रहे हो। बातों में फंसाकर मुझे लापरवाह करना चाहते हो। बहुत हो गया। मैं तुमसे बात करने की जरूरत नहीं समझता।” बेदी का स्वर बेहद कठोर था--- "मेरे रास्ते से हटते हो या नहीं?"

विनोद कुमार समझ चुका था कि विजय उसकी बातों में नहीं फंसने वाला ।

“जवाब दो। मेरे रास्ते से हटते हो या नहीं?" बेदी का स्वर पहले जैसा ही था।

“मैं तुम्हारा रास्ता नहीं रोकूंगा। मैं दीपाली का भला चाहता हूं।” विनोद कुमार ने गम्भीर स्वर में कहा--- “अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं तो, तुम दीपाली को लेकर जा सकते हो। लेकिन इसे नुकसान नहीं पहुंचाना।”

“पीछे हट जाओ। सड़क की तरफ जाओ।”

विनोद कुमार और टण्डन बिना कुछ कहे, पीछे हट गये।

“दीपाली!” बेदी की निगाह उन दोनों पर ही थी।

“हां।"

“कार से बाहर निकलो।” कहते हुए बेदी ने उसकी गर्दन से चाकू हटा लिया।

दोनों बाहर निकले।

दीपाली का चेहरा और कपड़े पसीने से भरे पड़े थे।

“ये हमारा पीछा करेंगे। हमारे लिए फिर कोई मुसीबत खड़ी करेंगे।" बेदी ने कहा।

“विजय! वैसे तो तुम्हारे मन में जो आये वो करो।” दीपाली की नजरें विनोद कुमार और टण्डन पर थीं--- "लेकिन मेरा ख्याल है कि विनोद कुमार, पापा के कहने पर मुझे ही तलाश कर रहा है।"

“मैं तुम्हारी बात का अवश्य यकीन कर लेता। पूरी तरह विश्वास करता अगर वो सिर्फ विनोद कुमार होता । प्राईवेट जासूस न होता। उस पर विश्वास करके, मैं तुम्हें खतरे में धकेलने का खतरा नहीं उठा सकता। वो अमर या किसी और के लिए भी, तुम्हारी तलाश करता हो सकता है।" कहने के साथ ही बेदी झुका और हाथ में पकड़े चाकू का वार, कार के टायर पर करने लगा।

कुछ ही पलों में चाकू की नोक ट्यूब तक पहुंच गई। हवा निकलने लगी । पहिया बैठने लगा--- "अब ये हमारे पीछे नहीं आ सकेंगे। स्टैप्नी बदलने में इन्हें पन्द्रह-बीस मिनट का वक्त तो लगेगा ही। अगर कार में टूल बाक्स नहीं हुआ तो फिर पहिया बदलना आसान नहीं होगा।"

“लेकिन हम यहां से कैसे जायेंगे?"

"उनकी कार पर।"

"ओह!"

"मैं तुम्हारी कार ले जा रहा हूं।" बेदी ने कहा और दीपाली का हाथ पकड़े सड़क पर खड़ी कार की तरफ बढ़ने लगा--- "तुम्हारे लिए ये चोरी की कार छोड़ रहा हूं। स्टैप्नी लगाओ और मजे लो।"

"दीपाली !” विनोद कुमार ने कहा--- "तुम इसे बताओ कि मैं तुम्हारे पापा के कहने पर तुम्हें तलाश कर रहा हूँ।"

"बता चुकी हूँ।" दीपाली ने शांत स्वर में कहा--- “लेकिन ये प्राईवेट जासूस पर विश्वास करने को तैयार नहीं।"

बेदी, दीपाली का हाथ थामे सड़क पर खड़ी, विनोद कुमार वाली कार के पास पहुंच गया।

“सर!" टण्डन ने गहरी सांस ली--- "ये तो हाथ आकर भी हाथ से गये । हमारी कार भी ले जा रहे हैं।"

“टण्डन !" विनोद कुमार ने गम्भीर स्वर में कहा--- “ये दीपाली को इस वक्त साथ ले जाने में कभी भी कामयाब नहीं हो सकता था, अगर हमें दीपाली का ख्याल नहीं होता। बेदी को कुछ कहा तो हो सकता है, वो किसी तरह से दीपाली को नुकसान पहुंचा दे। मुझे नहीं मालूम विजय कैसी आदतों का मालिक है। दीपाली को में खतरे में नहीं...।"

बेदी और दीपाली कार में बैठ चुके थे।

तभी विनोद कुमार ने ऊंचे स्वर में कहा।

“विजय! तुम अपनी मनमानी कर रहे हो। गलत रास्ते पर जा रहे हो। इस वक्त मैं तुम्हें सिर्फ इतना ही कहूंगा कि अमर से बचकर रहना। वो बहुत बड़ा बदमाश है।"

बेदी ने कार आगे बढ़ा दी।

विनोद कुमार और टण्डन तब तक जाती कार को देखते रहे, जब तक कि वो नजर आती रही ।

"ये तो बहुत बुरा हुआ सर!" टण्डन ने गहरी सांस ली--- "कठिनता से दीपाली नजर आई लेकिन---।"

"वक्त खराब मत करो। विनोद कुमार ने कहा--- "स्टैपनी लगाओ।"

टण्डन कार की तरफ बढ़ गया।

विनोद कुमार ने मोबाईल फोन से, पांडे के मोबाईल पर बात की।

“सर!" पांडे का स्वर कानों में पड़ा ।

"पांडे ! विजय और दीपाली मेरी कार पर सुन्दर नगर की तरफ आ रहे हैं। तुम---।”

"आपकी कार पर?" पांडे के शब्द कानों में पड़े।

"हां। बाकी बात बाद में करना। जो कह रहा हूं, वो सुनो। अब उन्हें पहचानने में तुम लोगों को आसानी होगी। उन्हें रोकना नहीं है। खामोशी से उनका पीछा करना है और फोन पर मुझे खबर देते रहना।"

"राईट सर ! वैसे कब तक उनके यहां पहुंचने की आशा है?"

"एक घंटे तक वो सुन्दर नगर में प्रवेश कर जायेंगे ।" कहने के साथ ही विनोद कुमार ने फोन ऑफ कर दिया।

टण्डन स्टैप्नी बदलने में व्यस्त हो चुका था।

■■■

"जानते हो विनोद कुमार माना हुआ जासूस है।” कुछ देर बाद दीपाली ने कहा ।

कार तेजी से दौड़ी जा रही थी। बेदी के चेहरे पर गम्भीरता थी।

“उससे बच निकलना आसान नहीं। जिस तरह कि हम बच आये हैं।” दीपाली पुनः बोली।

"मैं इसे बच निकलना नहीं कहूंगा।" बेदी ने सिर हिलाया--- "उसने हमें जाने दिया। उसने ऐसी कोई भी हरकत नहीं की कि जिससे मेरा गुस्सा बढ़े। वो नहीं चाहता था कि तुम्हें किसी तरह का नुकसान पहुंचे।"

“मतलब कि तुम मान गये, विनोद कुमार पापा के कहने पर मुझे तलाश---।"

“इसका ये मतलब नहीं निकलता। वो किसी दूसरे के कहने पर भी तुम्हारी तलाश करता हो सकता है। और जिसके लिए भी वो तुम्हें ढूंढ रहा है उसे तुम ठीक-ठाक हालत में चाहिये और मैंने चाकू तुम्हारी गर्दन पर लगा रखा था।"

दीपाली ने लम्बी, गहरी सांस ली।

“उस वक्त, एक बार तो मुझे लगा जैसे तुम सच में मेरी गर्दन काटने जा रहे हो।"

बेदी ने उसके चेहरे पर निगाह मारी। होंठों पर मुस्कान उभर आई थी।

“वो ड्रामा करना जरूरी था कि विनोद कुमार करीब न आये।"

"अगर वो पास आ जाता तो---?"

"तो इस वक्त वो भी हमारे साथ होता और हम वापस जा रहे होते। अपनी आंखों के सामने तुम्हें, तुम्हारे पापा के हवाले करता। और तब तक विनोद कुमार पर जरा भी विश्वास नहीं करता।" बेदी ने कहा।

दीपाली ने गर्दन घुमाई और नजरें विजय पर जा टिकीं।

"तुमने विनोद कुमार से कहा कि, मुझसे शादी करने जा रहे हो।" दीपाली बोली।

“और तुमने भी उसे हां कर दी कि, हम वास्तव में शादी कर रहे हैं।" बेदी मुस्कराया।

"कभी-कभी कही बात सच भी हो जाती है विजय।” दीपाली के स्वर में प्यार के भाव आ गये थे।

"मजाक सिर्फ मजाक होता है। सच कभी नहीं हो सकता।"

"सच हो सकता है।"

"नहीं।"

" अगर हम दोनों चाहें तो ये मजाक सच हो सकता है।" दीपाली ने मुस्कराकर कहा--  "विजय तुम मुझे अच्छे लगे हो। सच कहूं तो तुमसे शादी करने का मेरा मन है। तुम्हारा क्या इरादा है? तैयार हो ?"

"बेकार की बातें मत करो।”

"मैं सच कह रही हूं । गम्भीर हूं। मुझे तुममें कोई कमी नजर नहीं आई। शादी करोगे, मुझसे?"

“नहीं।” कहते हुए बेदी के होंठ भिंच गये।

"शादी के नाम पर तुम इतना चिढ़ क्यों जाते हो?"

बेदी ने कुछ नहीं कहा।

कुछ खामोशी के बाद एकाएक दीपाली मुस्कराकर कह उठी ।

“ठीक है। इस बारे में फिर बात करेंगे। लेकिन मुझे तुमसे नाराजगी है कि तुमने जरा-सा भी मुझे अपना नहीं समझा।"

बेदी खामोश रहा।

“तुम्हारे सिर में गोली फंसी हुई है। वो गोली कभी भी तुम्हारी जान ले सकती है। ऑप्रेशन के लिए तुम्हें छः लाख की जरूरत है। तो मुझसे कहा क्यों नहीं?" दीपाली की निगाह बेदी पर थी।

बेदी चुप रहा।

"कैसे फंसी गोली ?” दीपाली गम्भीर हो गई--- “किसी से झगड़ा किया था जो---।"

“ऐसी कोई बात नहीं।” बेदी धीमे-गम्भीर स्वर में कह उठा--- “कभी मैं रायल सेफ कम्पनी में सेल्समैन का काम करता था। मजे से जिन्दगी कट रही थी। पास के ही बैंक में, कम्पनी का चैक जमा कराने गया तो वहां बैंक को लूटा जा रहा था। वहीं, बैंक लूटने वालों की गोली, मेरे सिर में जा लगी। इन्सान का दिमाग दो हिस्सो में बंटा होता है। बीच में लचीली-सी हड्डी होती है। उसी के बीच गोली---।"

"जो भी हुआ। बुरा हुआ। लेकिन अब तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं। मुझे पापा के पास पहुंचने दो। वो तुम्हारे ऑप्रेशन का सारा इन्तजाम बढ़िया ढंग से करा देंगे।" दीपाली के स्वर में अपनापन था।

जवाब में बेदी ने होंठ भींच लिये।

(मस्तिष्क में फंसी गोली के बारे में जानने के लिए, विजय बेदी सीरीज के अनिल मोहन के पूर्व प्रकाशित उपन्यास “खलबली" एवं "चाबुक" पढ़ें।)

पन्द्रह मिनट बाद बेदी ने कार की रफ्तार कम की और और उसे सड़क से नीचे उतारकर, कुछ आगे पेड़ों और झाड़ियों के बीच खड़ा किया। इंजन बंद कर दिया।

"क्या इरादे हैं?" दीपाली के स्वर में चंचलता के भाव आ गये।

बेदी ने दीपाली को देखा फिर कार से बाहर निकला।

दीपाली भी कार से बाहर आ गई।

"क्या हुआ?" दीपाली की निगाह बेदी पर जा टिकी।

"विनोद कुमार की कार, हमारे लिए खतरा पैदा कर सकती है।" बेदी ने कहा--- “अब तक उन्होंने स्टैप्नी बदल ली होगी। वो बीच रास्ते में हम तक पहुंच सकते हैं।"

दीपाली कुछ न कह सकी।

"यहां से हम लिफ्ट लेकर आगे बढ़ेंगे। लेकिन अभी नहीं।" बेदी ने सिग्रेट सुलगा ली--- “पहले सड़क पर नजर रखेंगे। जो कार हमारे पास थी, उसमें विनोद कुमार और उसका साथी जल्दी ही यहां से निकलेंगे। उसके बाद ही हम लिफ्ट के लिए सड़क पर जायेंगे। लिफ्ट लेने के लिए अभी सड़क पर चले गये तो, विनोद कुमार से पुनः सामना होने का खतरा पैदा हो सकता है।"

दीपाली मुस्कराकर बेदी के पास पहुंची और उसकी बांह पकड़कर, गाल पर 'किस' किया।

"तुम जो कहो। मेरे लिए वही ठीक। तुम जहां, मैं वहां---।"

बेदी ने शांत भाव में दीपाली को देखा। फिर निगाहें सड़क की तरफ लगा दीं। यहां से सड़क की तरफ स्पष्ट देखा जा सकता था। सड़क से इधर स्पष्ट देख पाना आसान नहीं था।

"कभी-कभी तो तुम बहुत नीरस लगते हो। कभी बहुत अच्छे लगते हो। तुम्हें प्यार करने को मन करता है।” दीपाली बोली ।

"मैं वास्तव में नीरस हूं।" बेदी मुस्करा पड़ा।

“मैं नहीं मानती। मैंने तुम्हें प्यार किया था। तुम तो ज्वालामुखी की तरह उबलने वाले पहाड़ हो।" दीपाली मुस्करा पड़ी।

"मैं तो तुम्हें समझदार समझता था। लेकिन तुम तो---।"

"मैं बेवकूफ ही सही।" दीपाली बोली--- "बस तुम्हारा साथ, मेरे साथ होना चाहिये।"

■■■

टण्डन ने पन्द्रह मिनट में पहिया बदल लिया और कार को सड़क पर ले आया। दोपहर का एक बज रहा था। सूर्य सिर पर चढ़ चुका था। गर्मी तेज होती जा रही थी। विनोद कुमार ने चेहरे पर आये पसीने को रूमाल से पोंछा और आंखों में सोच लिए, कार के पास आ गया।

“सर!" ड्राइविंग सीट पर बैठे टण्डन ने कहा--- “अब तो वो दोनों सुन्दर नगर पहुंचने वाले होंगे।"

इससे पहले विनोद कुमार कुछ करता सड़क पर से जाती एक तेज रफ्तार कार की ब्रेकों की आवाज वहां गूंज उठी। दोनों की निगाह उस कार पर गई। जो कुछ आगे पहुंचकर रुक गई थी।

“सर!" टण्डन के होंठों से निकला--- "ये तो हमारे आफिस की कार है।" इसके साथ ही वो कार से बाहर निकला।

आगे वाली कार से दीपक निकला और पास आ पहुंचा।

“सर! अचानक ही आप पर नजर पड़ी।" पास पहुँचते ही दीपक ने कहा--- "ये कार, आपकी कार कहां हैं?"

विनोद कुमार ने हरबंस को देखा। जो अब तक कार से बाहर आ गया था। रात हुई ठुकाई की वजह से उसका चेहरा सूजा हुआ था। होंठ फटा हुआ था। चेहरे पर कई जगह दवा लगी थी। खस्ता हाल में था वो।

"ये हरबंस विनोद कुमार ने पूछा।

"यस सर!" दीपक ने कहा।

हरबंस उनकी तरफ आने लगा था। चाल में हल्की-सी लंगड़ाहट थी।

"तबीयत से मारा है।" टण्डन बड़बड़ा उठा ।

पास पहुंचकर हरबंस, विनोद कुमार से बोला ।

"मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम प्राईवेट जासूस विनोद कुमार हो।"

“हां। मालूम हुआ तुम हरबंस हो। कल्पना के मुंह बोले बाप।" विनोद कुमार ने उसके चेहरे की सूजन को देखा।

“मुंह बोला बाप हूं, तभी तो कल्पना ने मेरा ये हाल करवा दिया।" हरबंस ने व्यंग्य से कहा।

“वो तुमसे विजय और दीपाली के बारे में जानना---।"

"मुझे नहीं मालूम था कि कल्पना इस हद तक गलत रास्ते पर जा चुकी है कि अपनी सोच पूरी करने के लिए मेरी भी परवाह नहीं करेगी। छोड़ो इस बात को, विजय और दीपाली के बारे में क्या खबर है? वो---।"

"करीब बीस मिनट पहले वो हमें यहीं मिले थे हरबंस।"

"क्या मतलब?" हरबंस की आंखें सिकुड़ीं--- "अब वो कहां हैं?"

"उसने दीपाली को मेरे हवाले नहीं किया।" विनोद कुमार ने गम्भीर स्वर में कहा--- "उसे विश्वास नहीं था कि मैं सुखवंत राय के कहने पर दीपाली को ढूंढ रहा हूं। मैंने बहुत कोशिश की कि उसे यकीन दिला सकूं, लेकिन मेरी बात सुनने को भी वो तैयार नहीं हुआ। उसने दीपाली की गर्दन पर चाकू रख दिया कि अगर मैंने दीपाली को उससे छीनने की कोशिश की तो, वो दीपाली को ही खत्म कर देगा।" हरबंस के सूजन भरे चेहरे पर मुस्कान उभरी।

"और क्या बोला विजय ?"

"यही कि वो और दीपाली शादी करने जा रहे हैं। सुखवंत राय की दौलत का मालिक बनना चाहता है वो।” विनोद कुमार ने सिर हिलाया--- “पूछने पर दीपाली ने भी सहमति दी कि वो विजय से शादी करने जा रही है।"

बुरे हाल होते हुए भी हरबंस हौले से हँस पड़ा।

“क्या हुआ ?” विनोद कुमार की आंखें सिकुड़ीं ।

“बहुत बड़े जासूस हो। तुम्हारा नाम है हर तरफ। लेकिन एक सीधे-सादे, शरीफ आदमी से बेवकूफ बन गये ।”

"बेवकूफ बन गया ?"

“हां। मैं विजय को बहुत हद तक जान चुका हूं। समझदार और शरीफ बंदा है वो। अपनी जान खतरे में डालकर दीपाली को बचाने पर लगा है। उससे शादी वगैरह नहीं कर रहा । तुमने कहा कि उसने दीपाली की गर्दन पर चाकू लगाकर, तुम्हें आगे बढ़ने पर रोक दिया। तब तुम आगे तो बढ़े होते। वो दीपाली को कुछ भी न कहता। चाकू भी तुम्हारे हवाले कर देता। ये सब उसने तुमसे छुटकारा पाने लिए किया कि तुम उसके रास्ते में न आओ।"

“तुम्हारा ख्याल गलत है हरबंस ! तब वो बहुत ही खतरनाक लग रहा--- “जो मैंने कहा है, वो सच है। मैं पहले से ही जानता था कि विजय इस मामले में किसी पर भी विश्वास नहीं करेगा। तभी तो मैं आया हूं। मेरी बात मानेगा वो।" हरबंस के स्वर में विश्वास के भाव थे--- "कितनी देर हो गई उसे यहां से गये ?”

“पन्द्रह-बीस मिनट।”

"फिर तो हम उसे पकड़ सकते हैं। जल्दी चलो यहां से।" हरबंस कह उठा।

"विजय ने ये कार चोरी की थी। इस कार को हम यहीं छोड़ देते हैं।" टण्डन बोला--- “दीपक वाली कार में चलते हैं।"

उसके बाद सब कार में बैठे। दीपक ने तेजी से कार आगे बढा दी।

"अगर वो शादी वाली बात झूठ बोल रहा है तो क्या, ऑप्रेशन करवाने के लिए, दीपाली के द्वारा छः लाख का इन्तजाम कर रहा है।" विनोद कुमार ने कहा।

"ऐसा कुछ नहीं है। दीपाली को बचाने की एवज में उसे एक पैसा भी नहीं चाहिये।" हरबंस ने कहा।

"दान-खाते में ये सब कर रहा है वो ?" टण्डन बोला।

"ऐसा ही समझ लो ।" हरबंस ने गहरी सांस ली।

"अमर ने तुम्हें दस-पन्द्रह लाख की ऑफर दी थी, विजय और दीपाली का ठिकाना बताने के लिए। तुम माने क्यों नहीं ?"

"जरूर मानता।" कहते हुए हरबंस के स्वर में तीखे भाव आ गये--- “मेरी जो हालत है, उसे देखते हुए दस-पन्द्रह लाख की रकम बहुत महत्व रखती है। इतने पैसों में अवश्य उनका ठिकाना बता देता। लेकिन कल्पना, जिसे मैंने हमेशा अपनी बेटी माना। उसके व्यवहार ने मेरे मन में इस कदर नफरत भर दी कि मैं जिद्द पर आ गया कि उनका ठिकाना नहीं बताऊंगा। लाखों की भी परवाह नहीं की मैंने। उधर विजय का भी ऐसे मौके पर ध्यान आ गया कि, मुंह खोलना उससे धोखेबाजी होगी कि पहले छिपने का ठिकाना दूं उसे और फिर उसका ठिकाना बताने के बदले, लाखों का सौदा करूं। बस, नहीं मुंह खोला मैंने।"

कार तेजी से सुन्दर नगर की तरफ दौड़ी जा रही थी।

■■■

सुन्दर नगर !

कल्पना, अमर के दो आदमियों के साथ, दस बजे तक ही सुन्दर नगर पहुंच गई थी। उसके बाद बिना रुके होटलों में विजय और दीपाली की तलाश शुरू कर दी थी। जैसे कि उसे विश्वास था कि वो किसी होटल में ही मिलेंगे।

अमर, सोफिया और अपने आदमियों के साथ दोपहर को सुन्दर नगर पहुंचा। उसे भी पूरा विश्वास था कि विजय-दीपाली को रास्ते में नहीं पकड़ा जा सका तो वो सुन्दर नगर में अवश्य मिल जायेंगे। कल्पना होटलों में उनकी तलाश कर रही होगी। यही रास्ता ठीक मानकर, अमर भी सुन्दर नगर के होटलों में दीपाली और विजय के बारे में पूछताछ करने लगा।

सुन्दर नगर की सीमा पर जब विनोद कुमार पहुंचा तो दोपहर के ढाई बज रहे थे। महेश और पांडे को तलाश करने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। वो मिल गये।

"तुम दोनों यहां हो।” विनोद कुमार के होंठों से निकला--- "विजय और दीपाली का क्या हुआ?"

"वो तो यहां से अभी तक नहीं निकले।” महेश कह उठा।

"ये कैसे हो सकता है!” विनोद कुमार कह उठा--- “वो पक्का यहां से निकल चुके हैं।”

"नहीं सर!" पांडे बोला--- “आपने बताया था कि वो आपकी कार में हैं। आपकी कार यहां से नहीं निकली। इसके अलावा हम दूसरी कारों पर भी नजर रख रहे हैं। उन दोनों ने अभी तक सुन्दर नगर में प्रवेश नहीं किया।"

विनोद कुमार के होंठ भिंच गये।

"तुम दोनों लापरवाह तो नहीं थे?" टण्डन ने दोनों को देखा।

"भूखे पेट सुबह के, दिन निकलने से पहले के खड़े हैं और तू कह रहा है हम झपकी ले रहे हैं।" पांडे उखड़ गया।

"मैंने ऐसा कब कहा ?” टण्डन जल्दी से बोला ।

"कहने का मतलब तो यही लगता है तेरा।" पांडे ने कड़वे स्वर में कहा।

हरबंस खामोशी से खड़ा इधर-उधर निगाहें घुमा रहा था।

“मेरे ख्याल में विजय हमारी सोच से कहीं ज्यादा समझदार है।" विनोद कुमार गम्भीर स्वर में कह उठा।

"ये बात तुम्हें बहुत पहले समझ जानी चाहिये थी। खैर, अब समझ में आ गई। यही बहुत है।" हरबंस बोला ।

"क्या मतलब?” दीपक ने विनोद कुमार को देखा।

"उसके पास मेरी कार थी और वो जानता था हम स्टैप्नी बदलकर, पुनः उसके पीछे आयेंगे। उस कार की वजह से वो आसानी से नजर में आ सकता था।” विनोद कुमार ने होंठ सिकोड़े कहा--- “ऐसे में उसने सबसे पहले कार छोड़ी होगी और किसी वाहन में लिफ्ट लेकर सुन्दर नगर पहुंच गया होगा।"

"ये हो सकता है।" हरबंस ने गहरी सांस ली।

"हो सकता है, वो अमर के हाथों में पड़ गया हो।" दीपक ने कहा।

"सर, अमर को मैंने देखा था।" महेश कह उठा--- "सोफिया उसके साथ थी। साथ में दो-तीन बदमाश टाईप के व्यक्ति थे। वो सवा-डेढ़ घंटा पहले, यहां से निकले थे।"

"इसका मतलब विजय और दीपाली उनके हाथ नहीं लगे।" टण्डन कह उठा।

"कल्पना भी उनके साथ होगी।" हरबंस ने महेश को देखा--- "मेरा मतलब कि एक और लड़की उनके साथ होगी।"

"नहीं।" पांडे सिर हिला उठा--- "जो बताया है, उसके अलावा कार में और कोई नहीं था।"

हरबंस ने फिर कुछ नहीं कहा।

“अब क्या किया जाये सर?" टण्डन ने पूछा।

"वो दोनों यकीनन सुन्दर नगर में प्रवेश कर चुके हैं।" विनोद कुमार ने कहा--- "सुन्दर नगर में ही उन्हें ढूंढना होगा। इस बीच अगर अमर-सोफिया कल्पना नजर आ जाते हैं तो उन पर नजर रखनी होगी। क्योंकि विजय दीपाली को इन लोगों से ही खतरा है। वो, इन लोगों के हाथ लग गये तो हम मौके पर उन्हें बचा सकते हैं। सावधानी के तौर पर तुम (दीपक), अंधेरा होने तक यहां रहोगे कि कहीं विजय और दीपाली अभी पीछे हों और आ रहे हों।"

“ठीक है सर मैं यहीं रहूंगा।"

विनोद कुमार, टण्डन, हरबंस, महेश और पांडे सुन्दर नगर में प्रवेश करते चले गये। महेश और पांडे के पास अपनी कार थी। फिर एक जगह इकट्ठे होकर विनोद कुमार ने सबको समझाया कि कैसे विजय-दीपाली या अमर, सोफिया, कल्पना को तलाश करने की कोशिश करनी है।

उसके बाद सब अलग होते चले गये।

हरबंस ने विनोद कुमार को देखा।

"तुम कहां जा रहे हो?"

"उन सब लोगों को तलाश करने। अकेले रहकर ये काम जल्दी और अच्छी तरह हो सकता है।"

“मतलब कि मैं भी अकेला जाऊं।"

“मैं जानता हूँ तुम घायल हो। लेकिन---।"

“घायल की बात नहीं है।" हरबंस बात काटकर कह उठा--- “मुझे यूं छोड़कर चले गये तो मुसीबत में पड़ जाऊंगा।"

"क्यों?"

"मैं तो यूं ही तुम्हारे आदमी के साथ उठकर आ गया हूँ। कपड़े अवश्य बदल लिए थे। लेकिन नोटों को जेब में डालना भूल गया था। खाली जेब हूं। उधार दे दो। वैसे दे दो। जैसे भी दो । दे दो। हिसाब बाद में होता रहेगा। और इतना तो जरूर दे देना कि दो-चार दिन का खर्चा चल जाये। कहोगे तो बाद में वापस दे दूंगा।”

"हजार दे दें?"

"हजार में तो सवा दिन ही निकलेगा। मेरे खर्चे जरा ज्यादा---।"

"मैं अपनी जेबों में नोटों की गड्डियां लिए नहीं फिर रहा।" कहते हुए विनोद कुमार ने पर्स निकालकर दो हजार रुपये उसे दिए--- "जब ये खत्म हो जायें तो बेशक वापस चले जाना! अगर उनमें से कोई मिल जाये तो मेरा मोबाईल का नम्बर नोट कर लो। खबर कर देना मुझे।”

"वो तो कर दूंगा। लेकिन दो हजार कम हैं। खींच-खांचकर काम चलाना पड़ेगा।" हरबंस ने नोट जेब में डालते हुए कहा ।

विनोद कुमार ने हरबंस को मोबाईल नम्बर दिया और कार आगे बढ़ा दी।

■■■

विजय और दीपाली एक मिन्नी ट्रक में लिफ्ट लेकर सुन्दर नगर में प्रवेश कर गये थे। तब शाम के चार बज रहे थे। वो ट्रक के पीछे की खाली जगह में बैठे थे। ऐसे में वो महेश और पांडे को तो बिल्कुल भी नजर नहीं आये थे।

ट्रक वाले ने सुन्दर नगर के भीतर, व्यस्त इलाके में उन्हें उतार दिया था।

"यहां हमें सावधान रहने की जरूरत है।" बेदी ने आसपास देखते हुए गम्भीर स्वर में कहा--- “वो प्राईवेट जासूस और अमर वगैरह सुन्दर नगर में ही हमें ढूंढ रहे होंगे। कोई मुसीबत खड़ी हो सकती है।"

"इस शहर से कहीं और निकल जायें?" दीपाली बोली ।

रात भर के जगे हुए हैं। दिन-भर भागदौड़ करते रहे हैं।" बेदी ने गहरी सांस ली--- "इस वक्त मुझे आराम की सख्त जरूरत है। रात यहीं बिताकर, कल सुबह किसी दूसरे शहर में निकल जायेंगे।"

“तो फिर किसी होटल में चलते हैं। वहां---।"

“होटलों में हमारे लिए खतरा हो सकता है।" बेदी फौरन कह उठा--- "जो लोग हमें तलाश कर रहे हैं। वो सुन्दर नगर में हमें तलाश करेंगे। सीधी-सी बात है, सबसे पहले होटलों में ही हमें ढूंढेंगे।”

दीपाली ने गम्भीरता से सिर हिला दिया।

"अभी दिन खत्म होने में काफी वक्त है। चार बजे हैं।" बेदी ने कहा--- "कहीं चाय पीते हैं। कुछ खा भी लेंगे। इस बीच ये सोचते है कि रात कहां बितानी है।"

"जो भी करो। मेरी मंजूरी तुम्हारे साथ है।" एकाएक दीपाली ने मुस्कराकर उसका हाथ थाम लिया।

रेस्टोरेंट में कॉफी के साथ थोड़ा-बहुत खाया।

"विजय!" दीपाली ने सोच भरे स्वर में कहा--- “यहां से पापा को फोन करूं?"

बेदी की निगाह, दीपाली के चेहरे पर जा टिकी।

"मैं समझा नहीं।"

"मैं यहां से पापा को फोन करती हूं। तीन-चार घंटों में पूरे इन्तजाम के साथ वो यहां होंगे हमारे पास और कोई भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। और ये तीन-चार घंटे हम कहीं भी बिता सकते हैं।"

बेदी ने सिग्रेट सुलगाकर कश लिया।

"अगर तुम ऐसा करना ठीक समझती हो तो कर सकती हो।" बेदी ने कहा।

"मैं तुम्हारी राय जानना चाहती हूं।"

"ऐसा करना बुरा नहीं। अपने पापा से कहना, बदमाशों से तुम्हें बचाने का पक्का इन्तजाम करके आयें।”

“पापा ये बातें मुझसे ज्यादा समझते हैं। आओ, कहीं से फोन करते हैं।"

'बिल' पे करके दोनों रेस्टोरेंट से बाहर आये और आगे बढ़ते हुए एस०टी०डी० बूथ की तलाश में नजरें दौड़ाने लगे। सूर्य पश्चिम की तरफ बढ़ता जा रहा था।

"तुम देखना विजय! पापा को फोन करते ही सब ठीक हो जायेगा।” दीपाली के स्वर में विश्वास के भाव थे।

बेदी ने कुछ नहीं कहा।

कुछ ही देर में उन्हें एस०टी०डी० बूथ नजर आया।

दीपाली ने वहां से दूसरे शहर अपने घर फोन किया। रिसीवर सुखवंत राय ने ही उठाया।

"पापा!" सुखवंत राय की हैलो सुनते ही दीपाली कह उठी--- "आप कैसे हैं पापा ?"

“बेटी!" सुखवंत राय की तड़प भरी आवाज दीपाली के कानों  में पड़ी--- "तुम कहां हो बेटी ? कैसी हो? ठीक तो हो? मैं तुम्हारी तलाश में जाने कहां-कहां !"

"मैं ठीक हूं पापा! विजय मेरे साथ है।" दीपाली खुशी से कह उठी।

"कौन विजय ?"

"विजय बहुत अच्छा लड़का है। उसने ही मुझे बदमाशों से बचाया और अब भी बचा रहा है। बदमाश अभी भी मेरे पीछे हैं। हम उनसे बचते फिर रहे।"

"तुम कहां हो बेटी ? मैं अभी आता---।"

"मैं सुन्दर नगर में हूं पापा।"

“सुन्दर नगर ? वहां कैसे?"

"पापा ये बातें बाद में मालूम कर लेना। आप सुन्दर नगर आ जाईये कि बदमाश मेरा कुछ न बिगाड़ सकें।”

"तुम्हें कुछ नहीं होगा। मैं आता हूं। तुम किसी पुलिस स्टेशन में चली जाओ। वहां---।"

"पापा! कोई और जगह बता दीजिये। मैं, विजय के साथ वहीं मिलूंगी। आप कितने बजे यहां आ जायेंगे?"

"मैं नौ बजे तक सारे इंतजाम के साथ सुन्दर नगर पहुंच जाऊंगा। तुम ठीक नौ बजे मुझे सुन्दर नगर के घंटा घर के पास मिलना। ठीक नौ बजे।" सुखवंत राय की आवाज, दीपाली के कानों में पड़ी।

"ओ०के० पापा।”

“अपना ध्यान रखना। और---।"

"मेरी फिक्र मत कीजिये। विजय मेरे साथ है। बाय पापा।" कहने के साथ ही दीपाली ने रिसीवर रख दिया।

बेदी ने फोन का 'बिल' दिया और दीपाली के साथ बाहर आ गया।

"विजय!" दीपाली चलते-चलते उसकी बांह पकड़कर कह उठी--- "अब सब ठीक हो जायेगा। रात को नौ बजे पापा सारे इन्तजाम के साथ सुन्दर नगर के घंटा घर पर मिलेंगे और हमें वापस ले जायेंगे। ये मुसीबत वाला वक्त खत्म हो जायेगा। सुनो मैं तुमसे अलग नहीं होना चाहती।"

"तो क्या मुझे अपने यहां नौकर रखना चाहती हो?” बेदी मुस्करा पड़ा।

"कैसी बातें करते हो। मैं-मैं तुम्हारे साथ शादी करूंगी। तुम--।"

कहते-कहते दीपाली के होंठ बंद हो गये। वो रुक गई।

बेदी भी ठिठका।

"क्या हुआ ?"

"वो-वो सामने।" दीपाली ने सूखे होठों पर जीभ फेरी। चेहरे पर घबराहट आ गई थी--- "वो बदमाश मुझे देख रहा है, और उसके साथ खड़ी औरत सोफिया है शायद। होटल वाले लड़के ने ऐसा ही हुलिया बताया था। कपड़े भी यही बताये। मैंने ठीक बोला न विजय देखो-देखो उधर।"

बेदी की निगाह उस तरफ उठ चुकी थी।

वो सोफिया ही थी। जो एक बदमाश के साथ खड़ी इधर ही देख रही थी। वो उसी तरफ बढ़ रहे थे। जिधर सोफिया खड़ी थी। बेदी की नजरें सोफिया की चमक भरी नजरों से टकराई।

बेदी के चेहरे पर कठोरता उभरने लगी।

"ये-ये सोफिया ही है ना, विजय ?" दीपाली ने सख्ती से पकड़ी उसकी बांह हिलाई।

"हां।" बेदी के दांत भिंच गये।

“ये-ये मुझे पकड़ लेंगे। मुझे---।"

"कुछ नहीं होगा तुम्हें।" बेदी की आवाज में सख्त और कठोर भाव झलक उठे--- "ये तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे।"

"मुझे-मुझे डर लग रहा। देखो--- वो इधर ही आने लगे हैं। प्लीज विजय! भागो।" दीपाली ने हड़बड़ाकर कहा।

"खड़ी रहो। सरे बाजार में वो तुम पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर सकेंगे।"

सोफिया और वे बदमाश पास आकर ठिठके । सोफिया मुस्कराई।

"हैलो विजय! कई दिन के बाद हमारी मुलाकात हुई।" सोफिया की आवाज मुस्कराहट से भरी थी ।

बेदी, सोफिया को देखता रहा।

“शायद तुम जानते हो कि हमें तुम्हारी, खासतौर से दीपाली की तलाश है।" सोफिया ने उसी लहजे में कहा।

“सब जानता हूं मैं।" बेदी ने शब्दों को चबाकर कहा।

“गुस्सा क्यों करते हो।" सोफिया वैसे ही मुस्कराई--- “कितना पैसा इससे ले हो, इसे बचाने का?"

“ये मेरा पर्सनल मामला है। तुम्हें कुछ कहने-बताने की जरूरत नहीं समझता।" बेदी ने पूर्ववतः स्वर में कहा।

“तुम महंगा सौदा करने वाले नहीं लगते। महंगी मुर्गी का, सस्ते में ही सौदा करोगे।" सोफिया ने मुस्कराते हुए पक्के स्वर में कहा--- "मेरे साथ रहोगे तो ज्यादा कमा लोगे। हम मिलकर भी काम कर सकते हैं।"

"मैं अकेला ही बहुत हूं और इसे बचाने का जो ले रहा हूँ, वो बहुत है मेरे लिए।"

"पागलों वाली बातें मत करो। हमारे साथ मिल जाओ। मेरे ख्याल में तुमने अपनी हिम्मत से बड़े काम में हाथ डाल लिया है। इस मामले को मुकाम तक नहीं पहुंचा सकोगे। हम तुम्हें कामयाब होने ही नहीं देंगे। दीपाली हमारे कब्जे में आ चुकी समझो। अभी भी वक्त है। हमारे साथ मिल जाओ। वरना खाली हाथ रह जाओगे।"

"तुममें इतनी हिम्मत नहीं कि दीपाली को मुझसे छीन सको।" बेदी ने दांत भींचकर कहा--- "वैसे भी ये भरा-पूरा बजार है। उल्टी हरकत की तो बच नहीं सकोगी।"

सोफिया का चेहरा सख्त हुआ, परन्तु मुस्करा रही थी वो।

"तुम इस बात से इन्कार करो कि दीपाली को मेरे हवाले नहीं करोगे। या हमारे साथ नहीं मिलोगे।” सोफिया के शांत शब्दों में कठोरता आ गई थी--- "तब तुम्हें मेरी हिम्मत का अंदाजा भी हो जायेगा।"

"तुम लोग दीपाली को हाथ भी नहीं लगा सकते।" बेदी के स्वर में गुस्से से भरे, खतरनाक भाव आ गये।

"शेरा!” सोफिया भिंचे दांतों से बोली--- “दीपाली को अपने कब्जे में ले लो। अगर ये तुम्हारे काम में अड़चन डालने की चेष्टा करे तो खत्म कर दो इसे "

पास खड़े खतरनाक नजर आने वाले शेरा ने जेब में हाथ डाला। चाकू निकाला और उसे खोला। लम्बा फल चमक उठा। शेरा के चेहरे पर दरिन्दगी आ गई थी। आसपास से निकलने वाले लोगों ने ये सब देखा तो घबराकर वो वहां से दूर होने लगे ।

बेदी के दांत भिंच चुके थे। खा जाने वाली निगाहों से वो शेरा को देखने लगा था।

दीपाली का चेहरा फक्क पड़ गया था।

“वि-विजय ! ये-ये हमें नहीं छोड़ेंगे। मुझे फिर अपने साथ ले जायेंगे और बरबाद कर देंगे। इनसे बचा लो मुझे। मैं-मैं-भागो विजय! ये---।"

तब तक शेरा आगे बढ़ने लगा था। खुला चाकू मुट्ठी में दबा था।

दो कदमों के फासले पर शेरा ठिठका और दरिन्दगी से बोला ।

"छोकरी को हमारे हवाले कर दे।"

उसी पल बेदी ने झपट्टा मारा और उसकी चाकू वाली कलाई पकड़कर उसके पेट में पूरी ताकत के साथ घुटना मारा। बदमाश को ऐसे हमले की आशा नहीं थी। वो कराहकर दोहरा हो गया। उसने भरपूर कोशिश की कि चाकू वाली कलाई को आजाद करा सके, परन्तु बेदी ने उसकी कलाई नहीं छोड़ी और दीपाली से बोला।

"भाग दीपाली यहां से।" चेहरा कठोर हो चुका था।

"लेकिन---।" दीपाली ने कहना चाहा।

“मैंने कहा है, भाग।” बेदी ने दांत भींचकर कहा--- "कुछ घंटे के लिए खुद को इनसे बचाकर रख। उसके बाद तुम्हें लेने वाले आ जायेंगे। ठीक वक्त पर वहीं पहुंच जाना।"

"लेकिन मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा---।”

"बेवकूफ ! जल्दी भाग। इनके और साथी भी आ सकते हैं।" बेदी ने गुस्से से झल्लाकर कहा--- “मैं तुमसे जल्दी मिलूंगा।"

"पक्का मिलोगे?" दीपाली ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"हां। भाग जा यहां से।"

दीपाली पलटी और तेजी से भागी ।

लोग घबराये से अपनी-अपनी जगहों पर खड़े ये सब देख रहे थे।

बदमाश ने गुर्राकर अपना चाकू वाला हाथ छुड़ाना चाहा तो बेदी ने पुनः घुटना उसके पेट में मारा। इसके साथ ही उसके हाथ से चाकू छीनने की कोशिश की। लेकिन बदमाश ने चाकू नहीं छोड़ा।

दीपाली को भागते पाकर, सोफिया जल्दी से उसके पीछे भागी।

ज्योंहि वो बेदी के पास से गुजरी। बदमाश की कलाई दबाये, बेदी ने सोफिया की टांगों में टांग फंसा दी। सोफिया लड़खड़ाकर पेट के बल फुटपाथ पर जा गिरी। होंठों से चीख निकल गई। इसके साथ ही बेदी ने फुर्ती से कपड़ों में छिपा चाकू निकाला और खतरनाक स्वर में कह उठा।

"उठने की कोशिश मत करना सोफिया ! वरना चाकू चल जायेगा। और तुम भी।" बेदी ने वहशी निगाहों से बदमाश को देखा--- “अपनी कलाई छुड़ाने या किसी तरह की हरकत करने की कोशिश की तो समझ जा, क्या हो जायेगा।" कहने के साथ ही बेदी ने हाथ में दबे चाकू को हवा में लहराया।

बेदी के हाथ में चाकू देखकर, नीचे पड़ी सोफिया की उठने की हिम्मत नहीं हुई ।

शेरा भी इस वक्त कुछ न कर पाने के लिए, खुद को बेबस महसूस कर रहा था।

दो मिनट इसी तरह बीत गये तो बेदी ने मन ही मन राहत की सांस ली कि दीपाली को यहां से दूर जाने के लिए इतना वक्त बहुत है। चंद घंटों की बात है। उसके बाद घंटा घर पर सुखवंत राय से, अपने पापा से मुलाकात कर लेगी और सुरक्षित हो जायेगी।

"चाकू छोड़ दो।" बेदी ने हाथ में दबा चाकू शेरा के पेट से लगा दिया।

शेरा ने मुट्ठी खोल दी। चाकू नीचे गिर गया।

"जानता है मुझे?" बेदी ने अपनी आवाज में दूसरे के मन में खौफ पैदा करने वाले भाव भर लिए थे।

"नहीं।" शेरा बोला।

"जानता होता तो मेरे सामने सिर झुकाकर खड़ा होता । चाकू निकालने की सोचता भी नहीं।" उसी लहजे में कहते हुए उसने नीचे पड़ी सोफिया की कमर में ठोकर मारी--- “मालूम है तेरे को, मैं कौन हूं?"

"न-नहीं।" सोफिया के होंठ खुले ।

बेदी ने शेरा की कलाई छोड़ी और चाकू बंद करके कपड़ों में छिपाता हुआ बोला ।

"खड़ी हो जा।"

सोफिया जल्दी से खड़ी हो गई। उधर देखा। जिधर दीपाली गई थी। दीपाली ने भला कहां नजर आना था।

"बंदा देखकर टक्कर लिया कर।" बेदी ने सोफिया को घूरते हुए खतरनाक स्वर में कहा--- “मेरे बारे में तू न ही जाने तो अच्छा हैं। जा यहां से। इस बार तो जिन्दा छोड़ रहा हूं। दोबारा रास्ते में आई तो सिर से लेकर नीचे तक काट दूंगा।" कहने के साथ ही बेदी पलटा और तेजी से आगे बढ़ता चला गया। जिधर दीपाली गई थी।

सोफिया और शेरा की गुस्से भरी निगाहें मिलीं।

"मैडम! ये---।"

“जाने दो इसे।" सोफिया ने शब्दों को चबाकर कहा--- "हमें नहीं मालूम कौन है ये और न ही जानने की जरूरत है। ये वक्त झगड़े में पड़ने का नहीं है। दीपाली की जरूरत है हमें। उसे ढूंढना है। वो ज्यादा दूर नहीं गई होगी।"

“अमर साहब आ रहे हैं।" शेरा की निगाह घूमी तो उसके होंठों से निकला।

सोफिया ने उधर देखा । अमर के साथ एक बदमाश भी था।

“यहां क्यों खड़े हो ? दीपाली को---।" पास पहुंचते ही अमर ने कहना चाहा।

सोफिया ने पांच मिनट पहले की सारी बात बताई।

सुनते ही अमर के दांत भिंच गये।

“तुम दोनों मिलकर विजय पर काबू नहीं पा सके।" अमर ने दांत किटकीटाकर कहा।

“उस वक्त तुम भी होते तो कुछ नहीं कर सकते थे।" सोफिया ने भिंचे स्वर में कहा--- "जहां तक मेरा ख्याल है, विजय कोई आम इन्सान नहीं है। मुझे तो वो खेला-खाया खतरनाक इन्सान लगा है।"

"मैं निपट लूंगा उससे। दीपाली किस तरफ गई है?" अमर ने अपना गुस्सा दबाते हुए पूछा।

"उस तरफ---विजय भी उसी तरफ गया है।"

"आओ। दीपाली ज्यादा दूर नहीं गई होगी।" अमर ने कहा और उधर बढ़ गया।

सोफिया-शेरा और दूसरा बदमाश उसके पीछे हो गये।

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